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पत्थरों की कथाएं

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‘देख न! कितने दिनों से बीचोबीच में पड़ा हूं…’

‘भई अपनी-अपनी किस्मत है.’

‘मुझे हमेशा डर लगा रहता है…’

‘किस बात का?’

‘कोई लात न मार दे!’

‘डर मत यार!’

‘मुझसे पूछो, हर पल एक खटका सा लगा रहता है, अब पड़ी कि तब पड़ी!’

‘हूं… सब जानता हूं, तेरी ही तरह कभी बीचोबीच में मैं भी पड़ा हुआ था…’

‘मैं तो दिन-रात यही दुआ करता रहता हूं कि कोई हाथ मुझे उठा कर किनारे रख दे! कसम से मैं तो उस हाथ को चूम लूंगा.’

‘हा हा हा…’

‘तू हंस क्यों रहा है?’

‘तेरी मासूमियत पर!’

‘समझा नहीं…’

‘चूमने की छोड़! तुझे किनारे पर आना है न!’

‘नेकी और पूछ-पूछ!’

‘तो दुआ करना छोड़ दे!’

‘ये क्या उल्टी गंगा बहा रहा है..’

‘जो कह रहा हूं वो कर! यह मैं नहीं मेरा अनुभव बोल रहा.’

‘तू किनारे कैसे पहुंचा!’

अभी दूसरा पत्थर जवाब देता कि ठक! से एक आवाज हुई. सड़क के बीचोबीच पड़ा हुआ पत्थर लुढ़कता हुआ किनारे आ गया. अब एक इस पार तो दूसरा उस पार था.

‘गुरु, मैं तुम्हारे पैर छूना चाहता हूं…’

‘अक्ल पर पत्थर पड़ गया है क्या!’

‘नहीं सच में! मैंने तुम्हें आज से अपना गुरु माना लिया है!’

‘तो मेरे नहीं, उस पैर के पैर छूओ जिसने तुझे तेरी मंजिल तक पहुंचाया!’

‘पैर ने नहीं, ठोकर ने!’

‘ठोकर लगते ही अक्ल आ गई बच्चू!’

‘नहीं-नहीं, अक्ल ठिकाने लग गई…’

कथा (2)

‘तुम!’

‘तुम!’

‘देखता ही रहेगा कि गले मिलेगा!’

‘ऐसे माहौल में!’

‘ये तो रोज का ड्रामा है!’

‘तो आ जा!’

‘गले मिलकर अब दिल में ठंडक पहुंची.’

‘सोचा न था कभी ऐसे मिलेंगे!’

‘हां… और ऐसे माहौल में…’

‘अच्छा ये बता कहां था इतने दिनों तक!’

‘मैं… मैं एक मूर्ति में रह रहा था!’

‘अच्छा-अच्छा!’

‘और तू!’

‘मैं एक गुम्बद में था…’

कथा (3)

‘कहां तू कहां मैं!’

‘क्यों क्या हुआ!’

‘मैं शिवालय की शोभा बनूंगा! मुझ पर चंदन-रोली-बेलपत्र-दूध चढ़ाया जाएगा.’

‘हां तो!’

‘देख मेरा भाग्य!’

‘भाग्य! यह तो अवसर की बात है. तुझे अवसर मिला तो तू शिखर पर जा विराजा और मुझे अवसर नहीं दिया

गया तो मैं पद दलित रहा.’

‘मेरे मुंह मत लग म्लेछ!’

‘तू जितना इठला ले, मगर इस सच को झुठला नहीं पाएगा!’

‘कौन-सा सच!’

‘यही कि मूलत: हम दोनों पत्थर ही हैं.’

‘अपने भीतर का कायर मार देना चाहिए’

लखनऊ से अहमदाबाद के लिए सीधे ट्रेन नहीं मिल पाई थी, सो ब्रेक जर्नी ही एक रास्ता था. लखनऊ से दिल्ली और दिल्ली से अहमदाबाद जाना तय किया था हमने. हम पीएचडी में एडमिशन के बाद यूनिवर्सिटी ज्वाइन करने जा रहे थे, हम तीन लोग थे पर मैं बिलकुल अकेला ही था. वे दोनों अपने आप में मगन थे और मैं अपने आप में मस्त. बाहर का नजारा भी ट्रेन की ही रफ्तार से ट्रेन की उल्टी दिशा में भाग रहा था. मैं न जाने कब सो गया. दिल्ली आने वाला था, सुबह के तकरीबन छः बजे थे और लाल किला एक्सप्रेस, लाल किले के पीछे से गुजर रही थी. पटरियों के किनारे बसी बस्तियों में घरों के भीतर तक हमारी निगाहें घुस चुकी थी. कहने के लिए तो उन झोपड़ियों में दीवारें थी पर सबकुछ दिख रहा था. उनका सोना, रोना, लड़ना, नहाना, धोना सबकुछ बेपर्दा था. जिंदगी का बेपर्दा होना कैसा होता है मैंने पहली बार वहीं महसूस किया था. निजता जैसा कोई शब्द उन झोपड़ी में रह रहे लोगों ने शायद ही कभी सुना हो. जिंदगी वहां शर्म के बंधनों से आजाद थी, या यूं कहें उनकी और हमारी शर्म की परिभाषा में बहुत बड़ा अंतर था. जो हमारे लिए शर्म है उनके लिए क्या हैं मैं नहीं जनता, पर शर्म बिलकुल नहीं है. जिंदगी जीने के जज्बे, जरूरत, या मजबूरी (आप जो भी कहना चाहें) के आगे शर्म बहुत छोटी चीज होती है.

आंखों में समाई लाल किले की सूरत, कचरे में बचपन गुजारते और रोटी तलाशते बच्चों की तस्वीर के आगे फीकी पड़ गई थी. लाल किले की प्राचीर से चढ़कर भाषण देते प्रधानमंत्री को शायद ये बच्चे कभी नहीं दिखते होंगे. नहीं तो उन्हें भी उतनी ही निराशा होती जितनी मुझे हो रही थी. मैं पूरे यकीन के साथ कह सकता हूं कि जब वे लाल किले की प्राचीर से देश को संबोधित कर रहे होते होंगे, डाइस के पीछे उनके पैर, ये झूठे और बेमानी शब्द बोलते हुए कांपते होंगे.

खैर देश के प्रधानमंत्री के बारे में सोचते-सोचते मैं रेल में सवार आगे बढ़ ही रहा था कि तभी मेरी नजर कचरे के ढेर के बीच करीब 14-15  साल के लड़के-लड़कियों पर पड़ी. वे प्रयोगशाला में विज्ञान के प्रयोग करने की उम्र में कचरे के ढेर में शरीर के प्रयोग कर रहे थे. सुबह जब उनकी उम्र के कई बच्चे हाथ में किताबें थामें तेज आवाज में वर्ड मीनिंग, पहाड़ा, और गणित के सूत्र रट रहें होंगे, वो जिंदगी की बेजान और बेरंग तस्वीर में एक फीका-सा रंग भरने में लगे थे. वो रंग जो अशिक्षा, बेरोजगारी, गरीबी, कुंठा और नशे में रंगीन लगता है, पर है बिलकुल भी नहीं. वहां पहली बार लगा कि इनके लिए जीवन महज भूख भर बचा है, पर ऐसा कैसे हुआ और किसने किया? सवाल गहराता गया और मैं डूबता गया. जब थोड़ा निकला तो पाया कि पुरानी दिल्ली स्टेशन आ चुका था.

‘मैं अभी कुछ फीम बेचते हो समझ पाता कि पुलिसवाले ने कहा कि चलो हवालात, मैंने पूछा किस जुर्म में? तो उसने कहा कि गांजा-असाले!’

अहमदाबाद के लिए ट्रेन 8 घंटे बाद थी सो फ्रेश हो कर और कुछ देर आराम करने के बाद दिल्ली घूमने को बाहर निकल पड़ा. अभी सीढ़ी से बाहर की ओर निकल ही रहा था कि देखा पुलिसवाले ने दो अधेड़ों के साथ एक 14-15 साल के बच्चे को किनारे कर रखा था और उनकी मां-बहनों को इज्जत दे रहा था. मैं कुछ साफ समझ पता कि उसने उस बच्चे की मुट्ठी में बंद पसीने में डूबा, तुड़ा-मुड़ा 500 रुपये का नोट छीन लिया और उसे डांट कर भगा दिया. मैंने बढ़कर बच्चे से पूछा तो उसने बताया कि वह अपने पिता के मरने के बाद घर का खर्च चलाने के लिए, गांव के कुछ लोगों के साथ मजदूरी करने आया है. ये रुपये उसकी मां ने उसे काम न मिलने तक अपना पेट भरने के लिए दिए थे. जिसे पुलिसवाले ने छीन लिया. ये कहते हुए वो बच्चा रोने लगा. तभी पीछे से पुलिसवाला आ गया. उसने बच्चे को एक लाठी जमाई और कहा कि ‘अबे! जाता है कि हवालात ले चलूं!…’ लड़का सकपका के आंसू पोछते हुए चला गया. मैं अभी कुछ समझ नहीं पाया था कि पुलिसवाले ने मुझसे कहा कि चलो हवालात, मैंने पूछा किस जुर्म में? उसने कहा कि गांजा-अफीम बेचते हो साले! और रंगबाजी दिखाते हो, उसने हवा में लाठी तान ली! मुझे डरना नहीं चाहिए था पर मैं डर गया. मेरे दिमाग में संविधान की प्रस्तावना से लेकर लोकतंत्र की परिभाषा तक सबकुछ अचानक नाच गया. मैं, हम भारत के लोग… या जनता द्वारा जनता के लिए जनता की सरकार… जैसा कुछ बोलना चाहता था. पर मैंने सकपकाते हुए कहा कि महोदय मैं पत्रकार हूं और फिलहाल जनसंचार विषय में शोध कर रहा हूं. आप मुझे गलत समझ रहे हैं. उस हवलदार को जैसे मेरे पत्रकार होने ने भीतर से रोक दिया हो, पर उसके मुंह से गाली नहीं रोक सका. उसने मेरी मां और बहन की तारीफ की और भाग जाने को कहा. मैं वहां से नहीं जाना चाहता था. और वहीं पर अब्राहम लिंकन, नेल्सन मंडेला, गांधी या अन्ना हो जाना चाहता था. मैं संविधान और लोकतंत्र की दुहाई देना चाहता था. मैं वहां अपनी आजादी जीना चाहता था पर मैं वहां से चुपचाप चला आया.

उस वक्त मैंने पाया मेरा कुछ हिस्सा वहीं हवलदार के मुंह से निकले हवालात शब्द में कैद हो गया है. मेरा वो हिस्सा मुझे आज भी आवाज दे रहा है और कह रहा है कि मेरे भीतर एक कायर रहता है. मुझे उसे मार देना चाहिए. हम सबको अपने भीतर का कायर मार देना चाहिए.

कहानी: पारो आफ्टर द ब्रेक

kahaniउसने कभी शरतचंद्र का लिखा कुछ भी नहीं पढ़ा था. उसने देवदास फिल्म भी नहीं देखी थी. उसके पति ने जरूर देवदास देखी थी और उसे पारो कहना शुरू कर दिया था. पारो के लिए पारो शब्द भी वैसा ही था जैसा कि रोपा होता या कोई भी दूसरा अनजाना शब्द, पर पारो के पास इतनी समझ थी कि उसके बच्चों का बाप जब उसे पारो कहता है तो उसकी अपनी महत्ता बढ़ जाती है.

महत्ता की भूख पारो में नई-नई नहीं पैदा हुई थी. बचपन से ही सब भाई-बहनों में बड़ी होने के कारण वह महत्ता पर अपना एकाधिकार समझती थी. उसकी इस भूख के कारण ट्यूशन कर-करके परिवार पालने वाले पिता को खीझ होती, मां को गुस्सा आता, इसलिए उन्होंने सतरहवां लगते ही उसे चटपट दूसरे घर पहुंचा दिया और सुकून की सांस ली. पारो अपनी भूख को दहेज के रूप में ले गई. ससुराल में ससुर नहीं थे, सास थी तो एकदम गऊ. ननद पहले ही दूसरे घर निपटा दी गई थी. एक कमाऊ पारो का देवदास ही था इसलिए पारो की भूख दिन दूनी रात चैगुनी बढ़ती गई.

साल-दो साल में ननद आती तो कसमसाती, ‘भाभी, मां से कितना काम करवाती हो! पानी में ही पड़ी रह जाती है सारे दिन. देखती नहीं, बेचारी की उंगलियां गल गई हैं.’

पहली बार में पारो का विरोध हल्का था दूसरी बार कुछ तेज और तीसरी बार तो उसने सीधे ननद का झोंटा पकड़ा और उसे कूट डाला. अपनी इज्जत का तमाशा न बनाने की प्रबल चाह में बेचारी ननद रानी ने आवाज ही बंद कर दी. दो दिन रो-रोकर आंखें सुजाती रही और फिर अगले दिन वापस चली गई. फिर कभी मायके न लौटने की कसम खाते हुए.

पारो की सास ने कुछ समझा, कुछ नहीं समझा. जो समझा उसमें से भी बहुत सारा अनसमझा ही जताया. केवल घर की शांति और इज्जत बचाए रखने के लिए पारो को उसकी सास द्वारा पूरी महत्ता सौंप दी गई. बुढ़िया ने मुंह पर ताला डाल लिया. हाथ-पैर पूरी तरह घर के काममाज को सौंप दिए. आंखों पर मोटे परदे डाल लिए. भूख को कसम दे दी कि बासी और पानी के अलावा कुछ और न मांगे. नग्नता को वह पारो की उतरनों से ढक लेती. बीमार होती तो छुपा कर काढ़ा बनाती और छक लेती.

दस-बीस दिन में कभी देवदास पूछ लेता ‘मां ठीक हो?’

बुढ़िया पूरब-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण देखती धीरे से कह देती ‘हां बेटा, ठीक हूं.’

उधर पारो परेशानियों में घिरी रहती. पेट फूलता-पिचकता रहता. खट्टी-मीठी, चटपटी चीजों की दरकार होती रहती. कभी उसकी पाजेब टूट जाती तो कभी चूडि़यां पुरानी पड़ जातीं. कभी किसी पड़ोसिन की साड़ी पर दिल आ गया होता तो कभी दुनिया का सबसे जरूरी काम उसे चिड़ियाघर घूमना ही लगने लगता. इस प्रकार से देवदास जी महाराज अपनी नौकरी और आटा-दाल-सब्जी लादने के बाद बचे सारे समय में पारो की फरमाइशें ही पूरी करने में लगे रहते. मां की ओर देखते तो कब देखते?

देवदास की मां ने खामोशी से पारो के बच्चे नहलाए-धुलाए-चमकाए. उनका रोना-गाना सुना, गू-मूत संभाला और घर का झाड़ू-पोंछा निपटाते-निपटाते एक दिन खुद ही दुनिया से निपट गई. पारो को गंगाजल पिलाने की तकलीफ दिए बिना ही!

जब पारो की सास को लाश के रूप में पहचाना गया तब वह किसी अज्ञात नृत्यशैली की अबूझ मुद्रा में थी. उसकी मुद्रा को कोई बदल नहीं सका. कई-कई लोगों के प्रयास व्यर्थ गए. शायद दूसरी दुनिया से बुलावा आने पर वह बिना वेतन और छुट्टी की चाकरी से निवृत्ति मिलने की खुशी में नाच उठी होगी और फिर उसने अपनी खुशी के लिए कभी समाप्त न होने का वरदान मांग लिया होगा. जब तक वह देह रही नृत्यमुद्रा में रही. जब फूल बनी तब ही नृत्य अदृश्य हुआ. वैसे ही जैसे कि जीते-जी वह बहू के भय से प्रतिपल नाचती रही. अशक्त होने पर भी. बीमार होने पर भी. लेकिन उसका वह निरीह नाच किसी को दिखाई नहीं दिया.

पारो बेचारी तेरह दिन झेल गई. जो भी रिश्तेदार आया उसने कुछ-न-कुछ दबे-खुले गले से कहा-ही-कहा.

आखिर एक ही घर में रहते हुए भी क्यों एक जिंदा औरत मरी हुई औरत को कई घंटो तक नहीं देख पायी.

समय-परिस्थिति को देखते हुए पारो चुप थी अन्यथा मुंह नोच लेने में उसे संकोच नहीं होता. घर मेरा, मैं चाहे जो करूं, तुम साले रांड-भड़वे, कुकुर-बिडाल, कौन होते हो मुझे टोकने वाले कि मैं क्या देखूं क्या न देखूं!

तेरहवीं के बाद सब रिश्तेदार भी निपट गए. पारो के चारों बच्चे स्कूल जाते थे, चले गए, देवदास रोटी कमाने अपनी नौकरी की ओर. तेरह दिन बाद पारो को चैन मिला था. चमचा भर घी अपनी दाल में छोड़ते हुए उसने सोचा बड़े सड़े-सड़े दिन काटे हैं अब सजे-सजे दिन होने चाहिए! पर कैसे? पापड़-अचार के चटखारे लगाते हुए उसने सोचा कि यहां की चिल्ल-पों में तो दिन सजने से रहे! सच बात तो यह है कि बुढ़िया के जाने के बाद मार काम-ही-काम दिखेगा हर तरफ. सपरेगा कैसे? और जो अड़ोसी-पड़ोसी दबी-दबी जबान में मरी बुढ़िया की तरफदारी कर रहे थे, वे खुलेआम पारो की निंदा करने लगेंगे.

फिर शहर में रस है भी कहां? यहां की तो रीत ही निराली है. एक तो मरे घर इत्ते छोटे-छोटे हैं कि कोना-कोना दिखाई दे जाता है. लोग तो ऐसे जैसे इनके आगे कोई दूसरा कुछ है ही नहीं! इससे तो गांव भला. यहां महरी भी लगाएंगे तो पैसा लेकर वह सौ नखरे दिखाएगी, वहां गांव में तो गुड़ की डली में काम करने वाले मिल जाते हैं. खेत बटाई पर हैं ही, घर का काम गुड़-चना, गेहूं-चावल देकर ही निपट जाएगा.

शाम को पारो ने देवदास से गांव जाने की इच्छा व्यक्त कर दी.

‘बच्चें की छुट्टी होगी तब जाना.’ देवदास के इस सपाट उत्तर पर प्रकटतः पारो चुप रही पर मन उसका ऐंठ गया.

दिन-दिन भर घर के कामों में माथा ठुकता, शरीर दुखता. कम्बख्त बुढ़िया कुछ साल और नहीं जी सकती थी! बड़की रोटी बनाने लायक हो जाती तब मरना चाहिए था.

कुछ दिन बीत जाने पर पारो के मन ने उससे एक और बात कही. मन ने कहा ‘पारो री, मर्द तो तेरा झड़ लिया! यहां कौन तेरा दर्द देखने बैठा है? गांव में तो दो-दो देवर आस लगाए राह तकते होंगे. रसिया और विदेशिया!’

पारो समूची लार में लसलसा उठी.

फिर उसने एक स्वांग भरा. एक सुबह वह रात देखे काल्पनिक स्वप्न की भव्य व्याख्या करने लगी. अम्मा ने आदेश दिया है कि बहू मेरी, गांव जाओ, पुरखों का घर संभालो वरना मेरी आत्मा को चैन नहीं मिलेगा.

स्वप्न इस तरह हावी हुआ कि देवदास को हथियार डालने पड़े. जब तक देवदास ने हफ्ता भर छुट्टी की व्यवस्था की पारो ने बड़की बिटिया को रोटी बेलना-सेकना सिखा दिया और छुटकी को आटा गूंधना. दाल-चावल-सब्जी बनाना देवदास को आता था.

पारो निश्चिंत होकर गांव चली गई. उसे छोड़ कर देवदास बच्चे संभालने और कमाने शहर लौट गया. उसके गांव में रहते पारो ने जोर-शोर से पुरखों के घर के जाले साफ किए, झाड़ू-बुहारी भी की. कुछ चादरें-परदे धो लिए और क्यारियों में कुछ फूल भी बो दिए थे.

भुखमरी की कगार पर पहुंचे एक परिवार को उसने गोद ले लिया. केवल एक समय के दाल-भात के ऐवज में सुखिया उसका दोनों समय का चूल्हा  सुलगा जाती और ईंधन-पानी की भी पूरी जिम्मेदारी संभालती. उसका बड़ा बेटा सौदा-सुलफ भी कर देता और आंगन-रसोई भी लीप-पोत देता. बुधिया का छोटा भाई सुधिया बरतन बड़े चमका कर धोता-मांजता, साबुन लगे कपड़ों को फींच-फींच कर चकाचक कर देता. तीनों जन सुबह-शाम पारो की चाकरी करके शाम का दाल-भात-साग बनाते. पारो अपने हिस्से की दाल अलग करके लोटा भर पानी और चमचा-चमचा भर नमक-मिर्च बाकी दाल में डाल कर उन तीनों को भात के साथ खाने को देती, कभी-कभी बचा-खुचा साग भी.

अंधेरा होने तक वे तीनों चले जाते. रह जाती पारो और उसकी सजी-सजी रातें, जिनका मालिक रसिया था. अंधेरे में दबे पांव रसिया आता. तब तक पारो रायता, हलुवा या खीर अपने मन का कुछ-न कुछ रांध चुकी होती. फिर रसिया की पोटली खुलती. रातें गुलजार होतीं. रस बहता. भोर का उजाला सब कालिख समेट लेता. सुधिया बरतन-कपड़े चमकाता, बुधिया दुकान-दुकान दौड़ लगाता, घर-आंगन सजाता. सुधिया ईंधन से आग का रिश्ता जोड़ती. फिर वे तीनों चले जाते खेतों में भूखे पेट खटने के लिए. शाम को पानी-पानी दाल से भरपेट भात पाने का विश्वास लिए.

पारो का दिन सार्वजनिक था. बीच में कई काम थे. खाना था, बतियाना था, नहाना-धोना, सजना-संवरना था. तनिक-तनिक सी छेड़छाड़ थी. रसवर्षा थी.

सुख के दिन बीतने का भला पता चलता है? पारो को भी नहीं चल रहा था.

कभी-कभी रसिया अपने घर-खेत के काम से पारो के पास नहीं आ पाता. बस फिर तो पारो उसे घंटों तरसाती-सताती, कान पकड़वाती, नाक रगड़वाती. पर काम तो काम!

रसिया का दर्जन भर लोगों का परिवार, थोड़ी-सी खेती, दो-चार गाय-भैंस, खींचतान लगी ही रहती. उसका बड़ा भाई पास के कस्बे में छोटी-सी दुकान करता था, वहीं उसने एक दुकान की व्यवस्था रसिया के लिए भी कर दी. रसिया पारो के लालच में गांव छोड़ना न चाहता था. बहानेबाजी करता रहा, पर आखिर उसकी चली नहीं.

हर हफ्ते गांव आने का वादा करके वह चला गया. पारो दो दिन में ही बेचैन हो उठी और फिर विदेशिया देवर के जरा-सा इशारे पर ही टप्प से उसकी झोली में टपक पड़ी. दिन तो सुहाने थे ही, रातें भी फिर से गुलजार हो गईं. रसिया के लिए हफ्ते में एक दिन सावधानी के साथ रखना होता. स्वाद भी बदल जाता.

