‘गैरसरोकारी बनाम गैरसरकारी संगठन!’

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वेदांता कंपनी का विरोध करते सामाजिक कार्यकर्ता

इस समय गैरसरकारी या स्वयंसेवी संगठनों (एनजीओ) की भूमिका पर बड़ी बहस छिड़ी है. इस पूरी बहस में एनजीओ के समर्थक और विरोधी दोनों पक्षों की राय में बड़ी दिलचस्प समानता है. वह यह कि इन दोनों की ही बातें काफी बड़ी-चढ़ी हैं. जबकि असलियत में विदेशी चंदे से चलने वाले सारे के सारे एनजीओ किसी अलग एजेंडे को लेकर काम नहीं कर रहे हैं तो वहीं जो कुछ ठीक-ठाक काम कर रहे हैं उन्हें भी एकतरफा छूट नहीं दी जा सकती. साफ-साफ कहा जाए तो यह ऐसा मसला नहीं है जिसपर इतनी आसानी से विश्लेषणकर नतीजे निकाल लिए जाएं जैसा कि पिछले दिनो इंटेलीजेंस ब्यूरो (आईबी) की रिपोर्ट से जाहिर हुआ. दरअसल विदेशी चंदे से चलने वाले इन संगठनों को सीधे-सीधे ‘राष्ट्र विरोधी’ कह देना हमारी उस मानसिकता को मजबूत करता है जहां हम घरेलू हलचलों में तुरंत विदेशी हाथ देख लेते हैं, जबकि बुनियादी रूप से गलती नीति निर्धारकों या सरकार की होती है.

पिछले दिनों केंद्र सरकार ने कुडानकुलम में परमाणु विद्युत परियोजना का विरोध कर रहे संगठनों के खाते सील कर दिए. सरकार का यह कदम पाखंड के अलावा कुछ नहीं है. देश में और भी कई संगठन हैं जो विदेशी चंदे पर फल-फूल रहे हैं. लेकिन सरकार की नजर इनपर नहीं है. कहा जाता है कि इनमें से बहुत से सरकार के करीबी हैं. किसी कंपनी द्वारा एनीजीओ के जरिए अपने हित पूरे करने और कुछ अन्य लोगों द्वारा संगठनों की आड़ में अपना प्रभाव फैलाने के बीच एक बहुत महीन रेखा है. लेकिन हर परिस्थिति में दांव पर बड़ी चीजें हैं. ‘एडवोकेसी’ या ‘विकास’ के नाम पर विदेशों से जो पैसा संगठनों को मिल रहा है जाहिरतौर पर उसका उद्देश्य बड़े बदलाव लाना है.

केंद्र ने भले ही अभी संगठनों को मिलने वाले विदेशी चंदे पर भारी हो-हल्ला मचाया हो लेकिन उसका अतीत बताता है कि वह कभी इस विषय पर गंभीर नहीं रहा. सरकारों के पास आज तक इसका पक्का अनुमान नहीं है कि गैरसरकारी संगठनों को विदेशी संस्थानों से चंदे में हर साल कितना धन मिलता है. कहा जाता है कि भारत में इस समय तकरीबन 35 लाख एनजीओ काम कर रहे हैं. यानी 400 लोगों पर एक. इस क्षेत्र को मिलने वाले पैसे का अनुमान तो और भी अनिश्चित है. माना जाता है कि हर साल इस क्षेत्र को कम से कम 40 हजार करोड़ रुपये से लेकर 80 हजार करोड़ रुपये मिलते हैं. तीन साल पहले की एक रिपोर्ट के मुताबिक उस समय दिल्ली में काम कर रहे गैरसरकारी संगठनों को सबसे ज्यादा पैसा मिला था. इन्हें 5,800 करोड़ रुपये मिले थे. वहीं दूसरे स्थान पर तमिलनाडु के संगठन थे जिन्हें कुल मिलाकर 4,800 करोड़ रुपये मिले थे.

देश में ऐसे एनजीओ की कमी नहीं है जो सरकार को धोखा देने के लिए अपने अंतर्गत कई अलग-अलग नाम से संगठन चलाते हैं और उनके लिए मिला पैसा अपने खाते में जमा करते हैं. आईबी की हालिया रिपोर्ट के बारे में यही कहा जा सकता है कि इसके माध्यम से उसने हल्ला-गुल्ला मचानेवाले दक्षिणपंथी गुटों को शांत करने की कोशिश की है. लेकिन यह काम आनन-फानन में किया गया. बिना किसी पूर्व तैयारी के. गृहमंत्रालय में एक अलग शाखा होती है जिसका काम ही है कि वह विदेश से आ रहे धन पर नजर रखे. मंत्रालय संदिग्ध गतिविधियों में लिप्त रहने वाले ऐसे संगठनों को हर साल काली सूची में डालता है. आज से 25 साल पहले राजीव गांधी सरकार में जब चिदंबरम मंत्री थे और उसके बाद इस साल उनके मंत्री रहने तक ऐसे संगठनों की संख्या तीन गुना तक हो गई है. यह भी हास्यास्पद है कि सरकार एक से ज्यादा बार यह स्वीकार कर चुकी है कि प्रतिबंधित संगठन कई बार प्रतिबंध के बाद भी विदेशी संस्थानों से चंदा लेने में कामयाब हो जाते हैं.

