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कपूर साहब का लौंडा या अपना होंड़ा?
कॉमेडी नाइट्स से पॉपुलर हुए कपिल शर्मा ने विज्ञापन की दुनिया में होंडा जैसे एक ऐसे भारी-भरकम ब्रांड से कदम रखा है जिसमें उन्हें अलग से कुछ भी करने की जरूरत नहीं पड़ी. वह अपने शो में द्विअर्थी संवादों के जरिए ह्यूमर पैदा करने की कोशिश करते हैं और अगर गौर किया जाए तो लगभग हरेक एपीसोड में महिला आयोग के दरवाजे खटखटाने की जरूरत है. इस विज्ञापन में इस असर को थोड़ा फीका कर दिया गया है. ऐसा होने से होंडा की ब्रांड इमेज और पोजिशनिंग जरूर बदल जाती है.

होंडा की नई गाड़ी मोबिलियो की अपील फैमिली गाड़ी है. विज्ञापन बताता है कि ये सेवन सीटर है लेकिन पूरे विज्ञापन में संभावित फैमिली है और बड़े आराम से एडजेस्ट होने की बातें शामिल है. यह अब तक के फैमिली बेस्ड प्रॉडक्ट और विज्ञापन का विलोम है. लेकिन विज्ञापन की पूरी भाषा और अंदाज जिस तरह का है, विडंबना देखिए कि फैमिली को इसी पर आपत्ति हो सकती है. क्या चीज है यार… से शुरू हुआ ये विज्ञापन आखिर में आकर कपूर साहब का लौंडा या अपना होंडा पर खत्म होता है, उसके बीच वही द्विअर्थी संवाद हैं जो इन दिनों व्हॉट्स एप पर लोग शेयर करते हैं. विज्ञापन ने इसमें कपिल शर्मा को शामिल करके चुटकुले को विजुअलाइज कर दिया है. इस विज्ञापन में होंडा ने अपने को बदला है और कपिल शर्मा के अंदाज के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की है. ये जरूरी भी है कि उन्हें शामिल करने का आधार उनका यही अंदाज और उससे बनी लोकप्रियता रही है. लेकिन होंडा जैसे लग्जरी ब्रांड के विज्ञापन अब तक जितने सांकेतिक और ग्रेसफुल रहे हैं, उनके मुकाबले ये विज्ञापन फूहड़ नजर आता है. ऐसा होने से जो कपिल शर्मा के शो के मुरीद हैं, उन पर साकारात्मक असर होगा लेकिन जो इस शो को लंपटता पैदा करने तक मानते हैं और जिनकी ऐसी गाड़ी खरीदने की क्रय-शक्ति है, वे बिदक भी सकते हैं.

इंडियाज बेस्ट सिनेस्टार की खोज
14 साल बाद जीटीवी का पुराना शो ‘सिनेस्टार की खोज’ फिर से दर्शकों के बीच है. ये शो बिना किसी कैच, खानदानी रसूख और पीआर के सिर्फ प्रतिभा के दम पर बॉलीवुड में दाखिल होने का दावा करता है. पिछले दिनों एनडीटीवी प्रॉफिट से एनडीटीवी प्राइम हुआ चैनल अपने शो ‘टिकट टू बॉलीवुड’ में भी यही दावे करता नजर आया. अगर ये दोनों शो दर्शकों के बीच पकड़ बना पाते हैं और इनकी टीआरपी ठीक रहती है तो यकीन मानिए बिना कपूर, खान, चोपड़ा के परिवार से आए बॉलीबुड में पैर जमाने का दावा करने वाले शो की बाढ़ आने जा रही है. खैर,

शो का बड़ा हिस्सा किसी भी डांस आधारित रियलिटी शो की तरह है लेकिन संवाद और भाव-भंगिमा के जरिए जो एक्टिंग के सेग्मेंट शामिल किए गए हैं, उससे दर्शकों के बीच ये स्थापित करने की कोशिश है कि डायलॉग अभी भी सिनेमा का प्राण-तत्व है. इधर रंगमंच का जो हुनर जो सिर्फ गली-मोहल्ले में खप रहा था, टुकड़ों-टुकड़ों में यहां वो भी काम आ जा रहा है.

हुसैन अब टाइप्ड हो गए हैं और वह ये समझने में नाकाम हैं कि शो का मिजाज भी ये तय करता है कि क्या, कैसे और कितना बोलना है जबकि टीवी शो के लिए परिणिति चोपड़ा अपेक्षाकृत नई हैं तो उनकी मौजूदगी में फ्रेशनेस है. जज के रूप में सोनाली बेन्द्रे और आयुष्मान खुराना अपने को लॉफ्टर शो के जज के ज्यादा करीब रखते हैं लेकिन विजय कृष्ण आचार्य का व्यक्तित्व और अंदाज शो को गंभीर और अदाकारी के प्रति जिम्मेदार बनाता है. इस शो को इस रुझान के साथ देखा जाए कि एपीसोड-दर-एपीसोड कैसे प्रतिभागी निखरते जाते हैं तो ये रिअलिटी शो से कहीं ज्यादा लर्निंग शो जैसा असर पैदा करेगा.

अब तिरानवे दशमलव पांच
रेड एफएम 93.5 एफएम ने सालों से चले आ रहे जिंगल का हुलिया पूरी तरह बदलकर नए अंदाज और स्वर में पेश किया है. सचिन-जिगर द्वारा कंपोज किए गए इस जिंगल से गुजरने के बाद इतना जरूर आभास होता है कि ‘नए जमाने का रेडियो स्टेशन’ बनाए रखने की दिशा में ये दुरुस्त जिंगल है जिसकी तासीर किसी भी डीजे-सॉन्ग जैसी ही है. लेकिन एफएम चैनलों पर गानों, प्रोमोशनल प्रोग्राम और विज्ञापनों की पहले से ही इतनी भीड़ होती है कि उसी मिजाज के चैनल के जिंगल भी प्रसारित किए जाएं तो वो खोया-खोया चांद-सा हो जाता है. रेड एफएम के नए जिंगल के साथ भी यही हुआ है.

सबसे खास बात यह है कि चैनल अपनी फ्रीक्वेंसी को जिंगल में एक बार ही सही हिंदी में प्रयोग करता है- तिरानवे दशमलव पांच. हमारी रोजमर्रा की बातचीत से भी दशमलव शब्द लगभग गायब हो गए हैं तो इसका प्रयोग बेहद यूनीक और याद रह जाने लायक है. दूसरा, इसे बेहद ही दिलकश अंदाज में कहा गया है. आपको अकेले ‘तिरानवे दशमलव पांच’ सुनने के लिए बार-बार इससे गुजरने का मन करेगा. चैनल का दावा है कि हम इस जिंगल के जरिए आपको एक स्टेप आगे ले जाना चाहते हैं, आगे-पीछे का तो पता नहीं लेकिन हिंदी का ये प्रयोग इसे असरदार जरूर बनाता है.

कुछ जवाब जस्टिस काटजू को भी देने हैं.

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जस्टिस मार्कंडेय काटजू

जस्टिस मार्कंडेय काटजू ने अपने ताजा ब्लॉग में लिखा है कि वे जब मद्रास हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश थे तब वर्ष 2004 में वहां के एक अतिरिक्त न्यायाधीश की कई शिकायतें मिलने के बाद उन्होंने देश के मुख्य न्यायाधीश से कहकर इसकी आईबी जांच कराई थी. आईबी की रिपोर्ट ने अतिरिक्त जज को भ्रष्टाचार में लिप्त पाया था, लेकिन इसके बाद भी उन्हें कार्यकाल विस्तार दे दिया गया. जस्टिस काटजू के मुताबिक तब के चीफ जस्टिस आरके लाहोटी ने ऐसा यूपीए की केंद्र सरकार के दबाव में किया था जो खुद डीएमके के दबाव में थी. इस मामले को जस्टिस काटजू जिस समय, जिस तरह से दुनिया के सामने लाए हैं और इसके बाद वे जैसा व्यवहार कर रहे हैं उसके चलते कुछ सवाल उनसे भी पूछे जा सकते हैं.

1- जस्टिस काटजू ने तीन पूर्व मुख्य न्यायाधीशों के अलावा पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अप्रत्यक्ष लेकिन स्पष्ट तौर पर डीएमके के ऊपर भी आरोप लगाए हैं. एनडीटीवी को दिए साक्षात्कार में उन्होंने तमिलनाडु की ‘वर्तमान’ मुख्यमंत्री जयललिता की तारीफ भी की है कि उन्होंने कभी किसी नियुक्ति आदि के लिए उन पर दबाव नहीं डाला जबकि डीएमके ने उनसे कई बार गलत काम करवाने की कोशिश की. थोड़ा सा अजीब है कि जब कांग्रेस और डीएमके केंद्र और राज्य की सत्ता में थीं तब उन्होंने इस मामले पर कुछ नहीं बोला. अब वे न केवल इन दोनों पार्टियों पर भी बड़े आरोप लगा रहे हैं बल्कि कम से कम एक सत्ताधारी पार्टी और उसकी मुखिया – एआईडीएम और जयललिता – की भूरि-भूरि प्रशंसा भी कर रहे हैं.

2-जस्टिस काटजू के मुताबिक उन्हें बाद में पता लगा कि मनमोहन सिंह जब संयुक्त राष्ट्र की बैठक में हिस्सा लेने के लिए न्यूयॉर्क जा रहे थे और हवाईअड्डे पर थे तब वहां डीएमके के एक मंत्री भी थे. इन मंत्री जी ने प्रधानमंत्री से कहा कि जब तक वे न्यूयॉर्क से लौटकर आएंगे तब तक उन जज साहब को हटाने की वजह से उनकी सरकार गिर चुकी होगी. यह सुनकर मनमोहन सिंह घबरा गए. तब एक कांग्रेसी मंत्री ने उन्हें ढाढस बंधाया कि वे आराम से जाएं और इस मामले को वे सुलटा लेंगे. इसके बाद वे मंत्री महोदय मुख्य न्यायाधीश जस्टिस लाहोटी के पास गए. उनसे कहा कि अगर मद्रास हाईकोर्ट के आरोपित जज को कार्यकाल विस्तार नहीं दिया गया तो सरकार संकट में आ जाएगी. इस पर जस्टिस लाहोटी ने सरकार को आरोपित जज साहब का कार्यकाल बढ़ाने वाला पत्र भेज दिया.

जस्टिस काटजू ने इस बारे में अपने ब्लॉग और साक्षात्कार में जिस तरह से लिखा-कहा है वह बड़ा अजीब है. यह ऐसा है कि मानो किसी फिल्म का फ्लैशबैक हो जिसमें कोई पात्र उन चीजों के बारे में भी विस्तार से बता रहा होता है जिनकी जानकारी या तो उसे हो ही नहीं सकती या उतनी और वैसे नहीं हो सकती. जितने विस्तार से जिस तरह से उन्होंने अतिरिक्त जज महोदय को विस्तार दिए जाने का वर्णन किया है वह कोई एक-दो नहीं बल्कि इससे कहीं बहुत ज्यादा और मुख्य पात्रों के बहुत करीबी लोगों के जरिये ही किसी को पता चल सकता था.

3-बजाय सिर्फ यह कहने के कि डीएमके के दबाव में आई केंद्र सरकार के दबाव में मुख्य न्यायाधीश ने आरोपित जज को गलत कार्यकाल विस्तार दिया जस्टिस काटजू अपने ब्लॉग में इसका आंखों-देखा हाल सुनाते हैं. लेकिन जब उनसे यह पूछा जाता है कि वे इस मामले को 10 साल तक दुनिया के सामने क्यों नहीं लाए या अब इसके बारे में क्यों बता रहे हैं तो वे सामने वाले को झिड़कने की हद तक नाराज हो जाते हैं. क्या वे नहीं जानते कि एक गलत तरीके से बनाया गया भ्रष्टाचारी जज देश का कितना नुकसान कर सकता है? क्या वे नहीं जानते कि वह जज अगर आगे जाकर हाईकोर्ट का जज बना तो सुप्रीम कोर्ट का भी बन सकता था और इसके और भी गंभीर परिणाम हो सकते थे? आज केवल इस मामले पर अकादमिक बहसें और विवाद आदि ही हो सकते हैं, लेकिन क्या वे तब कुछ नहीं कर सकते थे जब उस कथित भ्रष्टाचारी जज को देश और समाज का नुकसान करने से रोका जा सकता था? क्यों उन्होंने सिर्फ एक बार मुख्य न्यायाधीश से शिकायत करने के बाद इस मामले पर 10 साल का मौन व्रत रख लिया?

4- माना कि जस्टिस काटजू का उठाया मुद्दा पहले जितना न सही लेकिन आज भी बेहद महत्वपूर्ण है, लेकिन क्या जस्टिस काटजू उसके महत्व को खुद ही कम नहीं कर रहे हैं? गैर-जरूरी तफसील में जाकर, उनसे पूछे जाने वाले सवालों पर भड़ककर क्या वे मुख्य मुद्दे से ध्यान भटकाने का काम नहीं कर रहे हैं? अच्छा होता कि वे अपने आपको थोड़ा संयमित रखके केवल एक जज और जजों की नियुक्ति प्रक्रिया पर ही बात करते और जरूरी होने पर ही राजनीति और उसे साधने वालों को भी बीच में लाते. ऐसे नहीं कि सारा मुद्दा उनके बीच ही फुटबॉल बन जाए.


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करीना कपूर को अटरम-शटरम फिल्में करने में बड़ा मजा आ रहा है. जैसे सिंघम रिटर्न्स. जबकि प्रोमो बता रहे हैं कि वे भी सिंघम की काजल अग्रवाल की तरह वाले साधारण रोल में ही हैं. पता नहीं चमेली, देव, जब वी मेट वाली करीना कसमसाती क्यूं नहीं. वैसे करीना कई दफे कह चुकी हैं कि अब उनके लिए प्रूव करने के लिए कुछ बचा नहीं है. अगर नहीं भी बचा तब भी गोलमाल, बॉडीगार्ड, रा.वन, सत्याग्रह जैसी फिल्में करने की वजह, सिद्ध करने के लिए कुछ नहीं बचना, तो नहीं होनी चाहिए. अच्छी फिल्में ठुकरा रहीं करीना ने बिजाय नाम्बियार की अमिताभ-फरहान अख्तर वाली फिल्म ठुकराई, सुजाय घोष की दुर्गा रानी सिंह को न कहा, और बदले में अक्षय कुमार की सिंग इज ब्लिंग की हीरोइन बनने की कोशिश की और सलमान के साथ बजरंगी भाईजान साइन की. ऐसी अच्छी अभिनय प्रतिभा का क्या मोल जो घर में करीने से सजाकर रखी हो करीना. कृपया उसे बाहर निकालिए.

narishनरगिसी कोफ्ता खाइये कोफ्त भगाइये
नरगिस फाखरी का कहना है कि वे हॉलीवुड की जगह बॉलीवुड में ज्यादा कंफर्टेबल फील करती हैं. शायद वैसे ही, जैसे तुषार कपूर चुनौतीपूर्ण रोल करने से ज्यादा आरामतलब जिंदगी जीने में कंफर्टेबल रहते हैं. मत कहिए फाखरी, हमें पता है आपके लिए बॉलीवुड और साउथ का सिनेमा आसान काम है, हॉलीवुड में आपकी खराब एक्टिंग के चर्चे आम हैं. हालांकि नरगिस के लिए हमारी इतनी कठोरता ठीक नहीं क्योंकि नरगिस के सेंटी ट्वीट से पता चला है कि उदयगिरी से लौटने के बाद नरगिस-उदय का रिश्ता खत्म होने को तैयार है, वजह उदय चोपड़ा हैं जो सीरियस नहीं हैं. उदय के अलावा नरगिस सलमान से भी परेशान हैं. उन्हें लगा था कि किक में सलमान के साथ आयटम नंबर कर वे मीडिया में छा जाएंगी, लेकिन फोटोग्राफरों ने सलमान के बुरे बर्ताव के बाद उनकी फोटो लेना बंद कर रखा है और तस्वीरों में सलमान संग लगातार छपने का नरगिसी सपना टूट चुका है. बेनूरी हटाइए नरगिस, नरगिसी कोफ्ता खाइए, कोफ्त दूर भगाइए.

shajidएक सजिल्द एक बिना जिल्द साजिद
एक थे साजिद खान. एक हैं साजिद नाडियाडवाला. दोनों जवानी के लंगोटिया यार. एक फिल्म बनाता, दूसरा बनवाता. फिल्म पैसा कमाती, यारी बढ़ती जाती. यारी का रिश्ता दूसरी हाउसफुल तक चला. फिर साजिद ने निर्माता साजिद को हड़काया कि फिल्म बना पैसा मैं तुझे कमा के देता हूं, तू मुझे मुनाफे में हिस्सा दे. व्यापारी निर्माता साजिद समझाते रहे कि निर्देशन के पैसे बढ़ा देता हूं. लेकिन मगरूर साजिद को मालिकाना हक चाहिए था. निर्माता साजिद ने नहीं दिया, निर्देशक साजिद ने निर्माता बदल लिया, यार बदल लिया, और पहले हिम्मतवाला फिर हमशकल्स बनाई. अब वक्त ऐसा है कि निर्देशक साजिद को कोई निर्माता नहीं मिल रहा, वहीं निर्माता साजिद निर्देशक बन ‘किक’ में एक्स-दोस्त साजिद की एक्स-गर्लफ्रेंड जैकलीन फर्नांडिस को भाई की हीरोइन बना लाए हैं. खबर है, वजह सिर्फ साजिद खान को चिढ़ाना है. जिंदगी ऐसी ही है हिम्मतवाले साजिद. कब किस को महंगी हार्डबाउंड किताब बना दे और किस को सस्ता पेपरबैक संस्करण, कह नहीं सकते.

