निरुत्तर प्रदेश

जब पाकिस्तान से बात हो सकती है, तब किसानों से क्यों नहीं? मशहूर शायर और फिल्म लेखक जावेद अख्तर ने जब लखनऊ में भट्टा-पारसौल के किसान आंदोलन के सिलसिले में यह बात कही तब शायद उन्हें यह याद नहीं रहा होगा कि उत्तर प्रदेश में आखिर हुकूमत किसकी है? क्योंकि हर कोई यह जानता है कि उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती या उनकी सरकार से ऐसी कोई लोकतांत्रिक उम्मीद करना उतना ही बेमानी है, जिस तरह रेत से पानी निकालना.

मायावती उत्तर प्रदेश में इस बार चार साल पूरे कर चुकी हैं. सरकारी विज्ञापनों में उनकी सरकार को सर्वजन की सरकार कहा जाता है, मगर हकीकत यह है कि इन चार वर्षों में इस सरकार ने कोई एक भी ऐसा काम नहीं किया जो उनकी सरकार को सर्वजन की साबित करता हो. जब मायावती चुनाव मैदान में थीं तो उनका नारा था, ‘चढ़ गुंडन की छाती पर, मोहर लगेगी हाथी पर’ लेकिन वे गद्दीनशीन क्या हुई, इस नारे के मायने ही बदल गए. अब गुंडन का अर्थ ‘जनता’ हो गया है जिसकी छाती पर चढ़ने के लिए मायावती के पास पुलिस का डंडा है और जिसकी सवारी का मजा अब सिर्फ मायावती ही नहीं, उनकी पूरी सरकार ले रही है. पूरी पार्टी ले रही है.

लेकिन इस मजे की भनक किसी और के कानों में भी न पड़े, इसका भी पूरा इंतजाम है. जानकार बताते हैं कि लोकतंत्र के विभिन्न खंभों से लेकर मीडिया तक, हर जगह ‘मैनेज’ करने वाले मैनेजरों की एक पूरी टीम मायावती के साथ है. वे जैसा चाहती हैं वैसा ही होता है. लेकिन कभी-कभी ‘मैनेज’ करने की हर संभव कोशिशों के बाद भी चूकें हो ही जाती हैं. भट्टा-पारसौल में किसानों के विरोध के मामले में भी ऐसा ही हुआ है. शायद इसलिए कि ग्रेटर नोएडा दिल्ली के बेहद करीब है और तमाम टीवी न्यूज चैनलों के दफ्तर भी नोएडा में ही हैं. मायावती सरकार का जो दमनकारी, निष्ठुर, बर्बर और अलोकतांत्रिक चेहरा भट्टा-परसौल में दिखाई दिया है  वही इस सरकार का असली चरित्र है और उत्तर प्रदेश की जनता पिछले चार वर्षों से ऐसा ही देखते-सहते चली आ रही है.

किसान साफ समझ रहा है कि जिस भाव से जमीन उससे ली जा रही है, उनका धंधा करने वाले उससे कई-कई गुना ज्यादा कमा रहे हैं

