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ताजा हुए सवाल

‘ऐसा लग रहा था जैसे अचानक मैं किसी फिल्म की शूटिंग का हिस्सा बन गया हूं. वे मुझे जाड़ों में नंगा करके बर्फ के ठंडे पानी से भिगोते थे और रबड़ के टुकड़े से तब तक मारते थे जब तक मुझमें बोलने की ताकत बची रहती थी. वे मुझसे बुलवाना चाहते थे कि मैं मुख्तार उर्फ राजू हूं, जिसने 2007 में बनारस, फैजाबाद और लखनऊ कचहरी में हुए धमाकों की साजिश रची है. फिल्मों का शौकीन होने की वजह से मुझे ऐसे सीन वाली कई फिल्में याद हैं, लेकिन मेरे साथ जो हुआ वह उन सभी फिल्मों के सारे दृश्यों से ज्यादा भयावह था.’

कोलकाता की कलकत्ता इलेक्ट्रिक सप्लायर्स कंपनी में टेक्नीशियन 29 साल के आफताब आलम अंसारी के ये शब्द आतंकवाद से लड़ाई का दावा करने वाली उत्तर प्रदेश एसटीएफ को कटघरे में खड़ा करते हैं. गोरखपुर के रहने वाले आफताब को उत्तर प्रदेश एसटीएफ ने नवंबर, 2007 में सूबे के अलग-अलग शहरों की कचहरी में हुए ब्लास्ट का मास्टरमाइंड मुख्तार उर्फ राजू होने के आरोप में दिसंबर, 2007 में गिरफ्तार किया था. उसे बांग्लादेश निवासी और हूजी का आतंकवादी बताया गया था. अंसारी को मुख्तार उर्फ राजू साबित करने के लिए एसटीएफ ने सारे हथकंडे अपना डाले थे, लेकिन आखिर में 16 जनवरी, 2008 को कोर्ट ने एसटीएफ की सारी कहानी को फर्जी बताते हुए आफताब को बाइज्जत बरी कर दिया था.

हूजी का आतंकवादी करार दिए गए आफताब को 22 दिन बाद ही कोर्ट के आदेश पर बरी कर दिया गया था

कुछ इसी तर्ज पर पिछले महीने की 14 तारीख को कचहरी ब्लास्ट के मामले में उत्तर प्रदेश एसटीएफ को एक बार फिर कोर्ट में शर्मसार होना पड़ा. इस मामले में कश्मीर से गिरफ्तार किए गए सज्जादुर्रहमान वानी, जिस पर कचहरी में विस्फोटक रखने का आरोप था, को अदालत ने लखनऊ वाले मामले में बाइज्जत बरी कर दिया. फैजाबाद मामले में सज्जादुर्रहमान की संलिप्तता को लेकर सुनवाई जारी है.

सज्जादुर्रहमान के बरी होने के बाद कचहरी ब्लास्ट मामले में यूपीएसटीएफ की तरफ से की गई गिरफ्तारियों पर फिर सवाल उठ रहे हैं. मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल सहित कई संगठनों ने एसटीएफ की निष्पक्षता और कार्यशैली पर कड़ा ऐतराज जताया है.

गौरतलब है कि 2007 में लखनऊ, फैजाबाद और बनारस की कचहरी में हुए धमाकों के तुरंत बाद उत्तर प्रदेश एसटीएफ ने देश के अलग-अलग हिस्से से पांच मुसलिम युवकों की गिरफ्तारी की थी. ये थे तारिक कासमी, खालिद मुजाहिद, आफताब आलम, मो. अख्तर और सज्जादुर्रहमान वानी. शुरुआत से ही ये गिरफ्तारियां संदेह के घेरे में रही थीं. आफताब को हूजी का आतंकवादी मुख्तार उर्फ राजू बताते हुए कोलकाता से गिरफ्तार किया गया, लेकिन 22 दिन बाद ही कोर्ट के आदेश पर उसे बरी कर दिया गया. इसके अलावा मो. अख्तर और सज्जादुर्रहमान वानी को कश्मीर से गिरफ्तार किया गया था. सज्जादुर्रहमान दारुलउलूम देवबंद में पढ़ाई कर रहा था और जब उसे गिरफ्तार किया गया तब वह बकरीद की छुट्टियों में घर गया हुआ था. इस बात को न सिर्फ दारुलउलूम ने माना बल्कि उपस्थिति रजिस्टर के आधार पर इस बात की पुष्टि भी की कि सज्जाद 17 नवंबर से 30 नवंबर तक दारुलउलूम में ही था. दारुलउलूम की तरफ से इससे एक प्रमाण पत्र भी जारी किया गया. इसके बाद सज्जाद की गिरफ्तारी का भी चौतरफा विरोध होने लगा. सज्जाद के पिता गुलाम कादिर वानी ने लखनऊ आकर बेटे की गिरफ्तारी के विरोध में धरना शुरू किया. दो अन्य आरोपितों तारिक कासमी और खालिद मुजाहिद की गिरफ्तारी पर तो इतने सवाल उठे कि सरकार को इसकी जांच के लिए जस्टिस निमेष आयोग का गठन करना पड़ा.

तारिक और खालिद को एसटीएफ ने 22 दिसंबर, 2007 को बाराबंकी रेलवे स्टेशन से भारी मात्रा में विस्फोटक के साथ गिरफ्तार करने का दावा किया था. लेकिन इस गिरफ्तारी को लेकर भी तुरंत ही सवालिया निशान खड़े हो गए क्योंकि तारिक को 12 दिसंबर को ही कथित तौर पर एसटीएफ के लोगों ने आजमगढ़ से ही उठा लिया था. 14 तारीख को ही तारिक की गुमशुदगी की रिपोर्ट थाना रानी की सराय में भी दर्ज हो गई थी. तारिक के घरवालों ने उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक, प्रमुख सचिव (गृह), मानवाधिकार आयोग आदि को पत्र लिखकर इस मामले में पुलिस कार्रवाई को संदिग्ध बताते हुए तारिक का पता जल्द लगाए जाने की मांग की थी. दूसरे अभियुक्त खालिद को भी एसटीएफ ने इसी तरह 16 दिसंबर को ही उठा लिया था. इस बात की पुष्टि खालिद के चाचा मोहम्मद जहीर आलम फलाही की तरफ से सूचना के अधिकार के तहत क्षेत्राधिकारी मड़ियाहू से मांगी गई जानकारी के जवाब से हुई. इसमें उन्होंने माना है कि खालिद को 16 तारीख को उत्तर प्रदेश एसटीएफ ने गिरफ्तार किया था. ऐसे में बाराबंकी स्टेशन वाली पुलिस की कहानी खुद ही सवालों के घेरे में आ गई.

उधर, जस्टिस निमेष आयोग को गठन के छह महीने के अंदर ही अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपनी थी लेकिन तीन साल बाद भी आयोग किसी अंतिम नतीजे पर नहीं पहुंचा है. जांच आज भी पूरी नहीं हुई है.

सज्जादुर्रहमान के बरी होने के बाद मानवाधिकार संगठन एक बार फिर से उत्तर प्रदेश एसटीएफ के गिरफ्तारी के तरीके और इकबालिया बयान पर सवाल उठाने लगे हैं. सज्जादुर्रहमान वानी को बरी करने के अपने फैसले में अदालत ने साफ कहा कि पुलिस के सामने दिए गए इकबालिया बयान के अतिरिक्त दूसरा कोई भी साक्ष्य ऐसा नहीं है जिससे सज्जाद पर लगाए गए आरोप साबित होते हों.

कचहरीधमाकों के आरोपितों के लिए लंबी लड़ाई लड़ रहे पीयूसीएल से जुड़े वकील मो. शोएब कहते हैं, ‘लखनऊ के मामले में सज्जादुर्रहमान को बरी कर दिया गया है. हमें उम्मीद है कि जल्द ही फैजाबाद वाले मामले में भी उसे बरी कर दिया जाएगा. एसटीएफ के इकबालिया बयान की सच्चाई पहले आफताब आलम और अब सज्जाद के मामले से जगजाहिर हो चुकी है.’ शोएब कचहरी ब्लास्ट के आरोपितों का केस लड़ने की वजह से खासे चर्चित रहे हैं. उस दौर में जब उत्तर प्रदेश के अलग अलग बार एसोसिएशन आतंकी घटनाओं के आरोपितों का केस न लड़ने का प्रस्ताव पास कर रही थीं, शोएब अकेले ऐसे वकील थे जिन्होंने आफताब के परिजनों की गुहार पर उसका केस बिना फीस के लड़ने की हिम्मत दिखाई थी और आफताब को बाइज्जत बरी भी करवाया था. यही नहीं आतंकी घटनाओं के आरोपितों का केस लड़ने की वजह से उन पर अगस्त, 2008 में लखनऊ न्यायालय परिसर के अंदर ही वकीलों ने जानलेवा हमला भी किया था और उन पर पाकिस्तान का समर्थक होने जैसी टिप्पणियां भी की गई थीं.

इस बारे में बात करने पर शोएब कहते हैं,  ‘उस समय तक आतंकी घटनाओं के बारे में पुलिस के वर्जन को सच मान लेने का चलन था. यूपीकोका के लिए भी माहौल तैयार किया जा रहा था ताकि पुलिस के सामने दिए गए इकबालिया बयान से ही अभियुक्तों को मुजरिम साबित किया जा सके. ऐसे में अगर अभियुक्त का केस कोई न लड़े तो पुलिस की राह आसान हो जाती. इसलिए यह हमला एक सोची-समझी रणनीति के तहत हुआ था.’ शोएब आशंका जताते हैं कि कचहरी धमाकों के पीछे हिंदुत्ववादी ताकतों का हाथ भी हो सकता है क्योंकि कचहरी धमाकों के बाद की गई एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में तत्कालीन एडीजी (कानून एवं व्यवस्था) बृजलाल ने खुद ही पत्रकारों से कहा था कि कचहरी धमाके हैदराबाद की मक्का मस्जिद धमाकों से मिलते-जुलते हैं. वे कहते हैं, ‘अब जब यह साबित हो चुका है कि मक्का मस्जिद धमाकों में हिंदुत्ववादी ताकतों का हाथ था तो उत्तर प्रदेश एसटीएफ इस बिंदु को केंद्र में रखकर कचहरी धमाकों की जांच क्यों नहीं करती?’

तहलका ने कचहरी धमाकों की गिरफ्तारियों के बारे में डीजी (कानून एवं व्यवस्था) बृजलाल से बात की तो उन्होंने इस तरह की संभावनाओं को सिरे से खारिज कर दिया. उनका कहना था, ‘हमारी जांच एकदम सही है और कचहरी ब्लास्ट में किसी हिंदूवादी संगठन की भूमिका नहीं है. हमारी जांच पर सवाल उठाने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी और छद्मधर्मनिरपेक्ष लोगों से हमें कोई फर्क नहीं पड़ता.’

उन्हें भले ही इन सवालों से फर्क न पड़ता हो लेकिन उनकी ‘सही’ जांच से किसी आफताब आलम या सज्जाद वानी को कितना फर्क पड़ता है यह तो साफ हो ही चुका है.

तीरथ की ताड़ना

चार धाम यात्रा के लिए लाखों श्रद्घालुओं के उत्तराखंड पहुंचने की उम्मीद है. लेकिन पिछले साल की भीषण आपदा से बर्बाद सड़कों पर अब भी कई जगहें ऐसी हैं जो तीर्थयात्रियों के जीवन को संकट में डाल सकती हैं. महिपाल कुंवर की रिपोर्ट

उत्तराखंड में भले ही अब यात्रियों को चार धाम की यात्रा पहले की तरह पैदल चलकर नहीं करनी पड़ती हो लेकिन ऐसा नहीं है कि इससे उनकी मुश्किलें खत्म हो गई हैं. सड़कों और परिवहन व्यवस्था की जो हालत है उससे इन यात्रियों को तो परेशानी हो ही रही है स्थानीय लोग भी बेहाल हैं.

रास्ता चौड़ा करने के लिए डायनामाइट से किए जा रहे विस्फोटों और पिछले साल भारी बारिश से हुए भूस्खलन के कारण चार धाम यात्रा मार्ग का हाल खस्ता है. दिल्ली से माणा तक जाने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग 58 हो या रुद्रप्रयाग से गौरीकुंड जाने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग 109 या फिर गंगोत्री तक  जाने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग 94 व 108, सबकी हालत कमोबेश एक जैसी है. आपदा के नौ महीने बाद भी इन मार्गों पर सुधार कार्य ठीक से नहीं हुए हैं. इसके चलते चार धाम यात्रा मार्ग में कई स्थानों पर स्थिति खतरनाक बनी हुई है. हालत यह है कि एक भी यात्रा मार्ग के बारे में सरकारी मशीनरी यह दावा नहीं कर सकती कि उसकी व्यवस्था चाक-चौबंद है और वह पूरे यात्रा काल के लिए सुरक्षित है.

राज्य के पर्वतीय जिलों में सड़कों का 23,673 किलोमीटर लंबा जाल फैला है. इनमें से लगभग 3,000 किमी लंबे सड़क मार्गों से होकर चार धाम यात्रा गुजरती है. इन सड़कों के निर्माण व रखरखाव की जिम्मेदारी लोक निर्माण विभाग (पीडब्ल्यूडी)  के साथ-साथ सीमा सड़क संगठन की भी है. वर्ष 2008 में एक जनहित याचिका के जवाब में पीडब्ल्यूडी ने नैनीताल हाई कोर्ट को बताया कि यात्रा के दौरान चार धाम जाने वाले श्रद्धालुओं के वाहनों को करीब 551 खतरनाक मोड़ों से होकर गुजरना पड़ता है. उस समय पीडब्ल्यूूडी ने हाई कोर्ट को आश्वस्त किया था कि विभाग 227 खतरनाक जगहों पर सुरक्षा के कार्य स्वयं करेगा. बाकी बचे हुए 324 स्थानों पर इस काम की जिम्मेदारी सीमा सड़क संगठन की शिवालिक परियोजना की थी. सीमा सड़क संगठन के अधिशासी अभियंता जीएस राणा के अनुसार शिवालिक परियोजना ने इन मोड़ों पर सुरक्षात्मक उपाय कर लिए थे परंतु बीते साल आपदा के कहर ने इन सुरक्षात्मक कार्यों को  फिर से धराशायी कर दिया.

इनके अलावा सीमा सड़क संगठन बल द्वारा बदरीनाथ-केदारनाथ व यमुनोत्री-गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग में कई जगहों पर निमार्ण कार्य जारी हैं. राणा बताते हैं कि ऋषिकेश से बदरीनाथ तक जाने वाला 300 किमी लंबा, रुद्रप्रयाग से गौरीकुंड तक 76 किमी लंबा व ऋषिकेश से गंगोत्री तक 124 किमी मार्ग फिलहाल वाहनों के आवागमन के लिए साफ है. वे बताते हैं कि राजमार्ग को चौड़ा करके डबल लेन बनाने का काम भी तेजी से चल रहा है जिस कारण यात्रियों को फौरी परेशानी हो रही है. वे स्वीकार करते हैं कि भूस्खलन प्रभावित क्षेत्रों में सड़कें टूट जाने के कारण कहीं-कहीं पर मार्ग ऊबड़-खाबड़ हो रखे हैं परंतु सुधार कार्य भी
तेजी से चल रहा है.

कई किलोमीटर तक सड़कें टूटी पड़ी हैं. सरकारी मशीनरी ने इन्हें बिना डामरीकरण के कामचलाऊ बना दिया है.

सीमा सड़क संगठन की 66 आरसीसी के ओसी पीके आजाद बताते हैं, ‘पिछले साल की आपदा और भारी बरसात से जर्जर ऋषिकेश-बदरीनाथ राष्ट्रीय राजमार्ग को सुधारा जा रहा है जिसमें देवप्रयाग से कीर्तिगर व गौचर से नगरासू के बीच चट्टानें तोड़कर सड़क चौड़ीकरण का काम चल रहा है. इस चौड़ीकरण के कारण जाम की स्थिति बन रही है.’ यात्रा सीजन के दौरान सड़क चौड़ीकरण के चलते तीर्थ यात्री जाम में फंसकर घंटों तक आने-जाने के लिए अपनी बारी का इंतजार करने को मजबूर हो रहे हैं. राणा बताते हैं, ‘अब इस काम को भी रात में शुरू करने की योजना बनाई जा रही है ताकि यात्रा बाधित न हो और चार धाम यात्रा के दौरान सड़क पर लगने वाले घंटों के जाम की स्थिति न बने.’   

रुद्रप्रयाग के व्यवसायी उपेंद्र बिष्ट कहते हैं कि पिछले साल आई विनाशकारी आपदा के कारण सड़कों की स्थिति बेहद खस्ताहाल है. उनके अनुसार कई किलोमीटर तक यात्रा मार्ग की सड़कें टूटी पड़ी हैं. सरकारी मशीनरी ने यात्रा मार्ग को बिना डामरीकरण के कामचलाऊ बना दिया है. ऊबड़-खाबड़ मार्गों पर धूल उड़ने से यात्रियों को ही नहीं, बल्कि स्थानीय लोगों को भी खासी परेशानियां हो रही हैं.

उत्तरकाशी जिले के निवासी लोकेंद्र बिष्ट बताते हैं कि चिन्यालीसौड़ से डूंडा, भटवाड़ी-गंगनाली, गंगनाली-सूखीखाल और भैरोंघाटी से गंगोत्री के बीच कई किलोमीटर तक गंगोत्री यात्रा मार्ग की बेहद जर्जर स्थिति बनी हुई है. ऐसे ऊबड़-खाबड़ यात्रा मार्ग में यात्री जोखिम से भरी यात्रा करने के लिए मजबूर हैं. वे बताते हैं कि यमुनोत्री मार्ग पर भी धरासू बैंड से ब्रह्मखाल, बड़कोट के बीच कई  किलोमीटर की दूरी पर सड़क खस्ताहाल हो रखी है. उत्तरकाशी के पत्रकार संतोष भट्ट बताते हैं , ‘यमुनोत्री-गंगोत्री यात्रा मार्ग बेहद खराब स्थिति में है. इस मार्ग पर से केवल आपदा के समय आए हुए मलबे को हटाया गया है. बाकी सड़कों के पुस्ते व भूस्खलन प्रभावित क्षेत्रों में राष्ट्रीय राजमार्ग के बुरे हाल हैं. इस सड़क पर  जान का जोखिम उठाकर यात्री आजकल यात्रा कर रहे हैं.’ लोक निर्माण विभाग के अलावा परिवहन विभाग ने भी चार धाम यात्रा मार्ग पर 315 खतरनाक स्थान चिह्नित किए हैं. इसे सरकारी मशीनरी की बदइंतजामी ही कहें कि यात्रा शुरू होने के बाद भी इन स्थानों पर सावधानी प्रदर्शित करने के लिए बोर्ड भी अभी तक नहीं लग पाए हैं.