रिपोर्टें बताती हैं कि विदेशों से सबसे ज्यादा चंदा जिन भारतीय संगठनों को मिलता है उनमें अंतरराष्ट्रीय आर्थिक अनुसंधान परिषद (आईसीआरआईईआर) पहले स्थान पर है. इसे 2007 से 2012 तक एशियायी विकास बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और सासाकावा पीस फाउंडेशन जैसे संगठनों से 11.5 करोड़ रुपये मिले. इसके अलावा कई दूसरे थिंक टैंकों को भी विदेशों से डोनेशन मिलता है. ये अपनी-अपनी विचारधारा में अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन सरकार की कार्रवाई से एक बात साफ है कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या उससे संबद्ध किसी संगठन के प्रति ऐसी कार्रवाई नहीं कर सकती जबकि इनमें से भी बहुतों को विदेशों से भारी पैसा मिलता है.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सबसे बड़ी दानदाता संस्थाओं में फोर्ड फाउंडेशन, गूगल फाउंडेशन, इंटरनेशनल डेवलपमेंट रिसर्च सेंटर, हेवलेट फाउंडेशन, इकॉनॉमिक एंड सोशल रिसर्च काउंसिल आदि हैं. आज से लगभग तीन दशक पहले तक विदेशी चंदा गरीबी उन्मूलन या झुग्गी-झोपड़ी विकास के कामों के लिए मिलता था. लेकिन आज इसका दायरा बहुत विस्तृत हो गया है. अब इसमें राष्ट्रीय विकास परियोजनाओं से जुड़े काम जैसे- बांध या परमाणु ऊर्जा परियोजनाएं भी शामिल हैं. थिंक टैंकों या सरकारी संगठनों के बारे में एक बात यह भी कही जा सकती है कि वे भले यह आरोप लगाते रहे हैं कि सरकार का काम पारदर्शी नहीं है लेकिन इनके बारे में भी लगभग यही बात कही जा सकती है.

ब्राजील के प्रसिद्ध समाजशास्त्री और बुद्धिजीवी जेम्स पेत्रास ने विकासशील देशों में काम कर रहे गैरसरकारी संगठनों का काफी अध्ययन किया है. उनके मुताबिक ये लोकप्रिय सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों पर सवार होकर अपना प्रभाव बढ़ाते हैं और उन आंदोलनों को जमीनी स्तर पर फैलने से रोकते हैं. इन संगठनों का मकसद अपनी पहुंच उन क्षेत्रों तक बढ़ाने की होती है जहां पहले से उग्र सुधारवादी आंदोलन चल रहे हैं. इन देशों में ऐसे सैकड़ों विवादित संगठन हैं जो विदेशी चंदे पर चल रहे हैं और अपना प्रभाव बढ़ाकर जनोन्मुखी परियोजनाओं को रोकने का काम कर रहे हैं. ये अपनी संबंधित सरकारों के हितों में यथास्थिति बनाए रखने के लिए काम करते हैं. आमतौर पर राजनीतिक प्रतिष्ठान परंपरागत वामपंथी विधारधारा से थोड़ा अलग जाकर जनता के बीच काम करने वाले संगठनों को माओवादी या वामपंथी उग्रवादी करार दे देते हैं. इसी लीक पर चलते हुए मीडिया भी जनता के बीच चल रहे असली आंदोलन को दबा देती है.

एक उदाहरण हमारे पड़ोसी बांग्लादेश से है. वहां लगभग ढाई दशक पहले एक सामाजिक कार्यकर्ता और पेशे से डॉक्टर जफारुल्लाह चौधरी ने राष्ट्रीय दवा नीति का खाका तैयार किया था. इसका मकसद था कि गरीब से गरीब व्यक्ति को भी जरूरी दवाएं आसानी से मिल सकें. लेकिन जल्दी ही उनको निशाना बनाया जाने लगा. उनके खिलाफ कई केस शुरू हो गए. आखिर में इस नीति को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. इस सबके पीछे बहुराष्ट्रीय कंपनियां और विदेशी डोनेशन से चलने वाले गैरसरकारी संगठन ही थे. विकासशील देशों में ऐसे उदाहरणों की भरमार है जहां जनोन्मुखी कार्यक्रमों या आंदोलनों को विदेशी चंदा पाने वाले संगठनों ने अपनी-अपनी संबंधित सरकारों के इशारों पर खत्म कर दिया. हालांकि सभी संगठनों को एक ही नजर से देखना पक्षपाती रवैया होगा. ऐसा ही कुछ इस समय मोदी सरकार और आईबी कर रहे हैं. कई सामाजिक क्षेत्रों में बदलाव लाने में इन संगठनों ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. ऐसे में इन संगठनों पर कार्रवाई के लिए अतिरिक्त सतर्कता बरतना जरूरी है. हम इस तथ्य से भी इनकार नहीं कर सकते कि जमीनी स्तर पर सामाजिक बदलाव लाने की दिशा में सरकार और कॉर्पोरेट क्षेत्र की भूमिका ऐसी नहीं रही है जिसे आदर्श कहा जा सके. फिर हमारे यहां रतन टाटा और अजीम प्रेमजी जैसे लोग भी संख्या में इतने नहीं हैं कि दहाई का आंकड़ा पा सके. विदेशी चंदे से चलने वाली एनजीओ पर एकतरफा प्रतिबंध काफी नुकसानदेह साबित हो सकता है क्योंकि हमारे यहां इस खाई को पाटने के लिए चंदा देने वाले भारतीयों की संख्या इतनी ज्यादा नहीं है.

जहां तक एनजीओ की बात है, चाहे वे विदेशी चंदे से चलते हो या नहीं, उन्हें इस बहस की दिशा खुद तय करनी होगी. सरकार इस दिशा में अपना पक्ष अपने हिसाब से रख सकती है जिसके जवाब में गैरसरकारी संगठनों को अपनी बात कहने के लिए उतनी ही मजबूती से आगे आना होगा.