भट्टा-पारसौल में किसान करीब 100 दिन से धरना दे रहे थे. अपनी मांगों के लिए आवाज उठा रहे थे. मगर उत्तर प्रदेश सरकार के नक्कारखाने में भला उनकी तूती की आवाज कौन सुनने वाला था. इसलिए इन 100 दिनों में सरकार के किसी भी प्रतिनिधि ने किसानों की समस्याओं को सुनकर उनका समाधान करने की कोई पहल नहीं की. मगर जब शनिवार को हिंसा में पांच लोगों की मौत के बाद स्थिति विस्फोटक हो गई तब सरकार ने दमन का ऐसा बर्बर चक्र शुरू कर दिया कि बेचारे किसान उसमें महाभारत के अभिमन्यु की तरह फंसकर रह गए. सैकड़ों ग्रामीणों को पुलिसिया आतंक से भयभीत होकर गांव छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा. दर्जनों लोगों के हाथ-पैर तोड़ डाले गए. घरों के दरवाजे, भांड़े-बर्तन, स्कूटर, मोटरसाइकिल, ट्रैक्टर, पंप-इंजन, खेत और खलिहान सब कुछ पुलिस की नृशंसता की भेंट चढ़ गए. किसानों के नेता मनवीर सिंह तेवतिया को 50 हजार रुपये का इनामी अपराधी घोषित कर दिया गया. कई अन्य लोगों को भी इनामी अपराधी बना दिया गया. मायावती की कृपा से राज्य के पुलिस मुखिया बनने को आतुर एक विशेष पुलिस महानिदेशक ने पत्रकारों के सामने रहस्योद्घाटन किया कि मनवीर सिंह तो पुराना अपराधी है. उस पर हत्या, बलवा, लूटमार आदि के 19 मुकदमे दर्ज हैं. उसका एक गैंग भी है. उसने घटनास्थल पर भारी मात्रा में अवैध हथियार भी जमा कर रखे थे. हालांकि जब पत्रकारों ने उनसे पूछा कि अगर यह सब सच है तो पुलिस ने अब तक तेवतिया के खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की, तो विशेष पुलिस महानिदेशक बगलें झांकते नजर आए. दरसल भट्टा-पारसौल की घटनाओं ने साबित कर दिया है कि मायावती की पुलिस किसी भी हद तक जा सकती है. मनवीर सिंह तो बहुत ही छोटी मछली हैं. सूबे की सर्व शक्तिमान सर्वजन सरकार के सामने टिक पाना उनके लिए आसान काम नहीं होगा.

शनिवार की हिंसा के बाद अगले दिन जो तांडव पुलिस ने भट्टा पारसौल, मुतैना और अच्छेपुर गांवों में किया, उसकी असलियत खुल न जाए इसलिए उस इलाके में मीडिया के प्रवेश तक को प्रतिबंधित कर दिया गया. हालांकि इन गांवों में सिर्फ धारा 144 लागू थी और सामान्यतः कर्फ्यू अथवा आतंकी हमले जैसी स्थितियों में भी मीडिया को विशेष अनुमति या पास के जरिए ऐसे इलाकों में जाने की छूट होती है. लेकिन भट्टा-परसौल को इस तरह सील कर दिया गया कि वहां का कोई भी सच बाहर न आ सके. लोकतांत्रिक संस्थाओं का इतना सम्मान भीमराव अंबेडकर के नाम पर राजनीति की रोटियां सेंकने और चौराहे-चौराहे उनकी मूर्तियां लगवाने वाली मायावती सरकार ही कर सकती है. बावजूद इसके जब तहलका सहित तमाम मीडिया संस्थानों ने छापामार तरीके से भट्टा-पारसौल पहुंचकर मौके की हकीकत देखी तो राज्य सरकार के दमन का असली चेहरा साफ होने लगा.

विडंबना देखिए कि जो प्रदेश सरकार इन दिनों विज्ञापन अभियान चला कर ‘किसान भाइयों से अपनी मिट्टी को पहचानने’ का आह्वान कर रही है, वही सरकार बिल्डरों और भू-माफियाओं के हाथों में खेल कर किसानों को उनकी जमीन से उखाड़ फेंकने का अभियान चला रही है. यमुना एक्सप्रेस वे के लिए 43,000 हेक्टेयर, इसके साथ की टाउनशिप के लिए 40,000 हेक्टेयर, गंगा एक्सप्रेस वे के लिए 30,000 एकड़, ग्रेटर नोएडा के लिए 2,400 एकड़, कुशीनगर में बौद्ध परिपथ आदि के लिए 2,100 एकड़ और लखनऊ के आसपास बिल्डरों के लिए 1,200 एकड़ जमीन अधिगृहीत की जा चुकी है या अधिग्रहण की तैयारी है. इलाहाबाद के आसपास भी ऐसा ही चल रहा है और बरेली, मेरठ, मुरादाबाद आदि जगहों पर भी. इनमें से ज्यादातर जमीन खेती की है. किसान साफ समझ रहा है कि सरकार डंडे के जोर पर उसे बर्बाद कर रही है, लूट रही है. जिस भाव से जमीन उससे ली जा रही है, उनका धंधा करने वाले उससे कई-कई गुना ज्यादा कमा रहे हैं. यही किसान के असंतोष की असली वजह है. लेकिन सरकार इसे मानने को तैयार नहीं, सरकार की नजर में किसान खुशी-खुशी अपनी जमीन देने को तैयार है. नेता उसे बेवजह बहका रहे हैं.