यात्रा मार्गों पर चलने के बाद यह बात आसानी से समझ में आ जाती है कि हर साल सरकारी महकमों की कई दौर की बैठकों के बाद भी यात्रा व्यवस्थाएं अभी तक चाक-चौबंद नहीं हो पाई हैं. यात्रा शुरू होने के महीनों पहले से हर साल विभिन्न विभागों की बैठकें होती हैं ताकि चार धामों के दर्शन करने आने वाले तीर्थ यात्रियों के लिए उचित व्यवस्था हो सके, लेकिन यात्रा शुरू होने के बाद सड़क मार्ग पर ही नहीं यात्रा में पड़ने वाले पैदल मार्ग पर भी कदम-कदम पर अव्यवस्थाएं ही नजर आ रही हैं. गौरीकुंड से श्री केदारनाथ मंदिर तक 14 किमी लंबे पैदल मार्ग पर अभी तक स्ट्रीट लाइटों की भी व्यवस्था नहीं हो पाई है. 14 किमी लंबे इस पैदल मार्ग पर घोड़े-खच्चर मालिकों की जमकर मनमानी चल रही है. गुजरात से आए यात्री मनसुख भाई शाह का आरोप है कि मार्ग पर यात्रियों से निर्धारित शुल्क से अधिक किराया वसूला जा रहा है. नियमों के अनुसार दो घोड़ों के साथ एक मजदूर रखने की व्यवस्था है, लेकिन वास्तव में घोड़े-खच्चरों के मालिक कई घोड़ों के साथ एक ही मजदूर को भेज रहे हैं. जिसके कारण पैदल पहाड़ी मार्ग पर भगदड़ मचने की आशंका बनी रहती है. इन अव्यवस्थाओं को लेकर जिला पंचायत, रुद्रप्रयाग को जिम्मेदार माना जा रहा है. जिला पंचायत ही यात्रा के दौरान घोड़े-खच्चर व मजदूरों का पंजीकरण करती है.  रुद्रप्रयाग जिला पंचायत के अध्यक्ष चंडी प्रसाद भट्ट भी स्वीकार करते हैं कि केदारनाथ मंदिर जाने के लिए रास्ता बेहद दुर्गम है और यात्रियों को पहले ही इस मार्ग पर कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है, ऐसे में घोड़े-खच्चरों और पालकी वालों द्वारा यात्रियों को परेशान करने की किसी भी घटना को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. वे आश्वस्त करते हुए कहते हैं, ‘तय नियमों के विरुद्ध यात्रा मार्ग पर घोड़े-खच्चर व डोली-पालकी चलाने वालों का पंजीकरण ही निरस्त कर दिया जाएगा.’

चार धाम यात्रा में केवल यात्री ही परिवहन व्यवस्था और खराब सड़कों से परेशान नहीं होते हैं बल्कि यात्रा स्थानीय लोगों के लिए भी परेशानी लेकर आती है. उत्तराखंड में यात्रा सीजन भले ही वाहन मालिकों के लिए लाखों रुपये का लाभ कमाने का जरिया हो, परंतु स्थानीय लोगों के लिए यह आवागमन की मुसीबतें लेकर आता है. पिछले साल चार धामों की यात्रा पर देश के विभिन्न हिस्सों से 15 लाख से अिधक श्रद्घालु आए थे.  हर साल यात्रा में अधिकांश बसों के लगने से उत्तराखंड के मुख्य राजमार्गों से जुड़ने वाले संपर्क मार्गों पर चलने वाली बसों की संख्या कम हो जाती है जिसके कारण स्थानीय  लोगों को खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है.

यात्रा के शुरू होने के समय ही गर्मियों की छुट्टियां भी पड़ती हैं. इस समय उत्तराखंड के अधिकांश प्रवासी अपने बच्चों के साथ छुट्टियांे में अपने गांव-घर आते हैं. इसलिए संपर्क मार्गों पर जाने वाले स्थानीय लोगों की भीड़ और भी बढ़ जाती है. यात्रा काल में प्रशासन की प्राथमिकता देश भर से आने वाले यात्रियों के लिए बसों को उपलब्ध कराने की होती है. यात्रियों को बसों की कमी न हो इसके लिए प्रशासन संपर्क मार्गों पर चलने वाली अधिकांश बसों को चार धाम यात्रा में झोंक देता है. शीतकाल में जिन संपर्क मार्गों पर दसियों वाहन चलते हैं उन पर यात्रा काल में  दिन भर में मुश्किल से एकाध वाहन ही चल पाते हैं. नतीजतन स्थानीय लोगों को चिलचिलाती धूप में कई घंटों तक बसों के इंतजार में पसीना बहाना पड़ता है. तिलवाड़ा के सामाजिक कार्यकर्ता बीर सिंह रावत कहते हैं, ‘प्रशासन अभी भी यात्रा व्यवस्था और स्थानीय लोगों की सुविधाओं में समन्वय नहीं बैठा पाया है जिससे हर साल लिंक रोडों पर यातायात व्यवस्था गड़बड़ा जाती है.’ उनका आरोप है कि बसों की अनुपलब्धता के कारण रोज इन सड़कों पर चलने वाली स्थानीय जनता को  अपनी रोजमर्रा की आवश्यक वस्तुओं की खरीददारी के लिए भी कई किलोमीटर तक पैदल ही आना-जाना पड़ता है या फिर घंटों टैक्सियों का इंतजार करना पड़ता है.

यात्रा सीजन भले ही वाहन मालिकों के लिए लाखों रुपये कमाने का जरिया हो, स्थानीय लोगों के लिए यह आवागमन की मुसीबतें लेकर आता है

इस संबंध में पूछने पर संयुक्त रोटेशन यात्रा व्यवस्था समिति ऋषिकेश, के अध्यक्ष महावीर सिंह रावत बताते हैं , ‘यात्रा काल के दौरान सभी कंपनियों की 40 प्रतिशत बसें स्थानीय लोगों के लिए सेवाएं देती हैं.’ टिहरी गढ़वाल मोटर ओनर्स एसोसिएशन  के  जनरल मैनेजर जितेंद्र सिंह नेगी बताते हैं कि लिंक मार्गों पर जीएमओयू व उनकी कंपनी की ही बसें चलती हैं. वे भी दावा करते हैं कि यात्रा सीजन में इन मार्गों पर चलने वाली 40 प्रतिशत बसें स्थानीय लोगों की परिवहन व्यवस्था के लिए छोड़ दी जाती है. वे बताते हैं कि संपर्क मार्गों पर चलने वाली 1,200 बसों में से यात्रा शुरू होते ही 400 बसें स्थानीय लोगों के लिए रह जाती हैं.

उधर गढ़वाल मोटर ओनर्स यूनियन के अध्यक्ष जीत सिंह पटवाल बताते हैं कि कोटद्वार, हरिद्वार, ऋषिकेश, पौड़ी, श्रीनगर, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग व गोपेश्वर डिपो में करीब 200 बसें चलती हैं. सीजन शुरू होने पर इनमें से 150 बसों को यात्रा मार्गों पर लगा दिया जाता है. मुख्यालय कोटद्वार में जीएमओयू कंपनी के पास 550 बसें हैं. पटवाल बताते हैं कि इस बार चार धाम यात्रा के लिए 350 बसें भेजी गई हैं.

यात्रा के लिए बसों का रजिस्ट्रेशन लॉटरी के माध्यम से किया जाता है. टीजीएमओ के जीएम जितेंद्र नेगी बताते हैं कि यात्रा के शुरू होने से पहले ही उनके पास संयुक्त रोटेशन यात्रा व्यवस्था समिति से बुकिंग आ जाती है. इस साल 9 मई तक उनकी 310 बसों से लगभग 12,40 यात्री चार धाम के लिए रवाना हो चुके हैं.

स्थानीय लोगों के लिए यात्रा काल में बसों की कम संख्या के विषय में पूछने पर बताते हैं, ‘यह समय ही हमारे कमाने का होता है’. उनका आरोप है कि वर्षों से यात्रा चलने के बाद भी अभी तक यात्रा प्रशासन ने यात्रियों की संख्या को नियंत्रित करना नहीं सीखा है जिस कारण कुछ दिनों तो बसों की संख्या कम पड़ जाती है और बाकी दिनों बसें खाली खड़ी रहती हैं. उनका आरोप है कि बिना ग्रीन कार्ड या इजाजत के राज्य से बाहर की सैकड़ों बसें भी बाहरी राज्यों से आकर गैरकानूनी ढंग से यात्रियों को ढोती हैं.

सरकार ने चार धाम यात्रा की जिम्मेदारी गढ़वाल के आयुक्त अजय सिंह नबियाल को दी है. यातायात की व्यवस्थाओं के विषय में पूछने पर नबियाल बताते हैं, ‘फिलहाल पिछले साल आपदा से आए मलबे को सड़कों से हटाकर उन्हें वाहन चलने योग्य बना दिया गया है. नया मलबा सड़कों पर न आए इसके लिए सीमा सड़क संगठन और लोक निर्माण विभाग को विस्फोट न करने के लिए कहा गया है.’ स्थानीय लोगों को वाहनों की उपलब्धता के विषय में नबियाल बताते हैं, ‘अभी यात्रा का दबाव कम है. यात्रा के बढ़ने पर कुमाऊं मोटर ओनर्स यूनियन (केमू) से 50 गािड़यां संपर्क मार्गों के लिए मांगी जाएंगी ताकि संपर्क मार्गों पर चलने वाले यात्रियों को असुविधा न हो. दावे कुछ भी हों यात्रा के गति पकड़ते ही हर साल परिवहन व्यवस्था चरमरा जाती है और परेशानी यात्रियों के साथ-साथ स्थानीय लोगों को भी भुगतनी होती है.

क्या दिग्विजय सिंह को पता है कि वे क्या कह रहे हैं?

गालिब ने कहा था छूटती कहां है कमबख्त मुंह से लगी हुई,  अंग्रेजी में इसके लिए ओल्ड हैबिट्स डाइ हार्ड का जुमला है और दोनों का लब्बोलुआब यह है कि पुरानी आदतें आसानी से पीछा नहीं छोड़तीं. साठ के दशक में इंदौर के प्रतिष्ठित डेली कॉलेज का एक छात्र जो राघोगढ़ राजपरिवार से ताल्लुक रखता था, आज अपनी उसी आदत से जूझ रहा है. दिग्विजय सिंह कॉलेज के जमाने में जितने शानदार खिलाड़ी क्रिकेट के थे उससे भी जोरदार हाथ वे स्क्वैश में दिखाते थे. कहा जाता है कि छह साल तक वे सेंट्रल इंडिया के जूनियर स्क्वैश चैंपियन भी थे. लेकिन उनके व्यक्तित्व का दूसरा पहलू यह है कि कॉलेज के जमाने में जितनी बार उन्हें अनुशासनहीनता संबंधी नोटिस भेजे गए उसका भी कोई मुकाबला नहीं है. ईमानदारी के चश्मे से देखें तो आज भी उनके बयान और काम-काज का तरीका अनुशासनहीनता के दायरे में ही आता है लेकिन जैसा कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और सीडब्ल्यूसी के एक सदस्य कहते हैं, ‘देखते हैं पार्टी कब तक उनके इस रवैये को बर्दाश्त करती है. पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए अलग नियम और बड़े नेताओं के लिए अलग नियम तो नहीं होने चाहिए. आजकल जितने भी कार्यकर्ताओं से मेरी बात होती है सबकी चिंता बस यही होती है कि दिग्विजय सिंह की जुबान पर लगाम क्यों नहीं लगाई जा रही है.’

दिग्विजय सिंह का मकसद 2009 में सपा से कट कर कांग्रेस के पास आए मुसलमानों को 2012 तक अपने साथ जोड़े रखना है 

वर्तमान दिग्विजय सिंह के बनने की शुरुआत मध्य प्रदेश का अध्यक्ष बनने से हुई थी. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई एक वाकये का उल्लेख करते हैं, ‘राजीव गांधी ने दिग्विजय को फोन करके बताया कि मैं तुम्हें प्रदेश अध्यक्ष बना रहा हूं. यह सुनकर वे इतने खुश हुए कि सीधे अपने राजनीतिक गुरु अर्जुन सिंह के पास पहुंच गए और उन्हें इसकी जानकारी दी. अगले ही दिन उनके पास फिर से राजीव गांधी का फोन आया और वे गुस्से से बोले कि तुमने अर्जुन सिंह को अध्यक्ष बनने की बात क्यों बताई. जाहिर-सी बात है राजीव के निर्णय से अर्जुन खुश नहीं थे.’ यह घटना दिग्गी के अतिउत्साही स्वभाव और बेरोकटोक बोले चले जाने का एक और नमूना है जिससे उनके पहली ही ऊंची छलांग में औंधे मुंह गिरने की नौबत आ गई थी. यह घटना उनके राजनीतिक जीवन का टर्निंग प्वाइंट भी थी. इसके बाद से ही शिष्य के गुरु के प्रति प्राकृतिक प्रेम का स्थान मैनेजमेंटी प्रेम ने ले लिया.

दिग्विजय सिंह की फिसलती जुबान एक-दो वाकयों की दास्तान नहीं है बल्कि सिलसिलेवार बयानों की पूरी शृंखला है और यह कहा जा सकता है कि गंगा में फिसले तो बंगाल की खाड़ी तक जा पहुंचे लेकिन रुके अभी भी नहीं हैं, फिसलते ही जा रहे हैं. उनके बयान उनकी अपनी ही पार्टी और सरकार के लिए मुंह चुराने की जमीन तैयार करते हैं. हालिया जन लोकपाल बिल को लेकर अन्ना हजारे के नेतृत्व में हुए आंदोलन को ही लें. दिग्विजय सिंह ने संतोष हेगड़े को निशाने पर लिया तो कह गए कि कर्नाटक में तो बहुत मजबूत लोकायुक्त कानून है तो भी उन्होंने क्या कर लिया. निर्विवाद छवि वाले हेगड़े पर इस आरोप के बाद भी वे रुके नहीं, अन्ना हजारे को भी चुनौती दे डाली कि यूपी में जाकर कुछ करके दिखाएं. इतना ही नहीं, सूत्रों के मुताबिक इसके बाद दिग्विजय सिंह ने जन लोकपाल की पांच सदस्यीय नागरिक समिति पर कीचड़ उछालने के लिए अमर सिंह की सेवाएं भी लीं जो पहले से ही गुमनामी के अंधेरे से बाहर आने के लिए छटपटा रहे थे. इस पर मचे हल्ले के बाद पार्टी ने जब नफे नुकसान का आकलन करना शुरू किया तो दिग्विजय सिंह ने ‘न हां न ना’ वाली मुद्रा अख्तियार कर ली और तीर-कमान पूरी तरह से अपने ‘ट्रस्टेड’ अमर सिंह को पकड़ा दिए जो आने वाले कई दिनों तक नागरिक समिति के दो महत्वपूर्ण सदस्यों के साथ हवाई लड़ाई लड़ते रहे. पर पार्टी के नफे नुकसान का अंदाजा और अंदरखाने में मची असहजता का अंदाजा उन्हीं के गृहराज्य से आने वाले वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और राज्यसभा सांसद सत्यव्रत चतुर्वेदी के साथ हुई बातचीत से लगाया जा सकता है – ‘दिग्विजय सिंह द्वारा बार-बार जन लोकपाल समिति पर टीका-टिप्पणी से जनता के बीच यह संदेश गया कि कांग्रेस खिसियाई हुई बिल्ली की तरह व्यवहार कर रही है. लोगों को लगने लगा कि कांग्रेस प्रभावशाली लोकपाल कानून की विरोधी है.’

जिस पार्टी में वे हैं उसमें ऊपर जाने की सीढ़ियां अंतहीन नहीं हैं, एक ऊंचाई पर पहुंचकर वे खत्म हो जाती हैं और वे इसे लगभग छू चुके हैं

मौके लपकने में दिग्विजय सिंह द्वारा दिखाई गई हड़बड़ी का हालिया नमूना ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद देखने को मिला जब वे ओसामा को ओसामा जी कहकर संबोधित करते दिखे. फिर उन्होंने ओसामा के लिए उचित अंतिम संस्कार की जरूरत की भी वकालत कर डाली. उनके इस बेतुके रवैये से पूरी पार्टी सकते में आ गई. और उस बयान को दिग्विजय सिंह का निजी विचार कहकर अपनी इज्जत बचाने की कोशिश में लगी रही. कांग्रेस के एक नेता कहते हैं कि क्या यह मुसलमानों का अपमान नहीं है कि उन्हें ओसामा बिन लादेन जैसे आतंकी से सहानुभूति दिखाकर लुभाने की कोशिश दिग्विजय सिंह कर रहे हैं. पहली नजर में इसे मुसलिम वोटों को अपनी तरफ खींचने की होड़ की बेतुकी पर निजी पहल के तौर पर देखा जा सकता है, लेकिन राजनीति पर निगाह रखने वाले इसके पीछे कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व की मूक सहमति देखते हैं. लंबे समय तक कांग्रेस से जुड़ी रही और उसकी अंदरूनी राजनीति को समझने वाली भाजपा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष नजमा हेपतुल्ला कहती हैं, ‘कांग्रेस में किसी की मजाल नहीं है कि सुप्रीम लीडर की सहमति के बिना कुछ भी बोल दे. चाहे वे दिग्विजय सिंह हों या फिर प्रधानमंत्री.’ दिग्विजय सिंह ने पार्टी और सरकार की लाइन से अलग हटते हुए जो राह पकड़ी है उससे सरकार और पार्टी को भले ही परेशानी पेश आ रही हो और विपक्ष भूखे भेड़िये की तरह उनके पीछे पड़ा रहा हो लेकिन दिग्विजय सिंह ने अपने राजनीतिक सरपरस्तों को पूरी तरह से विश्वास में ले रखा है कि इसका फायदा उन्हें चुनाव में वोटों के रूप में शर्त्तिया मिलेगा.

दिग्विजय सिंह की बयानबाजी का सिलसिला काफी पुराना है. लेकिन पहली बार इन पर सबका ध्यान तब केंद्रित हुआ जब वे पिछले साल फरवरी में आजमगढ़ के दौरे पर गए थे. अपने इस दौरे में सिंह उन लोगों के घरों में गए जिन पर आतंकी घटनाओं में शामिल होने के आरोप थे. संजरपुर और सरायमीर स्थित बैतुल उलूम मदरसे में मुसलमानों की भारी भीड़ के बीच उन्होंने बटला हाउस की मुठभेड़ पर सवाल उठाते हुए बयान दिया, ‘बटला हाउस की घटना बेहद दुखद है. यहां के युवकों को न्याय मिलना चाहिए. लोग आजमगढ़ को आतंक की नर्सरी बता रहे हैं. मैं राहुल जी को यहां बुलाऊंगा.’ दिग्विजय सिंह का बयान जंगल की आग की तरह फैल गया और एक बार फिर से पूरे इलाके में तनाव का माहौल तारी हो गया. एक तरफ स्वयं पीएमओ और गृह मंत्रालय बटला हाउस एनकाउंटर को वैध ठहरा रहे थे और न्यायिक जांच कराने से इनकार कर रहे थे. यहां तक कि बटला हाउस मुठभेड़ में मारे गए पुलिस अधिकारी मोहन चंद शर्मा को केंद्र सरकार ने अशोक चक्र से भी सम्मानित किया था. मगर दिग्विजय इसका बिलकुल उलटा बयान दे रहे थे. प्रधानमंत्री कार्यालय और गृह मंत्रालय के आला अधिकारियों ने उस वक्त  दिग्विजय सिंह के प्रति साफ तौर पर नाराजगी जताई थी. लेकिन दिग्विजय सिंह ने वही किया जो वे करना चाहते थे.

‘आज वे किसानों को न्याय दिलाने के लिए धरने पर बैठे हैं लेकिन मध्य प्रदेश में अपने शासनकाल में किसानों की समस्या उठाने के कारण अपनी ही पार्टी की नेता कल्पना परुलेकर को इन्होंने बार-बार जेल में ठूंसा’

नजमा हेपतुल्ला की बात यहां तब साबित भी हो गई जब बाद में राहुल गांधी आजमगढ़ दौरे पर गए. लेकिन यह दिग्विजय सिंह के विवादित बयानों से मचने वाली हलचलों की शुरुआत थी. उन्होंने इसके कुछ ही दिनों बाद नक्सलवाद के मुद्दे पर गृहमंत्री पी चिदंबरम को बौद्धिक अहंकारी तक कह डाला जबकि प्रधानमंत्री तक ने स्पष्ट कर दिया था कि नक्सली देश के दुश्मन नंबर एक हैं. दिग्विजय सिंह का यह बयान ऐसे समय में आया जब दंतेवाड़ा में माओवादियों ने 76 सीआरपीएफ जवानों को मार दिया था. जानकारों की मानें तो एक बार फिर से दिग्विजय सिंह उसी लाइन पर चल रहे थे जिसे राजनीतिक विश्लेषक पब्लिक पॉश्चरिंग (जनता के बीच छवि निर्माण) करार देते हैं. भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार एनडी शर्मा कहते हैं, ‘आज दिग्विजय नक्सलवादी नीति और छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा मानवाधिकारों के हनन की आलोचना कर रहे हैं. लेकिन वे अपना किया भूल जाते हैं. अपने समय में दिग्विजय ने राजद्रोह संबंधी कानून का जो मसविदा तैयार किया था वह इतना खतरनाक और बर्बर था कि उसके सामने छत्तीसगढ़ सरकार का वर्तमान कानून कुछ भी नहीं है. जब इस बिल को लेकर सिविल सोसायटी के लोगों ने भोपाल से लेकर दिल्ली तक विरोध किया तब जाकर दिग्गी ने उसे रद्दी की टोकरी में डाला. खुद उनके कार्यकाल में नौकरशाही और पुलिस सर्वाधिक शक्तिशाली रही.’ शर्मा आगे कहते हैं, ‘आज वे किसानों को न्याय दिलाने के लिए धरने पर बैठे हैं लेकिन मध्य प्रदेश में अपने शासनकाल में किसानों की समस्या उठाने के कारण अपनी ही पार्टी की नेता कल्पना परुलेकर को इन्होंने बार-बार जेल में ठूंसा.’