अवैध भरती की धरती!

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राजनीति में आरोप लगना कोई अनोखी बात नहीं है. लेकिन बीते नौ साल में यह शायद पहली बार होगा कि खुदपर आरोप लगने के बाद मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को सारे पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम रद्द करके पार्टी नेतृत्व और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सामने हाजिरी देने दिल्ली जाना पड़ा हो. बीते 24  जून को ऐसा ही हुआ. राज्य में हुए व्यावसायिक परीक्षा मंडल (व्यापम) घोटाले की आग फैलते-फैलते उनकी देहरी तक भी आ पहुंची है. चौहान की सफाई सुनने वाला संघ खुद भी इस घोटाले की चपेट में आता दिख रहा है.

हालत यह है कि करीब 2000  करोड़ रुपये के बताए जा रहे इस घोटाले की जांच को एक साल होने को आया, कई मछलियां जांच के इस जाल में फंस चुकी हैं, लेकिन अब भी कहना मुश्किल है कि भ्रष्टाचार के इस नेटवर्क का ओर-छोर कहां तक है. इस मामले में पुलिस, मुख्यमंत्री के बेहद करीबी कहे जाने वाले उच्च शिक्षा मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा को गिरफ्तार कर चुकी है. उनकी गिरफ्तारी के बाद खबर लिखे जाने तक पुलिस सूबे के अलग-अलग इलाकों में छापे मारकर  100  विद्यार्थियों को भी हिरासत में ले चुकी थी. इसके अलावा पिछले एक साल में करीब 500  अन्य लोगों को पुलिस हिरासत में लिया जा चुका है. इनमें से कुछ को पूछताछ करके छोड़ दिया गया, जबकि कुछ जेल की सलाखों के पीछे हैं. इस घोटाले में मुख्यमंत्री की पत्नी के अलावा और भी जितने और जैसे लोग शक और आरोपों के घेरे में हैं उससे प्रदेश की राजनीति तो क्या सारी व्यवस्था के ही बुरी तरह हिल जाने का खतरा आ खड़ा हुआ है. घोटाले के तार राज्य से बाहर भी जाते दिख रहे हैं. हाल ही में दिल्ली पुलिस की एक भर्ती परीक्षा का पेपर लीक करवाने वाले गिरोह से पूछताछ में पता चला है कि इसने मध्य प्रदेश लोक सेवा आयोग की कई परीक्षाओं के पेपर भी बेचे थे. इस गिरोह का सरगना दिनेश कपिल रेलवे का एक बड़ा अधिकारी रह चुका है. पुलिस अब उससे भी पूछताछ करने की तैयारी में है.

व्यापम मध्य प्रदेश में इंजीनियरिंग-मेडिकल के कोर्सों और अलग-अलग सरकारी नौकरियों में भर्ती के लिए परीक्षाओं का आयोजन करने वाली संस्था है. आरोप हैं कि इसके द्वारा पिछले नौ सालों में आयोजित 150 से अधिक परीक्षाओं के जरिये बहुत बड़ी संख्या में अयोग्य लोगों को नौकरियां या डिग्रियां दिलवाई गईं. 2004 से चल रहे इस गोरखधंधे के तहत फर्जी नियुक्तियां करवाने के लिए कई सरकारी नियमों को ढीला किया गया, कई नियम बदले गए तो कइयों को हटा ही दिया गया. इस पूरे मुद्दे को जोर-शोर से उठाने वाले भोपाल के एडवोकेट आनंद कहते हैं, ‘प्रदेश में अकेले संविदा शिक्षकों की ही 80 हजार भर्तियां हुई हैं. यहां 53 विभाग हैं, सबकी भर्ती परीक्षाएं व्यापम ही कराता है. अब तक उसने 81 परीक्षाएं आयोजित की हैं. इनमें एक करोड़ चार लाख विद्यार्थियों ने भाग लिया और कुल चार लाख भर्ती हुईं.’ आनंद आरोप लगाते हैं कि इनमें से 80 फीसदी भर्तियां फर्जी हैं, ‘अब तो खुद मुख्यमंत्री विधानसभा में मान चुके हैं कि एक हजार भर्तियां फर्जी हैं. भले ही वे आंकड़ा कम बता रहे हैं, लेकिन यह तो मान रहे हैं कि फर्जी भर्तियां हुई हैं. सच्चाई से पर्दा उठाने के लिए इतना ही काफी है.’

आर्थिक पहलू के अलावा इस घोटाले के इससे भी अहम कई पहलू और भी हैं: इसके चलते कई योग्य युवा मौकों से वंचित रह गए. यह घोटाला कई सालों से चल रहा था. इस दौरान पैसे और सिफारिश के जरिये चुने गए उम्मीदवारों ने अपनी जिम्मेदारियों का किस तरह निर्वाह किया होगा, इस व्यवस्था को कैसे घुन की तरह खोखला किया होगा, यह भी गंभीर सवाल हैं. डॉक्टरी जैसे पेशे में तो यह लाखों लोगों की जानों से खेलने वाला खतरनाक खेल भी बन जाता है. इन सड़ी मछलियों की वजह से प्रतियोगी परीक्षाओं में अपने बूते सफल रहीं वास्तविक प्रतिभाओं पर भी शक का दाग लग गया है. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के सदस्य डॉक्टर सीसी चौबल कहते भी हैं कि एमपी के पीएमटी घोटाले की वजह से उन डॉक्टरों को भी संदेह की नजर से देखा जाने लगा है जिन्होंने अपनी प्रतिभा और मेहनत से एमबीबीएस की डिग्री ली होगी. इसके अलावा व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण कवायद तो बेकार हुई ही, वह समय भी व्यर्थ हुआ जिसकी भरपाई किसी भी तरह से नहीं हो सकती.

इस घोटाले का भंडाफोड़ पिछले साल 2013 में तब हुआ जब पुलिस पीएमटी में गलत तरीके से विद्यार्थियों को पास करवाने वाले एक रैकेट तक पहुंची. जुलाई, 2013 में इंदौर में कुछ छात्र फर्जी नाम पर पीएमटी की प्रवेश परीक्षा देते पकड़े गए थे. इनसे पूछताछ में पता चला कि यह नेटवर्क शहर का कोई डॉ जगदीश सागर चला रहा है. उसके घर पर छापेमारी में भारी मात्रा में नकदी, सोना और अवैध संपत्ति का खुलासा हुआ. सागर इस मामले की अहम कड़ी साबित हुआ. पूछताछ में उसने बताया कि फर्जीवाड़े का यह गोरखधंधा मेडिकल की परीक्षा में ही नहीं बल्कि सरकारी नौकरियों की भर्ती में भी चल रहा है. यहीं से व्यापम के तहत हुई तमाम परीक्षाओं में हो रहे फर्जीवाड़े की पोल खुलती चली गई. पीएमटी फर्जीवाड़े से शुरू हुई भ्रष्टाचार की यह कहानी पटवारी भर्ती परीक्षा, संविदा शिक्षक भर्ती परीक्षा, पुलिस आरक्षी भर्ती परीक्षा, बीडीएस भर्ती परीक्षा, वन रक्षक भर्ती परीक्षा और संस्कृत बोर्ड भर्ती परीक्षा तक पहुंच गई. इसके बाद तो मध्य प्रदेश के नेता, मंत्री, संतरी, आईएएस, आईपीएस अफसर, रिटायर्ड जज, डॉक्टर्स, मीडियाकर्मी जैसे कई लोग इसकी जद में आ गए. घोटाले के तार राजभवन तक चले गए. बात बढ़ती देख राज्य सरकार ने भर्ती परीक्षाओं में हुए भ्रष्टाचार की जांच स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) को सौंप दी जो अब हाई कोर्ट की निगरानी में जांच कर रहा है. लेकिन अब प्रदेश में लगातार मामले की सीबीआई जांच की मांग उठ रही है.

भर्ती परीक्षाओं के फर्जीवाड़े में पूर्व उच्च शिक्षा मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा, उनके ओएसडी ओपी शुक्ला, राज्यपाल रामनरेश यादव के ओएसडी धनराज यादव, व्यापम के पूर्व परीक्षा नियंत्रक पंकज त्रिवेदी और भाजपा नेता सुधीर शर्मा सहित करीब 150 लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की जा चुकी है. इसके अलावा सीएम हाउस, प्रदेश का राजभवन, कुछ शीर्ष आईएएस अफसर और अपर मुख्य सचिव अजिता बाजपेई पांडे के पति अमित पांडे समेत कुछ मीडिया संस्थान भी शक के दायरे में हैं. फर्जीवाड़े के छींटे केंद्रीय जलसंसाधन मंत्री उमा भारती पर भी पड़ रहे हैं. उन पर भी आरोप है कि उन्होंने संविदा शिक्षकों के पदों पर कई अयोग्य लोगों की भर्तियां करवाई हैं. इस मामले में संघ भी कटघरे में है. पूर्व सरसंघचालक केएस सुदर्शन (अब दिवंगत) और संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी सुरेश सोनी का नाम भी घोटाले से जुड़ रहा है.

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शिवराज की पत्नी साधना सिंह पर कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि मुख्यमंत्री निवास से किसी महिला ने व्यापम कंट्रोलर पंकज त्रिवेदी और सिस्टम एनालिस्ट नितिन महिंद्रा को 139 बार फोन किया. पार्टी का कहना था कि व्यापम के तहत हुई परिवहन निरीक्षक भर्ती में 19 नियुक्तियां शिवराज सिंह चौहान की पत्नी साधना सिंह के पीहर गोदिंया (महाराष्ट्र) से हुई हैं. उधर, मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ट्वीट करके कहा कि कॉल डीटेल रिपोर्ट में ये आरोप कहीं नहीं ठहरते. उन्होंने यह भी कहा कि परिवहन आरक्षक भर्ती में चयनित हुए सभी उम्मीदवारों के नाम विभाग की वेबसाइट पर मौजूद हैं जिससे यह आरोप झूठा साबित होता है. कांग्रेस प्रवक्ता केके मिश्रा ने शिवराज सिंह के कथित मामा फूल सिंह पर भी आरोप लगाए हैं. मिश्रा के अनुसार पंकज त्रिवेदी के जेल जाने के बाद भी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के मामा फूल सिंह चौहान उनके संपर्क में थे. उधर, मध्यप्रदेश सरकार की तरफ से मिश्रा के खिलाफ दायर मानहानि के मामले में स्पष्ट किया गया है कि शिवराज सिंह के किसी मामा का नाम फूल सिंह नहीं है. मुख्यमंत्री के एक ही मामा थे, जिनका निधन हो चुका है.

व्यापम के पूर्व परीक्षा नियंत्रक पंकज त्रिवेदी ने एसटीएफ को बयान दिया है कि पूर्व तकनीकी परीक्षा और उच्च शिक्षा मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा ने फूड इंस्पेक्टर के पद के लिए मिहिर कुमार (रोल नंबर 702735) की सिफारिश की थी. त्रिवेदी के मुताबिक शर्मा ने उन्हें बताया कि मिहिर, सुदर्शन और सोनी के आदमी हैं. त्रिवेदी के इस बयान के आधार पर एसटीएफ ने मिहिर कुमार को भी हिरासत में ले लिया है. मिहिर ने भी यह बात मान ली है. उसका कहना है कि वह केएस सुदर्शन का सहायक हुआ करता था. 2012 में उसने फूड इंस्पेक्टर एग्जामिनेशन के अपने आवेदन फॉर्म की फोटोकॉपी सुदर्शन को दी और उनसे नौकरी के लिए गुजारिश की. सुदर्शन ने लक्ष्मीकांत शर्मा को फोन किया. शर्मा ने उसे नौकरी लगाने का भरोसा दिया और बाद में मदद भी की.

यह घोटाला बहुत ही व्यवस्थित तरीके से चल रहा था. आरोपों के मुताबिक व्यापम के अफसरों और दलालों ने हर परीक्षा के लिए अलग-अलग रेट लिस्ट तैयार कर रखी थी. चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों के लिए 50 हजार रुपए, तृतीय श्रेणी के लिए सवा लाख रुपए, द्वितीय श्रेणी अफसरों के लिए चार से 10 लाख रुपए, वेटनरी के लिए तीन लाख और पीएमटी परीक्षा पास करने के लिए 10 से 15 लाख रुपए लिए जाते थे. एसटीएफ को पंकज त्रिवेदी के कम्प्यूटर से ऐसे दस्तावेज मिले हैं जिनसे इन आरोपों की पुष्टि होती है . त्रिवेदी के कम्प्यूटर से बरामद छात्रों की एक सूची में सबसे अंतिम रिमार्क वाला कॉलम भी है. इस कॉलम में छह छात्रों के नाम के सामने मिनिस्टर, कुछ के सामने भाजपा की कद्दावर नेत्री उमा भारती और कुछ के सामने राजभवन लिखा पाया गया है  (दस्तावेजों की प्रति का एक अंश दायें पृष्ठ पर).

एसटीएफ ने पंकज त्रिवेदी के कंप्यूटर से छात्रों के नामों की कुछ सूचियां भी बरामद की हैं. इनमें छात्रों के नाम के आगे बने कॉलम में पास होने के लिए कितने अनिवार्य अंकों की जरूरत होगी, यह लिखा हुआ है. इन सूचियों में एक  ‘टू डू’ कॉलम है. इसमें पास होने के लिए जरूरी अंक लिखे गए हैं. एसटीएफ के अफसरों के मुताबिक परीक्षा देने के बाद व्यापम के अफसर छात्रों की ओएमआर शीट निकाल लेते थे और पास होने के लिए जरूरी संख्या में सवाल हल कर उन्हें जमा कर देते थे. यह नकल या पर्चा लीक करने से भी आसान तरीका था जिससे छात्रों को पास किया जा सकता था. मिहिर के बयान से भी इसकी पुष्टि होती है. उसने अपने बयान में कहा है, ‘सुदर्शन ने मुझसे कहा कि मैं एग्जाम में जितना जानता हूं, उतने सवालों के जवाब दूं और बाकी ओएमआर शीट खाली छोड़ दूं. मैंने हिंदी, इंग्लिश, रीजनिंग, मैथ्य, फिज़िक्स और जनरल नॉलेज के करीब 50 फीसदी सवालों के जवाब दिए और बाकी ओएमआर शीट खाली छोड़ दी. 18 अक्टूबर, 2012 को जब रिजल्ट आया तो मेरिट लिस्ट में मेरा नाम 7 वें नंबर पर था. इस परीक्षा को व्यापम ने सात अक्टूबर, 2012 को करवाया था.’

आरोपों की सूची यहीं खत्म नहीं होती. कांग्रेस का आरोप है कि दोषियों को सख्त कार्रवाई से बचाने की कोशिश हो रही है. उसके मुताबिक प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट 1998 के बजाय एसटीएफ ने आईपीसी की धारा 420 और 409 के तहत केस दर्ज कर दिए हैं. पार्टी का कहना है कि यदि एंटी करप्शन एक्ट की धारा 13 (आई) (डी) के तहत मामला दर्ज होता तो यह स्पेशल कोर्ट में चला जाता और इसमें आरोपियों को जमानत भी नहीं मिलती. पार्टी का यह भी आरोप है कि व्यापम के पास वर्ष 2008 तक का कोई रिकार्ड ही मौजूद नहीं है जबकि लोक सेवा आयोग में 10 वर्ष तक उत्तर पुस्तिकाएं और 20 वर्ष तक रिजल्ट सुरक्षित रखने का नियम है. सवाल उठ रहा है कि व्यापम पर भी यही नियम लागू होता है, तो इसका पालन क्यों नहीं किया गया. कांग्रेस का यह भी आरोप है कि पूर्व मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा की गिरफ्तारी एफआईआर दर्ज करने के 189 दिनों बाद इसलिए की गई क्योंकि जांच की आंच में मुख्यमंत्री निवास भी आने लगा था. सूत्रों के मुताबिक गिरफ्तारी के बाद शर्मा का कहना था कि वे बड़े लोगों के लिए कुर्बानी दे रहे हैं.

चर्चा है कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने मध्य प्रदेश कैडर के अफसर एस रामानुजम को खास तौर पर इस मामले की प्रगति पर निगाह रखने की जिम्मेदारी सौंपी है

उच्च शिक्षा मंत्री के तौर पर लक्ष्मीकांत शर्मा व्यापम के भी मुखिया थे और आरोप है कि कई साल से फर्जी भर्तियों का यह धंधा उनके ही आशीर्वाद से चल रहा था. शर्मा को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का बेहद करीबी माना जाता है. इनके खिलाफ एफआईआर छह महीने पहले ही दर्ज हो चुकी थी, लेकिन गिरफ्तारी अब जाकर हुई है. कभी सरस्वती शिशु मंदिर में आचार्य रहे लक्ष्मीकांत शर्मा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के जरिए भाजपा की राजनीति में आए थे. संघ के कोटे से ही उन्हें 1993 में पहली बार विधानसभा का टिकट दिया गया था. उमा भारती सरकार में उन्हें स्वतंत्र प्रभार देकर खनिज साधन सहित अन्य कई विभागों का मंत्री बनाया गया. उसके बाद से वे 2013 तक लगातार मंत्री पद पर रहे.

कुछ और बड़े भी दलदल में
सुधीर शर्मा :
 उच्च पदस्थ पुलिस सूत्रों की मानें तो मध्य प्रदेश में खनन माफिया के नाम से मशहूर भाजपा नेता सुधीर शर्मा ने पूरे मामले में बिचौलिए का काम किया है. शर्मा को पूर्व जनसंपर्क और उच्चशिक्षा मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा का खास आदमी माना जाता है. शर्मा के अन्य मंत्रियों से भी व्यवसायिक और पारिवारिक संबंध रहे हैं. शर्मा खुद भाजपा संगठन से जुड़े रहे हैं. वे भाजपा की एजुकेशन सेल के प्रमुख भी हुआ करते थे. व्यापम घोटाले में नाम आने के बाद शर्मा ने मध्य प्रदेश हाई कोर्ट की इंदौर बेंच में आरोप निरस्त करने के लिए याचिका भी दायर की है. इनके खिलाफ एफआईआर दर्ज की जा चुकी है. खबर लिखे जाने तक वे फरार चल रहे थे.

