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‘दलित राजनीति उलटी दिशा में बढ़ चली है’

फोटोः विकास कुमार
फोटोः विकास कुमार

देश में दलितों की स्थिति में क्या कोई सुधार आया है?

दलितों से छुआछूत का मामला हो या मंदिर में प्रवेश को लेकर टकराहट या उनसे व्यभिचार की घटनाएं- लगभग हर रोज देश के किसी न किसी कोने से देखने-सुनने को मिल जाती हैं. मंदिर में प्रवेश के मसले पर दलितों की हत्या तक कर दी जाती है. थोड़ी पुरानी बात है. उत्तर प्रदेश में समाजवादी सरकार के आने के बाद बरेली के पास ही एक गांव में मंदिर में दलितों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाया गया था. अखबार और टेलीविजन चैनलों ने इस घटना को छापा-दिखाया. पुजारी मंदिर में ताला लगाकर गांव छोड़कर भाग गया लेकिन पुलिस प्रशासन और सरकारी तंत्र में इसे लेकर कोई सुगबुगाहट नहीं दिखी.

देश में इस तरह की घटनाओं पर नियंत्रण पाने के लिए बहुत सख्त कानून मौजूद हैं. ‘दलित एक्ट’  के तहत सजा के कठोर प्रावधान किए गए हैं. दलित उत्पीड़न के संदर्भ में उन्हें उचित ढंग से लागू किया जाए तो उसके भय से ही बहुत हद तक ऐसी घटनाओं पर नियंत्रण पाया जा सकेगा. दलित, सवर्णों के रास्ते से गुजर कर न जाएं इसलिए महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश में कई जगहों पर बहुत ऊंची-ऊंची दीवारें खड़ी कर दी गईं. अफ्रीका में ‘रंगभेद’ की बातें जब थीं तब वहां काले लोगों के लिए चलने के लिए सड़कों पर अलग लेन होती थीं. उनके लिए दुकानें अलग होती थीं. वे गोरों की दुकानों से अपनी जरूरत का समान नहीं खरीद सकते थे. वे रेलगाडि़यों के सामान्य डिब्बों में यात्रा नहीं कर सकते थे. उनके लिए ट्रेनों में अलग डिब्बे होते थे. पर भारत में यह सब तो आज भी घट रहा है. ‘रंगभेद’ व्यवस्था के खिलाफ पूरी दुनिया एक हो गई थी. भारत भी ‘रंगभेद’ के खिलाफ उठ खड़ा हुआ था. उस जमाने में अफ्रीका के लिए ‘वीजा’ नहीं मिलता था. मुझे याद है कि उन दिनों मुझे भारत सरकार ने 1980 के आसपास किसी साल में पासपोर्ट जारी किया तो उसपर साफ-साफ लिखा था कि आप दो देशों (अफ्रीका और इजरायल) की यात्रा नहीं कर सकते थे. लेकिन यह सोचकर भी शर्म आती है कि आज 21वीं सदी के भारत में भी ऐसी घटनाएं घट रही हैं! ‘रंगभेद’ के खिलाफ जो माहौल पूरी दुनिया में बना वैसा भारत में ‘जाति-व्यवस्था’ के खिलाफ कभी बन नहीं पाया. ‘रंगभेद’ की जो विशेषताएं थीं, वे सब इस जाति व्यवस्था में पाई जाती हैं. यहां जाति-व्यवस्था के बने रहने की मूल वजह ‘हिन्दू धर्म’ है. धार्मिक व्यवस्था में बदलाव लाए बगैर आप सिर्फ कानून के सहारे सामाजिक या धार्मिक स्तर पर दलित उत्पीड़न खत्म नहीं कर सकते. चाहे इस देश में लेनिन ही क्यों न पैदा हाे लें.

मतलब आप यह कहना चाह रहे हैं कि जाति-व्यवस्था या दलित उत्पीड़न को खत्म करने के प्रयास अपने देश में ईमानदारी से नहीं हुए?

मैं आपको थोड़ा पीछे स्वतंत्रता संग्राम में ले जाना चाहूंगा. 1929-30 के आसपास गांधी जी की बाबा साहब अांबेडकर की पहली मुलाकात हुई थी तब उन्होंने अांबेडकर से कहा कि मैंने देश की आजादी का आंदोलन छेड़ रखा है. अांबेडकर ने बहुत दिलचस्प जवाब दिया, ‘मैं सारे देश की आजादी की लड़ाई के साथ उन एक चौथाई जनता के लिए भी लड़ना चाहता हूं जिस पर कोई ध्यान नहीं दे रहा हैै. आजादी की लड़ाई में सारा देश एक है और मैं जो लड़ाई लड़ रहा हूं, वह सारे देश के खिलाफ है. मेरी लड़ाई बहुत कठिन है.’ औपनिवेशिक सत्ता (अंग्रेजों) के खिलाफ तो सारा देश खड़ा था इसलिए उनका जाना तय था लेकिन देश के लोग अपने ही लोगों के साथ जो भेदभाव बरत रहे हैं तो मेरी लड़ाई तो उनसे भी है. दलितों, पिछड़ों को न तो जमीन रखने का अधिकार था, न ही उन्हें शिक्षा पाने का अधिकार था. वे सदियों से जमींदारों और सामंतों के खेतों और कारखानों में मजदूरी करते चले आ रहे थे. हिंदू धर्म, वर्ण व्यवस्था और जातिगत व्यवस्था की खुलकर वकालत करते हैं. डॉ. अांबेडकर ने सोचा कि यहां जातिगत व्यवस्था का मूल आधार धार्मिक व्यवस्था से ही लड़ना पड़ेगा. संकेत के तौर पर 1927 में डॉ. अांबेडकर ने ‘मनुस्मृति’ को जलाया. यह यहां दोहराने की जरूरत नहीं है कि इस हिंदू धर्म-ग्रंथ में शूद्रों के बारे में क्या-क्या लिखा गया है. मनुस्मृति के जलाए जाने से हिंदू घबरा उठे.

धार्मिक व्यवस्था में बदलाव लाए बगैर आप सिर्फ कानून के सहारे सामाजिक या धार्मिक स्तर पर दलित उत्पीड़न खत्म नहीं कर सकते. चाहे इस देश में लेनिन ही क्यों न पैदा होे लें

एक उदाहरण और देना चाहूंगा. अपने देश में दलितों को कुएं और तालाब से पानी नहीं लेने दिया जाता था. महाराष्ट्र में इस भेदभाव से लड़ने के लिए बाबा साहब ने ‘महाड़’ आंदोलन चलाया. जलगांव में एक तालाब के किनारे लाखों की संख्या में दलित जुटे और उन्होंने प्रकृति के पानी पर अपना हक जताया था. बाद में कोंकणी ब्राह्मणों ने उस तालाब के शुद्धिकरण के लिए मंत्रोच्चारण और पूजा-पाठ आयोजित करवाया. इसके विरोध में अांबेडकर ने 12 दलितों का चयन किया और कहा कि तुम इस्लाम स्वीकार कर लो. देश में सनसनी फैल गई. तत्काल ब्राह्मणों ने दलितों के लिए गांव के दो कुएं पानी लेने के लिए खोल दिए. ब्राह्मणों ने इस दबाव में कुएं का पानी लेने की आजादी दलितों को दे दी क्योंकि उन्हें लगा कि उनका धर्म खतरे में पड़ जाएगा. अांबेडकर ने पूना-पैक्ट के समय यह बयान दिया कि वे बौद्ध धर्म अपना लेंगे तो तुरंत पैक्ट पर समझौता हो गया. पूना पैक्ट की वजह से दलितों काे बहुत लाभ हुआ. उनका सबलीकरण इस पैक्ट की वजह से ही संभव हो पाया. इसी पैक्ट की वजह से दलितों को आरक्षण आधा-अधूरा ही सही मिल पाया. इसी पैक्ट के नतीजे के चलते दलित समुदाय के लोग मंत्री, मुख्यमंत्री और राष्ट्रपति भी बन पाए. इसी पैक्ट की वजह से लाखों की संख्या में दलितों के लिए शिक्षा के दरवाजे खुले. इस बारे में प्रसिद्ध कहानीकार चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ का एक लेख है ‘कछुआ धर्म’. वे पंडित थे. हर रोज पूजा-अर्चना करते थे. टीका लगाते थे. उन्होंने अपने लेख में  हिंदू धर्म की बहुत अच्छी व्याख्या की थी. उन्होंने लिखा है, ‘हिंदू धर्म को जब अपने ऊपर खतरा नजर आता है तब वह कछुए की तरह अपनी गर्दन और मुंह अंदर समेट कर मृत के समान निष्क्रिय होने का प्रदर्शन करता है लेकिन जब कोई संकट नहीं दिखता है तब वह गर्दन उठाकर आक्रामक मुद्रा में ऐसे चलता है मानो पूरी दुनिया जीतने निकला हो.’

प्राचीन काल से एक उदाहरण पेश करना चाहूंगा. गौतम बुद्ध ने अपनी शिक्षा और उपदेशों के बल पर जाति-व्यवस्था के खिलाफ मोर्चा लिया और धर्म-परिवर्तन किया.  बड़ी संख्या में ब्राह्मण ही बौद्धभिक्षु बने. कई राजाओं ने भिक्षुओं के खिलाफ अभियान चलाया. पुष्यमित्र आदि राजाओं ने छोटे-मोटे अभियान चलाए. सबसे जोरदार अभियान बौद्ध-धर्म के खिलाफ 9वीं शताब्दी में शंकराचार्य के समर्थकों ने चलाए. शंकराचार्य और उसके समर्थकों को हिंदू राजाओं का समर्थन था, उन्हें किसी का डर नहीं था तो वे बौद्ध मठों को तोड़ने और भिक्षुओं पर हमले करने लगे. दरअसल, बुद्ध वर्ण व्यवस्था पर चोट कर रहे थे. वे मानव-मानव के बीच वर्ण के आधार पर भेद करने की बात को झुठला रहे थे. वर्ण व्यवस्था की रक्षा और शंकराचार्य का समर्थन पाकर तीसरी सदी में व्यापक स्तर पर हिंदू धर्म-ग्रंथ रचे गए. उससे पूर्व सिर्फ वेदों की रचनाएं ही हुई थीं, जिनका जिक्र बौद्ध ग्रंथों में भी मिलता है. बौद्ध-ग्रंथों में रामायण और महाभारत की चर्चा नहीं मिलती है. बुद्ध के आसपास ही चार्वाक भी हुए जिन्होंने तीन वेद होने की ही बात की है. मतलब साफ है कि सिर्फ तीन वेद ही बुद्ध-चार्वाक के समय तक रचे गए थे. आप गौर करें तो पाएंगे, शंकराचार्य के बाद जिस भी धर्म ग्रंथ की रचना की गई, उनमें वर्ण व्यवस्था का समर्थन किया गया है.

आप पूना पैक्ट के जरिए दलितों के जीवन में बदलाव आने की बात कर रहे हैं, लेकिन अक्सर यह सुनने को मिलता है किसी भी सरकार ने दलितों के लिए कुछ नहीं किया है. उत्तर प्रदेश के संदर्भ में आपका जबाव चाहूंगा?

हां, सरकारों द्वारा दलितों के विकास के लिए उठाए गए कदम संतोषजनक नहीं कहे जा सकते हैं लेकिन यह कहना कि दलितों के लिए किसी भी सरकार ने कुछ नहीं किया है, एक उग्रवादी किस्म की सोच है. उत्तर प्रदेश हिंदुत्ववादियों का सबसे बड़ा केंद्र रहा है. इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि बहुत सारी धार्मिक नदियां उत्तर प्रदेश से होकर गुजरती हैं इसलिए इस प्रदेश का सबसे ज्यादा सांप्रदायीकरण हुआ है. गंगा का सबसे बड़ा हिस्सा उत्तर प्रदेश में है. कुंभ का आयोजन इलाहाबाद में होता है. ज्योतिर्लिंग बनारस में है. मेरे कहने का मतलब यह है कि उत्तर प्रदेश हिंदुत्व को उर्वर भूमि प्रदान करने का काम करती रही है. यह भी सच है कि उत्तर प्रदेश में कुछ भी घटित होता है तो उसका असर दूसरे राज्यों पर जरूर पड़ता है. इसलिए मेरा मानना है कि अगर उत्तर प्रदेश में जाति-व्यवस्था को कमजोर कर दिया जाए तो उसका असर पूरे देश पर पड़ेगा.

मायावती या कोई दलित हजार बार भी मुख्यमंत्री बन जाए, उससे दलितों के जीवन में परिवर्तन नहीं आनेवाला. परिवर्तन सामाजिक आंदोलन के दबाव के फलस्वरूप ही आ पाएगा

कांशीराम -मायावती का आंदोलन और खासकर मायावती का उत्तर प्रदेश की सत्ता में आसीन होने का असर दलितों की जिंदगी बदलने में कितना हो पाया है?

जाति-व्यवस्था के खिलाफ सामाजिक आंदोलन चलाए गए थे. वह बुद्ध, ज्योतिबा फुले से लेकर आंबेडकर तक चलता चला आ रहा है. आंबेडकर के बाद जो भी दलित आंदोलन हुए उसकी सबसे बड़ी कमजोरी यह रही कि सभी दलित नेतृत्व अपनी-अपनी अलग-अलग डफली पीटते चले गए. खुद आंबेडकर द्वारा खड़ी की गई रिपब्लिकन पार्टी भी बाद के दिनों में चार भागों में बंट गई. उसका एक भाग रामदास अठावले के नेतृत्व में पहले शिवसेना और बाद में भाजपा में शामिल हो चुका है. आंबेडकर के पोते प्रकाश आंबेडकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) में शामिल हो गए. एक भाग में योगेंद्र कबाड़े थे, वे अब भाजपा में हैं. रिपब्लिकन पार्टी के एक भाग के नेता आरएस गंवई थे जो कांग्रेस में शामिल हो गए. कुछ दिनों तक वे केरल के राज्यपाल भी रहे. आंबेडकर के बाद उनकी पार्टी विखंिडत हुई और उसका अधिकांश हिस्सा दक्षिणपंथी पार्टियों में शामिल होता चला गया. निश्चित तौर पर इससे सामाजिक न्याय की लड़ाई कमजोर हुई. दलित राजनीति में निर्वात-सा बन गया. उसका फायदा निश्चित तौर पर कांशीराम को मिला.

कांशीराम ने शुरू में यह तय किया कि दलितों को सबसे पहले सामाजिक तौर पर चेतना संपन्न किया जाए. 1960-80 तक उन्होंने चुनाव लड़ने की बात नहीं की थी. इस दलित राजनीति का मूलाधार बामसेफ पार्टी रही. कांशीराम ने सामाजिक जागृति के लिए बहुत मेहनत की. वे गली-गली साइकिल पर घूमते थे. उत्तर प्रदेश में इस आंदोलन का असर बहुत पड़ा. उन्होंने दलितों को अपने आंदोलन से बड़ी संख्या में जोड़ा. दलितों को संगठित करने के बाद उन्होंने राजनीति में उतरने की बात की जिसके चलते बामसेफ भी कई भागों में बंट गया. कांशीराम से अलग हुए दूसरे दल सामाजिक जागृति फलाने की बात पर जोर देने की बात कर रहे थे. आंबेडकर ने सामाजिक बदलाव कोई मंत्री पद पर रहते हुए नहीं किया था. सामाजिक आंदोलनों के जरिए जो परिवर्तन समाज में आता है, वह स्थायी भाववाला होता है.

मतलब आप यह कह रहे हैं कि सामाजिक परिवर्तन की बात मायावती तक आते-आते पीछे छूट गई?

सामाजिक परिवर्तन पीछे ही नहीं छूटा बल्कि उलटी दिशा में चल पड़ा. कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की नींव रखी और राजनीति में पूरी तरह उतर गए. सामाजिक आंदोलन से जो दबाव समाज में बनता था, वह दबाव बनना खत्म हो गया और जिसके चलते दलित उत्पीड़न की घटनाओं में लगातार इजाफा हुआ, इसे साफ-साफ महसूस किया जा सकता है. गांधी और आंबेडकर की जब बातचीत हो रही थी तब उन्होंने  साफ-साफ कहा था कि सामाजिक आंदोलनों का राजनीतिक आंदोलनों पर वर्चस्व होना चाहिए. राजनीतिक आंदोलन के चलते सत्ता तो मिल जाएगी लेकिन समाज में बदलाव नहीं आ पाएगा इसलिए यदि समाज बदलना है तो सामाजिक आंदोलन बहुत जरूरी हैं.

क्या आप यह कहना चाह रहे हैं कि कांशीराम और मायावती द्वारा सामाजिक आंदोलन को अचानक बंद करके राजनीति शुरू कर देने से समाज में बदलाव की दिशा में निर्वात की स्थिति बन गई?

जी हां, बहुत बड़ा निर्वात बन गया और अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो आज दलितों की स्थिति कई गुणा ज्यादा बेहतर होती. मैं यह कतई नहीं कह रहा हूं कि दलितों को राजनीति में नहीं आना चाहिए. मैं यह कहना चाह रहा हूं कि सामाजिक आंदोलन से मानस में बदलाव आता है और इसका असर दलित ही नहीं बल्कि गैर-दलितों पर भी देखा जा सकता है. कांशीराम के राजनीति में आने के फैसले से दलितों की सामाजिक स्थिति में जो सुधार दर्ज किया जा रहा था,  वह उलटी दिशा में चल पड़ा.

क्या इस परिस्थिति से जो सामाजिक दबाव बनने लगा था वह अब नहीं बन पा रहा है. क्या इसकी वजह से भी दलितों के उत्पीड़न के मामलों में बढ़ोतरी हो रही है?

देखिए, कांशीराम-मायावती ने जब तक सामाजिक आंदोलन छेड़े रखा था तब तक हर राजनीतिक पार्टी इस दबाव में काम करती थी कि बिना दलित को साथ लिए चुनाव जीतना मुश्किल होगा. लेकिन मायावती के राजनीति में आते ही ब्राह्मण सत्ता के केंद्र में आ गए. ब्राह्मणों के बारे में यह गुणगान होने लगा कि वे हाशिये पर चले गए हैं. उनकी स्थिति खराब हो गई है. मैं यहां किसी खास व्यक्ति के बारे में बात नहीं कर रहा हूं. ब्राह्मण का मतलब व्यवस्था से मानता हूं. कांशीराम पहले ‘तिलक, तराजू और तलवार…’ का नारा लगाते थे लेकिन राजनीति में आते ही वे ‘हाथी नहीं गणेश हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश है’ के नारे लगाने लगे. ब्रह्मा, विष्णु और महेश के खिलाफ अांबेडकर पूरा जीवन लड़ते रहे. कांशीराम और मायावती ने इसे उलट दिया.

कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी के निर्माण के बाद एक और खतरनाक कदम उठाया था. उन्होंने कहा कि अपनी-अपनी जातियों को मजबूत करो और इसी से कल्याण होगा. इसके बाद ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और दलितों की अलग-अलग जातियों के सम्मेलन होने लगे. लेकिन कांशीराम और मायावती भूल गए कि जातियों के मजबूत होने से जाति-व्यवस्था कैसे टूटेगी? इससे हरेक जाति का गौरव भड़क उठा और सामाजिक बदलाव और जाति-व्यवस्था के खिलाफ चल रहे आंदोलन को जोरदार झटका लगा. राजनीति में जातीय धुव्रीकरण बड़े पैमाने पर होने लगा. जातियों के नाम पर अलग-अलग जाति के गुंडे ध्रुवीकरण की वजह से जीतकर नगरपालिका से लेकर विधानसभा और संसद तक में पहुंचने लगे. आज राजनीति का चेहरा जातीय ध्रुवीकरण की वजह से ज्यादा विद्रूप हो गया है. इसकी वजह से देश में लोकतंत्र नहीं जातियां फल-फूल रही हैं. अब पार्टियां नहीं जातियां सत्ता में आने लगी हैं. कांशीराम-मायावती ने सभी जातियों के लोगों से मंत्री पद देने का वायदा किया. सत्ता में आने के बाद मायावती ने ऐसा किया भी लेकिन सभी सुख-सुविधा पाने के बाद भी उन जातियों के लोगों ने पांच साल के भीतर ही इन्हें लात मारकर किनारा कर लिया. मतलब यह है कि आप जाति-व्यवस्था खत्म करने की लड़ाई को मजबूत नहीं करेंगे और जातियों को मजबूत करने की बात करेंगे तो इससे दलित विरोधी शक्तियां ही मजबूत होंगी. बसपा के शासनकाल में तमाम जातियां दलित विरोधी शक्तियों के रूप में खड़ी हो गईं.

कांशीराम पहले ‘तिलक, तराजू और तलवार…’ का नारा लगाते थे लेकिन राजनीति में आते ही वे ‘हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु और महेश है’ के नारे लगाने लगे

यह अक्सर आरोप लगाया जाता है कि दलित चिंतक, दलित नेतृत्व ही दलित महिलाओं की उपेक्षा करते हैं. वे ही उन्हें आगे नहीं आने देना चाहते हैं.

जी, आप बिल्कुल सही कह रहे हैं. बाबा साहेब ने अपने आंदोलन के जरिए यह कोशिश की थी कि दलित महिलाएं आगे आएं. वे दलित महिलाओं के साथ हिंदू महिलाओं को भी आगे लाने की बात कर रहे थे. इसलिए 1951 में वह हिंदू कोड बिल लेकर आए. हिंदू कोड बिल, सवर्ण महिलाओं को पिता की संपत्ति में अधिकार देने और दहेज प्रथा आदि जैसी कुरीतियों के खिलाफ लाया गया. लेकिन उस समय बनारस, इलाहाबाद और देश के दूसरे हिस्सों के साधू-संन्यासी गोलबंद होकर बिल के विरोध में उठ खड़े हो गए. बिल को स्वीकृति नहीं मिल पाई. दलित पुरुष नेता तो कई उभरे लेकिन महिला नेतृत्व नहीं उभर पाया. बाबा साहब की मृत्यु आजादी के चंद वर्षों बाद ही हो गई. उसके बाद जगजीवन राम आए तो उन्होंने भी दलित महिलाओं को नेतृत्व दिलाने के लिए कोई प्रयास नहीं किया. उनकी मृत्यु के बाद उनकी बेटी मीरा कुमार राजनीति में आईं जरूर लेकिन उन्हें यह विरासत में मिली. उन्हें राजनीति संघर्ष के रास्ते से नहीं मिली है. रिपब्लिकन पार्टी के चारों धड़े जिसका मैंने पहले जिक्र किया उसमें से कोई महिला नेतृत्व सामने नहीं आया. मायावती ने तो हद ही कर दी. उसके नेतृत्व में कोई दलित पुरुष तो छोडि़ए, कोई दलित महिला भी आगे नहीं आ पाई. दलित राजनीति में मायावती को छोड़कर कोई दूसरी महिला नजर नहीं आती हैं. मायावती खुद चार बार मुख्यमंत्री बन चुकी हैं लेकिन किसी दूसरी दलित महिला को उन्होंने आगे नहीं आने दिया. मायावती की सामंती सोच देखिए कि उन्होंने पांच-छह वर्ष पहले अपना उत्तराधिकारी घोषित करने की बात की थी. उन्होंने यह भी कहा था, ‘मैं अपने उत्तराधिकारी का नाम एक लिफाफे में बंद करके जाऊंगी. मेरे मरने के बाद लिफाफा खोला जाएगा.’ मैं इस बात का जिक्र सिर्फ इसलिए कर रहा हूं ताकि आनेवाली पीढ़ी दलित राजनीति में महिलाओं की स्थिति को समझ सके और उसे दुरुस्त करने की कवायद में लगे. दलित राजनीति में सफल पुरुष ने अपनी पत्नी को गृहणी बनाकर रखना पसंद किया. यह स्त्रीविरोधी मानसिकता है और यह भी उसी धर्म व्यवस्था की देन है. इसकी शिकार दूसरी पार्टियां भी रही हैं. महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण देने का मामला दसियों साल से लटका पड़ा है. स्त्री विरोधी मानसिकता को मीडिया और सिनेमा भी बढ़ावा दे रहे हैं. पतियों की पूजा कीजिए और यह इच्छा कीजिए कि वह आपको बराबरी का दर्जा देगा, परस्पर विरोधी बातें हैं. कर्मकांडी व्यवस्था को खत्म किए बगैर स्त्रियों का कभी भी भला नहीं हो सकता है. 

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हम तो सुधारना चाहते हैं, अलग पार्टी की बात तो अरविंद करते हैं’

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आम आदमी पार्टी के वरिष्ठ सदस्य प्रो. आनंद कुमार

आपलोग यह कह रहे हैं कि न तोड़ेंगे, न छोड़ेंगे, सुधरेंगे और सुधारेंगे लेकिन लग तो नहीं रहा कि पार्टी इसके लिए तैयार है. दो दिन पहले ही अरविंद केजरीवाल ने फिर से एक बार दुहराया कि आप लोगों को निकाले जाने का फैसला किस प्रकार सही था. ऐसे में सुधरने और सुधारने की कोई गुंजाइश बचती है क्या?
सुधरने और सुधारने की गुंजाइश हमेशा रहती है. मेरी उम्र अभी इतनी नहीं हुई है कि मैं सुधर न सकूं. मैं तो सुधरने के लिए तैयार हूं. बाकियों को भी सुधरना ही होगा. जब गौतम बुद्ध अंगुलीमाल को सुधार सकते हैं, महात्मा गांधी हिंसा फैला रही भीड़ को अहिंसक बना सकते हैं तो सुधार की गुंजाइश यहां भी है. हम इसी गुंजाइश को तलाश रहे हैं. हमलोगों के लिए आम आदमी पार्टी एक औजार है. हम कार्यकर्ताओं ने मिलकर इस औजार को बनाया है. हम इसमें सुधार नहीं करेंगे तो कौन करेगा. फिलहाल जो लोग पार्टी में हैं और अपने को नायक-अधिनायक समझ रहे हैं उन्हें हमने यानी कार्यकर्ताओं ने बनाया है. वो नायक नहीं हैं. वो हमारे एजेंट हैं जिन्हें हमने वहां बिठाया है. हमने इनकी छवि बनाई है क्योंकि हमें नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी पसंद नहीं थे. अब अगर ये नापसंद होने की हदतक विकृत हो जाएंगे तो जनता इनके साथ भी वही करेगी जो वो बाकी नेताओं के साथ करती है. जनता इन्हें भी बदल देगी. क्योंकि नेता को यह भ्रम हो सकता है कि उससे जनता है लेकिन असलियत में नेता, जनता से होता है. और अगर जनता ने इन्हें देवता नहीं माना तो वही वाली बात हो जाएगी-मानो तो देवता नहीं तो पत्थर.

आम आदमी पार्टी दो हिस्सों में बंट चुकी है. अगर ‘स्वराज संवाद’ के आयोजन को आधार बनाकर पार्टी ने आप लोगों की प्राथमिक सदस्यता भी छीन ली तो फिर आपकी रणनीति क्या होगी?
अगर ऐसा कुछ हुआ तो इसे क्रिकेट की भाषा में हिट विकेट होना कहेंगे. अगर पार्टी प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव, प्रो. आनंद कुमार, अजीत झा, प्रो. राकेश सिन्हा, विशाल शर्मा, क्रिस्टिना शामी, मेधा पाटकर जैसे लोगों को प्राथमिक सदस्य होने लायक भी नहीं मानती और इन्हें हटा देती है तो लोग यही कहेंगे कि आम आदमी पार्टी सत्ता के विकार से पीड़ित हो चुकी है. अभी तक यह साफ नहीं है कि इनलोगों का गुनाह क्या है? इनकी गलती क्या है? क्या अपराध हुआ है, यह साफ नहीं है लेकिन फैसले धड़ाधड़ आ रहे हैं. लोग यह भी कहेंगे कि पार्टी के मौजूदा नेतृत्व का एक हिस्सा अहंकार से पीड़ित है. शायद दिल्ली चुनाव में मिले बहुमत से इनलोगों का दिमाग खराब हो गया है. जब पार्टी हमें प्राथमिक सदस्यता से निष्कासित कर देगी तब हम सोचेंगे कि क्या करना है. अभी तो हम सुधरने और सुधारने की ही कोशिश कर रहे हैं.

क्या  ‘स्वराज संवाद’  के जरिए आप लोग अपनी जमीन नहीं तलाश रहे हैं? क्या आप इस बैठक के माध्यम से यह नहीं देखना-समझना चाह रहे हैं कि पार्टी के कितने कार्यकर्ता आपके साथ हैं?
(हंसते हुए) फिलहाल, किसानों की जमीन तो नरेंद्र मोदी हड़पना चाहते हैं. और अगर हमारे पास कोई जमीन है जिसे नरेंद्र मोदी के ये नए संस्करण छीनना चाहते हैं तो उन्हें मुबारक. योगेंद्र यादव, आसमान से उतरे किसी हवा-हवाई नेता का नाम नहीं है. योगेंद्र यादव एक ऐसा नेता है जो 30 साल लंबी राजनीतिक यात्रा से बना है. उनकी अपनी जमीन है, हमें अपनी जमीन तलाशने की कतई जरूरत नहीं है. योगेंद्र यादव ने हरियाणा में झाड़ू को हर गली-मुहल्ले तक पहुंचा दिया है. जब पार्टी दिल्ली में योगेंद्र यादव को निकालने और रखने के लिए बैठक कर रही थी तो उस वक्त वो हरियाणा में किसानों के पक्ष में रैली कर रहे थे. इस रैली ने खट्टर सरकार के दांत खट्टे कर दिए हैं. और अगर ऐसा हुआ है तो इससे यह साबित होता है कि योगेंद्र यादव और उनके साथियों की जमीन सुरक्षित है. इसलिए हमें जमीन तलाशने की कोई जरूरत नहीं है.

आम आदमी पार्टी को सुधारने की बजाय आप लोग अपनी एक नई पार्टी क्यों नहीं बना रहे हैं? नई पार्टी के साथ लोगों के बीच जाने का कोई विचार है क्या?
हम पार्टी छोड़ने, तोड़ने और नई पार्टी बनाने के बारे में बिल्कुल भी नहीं सोच रहे हैं. वैसे भी यह सवाल हमसे नहीं श्री अरविंद केजरीवाल से पूछा जाना चाहिए. हमने तो अबतक एक बार भी नहीं कहा कि हम नई पार्टी बनाएंगे लेकिन वो दो बार कह चुके हैं कि अगर ये लोग पार्टी में रहे तो मैं अपने 67 विधायकों के साथ अलग पार्टी बना लूंगा. वो अलग पार्टी बनाना चाह रहे हैं. हम तो पार्टी में सुधार लाना चाहते हैं. हम तो पार्टी को अपने उन कार्यकर्ताओं की याद दिलाना चाहते हैं जिन्हें पार्टी भूल चुकी है. वैसे भी यह पार्टी न तो अरविंद केजरीवाल की है, न ही प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव की. यह देश की पार्टी है, जनता की पार्टी है. यह किसी एक व्यक्ति की पार्टी नहीं है. हां, फिलहाल पार्टी में कुछ ऐसे किराएदार आ गए हैं जो पार्टी में गलत जगहों पर फ्लैट पा गए हैं और अब ये लोग केवल गणेश वंदना करके मालिक बनना चाह रहे हैं. अब ऐसे किरायदारों को यह समझाना होगा कि वो मालिक नहीं बन सकते. हमें विश्वास है कि यह काम पार्टी का कार्यकर्ता कर लेगा. इस पार्टी के कार्यकर्ता बड़े शक्तिशाली हैं.

पार्टी के अरविंद गुट का मानना है कि चुनावी राजनीति आपलोगों के बस की बात नहीं है. पार्टी के नेता संजय सिंह ने तो साफ-साफ कहा कि आपलोग बंद कमरे में किताब पढ़ने और पढ़ाने वाले लोग हैं. क्या कहेंगे इस बारे में?
(हंसते हुए) यह बात तो सही है कि मैं लोकसभा का चुनाव हार चुका हूं. योगेंद्र यादव भी इस चुनाव में हार गए थे. मुझे भोजपुरी के एक गायक के खिलाफ लड़ना पड़ा था. फिर भी मुझे 4.5 लाख वोट मिले थे और मुझे लगता है कि यह छोटी बात नहीं है. इसमें कांग्रेस के प्रत्याशी की जमानत जब्त हो गई थी. अगर किसी को हमारी राजनीतिक यात्रा के बारे में शक हो और लगे कि हम किसी लायक नहीं हैं तो मैं उन्हें यह कह देना चाहता हूं कि हमने कई चुनाव ताल ठोककर लड़े हैं. जरा रायबरेली जाकर पूछ लें कि 1977 में क्या हुआ था. कोई यह भी देख ले कि 1989 में बनारस में क्या हुआ था. सारे तथ्य यहीं हैं, यह तो देखने-जानने की बात है. लेकिन यह जरूर है कि अभी-अभी राजनीति के कुछ दुधमुंहे बच्चों ने अभी-अभी अपना पहला शिकार किया है तो उन्हें लग रहा है कि उनसे पहले कोई नहीं था और उनके बाद भी कोई नहीं होगा. असल में यह अनुभवहीनता के आधार पर मूल्यांकन है और इसपर ज्यादा चर्चा करने की कोई जरूरत मैं नहीं समझता. जहां तक बात संजय सिंह की है तो वो इस लायक ही नहीं हैं कि मैं या कोई और उनके किसी बात का जवाब दे. संजय सिंह के पास अज्ञानता की बहुत बड़ी गठरी है.

तो क्या आप लोग संजय सिंह को यह साबित करके दिखाने का मन बना रहे हैं कि चुनाव लड़ भी सकते हैं और जीत भी सकते हैं?
इन्हें क्या साबित करना है. चुनाव जीतना तो एक लंबी प्रक्रिया का अंतिम चरण है. सबसे पहले विचार और कार्यक्रम का होना जरूरी है. इसके बाद एक संगठन चाहिए जो जनता के बीच जाकर ईमानदारी से काम करे. इसके बाद चुनाव होता है और जीत मिलती है. लेकिन आजकल कुछ लोग पैराशूट से उतरते हैं और पकी-पकाई खीर खा जाते हैं. दिल्ली में जो जीत आम आदमी पार्टी को मिली है वो कमोबेश ऐसी ही है. असली कार्यकर्ता पीछे छूट गए. वास्तविक नेता पीछे रह गए और बाहर से जो आए वो जीत गए और अब इस जीत को वे संभाल नहीं पा रहे हैं. हम वर्षों से सिद्धांत के लिए लड़ते आए हैं. आगे भी लड़ेंगे. जिन्हें जीत चाहिए उन्हें उनकी जीत मुबारक. हमें अपनी लड़ाई पर आज भी गर्व है.

एक आम धारणा यह भी है कि जब पार्टी पूर्ण बहुमत से चुनाव जीत गई और आप लोगों के साथ पावर शेयरिंग नहीं हुआ तो आपने विरोध करना शुरू कर दिया. अगर अरविंद इतने ही गलत और अलोकतांत्रिक थे तो क्या आप लोगों की जिम्मेदारी नहीं थी कि चुनाव से पहले दिल्ली की जनता को उनके बारे में बताते. 
आप शायद शिष्टाचार की वजह से ऐसा कह रहे हैं जबकि लोग तो पूछते हैं कि कहीं यह मलाई की लड़ाई तो नहीं है. सबसे पहले इसी पर बात करते हैं. जब मैं लोकसभा चुनाव हार गया और हम विधानसभा के लिए तैयारी कर रहे थे तो उन्होंने मुझे टिकट देने की बात की थी. तब मैंने पार्टी से कहा था कि मेरी उम्र 50 के पार हो चुकी है. मैं लोकसभा लड़ चुका हूं अगर मैं ही विधानसभा लड़ूंगा तो 25, 30 और 35 साल की उम्रवाले हमारे साथी क्या करेंगे. मैंने कहा था कि हम इन्हें टिकट दें. इसी तरह प्रशांत भूषण ने खुद पार्टी से कहा था कि वो पार्टी से जुड़े कानूनी पक्ष ही देखना चाहेंगे. योगेंद्र यादव ने भी पार्टी से अपने लिए कुछ मांगा हो ऐसा मुझे ज्ञात नहीं है. दूसरी बात आपने कही कि अगर पार्टी में ऐसी गड़बड़ियां पहले से थीं तो हमने जनता को क्यों नहीं बताया. हमने इन गड़बड़ियों को पार्टी के अंदर बार-बार उठाया. और आज इसी वजह से प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव के बारे में कहा जा रहा है कि उन्होंने दिल्ली चुनाव के वक्त पार्टी को हराने के लिए काम किया. जब पार्टी चुनाव के लिए जा रही थी तो ऐसे में पार्टी की गड़बड़ियों को सार्वजनिक करना हमें ठीक नहीं लगा. अगर यह अपराध है तो हमसब इसके लिए दोषी हैं.

अरविंद केजरीवाल ने अपनी गलती मानते हुए कहा है कि फोन पर जो अपशब्द उन्होंने आपके लिए इस्तेमाल किए थे वो आवेश में निकल गए थे आपकी इस बारे में प्रतिक्रिया.
खुशी है कि अरविंद ने यह तो माना कि वो निर्विकार नहीं हैं. यहां उन्हें पूरे नंबर मिलने चाहिए. उन्होंने मेरे लिए जो ‘विशेषण’ इस्तेमाल किया था वो बहुत हल्के किस्म का था और इसके लिए मैं उन्हें शुक्रिया कहूंगा. उन्होंने मेरे उपर कोई गंभीर राजनीतिक आरोप नहीं लगाया मेरे लिए यह बड़ी बात है. जो शब्द अरविंद ने मेरे लिए इस्तेमाल किया है उससे कहीं ज्यादा खराब शब्द तो नेहरू के साथियों ने राम मनोहर लोहिया के लिए इस्तेमाल किया था. जेपी को तो सीआईए का एजेंट तक बोला गया था.

