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निरुत्तर प्रदेश

जब पाकिस्तान से बात हो सकती है, तब किसानों से क्यों नहीं? मशहूर शायर और फिल्म लेखक जावेद अख्तर ने जब लखनऊ में भट्टा-पारसौल के किसान आंदोलन के सिलसिले में यह बात कही तब शायद उन्हें यह याद नहीं रहा होगा कि उत्तर प्रदेश में आखिर हुकूमत किसकी है? क्योंकि हर कोई यह जानता है कि उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती या उनकी सरकार से ऐसी कोई लोकतांत्रिक उम्मीद करना उतना ही बेमानी है, जिस तरह रेत से पानी निकालना.

मायावती उत्तर प्रदेश में इस बार चार साल पूरे कर चुकी हैं. सरकारी विज्ञापनों में उनकी सरकार को सर्वजन की सरकार कहा जाता है, मगर हकीकत यह है कि इन चार वर्षों में इस सरकार ने कोई एक भी ऐसा काम नहीं किया जो उनकी सरकार को सर्वजन की साबित करता हो. जब मायावती चुनाव मैदान में थीं तो उनका नारा था, ‘चढ़ गुंडन की छाती पर, मोहर लगेगी हाथी पर’ लेकिन वे गद्दीनशीन क्या हुई, इस नारे के मायने ही बदल गए. अब गुंडन का अर्थ ‘जनता’ हो गया है जिसकी छाती पर चढ़ने के लिए मायावती के पास पुलिस का डंडा है और जिसकी सवारी का मजा अब सिर्फ मायावती ही नहीं, उनकी पूरी सरकार ले रही है. पूरी पार्टी ले रही है.

लेकिन इस मजे की भनक किसी और के कानों में भी न पड़े, इसका भी पूरा इंतजाम है. जानकार बताते हैं कि लोकतंत्र के विभिन्न खंभों से लेकर मीडिया तक, हर जगह ‘मैनेज’ करने वाले मैनेजरों की एक पूरी टीम मायावती के साथ है. वे जैसा चाहती हैं वैसा ही होता है. लेकिन कभी-कभी ‘मैनेज’ करने की हर संभव कोशिशों के बाद भी चूकें हो ही जाती हैं. भट्टा-पारसौल में किसानों के विरोध के मामले में भी ऐसा ही हुआ है. शायद इसलिए कि ग्रेटर नोएडा दिल्ली के बेहद करीब है और तमाम टीवी न्यूज चैनलों के दफ्तर भी नोएडा में ही हैं. मायावती सरकार का जो दमनकारी, निष्ठुर, बर्बर और अलोकतांत्रिक चेहरा भट्टा-परसौल में दिखाई दिया है  वही इस सरकार का असली चरित्र है और उत्तर प्रदेश की जनता पिछले चार वर्षों से ऐसा ही देखते-सहते चली आ रही है.

किसान साफ समझ रहा है कि जिस भाव से जमीन उससे ली जा रही है, उनका धंधा करने वाले उससे कई-कई गुना ज्यादा कमा रहे हैं

भट्टा-पारसौल में किसान करीब 100 दिन से धरना दे रहे थे. अपनी मांगों के लिए आवाज उठा रहे थे. मगर उत्तर प्रदेश सरकार के नक्कारखाने में भला उनकी तूती की आवाज कौन सुनने वाला था. इसलिए इन 100 दिनों में सरकार के किसी भी प्रतिनिधि ने किसानों की समस्याओं को सुनकर उनका समाधान करने की कोई पहल नहीं की. मगर जब शनिवार को हिंसा में पांच लोगों की मौत के बाद स्थिति विस्फोटक हो गई तब सरकार ने दमन का ऐसा बर्बर चक्र शुरू कर दिया कि बेचारे किसान उसमें महाभारत के अभिमन्यु की तरह फंसकर रह गए. सैकड़ों ग्रामीणों को पुलिसिया आतंक से भयभीत होकर गांव छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा. दर्जनों लोगों के हाथ-पैर तोड़ डाले गए. घरों के दरवाजे, भांड़े-बर्तन, स्कूटर, मोटरसाइकिल, ट्रैक्टर, पंप-इंजन, खेत और खलिहान सब कुछ पुलिस की नृशंसता की भेंट चढ़ गए. किसानों के नेता मनवीर सिंह तेवतिया को 50 हजार रुपये का इनामी अपराधी घोषित कर दिया गया. कई अन्य लोगों को भी इनामी अपराधी बना दिया गया. मायावती की कृपा से राज्य के पुलिस मुखिया बनने को आतुर एक विशेष पुलिस महानिदेशक ने पत्रकारों के सामने रहस्योद्घाटन किया कि मनवीर सिंह तो पुराना अपराधी है. उस पर हत्या, बलवा, लूटमार आदि के 19 मुकदमे दर्ज हैं. उसका एक गैंग भी है. उसने घटनास्थल पर भारी मात्रा में अवैध हथियार भी जमा कर रखे थे. हालांकि जब पत्रकारों ने उनसे पूछा कि अगर यह सब सच है तो पुलिस ने अब तक तेवतिया के खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की, तो विशेष पुलिस महानिदेशक बगलें झांकते नजर आए. दरसल भट्टा-पारसौल की घटनाओं ने साबित कर दिया है कि मायावती की पुलिस किसी भी हद तक जा सकती है. मनवीर सिंह तो बहुत ही छोटी मछली हैं. सूबे की सर्व शक्तिमान सर्वजन सरकार के सामने टिक पाना उनके लिए आसान काम नहीं होगा.

शनिवार की हिंसा के बाद अगले दिन जो तांडव पुलिस ने भट्टा पारसौल, मुतैना और अच्छेपुर गांवों में किया, उसकी असलियत खुल न जाए इसलिए उस इलाके में मीडिया के प्रवेश तक को प्रतिबंधित कर दिया गया. हालांकि इन गांवों में सिर्फ धारा 144 लागू थी और सामान्यतः कर्फ्यू अथवा आतंकी हमले जैसी स्थितियों में भी मीडिया को विशेष अनुमति या पास के जरिए ऐसे इलाकों में जाने की छूट होती है. लेकिन भट्टा-परसौल को इस तरह सील कर दिया गया कि वहां का कोई भी सच बाहर न आ सके. लोकतांत्रिक संस्थाओं का इतना सम्मान भीमराव अंबेडकर के नाम पर राजनीति की रोटियां सेंकने और चौराहे-चौराहे उनकी मूर्तियां लगवाने वाली मायावती सरकार ही कर सकती है. बावजूद इसके जब तहलका सहित तमाम मीडिया संस्थानों ने छापामार तरीके से भट्टा-पारसौल पहुंचकर मौके की हकीकत देखी तो राज्य सरकार के दमन का असली चेहरा साफ होने लगा.

विडंबना देखिए कि जो प्रदेश सरकार इन दिनों विज्ञापन अभियान चला कर ‘किसान भाइयों से अपनी मिट्टी को पहचानने’ का आह्वान कर रही है, वही सरकार बिल्डरों और भू-माफियाओं के हाथों में खेल कर किसानों को उनकी जमीन से उखाड़ फेंकने का अभियान चला रही है. यमुना एक्सप्रेस वे के लिए 43,000 हेक्टेयर, इसके साथ की टाउनशिप के लिए 40,000 हेक्टेयर, गंगा एक्सप्रेस वे के लिए 30,000 एकड़, ग्रेटर नोएडा के लिए 2,400 एकड़, कुशीनगर में बौद्ध परिपथ आदि के लिए 2,100 एकड़ और लखनऊ के आसपास बिल्डरों के लिए 1,200 एकड़ जमीन अधिगृहीत की जा चुकी है या अधिग्रहण की तैयारी है. इलाहाबाद के आसपास भी ऐसा ही चल रहा है और बरेली, मेरठ, मुरादाबाद आदि जगहों पर भी. इनमें से ज्यादातर जमीन खेती की है. किसान साफ समझ रहा है कि सरकार डंडे के जोर पर उसे बर्बाद कर रही है, लूट रही है. जिस भाव से जमीन उससे ली जा रही है, उनका धंधा करने वाले उससे कई-कई गुना ज्यादा कमा रहे हैं. यही किसान के असंतोष की असली वजह है. लेकिन सरकार इसे मानने को तैयार नहीं, सरकार की नजर में किसान खुशी-खुशी अपनी जमीन देने को तैयार है. नेता उसे बेवजह बहका रहे हैं.

मायावती सरकार पर निरंकुशता का दंभ इस कदर हावी है कि शनिवार की भयावह हिंसा के बाद भी जनता के बीच जाकर लोगों के जख्म सहलाने की कोई कोशिश सरकार की ओर से नहीं हुई. मुख्यमंत्री मायावती तो आखिर सूबे की महारानी ही हैं मगर उनका कोई बड़ा दरबारी, कोई मंत्री या कोई उच्च अधिकारी भी जनता को राहत देने के लिए वहां नहीं भेजा गया. राज्य के कैबिनेट सचिव लखनऊ में पत्रकारों के बीच हर रोज प्रकट होते रहे और मायावती की ओर से प्रेस नोट पढ़ते रहे कि भट्टा-पारसौल में कोई समस्या नहीं है. वहां मुआवजे का कोई विवाद नहीं है और मनवीर तेवतिया बहुत बड़ा अपराधी है आदि-आदि. लेकिन जब राहुल गांधी ने भट्टा-पारसौल में ही रुकने की घोषणा कर डाली तो येन केन प्रकारेण उन्हें दिल्ली की सीमा तक छोड़कर राज्य सरकार डैमेज कंट्रोल में जुट गई और मायावती को खुद ही आकर मीडिया से मुखातिब होना पड़ा. मीडिया के सामने प्रेस नोट पढ़ते हुए मायावती ने एक बार फिर खंभा नोचने की कोशिश की और फिर दोहराया कि भट्टा-पारसौल में मुआवजे का कोई विवाद नहीं था. जमीन ग्रेटर नोएडा अथॉरिटी अधिकारी ने ली थी. मुआवजा 2009 में ही दे दिया गया था. यानी वहां कोई समस्या थी ही नहीं. शायद तेज धूप और लू का असर होगा कि किसान धरने पर बैठ-बैठ कर बेकाबू हो गए और मरने-मारने पर उतारू हो गए. मायावती ने दो और बातें भी कहीं. एक यह कि विपक्षी दलों के पास उनकी सरकार के खिलाफ कोई मुद्दा ही नहीं है इसलिए वे इस तरह की हरकत कर रहे हैं और इस मुद्दे को हवा दे रहे हैं. दूसरी बात यह है कि जमीन ग्रेटर नोएडा अथॉरिटी ने अधिगृहीत की है यानी यह जमीन मायावती सरकार के बिल्डर सहयोगी जेपी ग्रुप आदि के लिए नहीं ली गई है.

मायावती का लोकतंत्र में कितना विश्वास है इसका अंदाज उनके इसी बयान से लग जाता है कि राहुल गांधी की अपने घर में कुछ चल नहीं रही इसीलिए उन्होने भट्टा-पारसौल में जाने की ओछी और घिनौनी हरकत की. इसमें कोई शक नहीं कि राहुल गांधी की पार्टी के राज वाले महाराष्ट्र सरीखे और भाजपा के राज वाले कई प्रदेशों में भी जमीन अधिग्रहण को लेकर ऐसे ही विरोध प्रदर्शन आदि हो रहे हैं. और फिर अंग्रेजों के बनाए भूमि अधिग्रहण कानून को बदलना भी केंद्र यानी राहुल गांधी की सरकार के ही हाथों में है. लेकिन फिर भी वे कम से कम जनता के सामने गए तो. जनता अगर चाहती तो उनके सामने अपना गुस्सा जाहिर कर सकती थी.  लेकिन मायावती ने उनके भट्टा-पारसौल जाने को ओछी और  घिनौनी हरकत कहा. शायद इसीलिए मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने जनता की ओर देखना ही छोड़ दिया है. और शायद इसीलिए कुछ महीने पहले जिलों के दौरों के दौरान उनके गुजरने से पहले सारे इलाकों को सील कर दिया जाता था. लोगों को घरों में बंद कर दिया जाता था, बाजार-दुकान सब बंद करवा दिए जाते थे और उसके बाद भी अगर कोई दुखियारा अपनी व्यथा कहने के लिए मुख्यमंत्री से मिलने की कोशिश करता तो उसे सुरक्षा में सेंध या शांति भंग की आशंका में अंदर डाल दिया जाता.