डीआईजी आरके शिवहरे : एसटीएफ ने उपनिरीक्षक भर्ती घोटाले में आरके शिवहरे के खिलाफ एफआईआर दर्ज की है. इन पर दो आरोप हैं. पहला यह कि इन्होंने अपनी बेटी और दामाद को पीएमटी परीक्षा के परीणामों में टॉपर बनवाया और दूसरा यह कि इन्होंने उपनिरीक्षक भर्ती में 15 लाख प्रति विद्यार्थी की दर से तीन विद्यार्थियों के लिए 45 लाख रुपये नितिन महिंद्रा को दिए. नितिन महिंद्रा व्यापम के चीफ सिस्टम एनालिस्ट थे. पीएमटी परीक्षा की परीणाम सूची में शिवहरे के दामाद आशीष आनंद गुप्ता का पांचवां और बेटी नेहा का नाम सातवें स्थान पर है.

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जस्टिस एसएल कोचर : हाई कोर्ट के सेवानिवृत्त जज एसएल कोचर का नाम भी पूरे मामले में सामने आया है. आरोप हैं कि उन्होंने मेडिकल कॉलेज में अपनी बेटी शिल्पी का एडमिशन विकलांग कोटे से करवाया. जबकि शिल्पी शारीरिक रूप से पूरी तरह स्वस्थ पाई गई है.

डॉ विनोद भंडारी :  प्री मेडिकल टेस्ट घोटाले के मुख्य अभियुक्त. इन्हें मप्र के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और सुरेश पचौरी का नजदीकी माना जाता है. भंडारी इंदौर के अरविंदो मेडिकल कॉलेज के संचालक भी हैं.

डॉ संजीव सक्सेना :  कांग्रेस नेता सक्सेना मूलतः भिंड के हैं. इनका एक भाई अभिषेक पार्षद है. सक्सेना पूर्व गृह मंत्री उमाशंकर गुप्ता के खिलाफ चुनाव भी लड़ चुके हैं. सक्सेना पर 2005 में प्रीपीजी का पर्चा लीक करने का आरोप भी लग चुका है.

डॉ दीपक यादव :  इन्हें पूर्व चिकित्सा शिक्षा मंत्री अनूप मिश्रा का खास माना जाता है. यादव के परिवार में ही 15 डॉक्टर हैं. इनका सगा भाई राहुल और चचेरा भाई विकास भी डाक्टर है. जिनकी डिग्री पर सवालिया निशान लग गए हैं. यादव पर आरोप है कि  वे एमएस और एमडी की प्रीपीजी परीक्षा पास करवाने के लिए सेटिंग करते थे.

सीएसपी रक्षपाल सिंह यादव : ग्वालियर के सीएसपी रक्षपाल सिंह यादव के खिलाफ भी शिकायत दर्ज की जा चुकी है. इनके परिवार के तीन लोगों को गलत तरीके से पीएमटी परीक्षा में पास किए जाने का आरोप है.

प्रेम चंद्र प्रसाद :  एसटीएफ ने 2012 में हुए पीएमटी भर्ती घोटाले में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के निजी सचिव प्रेम चंद्र प्रसाद के खिलाफ सबूत मिलने पर उन्हें सरकारी गवाह बना लिया है. प्रसाद ने एसटीएफ को दिए बयान में माना है कि उनकी बेटी को भी गलत तरीके से एडमिशन दिया गया था. कांग्रेस नेता केके मिश्रा का कहना है कि ऐसा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के दबाव में हुआ है, ताकि प्रसाद के खिलाफ कोई कार्रवाई न हो पाए. वे कहते हैं, ‘प्रसाद से पूछताछ होती तो उससे और राज खुलने की संभावना थी इसलिए उसे सरकारी गवाह बनाकर एसटीएफ ने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली. हालांकि पुलिस ने प्रसाद को इसी महीने के आखिर में बयान दर्ज करने के लिए बुलाया है.’

परीक्षा देने के बाद व्यापम के अफसर छात्रों की ओएमआर शीट निकाल लेते थे और पास होने के लिए जरूरी संख्या में सवाल हल कर उन्हें जमा कर देते थे

अपने पदाधिकारियों पर आरोप लगने के बाद संघ ने इस मुद्दे पर एक लाइन की प्रतिक्रिया दी है. रिपोर्टों के मुताबिक संघ के मुखिया मोहन भागवत ने कहा कि कानून अपना काम करेगा और संगठन को चिंता करने की जरूरत नहीं है. उनसे पहले शिवराज सिंह चौहान भी यही बात कह चुके हैं.

वैसे मध्य प्रदेश में मुन्नाभाइयों (परीक्षार्थी के स्थान पर परीक्षा देने वाले) की मदद से भी बहुत से छात्रों की नैया पार लगाई गई है. इसमें भी एसटीएफ को व्यापम की संलिप्तता मिली है. इस बात का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2000 से 2013 के बीच में पुलिस ने अकेले पीएमटी की परीक्षा के दौरान 150 से भी ज्यादा मुन्नाभाइयों को पकड़ा है. मध्य प्रदेश में पीएमटी परीक्षा में पास करवाने का रैकेट चला रहे जगदीश सागर (इंदौर), तरंग शर्मा (भोपाल)और सुधीर राय (जबलपुर), व्यापम के चीफ सिस्टम एनालिस्ट नितिन महिंद्रा के साथ मिलकर छात्रों और मुन्नाभाईयों की जोड़ी बनाते थे जो असल परीक्षार्तियों की जगह खुद जाकर परीक्षा देते थे. लेकिन इसमें जोखिम देखते हुए सीधे ओएमआर शीट पर ही गड़बड़ी करने के नए तरीकों को ईजाद कर लिया गया.

कई इस मामले में एक राजनीतिक कोण भी देख रहे हैं. जानकारों का एक वर्ग मान रहा है कि लोकसभा चुनावों के दौरान लाल कृष्ण आडवाणी के समर्थन के चलते शिवराज सिंह चौहान अब दबाव में हैं. चर्चा है कि प्रधानमंत्री कार्यालय ने मध्य प्रदेश कैडर के अफसर एस रामानुजम को खास तौर पर इस मामले की प्रगति पर निगाह रखने की जिम्मेदारी सौंपी हैं. चौहान शीर्ष नेतृत्व के सामने अपना पक्ष रखने के लिए दिल्ली आए थे तो उन्हें समय देने के बजाय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने उन्हें नितिन गडकरी से मिलने के लिए कहा.

हक की जंग

फोटोः विकास कुमार
फोटोः विकास कुमार
वजीरपुर में गरम रोला मजदूरों की एक सभा. फोटोः विकास कुमार

11 जुलाई, आम बजट पेश होने के एक दिन बाद देशभर के समाचार चैनलों पर नई नवेली एनडीए सरकार के पहले बजट का पोस्टमार्टम चल रहा था. आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक मामलों के तमाम विशेषज्ञ बहस में मशगूल थे. अपनी रोजमर्रा की जिंदगी के लिहाज से इन बहसों को महत्वपूर्ण मानते हुए देशभर के अधिकांश लोग भी टीवी पर आंख-कान लगाए हुए थे. उसी देश की राजधानी दिल्ली के वजीरपुर स्थित औद्योगिक इलाके में एक और बहस चल रही थी. यह बहस इलाके के हॉट रोलिंग यानी गरम रोला कारखानों में काम करने वाले मजदूरों और कारखानों के मालिकों के बीच थी. इन कारखानों में अब तक रोजाना 12 घंटे काम करने वाले मजदूरों की मांग थी कि उनके काम की अवधि 12 के बजाय नौ घंटे होनी चाहिए. फैक्ट्री मालिक इस कटौती के खिलाफ थे. मजदूरों के इरादे देखते हुए कुछ मालिक उनकी बात मानने को तैयार हो गए, लेकिन बाकी कंपनियां अब भी 12 घंटे की ड्यूटी को ही नौकरी की शर्त बता रही थीं. इनमें से कुछ कंपनियों ने नौ घंटे ड्यूटी की मांग पर अड़े मजदूरों से अपना हिसाब-किताब करने की बात कही और फैक्ट्रियां बंद करने का ऐलान कर दिया. इस ऐलान के बाद कुछ कंपनियों ने मजदूरों को पिछला भुगतान करने का सिलसिला शुरू कर दिया. मजदूरों के मुताबिक अलग-अलग कंपनियों में काम कर रहे ऐसे कामगारों की संख्या अब तक 100 के पार पहुंच चुकी है. बताया जा रहा है कि कुछ दिनों में यह आंकड़ा दो से तीन सौ की संख्या को पार कर जाएगा.

दरअसल वजीरपुर में पिछले एक महीने से चल रही मजदूरों की हड़ताल आज ऐसी जगह पर पहुंच चुकी है जहां से उसकी हार-जीत को लेकर अलग-अलग परिभाषा गढ़ी जा सकती है. इसे विस्तार से समझने के लिए पिछले एक महीने के दौरान इस मजदूर आंदोलन पर एक सरसरी निगाह डालना जरूरी है.

वजीरपुर स्थित औद्योगिक इलाके को एशिया की सबसे बड़ी स्टील इंडस्ट्री के रूप में जाना जाता है. इस पूरे इलाके में स्टील उद्योग से जुड़ी तकरीबन 200 छोटी-बड़ी फैक्ट्रियां हैं. इन फैक्ट्रियों में स्टील को काटने, पिघलाने, पालिश करने और फिर उससे अलग-अलग सामान बनाने का काम किया जाता है. इन सभी कामों के लिए देश भर के अलग-अलग हिस्सों से आए तकरीबन पांच हजार मजदूर यहां काम करते हैं. वजीरपुर में हॉट रोलिंग के 23 कारखाने हैं जिनमंे लगभग आठ सौ मजदूर काम करते हैं. इन कारखानों में लोहे की मोटी-मोटी प्लेटों को पहले पिघलाया जाता है और फिर अलग-अलग सांचों में ढाल कर स्टील का सामान बनाया जाता है. इस काम को करने के लिए मजदूरों को भट्टियों के बेहद करीब खड़े रहकर काम करना होता है. भयंकर आग उगलने वाली इन भट्टियों के सामने खड़े होकर लगातार घंटों तक काम करने की परिस्थितियां जोखिम भरी और खतरनाक होती हैं. मजदूरों का आरोप है कि उनकी सुरक्षा के लिए पर्याप्त इंतजाम नहीं होते. इसके अलावा उनसे आठ के बजाय 12 घंटे काम करवाया जाता है और अतिरिक्त मजदूरी के रूप में कुछ भी नहीं दिया जाता.

श्रम कानून के मुताबिक किसी भी औद्योगिक इकाई में नियत समय से अधिक वक्त तक काम करने के एवज में कामगारों को ओवरटाइम मनी के रूप में अतिरिक्त मेहनताना दिया जाना चाहिए, लेकिन मजदूरों के मुताबिक वजीरपुर स्थित इन 23 कारखानों में इस नियम का रत्तीभर भी पालन नहीं किया जाता. यहां तक कि मजदूरों को दिल्ली सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी भी नहीं दी जाती. राज्य सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी के मुताबिक औद्योगिक इकाइयों में आठ घंटे काम करने के एवज में हेल्परों को 8554, अर्ध कुशल कामगारों को 9,480 तथा पूर्ण रूप से कुशल कामगारों को 10,374 रुपए मासिक मेहनताना दिया जाना चाहिए. लेकिन इन मजदूरों को रोजाना 12 घंटे काम के बावजूद क्रमश: 8,000, 9,000 तथा 10,000 रुपये ही दिये जा रहे हैं. हैरत की बात यह भी है कि अधिकांश मजदूरों के पास न तो कंपनी का परिचय पत्र होता है और न ही उन्हें वेतन की पर्ची ही दी जाती है. तहलका ने इन कारखानों में काम करने वाले जितने भी मजदूरों से बात की उन सभी का कहना था कि उन्हें न्यूनतम मजदूरी, बोनस, पीएफ तथा सरकारी छुट्टी जैसी सुविधाएं अभी तक नहीं मिल सकी हैं.

ये मजदूर लंबे समय से इन्हीं सब मांगों को लेकर कारखाना मालिकों की दरियादिली की बाट जोह रहे थे. लेकिन मालिकों ने इस पर कोई संजीदगी नहीं दिखाई. नाराज मजदूरों ने पिछले महीने छह जून से बेमियादी हड़ताल शुरू कर दी. ‘गरम रोला मजदूर एकता समिति’ की अगुवाई में शुरू हुई इस हड़ताल को धीरे-धीरे अन्य मजदूर संगठनों का भी समर्थन मिलने लगा. दिल्ली मजदूर यूनियन, करावल नगर मजदूर यूनियन, गुड़गांव मजदूर संघर्ष समिति तथा पीयूडीआर के कार्यकर्ता कई दिनों तक वजीरपुर में ही डटे रहे. इसके अलावा वजीरपुर की कई अन्य फैक्ट्रियों में काम करने वाले मजदूर भी इस हड़ताल में अप्रत्यक्ष रूप से शामिल हो गए. हॉट रोलिंग कारखानों की ज्यादतियों के खिलाफ चल रहे इस आंदोलन की गूंज 26 जून को पहली बार वजीरपुर से बाहर सुनाई दी. इस दिन तकरीबन 500 मजदूरों ने जंतर-मंतर पर रैली निकाली और प्रधानमंत्री कार्यालय के साथ ही केंद्रीय श्रम मंत्रालय को एक ज्ञापन सौंपा. इसमें मजदूरों ने केंद्र सरकार से इस मामले में दखल की अपील की.

जंतर-मंतर पर हुए इस प्रदर्शन के बाद वजीरपुर स्थित हॉट रोलिंग की सभी 23 फैक्ट्रियों के मालिक सकते में आ गए. उन्होंने अगले ही दिन 27 जून को हड़ताली मजदूरों के सामने समझौता करने का प्रस्ताव रख दिया. यह हड़ताल के 22 दिन बाद की बात है. उस दिन श्रम विभाग के अधिकारियों की मध्यस्थता में मजदूरों और कंपनी मालिकों के बीच एक समझौता हुआ. इसके तहत हॉट रोलिंग वाली सभी कंपनियां 12 के बजाय नौ घंटे काम करवाने पर राजी हो गईं. इसके अलावा इन कंपनियों ने मजदूरों को बोनस, छुट्टी और अन्य सुविधाएं देने की बात भी मान ली. इस समझौते की एक प्रति तहलका के पास भी मौजूद है.

लेकिन अगले ही दिन अधिकांश कंपनियां अपने वादे से मुकर गईं. उस दिन कुछ कारखानों के मालिकों ने सुबह की शिफ्ट में काम करने आ रहे मजदूरों को गेट  पर ही रोक दिया. इन मालिकों ने मजदूरों के सामने शर्त रखी कि 12 घंटे काम करने की सूरत में ही उन्हें काम पर रखा जाएगा. यानी समझौते के 24 घंटे के अंदर ही ये कंपनियां अपने वादे से मुकर चुकी थीं. मालिकों के इस रवैये के बाद मजदूर बुरी तरह भड़क गए. उन्होंने फैक्ट्रियों के गेट पर तालाबंदी करते हुए श्रम विभाग से इन कंपनियों की शिकायत कर दी. ‘गरम रोला मजदूर एकता समिति’ के सदस्य रघुराज बताते हैं, ‘शिकायत के बाद श्रम विभाग के अधिकारियों ने कंपनी मालिकों को तलब किया. विभाग ने समझौते का उल्लंघन करने पर उनके खिलाफ कार्रवाई की बात कही. इसके बाद कंपनी मालिक एक बार फिर समझौता लागू करने को राजी हो गए.’

लेकिन इस समझौते के अगले दिन भी वही हुआ. फैक्ट्री मालिक 12 घंटे काम करने की सूरत में ही पैसा देने की बात करने लगे. इस बात का पता तब लगा जब कुछ कारखानों के मजदूर नौ घंटे बीत जाने के बाद भी बाहर नहीं आए. इसकी वजह यह थी कि इन कंपनियों ने फैक्ट्रियों के अंदर काम पर गए मजदूरों को 12 घंटे से पहले छुट्टी देने से मना कर दिया था. ऐसी ही एक फैक्ट्री में काम करने वाले बिहार के बेगूसराय जिले के राम कुमार कहते हैं, ‘मालिकों ने हमसे सुबह ही कह दिया था कि कल का समझौता अब लागू नहीं होगा. हमें 12 घंटे ही काम करना होगा.’ एक और मजदूर वीरेंद्र बताते हैं, ‘हमारी फैक्ट्री में तो ठेकेदार ने साफ कह दिया था कि जो 12 घंटे काम नहीं कर सकता उसे कल से काम पर आने की जरूरत नहीं है.’

इस आंदोलन को समर्थन दे रहे मजदूर बिगुल नामक संगठन के कार्यकर्ता अनंत कहते हैं, ‘श्रम विभाग के अधिकारियों के सामने एक बात कहना और फैक्ट्रियों के अंदर मजदूरों से दूसरी बात कहना अधिकांश कंपनियों की सबसे कुख्यात नीति रही है. बाहर अधिकारियों के सामने हर शर्त मान कर वे अपने खिलाफ होने वाली कार्रवाइयों से बच जाते हैं और कारखानों के अंदर मजदूरों को धमका कर अपना पूरा काम भी निकाल लेते हैं.’