कला की दुनिया में कलाबाजी

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22 मार्च को बिहार की राजधानी पटना में ‘बिहार दिवस’ की धूम थी. सालाना सरकारी जलसे में हर साल की तरह तामझाम के बीच बिहार का गौरवगान हुआ. इतिहास के पन्ने पलटकर सब गौरवान्वित हुए. ढेर सारे आयोजन हुए. बिहार की सांस्कृतिक विरासत को देश और दुनिया में अद्वितीय बताते हुए उसे और समृद्ध करने का संकल्प लिया गया. बिहार दिवस का आयोजन मूलतः शिक्षा विभाग करता है. हालांकि बिहार दिवस के ठीक पहले मैट्रिक की परीक्षा में घनघोर तरीके से हो रही नकल की तस्वीरों और उससे जुड़े किस्सों ने महोत्सव का मजा किरकिरा कर दिया. उस पर शिक्षा मंत्री का विवादित बयान कि नकल रोकने में सरकार अक्षम है, यह सरकार के बस की बात नहीं- के कारण पूरे शिक्षा विभाग की छिछालेदर हो गई. फिर भी बिहार का गौरवगान हुआ.

सुशासन और बिहारी अस्मिता तो इस आत्मगान के आवश्यक तत्व थे ही. लेकिन बिहार दिवस के खत्म होने और परीक्षा में चीटिंग के बाद सरकार के आत्ममुग्ध रवैये की हवा राजभाषा विभाग ने निकालनी शुरू की. इसने छिछालेदर के एक नये अध्याय की शुरुआत की. 24 मार्च को बिहार राजभाषा विभाग ने अपना पिटारा खोला और साहित्य में योगदान के लिए बिहार के सबसे प्रतिष्ठित सम्मानों की सूची जारी की. सर्वोच्च सम्मान डॉ राजेंद्र प्रसाद शिखर सम्मान के लिए डॉ राम परिमेंदु का नाम सामने आया. तीन लाख रुपये के इस सम्मान का नाम सामने आते ही लोग चौंक गये. रोज-ब-रोज साहित्य का अखाड़ा सजाने वाले बिहार में अधिकांश साहित्यानुरागियों के लिए यह नाम अनजान था. उसके बाद ढाई लाख रुपयेवाले बाबा साहब अंबेडकर सम्मान के लिए जेएनयू से संबद्ध रहे प्रसिद्ध व चर्चित रचनाकार दिवंगत डॉ. तुलसी राम का नाम सामने आया. इस नाम पर किसी को आपत्ति नहीं थी, हां कुछ लोगों को अफसोस था कि काश तुलसी राम को यह सम्मान उनके जीवित रहते ही मिल जाता. इसके आगे दो लाख और पचास हजार रुपयेवाले पुरस्कारों व सम्मानों के लिए 15 लोगों के नाम की सूची जारी हुई. कवि आलोक धन्वा, कर्मेंदु शिशिर, सुरेश कंटक, नंदकिशोर नंदन, गंगेश गुंजन, जाबिर हुसैन, रश्मि रेखा आदि के नाम इनमें शामिल रहे. इस सूची में एक आखिरी नाम सच्चिदानंद सिन्हा का भी था, जो मुजफ्फरपुर के गांव मनिका में रहते हैं. वह प्रख्यात समाजवादी चिंतक व मौलिक विचारक हैं. राजनीति और समाजवाद पर उन्होंने कई चर्चित किताबें लिखीं हैं. वे द इंटरनल कॉलोनी जैसी किताब के लेखक भी हैं. द इंटरनल कॉलोनी वही किताब है, जिसके जरिये सच्चिदानंद सिन्हा ने वर्षों पहले बिहार से होने वाले भेदभाव का मुद्दा उठाया था. उसी के आधार पर आज बिहार का हर नेता राष्ट्रीय स्तर पर अपने साथ होनेवाले भेदभाव को सामने रखता है और विशेष राज्य का दर्जा मांगता है. इस सूची में सबसे नीचे उनका नाम देखकर उन्हें जाननेवाले हैरत में थे और शर्मसार भी. सच्चिदानंद सिन्हा ने अपने नाम पर किसी भी किस्म का बवाल करने की गुंजाइश नहीं छोड़ी. उन्होंने साफ कह दिया कि, ‘मेरे नाम पर 50 हजार रुपये के फादर कामिल बुल्के पुरस्कार की घोषणा हुई है लेकिन मेरा हिंदी साहित्य से कोई सरोकार नहीं रहा है. सरकार साहित्याकारों की आजीविका की व्यवस्था करे. पुरस्कार या सम्मान देने से क्या होता है. सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि नौकरशाह साहित्यकारों के कृतित्व का आकलन कर पुरस्कार व सम्मान की सूची तैयार करते हैं.’

सच्चिदानंद सिन्हा ने अपने बयान के साथ तर्क का विवेक दिखाया. कर्मेंदु शिशिर ने भी सम्मान को लेने से मना कर दिया. लेकिन डॉ. परिमेंदु, जिन्हें सबसे बड़ा सम्मान देने की घोषणा हुई और जिनके नाम पर बवाल मचा और जो बिहार के साहित्यिक गलियारे में अनजान नायक की तरह यकायक भारी-भरकम दस्तक दे रहे हैं, उन्होंने दूसरा तर्क दिया. डॉ. परिमेंदु की एक पहचान यह रही है कि वे एक समय में बिहार विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष रहे थे और 1997 में ही सेवानिवृत्त हो चुके हैं. डॉ. परिमेंदु के मुताबिक वे न जाने कितने वर्षों से हिंदी और साहित्य की सेवा कर रहे हैं. उन्हें यह सम्मान बहुत विलंब से मिला है. डॉ. परिमेंदु के पक्ष में कुछ लोग उतरे लेकिन कोई भी उनकी साहित्य सेवा का सबूत नहीं जुटा सका. ऐसे ही कई और विवाद हुए, बवाल मचे लेकिन इसमें सबसे मजेदार, हास्यास्पद और भद्दे मजाक की तरह यह रहा कि इन पुरस्कारों अथवा सम्मानों के लिए जो चयन समिति थी, उस समिति को यह मालूम ही नहीं हो सका कि इस बार किसे यह सम्मान मिल रहा है.

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इस पुरस्कार के लिए चयन समिति के अध्यक्ष हिंदी के प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह हैं. जब नामवर सिंह से पूछा गया तो उन्होंने झटककर साफ कह दिया कि उन्हें नहीं मालूम कि किसे क्या मिल रहा है. निर्णायक मंडल के अध्यक्ष नामवर सिंह ने कहा कि उन्हें तो वह सूची भी नहीं दिखाई गई जिसमें इस बार के बिहार राजभाषा सम्मान पानेवालों के नाम शामिल थे. यह आरोप सिर्फ नामवर सिंह का ही नहीं है. निर्णायक मंडल में शामिल साहित्यकार व हाल ही में पद्मश्री से सम्मानित उषा किरण खान कहती हैं कि इस बार जिस डॉ. परिमेंदु को सबसे बड़ा सम्मान यानी डॉ. राजेंद्र प्रसाद शिखर सम्मान दिया जा रहा है, वे तो उन डॉ. परिमेंदु को जानती ही नहीं. उषा किरण खान कहती हैं कि एक अधिकारी ने बैठकर सारी सूची तैयार कर दी और सम्मान की घोषणा कर दी गई.

किसी अफसर ने यह सूची तैयार की या नहीं, यह तो पक्के तौर पर मालूम नहीं हो सका लेकिन इस मसले पर बिहार के अफसरों का जिस तरह का रवैया रहा, उससे इस बात के संकेत जरूर मिले कि गड़बड़ी हुई है. कैबिनेट सचिव बी प्रधान से बात हुई तो उन्होंने कहा, ‘अभी तक लिखित तौर पर यह मामला मेरे संज्ञान में नहीं आया है. अगर कोई शिकायत मुझे मिलती है तो देखेंगे.’ जब यही सवाल राजभाषा विभाग के निदेशक रामविलास पासवान के पास गया तो उनका टका-सा जवाब मिला, ‘सबको चिट्ठी भेजी जाएगी. जिनको सम्मान लेना हो ले, नहीं लेंगे तो भी कोई बात नहीं. पैसा ही बचेगा, जिससे जनहित में दूसरे काम होंगे.’ रामविलास पासवान का लापरवाह बयान किसी तानाशाह के गरूर जैसा है और यह बताने के लिए भी काफी है कि संस्कृति-साहित्य के इतिहास पर इतरानेवाले बिहार में फिलहाल साहित्य व साहित्यकारों की वखत कितनी बची हुई है. इस पूरे प्रसंग में दूसरे और भी कई सवाल हैं. संस्कृतिकर्मी और पत्रकार कमलेश जैसे लोगों ने यह सवाल उठाए कि सबसे दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि वामपंथी और प्रगतिशील कहनेवाले कई साहित्यकार इस पूरे प्रसंग पर कुछ बोल ही नहीं रहे.

खैर! सभी पुरस्कारों की घोषणा के बाद उठनेवाले विवादों की तरह यह विवाद भी जल्द ही शांत हो जाएगा. शिक्षा मंत्री पीके शाही और राजभाषा अधिकारी रामविलास पासवान परीक्षा में चीटिंग और राजभाषा पुरस्कारों के नाम पर बयान देकर नीतीश कुमार की किरकिरी करवा चुके हैं. संभव है कि नीतीश कुमार अपनी चिर परिचित शैली में चुप्पी साधे हुए निकल जाएं. लेकिन राजभाषा पुरस्कार पर जो बवाल हुआ, उससे दूसरे किस्म के सवाल जो उभरे हैं, वह बहुत गौर करने लायक हैं. अपनी साहित्यिक व सांस्कृतिक विरासत पर इतरानेवाले बिहार में आखिर साहित्य व संस्कृतिक की हैसियत कितनी बची हुई और नीतीश कुमार, जो साहित्यानुरागी और संस्कृतिप्रेमी मुख्यमंत्री माने जाते हैं, उन्होंने अपने शासनकाल में आखिर कौन से ऐसे प्रयास किए जिससे बिहार के गौरवमयी इतिहास में वर्तमान से भी कुछ स्थायी पन्ने जुटते. कुछ लोग यह कहते हैं कि नीतीश कुमार ने पटना में नया म्यूजियम बनाना शुरू किया है. यह उनकी बड़ी उपलब्धि है लेकिन अधिकांश लोग यह मानते हैं कि बिहार में नए म्यूजियम की खास जरूरत नहीं थी. नीतीश कुमार ने बड़े-बड़े प्रचार कर पवन वर्मा जैसे विदेश सेवा के अधिकारी को सांस्कृतिक सलाहकार बनाया था. पवन वर्मा ने बिहार में बड़े आयोजन करके अपना फर्ज निभाया. नामचीन लोगों को बिहार बुलाया. सबने बिहार के बदलाव का गान किया. बाद में पवन वर्मा जदयू के कोटे से राज्यसभा सांसद बन गए. यह अनुमान पहले से ही लगाया जा रहा था कि पवन वर्मा बिहार में अपने मकसद के साथ आए हैं और मकसद पूरा होने के बाद वे बिहार से विदा हो जाएंगे. वही हुआ.

बिहार राजभाषा विभाग ने साहित्य में योगदान के लिए सबसे प्रतिष्ठित सम्मानों की सूची जारी की. सूची में शामिल नामों के सामने आते ही लोग चौंक गए

नीतीश कुमार ने बिहार की संस्कृति में एक और नया अध्याय जोड़ा. भाजपा से अलगाव के बाद उन्होंने जब नए मंत्रिमंडल का गठन किया तो उसमें विनय बिहारी को संस्कृति मंत्रालय का जिम्मा थमा दिया. विनय बिहारी निर्दलीय विधायक हैं और वे बिहार में सतही भोजपुरी संगीत के लिए मशहूर रहे हैं. नीतीश कुमार ने उन्हें ही संस्कृति मंत्रालय का जिम्मा देते हुए मांझी को राजपाट सौंपा था. विनय बिहारी जितने दिन मंत्री रहे, अपने हिसाब से विभाग का बंटाधार करते रहे और बयान देते रहे कि इंटरनेट के कारण अश्लीलता बढ़ी है. हालांकि अब वही विनय बिहारी नीतीश से दगाकर मांझी खेमे के खेवनवहार बन गए हैं.

बात इतनी भर नहीं है. बिहार में कला-संस्कृति-साहित्य का क्या हाल है, इसे दूसरे तरीके से भी समझा जा सकता है. आज राजभाषा सम्मान के नाम पर विवाद हो रहा है लेकिन वहां एक राष्ट्रभाषा परिषद भी है, जहां दुर्लभ किताबों का संसार है. जिसकी लाइब्रेरी समृद्ध है. जहां से एक समय में न जाने कितने महत्वपूर्ण पुस्तकों का प्रकाशन हुआ लेकिन अब वह राष्ट्रभाषा परिषद आगे नाथ ना पीछे पगहा वाली हालत में है. वहां की न जाने कितनी किताबें गिलहरियां और दीमक कुतर चुके हैं. बिहार में एक हिंदी साहित्य सम्मेलन भी है, जिसका एक गौरवमयी इतिहास रहा है. वहां देश के चर्चित रचनाकार आते रहे हैं. इसकी स्थापना डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने की थी. वह बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन पिछले दो सालों से आपसी वर्चस्व का अखाड़ा बना हुआ है. इस टकराव के एक छोर पर अनिल सुलभ जैसे लोग हैं, जो कांग्रेस से ताल्लुक रखते हैं, पटना में अपना संस्थान चलाते हैं और दूसरे छोर पर अजय कुमार जैसे बाहुबली हैं जो उस पर किसी तरह कब्जा रखना चाहते हैं.

यह अध्याय यहीं बंद नहीं होता. बिहार में संस्कृति के नाम पर स्मारिकाओं का प्रकाशन तो खूब हुआ, पटना में तरह-तरह के आयोजन भी हुए. बिहारी अस्मिता के नाम पर जन संस्कृति से जुड़ी कितनी किताबों को प्रकाशित किया गया और फिर उसे लाइब्रेरियों में कैद कर रख दिया गया. तीन साल पहले बिहार में सरकार ने बिहार के दो प्रमुख नेताओं डॉ. श्रीकृष्ण सिंह और अनुग्रह नारायण सिन्हा की 125वीं जयंती मनायी थी. संयोग से वही साल बिहारी अस्मिता के एक बड़े नायक, रंगकर्मी और नाटककार भिखारी ठाकुर की 125वीं जयंती का वर्ष भी था. न जाने कितनी बार, न जाने कितने संगठन भिखारी ठाकुर की 125वीं जयंती उसी तरह से मनाने की मांग कर रहे थे, लेकिन सरकार की नजर में भिखारी उतने महत्वपूर्ण नहीं बन सके. ऐसे ही कई अबूझ और शर्मिंदगी भरे किस्से हैं बिहार के साहित्य जगत के. कला की दुनिया में कलाबाजी के.

‘हिंदी में यूरोपीय साहित्य से बेहतर लिखा गया है’

bhaalchandraआपके उपन्यास का शीर्षक  ‘हिंदू : जीने का समृद्ध कबाड़’  में  ‘जीने का…’  के पीछे क्या दर्शन है?

देखिये, ‘कबाड़’ घर का एक हिस्सा होता है, जो दिन-ब-दिन  जमा होता जाता है. आज इस्तेमाल में न आनेवाली सारी चीजें हम फेंक नहीं देते हैं. दादाजी की लाठी हो, दादी का संदूक हो, बचपन में बहन की मरी हुई गुिड़या हो या भाई की गेंद हो, इन्हें बेकार की वस्तुएं मानकर हम फेंक नहीं देते हैं. आज के आधुनिक और व्यक्तवादी परिवेश में छोटे से छोटे होते परिवार और समाज में जो ‘बेकार’ का है, वह सब फेंक देने की प्रवृत्ति स्वयं को उन्नत समझने की निशानी समझी जाती है. इस संस्कृति में दादाजी और दादीजी को भी फेंक देना उन्नति का लक्षण समझा जा सकता है.  कबाड़ ही सही, पर परंपरा को एक मूल्य के रूप में सहेजे रखना- चाहे पुराना ही क्यों न हो, जो-जो भीतर आया,  वह हमारा हुआ, उसे समाहित करके, चाहे उसके लिए तहखाने में, परछत्ती पर जहां जगह मिले, वहीं सम्भाले रखना. सिंधु संस्कृति से भी पहले से हमारी यही परंपरा रही है. हमारी संस्कृति में सब कुछ हमारा अपना हो जाता है इसलिए सब सम्भालकर रखा हुआ है. मुंडा, तिबेटोबर्मन, आदिवासी, नागा, द्राविड़ी, आर्य, ग्रीक, शक, तुर्की, अरबी, मुगल और अंत में पुर्तगीज तथा एंग्लो इंडियन तक का सारा कबाड़ हमने बड़े प्यार से तहखाने में सम्भालकर रखा है और यह मनुष्य समाज में हिंदू संस्कृति की एक अनुपम विशिष्टता है. अभी भी पूरे देश के गांव-गांव में अनेक जीवन-पद्धतियां, मूल्य, आचार-विचार, खानपान, पहनावे की विभिन्न शैलियां, रीति-रिवाज, भाषा, संप्रदाय, वांशिक प्रथाएं, लोक साहित्य, लोक संगीत आदि जिंदा है. इस कारण ‘हिंदू’ शब्द भी अधिकांशतः बहुवचन में प्रयुक्त होता रहा है.

मनुस्मृति में स्त्रियों और शूद्रों के बारे में बहुत  अनाप-शनाप लिखा गया है तो क्या हिंदू धर्म के इस कबाड़ को सम्भालकर रखा जा सकता है?

मनुस्मृति में लिखी गई बातें हमारे काम की नहीं हो सकती हैं लेकिन उसे इसलिए सम्भालकर रखना चाहिए ताकि आप अगली पीढ़ी को यह बतला सकें कि हमारे ग्रंथों में निकम्मेपन के सबूत मौजूद हैं. उस समय के समाज के बारे में यदि अध्ययन करना हो तो फिर मनुस्मृति की जरूरत तो पड़ेगी न. आठ तरह के विवाह उस समय होते थे, यह मनुस्मृति से ही पता चलेगा.

पर इस समय तो  ‘हिंदुत्व’  और   ‘हिंदू’  का मतलब कम से कम व्यवहार में तो कुछ और ही नज़र आ रहा है?

इस बहुआयामी शब्द ‘हिंदू’ को अंग्रेजों के बाद संकुचित और जातीय अर्थ प्राप्त हुआ. इस कारण ‘भारतीयत्व’ और ‘हिंदुत्व’ परस्पर विरोधी अवधारणाएं प्रतीत होने लगी हैं, जिसका मुझे बहुत दुख है. दरअसल, ये दोनों अवधारणाएं परस्पर समानार्थी हैं. भारतीय उपमहाद्वीप के लिए ‘हिंदुस्तान’ शब्द मुसलमान सहित सभी संप्रदाय के लोगों द्वारा लगातार प्रयोग में लाया जाता रहा है, जो सर्वाधिक सार्थक है. हमारे संविधान में अंग्रेजी में ‘इंडिया’ शब्द का प्रयोग किया गया है. इस उपमहाद्वीप के मेलुहा, भारतवर्ष, आर्यदेश, जम्बूद्वीप, हिमवर्ष, हैमवत, सनातन आदि न्यूनाधिक व्याप्ति के आधार पर दिए गए नाम सर्वसम्मत नहीं बन सके. जरा-सा ध्वनि परिवर्तन से ‘हिंद’ (पश्चिम और मध्य एशिया), ‘इंटू’ (चीन), ‘इंडो’ (यूरोप) आदि शब्द इस उपमहाद्वीप के संलग्न भूभाग और एक स्वायत्त संस्कृति के लिए प्रयुक्त किए जाते हैं. अब ‘हिंदू’ और ‘भारत’ ये दोनों संज्ञाएं भी परस्पर व्यापक अर्थ प्रकट करती हैं. ‘हिन्दू’ प्राचीन सांस्कृतिक परंपरा के लिए और ‘भारत’ स्वाधीनोत्तर 66 सालों की एक राजनीतिक इकाई के लिए.