ऐसा नहीं है कि उनके बयान से पार्टी हलकों में असहजता नहीं पनपी. पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के एक सदस्य नाम नहीं छापने के अनुरोध पर कहते हैं, ‘पार्टी के लगभग सभी शीर्ष नेता और मंत्री दिग्विजय सिंह के रवैये से नाराज हैं. कार्यकर्ताओं की तरफ से सबसे ज्यादा शिकायत दिग्विजय सिंह के खिलाफ आ रही है. लेकिन कार्रवाई तो अंतत: शीर्ष नेतृत्व को करनी है. जनार्दन द्विवेदी ने तो उन्हें सीधे-सीधे आगाह करते हुए कह ही दिया था कि पार्टी के घोषित प्रवक्ताओं के अलावा कोई अन्य नेता बयानबाजी न करे.’
कार्यकर्ताओं के असंतोष का सुर पहली दफा बनारस से खुलकर सामने आया है. प्रदेश के वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और वाराणसी मंडल के प्रवक्ता राजेश खत्री ने कुछ दिनों पहले दिग्विजय सिंह को उनके बड़बोलेपन की वजह से उत्तर प्रदेश के प्रभारी पद से हटाने की मांग की थी. खत्री बताते हैं, ‘दिग्विजय सिंह, रीता जी समेत कई नेता एक शादी में हिस्सा लेने के लिए ताज होटल में इकट्ठा थे. मैं भी वहां मौजूद था. दिग्विजय सिंह ने मुझसे कहा कि कार्यकर्ताओं को जाने के लिए कहें. मैं लोगों को हटा-बढ़ा रहा था कि पीछे से उनके गनर ने आकर मुझे भी धक्का देते हुए जाने के लिए कहा. इस पर मेरे एक साथी कार्यकर्ता ने कहा कि इन्हें छोड़ दीजिए, वरिष्ठ नेता हैं और इंदिरा जी के साथ इन्होंने काम किया है. इस पर दिग्विजय सिंह मेरे पास आए और बोले- इंदिरा जी गईं और राजीव जी गए, अब आप लोग भी यहां से निकलिए. जिस अपमानजनक तरीके से उन्होंने ये बात कही थी उससे मुझे बेहद दुख हुआ. मैंने सोनिया जी से मांग की है कि ऐसे व्यक्ति को तुरंत ही पार्टी प्रभारी पद से हटाना चाहिए.’ दिग्विजय सिंह को हटाने की मांग के एक दिन बाद ही राजेश खत्री को मंडल प्रवक्ता के पद से निलंबित कर दिया गया.

हालांकि खत्री के बयान के पीछे कुछ राजनीतिक मंशाएं भी हो सकती हैं, लेकिन दिग्विजय सिंह को जानने-समझने वाले उनके इस विस्फोटक रवैये के पीछे उनके व्यक्तित्व के कई अन्य पहलुओं की भूमिका भी देखते हैं. मसलन सत्यव्रत चतुर्वेदी का बयान गौर करने लायक है, ‘ऐसा लगता है कि दिग्विजय सिंह की सामंती पृष्ठभूमि अक्सर पार्टी की रीतियों-नीतियों पर हावी हो जाती है. उनके व्यक्तित्व में शामिल सामंती तत्व उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर करता है.’ विशुद्ध राजनीतिक नजरिए से देखें तो पिछले दो साल के दौरान आए दिग्विजय सिंह के ज्यादातर विवादास्पद बयान उनकी राजनीतिक मजबूरी भी हैं. गौरतलब है कि उनके ज्यादातर विवादित बयान मुसलिम समुदाय पर केंद्रित रहे हैं – चाहे वह बटला हाउस का बयान हो, करकरे की हत्या पर बयान हो या फिर ‘ओसामा जी’ वाला बयान. इनका सीधा लक्ष्य वे दो राज्य हैं जिनके वे प्रभारी हैं- उत्तर प्रदेश और असम. ये दोनों ही राज्य मुसलिम आबादी के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण हैं. उत्तर प्रदेश में देश के सबसे ज्यादा मुसलमान रहते हैं तो निचले असम का बांग्लादेश से लगने वाला पूरा इलाका मुसलिम बहुल है. ऐसे में उनके बयानों के राजनीतिक निहितार्थ समझे जा सकते हैं.

‘दिग्विजय सिंह की रणनीति कांग्रेस की पुरानी रणनीति से अलग नहीं है. वे मुसलमानों को हिंदुओं का भय दिखाकर वोट हासिल करना चाहते हैं. अगर वे सच्चे हैं तो सच्चर कमेटी की सिफारिशें क्यों नहीं लागू कराते?’

2009 के लोकसभा चुनावों से पहले कांग्रेस पूरे देश में अपनी जीत के दावे कर रही थी, लेकिन उत्तर प्रदेश को लेकर उसकी सांस अटकी हुई थी. आखिरी वक्त तक सपा उसे गठबंधन को लेकर छकाती रही. कभी सपा सिर्फ 11 सीटें देने को राजी हुई तो कभी 18 और अंतत: 23 सीटों पर आकर मामला अटका रहा. लेकिन इसके बाद जो कुछ हुआ उसे सपा याद नहीं करना चाहती और कांग्रेस भूलना नहीं चाहती. दिग्विजय सिंह ने उत्तर प्रदेश में अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा की थी. उनकी सोच थी कि सपा से 18 या 23 सीटों का समझौता करके वे जितनी सीटें जीतेंगे कमोबेश उतनी ही वे अकेले लड़कर भी फतह कर लेंगे. यह फैसला कैसा साबित हुआ, बताने की जरूरत नहीं. जो कांग्रेस सपा से 23 सीटें ही पा रही थी उसने अकेले 22 सीटों पर परचम फहरा दिया. जिस उन्नाव, फर्रूखाबाद, बाराबंकी और महाराजगंज सीट को लेकर सपा सबसे ज्यादा खिचखिच कर रही थी वे चारों सीटें कांग्रेस के ही खाते में गईं.

हालांकि 2009 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के अप्रत्याशित फायदे और सपा के नुकसान की कोई सपाट व्याख्या नहीं की जा सकती. लेकिन कल्याण सिंह के पार्टी में आगमन और आजम खान के प्रस्थान ने मुसलमान वोटरों की सपा से दूरी और कांग्रेस से नजदीकी में सबसे बड़ी भूमिका निभाई थी जिसका नतीजा कांग्रेस की इतनी अप्रत्याशित जीत के रूप में सामने आया. इस जीत ने दिग्विजय सिंह समेत कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को 2012 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जीत के लिए एक अहम रणनीतिक बिंदु दिया- जो मुसलमान वोटर कल्याण सिंह या दूसरे मुद्दे की वजह से सपा से कट कर कांग्रेस के पास आ गया था उसे 2012 के विधानसभा तक अपने साथ जोड़े रखना.

कांग्रेस आलाकमान की इसी सोच ने दिग्विजय सिंह को लगभग फ्रीहैंड दे दिया. अल्पसंख्यकों से जुड़े हर मुद्दे को लपकने की जल्दबाजी इसी का नतीजा है फिर चाहे इसके चलते खुद उनकी और पार्टी की किरकिरी ही क्यों न होती हो. उत्तर प्रदेश में मुसलिम राजनीति का तजुर्बा रखने वाले प्रो. खान आतिफ कहते हैं, ‘दिग्विजय सिंह की रणनीति कांग्रेस की पुरानी रणनीति से अलग नहीं है. वे मुसलमानों को हिंदुओं का भय दिखाकर वोट हासिल करना चाहते हैं. अगर वे सच्चे हैं तो सच्चर कमेटी की सिफारिशें क्यों नहीं लागू कराते?’

अपने लक्ष्य को निशाने पर रखकर दिए जाने वाले ऐसे बयानों की एक पूरी शृंखला है कि जब पार्टी या सरकार खेत की बात कर रही थी तो दिग्विजय सिंह खलिहान खंगाल रहे थे. मुंबई में 26/11 को हुए आतंकवादी हमले के लगभग दो साल बाद दिग्विजय सिंह ने ऐसा बयान दे डाला जिससे उनकी पार्टी और सरकार के सामने मुंह छिपाने की नौबत आ गई. मौका सहारा समय उर्दू के संपादक अजीज बर्नी की पुस्तक के विमोचन का था जहां दिग्विजय सिंह ने यह कहकर सबको चौंका दिया कि हेमंत करकरे ने अपनी हत्या के दो घंटे पहले उनसे फोन पर बात करके हिंदूवादी संगठनों द्वारा अपनी हत्या किए जाने का भय जताया था. इस एक बयान ने घर के भीतर और बाहर दोनों जगह सत्ताधारी कांग्रेस को सुरक्षात्मक मुद्रा में डाल दिया. पाकिस्तान ने दिग्विजय सिंह के बयान की आड़ में मुंबई हमलों की जिम्मेदारी से अपना पिंड छुड़ाने में कोई समय नहीं गंवाया. इधर विपक्ष ने यह कहकर सरकार का जीना मुहाल कर दिया कि दिग्विजय सिंह मुंबई हमले जैसे मामले पर तुष्टीकरण की राजनीति और एक शहीद का अपमान कर रहे हैं. विपक्ष का यह भी कहना था कि दिग्विजय ऐसा कहकर आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में दुनिया के सामने भारत का पक्ष कमजोर कर रहे हैं. सिर्फ विपक्ष नहीं बल्कि दिग्विजय सिंह के सनातन शत्रु बनते जा रहे गृह मंत्रालय और विदेश मंत्रालय में भी उनके इस बयान के प्रति गुस्से की भावना देखने को मिली.

दिग्विजय सिंह द्वारा विवादों को दावत देने में एक चतुराई भरा दिलचस्प ट्रेंड देखने को मिलता है. टारगेट ऑडिएंस (कभी-कभी किसान और ज्यादातर समय मुसलमान) के बीच वे वही बातंे करते हैं जिनसे विवाद पैदा होते हैं और जिनसे राजनीतिक हित पूरे होते हैं. बाद में इन पर सफाई देने के लिए वे उन माध्यमों का सहारा लेते हैं जो अपेक्षाकृत कम सुलभ और सीमित पहुंच वाले हैं- यानी अंग्रेजी चैनल और अखबार जिनकी पहुंच बमुश्किल पांच फीसदी और सिर्फ शहरी इलाकों तक सीमित है. इससे उन्हें अपने बयान में ज्यादा हेरफेर की मुसीबत भी नहीं उठानी पड़ती और उनका काम भी हो जाता है.

उनके बयान पार्टी को बार-बार शर्मनाक स्थिति में डाल देते हैं फिर भी उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती. इस बात का अहसास पार्टी मैनेजरों को भी है इसलिए उन्होंने बचाव के लिए बीच का रास्ता निकाल लिया है- फलां विचार पार्टी का है और फलांं विचार दिग्विजय सिंह का निजी है. ताजा वाकया ग्रेटर नोएडा में चल रहे किसान आंदोलन का है. खबर है कि मनोज तेवतिया ने दिग्विजय सिंह के इशारे पर सारा बवाल रचा. बाद में एक निजी टीवी चैनल ने जब उनसे सवाल किया कि टप्पल में हुए आंदोलन के नौ महीने बाद तक केंद्र सरकार ने भूमि अधिग्रहण संशोधन विधेयक संसद में क्यों नहीं पेश किया तो दिग्विजय सिंह ने दो टूक कहा, ‘हमने तो पेश कर दिया था लेकिन ममता बनर्जी को इससे थोड़ी दिक्कत थी. अब विधानसभा चुनाव निपट गए हैं तो उम्मीद है कि अगले सत्र में हम इसे पास करवा लेंगे.’ कानून पास न हो पाने के लिए दिग्विजय सिंह ने जो बहाना बनाया शायद उसी विधानसभा चुनाव की गहमागहमी दिग्विजय सिंह की ढाल भी बन गई. न तो ममता बनर्जी का ध्यान उनके बयान पर गया न ही मीडिया का. वरना इसके निहितार्थ भी कई थे मसलन किसानों-मजदूरों के आंदोलन पर राजनीति खड़ी करने वाली ममता ने सिर्फ चुनाव तक के लिए इस विधेयक को रोका था और चुनाव जीतने के बाद उन्हें इससे कोई मतलब नहीं. या फिर एक सहयोगी के दबाव में कांग्रेस ने किसानों के लिए इतने महत्वपूर्ण कानून को महीनों तक लटकाए रखा. अगर यह बात तूल पकड़ लेती तो जनता और मीडिया को दिग्विजय सिंह के एक और अटपटे बयान के साथ कांग्रेस-तृणमूल की  धींगामुश्ती का एक और रोमांचक दौर देखने को मिल जाता. 

पार्टी के भीतर तमाम विरोधियों के बावजूद उन्हें एक कोने से समर्थन भी मिल रहा है. वरिष्ठ नेता मणिशंकर अय्यर उनके इस बर्ताव को पार्टी के भीतर स्वस्थ लोकतांत्रिक वातावरण से जोड़ते हैं जिसके बारे में स्वयं राहुल गांधी मान चुके हैं कि उनकी पार्टी में लोकतंत्र का अभाव है. अय्यर के शब्दों में, ‘मैं भी उनके जैसी ही बातें करता हूं पर मेरे साथ कभी कोई विवाद नहीं होता. जो बातें दिग्विजय सिंह कर रहे हैं, मैं उनका पूरा समर्थन करता हूं और मैं हमेशा उनके मुद्दों के साथ खड़ा रहूंगा. ये एक विविध विचारों से भरपूर लोकतांत्रिक पार्टी का सबूत है.’

दिग्विजय सिंह यह सब गांधी-नेहरू परिवार के समर्पण और वफादारी में  किए जा रहे हैं या यह सब कुछ वे पार्टी की भलाई के लिए कर रहे हैं, उनकी अपनी कोई महत्वाकांक्षा नहीं- यह नजरिया स्थितियों का एकतरफा विश्लेषण होगा. अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्रित्वकाल में मध्य प्रदेश के मंत्रिमंडल में दिग्विजय सिंह के साथ काम कर चुके एक नेता बताते हैं, ‘मेरा अपना आकलन है कि दिग्विजय सिंह के अंदर महत्वाकांक्षा की कमी कभी नहीं रही, बल्कि इस मामले में वे अपने समकालीन नेताओं से कई कदम आगे हैं.’ नजमा हेपतुल्ला इस विषय को और तफसील से बयान करती हैं, ‘दिग्विजय सिंह बहुत चालाक और महत्वाकांक्षी हैं. उन्हें इस बात का अहसास है कि राहुल गांधी की राजनीतिक सोच की एक सीमा है जिसके पार वे जा नहीं सकते. इसी सीमा का फायदा वे उठा रहे हैं. भविष्य में राहुल गांधी को इसका नुकसान उठाना पड़ेगा.’

इस लिहाज से वे पीड़ित और अप्रासंगिक न हो जाएं, इस चिंता से दिग्विजय सिंह भरे नजर आते हैं. पीड़ित इस संदर्भ में कि अपनी तमाम योग्यताओं और क्षमताओं के बावजूद उन्हें पता है कि जिस पार्टी में वे हैं उसमें ऊपर जाने की सीढ़ियां अंतहीन नहीं हैं, एक ऊंचाई पर पहुंचकर वे खत्म हो जाती हैं और दिग्विजय सिंह उस सीमा को लगभग छू चुके हैं. दो बार मुख्यमंत्री बन जाने के बाद एक केंद्रीय मंत्री या फिर राज्यपाल जैसा प्रतीकात्मक पद ही अब उन्हें मिल सकता है. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक एनवी सुब्रमण्यम के शब्दों में, ‘दिग्विजय सिंह कांग्रेस पार्टी की वंशवादी राजनीति के क्लासिक शिकार है.’

चिंता इस संदर्भ में कि 2013 में उनका खुद पर थोपा गया चुनावी वनवास खत्म होने जा रहा है. ऐसे में अगर वे अभी से खबरों में नहीं रहे तो मौके पर अंगूठा दिखाने वालों की राजनीति में कमी नहीं है. इस मामले में उन्होंने अपने राजनीतिक गुरु अर्जुन सिंह वाली गलती न दोहराने का फैसला कर लिया है. अपने दोस्तों के बीच में दिग्विजय सिंह अक्सर कहते हैं, ‘अगर मैं विवादित बयान नहीं दूंगा तो जल्द ही मैं लोगों की निगाह से ओझल हो जाऊंगा.’

दिग्विजय सिंह जो बात कह रहे हैं वह उनकी राजनीति की सच्चाई है, लेकिन दुर्भाग्य से यह रास्ता व्यक्ति को नकारात्मक राजनीति के हाइवे पर ले जाता है जहां तूफान की तरह गुजरते लोगों के बीच अक्सर आप अकेले हो जाते हैं. दिग्विजय सिंह उसी राह पर चल पड़े हैं जिसे कभी उनके गुरु अर्जुन सिंह ने भी अपनाया था. अमर सिंह उस राजनीति के ब्रांड अंबेसडर रह चुके हैं (दुर्भाग्य या सौभाग्य से आजकल दोनों ही हमप्याला हो चले हैं). उन सबका हश्र किसी से छिपा नहीं है.

(बृजेश सिंह और हिमांशु बाजपेयी के सहयोग के साथ)

ओसामा की दहशत, ओबामा की नीयत

ओसामा बिन लादेन बहुत खतरनाक आदमी था. इक्कीसवीं सदी में आतंकवाद के उभार की जो डरावनी वैश्विक प्रक्रिया चली वह उसका एक महत्वपूर्ण सूत्रधार था. इस आतंकवाद ने भारत को भी बुरी तरह क्षत-विक्षत किया है, और इस लिहाज से हमें खुश होना चाहिए कि आतंक का सबसे बड़ा सौदागर मारा गया. हमारे मीडिया में यह खुशी दिख भी रही है जो इस बात से कुछ और छलकी पड़ रही है कि ओसामा किन्हीं गुफाओं में नहीं, पाकिस्तान के एक महफूज शहर में मिला और वहां अमेरिका की नेवी सील के कमांडो ने उसे घुसकर मारा. इस घटना से पाकिस्तान का सिर नीचा हुआ है, यह बात हमारे मध्यवर्गीय मानस को कुछ तृप्ति देती है.

सिर्फ इसलिए नहीं कि पाकिस्तान भारत में आतंकवाद का सबसे बड़ा प्रायोजक और निर्यातक रहा है, बल्कि इसलिए भी कि ओसामा के एबटाबाद में मिलने से लेकर उसको मार गिराने तक की कार्रवाई में पाकिस्तान कई संदेहों से घिरा दिख रहा है. अगर उसने ओसामा को जान-बूझकर छिपाया, तो यह आतंकवाद से उसकी मिलीभगत का पुख्ता सबूत है, और अगर ओसामा उसकी बेखबरी में वहां छिपा रहा तो इससे पाकिस्तान के राजनीतिक और सैन्य तंत्र की विफलता उजागर होती है जो इस बात से कुछ और पक्की हो जाती है कि बाद में जब अमेरिकियों ने जो कार्रवाई की उसकी भी थाह उसे नहीं मिली.