विदेशिया दो महीने के लिए गांव आया था. उसके लौटने में अभी एक हफ्ता बाकी था कि एक दिन उसके सामने रसिया सीना तान कर खड़ा हो गया. पारो ने बड़ी मुश्किल से उसका ध्यान बंटाया. लाख कहती रही कि उसके पेट में दर्द था, पुदीनहरा मांगने आया था, पर रसिया के भीतर तो शक की गांठें गड़ रही थीं. अगले दिन उसने कस्बे के लिए विदाई ली और आधे दिन बाद वापस लौट पड़ा. रात को वह पारो की खिड़की के तले पहुंचा.

उधर विदेशिया ने द्वार से प्रवेश किया. रसिया भीतर के स्वर सुनता हुआ अंधेरे को घूरता रहा.

अगली सुबह गांव के लोगों ने अरहर की ऊंची फसल के बीच खून में नहायी विदेशिया की ठंडी देह देखी.

जिस समय गांव वाले विदेशिया की लाश को घेरे थे उस समय रसिया अपनी दुकान खोल कर झाड़-पोंछ कर रहा था. दिन-भर वह हंस-हंस कर दुकानदारी करता रहा लेकिन शाम को पुलिस देखकर उसकी हंसी गायब हो गई. अनजान बनकर बोला ‘साहब, बताइए मैं आपकी क्या सेवा करूं?’

‘सेवा तो हम करेंगे. तुम थाने चलो’

रसिया ने बड़ा आत्मबल सहेजा. बड़ी नाटकीय प्रतिभा दिखाई. हफ्ते-भर से कस्बे में ही होने की कसमें खाईं लेकिन आखिर पुलिसिया तुड़ैया के आगे कुछ घंटों में ही सच उगल गया. शुद्ध सत्य नहीं मिलावटी सत्य.

कुल मिलाकर कहानी इतनी चटपटी बनी कि पुलिस को तो मजा आया ही आया, अदालत भी हाउसफुल सिनेमाहाॅल लगने लगी.

कहानी में पारो खलनायिका थी और विदेशिया खलनायक. खलनायक और खलनायिका पहले आपस में नायक-नायिका थे फिर नायिका का नायक से मन भर गया और उसने षडयंत्र रच कर विदेशिया को निपटाने और हत्या के इल्जाम से खुद को बचाने के लिए रसिया को शिकार बना डाला. यानी रसिया के हाथ पारो ने हत्या के लिए इस्तेमाल कर डाले बस!

रसिया के पास पक्का वकील था, मजबूत गवाह. रिश्तेदार भी थे, दोस्त भी. पारो के पास कुछ भी नहीं था. वह केवल बुड़बक की तरह रसिया को देख रही थी या गालियां और उल्टे-सीधे बयान देकर अपना पक्ष और कमजोर करती जा रही थी.

आखिर दोनों को बराबर सजा हुई.

गांव-घर से कभी-कभार रसिया को मिलने लोग-बाग आ जाते थे. ‘बेचारा लड़का फंस गया चुड़ैल के चक्कर में’ इसी स्थाईभाव के साथ कूछ सहानुभूति और कुछ समाचार दे जाते थे. पारो को मिलने कभी कोई नहीं गया. पूरा बंदी जीवन उसने सलाखों पर सर पटक कर बिताया.

उस पूरी लंबी अवधि में वर्णन योग्य कुछ है ही नहीं. बोरियत की बातें करने से अच्छा यह समझिए कि पारो की कहानी में एक ब्रेक आया.

गांव की खबर देवदास के दफ्तर तक भी पहुंच गई. रात-दिन एक करके भी जब वह अपना स्थानांतरण दूसरी जगह नहीं करवा सका तो उसने स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली. सहकर्मियों की आंखों का सामना करने का साहस उसमें नहीं था. आंख चुराके काम नहीं चला क्योंकि कान तो चुराये नहीं जा सकते!

किराये की दो कोठरियों में हल्का-फुल्का सामान ही था, वह सब समेट कर देवदास कहां गायब हो गया किसी को नहीं मालूम.

पारो ने सीखचों से बाहर आते हुए सोचा था भला शहर में कौन जानता होगा उसके गांव की बात! पति गऊ का बछड़ा है ही, उसे बातों में बहला लेगी. बच्चे तो शायद कुछ जानते ही न हों. जाने देवदास ने उन्हें क्या बताया होगा! क्या यह कि तुम्हारी मां मर गई? अगर ऐसा कहा होगा तो कोई कहानी बनानी पड़ेगी पर पहले यह जानना होगा कि किस विध मरने की बात उन्हें बतायी गई है. देवदास ने जो बताया होगा उसीसे कुछ जोड़ना पड़ेगा. इस समय देवदास से पंगा लेना ठीक नहीं है. बछड़ा सींग निकाल लेगा! फिलहाल तो आसरा चाहिए और कुछ न भी बनेगा तो गृहस्थी में ही चैन से रह लेगी. अब बच्चे छोटे तो नहीं रह गए होंगे कि काम-ही-काम फैला रहे. अपना-अपना काम खुद करना सब सीख ही गए होंगे. अपने को कुछ करना थोड़े ही पड़ेगा.

पारो खुद को आश्वस्त करते-करते किराये के पुराने घर के बाद दफ्तर भी हो आयी पर कुछ हाथ न लगा. पते-ठिकाने का तो कोई सुराग नहीं मिला, उल्टे विषबुझे तीर मिल गए जिनकी आस भी नहीं थी. अब गांव का ही आसरा बचा था. पारो ने सोचा कि जी कड़ा करके कुछ दिन तो ताने सुनने पड़ेंगे ही, बहुत दिनों तक उसके ही आगे-पीछे घूमने की किसे फुरसत है! रहेगी अपने घर में द्वार बंद करके. बाहर कम निकलेगी. जिन लोगों को उसकी जरूरत होगी वे तो आएंगे ही आएंगे. बस काम चल जाएगा.

पर गांव जाकर पारो को और बड़ा झटका लगा. मकान के द्वार उखड़े थे. छत टूट कर कमरों में समायी हुई थी. जाले, कीड़े-मकौड़े, घास, खर-पतवार, कूड़ा और कुत्ते-बिल्लियों के मल के ढेर तक थे वहां.

बहुत देर वह बाहरी दीवार पर पीठ टिकाये बैठी रही कि शायद कोई आयेगा,  लेकिन कोई नहीं आया. सारी रात वह भीतर एक कोने में गठरी की तरह सिकुड़ी भूखी-प्यासी पड़ी रही. गांव के जागने पर भी उसे नहीं पूछा गया तो वह उन लोगों के अांगन में जा खड़ी हुई जिन्हें खेत बटाई पर दिए जाते थे.

वहां से केवल कुछ सूचनाएं और पानी ही पा सकी पारो. जो पाया वह बहुत ही रूखेपन के साथ मिला था. पहली सूचना यह थी कि देवदास बहुत साल पहले ही अपनी सारी जमीन बेच गया था. जितने में वह पुराना मकान खड़ा था, बस वही जमीन बिन बिकी थी. मिट्टी के मोल भी किसी ने वह माकन नहीं खरीदा जिसके भीतर एक पवित्र आत्मा त्रास पाकर मरी थी. जहां पाप की फसल उगी थी वहां कोई नहीं रहना चाहता था. झोपड़ीवालों ने भी उधर का रुख नहीं किया. जो जीव भले-बुरे, पाप-पुण्य की समझ नहीं रखते थे उन्होंने ही वहां बसेरा बनाया था. यह सूचना पारो को बड़े गर्व के साथ दी गई कि उस खंडहर में कोई गांववाला हगने भी नहीं जाता.

पारो ने गौर किया सचमुच, वहां विभिन्न प्रकार के मलों में मानव मल नहीं था. इससे पारो और भी डर गई.

जितना उससे हो सका, उसने एक कमरा साफ किया. पूरे मकान में एक अधटूटा दरवाजा ही मिल पाया, उसे खींच कर साफ किये कमरे की चैखट पर टिकाया. बस इतना भरोसा हो गया कि कोई बड़ा जानवर नहीं आ पाएगा. एक हल्की-सी आस यह भी जगी कि शायद कोई देह का भूखा-प्यासा आ जाय और साथ में उसके पेट के लिए भी कुछ लेता आये.

आधी रात तक कोई नहीं आया. तब पारो पड़ोसी के अमरूद के पेड़ की शरण में गई. पेड़ ने पारो का पेट और आंचल दोनों भर दिये. पड़ोसिन ने सुबह उठकर अपनी छटी इंद्रिय से चोर का नाम पूछा और जैसे ही उत्तर मिला उसने चीख-चीख कर गालियों से गांव गुंजा दिया.

पड़ोसिन को इस बात का थोड़ा ही गुस्सा था कि उसके फल चोरी हुए, ज्यादा गुस्सा इस बात का था कि पापिन-सांपिन ने उसका फलदार पेड़ छू दिया.

पारो चुपचाप कोने में पड़ी गालियां गुटकती रही. जब भूख लगती घास-फूस के बीच छुपाये अमरूद ही काम आते. अगली रात उसने पानी की चोरी की. उसके खंडहर में कोई बर्तन नहीं था. जहां तक संभव था ढूंढ-ढांढ के बाद एक गर्दन टूटी सुराही और एक प्लास्टिक की बोतल ही उसे मिल पायी थी. उन्हें भरकर वह आधी रात में ही ला पायी. इस बार चोरी के लिए वह दूसरी दिशा में गई थी और इस चोरी का किसी को पता भी नहीं चला था.

जिस गांव में कभी पारो झिलमिलाती-खिलखिलाती घूमा करती थी वहीं अब उसे खाने को निवाला नहीं मिल रहा था, पहनने को कपड़ा नहीं मिल रहा था. पूरा खंडहर तलाश डाला पर कोई बक्सा-अलमारी टूटी-फूटी हालत में भी नहीं मिली. यानी देवदास सारा सामान ठिकाने लगा कर ही गया! दो सिंथेटिक साडि़यां मलवे के ढेर में से निकल आयीं. एक का पल्लू पारो का स्पर्श पाते ही शर्म से झर गया, दूसरी की किनारी पानी-पानी हो गई. कभी जिन्हें पहन कर वह गांव भर में अपनी अमीरी का प्रदर्शन किया करती थी, वे गरीबी में उसके साथ रहते शर्मातीं नहीं क्या?

पर पारो तो उन्हें उस हाल में पहनने से भी नहंीं शर्मायी! कोई चारा नहीं था. चार दिन से वह जिस साड़ी को पहने हुए थी वह धूल-मैल-पसीने में पूरित उनसे बेहतर नहीं लग रही थी.

एक रात जिस आंगन से पीने का पानी डरते-डरते चुराया था, अगली रात उसी आंगन से बिना डरे वह दो चक्कर में नहाने का भी पानी ले आई. इत्र-फुलेल तो रहा दूर उसके पास नहाने का साबुन भी नहीं था. सड़ी-गली साडि़यों के साथ पहनने को न पेटीकोट था, न ब्लाउज. झीने-झीने आवरण में उसने ठंडी-ठंडी रात कंपकंपाते हुए काटी. उससे अगली रात साहस कुछ और अधिक बढ़ चला था तो पानी के लिए उसने तीन चक्कर लगा कर अपने वे कपड़े धो डाले जो जेल, शहर, गांव, खंडहर, अमरूद और पानी की चोरी तक के साक्षी रहे थे. खंडहर भीतर के झाड़ों पर ही उसने जब वे कपड़े फैलाये तो सारी रात उनकी कालिख पर चांदनी हंसती रही.

खंडहर की छाया में चोरी का पानी भले ही प्यास बुझा सकता है लेकिन भूख नहीं मिटा सकता. अमरूद के पेड़ पर पड़ोसिन ने अपनी साड़ी इस तरह खींच-तान कर बांध दी थी कि एक भी अमरूद कोई छू न पाये.

रात का कोई सहारा दिखता न था इसलिए सुबह-सवेरे धुले हुए मैलपूरित कपड़ों को पहन कर वह पल्लू में मंुह लपेट कर एक घर के दरवाजे से जा लगी. जहां गृहस्वामिनी से हंस-हंस कर वह घंटों बतियाया करती थी वहीं थोड़ा सहारा पाने की आस लिए वह टिक गई थी.

गृहस्वामिनी ने सबसे छोटे बच्चे को द्वार पर भेजा. बच्चे ने मां के आदेशानुसार कड़क कर कहा ‘क्या है?’

पारो ने मौका देखकर झट बच्चे को गोद में उठा लिया और लाड़ लड़ाते हुए बतियाने लगी.

अंदर मां के खड़े कानों ने जब देखा कि बच्चा तो बातांे में फिसल गया तो उसे खुद आना ही पड़ा. पारो की गोद से बच्चा छीन कर वह बोली ‘गांव भर में काटने को तुम्हें मेरी ही नाक मिली थी! क्यों आई हो मेरे दरवज्जे?’

‘पांच दिन से भूखी हूं बहन! कुछ कूटने-पीसने का ही काम दे दो तो मुंह अंधेरे करके चली आऊंगी.’

‘बड़े-बड़े काम किये हैं तूने मुंह अंधेरे.’ कहकर गृहस्वामिनी अंदर मुड़ गई.

पारो की आखिरी आस उसी दरवाजे पर थी, वह कैसे उठ जाती? थोड़ी देर में ही एक पोलीथीन की पोटली उसकी गोद में फेंक कर गृहस्वामिनी ने कहा ‘कहे देती हूं, आज के बाद इस दरवज्जे न आ लगना कभी. नहीं तो मुझे घर के मर्दों को बताना पड़ेगा.‘

अब पारो को उठना ही पड़ा. जो भी हो पोलीथीन की पोटली में सूखी-अधसूखी रोटी-सब्जी-नमक इतनी मात्रा में था कि पारो के दो दिन कट गए.

खंडहर में रहने-जीने का जब थोड़ा अभ्यास हो गया, डर के बिना वह गहरी नींद सोई, तभी उसे एक बड़ी साफ आवाज सुनायी दी ‘रसिया भी तेरे साथ होता-सोता था!’

पारो चौंक उठी. यह आवाज विदेशिया की थी. आंखें फाड़-फाड़ कर भी खुली चांदनी में कोई दिखाई नहीं दिया. तो क्या वह भूत बन गया? विदेशिया रे! मैंने तेरा कुछ नहीं बिगाड़ा और तेरी हत्या के लिए मैं जेल काट आई. विदेशिया रे! मैं अंगूठाछाप औरत कहां जाऊं क्या करूं? मुझे मत डराना विदेशिया, मुझे मत डराना.

पारो कांपती रही. गिड़गिड़ाती रही. बांहों में पांव समेटे, घुटनों पर गाल टिकाये उसने बड़बड़ाते हुए रात काट दी. सुबह होने से पहले वह गांव के बाहर की तरफ बने घर की ओर चल पड़ी. शायद उन लोगों को मजूर की जरूरत हो. गांव के बीच न होने से वे शायद वैसी अकड़ न दिखाएं. छुपते-छुपाते वह कई घंटों बाद वहां पहुंची.

आंगन में खाट पर बैठी एक बुढि़या खांस रही थी. खांसी सूखी थी और उसकी संासें उखाड़े दे रही थी. आंखों से आंसू निकल रहे थे और दुर्बल हाथ-पांव कांप रहे थे. पारो लपक कर उसकी पीठ सहलाने लगी. थोड़ी देर में बुढि़या को कुछ राहत मिली तो पारो ने पूछा ‘घर में अकेली हो क्या अम्मा?’

बुढि़या की थकी आंखें बंद थीं. पारो ने उसे सहारा देकर लिटाया. आंगन में पड़े लोटे को हैंडपंप के पास जाकर मांजा-धोया, भरकर लाई और बुढि़या को सहारा देकर पानी पिलाया. पानी पीकर जब लेटी तब बुढि़या को याद आया कि उससे कुछ पूूछा गया था.

‘बेटा-पतोहू गेंहूं काटने गए हैं बिटिया. बच्चा कोई पढ़ने गया, कोई मां-बाप का हाथ बंटाने. जब से बुढ़ऊ नहीं रहे, हम अकेली ही हैं. पर तुम कऊन हो बिटिया?’

‘एक भटकती आत्मा हूं अम्मा!’ पारो ने करुणापूरित स्वर में कहा. अम्मा ने चौंक कर आंखें खोली. पारो को सर से पैर तक परखा. न चेहरा पारदर्शी था, न ही पैर उल्टे थे. भूत न होने की आश्वस्ति मिलते ही फिर आखें बंद होने लगीं.

‘सभी भटकती आत्मा हैं बिटिया! इस पिरथवी पर भटकने ही आये हैं. ठिकाना तो ऊपरै है!’

पारो का जी भी कुछ ठिकाने आया. चारों तरफ नजर घुमाकर उसने पूछा ‘खाना खा चुकीं अम्मा?’

‘ना बिटिया! मन नहीं है अभी. बहू ढक-तोप कर रख गई है खटिया तले.‘ फिर तनिक पारो की हालत पर गौर करके कहा ‘तुम्हंे भूख हो तो तुम खा लो.’

‘खाऊंगी अम्मा! तुम्हारे साथ ही खाऊंगी, तब तक पहले आंगन बुहार लूं.’

‘कूड़ा है का?’ अम्मा ने तनिक गर्दन उठा कर देखा ‘हां है तो. चाहो तो बुहार लो.‘

आंगन विराट था. उसमें कहीं बर्तन बिखरे थे, कहीं कपड़े फैले थे, कहीं टूटे-फूटे उपले पड़े थे, कहीं सूखी लकडि़यां बिखरी थीं. पारो ने पहले उन सबकी अलग-अलग ढेरियां कीं फिर झाड़ू लगाई.

‘सो गईं अम्मा?’

‘ना, सोई नहीं. ऐसे ही झपकी आती रहती हैं सारे दिन. रातभर तो खांसी जगाया करती है बिटिया.’

‘बर्तनों को मक्खियां लग रही हैं. मांज-धो कर रख दूं अम्मा?’

‘अरी, मेरे पास रुपया-पैसा कुछ नहीं है. काहे के लिए मांजेगी? जब हाथ-पैर में तनिक जान लगेगी आप ही मांज-धो लूंगी.‘

‘पैसा-रुपया नहीं चाहिए अम्मा! हो सके तो दो निवाले दे देना. मैं रोज तुम्हारी सेवा कर जाया करूंगी. तुम बोलो तो यहीं पड़ी रहूं तुम्हारे पैरों के पास. जमीन पर.’

‘ना रे ना पगलिया! खुद मरेगी, हमें भी मरवाएगी. जा मांज ले बरतन मांजने हैं तो, तब रोटी खा लेंगे.’

पारो ने रगड़-रगड़ कर बर्तन चमकाए. हैंडपंप चला-चलाकर उन्हें धोया और झव्वे में भरकर धूप में रख दिया.

अम्मा उठ कर खटिया पर बैठी. बर्तन देख मुस्कराई ‘हमसे तो दम नहीं लगता. तुमने बढि़या चमका दिए.’

‘रोज चमका दूंगी अम्मा.’ पारो आश्वासन चाहती थी.

बुढि़या ने खटिया तले हाथ डाला. डलिया उठाकर खटिया पर रखी. ऊपर से ढकी परात उठी तो पारो के मुंह में पानी भर आया. बुढि़या ने एक रोटी पर तनिक-सी चटनी और साग रख बाकी डलिया पारो की ओर सरका दी. पारो ने भी संकोच में एक रोटी पर ही साग-चटनी रख कर ले ली.

भूखे पर दया करके अम्मा ने एक रोटी में ही ‘पेट भर गया’ ‘पेट भर गया’ का नारा बुलंद कर दिया. पारो को बड़ी राहत मिली.

‘चटाई बिछा कर सो लो.’ अम्मा ने कहा और पारो ने तुरंत आदेश का पालन किया. तीन घंटे बाद उसकी नींद टूटी. अम्मा बिटिया-बिटिया गुहार रही थी. हाथ में चाय के गिलास थे.

‘लेओ, चाय पियो.’

‘हमसे कह देतीं अम्मा! काहे परेशान हुई चाय बनाने के लिए?’

‘अरे तुम क्या हमारी बहुरिया हो जो तुमसे कहते!’

पारो हिल गई. चुपचाप चाय पी. टोहती रही कि बुढि़या कुछ बोले तो मन का भेद मिले पर चाय का साथ केवल चुप्पी ने ही दिया.

‘अम्मा साबुन दे दो तो ये कपड़े धो डालूं.’ आंगन वाली कपड़ों की ढेरी की ओर इशारा कर पारो बोली.

अम्मा ने बिना कुछ कहे साबुन दे दिया. पारो ने बिना कुछ कहे हैंडपंप चला-चला कर सारे कपड़े धो डाले. एक-एक कपड़ा झटककर रस्सी पर फैलाया और साबुन लौटाने अम्मा के पास आई. अम्मा ने साबुन वापस उसकी ही हथेली पर रख कर कहा ‘ले जा. अपने कपड़े भी तो धोने चाहिए.’

पारो से कुछ कहते न बना. उसके कपड़ो के एक-एक रेशे पर मैल की दस-दस पर्तें थीं.

‘रोज सुबह आ जाऊं अम्मा?’ उसने पूछा तो जवाब मिला ‘जल्दी न आना. आज ही की बेला आना.’ बात पारो की समझ में आ गई कि बेटा-बहू जब काम पर जा चुकेंगे तब ही आना.

रात को उसने पड़ोसी के नल से पानी चुराया और अपनी मेहनत से कमाए साबुन से अपने कपड़े धोए. एक नहीं अनेक बार वह गर्दन टूटी सुराही और प्लास्टिक की बोतल को भर-भर कर लाई. सारा पानी काला हुआ पर कपड़ों का मुंह उजला न हो पाया. हार कर उसने उन्हें चांदनी में सुखाने डाल दिया और सड़े-गले चीथड़े लपेट कर लेट गई. परिश्रम काफी किया था इसलिए लेटते ही नींद आ गई.

नींद के एक छोर पर पहुंच कर पारो फिर चौंक कर उठी. एक कड़क आवाज थी ‘जो करे, सो भरे!’

जिसे वह झड़ा हुअा मर्द समझती थी उसकी इतनी कड़क आवाज!

बात-बात पर बगलें झांकने वाला वह बछड़ा! और इतना सख्त?

कहां होगा देवदास? कहां होंगे उसके बच्चे? भीतर मातृत्व कुलबुलाया. पारो उसकी गर्दन पर चढ़ बैठी.

यहां अपनी जान संभालना मुश्किल है, किसके बच्चे! किसके कच्चे!

फिर उसने रात के धोए कपड़ों को रेशा-रेशा टटोला. कुछ सूखे थे, कुछ अधसूखे. झटकार-झटकार वह उन्हें सुखाने लगी.

अगले दिन अम्मा उसे देखते ही मुस्कराई ‘सही समय पर आई हो, लो चाय पिओ.’

चाय के साथ लइया के दो लड्डू भी पारो को मिले. उसमें नई स्फूर्ति का संचार हुआ.

‘अम्मा तुम्हारे बाल सुलझा दूं?’ कह देने के बाद पारो के पैरों तले की जमीन खिसक गई. यह क्या कर बैठी?