बहुवचनी  ‘हिंदू’  संस्कृति क्या एकवचनी हो गई है? इसे समझना चाहूंगा?

‘हिंदू’ संस्कृति, हमारे देश की विविधता- भाषा, रीति-रिवाज, मूल्य, धर्म, संस्कार आदि का यह समृद्ध पक्ष कैसे तैयार हुआ और इस व्यवस्था के पीछे क्या स्ट्रक्चर है, क्या सिद्धांत हैं, इसे मालूम करना हमारा कर्तव्य है. हमें इसकी जड़ें तलाशने के लिए भूतकाल में जाना होगा.  इसी कारण ‘हिंदू’ उपन्यास में मोहनजोदड़ो युग के ईसा पूर्व 3000 के एक अद्भुत प्रसंग को शामिल किया गया हैै. भूतकालीन महानगरीय लोग नायक को कोड वर्ड बताए बिना भीतर नहीं आने देते थे. उस नायक की तरह हमारा भी कोड वर्ड है ‘बहुवचन भूतकाल’. मुझे लगता है यही हमारी हिंदू संस्कृति की पहचान है. यह बहुवचन भूतकाल एक बार समझ में आ जाए तो हमें अपनी संस्कृति को समझने में कोई दिक्कत नहीं आती है. बहुवचन भूतकाल यानी हमारी जाे विविधताएं हैं, वे सारी की सारी बहुवचनी हैं. हमारे यहां अनेक जातियां, अनेक जनजातियां, अनेक रिश्ते, कई प्रकार की फसलें, खानपान हैं. हम तो गाय, बैल, सूअर, मोर, बकरे और यहां तक कि कुत्तों का भी खाद्य के रूप में इस्तेमाल करते हैं. यह संस्कृति का बहुवचनी रूप है. कपड़ों के मामले में भी अनेक पद्धतियां हैं. पूरी तरह नंगा रहने से लेकर सूट पहनने तक, सभी प्रकार के लोग हमारे यहां हैं. एकवचन कहीं भी नहीं है. भाषा और धर्म के मामले भी एकवचन नहीं हैं. हम बहुवचनी संस्कृति को भूलते जा रहे हैं इसलिए सांस्कृतिक कट्टरवाद बढ़ रहा हैै. हमारे यहां हिंदू -मुसलमानों में जो दरार पैदा हुई, वह इसी कायर उग्र एकवचन के कारण हुई है. यदि हम बहुवचनी बने रहते तो यह पार्टीशन होना संभव ही नहीं था. क्योंकि बहुवचन से ही सभी लोग हमारे अपने और हम सभी उनके, की भावना बनती है. काबुल-अफगानिस्तान से लेकर तमिलनाडु और असम और उससे ऊपर तक हमारी संस्कृति फैली हुई है. हमने उसे बिसरा दिया है. इसके चलते इस विविधता को बरकरार रख पाना और इसके ह्रास के लिए उत्तरदायी उग्र विचारों को समाप्त करना आवश्यक है. साथ ही हमारे यहां स्त्रीत्व का जो घोर अपमान हुआ है, उसे दूरकर दुबारा मातृसत्ता की स्थापना करना जरूरी है.

बहुवचनी हिंदुत्व का रेशा कब और कैसे बिखरने लगा?

अंग्रेजों के जमाने में मैकाले की अंग्रेजी शिक्षा नीति लागू होने के बाद और खासकर 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन के बाद हमारी बहुवचनीय हिंदू भारतीयता की विविधता की बुनावट बिखरती हुई नजर आती है. गौड़पाल बौद्ध पंडित के शिष्य शंकराचार्य ने अद्वैतवाद को प्रतिपादित किया. गुरु नानकदेव के अनुयायी हिंदू और मुसलमान दोनों ही हैं. संत एकनाथ और तुकाराम की गुरु परम्परा सूफी रही है. वराकरी संप्रदाय में मुसलमान संतों की पूजा होती है. रामानंद का शिष्य कबीर और कबीर के हिंदू और मुसलमान शिष्य भी इस महाद्वीप में एक साथ रहते हैं. सांस्कृतिक समन्वय और समरसता की बातें हमारे यहां बहुत लंबे समय से चली आ रही हैं. परंतु 100-150 सालों में हमारा यह तेजस्वी इतिहास एकवचनीय, एकांगी और असहिष्णु होता जा रहा है. धार्मिक समुदायों का काल्पनिक एकधर्मीय केंद्रीकरण होकर उनके राजनीतिक चुनाव के क्षेत्र बन गए हैं. सन 1861 से जनगणना शुरू कर अंग्रेजों ने यहां की लचीली, लगातार परिवर्तनशील जाति-व्यवस्था को स्थिर करके उसे कट्टर, कर्मठ तथा अहंकारी ‘कास्ट’ सिस्टम में परिवर्तित कर दिया. इससे हर जनगणना में नई-नई ‘मेजोरिटी’ जातियां उत्पन्न होने लगीं और इस प्रकार उन्होंने अल्पसंख्यक बहुविविधता के परंपरागत महत्व को समाप्त कर दिया. आगे चलकर धार्मिक समस्याओं पर कठोरतापूर्वक तर्क करनेवाले बुद्धिजीवी भी अस्त होते गए. ‘काबा मेरे पीछे है कलीसा मेरे आगे’ जैसी भाषा का प्रयोग करनेवाले या ‘काबा-ओ-बुतकदा यक महमिल-ए-ख्वाब-ए-संगी (मस्जिद क्या, मंदिर क्या- दोनों को ढंकनेवाली एक नकाब है). इस तरह एकवचनीयता की कड़ी आलोचना करनेवाले हिन्दुस्तानी जनता के लिए गालिब जैसे सारे पूजनीय महाकवि लुप्त हो रहे हैं और पूरे उपमहाद्वीप में फासिस्ट प्रवृत्तियां लहलहा उठीं हैं.

एकवचनीय संस्कृति कहां से आई है?

1930 के दशक में अंग्रेजी शिक्षा से प्रेरित वर्णवर्चस्ववादी ब्राह्मण आदि जातियों ने काल्पनिकता से एक राष्ट्र, एक धर्म, एक चर्च की हिटलरवादी प्रकृति जैसा एक काल्पनिक हिंदुत्ववाद संगठित किया है. इसकी प्रतिक्रिया में पश्चिमी संस्कृति से प्रभावित होकर इसी प्रवृत्ति के कट्टर इस्लामपंथियों ने देशीय परम्पराओं का त्याग किया और देश विभाजन करवाया. इस ध्रुवीकरण के चलते भारतीय उपमहाद्वीप में सहिष्णु परंपरा का पूर्ण लोप हो गया और हिंसक धर्मयुग शुरू हो गया. हिंदू, मुसलमान, सिख सभी का अमानवीयकरण हुआ है. मेजोरिटी-माइनॉरिटी की मूल्य व्यवस्था लागू होने के कारण अनेकवचनीय भारतीय िंहंदू विविधता कबाड़ में चली गई. मसलन ‘अधिक हिंदू पैदा कीजिए’ या ‘भगवदगीता को राष्ट्रीय ग्रंथ’ माना जाए आदि-इत्यादि.

महाराष्ट्र में हिंदी बहुत ज्यादा पढ़ी जाती है. गालिब की सीडी महाराष्ट्र में पान की दुकानों तक में सुनी जाती है. मैंने गालिब को एक पानवाले से सीखा-समझा है

हिंदी पाठक अगर मराठी साहित्य के किसी साहित्यकार को पढ़ना चाहें तो आप किसका नाम लेना चाहेंगे?

मराठी में 1०-2० लोग तो  ऐसे हैं ही जो बहुत अच्छा लिख रहे हैं. रंगनाथ पठारे, राजन गवस, महेंद्र यादव, सदानंद देशमुख, गणेश आवटे आदि हैं.

हिंदी में किनका लेखन आपको अच्छा लगता है?

नागार्जुन, उदय प्रकाश, शरद जोशी, शेखर जोशी, विनोद कुमार शुक्ल, श्रीलाल शुक्ल सहित कई हिंदी लेखक हैं जो मुझे बहुत पसंद हैं. इनकी शैली बहुत अच्छी है और सच तो यह है कि इतना अच्छा अंग्रेजी में भी नहीं लिखा गया है.

 आप हिंदी लेखन के बारे में कह रहे हैं कि ऐसा साहित्य अंग्रेजी में नहीं लिखा गया है. आपको ऐसा क्यों लगता है?

मैं यूरोप का साहित्य बहुत पढ़ता रहता हूं. हिंदी साहित्य के लेखकों ने उपनिवेशवाद का चोला बहुत जल्दी खुद के ऊपर से उतार फेंका है. अमेरिका को दो सौ साल लगे. ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका, कनाडा को बहुत समय लगा. हिंदी के लोग अपनी जड़ें ढूंढते रहते हैं. आप देहात में रहते हैं तो देहात की लिखिए. यूरोप में यथार्थवाद चल रहा है कि संकेतवाद, यह सब उनपर छोड़ दीजिए. हमारे यहां के लेखक हमेशा अपनी जमीन के बारे में ही सोचते और उसके बारे में रचते रहते हैं. हिंदी ने गालिब, मीर, इकबाल सबको अपना कहा है.

हिंदी ने उर्दू, फारसी, बंगाली या फिर उसके आसपास जो भाषाएं व्यवहार में लाई जाती हैं, सबको अपने साथ कर लिया है?

यह आज नहीं हुआ है, ऐसा बहुत पहले से ही होता आया है. महाराष्ट्र में हिंदी बहुत ज्यादा पढ़ी जाती है. गालिब की सीडी महाराष्ट्र के पान दुकानों में सुनी जाती है. मैंने गालिब एक पान वाले सीखा.

‘हमने चुनाव में जनता से किए गए हर वादे को पूरा किया है’

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आपकी सरकार ने हाल ही में उत्तर प्रदेश में तीन साल पूरे किए हैं. अपने प्रदर्शन को आप 10 में से कितने नंबर देंगे?

सरकार का प्रदर्शन 10 में से 10 अंकों वाला रहा है. लेकिन मुझे लगता है कि हममें सुधार की गुंजाइश है. 2012 में सत्ता में आने के बाद मेरी सरकार ने राज्य के समेकित विकास के लिए एक योजना बनाई थी, जिसका फायदा समाज के सभी तबकों को मिला. लंबे समय से विकास की पटरी से उतरे हुए राज्य को हमने विकास के पथ पर लाने के लिए प्रयास किया है. हमारी पूर्ववर्ती सरकार के समय शासन प्रणाली पूरी तरह से ध्वस्त हो गई थी. स्वास्थ्य सुविधाएं बुरी दशा में थीं, राज्य के ग्रामीण और शहरी इलाकों में बिजली का घनघोर संकट था. पिछली सरकार ने इन क्षेत्रों में किसी तरह के विकास या सुधार का कोई प्रयास ही नहीं किया. सपा सरकार ने किसानों, मजदूरों, पिछड़ों, महिलाओं, अल्पसंख्यकों, छात्रों, छोटे व्यापारियों और ग्रामीणों पर अपना ध्यान केंद्रित किया है. शिक्षा पर खास ध्यान रखते हुए लड़कियों की पढ़ाई को प्रोत्साहन दिया है. इस संबंध में किए गए हमारे दावों को आंकड़ों के जरिए समझा जा सकता है. सपा सरकार के पहले वर्ष यानी 2012-13 में देश की विकास दर 4.5 प्रतिशत की तुलना में राज्य ने 5.8 प्रतिशत की विकास दर दर्ज की. इसी तरह 2013-14 में देश की 4.7 प्रतिशत की तुलना में उत्तर प्रदेश की विकास दर पांच फीसदी थी. 2014-15 की पहली दो तिमाहियों में उत्तर प्रदेश की विकास दर 6.3 प्रतिशत और 5.4 प्रतिशत रही, जबकि इसी दौरान देश की विकास दर 5.7 और 5.3 फीसदी रही. 2014-15 में उत्तर प्रदेश की विकास दर 6 फीसदी के आसपास रहने की उम्मीद है. इस साल फरवरी में एसोचेम की ओर से जारी बुकलेट ‘उत्तर प्रदेश इंचिंग टूवर्ड्स डबल डिजिट ग्रोथ’ के अनुसार 2012-13 और 2013-14 में प्रदेश की विकास दर देश की तुलना में बेहतर थी.

सूबे की कानून व्यवस्था हमेशा से ही चिंता का विषय रही है. आपके सत्ता संभालने के बाद भी यहां दंगे और दुर्घटनाएं देखने को मिलीं. ऐसा क्यों हुआ? कानून व्यवस्था में सुधार से जुड़ी उपलब्धियां क्या रही हैं?

उत्तर प्रदेश में जब भी सपा की सरकार आती है, कानून-व्यवस्था की स्थिति बढ़ा-चढ़ा कर अति संवेदनशील बतायी जाती है. यहां तक कि छोटी-सी घटना को भी बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है. बदायूं की घटना इसका सटीक उदाहरण है. कुछ शरारती तत्व समाज में अशांति फैलाने की ताक में हमेशा लगे ही रहते हैं. इस बार भी ऐसा ही हुआ. हमारी सरकार की छवि खराब करने के लिए कुछ लोगों ने सुनियोजित तरीके से गड़बड़ियां फैलाई. आप इस बात की तारीफ करेंगे कि हमारी पुलिस खराब परिस्थितियों में भी अपना काम बखूबी करती रही. जब पुलिस अच्छा काम करती है तब भी उसकी तारीफ मुश्किल से की जाती है. राज्य में कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए सरकार ने पुलिस को पूरा समर्थन दे रखा है. एक समस्या राज्य में पुलिसकर्मियों की कमी की है. इसे पूरा करने के लिए सरकार लगातार प्रयासरत है. इसके अलावा हम पुलिस फोर्स के नवीनीकरण पर भी ध्यान केंद्रित कर रहे हैं. इससे हालात और सुधरेंगे.

उत्तर प्रदेश में ऐतिहासिक पर्यटक स्थलों की बहुतायत है. इसके बावजूद ऐसा सुनने में आता है कि इन पर्यटक स्थलों की दशा बहुत अच्छी नहीं हैं. इस दिशा में क्या प्रयास हो रहे हैं?

आप ने सही कहा, यहां टाइगर रिजर्व और पक्षी अभयारण्य भी हैं इसके अलावा आगरा, लखनऊ, वाराणसी, इलाहाबाद, मथुरा, कन्नौज, फतेहपुर सीकरी और सारनाथ जैसे पुरातन शहर हैं. इसका मतलब प्रदेश में पर्यटकों के लिए काफी कुछ है. प्रदेश में धार्मिक पर्यटन के कई विकल्प हैं. तमाम ऐतिहासिक स्थल जैसे- कलिंजर किला, झांसी का किला, लखनऊ की भूल-भुलैया, वाराणसी के घाट और इलाहाबाद में संगम आदि भी अंतरराष्ट्रीय फलक पर ख्याति प्राप्त हैं. सरकार ईको-टूरिज्म को बढ़ावा देने के लिए इटावा में लायन सफारी और लायन ब्रीडिंग सेंटर विकसित कर रही है. पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए ‘हेरिटेज आर्क’ विकसित करने की भी योजना है. उत्तर-पश्चिम से दक्षिण पूर्व की ओर जाने के दौरान इस आर्क पर तीन महान शहरों आगरा, लखनऊ और वाराणसी की यात्रा की जा सकती है. इसके अलावा रास्ते में कई दूसरे स्थलों का भी दौरा किया जा सकेगा. विमान, रेल और सड़क मार्ग से इस ‘हेरिटेज आर्क’ का सफर इतिहास, आध्यात्म, कला और प्रकृति का कभी न भूलनेवाला अनुभव कराएगा. पर्यटन और इससे जुड़े उद्योग को बढ़ावा देना के लिए सरकार और कोशिश करेगी ताकि युवाओं को रोजगार मुहैया किया जा सके. सरकार का लक्ष्य है कि पर्यटन को उद्योग के रूप में बढ़ावा देने के लिए लोगों को जोड़ा जाए. हाल ही में सरकार ने ‘माई आगरा कैम्पेन’ का सफलतापूर्वक आयोजन कराया है. कुशीनगर में ‘मैत्रेय परियोजना’ को पुनर्जीवित किया गया है ताकि पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी पर्यटक पहुंच सकें. इससे इस क्षेत्र का आर्थिक विकास सुनिश्चित हो सकेगा. विश्व बैंक की ओर से सहायता प्राप्त ‘प्रो-पूअर टूरिज्म डेवलपमेंट’ परियोजना के जरिए दो प्रमुख पर्यटन गलियारों- आगरा-ब्रज कॉरिडोर और बौद्ध परिपथ पर जरूरी सुविधाएं मुहैया कराई गई हैं. विदेशी पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए कुशीनगर में अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे का निर्माण किया जा रहा है. इसके अलावा पर्यटकों की सुविधा के लिए लखनऊ, इलाहाबाद, वाराणसी और आगरा जैसे महत्वपूर्ण पर्यटक स्थलों को विमान सेवा से जोड़ा जाएगा. हमने विरासत पर्यटन नीति लागू की है, जिसके तहत विरासत से जुड़ी संपत्तियों को होटल में तब्दील किया जा सकेगा. बुंदेलखंड परिपथ को भी विकसित किया जाएगा.

एक राज्य के विकास के लिए सबसे जरूरी है बुनियादी ढांचे का विकास. सड़क और बिजली जैसी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए सरकार क्या कर रही है?

सड़क और बिजली के अलावा राज्य सरकार का  स्टेडियम, पार्क, सुपर स्पेश्यलिटी अस्पताल, कैंसर अस्पताल, आईआईआईटी, आईटी पार्क जैसे बुनियादी ढांचे के विकास पर ध्यान केंद्रित किए हुए है. लखनऊ में एक विश्वस्तरीय क्रिकेट स्टेडियम का निर्माण भी जारी है इससे प्रदेश में खेल और खिलाड़ियों के लिए माहौल बनेगा. यह राज्य के बुनियादी ढांचे के विकास में बड़ा योगदान होगा. इसके अलावा उन्नाव में ट्रांस गंगा हाईटेक सिटी और लखनऊ मेट्रो रेल परियोजना बुनियादी ढांचे को बढ़ावा देने की सपा सरकार की प्रतिबद्धता के उदाहरण हैं. मेट्रो रेल सेवा को चार दूसरे शहरों- आगरा, कानपुर, वाराणसी और मेरठ में भी शुरू करने का निर्णय लिया गया है.