मायावती सरकार पर निरंकुशता का दंभ इस कदर हावी है कि शनिवार की भयावह हिंसा के बाद भी जनता के बीच जाकर लोगों के जख्म सहलाने की कोई कोशिश सरकार की ओर से नहीं हुई. मुख्यमंत्री मायावती तो आखिर सूबे की महारानी ही हैं मगर उनका कोई बड़ा दरबारी, कोई मंत्री या कोई उच्च अधिकारी भी जनता को राहत देने के लिए वहां नहीं भेजा गया. राज्य के कैबिनेट सचिव लखनऊ में पत्रकारों के बीच हर रोज प्रकट होते रहे और मायावती की ओर से प्रेस नोट पढ़ते रहे कि भट्टा-पारसौल में कोई समस्या नहीं है. वहां मुआवजे का कोई विवाद नहीं है और मनवीर तेवतिया बहुत बड़ा अपराधी है आदि-आदि. लेकिन जब राहुल गांधी ने भट्टा-पारसौल में ही रुकने की घोषणा कर डाली तो येन केन प्रकारेण उन्हें दिल्ली की सीमा तक छोड़कर राज्य सरकार डैमेज कंट्रोल में जुट गई और मायावती को खुद ही आकर मीडिया से मुखातिब होना पड़ा. मीडिया के सामने प्रेस नोट पढ़ते हुए मायावती ने एक बार फिर खंभा नोचने की कोशिश की और फिर दोहराया कि भट्टा-पारसौल में मुआवजे का कोई विवाद नहीं था. जमीन ग्रेटर नोएडा अथॉरिटी अधिकारी ने ली थी. मुआवजा 2009 में ही दे दिया गया था. यानी वहां कोई समस्या थी ही नहीं. शायद तेज धूप और लू का असर होगा कि किसान धरने पर बैठ-बैठ कर बेकाबू हो गए और मरने-मारने पर उतारू हो गए. मायावती ने दो और बातें भी कहीं. एक यह कि विपक्षी दलों के पास उनकी सरकार के खिलाफ कोई मुद्दा ही नहीं है इसलिए वे इस तरह की हरकत कर रहे हैं और इस मुद्दे को हवा दे रहे हैं. दूसरी बात यह है कि जमीन ग्रेटर नोएडा अथॉरिटी ने अधिगृहीत की है यानी यह जमीन मायावती सरकार के बिल्डर सहयोगी जेपी ग्रुप आदि के लिए नहीं ली गई है.

मायावती का लोकतंत्र में कितना विश्वास है इसका अंदाज उनके इसी बयान से लग जाता है कि राहुल गांधी की अपने घर में कुछ चल नहीं रही इसीलिए उन्होने भट्टा-पारसौल में जाने की ओछी और घिनौनी हरकत की. इसमें कोई शक नहीं कि राहुल गांधी की पार्टी के राज वाले महाराष्ट्र सरीखे और भाजपा के राज वाले कई प्रदेशों में भी जमीन अधिग्रहण को लेकर ऐसे ही विरोध प्रदर्शन आदि हो रहे हैं. और फिर अंग्रेजों के बनाए भूमि अधिग्रहण कानून को बदलना भी केंद्र यानी राहुल गांधी की सरकार के ही हाथों में है. लेकिन फिर भी वे कम से कम जनता के सामने गए तो. जनता अगर चाहती तो उनके सामने अपना गुस्सा जाहिर कर सकती थी.  लेकिन मायावती ने उनके भट्टा-पारसौल जाने को ओछी और  घिनौनी हरकत कहा. शायद इसीलिए मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने जनता की ओर देखना ही छोड़ दिया है. और शायद इसीलिए कुछ महीने पहले जिलों के दौरों के दौरान उनके गुजरने से पहले सारे इलाकों को सील कर दिया जाता था. लोगों को घरों में बंद कर दिया जाता था, बाजार-दुकान सब बंद करवा दिए जाते थे और उसके बाद भी अगर कोई दुखियारा अपनी व्यथा कहने के लिए मुख्यमंत्री से मिलने की कोशिश करता तो उसे सुरक्षा में सेंध या शांति भंग की आशंका में अंदर डाल दिया जाता.