बाल सुलझाने का मतलब देर तक पास बैठना. बैठना यानी बतियाना. तब छुपेगी कैसे? क्या कहेगी? पता नहीं बुढि़या पहचान रही है या नहीं. ऊंचा बोलने की ताकत बुढि़या में है नहीं. उससे दूर-दूर रहते काम करती तो वह चुप बैठी-लेटी रह जाती, अपना दिन निकल जाता.

तब तक तेल की शीशी उसके हाथ में पकड़ा दी गई थी.

‘तुम खटिया पर बैठ कर तेल डालो. हम नीचे बैठती हैं.’

पारो ने खूब मेहनत से बालों को तेल पिलाया और पूरे समय अम्मा के स्वास्थ्य के बारे में ही बात करती रही. गांव से दूर छोटे-से परिवार के बीच बड़े फैले काम-काज के साथ अम्मा बेचारी को कोई श्रोता ही कहां मिल पाता था! तो वह अपनी तकलीफें ही सुनाती रही.

‘लो अम्मा, अब तुम लेट जाओ बैठे-बैठे थक गई होगी. मैं तुम्हारी देह की भी मालिश कर दूं.’

‘अरी, काहे आदत बिगाड़ रही है! चल अच्छा, तनिक दाब दे! हाथ-पैर बैठे-बैठे ही पिराने लगे है.’

पारो ने अम्मा के हाथ-पैर दाबे साथ-साथ खेती का हाल-हवाल लेती रही. अच्छे दिन रहते जिसने कभी खेती की तरफ झांका भी नहीं, अनाज संभालना तक बूढ़ी-बीमार सास का काम हुआ करता था, बुरे वक्त में वही पारो दो रोटी के लिए बीमारी के साथ-साथ खेती की भी बातें सुन रही थी. उसे न तो गुस्सा आ रहा था, न ही चिड़चिड़ाहट हो रही थी. बस, एक ही भाव बाकी था कि कैसे भी एक समय के निवालों का भरोसा बना रहे.

आंगन में बर्तन थे, कपड़े थे. पारो ने सब मांजे-धोये. झाड़ू लगाया, रोटी खाई. मुंह बंधे एक बड़े-से झोले की ओर इशारा करके अम्मा ने कहा ‘बिटिया वो चाउर साफ करके उस डोल में भर दो. हमें साफ दिखायी नहीं देता.’

पारो चावल साफ करते-करते मजूर, मजूरी और उनकी जरूरतों पर बात करती रही. इतना उसे समझ में आ चुका था कि अम्मा को बातों में जिधर ढालो उधर ही ढल जाती है. जी को ढाढस बंधा कि ऐसे ही निभ जाएगी.

विदा होती पारो को एक पोटली सौंपी गई. सेर भर सत्तू हाथ आ गया था तो अगले दिन पारो अपने निवास-स्थल से बाहर निकली ही नहीं.

बहुत दिनों तक सत्तू, लइया, भुने चने, चिउड़ा, गुड़ और तेल-साबुन जैसी चीजें तेजी से निपटते देख घर की बहू को कुछ शक हुआ. उसने सास के पीछे जासूस लगाए.

बच्चों ने बड़ी मुश्तैदी से जासूसी की.

रिपोर्ट सुनकर अम्मा का बेटा ठहाका मारकर हंसा ‘वाह री अम्मा! पर जैसे पारो के दिन फिरे, वैसे सबके फिरें!‘

अशुभ की आशंका से बहू की आखें फैल गईं.

‘झट कान पकड़ो अपने. किस कुटनी का भला चाह रहे हो! भोली अम्मा हमारी जीती रहें, बनी रहें.’

कहानी: पारो आफ्टर द ब्रेक

उसने कभी शरतचंद्र का लिखा कुछ भी नहीं पढ़ा था. उसने देवदास फिल्म भी नहीं देखी थी. उसके पति ने जरूर देवदास देखी थी और उसे पारो कहना शुरू कर दिया था. पारो के लिए पारो शब्द भी वैसा ही था जैसा कि रोपा होता या कोई भी दूसरा अनजाना शब्द, पर पारो के पास इतनी समझ थी कि उसके बच्चों का बाप जब उसे पारो कहता है तो उसकी अपनी महत्ता बढ़ जाती है. Read More>>

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लहर के बाद

Mayawati-Press-after-Loksab
फोटो: प्रमोद अधिकारी

लोकसभा चुनाव के नतीजों का सबसे चौंकाने वाला पक्ष उत्तर प्रदेश और बिहार के नतीजे हैं. उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 71 भाजपा ने जीती हैं. सहयोगियों की दो सीटें भी इसमें जोड़ दी जाएं तो आंकड़ा 73 तक पहुंच जाता है. 91.25 फीसदी सफलता की यह कहानी उत्तर प्रदेश की राजनीति में अनदेखी और अनसुनी है जिसने सूबे के सारे सियासी समीकरण हिला दिए हैं. दरअसल प्रदेश का हालिया राजनीतिक इतिहास एक बड़ी हद तक बिखरे हुए जनादेश, अवसरवादी राजनीति और राजनीति के अपराधीकरण का रहा है. इस दौर में दो राजनीतिक दल प्रदेश की राजनीति का चेहरा बने हुए थे-मायावती की बहुजन समाज पार्टी और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी. दोनों ही पार्टियां करीब ढाई दशक पहले के मंडल और कमंडल के दौर की उपज हैं. सामाजिक न्याय के रथ पर सवार होकर ये दोनों दल तेजी से उत्तर प्रदेश के राजनीतिक क्षितिज पर छा गए थे. इसका नतीजा यह हुआ कि राष्ट्रीय पार्टियों का कद यहां लगातार बौना होता गया. कांग्रेस तो खैर यहां दो दशक पहले ही हाशिए पर चली गई थी, लेकिन कमंडल की ऑक्सीजन से चल रही भारतीय जनता पार्टी भी यहां पिछले एक दशक से तीसरे नंबर की पार्टी बनी हुई थी. पहले दो स्थान सपा या बसपा ने कब्जा लिए थे. लेकिन अब अचानक से सबकुछ बदल गया है. इसका एक संकेत तो इसी बात से मिल जाता है कि जिस भाजपा ने पिछले एक दशक में उत्तर प्रदेश की विधानसभा के सामने कुल दर्जनभर विरोध प्रदर्शन भी नहीं किए होंगे, उसने केंद्र में अपनी सरकार बनने के बाद पिछले एक महीने के दौरान प्रदेश की विधानसभा को घेरने और पुतला जलाने के दर्जनों उपक्रम कर डाले हैं. एक दशक के दौरान यह उत्तर प्रदेश की राजनीति में आया 360 डिग्री का परिवर्तन है. बदले दौर का जोश प्रदेश भाजपा अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी की बातों में झलकता है, ‘हम एक-एक बूथ तक जाएंगे, हम पूरी तरह विनम्र बने रहेंगे पर अगर कोई हमें चुनौती देगा तो हम चुप नहीं बैठेंगे. मोदीजी के नेतृत्व में जो लहर पैदा हुई है वह उत्तर प्रदेश से जात-पांत को खत्म करने का काम करेगी.’

केंद्र की राजनीति के लिए सबसे ज्यादा अपरिहार्य कहा जाने वाला उत्तर प्रदेश पिछले कुछ समय से हर तरह की राजनीति की प्रयोगशाला रहा है. धर्म, जाति, क्षेत्र और अवसरवाद जैसे तमाम समीकरणों के सहारे यहां राजनीति होती रही है. कभी प्रदेश ने सपा-बसपा की सरकार देखी, कभी भाजपा-बसपा की. दूसरे दलों को तोड़कर अपनी सरकारें बनाने का उपक्रम भी यहां खूब हुआ. ऐसा भी हुआ कि सरकारें अपना कार्यकाल पूरा करने में नाकाम रहीं और सूबा बार-बार चुनाव के चंगुल में फंसता रहा. 2007 तक यही स्थिति बनी रही. फिर उस साल जो हुआ उससे संकेत मिला कि प्रदेश की जनता लगभग डेढ़ दशक तक चली अवसरवादी राजनीति के दुष्परिणामों को समझ भी गई है और उससे उकता भी गई है. 2007 में प्रदेश में बसपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी थी. 2012 के जनादेश ने लोगों को एक बार फिर से चौंकाया. इस बार यहां सपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी. अब महज दो साल बाद उसी जनता ने भाजपा को लोकसभा में प्रचंड जनादेश दिया है. जाहिर है प्रदेश के लोग मौजूदा राजनीतिक विकल्पों से बुरी तरह नाराज हैं और बेसब्री से एक कारगर विकल्प की तलाश में हैं. सपा-बसपा की दुर्गति का एक संदेश भाजपा के लिए भी है कि उसके लिए यह सुकून का पल नहीं है. जिस तरह से सपा-बसपा ने खुद को मिले जनादेश को समझने की बजाय अपनी घिसी-पिटी अवसरवादी और जातिवादी राजनीति की राह पर चलना जारी रखा, भाजपा को वैसा कुछ करने से बचना होगा. एक चीज इस चुनाव में जरूर हुई है. भले ही यह परिघटना अल्पकालिक हो, लेकिन जाति का बांध मोदी लहर में टूट गया है.

अब सवाल उठता है कि सपा-बसपा और भाजपा के लिए इन नतीजों के क्या मायने हैं.

बहुजन समाज पार्टी
उत्तर प्रदेश के नतीजों में भाजपा को छोड़ बाकी सभी राजनीतिक दलों की दुर्दशा हो गई है, लेकिन बहुजन समाज पार्टी के लिए तो ये नतीजे उसके अस्तित्व का ही संकट बन गए हैं. लोकसभा में बसपा शून्य पर पहुंच गई है. गौरतलब है कि बसपा वह पार्टी है जिसके बारे में धारणा है कि इस पार्टी के पास अपना सबसे समर्पित काडर और वोटबैंक है. चुनावी आंकड़े भी बताते हैं कि वोट पाने के मामले में बसपा देश की तीसरी बड़ी पार्टी है. उत्तर प्रदेश में बसपा को 19.6 फीसदी वोट मिले हैं जबकि राष्ट्रीय स्तर पर उसके वोटों की हिस्सेदारी 4.1 है. बावजूद इसके उसकी सीटों की संख्या शून्य है. शून्य का आंकड़ा बसपा ने अपने पहले चुनाव 1985 में देखा था. उसके बाद से उसकी सीटों की संख्या में लगातार इजाफा हुआ था. अपने चतुर राजनीतिक गठजोड़ों और सोशल इंजीनियरिंग के जरिए बसपा ने बहुत कम समय में उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपना स्थान बनाया था. इसके पीछे एक सरकारी कर्मचारी कांशीराम की दूरगामी सोच काम कर रही थी. 1971 में कांशीराम ने बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटी एंप्लॉयी फेडरेशन (बामसेफ) का गठन किया था. 1983 में उन्होंने इसे राजनीतिक दल बहुजन समाज पार्टी का रूप दे दिया. बसपा के चमत्कारिक उभार के पीछे तत्कालीन परिस्थितियों का बड़ा हाथ था.

बसपा के पास न तो केंद्र में करने के लिए कुछ है न ही राज्य में. ऐसे में जब वह 2017 के विधानसभा चुनाव में जाएगी तो सपा या भाजपा की तरह उसके ऊपर जवाबदेही का कोई बोझ नहीं होगा

उत्तर प्रदेश का दलित (जिनमें चमार और जाटवों की बहुलता है) देश के दूसरे राज्यों के मुकाबले राजनीतिक रूप से अधिक संगठित और पर्याप्त रूप से जागरूक था. 1957 में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) के गठन के बाद महाराष्ट्र के बाहर उत्तर प्रदेश ही ऐसा राज्य था जहां यह पार्टी सबसे मजबूत थी. लेकिन आरपीआई के टूटने और इसके नेताओं की कारगुजारियों ने उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति को हाशिए पर पहुंचा दिया. 70 का दशक आते-आते आरपीआई के दो दिग्गज नेता बुद्ध प्रिय मौर्य और संघप्रिय गौतम क्रमश: कांग्रेस और भाजपा के साथ हो लिए. इस तरह जब कांशीराम ने उत्तर प्रदेश में अपना दायरा फैलाना शुरू किया तो लगभग एक दशक से यहां का राजनीतिक परिदृश्य दलित नेतृत्व से रिक्त था. कांशीराम की प्रतिभा और दूरदर्शी सोच ने उत्तर प्रदेश में व्याप्त दलित राजनीति की संभावनाओं को ताड़ लिया. उन्होंने अपने सहयोगी मायावती, आरके चौधरी आदि के साथ मिलकर दलितों और पिछड़ों को एकजुट करने का जबर्दस्त अभियान चलाया. अपने राजनीतिक अभियान को दलितों में पहुंचाने के लिए ‘तिलक तराजू और तलवार इनको मारो जूते चार’ जैसे लोकप्रिय जुमले चलाए. कड़ी मेहनत और परिस्थियों के साथ तालमेल ने उन्हें पहले से स्थापित दलों के बीच न सिर्फ स्थापित किया बल्कि दूसरों को हाशिए पर भी पहुंचा दिया. मायावती ने गुरु से मिली सीख को और समझदारी से खेलते हुए उसे आगे बढ़ाया. इस दौरान उन्होंने भाजपा का साथ भी लिया और उन ब्राह्मणों को भी अपने साथ जोड़ने की पहल की जिनके साथ बसपा का बुनियादी मतभेद रहा था. मायावती ने सर्वजन का फार्मूला ईजाद किया. कह सकते हैं कि उनकी महत्वाकांक्षा उन्हें बहुजन से सर्वजन तक ले गई. वरिष्ठ बसपा नेता आरके चौधरी के शब्दों में, ‘यह अवसरवाद नहीं है. जब आप मजबूत होते हैं तो हर आदमी आपके साथ जुड़ना चाहता है. यही ब्राह्मणों के साथ हुआ.’

कांशीराम ने जो सपना देखा था उसे सच होता देखने के लिए वे मौजूद नहीं थे. 2007 में जब बसपा ने अपना शिखर छुआ उसके कुछ महीने पहले ही कांशीराम का देहावसान हो चुका था. पार्टी को विधानसभा में कुल 206 सीटें मिलीं. यहीं से बसपा की कहानी में उतार का दौर भी शुरू हो गया. 2009 के लोकसभा चुनाव में पार्टी 19 सीटों पर सिमट गई. 2012 में विधानसभा चुनाव हुए तो उत्तर प्रदेश की सत्ता भी मायावती के हाथ से निकल गई. 2014 में मामला उस मोड़ तक आ पहुंचा है जहां पार्टी शून्य हो गई है.

बसपा की इस दुर्गति की वजह क्या रही? आरके चौधरी के शब्दों में, ‘यह संघ के प्रोपगैंडा और कॉर्पोरेट के पैसे का कमाल है. पर आप एक बात मान लीजिए इस तरह की बनावटी लहर हमेशा नहीं रहती. जल्द ही यह लहर दम तोड़ेगी. बसपा में वापसी करने की पूरी ताकत है.’ जानकारों के मुताबिक बसपा की संभावनाएं बिखरने की एक वजह सत्ता में आने के बाद से मायावती के आचार-विचार में आए बदलाव हैं. पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद मायावती ने दलितों के उत्थान का कोई गंभीर प्रयत्न नहीं किया. दलित नायकों के नाम पर बड़े-बड़े स्मारकों का निर्माण तो वे करवाती रहीं, लेकिन दलितों की सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में बदलाव का एक भी काम देखने को नहीं मिला. इस लिहाज से देखा जाए तो मायावती सत्ता की उसी बीमारी से ग्रस्त हो गईं जिनसे बाकी विचारधाराएं होती आईं हैं. यानी जनता की असुरक्षा और अज्ञानता को बनाए रखना और उसके ऊपर अपनी महत्वाकांक्षा के महल तैयार करना. जबकि मायावती के पास एक शानदार बहुमत था और वे ऐसा कर सकतीं थी. लेकिन उन्होंने न केवल अवसर गंवाया बल्कि लोगों के भरोसे का इस्तेमाल अपने व्यक्तिगत फायदे के लिए किया.

2014 के उम्मीदवारों की लिस्ट देखें तो हम पाते हैं कि बसपा ने सिर्फ 17 दलितों को टिकट दिया था. ये 17 टिकट भी प्रदेश की 17 सुरक्षित सीटों पर दिए गए थे जबकि दूसरी तरफ 21 ब्राह्मणों को टिकट दिया गया. यानी दलित पहचान की राजनीति करने वाली मायावती अपने काम में कहीं से यह नहीं दिखा रही थी कि वे दलितों की सबसे बड़ी नेता हैं. जाहिर सी बात है इसका खामियाजा उन्हें चुनाव के नतीजों में भुगतना पड़ा है. आंकड़े दिखाते हैं कि दूसरी जातियों और अल्पसंख्यकों के साथ-साथ दलितों ने भी इस बार बसपा का साथ छोड़ दिया है. उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के प्रवक्ता सुरेंद्र राजपूत बताते हैं, ‘मायावती का अतिआत्मविश्वास उन्हें ले डूबा. इतनी बुरी हालत के बाद भी वे कोई बड़ा बदलाव कर पाने की स्थिति में नहीं हैं क्योंकि पूरी पार्टी ही वन वूमन शो है. लिहाजा वे किसी और को जिम्मेदार भी नहीं ठहरा सकतीं.’ इस बार उत्तर प्रदेश के दलित वोटों में 1.61 करोड़ के कुल इजाफे के बावजूद इसमें से सिर्फ नौ लाख ने ही बसपा को वोट दिया. मायावती की आंखें इन नतीजों के बाद खुल जानी चाहिए कि राष्ट्रीय स्तर पर उनका वोट प्रतिशत 2009 के 6.17 से गिर कर 4.1 फीसदी रह गया है.

तो क्या इन नतीजों की बिना पर मायावती को खारिज किया जा सकता है? इलाहाबाद स्थित जीबी पंत सामाजिक संस्थान के प्रोफेसर और कांशीराम की जीवनी लिखने वाले प्रो. बदरी नारायण कहते हैं, ‘बसपा में वापसी करने की पूरी ताकत है. जैसे-जैसे भाजपा के प्रति उसके कामकाज को लेकर असंतोष बढ़ेगा, मायावती के लिए स्थितियां बेहतर होती जाएंगी. आने वाले समय में मोदी की लहर गिरेगी. जिस तरह से मायावती ने अपनी पहली समीक्षा बैठक में ठाकुरों और ब्राह्मणों को जिम्मेदार ठहराया है उससे एक बात तो साफ है कि बसपा अब पुराने आधार की तरफ लौट रही है. उनका सारा ध्यान अपना कोर वोट एकजुट बनाए रखने पर केंद्रित है. अगर भाजपा इन जातियों के लिए कुछ बेहतर नहीं करती है तो मायावती की वापसी हो जाएगी.’

मायावती और बसपा का भविष्य काफी हद तक 2017 के विधानसभा चुनाव के नतीजों से तय होगा. बसपा फिलहाल दिलचस्प स्थिति में खड़ी है. न तो उसके पास केंद्र में करने के लिए कुछ है न ही राज्य में. राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो ऐसे में जब वह 2017 के विधानसभा चुनाव में जाएगी तो उसके ऊपर जवाबदेही का कोई बोझ नहीं होगा, जबकि राज्य की सत्ताधारी सपा, जिसकी स्थिति अभी से डांवाडोल है तीन साल और काम कर चुकी होगी और तब उसके खिलाफ कहीं ज्यादा बड़ी सत्ता विरोधी लहर होगी. यही हालत फिलहाल यूफोरिया में जी रही भाजपा की भी होगी. भाजपा के जबर्दस्त चुनावी अभियान से पैदा हुई अतिशय उम्मीदों का गुबार तब तक काफी हद तक छंट चुका होगा. उस हालत में बसपा के प्रदर्शन पर सबकी उम्मीदें टिकी रहेंगी. मायावती की पहचान प्रदेश की कानून व्यवस्था की स्थिति रही है जिस पर मौजूदा सरकार बुरी तरह से असफल सिद्ध हो रही है. उस हालत में बसपा उत्तर प्रदेश की जनता के सामने एक स्वाभाविक विकल्प के रूप में खड़ी हो सकती है.  वरिष्ठ पत्रकार हेमंत तिवारी बताते हैं, ‘मायावती ने अपनी समीक्षा बैठक में प्रमुख नेताओं सतीश मिश्रा, मुनकाद अली और नसीमुद्दीन सिद्दीकी को खुलेआम खरी-खोटी सुनाई है. उनके प्रभार छीन लिए हैं. अब नई टीम के साथ वे अगले चुनाव की रणनीति तैयार कर रही हैं. जाहिर है सपा और भाजपा दोनों के खिलाफ आने वाले दिनों में एंटी इंकबेंसी पैदा होगी. जबकि बसपा इससे मुक्त होगी.’

समाजवादी पार्टी
जितनी बड़ी दुर्गति बसपा की हुई लगभग उतनी ही बड़ी हार का मुंह सत्ताधारी समाजवादी पार्टी को भी देखना पड़ा है. पार्टी के सिर्फ पांच सांसद जीते हैं और उनमें भी सब मुलायम सिंह के अपने परिवार के लोग हैं. पिछले दो सालों में जिस तरह से सपा की सरकार चली है उसने जनता के प्रचंड जनादेश को ठेंगा दिखाने का काम किया है. आज हालत यह है कि प्रदेश की प्रशासनिक व्यवस्था चरमरायी हुई लग रही है और राज्य का राजनीतिक नेतृत्व खुद को भ्रम की हालत में पा रहा है. भ्रम की दशा में पार्टी जो कदम उठा रही है जानकारों की मानें तो वे आने वाले समय में पार्टी को उलटे पड़ने वाले हैं. मंत्रिमंडल में फेरबदल करते हुए पार्टी ने कई मंत्रियों के विभाग बदले हैं. कइयों का कद छोटा हुआ है और एक मंत्री को पद से बर्खास्त किया गया है. भ्रम का वातावरण नीतिगत स्तर पर भी देखने को मिल रहा है. मसलन पूरे चुनाव में पार्टी जिन नीतियों और उलब्धियों का ढिंढोरा पीट रही थी हाल ही में पेश किए गए बजट में उन सभी योजनाओं को एक झटके में बंद कर दिया गया है. मुफ्त लैपटॉप, बेरोजगारी भत्ता और हमारी बेटी उसका कल जैसी योजनाएं इस दायरे में आती हैं. हालांकि इसका दूसरा और उजला पहलू यह है कि इस बार के बजट में पहली बार उत्तर प्रदेश सरकार ने किसी भी लोकलुभावन योजना से खुद को दूर रखते हुए बजट का अस्सी फीसदी हिस्सा ढांचागत विकास के लिए रखा है. लेकिन इसके परिणामों के बारे में फिलहाल कुछ नहीं कहा जा सकता. सारा दारोमदार इन योजनाओं के लागू होने पर है.