बीते सौ वर्षों में राष्ट्रवाद ऐसी ही हिंसक और आत्मघाती परियोजनाओं के सहारे आगे बढ़ा और बढ़ाया गया है

सच क्या है, यह पाकिस्तान को मालूम होगा या फिर शायद अमेरिका को, जो पाकिस्तान का कॉलर भी पकड़ता है, उसकी पीठ भी थपथपाता है और उसकी जेब भी भरता है. पाकिस्तान में ओसामा की उपस्थिति इस बात का इकलौता प्रमाण नहीं है कि वह आतंकवाद और आतंकी संगठनों का हमदर्द और मददगार मुल्क है. 1993 में मुंबई में हुए कई धमाकों के मुजरिमों को पनाह देने का मामला हो या 26 नवंबर, 2008 को मुंबई पर हुए हमले के सूत्रधारों को पालने और प्रशिक्षित करने का- भारत में चल रहे आतंकवाद को सीमा पार से मिल रहे शह और समर्थन की तस्दीक बार-बार होती रही है.

शायद यह इन जख्मों की भी याद है जिसकी वजह से भारतीय मीडिया पाकिस्तान की खिल्ली उड़ती देख खिलखिला रहा है और अब यह सवाल भी पूछ रहा है कि क्या भारत को भी पाकिस्तान में छिपे आतंकवादियों को मार गिराने के लिए अमेरिका जैसी ही कार्रवाई नहीं करनी चाहिए. इस सवाल के साथ एक मायूसी भरा जवाब भी छिपा हुआ है कि भारत ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि उसके पास ऐसे नपे-तुले हमले करने की न ताकत है और न ही इसका हौसला है. इसी क्रम में इन दिनों कई रिटायर हो चुके कूटनीतिज्ञ टीवी चैनलों पर विशेषज्ञ बनकर यह व्यावहारिक ज्ञान देने में जुटे हैं कि कूटनीति में कोई किसी का दोस्त या दुश्मन नहीं होता, कुछ भी नैतिक या अनैतिक नहीं होता, सिर्फ अपने हित होते हैं और उनकी व्याख्या होती है. अमेरिका ताकतवर है, इसलिए उसने ओसामा को मार गिराया. भारत को भी अपने हित देखने चाहिए, अपनी ताकत तौलनी चाहिए और अपने ढंग से फैसला करना चाहिए.

राष्ट्रवादी राजनीतिक परियोजनाओं की मांग के आईने में देखें तो कूटनीति का यह पाठ बिलकुल सही लगता है. लेकिन संकट यह है कि यह पूरा राष्ट्रवाद अंततः एक ऐसी अंधी भूलभुलैया में जाता दिखाई पड़ता है जिसमें हम पहले ओसामा को बनाते हैं, और उसके बाद उसे मारते हैं. अब यह कायदे से याद दिलाने की भी जरूरत नहीं है कि ओसामा बिन लादेन शीतयुद्ध के अंतिम वर्षों में अफगानिस्तान में सोवियत संघ के विरुद्ध अमेरिका द्वारा खड़ी की गई तालिबानी व्यूह रचना का एक छोटा-सा मोहरा भर था. अफगानिस्तान में धार्मिक उन्माद की यह अफीम अमेरिका ने ही बोई, उसे पाकिस्तान की मदद से मिट्टी, पानी और हवा दी, उसके हाथ में एके 47 पकड़ाया, उसे जेहाद के नये मतलब समझाए और उसे ऐसे फिदायीन दस्ते के तौर पर तैयार किया जो जान लेने और देने का खूनी खेल खेल सके.

लेकिन इस लेख का मकसद आतंकवाद को लेकर अमेरिका के दोहरे चरित्र की तरफ ध्यान खींचना भर नहीं है, बल्कि यह बताना है कि बीते सौ वर्षों में राष्ट्रवाद ऐसी ही हिंसक और आत्मघाती परियोजनाओं के सहारे आगे बढ़ा और बढ़ाया गया है. जब तक अमेरिका ताकतवर रहा, जब तक उसके पास एक विचारधारात्मक कवच की सुविधा रही, तब तक वह लोकतंत्र, साम्यवाद विरोध और मानवाधिकार के आवरण में सब कुछ करता रहा, लेकिन इक्कीसवीं सदी के इन आखिरी वर्षों में उसकी निचुड़ती हुई ताकत ने, उसके सूखते हुए आर्थिक स्रोतों ने, उसके थके हुए चिड़चिड़ेपन ने और उसकी लगातार अनावृत्त होती स्वार्थपरता ने उसके इरादों और औजारों को एक तरह से बेनकाब कर दिया है. हम चाहें तो याद कर सकते हैं कि जिसे अमेरिका 9/11 कहता है, जिस हमले को वह अपने आधुनिक इतिहास का सबसे बड़ा हमला बताता है, उसी की बदौलत जॉर्ज बुश द्वितीय को वह राजनीतिक स्थिरता और स्वीकार्यता मिली जिसकी बदौलत वे चार साल नहीं, आठ साल शासन कर गए. वरना साल 2000 में हुआ उनका चुनाव बुरी तरह विवादों में घिरा हुआ था, उन पर मतदान में घपले के आरोप थे, उनके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई चल रही थी और इतने तीखे राजनीतिक प्रदर्शन हो रहे थे कि वे लगातार व्हाइट हाउस से भागे रहने को मजबूर थे.

अल कायदा से कहीं ज्यादा अमेरिका ने निर्दोष लोगों का खून बहाया है, जनता की चुनी हुई सरकारें पलटी हैं और क्रूर तानाशाहों को संरक्षण दिया है

लेकिन जैसे ही 9/11 हुआ, बुश के खिलाफ सारे इल्जाम हवा हो गए. अमेरिकी सत्ता प्रतिष्ठान ने शोक में डूबे अपने नागरिकों के गम और गुस्से का फायदा उठाते हुए आतंकवाद के विरुद्ध वैश्विक युद्ध का एलान किया और इस युद्ध की आड़ में अपने ही नागरिकों के अधिकार स्थगित करने शुरू किए. सुरक्षा के नाम पर चली इस कवायद में पहली बार अमेरिकी नागरिकों को अपमान सहने पड़े, रुकावटें झेलनी पड़ीं, विमानों पर अपने बच्चों के लिए दूध की बोतल लेकर महिलाओं का चढ़ना मना हो गया, सिर्फ नाम की वजह से एशियाई मूल के, और मुसलिम अमेरिकियों को भयानक पूछताछ से गुजरना पड़ा, अवैध गिरफ्तारियां हुईं, गुआंतनामो बे जैसे शिविर चले- कुल मिलाकर सरकारी आतंक का एक ऐसा चक्र चला जिसमें अमेरिका सुरक्षित हो गया, लेकिन दुनिया असुरक्षित हो गई. इससे भी ज्यादा बुरी बात यह हुई कि आधुनिकता और विश्व बंधुत्व की ओर बढ़ते जमाने के पांव ठिठक गए, लोग एक-दूसरे से उसकी कौम और नस्ल पूछने लगे, एक-दूसरे पर संदेह करने लगे.

जॉर्ज विलियम बुश यहीं नहीं रुके. उन्होंने पहले इराक पर हमला किया और फिर अफगानिस्तान को निशाना बनाया. इराक में उन्हें विध्वंसक हथियार नहीं मिले, लेकिन सद्दाम हुसैन मिल गया, जो सीनियर बुश के जमाने में शुरू हुई और अधूरी रह गई एक और अमेरिकी परियोजना की आंखों का चुभता हुआ कांटा था. अफगानिस्तान में उन्हें ओसामा बिन लादेन नहीं मिला, लेकिन दक्षिण एशिया में ऐसा ठिकाना मिल गया जहां से वह मिनटों में अपने लड़ाकू विमान और हेलिकॉप्टर आसपास कहीं भी भेज सकता था. बरसों बाद जलालाबाद के एयरबेस से उड़े और ओसामा के ठिकाने तक पहुंचे अमेरिकी हेलिकॉप्टर बताते हैं कि अफगानिस्तान में अमेरिका ने क्या हासिल किया है- इस पूरे इलाके पर नजर रखने और हमला करने की ताकत.

इत्तिफाक से ओसामा भी तब मारा गया जब अमेरिका कई तरह के संकटों से घिरा है. वह अब भी दो साल पहले आई आर्थिक मंदी से उबरने की कोशिश में है. इसी दौर में चीन विश्व की नयी आर्थिक महाशक्ति की तरह उभरा है. यही वक्त है जब फोर्ब्स ने दुनिया के सबसे ताकतवर लोगों की सूची बनाते हुए बराक ओबामा से ऊपर चीनी राष्ट्रपति हू जिंताओ को जगह दी है. सच तो यह है कि ओबामा की लोकप्रियता भी इस दौर में लगातार गिरी है. ऐसे में जब ओसामा मारा जाता है तो ओबामा की लोकप्रियता लौटती है, अमेरिकी राष्ट्रवाद का महानायकत्व लौटता है. अमेरिका और ओबामा के लिए यह दांव इतना बड़ा है कि ओसामा पर हमले के लिए वे अंतरराष्ट्रीय कानूनों की सारी सरहदें तोड़ते हैं, किसी आतंकी संगठन की तरह नेवी सील को गुपचुप पाकिस्तान में हमले के लिए भेजते हैं और यह भी भूल जाते हैं कि वे आम राष्ट्रपति नहीं हैं, उन्हें शांति का नोबेल पुरस्कार मिला है, जिसकी मर्यादा, जिसके शील की रक्षा उन्हें करनी चाहिए थी.

वैसे अमेरिका ने ऐसे शील की परवाह कभी नहीं की है. इस तथ्य में कोई अतिशयोक्ति नहीं कि अल कायदा से कहीं ज्यादा अमेरिका ने निर्दोष लोगों का खून बहाया है, जनता की चुनी हुई सरकारों को पलटने का काम किया है और क्रूर तानाशाहों को संरक्षण दिया है. वियतनाम से चिली तक, और इराक से अफगानिस्तान तक इस अमेरिकी आतंकवाद के उदाहरण बिखरे पड़े हैं. दरअसल अमेरिका के इसी रवैये से ओसामा बिन लादेन बनते हैं. इस लिहाज से ओबामा ने एक ओसामा को तो मार दिया है लेकिन अमेरिकी कार्रवाई को अपने मुल्क पर और अपनी कौम पर हमले की तरह देखने वाले बहुत सारे मायूस नौजवानों के भीतर ओसामा बनने का इरादा बो दिया है.

दुर्भाग्य से अमेरिका ने यह काम तब किया है जब इस्लामी दुनिया के अंदर से ही अल कायदा और उसके पोषित आतंकवाद के खिलाफ सुगबुगाहट तेज थी और उसके आंदोलन से धर्म की आड़ में हुकूमत कर रहे तानाशाहों के तख्तो ताज उड़ रहे थे. खतरा यह है कि इस अमेरिकी हमले के बाद अल कायदा फिर अपने उखड़ते हुए पांव जमाने की कोशिश न करे, क्योंकि ओसामा के मारे जाने के बाद वह सांगठनिक तौर पर कमजोर भले पड़ा हो, लेकिन सैद्धांतिक तौर पर उसे एक ऐसा शहीद मिल गया है जिसके नाम पर वह नयी कुमुक जुटा सकता है. अमेरिका भूल गया कि हत्याओं से लोग भले मारे जाएं, उनकी विचारधारा मजबूत होती है.

जहां तक भारत का सवाल है, वह अमेरिका की राह पर न चल सकता है और न उसे चलना चाहिए. जो राष्ट्रवादी अमेरिका की तरह भारत को भी सर्जिकल स्ट्राइक के लिए उकसा रहे हैं वे भूल जाते हैं कि राष्ट्रवाद के नाम पर युद्ध पतनशील व्यवस्थाओं का सबसे बड़ा सहारा होते हैं. आतंकवाद से युद्ध के बहाने पाकिस्तान पर एक हमला हमारी सरकारों के सारे पापों से ध्यान हटा लेगा. भले इसका नतीजा दोनों तरफ के हजारों बेकसूर नागरिकों को भुगतना पड़ेगा. पाकिस्तान की लुंजपुंज हुकूमत को भी ऐसी लड़ाई रास आएगी. अगर हम इस नकली और जुनूनी राष्ट्रवाद से दूर खड़े होकर अपने देश और दुनिया को देखेंगे तो कहीं ज्यादा ठीक से समझ पाएंगे कि ओसामा बिन लादेन क्यों बनते हैं और कैसे उन्हें खत्म किया जा सकता है.

नीर की पीर

वाकया काफी दिलचस्प है. एक टपोरी ने सज्जन को धमकाते हुए कहा, ‘दूं क्या खर्चा-पानी?’ सज्जन तपाक से बोले, ‘खर्चा दे न दे, बस पानी दे दे यार’. ये सुनते ही टपोरी के मनोबल पर घड़ों पानी पड़ गया. जाहिर है, उन सज्जन की हाजिर जवाबी के आगे टपोरी की धृष्टता पानी भरने लगी. मगर इतना पानी-पानी होने के बावजूद उन सज्जन की पानी की समस्या जस की तस रही. कबीर की उलटबांसी इसे नहीं तो किसे कहेंगे!

रंगहीन पानी कैसे-कैसे रंग दिखा रहा है. जब टोंटी से आता है तो आता है, मगर जब नहीं आता तब आती है, आती है, नानी की याद. इधर गर्मी अपने पूरे शबाब पर आई नहीं कि उधर सरकारी विभाग द्वारा कटौती का जाल फेंका गया. सरकारी नल शांत ऐसे जैसे जीवन रक्षक प्रणाली पर रखा मरीज.
 सभ्यता की शुरुआत नदियों के कगार पर हुई, तो उसी सभ्यता के कारण अब नदियां विनाश के कगार पर हैं. यह बात पानीदार लोग बोतलबंद पानी पी-पीकर चेता रहे हैं. कैसा अद्भुत दृश्य है प्यारे! आज भगीरथ आएं तो शर्तिया उनके पैर कांप जाएं. यह देखकर कि उस भागीरथी को अपने सहजरूप से बहने के लिए भगीरथ प्रयास करना पड़ रहा है जिसे उन्होंने आकाश से उतारा था. तब भगीरथ ने गंगा को धरती पर लाकर अपने पुरखों को तार दिया था. आज यहां मात्र दो बूंद पानी के लिए ही भगीरथ प्रयास करना पड़ रहा है. पुरखों की कौन कहे, खुद ही तर जाए तो मोक्ष जानो!

जीनियस कह रहे हैं कि पानी के लिए तृतीय विश्व युद्ध होगा. और मैं मूढ़मति कह रहा हूं कि विश्व युद्ध तो बाद में होगा, उससे पहले पानी के लिए गृह युद्ध होगा. प्रेमियों की जगह पानी पर पहरे बिठाए जाएंगे. सास-बहू के झगडे़ नहीं, घर-घर पानी के लफडे़ होंगे. विलासितापूर्वक जीवन उसका कहा जाएगा जो शौच के बाद शौचालय में एक लोटा पानी डालेगा. ‘जीते रहो’ की जगह ‘पीते रहो’ का आशीर्वाद नौनिहालों को अपने बुजुर्गों से मिलेगा. पनघट पर गोपियां बोर होंगी और नंदलाल उनसे ज्यादा बोर होंगे. न गोपियां कपडे़ बदलेंगी न नंदलाल चुराएंगे. क्योंकि नदी तो सूखी होगी न! 

अभी तक पानी बचाने के लिए सिर्फ पानी मथा गया है. जब आंखों का पानी मर गया हो तो ‘जल ही जीवन है’ जैसे स्लोगन से काम चलने वाला नहीं है. देश में ऐसे भी रत्न होंगे जो सिर्फ होली दर होली को चमकते होंगे. उन्हें खोजकर निकाला जाए और सार्वजनिक रूप से सम्मानित किया जाए. दीगर है, चुल्लू भर पानी में डूब मरने वाला आदमी नहाने के लिए पूरी टंकी खाली कर देता है.

अपनी सारी मेधा पेट्रोल का विकल्प तलाशने में  भिड़ा रखने वाले आदमी को फिलहाल पानी का कोई विकल्प नजर नहीं आ रहा. उसे महसूस हो रहा कि उसकी स्थिति तो जल बिच मीन प्यासी जैसी होकर रह गई है. वह पूछ रहा है कि जब दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा है, तब बूंद-बूंद पर पीने वाले का नाम क्यों नहीं लिखा!

दरअसल, पानी की चिंता से ज्यादा चिंता, पानी के पीछे पानी की तरह पैसा बहाने को लेकर है. गुरू दिक्कत प्रबंधन की है, पानी की किल्लत की नहीं. यक्ष प्रश्न आदमी के गिरने का है, जल स्तर गिरने का नहीं. असल में, सूखा संवेदनाओं का है, पानी का नहीं. अब आदमी चाहे जितना भी गला फाडे़ कि पानी खत्म हो रहा, तो फाड़ता रहे. पानी पर लाठी मारने से पानी फटता है कहीं!

– अनूप मणि त्रिपाठी

‘हल्के बुखार को हल्के में न लें’

बुखार को कभी भी बिना ठीक सा विशेषण लगाए नहीं बताया जाता. मामूली बुखार, हड्डी तोड़ बुखार, ऐसा तेज बुखार कि जैसा कभी हमें जिंदगी में हुआ ही नहीं, हल्का बुखार, मियादी बुखार आदि कई तरह से मरीज इसके बारे में बताता है. बुखार को लेकर इतनी तरह की गलतफहमियां हैं, बतकहियां हैं और चिकित्सा विज्ञान की सीमाएं हैं कि इस मामूली-सी प्रतीत होती बीमारी के इन पक्षों को जानना जरूरी हो जाता है.

पहली बात तो यह कि कोई भी, कितना भी कम बुखार हो वह कभी भी मामूली नहीं होता. हर बुखार इस बात की घोषणा है कि शरीर में कुछ ऐसा गलत हो रहा है जिससे लड़ने के शरीर के अपने हथियारों के चलने के कारण यह गर्मी पैदा हो रही है. बल्कि हल्के बुखार कई मायनों में ज्यादा खतरनाक हैं. थोड़ा-थोड़ा बुखार हो रहा हो तो कई बार आदमी लंबे समय तक इसकी परवाह ही नहीं करता और बाद में बीमारी बढ़ाकर डॉक्टर के पास पहुंचता है. दूसरा यह कि वे हल्के-हल्के निन्यानवे-सौ वाले, कभी-कभी आने वाले बुखारों की जड़ में बेहद खतरनाक, जानलेवा होने की हद तक खतरनाक कारण भी हो सकते हैं. टीबी, एड्स, कई तरह के कैंसर, आंतों की बीमारियां, यहां-वहां पनपती पस (मवाद) आदि किसी के कारण भी ऐसा हो सकता है. प्रायः यह हल्का बुखार विभिन्न तरह की जांचों में आपके खासे पैसे लगवा सकता है. हो सकता है कि तब भी डॉक्टर किसी ठीक नतीजे पर न पहुंच पाए और आप डॉक्टरों की जमात को ही कहते फिरें कि स्साले यहां-वहां से कट लेने के लिए ऐसा करते रहते हैं. हल्का बुखार गठिया से लेकर साइकोलोसिक फीवर तक कुछ भी हो सकता है. हो सकता है कि मैं किसी पक्ष की जांच न कराऊं और दो माह बाद पता चले कि हड्डी में टीबी थी या आंतों में कैंसर था, जो मैंने तब सोचा या देखा ही नहीं. कुल कहना यह है कि हल्के बुखार को कभी भी हल्के में न लें. हमेशा किसी बहुत अच्छे डॉक्टर से इसकी सलाह लें क्योंकि मामूली बुखारों की डायग्नोसिस के लिए गैरमामूली डॉक्टर ही चाहिए जो इस जटिल चीज को समझता हो.