कई लोगों के मुताबिक कंपनियों द्वारा समझौते से पीछे हटने की वजह कुछ और ही थी. मजदूर बिगुल संगठन के ही एक और कार्यकर्ता अभिनव के मुताबिक कारखाना मालिकों तक कुछ शरारती तत्वों ने मजदूर आंदोलन के कमजोर पड़ने की अफवाह पहुंचा दी. वे कहते हैं, ‘23 मालिकों को बताया गया कि हड़ताल से थक चुके मजदूर आंदोलन से पीछे हटने को तैयार हो गए हैं और अगर कंपनियां थोड़ी सख्ती दिखाएं तो इस आंदोलन को कुचला जा सकता है. यही वजह रही कि मालिकों ने समझौता लागू करने से इंकार कर दिया.’ लेकिन इस बात का खुलासा होने के बाद मजदूर और भी उग्र हो गए और उन्होंने आर-पार की लड़ाई लड़ने का ऐलान कर दिया. इस लड़ाई के पहले चरण में मजदूरों ने तीन जुलाई को कारखाना मालिकों के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग को लेकर उप श्रमायुक्त कार्यालय का घेराव कर दिया. इसके साथ ही लगभग आधा दर्जन फैक्ट्रियों में तालाबंदी करते हुए मजदूरों ने पांच जुलाई से वजीरपुर स्थित राजा पार्क में अनशन शुरू कर दिया. यह अनशन तीन दिनों तक चला. इस बीच श्रम विभाग गरम रोला कारखानों के मालिकों को श्रम कानूनों का उल्लंघन करने के आरोप में नोटिस भेज चुका था. इन मालिकों को अपना पक्ष रखने के लिए सात जुलाई तक का समय दिया गया. नोटिस का असर यह हुआ कि इन कारखानों के मालिक बिना शर्त मजदूरों की सभी मांगें मानने को तैयार हो गए. आठ जुलाई को हुए तीसरे और अंतिम समझौते में उन्होंने वे सभी बातें एक बार फिर से दोहराईं जो इससे पहले के दो समझौतों में शामिल थीं.

इस समझौते के बारे में बताते हुए ,गरम रोला मजदूर एकता समिति की कानूनी सलाहकार शिवानी बताती हैं, ‘श्रम विभाग के अधिकारियों ने इस मौके पर कंपनी मालिकों को श्रम कानूनों का पालन करने की हिदायत देने के साथ ही दो और महत्वपूर्ण बातें कहीं. पहली यह कि विभाग के सीनियर अधिकारी खुद समय-समय पर सभी कारखानों का औचक दौरा करेंगे और दूसरी यह कि सभी फैक्ट्रियों में नौ घंटे की समय सीमा के साथ ही अन्य जरूरी श्रम कानूनों का पालन करवाने के लिए अगले एक हफ्ते तक श्रम विभाग के अधिकारी सुबह और शाम फैक्टरियों के सामने मौजूद रहेंगे. मजदूरों के मुताबिक उनके लिए यह अब तक का सबसे अच्छा फैसला था.’ यह बात तब सच लगती दिखी जब समझौते के अगले दिन श्रम विभाग के अधिकारी इन कंपनियों के सामने नियत समय पर पहुंच गए.

वजीरपुर इलाके में स्थित एक गरम रोला फैक्ट्री. फोटो: विकास कुमार
वजीरपुर इलाके में स्थित एक गरम रोला फैक्ट्री. फोटो: विकास कुमार

लेकिन इस समझौते को लेकर जब तक मजदूर अपनी जीत का जश्न मनाते तब तक कुछ कंपनी मालिकों ने फिर से पलटी मार ली और 12 घंटे काम करने की पुरानी बात पर अड़ गए. हालांकि इस बीच कुछ कंपनियां ऐसी भी थीं जिन्होंने समझौते के तहत नौ घंटे का नियम लागू कर लिया था.

इस तरह देखा जाए तो अब गरम रोला की 23 फैक्ट्रियों में तीन अलग-अलग स्थितियां बन गई थीं. पहली यह कि 23 में से आठ कंपनियां न्यूनतम मजदूरी तथा नौ घंटे काम करने की मांग पर राजी हो गईं. ऐसी ही एक कंपनी A-72 के मालिक जेके बंसल का कहना था कि उनकी फैक्ट्री में मजदूरों से 12 के बजाय नौ घंटे ही काम लिया जाएगा. इसके अलावा उन्होंने समझौते में रखी गई सभी शर्तों का पालन करने की बात कही. दूसरी स्थिति बिल्कुल इसके उलट थी. इस समझौते के बाद भी 10 कंपनियां ऐसी थीं जो किसी भी कीमत पर 12 घंटे से कम काम करने को तैयार नहीं हुई. इसके अलावा तीसरी और सबसे विचित्र स्थिति तब सामने आई जब पांच फैक्ट्रियों ने अपने यहां काम कर रहे सभी मजदूरों का हिसाब चुकता करने के साथ ही कंपनियों को बंद करने का फैसला कर लिया.

इन मजदूरों से न सिर्फ नियम से ज्यादा समय तक काम कराया जाता है बल्कि उन्हें दिल्ली सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम मजदूरी भी नहीं दी जाती

फिलहाल इन तीनों स्थितियों का लब्बोलुबाब यही है कि एक नियत उद्देश्य को लक्ष्य बना कर एक महीने से चल रहा यह आंदोलन अब एक तिराहे पर पहुंच गया है. यानी कुछ मजदूरों को जहां 12 घंटे काम करने से आजादी मिल गई है वहीं अब भी कुछ मजदूर 12 घंटे काम करने को मजबूर हैं इसके अलावा जिन कंपनियों ने मजदूरों का हिसाब किताब करके अपने कारखाने बंद कर दिए हैं, उन मजदूरों के पास अभी कोई काम नहीं है.

अब सवाल उठता है कि डेढ़ महीने की इस कठिन परीक्षा के बाद मजदूरों के हिस्सों में अलग-अलग परिणाम क्यों आए जबकि उन सभी ने इस परीक्षा में एक समान प्रदर्शन किया था. सवाल यह भी है कि एक तरफ कुछ मालिक, मजदूरों की सभी मांगें मानने के लिए तैयार हो चुके हैं तो फिर बाकी मालिकों ने इन मांगों को मानने से इंकार क्यों कर दिया.

पहले सवाल का जवाब तलाशने के क्रम में जो बात सबसे प्रमुख तौर पर उभरती है वह मजदूरों की गरीब पृष्ठभूमि और काम की मजबूरी से जुड़ी है. दरअसल वजीरपुर में काम करने वाले मजदूर बेहद गरीब पष्ठभूमि के हैं. इन मजदूरों के पूरे परिवार की जिंदगी इनकी कमाई पर निर्भर करती है. ऐसे में कई मजदूरों ने हड़ताल के बाद भी 12 घंटे काम करना इस लिए स्वीकार किया क्योंकि ऐसा न करने पर रोजी-रोटी का संकट खड़ा होने का खतरा पैदा हो रहा था. उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के रहने वाले बाबू लाल ऐसे ही एक मजदूर हैं, जिनके पूरे परिवार की जिम्मेदारी उनके खुद के जिम्मे ही है. ढाई साल से वजीरपुर में रह रहे बाबू लाल अब तक तीन अलग-अलग फैक्ट्रियों में काम कर चुके हैं. वे कहते हैं, ‘आटा, चावल से लेकर लत्ते-कपड़े और मकान का किराया जिस रफ्तार से बढ़ रहा है उसका मुकाबला करने में हमारी तनख्वाह पूरी तरह फेल है. हालत इतनी खराब है कि दिनरात एक करने के बाद महीने के आखिर में मिलने वाले पैसों से न तो खुद की जरूरतें पूरी हो पाती हैं और न ही मैं इतना पैसा गांव भेज पाता हूं जिससे परिवार की दाल-रोटी ठीक से चल सके. ऐसे में अगर 12 घंटे काम नहीं करूंगा तो यह नौकरी भी हाथ से निकल जाएगी.’ ऐसे मजदूरों की पूरे वजीरपुर में भरमार है.

इसके अलावा कई लोगों के मुताबिक श्रम कानूनों को लेकर जागरूकता का अभाव होना भी इन मजदूरों के लिए बड़ी समस्या बन कर उभरा है. करावल नगर मजदूर यूनियन से जुड़े योगेश कहते हैं,  ‘मालिक मजदूरों को तमाम तरह से धमका कर रखते हैं जिसके चलते मजदूर कई बार उनकी हर ज्यादती चुपचाप सह लेते हैं.’ मजदूर बिगुल के अभिनव कहते हैं, ‘इतना बड़ा आंदोलन होने के बाद भी जो मजदूर 12 घंटे काम करने को तैयार हैं, उनके साथ यही सारी समस्याएं हैं.’ हालांकि वे यह भी कहते हैं कि धीरे-धीरे ही सही इन मजदूरों को समझाने में उन्हें कामयाबी जरूर मिलेगी.

अब दूसरे सवाल पर आते हैं कि कुछ मालिकों द्वारा मजदूरों की सभी मांगें मानने के बाद भी बाकी कंपनियां 12 घंटे काम करवाने के फैसले पर क्यों अड़ी हुई हैं ?

दरअसल नौ घंटे काम करवाने की शर्त को मानने से इंकार करने वाले इन अधिकांश कारखानों का तर्क है कि ऐसा करने से उनकी कंपनियां घाटे में चली जाएंगी. नाम न बताने की शर्त पर एक फैक्ट्री के प्रतिनिधि कहते हैं, ‘सिर्फ नौ घंटे काम करवाने से बेहतर तो यही है कि हम अपनी फैक्ट्री ही बंद कर दें. काम में तीन घंटे की कटौती हमारे लिए हर तरह से घाटे का सौदा है.’ लेकिन वजीरपुर के अधिकतर मजदूर इस तर्क से सहमत नहीं दिखते. रघुराज कहते हैं, ‘गरम रोला की प्रत्येक फैक्ट्री हर महीने 10 से लेकर 20 लाख तक की कमाई करती है. अगर ये फैक्ट्रियां मजदूरों से नौ घंटे काम करवाने और उन्हें न्यूनतम मेहनताना देने पर राजी हो जाएं तो भी इन कंपनियों को हर महीने पहले के मुकाबले एक से डेढ़ लाख रुपये ही अतिरिक्त खर्च करने पड़ेंगे. और इसके बाद भी इनका मुनाफा आठ से लेकर 18 लाख तक रहेगा. ऐसे में आप ही बताइए कि फैक्ट्रियों को नुकसान कहां से हो रहा है ?’ वे आगे कहते हैं, ‘पिछले साल भी मजदूरों ने इन मांगों को लेकर हड़ताल की थी, लेकिन तब भी मालिक वेतन बढ़ाने और बोनस देने जैसे वादों से मुकर गए थे. क्योंकि उस वक्त हमारा आंदोलन थोड़ा कमजोर पड़ गया था इसलिए मालिकों को लग रहा है कि इस बार भी वे वादों से मुकरकर अपने बढ़े हुए मुनाफे को बरकरार रख सकते हैं.’

बहरहाल इस आंदोलन की दिशा को लेकर असमंजस की इन स्थितियों के बाद भी वजीरपुर के मजदूर अपनी जीत को लेकर आशावान नजर आ रहे हैं. गरम रोला मजदूर एकता समिति की कानूनी सलाहकार और इस आंदोलन में मजदूरों की प्रतिनिधि शिवानी कहती हैं, ‘जिन कंपनियों में अब भी 12 घंटे काम चल रहा है वहां के मजदूरों को दुबारा संगठित करने के प्रयास किए जा रहे हैं. साथ ही हमने उन कंपनियों के खिलाफ लेबर कोर्ट जाने की तैयारी कर ली है जिन्होंने नौ घंटे काम करने से इंकार करते हुए अपनी फैक्ट्रियां बंद कर दी हैं. इन कंपनियों में काम करने वाले मजदूरों को पिछले छह महीने का बोनस तथा एरियर दिलाने के लिए हमारा संगठन हर तरह की लड़ाई लड़ने के लिए तैयार है.’

मजदूरों और कंपनी मालिकों के बीच महीनेभर से चल रही इस लड़ाई में श्रम विभाग की भूमिका का जिक्र किए बगैर यह पूरी कथा अधूरी है. वजीरपुर के अधिकतर मजदूरों को इस पूरे आंदोलन के दौरान विभाग की भूमिका भी संदेहास्पद नजर आती है. मजदूर नेता नवीन कहते हैं, ‘सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि श्रम विभाग की मध्यस्थता में तीन-तीन बार समझौता हो गया फिर भी यह समझौता लागू क्यों नहीं हो सका?’ हालांकि दिल्ली के उप श्रम आयुक्त राजेश धर इस पूरे प्रकरण में विभाग की कार्रवाई को बेहद सराहनीय बताते हैं, वे कहते हैं, ‘एक महीने की इस हड़ताल के बाद मालिकों ने मजदूरों के हितों को लेकर प्रतिबद्धता दिखाई है जिसका प्रमाण यह है कि कुछ फैक्ट्रियों में नौ घंटे काम करने का नियम लागू हो चुका है. बाकी कारखानों में भी जल्द ही यह सब शुरू हो जाएगा. वरना इनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई तय है.’

लेकिन मजदूरों की नजर में ये बातें आश्वासन से अधिक कुछ नहीं. हड़ताली मजदूरों के एक नेता सनी कहते हैं, ‘मजदूरों का शोषण कोई आज की बात नहीं है. वजीरपुर की बात करें तो श्रम विभाग का उदासीन रवैया ही यहां के कारखानों मंे हो रहे श्रम कानूनों के खुलेआम उल्लंघन के लिए सबसे अधिक जिम्मेदार है. हम पिछले कई सालों से विभाग के अधिकारियों को कंपनियों के काले कारनामों से अवगत कराते रहे हैं, लेकिन इसके बावजूद श्रम विभाग की कार्रवाई नोटिस देने तक ही सीमित रही है.’ वे आगे कहते हैं, ‘वजीरपुर के इस औद्योगिक इलाके के पास ही निमड़ी कालोनी नाम की एक कालोनी है, जहां पर श्रम न्यायालय है. अगर वाकई में श्रम कानूनों को लागू करवाने को लेकर श्रम विभाग गंभीर होता तो क्या वजीरपुर के पास ही स्थित इस न्यायालय का खौफ कंपनी मालिकों के मन में नहीं होता ?’

बहरहाल, महीने भर से जारी इस लड़ाई में अब तक निकले अलग-अलग परिणामों वाले ताजा सूरते हाल को देखते हुए साफ तौर पर कहना मुश्किल है कि इसमें मजदूरों को आधी जीत मिली या आधी हार?

पतंग, लड़की और डोर…

मनीषा यादि
मनीषा यादव
मनीषा यादव

रंग-बिरंगी पतंगें. हवा में अठखेलियां करतीं. आकाश को नया रूपरंग, नए आयाम देतीं. परंतु दृश्य अभी अधूरा है. दृश्य को पूर्ण बनाती पतंग देखती वह लड़की. पतंग की हर अदा पर घूमती उसकी आंखों की पुतलियां. पतंग गोता लगाती तो वह उछल जाती. पतंग लहराती तो लहर जाती वह. गोया लड़की नहीं खुद पंतग हो.

गाहे-बगाहे आ जाती है छत पर. घंटों खड़े होकर पतंग निहारती. पतंग के उतरने से उतर जाता है उसका चेहरा. वह चाहती है, पतंग सुबह-दोपहर ही नहीं, शाम और आधी रात को भी उड़े. कई बार तो पतंग देखने में इतनी मशगूल हो जाती कि मां की हांक भी उसे सुनाई नहीं देती. इस कारण कई बार पिटाई की नौबत आई. कई बार तो पिटाई हो भी गई. सच्ची. हल्की-फुल्की ही सही. मां की सख्त हिदायत देने के बाद भी, उसने न छत पर आना छोड़ा. न पंतग देखना. यह कैसा आकर्षण है?

जब कभी वह सड़क पर होती, तो उसकी नजरों में सड़क नहीं आकाश होता. क्योंकि आकाश में होती है पतंग. मगर सड़क पर छोटा भाई भी अकसर उसके साथ ही होता. छोटा भाई जो छोटा है कद में, अक्ल में, उम्र में यूं कहें तो हर मामले में उस लड़की से. न अपना ध्यान रख सकता है, न अपनी बड़ी बहन का. मगर डोर की तरह बहन के पीछे लगा रहता है, जब बहन को घर से कहीं बाहर जाना होता है. वह बहन के साथ शायद (!) न जाए, मगर लड़की की मां नसीहतों की पोटली के साथ खुद ही बांध देती है उसके साथ. चलती है जब लड़की, डोलता है उसके आगे-पीछे मां का बेटा. आकाश में उड़ रही हैं पतंग, सड़क पर चलते-चलते उसे उड़ते हुए देख रही है लड़की. अचानक छोटे भाई ने टोका, ‘घूर-घूर कर क्या देख रही हो!’ उसके लहजे में तेज मांझे जैसी धार थी. अब लड़की की गुस्से से भरी नजर सड़क पर और चौकसी से भरी भाई की नजर है उस पर. और आकाश में उड़ती पतंग.