‘सपा सरकार को पांच साल में एक दूरी तय करनी थी. आधी दूरी दौड़ने के बाद  वह नए सिरे से चलने की बात कर रही है. लिहाजा अब उसे आधे समय में वह दूरी तय करनी होगी. यह असंभव लक्ष्य है’

पांच की संख्या ने सपा को ऊपर से नीचे तक झकझोर कर रख दिया है. पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव इससे बुरी तरह खीजे हुए हैं. तीन दिनों तक लगातार हुई समीक्षा बैठक के बाद पार्टी ने एक के बाद एक कई कार्रवाइयां की हैं. रेवड़ियों की तरह बांटे गए दर्जा प्राप्त राज्यमंत्रियों में से 36 को बर्खास्त कर दिया गया. लेकिन अब खबर है कि इनमें से कुछ की बहाली कर दी गई है. पार्टी ने एक और बड़ा कदम उठाया. मंत्रिमंडल में सबसे कम उम्र के मंत्री का दर्जा रखने वाले तेज नरायण पांडे उर्फ पवन पांडे को बर्खास्त कर दिया गया. इसके अलावा विजय मिश्रा, ब्रह्मा शंकर त्रिपाठी, मनोज पांडे के विभागों को बदल कर उन्हें कम महत्व के विभागों में भेजा गया है. इस बदलाव पर नजर डालें तो हम पाते हैं कि पार्टी ब्राह्मणों को इस हार के लिए जिम्मेदार मान रही है. जानकारों के मुताबिक इस कार्रवाई के नतीजे सपा के लिए सुखद नहीं होंगे. पार्टी की सोच चाहे जो हो लेकिन एक सच यह भी है कि सपा का मूल आधार यादव भी इस बार बड़ी संख्या में पार्टी से छिटक कर भाजपा के साथ जुड़ गया है.

सपा की दुविधा कई स्तरों पर दिख रही है. दो साल तक पार्टी ने जिन नीतियों और कार्यक्रमों को आगे बढ़ाया था अब अचानक से उन सभी को बंद कर दिया गया है. हेमंत तिवारी के शब्दों में, ‘पहले ये भ्रमित थे, अब महाभ्रमित हैं. सरकार को पांच साल में एक दूरी तय करनी थी. आधी दूरी दौड़ने के बाद सरकार ने अपने ही कामकाज से खुद को अलग कर लिया है. अब वह नए सिरे से चलने की बात कर रही है. लिहाजा अब उसे आधे समय में वह दूरी तय करनी होगी. यह असंभव लक्ष्य है.’ तिवारी के मुताबिक सपा शुरुआत में ही फिसल गई. उसने मायावती के कुशासन और एंटी इंकंबेंसी के खिलाफ मिले जनादेश को अपने चुनावी घोषणापत्र के वादों को मिली सफलता मान लिया. पार्टी दो साल तक लगातार लोकलुभावन वादों को आधा-अधूरा पूरा करने में लगी रही. नतीजा यह रहा कि प्रशासन के जरूरी कामकाज पर उसकी न तो कोई पकड़ बन पाई न ही कोई दूरगामी कामकाज इस दौरान देखने को मिला. बची-खुची लुटिया एक से अधिक सत्ता केंद्रों ने मिलकर डुबा दी.

स्थिति यह है कि अकेले मुख्यमंत्री के पास दर्जन भर से ज्यादा मंत्रालय हैं. वरिष्ठ पत्रकार गोविंद पंत राजू कहते हैं, ‘अखिलेश यादव को अपने सभी विभागों के सचिवों के नाम भी नहीं पता होंगे. ऐसी हालत में वे उन अधिकारियों से काम कैसे करवा पाएंगे?’ इन सब चीजों ने मिलकर दो साल के अंदर यह स्थिति पैदा कर दी कि आज प्रदेश का पूरा प्रशासनिक ढांचा ही चरमराया हुआ दिख रहा है. बलात्कार, हत्या और राहजनी की खबरें मीडिया में छाई हुई हंै. भाजपा के नेताओं पर जानलेवा हमले हो रहे हैं. जाहिर है हालात अचानक से इतने बेकाबू नहीं हुए हैं. पिछले दो सालों से कमोबेश ऐसी ही स्थितियां बनी हुई थीं. जाहिर है उकताई हुई जनता ने पहला मौका मिलते ही अपना गुस्सा जाहिर कर दिया है. इस दुर्दशा के पीछे प्रशासनिक अक्षमता बड़ी वजह है. हेमंत तिवारी कहते हैं, ‘प्रदेश के थानों में 60 फीसदी यादव थानेदार तैनात हैं. ज्यादातर को सपा का वरदहस्त प्राप्त है. आलम यह है कि जिले के कप्तान में भी इन पर हाथ डालने की हिम्मत नहीं है. तो कानून व्यवस्था की स्थिति पर काबू कौन करेगा?’

लोकसभा के नतीजे कह रहे हैं कि पिछले कुछ सालों के दौरान जतन से खड़ा किया गया मुलायम सिंह का यादव-ठाकुर-मुसलिम गठजोड़ छिन्न भिन्न हो गया है. जिस दौर में बसपा ब्राह्मणों के साथ सर्वजन का फार्मूला तैयार कर रही थी उसी दौर में राज्य की एक दूसरी प्रभावशाली सवर्ण बिरादरी राजपूतों ने सपा के झंडे तले राजनीतिक शरण ढूंढ़ ली. मई, 2002 में भाजपा और बसपा की मिली-जुली सरकार बनी. यह छह-छह महीने का प्रयोग था जिसमें पहले मायावती मुख्यमंत्री बनी थीं. उस सरकार को राजा भैया भी समर्थन दे रहे थे क्योंकि वे भाजपा के सहयोग से विधानसभा में थे. जल्द ही राजा भैया का मायावती सरकार से मोहभंग होने लगा. वे अमर सिंह के साथ रिश्ते बढ़ाने लगे. उनका यह कदम सरकार विरोधी गतिविधि के दायरे में आता था. यह बात मायावती को नागवार गुजरी क्योंकि उनकी सरकार के लिए यह खतरे की घंटी थी. 2003 में राजा भैया को धमकी के एक मामले में गिरफ्तार कर लिया गया. कुंडा स्थित उनके पैतृक महल में पुलिस ने छापा मारकर तमाम हथियारों के साथ दो एके-47 रायफलों की बरामदगी दिखाई. राजा भैया, उनके पिता उदय प्रताप सिंह और चचेरे भाई अक्षय प्रताप सिंह को पोटा के तहत गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया. राजा भैया के खिलाफ चार्जशीट दाखिल होने से पहले ही मायावती सरकार गिर गई थी. इस घटना ने राजा भैया को ठाकुरों के बड़े नेता के तौर पर स्थापित कर दिया. इसी दौरान भाजपा का राजनीतिक आधार सिकुड़ने लगा था. सपा ने अमर सिंह के माध्यम से राजा भैया को अपने साथ जोड़ लिया. इन दोनों पार्टियों की लड़ाई में 10-15 साल के दौरान ठाकुर सपा की ओर झुकते गए. लेकिन 2014 में स्थितियां बिल्कुल अलग हैं. राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक उत्तर प्रदेश में ठाकुरों के पास राजनाथ सिंह के रूप एक बड़ा और राष्ट्रीय कद का नेता था, मोदी के रूप में एक जबर्दस्त चुनावी अभियान चलाने वाला रणनीतिकार था. लिहाजा ठाकुरों का भी सपा से मोहभंग होना स्वाभाविक ही था.

मुसलमानों का मामला और भी असहज करने वाला है. यह बात जाहिर है कि इस बार सपा को मुसलमानों का वैसा समर्थन नहीं मिला है जैसा अतीत में उसे मिलता रहा है. इसकी बड़ी वजह एक से ज्यादा सेक्युलर विकल्पों को बताया जा रहा है. उस पर सपा की जो छवि बनी वह थी हद से ज्यादा मुसलमानों को रिझाने में लगी पार्टी. जाहिर है इसने बाकी हिस्सों को भाजपा के पक्ष में गोलबंद करने में बड़ी भूमिका निभाई.

दरअसल इस बार मुस्लिम मतदाता बुरी तरह से भ्रम की हालत में था. मुसलमानों की दूरी से पार्टी के भीतर के सत्ता समीकरण भी बदल गए हैं. जिस दिन मंत्रियों के विभागों में फेरबदल किया गया उस दिन सुबह हुई बैठक की एक घटना पार्टी की अंदरूनी स्थितियों पर कुछ रोशनी डाल सकती है. पार्टी सूत्रों के मुताबिक बैठक में शामिल होने के लिए मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव, शिवपाल यादव और राम गोपाल यादव समेत प्रदेश मंत्रिमंडल के तमाम मंत्री पार्टी कार्यालय में इकट्ठा हुए थे. लेकिन सबसे पहले मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव शिवपाल यादव और राम गोपाल यादव ने आपस में अकेले एक घंटे तक मंत्रणा की. इस दौरान तमाम मंत्रियों के साथ आजम खान भी बाहर इंतजार करते रहे. परिवार के सदस्यों की मीटिंग समाप्त होने के बाद जब सभी मंत्रियों को मीटिंग में बुलाया गया तभी आजम खान भी मीटिंग में शामिल हुए. सपा के एक नेता बताते हैं, ‘फिलहाल आजम खान प्रशासन में अड़ंगा डालने वाली आदत से बाज आ गए हैं.’ यह घटना चुनाव के बाद उत्पन्न स्थितियों के चलते सपा में आजम खान की हैसियत और मुसलिम राजनीति को लेकर पैदा हुई उहापोह पर रोशनी डालती है.

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लखनऊ में सपा सरकार के खिलाफ भाजपाइयों का विरोध प्रदर्शन. फोटो: प्रमोद अधिकारी

भारतीय जनता पार्टी
लोकसभा के नतीजों ने एक दशक से मरणसन्न पड़ी उत्तर प्रदेश भाजपा में नई जान फूंक दी है. इस चमत्कारिक जीत का थोड़ा बारीकी से मुआयना करें तो हम पाते हैं कि पार्टी ने तीन स्तरों पर बेहद सुनियोजित रणनीति के साथ उत्तर प्रदेश और बिहार के किलों को फतह किया है. पहला, मोदी की विकास पुरुष की छवि. दूसरा, मोदी की हिंदुत्ववादी नेता की छवि. तीसरा, मोदी की ओबीसी नेता की छवि. यह तीनों रणनीतियां मिलकर भाजपा के लिए चुनाव जिताऊ फार्मूला बन गईं. अलग-अलग स्थानों पर हालात के हिसाब से भाजपा ने इन तीनों ही छवियों का इस्तेमाल किया. तीसरी वाली छवि उत्तर प्रदेश के लिहाज से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं. भाजपा ने इस चुनाव में कुल 27 पिछड़े उम्मीदवारों को टिकट दिया था. ये सभी इस समय लोकसभा मंे विराजमान हैं. यह समाजवादी पार्टी के लिए खतरे की घंटी है. पहली बार प्रदेश की जनता ने मुलायम सिंह के पिछड़ों को नकार कर मोदी के पिछड़ों में विश्वास दिखाया है. भाजपा की रणनीति आने वाले तीन सालों में मोदी की इस पिछड़ा छवि को और मजबूत करने और उसे जमकर भुनाने की है. जानकारों के मुताबिक उत्तर प्रदेश और बिहार के विधानसभा चुनाव में इसका जबर्दस्त विस्तार देखने को मिलेगा. इन दोनों ही राज्यों में मोदी के मुख्य विरोधी पिछड़े नेता (मुलायम सिंह, लालू यादव, नीतीश कुमार) हैं. हालांकि इसका दूसरा पहलू यह भी है कि इस दौरान भाजपा के भीतर के टकराव भी सतह पर आएंगे. सुरेंद्र राजपूत कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में नेतृत्व का मसला भाजपा के गले की हड्डी बन सकता है. इसके अलावा संघ जिस नीयत से पिछले 66 सालों से भाजपा को पोस रहा था उसे पूरा करने का अवसर उसे पहली बार मिला है. इन स्थितियों से निपटना भाजपा के लिए बड़ा मुश्किल होगा.’

इसके अलावा जिस पैमाने पर विकास पुरुष के रूप में मोदी का अभियान चुनावों के दौरान चला उसका असर यूपी-बिहार जैसे बीमारू, पिछड़े किंतु महत्वाकांक्षी सूबे के ऊपर पड़ना ही था क्योंकि यहां का पुराना नेतृत्व लोगों के भीतर किसी भी तरह की उम्मीद या भरोसा पैदा कर पाने में पूरी तरह से असफल  हो चुका था. इसके अलावा अपनी सुनियोजित प्रचार रणनीति के जरिए भाजपा ने सपा-बपसा की अवसरवादी और जातिवादी राजनीति को भी पूरी सफलता के साथ उजागर किया. विधानसभा चुनावों के मद्देनजर सबसे स्पष्ट दिशा में भाजपा ही आगे बढ़ रही है. लोकसभा की जिन सात सीटों पर प्रदेश में भाजपा हारी है उन सभी पर एक मंत्री और एक सांसद को प्रभारी बनाकर समीक्षा रिपोर्ट मांगी गई है. यह रिपोर्ट अमित शाह को भेजी जाएगी.

भाजपा की रणनीति आने वाले तीन सालों में मोदी की पिछड़ा छवि को और मजबूत करने और उसे भुनाने की है. हालांकि उत्तर प्रदेश में नेतृत्व का मसला उसके गले की हड्डी बन सकता है

भाजपा के विपरीत सपा और बसपा के नजरिए से देखें तो हम पाते हैं कि जातिगत राजनीति की सफलता ने इन दलों को इस हद तक अंधा कर दिया था कि वे लोगों के भीतर चल रही उथल-पुथल और बदलाव को  भांप ही नहीं सके. हाल के सालों में यहां बेरोजगारी भयंकर रूप से बढ़ी है. उदारवादी व्यवस्था के प्रभाव में आने के बाद पूरे देश की तरह यहां भी जो बदलाव या विकास हो रहा है वह उस मात्रा में रोजगार पैदा नहीं कर रहा है. सार्वजनिक और सरकारी क्षेत्र लगातार सिकुड़ता जा रहा है लिहाजा आरक्षण भी अप्रासंगिक होता जा रहा है. दूसरी तरफ सूचना की गति बहुत तेज हो गई है जिसने लोगों में उम्मीदों को जबर्दस्त तरीके से बढ़ाया है. आज जातिगत भेदभाव की वैसी आग शेष नहीं है जैसी दो या तीन पीढ़ी पहले तक हुआ करती थी. ऐसे तमाम उदाहरण हैं जहां लोग बिना किसी दिक्कत के ऊंची जातियों के साथ दोस्ताना और सामाजिक रिश्ते कायम कर रहे हैं. जाहिर है कि मूल समस्याओं से उबर चुकी पीढ़ी से जब कोई विकास की बात करेगा तो यह उन्हें अपनी तरफ जरूर खींचेगा. उदारवादी संस्कृति में आई भौतिक समृद्धि से दलित या पिछड़े बचे नहीं हैं. अपने निरंतर और आक्रामक अभियानों के जरिए भाजपा ने इन परिस्थितियों का पूरी कुशलता से इस्तेमाल किया जबकि बसपा और सपा अपनी पुरानी जातिगत और अवसरवादी उलझनों में उलझे रहे.

हालांकि ये नतीजे भाजपा के लिए भी दोधारी तलवार पर चलने जैसे हैं. जिस तेजी से यहां लोगों ने विकल्प की तलाश में पुराने विकल्पों को ठेंगा दिखाया है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि फिलहाल भले ही ऐसा लगता हो कि उत्तर प्रदेश जातिवाद के चंगुल से मुक्त होता दिख रहा है, लेकिन इस लड़ाई का अंतिम राउंड 2017 के विधानसभा चुनाव होंगे. तभी फैसला होगा कि भाजपा को 2014 में मिली सफलता स्थायी थी या लहर थी.

एक कदम आगे, दो कदम पीछे

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लोकसभा चुनाव के बाद नीतीश कुमार और लालू यादव अपनी-अपनी राजनीतिक जमीन बचाने के लिए साथ आ गए. फाईल फोटो

बिहार की राजधानी पटना में मशहूर डाकबंगला चौराहे के पास ही है होटल गली. गली में आड़े-तिरछे, ऊपर-नीचे, दायें-बायें बिखरे बहुतेरे होटल हैं. सस्ते भी और इस वजह से लंबे समय तक टिकने लायक भी. इन होटलों में सबसे ज्यादा बसेरा राजनीतिक कार्यकर्ताओं और जिलास्तरीय नेताओं का होता है. इलाके में सुबह से शाम तक राजनीति की अखाड़ेबाजी होती है.

इसी होटल गली में चाय की एक दुकान के पास मजमा लगा है. सभी दलों के नेता गप्प में मशगूल हैं. बातचीत चलती है तो कोई जदयू के एक नेताजी से कहता है कि उनकी पार्टी का राजद, सीपीआई और कांग्रेस के साथ 100-100-39-04 वाला फॉर्मूला तय हो गया है, ऐसी बात हवा में उड़ रही है. यानी अगले विधानसभा चुनाव में 100 सीटों पर जदयू, 100 पर राजद, 39 पर कांग्रेस और चार सीटों पर सीपीआई. नेताजी गुस्से में आ जाते हैं. कहते हैं, ‘हवा की बात पर फालतू की हवाबाजी न कीजिए! जिस जदयू के पास अभी ही 117 सीटें हैं  वह भला 100 पर क्यों लड़ने को तैयार होगी?’

एक दूसरे नेता बात काटते हैं. कहते हैं, ‘अरे महाराज, यही तो मूल बात है कि 117 विधायक मिल के 10 सीट भी नहीं दिलवा सके लोकसभा में. एक-एक दर्जन विधायक भी ऊर्जा लगाते एक सीट पर तो 10 का हिसाब-किताब तो होना ही चाहिए था.’ बात जारी रहती है. एक और नेता हंसते हुए कहते हैं, ‘खाली गाल बजाइएगा कि 117 विधायक हैं  इसलिए ज्यादा सीट चाहिए तो लालू जी भी तो कहेंगे कि अभी जो लोकसभा चुनाव निपटा है उसमें अधिकांश सीटों पर  उनकी पार्टी भाजपा के मुकाबले में थी इसलिए उन्हें ज्यादा सीट चाहिए.’ तीसरे नेताजी का हस्तक्षेप होता है, ‘बेकार बात कर रहे हैं आप लोग. लालू जी से अगर नीतीश कुमार मिले और दो दशक में बनाई हुई पार्टी को मटियामेट करने के रास्ते पर चले तो सबसे पहले आदमी हम होंगे जो 2010 के चुनाव से लेकर पिछले लोकसभा चुनाव तक सारे बयान और इंटरव्यू मिलाकर पोस्टर- किताब तैयार करेंगे और पूरे बिहार में बंटवाएंगे.’

वरिष्ठ से दिखने वाले जदयू के एक नेताजी कहते हैं, ‘ऐसा आप ही नहीं कीजिएगा बल्कि बहुत लोग करेंगे. लेकिन अब रास्ता क्या है? कोई विकल्प हो तो बताइए. लोकसभा में पार्टी दो सीटों पर सिमटी  है, विधानसभा में कोई रिस्क नहीं लिया जा सकता. अगर फिर कहीं वैसा ही हो गया और बिहार भी हाथ से निकल गया तो फिर निकट भविष्य में पकड़ में आना मुश्किल हो जाएगा.’ यह नेताजी आगे जो कहते हैं कि उसका सार यह है कि न चाहते हुए भी जदूय को राजद के साथ जाना होगा तभी 14 प्रतिशत यादव, 16.5 मुस्लिम, दो-तीन प्रतिशत कुरमी आदि को मिलाकर एक ठोस वोट बैंक रहेगा, जिसमें अतिपिछड़ों-महादलितों आदि को जोड़कर एक पारी और का सपना देखा जा सकता है.

लोकसभा चुनाव में जिस तरह बिहार में भाजपा ने जदयू को समेट दिया उससे हैरान-परेशान नीतीश कुमार अब अपना अस्तित्व बचाने के लिए सियासी समीकरण में कोई भी हेरफेर सह लेने को तैयार हैं

बात गरमागरम बहस में बदलती है और फिर अगर-मगर के रास्ते जातियों के प्रतिशत वाले गुणा-गणित में. बीच में ही भाजपाई नेता चुटकी लेते हुए कहते हैं, ‘जाति का गुणा-गणित ही खाली लगेगा कि एजेंडा विकास का भी होगा. लालू जी तो कहते हैं सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता. नीतीश जी भी अब कहते हैं सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता. तो न्याय के साथ विकास वाला नारा अब नीतीश जी चलाएंगे कि नहीं. अगर नहीं चलाएंगे तो लगता है कि बिहार में जिस नारे के जरिए 1990 में लालू प्रसाद सत्ता में आए थे और नीतीश कुमार खेवनहार बने थे,  उसी नारे के जरिए फिर 2015 में भी नैया पार लगेगी.’ उनकी बात जारी रहती है, ’25 साल तक लालू जी और नीतीश जी की ही सत्ता रही. तो क्या इतने सालों में नारा बदलने भर भी काम नहीं कर सके?’

जदयू वाले नेताजी हमलावर होते हैं, ‘विकास न हुआ तो अईसने था बिहार.’ भाजपाई नेता कहते हैं, ‘ई विकास में तो हम भी साथ रहे हैं. और ई भी तो बताइये कि कैसा था बिहार. ई तो बताना पड़ेगा न कि कैसा था बिहार. तो जिसने ऐसा-वैसा-जैसा-तैसा बिहार कर के दिया था, उसके साथ रहिएगा भी और उसके बारे में बोलिएगा भी. कैसे बोलिएगा विकास की बात, बताइये खुल के.’

जदयू और भाजपा वालों में कालर पकड़ा-पकड़ी की स्थिति आ जाती है. राजदवाले कुछ नहीं बोलते. बात इसके बाद भी देर तक चलती रहती है. भाजपावालों पर सवालों का प्रहार न तो जदयू वाले करते हैं, न राजद वाले. आखिर में जब चाय की दुकान वाला उकता जाता है और दुकान बंद कर देता है तो बात खत्म होती है.

होटल गली की यह बातचीत इसका एक उदाहरण है कि लोकसभा चुनाव के परिणाम ने बिहार की राजनीति को किस तरह सिर के बल खड़ा कर दिया है. नहीं तो आज से दो महीने पहले तक कौन सोच सकता था कि भाजपा बिहार में इतना अविश्सनीय प्रदर्शन करेगी और जदयू व राजद की इतनी बुरी गत हो जाएगी. न ही किसी ने यह सोचा होगा कि 18 साल पहले लालू प्रसाद यादव के विरोध के नाम पर भाजपा से हाथ मिलाने वाले नीतीश कुमार भाजपा को रोकने के नाम पर उन्हीं लालू का समर्थन मांगने को मजबूर होंगे.

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लालू के लिए यह अवसर नीतीश से पुराने हिसाब-किताब बराबर करने का भी है.