पुलिस के बल पर या पुलिस द्वारा गुंडागर्दी मायावती राज में पहली बार नहीं हो रही है. लखनऊ में मायावती सरकार द्वारा नगर निकायों की चुनाव प्रक्रिया को अपने पक्ष में बदलने के मनमाने फैसले के विरोध में राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ताओं पर जिस बर्बर ढंग से लाठियां तोड़ी गई थीं, उस घटना को अभी बहुत ज्यादा समय नहीं बीता है. इस वाकये में एक आईपीएस अधिकारी ने जिस तरह से विधान भवन के ठीक सामने एक कार्यकर्ता को बुरी तरह पीटने के बाद उसकी छाती पर पैर रखकर तस्वीर खिंचवाई थी, वह मायावती सरकार के लोकतांत्रिक तौर-तरीकों का एक बड़ा उदाहरण था. अखबारों में तस्वीरें छपने और काफी थू-थू होने के बावजूद मायावती सरकार ने उस अधिकारी के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की. जब एक मानवाधिकार कार्यकर्ता ने इस मामले में हाई कोर्ट में याचिका दायर की तो सरकार ने उस अधिकारी को और अधिक महत्वपूर्ण पद से नवाज दिया.

सरकार पर निरंकुशता का दंभ इस कदर हावी है कि भयावह हिंसा के बाद भी जनता के बीच जाकर लोगों के जख्म सहलाने की कोई कोशिश नहीं की गई

औरैया में कुछ वर्षों पूर्व इंजीनियर मनोज गुप्ता की हत्या के मामले में निचली अदालत ने बसपा के विधायक शेखर तिवारी के साथ-साथ स्थानीय थानाध्यक्ष को भी आजीवन कारावास की सजा सुनाई है. यह हत्याकांड मायावती के जन्मदिन के ठीक पहले हुआ था और हर ओर यही चर्चा थी कि मायावती के जन्मदिन पर तोहफा देने के लिए की जा रही वसूली ही मनोज गुप्ता की निर्मम हत्या का असली कारण थी. मनोज गुप्ता को उनके घर में घुसकर बर्बरता पूर्वक पीटा गया था. पुलिस, बसपा के स्थानीय नेतृत्व और बसपा विधायक ने मिलकर उनकी हत्या की थी. कुछ इसी तरह का वाकया बांदा में भी हुआ था जहां उनके विधायक पुरुषोत्तम द्विवेदी ने एक गरीब बच्ची शीलू को घर में बंधक बनाकर उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया और जब वह बच्ची किसी तरह वहां से जान बचाकर भागी तो पुलिस की मदद से उसे चोर बनाकर जेल भेज दिया गया. औरैया कांड की तरह ही राज्य सरकार ने इस कांड को भी पहले दबाने की कोशिश की और लखनऊ में गृह विभाग की प्रेस कॉन्फ्रेंस में विधायक पुरुषोत्तम द्विवेदी को क्लीन चिट दे दी गई थी. बसपाराज में पुलिस का ऐसा ही चेहरा कानपुर में दिव्या कांड में भी दिखाई दिया था जब एक स्कूल प्रबंधक द्वारा एक प्राइमरी की छात्रा के साथ दुष्कर्म कर उसकी हत्या कर दी गई थी. इस मामले मंे एक बेगुनाह रिक्शा चालक को जेल भेजकर पुलिस ने केस बंद कर दिया था. लेकिन जब मामले ने तूल पकड़ा तो पुलिस घटना के सही खुलासे की मांग करने वालों के ही पीछे पड़ गई. कानपुर के तत्कालीन डीआईजी ने खुद इस मामले को उठाने वाले मीडिया संस्थानों पर हमला बोलकर मीडिया की आवाज दबाने की कोशिश की थी.