अखिलेश यादव की वे कौन सी योजनाएं हैं जिनका प्रदेश के विकास पर दूरगामी असर हो सकता है?

लखनऊ मेट्रो रेल, लखनऊ के बाहर सीजी (चक गंजारिया) सिटी योजना, आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे और कैंसर अस्पताल हमारी सरकार के दौरान शुरू हुई कुछ ऐसी योजनाएं हैं जिन्हें लोग लंबे समय तक याद रखेंगे.

आपने शुरुआत में शिक्षा और महिलाओं की शिक्षा का जिक्र किया. हमने देखा कि सरकार ने बालिकाओं के लिए चलाई जा रही कुछ योजनाओं को बंद कर दिया था ऐसा क्यों करना पड़ा. बालिकाओं की शिक्षा को लेकर आगे की योजना क्या है?

सरकार इस बात में यकीन करती है कि किसी भी समाज या राज्य की सफलता, समृद्धि और विकास की कुंजी उसकी शिक्षा में है. शिक्षा के बिना हम विकास के लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकते. चाहे वह एक इकाई का हो या फिर पूरे समाज का. सत्ता में आने के बाद मेरी सरकार ने लड़कियों की उच्च शिक्षा को प्रोत्साहन देने के लिए ‘कन्या विद्या धन योजना’ को पुनर्जीवित किया है. इसके अलावा ‘हमारी बेटी, उसका कल’ और ‘पढ़ें बेटियां, बढ़ें बेटियां’ जैसी योजनाएं लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए शुरू की गई थीं. वित्त वर्ष 2015-16 में कन्या विद्या धन योजना के तहत 300 करोड़ रुपये की राशि सुनिश्चित की गई है. साथ ही कॉलेजों में लड़कियों के हॉस्टल के लिए 244 करोड़ रुपये की व्यवस्था भी सरकार ने की है. छात्र-छात्राओं को अच्छी शिक्षा दिलवाना सरकार के सबसे महत्वपूर्ण एजेंडे में है.

आपने छात्र-छात्राओं को लैपटॉप देना शुरू किया था, बाद में वह योजना बंद हो गई. क्या इससे आपके शिक्षा के उद्देश्य पूरे हुए?

हां, यह उत्तर प्रदेश में ही नहीं देश-भर की सबसे सफल और प्रसिद्ध योजनाओं में से एक रही. सरकार ने इस बात का ध्यान रखा कि बिना किसी भेदभाव के 15 लाख लैपटॉप छात्र-छात्राओं को मिल सके. मुफ्त में लैपटॉप देने से ग्रामीण और आर्थिक रूप से पिछड़े छात्र-छात्राओं को अपना भविष्य बेहतर बनाने का अवसर मिला है. इससे न सिर्फ उनका आत्मविश्वास बढ़ा बल्कि तकनीक के प्रति उनका डर भी खत्म हुआ है. आप उत्तर प्रदेश के किसी भी गांव में जाकर यह देख सकते हैं कि इस योजना ने छात्र-छात्राओं में कितने सकारात्मक बदलाव किए हैं. इसने उनका जीवन बदल दिया है. यह योजना डिजिटल विभाजन को पाटने के काम में सफल रही. अब उनके लिए अनंत संभावनाएं हैं. आप उनके चेहरे पर खुशी देख सकते हैं. जानकारी के लिए मैं बता दूं कि यह योजना बंद नहीं हुई है. हमारी सरकार मेधावी छात्र-छात्राओं को नि:शुल्क लैपटॉप दे रही है.

किसी भी सरकार के लिए ग्रामीण इलाकों में शौचालय बनवाना चुनौतीपूर्ण रहा है. उत्तर प्रदेश सरकार इस चुनौती से कैसे निपट रही है?

आपकी बात से हम सहमत हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय बनवाने के लिए हम प्रयास कर रहे हैं. शौचालय बनाने की सीमा 10 से बढ़ाकर 12 हजार रुपए कर दी गई है. वर्ष 2015-16 के बजट में इसके लिए हमने 1,533 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं. इसी तरह, ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालय के साथ बाथरूम बनवाने की पायलट परियोजना के लिए 16 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं. मैं विश्वास दिलाता हूं कि मेरी सरकार इस समस्या से निपटने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेगी. हमारा नारा है ‘साफ और हरित उत्तर प्रदेश’.

आपने हाल ही में कई इंवेस्टर्स मीट का आयोजन किया है. ये प्रयास किस हद तक सफल हुए हैं? क्या इससे प्रदेश के बेरोजगार युवाओं को रोजगार मिलेगा?

उत्तर प्रदेश में निवेश को बढ़ावा देने के लिए मैंने कई स्तरों पर प्रयास किया है. इस रणनीति के तहत हमने आगरा में इंवेस्टर्स मीट और नई दिल्ली में उत्तर प्रदेश इंवेस्टर्स कॉन्क्लेव कराया. दिल्ली में हुए आयोजन में 54 हजार करोड़ रुपये के एमओयू पर हस्ताक्षर हुए हैं. इसके अलावा सरकार बिजली उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए गंभीर प्रयास कर रही है, क्योंकि बिना इसके राज्य में उद्योग पनप नहीं सकते. इसके अलावा राज्य में निवेश को बढ़ावा देने के लिए बुनियादी सुविधाओं की भी जरूरत है. आगरा-लखनऊ एक्सप्रेस-वे जैसी महत्वपूर्ण परियोजना जल्द ही साकार रूप ले लेगी. 15 हजार करोड़ रुपये की इस योजना से आगरा और लखनऊ के बीच सफर का समय काफी कम हो जाएगा. यह योजना एक्सप्रेस-वे के साथ उद्योगों की स्थापना को बढ़ावा देगी. इसलिए आनेवाले वर्षों में रोजगार के कई सारे अवसर उपलब्ध होंगे. इसके अलावा बेहतर कनेक्टिविटी के लिए सभी जिला मुख्यालयों को चार लेन की सड़क से जोड़ा जा रहा है. लखनऊ में एक आईटी सिटी विकसित की जा रही है, जो प्रदेश की राजधानी को एक आदर्श आईटी हब के रूप में बदल देगा. इससे रोजगार के तमाम अवसर मुहैया होंगे क्योंकि राज्य में उद्यमी अपने आईटी उद्यम लगाएंगे. वास्तव में एचसीएल, इंफोसिस और अमूल ने पहले से ही यहां निवेश कर रखा है. इसके अलावा टाइम्स ग्रुप 600 करोड़ रुपये के निवेश के साथ ग्रेटर नोएडा में एक विश्वविद्यालय स्थापित कर रहा है.

बेमौसम बारिश बर्बाद किसान

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उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर जिले के कैलेना गांव में किसानों के चेहरे अपनी बर्बाद फसल देखकर मुरझा गए हैं. गांव के सीमांत किसान वीरपाल सिंह ने अपना दर्द जाहिर करते हुए बताया, ‘ऐसा महसूस हो रहा है जैसे मेरे दोनों हाथ और पैर कट गए हैं.’ गांव के कमजोर दिख रहे अधिकांश किसानों की आवाज उनके गले में ही दबकर रह जा रही है. उनकी लाचारी को साफ तौर पर देखा और समझा जा सकता है. उम्र के छठे दशक में पहुंच चुके वीरपाल की तरह भारत के सबसे ज्यादा आबादीवाले प्रदेश का हर सीमांत किसान निराशा और अलगाव के भंवर में डूबता नजर आ रहा है. एक हाथ सिर पर रखकर पालथी मारे बैठे वीरपाल का बीड़ी का कश मारना उनकी दयनीय स्थिति को दर्शा रहा था. वह सवाल उठाते हैं, ‘अब मुझे क्यों जीना चाहिए? अब मैं कैसे िजऊंगा?’

पश्चिम उत्तर प्रदेश के कई गांवों का दौरा करने के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि वीरपाल की ओर से उठाए गए सवाल इस कृषि क्षेत्र के ज्यादातर  किसानों के सवाल का प्रतिनिधित्व करते हैं. अखिल भारतीय किसान सभा (एआईकेएस) के जिला सचिव और किसान जगवीर सिंह कहते हैं, ‘बारिश और ओलावृष्टि ने किसानों की आजीविका की कमर तोड़ कर रख दी है. अधिकांश फसलें बर्बाद हो चुकी हैं. यही नहीं केंद्र और राज्य सरकार की कमजोर नीतियों के चलते किसानों को सही मुआवजा मिलने की उम्मीद भी कम ही नजर आ रही है. वे अथाह संकट में डूबे हुए हैं और ओलावृष्टि ने उनकी मुश्किलों को बढ़ा दिया है.’

वीरपाल की जिंदगी दरअसल वैश्विक जलवायु परिवर्तन के कारण किसानों पर गहराते संकट का एक जीता जागता उदाहरण है. लगातार बर्बाद होती फसल और दामों में आते उतार-चढ़ाव के कारण तबाह हुए वीरपाल ने डेयरी के धंधे में हाथ आजमाने की कोशिश भी की. इसके लिए उन्होंने सार्वजनिक बैंकों समेत तमाम अन्य संस्थागत ऋण एजेंसियों से भी कर्ज लेने के लिए काफी भाग-दौड़ की लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. आखिरकार उन्होंने तीन प्रतिशत प्रति माह की दर पर गांव के साहूकार से  60 हजार रुपये का उधार लिया. पांच हजार रुपये उन्होंने अपने रिश्तेदारों से जुटाए. इसके बाद जैसे-तैसे करके पिछले वर्ष एक भैंस खरीदी थी लेकिन दुखों ने यहां भी उसका पीछा नहीं छोड़ा. उनकी भैंस दो माह के भीतर मर गई. अब उन्हें बतौर सूद हर माह 1,800 रुपये साहूकार को चुकाने पड़

रहे हैं.

वीरपाल की नम आंखें काफी कुछ कह जाती हैं. उनके मुताबिक, ‘मेरे लिए सूद चुकाना असंभव होता जा रहा है. अगले छह महीने में मेरे पर 70,800 का कर्ज चढ़ चुका होगा. मुझे समझ नहीं आ रहा मैं इसे चुकाऊंगा कैसे. पहले मैंने सोचा था कि रबी की फसल से मिलनेवाली रकम से ब्याज चुका दूंगा लेकिन इस बेमौसम बरसात ने मेरी एक एकड़ की गेहूं की फसल बर्बाद कर दी है. मुझे बेहद घुटन हो रही है. मैं बचपन से खेत जोत रहा हूं और खेती किसानी छोड़ना नहीं चाहता लेकिन जिंदा रहने के लिए क्या करूं मेरी समझ से बाहर होता जा रहा है. अब मेरी उम्मीद सिर्फ बड़ी हो रहीं दो बछिया से है. जब ये बड़ी होंगी तो शायद इनका दूध बेचकर मैं कुछ कमा सकूं.’ यह कहते हुए वीरपाल की नम आंखों में उम्मीद की एक हल्की सी झलक दिखाई देती है.

वीरपाल की इस उम्मीद पर भी इसी गांव के छोटे किसान अजित कुमार सवाल खड़ा कर देते हैं। अजित का मानना है कि, ‘उनका दूध बेचकर जिंदा रहने का सपना भी शायद पूरा न हो सके. वजह खेती किसानी पर आए संकट से मवेशी भी नहीं बच पा रहे हैं. कहने को तो यह गांव है लेकिन यहां मवेशियों की देखभाल करने के लिए कोई सुविधा नहीं है. हमारे आसपास कोई पशु चिकित्सालय नहीं हैं. कोई डॉक्टर भी आसानी से नहीं मिलता. भैंसों को तो हम इलाज के लिए डॉक्टर के पास ले जा नहीं सकते हैं. डॉक्टर बगैर अतिरिक्त शुल्क के यहां आता नहीं और यह शुल्क देना हर किसी के बस की बात नहीं.’ इस कमी का सीधा फायदा झोलाछाप डॉक्टर उठाते हैं. ये लोग इलाज और दवा के पुराने तरीकों का इस्तेमाल मवेशियों पर करते हैं और किसानों की मजबूरी होती है कि वह इनपर भरोसा करें, खासकर जब कोई आपात स्थिति हो.

अजित के अनुसार, उनकी गाय की पिछले साल अक्टूबर में तबीयत खराब हुई तो कोई भी चिकित्सा सुविधा आसपास मुहैया नहीं थी. उनकी इस दिक्कत का पता चलते ही न जाने कहां से एक झोलाछाप डॉक्टर आ टपका. उसने गाय को गलत दवा दे दी, जिसके चलते वह बच न सकी. अजित ने तय किया कि आगे से वह इस बात का ध्यान रखेंगे और अन्य लोगों को इस बारे में सचेत भी करेंगे. तहलका को भी अपनी जांच से मालूम पड़ा कि इस इलाके में इस तरह डॉक्टर खासे सक्रिय हैं. इनकी संख्या तेजी से बढ़ रही है. इनसे इलाज के चक्कर में बड़ी संख्या में मवेशी मारे जाते हैं. दरअसल इस पूरे संदर्भ को इस तरह नहीं देखा जा सकता है कि आज राज्य की ओर से, नीतिगत और व्यवहारिक दोनों स्तरों पर कृषि क्षेत्र को मिलनेवाली सेवाओं को लगातार घटाया जा रहा है और पूरा ध्यान ‘उद्योग’ विकसित करने पर लगाया जा रहा है.

मवेशियों की ओर बढ़ते झुकाव, संस्थागत समर्थन की कमी और कुकुरमुत्तों की तरह बढ़ते इन नीम-हकीम के कारण किसानों के हाथों से उनकी खेती की जमीन निकलती जा रही है. 40 वर्षीय अविवाहित मलूक सिंह का जिंदगीनामा इस तथ्य की तस्दीक करता है. मलूक ने दूध बेचकर रोजी-रोटी कमाने के चक्कर में गांव के साहूकार से गर्भवती भैंस खरीदने के लिए 70 हजार का कर्ज लिया लेकिन नीम-हकीम की सलाह लेने की वजह से भैंस की प्रसव के दौरान मौत हो गई. इस असहाय स्थिति के बावजूद साहूकार को उनपर कोई दया नहीं आई. साहूकार ने मूल और सूद के एवज में उनकी जमीन हड़प ली. अब रोजगार के लिए मलूक को जो भी काम मिलता है वह करता है. लेकिन गांवों में खेत मजदूरी करवाने का चलन लगातार कम होने के कारण कभी-कभी उसे दो जून की रोटी के भी लाले पड़ जाते हैं. मलूक के अनुसार, वह बस दूसरों के खेतों पर काम करके जैसे-तैसे जिंदगी जी रहा है.

पास के गांव में रहनेवाले मझौले किसान रवि तंज करते हुए बताते हैं, ‘प्रधानमंत्री कह रह हैं कि हमें अपनी जमीन कंपनियों ओर पूंजीपतियों को दे देनी चाहिए लेकिन अगर हालात ऐसे ही बने रहे तो कंपनियों को बिना खून खराबा किए ही हमारी जमीनें मिल जाएंगी. किसानों को जबरदस्ती किसानी छोड़ने के लिए मजबूर किया जा रहा है.’ रवि की फसल को भी इस बेमौसम बरसात ने भारी नुकसान पहुंचाया है. रवि ने बताया, ‘शायद आपको भरोसा नहीं होगा लेकिन यह सच है कि मैंने अपने परिवार के लिए पिछले चार वर्षों से कपड़े नहीं खरीदे हैं. दस वर्ष से घर की रंगाई-पुताई नहीं करा पाया हूं. मैं अपने बच्चों को वो सुविधाएं भी नहीं दे पा रहा हूं जो मुझे अपने बचपन में मिली थीं. इस सब के बावजूद मैं किसानी छोड़ने की स्थिति में नहीं हूं. इसकी एक ही वजह है कि मेरे पास और कोई विकल्प नहीं है.

हालात की गंभीरता को समझाने के लिए रवि ने एक उदाहरण देकर बताया, ‘इस इलाके में बहुत बढ़िया बासमती चावल होता था. पिछले वर्ष इसकी कीमत चार से पांच हजार रुपये क्विंटल थी आज की तारीख में कीमत घटकर 1300 रुपये पहुंच गई है. मैं अपनी लागत नहीं निकाल पा रहा हूं. मुनाफे की तो बात ही मत कीजिए. तिस पर इस बरसात ने मेरी गेहूं की फसल बर्बाद कर दी. बची-खुची फसल की कटाई के लिए मुझे सामान्य मजदूरी से तीन गुना ज्यादा मजदूरी देनी पड़ रही है. अब आप ही बताए मैं कैसे जिंदा रहूं और अपने बच्चे पाल लूं.’

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इस इलाके में रवि की तरह बहुत से ऐसे किसान हैं जो पहले अच्छा खाते-पीते थे. लेकिन धीरे-धीरे इनकी जिंदगी बदलती गई. खासकर आर्थिक सुधारों के बाद से तो इनकी हालत बद से बदतर होती गई. बेरंग घर, पुराने कपड़े और जूते, बेरौनक त्योहार, बिना हो-हल्ले के शादी-ब्याह, स्कूल और कॉलेज छोड़नेवाले छात्रों की बढ़ती संख्या आदि कुछ ऐसे उदाहरण हैं, जो यहां के बदतर होते हालात को बताने के लिए काफी हैं. यही नहीं लोगों के खाने पीने की आदतों में भी भारी बदलाव आया है. बाजार से खरीदे जानेवाले भोज्य पदार्थों खासकर मांस की बिक्री में तो आश्चर्यजनक कमी आई है. इस इलाके के नौजवान नोएडा, दिल्ली जैसे बड़े शहरों में पलायन कर गए हैं, जहां बेहद कम वेतन पर असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे है.

बारिश और ओलावृष्टि ने किसानों की कमर तोड़कर रख दी है. ऊपर से केंद्र और राज्य सरकार की गड़बड़ नीतियों के चलते किसानों को सही मुआवजा मिलने की उम्मीद भी कम है

इसी इलाके के विष्णुनाथ त्यागी के अनुसार, ‘कोई भी सरकार आए, उनमें बिजली कम दरों पर देने की होड़ लगी रहती है, जबकि हमारे जिले में बिजली का आना किसी चमत्कार से कम नहीं है. यहां बिजली अपनी मर्जी से आती-जाती है. अगर बिजली आती भी है तो दस से पंद्रह मिनट के ब्रेक के साथ. हमारे यहां औसतन पूरे दिन में चार घंटे ही बिजली आती है. ऐसे में हम कब सिंचाई करें और कैसे करें, इसकी किसी को परवाह  नहीं है.’