पतंग को देखते-देखते वर्षों बीत गए. उसे पता ही नहीं चला कि कब वह जवान हो गई. उसे बस यह पता था कि अभी उसे अपने पैरों पर खड़ा होना है. मां-बाप का नाम रोशन करना है. और भी बहुत कुछ… कल न उसने आकाश देखा, न छत और न ही पंतग. ऐसा क्योंकर हुआ? जबकि कल उसकी तबीयत भी ठीक थी. अलबत्ता उसका मूड पूरे दिन जरूर खराब रहा. कल उसे देखने लड़के वाले आए थे. पतंग को उड़ते देख अकसर खुश होने वाली लड़की,उन्हें उड़ता देख अचानक से उदास हो गई है. तभी मां की आवाज ऊपर आई. आश्चर्य! मां की आवाज में तल्खी नहीं उल्लास है. घोर आश्चर्य! आज एक ही बार में उसने सुन लिया मां की आवाज को! अब वह नीचे उतर रही है. वह समझ गई है कि उसका रिश्ता पक्का हो गया है. कमाल है, उसने पलट कर उड़ती पतंग को नहीं देखा. ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ था!

आज घर में खुशी का माहौल है. सब खुश है. वह सबके खुश होने की वजह से खुश है या वाकई वह भी अंदर से खुश है. वह तय नहीं कर पा रही है. थोड़ी देर पहले उसने अपने पापा से एक सवाल किया था. सवाल सुन पापा बोले थे कि ये कैसा ऊटपटांग सवाल है. अभी-अभी मम्मी से उसने वही सवाल किया. मम्मी हंसकर बोल रही है कि बांस जैसी हो गई पर अकल रत्ती भर नहीं आई. उसने सोचा क्यों न यही सवाल छोटे भाई से पूछे. मगर उसने नहीं पूछा. इस डर से कि वह मुंहफट उसे पगली न कह दे.

अब वह खुद से सवाल पूछ रही है, पतंग क्या वाकई उड़ती है या सिर्फ उड़ती हुई दिखती है?

हंस अकेला

राजेंद्र यादव को समवप्त हंस का विशेषांक
राजेंद्र यादव को समर्पित हंस का विशेषांक.
राजेंद्र यादव को समवप्त हंस का विशेषांक. सभी फोटोः पूजा सिंह

गत वर्ष अक्टूबर में हंस के पुनर्संस्थापक संपादक राजेंद्र यादव के निधन के बाद यह सवाल तमाम पाठकों-साहित्यकारों के मन में उठा था कि हंस का अब क्या होगा? क्या हंस चलती रहेगी और अगर चलती रहेगी तो उसके तेवर और कलेवर कहीं बदल तो नहीं जाएंगे? उनके निधन के तकरीबन आठ महीने बाद हमने हंस से जुड़े लोगों, साहित्यकारों तथा पाठकों से बात कर इन सवालों के जवाब तलाश करने की कोशिश की.

बात शुरू करते हैं एक उदाहरण से. वर्ष 1997-98 की बात है हिंदी साहित्य की दुनिया से परिचित हो रहा एक युवा, प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले अपने एक मित्र के घर से हंस के 10-12 अंकों का एक बंडल पढ़ने के लिए ले जाता है. उसे यह देखकर आश्चर्य होता है कि हंस के सभी अंकों के संपादकीय फटे हुए हैं. कुछ अंकों से तो अन्य आलेख भी नदारद थे. यह हंस की वैचारिक हस्तक्षेप की ताकत का प्रतीक है. प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले युवा तक उसके संपादकीय एवं अन्य विचारोत्तेजक लेख तथा अन्य सामग्री काट कर संदर्भ के लिए रख लिया करते थे.

उस घटना को लंबा समय बीत चुका है. हंस के अंक ले जाने वाला वह किशोर अब हिंदी साहित्य जगत में कवि-कथाकार शशिभूषण के नाम से पहचाना जाता हैै. अपने जिस मित्र शैलेश के यहां से वे हंस के अंक ले गए थे वह अब प्रशासनिक अधिकारी हैं और मध्य प्रदेश में पदस्थ हैं. जब हमने शैलेश से हंस को लेकर उनके लगाव के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि राजेंद्र यादव के निधन के बाद वह हंस पढ़ना छोड़ चुके हैं. उनका मानना है कि पत्रिका ने अपनी वह धार खो दी है जो राजेंद्र जी के रहते पत्रिका में नजर आती थी.

शुक्रवार 11 जुलाई, 2014 की शाम तकरीबन 5 बजे जब हम पुरानी दिल्ली की पेचीदा गलियों से गुजरते हुए हंस कार्यालय की ओर जा रहे थे तो मन में तमाम सवाल थे. दरअसल हंस के पुर्नसंस्थापक राजेंद्र यादव के निधन के बाद यह पहला मौका था जब हम पत्रिका कार्यालय जा रहे थे. ऐसे में मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक ही था कि कार्यालय के भीतर क्या वही बेलौस कहकहेबाजी और बेफिक्र अड्डेबाजी देखने को मिलेगी या फिर राजेंद्र जी के साथ ही वह माहौल भी चला गया होगा.

अंदर जाने के पहले ही कहकहों की आश्वस्त करती आवाज सुनाई दे गई. बाहरी कमरे में हंस की व्यवस्थापक वीना उनियाल जहां हंस के 31 जुलाई को होने वाले सालाना जलसे और कथा कार्यशाला की तैयारी में व्यस्त थीं तो भीतर हंस की प्रबंध निदेशक (स्व. राजेंद्र यादव की बेटी) रचना यादव, संपादक संजय सहाय, कार्यकारी संपादक संगम पांडेय और लेखक अजय नावरिया इसी सिलसिले में चर्चा में लगे हुए थे.

हंस के वर्तमान संपादक संजय सहाय हैं जो महीने में 20 दिन गया में रहते हैं और बाकी 10 दिन दिल्ली में रहकर पत्रिका के लिए काम करते हैं. उनकी अनुपस्थिति में पत्रिका के संपादकीय दायित्वों का निर्वहन कार्यकारी संपादक संगम पांडेय निभाते हैं. संजय सहाय राजेंद्र जी के बिना निकल रहे हंस पर बहुत बेबाकी से कहते हैं कि हंस का तेवर और उसका कलेवर बरकरार रखने की पूरी कोशिश की जा रही है लेकिन राजेंद्र जी के लेखन की कमी को कोई दूसरा पूरा नहीं कर सकता. वह मुहावरेदार भाषा का इस्तेमाल करते हुए कहते हैं, ‘ हंस पत्रिका में राजेंद्र जी की जिम्मेदारी संभालना दरअसल उनके जूतों में घुसने के समान है जो कतई आसान काम नहीं.’ सहाय स्वीकार करते हैं कि राजेंद्र जी के निधन के बाद पत्रिका में उनकी संपादकीय कमी खलने की शिकायत तमाम पाठकों ने की लेकिन सौभाग्यवश पत्रिका की बिक्री पर इसका कोई बुरा असर नहीं पड़ा है.

संपादक संजय सहाय हंस में प्रकाशित होने वाली कहानियों के स्तर में गिरावट की बात तो स्वीकार करते हैं लेकिन वे यह कहना नहीं भूलते कि यह गिरावट समूचे कहानी क्षेत्र में है. जब अच्छी कहानियां लिखी ही नहीं जा रही हैं तो फिर हंस में ही क्या वे किसी भी अन्य पत्रिका में नहीं नजर आएंगी.

युवा साहित्यकार शशिभूषण का साफतौर पर यह मानना है कि राजेंद्र यादव के निधन के बाद हंस के पाठकों को न केवल उनके धारदार संपादकीय की कमी खलती है बल्कि उनको अब आलेखों तथा स्तंभों में भी उतनी विचारोत्तेजक सामग्री पढ़ने को नहीं मिलती. जितनी उनके जीवनकाल में मिलती थी. वे अफसोस जताते हुए कहते हैं कि पिछले आठ महीनों में उन्होंने हंस का हर अंक लिया है लेकिन उनको कोई उल्लेखनीय सामग्री याद नहीं आती है.

राजेंद्र यादव हंस के संचालन की मौजूदा रूपरेखा को बहुत पहले तय कर चुके थे. हंस का संचालन उनके जीवन की सबसे बड़ी चिंता थी. उनके निधन के तकरीबन एक साल पहले से ही संजय सहाय और रचना यादव का नाम पत्रिका के संयुक्त संपादक के रूप में जाने लगा था. तमाम उम्र विवादों का रिश्ता रखने वाले राजेंद्र यादव का विवादों से नाता उनकी मृत्यु के बाद भी नहीं टूटा. उनपर यह आरोप लगाया गया कि तमाम उम्र पितृसत्ता का विरोध करने वाले राजेंद्र यादव ने अंतत: हंस पत्रिका में अपनी पुत्री को बड़ा और जिम्मेदारी भरा पद सौंपकर परिवारवाद को ही बढ़ावा दिया.

हंस के बारे में आगे बात करने के पहले हमें इसके अतीत से भी थोड़ा परिचित होना होगा. हंस की स्थापना मुंशी प्रेमचंद ने सन 1930 में की थी. यह अपने समय की अत्यंत महत्वपूर्ण पत्रिका थी जिसके संपादक मंडल में एक वक्त महात्मा गांधी भी शामिल थे. प्रेमचंद की मौत के बाद उनके बेटे अमृतराय ने कुछ वर्ष तक पत्रिका निकाली और फिर यह बंद हो गई.

31 जुलाई, 1986 को मुंशी प्रेमचंद के जन्मदिन के दिन राजेंद्र यादव ने हंस का पुन: प्रकाशन आरंभ किया. अपने निधन तक वे इस पत्रिका का लगातार 325 अंकों का संपादन संभाल चुके थे. उस दौर में हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं को लेकर माहौल यह बनाया जा रहा था कि हिंदी में साहित्यिक पत्रिकाओं का भविष्य ठीक नहीं है. इसके लिए सारिका और धर्मयुग जैसी पत्रिकाओं के अंत को उदाहरण के रूप में पेश किया जा रहा था. लेकिन हंस चल निकली बल्कि यह कहना उचित होगा कि हंस ने उड़ान भरी. हिंदी की साहित्यिक पत्रिका के लिए 10,000 की प्रसार संख्या सम्मानजनक मानी जा सकती है. पिछली पीढ़ी के हिंदी कथाकारों की बात करें तो हंस ने ही उनकी प्रतिभा को पहचाना और दुनिया के सामने रखा. इनमें उदय प्रकाश, शिवमूर्ति और अखिलेश समेत तमाम कथाकार शामिल हैं.

राजेंद्र यादव के संपादक बनने के बाद हंस का पहला अंक
राजेंद्र यादव के संपादक बनने के बाद हंस का पहला अंक

इतना ही नहीं हंस ने हिंदी साहित्य में धारदार विमर्श की परंपरा शुरू की. इनमें दलित और स्त्री विमर्श प्रमुख हैं. हालांकि इन विमर्शों ने हंस और राजेंद्र यादव को लगातार विवादों के घेरे में बनाए रखा. कई लोग तो इसे चर्चा में बने रहने का हथकंडा तक कहने से नहीं चूकते.

कथाकार सत्यनारायण पटेल से जब राजेंद्र यादव के पहले और उनके बाद के हंस के विषय में उनकी राय पूछी तो उनका कहना था,  ‘ हंस हमेशा से गंभीर और चेतना परक सामग्री के बजाय उथली और अश्लील सामग्री पाठकों के सामने परोसती रही है. वह एक संपादक के रूप में भी राजेंद्र यादव पर कुछ गंभीर इल्जाम लगाते हैं. पटेल कहते हैं, ‘ राजेंद्र यादव लेखन में अपने समकालीन शैलेश मटियानी, मोहन राकेश या कमलेश्वर के समक्ष कहीं नहीं थे. वे मन्नू जी के लेखन के सामने भी बौने थे. वे अपने लेखन की सीमाएं जानते थे और यही वजह थी कि उन्होंने बतौर संपादक हंस का दामन थाम लिया. अगर वे हंस के संपादक न होते तो बतौर लेखक लोग उनको उनके जीवनकाल में ही भुला चुके होते. हंस में छपने वालों में वही स्त्रियां शामिल थीं जो किसी न किसी रूप में पत्रिका को आर्थिक मदद कर सकती थीं या फिर ऐसे लेखक जो निजी तौर पर उनकी चाटुकारिता किया करते थे. हालांकि लाख कमियों के बावजूद वह हंस में अच्छी और बुरी सामग्री प्रकाशित कर एक संतुलन कायम रखते थे लेकिन उनके निधन के बाद वाले अंक मुझे बहुत खराब लगे.’

राजेंद्र यादव के साथ 10 साल तक हंस के संपादन में सहयोग करने वाले बया के संपादक एवं अंतिका प्रकाशन के प्रबंधक गौरीनाथ हंस के तेवर में आए बदलाव को स्वीकार करते हैं लेकिन वह साथ ही यह भी जोड़ते हैं कि हर पत्रिका के संपादक का अपना नजरिया, अपनी पसंद होती है. वह उसी के अनुरूप सामग्री का संकलन करता है. ऐसे में निजी तौर पर सामग्री किसी व्यक्ति को पसंद या नापसंद हो सकती है लेकिन यह सोचना ठीक नहीं है कि पत्रिका में ठीक वैसी ही सामग्री प्रकाशित होती रहेगी जैसी राजेंद्र यादव के दौर में छपती थी.

गौरीनाथ यह भी कहते हैं कि राजेंद्र यादव के निधन के तत्काल बाद उन पर आधारित जो अंक पत्रिका ने निकाला था वह निराश करने वाला था. राजेंद्र यादव पर इससे कहीं बेहतर सामग्री प्रकाशित की जा सकती थी.


हंस का विस्तार करना प्राथमिकता 

हंस की प्रबंध निदेशक रचना यादव से बातचीत .

rachnaहंस से अपने जुड़ाव के बारे में कुछ बताइए?
हंस से जुड़ने का फैसला पूरी तरह भावनात्मक था. पापा के जाने के काफी पहले से उन्होंने मुझे यह कहना शुरू कर दिया था कि मैं हंस के प्रबंधन का काम देखना शुरू कर दूं. वह मुझे कार्यालय आने को कहते थे लेकिन मैं उनसे कहती कि मेरी लाइन अलग है. मेरा अपना करियर है. उन्होंने कभी जोर जबरदस्ती नहीं की लेकिन वह यह जरूर कहते थे कि जब मैं नहीं रहूंगा तो तुम खुद देखोगी कि क्या करना है.

उनके निधन के बाद यह ख्याल आया कि हंस शायद बंद हो जाए?
कभी नहीं. देखिए आप कह रही हैं तो मुझे लग रहा है कि पाठकों के मन में यह सवाल भी आया होगा. लेकिन हमारे मन में ऐसा कोई सवाल नहीं आया. पापा का निधन पिछले साल 28 अक्टूबर को हुआ और एक नवंबर को हम सब लोग यहां हंस कार्यालय में आगे की योजना बना रहे थे.

फिलहाल पत्रिका में आपकी क्या भूमिका है?
मैं अब यहां प्रबंध निदेशक की जिम्मेदारी संभाल रही हूं. मेरी भूमिका अब पत्रिका के लिए विज्ञापन तथा अन्य वित्तीय संसाधन जुटाना तथा इसके विस्तार की कोशिश करना है. मेरा काम यह सुनिश्चित करना है हंस पहले की तरह निकलती रहे. उसमें कोई अड़चन न आए.

पत्रिका के विस्तार की क्या योजना है?
फिलहाल पत्रिका का सर्कुलेशन करीब 10,000 है. पापा के देहांत के बाद आशंका थी कि इसमें कुछ कमी आ सकती है लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. बल्कि सर्कुलेशन में दो चार सौ का इजाफा ही हुआ है. पश्चिमी भारत में हम इसका विस्तार करना चाहते हैं. नए एजेंट बनाने की कोशिश कर रहे हैं. पापा, बहुत इधर-उधर जा नहीं पाते थे. लेकिन मैं इसका विस्तार करना चाहती हूं. इस साल हम जो दो दिवसीय कथा कार्यशाला कर रहे हैं उसे भविष्य में हम तीन चार दिनों के लिटरेरी फेस्टिवल में तब्दील करना चाहते हैं. हमारी यह भी कोशिश है कि आगे चलकर अपने लेखकों को समुचित पारिश्रमिक दे सकें.

हंस से जुड़ने के बाद किसी तरह का दबाव महसूस करती हैं?
हां, समय का दबाव महसूस करती हूं. मुझे अपनी दोनों जिंदगियों में तालमेल बैठाने में बहुत मशक्कत करनी पड़ रही है. मैं पेशे से कथक नृत्यांगना हूं. गुड़गांव में मेरा प्रशिक्षण संस्थान है जहां 50 बच्चे प्रशिक्षण लेते हैं. मेरा अपना रियाज है. अब मैं उसी वक्त में कटौती करके हर सोमवार, बुधवार और शुक्रवार को हंस कार्यालय आती हूं.

पत्रिका में प्रकाशित होने वाली सामग्री में आपका कितना दखल है?
न के बराबर. वह सारा काम संगम पांडेय जी और संजय सहाय जी के जिम्मे है. किसी सामग्री को लेकर बहुत संदेह होने पर ही संगम जी उसे मुझे पढ़ने के लिए देते हैं. हां, एकदूसरे को सुझाव देने का काम बराबर चलता रहता है.

आशुतोष कौशिक

आशुतोष कौशिक
आशुतोष कौशिक
आशुतोष कौशिक

साल 2007 में एमटीवी रोडीज के पांचवें सीजन में सहारनपुर, उत्तर प्रदेश के आशुतोष कौशिक ने अपनी बेबाकी और देसी ठसक से सबका दिल जीत लिया था. उन्होंने पांचवां सीजन जीतकर न सिर्फ तारीफें बटोरीं बल्कि लगे हाथ 2008 में आए बिग बॉस के दूसरे सीजन में भी जगह बना ली थी.