दो वर्ष पूर्व लखनऊ में कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी का घर जिस तरह वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों और बसपा के गुंडों ने मिलकर फूंक डाला था वह मायावती सरकार की असहिष्णुता और तानाशाही का सबसे बड़ा उदाहरण है. मुख्यमंत्री मायावती के सर्वाधिक सुरक्षित कहे जाने वाले कार्यालय के महज कुछ सौ कदम दूर स्थित रीता बहुगुणा के घर को लगभग 45 मिनट तक मायावती के गुंडों ने नारे लगा-लगाकर फूंका. इस बीच लखनऊ के सारे टीवी चैनल और अखबारों के फोटोग्राफर वहां पहुंच गए. गुंडागर्दी की तस्वीरें खिंचती रहीं मगर एक भी पुलिसकर्मी वहां नहीं पहुंच सका. कई वाहन और घर फूंक देने के बाद सरकारी गुंडे आसपास खड़े वाहनों में बैठकर आराम से निकल गए, जैसे उन्होंने कुछ किया ही न हो. रीता बहुगुणा जोशी का कसूर यह था कि उन्होंने मायावती के खिलाफ कुछ बदजुबानी करने की गुस्ताखी की थी.  कहा जाता है कि इस कांड की योजना एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के निर्देशन में बनाई गई थी. इसमें हजरतगंज थाने के रंगरूटों को भी शामिल किया गया था और पूरी कार्रवाई के दौरान वे अधिकारी चंद कदम दूर स्थित बीएसपी मुख्यालय में मौजूद थे. घटना के तत्काल बाद जब उन्हें घटनास्थल पर देखा गया तो उन्होंने मीडिया को सफाई दी थी कि वे तो गश्त करते हुए वहां पहुंचे हैं.

भट्टा-पारसौल हो या इटावा या फिर टप्पल, मायाराज में पुलिस का चेहरा हर जगह एक सा दिखता है. बेहद अमानवीय, बर्बर और निरंकुश

इस कांड में भी पुलिस ने दो बेगुनाह युवकों को जेल भेजकर मामला खत्म कर दिया था. लेकिन फिर मानवाधिकार आयोग और अदालती दबाव के कारण इस मामले की जांच सीबीसीआईडी को सौंप दी गई. अभी एक महीने पहले ही इस कांड में शामिल होने के आरोप में बसपा के एक विधायक और एक लालबत्तीधारी नेता को नाटकीय ढंग से गिरफ्तार किया गया है. हालांकि इन दोनों को ही आगजनी के तत्काल बाद सरकार की ओर से पुरस्कृत किया गया था. मामले के सूत्रधार माने जाने वाले पुलिस अधिकारी की पत्नी अब राज्य सरकार के अल्पसंख्यक आयोग की सदस्य बन चुकी हैं. गौरतलब है कि ये वही पुलिस अधिकारी हंै जिन्होंने अभी हाल में राज्य स्तरीय महिला खिलाड़ी सोनू सिन्हा को बरेली के निकट ट्रेन से फेंके जाने की घटना के बाद उसी पीड़ित को अपराधी बनाने की कोशिश की थी. उसके चरित्र पर भी लांछन लगाए थे.

मायाराज में पुलिस का असली चेहरा ऐसा ही है, जो चाहे भट्टा-पारसौल हो या इलाहाबाद-चित्रकूट, चाहे इटावा हो या टप्पल हर जगह एक सा दिखता है. बेहद अमानवीय, बर्बर और किसी तानाशाह की फौज जैसा निरंकुश.