पुलिस के बल पर या पुलिस द्वारा गुंडागर्दी मायावती राज में पहली बार नहीं हो रही है. लखनऊ में मायावती सरकार द्वारा नगर निकायों की चुनाव प्रक्रिया को अपने पक्ष में बदलने के मनमाने फैसले के विरोध में राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ताओं पर जिस बर्बर ढंग से लाठियां तोड़ी गई थीं, उस घटना को अभी बहुत ज्यादा समय नहीं बीता है. इस वाकये में एक आईपीएस अधिकारी ने जिस तरह से विधान भवन के ठीक सामने एक कार्यकर्ता को बुरी तरह पीटने के बाद उसकी छाती पर पैर रखकर तस्वीर खिंचवाई थी, वह मायावती सरकार के लोकतांत्रिक तौर-तरीकों का एक बड़ा उदाहरण था. अखबारों में तस्वीरें छपने और काफी थू-थू होने के बावजूद मायावती सरकार ने उस अधिकारी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की. जब एक मानवाधिकार कार्यकर्ता ने इस मामले में हाई कोर्ट में याचिका दायर की तो सरकार ने उस अधिकारी को और अधिक महत्वपूर्ण पद से नवाज दिया.

सरकार पर निरंकुशता का दंभ इस कदर हावी है कि भयावह हिंसा के बाद भी जनता के बीच जाकर लोगों के जख्म सहलाने की कोई कोशिश नहीं की गई

औरैया में कुछ वर्षों पूर्व इंजीनियर मनोज गुप्ता की हत्या के मामले में निचली अदालत ने बसपा के विधायक शेखर तिवारी के साथ-साथ स्थानीय थानाध्यक्ष को भी आजीवन कारावास की सजा सुनाई है. यह हत्याकांड मायावती के जन्मदिन के ठीक पहले हुआ था और हर ओर यही चर्चा थी कि मायावती के जन्मदिन पर तोहफा देने के लिए की जा रही वसूली ही मनोज गुप्ता की निर्मम हत्या का असली कारण थी. मनोज गुप्ता को उनके घर में घुसकर बर्बरता पूर्वक पीटा गया था. पुलिस, बसपा के स्थानीय नेतृत्व और बसपा विधायक ने मिलकर उनकी हत्या की थी. कुछ इसी तरह का वाकया बांदा में भी हुआ था जहां उनके विधायक पुरुषोत्तम द्विवेदी ने एक गरीब बच्ची शीलू को घर में बंधक बनाकर उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया और जब वह बच्ची किसी तरह वहां से जान बचाकर भागी तो पुलिस की मदद से उसे चोर बनाकर जेल भेज दिया गया. औरैया कांड की तरह ही राज्य सरकार ने इस कांड को भी पहले दबाने की कोशिश की और लखनऊ में गृह विभाग की प्रेस कॉन्फ्रेंस में विधायक पुरुषोत्तम द्विवेदी को क्लीन चिट दे दी गई थी. बसपाराज में पुलिस का ऐसा ही चेहरा कानपुर में दिव्या कांड में भी दिखाई दिया था जब एक स्कूल प्रबंधक द्वारा एक प्राइमरी की छात्रा के साथ दुष्कर्म कर उसकी हत्या कर दी गई थी. इस मामले मंे एक बेगुनाह रिक्शा चालक को जेल भेजकर पुलिस ने केस बंद कर दिया था. लेकिन जब मामले ने तूल पकड़ा तो पुलिस घटना के सही खुलासे की मांग करने वालों के ही पीछे पड़ गई. कानपुर के तत्कालीन डीआईजी ने खुद इस मामले को उठाने वाले मीडिया संस्थानों पर हमला बोलकर मीडिया की आवाज दबाने की कोशिश की थी.

दो वर्ष पूर्व लखनऊ में कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी का घर जिस तरह वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों और बसपा के गुंडों ने मिलकर फूंक डाला था वह मायावती सरकार की असहिष्णुता और तानाशाही का सबसे बड़ा उदाहरण है. मुख्यमंत्री मायावती के सर्वाधिक सुरक्षित कहे जाने वाले कार्यालय के महज कुछ सौ कदम दूर स्थित रीता बहुगुणा के घर को लगभग 45 मिनट तक मायावती के गुंडों ने नारे लगा-लगाकर फूंका. इस बीच लखनऊ के सारे टीवी चैनल और अखबारों के फोटोग्राफर वहां पहुंच गए. गुंडागर्दी की तस्वीरें खिंचती रहीं मगर एक भी पुलिसकर्मी वहां नहीं पहुंच सका. कई वाहन और घर फूंक देने के बाद सरकारी गुंडे आसपास खड़े वाहनों में बैठकर आराम से निकल गए, जैसे उन्होंने कुछ किया ही न हो. रीता बहुगुणा जोशी का कसूर यह था कि उन्होंने मायावती के खिलाफ कुछ बदजुबानी करने की गुस्ताखी की थी.  कहा जाता है कि इस कांड की योजना एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के निर्देशन में बनाई गई थी. इसमें हजरतगंज थाने के रंगरूटों को भी शामिल किया गया था और पूरी कार्रवाई के दौरान वे अधिकारी चंद कदम दूर स्थित बीएसपी मुख्यालय में मौजूद थे. घटना के तत्काल बाद जब उन्हें घटनास्थल पर देखा गया तो उन्होंने मीडिया को सफाई दी थी कि वे तो गश्त करते हुए वहां पहुंचे हैं.

भट्टा-पारसौल हो या इटावा या फिर टप्पल, मायाराज में पुलिस का चेहरा हर जगह एक सा दिखता है. बेहद अमानवीय, बर्बर और निरंकुश

इस कांड में भी पुलिस ने दो बेगुनाह युवकों को जेल भेजकर मामला खत्म कर दिया था. लेकिन फिर मानवाधिकार आयोग और अदालती दबाव के कारण इस मामले की जांच सीबीसीआईडी को सौंप दी गई. अभी एक महीने पहले ही इस कांड में शामिल होने के आरोप में बसपा के एक विधायक और एक लालबत्तीधारी नेता को नाटकीय ढंग से गिरफ्तार किया गया है. हालांकि इन दोनों को ही आगजनी के तत्काल बाद सरकार की ओर से पुरस्कृत किया गया था. मामले के सूत्रधार माने जाने वाले पुलिस अधिकारी की पत्नी अब राज्य सरकार के अल्पसंख्यक आयोग की सदस्य बन चुकी हैं. गौरतलब है कि ये वही पुलिस अधिकारी हंै जिन्होंने अभी हाल में राज्य स्तरीय महिला खिलाड़ी सोनू सिन्हा को बरेली के निकट ट्रेन से फेंके जाने की घटना के बाद उसी पीड़ित को अपराधी बनाने की कोशिश की थी. उसके चरित्र पर भी लांछन लगाए थे.

मायाराज में पुलिस का असली चेहरा ऐसा ही है, जो चाहे भट्टा-पारसौल हो या इलाहाबाद-चित्रकूट, चाहे इटावा हो या टप्पल हर जगह एक सा दिखता है. बेहद अमानवीय, बर्बर और किसी तानाशाह की फौज जैसा निरंकुश.

बसपा सरकार आज विरोध का हर स्वर कुचलने को तत्पर है और कुछ चाटुकार अधिकारी, दरबारी, मंत्री, कुछ कानून के जानकार और जनता के पैसे से वेतन ले रही राज्य की पुलिस इस काम में जी जान से जुटे नजर आते हैं. मायावती आलोचना भी नहीं सह सकतीं. अपना हर राजनीतिक विरोधी उन्हें ओछी राजनीति करने वाला नजर आता है. और अपने ऊपर लगे हर आरोप का उनके पास एक ही उत्तर होता है कि आरोप लगाने वाला पहले अपने गिरेबान में झांके. भ्रष्टाचार और पैसे की भूख ने उनकी सरकार के चेहरे को और भी भयानक बना दिया है. इंजीनियरों से वसूली ठीक से न हो पाने पर उनकी हत्या कर दी जाती है. स्वास्थ्य महकमे में वसूली ठीक से न हो पाने पर अधिकारियों की हत्या कर दी जाती है. अपहरण और महिला अत्याचार लगातार बढ़ रहे हैं और राज्य सरकार चार साल पूरे होने पर विज्ञापनों के जरिए दावा कर रही है कि ‘उत्तर प्रदेश की माननीया मुख्यमंत्री सुश्री मायावती जी के नेतृत्व की सरकार में कानून-व्यवस्था व अपराध नियंत्रण’ एवं ‘विकास व जनहित’ के चार वर्षों का कार्यकाल अति-उत्साहवर्धक व बेहतरीन’.

मायावती सरकार की असहिष्णुता और तानाशाही के उदाहरणों की सूची बनाने बैठें तो एक अंतहीन सिलसिला शुरू हो सकता है. यह सरकार सोनिया गांधी को अपने निर्वाचन क्षेत्र में सार्वजनिक सभा करने से रोक सकती है. यह सरकार केंद्रीय मंत्रियों को एयरपोर्ट पर वाहन और सुरक्षा से बेदखल कर सकती है. यह सरकार केंद्रीय मंत्रियों के पूर्व निर्धारित कार्यक्रमों के लिए आवंटित स्थान का आवंटन अंतिम क्षणों में रद्द कर सकती है. यह सरकार अदालती आदेशों को जेब में डालकर मनमानी कर सकती है. यह सरकार केंद्र सरकार की योजनाओं को बर्बाद कर सकती है, केंद्र के पैसे को जब-जैसे चाहे वैसे फूंक सकती है. यह सरकार विधानसभा की बैठकें ढंग से कराए बिना ‘बेहतरीन’ होने का दावा कर सकती है और यह सरकार मुख्यमंत्री द्वारा जनता की सुने बिना, जनता को देखे बिना और कार्यालय में गए बिना भी ‘ऐतिहासिक कार्य’ करने का दावा कर सकती है.

लेकिन यह सरकार जनता की सुनती नहीं है और न ही उसे बोलने देना चाहती है. आखिर मुख्यमंत्री मायावती बुद्ध के आदर्शों पर चलने वाली नेता हैं. शायद इसीलिए उन्हें शांति बेहद पसंद है. इसी वजह से उन्होंने लखनऊ में सूबे के अलग-अलग इलाकों से आकर धरना-प्रदर्शन करने वालों के ऐतिहासिक धरना स्थल ‘कोप भवन’ को विधानसभा के सामने से हटवा दिया. कई जगहें बदलता हुआ यह धरना स्थल अब गोमती नदी के किनारे पहुंचा दिया गया है जहां धरना देने वालों को कोई देखने वाला तक नहीं होता. और अब तो मायावती सरकार ने इस तरह के नये नियम बना दिए हैं कि उत्तर प्रदेश में धरना-प्रदर्शन कर पाना भी मुमकिन नहीं रह गया है. नये नियमों के तहत धरना-प्रदर्शन के लिए कम से कम एक सप्ताह पहले अनुमति लेनी होगी. लंबा-चौड़ा फॉर्म भरना होगा. कार्यक्रम के बारे में तरह-तरह की छानबीन की जाएगी. आयोजकों को कई तरह के हलफनामे भरने होंगे और उसके बाद भी यह पक्का नहीं कि अनुमति मिल ही जाएगी. यानी विरोध के स्वरों की कतई गुंजाइश नहीं. इसके बाद भी कोई किसान, कोई सामाजिक कार्यकर्ता या राहुल गांधी जैसा कोई सिरफिरा मायावती के ‘बेहतरीन’ सुशासन पर अंगुली उठाने की गुस्ताखी करे तो मायावती तिलमिलाएं क्यों नहीं? उसे ओछा और ड्रामेबाज क्यों न कहें?

उत्तर प्रदेश में धरना-प्रदर्शन कर पाना भी मुमकिन नहीं रह गया है. नये नियमों के तहत इसके लिए कम से कम एक हफ्ता पहले अनुमति लेनी होगी

समाजवादी पार्टी के एक नेता कहते हैं कि दरअसल मायावती जी की मनःस्थिति ठीक नहीं है. वे लोगों से मिलती तो हैं नहीं. उनकी रोजाना की दिनचर्या लगभग एक जैसी ही है. हर रोज वे सिर्फ कुछ चुनिंदा अधिकारियों और सुरक्षाकर्मियों से ही मिलती हैं, उन्हीं की सूरत देखती हैं. यह एक प्रकार की कैद जैसी ही स्थिति है. ऐसी स्थिति में चिड़चिड़ापन स्वाभाविक है.