बुखार को गंभीरता से लें क्योंकि बुखार यदि गंभीर हो गया तो लेने के देने पड़ सकते हैं

इससे भी पूर्व मैं सलाह दूंगा कि बुखार लगे तो थर्मामीटर से नापकर कागज पर रिकार्ड कर लें. डॉक्टर को इससे बड़ी मदद मिलेगी. बहुत से मरीज कहते हैं कि हमारा हड्डी का बुखार है, या अंदरूनी बुखार है जो रहता तो है पर किसी भी थर्मामीटर में नहीं आ पाता. ऐसा कोई बुखार नहीं होता जो थर्मामीटर में रिकॉर्ड नहीं होगा. बुखार जैसा लगने के पचासों और भी कारण हो सकते हैं. उनका इलाज भी कुछ अलग ही होगा. आप बुखार कहते हो, और लापरवाह चिकित्सक बुखार की कोई दवाई आपको दे देता है.  तो पहले यह तय कर लें कि बुखार है भी या नहीं? नापें. जब लगे तब नापें. मैं यह सलाह नहीं दे रहा कि जेब में थर्मामीटर लेकर घूमें और जब-तब मुंह में रखते फिरें. पर रिकॉर्ड जरूर करें. बुखार रिकॉर्ड न हो तो डॉक्टर को यही कहें कि मुझे बुखार सा लगता है पर होता नहीं. इस तरह की स्थिति एनीमिया, थकान, तनाव से लेकर अन्य बहुत सी गंभीर बीमारियों से भी हो सकती है.

और नापने में भी याद रखें कि आदमी के नार्मल टेंपरेचर में भी बहुत-से नार्मल उतार-चढ़ाव हो सकते हैं. हिंदी के एक बड़े कहानीकार की बिटिया का टायफायड तो ठीक हो गया परंतु रोज शाम होते-होते 99.8 डिग्री चढ़ जाता था. कहने वालों ने कहा कि टायफायड बिगड़ गया है. मैंने सलाह दी कि यह नार्मल वेरिएशन है. समझदार थे. मान गए. तो सामान्यतः शाम को हमारा तापमान 99.9 तक भी हो जाए तो इसे बुखार न मानें. डॉक्टर को तय करने दें.

तेज बुखार हो तो डॉक्टर कहते हैं कि मरीज की कोल्ड स्पोन्जिंग कीजिए. कहते हैं पर बताते नहीं कि कैसे कीजिए? प्रायः वे नर्स को कह देते हैं और नर्स आपसे कह देती है कि ठंडे पानी की पट्टियां रखिए. बस कहां रखिए, कैसे रखिए – यह बताने का समय किसी के भी पास नहीं. आप दिन भर लगे रहते हैं और बुखार नहीं उतरता. कारण यह कि कोल्ड स्पोंजिंग के कुछ सामान्य सिद्घांत हैं. एक तो यह कि इसे बर्फ के पानी से न करें. बर्फीला ठंडा पानी चमड़ी की खून की नलियों को उल्टा सिकोड़ ही देता है जिससे शरीर और ठंडे कपड़े के बीच तापमान का आदान-प्रदान नहीं हो पाता और बुखार उतनी तेजी से नहीं उतर पाता. नल में आ रहे सामान्य ताप वाले पानी या घड़े में भरे पानी को लें. दूसरी बड़ी बात यह करें कि गीले कपड़े को बढ़िया निचोड़कर और गले पर, कांखों में, पेट पर तथा जांघ के संधि स्थल (हिप ज्वायंट के पास) रखते जाएं और हर बीस-पच्चीस सेकंड में बदलकर नया गीला कपड़ा लगाएं. गर्दन, कांख, जंघा तथा पेट से खून की बहुत बड़ी नलियां एकदम चमड़ी के पास से गुजर रही होती हैं. इनमें बुखार से तपता हुआ गर्म खून बह रहा है जिसे ठंडक मिलेगी तो बुखार फटाफट कम होगा. शेष शरीर पर रखी पट्टियां इतनी जल्दी न बदलें क्योंकि हाथ-पांव की चमड़ी की पतली रक्त नलियों में खून ठंडा होने में समय लेगा. हां, माथे तथा सिर पर बर्फ की थैली (आइस कैप) रखना चाहिए क्योंकि खोपड़ी की हड्डियों का तापमान इतनी आसानी से कम न होगा.

और एक आखिरी बात. स्वयं इलाज न लें. बुखार एक ऐसी बीमारी है जिसका सबसे ज्यादा सेल्फ ट्रीटमेंट होता है. याद रखें कि हर ठंड के साथ कंपकंपी देने वाला बुखार मलेरिया नहीं होता. न ही वही एंटीबायटिक इस बार भी काम करेगी जो कभी पिछले बुखार में आपको दी गई थी. बुखार होने पर डॉक्टर की बताई दवाएं ही लें.

नन्हे लेकिन बड़े सितारे

दस साल की जन्नत का आज ब्याह हो गया. एक हट्टे-कट्टे डकैत ने अपना अंगूठा चीरकर खून से उसकी मांग भर दी और ऐलान किया कि दोनों मरते दम तक साथ रहेंगे. बाकी डकैत इस दौरान इस छोटी सी बच्ची के मां-बाप की खोपड़ी पर बंदूक ताने रहे. शॉट खत्म होने के बाद जन्नत आइने की तरफ भागती है. अपना सिंदूर पोंछते हुए वह पास ही बैठे अपने पिता जुबेर रहमानी से शिकायती लहजे में कहती है, ‘पापा, यह दुखता है.’ उसकी बात सुनकर टीवी सीरियल फुलवा की शूटिंग कर रही यूनिट के लोग धीरे से हंसते हैं.

लेकिन इस तरह के नाटकीय दृश्य और कुछ समय की थकान उस स्टारडम के लिए एक बहुत ही छोटी सी कीमत है जो आज जन्नत को हासिल है. जन्नत इस इंडस्ट्री में तब से है जब वह महज तीन साल की थी. आज सात साल बाद वह छोटे परदे को दो चर्चित धारावाहिकों में मुख्य भूमिका निभा रही है. पहला है इमेजिन पर आने वाला काशी और दूसरा कलर्स पर हाल ही में शुरू हुआ फुलवा.
यह वह दुनिया नहीं है जहां छोटी-छोटी बच्चियां सिर्फ जगह भरने लिए काम करती हैं. यहां उनके काम करने का मतलब है कांट्रेक्ट्स, प्रतिस्पर्धा और घंटों तक चलने वाले शूटिंग शेड्यूल.

जन्नत, उल्का और उनके जैसे कई दूसरे बच्चे अपने माता-पिता की अधूरी महत्वाकांक्षाओं का भार भी ढो रहे हैं

छोटे परदे पर बालक्रांति का यह सिलसिला सही मायनों में बालिका वधू से शुरू हुआ. यह दस साल की आनंदी (अविका गौर) की कहानी थी जिसका ब्याह लगभग उस जितनी ही उम्र के जगदीश (अविनाश कपूर) से हो जाता है. सास, बहू और साजिश से भरा यह फॉर्मूला था तो वही पुराना, बस उसे एक अलग रंग इस मायने में दे दिया गया था कि इसका हर एपीसोड एक सामाजिक संदेश के साथ खत्म होता था. मध्य वर्ग ने इसे खूब पसंद किया. इतना कि बालिका वधू ने कलर्स को देखते ही देखते मनोरंजन चैनलों की सबसे ऊपरी पांत में खड़ा कर दिया. 13 साल की चुलबुली अविका रातों-रात स्टार बन गई. दूसरे चैनलों को भी यह समझते ज्यादा देर नहीं लगी कि अब उन्हें भी इसी राह पर चलना है.

जीटीवी पर आने वाले धारावाहिक झांसी की रानी की लेखिका शालू कहती हैं, ‘यह सब बालिका वधू से शुरू हुआ.इसके बाद जब कलर्स ने जब उतरन शुरू किया, जिसमें दो छोटी बच्चियों की कहानी थी, तो साफ हो गया कि केंद्रीय भूमिकाओं में बच्चे भी जान फूंक सकते हैं.’ कलर्स जैसी सफलता दोहराने के लिए दूसरे चैनलों ने भी तेजी से अपना ढर्रा बदला और बच्चों के लिए अपने दरवाजे खोल दिए. अब बच्चे सिर्फ एक्स्ट्रा या छोटी और हल्की-फुल्की भूमिकाओं में नहीं दिख रहे. अब वे नायक-नायिकाएं हैं जिनके इर्दगिर्द पूरी कहानी घूमती है. इमैजिन के लिए काशी लिख चुके गौतम हेगड़े कहते हैं, ‘ आनंदी ने साबित कर दिया कि बच्चे भी शानदार तरीके से मुख्य भूमिका निभा सकते हैं. बच्चों की आंखों से दुनिया बिल्कुल अलग दिखती है. घिसे-घिसाए प्लॉट भी एक नई तरह से पेश किए जा सकते हैं. बच्चे सुंदर होते हैं और क्योंकि उनका चरित्र वास्तव में दर्शकों की आंखों के सामने ही विकसित होता है इसलिए दर्शकों को भी उनसे ज्यादा जुड़ाव महसूस होता है.’

छोटे परदे पर बच्चों की इस क्रांति का एक हिस्सा उल्का गुप्ता भी हैं. 14 साल की उल्का को जी टीवी पर आने वाले धारावाहिक झांसी की रानी में मुख्य भूमिका के लिए चुना गया था. जब बालिका वधू मशहूर हुआ तो उस समय उल्का स्टार वन पर आने वाले फैमिली ड्रामा रेशम डंक में अपनी शूटिंग का आखिरी चरण निपटा रही थी. शूटिंग के आखिरी दिन उन्हें झांसी की रानी के लिए ऑडिशन देने के लिए बुलाया गया. उन्हें चुन लिया गया और इसके बाद के दो वर्षों में अपनी अभिनय क्षमता की बदौलत वे घर-घर में जाना-पहचाना चेहरा बन गईं.
अब जब उनका किरदार उम्र की पगडंडी पर आगे बढ़ चुका है तो थोड़ी सी फुर्सत के इस दौर में उल्का अपनी 10वीं की परीक्षा के नतीजे आने का इंतजार कर रही हैं. गर्व से दमकते उनके पिता गगन गुप्ता कहते हैं, ‘मुझे रोज ही चैनलों से फोन आते हैं. लोग पूछते हैं कि क्या वह शोज में आने के लिए एक हफ्ते की छुट्टी ले सकती है.’ उल्का अपने छोटे भाई जानू और बहन जिज्ञासा के साथ सोफे पर बैठी टीवी देख रही है. सोफे के पीछे की दीवार पर उसकी एक तस्वीर टंगी हुई है. उसके हाथ में तलवार है और आंखों में गुस्सा.

कुछ माता-पिता ऐसे भी हैं जिन्हें बच्चों को इस मुकाम तक पहुंचाने के लिए कुछ ज्यादा कीमत चुकानी पड़ती है

एक तरह से देखा जाए तो जन्नत, उल्का और उनके जैसे कई दूसरे बच्चे अपने माता-पिता की अधूरी महत्वाकांक्षाओं का भार भी ढो रहे हैं. नौ साल पहले बतौर अभिनेता पहचान पाने को जूझ रहे गगन गुप्ता ने अपनी बेटी को ऑडिशंस के लिए ले जाना शुरू किया था. जब उल्का पूरा वाक्य तक नहीं बोल पाती थी तब गुप्ता उसे उच्चारण की बारीकियां सिखाया करते थे. हालांकि एक बार जब उल्का का चयन रेशम डंक के लिए हो गया तो गुप्ता ने उसके साथ जाना बंद कर दिया. वे कहते हैं, ‘मैंने उसके साथ उसकी मां को जाने दिया ताकि उसकी ठीक से देखभाल हो सके. जैसे एक मां ही कर सकती है. मैं खुद भी एक एक्टर हूं. दूसरे एक्टर काम में मसरूफ हों तो उनके सामने खाली बैठा रहना मेरे लिए एक ऐसी स्थिति है जिसे में बर्दाश्त नहीं कर सकता.’

लेकिन सभी माता-पिता खुद पर इतना काबू नहीं रख पाते. कास्टिंग डायरेक्टर जैनेट इलिस कहती हैं, ‘बाल अभिनेताओं में से ज्यादातर के माता-पिता की अपनी भी महत्वाकांक्षाएं होती हैं. बच्चे को एक बार रोल मिल जाए तो वे ऐसा बर्ताव करने लगते हैं जैसे वे ही असली टैलेंट हों. कभी वे अपने मनपसंद खाने की जिद करेंगे, कभी स्क्रिप्ट में बदलाव की और कभी वैनिटी वैन की. हालांकि इसका सकारात्मक पहलू यह है कि उन्हें यह अहसास होता है कि उनके बच्चे उनकी हसरतों की जिंदगी का टिकट हैं और इसलिए वे उन्हें निखारने पर खूब ध्यान देते हैं.’

डिंपल पेंडकलकर का बेटा राहुल चार साल का हुआ तो वे उसका पोर्टफोलियो एक एजेंट के पास ले गईं जिसने एक मोटी फीस लेकर इस बच्चे की सिफारिश कास्टिंग डायरेक्टरों से करनी शुरू की. आज राहुल 10 साल का है और अब तक 11 टीवी सीरियलों, 11 फीचर फिल्मों और 76 विज्ञापनों में काम कर चुका है. एक सेट पर उसकी हर दिन की औसतन फीस 40 हजार रु है. आय पहले से कहीं ज्यादा बढ़ गई है तो राहुल के पिता ने भी कुछ समय के लिए अपनी वकालत छोड़कर स्क्रिप्टराइटिंग और डायरेक्शन सीखना शुरू कर दिया है. शूटिंग के दौरान टेक के बाद भी डिंपल मॉनीटर से चिपकी रहती हैं ताकि वे देख सकें कि राहुल शॉट में है या नहीं. दूसरे बच्चों के माता-पिता इस दौरान एयरकंडीशंड वैनिटी वैन में बैठकर उन्हें उनके हिस्से की लाइनें रटवाते हैं. उनकी फरमाइशें धैर्य से सुनते हैं और वे थकान की शिकायत करें तो उनके कंधों की मालिश भी कर देते हैं.

कुछ माता-पिता ऐसे भी हैं जिन्हें अपने बच्चों को इस मुकाम तक पहुंचाने के लिए इससे कुछ ज्यादा कीमत चुकानी पड़ती है. सात साल की अशनूर कौर का ही मामला लें जिसकी मां अवनीत कौर ने मुंबई स्थित रेयान इंटरनेशनल स्कूल की अपनी नौकरी छोड़ दी ताकि वे अपनी बेटी के करियर पर ध्यान दे सकें. जी टीवी पर जल्द आने वाले धारावाहिक जय सोमनाथ में मुख्य भूमिका निभाने वाली अशनूर को अपनी शूटिंग के पहले दिन तब बहुत दिक्कत हुई जब एक सीन में उन्हें लाल मिर्च पीसनी थी. तपती दोपहर में जब यह शॉट पूरा हुआ तो तब तक उनकी आंखों और हाथों में इतनी तेज जलन होने लगी थी कि डॉक्टर की मदद लेनी पड़ी. अवनीत कौर मुस्कराते हुए बताती हैं, ‘वह बहादुर लड़की है. कभी-कभी उसे नींद आ रही होती है और वह रोती है. क्योंकि उसका किरदार कुछ ऐसा है कि उसे रिश्तेदारों द्वारा सताया जाता है, इसलिए जब उसका मूड ऐसा होता है तो भी मैं शूटिंग के लिए कहती हूं ताकि सीन वास्तविक लगे.’

अशनूर का परिवार अब मलाड के अपने साधारण घर से मुंबई के पॉश इलाके मीरा रोड पर स्थित एक फ्लैट में शिफ्ट हो गया है. मुंबई जैसे शहर में जहां खुद का आशियाना एक बड़ा सपना हो, यह एक बड़ी उपलब्धि है. शायद इसलिए माता-पिता को भी ऐसे बच्चों के करियर के लिए अपने करियर की कुर्बानी नहीं खलती.

इन बच्चों में वह मासूमियत नहीं दिखती जो आमतौर पर इस उम्र के बच्चों में पाई जाती है. कम उम्र में ही बड़े हो गए इन बच्चों का बचपन आत्मकेंद्रित हो गया है

हालांक किसी रोल के लिए चुन लिया जाना सिर्फ आधा मैदान मारने जैसा है. इसके बाद भी बच्चों को काफी पापड़ बेलने पड़ते हैं.  गर्मियों की छुट्टियों में जहां उल्का के दोस्त मस्ती कर रहे थे वहीं उल्का हर सुबह वरसोवा बीच पर घुड़सवारी और तलवारबाजी का पांच घंटे लंबा कठिन प्रशिक्षण ले रही थी. वह बताती है, ‘मैं घंटों तक बिना खाए-पिए ट्रेनिंग लेती थी. शुरुआत में चैनल इस भूमिका के लिए किसी दूसरी लड़की को लेना चाहता था. उन्होंने उसे ट्रेनिंग देना भी शुरू कर दिया था. जब भी मैं घोड़े से गिरती ट्रेनर कहता कि पहले वाली ज्यादा अच्छी थी. यह सुनकर मैं फिर से घोड़े पर सवार हो जाती.’ इस ट्रेनिंग के बाद उच्चारण और संस्कृत श्लोक दोहराने का प्रशिक्षण शुरू होता. सीरियल में अपनी भूमिका खत्म होने तक उल्का ने सारे स्टंट खुद किए. इस दौरान वह चार बार घोड़े से गिरी.

जिस दूसरी लड़की का जिक्र उल्का ने किया उसका नाम आयशा कादस्कर है. आयशा को जब यह बताया गया कि अब यह रोल वह नहीं करेगी तो वह नर्वस ब्रेकडाउन का शिकार हो गई.  इस बारे में बात करने पर उल्का कहती है, ‘इंडस्ट्री में टिकना बड़ा मुश्किल है. मेरी बहन दो आडिशनों में रिजेक्ट हुई है. जब कोई टेक अच्छा नहीं हुआ और लोग चिल्लाए तो मैं भी सेट पर कई बार रोई. लेकिन मैंने और भी ज्यादा मेहनत की.’

इन बच्चों में वह मासूमियत नहीं दिखती जो आमतौर पर इस उम्र के बच्चों में पाई जाती है. कम उम्र में ही बड़े हो गये इन बच्चों के बारे में चिंताजनक बात यह भी है कि उनका बचपन आत्मकेंद्रित हो गया है. क्योंकि वे चौबीसों घंटे बहुत ही आकर्षक बच्चों की भूमिका निभा रहे हैं. फुलवा में जन्नत के पिता की भूमिका निभाने वाले सुशील बौंठियाल कहते हैं, ‘बच्चे सब समझते हैं? उन्हें पता है कि उनकी मासूमियत एक बिकाऊ माल है. चैनल उनके साथ दूसरे कलाकारों की तरह का ही बर्ताव करते हैं. उनसे उम्मीद की जाती है कि वे बाकी लोगों की तरह समय पर आएं और अपना काम पूरा करें. इसलिए स्वाभाविक ही है कि उनमें औरों से ज्यादा पैसा कमाने की होड़ पैदा हो जाती है.’ फुलवा की मां की भूमिका निभाने वाली अभिनेत्री नूपुर अलंकार कहती हैं, ‘इस तरह की इंडस्ट्री में मासूमियत की बलि चढ़ना तो लाजमी ही है. मैं अपने बच्चों से कभी अभिनय नहीं करवाऊंगी.’

सामाजिक संगठन और राष्ट्रीय बाल अधिकार आयोग इस बात पर जोर देते हैं कि बाल अभिनेताओं को स्कूल नहीं छोड़ना चाहिए. लेकिन इन बच्चों की जीवनशैली देखकर यह बहुत मुश्किल काम लगता है. जन्नत के पिता जुबेर भले ही यह दावा करते हैं कि उसे स्कूल के काम में कोई समस्या नहीं है लेकिन यूनिट के लोग दबी जबान में बताते हैं कि वह पिछले चार महीनों से वह स्कूल गई ही नहीं है. राहुल बहुत खुश होकर बताता है कि उसकी  टीचर होमवर्क न करने पर प्यार से उसके गाल खींचती हैं क्योंकि वे उसके सीरियल को पसंद करती हैं. झांसी की रानी की शूटिंग के समय जब उल्का को परीक्षा देनी थी तो वह सेट पर ही जागती थी. स्कूल ड्रेस पहनकर वह हवाई जहाज से जयपुर से मुंबई जाती, परीक्षा देती, एक घंटे सोती और फिर रात भर शूटिंग के लिए वापस जयपुर पहुंच जाती. माता-पिता बहुत गर्व से बताते हैं कि उनके बच्चे पढ़ाई पर कम ध्यान दे पाने के बावजूद पास हो गए. यह बताते हुए वे भूल जाते हैं कि ये बच्चे जिंदगी के उन पाठों से महरूम रह जाते हैं जो हमउम्रों के साथ सीखे जाते हैं.