दुष्चक्र में कैसे हुआ किसानों का प्रवेश

जब किसान समस्याओं में डूब गए तब परजीवी वर्ग के तमाम लोगों ने इस दयनीय हालत में उनका शोषण किया. अजीबोगरीब ग्रामीण सत्ता संरचना और किसानों की मजबूरी ने शोषण का अच्छा माहौल तैयार कर दिया है. परजीवी वर्ग में सार्वजनिक और दूसरे गैरसूचीबद्ध बैंकों के अधिकारी, साहूकार और ऋण दिलानेवाले दलाल शामिल होते हैं, जो किसानों को लोन दिलाने में मदद करते हैं. तहलका ने खुर्जा तालुक के फरन्ना गांव का दौरा किया जहां फसलों को काफी नुकसान पहुंचा था. यह गांव साहूकारों की महत्वपूर्ण उपस्थिति के लिए भी जाना जाता है. किसानों के एक समूह ने बताया, ‘बैंक किसानों के प्रति असंवेदनशील होते हैं. जब हमें जरूरत होती है तब वे हमें कर्ज नहीं देते हैं. इसलिए हमें साहूकारों से कर्ज लेने पर मजबूर होना पड़ता है. कई मामलों में वे कर्ज के बदले बहुत ज्यादा ब्याज लगाते हैं. ऐसे में कर्ज चुकाने के लिए गिरवी के रूप में जमीन ही रखनी पड़ती है. लेकिन अगर आपकों तुरंत पैसे की जरूरत होती है तो साहूकारों से संपर्क करने के अलावा कोई चारा नहीं होता है.

तब अगला तार्किक सवाल ये उठता है कि ये किसान सरकारी कर्ज योजनाओं जैसे- किसान क्रेडिट कार्ड (केसीसी) का लाभ क्यों नहीं उठाते? केंद्र सरकार, आरबीआई और नाबार्ड की पहल पर शुरू किया गया केसीसी सामान्य बैंक ऋण पाने में देरी होने पर मददगार साबित होता है. नरेंद्र नाम के किसान ने बताया, ‘इस क्षेत्र के बैंक तब तक केसीसी जारी नहीं करते जब तक कि हम लोन दिलानेवाले दलालों से संपर्क कर बैंक अधिकारियों को कमिशन नहीं दे देते. कमीशन की सामान्य दर मूल राशि की 25 प्रतिशत होती है. अगर किसान को कर्ज जल्दी चाहिए तो यह दर और बढ़ जाती है. इसलिए सभी प्राकृतिक आपदाओं के बाद कमिशन की दर ज्यादा ही होती है. सभी बैंकों में प्रभावी राजनीतिक दलों से संपर्क रखनेवाले दलाल मौजूद रहते हैं. ये दलाल किसानों को बैंक मैनेजर से मिलने ही नहीं देते हैं और आप किसी तरह उनसे मिलने में सफल हो जाते हैं तो वे सलाह देते हैं कि हम दलाल से संपर्क कर लें.’

गांव के सीमांत किसान सत्येंद्र का अनुभव हमें गांवों में होने वाले भ्रष्टाचार का अमानवीय चेहरा दिखाता है. कुछ महीने पहले उन्होंने केसीसी के लिए आवेदन किया था. सबसे पहले वह पंजाब नेशनल बैंक (पीएनबी) के अधिकारियों से मिलने गए. गांव में केसीसी की सुविधा यही बैंक देता है. वह बताते हैं, ‘मुझे मना करते हुए अधिकारियों ने दलालों से मिलने को कहा. मैं उनसे मिला तो उन्होंने कहा कि अगर मैं 50 प्रतिशत कमिशन देता हूं तो वे केसीसी का जुगाड़ कर देंगे. खेती के लिए मुझे तुरंत पैसों की जरूरत थी इसलिए मैंने उनकी शर्तों पर हामी भी दी और मुझे दो लाख रुपये का केसीसी मिल गया. मुझे कमिशन के रूप में एक लाख रुपये देने होंगे.’ अब मामले का क्रूर तथ्य ये है कि जब तक वह अपना कर्ज नहीं चुका देता तब तक उसे मूल राशि दो लाख पर बैंक को ब्याज देना होगा. इसके अलावा कर्ज की राशि का आधा कमीशन के रूप में अलग से चुकाना होगा. हाल ही में बेमौसम हुई बारिश की वजह से सत्येंद्र की आधी फसल बर्बाद हो गई है. इसलिए अब उसे केसीसी का कर्ज चुकाने के लिए साहूकारों से पैसा उधार लेना पड़ेगा. वास्तविकता ये है कि अब निकट भविष्य में वह इस दुष्चक्र से निकल नहीं पाएगा.

अजीबोगरीब ग्रामीण संरचना और किसानों की मजबूरी ने शोषण का अच्छा माहौल तैयार कर दिया है. गैरसूचीबद्ध बैंकों के अधिकारी, साहूकार और दलाल कमीशन लेकर किसानों को लोन दिलाते हैं फिर शोषण करते हैं

कोई भी इस क्षेत्र में ऐसे तमाम किसानों से आसानी से मिल सकता है, जिन्होंने दलालों को भारी-भरकम कमीशन देकर केसीसी लिया हुआ है. ऐसे में जिस किसान की फसल बर्बाद हो चुकी है या जो कीमतों में उतार-चढ़ाव के बाद कंगाल हो चुका है, उससे कमीशन लेने के लिए बैंक अधिकारी इतनी ‘उत्सुकता’ दिखाते हैं कि उसका शोषण करने से भी नहीं चूकते. इसी ‘उत्सुकता’ के चलते कुछ का हाल आम उपजानेवाले किसान सुधीर शर्मा की तरह हो जाता है. पड़ोस के गांव फतेखरोली के किसान सुधीर ने अपने खेत के आम के पेड़ से लटककर खुदकुशी कर ली थी. उनकी फसल बर्बाद हो चुकी थी और वह बैंक को कर्ज नहीं चुका सके थे. उनकी बेटी रश्मि ने बताया, ‘कर्ज के कारण मेरे पिता के साथ राजस्व अधिकारियों ने खुलेआम अमानवीयता की. आधिकारिक तौर पर सरकार ने भी इसे कृषि से संबंधित खुदकुशी नहीं माना.’ अब सुधीर की पत्नी को कर्ज चुकाने के लिए अपने मवेशियों और गहनों को बेचना पड़ेगा. उन्होंने साहूकारों से भी कर्ज लिया हुआ है. उन्होंने बताया, ‘साहूकार हमें विशेष परिस्थितियों में तीन साल के लिए कर्ज देते हैं. ब्याज के हिस्से के रूप में वे हमारे खेत की फसल ले लेंगे. इसलिए वर्तमान में हमारे पास कर्ज चुकाने के लिए कोई दूसरा जरिया नहीं है.’

उत्तर प्रदेश में इस तरह की समस्याओं से घिरे किसानों की आत्महत्याओं की कई घटनाएं हो चुकी हैं, जो अखबारों की सुर्खियां नहीं बटोर सकीं. गन्ना किसानों की समस्या और भी गंभीर है. भारत कृषक समाज के नेता अजय वीर झाकर कहते हैं, ‘केंद्र और राज्य सरकार की खराब नीतियों की वजह से गन्ना किसान ज्यादा परेशान हो रहे हैं. सरकारें अल्पकालिक लाभ पर ज्यादा ध्यान दे रही हैं. गन्ना मिल मालिकों की एक शक्तिशाली लॉबी किसानों की ओर से पैदा किए गए राजस्व को बेईमानी से लेने पर तुली हुई है.’ हाल ही में आई आपदा में 97.29 लाख हेक्टेयर की फसल चौपट हो गई है.

उत्तर प्रदेश में बेमौसम बारिश की मार से जूझ रहे किसानों की आत्महत्या की कई घटनाएं देखने को मिली हैं. प्रदेश का बुंदेलखंड इलाका आत्महत्या की घटनाओं से सबसे ज्यादा प्रभावित है

अखिल भारतीय किसान सभा के राष्ट्रीय संयुक्त सचिव वीजू कृष्णन बताते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में कृषि संबंधी समस्या को नवउदारवादी सुधारों और जलवायु परिवर्तन के बड़े राजनीतिक-आर्थिक परिदृश्य में देखा जाना चाहिए. उत्तर प्रदेश और दूसरे राज्यों में बारिश के रूप में बरसी आपदा के बाद हमें देश में कृषि बीमा की हालत का आलोचनात्मक मूल्यांकन करना चाहिए. हम संपूर्ण जोखिम उठानेवाले कृषि बीमा की मांग कर रहे हैं, जो फसल बर्बाद होने और किसानों की कम आमदनी होने पर पूरी सुरक्षा दे. अभी नुकसान का आकलन तालुक या मंडल स्तर पर किया जाता है, जिसके कारण नुकसान से प्रभावित हुए वास्तविक किसान के नुकसान की प्रतिपूर्ति से इंकार कर दिया जाता है. बीमा सुरक्षा में सभी किसानों को, जिसमें पट्टेदार किसान और बंटाईदार भी हैं, शामिल किया जाना चाहिए. उत्तर प्रदेश, जो कृषि संबंधी गंभीर समस्या से गुजर रहा है, को एक व्यापक बीमा पैकेज देने की जरूरत है.

उत्तर प्रदेश के किसानों के बारे में कहा जा सकता है कि वे उन्नत सीमांतता (हाशिए की ओर) की दशा में हैं. समाज विज्ञानी इस दशा को एक समूह का व्यापक समाज से अलग-थलग पड़ना बताते हैं. वे इसे राज्य की ओर से उनके अधिकारों और जरूरतों की अनदेखी भी बताते हैं. मोदी सरकार की ओर से पास किए गए भूमि अधिग्रहण अध्यादेश ने उनसे सरकार की विरक्ति को और बढ़ा दिया है.

अइसी कविता ते कौनु लाभ!

janamshati

2015  अवधी भाषा के महत्वपूर्ण कवि-नाटककार चन्द्रभूषण त्रिवेदी उर्फ रमई काका का जन्मशताब्दी वर्ष है. पढ़ीस और वंशीधर शुक्ल के साथ रमई काका अवधी की उस अमर ‘त्रयी’ का हिस्सा हैं जिसकी रचनात्मकता ने तुलसी और जायसी की अवधी को एक नई साहित्यिक समृद्धि प्रदान की. यूं अवधी की इस कद्दावर तिकड़ी के तीनों सदस्य बहुत लोकप्रिय रहे लेकिन सुनहरे दौर में आकाशवाणी लखनऊ के साथ सफल नाटककार और प्रस्तोता के बतौर लंबे जुड़ाव और अपने अद्वितीय हास्य-व्यंग्यबोध के चलते रमई काका की लोकप्रियता सचमुच अद्भुत और असाधारण रही है. रेडियो नाटकों का उनका हस्ताक्षर चरित्र ‘बहिरे बाबा’ तो इस कदर मशहूर रहा कि आज भी उत्तर भारत के पुराने लोगों में रमई काका का नाम  भले ही सब न जानें लेकिन बहिरे बाबा सबको अब तक याद हैं.

अपनी अफसानवी मकबूलियत को रमई काका ने अपने रचनाकर्मी सरोकारों और दायित्वबोध पर कभी हावी नहीं होने दिया. उनके नाटक और कविताएं अपने समय से मुठभेड़ का सशक्त माध्यम बनीं. उनकी भाषा में गजब की सादगी और अपनेपन की सौंधी-सी खुशबू बसी हुई थी. अपने लोगों से अपनी भाषा में अपनी बात कहते हुए उन्होंने अपने समय के ज्वलंत सवालों को संबोधित किया. हालांकि उन्होंने खड़ी बोली में भी लिखा लेकिन उनकी पहचान हमेशा अवधी से जुड़ी रही. हास्य-व्यंग्य के अपने जाने पहचाने रंग में तो वे बेजोड़ रहे ही, उन्होंने दिल में उतर जानेवाली संजीदा कविताएं भी लिखीं. उस दौर में जब खड़ी बोली के कई बड़े साहित्यकार लोकभाषाओं को भाषा नहीं फकत बोली कहकर खड़ीबोली को उन पर तरजीह दे रहे थे और दूसरों से भी उसी में लिखने का आग्रह कर रहे थे उस वक्त रमई काका अवधी में उत्कृष्ट लेखन करते हुए, अपने समय के जरूरी सवालों को उठाते हुए और अत्यधिक लोकप्रिय होते हुए ये सिद्ध कर रहे थे कि अवधी भाषा-साहित्य केवल रामचरितमानस और पद्मावत तक सीमित किसी गुजरी हुई दास्तान का नाम नहीं है, बल्कि ये एक ज़िन्दा कारवान-ए-सुखन का नाम है जो अभी कई मंज़िलें तय करेगा.

उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के रावतपुर गांव में 2 फरवरी 1915 जन्मे रमई काका कविता तो किशोरावस्था में ही लिखने लगे थे लेकिन उनकी प्रतिभा को सही मकाम 1941 में मिला जब उन्होंने आकाशवाणी के कर्मचारी के बतौर लखनऊ को अपना निवास-स्थान बनाया. नौकरी के लिए गांव छोड़ने के बाद वे जिंदगीभर लखनऊ में ही रहे लेकिन इसके बावजूद उनकी कविताओं में गांव और कृषि प्रधान संस्कृति की मौजूदगी हमेशा बनी रही. गांव का उनका प्रकृति चित्रण अनूठा है लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि वे गांव को किसी आउटसाइडर यानी शहरवाले की नजर से नहीं बल्कि एक इनसाइडर के बतौर देखते और बयान करते हैं. दुखिया गिरिस्ती, धरती हमरि, सुखी जब हुइहैं गांव हमार, धरती तुमका टेरि रही है आदि अनेक उत्कृष्ट कविताएं रमई काका ने गांव के जीवन पर लिखी हैं. डाॅ. रामविलास शर्मा ने रमई काका के बारे में लिखा है- ‘उनकी गंभीर रचनाओं में एक विद्रोही किसान का उदात्त स्वर है, जो समाज में अपने महत्वपूर्ण स्थान को पहचानता रहा है और अधिकार पाने के लिए कटिबद्ध हो गया है.’

लोकभाषाओं को पिछड़ेपन की निशानी आैर खुद को प्रगतिशील माननेवालों काे यह जानना बहुत जरूरी है कि रमई काका की अवधी में लिखी गईं ग्राम्य जीवन पर आधारित कविताओं में चौंकानेवाली प्रगतिशीलता और विद्रोह का स्वर मिलता है. इसकी बानगी के तौर पर ‘अनोखा परदा’ और ‘छाती का पीपर’ आदि कविताएं देखी जा सकती हैं. अपने समय के सामाजिक यथार्थ को भी वे पुख्तगी से बयान करते हैं. सामाजिक विसंगतियों और कुरीतियों जैसे परदा प्रथा, जाति प्रथा, बेमेल विवाह, सामंतवाद, सूदखोरी को निशाने पर रखते हुए भी उन्होंने बहुत कुछ लिखा है. यहां इस बात को रेखांकित करना जरूरी हो जाता है कि उनकी कविताओं में हास्य-व्यंग्य की इतनी ज्यादा चर्चा हुई कि उनकी कविता के कई जरूरी और गंभीर पक्ष ठीक से पहचाने नहीं  गए. वैसे भी हास्य-व्यंग्य को, यदि वह ग्रामभाषा का हो तो और भी, गंभीरता से ग्रहण करने की कोशिश प्रायः नहीं होती. रमई काका के लोक-हास्य की खूब तारीफ हुई तो उनकी कविता में निबद्ध लोक-करुणा की अनदेखी भी हुई. निर्विवाद रूप से काका लोक-करुणा के भी बड़े कवि हैं. इस संदर्भ में अवधी के विद्वान डॉ. अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी कहते हैं- ‘रमई काका की कविताओं में व्याप्त लोक-करुणा एक तरफ ग्रामीणों-किसानों-मजदूरों-स्त्रियों का दुख-दर्द कहती है वहीं दूसरी तरफ वह बरतानिया हुकूमत में पराधीनता की व्यथा को भी मार्मिकता के साथ दर्ज करती है. उसमें परबसता की पीड़ा है, ‘सब बुद्धि बिबेकु नसावै परबसता धीरे-धीरे’ तो ‘परबसता’ से मुक्ति के भिनसार (सुबह) की प्रतीक्षा भी, ‘धीर धरु भिनसार होई!’’

रमई काका कई दशकों तक कवि सम्मेलनों में धूम मचाते रहे. कविता के अलावा उन्होंने अवधी में नाटक और एकांकियां भी प्रचुर मात्रा में लिखीं

संजीदा मिजाज की बेशुमार बेहतरीन कविताएं लिखने के बावजूद काका की पहचान उनकी हास्य व्यंग्य शैली ही है. लिखा भी उन्होंने इसी में सबसे ज्यादा. उनकी हास्य-व्यंग्य कविताओं का एक लोकप्रिय विषय गांव की नजर से शहर को देखने का भी रहा है. इनमें उनकी कविताएं ‘हम कहा बड़ा ध्वाखा हुई गा’ सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुईं हैं. कविता की दुनिया में शुरुआती ख्याति उन्हें ‘ध्वाखा’ कविता से ही मिली. इसमें गांव से पहली बार लखनऊ गए एक आदमी के साथ जो कुछ घटित हुआ उसका मजाकिया अंदाज में बयान है. इसके अलावा हास्य व्यंग्य शैली में लिखीं उनकी ई छीछालेदर द्याखौ तौ, नैनीताल, कचेहरी,

अंधकार के राजा, नाजुक बरखा, बुढ़ऊ का बियाहु आदि कविताएं भी बहुत मशहूर हुईं.

अपनी इन्हीं कविताओं के माध्यम से रमई काका कई दशकों तक कवि सम्मेलनों में धूम मचाते रहे. उन्होंने अपनी लम्बी साहित्यिक यात्रा के दौरान विपुल साहित्य रचा है, जिसका बहुत सारा हिस्सा अभी भी अप्रकाशित है. उनकी कविताओं का पहला संकलन ‘बौछार’ 1944 में छपा जो बहुत लोकप्रिय रहा. इसके बाद भिनसार, नेताजी, फुहार, गुलछर्रा, हरपाती तरवारि, हास्य के छींटे और माटी के बोल आदि काव्य

संकलन आए.

कविता के अलावा नाटकों और एकांकियों में भी रमई काका अवधी के सबसे बड़े नाम हैं. नाटकों की भी उनकी तीन पुस्तकें रतौंधी, बहिरे बोधन बाबा और मि. जुगनू छपी. आकाशवाणी लखनऊ के लिए उन्होंने पचास से ज्यादा लोकप्रिय नाटक लिखे और उनमें अभिनय भी किया. इनमें ‘बहिरे बोधन बाबा’ सबसे मशहूर है. ये आकाशवाणी के इतिहास का सबसे लंबा और लोकप्रिय धारावाहिक नाटक है जो 1957 से 1982 तक लगातार चला. कुल 121 कड़ियोंवाला यही नाटक रमई काका का दूसरा नाम बन चुका है. नाटक की विषयवस्तु ग्राम्य जीवन पर आधारित होती थी एवं ग्रामीण जीवन की समस्याओं एवं मुद्दों को उठाती थी. बहिरे बोधन बाबा के अलावा रमई काका के लिखे मगन मिस्तरी परिवार, जगराना बुआ, चपल चंदू, नटखट नंदू, छोटई लुटई, अफीमी चाचा, खिचड़ी, हरफनमौला, खोखे पंडित, जंतर मंतर, मटरू मामा एवं गदरभ राग आदि रेडियो नाटक भी बहुत लोकप्रिय रहे. गौरतलब है कि रमई काका का लिखा हर नाटक हास्य व्यंग्य शैली का होने के बावजूद किसी न किसी गंभीर सामाजिक समस्या पर केंद्रित होता था. जनसाधारण में रमई काका की लोकप्रियता को देखते हुए आकाशवाणी ने उनसे उस समय की लगभग सभी सामाजिक समस्याओं पर नाटक लिखवाए जिन्होंने अपना व्यापक असर भी दिखाया. कवि और नाटककार के रूप में लोकप्रियता का शिखर पानेवाले रमई काका ने अवधी लेख एवं निबंध भी काफी लिखे जो समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे.