लेकिन यह पूरा सच नहीं है. पूरा सच इससे और अधिक कड़वा है. वस्तुतः मायावती खुद को स्वयंभू मानने लगी हैं. प्रधानमंत्री द्वारा बुलाई गई मुख्यमंत्रियों की बैठक में वे एक बार भी शामिल नहीं हुई हैं. एक बार ऐसे मौके पर वे दिल्ली गई जरूर थीं लेकिन मनमोहन सिंह के साथ खाना खाकर वापस लौट आईं. राज्य में प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति आदि के आगमन पर भी मुख्यमंत्री उनके स्वागत के लिए नहीं जातीं. अपने प्रतिनिधि के रूप में किसी मंत्री को भेज देती हैं. चाहे योजना आयोग की बैठक हो या फिर अन्य जरूरी बैठक, वे कहीं भी किसी दूसरे की अध्यक्षता में शामिल होना जरूरी नहीं मानतीं. वे उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री हैं, अपनी पार्टी की सर्वेसर्वा हैं. उन्हें देश में सबसे अधिक सुरक्षा घेरे में रहने वाली राजनेता होने का गौरव प्राप्त है. आजादी के 60 से ज्यादा साल बीतने के बाद भी पीड़ित और वंचित बने रह गए समाज ने उन्हें पचासों करोड़ के उपहार देकर अतिसंपन्न बनाया है. उन्होंने सरकारी खजाने से हजारों करोड़ रुपये खर्च कर स्मारक और मूर्तियां लगवाने वाली मुख्यमंत्री होने का ऐतिहासिक गौरव पाया है तो भला उनके सामने किसी और की क्या बिसात. जब अपने सामने वे किसी दूसरे नेता को कुर्सी पर बैठने नहीं दे सकतीं तो भला उन्हें यह कैसे गवारा हो सकता है कि उन्हें किसी दूसरे नेता के सामने बैठना पड़ जाए. और अब जब मौजूदा पारी का सत्ता सुख एक वर्ष से भी कम का रह गया है, तब विपक्षी पार्टियां उनके विधायक तोड़ ले जाएं, उन पर आरोप लगायें, उनके खिलाफ धरने करें, सड़कों पर प्रदर्शन करें, जनता के विरोध को आवाज दें तो भला उन्हंे ये सब कैसे सहन हो सकता है.

मायावती को करीब से जानने वालों का मानना है कि जैसे-जैसे मायावती सरकार के खिलाफ विपक्ष के हमले तेज होंगे, सरकार की खामियां उजागर होंगी, वैसे-वैसे मायावती की तिलमिलाहट और बढ़ेगी. उत्तर प्रदेश में चार वर्ष में निष्ठुरता, भ्रष्टाचार, चाटुकारिता, अफसरशाही और निरंकुशता की जो कार्य संस्कृति उन्होंने विकसित की है वही अब उनके लिए असल मुश्किलें पैदा करेगी.

आखिर मायावती भी काटेंगी तो वही जो उन्होंने बोया है.

खुद भारत

कभी एशिया का सबसे लंबा पुल कहलाने वाला महात्मा गांधी सेतु आज जर्जर हालत में है. इसकी बदहाली बिहार के 13 जिलों के लाखों लोगों को भी बेहाल कर रही है. लेकिन इस मुद्दे पर न राज्य गंभीर दिखता है और न ही केंद्र. इर्शादुल हक की रिपोर्ट

1982 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पटना और हाजीपुर को जोड़ने वाला 5.57 किलोमीटर लंबा महात्मा गांधी सेतु राष्ट्र को सौंपा था तो बिहार के बच्चे सामान्य ज्ञान की किताबों से यह याद करते हुए खुद को गौरवान्वित महसूस करते थे कि एशिया का सबसे बड़ा पुल उनके ही प्रदेश में है. इन 29 वर्षों में दुनिया काफी बदल चुकी है. एक ओर जहां चीन में 36 किलोमीटर लंबा समुद्री पुल (हैंगजोउ खाड़ी से शंघाई के बीच) बन चुका है वहीं खुद भारत में भी 11.6 किलोमीटर लंबा (हैदराबाद शहर से हैदराबाद हवाई अड्डे को जोड़ने वाला) पीवी एक्सप्रेस वे बन चुका है.

लेकिन महात्मा गांधी सेतु के लिए असल संकट यह नहीं कि उसका पहला स्थान छिन गया है, बल्कि यह तो बेमौत मरते जाने की अपनी ही पीड़ा से परेशान है. राजधानी पटना को उत्तर बिहार से जोड़ने वाले इस पुल की खस्ताहाली का असर 13 जिलों के लाखों लोगों पर पड़ रहा है.

एक तरफ भयावह जाम, दूसरी ओर क्षमता से अधिक बोझ के कारण इस पुल के भविष्य पर  भी खतरा मंडरा रहा है

महात्मा गांधी सेतु देश के उन कुछेक पुलों में से एक है जो सिंगल ज्वाइंट कैंटिलिवर प्रिस्ट्रेस तकनीक से बना है. इसमें हिंज बेयरिंग और बॉक्स ग्रिडर का इस्तेमाल किया गया है. इसके हिंज बियरिंग वाहनों के आवगमन के दौरान कंपन करते हैं. इससे पुल का ऊपरी हिस्सा भी साधारण परिस्थितियों में डेढ़ से दो इंच तक कंपन करता है जो इस तकनीक से बने पुलों की विशेषता में शुमार है. विशेषज्ञों का कहना है कि इससे पुल या इसके पायों में दरार की गुंजाइश नहीं होती. लेकिन निर्माण के मात्र 20 साल बाद 2002 में न सिर्फ यह पुल क्षतिग्रस्त हो गया बल्कि इसके सुपर स्ट्रक्चर में भी दरार की शिकायतें आ चुकी हैं. जबकि इस पुल की अनुमानित आयु 100 वर्ष थी. भारत में इस तकनीक से गोवा की मांडोवी नदी पर बना एक अन्य पुल भी है जो अपने निर्माण के मात्र 16 वर्षों में क्षतिग्रस्त हो गया. इसी तकनीक से गोआ में ही जुआरी और बोरिम नदियों पर बने पुल भी क्षतिग्रस्त हो चुके हैं और इन पुलों पर बड़े वाहनों के आवगमन पर रोक लगाई जा चुकी है. हालांकि 1980 के दशक में सिंगल ज्वाइंट कैंटिलिवर प्रिस्ट्रेस तकनीक सबसे आधुनिक समझी जाती थीे, लेकिन इस तकनीक की विफलता ने विशेषज्ञों को भी चौंका दिया है. इस संबंध में देवनारायण प्रसाद कहते हैं, ‘इस पुल का प्रिस्ट्रेस खत्म हो गया है, जिसके कारण इसके 44 हिंज बियरिंग टूट गए हैं. उसका परिणाम यह है कि पुल के पश्चिमी ट्रैक के कुछ हिस्से धंस गए हैं.’ वे अपनी बात जारी रखते हैं, ‘हम यह कोशिश कर रहे हैं कि इसे फिर से उपयोग के लायक बनाया जा सके. इसके लिए हमने इसके छतिग्रस्त 44 में से 37 हिंज बियरिंग बदल दिए हैं.’ यह पूछने पर कि 11 साल बाद भी मरम्मत का काम पूरा क्यों नहीं हो सका है, वे कहते हैं, ‘इस पुल पर ट्रैफिक का दबाव इतना है कि एक तरफ इसकी मरम्मत होती है तो दूसरी तरफ दूसरे हिंज बियरिंग टूट जाते हैं.’

वैसे तो बिहार की जीवनरेखा माना जाने वाला यह महासेतु पिछले एक दशक से क्षतिग्रस्त है पर अब इसकी दुर्दशा इतनी बढ़ चुकी है कि तमाम कोशिशों के बावजूद इस पुल पर आए दिन हजारों गाड़ियां चींटी की तरह रेंगने को विवश हैं. चार लेन वाले इस पुल में दो ट्रैक हैं और इसके पश्चिमी ट्रैक का कुछ हिस्सा तीन फुट तक नीचे धंस चुका है जिसके कारण इस ट्रैक पर आवाजाही रोकी जा चुकी है. अब पूर्वी ट्रैक पर ही आवगमन का सारा दबाव है. एक तो यह पुल पहले से ही क्षतिग्रस्त है दूसरी तरफ मोकामा स्थित राजेंद्र पुल को बड़े वाहनों के लिए बंद कर दिए जाने के कारण सहरसा, मधेपुरा, सुपौल समेत पूर्वी बिहार के अनेक जिलों से आने वाले यातायात का बोझ भी इसी पर आ गया है. इससे दो समस्याएं खड़ी हो गई हैं. एक तरफ तो भयावह जाम की स्थिति है वहीं दूसरी ओर क्षमता से अधिक बोझ के कारण इस ट्रैक के भविष्य पर भी खतरा मंडरा रहा है. राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के मुख्य अभियंता और महात्मा गांधी सेतु के विशेषज्ञ माने जाने वाले देवनारायण प्रसाद कहते हैं, ‘फिलहाल पूर्वी ट्रैक ठीक है पर यातायात के भारी दबाव की स्थिति चिंताजनक है और इस बात से इनकार भी नहीं किया जा सकता कि दूसरा ट्रैक भी क्षतिग्रस्त न हो.’

हालांकि राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण इस पुल की मरम्मत में 2002 से ही लगा है, लेकिन इस कछुआचाल मरम्मत का कोई असर होता नहीं दिख रहा. इन नौ सालों में पुल की मरम्मत पर अब तक लगभग 75 करोड़ रु खर्च किए जा चुके हैं, जबकि गैमन इंडिया कंपनी ने जब इसका निर्माण किया था तो कुल लागत ही 79 करोड़ रु आई थी.

दरअसल गांधी सेतु राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण का हिस्सा है जिसके निर्माण से लेकर मरम्मत तक की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है. इस कारण जब भी इस क्षतिग्रस्त पुल से उपजी समस्या पर बात होती है तो राज्य सरकार अपना पल्ला झाड़ लेती है. दूसरी तरफ राष्ट्रीय राजमार्ग के अधिकारियों का कहना है कि पुल की मरम्मत के लिए केंद्र सरकार से सीमित राशि ही मिलती है जिसके कारण काम ठीक से नहीं हो पाता. इस बीच इस पुल की बिगड़ती स्थिति के मद्देनजर केंद्र सरकार ने अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ वीके रैना को इस पुल की वास्तविक स्थिति के आकलन के लिए जून, 2010 में भेजा था. रैना की रिपोर्ट के आधार पर राज्य सरकार ने पुल की व्यापक मरम्मत के लिए 167 करोड़ रुपये के खर्च की अनुमानित रिपोर्ट भेजी था. इस संबंध में पथनिर्माण विभाग के सचिव प्रत्यय अमृत कहते हैं, ‘हमने एक साल पहले केंद्र सरकार को रिपोर्ट भेजी थी और हम अब भी उसकी स्वीकृति की प्रतीक्षा कर रहे हैं.’ इधर राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के गांधी सेतु परियोजना से जुड़े मुख्य अभियंता देवनारायण प्रसाद भी स्वीकार करते हैं कि जब तक इस सेतु की मरम्मत की व्यापक परियोजना पर काम शुरू नहीं होता तब तक इसकी दशा सुधारने का प्रयास सफल नहीं हो सकता.

इधर राज्य सरकार के बार-बार आग्रह के बावजूद केंद्र की कथित चुप्पी पर पिछले दिनों मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यहां तक कह दिया था कि अगर केंद्र सरकार उस प्रस्ताव को स्वीकृति नहीं देती है तो राज्य सरकार इस पुल के समानांतर एक दूसरा पुल बनाएगी. लेकिन नीतीश के इस बयान के कुछ ही दिनों बाद राज्य सरकार ने अपने बयान में संशोधन करते हुए कहा था कि अगर केंद्र सरकार मौजूदा सेतु की मरम्मत करने में आनाकानी करती है तो वह राज्य सरकार को अनापत्ति प्रमाण पत्र दे ताकि राज्य सरकार पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के आधार पर समानांतर पुल का निर्माण करा सके. हालांकि राज्य सरकार के इस बयान को कुछ टीकाकारों ने महज राजनीतिक बयान माना था, लेकिन इस बात पर पथनिर्माण मंत्री नंदकिशोर यादव तहलका से कहते हैं, ‘आप ही बताइए इसमें राजनीति क्या है. हम एक साल से प्रस्ताव की स्वीकृति का इंतजार कर रहे हैं और केंद्र सरकार चुप बैठी है. आखिर राज्य की जनता को परेशानी होगी तो क्या ऐसी स्थिति में राज्य सरकार वैकल्पिक उपायों पर गौर नहीं करेगी.’ वे आगे कहते हैं, ‘महात्मा गांधी सेतु बिहार की लाइफलाइन है. इसलिए इस पुल पर यातायात बाधित होने का मतलब है बिहार की गति रुक जाना. इस बात को समझते हुए हमने केंद्र सरकार से कहा है कि वह जल्द से जल्द इसकी मरम्मत के प्रस्ताव की मंजूरी दे. पर आश्चर्य की बात है कि केंद्र इस पर उदासीन बना हुआ है.’

भले ही यह सेतु केंद्र और राज्य सरकार के बीच आपसी खींचतान का विषय बना हुआ हो पर सच्चाई यह है कि इस पुल को समय
रहते सुधारा नहीं गया तो बिहार की जनता को यातायात के भयावह संकट से गुजरना पड़ेगा.