उल्का से बात करते हुए लगातार यह एहसास बना रहता है कि आप किसी 20 साल की उम्र की लड़की के साथ हैं. बीच में कुछ जीवंतता के भी क्षण होते हैं, जब उसका भाई दौड़कर उसके बाल खींचने चला आता है, या जब उसकी छोटी बहन अपना रबर खोजते हुए उससे झगड़ा करने लगती है. लेकिन यह बात एकदम साफ दिखाई पड़ती है कि उसे नियमित आमदनी वाली अकेली सदस्य होने का एहसास है. उसने सीरियल में 4000 रु प्रतिदिन की फीस पर काम शुरू किया था, जो आगे चलकर 40,000 रु प्रतिदिन हो गई क्योंकि उसके पिता को मुख्य भूमिका निभाने की कीमत समझ में आ गयी थी. फ्लैशबैक सीक्वेंस के लिए उल्का अब भी कभी-कभी झांसी की रानी के सेट पर बुलाई जाती है. इसके अलावा मोटी फीस के एवज में वह अलग-अलग आयोजनों में झांसी की रानी के रूप में तलवार लेकर घोड़े पर बैठकर भी जाती है. जब एक म्यूजिक वीडियो में  रोमांटिक भूमिका के लिए उल्का 20000 रु. के ऑफर को ठुकरा देती है, तो इसका मतलब यह नहीं कि वह शर्मीली है, बल्कि उसे पता है कि यह अभी ठीक नहीं लगेगा. जब राहुल पेंडकलकर की मां उसे हैप्पी मील के लिए मैक्डोनाल्ड में ले जाती हैं, तो वह मुस्कुराता नहीं. वह वह उन लाइनों और भंगिमाओं को दोहराता है, जो उसने मैक्डाेनाल्ड के विज्ञापन में की थीं. जब जन्नत को एक मेकअप मैन सांत्वना देने की कोशिश करता है कि उसे अपने माथे पर लगे सिंदूर को होली का रंग भर समझना चाहिए और रोना नहीं चाहिए तो वह जवाब देती है, ‘मैं रो नहीं रही दादा, यह तो ग्लिसरीन की वजह से निकले आंसू हैं.’
इसमें कतई अजीब लगने वाली बात नहीं है कि अश्नूर हमारे चलने के पहले हमें अपना डांस दिखाना चाहती है. इसमें भी कतई आश्चर्य की बात नहीं कि वह नाचने के लिए शीला की जवानी वाला गाना चुनती है और अपने छोटे से शरीर के साथ कैटरीना कैफ की हर भाव-भंगिमा की ठीक-ठीक नकल करती है.

ये ऐसे बच्चे हैं जो जानते हैं कि उनके बचपन की बाजार में क्या कीमत है और उन्हें खुद को इस बाजार में कैसे पेश करना है. यह बड़ों के लिए भी बच्चों का खेल नहीं. l

ममता की छांव तले

वे इस दिन का पिछले 27 साल से इंतजार कर रही थीं. दिसंबर, 1984 में जब माकपा की सबसे सुरक्षित मानी जाने वाली सीटों में से एक जाधवपुर में उन्होंने सोमनाथ चटर्जी को हराया तो यह ऐसा था मानो किसी बच्चे ने शेर का शिकार कर दिया हो. तब से ही ममता बनर्जी ने वाममोर्चा सरकार को उखाड़ फेंकने का सपना अपने मन में पाला हुआ था जो अब 27 साल बाद कहीं जाकर हकीकत में तब्दील हुआ है. ममता के इस उभार के पीछे की कहानी क्या है और उन्हें विरासत में किस तरह का बंगाल मिलने जा रहा है? और इस बंगाल के लिए उनके पास क्या योजनाएं हैं?

मुख्यमंत्री के बतौर ममता की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वे किस हद तक बुद्घदेव के ही एजेंडे को लागू कर पाती हैं

ममता की जीत को सिंगूर और नंदीग्राम में जमीन अधिग्रहण के खिलाफ होने वाले प्रदर्शनों के परिणाम के रूप में देखना अधूरी तसवीर देखने सरीखा होगा. निश्चित रूप से सिंगूर और नंदीग्राम के प्रदर्शनों और उपजाऊ जमीन को टाटा मोटर्स को सौंपे जाने के खिलाफ ममता बनर्जी की भूख हड़ताल ने तृणमूल कांग्रेस में एक नया जोश और जज्बा पैदा किया. फिर भी अगर आज ममता जीत रही हैं तो इसमें दूसरी महत्वपूर्ण चीजों का भी योगदान है. ममता जनता की बदलाव की भावना या थोड़े बंगाली लहजे में कहें तो ‘पॉरिबॉर्तन’ की प्रतिनिधि बन गईं. पश्चिम बंगाल की जनता पिछले तीन दशकों के माकपा शासन की एकरसता और आत्ममुग्धता से ऊब चुकी थी. यह भी विडंबना ही है कि बदलाव की इस बयार की जड़ में कई मुद्दे ऐसे हैं जिन्हें ममता द्वारा खलनायक के रूप में पेश किए गए बुद्घदेव भट्टाचार्य ने ही सबसे पहले उठाया था. 2006 में बुद्घदेव भट्टाचार्य ने खुद को अपनी ही पार्टी की परंपरागत नीतियों के खिलाफ दिखाकर भारी जनादेश हासिल किया था. उन्होंने व्यापार के अनुकूल माहौल बनाने की बात की, नौजवानों की अपेक्षाओं और आकांक्षाओं को पूरा करने की बात की, कोलकाता के पुनर्निर्माण की बात कही जिसमें उदाहरण के तौर पर कई फ्लाईओवरों का निर्माण भी शामिल था. संक्षेप में कहें तो वे एक बदली हुई सहृदय और विनम्र स्वभाव वाली माकपा की बात कर रहे थे. यह माकपा की पश्चिम बंगाल के समाज के हर क्षेत्र में कठोरता के साथ हस्तक्षेप रखने-करने वाली उस पारंपरिक छवि के विपरीत था जो पार्टी ने दशकों के शासनकाल में खुद को दी थी. मगर सिंगूर के साथ ही यह स्पष्ट हो गया कि माकपा ऊपरी बदलाव से अधिक की इजाजत नहीं दे सकती. परिणामस्वरूप भट्टाचार्य को राइटर्स बिल्डिंग से एक ऐसे आदमी की तरह रुखसत होना पड़ रहा है जिसकी नीयत में कोई खोट नहीं था, जिसके विचार ठीक थे लेकिन जो उन्हें लागू करने की क्षमता नहीं रखता था. बहुत हद तक मुख्यमंत्री के बतौर ममता की सफलता इस बात पर ही निर्भर करेगी कि वे किस हद तक बुद्घदेव के एजेंडे को लागू कर पाती हैं.

लेकिन बंगाल ने इस तरह वोट क्यों किया? भविष्य को लेकर ममता की क्या योजनाएं हैं? यह समझने के लिए बंगाल को इसकी राजनीति, समाज और अर्थव्यवस्था के प्रिज्म से देखना पड़ेगा. ममता ने इनमें से पहले यानी राजनीति पर पकड़ बनाई, समाज को अपने वश में किया और तीसरी चीज यानी अर्थव्यवस्था उनका और बंगाल का भविष्य तय करने वाली है.

कोलकाता में रिजवानुर रहमान की मृत्यु ने तृणमूल के हाथ में मुस्लिम मतदाताओं को आकर्षित करने वाला एक महत्वपूर्ण मुद्दा भी दे दिया

पहले राजनीति की ही बात करते हैं. वाममोर्चा के गढ़ के ढहने की भविष्यवाणी एक प्रकार से 2009 के लोकसभा चुनावों के दौरान ही हो गई थी जब तृणमूल और कांग्रेस ने मिलकर 42 में से 26 लोकसभा सीटों पर जबर्दस्त जीत अर्जित की थी. पूरे खेल का रुख बदल देने वाले इस जनादेश के पहले और बाद में एक-एक कर समाज के तमाम हिस्से तृणमूल में शामिल होते चले गए. टूटने वाला पहला हिस्सा वामपंथी बुद्घिजीवी समुदाय था जो बुद्घदेव पर मार्क्सवादी विचारधारा से भटक जाने के आरोप लगा रहा था. इस बौद्घिक समुदाय की भूमिका को ठीक से समझने की जरूरत है, जिसे ममता बनर्जी का एक विज्ञापन पार्टी का ‘सांस्कृतिक प्रतीक’ कहता है. बंगाल से बाहर के लोगों को यह समझ में आना जरा मुश्किल है कि बंगाल के किसी भावी मुख्यमंत्री को नाटककारों और कवियों की एक पूरी फौज का साथ क्यों चाहिए और किसी पार्टी को अपने चुनाव घोषणापत्र में यह लिखने की जरूरत क्यों पड़ती है कि वह साहित्य, फिल्म, थिएटर, कविता, संगीत और चित्रकारी की महान बंगाली परंपरा को पुनर्जीवित करने के प्रयास करेगी. ये इतिहास के एक खास मोड़ पर बंगाली पुनर्जागरण के प्रमुख घटक रहे हैं और इनसे जुड़ाव ने बंगाली मध्यवर्ग में वर्षों से बनी तृणमूल कांग्रेस की सड़कछापों वाली छवि को तोड़कर उसे एक खास तरह का सम्मान दिलाया है.

इन तथाकथित सांस्कृतिक प्रतीकों से अपने को जोड़ने की ममता की आकांक्षा का आलम यह है कि उनकी पार्टी ने कोलकाता के मृतप्राय थिएटरों को सरकारी खर्चे पर पुनर्जीवित करने की घोषणा तक कर रखी है. दक्षिणी कोलकाता के कालीघाट में ममता के घर के पास के एक पुराने थिएटर का तृणमूल के कब्जे वाली नगर महापालिका ने अधिग्रहण कर लिया है और फिल्म अभिनेता स्वर्गीय उत्तम कुमार के नाम पर इसका नामकरण किया गया है. किस्सा यहीं खत्म नहीं होता. ममता ने बंगाल के कई सांस्कृतिक प्रतीकों को चुनाव में प्रत्याशी भी बनाया. माकपा प्रत्याशी और बंगाल के आवास मंत्री गौतम देव के खिलाफ प्रतिभाशाली नाटककार और अभिनेता ब्रत्य बसु को दमदम से प्रत्याशी बनाया गया. उनके सहयोगी उन्हें विचारधारात्मक रूप से ‘वामपंथियों के भी बायें’ और भविष्य में तृणमूल का सांस्कृतिक चेहरा मानते हैं. इन ‘सांस्कृतिक प्रतीकों’ को अपने साथ जोड़ने को लेकर ममता इतनी गंभीर हैं कि हो सकता है दो तिहाई बहुमत पाने के बाद जल्द ही वे पश्चिम बंगाल विधान परिषद को पुनर्जीवित करके अपने इस नये समर्थक वर्ग में से कइयों को इसमें नामित करना शुरू कर दें. सांस्कृतिक लोगों को अपने पक्ष में करना ममता के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण था कि यह एक तरह से ब्रांड बनाने की कवायद जैसा था. अब तक उनकी पार्टी दक्षिणी बंगाल के कस्बों और छोटे शहरों तक ही सीमित थी. इन इलाकों में पुराने औद्योगिक मजदूरों के परिवार, बेरोजगार नौजवान और वामपंथ की छत्रछाया से बाहर धकेल दिए गए लोग रहते हैं. ग्रामीण बंगाल में परिवर्तन की बड़ी प्यास तब जगी जब सिंगूर और नंदीग्राम में माकपा ने मुसलमानों के एक समुदाय को केमिकल फैक्टरी के लिए विस्थापित करने की कोशिश की.

1951 में कोलकाता में राज्य की 10.3 फीसदी आबादी रहती थी, लेकिन आज यह आंकड़ा घटकर 5 फीसदी पर पहुंच गया है

नंदीग्राम के साथ ही कोलकाता में रिजवानुर रहमान की मृत्यु भी एक बड़ा मुद्दा बनी. कथित तौर पर उसके विवाह से नाखुश हिंदू ससुर के कहने पर पुलिस ने रिजवानुर को इतना प्रताड़ित किया कि उसने आत्महत्या कर ली. इसने तृणमूल के हाथ में मुसलिम मतदाताओं को आकर्षित करने वाला एक महत्वपूर्ण मुद्दा दे दिया. परिणाम अब सबके सामने है. माकपा के एक नेता स्वीकार करते हैं, ‘दक्षिणी कोलकाता में, खास तौर पर कोलकाता और आसपास के जिलों में हम मुसलिम वोट पूरी तरह खो चुके हैं.’ बंगाल में चुनाव जीतने के लिए मुसलमान काफी नहीं हैं, लेकिन करीब 30 फीसदी आबादी के चलते चुनाव जीतने के लिए उनका साथ होना बेहद जरूरी है. दक्षिणी बंगाल से गुजरते हुए साफ दिखाई पड़ता है कि ममता बुद्घदेव भट्टाचार्य को खलनायक बनाने में सफल रही हैं, एक ऐसा खलनायक जिस पर मुसलमान भरोसा नहीं कर सकते. तृणमूल के एक पदाधिकारी कहते हैं कि ‘मुसलमानों को माकपा से कोई समस्या नहीं है, लेकिन उन्होंने बुद्घदेव के खिलाफ मत देने का निर्णय लिया है.’ स्थितियां 1990  के दशक की याद दिलाती हैं. बाबरी विध्वंस के बाद उत्तर भारतीय मुसलमान को कांग्रेस से उतनी समस्या नहीं थी, लेकिन पीवी नरसिंहराव के प्रति उनका अविश्वास चरम पर था. राव की हार के बाद मुसलमानों का विश्वास फिर से हासिल करने के लिए गांधी-नेहरू परिवार की दूसरी पीढ़ी को सामने आना पड़ा. चुनावों के बाद मुसलमानों के माकपा में आने का सिलसिला तभी शुरू हो सकता है जब वह बुद्घदेव को पार्टी नेता की जगह से हटा दे.

जैसे-जैसे वामपंथ में पराजयवाद घर कर रहा था, इसे मजबूती देने वाले खंभे एक के बाद एक ढहे जा रहे थेे. तृणमूल कांग्रेस के एक नेता बताते हैं कि कोलकाता के व्यापारी खास तौर पर मारवाड़ी समुदाय के लोग और कुछ पंजाबी और गुजराती भी कम्युनिस्टों की अपेक्षा ममता बनर्जी को अधिक उदारतापूर्वक चंदा दे रहे थे. ‘मेरी सीट पर मुझे अपने पोस्टर लगवाने के लिए स्थानीय पार्षदों को पैसा देना पड़ा, चाहे वे किसी भी पार्टी के हों. उन्होंने बहुत ऊंची कीमत मांगी लेकिन माकपा उन्हें वे कीमतें नहंी दे पाई.’ लंबे समय से माकपा के करीबी रहे कलकत्ता विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर बताते हैं, ‘हमें खतरे का अंदाजा तभी हो गया जब हॉकर और ऑटोरिक्शा यूनियनें हमारे खिलाफ हो गईं. वे तृणमूल के साथ चले गए हैं.’

आखिर कोलकाता और आसपास के इलाकों में हॉकर और ऑटोरिक्शा यूनियनों का पाला बदलना इतना महत्वपूर्ण क्यों है? इस सवाल के जवाब के लिए हमें पिछले 34 वर्षों में परिश्रम से बने माकपा के गढ़ के बारे में कुछ बातें जाननी होंगी. पश्चिम बंगाल की अर्थव्यवस्था न तो साम्यवादी है और न ही बाजारवादी. इसे माकपाई अर्थव्यवस्था कहना ज्यादा उचित होगा. इसने कैसे काम किया?
ऐसे समझते हैं कि आठ ऑटो लाइन में खड़े हैं और एक जगह से दूसरी जगह नियमित तौर पर फेरी लगाते हैं. स्थानीय पार्टी पदाधिकारी एक नोटबुक में उनके फेरों का ब्योरा रखता है. उन्हें इन दो जगहों के बीच की दूरी तय करने में जितना समय लगता है, उतने ही समय में वापस आना होता है. यदि किसी ड्राइवर को किसी फेरे में ज्यादा समय लगता है, तो उसे इसकी सफाई देनी पड़ती है, उसे अपने रूट से इधर-उधर जाने और अतिरिक्त सवारियां बैठाने के लिए दंडित किया जाता है.

देश के 600 जिलों में से 18 पश्चिम बंगाल में हैं. जबकि इन 18 में से 14 देश के 100 सबसे गरीब जिलों में शामिल हैं

समतावाद की नीति भी अपनी जगह पर कायम है. यदि कोई ड्राइवर 25 साल का है और पूरी तरह स्वस्थ है और दूसरा 55 साल का है और जल्दी थक जाता है, तो नौजवान ड्राइवर इस बात का फायदा उठाते हुए अतिरिक्त फेरे लगाकर ज्यादा पैसा नहीं बना सकता. वह दूसरे ड्राइवरों जितने ही फेरे लगा सकता है और हर फेरे के खात्मे पर उसे लाइन के अंत में आकर लगना होता है. इस तरह पार्टी समानता के सिद्घांत को लागू करती है और मु्क्त प्रतियोगिता की पाश्विक वृत्तियों पर लगाम लगाती है. यही फार्मूला हॉकरों पर भी लागू होता है कि वे कैसे केवल उनके लिए तय घरों में ही अखबार पहुंचाएंगे, उनकी शारीरिक स्थिति चाहे जो हो.

पूर्व प्रोफेसर बताते हैं, ‘मैंने ऐसा रजिस्टर देखा है. इन्हें बड़ी मेहनत से व्यवस्थित किया जाता है. ड्राइवर या हॉकर को अपनी आय से एक हिस्सा पार्टी को सुरक्षा कोष के बतौर देना पड़ता है. बदले में पार्टी इनके बीच बराबरी का व्यवहार सुनिश्चित करती है. अगर कोई बीमार पड़ता है और कुछ दिन काम नहीं कर पाता तो सुरक्षा कोष में से पार्टी उसे कुछ पैसा भी देती है.’ आज ये पूरी तरह से तृणमूल के पाले में चले गए हैं. यूनियनें और व्यापार संगठन माकपा के वर्चस्व के आधार रहे हैं और स्थानीय स्तर पर संगठन को चलाने के लिए धन भी मुहैया कराते रहे हैं. ये मंझोले स्तर के नेताओं को ताकत भी देते हैं और एक प्रतिबद्ध वोट बैंक भी तैयार करते हैं. माकपा से जुड़े एक बुद्धिजीवी कहते हैं, ‘ये बहुत अच्छे और उपयोगी पार्टी ढांचे हैं. मुझे नहीं पता तृणमूल इनका क्या करेगी. अगर उनमें जरा भी समझदारी है तो वे इन्हें ऐसे ही बनाए रखेंगे.’

मगर इस छोटे-मोटे अर्थतंत्र के इतर अर्थव्यवस्था से जुड़े कुछ बड़े पहलू भी हैं. पश्चिम बंगाल एक समय भारत का औद्योगिक केंद्र था. 20वीं शताब्दी की शुरुआत में देश में सबसे पहला स्टील प्लांट और छोटे कल-कारखाने यहीं लगाए गए थे. जैसे-जैसे तकनीक का जोर बढ़ा, प्रदेश को इस औद्योगिक अर्थव्यवस्था के आगे ले जाए जाने की जरूरत थी. लेकिन ऐसा हुआ नहीं और प्रदेश अन्य राज्यों से पिछड़ता चला गया. आईटी और बीपीओ बेंगलुरु और हैदराबाद में खुले. 1980 के दशक की शुरुआत में तकनीक और कंप्यूटरीकरण का विरोध और प्राइमरी स्कूलों से अंग्रेेजी हटा देना एक बेहद प्रतिगामी कदम रहा जिसने बंगाल की दो पीढ़ियों को अन्य राज्यों की तुलना में तमाम लाभों से वंचित कर दिया. मोटे तार पर यह ऐसी बात है जिसके लिए कोलकाता के लोगों ने माकपा और खास तौर पर 1977-2000 तक मुख्यमंत्री रहे ज्योति बसु को कभी माफ नहीं किया.