पड़ोसी उत्तर प्रदेश की तरह बिहार ने भी हर तरह की राजनीति देखी है. धर्म की, जाति की, जाति के भीतर जाति की और विकास की भी. हाल के लोकसभा चुनाव परिणाम से उपजी स्थितियों के चलते जिस तेजी से बिहार में सियासी समीकरण बदल रहे हैं उन पर होटल गली जैसी चर्चा आजकल राज्य के हर छोटे-बड़े चौक-चौराहे पर सुनने को मिल रही है. लेकिन आगे क्या होगा, उस पर धुंध की परछाई जैसी है. हां एक बात जरूर साफ-साफ कही जा रही है कि लोकसभा चुनाव में जिस तरह बिहार में भाजपा ने जदयू को समेट दिया उससे हैरान-परेशान नीतीश कुमार अब अपना अस्तित्व बचाने के लिए सियासी समीकरण में कोई भी हेरफेर सह लेने को तैयार हैं. उनके सामने सिर्फ दो ही मकसद बच गए हैं–बिहार में अपनी पार्टी का अस्तित्व बचाना, अगली बार यानी नवंबर 2015 में होनेवाले विधानसभा चुनाव में भाजपा को आने से रोकना और उसी चुनाव में भाजपा से लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार का बदला चुकाना. नीतीश कुमार कहते भी हैं कि अब उनका सबसे बड़ा मकसद भाजपा का थउआ-थउआ यानी छक्के छुड़ाना रह गया है. इसके लिए ही उन्होंने राज्यसभा की तीन सीटों पर हुए उपचुनाव के दौरान उन लालू प्रसाद के साथ एलानिया नजदीकी बढ़ाई जिनका विरोध ही उनकी राजनीतिक बढ़त की बुनियाद जैसा रहा है. लालू-राबड़ी के शासनकाल को आतंकराज और विकास से कोसों दूर रहनेवाली सरकार बताकर ही नीतीश कुमार 2005 में बिहार की सत्ता संभालने में कामयाब हुए थे. उसके बाद से हाल तक वे लालू प्रसाद को खलनायक के तौर पर जिंदा रखकर ही राजनीतिक लाभ की फसल काट रहे थे. एक महीने पहले तक नीतीश के मन में लालू प्रसाद के प्रति दुश्मनी का कैसा भाव था वह उस प्रतिक्रिया से भी समझा जा सकता है जो उन्होंने महादलित नेता जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाने के बाद राजद से समर्थन मिलने पर दी थी. मांझी की सरकार बनी तो कांग्रेस-सीपीआई के साथ मान-न-मान, मैं तेरा मेहमान की तर्ज पर राजद ने भी समर्थन पत्र सौंपा था और नीतीश  ने तब सार्वजनिक रूप से लालू पर निशाना साधते हुए कहा था कि लोग खुद ही समर्थन की चिट्ठी लिए चले आ रहे हैं, जबकि हम पूछ तक नहीं रहे.

लेकिन वक्त के फेर ने राज्यसभा उपचुनाव में नीतीश कुमार को उन्हीं लालू प्रसाद की शरण में जाने को मजबूर कर दिया है. दूसरी ओर लालू हैं, जो लगातार दो लोकसभा और विधानसभा चुनावों में अपनी पार्टी  की दुर्गति से और भी हताशा की गर्त में समानेवाले थे, लेकिन अब नीतीश की हताशा ने उन्हें ऊर्जा से भर दिया है. राजनीति की नब्ज को समझने में माहिर लालू हालात से उपजी स्थितियों को पूरी तरह भुनाने के मूड में हैं. वे भाजपा से लड़ने-भिड़ने को तो तैयार हैं ही, लगे हाथ जदयू से भी वर्षों पुराना हिसाब-किताब अपने तरीके से चुकता कर लेने के मूड में हैं. इसका एक बड़ा उदाहरण तब दिखा जब राज्यसभा उपचुनाव में नीतीश कुमार सार्वजनिक तौर पर लालू प्रसाद से समर्थन मांगते रहे, खुद लालू को फोन करने के अलावा मीडिया के जरिये गिड़गिड़ाते से रहे, लेकिन लालू ने दो-चार दिनों तक सस्पेंस बनाकर रखा. यह तय होते हुए भी कि उनके पास भी समर्थन देने के अलावा कोई विकल्प नहीं, लालू ने जदयू को तड़पाया. नीतीश को बार-बार गिड़गिड़ाने को मजबूर कर पुराना हिसाब-किताब बराबर करने की छोटी ही सही पर कोशिश की. जो लालू को जानते हैं वे बता रहे हैं कि नीतीश कुमार से गठबंधन के बाद भी लालू मौके-बेमौके यह हिसाब-किताब बराबर करते रहेंगे क्योंकि उनके मन में नीतीश के प्रति गहरे घाव का भाव है जो जल्दी जाएगा नहीं. आखिर नीतीश ने ही तो उनके तमाम राजनीतिक अरमानों का गला घोंटा है और भाजपा के साथ मिलकर उन्हें बिहार की राजनीति का सबसे बड़ा खलनायक बनाया है.

राजनीति की नब्ज को समझने में माहिर लालू प्रसाद भाजपा से लड़ने-भिड़ने को तो तैयार हैं ही, लगे हाथ जदयू से भी वर्षों का पुराना हिसाब-किताब अपने तरीके से चुकता कर लेने के मूड में हैं

हालांकि फिलहाल ये सारे सवाल पीछे जा रहे हैं और दूसरे किस्म के सवाल तेजी से उभर रहे हैं. मसलन लोकसभा चुनाव में हुए नुकसान की भरपाई करने के लिए नीतीश कुमार एक-एक कर जिस तरह के फैसले ले रहे हैं उनसे क्या वे फिर से खड़े हो पाएंगे? क्या मुख्यमंत्री पद छोड़ने, महादलित समुदाय से जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाने और अब लालू प्रसाद के साथ गठबंधन की तैयारी के बावजूद नीतीश और उनकी पार्टी तुरंत उस स्थिति में पहुंच सकते हैं जिसमें सत्ता का नियंत्रण उनके पास बना रहे. क्या नीतीश कुमार एक ऐसी राह के राही बनने को तैयार हैं जिसमें झाड़-झंखाड़ तो बहुत हैं लेकिन मंजिल तक पहुंचने के लिए आखिरी संभावनाएं भी उसी में हैं?

इन सवालों का जवाब बहुत साफ भी है और बहुत उलझा हुआ भी. दोनों ही दलों यानी राजद और जदयू में नेताओं का एक छोटा समूह नीतीश के भाजपा से अलगाव के बाद से ही मानता रहा है कि अब दोनों के एक हो जाने से ही भाजपा को परास्त करना संभव होगा. लेकिन दोनों दलों में ऐसे नेताओं की भी खासी संख्या है जिनकी राय इसके उलट है. यानी जो यह मानते हैं कि दोनों दलों में गठबंधन होने का मतलब है यह स्वीकार कर लेना कि अब बिहार में मुख्य ताकत भाजपा ही बन गई है और उससे लड़कर अपना अस्तित्व बचाने के लिए भानुमति का कुनबा बन रहा है, जिससे भाजपा और मजबूत भी हो सकती है. राजद में दूसरे-तीसरे नंबर के एक नेता ओशो का उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘ओशो कहा करते थे कि गंगाजल और गाय के दूध को एक साथ नहीं मिलाना चाहिए. दोनों स्वतंत्र रूप से शुद्ध होते हैं, लेकिन आपस में मिलाते ही दोनों का अस्तित्व नहीं रह जाता. गाय का दूध भी अशुद्ध हो जाता है और गंगाजल का तो पता ही नहीं चलता.’

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बिहार भाजपा की कोशिश अब अतिपिछड़ा वोट खींचने की है. फोटो: विकास कुमार

राजद के नेता छायावाद में बात करते हैं, लेकिन दूसरे कई नेता सीधे-सीधे अपनी बात रखते हैं. राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के प्रमुख व केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा कहते हैं कि जदयू और राजद साथ मिलकर लड़ें या अलग-अलग, दोनों ही स्थितियों में उन्हें कोई फायदा नहीं होगा. उनका कहना है कि शून्य और शून्य कैसे भी मिले उसका जोड़ शून्य ही होता है. पूर्व में जदयू और राजद दोनों के संगी-साथी रहे शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘लोकसभा चुनाव परिणाम ने दोनों ही दलों के समक्ष अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया है और लगता है कि दोनों इसे समझ भी रहे हैं, इसीलिए दोनों दलों के बीच कुछ पक रहा है.’ तिवारी हालांकि लगे हाथ यह भी कहते हैं कि दोनों दलों के बीच गठबंधन के पहले यह भी देखना होगा कि दोनों दलों का जो सामाजिक और जातीय आधार है, वह एक-दूसरे को कितना स्वीकार कर पाता है.  उस पर भी बहुत कुछ निर्भर करेगा.

शिवानंद तिवारी यह बात सही कहते हैं. वक्त की जरूरत के हिसाब से जदयू और राजद ने राज्यसभा चुनाव में एक दूसरे से नजदीकी तो बढ़ा ली, लेकिन आगे इसे जारी रखना इतना आसान नहीं होगा. लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के बीच सामंजस्य के बिंदु सीमित हैं. इतने ही कि दोनों समाजवादी राजनीति की उपज हैं और दोनों सामाजिक न्याय की राजनीति की बात करते रहे हैं. लेकिन दोनों के रास्ते हमेशा अलग रहे हैं. लालू प्रसाद और राबड़ी देवी के 15 साल के राज में बिहार में यादव विरोधी पिछड़ों की गोलबंदी भी हुई थी जिसके चलते नीतीश कुमार बतौर बड़े नेता उभर सके थे. नीतीश के उभरने के बाद पिछड़ी जातियों में यादव बनाम यादव विरोधी पिछड़ों का बंटवारा साफ-साफ हुआ और उसे साधकर नीतीश अपनी राजनीति आगे बढ़ाते रहे. अब जबकि नीतीश कुमार भी लगभग आठ सालों तक खुद सत्ता में रह चुके हैं तो पिछड़ी जातियों में कुरमी विरोधी गोलबंदी भी सुगबुगाहट के दौर में है. इसका एक नमूना लोकसभा चुनाव में देखने को मिला जब भाजपा ने थोड़ा हवा-पानी देते हुए उपेंद्र कुशवाहा को आगे बढ़ाया तो नीतीश का एक मजबूत और पुराना समीकरण कुशवाहा-कुरमी टूट गया और राज्य के अलग-अलग हिस्से में रहनेवाले कुशवाहा नीतीश से छिटक गए. राजनीतिक जानकारों का मानना है कि यह इसलिए संभव हुआ कि इस टूट के लिए पर्याप्त संभावनाएं पहले से मौजूद थीं जिन्हें भाजपा ने सिर्फ हवा-पानी देकर भुना लिया. ऐसी ही संभावनाएं और दूसरी पिछड़ी जातियों में भी हैं.

भाजपा की पूरी कोशिश किसी तरह अतिपिछड़ा समूह और महादलित वर्ग में सेंधमारी करने की है. इसके लिए पार्टी की संगठन में अतिपिछड़ों को अधिक से अधिक जगह देने की योजना है

अब सवाल यह है कि लोकसभा चुनाव के बाद जब भाजपा की भारी जीत ने राज्य के सारे समीकरण उलट दिए हैं तो किस पार्टी को कौन सी राह अपनाने से फायदा हो सकता है. नीतीश कुमार और लालू प्रसाद अगर साथ मिलते हैं तो यह साफ कहा जा रहा है कि फिर बिहार की राजनीति जाति की परिधि में ही होगी. इसलिए कि लालू को साथ रखकर नीतीश विकास के एजेंडे को सामने रखते हुए खुलकर बात नहीं कर पाएंगे. और अगर वे आठ सालों में अपने किए काम की दुहाई देंगे तो भाजपा उसमें साझीदार के तौर पर खुद को पेश करेगी. लालू-नीतीश गठजोड़ के बाद उसके लिए यादव, मुस्लिम, कुरमी का वोट पक्का होगा, ऐसा जानकार बता रहे हैं. लेकिन बीते लोकसभा चुनाव को देखते हुए यह भी मुश्किल ही दिखता है. लोकसभा चुनाव में यादव वोट भी लालू प्रसाद से तेजी से छिटका. नीतीश कुमार को कुरमी जाति का वोट भी शत प्रतिशत वाले ट्रेंड की तरह नहीं मिला, वरना कोई वजह नहीं थी कि नीतीश की पार्टी को अपने मूल इलाके नालंदा में जीत इतनी मशक्कत के बाद मिलती. पिछड़ी जातियों में चार प्रमुख जातियां आती हैं. इनमें दो यानी यादव और कुरमी अगर लालू-नीतीश गठजोड़ की ओर हो भी जाते हैं तो वैश्य और बहुतायत में कुशवाहा दूसरे छोर पर होंगे यानी भाजपा के संग होंगे. लालू प्रसाद और नीतीश कुमार का गठजोड़ अगर मुस्लिम मतों पर एकाधिकार के साथ दावा करेगा तो दूसरी ओर ऐसा ही दावा भाजपा सवर्णों के मतों पर करेगी.  इसके बाद सारा खेल अतिपिछड़ों और महादलितों के वोट पर निर्भर करेगा. इन दोनों जाति समूहों के जन्मदाता नीतीश हैं, इसलिए स्वाभाविक रूप से इनके वोट पर उनकी सबसे बड़ी दावेदारी बनती है और है भी. जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाकर नीतीश ने महादलित समूह को अपने पाले में बनाए रखने की कोशिश भी की है. दूसरी ओर अतिपिछड़ी जातियों के बारे में यह माना जा रहा है कि वे अब तक एक ठोस समूह के तौर पर विकसित नहीं हो सकी हैं. यानी ये जातियां चुनाव में एकमुश्त, एक ओर ही मतदान करें, इसका दावा नहीं किया जा सकता. यह पिछले साल हुए महाराजगंज लोकसभा उपचुनाव में भी देखा गया था. फिर भी नीतीश कुमार को ही इन दोनों समूहों का चैंपियन नेता माना जाता है. अब तक भी.

नरेंद्र मोदी के नाम पर लोकसभा चुनाव में उफान मारनेवाली भाजपा के सामने यही सबसे बड़ी चुनौती है. पार्टी सवर्णों, वैश्यों, कुशवाहाओं और पासवानों को अपने पाले में मानते हुए एक बड़े समूह का निर्माण करते हुए तो दिखती है, लेकिन यह समूह इतना बड़ा नहीं होता जो नीतीश-लालू का गठजोड़ हो जाने के बाद बने समूह से पार पा सके. भाजपा के एक नेता बताते हैं कि पार्टी की पूरी कोशिश किसी तरह अतिपिछड़ा समूह और महादलित वर्ग में सेंधमारी करने की है. इसके लिए पार्टी केंद्र में सत्तारूढ़ होने का फायदा उठाना चाहती है और साथ ही संगठन में अतिपिछड़ों को अधिक से अधिक जगह देकर सेंधमारी करना चाहती है. भाजपा चाहती है कि केंद्र की मोदी सरकार अतिपिछड़ों और महादलितों को साधने में मदद करे और कुछ खास योजनाओं की सहमति दे.

और आखिर में भाजपा की बड़ी उम्मीदें अपने मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर टिकी हुई हैं जिसने बीते लोकसभा चुनाव में जमीनी स्तर पर काम कर सारे समीकरण पलट दिए. भाजपा भले ही संघ की भूमिका पर खुलकर न बोले, लेकिन लालू प्रसाद यादव जैसे नेता खुलकर इसे स्वीकारते हैं. लालू कहते हैं, ‘हमारी सभाओं में ज्यादा भीड़ हो रही थी, लेकिन संघ वालों ने आखिरी वक्त में खेल बदल दिया.’ लालू प्रसाद आगे कहते हैं, ‘ऐसा नहीं कि हमें वोट नहीं मिला. हमारा यानी राजद, जदयू, कांग्रेस आदि को मिलाकर वोट बढ़ा है, लेकिन तीनों को मिलाकर सीटें सिर्फ सात आ सकीं. भाजपा ने गरीबों, पिछड़ों आदि को सांप्रदायिक रूप से चार्ज करके मतों का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कर दिया जिसका नुकसान हमें हुआ.’

लोकसभा चुनाव के बाद उल्टी दिशा का रास्ता पकड़ चुकी बिहार की राजनीति का अगला रास्ता क्या होगा, यह कुछ दिनों बाद ही स्पष्ट हो जाएगा जब बिहार में 11 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होंगे

लालू की बात गलत नहीं, लेकिन अगले विधानसभा चुनाव में भाजपा ऐसा खेल नहीं करेगी, इसकी गारंटी भी देने की स्थिति में कोई नहीं. और दूसरी बात यह कि सत्ता में 23 साल रहने वाली दो जातियों के दो प्रमुख नेताओं लालू प्रसाद और नीतीश कुमार का अगर गठजोड़ होगा तो फिर दूसरे किस्म के ध्रुवीकरण की गुंजाइश भी बनेगी. भाजपा ऐसी तमाम कोशिशें करेगी, लेकिन उसे भी पता है कि लोकसभा की तरह विधानसभा में नैया पार लगाना इतना आसान नहीं होगा. एक तो पार्टी में कोई एक ऐसा नेता नहीं जिसकी अपील पूरे राज्य में हो. दूसरी बात यह कि दल में किसी एक नेता के नाम पर सहमति बनने की राह में भी बहुतेरे रोडे़ हैं. तीसरी बात यह कि भाजपा पर तेजी से सवर्णों की पार्टी का ठप्पा लगा है जिसकी कीमत राजनीतिक जानकारों के मुताबिक उसे विधानसभा चुनाव में चुकानी होगी.

लोकसभा चुनाव के बाद उल्टी दिशा का रास्ता पकड़ चुकी बिहार की राजनीति का अगला रास्ता क्या होगा, यह कुछ दिनों बाद ही स्पष्ट हो जाएगा जब बिहार में 11 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होंगे. अगर नीतीश कुमार ने अपने बागियों को बर्खास्त कर दिया तो 15 सीटों पर चुनाव होंगे. इस चुनाव में लालू और नीतीश के बीच गठजोड़ बन पाता है या नहीं,  यह भी देखा जाएगा. अगर बनता है तो संयुक्त रूप से भाजपा से लड़ने के लिए उनके पास औजार क्या होंगे, इसका खुलासा भी होगा  जिससे भविष्य की लड़ाई का अंदाजा हो जाएगा. सबसे खास बात यह कि इस लड़ाई में कौन किस पर भारी पड़ता है, उससे भी बहुत कुछ साफ होगा. लेकिन यह तय है कि भाजपा की जीत-हार या राजद के पुनर्जीवन से बड़ा सवाल नीतीश कुमार का होगा जो दो दशक के दौरान वाम से लेकर दक्षिण तक का साथ लेकर राजनीतिक यात्रा करने के बाद आखिर में फिर अपने मूल स्थान पर लौटने की तैयारी में दिख रहे हैं.

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मांझी और नैया 

बिहार की राजनीति में जीतन राम मांझी पाला और पासा, दोनों पलट सकते हैं.

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नीतीश कुमार ने जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनवाकर बड़ा दांव खेला है, पर क्या यह सफल होगा.

लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद छोड़ते हुए जब इस कुर्सी के लिए एक अदद नेता की तलाश शुरू की तो अनुमान पर अनुमान लगाए जाते रहे. कभी किसी का नाम सामने आता, कभी किसी का. एक बड़ा वर्ग यह भी मानता रहा कि नीतीश फिर से खुद ही मुख्यमंत्री बन जाएंगे. लेकिन उन्होंने जीतन राम मांझी को सीएम बनवाकर सारे अनुमान ध्वस्त कर दिए. महादलित समुदाय से आनेवाले मांझी के मुखिया बनते ही पूरी राजनीति बदल गई. नीतीश ने महादलित नाम के जिस नए समूह का गठन किया था, उसे एक बड़ा अवसर देकर उन्होंने लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी को हुए नुकसान को काफी हद तक पीछे धकेल दिया.

अब मांझी नेता हैं. वे सिर्फ बिहार के मुख्यमंत्री भर नहीं हैं, बल्कि बिहार की राजनीति किस करवट बैठेगी इसके भी मुख्य सूत्रधार हैं. सीएम बनने के बाद मांझी सक्रिय हैं. रोजाना सभाओं में जा रहे हैं. उदघाटन कर रहे हैं. उनके पोस्टर लग रहे हैं और नीतीश लगभग मौन की राजनीतिक मुद्रा में आ गए हैं. राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक यह जानबूझकर साधा गया मौन है जो अभी जारी रहेगा. वे कई बार मौन की राजनीति कर ही बहुत सारी मुश्किलों से पार पाते रहे हैं.

लेकिन इस बार की मुश्किल थोड़ी बड़ी है. नीतीश ने बहुत  ठोक-ठाककर मांझी को सीएम बनाया है. आंख मूंदकर सब यह मान रहे हैं कि मांझी भविष्य में भरत जैसा काम करेंगे. यानी वक्त आने पर राम के लिए गद्दी छोड़ देंगे. लेकिन व्यावहारिक तौर पर ऐसा होगा, यह कहना इतना आसान नहीं. मांझी के मुख्यमंत्री बनाए जाने का श्रेय भाजपावाले भी लेना चाहते हैं. वे कह रहे हैं कि उनकी पार्टी ने अगर जदयू को बुरी तरह नहीं हराया होता तो नीतीश कभी ऐसा नहीं करते. उनकी वजह से राजनीति में यह बदलाव आया है. भाजपा वाले दूसरा दांव भी खेल रहे हैं. लगातार कह रहे हैं कि अगर जदयू ने एक महादलित को सीएम बनाया है तो अगला चुनाव भी उसके ही नेतृत्व में लड़ा जाए. अगले मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रूप में उन्हें ही पेश किया जाए. दरअसल मांझी के नाम पर नीतीश ने दांव खेला है तो भाजपा भी खेलना चाहती है. माना जा रहा है कि अगर जदयू ने मांझी के नेतृत्व में चुनाव नहीं लड़ा तो वह महादलितों को यह संदेश देने की कोशिश करेगी कि सिर्फ मजबूरी में मुसहर जाति के एक नेता का इस्तेमाल भर किया गया.

जदयू के लिए आशंकाएं दूसरी भी हैं. इतिहास के पन्ने पलटकर देखें तो मांझी की नैया हमेशा सत्ता की धारा के साथ चली है. 80 के दशक में जब बिहार में कांग्रेस का बोलबाला था तो मांझी कांग्रेस के सिपाही हुआ करते थे. उसके बाद लालू प्रसाद का उदय हुआ तो मांझी लालू के हो गए. जब लालू के दिन लदने लगे तो मांझी नीतीश के साथी हो गए. मांझी को जाननेवाले जानते हैं कि  काबिल नेता होने के बावजूद वे रामविलास पासवान की तरह सत्ता की संभावना देखनेवाले नेता भी रहे हैं और शिवानंद तिवारी की तरह पाला बदलनेवाले भी. इसलिए जदयू के भी कुछ नेताओं को यह संदेह है कि आखिरी वक्त में मांझी पूरा खेल बदल भी सकते हैं. अगर उन पर दांव नहीं लगा यानी अगर उन्हें ही अगले संभावित सीएम के तौर पर पेश नहीं किया गया तो फिर वे पाला भी पलट सकते हैं और पासा भी. जदयू और राजद के बीच रिश्ते बन भी गए तो भी खेल का अहम हिस्सा मांझी के पाले में होगा. मांझी को सीएम बना देने के बाद उसका लाभ चुनावी राजनीति में उठाना नीतीश का अहम दांव है जिसका फल क्या रहता है, यह देखने वाली बात होगी. मांझी को मुख्यमंत्री बनाकर नीतीश ने भाजपा को करारा झटका दिया है. जानकारों के मुताबिक भाजपा जब तक नीतीश से बड़ा दांव नहीं खेलती तब तक महादलितों में उसकी सेंधमारी संभव नहीं.

लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद छोड़ते हुए जब इस कुर्सी के लिए एक अदद नेता की तलाश शुरू की तो अनुमान पर अनुमान लगाए जाते रहे. कभी किसी का नाम सामने आता, कभी किसी का. एक बड़ा वर्ग यह भी मानता रहा कि नीतीश फिर से खुद ही मुख्यमंत्री बन जाएंगे. लेकिन उन्होंने जीतन राम मांझी को सीएम बनवाकर सारे अनुमान ध्वस्त कर दिए. महादलित समुदाय से आनेवाले मांझी के मुखिया बनते ही पूरी राजनीति बदल गई. नीतीश ने महादलित नाम के जिस नए समूह का गठन किया था, उसे एक बड़ा अवसर देकर उन्होंने लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी को हुए नुकसान को काफी हद तक पीछे धकेल दिया.

अब मांझी नेता हैं. वे सिर्फ बिहार के मुख्यमंत्री भर नहीं हैं, बल्कि बिहार की राजनीति किस करवट बैठेगी इसके भी मुख्य सूत्रधार हैं. सीएम बनने के बाद मांझी सक्रिय हैं. रोजाना सभाओं में जा रहे हैं. उदघाटन कर रहे हैं. उनके पोस्टर लग रहे हैं और नीतीश लगभग मौन की राजनीतिक मुद्रा में आ गए हैं. राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक यह जानबूझकर साधा गया मौन है जो अभी जारी रहेगा. वे कई बार मौन की राजनीति कर ही बहुत सारी मुश्किलों से पार पाते रहे हैं.

लेकिन इस बार की मुश्किल थोड़ी बड़ी है. नीतीश ने बहुत  ठोक-ठाककर मांझी को सीएम बनाया है. आंख मूंदकर सब यह मान रहे हैं कि मांझी भविष्य में भरत जैसा काम करेंगे. यानी वक्त आने पर राम के लिए गद्दी छोड़ देंगे. लेकिन व्यावहारिक तौर पर ऐसा होगा, यह कहना इतना आसान नहीं. मांझी के मुख्यमंत्री बनाए जाने का श्रेय भाजपावाले भी लेना चाहते हैं. वे कह रहे हैं कि उनकी पार्टी ने अगर जदयू को बुरी तरह नहीं हराया होता तो नीतीश कभी ऐसा नहीं करते. उनकी वजह से राजनीति में यह बदलाव आया है. भाजपा वाले दूसरा दांव भी खेल रहे हैं. लगातार कह रहे हैं कि अगर जदयू ने एक महादलित को सीएम बनाया है तो अगला चुनाव भी उसके ही नेतृत्व में लड़ा जाए. अगले मुख्यमंत्री के उम्मीदवार के रूप में उन्हें ही पेश किया जाए. दरअसल मांझी के नाम पर नीतीश ने दांव खेला है तो भाजपा भी खेलना चाहती है. माना जा रहा है कि अगर जदयू ने मांझी के नेतृत्व में चुनाव नहीं लड़ा तो वह महादलितों को यह संदेश देने की कोशिश करेगी कि सिर्फ मजबूरी में मुसहर जाति के एक नेता का इस्तेमाल भर किया गया.

जदयू के लिए आशंकाएं दूसरी भी हैं. इतिहास के पन्ने पलटकर देखें तो मांझी की नैया हमेशा सत्ता की धारा के साथ चली है. 80 के दशक में जब बिहार में कांग्रेस का बोलबाला था तो मांझी कांग्रेस के सिपाही हुआ करते थे. उसके बाद लालू प्रसाद का उदय हुआ तो मांझी लालू के हो गए. जब लालू के दिन लदने लगे तो मांझी नीतीश के साथी हो गए. मांझी को जाननेवाले जानते हैं कि  काबिल नेता होने के बावजूद वे रामविलास पासवान की तरह सत्ता की संभावना देखनेवाले नेता भी रहे हैं और शिवानंद तिवारी की तरह पाला बदलनेवाले भी. इसलिए जदयू के भी कुछ नेताओं को यह संदेह है कि आखिरी वक्त में मांझी पूरा खेल बदल भी सकते हैं. अगर उन पर दांव नहीं लगा यानी अगर उन्हें ही अगले संभावित सीएम के तौर पर पेश नहीं किया गया तो फिर वे पाला भी पलट सकते हैं और पासा भी. जदयू और राजद के बीच रिश्ते बन भी गए तो भी खेल का अहम हिस्सा मांझी के पाले में होगा. मांझी को सीएम बना देने के बाद उसका लाभ चुनावी राजनीति में उठाना नीतीश का अहम दांव है जिसका फल क्या रहता है, यह देखने वाली बात होगी. मांझी को मुख्यमंत्री बनाकर नीतीश ने भाजपा को करारा झटका दिया है. जानकारों के मुताबिक भाजपा जब तक नीतीश से बड़ा दांव नहीं खेलती तब तक महादलितों में उसकी सेंधमारी संभव नहीं.

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सिर के बल राजनीति

लहर के बाद

Mulayam-Singh-Yadav-by-Shaiलोकसभा चुनाव के नतीजों का सबसे चौंकाने वाला पक्ष उत्तर प्रदेश और बिहार के नतीजे हैं. उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 71 भाजपा ने जीती हैं. सहयोगियों की दो सीटें भी इसमें जोड़ दी जाएं तो आंकड़ा 73 तक पहुंच जाता है. 91.25 फीसदी सफलता की यह कहानी उत्तर प्रदेश की राजनीति में अनदेखी और अनसुनी है जिसने सूबे के सारे सियासी समीकरण हिला दिए हैं. दरअसल प्रदेश का हालिया राजनीतिक इतिहास एक बड़ी हद तक बिखरे हुए जनादेश, अवसरवादी राजनीति और राजनीति के अपराधीकरण का रहा है. इस दौर में दो राजनीतिक दल प्रदेश की राजनीति का चेहरा बने हुए थे-मायावती की बहुजन समाज पार्टी और मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी. दोनों ही पार्टियां करीब ढाई दशक पहले के मंडल और कमंडल के दौर की उपज हैं. सामाजिक न्याय के रथ पर सवार होकर ये दोनों दल तेजी से उत्तर प्रदेश के राजनीतिक क्षितिज पर छा गए थे. इसका नतीजा यह हुआ कि राष्ट्रीय पार्टियों का कद यहां लगातार बौना होता गया. कांग्रेस तो खैर यहां दो दशक पहले ही हाशिए पर चली गई थी, लेकिन कमंडल की ऑक्सीजन से चल रही भारतीय जनता पार्टी भी यहां पिछले एक दशक से तीसरे नंबर की पार्टी बनी हुई थी. पहले दो स्थान सपा या बसपा ने कब्जा लिए थे. लेकिन अब अचानक से सबकुछ बदल गया है. इसका एक संकेत तो इसी बात से मिल जाता है कि जिस भाजपा ने पिछले एक दशक में उत्तर प्रदेश की विधानसभा के सामने कुल दर्जनभर विरोध प्रदर्शन भी नहीं किए होंगे, उसने केंद्र में अपनी सरकार बनने के बाद पिछले एक महीने के दौरान प्रदेश की विधानसभा को घेरने और पुतला जलाने के दर्जनों उपक्रम कर डाले हैं. एक दशक के दौरान यह उत्तर प्रदेश की राजनीति में आया 360 डिग्री का परिवर्तन है. बदले दौर का जोश प्रदेश भाजपा अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी की बातों में झलकता है, ‘हम एक-एक बूथ तक जाएंगे, हम पूरी तरह विनम्र बने रहेंगे पर अगर कोई हमें चुनौती देगा तो हम चुप नहीं बैठेंगे. मोदीजी के नेतृत्व में जो लहर पैदा हुई है वह उत्तर प्रदेश से जात-पांत को खत्म करने का काम करेगी.’

केंद्र की राजनीति के लिए सबसे ज्यादा अपरिहार्य कहा जाने वाला उत्तर प्रदेश पिछले कुछ समय से हर तरह की राजनीति की प्रयोगशाला रहा है. धर्म, जाति, क्षेत्र और अवसरवाद जैसे तमाम समीकरणों के सहारे यहां राजनीति होती रही है. कभी प्रदेश ने सपा-बसपा की सरकार देखी, कभी भाजपा-बसपा की. दूसरे दलों को तोड़कर अपनी सरकारें बनाने का उपक्रम भी यहां खूब हुआ. ऐसा भी हुआ कि सरकारें अपना कार्यकाल पूरा करने में नाकाम रहीं और सूबा बार-बार चुनाव के चंगुल में फंसता रहा. 2007 तक यही स्थिति बनी रही. फिर उस साल जो हुआ उससे संकेत मिला कि प्रदेश की जनता लगभग डेढ़ दशक तक चली अवसरवादी राजनीति के दुष्परिणामों को समझ भी गई है और उससे उकता भी गई है. 2007 में प्रदेश में बसपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी थी. 2012 के जनादेश ने लोगों को एक बार फिर से चौंकाया. इस बार यहां सपा की पूर्ण बहुमत वाली सरकार बनी. अब महज दो साल बाद उसी जनता ने भाजपा को लोकसभा में प्रचंड जनादेश दिया है. जाहिर है प्रदेश के लोग मौजूदा राजनीतिक विकल्पों से बुरी तरह नाराज हैं और बेसब्री से एक कारगर विकल्प की तलाश में हैं. सपा-बसपा की दुर्गति का एक संदेश भाजपा के लिए भी है कि उसके लिए यह सुकून का पल नहीं है. जिस तरह से सपा-बसपा ने खुद को मिले जनादेश को समझने की बजाय अपनी घिसी-पिटी अवसरवादी और जातिवादी राजनीति की राह पर चलना जारी रखा, भाजपा को वैसा कुछ करने से बचना होगा. एक चीज इस चुनाव में जरूर हुई है. भले ही यह परिघटना अल्पकालिक हो, लेकिन जाति का बांध मोदी लहर में टूट गया है. Read More>>


1-Nitish02एक कदम आगे, दो कदम पीछे

बिहार की राजधानी पटना में मशहूर डाकबंगला चौराहे के पास ही है होटल गली. गली में आड़े-तिरछे, ऊपर-नीचे, दायें-बायें बिखरे बहुतेरे होटल हैं. सस्ते भी और इस वजह से लंबे समय तक टिकने लायक भी. इन होटलों में सबसे ज्यादा बसेरा राजनीतिक कार्यकर्ताओं और जिलास्तरीय नेताओं का होता है. इलाके में सुबह से शाम तक राजनीति की अखाड़ेबाजी होती है.

इसी होटल गली में चाय की एक दुकान के पास मजमा लगा है. सभी दलों के नेता गप्प में मशगूल हैं. बातचीत चलती है तो कोई जदयू के एक नेताजी से कहता है कि उनकी पार्टी का राजद, सीपीआई और कांग्रेस के साथ 100-100-39-04 वाला फॉर्मूला तय हो गया है, ऐसी बात हवा में उड़ रही है. यानी अगले विधानसभा चुनाव में 100 सीटों पर जदयू, 100 पर राजद, 39 पर कांग्रेस और चार सीटों पर सीपीआई. नेताजी गुस्से में आ जाते हैं. कहते हैं, ‘हवा की बात पर फालतू की हवाबाजी न कीजिए! जिस जदयू के पास अभी ही 117 सीटें हैं  वह भला 100 पर क्यों लड़ने को तैयार होगी?’

एक दूसरे नेता बात काटते हैं. कहते हैं, ‘अरे महाराज, यही तो मूल बात है कि 117 विधायक मिल के 10 सीट भी नहीं दिलवा सके लोकसभा में. एक-एक दर्जन विधायक भी ऊर्जा लगाते एक सीट पर तो 10 का हिसाब-किताब तो होना ही चाहिए था.’ बात जारी रहती है. एक और नेता हंसते हुए कहते हैं, ‘खाली गाल बजाइएगा कि 117 विधायक हैं  इसलिए ज्यादा सीट चाहिए तो लालू जी भी तो कहेंगे कि अभी जो लोकसभा चुनाव निपटा है उसमें अधिकांश सीटों पर  उनकी पार्टी भाजपा के मुकाबले में थी इसलिए उन्हें ज्यादा सीट चाहिए.’ तीसरे नेताजी का हस्तक्षेप होता है, ‘बेकार बात कर रहे हैं आप लोग. लालू जी से अगर नीतीश कुमार मिले और दो दशक में बनाई हुई पार्टी को मटियामेट करने के रास्ते पर चले तो सबसे पहले आदमी हम होंगे जो 2010 के चुनाव से लेकर पिछले लोकसभा चुनाव तक सारे बयान और इंटरव्यू मिलाकर पोस्टर- किताब तैयार करेंगे और पूरे बिहार में बंटवाएंगे.’  Read More>>

‘हाइपोनेट्रीनिया का तिलिस्म’

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मनीषा यादव

आज हम ऐसी सरल-सी लगने वाली बेहद कठिन बीमारी की बात करेंगे जिसे डॉक्टर ‘हाईपोनेट्रीनिया’ (खून में नमक तत्व या सोडियम की कमी) कहते हैं. सुनने में सरल-सा लगता है.

रक्त में सोडियम कम हो गया है तो नमक खिलाकर  या ‘सेलाइन’ की बोतल चढ़ाकर इसे ठीक भी कर लिया जा सकता है. पर बात ऐसी तथा इतनी सरल नहीं. बीमारी इतनी छोटी भी नहीं. जानलेवा तक हो सकती है. इसकी डायग्नोसिस करना, फिर कारणों की तह तक जाकर सही निदान खोजना, फिर इलाज तय करना-यह सब बेहद जटिल काम है. जब तक शरीर की बायोकेमिस्ट्री तथा गुर्दों, हार्मोंस, रक्त प्रवाह आदि की गहन जानकारी न हो, तब तक ‘हाइपोनेट्रीमिया’ को समझना किसी डॉक्टर के लिए भी एक चुनौती ही है. यह डॉक्टरों के लिए भी कठिन विषय है. इससे जुड़े प्रश्न प्राय: इसीलिए पूछे जाते हैं ताकि परीक्षा में चिकित्सा क्षेत्र को फेल किया जा सके- कम से कम हम लोग तो अपने छात्र जीवन में ऐसा ही मानते थे. अब इसी कठिन बात को मैं अपने सामान्य पाठकों को आज किस तरह समझा पाता हूं, यह भी देखने वाली बात होगी.

कहते हैं कि पंचतत्व मिल बना शरीरा! पांच तत्वों में से एक महत्वपूर्ण तत्व जल है. हमारे शरीर का 50 से 60 प्रतिशत वजन पानी ही है. महात्मा यो-यो हनी सिंह जी यूं ही नहीं गा रहे कि ‘पानी, पानी, पानी, पानी’ – वास्तव में हम आप बस पानी ही से बने हैं. यह पानी शरीर में सब तरफ है. शरीर की हर कोशिका (सेल) में पानी भरा है. कोशिकाओं के बीच भी पानी ही है. और रक्त के साथ हमारी रक्त नलिकाओं में भी पानी ही बह रहा है. कोशिकाओं के अंदर जो पानी है, उसमें पोटेशियम तत्व घुला है. कोशिकाओं के बाहर (रक्त नलिकाओं में, और कोशिकाओं के बीच) जो पानी भरा है, उसमें मुख्यत: सोडियम घुला है. सोडियम और पोटेशियम शरीर के हर काम के लिए अत्यंत आवश्यक हैं. यहां हम बस सोडियम की ही चर्चा करेंगे वर्ना बात इतनी जटिल हो जाएगी कि आपके अलावा मुझे भी अपनी नानी याद आ जाएंगी.

रक्त में प्रवाहित हो रहा सोडियम एक निश्चित मात्रा से कम हो या बढ़ जाए तो यह स्थिति गंभीर बीमारी पैदा कर सकती है. रक्त में सोडियम 135 के स्तर से नीचे गया तो यह हाइपोनेट्रीनिया कहलाता है. पर यह कम क्यों होगा? कई बीमारियां, दवाइयां तथा स्थितियां ‘हाइपोनेट्रीमिया’ पैदा कर सकती हैं. मूल बातें दो रहेंगी. एक कि यदि किसी कारण शरीर में पानी की मात्रा तो बढ़ जाए पर नमक की मात्रा वही रहे तो पानी में नमक का घोल डाइल्यूट या पतला हो जाएगा. दूसरी बात यह हो सकती है कि शरीर से नमक निकल जाए और शरीर को नमक न मिले, बस प्यासा होने पर आदमी पानी पीता जाए- सो पानी ही मिलता रहे- तो भी रक्त में बह रहा घोल कम नमक वाला (कम सोडियम वाला) हो जाएगा. ऐसा कई बीमारियों मेंं हो सकता है खासकर बुढ़ापे में. मानसिक रोगियों में. गुर्दे की बीमारी में. कई ब्लडप्रेशर आदि की दवाइयों में भी. एक सामान्य सा उदाहरण देता हूं. मान लें कि आपको खूब दस्त हो रहे हों. उल्टी दस्त में आपके शरीर से पानी तथा साल्ट दोनों निकलते जाएंगे. इससे आपको बहुत प्यास लगेगी. या धूप में घूम-घूम कर बहुत पसीना निकल गया. प्यास है. पर इन स्थितियों में यदि केवल खूब पानी ही पीते गए साथ में यदि नमक नहीं लिया तो शरीर में बह रहे रक्त के पानी में नमक की कमी हो जाएगी. कभी डॉक्टर ने दस्त के मरीज को मात्र ग्लूकोज ही चढ़ा दिया, सेलाइन नहीं- तब भी यह स्थिति आ सकती है.

मान लें कि ‘हाइपोनेट्रीमिया’ हो ही गया तो मरीज को क्या-क्या होगा? हाइपोनेट्रीमिया के कारण मुख्यत: मस्तिष्क की कोशिकाओं में सूजन आने लगती है. इसीलिए ऐसे मरीज को मुख्यत: न्यूरोजिकल लक्षण प्रकट होते हैं. सिर दर्द, जी मितलाने और थकान से बात शुरू होगी. यदि डॉक्टर ने सही कारण नहीं पकड़ा तो धीरे-धीरे मरीज होश खोने लगेगा. उनींदा रहेगा. फिर पूरा बेहोश भी हो सकता है. उसे मिर्गी जैसे दौरे तक आ सकते हैं जो दिमागी सूजन बेहद बढ़ जाने के द्योतक हैं. यदि इस स्टेज पर भी डॉक्टर को बात नहीं समझ आई और वह बेहोशी को स्ट्रोक, लकवा आदि मानकर चलता चला गया तो मरीज की मृत्यु तक हो सकती है. देखने में छोटी सी सोडियम की इत्ती-सी कमी जान ले सकती है.

हां, यदि समय पर सही डायग्नोसिस बन गई तो पूरा इलाज संभव है. पर मुसीबत यह है कि यह बीमारी प्राय: बड़े ही धीमे धीमे, बिना अन्य किसी चेतावनी के आती है. एक बूढ़ा आदमी कुछ समय से थका थका, सोया सा रहता है- और हम मानते है कि यह सब तो बुढ़ापे में होता ही रहता है. डॉक्टर भी यह मान लेते हैं. (हाइपोथायरायड) के मरीज, डिप्रेशन आदि मानसिक बीमारी के रोगी- यूं ही थके, सोये रहते हैं. वे कब हाइपोनेट्रीमिया में चले गए, पता ही नहीं चलता.

ब्लडप्रेशर में दी जाने वाली कुछ बेहद पापुलर दवाइयां भी धीरे-धीरे हाइपोनेट्रीमिया पैदा कर सकती हैं. डॉक्टर यदि अलर्ट नहीं है तो वह ये दवाइयां जारी रखेगा तथा हाइपोनेट्रीमिया जानलेवा हद तक बढ़ जाएगा. हाइपोनेट्रीमिया का खतरा दुतरफा है, बल्कि तितरफा- एक तो यह कि प्राय: आमजन को इसकी बिल्कुल खबर नहीं है, फिर रक्त में सोडियम लेवल की सटीक तथा विश्वसनीय जांच की व्यवस्था वाली पैथलेब केवल बड़े शहरों में हैं, और तीसरी सबसे खतरनाक बात यह कि प्राय: डॉक्टरों को भी इसकी डायग्नोसिस तथा सही-सही इलाज का सही-सही पता नहीं है. यह मात्र खाने में नमक बढ़ाने से, सेलाइन चढ़ाने से या कोई फैंसी दवा देने से ठीक नहीं हो जाएगी.

फिर क्या करें?

बस, याद रखें कि यदि मरीज बिना किसी जायज कारण के बेहोश-सा, या बेहोश ही हो रहा है, तो यह भी एक कारण हो सकता है. डॉक्टर यदि हाइपोनेट्रीमिया की डायग्नोसिस बोले तो उसकी गंभीरता को समझें. डॉक्टर को ही शेष सब समझने दें. अच्छा डॉक्टर चुनकर सब उस पर छोड़ दें.

भगवान भला करेगा. भगवान के पास और कोई चारा नहीं. न ही आपके पास.

‘क्या गुजरात के अच्छे दिनों की कीमत मप्र के बुरे दिन हैं ?’

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गंगा नदी से शुरू हुआ विजय अभियान अब नर्मदा तक आ चुका है. अब वे देश की पांचवीं सबसे बड़ी नदी नर्मदा के सहारे अपने ही गढ़ गुजरात के नायक तो बन ही रहे हैं साथ महाराष्ट्र और राजस्थान को भी साधने की कोशिश रहे हैं. इस बात की पूरी संभावना है कि प्रधानमंत्री की यह कोशिश उनके लिए ‘अच्छे दिनों’ की बुनियाद बन जाए. लेकिन इसी के साथ यह तय है कि इन अच्छे दिनों की कीमत मध्य प्रदेश को अपनी 20,882, हेक्टेयर उपजाऊ जमीन और तकरीबन 45,000 हजार परिवारों के विस्थापन के साथ चुकानी होगी. पर्यावरण को जो अपूरणीय क्षति होगी सो अलग.

हाल ही में 12 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण (एनसीए) की एक बैठक हुई थी. इसी में गुजरात के केवड़िया स्थित सरदार सरोवर बांध पर 17 मीटर ऊंचे गेट लगाकर बांध की ऊंचाई 121.92 से 138.38 मीटर करने को मंजूरी दी गई है. इससे पहले यह मामला पिछले कई वर्षों से लंबित था. अब 2017 तक करीब 270 करोड़ रुपये की लागत से बांध पर 30 गेट लगेंगे. इसके बाद बांध की संग्रहण क्षमता 90 लाख घन फुट बढ़ जाएगी.

सरकार के इस फैसले पर कई बुनियादी सवाल उठाए जा रहे हैं. मसलन क्या वाकई सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाए जाने की जरूरत है? इससे किन लोगों को फायदा पहुंचेगा? सरदार सरोवर बांध किस राज्य के सौभाग्य के दरवाजे खोलेगा और किस  के लिए बदहाली लाएगा? इन सब सवालों के जवाब जानने के लिए पहले सरदार सरोवर परियोजना, नर्मदा घाटी, राज्य सरकारों की मंशा और इससे जुड़े राजनीतिक नफा-नुकसान को समझना जरूरी है.

सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड की वेबसाइट के मुताबिक यह बांध अमेरिका के ग्रांड काउली के बाद दूसरा सबसे बड़ा कांक्रीट ग्रेविटी डैम (कांक्रीट से बना ऐसा बांध जो बहुत तेज बहाव आैैर अधिक मात्रा में पानी रोक सकता हैै) है. वहीं यह दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा निर्वहन क्षमता (संग्रहण क्षमता) वाला बांध है. इसकी जलसंग्रहण क्षमता 5860    एमसीएम (मिलियन घन मीटर; एक मिलियन = दस लाख) है, जो 4.75 लाख एकड़ फुट (एक एकड़ के क्षेत्र में एक फुट ऊंचाई तक पानी = एक एकड़ फुट ) के बराबर है.

बांध की ऊंचाई बढ़ाए जाने की अनुमति मिलते ही गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल ने ट्वीट कर कहा था, ‘अच्छे दिन आ गए.’ लेकिन हकीकत इससे कुछ अलग है. दरअसल यह केवल गुजरात के अच्छे दिनों की शुरुआत है. मध्य प्रदेश के करीब ढाई लाख विस्थापितों, सैंकड़ाें स्कूलों, मंदिरों-मस्जिदों, हजारों एकड़ उपजाऊ जमीन की कीमत पर गुजरात के अच्छे दिन लाए जा रहे हैं. इन बातों के विश्लेषण से पहले यह समझना महत्वपूर्ण है इस फैसले से गुजरात को क्या फायदा पहुंचेगा. असल में नर्मदा के दायरे में आने वाले गुजरात का 75 फीसदी इलाका संभावित सूखा प्रभावित क्षेत्र माना जाता है. बांध की ऊंचाई बढ़ने से गुजरात में नर्मदा के जल की उपलब्धता बढ़ेगी, इससे ये इलाके संभावित सूखा प्रभावित की श्रेणी से बाहर निकल आएंगे. सिंचाई के मामले में भी सबसे ज्यादा फायदा गुजरात को ही होना है. नर्मदा बांध के जरिए गुजरात की 18.45 लाख हैक्टेयर भूमि को सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध हो सकेगा. इससे प्रदेश के 15 जिलों की 73 तहसीलों के 3112 गांवों को सिंचाई के लिए पानी मिलेगा. यह बांध भरूच के 210 गांवों को बाढ़ के खतरे से मुक्ति दिलाएगा. वहीं इसका पानी सौराष्ट्र की तस्वीर बदल देगा. सरदार सरोवर बांध का पानी सौराष्ट्र के 115 छोटे बांधों और जलाशयों में पहुंचेगा. औसत से भी कम वर्षा वाले सौराष्ट्र में साल भर बनी रहने वाली पानी की समस्या खत्म हो जाएगी. गुजरात के 151 शहरी और 9,633 गांवों (जो कि गुजरात के कुल 18,144 गांवों का 53 प्रतिशत है) को पीने का पानी उपलब्ध होगा. बांध से पैदा होने वाली 1,450 मेगावॉट बिजली में से 16 फीसदी बिजली भी गुजरात को मिलेगी. यानी गुजरात की चांदी ही चांदी. इसके ठीक उलट मध्य प्रदेश को सिवाय 877 मेगावॉट बिजली के कुछ नहीं मिलेगा. यह सही है कि मध्य प्रदेश बिजली संकट से जूझ रहा है. उसे अतिरिक्त बिजली की जरूरत है. लेकिन प्रदेश में सूखाग्रस्त इलाकों, सिंचाई के पानी की कमी, पेयजल समस्या भी विद्यमान है. इस परियोजना में मध्य प्रदेश के सूखाग्रस्त इलाकों की पूरी तरह अनदेखी की गई है. सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड की वेबसाइट में कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं है कि मध्य प्रदेश को सिंचाई के लिए कितना पानी मिलेगा. जबकि पूरी परियोजना ही प्रदेश के विस्थापितों की कीमत पर खड़ी हो रही है.

अब जानते हैं कि सरदार सरोवर बांध परियोजना से मध्य प्रदेश को क्या नुकसान है. मध्य प्रदेश के एक कस्बे धरमपुरी (जिला धार) समेत 193 गांव जलमग्न होने की कगार पर हैं. सूबे की करीब 20,882 हेक्टेयर जमीन डूब क्षेत्र में आ रही है. 2001 की जनगणना के मुताबिक तीनों राज्यों के 51,000 परिवारों को प्रभावित माना गया था, जिनकी संख्या 2011 की जनगणना में बढ़कर 63,000 हजार हो गई है. इनमें अकेले मध्यप्रदेश से 45,000 हजार परिवार हैं. इन परिवारों में अधिकांश आदिवासी, छोटे-मझोले किसान, दुकानदार, मछुआरे, कुम्हार हैं, जो गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करते हैं.

वैसे बांध ऊंचाई बढ़ाने पर एक तकनीकी पेंच भी है. बांध की ऊंचाई बढ़ाने से जुड़े एक मामले पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने साल 2000 में कहा था कि निर्माण के पहले सभी विस्थापितों का उचित पुनर्वास होना चाहिए.  लेकिन यह अभी तक संभव नहीं हो पाया हैै. मध्य प्रदेश के लिए चिंता की एक बात यह भी है कि नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण के दिसंबर 1979 के पारित निर्णय के मुताबिक वर्ष 2024 तक  प्रदेश को 29 बड़े, 135 मध्यम और तीन हजार छोटी सिंचाई परियोजनाएं पूरी करनी हैं. यदि प्रदेश निर्धारित अवधि में अपने हिस्से के नर्मदा जल का उपयोग नहीं कर पाया तो उसे जल उपयोग के  इस अधिकार से वंचित कर दिया जाएगा. मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अरुणा यादव बताते हैं, ‘ मध्यप्रदेश सरकार नर्मदा सिंचाई परियोजनाओं को लेकर बिलकुल गंभीर नहीं है. अभी तक केवल 10 बड़ी परियोजनाएं पूरी हुई हैं. दो पर काम चल रहा है, जबकि 17 पर काम शुरू ही नहीं हो पाया है.’

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जिस गुजरात को परियोजना से सबसे ज्यादा फायदा मिलने वाला है, उसके केवल 19 गांव डूब क्षेत्र में आ रहे हैं. कुल 9,000 हेक्टेयर जमीन प्रभावित हो रही है. जबकि महाराष्ट्र के 22 गांव और करीब 9,500 हेक्टेयर वन भूमि परियोजना से प्रभावित हो रही है. परियोजना का लंबे समय से विरोध कर रही नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ताओं का आरोप है कि केवल 30 परिवारों को पुर्नवास के लिए जमीन मिल पाई है जबकि करीब 3,000 परिवारों को जमीन देने की प्रक्रिया भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई. इन परिवारों को हक से वंचित करने के लिए फर्जी रजिस्ट्रियों का सहारा लिया गया. नर्मदा बचाओ आंदोलन के कार्यकर्ताओं का यह भी आरोप है कि सरकारी अफसरों ने दलालों के साथ मिलकर हजारों फर्जी रजिस्ट्रियां कर डालीं. इन आरोपों की जांच के लिए 2008 में मध्य प्रदेश हाईकोर्ट ने जस्टिस एसएस झा आयोग का गठन किया. आयोग की जांच अभी जारी है. आयोग जिन बिंदुओं पर जांच कर रहा है उनमें फर्जी रजिस्ट्रियों की जांच की जा रही है. जिन परिवारों को अभी तक जमीन नहीं मिली है आयोग उस पर भी तथ्य इकट्ठे कर रहा है. साथ ही आजीविका शुरू करने के लिए दी गई राशि में भी हुए भ्रष्टाचार और पुनर्वास क्षेत्रों के स्तरहीन निर्माण कार्यों और अधिक खर्च कर दी गई राशि जैसे बिंदु भी जांच में शामिल हैं. आयोग की रिपोर्ट अक्टूबर, 2014 तक आने की संभावना है.

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ऊंचाई 260 से 455 फीट तक पहुंचने का सफर

  • फरवरी 1999 में सुप्रीम कोर्ट ने बांध की ऊंचाई 80 मीटर  (260 फीट) से 88 मीटर (289 फीट) करने की अनुमति दी
  • अक्टूबर 2000 में फिर से सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को ऊंचाई 90 मीटर (300) करने की अनुमति
  • मई 2002 में नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण ने बांध की ऊंचाई 95 मीटर (312 फीट) करने के प्रस्ताव को अनुमोदित किया.
  • मार्च 2004 में प्राधिकरण ने ऊंचाई110 मीटर (360 फीट) करने की अनुमति दी
  • मार्च 2006 में प्राधिकरण ने बांध की ऊंचाई 110.64 मीटर (363 फीट) से 121.92 (400 फीट) करने की अनुमति दी. प्राधिकरण द्वारा ये अनुमति वर्ष 2003 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा बांध की ऊंचाई और बढ़ाने की अनुमति देने से इंकार करने के बाद दी गई थी.
  • जून 2014 में प्राधिकरण ने ऊंचाई 455 फीट (138 मीटर) करने की अनुमति दी [/box]

मध्य प्रदेश के पूर्व सिंचाई मंत्री डॉ रामचंद्र सिंहदेव कहते हैं कि सरदार सरोवर बांध समेत नर्मदा घाटी में जितनी भी परियोजनाओं पर काम हो रहा है, ये सभी गलत आंकड़ों पर आधारित हंै. वे बताते हैं, ‘जिस वक्त नर्मदा घाटी में नई परियोजनाओं की शुरुआत की गई, उस वक्त लिए गए आंकड़े अंग्रेजों द्वारा पुरानी पद्धति से संग्रहित किए गए थे. ब्रिटिश हुकुमत बारिश के पानी (रेन वॉटर गेज) के आधार पर नदियों में उपलब्ध जल के आंकड़े इकट्ठे करती थी. उनके मुताबिक नर्मदा में 27 एमएएफ (मिलियन एकड़ फुट) पानी था. जबकि बाद में नई पद्धति (रिवर गेजिंग स्टेशन) से आए आंकड़े बताते हैं कि नर्मदा में केवल 23.7 एमएएफ पानी है यानी जो भी परियोजनाएं बनाई गई, उनका आधार ही गलत था. मध्य प्रदेश सरकार ने कई बार नर्मदा के पानी की उपलब्धता को लेकर सवाल उठाए, लेकिन हमारी कभी नहीं सुनी गई. दूसरी महत्वपूर्ण बात ये है कि पूरी नर्मदा घाटी भूंकप प्रभावित है. बड़े बांध बनने से यह खतरा कई गुना बढ़ गया है.’

नया नहीं है विवाद
नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बांध परियोजना की अधिकारिक घोषणा 1960 में हुई थी और 1961 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इसकी आधारशिला रखी. तभी से यह परियोजना विवादों में फंसी हुई है. शुरुआती कई सालों तक तो परियोजना से जुड़े हुए तीनों राज्यों (मध्य प्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र) में जल बंटवारे को लेकर आपसी सहमति नहीं बन पाने से परियोजना अटकी रही. 1979 में यह मामला नर्मदा जल विवाद प्राधिकरण में पहुंचा जहां तीनों राज्यों में सहमति बनी और1990 के दशक में विश्व बैंक ने परियोजना के लिए ऋण देने का फैसला लिया. लेकिन डूब प्रभावित लोगों ने नर्मदा बचाओ आंदोलन के तहत परियोजना का विरोध करना शुरू कर दिया. 1991-1994 में पहली बार विश्व बैंक ने किसी परियोजना की समीक्षा करने के लिए अपनी एक उच्च स्तरीय समिति बनाई. जिसने अपनी पड़ताल में यह पाया कि परियोजना से होने वाली पर्यावरणीय क्षति की पूर्ति नहीं की जा सकती इसलिए उसने परियोजना को वित्त उपलब्ध कराने से इनकार कर दिया. इधर नर्मदा बचाओ आंदोलन के समर्थकों ने सुप्रीम कोर्ट में निर्माण रोकने के लिए जनहित याचिका लगा दी. वर्ष 2000 में सुप्रीम कोर्ट ने इस पर फैसला देते हुए कहा कि बांध उतना ही बनाया जाना चाहिए, जहां तक लोगों का पुर्नस्थापन और पुनर्वास हो चुका है. परियोजना का विरोध कर रहा नर्मदा बचाओ आंदोलन शुरू से ही आरोप लगा रहा है कि ना तो परियोजना में पर्यावरणीय क्षति का ध्यान रखा गया ना ही विस्थापितों को उचित पुनर्वास मिल पा रहा है. अब फिर बांध की ऊंचाई बढ़ाई जा रही है, और एक बार फिर परियोजना विवादों में आ गई है. मध्य प्रदेश के धार, बडवानी, निमाड़ के कई इलाके और झाबुआ के पहाड़ी क्षेत्रों में स्थानीय रहवासी सड़कों पर उतरकर बांध की ऊंचाई बढ़ाने का विरोध कर रहे हैं.

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सरदार पटेल की प्रतिमा से शुरु हो चुकी थी भूमिका

लोकसभा चुनाव के ठीक पहले सरदार वल्लभ भाई पटेल की प्रतिमा की स्थापना को लेकर पूरे देश मे रन फॉर यूनिटी जैसे कार्यक्रम आयोजित किए गए थे. इसकी स्थापना उसी केवड़िया में होनी है जहां सरदार सरोवर बांध बना है. राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं कि प्रतिमा का एक उद्देश्य सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने की अपनी पुरानी मांग को मजबूत करना भी था. सरदार सरोवर बांध को बल्लभ भाई पटेल का सपना बताकर पूरे देश में एक माहौल बनाया जा रहा था. गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में गठित सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय एकता ट्रस्ट ने परियोजना के बारे में अपनी वेबसाइट पर जो अधिकारिक जानकारी मुहैया कराई है, उसके मुताबिक यह प्रतिमा तकनीकी तौर पर एक 182 मीटर (597 फुट) ऊंची इमारत होगी. इसे स्थापित करने में 2500 करोड़ रुपये की अनुमानित लागत आएगी. जिसके अंदर से सरदार सरोवर का विस्तृत नजारा देखा जा सकेगा. अमेरिका की टर्नर कंस्ट्रक्शन कंपनी इसका निर्माण कर रही है. वहीं मीन हार्ट्ज और माइकल ग्रेव्ज एंड एसोसिएट्स डिजाइन व आर्किटेक्ट फर्म है. इस प्रतिमा को ‘एकता की प्रतिमा’ कहा गया है. नरेंद्र मोदी स्टेच्यू ऑफ यूनिटी की स्थापना के साथ ही सरदार सरोवर बांध से भरूच के समुद्री तट तक नर्मदा के दोनों किनारों पर कैनाल टूरिज्म के तौर पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर का पर्यटन स्थल विकसित करना चाहते हैं.

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मध्यप्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और पूर्व केंद्रीय मंत्री कांतिलाल भूरिया कहते हैं, ‘असल में नरेंद्र मोदी सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने के लिए सरदार पटेल के व्यक्तित्व का दोहन कर रहे थे. उन्होंने एक तीर से दो निशाने साधे हैं, पहला तो गुजरात की मांग पूरी करने का, दूसरा वे मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के राजनीतिक कद की भी छटांई करना चाहते हैं, ताकि वे अपने ही प्रदेश में कमजोर साबित हो जाएं.’

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राजनीति का बांध
सरदार सरोवर बांध से कई राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं भी जुड़ी हुई हैं. बांध की ऊंचाई बढ़ने से जहां नरेंद्र मोदी और उनके गुजरात को कई लाभ हैं. वहीं मध्य प्रदेश की राजनीति के तीन सितारों (शिवराज सिंह, उमा भारती और थावरचंद गहलोत) को इस बांध की ऊंचाई में डूबने का खतरा पैदा हो गया है. सबसे पहले  मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की बात करें तो वे इस मुद्दे पर बोलने से बचते रहे हैं. जिस वक्त बांध की ऊंचाई बढ़ाने का फैसला हुआ, वे दक्षिण अफ्रीका में मध्य प्रदेश में उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए नए निवेशक तलाश कर रहे थे. शिवराज ने विदेश यात्रा के दौरान ही ट्वीट कर मोदी के फैसले का स्वागत किया. उन्होंने यह भी ट्वीट किया, ‘हमें शून्य लागत पर बिजली मिलेगी.’ लेकिन वे जैसे ही भोपाल पहुंचे तो मीडिया के सामने नए तेवर में नजर आए. पत्रकारों के सवालों का जवाब देते हुए मुख्यमंत्री ने कहा कि विस्थापितों के साथ अन्याय नहीं होने दिया जाएगा और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का ध्यान रखा जाएगा. यह बयान देते वक्त वे भूल गए कि पहले ही ट्विटर पर कह चुके हैं,  ‘2008 में ही विस्थापितों को मुआवजा बांट दिया गया. अब तत्काल कोई क्षेत्र डूब से प्रभावित नहीं होने वाला.’ सरदार सरोवर बांध पर विरोधाभासी बयान देने वाले शिवराज सिंह चौहान भूल गए कि आने वाले दिनों में यही मुद्दा उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं में सबसे बड़ा रोड़ा बनेगा. दूसरे स्थान पर केंद्रीय जलसंसाधन मंत्री उमा भारती का नाम आता है. मूलतः मध्य प्रदेश की रहने वाली उमा भारती अच्छी तरह जानती होंगी कि सूबे में पुर्नवास की स्थिति क्या है. इसके बावजूद भी उन्होंने अपने बयान में कहा, ‘विस्थापितों को ध्यान में रख कर दिए गए सुझावों के बाद सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने की मंजूरी दी गई है. सामाजिक न्याय मंत्रालय विस्थापितों के लिए उठाए गए कदमों से संतुष्ट है.’ केंद्रीय जल संसाधन मंत्री रहते हुए उमा का बांध की ऊंचाई बढ़ाने का समर्थन करना उनकी स्थिति को आने वाले दिनों में कमजोर करेगा. जिस परियोजना से मध्य प्रदेश को सिवाय नुकसान के कुछ नहीं मिल रहा है, उसका समर्थन कर उमा ने अपने विरोधियों को एक नया मुद्दा दे दिया है. चूंकि सरदार सरोवर बांध की पूरी कहानी सामाजिक न्याय मंत्रालय का हवाला देकर लिखी जा रही है, ऐसे में प्रदेश की राजनीति से राज्यसभा सांसद के रूप में केंद्र में पहुंचे केंद्रीय सामाजिक न्याय मंत्री थावरचंद गहलोत के लिए भी यह अच्छे दिनों की शुरुआत तो कतई नहीं मानी जा सकती. गहलोत भी मध्यप्रदेश से हैं. वे 1990-92 में प्रदेश के सिंचाई, नर्मदा घाटी विकास विभाग के मंत्री रह चुके हैं यानी यह माना जा सकता है विस्थापितों के दर्द को उन्होंने करीब से देखा और समझा होगा. लेकिन उनके ही मंत्रालय को ढाल बनाकर सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाई जा रही है. ऐसे में मध्य प्रदेश में विस्थापन के लिए वे भी उतने ही दोषी माने जाएंगे जितने कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उमा भारती. आने वाले समय में मध्य प्रदेश में तीनों को ही बांध की ऊंचाई का समर्थन करना राजनीतिक रूप से बहुत मंहगा पड़ सकता है.

मध्य प्रदेश की राजनीति के तीन सितारों (शिवराज सिंह, उमा भारती और थावरचंद गहलोत) को इस बांध की राजनीति से ज्यादा नुकसान हो सकता है

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Medha-Patkar-by-vijay-pande‘बांध की ऊंचाई बढ़ाया जाना सुप्रीम कोर्ट के आदेश का उल्लंघन है’

सरदार सरोवर परियोजना में विस्थापितों की पूरी तरह अनदेखी की गई है. गुजरात सरकार ने अभी तक नहरों का काम ही पूरा नहीं किया है, फिर उसे और केंद्र सरकार को सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने की जल्दी क्यों है. यह समझ नहीं आता. पिछले 30 सालों में नहरों का काम 30 फीसदी भी पूरा नहीं हो पाया है. बांध की ऊंचाई बढ़ने से गुजरात के कच्छ और सौराष्ट्र को इसका तत्काल कोई लाभ नहीं मिलेगा. इन इलाकों में सिंचाई के लिए पानी तब ही मिल पाएगा, जब नहरों का काम पूरा होगा. सबसे गौर करने वाली बात यह भी है कि किसान गुजरात सरकार को अपनी जमीन तक नहीं देना चाहते, तो फिर नहरें बनेंगी कहां पर. सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा है कि जहां तक पुर्नवास हुआ हो, वहीं तक काम को आगे बढ़ाया जाना है, लेकिन किसी भी प्रभावित प्रदेश में पुनर्वास हुआ ही नहीं है तो फिर बांध की ऊंचाई बढ़ाए जाना न्यायालय की अवमानना के तहत आता है. आप सोचिए कि योजना आयोग ने 2012 में परियोजना की अनुमानित लागत 70 हजार करोड़ रुपये बताई थी. इसपर अब तक 63 हजार करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं और यह खर्च 90 हजार करोड़ रुपये तक जाने की उम्मीद है. हमने परियोजना से जुड़े तथ्यों को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र भी लिखा है. यह लाखों लोगों के जीवन का प्रश्न है. इस पर सरकार को जवाब देना ही होगा. जैसे ही गेट लगाने की कार्रवाई शुरु होगी, वैसे वैसे बैक वॉटर के कारण पानी का स्तर बढ़ेगा. इसके परिणामस्वरूप अभी तक जो बस्तियां डूब क्षेत्र में चिन्हित हुई हैं. वहां पानी भर जाएगा. बारिश में यह स्थिति और भी ज्यादा चिंताजनक होगी.

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मोदी को फायदा ही फायदा
बांध की ऊंचाई बढ़ने से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का राजनीतिक फायदा तीन गुना हो जाएगा. पहला तो यह कि गुजरात में उन्होंने साबित कर दिया कि वे अपने प्रदेश के कितने बड़े हितैषी हैं. खुद नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए लंबे समय से बांध की ऊंचाई बढ़ाने की मांग कर रहे थे. 2006 में उन्होंने 51 घंटे का उपवास भी रखा था. प्रधानमंत्री बनते ही सबसे पहले उन्होंने गुजरात के हित में फैसला लेते हुए सरदार सरोवर बांध में 17 मीटर ऊंचे दरवाजे लगाने की अनुमति दे दी. इससे गुजरात में उनका कद और बढ़ गया. गुजरात में भाजपा और कांग्रेस दोनों ही खुलकर उनके निर्णय का स्वागत कर रही हैं. सरदार सरोवर बांध के द्वारा उन्होंने महाराष्ट्र और राजस्थान को साधने की भी कोशिश की है. महाराष्ट्र में कुछ समय बाद विधानसभा चुनाव होने हैं. सरदार सरोवर परियोजना से महाराष्ट्र को भी फायदा होना है. यहां पैदा होने वाली 1,450 मेगावॉट बिजली में से 27 फीसदी बिजली महाराष्ट्र को मिलेगी. महाराष्ट्र के पहाड़ी इलाकों की 37 हजार पांच सौ हैक्टेयर भूमि को सिंचाई के लिए जल उपलब्ध हो जाएगा.