ऐसा होता भी दिख रहा है. मोकामा का राजेंद्र पुल बड़े वाहनों के लिए बंद होने के बाद पिछले चार महीने से गांधी सेतु पर जाम की भयावह समस्या खड़ी हो रही है. राज्य सरकार की तमाम कोशिशों के बाद भी जाम पर काबू नहीं हो सका तो आखिर में सरकार ने इसके लिए पटना और हाजीपुर के एसपी को जिम्मेदारी सौंपते हुए कहा कि वे हर हाल में ट्रैफिक व्यवस्था को दुरुस्त करें वरना कानूनी कार्रवाई के लिए तैयार रहें. इस दौरान कम से कम दो पुलिसकर्मी लापरवाही के आरोप में निलंबित किए जा चुके हैं. इस समस्या से पार पाना ट्रैफिक पुलिस के लिए बड़ी चुनौती बना हुआ है. इस व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त करने में लगे पटना सिटी क्षेत्र के सीडीपीओ सुशील कुमार कहते हैं, ‘हमने इस पुल पर ओवरटेक करने पर रोक लगा दी है और गतिसीमा भी नियंत्रित कर दिया है. समूचे पुल पर ट्रैफिक पुलिस की व्यवस्था की गई है और जगह-जगह क्रेन की व्यवस्था की गई है ताकि खराब वाहनों को जल्द से जल्द रास्ते से हटाया जा सके.’ ट्रैफिक पुलिस के इन प्रयासों के बावजूद कभी-कभी जाम की स्थिति इतनी भयावह हो जाती है कि 8-10 घंटे तक ट्रैफिक व्यवस्था चरमरा कर रह जाती है.

अलहदा है नालंदा

पिछले पांच वर्षों में बिहार में पूंजी निवेश के छोटे-बड़े अनेक प्रस्ताव स्वीकृत हुए हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप से निवेश की प्रक्रिया विरले ही शुरू हुई है. दूसरी तरफ मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पैतृक जिले नालंदा में निवेश और विकास की तेज रफ्तार से लगता है कि नालंदा पर सरकार का ध्यान कुछ ज्यादा ही है. इस असंतुलन पर इर्शादुल हक की रिपोर्ट

नालंदा के कल्याण बिगहा गांव में नीतीश कुमार के खंडहर हो चुके पैतृक घर की देखभाल करने वाले सीताराम एक घटना का उल्लेख कुछ इस तरह करते हैं, ‘2005 में जब साहब बिहार के मुख्यमंत्री बन गए तो मेरी बड़ी इच्छा थी कि मैं पटना में उनके सरकारी आवास को देखूं. एक दिन मेरी यह इच्छा पूरी हो गई. मैं उनके बुलावे पर अण्णे मार्ग के उनके सरकारी आवास पहुंचा. कुछ देर बोलने-बतियाने के बाद मुझसे न रहा गया तो मैंने अपने दिल की बात उनसे कह दी. मैंने कहा, ‘साहब यह तो बड़ी भव्य कोठी है. अब आप अपने गांव के पुराने घर को भी कुछ अच्छा बना दीजिए ताकि जब आप वहां जाएं तो आपका स्वागत करने में हमें अच्छा लगे. इतना सुनते ही साहब थोड़ा मुस्कुराए और फिर कहा- सीताराम, यह पूरा बिहार आप ही का घर है. पहले बिहार को चमका दीजिए तो अपने घर को चमकाइएगा.’

बीते बजट सत्र की बात है. विधान परिषद के सदस्यों ने मांग की कि उनके गांवों को सभी आधारभूत सुविधाओं से जोड़ा जाए. इसके लिए बाकायदा परिषद में प्रस्ताव पेश किया गया. जब यह प्रस्ताव सदन में पढ़ा जाने लगा तो मुख्यमंत्री ने तुरंत हस्तक्षेप किया और कहा कि राज्य के व्यापक हित में किसी सदस्य के क्षेत्र को प्राथमिकता नहीं दी जा सकती. यह राज्य की जनता के धन का मुनासिब उपयोग नहीं है. इसलिए उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया गया.

इन दोनों घटनाओं के केंद्र में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं. उनकी इन दो बातों से यह स्पष्ट है कि वे निजी हित के सामने राज्य के व्यापक हित को सर्वोपरि मानते हैं. लेकिन दूसरी तरफ देखा जाए तो दूसरे जिलों की तुलना में मुख्यमंत्री का पैतृक जिला नालंदा बड़ी तेजी से विकास के रास्ते पर अग्रसर है. और अगर नालंदा में भी उनके पैतृक गांव कल्याण बिगहा की बात करें तो यह गांव भी जिले के अन्य गांवों को काफी पीछे छोड़ते हुए विकास का एक मॉडल ही बन गया है.

नालंदा में विकास की बयार मुख्यमंत्री की इच्छा से बह रही है या उन्हें खुश करने के लिए उनके अधिकारी, मंत्री या दूसरे राजनेता नालंदा पर विशेष ध्यान देने में लगे हैं, यह बता पाना थोड़ा मुश्किल है. पिछले पांच वर्षों में इस जिले में अनेक इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज, औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान, विश्वस्तरीय होटल, टूरिस्ट पार्क, विद्युत संयंत्र, मल्टी मीडिया म्यूजियम, एथनाल इकाई, सरसों तेल उत्पादन इकाई समेत अनेक क्षेत्रों में या तो निवेश हो चुका है या उसके लिए राज्य निवेश संवर्धन बोर्ड की तरफ से मंजूरी मिल चुकी है. मालूम हो कि ये सारे निवेश 2005 से अब तक हो रहे हैं जो निजी क्षेत्र द्वारा किए जा रहे हैं और इसकी कुल अनुमानित लागत लगभग दो से ढाई हजार करोड़ रु के आसपास है. इसके अलावा नीतीश के मुख्यमंत्री बनने के बाद नालंदा जिले में 1,100 करोड़ रु का बहुचर्चित नालंदा विश्वविद्यालय बनाने के लिए 450 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया जा चुका है और उस पर काम जारी है.

नालंदा में निवेश का यह दूसरा दौर है. इस जिले में निवेश का पहला दौर तब ही शुरू हो गया था जब केंद्र में एनडीए की सरकार थी. यानी 1998-99 तक. बतौर रेलमंत्री नीतीश ने खुद अपनी कोशिशों से नालंदा के हरनौत में रेलवे कोच मेंटेनेंस वर्कशॉप पर काम शुरू करवाया था. लगभग 250 करोड़ रु का यह प्रोजेक्ट अपने अंतिम चरण में है. पूर्व मध्य रेलवे के प्रवक्ता दिलीप कुमार के अनुसार यह इकाई अगले जुलाई महीने में काम करना शुरू कर देगी. एनडीए सरकार के कार्यकाल में ही नीतीश और जॉर्ज फर्नांडिस के सम्मिलित प्रयास से नालंदा के राजगीर में 20 हजार करोड़ रु की लागत से आयुध निर्माण इकाई स्थापित करने का काम शुरू हुआ. इसके अलावा बाढ़ संसदीय क्षेत्र, जिसका प्रतिनिधित्व नीतीश कुमार कई वर्षों तक करते रहे हैं, (वैसे तो यह पटना जिले का हिस्सा है पर इसके दो विधानसभा क्षेत्र हरनौत और चंडी 2005 तक नालंदा जिले में पड़ते थे) में भी सुपर थर्मल पावर स्टेशन का काम अपने अंतिम चरण में है. यह इकाई लगभग 20 हजार करोड़ रु की लागत से बन रही है और उम्मीद की जा रही है कि यहां 2013 से ऊर्जा उत्पादन शुरू हो जाएगा.

नालंदा में कुल मिलाकर जिस रफ्तार से निवेश हो रहा है उससे विशेषज्ञों को अनुमान है कि आने वाले चार-पांच वर्षों में वहां लगभग 50 हजार करोड़ रु के प्रत्यक्ष निवेश के अलावा लगभग दस हजार करोड़ रु तक का अतिरिक्त निवेश हो चुका होगा जिससे जिले की अर्थव्यवस्था पर व्यापक असर पड़ने की उम्मीद है. भविष्य की संभावनाओं का अनुमान लगाते हुए अर्थशास्त्री नवलकिशोर चौधरी कहते हैं, ‘इतने बड़े निवेश के बाद जिले में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से एक लाख लोगों को रोजगार के अवसर उपलब्ध हो सकते हैं जिससे स्वाभाविक तौर पर वहां के लोगों की आर्थिक स्थिति में काफी बदलाव आएगा.’

निवेश के लिए तरसते बिहार में एक तरफ राज्यस्तर पर कोई खास प्रगति नहीं दिख रही और वहीं नालंदा में हो रहा तेज विकास कई लोगों को अचंभे में डालता है. इससे जहां एक तरफ विपक्षी पार्टियों के नेताओं की त्योरियां चढ़ गई हंै वहीं इस पर अर्थशास्त्रियों का एक वर्ग भी खासा नाराज दिख रहा है. इस संबंध में विधानसभा में विपक्ष के नेता अब्दुलबारी सिद्दीकी तो यहां तक कहते हैं, ‘यह तो ऐसा लग रहा है जैसे सरकार बिहार की राजधानी पटना से हटाकर नालंदा ले जाना चाहती है.’ वे आगे कहते हैं, ‘राज्य की जनता सब कुछ समझती है और उसे ज्यादा दिनों तक अंधकार में नहीं रखा जा सकता.’ सिद्दीकी की बात आगे बढ़ाते हुए आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ नवलकिशोर चौधरी इस मुद्दे में आर्थिक पहलू जोड़ते हुए कहते हैं, ‘किसी एक जिले को इस तरह केंद्रित करके विकास की गतिविधियां चलाने से राज्य में आर्थिक असमानता फैलेगी जिससे लोगों में आक्रोश बढ़ेगा. इससे नीतीश सरकार के खिलाफ गलत धारणा बनेगी.’

हालांकि इस पूरे मामले में सत्ताधारी जनता दल यू के वरिष्ठ नेता और पार्टी के प्रवक्ता शिवानंद तिवारी का अपना तर्क है. वे कहते हैं, ‘अगर राज्य में नालंदा विश्वविद्यालय खोलने की बात होगी तो इसे नालंदा से बाहर तो नहीं ही ले जाया जा सकता है. वैसे हमारा मानना है कि विकास या निवेश की कोशिश किसी एक जिले में नहीं बल्कि जहां तक संभव हो रहा है एक समान रूप से हर जगह की जा रही है.’ जब तिवारी से निवेश के आंकड़ों की बात की जाती है तो वे यह कहते हुए इस सवाल को टाल देते हैं कि उन्होंने आंकड़ों पर ध्यान नहीं दिया है.

ऐसे निवेश के अपने फायदे हो सकते हैं. लेकिन बड़ा सवाल यह भी है कि अगर नालंदा में कुछ ही वर्षों में हजारों करोड़ का निवेश लाया जा सकता है तो दूसरे क्षेत्रों में क्यों नहीं. यह महज एक संयोग है या नालंदा के लिए सरकार का पक्षपातपूर्ण रवैया!

कल्याण बिगहा का कल्याण

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नालंदा स्थित पैतृक गांव कल्याण बिगहा के निवासी शैलेंद्र सिंह अपनी हथेली पर रखी खैनी पर ताल ठोकते हुए कहते हैं, ‘बीते पांच वर्ष में जो कोई भी यहां पहली बार आता है वह विश्वास नहीं कर पाता कि हमारे गांव का इतनी जल्दी ऐसा कायापलट हो सकता है.’ शैलेंद्र नीतीश के बचपन के दोस्त हैं. वे कहते हैं, ‘नीतीश बाबू बचपन से ही अपने उद्देश्यों के प्रति जिद्दी रहे हैं. आज उनकी जिद विकास करने की है तो कर रहे हैं.’

कल्याण बिगहा सचमुच बिहार के लिए विकास का एक अद्भुत नमूना बन गया है. दस मई को सुबह के आठ बजे जैसे ही हम गांव में दाखिल होते हैं, हमारी नजर शूटिंग का प्रशिक्षण ले रही लगभग दो दर्जन लड़कियों पर ठहर जाती है. ये बच्चियां उत्तर प्रदेश के चर्चित शूटिंग प्रशिक्षक राजपाल सिंह की देखरेख में निशाना साध रही हैं. सहप्रशिक्षक नागेंद्र तोमर बताते हैं, ‘हम नीतीश जी के विशेष आग्रह पर उनके गांव में प्रशिक्षण दे रहे हैं. उनकी इच्छा है कि यहां की लड़कियां भी बागपत की लड़कियों की तरह राष्ट्रीय स्तर पर अपना नाम रौशन करें.’ नगेंद्र हमसे बात करते हुए हमें पास के उस भवन में ले जाते हैं जिसमें वातनुकूलित इंडोर शूटिंग रेंज बनाई गई है. बिहार में शायद ही ऐसी कोई दूसरी शूटिंग रेंज हो.