तृणमूल ने इसका इस्तेमाल वाम दलों पर निशाना साधने के लिए किया. पार्टी के घोषणा पत्र में कहा गया है, ‘1975-76 में राज्य की अर्थव्यवस्था में विनिर्माण क्षेत्र की हिस्सेदारी 19 फीसदी थी. 2008-09 में यह घटकर 7.4 फीसदी रह गई.’ इस दौरान गुजरात में यह आंकड़ा 19 फीसदी से बढ़कर 29.6 फीसदी पर पहुंच गया. ममता ने राज्य के औद्योगिक विकास को बाधित करने का दोष माकपा पर मढ़ा है.

सबसे बड़ी समस्या यह है कि बीते दशक में बंगाल ने अवसरों का लाभ नहीं उठाया. 1991 में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत हुई और इसके बाद तीन पंचवर्षीय योजनाएं बनीं. आठवीं योजना में राज्य का सकल घरेलू उत्पाद (एसडीपी) राष्ट्रीय औसत से कम रहा जबकि नौवीं योजना में यह राष्ट्रीय औसत से थोड़ा अधिक रहा. लेकिन दसवीं योजना में देश की जीडीपी जहां 7.7 फीसदी रही वहीं बंगाल की एसडीपी की दर उससे काफी कम 6.1 फीसदी थी. हालांकि, लक्ष्य 8.8 फीसदी रखा गया था. दसवीं योजना की अवधि में ही बंगाल में भट्टाचार्य की सरकार रही. इसलिए कहा जा सकता है कि उन्हें जो विरासत में मिला था उसका खामियाजा वे भुगत रहे थे. वैसे भी सियासत और कृषि के मामले में कहा जाता है कि फसल लगाने वाले से ज्यादा नाम उसका होता है जो फसल काटता है.

कोलकाता की स्थिति में गिरावट बंगाल की बदहाली को दिखाती है. 1951 में कोलकाता में राज्य की 10.3 फीसदी आबादी रहती थी, लेकिन आज यह आंकड़ा घटकर 5 फीसदी पर पहुंच गया है. किसी और राज्य की राजधानी की ऐसी बदहाली नहीं हुई है. हाल ही में परिसीमन के बाद कोलकाता में 11 विधानसभा सीटें हैं जबकि 2006 में सीटों की संख्या इसके करीब दोगुना 21 थी. इससे पता चलता है कि शेष बंगाल की तुलना में कोलकाता की आबादी घट रही है.

2009 में अर्थशास्त्री बिबेक देबरॉय और लवीश भंडारी ने पश्चिम बंगाल की स्थिति पर एक रिपोर्ट तैयार की थी. इस रिपोर्ट में कोलकाता बंदरगाह की बदहाली का अध्ययन किया गया था. कभी यह बंदरगाह भारत के वैश्विक कारोबार का मुख्य द्वार हुआ करता था. दसवीं योजना में इस बंदरगाह के लिए यह लक्ष्य तय किया गया था कि यहां से हर साल औसतन 2.14 करोड़ टन माल की आवाजाही होगी. 2002-03 में इस बंदरगाह से 72 लाख टन, 2006-07 में 1.26 करोड़ टन और 2009-10 में तकरीबन 1.3 करोड़ टन माल की ही आवाजाही हुई.

बराबरी की बात करने वाली पार्टी की सरकार द्वारा शासित राज्य का समाज भी उसके तीन दशक से ज्यादा के शासन के बाद भी बुनियादी स्तर पर समान नहीं है. अपनी सभाओं में ममता कहती हैं कि राज्य के महज 16 फीसदी अस्पताल ही सरकार द्वारा चलाए जा रहे हैं और इनमें से भी एक चौथाई ही ग्रामीण क्षेत्रों में हैं. जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में राज्य की 72 फीसदी आबादी रहती है. माकपा गांवों पर ध्यान देने की बात भले ही करती रही हो लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधाओं और अन्य सामाजिक जरूरतों को पूरा करने में उसकी सरकार पूरी तरह से नाकाम रही.

पुरुलिया और बांकुड़ा जैसे दक्षिण बंगाल के जिले खास तौर पर पिछड़े हुए हैं. उत्तर दिनाजपुर राज्य का सबसे गरीब जिला है और इसकी प्रति व्यक्ति एसडीपी कोलकाता की एक तिहाई है. भारतीय सांख्यिकी संस्थान के एक अध्ययन के मुताबिक मुर्शिदाबाद के 56 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे रहते हैं. देश के 600 जिलों में से 18 बंगाल में हैं. जबकि इन 18 में से 14 देश के 100 सबसे गरीब जिलों में शामिल हैं.

सच्चाई तो यह है कि भट्टाचार्य ने बंगाल के ठहराव को समझ लिया था. 2006 में उन्होंने उन बदलावों की बात की थी जिन्हें ममता ने पांच साल बाद अपने परिवर्तन के वादों में शामिल किया. थोड़े समय के लिए बुद्धदेव की बातों का असर दिखा भी. टाटा मोटर्स निवेश के लिए तैयार भी हुई लेकिन कोलकाता के एक कारोबारी की मानें तो उसकी (टाटा मोटर्स) रजामंदी बेहद फायदे वाले जमीन समझौते के बाद हुई थी. इस कारोबारी के मुताबिक, ‘अगर बुद्धदेव टाटा को राजमार्ग से सटी बेहद मौके की जमीन नहीं देते, जिस पर उसके कर्मचारियों के लिए टाउनशिप बसाई जा सकती हो, तो वे निवेश के लिए तैयार नहीं होते. कोई नहीं आता. क्योंकि बंगाल पर कोई दांव लगाने को तैयार नहीं था.’

यहां के बिगड़े हालात का एक अन्य संकेतक है कोलकाता का लग्जरी होटल उद्योग. सालों तक यहां ओबरॉय ग्रैंड के अलावा कोई दूसरा पांचसितारा होटल नहीं था. 1980 के दशक में यहां ताज बंगाल खुला और 2000 के ठीक बाद सोनार और हयात की शुरुआत हुई. आईटीसी सोनार में 800 कमरे हैं और यह शहर का सबसे बड़ा होटल है. पर यह आईटीसी के मुंबई और बेंगलुरु के नये होटलों की तुलना में छोटा है. ओबरॉय में भी 300 कमरे हैं, लेकिन कारोबार की पर्याप्त संभावना नहीं होने की वजह से 100 बंद रहते हैं. ऐसा दिल्ली और मुंबई के किसी होटल में नहीं हो सकता. 2006 के चुनाव के दौरान हुई आर्थिक संभावनाओं की बारिश के चलते आईटीसी ने यहां 500 कमरे के एक दूसरे होटल की योजना बना डाली. जेडब्ल्यू मैरियट समूह भी यहां 800 कमरों का होटल बना रहा है. इन दोनों के कमरों को मिला दिया जाए तो ये कोलकाता के लग्जरी होटलों की क्षमता को दोगुना कर देंगे. पर क्या इनके लिए बाजार है? आईटीसी के एक अधिकारी बताते हैं, ‘योजनाएं इतनी आगे बढ़ गई हैं कि पीछे नहीं हटा जा सकता. 2006 में कारोबार में सुधार की उम्मीद थी. पर अब सावधानी बरती जा रही है. देखते हैं क्या होता है.’

अब सवाल यह है कि इन होटलों में जाता कौन है. मारवाड़ी समुदाय की शादियों का इन होटलों के कारोबार में बड़ा योगदान है. एक अन्य होटल अधिकारी बताते हैं, ‘बीपीओ में काम कर अच्छी कमाई करने वाले नौजवान यहां आते हैं. मध्य वर्ग के बुजुर्ग भी आते हैं. यह एक ऐसा वर्ग है जिसने कभी किसी पांचसितारा होटल में खाने को सोचा नहीं होगा लेकिन बंगाल से बाहर अच्छी कमाई कर रहे अपने बच्चों की आमदनी के बूते ये लोग पांचसितारा होटलों में आ रहे हैं.’

ममता को इस बात का एहसास है कि कारोबार की सेहत को दुरुस्त किए जाने की जरूरत है. लेकिन वे इसके लिए हर तरह की कोशिश नहीं कर सकतीं. उदाहरण के लिए, वे भट्टाचार्य की तरह जमीन अधिग्रहण की अनुमति नहीं दे सकतीं और संभव है कि सिंगूर के उन किसानों को 400 एकड़ जमीन भी वापस लौटा दें जो अपनी जमीन नहीं देना चाहते. तृणमूल के एक प्रवक्ता कहते हैं, ‘टाटा 600 एकड़ गैरविवादित जमीन पर कारखाना लगा सकते हैं.’ ममता लघु एवं मझोले उद्योग के साथ-साथ हस्तशिल्प और परिधान तैयार करने वालों को प्रोत्साहन देने की बात भी करती हैं. पर यह एक हद तक ही मदद कर पाएगा. माना जा रहा है कि बड़े उद्योग राज्य में जल्दबाजी में नहीं आएंगे. इसकी वजह तृणमूल नहीं बल्कि बंगाल का औद्योगिक नक्शे से हटना है. तृणमूल के एक सूत्र बताते हैं, ‘संभव है कि दीदी वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय अपने पास ही रखें और वित्त मंत्रालय अमित मित्रा को सौंप दें.’ ममता निवेश के मोर्चे पर भी सांकेतिक जीत चाहती हैं. कहा जा रहा है कि शुरुआती छह महीने में ही इंफोसिस या विप्रो में से कोई बंगाल में बड़ा निवेश करने वाला है. इसके लिए बुनियादी ढांचा तैयार है. कोलकाता हवाई अड्डे से सटे राजरहाट में भट्टाचार्य ने एक नया शहर बसाया है. यहां बहुमंजिली इमारतें और चौड़ी सड़कें हैं और  इसे कोलकाता का गुड़गांव भी कहा जा रहा है.

एक तरफ तो ममता माकपा की राजरहाट परियोजना को बदनाम करना चाहती हैं और दूसरी तरफ विकसित बुनियादी ढांचे का इस्तेमाल भी करना चाहती हैं. उन्होंने ‘राजरहाट घोटाले’ और माकपा समर्थित बिल्डरों और कारोबारियों को सस्ती दरों पर जमीन दिए जाने के मामलों की जांच कराने का वादा भी किया है. तृणमूल के एक नेता बताते हैं कि चुनाव तिथियों की घोषणा के एक दिन पहले ही 600 भूखंड आवंटित कर दिए गए और उनकी नेता पश्चिम बंगाल हाउसिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट कॉरपोरेशन लिमिटेड और उसके प्रभारी मंत्री गौतम देब को निशाना बना रही हैं. कॉरपोरेशन ने ही राजरहाट परियोजना के लिए जमीन दी है.
हो सकता है कि आने वाले वक्त में राजरहाट को कुछ बुरा समय देखना पड़े लेकिन कोलकाता और इससे सटे दो जिले उत्तर और दक्षिण 24 परगना ममता के लिए काफी अहमियत रखते हैं. ये मिलकर दक्षिण बंगाल में तृणमूल का गढ़ बनाते है. इन जिलों में कुल 75 सीटें हैं जिनमें से करीब 90 फीसदी तृणमूल ने जीती हैं. बतौर रेल मंत्री ममता ने पश्चिम बंगाल के लिए 19 परियोजनाएं शुरू कीं जिनमें से आधी इन तीन जिलों में ही हैं. इन परियोजनाओं के जरिए छोटे शहरों और इन जिलों में रहने वाले कामकाजी लोगों की आवाजाही को सुविधाजनक बनाने की योजना है. इसमें मेट्रो रेल का विस्तार भी शामिल है. ममता को उम्मीद है कि इससे आर्थिक गतिविधियों में तेजी आएगी.

ऐसा लग रहा है कि ममता उन लोगों की अगुआई करने जा रही हैं जिनका खुद पर से भरोसा उठ गया है. भले ही राज्य के बाहर बंगाल के लोगों ने कामयाबी के झंडे गाड़े हों लेकिन राज्य के अंदर उनके मन में एक हारे हुए समाज का भाव है. ममता के एक सहयोगी कहते हैं कि बंगाल में मनोवैज्ञानिक तौर पर आत्मविश्वास बढ़ाने के उपाय किए जाने की जरूरत है. अभी यहां के लोग बेहतर अवसर की तलाश में राज्य से बाहर जा रहे हैं. राज्य में इतने अवसर विकसित करने होंगे कि युवा वर्ग यहां वापस आने की बात सोचे.

गौरवशाली अतीत वाला बंगाल अपने वर्तमान से तालमेल नहीं बैठा पा रहा है जिसके चलते यहां 70 के दशक में एक रक्षात्मक स्थानीय पहचान विकसित हुई. इसे माकपा ने जमकर बढ़ावा दिया. इसके फलस्वरूप यह राज्य खुद को अन्य राज्यों से बेहतर समझता रहा है. इस बात की पुष्टि यहां के स्कूलों के अध्ययन से हो सकती है. राज्य के ज्यादातर स्कूल पश्चिम बंगाल माध्यमिक शिक्षा बोर्ड से संबद्ध हैं. यह बोर्ड और इसके तहत चलने वाली समूची स्कूली शिक्षा व्यवस्था वामपंथी दलों के सियासी प्रभाव का स्रोत रही हैं.

माकपा ने बंगाल में शिक्षा को चार मंत्रालयों में बांटा और स्कूली शिक्षा के लिए एक अलग मंत्री बनाया. राज्य बोर्ड से पढ़ाई करने वाले छात्रों को यहां के कॉलेजों में वरीयता दी जाती है. कुछ इस तरह की सोच विकसित कर दी गई है कि राज्य बोर्ड से पढ़ाई करने वाले बच्चे ज्यादा क्षमतावान होते हैं. बंगाल के मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में दाखिले के लिए आयोजित प्रवेश परीक्षा में भी बंगाल बोर्ड के छात्रों को परोक्ष तौर पर फायदा मिलता हैैै. इनकी परीक्षा राज्य बोर्ड के सिलेबस के मुताबिक ही आयोजित की जाती है. मगर इस साल कोलकाता के एक प्रमुख स्कूल साउथ प्वाइंट के फैसले ने सभी को चौंका दिया. यह राज्य बोर्ड के सबसे प्रमुख स्कूलों में था. कई पालियों में चलने वाले इस स्कूल में तकरीबन 15,000 छात्र पढ़ते हैं. इस स्कूल ने कई टॉपर दिए हैं और मध्यवर्ग का यह पसंदीदा स्कूल रहा है. इस स्कूल ने यह घोषणा की कि इस साल से वह अपने विद्यार्थियों को सीबीएसई बोर्ड से पढ़ाई करने का विकल्प दे रहा है. एक अभिभावक कहते हैं, ‘अगर आप राज्य के इंजीनियरिंग कॉलेजों के लिए आवेदन करना चाहते हैं तब तो राज्य बोर्ड ठीक है लेकिन अगर राज्य से बाहर के कॉलेजों में दाखिला चाहिए तो सीबीएसई पाठ्यक्रम की जानकारी जरूरी है.’

यहां के दूसरे स्कूल भी साउथ प्वाइंट की राह चल सकते हैं जैसा कि यहां अकसर होता रहा है. इस स्कूल के अभिभावकों का दबाव और मांग आंखें खोलने वाले हैं. पश्चिम बंगाल, इसके संस्थानों और इनमें रोजगार के अवसरों को लेकर भरोसा लगातार कम होता रहा है. अभिभावक चाहते हैं कि स्कूली शिक्षा ऐसी हो जो उनके बच्चों को राज्य से बाहर निकलने में मदद कर सके. बुनियादी स्तर पर यह चुनाव यथास्थितिवाद के खिलाफ है. करीब साढ़े तीन दशक में बनी स्थितियों को बदलना ही ममता की सबसे बड़ी चुनौती होगी. 

ब्रेकिंग न्यूज : ऑपरेशन ओसामा

operation_enduring_freedom_osama_bin_laden[1]अमेरिका की ‘राष्ट्रीय उपलब्धि’ पर हमारे चैनलों का उन्मादी राष्ट्रवाद भी जोर मार रहा है

न्यूज चैनलों का ब्रेकिंग न्यूज प्रेम जगजाहिर है. इस प्रेम का आलम यह है कि चैनलों पर हर दस मिनट (कई चैनलों पर हर पांच, कुछ पर हर एक-दो मिनट) में एक बार ब्रेकिंग न्यूज की पट्टी चलने का एक अघोषित नियम-सा बन गया है. वहां अब वह हर खबर ब्रेकिंग न्यूज है जो चैनल पर पहली बार चलती है.

लेकिन अकसर यह देखा गया है कि जब असल में ब्रेकिंग न्यूज आती है तो वे तैयार नहीं होते हैं. उस समय उनकी हड़बड़ी और गड़बडि़यां देखने लायक होती हैं. उनमें जोश तो बहुत होता है लेकिन होश नहीं रहता. आश्चर्य नहीं कि जब अल कायदा नेता ओसामा बिन लादेन की अमेरिकी कमांडो ऑपरेशन में मारे जाने की ब्रेकिंग न्यूज आई तो हिंदी और अंग्रेजी के देसी चैनल जोश में बावले हो गए. हालांकि उनके पास दिखाने को अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की घोषणा और लादेन की कुछ फाइल फुटेज के अलावा और कुछ खास नहीं था.

उत्साह में कई चैनलों ने मृत ओसामा की (फर्जी) तसवीर भी दिखानी शुरू कर दी, यह चेतावनी देते हुए कि ‘ये तसवीरें आपको विचलित कर सकती हैं’

लेकिन इससे हमारे कल्पनाशील न्यूज चैनलों को कहां फर्क पड़ता है? एयर टाइम भरने के लिए ‘खबर’ को फैलाने और तानने की उनकी क्षमता असंदिग्ध है. जाहिर है कि लादेन के मारे जाने की खबर के मामले में भी उन्होंने सूचनाओं, तथ्यों और ताजा फुटेज की कमी की भरपाई अपनी कल्पनाशीलता, कच्ची-पक्की कहानियों, ओसामा के पुराने फाइल फुटेज और स्टूडियो में एंकर और न्यूज रूम में रिपोर्टर की सांस फुलाने वाली उत्साह और उत्तेजना से भरी कमेंट्री के साथ की. उत्साह और उत्तेजना का आलम यह था कि एंकर-रिपोर्टर ओबामा को ओसामा और ओसामा को ओबामा बनाने से नहीं चूके. कारण, चैनलों में हमेशा की तरह एक-दूसरे से आगे रहने की होड़ लगी हुई थी. इसी हड़बड़ी और उत्साह में कई चैनलों ने मृत ओसामा की (फर्जी) तसवीर भी दिखानी शुरू कर दी, यह चेतावनी देते हुए कि ‘ये तसवीरें आपको विचलित कर सकती हैं.’ कहना मुश्किल है कि चैनलों के संपादकों को इस तसवीर ने विचलित किया या नहीं. लेकिन इस ‘तसवीर’ की सच्चाई यह थी कि यह इंटरनेट पर 2009 से मौजूद थी और हुआ यह होगा कि चैनलों के उत्साही रिसर्चरों ने जैसे ही गूगल के इमेज सर्च में यह तसवीर देखी होगी, बिना जांच-पड़ताल के लपक लिया होगा.
चलिए मान लिया कि ‘बड़ी-बड़ी खबरों के साथ-साथ छोटी-छोटी गलतियां’ होती रहती हैं. लेकिन यहां तो पूरी कहानी ही फिल्मी थी. हालांकि इसमें अपने देसी चैनलों की गलती (अगर मानें तो) सिर्फ इतनी थी कि वे इस अमेरिकी फिल्मी कहानी को बिना सोचे-समझे ज्यों का त्यों रिले कर रहे थे. अमेरिका ने ओसामा के मारे जाने की जो कहानी गढ़ी उसमें शुरू से इतने झोल थे कि खुद उसे कई बार कहानी बदलनी पड़ी.

imagesCAVQZ0ACनतीजा, कमांडो ऑपरेशन के एक सप्ताह बाद भी हर दिन अमेरिकी प्रशासन से कभी ऑन द रिकॉर्ड और कभी ऑफ द रिकॉर्ड आधी सच्ची-आधी झूठी खबरें प्लांट की जा रही हैं. अमेरिकी मीडिया इसे एक धारावाहिक सीरियल की तरह से छाप और दिखा रहा है. देसी चैनल भी पूरी स्वामिभक्ति के साथ इस जूठन को परोसने में जुटे हुए हैं. इस तरह हर दिन परस्पर विरोधी खबरें एक नये एंगल, कुछ नये मिर्च-मसाले के साथ बतौर ‘एक्सक्लूसिव’ छापी और दिखाई जा रही हैं. रही-सही कसर अपने देसी न्यूज चैनलों के अत्यंत सृजनशील आउटपुट डेस्क पर पूरी हो जाती है जो तिल का ताड़ और राई का पहाड़ बनाने के उस्ताद हैं.  इस तरह चैनलों पर ऑपरेशन ओसामा के नाम पर अभी भी उल्टी-पुल्टी ‘खबरें’ जारी हैं. लगता है कि चैनल खुद भी यह नहीं देखते कि उन्होंने कल क्या दिखाया था.