बसपा सरकार आज विरोध का हर स्वर कुचलने को तत्पर है और कुछ चाटुकार अधिकारी, दरबारी, मंत्री, कुछ कानून के जानकार और जनता के पैसे से वेतन ले रही राज्य की पुलिस इस काम में जी जान से जुटे नजर आते हैं. मायावती आलोचना भी नहीं सह सकतीं. अपना हर राजनीतिक विरोधी उन्हें ओछी राजनीति करने वाला नजर आता है. और अपने ऊपर लगे हर आरोप का उनके पास एक ही उत्तर होता है कि आरोप लगाने वाला पहले अपने गिरेबान में झांके. भ्रष्टाचार और पैसे की भूख ने उनकी सरकार के चेहरे को और भी भयानक बना दिया है. इंजीनियरों से वसूली ठीक से न हो पाने पर उनकी हत्या कर दी जाती है. स्वास्थ्य महकमे में वसूली ठीक से न हो पाने पर अधिकारियों की हत्या कर दी जाती है. अपहरण और महिला अत्याचार लगातार बढ़ रहे हैं और राज्य सरकार चार साल पूरे होने पर विज्ञापनों के जरिए दावा कर रही है कि ‘उत्तर प्रदेश की माननीया मुख्यमंत्री सुश्री मायावती जी के नेतृत्व की सरकार में कानून-व्यवस्था व अपराध नियंत्रण’ एवं ‘विकास व जनहित’ के चार वर्षों का कार्यकाल अति-उत्साहवर्धक व बेहतरीन’.

मायावती सरकार की असहिष्णुता और तानाशाही के उदाहरणों की सूची बनाने बैठें तो एक अंतहीन सिलसिला शुरू हो सकता है. यह सरकार सोनिया गांधी को अपने निर्वाचन क्षेत्र में सार्वजनिक सभा करने से रोक सकती है. यह सरकार केंद्रीय मंत्रियों को एयरपोर्ट पर वाहन और सुरक्षा से बेदखल कर सकती है. यह सरकार केंद्रीय मंत्रियों के पूर्व निर्धारित कार्यक्रमों के लिए आवंटित स्थान का आवंटन अंतिम क्षणों में रद्द कर सकती है. यह सरकार अदालती आदेशों को जेब में डालकर मनमानी कर सकती है. यह सरकार केंद्र सरकार की योजनाओं को बर्बाद कर सकती है, केंद्र के पैसे को जब-जैसे चाहे वैसे फूंक सकती है. यह सरकार विधानसभा की बैठकें ढंग से कराए बिना ‘बेहतरीन’ होने का दावा कर सकती है और यह सरकार मुख्यमंत्री द्वारा जनता की सुने बिना, जनता को देखे बिना और कार्यालय में गए बिना भी ‘ऐतिहासिक कार्य’ करने का दावा कर सकती है.

लेकिन यह सरकार जनता की सुनती नहीं है और न ही उसे बोलने देना चाहती है. आखिर मुख्यमंत्री मायावती बुद्ध के आदर्शों पर चलने वाली नेता हैं. शायद इसीलिए उन्हें शांति बेहद पसंद है. इसी वजह से उन्होंने लखनऊ में सूबे के अलग-अलग इलाकों से आकर धरना-प्रदर्शन करने वालों के ऐतिहासिक धरना स्थल ‘कोप भवन’ को विधानसभा के सामने से हटवा दिया. कई जगहें बदलता हुआ यह धरना स्थल अब गोमती नदी के किनारे पहुंचा दिया गया है जहां धरना देने वालों को कोई देखने वाला तक नहीं होता. और अब तो मायावती सरकार ने इस तरह के नये नियम बना दिए हैं कि उत्तर प्रदेश में धरना-प्रदर्शन कर पाना भी मुमकिन नहीं रह गया है. नये नियमों के तहत धरना-प्रदर्शन के लिए कम से कम एक सप्ताह पहले अनुमति लेनी होगी. लंबा-चौड़ा फॉर्म भरना होगा. कार्यक्रम के बारे में तरह-तरह की छानबीन की जाएगी. आयोजकों को कई तरह के हलफनामे भरने होंगे और उसके बाद भी यह पक्का नहीं कि अनुमति मिल ही जाएगी. यानी विरोध के स्वरों की कतई गुंजाइश नहीं. इसके बाद भी कोई किसान, कोई सामाजिक कार्यकर्ता या राहुल गांधी जैसा कोई सिरफिरा मायावती के ‘बेहतरीन’ सुशासन पर अंगुली उठाने की गुस्ताखी करे तो मायावती तिलमिलाएं क्यों नहीं? उसे ओछा और ड्रामेबाज क्यों न कहें?