खैर, हम यहां से निकलकर गांव के अंदर प्रवेश करते हैं तो एक विशाल पानी टंकी दिखती है जो कल्याण बिगहा के सभी 250 घरों के लोगों के लिए स्वच्छ जल की आपूर्ति करती है. टंकी के परिसर का पिछला हिस्सा जहां खत्म होता है उसी के साथ लगे भवन में स्टेट बैंक आॅफ इंडिया है जिसका उद्घाटन हाल ही में हुअा है. जैसा कि बैंक के प्रबंधक परमेश्वर पासवान बताते हैं, ‘18 मार्च, 2011 को ही इस शाखा का उद्घाटन हुआ है.’ बैंक से गुजरने वाले रास्ते से हम आगे की तरफ बढ़ते जाते हैं और कोई तीन मिनट के फासले पर हम पैदल इस छोटे-से गांव के दूसरे छोर पर पहुंच जाते हैं जहां अवधेश कुमार का मकान है. अवधेश बताते हैं कि जल्द ही यहां का स्वास्थ्य केंद्र एक अस्पताल का रूप ले लेगा जिसका भवन गांव में प्रवेश करने वाली सड़क के किनारे बन रहा है. भवन अपने निर्माण के अंतिम चरण में है. अवधेश नीतीश कुमार के साथ तब से हैं जब पहली बार उन्होंने विधानसभा का चुनाव लड़ा था. बातचीत के दौरान अवधेश बताते हैं कि गांव के पिछले छोर पर बना बांध भी नीतीश ने ही बनवाया है. अवधेश कहते हैं, ‘मुख्यमंत्री बनने के बाद पहला काम भैया (नीतीश) ने जो किया था वह यही था. इसे हम जमीनदारी बांध के नाम से जानते हैं. यह करोड़ों की परियोजना थी. इसकेे बनने के बाद हमारे खेत अब पानी में नहीं डूबते.’ वे आगे कहते हैं, ‘गांव की यह सड़क प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना से नहीं बनी, बल्कि इसे लोक निर्माण विभाग ने बनाया है.’

गांव के बाहर पॉलिटेकनिक कॉलेज, पावर सबस्टेशन, इंटर काॅलेज तो बना ही है, मिली जानकारी के अनुसार अब कल्याण बिगहा टाल क्षेत्र में हवाई अड्डे का निर्माण भी जल्द शुरू होगा.

लेकिन वहीं बगल के गांव बराही के निवासी रामाशीष की शिकायत है कि नीतीश को बस अपने गांव से मतलब है. इस बाबत कल्याण बिगहा के लोग कहते हैं कि हर गांव में विकास हुआ है, फिर भी अगर कोई कुछ सवाल उठाता है तो यह सौतिया डाह है.

गांव की सड़क के किनारे नीम के पौधों पर ट्रैक्टर में लगी ट्राली से पानी पटाते मजदूरों को देखते हुए याद आता है कि राजधानी पटना के पॉश इलाके में बेली रोड के डिवाइडर पर लगी फूल-पत्तियों की सिंचाई भी ऐसे ही होती है.

काल के गाल में

कभी एशिया का सबसे लंबा पुल कहलाने वाला महात्मा गांधी सेतु आज जर्जर हालत में है. इसकी बदहाली बिहार के 13 जिलों के लाखों लोगों को भी बेहाल कर रही है. लेकिन इस मुद्दे पर न राज्य गंभीर दिखता है और न ही केंद्र. इर्शादुल हक की रिपोर्ट

1982 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पटना और हाजीपुर को जोड़ने वाला 5.57 किलोमीटर लंबा महात्मा गांधी सेतु राष्ट्र को सौंपा था तो बिहार के बच्चे सामान्य ज्ञान की किताबों से यह याद करते हुए खुद को गौरवान्वित महसूस करते थे कि एशिया का सबसे बड़ा पुल उनके ही प्रदेश में है. इन 29 वर्षों में दुनिया काफी बदल चुकी है. एक ओर जहां चीन में 36 किलोमीटर लंबा समुद्री पुल (हैंगजोउ खाड़ी से शंघाई के बीच) बन चुका है वहीं खुद भारत में भी 11.6 किलोमीटर लंबा (हैदराबाद शहर से हैदराबाद हवाई अड्डे को जोड़ने वाला) पीवी एक्सप्रेस वे बन चुका है.

लेकिन महात्मा गांधी सेतु के लिए असल संकट यह नहीं कि उसका पहला स्थान छिन गया है, बल्कि यह तो बेमौत मरते जाने की अपनी ही पीड़ा से परेशान है. राजधानी पटना को उत्तर बिहार से जोड़ने वाले इस पुल की खस्ताहाली का असर 13 जिलों के लाखों लोगों पर पड़ रहा है.

एक तरफ भयावह जाम, दूसरी ओर क्षमता से अधिक बोझ के कारण इस पुल के भविष्य पर  भी खतरा मंडरा रहा है

महात्मा गांधी सेतु देश के उन कुछेक पुलों में से एक है जो सिंगल ज्वाइंट कैंटिलिवर प्रिस्ट्रेस तकनीक से बना है. इसमें हिंज बेयरिंग और बॉक्स ग्रिडर का इस्तेमाल किया गया है. इसके हिंज बियरिंग वाहनों के आवगमन के दौरान कंपन करते हैं. इससे पुल का ऊपरी हिस्सा भी साधारण परिस्थितियों में डेढ़ से दो इंच तक कंपन करता है जो इस तकनीक से बने पुलों की विशेषता में शुमार है. विशेषज्ञों का कहना है कि इससे पुल या इसके पायों में दरार की गुंजाइश नहीं होती. लेकिन निर्माण के मात्र 20 साल बाद 2002 में न सिर्फ यह पुल क्षतिग्रस्त हो गया बल्कि इसके सुपर स्ट्रक्चर में भी दरार की शिकायतें आ चुकी हैं. जबकि इस पुल की अनुमानित आयु 100 वर्ष थी. भारत में इस तकनीक से गोवा की मांडोवी नदी पर बना एक अन्य पुल भी है जो अपने निर्माण के मात्र 16 वर्षों में क्षतिग्रस्त हो गया. इसी तकनीक से गोआ में ही जुआरी और बोरिम नदियों पर बने पुल भी क्षतिग्रस्त हो चुके हैं और इन पुलों पर बड़े वाहनों के आवगमन पर रोक लगाई जा चुकी है. हालांकि 1980 के दशक में सिंगल ज्वाइंट कैंटिलिवर प्रिस्ट्रेस तकनीक सबसे आधुनिक समझी जाती थीे, लेकिन इस तकनीक की विफलता ने विशेषज्ञों को भी चौंका दिया है. इस संबंध में देवनारायण प्रसाद कहते हैं, ‘इस पुल का प्रिस्ट्रेस खत्म हो गया है, जिसके कारण इसके 44 हिंज बियरिंग टूट गए हैं. उसका परिणाम यह है कि पुल के पश्चिमी ट्रैक के कुछ हिस्से धंस गए हैं.’ वे अपनी बात जारी रखते हैं, ‘हम यह कोशिश कर रहे हैं कि इसे फिर से उपयोग के लायक बनाया जा सके. इसके लिए हमने इसके छतिग्रस्त 44 में से 37 हिंज बियरिंग बदल दिए हैं.’ यह पूछने पर कि 11 साल बाद भी मरम्मत का काम पूरा क्यों नहीं हो सका है, वे कहते हैं, ‘इस पुल पर ट्रैफिक का दबाव इतना है कि एक तरफ इसकी मरम्मत होती है तो दूसरी तरफ दूसरे हिंज बियरिंग टूट जाते हैं.’

वैसे तो बिहार की जीवनरेखा माना जाने वाला यह महासेतु पिछले एक दशक से क्षतिग्रस्त है पर अब इसकी दुर्दशा इतनी बढ़ चुकी है कि तमाम कोशिशों के बावजूद इस पुल पर आए दिन हजारों गाड़ियां चींटी की तरह रेंगने को विवश हैं. चार लेन वाले इस पुल में दो ट्रैक हैं और इसके पश्चिमी ट्रैक का कुछ हिस्सा तीन फुट तक नीचे धंस चुका है जिसके कारण इस ट्रैक पर आवाजाही रोकी जा चुकी है. अब पूर्वी ट्रैक पर ही आवगमन का सारा दबाव है. एक तो यह पुल पहले से ही क्षतिग्रस्त है दूसरी तरफ मोकामा स्थित राजेंद्र पुल को बड़े वाहनों के लिए बंद कर दिए जाने के कारण सहरसा, मधेपुरा, सुपौल समेत पूर्वी बिहार के अनेक जिलों से आने वाले यातायात का बोझ भी इसी पर आ गया है. इससे दो समस्याएं खड़ी हो गई हैं. एक तरफ तो भयावह जाम की स्थिति है वहीं दूसरी ओर क्षमता से अधिक बोझ के कारण इस ट्रैक के भविष्य पर भी खतरा मंडरा रहा है. राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के मुख्य अभियंता और महात्मा गांधी सेतु के विशेषज्ञ माने जाने वाले देवनारायण प्रसाद कहते हैं, ‘फिलहाल पूर्वी ट्रैक ठीक है पर यातायात के भारी दबाव की स्थिति चिंताजनक है और इस बात से इनकार भी नहीं किया जा सकता कि दूसरा ट्रैक भी क्षतिग्रस्त न हो.’

हालांकि राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण इस पुल की मरम्मत में 2002 से ही लगा है, लेकिन इस कछुआचाल मरम्मत का कोई असर होता नहीं दिख रहा. इन नौ सालों में पुल की मरम्मत पर अब तक लगभग 75 करोड़ रु खर्च किए जा चुके हैं, जबकि गैमन इंडिया कंपनी ने जब इसका निर्माण किया था तो कुल लागत ही 79 करोड़ रु आई थी.

दरअसल गांधी सेतु राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण का हिस्सा है जिसके निर्माण से लेकर मरम्मत तक की जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है. इस कारण जब भी इस क्षतिग्रस्त पुल से उपजी समस्या पर बात होती है तो राज्य सरकार अपना पल्ला झाड़ लेती है. दूसरी तरफ राष्ट्रीय राजमार्ग के अधिकारियों का कहना है कि पुल की मरम्मत के लिए केंद्र सरकार से सीमित राशि ही मिलती है जिसके कारण काम ठीक से नहीं हो पाता. इस बीच इस पुल की बिगड़ती स्थिति के मद्देनजर केंद्र सरकार ने अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ वीके रैना को इस पुल की वास्तविक स्थिति के आकलन के लिए जून, 2010 में भेजा था. रैना की रिपोर्ट के आधार पर राज्य सरकार ने पुल की व्यापक मरम्मत के लिए 167 करोड़ रुपये के खर्च की अनुमानित रिपोर्ट भेजी था. इस संबंध में पथनिर्माण विभाग के सचिव प्रत्यय अमृत कहते हैं, ‘हमने एक साल पहले केंद्र सरकार को रिपोर्ट भेजी थी और हम अब भी उसकी स्वीकृति की प्रतीक्षा कर रहे हैं.’ इधर राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के गांधी सेतु परियोजना से जुड़े मुख्य अभियंता देवनारायण प्रसाद भी स्वीकार करते हैं कि जब तक इस सेतु की मरम्मत की व्यापक परियोजना पर काम शुरू नहीं होता तब तक इसकी दशा सुधारने का प्रयास सफल नहीं हो सकता.

इधर राज्य सरकार के बार-बार आग्रह के बावजूद केंद्र की कथित चुप्पी पर पिछले दिनों मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने यहां तक कह दिया था कि अगर केंद्र सरकार उस प्रस्ताव को स्वीकृति नहीं देती है तो राज्य सरकार इस पुल के समानांतर एक दूसरा पुल बनाएगी. लेकिन नीतीश के इस बयान के कुछ ही दिनों बाद राज्य सरकार ने अपने बयान में संशोधन करते हुए कहा था कि अगर केंद्र सरकार मौजूदा सेतु की मरम्मत करने में आनाकानी करती है तो वह राज्य सरकार को अनापत्ति प्रमाण पत्र दे ताकि राज्य सरकार पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के आधार पर समानांतर पुल का निर्माण करा सके. हालांकि राज्य सरकार के इस बयान को कुछ टीकाकारों ने महज राजनीतिक बयान माना था, लेकिन इस बात पर पथनिर्माण मंत्री नंदकिशोर यादव तहलका से कहते हैं, ‘आप ही बताइए इसमें राजनीति क्या है. हम एक साल से प्रस्ताव की स्वीकृति का इंतजार कर रहे हैं और केंद्र सरकार चुप बैठी है. आखिर राज्य की जनता को परेशानी होगी तो क्या ऐसी स्थिति में राज्य सरकार वैकल्पिक उपायों पर गौर नहीं करेगी.’ वे आगे कहते हैं, ‘महात्मा गांधी सेतु बिहार की लाइफलाइन है. इसलिए इस पुल पर यातायात बाधित होने का मतलब है बिहार की गति रुक जाना. इस बात को समझते हुए हमने केंद्र सरकार से कहा है कि वह जल्द से जल्द इसकी मरम्मत के प्रस्ताव की मंजूरी दे. पर आश्चर्य की बात है कि केंद्र इस पर उदासीन बना हुआ है.’

भले ही यह सेतु केंद्र और राज्य सरकार के बीच आपसी खींचतान का विषय बना हुआ हो पर सच्चाई यह है कि इस पुल को समय
रहते सुधारा नहीं गया तो बिहार की जनता को यातायात के भयावह संकट से गुजरना पड़ेगा.