बांध की ऊंचाई बढ़ने से राजस्थान को अच्छे दबाव से पानी मिल सकेगा, इससे वहां के रेगिस्तानी जिले बाड़मेर और जालौर की दो लाख 46 हजार हैक्टेयर भूमि की सिंचाई हो सकेगी. इसके अलावा राजस्थान के तीन शहरों और 1336 गांवों के चार करोड़ लोगों को पेयजल भी उपलब्ध हो सकेगा. अपने इस फैसले मोदी गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र में हीरो के रूप में उभरेंगे.


नर्मदा घाटी से जुड़े कुछ तथ्य

  • जुलाई 1993 टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस ने सात वर्षों के अध्ययन के बाद नर्मदा घाटी में बनने वाले सबसे बड़े सरदार सरोवर बांध के विस्थापितों के बारे में अपना शोधपत्र प्रस्तुत किया. इसमें कहा गया कि पुनर्वास एक गंभीर समस्या रही है. इस रिपोर्ट में ये सुझाव भी दिया गया कि बांध निर्माण का काम रोक दिया जाए और इस पर नए सिरे से विचार किया जाए
  • अगस्त 1993 परियोजना के आकलन के लिए भारत सरकार ने योजना आयोग के सिंचाई मामलों के सलाहकार के नेतृत्व में एक पांच सदस्यीय समिति का गठन किया.
  • दिसंबर 1993  केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्रालय ने कहा कि सरदार सरोवर परियोजना ने पर्यावरण संबंधी नियमों का पालन नहीं किया है.
  • जनवरी 1994 भारी विरोध को देखते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने परियोजना का काम रोकने की घोषणा की.
  • मार्च 1994 मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर मामले में हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री ने इस पत्र में कहा कि राज्य सरकार के पास इतनी बड़ी संख्या में लोगों के पुनर्वास के साधन नहीं हैं.
  • अप्रैल 1994 विश्व बैंक ने अपनी परियोजनाओं की वार्षिक रिपोर्ट में कहा कि परियोजना में पुनर्वास का काम ठीक से नहीं हो रहा है.
  • जुलाई 1994 केंद्र सरकार की पांच सदस्यीय समिति ने अपनी रिपोर्ट सौंपी लेकिन अदालत के आदेश के कारण इसे जारी नहीं किया गया. इसी महीने में कई पुनर्वास केंद्रों में प्रदूषित पानी पीने से दस लोगों की मौत हुई.
  • नवंबर-दिसंबर 1994 बांध बनाने के काम दोबारा शुरू करने के विरोध में नर्मदा बचाओ आंदोलन ने भोपाल में धरना देना शुरू किया.
  • दिसंबर 1994 मध्य प्रदेश सरकार ने विधानसभा के सदस्यों की एक समिति बनाई जिसने पुनर्वास के काम का जायज़ा लेने के बाद कहा कि भारी गड़बड़ियां हुई हैं.
  • जनवरी 1995 सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि पांच सदस्यों वाली सरकारी समिति की रिपोर्ट को जारी किया जाए. साथ ही, सुप्रीम कोर्ट ने बांध की उपयुक्त ऊंचाई तय करने के लिए अध्ययन के आदेश दिए.
  • मार्च 1995 विश्व बैंक ने अपनी एक रिपोर्ट में स्वीकार किया कि सरदार सरोवर परियोजना गंभीर समस्याओं में घिरी है.
  • जून 1995 गुजरात सरकार ने एक नर्मदा नदी पर एक नई विशाल परियोजना-कल्पसर शुरू करने की घोषणा की.
  • नवंबर 1995 सुप्रीम कोर्ट ने सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने की अनुमति दी.
  • 1996 उचित पुनर्वास और ज़मीन देने की मांग को लेकर मेधा पाटकर के नेतृत्व में अलग-अलग बांध स्थलों पर धरना और प्रदर्शन जारी रहा.
  • अप्रैल 1997 महेश्वर परियोजना के विस्थापितों ने मंडलेश्वर में एक जुलूस निकाला जिसमें ढाई हज़ार लोग शामिल हुए. इन लोगों ने सरकार और बांध बनाने वाली कंपनी एस कुमार्स की पुनर्वास योजनाओं पर सवाल उठाए.
  • अक्तूबर 1997 बांध बनाने वालों ने अपना काम तेज़ किया जबकि विरोध जारी रहा.
  • जनवरी 1998 सरकार ने महेश्वर और उससे जुड़ी परियोजनाओं की समीक्षा की घोषणा की और काम रोका गया.
  • अप्रैल 1998 दोबारा बांध का काम शुरू हुआ, स्थानीय लोगों ने निषेधाज्ञा को तोड़कर बांधस्थल पर प्रदर्शन किया, पुलिस ने लाठियां चलाईं और आंसू गैस के गोले छोड़े.
  • मई-जुलाई 1998 लोगों ने जगह-जगह पर नाकाबंदी करके निर्माण सामग्री को बांधस्थल तक पहुंचने से रोका.
  • नवंबर 1998 बाबा आमटे के नेतृत्व में एक विशाल जनसभा हुई और अप्रैल 1999 तक ये सिलसिला जारी रहा.
  • दिसंबर 1999 दिल्ली में एक विशाल सभा हुई जिसमें नर्मदा घाटी के हज़ारों विस्थापितों ने हिस्सा लिया.
  • जून 2014 बांध की आखिरी ऊंचाई बढ़ाने की घोषणा होते ही मध्यप्रदेश के बडवानी, अंजड, कुक्षी, मनावर, धरमपुरी रैलियां निकालकर विरोध प्रदर्शन किया जा रहा है.

भुला दिया गया ‘होलोकास्ट’

वर्ष 1943-44 में बंगाल में भीषण अकाल पड़ा था. इस अकाल में करीब 40 लाख लोगों की मौत हो गई थी.
वर्ष 1943-44 में बंगाल में भीषण अकाल पड़ा था. इस अकाल में करीब 40 लाख लोगों की मौत हो गई थी.

20वीं सदी के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप में घटी सबसे भयानक त्रासदी क्या थी, इस सवाल के जवाब में ज्यादातर यही कहेंगे कि भारत का विभाजन जिसने करीब 10 लाख लोगों की बलि ले ली. लेकिन इससे चार साल पहले घटी एक त्रासदी कहीं बड़ी और भयानक थी. 1943-44 में बंगाल में जो भीषण अकाल पड़ा वह करीब 40 लाख लोगों की जिंदगी लील गया था. मौतों का यह आंकड़ा विभाजन की तुलना में चार गुना बड़ा है. यह प्राकृतिक आपदा नहीं थी बल्कि ब्रिटिश सरकार द्वारा पैदा किया गया एक कृत्रिम अकाल था. इतनी बड़ी आपदा होने के बावजूद भारत के इतिहास और वर्तमान ने इस बड़ी हद तक भुला ही दिया है.

इस अकाल की सबसे असाधारण बात है इसकी अवधि. वह समय दूसरे विश्व युद्ध का भी था जो अपने चरम पर था. जर्मन सेना पूरे यूरोप को रौंद रही थी. यहूदियों, स्लाव और रोमा लोगों को चुन-चुनकर निशाना बनाया जा रहा था. इस दौरान एडोल्फ हिटलर और उसके साथी नाजियों ने 60 लाख यहूदियों की हत्या की. इस नरसंहार को सारी दुनिया आज होलोकास्ट के नाम से जानती है. 60 लाख लोगों की हत्या करने में हिटलर को 12 साल लगे थे, लेकिन अंग्रेजों ने एक साल से महज कुछ अधिक समय में 40 लाख भारतीयों को मार डाला.

इस विषय पर लिखते रहे आस्ट्रेलिया के वैज्ञानिक और सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. गिडोन पोल्या का मानना है कि बंगाल का अकाल ‘मानवनिर्मित होलोकास्ट’ है क्योंकि इसके लिए सीधे तौर पर तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल की नीतियां जिम्मेदार थीं. 1942 में बंगाल में अनाज की पैदावार बहुत अच्छी हुई थी, लेकिन अंग्रेजों ने व्यावसायिक मुनाफे के लिए भारी मात्रा में अनाज भारत से ब्रिटेन भेजना शुरू कर दिया. इसकी वजह से उन इलाकों में अन्न की भारी कमी पैदा हो गई जो आज के पश्चिम बंगाल, ओडिशा, बिहार और बांग्लादेश में आते हैं.

लेखिका मधुश्री मुखर्जी ने उस अकाल से बच निकले कुछ लोगों को खोजने में कामयाबी हासिल की.  अपनी किताब चर्चिल्स सीक्रेट वार (चर्चिल का गुप्त युद्ध) शीर्षक में वह लिखती हैं, ‘मां-बाप ने अपने भूखे बच्चों को नदियों और कुंओं में फेंक दिया. कई लोगों ने ट्रेन के सामने कूदकर  जान दे दी. भूखे लोग चावल के मांड़ के लिए गिड़गिड़ाते. बच्चे पत्तियां और घास खाते. लोग इतने कमजोर हो चुके थे कि उनमें अपने प्रियजनों का अंतिम संस्कार करने तक की ताकत नहीं बची थी.’

इस अकाल को देख चुके एक बुजुर्ग ने मुखर्जी को बताया, ‘बंगाल के गांवों में लाशों के ढेर लगे रहते थे जिन्हें कुत्तों और सियारों के झुंड नोचते.’ इस अकाल से वही आदमी बचे जो रोजगार की तलाश में कलकत्ता चले आए थे  या वे महिलाएं जिन्होंने परिवार को पालने के लिए मजबूरी में वेश्यावृत्ति करनी शुरू कर दी. मुखर्जी लिखती हैं, ‘महिलाएं हत्यारी बन गईं और गांव की लड़कियां वेश्याएं. उनके पिता अपनी ही बेटियों के दलाल बन गए.’

मणि भौमिक मशहूर संस्थान आईआईटी से पीएचडी करने वाले पहले शख्स हैं और उन्हें इसलिए भी जाना जाता है कि उनकी खोज ने लेसिक आई सर्जरी की राह आसान की. उनकी यादों में यह अकाल दर्ज है. भौमिक की दादी की भूख से मौत हो गई थी क्योंकि उनके हिस्से जो थोड़ा बहुत खाना आता था, उसका भी एक हिस्सा वे अपने पोते को देती थीं.

सन 1943 तक भूख के शिकार लोगों की बाढ़ कलकत्ता पहुंचने लगी थी. शहर की सड़कों पर उनकी मौत हो रही थी. पंडित जवाहरलाल नेहरू का कहना था, ‘इस विनाशकारी परिदृश्य में भरे-पूरे गोरे-चिट्टे ब्रिटिश सैनिकों की मौजूदगी ने भारत में अंग्रेजी राज के खात्मे की दिशा में आखिरी धक्का मारने का काम किया.’

चर्चिल इस अकाल को बहुत आसानी से टाल सकते थे. महज कुछ जहाजों में अनाज भेजकर भारतीयों की बहुत बड़ी मदद की जा सकती थी, लेकिन ब्रिटिश प्रधानमंत्री ने किसी की नहीं सुनी. न अपने दो वॉयसरायों की और न ही अपने भारत सचिव की. यहां तक कि चर्चिल ने अमेरिकी राष्ट्रपति तक की अपील को ठुकरा दिया. जापानी सेना के साथ मिलकर मित्र राष्ट्रों के खिलाफ लड़ रहे सुभाषचंद्र बोस ने म्यांमार से चावल भेजने की पेशकश की थी लेकिन ब्रिटिश शासन ने यह खबर तक दबा दी. चर्चिल ने बेहद क्रूर तरीके से अनाज को ब्रिटिश सैनिकों और ग्रीस के नागरिकों के इस्तेमाल के लिए भिजवा दिया. उनका कहना था कि बंगालियों को तो पहले से ही खाना पूरा नहीं पड़ रहा, इसलिए उनकी भुखमरी ज्यादा गंभीर विषय नहीं है.

भारत और बर्मा (तत्कालीन म्यामार) के सचिव लियोपोल्ड अमेरी ने घोर उपनिवेशवादी होने के बावजूद चर्चिल के ‘हिटलर जैसे रवैये’ की आलोचना की. अमेरी और वॉयसराय आर्किबाल्ड वॉवेल ने चर्चिल से अनुरोध किया कि भारत के लिए तत्काल अनाज भेजा जाए. इस पर चर्चिल ने एक टेलीग्राम भेजकर पूछा जिसका भाव यह था कि इतनी भुखमरी है तो गांधी अब तक क्यों नहीं मरे?

वॉवेल ने लंदन को सूचना भेजी थी, ‘यह अकाल ब्रिटिश शासन के अधीन आन पड़ी सबसे बड़ी आपदाओं में से एक है.’ उन्होंने लिखा, ‘जब भी हॉलैंड (अब नीदरलैंड्स) को अनाज की जरूरत होती है तो जहाज हमेशा उपलब्ध होते हैं लेकिन जब हम अनाज भारत लाने के लिए जहाज की मांग करते हैं तो हमें एकदम अलग उत्तर मिलता है.’ उधर, चर्चिल की सफाई यह थी कि आपातकालीन आपूर्ति के लिए ब्रिटेन के पास जहाज नहीं थे. आज भी उनका परिवार और उनके समर्थक यही दलील देते हैं. लेकिन मुखर्जी ने ऐसे दस्तावेज उजागर किए हैं जो चर्चिल के दावे को चुनौती देते हैं. उनके द्वारा खोजे गए आधिकारिक दस्तावेजों के मुताबिक ऑस्ट्रेलिया से अनाज लेकर जा रहे जहाज भारत के पास से ही होकर गुजरे थे.

भारत के प्रति चर्चिल की दुश्मनी कोई नई बात नहीं थी. वॉर कैबिनेट की एक बैठक में उन्होंने अकाल के लिए भारतीयों को ही दोषी ठहराते हुए कहा था, ‘वे खरगोशों की तरह बच्चे पैदा करते हैं.’ भारतीयों के प्रति उनके रवैये को इस वाक्य से समझा जा सकता है जो उन्होंने अमेरी से कहा था, ‘मुझे भारतीयों से नफरत है. वे पाशविक धर्म वाले पाशविक लोग हैं.’ एक अन्य मौके पर उन्होंने जोर देकर कहा कि भारतीय जर्मनों के बाद दुनिया के सबसे पाशविक लोग हैं.

मुखर्जी के मुताबिक, ‘भारत के प्रति चर्चिल का रवैया बहुत अतिवादी था और वे भारतीयों से नफरत करते थे. इसकी मुख्य वजह यह थी कि उनको पता लग चुका था कि भारत को लंबे समय तक गुलाम बनाकर नहीं रखा जा सकता.’  ऑनलाइन समाचार ब्लॉग हफिंगटन पोस्ट में प्रकाशित अपने एक लेख में वे लिखती हैं, ‘चर्चिल ने गेहूं के बारे में कहा कि वह इतनी कीमती चीज है कि उसे गैर श्वेत लोगों पर खर्च नहीं किया जा सकता, उन लोगों की बात तो छोड़ ही दी जाए जो ब्रिटिश साम्राज्य से आजादी की मांग कर रहे हैं.’

अक्टूबर 1943 में जब अकाल अपने चरम पर था, चर्चिल ने वॉवेल की नियुक्ति के अवसर पर आयोजित एक भव्य समारोह में कहा, ‘जब हम बीते सालों की ओर नजर डालते हैं, तो हमारी दृष्टि दुनिया के उस इलाके की ओर जाती है जहां पिछली तीन पीढ़ियों से कोई जंग नहीं हुई. वहां अकाल बीती बात हो गया….समय बीतने के साथ यह कालखंड भारतीय इतिहास का स्वर्णकाल कहा जाएगा. ब्रिटिशों ने उन्हें शांति और व्यवस्था मुहैया कराई, गरीबों को न्याय मिला और वहां के लोगों को बाहरी खतरों से सुरक्षित किया गया.’ साफ है कि चर्चिल केवल नस्लवादी ही नहीं बल्कि झूठे भी थे.

होलोकास्ट का इतिहास
अकाल पीड़ित बंगाल के प्रति चर्चिल की नीति, भारत के प्रति ब्रिटेन के पुराने आचरण से कतई अलग नहीं थी. माइक डेविस अपनी किताब लेट विक्टोरियन होलोकास्ट में बताते हैं कि ब्रिटिश शासन के 120 सालों में यहां 31 गंभीर अकाल पड़े जबकि ब्रिटिश शासन के पहले 2000 सालों में इनकी संख्या बमुश्किल 17 थी.

अपनी इस किताब में डेविस उन अकालों की दास्तान पेश करते हैं जिनमें करीब 2.9 करोड़ भारतीयों को अपनी जान गंवानी पड़ी. उनका मानना है कि ब्रिटिश नीति ने उन लोगों की हत्या की. 1896 में जब सूखे ने दक्षिण के पठार के किसानों की कमर तोड़ी तो देश में चावल और गेहूं का भंडार पर्याप्त से भी ज्यादा था. लेकिन तत्कालीन वॉयसराय रॉबर्ट बुलेवर लिटन ने जोर देकर कहा कि इंग्लैंड को होने वाले निर्यात में कोई कमी नहीं की जाएगी.

सन 1877 और 1898 में जब अकाल अपने चरम पर था तो अनाज कारोबारियों ने रिकॉर्ड मात्रा में अनाज का निर्यात किया. जब लोग भूख से मरने लगे तो सरकारी अधिकारियों को आदेश दिया गया कि राहत कार्यों को हर संभव तरीके से हतोत्साहित किया जाए. अधिकांश जिलों में जिस राहत कार्य को मंजूरी दी गई वह था कठिन शारीरिक श्रम और उसके बदले अनाज. भुखमरी से जूझ रहे लोगों के लिए यह काम करना संभव ही नहीं था. इन श्रमिक शिविरों में रहने वाले लोगों को उससे भी कम भोजन मिलता था जितना कि द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नाजी यातना शिविर में रहने वाले यहूदियों को मिलता था.

लाखों लोगों की मौत के बावजूद लिटन ने मद्रास इलाके में किसानों की दिक्कतों को दूर करने की हर कोशिश की भरपूर अनदेखी की. वह भारत की महारानी के रूप में  रानी विक्टोरिया की ताजपोशी की तैयारियों में लगा रहा. इस उत्सव में 68,000 माननीय अतिथियों के लिए सप्ताह भर लंबे भोज का आयोजन किया गया जहां महारानी ने देश के लिए ‘खुशहाली, समृद्धि और कल्याण का वादा किया.’ सन 1901 में द लैंसेट पत्रिका ने अनुमान लगाया था कि 1890 के दशक में पश्चिमी भारत में अकाल की वजह से तकरीबन 1.9 करोड़ भारतीयों की मौत हुई थी. मौत का आंकड़ा इतना ज्यादा इसलिए था क्योंकि ब्रिटिश शासन ने राहत का कोई इंतजाम नहीं किया.

ऐसे में आश्चर्य नहीं कि हिटलर की पसंदीदा फिल्म ‘द लाइव्स ऑफ ए बंगाल लांसर’ थी. इस फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे मुठ्ठीभर ब्रिटिश पूरे उपमहाद्वीप को अपने अधीन कर लेते हैं. हिटलर ने तत्कालीन ब्रिटिश विदेश सचिव एडवर्ड वुड से कहा था कि वह उसकी पसंदीदा फिल्मों में से एक है क्योंकि ‘वह दिखाती है कि एक श्रेष्ठ नस्ल को किस तरह व्यवहार करना चाहिए.’ नाजी सेनाओं के लिए भी इस फिल्म को देखना अनिवार्य किया गया था.

अपराध और उसके परिणाम
हालांकि ब्रिटेन कई देशों से माफी मांग चुका है. उदाहरण के लिए उसने केन्या से माऊ माऊ नरसंहार के लिए माफी मांगी, लेकिन भारत के इस नरसंहार की बात न वह करता है और न ही भारत खुद. इजरायल कभी भी होलोकास्ट को भूल नहीं सकता, न ही वह दूसरों को इसे भूलने देगा. कम से कम जर्मनी को तो कतई नहीं. जर्मनी निरंतर लाखों डॉलर की मदद और हथियारों के रूप में इजरायल को सहायता देता रहता है. अार्मीनिया भी प्रथम विश्व युद्ध के दौरान तुर्की द्वारा अपने 18 लाख नागरिकों की हत्या को नहीं भुला सकता. पोलैंड के लोग भी जोसेफ स्टालिन द्वारा किए गए कैटीन हत्याकांड को भूल नहीं सकते. चीन द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नानकिंग में जापानियों द्वारा 40,000 लोगों की हत्या और बलात्कार के मामले में स्पष्ट क्षमा याचना और मुआवजा चाहता है. यूक्रेन का उदाहरण भी है जो स्टालिन की आर्थिक नीतियों के कारण बनी अकाल की स्थिति को नरसंहार की संज्ञा देता है जबकि ऐसा था नहीं. उन्होंने इसे होलोडोमोर का नाम दिया है.

लेकिन भारत प्रायश्चित तो छोड़िए माफी की मांग करने तक को तैयार नहीं. क्या हमें लगता है कि साम्राज्यवाद के खात्मे के कारण पहले से ही अवसादग्रस्त इंग्लैंड को और परेशान क्या करना? या फिर भारत का अंग्रेजी बोलने वाला बुर्जुआ वर्ग खुद को अभी भी अंग्रेजों का आभारी मानता है? या फिर हम अपनी ऐतिहासिक गलतियां दोहराने को अभिशप्त देश हैं? शायद हममें क्षमाभाव बहुत ज्यादा है. लेकिन क्षमा करने और भूल जाने में अंतर होता है और भारतीय भूल जाने के दोषी हैं. यह उन लाखों भारतीयों की स्मृतियों का अपमान है जिन्होंने कृत्रिम अकाल के चलते अपनी जान गंवा दी.

भारतीयों के प्रति ब्रिटेन का रवैय्या तब और  हैरान करता है जब हम मित्र देशों के युद्ध अभियान में भारत का योगदान देखते हैं. 1943 तक 25 लाख से अधिक भारतीय सैनिक यूरोप, अफ्रीका और दक्षिणपूर्वी एशिया में मित्र देशों की सेना के साथ मिलकर लड़ रहे थे. देश भर से इकट्ठा किए गए संसाधन जैसे  हथियार और कई तरह का कच्चा माल भारत से यूरोप ले जाया जाता था जिसमें ब्रिटेन के पल्ले से कुछ नहीं जाता था.

दरअसल देखा जाए तो ब्रिटेन पर भारत का इतना कर्ज है कि उसकी अनदेखी दोनों में से कोई देश नहीं कर सकता. कैंब्रिज विश्वविद्यालय के इतिहासकार टिम हार्पर और क्रिस्टोफर बेली कहते हैं, ‘सन 1945 की जीत को भारतीय सैनिकों, श्रमिकों और कारोबारियों ने संभव बनाया. इसकी कीमत उन्हें भारत की जल्द आजादी के रूप में मिली.’

करीब 250 साल के उपनिवेशकाल में भारत को जिस कदर लूटा गया, उसकी भरपाई करने लायक धन पूरे यूरोप के पास आज भी नहीं है. और पैसे की बात तो छोड़ ही दीजिए, आचरण की गरिमा भी एक चीज होती है. क्या ब्रिटेन बंगाल में हुई उन करोड़ों मौतों के लिए माफी मांगेगा? या फिर चर्चिल की तरह वह भी इसी धोखे में रहना चाहता है कि अंग्रेजों का शासन भारत का ‘स्वर्ण काल’ था.