कह सकते हैं कि आशुतोष का वक्त अच्छा चल रहा था इसलिए उनके घर में बिग बॉस की ट्रॉफी भी सज गई. इतने नाम और शोहरत के बाद उनके फिल्मों में आने की खबरें भी आने लग गईं. बिग बॉस जीतने के कुछ महीनों बाद तक उन्हें किसी स्टार से कम नहीं समझा जाता रहा. कुछ लोगों ने इस उभरते हुए नाम से उम्मीदें बांध ली थीं तो कुछ की जबान पर यह जुमला था कि सब टाइम की बात है.

खैर शायद वक्त-वक्त की ही बात होती है. इसलिए महज सात साल पहले जिस शख्स ने तूफानी एंट्री ली थी वह अब सुर्खियों और मीडिया से आंधी की तरह गायब भी हो गया.  दूध के उस उफान की तरह जिसके उठने और बैठने में एक जैसा वक्त लगता है.

कभी एक ढाबा चलाने वाले (वैसे ढाबा आज भी चालू है) और ब्याज पर पैसा चलाने वाले सहारनपुर से आए, एकदम देसी अंदाज वाले आशुतोष ने शायद ही सोचा था कि वह इतने कम समय में इस कदर ऊंचाई पर पहुंच पाएंगे और एक के बाद एक शोहरत की सीढ़ियां चढ़ते जाएंगे. लेकिन किस्मत ने उनका ऐसा साथ दिया कि वे अपने सुनहरे भविष्य के ख्वाब बुनने से खुद को रोक नहीं पाए . उनकी फिल्मों में एंट्री की बातें भी जोर पकड़ने लगी. कुल मिलाकर आशुतोष ने मीडिया मंडी से और मीडिया मंडी ने आशुतोष से सपनों का साझा कर लिया था. लेकिन अफसोस कि आशुतोष जितनी तेजी से अर्श पर पहुंचे उससे दोगुनी गति से उनकी यादें लोगों के जेहन से और खबरों की दुनिया से धुंधली होती गई. कल तक जिसमें एक भविष्य का स्टार देखा जा रहा था आज उसका नाम लेने पर लोगों के जेहन में उसकी तस्वीर बना पाना भी मुश्किल हो गया है.

यू ट्यूब पर रोडीज या बिग बॉस के पुराने सीजन खंगालने के दौरान आशुतोष के दिखाई देते ही यकायक मन में सवाल आता है – यह चेहरा अचानक कहां गायब हो गया?

एक वक्त आशुतोष को अपना आदर्श मानने वाले युवाओं में से पता नहीं कितने जानते हैं कि हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में उन्होंने अपने ही शहर सहारनपुर से जय महाभारत नाम की पार्टी के लिए चुनाव भी लड़ा लेकिन वहां उन्हें हार का सामना करना पड़ा. जिस स्टारडम की बदौलत वे छाए रहते थे वह जादू भी कुछ कमाल नहीं कर सका. अक्सर कहा जाता है कि सफलता मिलने के बाद दिमाग सातवें आसमान पर पहुंच जाता है. जो सफलता पचा नहीं पाते हैं, उनका यही हश्र होता है लेकिन आशुतोष का मामला इससे बिलकुल अलग था. उनके लिए तो बस यही कहा जा सकता है कि उन्होंने अभी सफलता के पकवान को अपनी किस्मत की थाली में परोसा हुआ ही देखा था और अभी उसकी खुशबू ही ले रहे थे कि उन्हें खुद भी नहीं मालूम चल सका कि कब और कैसे उन्हें लगातार मिलने वाले ऑफर, उनके बारे में की जाने वाली चर्चा यकायक खत्म हो गई.

रोडीज के बाद भी वह अच्छा जा  रहा था. लेकिन बिग बॉस जीतने के बाद राह भटक गया. शायद उसे जमाने की हवा लग गई

हालांकि इस बीच आशुतोष ने कुछ फिल्मों में अपनी किस्मत भी आजमाई. साल 2013 में संजय दत्त अभिनीत फिल्म ‘जिला गाजियाबाद’ के अलावा ‘भड़ास’ और ‘रघु रोमियो’ में आशुतोष नजर आए थे लेकिन इन फिल्मों में उनकी उपस्थिति की चर्चा न के बराबर ही रही. छोटे पर्दे पर आशुतोष, कॉमेडी सर्कस में जोर आजमाइश करते दिखाई दिए लेकिन दर्शकों के दिल को बहुत ज्यादा नहीं छू पाए.

वैसे एक बार जिसे सुर्खियों में बने रहने का चस्का लग जाता है, वह खबरों में बने रहने का इंतजाम भी कर ही लेता है. आशुतोष के बारे में भी गाहे-बगाहे मीडिया में कुछ ना कुछ पढ़ने और सुनने को मिल जाता है. हालांकि अब उनका जिक्र गलत वजहों से ज्यादा होता है. 2013 में कथित तौर पर मुंबई के एक रेस्त्रां के बाहर आशुतोष ने नशे की हालत में कुछ लोगों से झगड़ा मोल लिया था. आशुतोष का कहना था कि उन पर कुछ लोगों ने हमला किया था जिसके बाद यह हंगामा शुरू हुआ. इसके अलावा पिछले साल ही उन पर नशे की हालत में दिल्ली एयरपोर्ट पर शोर शराबा करने का आरोप भी लगा था.

एमटीवी रोडीज 5 के ऑडिशन के दौरान चैनल के वाइस प्रेजिडेंट (क्रिएटिव एंड कंटेंट) वैभव विशाल थे जिनकी नजर सबसे पहले आशुतोष पर पड़ी थी. तहलका से हुई बातचीत में वैभव बताते हैं,  ‘आशुतोष को ऑडिशन में तीन जगह से रिजेक्ट कर दिया गया था लेकिन फिर ग्रुप डिस्कशन के दौरान मुझे आशु में कुछ बात नजर आई. रोडीज के बाद भी वह अच्छा जा  रहा था. लेकिन बिग बॉस जीतने के बाद राह भटक गया. शायद उसे जमाने की हवा लग गई.’

टीवी इंडस्ट्री को बहुत करीब से जानने वाले वैभव मानते हैं कि रिएलटी शो में काम करने के बाद आशुतोष जैसी हालत कई प्रतिभागियों की हो जाती है. हालात ये हो जाते हैं कि शो खत्म होने के बाद ये प्रतियोगी अपनी जिंदगी को रिएलटी शो का ही एक ऐपिसोड समझने लगते हैं और इन्हें लगने लगता है कि अभी-भी चौबीस घंटे इनके ऊपर कैमरे लगे हुए हैं जो इनकी किसी न किसी हरकत को सुर्खियों में लाने का काम कर ही देंगे.

‘शो के बाहर निकलते ही जो समझ गया कि यह सब मिथ्या है वह तो टिक जाता है लेकिन जो बाहर की दुनिया के साथ सामंजस्य नहीं बैठा पाता, वह पगलाने लग जाता है’

यही नहीं, रिएलटी शो में भाग लेने वाले इन ज्यादातर लोगों के पास टैलेंट के नाम पर कुछ नहीं होता. इन्हें तो बस अपना ही किरदार निभाना होता है और इनकी खूबियां, इनकी खामियां, इनका अनोखापन ही होता है जिसे टीवी शो पर बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया जाता है. इसे दर्शक पसंद भी करते हैं और रिएलटी टीवी स्टार्स को नाम और शोहरत भी हासिल होती है लेकिन असली खेल, शो खत्म होने के बाद शुरू होता है.

वैभव मानते हैं, ‘शो के बाहर निकलते ही जो समझ गया कि ये सब मिथ्या है वह तो टिक जाता है लेकिन जो बाहर की दुनिया के साथ सामंजस्य नहीं बैठा पाता, वह पगलाने लग जाता है. लगातार खबरों में बने रहने की चाहत में आशुतोष जैसे कई रिएलटी स्टार्स से मेहनत कम और गलतियां ज्यादा हो जाती हैं.’

खैर, इसे कहानी का अंत कहना सही नहीं होगा. दूसरी पारी नाम की भी चीज होती है. देखते हैं कि आशुतोष जितनी आसानी से ब्रेकिंग न्यूज का

हिस्सा बन गये थे, क्या वे उतनी ही सहजता से अपने करियर के ब्रेक को हटा पाएंगे ?

हरेक बात पे कहते हो तुम कि…

फोटोः गरिमा जैन
फोटोः गरिमा जैन

बात 1967 की है. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एक छात्र एलएलबी के अंतिम वर्ष की परीक्षा दे रहा था. इस छात्र का परिवार शहर के सबसे प्रभावशाली घरानों में से था. दादा श्री कैलाश नाथ काटजू मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री और दो विभिन्न राज्यों के राज्यपाल रह चुके थे. केंद्र सरकार में भी वे पंडित नेहरू के मंत्रिमंडल में कानून मंत्री का पद संभालने के साथ-साथ केंद्रीय गृहमंत्री एवं रक्षामंत्री जैसे महत्वपूर्ण पदों पर अपनी सेवाएं दे चुके थे. इस छात्र के पिता उस वक्त इलाहाबाद उच्च न्यायालय में न्यायाधीश थे. अब इस छात्र को अपने परिवार में तीसरी पीढ़ी का वकील बनना था. अंतिम वर्ष की परीक्षाओं में इस छात्र ने पूरे विश्वविद्यालय में सर्वोच्च अंक हासिल करके वकालत की डिग्री हासिल की. अपनी पारिवारिक विरासत संभालने की योग्यता अब यह युवा हासिल कर चुका था. लेकिन इसकी इच्छा वकालत करने की नहीं बल्कि समाज के लिए कुछ सार्थक करने की थी. अपनी इसी इच्छा के चलते इस युवक ने एक शिक्षक बनने की सोची और मामूली-से वेतन पर एक गांव में जाकर बच्चों को पढ़ाने लगा. एक इतने प्रभावशाली परिवार के इस युवा ने जब अपनी विरासत को छोड़ कर शिक्षक बनने का फैसला लिया होगा तो शायद खुद उसने भी नहीं सोचा होगा कि भविष्य में उसे भारत के सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश और भारतीय प्रेस परिषद का अध्यक्ष बनना है.

जस्टिस मार्कंडेय काटजू के जीवन का यह पहलू शायद आपके लिए नया हो लेकिन उनका नाम तो आप निश्चित ही कई बार और शायद रोज ही सुनते होंगे. आज यदि टीवी, अखबार, रेडियो, इंटरनेट या किसी भी अन्य माध्यम से सूचनाएं आप तक पहुंच रही हैं तो जस्टिस काटजू भी जरूर आप तक लगातार पहुंच रहे होंगे. वैसे तो सर्वोच्च न्यायालय से अब तक सैकड़ों न्यायाधीश रिटायर हो चुके हैं और उनमें से कुछ भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष भी रह चुके हैं लेकिन आपने शायद उनका नाम भी न सुना हो. लेकिन देश में रहते हुए भी यदि आपने जस्टिस काटजू का नाम नहीं सुना तो यकीन मानिए आप सूचनाओं के इस दौर में कहीं बहुत पीछे छूट चुके हैं.

जस्टिस काटजू आज एक ऐसा नाम बन चुके हैं जिनके पास हर मुद्दे पर बोलने को बहुत कुछ है. कभी आप उनके बयानों से सहमत हो सकते हैं तो कभी वे आपको नाराज भी कर सकते हैं. लेकिन किसी भी मुद्दे पर उनके बयानों से आप अछूते नहीं रह सकते. उनके बारे में अलग-अलग लोगों की राय भी अलग-अलग ही है. काफी हद तक यह भी संभव है कि आप उनके बारे में एक राय कभी बना भी न पाएं क्योंकि जब तक आप उनके एक बयान का विश्लेषण करके उसको समझने की कोशिश करें, उनका कोई और बयान आपकी अब तक की समझ को बिल्कुल पलट कर रख सकता है. वैसे जस्टिस काटजू खुद भी इस बात को जानते हैं कि लोग उनको समझ नहीं पा रहे हैं और उनके बारे में अलग-अलग राय रखते हैं. इसलिए गुजरे साल के अंत में उन्होंने खुद ही अपने बारे में समझाते हुए अपने ब्लॉग पर लिखा, ‘मुझे कई तरीकों से वर्णित किया गया है जैसे कि एक सनकी, पागल, आवारा, जंगली, प्रचार का भूखा और यहां तक कि एक कुत्ता (एक मुख्यमंत्री द्वारा) जो दुनिया के हर मुद्दे पर टिप्पणी करता है. लेकिन मैं सच में कौन हूं? मैं किसके लिए बोलता हूं? चूंकि नया साल आ रहा है इसलिए मुझे लगता है कि मेरे विचारों के स्पष्टीकरण का भी यह सही समय है… मैं बताना चाहता हूं कि मेरे विचार तर्कसंगत, स्पष्ट और एकमात्र उद्देश्य के प्रति केंद्रित हैं और वह उद्देश्य है मेरे देश की समृद्धि और उसके नागरिकों को एक सभ्य जीवन देने में मदद करना.’

ऐसा नहीं है कि प्रेस परिषद का अध्यक्ष बनने के बाद ही जस्टिस काटजू ने अपनी बेबाक राय देना शुरू किया हो. एक न्यायाधीश रहते हुए भी वे कई ऐसे ऐतिहासिक फैसले दे चुके हैं जो सारे देश में चर्चा का विषय बने. जैसा कि जस्टिस काटजू ने अपने ब्लॉग में लिखा है, ‘कई लोग कहते हैं कि जस्टिस काटजू को चर्चाओं में बने रहना आता है और वे कई सालों से ऐसा करते आ रहे हैं. लेकिन उनको नजदीक से जानने वाले सभी लोग यह मानते हैं कि वे चर्चा में रहने के लिए कुछ भी नहीं करते बल्कि उनमें कई ऐसी बातें हैं जो उन्हें बाकी सबसे अलग करती हैं.,  जस्टिस काटजू के साथ वकालत की पढ़ाई करने वाले इलाहाबाद उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता टीपी सिंह बताते हैं, ‘जस्टिस काटजू छात्र जीवन से ही सामाजिक मुद्दों को लेकर बेहद संवेदनशील थे. वकालत करने के बाद, इतने संपन्न परिवार से होने के बावजूद वे गांव में बच्चों को पढ़ाते थे. वे एक छोटे-से कमरे में अकेले रहते थे और अपना खाना खुद ही बनाते थे. यह बात अधिकतर लोगों को मालूम भी नहीं है. तो ऐसा नहीं है कि वे चर्चा में रहने के लिए ही सबकुछ करते हों.’ जस्टिस काटजू के साथ वकालत कर चुके एक अन्य अधिवक्ता बताते हैं कि वे हमेशा ही समाज के लिए कुछ करना चाहते थे और इसका रास्ता भी वे खुद ही तैयार करना चाहते थे. इलाहाबाद उच्च न्यायालय बार एसोसिएशन के वरिष्ठ उपाध्यक्ष वीएस सिंह बताते हैं, ‘उनका मानना था कि मुझे अपने पिता जी के रास्ते पर नहीं चलना बल्कि एक शिक्षक के तौर पर सामाजिक हितों के लिए काम करना है. कुछ समय बाद उन्होंने महसूस किया कि वकालत के माध्यम से समाज की ज्यादा बेहतर सेवा की जा सकती है तो उन्होंने वकालत शुरू कर दी. वकील रहते हुए भी वे अक्सर कहते थे कि मुझे जब भी मौका मिलेगा मैं अपने स्तर से लोगों के लिए काम करूंगा. जज बनने के बाद उन्होंने कई ऐतिहासिक फैसले देकर अपनी बात को साबित भी किया.’

‘वे अक्सर सड़क किनारे आम लोगों के साथ आग तापने बैठ जाया करते थे और लोगों को पता भी नहीं चलता था कि ये आदमी हाई कोर्ट के जज हैं’

जस्टिस काटजू के बारे में एक सवाल जो शायद सभी के मन में आता होगा वह है कि आखिर वे चाहते क्या हैं. काटजू 40 साल से ज्यादा लबें समय से कानून के क्षेत्र से जुड़े रहे हैं और यदि उनके न्यायिक कार्यकाल में दिए गए फैसलों और बयानों के आधार पर आप उनको समझना चाहें तो उनके कई रूप आपके सामने आएंगे. कभी वे आपको प्रगतिशील लग सकते हैं, तो कभी रूढ़िवादी, कभी शांत और सौम्य तो कभी जोशीले और मुंहफट. वरिष्ठ अधिवक्ता वीएस सिंह जस्टिस काटजू द्वारा दिए गए एक फैसले के बारे में बताते हैं, ‘आज से लगभग 20-22 साल पहले मेरा एक मुकदमा जस्टिस काटजू की कोर्ट में लगा था. मामला प्रेम विवाह का था. एक लड़का और लड़की घर से भाग गए थे और शादी करना चाहते थे. उस दौरान घर से भागकर शादी करना बहुत ही असामान्य बात थी. हमारा समाज बिल्कुल भी इस बात की इजाजत नहीं देता था. लड़के वाले भी दहेज के लालच में ऐसा नहीं होने देते थे. लेकिन जस्टिस काटजू ने मेरे मुवक्किलों को पूरा संरक्षण देते हुए कहा कि यदि दोनों बालिग हैं तो कोई उन्हें शादी करने से नहीं रोक सकता.’ अधिवक्ता सिंह आगे बताते हैं, ‘महिला अधिकारों और मानवाधिकारों पर आज तो कई कार्यक्रम हो रहे हैं लेकिन जस्टिस काटजू इन बातों को कई साल पहले से करते आ रहे हैं. वे हमेशा से ही दूरदर्शी रहे हैं और उन्होंने समय से आगे की बात कही है.’ इन बातों से आप जस्टिस काटजू में प्रगतिशील व्यक्ति की छवि देख सकते हैं.