काका 1977 में आकाशवाणी से रिटायर हो गए लेकिन रेडियो से उनका जुड़ाव बना रहा. 18 अप्रैल 1982 को लखनऊ के बलरामपुर अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली. आकाशवाणी लखनऊ की लोकप्रियता में काका की बड़ी भूमिका रही. 1965 में आकाशवाणी को लिखे गए एक पत्र में मशहूर साहित्यकार अमृतलाल नागर ने लिखा- ‘एक मैं ही नहीं, मेरे मत से आपके केंद्र के असंख्य श्रोता भी एक ही उमंग में सम्मिलित होकर एक स्वर से कहेंगे कि काका रेडियो के अनमोल रत्न हैं.’ 2013 में आकाशवाणी लखनऊ के 75 साल पूरे होने के मौके पर संस्थान ने रमई काका की सेवाओं को याद करते हुए ‘जन-मन के रमई काका’ नाम से एक श्रंखला का प्रसारण किया जो काफी लोकप्रिय रहा.

जन्मशती के मौके पर निहायत जरूरी है कि रमई काका के तमाम प्रकाशित-अप्रकाशित साहित्य को इकट्ठा करके एक समग्र ग्रंथावली के रूप में छापा जाए. क्योंकि उनका बहुत सारा काम अभी तक अप्रकाशित है और ज्यादातर प्रकाशित पुस्तकें भी लंबे वक्त से नए संस्करण न छपने के कारण लगभग अनुपलब्ध हो गईं हैं. इसके साथ ही ज्यादा जरूरी ये है कि उनके साहित्यिक संस्कारों एवं सरोकारों से प्रेरणा प्राप्त की जाए. जैसा कि एक जगह वे कहते हैं-

 

हिरदय की कोमल पंखुरिन मा, जो भंवरा असि न गूंजि सकै

उसरील वांठ हरियर न करै, डभकत नयना ना पोंछि  सकै

जेहिका सुनतै खन बन्धन की, बेड़ी झन झन न झनझनायं

उन पांवन मां पौरूखु न भरै, जो अपने पथ पर डगमगायं

अंधियारू न दुरवै सबिता बनि, अइसी कविता ते कौनु लाभ 

भारतीय अर्थव्यवस्था नई बोतल में पुरानी शराब

फोटोः एएफपी
फोटोः एएफपी
फोटोः एएफपी

यूपीए-एक और यूपीए-दो के दौरान पी. चिदंबरम तीन बार वित्तमंत्री बनाए गए और उन्होंने नौ बार सामान्य बजट और दो बार अंतरिम बजट पेश किया. चिदंबरम ने कांग्रेस, तीसरा मोर्चा, यूपीए-एक और यूपीए-दो के शासन के दौरान वित्त मंत्रालय और गृह मंत्रालय का जिम्मा अलग-अलग समय में सम्भाला. उन्होंने 1991 में देश की बदहाल अर्थव्यवस्था से लेकर 2005-06 और 2007-08 के दौरान तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले दिन देखे. 2005 से लेकर 2008 तक लगभग 11 तिमाही के दौरान देश की विकास दर आठ फीसदी से ज्यादा की रही. जो भी हो चिदंबरम यह समझते होंगे कि वे कभी ऐसे वित्त मंत्री से नहीं मिले जिनके समय में देश की अर्थव्यवस्था की दर आठ या इससे ज्यादा की रही होगी. चिदंबरम के अनुसार, ‘यूपीए-दो के शासन के दौरान देश की अर्थव्यवस्था की दुर्गति हुई है जब प्रणब मुखर्जी के पास वित्त मंत्रालय का जिम्मा था.’ गौरतलब है कि वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी यूपीए-दो में पहले चार साल तक वित्त मंत्री रहे थे. चिदंबरम का मानना है कि यूपीए-एक के दौरान उन्होंने समेकित विकास के मद्देनजर जो आर्थिक नीतियां बनाई और लागू कीं, उसका प्रणब मुखर्जी ने सत्यानाश कर दिया. चिदंबरम ने पांच साल के दौरान अर्थव्यवस्था को मजबूती दी, उन नीतियों का गला 2009 में प्रणब मुखर्जी ने अपने चंद फैसलों से घोंट दिया.

वर्तमान केंद्र सरकार के मौजूदा वित्तमंत्री अरुण जेटली भी अर्थव्यवस्था के दलदल में फंसते हुए नजर आ रहे हैं. वह भी इस दलदल से निकलने की बजाय मुखर्जी की तरह ही खुद को बचाने की फिराक में लगे हुए जान पड़ते हैं. उनकी अब तक की नीतियों से यह संभावना पैदा हुई है कि आगामी दो साल में अर्थव्यवस्था और भी बदहाल स्थिति में पहुंच जाएगी. अर्थव्यवस्था की पतली हालत से उन्हें सिर्फ एक ही चीज बचा सकती है, नरेंद्र मोदी जैसी तेज किस्मत. चिदंबरम का मानना है कि कोई वित्तमंत्री वित्तीय सुदृढ़ीकरण के प्रयास को पीछे कैसे छोड़ सकता है? उनकी मानें तो जेटली और मुखर्जी दोनों ही अर्थव्यवस्था की बदहाली के लिए दोषी हैं.

मुखर्जी और जेटली की परिस्थितियों में अंतर है. मुखर्जी के मुताबिक 2008 में जब वे वित्तमंत्री थे तब विश्व अर्थव्यवस्था पूरी तरह आर्थिक मंदी की चपेट में थी और उनके पास इससे बचने का कोई चारा नहीं था. उन्हें यह सुनिश्चित करना था कि भारत की अर्थव्यवस्था इस मंदी के दुष्प्रभावों से बची रहे. जेटली की मानें तो इस हालत के लिए प्रणब मुखर्जी और पी. चिदंबरम दोनों ही दोषी हैं. अरुण जेटली ने 2015 में अपना दूसरा बजट पेश किया. जानकारों की मानें तो बीते एक दशक में यह सबसे रचनात्मक बजट है. वे ऐसा मान रहे हैं कि इस बजट के बाद अर्थव्यवस्था की सेहत सुधरेगी, विकास दर में तेजी आएगी और गरीबी खत्म होगी.

एक-दूसरे की नीतियों को गलत बताने और अर्थव्यवस्था के पिछड़ने के लिए दूसरे को जिम्मेदार ठहराने के इस खेल को समझने के लिए 2009 के समय की आर्थिक नीतियों को एक बार देखने की दरकार होगी. उस समय कांग्रेस सत्तारूढ़ थी. यह वही समय था जब कांग्रेस दोबारा सत्ता में आई थी और विश्व अर्थव्यवस्था में संकट का दौर शुरू हो गया था. इस दौरान अमेरिका जैसे विकसित देश भी मंदी की चपेट में थे. आर्थिक मामलों के जानकार विश्व अर्थव्यवस्था के इस संकट की तुलना 1930 की महामंदी से करने लगे थे. दुनिया के सभी मुल्कों की विकास दर की गति सुस्त पड़ गई थी. यह अनुमान लगाया जा रहा था कि जल्द ही इसकी जद में तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था वाले देश चीन और भारत भी आ जाएंगे.

तात्कालिक प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने अर्थव्यवस्था के विकास की गति को बनाए रखने के लिए दिसंबर 2008 में विशेष आर्थिक पैकेज मुहैया कराया. प्रणब मुखर्जी पहली बार जनवरी 2009 में और दूसरी बार मई 2009 में वित्तमंत्री बने. उन्होंने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए इसी विशेष पैकेज का सहारा लिया. उन्होंने 2009 में अपने बजट भाषण में कहा कि उनका लक्ष्य मांग में वृद्धि करना और सार्वजनिक परियोजना को विस्तार देना है ताकि रोजगार सृजन बड़े पैमाने पर हो तथा सार्वजनिक परिसंपत्तियों में वृद्घि हो सके. यह एक स्टैंडर्ड कीन्सियन समाधान था. 1930 में महामंदी के दौरान जॉन मेनार्ड कीन्स ने कहा था कि अर्थव्यवस्था को मंदी से बाहर निकालने के लिए सरकारों को सार्वजनिक खर्च में इजाफा करना चाहिए. कई विकसित देशों ने मेनार्ड कीन्स के सुझावों को अमल में लाया था. प्रणब मुखर्जी ने भी 2009 में अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए कीन्स के सुझावों पर अमल किया. उनकी यह पहल सफल रही थी. इस दौरान दुनिया के सिर्फ दो मुल्कों- चीन और भारत की अर्थव्यवस्था अपनी विकास दर तेज बनाए रखने में सफल रही थी.

हालांकि इसका दूसरा पक्ष यह रहा कि भारत का राजकोषीय घाटा बढ़ता रहा. 2007-08 में राजकोषीय घाटा कुल जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का 2.7 फीसदी से बढ़कर 2008-09  सात फीसदी तक पहुंच गया था. विशेष आर्थिक पैकेज के तौर पर कुल 1,86,000 करोड़ रुपये वितरित किए गए. संभवतः महंगाई दर में इजाफे के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारक रहा होगा. राजकोषीय घाटा को पूरा करने के लिए सरकार ने नोट छापे. इसका परिणाम यह हुआ कि खाद्य वस्तुओं की कीमतें आसमान छूने लगीं और यूपीए-दो का राजनीतिक बंटाधार होना शुरू हो गया. रोजमर्रा की वस्तुएं मसलन टमाटर, आलू, प्याज आदि की कीमतें सौ फीसदी तक बढ़ गईं, जिसका परिणाम लोकसभा चुनाव में यूपीए-दो को भुगतना पड़ा. महंगाई दर में बढ़ोत्तरी की वजह से 2009 से लेकर 2013 के बीच हुए कई राज्यों (पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, बिहार और दिल्ली) में विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी. 2013 में चिदंबरम ने बजट भाषण में यह संकेत देते हुए कहा था, ‘मुद्रास्फीति दर ऊंची रहने की वजह से आर्थिक संकट का दौर बना रहेगा और महंगाई दर को नियंत्रण में रखने के लिए सख्त मौद्रिक नीतियां बनानी होंगी.’

मुश्किल वित्तमंत्री अरुण जेटली के सामने वनमार्ण क्ेत्र में वनिेश को पुनजीर्वित करने की चुनौती है
मुश्किल वित्तमंत्री अरुण जेटली के सामने वनमार्ण क्ेत्र में वनिेश को पुनजीर्वित करने की चुनौती है

वैश्विक परिदृश्य में आए बदलाव की वजह से ऐसा हुआ. कच्चे तेल के भाव चढ़ने लगे थे. एक जनवरी 2010 को कच्चे तेल की कीमत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 80 डॉलर प्रति बैरल थी लेकिन 2011 के शुरुआत में कीमतें बढ़कर प्रति बैरल 110 डॉलर तक पहुंच गई. आगे यह भाव 50 फीसदी तक बढ़कर 120 डॉलर प्रति बैरल हो गया. चार साल के दौरान यह सर्वाधिक कीमत थी. हालांकि लंबे समय तक कच्चे तेल की कीमत 110 डॉलर प्रति बैरल के करीब बनी रही. 2012 के मध्य में कच्चे तेल के भाव में नरमी आई और यह गिरकर 90 डॉलर प्रति बैरल रह गई. लेकिन चंद हफ्तों के बाद ही कच्चे तेल के भाव में वृद्घि दर्ज की गई और यह फिर से 110 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई.

अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के भाव में वृद्घि होने से भारत को सर्वाधिक नुकसान उठाना पड़ा क्योंकि भारत ऐसा देश है जो अपनी ईंधन जरूरतों का बहुत बड़ा हिस्सा आयात करता है. 2013-14 में भारत द्वारा आयातित तेल का हिस्सा बढ़कर कुल तेल खपत का 70 फीसदी हो गया. इसी तरह भारत सोने का भी सबसे बड़ा आयातक देश है इसलिए भारत का आयात पर खर्च बढ़ता रहा. व्यापार संतुलन इस कदर बिगड़ गया कि आयात और निर्यात का अंतर 2011-12 की तुलना में बढ़कर 2012-13 में 200 अरब डॉलर हो गया. 2011-12 में आयात और निर्यात के बीच का अंतर 100 अरब डॉलर था. चालू वित्तीय घाटा अनियंत्रित किस्म से बढ़ा. इन सबके चलते भारत की अर्थव्यवस्था पर इसका असर कई स्तरों पर पड़ा.

2014 में जून से दिसंबर के मध्य रुपये के भाव बुरी तरह से गिर रहे थे. रुपये का भाव प्रति डॉलर 59 रुपये से गिरकर 63 रुपये तक पहुंच गया था. आर्थिक विशेषज्ञ यह मानने लगे थे कि रुपये के भाव डॉलर के मुकाबले गिरकर 80 रुपये तक जा सकते हैं. रुपये के भाव में अनियंत्रित गिरावट की वजह से आयात दिनोदिन महंगा होने लगा. भारत को दस लाख डॉलर की कीमतवाले तेल के लिए 6.30 करोड़ रुपये चुकाना पड़ रहा था जबकि पहले 5.90 करोड़ रुपये चुकाना पड़ रहा था. हालांकि इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि रुपये के भाव में गिरावट की वजह से निर्यात को बढ़ावा मिलता है और इससे विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ता है. लेकिन दुनिया भर में छायी मंदी की वजह से हमारे यहां ऐसा नहीं हुआ. यह सब 2008 की महामंदी के चलते हुआ. लिहाजा व्यापार असंतुलन और वित्तीय घाटा दिन-ब-दिन बढ़ता गया. दूसरी वजह रही अंतरराष्ट्रीय बजार में कच्चे तेल की कीमतों में वृद्घि होने से घरेलू स्तर पर सब्सिडी का बोझ बढ़ने लगा. इस घाटे का भुगतान नहीं हो पाने से सरकार की बैलेंस शीट बिगड़ रही थी. ऊर्जा क्षेत्र विकास में भूमिका नहीं निभा पा रहा था.

हालात का और बिगड़ना अभी बाकी था. जबरदस्त राजस्व घाटा, चालू खाता घाटा, महंगाई दर में वृद्घि और व्यापार घाटे की वजह से अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी ने भारतीय अर्थव्यवस्था पर सूक्ष्म और पैनी निगाह रखनी शुरू कर दी. स्टैंडर्ड एंड पूअर और मूडीज नामक रेटिंग एजेंसियों ने भारत की रेटिंग कम करने की धमकी तक दे डाली. इससे दुनिया के बड़े निवेशकों को यह संकेत मिलने लगा कि भारत में पूंजी निवेश करना बहुत जोखिम भरा है. भारतीय अर्थव्यवस्था 1991 वाली स्थिति में पहुंचती दिख रही थी. हालात यूपीए-दो के नियंत्रण से बाहर हो चुके थे.

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घोटाला दर घोटाला कोल ब्लॉक और स्पेक्ट्रम आवंटन जैसे घोटाले यूपीए सरकार के ताबूत में
आखिरी कील साखबत हुए

चिदंबरम को 2012 में दोबारा वित्तमंत्री बनाया गया और उन्होंने तूफानी अंदाज में चीजों को ठीक करने की कोशिश की. उन्होंने चालू खाता घाटे को कम करने के लिए सोने और इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं के आयात पर कर भार बढ़ाया. पर यह इजाफा सिर्फ वैश्विक और घरेलू कीमतों के बीच हुआ था जिसका फायदा तस्करों ने उठाया. जांच एजेंसियों मसलन खुफिया राजस्व विभाग (डीआरआई) और प्रवर्तन निदेशालय ने यह जानकारी दी थी कि 2013 और 2014 में सोने की तस्करी में 500 फीसदी की वृद्घि हुई है. विश्व स्वर्ण परिषद का यह अनुमान था कि आर्थिक संकट और वित्तीय संकट के दौरान सोने की मांग में कोई कमी नहीं दर्ज की गई और कुल उपभोग का आधे से ज्यादा तस्करी की गई.

वित्तमंत्री की दूसरी प्राथमिकता राजस्व घाटे को नियंत्रित करना थी. यही वजह है कि उन्होंने गैर-योजना खर्च में कोई कटौती नहीं की. गैर-योजना खर्च में सामान्यतः सरकारी कर्मचारियों के वेतन और ब्याज का भुगतान शामिल होता है. वित्तमंत्री ने योजनागत खर्च में कटौती की जिसमें सार्वजनिक परियोजना के अंतर्गत उत्पादन और ढांचागत खर्च को शामिल किया जाता है. हालांकि कुछ समय बाद विकास की गति अवरुद्घ हो गई. चिदंबरम इस बात के लिए इच्छुक थे कि अल्पावधि में राजस्व घाटा को कम किया जाए और राजस्व की स्थिति में सुधार लाया जाए. वित्तमंत्री की यह रणनीति यूपीए-दो के काम आ गई.

जन-धन योजना यूपीए-एक और दो सरकार की तरह ही मोदी सरकार भी वित्तीय समािेशन पर ध्यान लगाए हुए है
जन-धन योजना यूपीए-एक और दो सरकार की तरह ही मोदी सरकार भी वित्तीय समािेशन पर ध्यान लगाए हुए है

2011-12 में विकास दर में गिरावट दर्ज की गई जो अगले वित्तीय वर्ष में भी जारी रही. भारत को आजादी मिलने के बाद से लेकर अब तक ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था कि लगातार तीन साल यानी पहले के मुकाबले दूसरे और दूसरे के मुकाबले तीसरे साल अर्थव्यवस्था की विकास दर में गिरावट का क्रम जारी रहा हो. विकास दर 2010-11 में 8.9, 2011-12 में 4.9 और 2012-13 में 4.7 फीसदी रही. विकास दर में गिरावट का यह सिलसिला लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस (यूपीए-दो) के लिए ताबूत का आखिरी कील सिद्घ हुआ. मोदी सरकार के नेतृत्व में आते ही सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़े में मामूली से फेरबदल के बाद विकास दर 2014-15 में 6.6 फीसदी तक पहुंच गई और 2014-15 में 7.5 फीसदी रहने का अनुमान जताया गया. हालांकि आर्थिक मामलों के जानकारों का मानना है कि अगर पुराने यानी यूपीए-दो के फॉर्मूले से गणना की जाए तो 2014-15 में विकास दर 5 फीसदी का आंकड़ा ही छू पाएगी. संभव है कि प्रणब मुखर्जी और पी. चिदंबरम शायद इस बात से खुश होंगे कि अरुण जेटली ने अर्थव्यवस्था की विकास दर को मई 2014 में लोकसभा चुनाव के बाद बढ़ाने में कामयाबी पाई है. नए वित्तमंत्री को अर्थव्यवस्था की सुस्ती दूर करने के लिए सख्त उपायों का सहारा लेना पड़ेगा. हालांकि भाग्य मोदी और जेटली के पक्ष में है. केंद्र में सत्ता की कमान हाथ आते ही कच्चे तेल के भाव में भारी गिरावट दर्ज की गई. बिना किसी बड़े उपायों को लागू किए ही महंगाई दर में कमी दर्ज की गई. कच्चे तेल के भाव में गिरावट का मतलब है आयात बिल में कमी और चालू खाता घाटे में भी कमी आना. वस्तुओं की कीमतों में कटौती का मतलब है मांग में वृद्घि दर्ज किया जाना और इसके चलते विकास दर में थोड़ी वृद्घि और सरकार के राजस्व में इजाफा होना है. कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था फिर से पटरी पर लौट आई. वित्तमंत्री अरुण जेटली के दूसरे बजट की अर्थशास्त्रियों और उद्योग जगत ने खूब सराहना की है. चिदंबरम ने जेटली के आंकड़ों के सही होने के बारे में शंका जाहिर की.