ऐसा होता भी दिख रहा है. मोकामा का राजेंद्र पुल बड़े वाहनों के लिए बंद होने के बाद पिछले चार महीने से गांधी सेतु पर जाम की भयावह समस्या खड़ी हो रही है. राज्य सरकार की तमाम कोशिशों के बाद भी जाम पर काबू नहीं हो सका तो आखिर में सरकार ने इसके लिए पटना और हाजीपुर के एसपी को जिम्मेदारी सौंपते हुए कहा कि वे हर हाल में ट्रैफिक व्यवस्था को दुरुस्त करें वरना कानूनी कार्रवाई के लिए तैयार रहें. इस दौरान कम से कम दो पुलिसकर्मी लापरवाही के आरोप में निलंबित किए जा चुके हैं. इस समस्या से पार पाना ट्रैफिक पुलिस के लिए बड़ी चुनौती बना हुआ है. इस व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त करने में लगे पटना सिटी क्षेत्र के सीडीपीओ सुशील कुमार कहते हैं, ‘हमने इस पुल पर ओवरटेक करने पर रोक लगा दी है और गतिसीमा भी नियंत्रित कर दिया है. समूचे पुल पर ट्रैफिक पुलिस की व्यवस्था की गई है और जगह-जगह क्रेन की व्यवस्था की गई है ताकि खराब वाहनों को जल्द से जल्द रास्ते से हटाया जा सके.’ ट्रैफिक पुलिस के इन प्रयासों के बावजूद कभी-कभी जाम की स्थिति इतनी भयावह हो जाती है कि 8-10 घंटे तक ट्रैफिक व्यवस्था चरमरा कर रह जाती है.

काल के गाल में

कभी एशिया का सबसे लंबा पुल कहलाने वाला महात्मा गांधी सेतु आज जर्जर हालत में है. इसकी बदहाली बिहार के 13 जिलों के लाखों लोगों को भी बेहाल कर रही है. लेकिन इस मुद्दे पर न राज्य गंभीर दिखता है और न ही केंद्र. इर्शादुल हक की रिपोर्ट

1982 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पटना और हाजीपुर को जोड़ने वाला 5.57 किलोमीटर लंबा महात्मा गांधी सेतु राष्ट्र को सौंपा था तो बिहार के बच्चे सामान्य ज्ञान की किताबों से यह याद करते हुए खुद को गौरवान्वित महसूस करते थे कि एशिया का सबसे बड़ा पुल उनके ही प्रदेश में है. इन 29 वर्षों में दुनिया काफी बदल चुकी है. एक ओर जहां चीन में 36 किलोमीटर लंबा समुद्री पुल (हैंगजोउ खाड़ी से शंघाई के बीच) बन चुका है वहीं खुद भारत में भी 11.6 किलोमीटर लंबा (हैदराबाद शहर से हैदराबाद हवाई अड्डे को जोड़ने वाला) पीवी एक्सप्रेस वे बन चुका है.

लेकिन महात्मा गांधी सेतु के लिए असल संकट यह नहीं कि उसका पहला स्थान छिन गया है, बल्कि यह तो बेमौत मरते जाने की अपनी ही पीड़ा से परेशान है. राजधानी पटना को उत्तर बिहार से जोड़ने वाले इस पुल की खस्ताहाली का असर 13 जिलों के लाखों लोगों पर पड़ रहा है.

एक तरफ भयावह जाम, दूसरी ओर क्षमता से अधिक बोझ के कारण इस पुल के भविष्य पर  भी खतरा मंडरा रहा है

महात्मा गांधी सेतु देश के उन कुछेक पुलों में से एक है जो सिंगल ज्वाइंट कैंटिलिवर प्रिस्ट्रेस तकनीक से बना है. इसमें हिंज बेयरिंग और बॉक्स ग्रिडर का इस्तेमाल किया गया है. इसके हिंज बियरिंग वाहनों के आवगमन के दौरान कंपन करते हैं. इससे पुल का ऊपरी हिस्सा भी साधारण परिस्थितियों में डेढ़ से दो इंच तक कंपन करता है जो इस तकनीक से बने पुलों की विशेषता में शुमार है. विशेषज्ञों का कहना है कि इससे पुल या इसके पायों में दरार की गुंजाइश नहीं होती. लेकिन निर्माण के मात्र 20 साल बाद 2002 में न सिर्फ यह पुल क्षतिग्रस्त हो गया बल्कि इसके सुपर स्ट्रक्चर में भी दरार की शिकायतें आ चुकी हैं. जबकि इस पुल की अनुमानित आयु 100 वर्ष थी. भारत में इस तकनीक से गोवा की मांडोवी नदी पर बना एक अन्य पुल भी है जो अपने निर्माण के मात्र 16 वर्षों में क्षतिग्रस्त हो गया. इसी तकनीक से गोआ में ही जुआरी और बोरिम नदियों पर बने पुल भी क्षतिग्रस्त हो चुके हैं और इन पुलों पर बड़े वाहनों के आवगमन पर रोक लगाई जा चुकी है. हालांकि 1980 के दशक में सिंगल ज्वाइंट कैंटिलिवर प्रिस्ट्रेस तकनीक सबसे आधुनिक समझी जाती थीे, लेकिन इस तकनीक की विफलता ने विशेषज्ञों को भी चौंका दिया है. इस संबंध में देवनारायण प्रसाद कहते हैं, ‘इस पुल का प्रिस्ट्रेस खत्म हो गया है, जिसके कारण इसके 44 हिंज बियरिंग टूट गए हैं. उसका परिणाम यह है कि पुल के पश्चिमी ट्रैक के कुछ हिस्से धंस गए हैं.’ वे अपनी बात जारी रखते हैं, ‘हम यह कोशिश कर रहे हैं कि इसे फिर से उपयोग के लायक बनाया जा सके. इसके लिए हमने इसके छतिग्रस्त 44 में से 37 हिंज बियरिंग बदल दिए हैं.’ यह पूछने पर कि 11 साल बाद भी मरम्मत का काम पूरा क्यों नहीं हो सका है, वे कहते हैं, ‘इस पुल पर ट्रैफिक का दबाव इतना है कि एक तरफ इसकी मरम्मत होती है तो दूसरी तरफ दूसरे हिंज बियरिंग टूट जाते हैं.’

वैसे तो बिहार की जीवनरेखा माना जाने वाला यह महासेतु पिछले एक दशक से क्षतिग्रस्त है पर अब इसकी दुर्दशा इतनी बढ़ चुकी है कि तमाम कोशिशों के बावजूद इस पुल पर आए दिन हजारों गाड़ियां चींटी की तरह रेंगने को विवश हैं. चार लेन वाले इस पुल में दो ट्रैक हैं और इसके पश्चिमी ट्रैक का कुछ ह

काल के गाल में

कभी एशिया का सबसे लंबा पुल कहलाने वाला महात्मा गांधी सेतु आज जर्जर हालत में है. इसकी बदहाली बिहार के 13 जिलों के लाखों लोगों को भी बेहाल कर रही है. लेकिन इस मुद्दे पर न राज्य गंभीर दिखता है और न ही केंद्र. इर्शादुल हक की रिपोर्ट

1982 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पटना और हाजीपुर को जोड़ने वाला 5.57 किलोमीटर लंबा महात्मा गांधी सेतु राष्ट्र को सौंपा था तो बिहार के बच्चे सामान्य ज्ञान की किताबों से यह याद करते हुए खुद को गौरवान्वित महसूस करते थे कि एशिया का सबसे बड़ा पुल उनके ही प्रदेश में है. इन 29 वर्षों में दुनिया काफी बदल चुकी है. एक ओर जहां चीन में 36 किलोमीटर लंबा समुद्री पुल (हैंगजोउ खाड़ी से शंघाई के बीच) बन चुका है वहीं खुद भारत में भी 11.6 किलोमीटर लंबा (हैदराबाद शहर से हैदराबाद हवाई अड्डे को जोड़ने वाला) पीवी एक्सप्रेस वे बन चुका है.

लेकिन महात्मा गांधी सेतु के लिए असल संकट यह नहीं कि उसका पहला स्थान छिन गया है, बल्कि यह तो बेमौत मरते जाने की अपनी ही पीड़ा से परेशान है. राजधानी पटना को उत्तर बिहार से जोड़ने वाले इस पुल की खस्ताहाली का असर 13 जिलों के लाखों लोगों पर पड़ रहा है.

एक तरफ भयावह जाम, दूसरी ओर क्षमता से अधिक बोझ के कारण इस पुल के भविष्य पर  भी खतरा मंडरा रहा है

महात्मा गांधी सेतु देश के उन कुछेक पुलों में से एक है जो सिंगल ज्वाइंट कैंटिलिवर प्रिस्ट्रेस तकनीक से बना है. इसमें हिंज बेयरिंग और बॉक्स ग्रिडर का इस्तेमाल किया गया है. इसके हिंज बियरिंग वाहनों के आवगमन के दौरान कंपन करते हैं. इससे पुल का ऊपरी हिस्सा भी साधारण परिस्थितियों में डेढ़ से दो इंच तक कंपन करता है जो इस तकनीक से बने पुलों की विशेषता में शुमार है. विशेषज्ञों का कहना है कि इससे पुल या इसके पायों में दरार की गुंजाइश नहीं होती. लेकिन निर्माण के मात्र 20 साल बाद 2002 में न सिर्फ यह पुल क्षतिग्रस्त हो गया बल्कि इसके सुपर स्ट्रक्चर में भी दरार की शिकायतें आ चुकी हैं. जबकि इस पुल की अनुमानित आयु 100 वर्ष थी. भारत में इस तकनीक से गोवा की मांडोवी नदी पर बना एक अन्य पुल भी है जो अपने निर्माण के मात्र 16 वर्षों में क्षतिग्रस्त हो गया. इसी तकनीक से गोआ में ही जुआरी और बोरिम नदियों पर बने पुल भी क्षतिग्रस्त हो चुके हैं और इन पुलों पर बड़े वाहनों के आवगमन पर रोक लगाई जा चुकी है. हालांकि 1980 के दशक में सिंगल ज्वाइंट कैंटिलिवर प्रिस्ट्रेस तकनीक सबसे आधुनिक समझी जाती थीे, लेकिन इस तकनीक की विफलता ने विशेषज्ञों को भी चौंका दिया है. इस संबंध में देवनारायण प्रसाद कहते हैं, ‘इस पुल का प्रिस्ट्रेस खत्म हो गया है, जिसके कारण इसके 44 हिंज बियरिंग टूट गए हैं. उसका परिणाम यह है कि पुल के पश्चिमी ट्रैक के कुछ हिस्से धंस गए हैं.’ वे अपनी बात जारी रखते हैं, ‘हम यह कोशिश कर रहे हैं कि इसे फिर से उपयोग के लायक बनाया जा सके. इसके लिए हमने इसके छतिग्रस्त 44 में से 37 हिंज बियरिंग बदल दिए हैं.’ यह पूछने पर कि 11 साल बाद भी मरम्मत का काम पूरा क्यों नहीं हो सका है, वे कहते हैं, ‘इस पुल पर ट्रैफिक का दबाव इतना है कि एक तरफ इसकी मरम्मत होती है तो दूसरी तरफ दूसरे हिंज बियरिंग टूट जाते हैं.’

वैसे तो बिहार की जीवनरेखा माना जाने वाला यह महासेतु पिछले एक दशक से क्षतिग्रस्त है पर अब इसकी दुर्दशा इतनी बढ़ चुकी है कि तमाम कोशिशों के बावजूद इस पुल पर आए दिन हजारों गाड़ियां चींटी की तरह रेंगने को विवश हैं. चार लेन वाले इस पुल में दो ट्रैक हैं और इसके पश्चिमी ट्रैक का कुछ ह

अतिक्रमण की बिसात पर शह और मात

लगभग दो माह तक अतिक्रमण की आंच में जलने के बाद झारखंड में अब तपिश कुछ ठंडी पड़ गई है. पहले कैबिनेट और फिर राज्यपाल एमओएच फारूख बिल्डिंग बायलॉज संबंधित अध्यादेश को मंजूरी दे चुके हैं. हालांकि अध्यादेश में पेंच-दर-पेंच फंसेंगे, यह तय है. अध्यादेश पारित होने के बाद मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने तुरंत कहा कि यह जनता के हित में है और अब विपक्ष के पास इसे लेकर कोई तर्क नहीं है तो वह अनर्गल बयानबाजी कर रहा है. उधर, प्रतिपक्ष के नेता राजेंद्र सिंह का कहना था कि सरकार के इस अध्यादेश से बिल्डरों को फायदा होगा. प्रतिपक्ष के स्वर सत्ता पक्ष की ओर से भी निकल रहे हैं. झामुमो विधायक साइमन मरांडी कहते हैं, ‘सरकार जमीन घोटालेबाजों को बचाने में लगी है और इस अध्यादेश से गरीबों-आदिवासियों को और हाशिये पर धकेलने की तैयारी हुई है.’ झामुमो के ही दूसरे विधायक नलिन सोरेन कहते हैं, ‘यह अध्यादेश अमीरों के लिए है.’ विधानसभा अध्यक्ष सीपी सिंह भी इस अध्यादेश को अधूरा बता रहे हैं.