एक जज रहते हुए उनके व्यवहार से भी यदि आप उनको समझना चाहें तो उनके साथी टीपी सिंह की बातें आपके लिए काफी दिलचस्प साबित हो सकती हैं. वे बताते हैं, ‘जस्टिस काटजू हमेशा से ही आम आदमी के जज रहे हैं. जज रहते हुए वे जब सुबह टहलने निकलते थे तो सड़क पर बैठे लोगों की बात सुनते थे. कभी सड़क किनारे आग ताप रहे लोगों के साथ ही बैठ जाया करते थे. लोगों को पता भी नहीं होता था कि वे एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश हैं. इस तरह से वे अपने देश के हालात एक आम आदमी की नजरों से देखने को हमेशा तैयार रहते थे.’

जस्टिस काटजू को यदि आप उनके हाल के दिनों में दिए गए साक्षात्कारों से समझने की कोशिश करें तो आपको लगेगा कि वे अक्सर सामने वाले को डांट दिया करते हैं. पिछले दिनों जाने-माने टीवी पत्रकार दीपक चौरसिया पर जिस तरह से वे बिफरे और साक्षात्कार बीच में रोककर जिस तरह उन्होंने चौरसिया को गेट आउट  तक कह डाला, यह देखकर किसी को भी लग सकता है कि गुस्सा शायद हर वक्त जस्टिस काटजू की नाक पर सवार रहता है. वैसे उनकी यह आदत काफी पुरानी है और शायद आज भी वे अपने न्यायाधीश वाले रोब से बाहर नहीं आ पा रहे हैं. उत्तर प्रदेश बार काउंसिल के उपाध्यक्ष इंद्र कुमार चतुर्वेदी बताते हैं, ‘सुनवाई के दौरान वे कई बार वकीलों को यह तक कह डालते थे कि वकालत नहीं होती तो जाकर पकोड़ियां बेचो. लेकिन उनका गुस्सा बेवजह नहीं होता था. वे पूरी तैयारी से अपनी अदालत में आते थे. कानून पर उनकी समझ और ज्ञान का भी कोई मुकाबला नहीं है. ऐसे में अगर कोई वकील बिना तैयारी के उनके सामने पहुंच जाए और उनके सवालों का सही जवाब न दे पाए तभी वे गुस्सा करते थे.’ चतुर्वेदी जी आगे बताते हैं, ‘लेकिन वे दिल के बहुत ही भले हैं. कोर्ट के बाद वकीलों को अपने पास बुलाकर माफी भी मांग लिया करते थे. इलाहाबाद के वकील तो उनकी इस आदत से परिचित थे, इसलिए उनके डांटने का कोई बुरा भी नहीं मानता था. सभी वकील उनका बहुत सम्मान करते हैं.’

‘अक्सर पत्रकार काटजू की अदालत में आकर बैठ जाते थे कि न जाने कब वे कुछ बोल जाएं और उन्हें अगले दिन की हेडलाइन मिल जाए’

वैसे जस्टिस काटजू के जीवन की कई बातें आपको यह भी आभास कराती हैं कि वे जनता के प्रति बहुत ही नम्र हैं. 2005 में मद्रास उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रहते हुए जब उन्होंने न्यायालय की अवमानना से संबंधित एक बयान दिया तो सारे देश में उनकी खूब वाहवाही हुई. उन्होंने एक आयोजन में कहा, ‘गणतंत्र की मूल भावना है कि यहां जनता सर्वोपरि होती है. जज, नेता, मंत्री, अफसर सभी जनता के सेवक हैं. हमें जनता का सेवक होने पर गर्व होना चाहिए. चूंकि जनता हमारी मालिक है, इसलिए उन्हें यह भी अधिकार है कि अगर हम अच्छा काम नहीं करें तो वह हमारी निंदा कर सकती है. हमें ऐसी निंदा से नाराज नहीं होना चाहिए. हमें यह याद रखना चाहिए कि हमारी शक्तियां जनता के विश्वास पर ही टिकी हैं, न्यायालय की अवमानना के दोष में सजा देने के अधिकार पर नहीं.’ जस्टिस काटजू के इस बयान की जमकर प्रशंसा हुई. मशहूर कानूनविद फाली एस नरीमन ने उनके इस बयान के बाद एक लेख लिखा. अपने लेख में उन्होंने लिखा कि जस्टिस काटजू एक ऐसे न्यायाधीश हैं जो अवमानना के दायरों से कहीं ऊपर हैं. उन्होंने यह भी लिखा कि आज यदि शेक्सपियर जिंदा होते तो कहते, ‘एक सच्चा न्यायकर्ता अब न्याय करने आया है. हां, एक सच्चा न्यायकर्ता. ओ ज्ञानी न्यायाधीश, मैं किस तरह से तुम्हारा सत्कार करूं.’

जस्टिस काटजू के बारे में यह जानकर यदि आप उनकी छवि एक ऐसे व्यक्ति के रूप में बना रहे हैं जो जनता के प्रति बहुत ही विनम्र हैं और जिसमें अपने पद को लेकर जरा भी अहंकार नहीं तो आपको उनका दूसरा पक्ष भी जानना जरूरी है. यह बात 2011 की है. जस्टिस काटजू अब सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश थे. किसी व्यक्ति ने सूचना के अधिकार के तहत सर्वोच्च न्यायालय से कुछ सूचना मांगी. सूचना का संबंध जस्टिस काटजू से भी था इसलिए सूचना अधिकारी ने उन्हें इस संबंध में एक पत्र लिखा. जस्टिस काटजू इस पत्र से इतना नाराज हुए कि उन्होंने सूचना के अधिकार पर ही लगाम लगाने की बात कह डाली. इस बारे में जस्टिस काटजू ने कहा, ‘सूचना अधिकारी मुझे पत्र लिखकर कहते हैं कि 24 घंटे के अंदर सूचना दें. मैं सूचना देने से इनकार नहीं कर रहा लेकिन यह कोई तरीका है? यह तो बेहूदापन है. मैं सुप्रीम कोर्ट का एक जज हूं. मुझसे कुछ पूछना है तो मेरे सेक्रेटरी से समय लो और जब मैं फुर्सत में रहूं तो आकर बात करो. मैं कोई चपरासी हूं क्या, जो मुझसे ऐसे पूछा जाए. इस सूचना के अधिकार ने सरकारी कर्मचारियों की नाक में दम कर दिया है. इस अधिकार को संशोधित करके इसे सीमित करने की जरूरत है.’ जो जस्टिस काटजू खुद को जनता का सेवक मानते हैं और इस बात पर गर्व भी करते हैं, वही सिर्फ एक सूचना मांगने पर आपको यह भी याद दिला देते हैं कि वे कोई चपरासी नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश हैं.

‘जस्टिस काटजू ने जो लिखा वह तथ्यों के आधार पर ही लिखा. और भारत का नागरिक होने के नाते यह उनका अधिकार है’

जस्टिस काटजू के व्यवहार में ऐसे विरोधाभास आपको कई बार नजर आते हैं. भ्रष्टाचार के विरोध में जब सारा देश अन्ना हजारे के नेतृत्व में सड़कों पर उतर आया था तो जस्टिस काटजू ने इसे सिरे से निरर्थक घोषित कर दिया. उनका मानना था कि अन्ना-अरविंद जैसे लोग सिर्फ मीडिया द्वारा बनाए गए हैं और इनकी कोई वैज्ञानिक सोच नहीं है. जस्टिस काटजू का कहना था, ‘आप सड़कों पर भारत माता की जय और वंदे मातरम जैसे नारों का शोर मचा लीजिए लेकिन इससे भ्रष्टाचार खत्म होने वाला नहीं है. मैंने जन लोकपाल कानून पढ़ा है. यह कानून भ्रष्टाचार को खत्म करने की जगह एक पल में ही दोगुना कर देगा.’ अपने इन बयानों के समर्थन में उन्होंने एक लेख भी लिखा और जन लोकपाल की अपने तरीकों से व्याख्या की. अन्ना आंदोलन की शेक्सपियर के शब्दों में व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा, ‘अ टेल टोल्ड बाई एन ईडियट, फुल ऑफ साउंड ऐंड फ्यूरी, सिग्नीफाइ नथिंग (एक बेवकूफ द्वारा कही गई ऐसी कहानी जिसमें सिर्फ शोर-शराबे के सिवा कुछ नहीं है).’ जो लोग यह मान रहे थे कि अन्ना आंदोलन में शामिल होने वाले लोग सिर्फ क्षणिक आवेश में आकर ऐसा कर रहे हैं, उन्होंने जस्टिस काटजू के इस बयान का समर्थन भी किया. उनके इस बयान से आप भी कुछ देर को यह मान सकते हैं कि जस्टिस काटजू अच्छे से सोच-समझकर चीजों का आकलन करने के बाद ही अपनी राय देते हैं. लेकिन आपकी इस सोच को भी जस्टिस काटजू ज्यादा देर टिकने नहीं देते. कोर्ट में निर्णय देते हुए वे कई बार ऐसे ही क्षणिक आवेश में बहुत कुछ बोल चुके हैं. विशेष तौर पर जब उन्होंने 2007 में एक मामले की सुनवाई के दौरान भ्रष्टाचारियों को सार्वजनिक रूप से फांसी देने को कहा था तो पूरे देश में यह चर्चा का विषय बन गया था. उन्होंने कहा था, ‘हर कोई इस देश को लूटना चाहता है. ऐसे भ्रष्ट लोगों को सार्वजनिक तौर पर बिजली के खंभों पर लटका कर फांसी दी जानी चाहिए. कानून हमें ऐसा करने की अनुमति नहीं देता वरना हम यही पसंद करते कि भ्रष्ट लोगों को फांसी दे दी जाए.’ ऐसे ही उदहारण उनके जीवन से तब भी मिलते हैं जब वे सर्वोच्च न्यायालय में रहते हुए सभी जिला एवं उच्च न्यायालयों को ऑनर किलिंग के मामलों में फांसी देने के निर्देश दे डालते हैं, या जब फर्जी एनकाउंटर में आरोपित पुलिस वालों को फांसी देने की बात करते हैं. जस्टिस काटजू का जोश में आकर ऐसे बयान देना इतना चर्चित हो चुका था कि सर्वोच्च न्यायालय के एक अधिवक्ता बताते हैं, ‘अक्सर पत्रकार उनकी अदालत में आकर बैठ जाते थे कि न जाने कब वे कुछ बोल जाएं और उन्हें अगले दिन की हेडलाइन मिल जाए. इसीलिए वे जज रहते हुए भी इतने चर्चित रहे हैं.’ ऐसे ही जोश में बोलने पर जस्टिस काटजू तब भी विवाद खड़ा कर चुके हैं जब सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश रहते हुए वे कोर्ट में बोल पड़े थे, ‘बीवी की हर बात सुना करो. यह समझने की कोशिश मत करो कि वह बात सही है या नहीं. बस उसे चुपचाप सुन लिया करो. हम सब भोगी हैं.’ लेकिन आपको यह भी बता दें कि उनके ऐसे बयानों के बीच भी उनकी बौद्धिकता की तारीफ हमेशा हुई है. इसीलिए उनके कोर्ट के किस्से अगर मनोरंजक हैं तो उनके फैसलों में बौद्धिकता की छौंक भी खूब देखने को मिलती है. भारत के अटॉर्नी जनरल जीई वाहनवती का उनके कोर्ट के बारे में कहना था, ‘जस्टिस काटजू के कोर्ट में एक पल भी सुस्ती भरा या मंद नहीं होता था.’

जस्टिस काटजू के बारे में कोई राय बनाना इसलिए भी मुश्किल हो जाता है कि विरोधाभास उनके जीवन के हर पहलू में आपको नजर आते हैं. जब वे उड़ीसा सरकार को फटकारते हुए कहते हैं, ‘यदि तुम अल्पसंख्यकों को संरक्षण नहीं दे सकते तो त्यागपत्र दे दो’, तो आपको यह महसूस होता है कि वे अल्पसंख्यकों के अधिकारों और उनके संरक्षण के प्रति बहुत ही समर्पित हैं. यही एहसास वे आपको तब भी करवाते हैं जब हज यात्रा के लिए दी जाने वाली सब्सिडी को असंवैधानिक घोषित करने की याचिका को वे ठुकरा देते हैं और फैसले में स्पष्ट करते हैं कि कैसे एक विशेष समूह को दी जाने वाली यह रियायत बिल्कुल संवैधानिक है. लेकिन धार्मिक अल्पसंख्यकों को संरक्षण देने वाले उनके व्यवहार पर तब आपको कुछ संदेह जरूर होता है जब वे मध्य प्रदेश के छात्र मोहम्मद सलीम की याचिका को खारिज कर देते हैं. मोहम्मद सलीम मध्य प्रदेश के निर्मला कॉन्वेंट हाई स्कूल का एक छात्र था. इस छात्र को स्कूल से इसलिए निकाल दिया गया था कि उसने अपनी दाढ़ी कटवाने से इनकार कर दिया था. स्कूल के इस फैसले के खिलाफ सलीम जस्टिस काटजू की अदालत में पहुंचा. जस्टिस काटजू ने उसकी याचिका को ठुकराते हुए कहा, ‘मुस्लिम छात्रों को दाढ़ी बढ़ाने की अनुमति हम नहीं दे सकते. ऐसा करने से देश का तालिबानीकरण होगा.’ इस बयान पर देश भर में विवाद हुआ. बाद में जस्टिस काटजू ने अपना यह फैसला वापस लेते हुए कहा कि हमारा उद्देश्य किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का नहीं था.

विरोधाभासों का यह सिलसिला जस्टिस काटजू के वर्तमान कार्यकाल में दिए हाल के बयानों में भी दिखता है. एक तरफ वे सचिन तेंदुलकर के सौवें शतक और देव आनंद की मौत को टीवी पर ज्यादा समय दिए जाने का पुरजोर विरोध करते हैं तो दूसरी तरफ सन्नी लिओन के समर्थन में उतरते हुए भी नजर आते हैं. इन तमाम बातों के बाद भी आप एक बात तो उनके बारे में मान ही सकते हैं कि जस्टिस काटजू एक ऐसी लहर है जो हमेशा मुख्यधारा के विपरीत ही बहती है. जब सारा देश अन्ना हजारे के पीछे होता है तो वे इसके विपरीत बात करते हैं. जब दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार पर देश के युवा सड़कों पर लाठियां खाते हैं तो वे कहते हैं कि इनके लिए बलात्कार ही देश की सबसे बड़ी समस्या बन गई है, जबकि हकीकत कुछ और है. वे लगभग देश में चल रही हर बहस में शामिल हैं और कई बहस तो स्वयं उनसे ही शुरू होती हैं. उनके बयान अक्सर कोई न कोई विवाद खड़ा कर ही देते हैं. इस संदर्भ में वे अपनी सफाई देते हुए लिखते हैं, ‘मैं विवादों से दूर रहना चाहता हूं. लेकिन मेरी एक कमजोरी है कि मैं देश को गिरते हुए देखकर भी शांत नहीं रह सकता. भले ही बाकी लोग गूंगे और बहरे हों लेकिन मैं नहीं हूं. इसलिए मैं तो बोलूंगा. जैसा कि फैज़ साहब ने कहा है कि बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे, बोल कि जुबां अब तक तेरी है.’  हमारे शास्त्रों में भी कहा गया है, सत्यं ब्रूयात, प्रियं ब्रूयात, न ब्रूयात सत्यं अप्रियं. इसका मतलब है कि सत्य बोलो, प्रिय बोलो लेकिन अप्रिय सत्य मत बोलो. मैं इसमें कुछ बदलाव करना चाहता हूं. आज देश के हालात ऐसे हैं कि हमें कहना चाहिए ब्रूयात सत्यं अप्रियं मतलब अप्रिय सत्य भी बोलो.’ और यह व्याख्या करते हुए उन्होंने एक ऐसा ही ‘अप्रिय सत्य’ बोल डाला कि 90 प्रतिशत भारतीय मूर्ख हैं. इस बयान के साथ ही जस्टिस काटजू एक बार फिर से देश भर में चर्चा का विषय बन गए. बल्कि इस बार तो लखनऊ के दो छात्रों ने उन्हें इस बयान के लिए कानूनी नोटिस भी भेज दिया. जस्टिस काटजू ने फिर सफाई देते हुए बताया कि किस आधार पर वे 90 प्रतिशत भारतीयों को मूर्ख बता रहे हैं .

‘अध्यक्ष बनने के बाद जस्टिस काटजू ने प्रेस परिषद को एक जुबान दे दी. आज से पहले कितने लोग होंगे जो प्रेस परिषद के बारे में जानते थे’

जस्टिस काटजू के बयानों से आप चाहें तो लखनऊ के छात्रों की तरह नाराज हो सकते हैं या फिर आप भी उन 90 प्रतिशत भारतीयों में शामिल हो सकते हैं जिन्होंने खुद को जस्टिस काटजू के 10 प्रतिशत समझदार लोगों में मानते हुए विवाद को शांत होने दिया. जस्टिस काटजू के ऐसे बयानों के बारे में सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष प्रवीण पारिख बताते हैं, ‘जस्टिस काटजू बहुत ज्यादा बोलते हैं. अब जो व्यक्ति इतना ज्यादा बोलेगा वह विवाद तो पैदा करेगा ही. वैसे वे बहुत ही ज्ञानी व्यक्ति हैं और कई मुद्दों पर उनकी जो समझ है उसका कोई मुकाबला नहीं. जस्टिस काटजू दिल के साफ हैं लेकिन बोलते बहुत ज्यादा हैं.’