कहने की जरूरत नहीं है कि एबटाबाद ऑपरेशन के बारे में ऐसा बहुत कुछ है जिसे अमेरिका और पाकिस्तान दोनों छिपा रहे हैं. संभव है कि कुछ महीनों या सालों (जैसे ओबामा के दोबारा चुनाव) के बाद विकीलिक्स की कृपा से सच्चाई सामने आए क्योंकि अभी तो अमेरिकी मीडिया ओसामा के मारे जाने की ‘राष्ट्रीय उपलब्धि’ से उछल रहा है और भारतीय चैनल भी ‘अमेरिकी बहादुरी’ से पूरी तरह से अभिभूत हैं. नतीजा, देशी चैनलों का राष्ट्रवाद भी जोर मार रहा है और हमेशा की तरह बहस शुरू हो गई है कि हम भी पाकिस्तान के अंदर घुसकर ऐसी ही कमांडो कार्रवाई क्यों नहीं करते.

चैनलों पर एंकरों के नथुने फड़क रहे हैं, सुरक्षा विशेषज्ञ, डिप्लोमैट और सेना के पूर्व जनरल ललकार रहे हैं और राजनेता चेतावनियां दे रहे हैं. लेकिन कोई नहीं बता रहा कि ऐसी कार्रवाई के क्या नतीजे हो सकते हैं. ऐसे मौकों पर अगर किसी ने तर्क और विवेकपूर्ण बात कहने की कोशिश की तो स्टार एंकरों की खिसियाहट, चिढ़ और गुस्सा देखते ही बनता है. किसी ने ठीक ही कहा है कि ‘युद्ध इतना गंभीर मामला है कि इसे जनरलों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता.’ अब इसमें यह जोड़ लेना चाहिए कि खबरें इतना गंभीर मुद्दा हैं कि उन्हें न्यूज चैनलों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता.

बेबसी, हताशा और उम्मीद

राजनीति और व्यवस्थापिका से नाउम्मीदी और न्यायपालिका की बेबसी के चलते ही आज उत्तर प्रदेश में यह स्थिति आ गई है कि लोग हजारे का हथियार आजमाने के लिए बेताब हो उठे है

उत्तर प्रदेश के राजनेता प्रायः बड़े अधिकार से यह दावा करते रहते हैं कि दिल्ली की गद्दी का रास्ता यूपी से ही होकर जाता है. इस दावे में दम भी दिखता है. लेकिन इन दिनों उत्तर प्रदेश के नौजवान, बच्चे और बुजुर्ग, किसान, मजदूर और बुद्धिजीवी, सब लोग इसी तर्ज पर एक दूसरी बात कहने लगे हैं कि उत्तर प्रदेश को भ्रष्टाचार मुक्त कराए बिना देश से भ्रष्टाचार मिटाने की कल्पना करना भी बेकार है. आम लोगों के मन में भ्रष्टाचार से नफरत और तौबा करने की जो हल्की-सी चिंगारी अब तक दबी हुई थी वह अन्ना हजारे के अभियान के प्रभाव में एकाएक भड़ककर शोला बन चुकी है. अन्ना के दिल्ली धरने के दौरान लखनऊ में जीपीओ पर बापू की प्रतिमा के सामने जिस तरह लखनऊ के समाज के हर तरह के हजारों लोग स्वतः स्फूर्त ढंग से आ जुटे थे, वह इसका एक छोटा-सा प्रमाण है. ऐसा लखनऊ ही नहीं, राज्य के हर छोटे-बड़े जिले में हुआ था.

दरअसल आज उत्तर प्रदेश को भी अपने लिए एक अन्ना की बेहद जरूरत है. हाल के दिनों मंे राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह बड़े-बड़े घोटालों की कहानियां सामने आ रही हैं, उसकी वजह से उत्तर प्रदेश के मामले दब-से गए हैं. जबकि यहां हो रहे घोटाले तथा भ्रष्टाचार राष्ट्रीय स्तर के घोटालों से कहीं भी उन्नीस नहीं हैं. समाज विज्ञानी राजेश कुमार कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में राजकाज में इस समय अभूतपूर्व पारदर्शिता है. हर काम के रेट तय हैं. हर जगह लेने वाले तैयार बैठे हैं. संबद्ध लोगों तक उनसे हिस्से की रकम पहले पहुंच जानी चाहिए. उसके बाद कोई काम हो या न हो, इससे किसी को मतलब नहीं. इस तरह के धंधे में किसी का कोई अंकुश नहीं, किसी का कोई डर नहीं, यह एकदम खुला खेल है.’ चाहे दवाओं की खरीद के मामले हों या शिक्षा विभाग से जुड़े विषयों का, चाहे भूमि अधिग्रहण के मामले हों या खनन विभाग के, चाहे पर्यावरण-प्रदूषण नियंत्रण जैसे मामले हों या राशन खरीद आदि के, हर तरफ अंधेर है. यूपीएसआईडीसी के एक मुख्य अभियंता करोड़ों रु की हेराफेरी के मामले में सीबीआई की गिरफ्त में हैं. एक प्रमुख सचिव पद के अधिकारी को हसन अली से जुड़ाव के आरोप में कुर्सी छोड़नी पड़ी है. कई अधिकारियों पर खाद्यान्न घोटाले की गाज गिरनी तय है. आय से अधिक संपत्ति के एक दर्जन से ज्यादा मामले विचाराधीन हैं. भ्रष्टाचार के मामलों में कई अधिकारी निलंबित हैं. 50 से ज्यादा अधिकारियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामलों में मुकदमा चलाने की अनुमति विचाराधीन है. सचिवालय के गलियारों में चर्चा आम है कि अगर विकीलीक्स ने काले धन वाले भारतीयों के नामों का खुलासा कर दिया तो उसमें यूपी के अधिकारियों की संख्या सबसे अधिक होगी.

इस चलन से जहां विकास कार्य और जनहित की योजनाएं ध्वस्त हो रही हैं, वहीं भ्रष्टाचार की बेल एकदम निचले स्तर तक फैल गई है

उत्तर प्रदेश के हालात इतने खराब पहले कभी नहीं रहे. स्थितियां तो पिछले कई वर्षों से बिगड़ रही थीं, मगर अब वे इतनी बिगड़ चुकी हैं कि वर्तमान परिस्थितियों में उनमें सुधार की कोई संभावना ही नजर नहीं आ रही. हालांकि देश में इस वक्त सत्तारूढ़ कांग्रेस ही भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी प्रतीक बनी दिख रही है, लेकिन उत्तर प्रदेश की विडंबना यह है कि यहां सत्ता से कांग्रेस की विदाई के बाद ही भ्रष्टाचार का घुन पनपा और फला-फूला है. गैरकांग्रेसी सरकारों के आने के साथ-साथ राज्य में नौकरशाही प्रभावशाली होती गई, भ्रष्टाचार बढ़ता गया और अब बसपा ने इसी प्रभावशाली नौकरशाही को पालतू बनाकर भ्रष्टाचार को संस्थागत रूप दे दिया है. आज सरकार में वही अधिकारी प्रभावशाली है जो कमाकर दे सकता है और कमाने के नये-नये रास्ते सुझा सकता है. राज्य में निर्माण कार्यों से जुडे़ सबसे बड़े विभाग लोक निर्माण विभाग के सर्वेसर्वा जो अधिकारी हैं वे सवा साल पहले रिटायर हो चुके हैं. मगर सरकार को उनकी योग्यता पर इतना भरोसा है कि उन्हें  लोक निर्माण के साथ-साथ सेतु निर्माण निगम का भी प्रबंध निदेशक बना दिया गया है. इसी तरह राजकीय निर्माण निगम में भी प्रबंध निदेशक के पद पर सेवा विस्तार वाले ही भरोसेमंद अधिकारी नियुक्त हैं. प्रायः सभी मोटी कमाई वाले विभागों में ऐसे ही ‘कर्मठ’ अधिकारी तैनात हैं. 

उत्तर प्रदेश में इस समय सरकारी धन की खुली लूट मची है. चाहे राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन हो या मनरेगा या फिर कोई भी अन्य योजना, हर जगह सरकारी पैसा सिर्फ लूटा जा रहा है. सामाजिक संस्था ‘सोशल वॉच’ से जुड़े डा एएन सिंह कहते हैं, ‘हर काम में 30 फीसदी तो पहले ही यह कहकर अग्रिम रखवा लिया जाता है कि यह ‘ऊपर’ का हिस्सा है. शेष 70 फीसदी में 40 से 60 फीसदी तक दलालों, अधिकारियों और ठेकेदारों तथा नेताओं की जेबों में चला जाता है. अगर इस सबकी सही जांच हो तो एक-एक जिले में कई-कई कलमाड़ी नजर आएंगे.’ भ्रष्टाचार के घुन ने एकदम निचले स्तर तक पैठ बना ली है. गांवों में ग्राम प्रधानों के चुनावों में जिस तरह लोगों ने लाखों रु फूंक डाले थे, खेत, घर और जेवर तक गिरवी रखकर चुनाव लड़ा था, वह महज इसीलिए था कि एक बार पद हाथ आ जाए तो फिर चांदी की ही फसल कटनी है. समाज विज्ञानी इसे दोहरे संकट के तौर पर देखते हैं. उनके मुताबिक इससे जहां विकास कार्य और जनहित की योजनाएं ध्वस्त हो रही हैं, वहीं इसके कारण भ्रष्टाचार की बेल एकदम निचले स्तर तक फैल गई है. ग्राम पंचायत स्तर तक भ्रष्ट नेताओं और दबंगों का ऐसा गठजोड़ बन गया है कि उसमें किसी तरह के प्रतिरोध की गुंजाइश ही नहीं बचती. इससे ग्रामीण स्तर पर तनाव और सामाजिक ताने-बाने में गड़बड़ियां भी शुरू हो गई हैं.

वैसे भी अब राजनीतिक दलों के बूते भ्रष्टाचार से लड़ाई लड़ पाना उत्तर प्रदेश के लोगों को संभव नहीं लगता. इसकी कई वजहें हैं. एक तो यह कि राज्य के अनेक प्रमुख नेताओं का चरित्र भ्रष्टाचार के सवाल पर जनता को विश्वसनीय नहीं दिखता. आय से  अधिक संपत्ति के मामले में चाहे मायावती हों या मुलायम, दोनों के लिफाफे अदालतों में मौजूद हैं

ऐसे में अन्ना का मिशन उत्तर प्रदेश को भी उम्मीदों के नये सवेरे की तरह दिखाई दे रहा है. हालत यह है कि उत्तर प्रदेश के दो बड़े राजनीतिक दल समाजवादी पार्टी और कांग्रेस तो अन्ना को उत्तर प्रदेश आकर भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन छेड़ने का निमंत्रण तक दे चुके हैं. हालांकि कांग्रेस का रवैया अन्ना प्रकरण में कुछ अजीबोगरीब रहा है. कांग्रेस एक ओर तो उत्तर प्रदेश के लिए अन्ना के अभियान की जरूरत पर जोर देती रही है मगर दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के अश्वमेध यज्ञ का बीड़ा उठाए दिग्विजय सिंह टीम अन्ना पर लगातार हमले करते रहे हैं. हालांकि इसके पीछे दिग्गी राजा का मकसद कुछ राजनीतिक लाभ उठाने और जातीय राजनीति का नया समीकरण बनाने का ही रहा होगा, लेकिन भ्रष्टाचार से त्रस्त प्रदेश के लोगों को भी यह हरकत नागवार ही गुजरी और इसे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में कांग्रेसी रुकावट के तौर पर देखा गया. अब राहुल गांधी लखनऊ में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) के कार्यालय पहुंचकर और सूचना के अधिकार के तहत प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी की मार्फत कई सूचनाएं मांगकर प्रदेश सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ खुली लड़ाई छेड़ते हुए दिग्गी राजा की गलती को सुधारने की कोशिश कर रहे हैं. गौरतलब है कि यह वही महकमा है जिसमें भ्रष्टाचार की आंधी के चलते चार महीने में दो-दो अधिकारियों की दिनदहाड़े हत्या कर दी गई. फिलहाल इस विभाग के कुछ कर्मचारी और अधिकारी जेल में हैं और इससे जुड़े दो-दो प्रभावशाली मंत्रियों बाबू सिंह कुशवाहा और अनंत कुमार मिश्र ‘अंतू’- को अपनी-अपनी कुर्सियों से बेदखल होना पड़ा है. इस महकमे में चल रही लूट के कारण इस विभाग से जुड़े मंत्रियों से लेकर चपरासियों तक सबके सब कुंभ नहा रहे हैं और सीएमओ जैसे पद किसी नोट छापने की मशीन की तरह उत्पादक हो गए हैं. तीन हजार करोड़ की सालाना रकम में किसके हिस्से कितना जाता है, यह किसी से भी छिपा नहीं है. 
2005 से शुरू हुई जवाहरलाल नेहरू नेशनल अर्बन रिन्युअल मिशन या जेएनएनयूआरएम में दस हजार करोड़ की रकम फूंकी जा रही है. इस योजना के तहत शहरों का पुनरुद्घार तो नहीं हो पा रहा, जो कुछ पहले से मौजूद था उसका भी बंटाधार हो चुका है. राज्य के तमाम नगरों में चल रही ऐसी 222 योजनाओं के कारण हर ओर सड़कें खुदी पड़ी हैं, धूल का गुबार है, दुर्घटनाएं हो रही हैं, लोग बीमार हो रहे हैं, मगर काम है कि पूरा होता ही नहीं. कार्य की गुणवत्ता का स्तर इतना घटिया है कि बिना आंख वाले लोग भी खामियां साफ-साफ देख सकते हैं. लेकिन मामला चूंकि ‘मोटे माल’ का है इसलिए सरकार को कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा. महात्मा गांधी के नाम पर शुरू मनरेगा तो पूरी तरह भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुकी है. हालात इतने खराब हैं कि अभी हाल में हुई एक समीक्षा बैठक में मुख्यमंत्री मायावती को भी अपने मातहतों से मनरेगा की धांधलियों पर नजर रखने के निर्देश देने पड़े हैं. कभी अपने सहयोग से मायावती को मुख्यमंत्री बनवाने वाली भारतीय जनता पार्टी को भी अब राज्य में सबसे बड़ी समस्या भ्रष्टाचार की ही दिख रही है. पार्टी ने मायावती के राज के 100 बड़े घोटालों का खुलासा करने के लिए एक खास पुस्तिका भी तैयार की है. पार्टी विधानसभा चुनावों से पहले इस मामले को मुख्य मुद्दा बनाकर लड़ाई लड़ने की योजना बना रही है. इससे भले ही उसे थोड़ा-बहुत राजनीतिक लाभ हासिल हो जाए मगर इससे राज्य में व्याप्त भ्रष्टाचार खत्म होने की संभावना कहीं नहीं दिखती.

वैसे भी अब राजनीतिक दलों के बूते भ्रष्टाचार से लड़ाई लड़ पाना उत्तर प्रदेश के लोगों को संभव नहीं लगता. इसकी कई वजहें हैं. एक तो यह कि राज्य के अनेक प्रमुख नेताओं का चरित्र भ्रष्टाचार के सवाल पर जनता को विश्वसनीय नहीं दिखता. आय से  अधिक संपत्ति के मामले में चाहे मायावती हों या मुलायम, दोनों के लिफाफे अदालतों में मौजूद हैं. कांग्रेस की स्थिति भी विश्वसनीय नहीं है. फिर लोगों ने यह भी देखा है कि अनेक भ्रष्ट नेता पिछली हर सरकार से किसी न किसी रूप से जुड़े रहे हैं. सत्ता बदलते ही उनकी राजनीतिक निष्ठाएं बदल जाती हैं और उनका राजनीतिक धंधा चलता रहता है. लगातार बढ़ रहे चुनावी खर्च के कारण भी भ्रष्टाचार मुक्त राजनीति की उम्मीदें कम होती जा रही हैं.

दूसरा रास्ता लोकतांत्रिक व्यवस्था और संस्थाओं की ओर जाता है. राज्य मंे भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकायुक्त और सतर्कता अधिष्ठान जैसी संस्थाएं मौजूद हैं. लेकिन भ्रष्ट राजनीतिक व्यवस्था ने इन संस्थाओं को नपुंसक बना दिया है. उत्तर प्रदेश में लोकायुक्त न तो मुख्यमंत्री के खिलाफ सुनवाई कर सकते हैं और न ही ग्राम प्रधानों के खिलाफ. जिन लोगांे के खिलाफ लोक आयुक्त जांच कर सकते हैं उनके खिलाफ भी कार्रवाई के लिए वे सिर्फ राज्य सरकार से अनुरोध कर सकते हैं. कार्रवाई कितनी होती है इसका प्रमाण यह है कि मौजूदा सरकार के नौ मंत्रियों के खिलाफ की गई कार्रवाई की सिफारिश में से सिर्फ एक मामले में कार्रवाई हुई. ऐसा ही हाल सतर्कता अधिष्ठान का भी है जो अधिकारियों की आर्थिक अनियमितताओं, भ्रष्टाचार और धांधली के मामलों मंे गृह विभाग के निर्देश पर जांच शुरू करता है. जांच पूरी होने पर शासन यह फैसला करता है कि मुकदमा चलाने की इजाजत दी जाए या नहीं. लेकिन बड़े अधिकारियों के मामलों में प्रायः मुकदमे की इजाजत मिलती ही नहीं. कुछ ऐसी ही स्थिति राज्य मंे सूचना के अधिकार की भी है. भ्रष्ट और दबंगों के गठजोड़ के कारण आम आदमी को सूचना के अधिकार के तहत सूचनाएं प्राप्त करने के लिए भी हजारों तरह के पापड़ बेलने पड़ते है.

इसके बाद न्यायपालिका से उम्मीद बचती है. लेकिन बड़े लोगों और खास अधिकारियों को बचाने के लिए उनके मामलों में तो अदालती आदेशों की भी अनदेखी या उपेक्षा करके धांधली जारी रखी जाती है. लखनऊ मंे मायावती के निर्माण कार्यों में अनेक बार अदालती रोक के बावजूद काम बंद नहीं किया गया और आदेशों की अनदेखी करके भी मनमर्जी काम करवा लिया गया.न्यायपालिका बेबस बनकर देखती रह गई. राजनीति और व्यवस्थापिका से नाउम्मीदी और न्यायपालिका की बेबसी के चलते ही आज राज्य में यह स्थिति आ गई है कि लोग अन्ना हजारे के हथियार को आजमाने के लिए बेताब हो उठे हैं. यही वजह है कि उत्तर प्रदेश सरकार हजारे को उत्तर प्रदेश मंे घुसने ही नहीं देना चाह रही है. उनकी राह में नयी-नयी बाधाएं खड़ी की जा रही हैं. लेकिन इस तरह की बाधाओं से अब बदलाव की बयार को रोकना मुमकिन नहीं हैं. प्रदेश में भ्रष्टाचार के प्रतिकार का जो तूफान उठ रहा है वह कुछ न कुछ करके ही थमने वाला है. उसे रोकना अब किसी ‘कोतवाल’ के वश की बात नहीं.

गोविंद पंत राजू