यानी अर्जुन मुंडा लगातार घिरते हुए दिख रहे हैं. बहुत हद तक अपनों के घात-प्रतिघात ने ही उनके आसपास भंवरजाल बनाना शुरू कर दिया है. यशवंत सिन्हा, सीपी सिंह, रघुवर दास जैसे नेता पहले ही रांची में धरने से लेकर दिल्ली दरबार में दस्तक के जरिए अपना विरोध जता चुके हैं. बाद के दिनों में भाजपा और अर्जुन मुंडा के सिपहसलार रहे प्रदेश भाजपा के प्रवक्ता संजय सेठ और पूर्व विधायक चंद्रेश उरांव के बहाने पार्टी में व्याप्त असंतोष और अंतर्कलह भी सामने आया.

इन सबके बीच अतिक्रमण की बिसात पर जो राजनीतिक मोहरे बिछाए गए उसमें हर किसी ने राजनीतिक फसल काटने की कोशिश की. प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और झारखंड विकास मोर्चा के प्रमुख बाबूलाल मरांडी ने अनशन की राजनीति करके एक साथ कई निशाने साधने की कोशिश की. बाबूलाल राजधानी रांची के मोरहाबादी मैदान में 150 घंटे तक आमरण अनशन पर बैठे रहे और अनशन से ही भाजपा-कांग्रेस सबकी राजनीतिक चालों को साधते दिखे. उसी अनशन स्थल पर भाजपा नेता और विधानसभा अध्यक्ष सीपी सिंह पहुंचे तो पार्टी में बड़ा बवाल मचा, लेकिन सीपी सिंह अब राज्य के वरिष्ठ नेताओं की श्रेणी में आते हैं, इसलिए पार्टी कसमसाकर रह गई. सवाल-जवाब भी न किया जा सका. वहीं भाजपा प्रवक्ता संजय सेठ और पूर्व विधायक चंद्रेश उरांव का राजनीतिक कद सीपी सिंह की तरह बड़ा नहीं था, इसलिए अनशन स्थल पर पहुंचने के एवज में उन्हें बाहर का रास्ता देखना पड़ा. खार खाए संजय को अब भाजपा में तमाम बुराइयां दिखने लगी हैं. वे कहते  हैं, ‘सरकार गरीबों पर बुलडोजर चलाने वाली है, इसे कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है.’ सेठ अपनी बात में एक लाइन और जोड़ते हैं, ‘बाबूलाल गरीबों के नेता हैं.’

भाजपा के सहारे राजनीतिक पहचान बनाने वाले संजय सेठ अब उस दल के सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी बाबूलाल में मसीहाई छवि तलाश रहे हैं तो इसके राजनीतिक मायने भी कोई कम नहीं हैं. पूर्व विधायक चंद्रेश उरांव तो सेठ से भी दो कदम आगे निकले. भाजपा से हटने के बाद उन्होंने बजाप्ता सिर मुंडवा लिया है और वे कहते हैं कि उन्होंने शुद्धिकरण की प्रक्रिया अपनाई है. उनके मुताबिक वे एक अध्याय खत्म कर चुके हैं और दूसरा अध्याय बाबूलाल के साथ शुरू करेंगे, जिनकी राजनीति में उन्हें गांधी की छवि नजर आती है. चंद्रेश कहते हैं, ‘भाजपा की शैली तो अंग्रेजों से भी ज्यादा बर्बर है.’

चंद्रेश या सेठ की राजनीतिक हैसियत उतनी बड़ी नहीं कि वे पार्टी का कुछ बिगाड़ सकें लेकिन यशवंत सिन्हा, सीपी सिंह और रघुवर दास तथा दूसरे ध्रुव से मुंडा के खिलाफ आवाज उठाते रहने वाले लोकसभा उपाध्यक्ष कड़िया मुंडा, विधायक नीलकंठ सिंह मुंडा जरूर आने वाले दिनों में कुछ खेल बिगाड़ सकते हैं.

इन सभी राजनीतिक घटनाओं के बीच बाबूलाल और उनके समर्थकों की खुशी देखते ही बन रही है. झाविमो के एक संगठन मंत्री कहते हैं, ‘हमारे नेता आज नहीं, कल के लिए मजबूत राजनीतिक बुनियाद तैयार करने में लगे हुए हैं.’ जब बाबूलाल से इस बाबत बात होती है तो वे कहते हैं, ‘मेरे अनशन में जिसे राजनीतिक तत्व तलाशना हो तलाशते रहे, मैं तो जनता के पक्ष में यह सब कर रहा हूं.’ यह जरूर है कि बाबूलाल ने अनशन के बहाने एक साथ कई निशाने साधने में कामयाबी हासिल की है. पहला तो यह कि अतिक्रमण के मसले पर कांग्रेस विपक्ष की आवाज बन रही थी और केंद्रीय मंत्री और रांची से सांसद सुबोध कांत सहाय उसके चमकदार नेता के तौर पर उभर रहे थे. बाबूलाल के इस अनशन से कांग्रेस और सुबोधकांत के अभियान पर फिलहाल ब्रेक लगता दिख रहा है. उनकी दूसरी सफलता यह रही कि भाजपा का अंतर्कलह सतह पर आ गया. तीसरी बात यह कि अब जो भी अध्यादेश वगैरह पारित हुए हैं उनका श्रेय अपने खाते में दिखाने के लिए झाविमो कार्यकर्ता प्रदेश भर में लग गए हैं. अहम बात यह भी है कि आंशिक ही सही बाबूलाल को उस दाग को धोने में सफलता मिलती दिख रही है जो उन पर नौ साल पहले मुख्यमंत्री रहते हुए डोमिसाइल नीति विवाद के बाद लगा था.

आने वाले दिनों में अतिक्रमण से उफनी राजनीति का क्या फलसफा होगा, किसे कितना नफा-नुकसान होगा, यह तो अभी से बताने की स्थिति में कोई नहीं लेकिन यह तय है कि भाजपा को अपने ही दलों के घातियों-प्रतिघातियों से निपटने की चुनौती से दो-चार होना पड़ेगा.

अभी इंटरवल हुआ है. कांग्रेस अब धरना-प्रदर्शन करके राजनीति को साधने की कोशिश में लगी हुई है. उधर, भाजपा की नजर आदिवासी-मूलवासी वोटों पर है तो उसकी अोर से पिछले दरवाजे से यह संदेश फैलाया जा रहा है कि इस अतिक्रमण से आदिवासी-मूलवासी को कोई नुकसान नहीं हुआ है. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिनेशानंद गोस्वामी कहते हैं, ‘अपना अनशन प्रभावकारी बनाने के लिए बाबूलाल मरांडी ने फिल्मी कलाकारों के लटके-झटके से लेकर तमाम कोशिशें कीं, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. जनता उनके साथ नहीं जा सकी.’

अतिक्रमण की बिसात पर शह और मात

लगभग दो माह तक अतिक्रमण की आंच में जलने के बाद झारखंड में अब तपिश कुछ ठंडी पड़ गई है. पहले कैबिनेट और फिर राज्यपाल एमओएच फारूख बिल्डिंग बायलॉज संबंधित अध्यादेश को मंजूरी दे चुके हैं. हालांकि अध्यादेश में पेंच-दर-पेंच फंसेंगे, यह तय है. अध्यादेश पारित होने के बाद मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने तुरंत कहा कि यह जनता के हित में है और अब विपक्ष के पास इसे लेकर कोई तर्क नहीं है तो वह अनर्गल बयानबाजी कर रहा है. उधर, प्रतिपक्ष के नेता राजेंद्र सिंह का कहना था कि सरकार के इस अध्यादेश से बिल्डरों को फायदा होगा. प्रतिपक्ष के स्वर सत्ता पक्ष की ओर से भी निकल रहे हैं. झामुमो विधायक साइमन मरांडी कहते हैं, ‘सरकार जमीन घोटालेबाजों को बचाने में लगी है और इस अध्यादेश से गरीबों-आदिवासियों को और हाशिये पर धकेलने की तैयारी हुई है.’ झामुमो के ही दूसरे विधायक नलिन सोरेन कहते हैं, ‘यह अध्यादेश अमीरों के लिए है.’ विधानसभा अध्यक्ष सीपी सिंह भी इस अध्यादेश को अधूरा बता रहे हैं.

यानी अर्जुन मुंडा लगातार घिरते हुए दिख रहे हैं. बहुत हद तक अपनों के घात-प्रतिघात ने ही उनके आसपास भंवरजाल बनाना शुरू कर दिया है. यशवंत सिन्हा, सीपी सिंह, रघुवर दास जैसे नेता पहले ही रांची में धरने से लेकर दिल्ली दरबार में दस्तक के जरिए अपना विरोध जता चुके हैं. बाद के दिनों में भाजपा और अर्जुन मुंडा के सिपहसलार रहे प्रदेश भाजपा के प्रवक्ता संजय सेठ और पूर्व विधायक चंद्रेश उरांव के बहाने पार्टी में व्याप्त असंतोष और अंतर्कलह भी सामने आया.

इन सबके बीच अतिक्रमण की बिसात पर जो राजनीतिक मोहरे बिछाए गए उसमें हर किसी ने राजनीतिक फसल काटने की कोशिश की. प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और झारखंड विकास मोर्चा के प्रमुख बाबूलाल मरांडी ने अनशन की राजनीति करके एक साथ कई निशाने साधने की कोशिश की. बाबूलाल राजधानी रांची के मोरहाबादी मैदान में 150 घंटे तक आमरण अनशन पर बैठे रहे और अनशन से ही भाजपा-कांग्रेस सबकी राजनीतिक चालों को साधते दिखे. उसी अनशन स्थल पर भाजपा नेता और विधानसभा अध्यक्ष सीपी सिंह पहुंचे तो पार्टी में बड़ा बवाल मचा, लेकिन सीपी सिंह अब राज्य के वरिष्ठ नेताओं की श्रेणी में आते हैं, इसलिए पार्टी कसमसाकर रह गई. सवाल-जवाब भी न किया जा सका. वहीं भाजपा प्रवक्ता संजय सेठ और पूर्व विधायक चंद्रेश उरांव का राजनीतिक कद सीपी सिंह की तरह बड़ा नहीं था, इसलिए अनशन स्थल पर पहुंचने के एवज में उन्हें बाहर का रास्ता देखना पड़ा. खार खाए संजय को अब भाजपा में तमाम बुराइयां दिखने लगी हैं. वे कहते  हैं, ‘सरकार गरीबों पर बुलडोजर चलाने वाली है, इसे कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है.’ सेठ अपनी बात में एक लाइन और जोड़ते हैं, ‘बाबूलाल गरीबों के नेता हैं.’

भाजपा के सहारे राजनीतिक पहचान बनाने वाले संजय सेठ अब उस दल के सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी बाबूलाल में मसीहाई छवि तलाश रहे हैं तो इसके राजनीतिक मायने भी कोई कम नहीं हैं. पूर्व विधायक चंद्रेश उरांव तो सेठ से भी दो कदम आगे निकले. भाजपा से हटने के बाद उन्होंने बजाप्ता सिर मुंडवा लिया है और वे कहते हैं कि उन्होंने शुद्धिक

आधे हथियार और मिट्टी से इश्क : शागिर्द

फिल्‍म शागिर्द
निर्देशक 
तिग्मांशु धूलिया     
कलाकार
नाना पाटेकर, जाकिर हुसैन, मोहित अहलावत, अनुराग कश्यप

तिग्मांशु धूलिया के पास कुछ ऐसी चीजें हैं जो उनकी शैली की फिल्में बनाने वाले समकालीन फिल्मकारों के पास उस तरह से नहीं हैं. अनुराग और विशाल के पास आपराधिक डार्क ह्यूमर हैं लेकिन अनुराग उनकी कहानियां कहते-कहते थोड़ा शहर की तरफ बढ़ जाते हैं और विशाल गांव की तरफ. अपनी पहली फिल्म ‘हासिल’ की तरह तिग्मांशु छोटे शहर या कस्बे को बेहद विश्वसनीय ढंग से दिखाते हैं. हैरत की बात यह है कि इस बार वे पुरानी दिल्ली में उसे खोजते हैं. इस तरह उनकी पूरी फिल्म मिट्टी के रंग की हो जाती है.  ‘शागिर्द’ के कई महत्वपूर्ण सीक्वेंस दिल्ली के ऐसे ही खंडहर किलों, पुरानी दिल्ली के गोदामों या टूटे दरवाजे वाले घरों के आसपास हैं. तिग्मांशु की अच्छी बात यही है कि कहानी फिल्माने का उनका एक मौलिक स्वर है. लेकिन ‘शागिर्द’ वहां बिखरती है, जहां उसके सामने सवाल आता है कि सेट तैयार है और मूड भी, लेकिन अब अपनी कहानी कहो. तब तिग्मांशु जैसे अस्सी या नब्बे के दशक की उन कहानियों की तरफ जाते हैं जिनमें एक मंत्री या नेता को राजनीति का प्रतिनिधि दिखाया जाता था, एक पुलिस अफसर को पुलिस का और उनकी यारी या दुश्मनी की कहानी कही जाती थी. इसीलिए तिग्मांशु के पास मजेदार जमीनी डायलॉग तो हैं लेकिन कहानी उनकी अपनी नहीं लगती. इसलिए न तो वह वैसी सिहरन पैदा कर पाती है जैसा नैतिकता के सवाल में न फंसी हुई किसी फिल्म को करना चाहिए और न ही अपने किरदारों से मोह जगा पाती है.  गलियों और सड़क के कुछ दृश्य आपको बेहद खूबसूरत लगते हैं और उनके और कुछ अच्छे डायलॉग्स, अच्छे अभिनेताओं के सहारे आप फिल्म देखते जाते हैं. लेकिन फिल्म में पत्रकार बनी रिमी सेन जब पुलिस पर भ्रष्ट होने का आरोप लगाकर चिल्लाती हैं तो वह बहुत बार सुनी बात लगती है. स्टिंग ऑपरेशन और फिल्में ही हमें इतना कुछ दिखा चुके हैं कि किसी नेता का अपने स्वार्थ के लिए अपने ही किसी भी आदमी को मरवा देना तक हमें चौंकाता नहीं. फिल्म जितनी गोलियां खर्च करती है, उतनी क्रूर होने की बजाय साधारण होती जाती है.