बीते कुछ दिनों से जस्टिस काटजू के बारे में यह भी कहा जाने लगा है कि वे कांग्रेस के पक्षधर हैं और सिर्फ गैरकांग्रेसी सरकारों पर ही टिप्पणी करते हैं. गुजरात में हो रहे विकास को दिखावा बताते हुए उन्होंने मोदी सरकार की जमकर निंदा की है. नरेंद्र मोदी पर सवाल उठाता उनका एक लेख सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पकिस्तान के अखबार में भी छपा. इस पर भाजपा ने उन पर आरोप लगाया कि काटजू पाकिस्तान की भाषा बोल रहे हैं. इसके साथ ही बिहार के बारे में टिप्पणी करते हुए काटजू ने लिखा कि वहां प्रेस को कुछ भी लिखने की अनुमति नहीं है और बिहार सरकार विज्ञापनों का लालच देकर वहां की प्रेस को नियंत्रित कर रही है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को तो उन्होंने यह तक कह डाला कि वे नंद वंश के आखिरी शासक घनानंद की तरह काम कर रहे हैं और यदि समय रहते वे नहीं सुधरे तो उनकी भी हालत घनानंद जैसी ही होना तय है. ऐसे बयानों पर भाजपा ने उन पर आरोप लगाए कि वे इसलिए गैरकांग्रेसी सरकारों पर हमला कर रहे हैं क्योंकि वे कांग्रेस सरकार का एहसान उतार रहे हैं. अरुण जेतली उनके बारे में कहते हैं कि कांग्रेस सरकार ने उन्हें रिटायर होने के बाद प्रेस परिषद का अध्यक्ष बनाकर उपकृत किया है और वे इसी के एवज में भाजपा पर हमला कर रहे हैं. इस बारे में वरिष्ठ अधिवक्ता वीएस सिंह बताते हैं, ‘काटजू कांग्रेस सरकार की भी उतनी ही निंदा करते हैं जितनी कि गैर-कांग्रेसी सरकारों की. लेकिन जब उन पर ये आरोप लगे कि वे कांग्रेस के खिलाफ नहीं बोलते और कांग्रेस के नेताओं ने जस्टिस काटजू का बचाव किया तो यह बात और ज्यादा उनके खिलाफ चली गई. लोगों को लगा कि कांग्रेस के लोग यदि काटजू का बचाव कर रहे हैं तो जरूर उनका कोई आपसी संबंध होगा.’ वैसे आप उनके कुछ बयानों में कांग्रेसी पक्षधरता देख सकते हैं, लेकिन यह भी सत्य है कि उन्होंने महाराष्ट्र, दिल्ली और केंद्र की कांग्रेसी सरकार पर भी जमकर प्रहार किए हैं. बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद जब महाराष्ट्र की दो लड़कियों को सिर्फ फेसबुक पर कुछ टिप्पणी करने पर गिरफ्तार कर लिया गया था तो जस्टिस काटजू ने ही सबसे पहले इसका मुखर विरोध किया था. अन्ना हजारे के आंदोलन के समर्थन में कार्टून बनाने वाले असीम त्रिवेदी की गिरफ्तारी हो या अफज़ल गुरु की फांसी पर इफ्तिखार गिलानी की गिरफ्तारी, मानवाधिकार उल्लंघन के ऐसे मामलों पर सबसे पहले बोलने वालों में से काटजू भी एक बड़ा नाम रहे हैं.

जस्टिस काटजू को समझने में आप इसलिए भी भूल कर सकते हैं कि उनसे जुड़ी कई बातें शायद आप तक पहुंची ही न हों. मसलन ज्यादातर लोगों को यह तो पता है कि जून, 2011 में सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश रहते हुए उन्होंने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा था. इस पत्र में उन्होंने प्रधानमंत्री से अपील की थी कि पाकिस्तानी कैदी खलील चिश्ती को रिहा कर दिया जाए. उनका कहना था कि चिश्ती की उम्र बहुत ज्यादा है और मद्रास उच्च न्यायालय से उनका फैसला होने से पहले उनकी मृत्यु भी हो सकती है. खलील चिश्ती हत्या के आरोपित थे और कई साल से भारत में कैद थे. यह पत्र उन्होंने व्यक्तिगत हैसियत से प्रधानमंत्री को लिखा था. भाजपा ने इस बात की निंदा की. रविशंकर प्रसाद ने इस पत्र के संबंध में कहा, ‘यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सर्वोच्च न्यायालय का एक न्यायाधीश प्रधान मंत्री से एक पाकिस्तानी कैदी की रिहाई की मांग कर रहा है. भले ही वे व्यक्तिगत हैसियत से यह पत्र भेज रहे हों लेकिन एक हत्या के आरोपी की ऐसी सिफारिश करना गलत है.’ मीडिया में भी इस पत्र की काफी चर्चा हुई. लेकिन जब इसी तरह का एक पत्र उन्होंने पाकिस्तान सरकार को एक भारतीय कैदी की रिहाई के लिए लिखा तो उसकी चर्चा न के बराबर ही हुई. 2010 में जस्टिस काटजू ने पाकिस्तान सरकार को एक पत्र लिखा था. यह पत्र गोपाल दास की रिहाई से संबंधित था जो पिछले 27 साल से पाकिस्तान में जासूसी के आरोप में कैद थे. जस्टिस काटजू ने इस संबंध में कहा कि पाकिस्तान सरकार को निर्देश देना तो हमारे क्षेत्राधिकार में नहीं है लेकिन हम उनसे अपील जरूर कर सकते हैं. अपनी अपील में उन्होंने मानवता के आधार पर गोपाल दास को रिहा करने की बात कही. साथ ही उन्होंने अपने पत्र में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की पंक्तियों का जिक्र करते हुए लिखा, ‘कफ़स उदास है, यारो सबा से कुछ तो कहो. कहीं तो बहर-ए-खुदा आज जिक्र-ए-यार चले.’ पाकिस्तान सरकार ने इस पत्र का संज्ञान लिया और राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने गोपाल दास की सजा माफ़ करते हुए उन्हें रिहा कर दिया.

जब से काटजू भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष बने हैं तब से शायद ही कोई ऐसा महीना बीता हो जब उनका नाम सुर्खियों में न रहा हो. प्रेस परिषद के सदस्य राजीव रंजन नाग इसको सकारात्मक पहलू से देखते हुए बताते हैं, ‘जस्टिस काटजू ने इतना तो जरूर कर दिया है कि प्रेस परिषद को एक जुबान दे दी है. आज से पहले लोग प्रेस परिषद् के बारे में कितना सुनते थे? आज आलम यह है कि हर किसी की जुबान पर जस्टिस काटजू और प्रेस परिषद का नाम है.’ राजीव जी की इन बातों से आप जस्टिस काटजू की सकारात्मक छवि देख सकते हैं या फिर प्रेस परिषद के ही एक अन्य सदस्य प्रकाश जावडेकर की बातों से आप काटजू का दूसरा पक्ष भी देखने की कोशिश कर सकते हैं. प्रकाश जावड़ेकर कहते हैं, ‘प्रेस परिषद के अध्यक्ष के पद पर रहते हुए उनके द्वारा ऐसे राजनीतिक बयान देना उचित नहीं हैं. उन्हें यदि राजनीति करनी है तो हमें कोई परेशानी नहीं लेकिन एक अर्धन्यायिक पद पर रहते हुए उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए. मुद्दा यह नहीं है कि ऐसे बयान देने पर या लेख लिखने पर कानूनन उनको रोका जा सकता है या नहीं. लेकिन क्या आपने कभी किसी न्यायाधीश को इस तरह के राजनीतिक बयान देते देखा है? वे ऐसे दोहरे मापदंड नहीं अपना सकते कि कभी कहें मैं भारतीय नागरिक होने की हैसियत से लिख रहा हूं और कभी कहें कि मैं तो भारतीय प्रेस परिषद का अध्यक्ष हूं.’

जस्टिस काटजू ने पिछले कुछ समय में लगभग हर मुद्दे पर अपनी राय रखी है. कभी उन्होंने 90 प्रतिशत भारतीयों को मूर्ख बताया तो कभी ममता बनर्जी को तानाशाह कहा. कभी नीतीश कुमार को घनानंद घोषित किया तो कभी कहा कि राजेश खन्ना जिंदा हैं या नहीं इससे क्या फर्क पड़ता है. कश्मीर समस्या का समाधान भी वे अलग ही तरीकों से देखते हैं. वे कहते हैं ‘इस समस्या का समाधान सिर्फ भारत-पकिस्तान विलय में है और मैं टू नेशन थ्योरी  में बिल्कुल भी विश्वास नहीं करता.’ उनके ऐसे बयानों से आप यह भी मान सकते हैं कि वे सिर्फ प्रचार के लिए ही ऐसे बयान देते हैं. या फिर उनके बयानों की गहराई में जाते हुए आप उनमें तर्क भी ढूंढ़ सकते हैं. जस्टिस काटजू को जानने वाले लोग बताते हैं कि वे बहुत ज्यादा पढ़ते हैं. सिर्फ कानून और न्यायशास्त्र की ही नहीं बल्कि उन्हें संस्कृत, उर्दू, इतिहास, विज्ञान, दर्शनशास्त्र और समाजशास्त्र की भी गहरी जानकारी है. राजीव रंजन कहते हैं, ‘मैं जस्टिस काटजू का कोई भक्त नहीं हूं लेकिन उनकी कई विषयों पर जो जानकारी है उसका कोई मुकाबला नहीं. अन्य न्यायाधीशों को आम तौर पर कानून की ही जानकारी होती है लेकिन जस्टिस काटजू और भी कई विषयों को गहराई से समझते हैं. यही कारण है कि वे हर मुद्दे पर अपनी राय रखते हैं. उनके हर बयान और टिप्पणी के पीछे मजबूत तर्क होते हैं जिन्हें आप नकार नहीं सकते. उन्होंने जब यह भी कहा कि 90 प्रतिशत भारतीय मूर्ख हैं तो उसमें भी उनके तर्क समझने लायक थे. उन्होंने बताया कि सिर्फ जाति के आधार पर फूलन देवी जैसे लोग संसद तक पहुंच जाते हैं तो उनको वोट देने वाले मूर्ख नहीं तो क्या हैं. जब ऐसे लोग ही संसद में आएंगे तो कानून भी वैसा ही बनाएंगे जैसे वे स्वयं हैं.’

इन सब जानकारियों के आधार पर आप जस्टिस काटजू को ज्ञानी, बेबाक, दूरदर्शी, बातूनी, प्रचार का भूखा या संयमहीन कुछ भी मान सकते हैं. लेकिन अब भी आप यदि उनको ठीक से नहीं समझ पाए हैं तो आपको उनका एक और सबसे नया किस्सा भी बता दें. तहलका ने जब उनके जीवन पर आधारित स्टोरी करने का विचार किया तो उनसे साक्षात्कार के लिए समय लेना चाहा. उनके सचिव एसपी शर्मा ने इस संवाददाता से कहा, ‘जस्टिस काटजू सिर्फ तरुण तेजपाल या फिर शोमा चौधरी(तहलका की अंग्रेजी पत्रिका की प्रबंध संपादक) से ही बात करेंगे. इसलिए उन दोनों में से कोई भी उनसे आकर मिल सकता है.’ ऐसा जवाब मिलने पर हमने जस्टिस काटजू को एक ईमेल के जरिए संदेश पहंुचाया, ‘हमने सुना था कि आप जज रहते हुए भी नए वकीलों को पूरा मौका देते थे और उन्हें अपने सामने बहस करने के लिए प्रोत्साहित करते थे. फिर आप अपने साक्षात्कार के लिए सिर्फ तरुण तेजपाल या शोमा चौधरी से ही क्यों मिलना चाह रहे हैं?’ हमने उनसे एक बार फिर से आग्रह किया कि वे कुछ समय निकाल कर हमसे बात करें. इसके जवाब में उन्होंने अपना निजी नंबर देते हुए कहा कि मुझसे इस नंबर पर संपर्क कर सकते हो. संपर्क करने पर उनका कहना था, ‘मैं अपने जीवन से संबंधित विषय पर साक्षात्कार नहीं देना चाहता. वैसे ही लोग मुझ पर यह आरोप लगाते हैं कि मैं सिर्फ चर्चाओं में रहने के लिए ही बयान देता हूं. इसलिए मुझे इस विषय पर बात नहीं करनी.’ हमारे इस आग्रह पर कि वे हमसे कुछ मिनट मिल ही लें, उनका कहना था,  ‘अगर मिलना है तो तहलका से तरुण तेजपाल या शोमा चौधरी मुझसे मिलें. मैं और किसी से बात नहीं करुंगा.’ हमने उन्हें बताया कि हम लोग हिंदी पत्रिका के लिए यह आवरण कथा कर रहे हैं और इस संबंध में उनसे कौन मिलेगा इसका फैसला तो संपादक का होगा तो उनका जवाब था, ‘मुझ पर लेख करना है तो इंग्लिश और हिंदी दोनों के लिए साथ में करो. इसके लिए उन दोनों में से कोई भी मुझसे आकर मिल सकता है.’

जस्टिस काटजू के साथ तहलका के इस अनुभव से शायद आपको उन्हें समझने में कुछ सहायता हो जाए. वैसे यदि अब भी आप उन्हें नहीं समझ पाए हैं तो जस्टिस काटजू, जिन्हें कई लोग दूरदर्शी भी मानते हैं, पहले ही यह बोल चुके हैं कि 90 प्रतिशत भारतीय मूर्ख हैं.

(15 मार्च 2013)

शुभश्री पांडा: पुलिस ने सब्यसाची की बजाय किसी और को गिरफ्तार किया है

Subhashree-Panda
हाल ही में गिरफ्तार हुए सीनियर माओवादी नेता सब्यसाची पांडा की पत्नी शुभश्री पांडा. फोटो: विजय पांडेय

सीनियर माओवादी नेता सब्यसाची पांडा की गिरफ्तारी पर प्रश्न उठने लगे हैं. उड़ीसा पुलिस के डीआईजी अमिताभ ठाकुर ने शुक्रवार को ब्रह्मपुर में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस करके सब्यसाची पांडा की गिरफ्तारी की घोषणा की थी. लेकिन अब इस गिरफ्तारी पर सब्यसाची की पत्नी शुभश्री पांडा ने कुछ सवाल खड़े कर दिए हैं. तहलका से बातचीत में उन्होंने बताया, ‘मैं, मेरी बेटी, सब्यसाची के बड़े भाई, सारे लोग भुवनेश्वर से ब्रह्मपुर उनसे मिलने गए थे, लेकिन पुलिस ने हमें वापस भेज दिया. आप ही बताइए परिवार के सदस्यों की शिनाख्त के बिना कैसे मान सकते हैं कि पुलिस ने किसे गिरफ्तार कर रखा है. पुलिस कह रही है कि हम लोग पुलिस रिमांड खत्म होने के बाद ही उनसे मिल सकते हैं.’तहलका ने उनसे जब यह पूछा कि उन्हें ऐसा क्यों लगता है कि पुलिस ने सब्यसाची को गिरफ्तार नहीं किया है तब उनका जवाब था, ‘कल से यहां मीडिया में और टीवी पर पुलिस के हवाले से जो खबरें और फोटो दिखाई जा रही है वे सब्यसाची की नहीं हैं. इसलिए हमें लगता है कि पुलिस गलत बोल रही है.’

शुभश्री के इस बयान के बाद पुलिस के दावे पर कुछ संदेह अवश्य खड़े हो जाते हैं साथ ही उड़ीसा पुलिस के ऊपर इस बात का दबाव भी बन गया है कि वह सब्यसाची पांडा की गिरफ्तारी की तथ्यात्मक तरीके से पुष्टि करे. तहलका से बातचीत में शुभश्री कहती हैं, ‘अगर वास्तव में पुलिस ने सब्यसाची को गिरफ्तार किया है तो वह उन्हें हमारे सामने लाए. हम जो भी इस देश की कानूनी प्रक्रिया है उसके मुताबिक काम करेंगे. मैं खुद लंबे समय से उन्हें मुख्यधारा में लाने की कोशिश कर रही थी लेकिन कुछ लोगों के राजनीतक स्वार्थ के कारण हम सफल नहीं हो सके.’

पचास वर्षीय सब्यसाची पांडा माओवादी नेताओं में काफी वरिष्ठ है. उसके पिता रमेश पांडा स्वतंत्रता संग्राम के सेनानी थे. 1991 में नक्सली आंदोलन के साथ जुड़ने के बाद उसने कुइ लेवांग संघ बनाया जो आगे चलकर पीपुल्स वार ग्रुप का मुख्य चेहरा बना. 2001 में पीडब्ल्यूजी ने आंध्र-उड़ीसा बॉर्डर स्पेशल जोन कमेटी बनाकर सब्यसाची को उड़ीसा का प्रमुख बना दिया. इस पद पर रहते हुए सब्यसाची ने दक्षिण उड़ीसा के कंधमाल, गजपति और गंजाम जिलों में नक्सली आंदोलन को आगे बढ़ाया. उसके जीवन में अहम मोड़ आया 2008 में जब उसकी अगुवाई में माओवादियों ने कंधमाल में विश्व हिंदू परिषद के नेता लक्ष्मणानंद सरस्वती और उनके पांच समर्थकों की हत्या कर दी. इसके बाद सीपीआई (माओवादी) ने सब्यसाची को पदावनत कर दिया. उस वक्त वह सीपीआई माओवादी का सचिव था. 2012 में उसे पार्टी से ही निष्कषित कर दिया गया. तब से उसके आत्मसमर्पण की खबरें आ रही थी.

बीते शुक्रवार को उड़ीसा पुलिस द्वारा सब्यसाची पांडा की गिरफ्तारी की घोषणा को पुलिस बलों और खुफिया विभाग की बड़ी कामयाबी के रूप में देखा जा रहा था लेकिन सब्यसाची की पत्नी शुभश्री ने इस पर सवाल उठाकर पुलिस की विश्वसनीयता को कटघरे में खड़ा कर दिया है.