उत्तर प्रदेश में धरना-प्रदर्शन कर पाना भी मुमकिन नहीं रह गया है. नये नियमों के तहत इसके लिए कम से कम एक हफ्ता पहले अनुमति लेनी होगी

समाजवादी पार्टी के एक नेता कहते हैं कि दरअसल मायावती जी की मनःस्थिति ठीक नहीं है. वे लोगों से मिलती तो हैं नहीं. उनकी रोजाना की दिनचर्या लगभग एक जैसी ही है. हर रोज वे सिर्फ कुछ चुनिंदा अधिकारियों और सुरक्षाकर्मियों से ही मिलती हैं, उन्हीं की सूरत देखती हैं. यह एक प्रकार की कैद जैसी ही स्थिति है. ऐसी स्थिति में चिड़चिड़ापन स्वाभाविक है.

लेकिन यह पूरा सच नहीं है. पूरा सच इससे और अधिक कड़वा है. वस्तुतः मायावती खुद को स्वयंभू मानने लगी हैं. प्रधानमंत्री द्वारा बुलाई गई मुख्यमंत्रियों की बैठक में वे एक बार भी शामिल नहीं हुई हैं. एक बार ऐसे मौके पर वे दिल्ली गई जरूर थीं लेकिन मनमोहन सिंह के साथ खाना खाकर वापस लौट आईं. राज्य में प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति आदि के आगमन पर भी मुख्यमंत्री उनके स्वागत के लिए नहीं जातीं. अपने प्रतिनिधि के रूप में किसी मंत्री को भेज देती हैं. चाहे योजना आयोग की बैठक हो या फिर अन्य जरूरी बैठक, वे कहीं भी किसी दूसरे की अध्यक्षता में शामिल होना जरूरी नहीं मानतीं. वे उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री हैं, अपनी पार्टी की सर्वेसर्वा हैं. उन्हें देश में सबसे अधिक सुरक्षा घेरे में रहने वाली राजनेता होने का गौरव प्राप्त है. आजादी के 60 से ज्यादा साल बीतने के बाद भी पीड़ित और वंचित बने रह गए समाज ने उन्हें पचासों करोड़ के उपहार देकर अतिसंपन्न बनाया है. उन्होंने सरकारी खजाने से हजारों करोड़ रुपये खर्च कर स्मारक और मूर्तियां लगवाने वाली मुख्यमंत्री होने का ऐतिहासिक गौरव पाया है तो भला उनके सामने किसी और की क्या बिसात. जब अपने सामने वे किसी दूसरे नेता को कुर्सी पर बैठने नहीं दे सकतीं तो भला उन्हें यह कैसे गवारा हो सकता है कि उन्हें किसी दूसरे नेता के सामने बैठना पड़ जाए. और अब जब मौजूदा पारी का सत्ता सुख एक वर्ष से भी कम का रह गया है, तब विपक्षी पार्टियां उनके विधायक तोड़ ले जाएं, उन पर आरोप लगायें, उनके खिलाफ धरने करें, सड़कों पर प्रदर्शन करें, जनता के विरोध को आवाज दें तो भला उन्हंे ये सब कैसे सहन हो सकता है.

मायावती को करीब से जानने वालों का मानना है कि जैसे-जैसे मायावती सरकार के खिलाफ विपक्ष के हमले तेज होंगे, सरकार की खामियां उजागर होंगी, वैसे-वैसे मायावती की तिलमिलाहट और बढ़ेगी. उत्तर प्रदेश में चार वर्ष में निष्ठुरता, भ्रष्टाचार, चाटुकारिता, अफसरशाही और निरंकुशता की जो कार्य संस्कृति उन्होंने विकसित की है वही अब उनके लिए असल मुश्किलें पैदा करेगी.

आखिर मायावती भी काटेंगी तो वही जो उन्होंने बोया है.