लेकिन शागिर्द के पास नाना पाटेकर हैं जो ‘अब तक छप्पन’ के अपने किरदार के एक विस्तार में ही हैं लेकिन कहीं-कहीं नयी तरह से मंत्रमुग्ध करते हैं. उनसे भी ज्यादा मुग्ध जाकिर हुसैन करते हैं जिन्हें देखा जाना अभी बाकी है और उन्हें इससे पहले शायद ही इतना महत्वपूर्ण किरदार मिला हो. मोहित अहलावत बस इतना करते हैं कि काम बिगाड़ते नहीं, लेकिन कहीं-कहीं तो वे सहजता से खड़े भी नहीं हो पाते. ‘आई एम’ में कमजोर पड़े अनुराग कश्यप अपने पहले बड़े किरदार में पास हो जाते हैं.

तिग्मांशु की एक कमी और रही. गाना तो था ही नहीं, बैकग्राउंड संगीत भी कहीं फिल्म में कुछ जोड़ता नहीं. जबकि अनुराग और विशाल की ऐसी फिल्मों में संगीत ही काफी असर पैदा करता है. इसीलिए लगता है कि तिग्मांशु आधे हथियार लेकर क्यों उतरे हैं?  

-गौरव सोलंकी

शिक्षा पर भारी ठेकेदारी

मुसलमानों को अच्छी तालीम मुहैया कराने के मकसद से सर सैय्यद अहमद खां ने अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय (एएमयू) की स्थापना की थी. लेकिन पिछले 30 वर्षों के दौरान एक नहीं बल्कि कई बार ऐसे मौके आए हैं जब शिक्षकों और छात्रों के दो गुटों द्वारा इस संस्था को राजनीति का अखाड़ा बनाने के आरोप लगे हैं. कई बार बात इससे भी आगे गई है और इल्जाम लगा है कि निर्माण कार्यों के ठेके से लेकर छात्रों के एडमिशन में पैसा वसूलने के रूप में विश्वविद्यालय काली कमाई का एक बहुत बड़ा जरिया बन गया है. अंग्रेजी विभाग के प्रोफेसर मदीउर्रहमान बताते हैं, ‘इस जरिये पर काबिज होने के लिए शिक्षकों और छात्रों के दो गुटों में कई साल से तलवारे खिंची हुई हैं. जिस गुट के लोगों को ठेके मिल जाते हैं वह कुलपति के पक्ष में खड़ा होता है और जिसे ठेके नहीं मिल पाते वो वीसी व उनके सहयोगी गुट के खिलाफ खड़ा हो जाता है. शिक्षकों के गुट छात्रों को अपना हथियार बनाते हैं.’ एएमयू के पूर्व छात्र माजिन बताते हैं कि साइकिल स्टैंड, कैंटीन, कैंपस में दुकानों, गार्डों की वर्दी आदि के ठेके पाने के लिए शिक्षकों में होड़-सी लगी रहती है और इस तरह के ठेके इंतजामिया के रिश्तेदार व उनसे जुडे़ लोगों को ही दिए जाते हैं.

हाल ही में हुई एक हिंसक घटना से यह मुद्दा फिर सुर्खियों में आ गया. 28 अप्रैल की रात जब एक छात्र नेता मुश्ताक अपने पांच साथियों के साथ कंट्रोलर प्रो परवेज और डिप्टी कंट्रोलर रिजवानुर्रहमान के पास एक छात्र का एडमिशन खारिज होने का कारण पूछने गए तो उनके बीच विवाद इतना बढ़ गया कि रिजवानुरहमान और मुश्ताक में मारपीट  हो गई. मारपीट की सूचना मिलने पर कंट्रोलर ऑफिस पर मुश्ताक के पक्ष में छात्र इकट्ठे होने शुरू हो गए. इसके जवाब में छात्रों का एक गुट कंट्रोलर और डिप्टी कंट्रोलर के पक्ष में भी आ खड़ा हुआ. जिला प्रशासन के आला अधिकारियों ने मौके पर पहुंचकर मामला शांत करवाया.

बताया जाता है कि इस घटना के बाद छात्रों का एक गुट लगातार कंट्रोलर और डिप्टी कंट्रोलर को हटाने की मांग कर रहा था और अध्यापकों का एक गुट इनका समर्थन कर रहा था. वहीं दूसरी ओर कंट्रोलर व डिप्टी कंट्रोलर को भी दूसरे गुट से सहयोग मिल रहा था. यहीं से वर्चस्व की यह लड़ाई शुरू हो गई. 29 अप्रैल की शाम मेडिकल रोड स्थित जकरिया मार्केट पर छात्रों के एक गुट ने दूसरे पर हमला बोल दिया. मौके पर पहुंचे पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों ने मामला शांत कराया. इस घटना के बाद छात्रों का एक गुट अपनी बात रखने के लिए प्रॉक्टर कार्यालय पहुंचा. इसी दौरान छात्रों के दूसरे गुट ने प्रॉक्टर कार्यालय को घेर लिया. कुछ देर बाद दोनों ओर से फायरिंग शुरू हो गई. लगभग दो घंटे तक चले इस खूनी टकराव में नौ छात्र घायल हुए. इसके बाद एएमयू के कार्यवाहक कुलपति प्रो अबरार हसन ने एएमयू को अनिश्चितकाल के लिए बंद करने का फैसला लिया और छात्रों को कैंपस खाली करने के लिए 48 घंटे का समय दिया गया. टकराव से पहले शिकायत दर्ज कराने प्रॉक्टर कार्यालय पहुंचे छात्रों में से एक बुरहान खान कहते हैं, ‘हम मेडिकल पर हुई झड़प की शिकायत करने प्रॉक्टर प्रो. मुजाहिद बेग से करने आए थे. हम लोग यहां पर आए हैं इसकी जानकारी दूसरे गुट को कैसे हो गई? हमें पूरा विश्वास है कि इसकी जानकारी खुद मुजाहिद बेग ने दूसरे गुट को दी होगी. दूसरे गुट ने वहां पहुंचकर हमारे ऊपर फायरिंग शुरू कर दी. हम प्राक्टर से गुहार लगाते रहे कि आप पुलिस को फोन करें और हमें बचाएं पर बेग साहब ने हमारी एक न सुनी और वह खुद अपने कार्यालय के पीछे के गेट से भाग खडे़ हुए.’ बुरहान बताते हैं कि छात्रों के दो गुटों में हुई लड़ाई की वजह प्रॉक्टर बेग ही हैं जो कंट्रोलर को हटाना चाहते हैं.

इस खूनी टकराव से पहले इन सभी छात्रों ने मिलकर छात्र संघ चुनाव कराने को लेकर तकरीबन दो महीने तक ऐतिहासिक धरना चलाया था. तब कोई भी छात्र गुट हावी नहीं था. सभी एक साथ थे. छात्र संघ बनने के बाद छात्र गुटों में बंट जाएंगे इसका अंदेशा तो सभी को था लेकिन यह इतनी जल्दी हो जाएगा ऐसी उम्मीद लोगों को न थी.

बेग कुछ दिनों पहले ही प्रॉक्टर बने हैं और उन्हें लगातार विरोधों का सामना करना पड़ रहा है. बेग का विवादों से पुराना नाता है. जब वे छात्र थे तब उन्होंने पास होने के लिए अपने शिक्षक डाॅ अबु कमर के घर जाकर उनकी पत्नी पर रिवाल्वर तान दी थी. डॉ कमर ने पुलिस में लिखित शिकायत दर्ज कराई थी और बेग को निलंबित कर दिया गया था. तीन साल पहले एएमयू में जरनल बॉडी की मीटिंग के दौरान उन पर महिला शिक्षक रिहान रजा से छेड़खानी का भी आरोप लगा था. इसके बावजूद उन्हें इतना अहम ओहदा मिलना कई शिक्षकों और छात्रों को हैरान कर रहा है.

निर्माण कार्यों के ठेके से लेकर छात्रों के एडमिशन में पैसा वसूलने के रूप में विश्वविद्यालय काली कमाई का एक बहुत बड़ा जरिया बन गया है

छात्रों में हुए खूनी टकराव के बाद एएमयू में की गई साइनडाई के विरोध में एएमयू टीचर्स एसोसिएशन (अमुटा) ने स्टाफ क्लब के सामने अनिश्चितकालीन धरना शुरू कर दिया. उनकी मांग थी कि साइनडाई समाप्त हो और कुलपति व प्रॉक्टर भी अपने पद से इस्तीफा दें. अमुटा के अध्यक्ष प्रो. अब्दुल कय्यूम कहते हैं, ‘छात्र संघ के चुनाव के बाद कुछ छात्रों की खरीद-फरोख्त हुई. प्रॉक्टर ने दबंग छात्र अपने पास रखे व कुछ कंट्रोलर से जुड़ गए. यह बवाल इसी का नतीजा है.’ शिक्षकों का धरना चल ही रहा था कि छात्र संघ ने भी साइनडाई के विरोध में अपना तंबू गाड़ दिया. छात्र संघ के अध्यक्ष अबु अफ्फान फारुखी कहते हैं, ‘आखिरकार ऐसा माहौल क्यों बनता है कि इंतजामिया को हर साल एएमयू में साइनडाई करनी पड़ती है? इस साइनडाई की जांच क्यों नहीं होती? यह सब प्रॉक्टर बेग की चाल है.’ वे चाहते हैं कि एएमयू में एक ही तरह की सोच के लोग रहें जिससे उनका धंधा चल सके.

उधर, चारों तरफ से विरोध झेल रहे प्रॉक्टर मुजाहिद बेग खुद को निर्दोष बताते हैं. वे कहते हैं, ‘मैं छात्र जीवन से ही सही बात के लिए लड़ रहा हूं. हम लोगों का एक गुट है और हम गलत चीजों के विरोध में लड़ते आए हैं इसलिए हमसे कुछ लोग भय खाते हैं. मेरे खिलाफ दो रिपोर्टें हुई हैं और मैं दोनों मामलों में बरी हुआ. मेरे और मेरे साथ के लोगों पर झूठे केस लगवाए जाते हैं. एक गुट है जो पिछले 30 सालों से एएमयू को चूस रहा है. यहां सारे ठेके इस गुट को जाते थे. ये लोग करोड़ों कमाते थे. अब इनकी कमाई वीसी साहब ने बंद कर दी है. अब इस गुट के शिक्षकों ने वीसी पर भी झूठे केस लगाना शुरू कर दिया है.’ कैंपस में अफवाह यह भी है कि इंतजामिया से जुडे़ अफसरों के बच्चों को दाखिला दिलाने के लिए भी कंट्रोलर को हटाने की कोशिश की जा रही है.

शिक्षकों और छात्रसंघ का बढ़ता दबाव काम आया और वीसी पीके अब्दुल अजीज ने 16 मई को एएमयू खोलने का आदेश जारी कर दिया. उनका कहना है कि जिस समय छात्रों के बीच टकराव हुआ तब वे केरल में थे. उनके मुताबिक साइनडाई का फैसला इसलिए लिया गया कि हालात बहुत नाजुक थे और वे कैंपस में खून की एक बूंद भी देखना नहीं चाहते थे. वे कहते हैं कि किसी भी छात्र का सत्र बर्बाद नहीं. होने दिया जाएगा. कुलपति ने 29 अप्रैल की रात कैंपस में हुए बवाल के सिलसिले में 38 छात्रों को तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया है और उनके कैंपस में प्रवेश पर भी रोक लगा दी गई है.

लेकिन सवाल उठता है कि बीमारी की वजहों की बजाय सिर्फ उसके लक्षणों का इलाज करने से क्या होगा.