2015 के बजट पर अगर गौर फरमाएं तो यह पता चलता है कि  कई जगह पर आंकड़ों की बाजीगरी की गई है. सरकार के राजस्व, जिसमें कर राजस्व भी शामिल है, के बारे में उम्मीद की गई है कि इसमें वृद्घि दर्ज की जाएगी. यह इस बात का संकेत है कि वित्तमंत्री विकास दर में वृद्घि की उम्मीद नहीं रख रहे थे. जो भी हो विकास दर छह फीसदी के आसपास ही रहेगी और ऋण की वजह से आंकड़ों के अंतिम अंक में फेरबदल होगा. यह खतरनाक है कि पूंजी खाते में योजना खर्च बढ़कर 34 फीसदी तक पहुंच जाएगा. सार्वजनिक खर्च में इजाफा एक अच्छा संकेत है. हालांकि यह दुर्भाग्य ही है कि कुल योजनागत खर्च, जिसमें राजस्व खाते भी शामिल हैं, में कमी आई और इसमें वृद्घि नहीं की जाएगी. इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि पूंजी निर्माण और उत्पादक परिसंपत्ति के लिए सहायता में 16 फीसदी तक की कमी की जाएगी. इन परिस्थितियों में जेटली कैसे विकास दर में वृद्घि की उम्मीद कर रहे हैं? निजी क्षेत्र के निवेश में भी कमी आने की संभावना जताई जा रही है. 2014-15 में अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए जेटली ने चिदंबरम के उपायों का अनुसरण किया है. जेटली ने गैर-योजनागत खर्च में कोई खास छेड़छाड़ नहीं की है. इसमें उन्होंने मामूली कटौती की है. वित्तमंत्री ने योजनागत खर्च में 18.6 फीसदी तक की कटौती की है. इन आंकड़ों के मद्देनजर यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि देश चालू वित्तीय वर्ष में 6.6 फीसदी विकास दर हासिल कर पाएगा? संभव है कि भाजपा के शासनकाल में आंकड़ों में हेरफेर करके लक्षित विकास दर को हासिल कर लिया जाए.

तेरह राजनीतिक दलों के गठबंधनवाली यूपीए-दो सरकार के कार्यकाल के समय अच्छी नीतियों और साफ छवि के बावजूद पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कई घोटालों में फंस गए थे. एक दुर्लभ उदाहरण की बात करें तो, कोयला ब्लॉक आवंटन मामले में बरती गई अनियमितताओं में उनकी भूमिका को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें पूछताछ के लिए बुलवाया था. बड़े-बड़े घोटालों जैसे- टेलीकॉम (1,76,000 करोड़ रुपये का घोटाला), कोयला ब्लॉक आवंटन (1,86,000 करोड़ का घोटाला) और राष्ट्रमंडल खेल घोटालों ने यूपीए-दो सरकार को हिलाकर रख दिया था. सरकार के घमंडी और अभिमानी कैबिनेट मंत्री अपना बचाव करने में विफल हो गए थे. तब लोगों को उन्हें चुनने की अपनी मूर्खतापूर्ण गलती का एहसास हुआ.

सरकार से नाराजगी के कारण जनता ने यूपीए-दो सरकार को सत्ता से बाहर करने का फैसला कर लिया. कैग की ओर से सरकारी खजाने को पहुंचे नुकसान के चौंका देनेवाले आंकड़े पेश करने के बावजूद तत्कालीन दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल ने दावा किया था कि स्पेक्ट्रम आवंटन मामले में किसी तरह का नुकसान नहीं हुआ था. वहीं चिदंबरम ने कहा था कि कोल ब्लॉक आवंटन घोटाले में कोई नुकसान नहीं हुआ है क्योंकि पृथ्वी के अंदर पड़े खनिज अभी भी मौजूद हैं और निजी कंपनियों की ओर से उन्हें निकाला जाना बाकी है.

हालांकि जैसे ही मीडिया की ओर से सरकार की आलोचना शुरू हुई, तूफान खड़ा हो गया. इन घोटालों को लेकर यूपीए-दो सरकार हमेशा ही बैकफुट पर रही. यह एक तरह की ‘पॉलिसी पैरालिसिस’ वाली स्थिति थी, जिसमें सरकार कोई निर्णय लेने में पूरी तरह से अक्षम साबित हुई. उस समय सुधार भी बैकफुट पर थे. यह तब था जब सिंह ने सुधारीकरण के कुछ कदम जैसे- खुदरा क्षेत्र में एफडीआई लाने की कोशिश की थी. इसको लेकर कांग्रेस और उसके सहयोगियों के बीच ही विवाद शुरू हो गया था. इस कारण ‘अधिकतम सरकार और न्यूनतम शासन’ की दशा साफ दिखने लगी थी.

ऐसे में देश की जनता को शायद एक मजबूत नेता का इंतजार था. इस निराशाजनक माहौल में मोदी का पदार्पण होता है. उन्होंने गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए वहां के कथित विकास को बखूबी भुनाया. उन्होंने जनता को आश्वस्त किया कि उनकी सरकार के आने के बाद देश की विकास दर बढ़ेगी, इससे सबका विकास संभव होगा. उन्होंने दिखाया कि कैसे उनकी नीतियों की बदौलत निर्माण और कृषि क्षेत्र में बढ़ोतरी हुई. यह सब इसलिए हुआ क्योंकि उन्होंने ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’ और बिना भ्रष्टाचार के पूर्ण पारदर्शिता की अवधारणा का अनुसरण करने की बात कही थी. इसी तरह मोदी ने लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान और प्रधानमंत्री बनने के बाद ‘न खाऊंगा और न खाने दूंगा’ के नारे को भी बार-बार दोहराया. कम विकास, ऊंची मुद्रास्फीति और नौकरियों की कमी के दौर में भ्रष्टाचार के निशान किसी भी सरकार की छवि को पूरी तरह से बर्बाद कर देते हैं. यूपीए-दो सरकार में भ्रष्टाचार के इतने मामले उजागर होने के बाद उच्च, मध्य और निम्न, हर वर्ग का व्यक्ति सरकार से नाराज था. सरकार का रिश्ता समुदाय, जाति और धर्म से छूट गया. इससे पता चलता है कि 2014 के लोकसभा चुनावों में समाज के सभी वर्गों ने भाजपा को क्यों चुना.

विडंबना यह है कि अगर प्रणब मुखर्जी, पी. चिदंबरम और अरुण जेटली के विभिन्न बजट भाषणों की तुलना की जाए तो देखा जा सकता है कि इनमें कितनी समानताएं हैं. जिन प्रमुख मुद्दों पर उन्होंने प्रकाश डाला है, जिन पर जोर दिया है और जो भाषा इस्तेमाल की है, ऐसा लगता है कि तीनों ने उदारतापूर्वक एक-दूसरे से इन्हें उधार मांगा है. इससे साबित होता है कि ज्यादातर वित्तमंत्री एक ही समूह का हिस्सा हैं. हालांकि प्रचलित सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक माहौल में लोग किसी एक की तुलना में दूसरे पर ज्यादा भरोसा करते हैं.

इस निष्कर्ष को साबित करने के लिए कुछ घटनाक्रमों पर नजर डालते हैं. अपने दूसरे बजट भाषण में जेटली ने कहा है, ‘राजग-दो सरकार की तीन में से एक उपलब्धि ‘जन-धन योजना’ की सफलता थी. किसने सोचा था कि 100 दिनों के कम समय में 12.5 करोड़ से ज्यादा परिवार वित्तीय रूप से मुख्यधारा में लाए जा सकेंगे.’ जेटली के अनुसार उनकी सरकार की पहल पर इस योजना के तहत गरीब लोगों के बैंक खाते खोले गए. लेकिन क्या वास्तव में यह उनकी सरकार की पहल थी? इससे पहले जेटली ने स्वीकार किया है कि दशकों से वित्तीय समावेशन की बात हो रही है. अपने बजट भाषण में वे यह बताने से बचते रहे कि 2009 के अपने बजट भाषण में मुखर्जी ने कहा था कि यूपीए-एक सरकार ने बिना किसी तामझाम के जीरो बैलेंस या बहुत ही कम पैसे पर बैंक खाते खोलने की प्रक्रिया शुरू की है.

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कहानियां कुछ शहर-शहर सी

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चार कदमों से दो लोग आगे बढ़ते जा रहे हैं. दो हाथ बंधे हैं और दो खुले. पांव के नीचे की सड़क चल रही हैं और सर से आसमान गुजर रहा है. हिंदू कॉलेज की दीवारों के साथ गिरे पड़े पत्तों पर फ्रूटी के टेट्रा पैक फेंकने की धप्प आवाज से नींद टूट गई थी. हम दीवारों के साए में क्यों चल रहे हैं, समर. इस तरफ से क्यों नहीं जिस तरफ खुली सड़क है.

ऐसा होता नहीं है मेरी दोस्त. इश्क में जिस तरफ से भी चलो, तुम दीवारों के साए से घिर जाओगी. ये जो आसमान है जिससे तुम्हें लगता है कि एक खुला-सा साया है, दरअसल पहरा है. तो समर, मैं तुम्हारी निगाह में हूं या कायनात की? ऐसा नहीं है… मेरी निगाह में तो हो तुम, लेकिन दीवारों की निगाह से बचके नहीं. कम-से-कम तुम मेरा नाम लेकर तो बुला सकते थे…या कोई सुन भी रहा है…

यह क्या है? कहानी. जी हां! यह कहानी की एक नई विधा है-लप्रेक. लघु प्रेम कथा. ‘इश्क में शहर होना’ किताब में इतनी या इससे भी छोटी-छोटी कई प्रेम कहानियां शामिल की गई हैं. इस किताब का प्रकाशन राजकमल के नए उपक्रम ‘सार्थक’ के तहत ‘फेसबुक फिक्शन श्रृंखला’ में किया गया है. इस श्रृंखला की अगली किताबें मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार और पत्रकार गिरीन्द्र नाथ झा की आएंगी.

वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार ने इस विधा को जन्म दिया है. रवीश ने इन कहानियों को फेसबुक जैसे जल्दबाजीवाले माध्यम पर रचा है. कहानियां छोटी होने की वजह से यह पाठकों को कई बार अचरज में डालती है तो कई बार उत्सुकता भी पैदा करती है. कई बार अरुचि भी पैदा करती है. रवीश खुद ही कहते हैं- ‘सभी कहानियां मेरे आसपास घटी हैं. इन कहानियों को विस्तार देने की कला मुझमें नहीं है. फेसबुक के कैरेक्टर को ध्यान में रखकर कहानियों का आकार हर हाल में छोटा ही रखना था. फेसबुक पर लोगों ने इसे बहुत पसंद किया. मैंने इन कहानियों को लिखते वक्त कभी सोचा नहीं था कि इसे किताब की शक्ल भी दी जा सकती है. यह तो सत्यानंद निरूपम और विनीत की वजह से संभव हो पाया है.’

आलोचक और साहित्यकार लप्रेक की आलोचना कर रहे हैं. कुछ इसके पक्ष में तो कुछ विपक्ष में हैं. सोशलसाइट फेसबुक पर लप्रेक की पैरोडी झप्रेक (झंझटी प्रेम कहानी) और मप्रेक (मेट्रो प्रेम कहानियां) भी लिखी जा रही हैं. इनसे परे हटकर बिक्री का आंकड़ा देंखे तो किताब की 7200 प्रतियां विश्व पुस्तक मेले में ही खप गईं थीं. यह एनडीवी टीवी के ‘रवीश की पाठशाला’ या ‘प्राइम टाइम’ वाले रवीश की लोकप्रियता का जादू है या इस नई विधा का, इस सवाल के जवाब में रवीश कुमार बताते हैं, ‘यह संभव है कि मेरी किताब की कीमत कम होने और मेरी लोकप्रियता के चलते लोग मेरी किताब खरीद ले रहे हों लेकिन वे पढ़कर मुझे हर रोज बड़ी संख्या में किताब के बारे में प्रतिक्रिया दे रहे हैं.’ प्रतिक्रिया देनेवाले कौन लोग हैं, इसके जवाब में वे कहते हैं- ‘कुछ अंग्रेजी के पाठक हैं. पाठ्यक्रम से इतर पहली बार किसी किताब को हाथ लगाने वाले, लड़के-लड़कियां और कुछ साहित्य की गंभीर समझ रखने वाले भी.’

हिंदी कहानी में इस तरह के दूसरे प्रयोग भी हो रहे हैं. हिन्द-युग्म और अंतिका प्रकाशन ने भी कुछ नए चेहरों को छापा है, जो हिंदी कहानी के एक नये पाठक वर्ग को आकर्षित करेगा. हिंदी युग्म ने दिव्य प्रकाश दुबे की ‘टर्म एंड कंडीशन्स अप्लाई’ और ‘मसाला चाय’, निखिल सचान की ‘नमक स्वादानुसार’, अनु सिंह चौधरी की ‘नीला स्कार्फ’ और अंतिका ने विनोद घनशाला की ‘नकाब’ प्रकाशित की है. इन कहानियों के नैरेशन, मुहावरे, संवाद की शैली पारंपरिक या हिंदी की मुख्यधारा की कहानियों से बिल्कुल अलहदा हैं. इन कहानियों में नॉस्टैलजिया भी बहुत है. अंग्रेजी शब्दों को अंग्रेजी वर्णमाला में लिखने का चलन आधुनिक शहरी मध्यवर्ग के बोलचाल के बदले ढंग से आया है. शहरी नई जीवनशैली के दबाव में स्त्री-पुरुष के बीच बढ़ रही टकराहटों को भी रेखांकित किया गया है. आपकी कहानियों के पात्र और पाठक कौन लोग हैं, इसके जवाब में दिव्य प्रकाश दुबे बताते हैं कि मेरी कहानियों के पात्र और पाठक दोनों नए उभरते हुए मध्यवर्ग से आते हैं. ये वो लोग हैं जो या तो पब्लिक स्कूल में पढ़ रहे हैं या पढ़कर निकले हों या फिर सरकारी स्कूलों से पढ़कर कॉरपोरेट सेक्टर में नौकरी कर रहे हों. आपने अंग्रेजी शब्दों को अंग्रेजी वर्णमाला में ही क्यों अपनी कहानियों में लिखा है- ‘आप मेरी कहानी जीवनशादी डॉटकॉम के शीर्षक को ही लें तो इसे हिंदी और अंग्रेजी में पढ़कर देंखे. जाहिर है कि आपको अंग्रेजी में पढ़ने में सहजता महसूस होगी. पिछले 1०-2० सालों में बातचीत में अंग्रेजी के शब्दों का प्रचलन बढ़ा है. आप यह महसूस करेंगे कि आपके आसपास रहनेवाले मध्यवर्गीय परिवारों के सदस्य कई बार आधा वाक्य हिंदी में और आधा अंग्रेजी में बोल रहे हैं. मेरी कहानी श्रीलाल शुक्ल के ‘रागदरबारी’ या प्रेमचंद की ‘ईदगाह’ नहीं होने जा रही है. मैं आइडिया सेलुलर नेटवर्क कंपनी में काम करता हूं. वीकएंड पर कहानियां लिखता था और ऑफिस के दोस्तों को सुनाता था तो उन्हें बहुत पसंद आती थीं.’

रवीश कुमार की लप्रेक ‘इश्क में शहर होना’  विश्व पुस्तक मेले में प्रकाशित होकर आई और सात-आठ दिनों में ही 7000 से ज्यादा प्रतियां खप गईं

कॉरपोरेट सेक्टर में काम करनेवाले अमित ढांढा एक सुबह दिल्ली मेट्रो में सवार गुड़गांव जा रहे थे और उनके हाथ में ‘मसाला चाय’ देखी तो पूछ लिया कि आपको कहानियां कैसी लगीं? जवाब था- ‘मैंने अभी-अभी जीवनशादी डॉटकॉम कहानी खत्म की है. ऐसा लग रहा है कि यह कहानी मेरी या मेरे आसपास के किसी दोस्त की है. विद्या कसम कहानी भी पढ़ी. ऐसा लगा कि मेरे बचपन को कहानी में उतार दिया गया है. बड़ा अच्छा लगता है पुराने दिनों को खासकर बचपन को याद करके.’ इस संवाददाता के यह पूछने पर कि आपका अधिकांश समय तो कंपनी में खप जाता होगा तब फिर आप पढ़ने का समय कब निकालते हैं, इसके जवाब में अमित बताते हैं, ‘इन किताबों में भारी-भरकम मसले भी बहुत हल्के-फुलके अंदाज में पेश किए गए हैं इसलिए पढ़ने में ज्यादा वक्त नहीं लगता है. एक बात और है कि इस किताब की कहानियों का दिमाग पर असर भी बहुत कम देर ही रहता है.’

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हिंदी कहानी में नएपन का छौंका  देने का काम विनोद घनशाला की ठगी पर आधारित कहानी संग्रह ‘नकाब’ भी खूब कर रहा है. यह अंतिका प्रकाशन से छपकर आई है. इसमें कुल पांच कहानियां हैं, जो सच्ची घटनाओं पर आधारित हैं. एक कहानीकार का एक कांसेप्ट पर पूरा कहानी संग्रह हिंदी प्रकाशन जगत में अनोखी घटना है. मजेदार तो यह है कि विनोद की योजना ठगी पर आधारित 150 कहानियां लिखने की हैं. ‘तहलका’ के इस संवाददाता ने जब विनोद घनशाला से पूछा कि आप पेशे से बिल्डर हैं फिर कहानियां लिखने का खयाल आपके मन में कैसे आया? वह बताते हैं- ‘मैं पांच साल ‘इप्टा’ के साथ जुडकर रंगकर्म में सक्रिय रहा हूं.  रचनात्मक खदबदाहट आपके भीतर आसपास की घटनाओं के मद्देनजर ही पैदा होती हैं. यकीन मानिए भवन-निर्माण के इस पेशे में मैं खुद ही ठगी का शिकार हुआ हूँ. धीरे-धीरे इतने किस्से मेरे अनुभव की गठरी में इकट्ठा होते चले गए जो मुझे अंदर तक बेचैन करते देते हैं. मुझे लगा कि क्यों न इन कहानियों को लिखा जाए? मई में मेरी दूसरी किताब छपकर आ जाएगी.’ क्या आपको इस किताब को लेकर कोई ऐसी प्रतिक्रिया मिली है जिसने आपका उत्साह बढ़ाया हो? विनोद मुस्कराते हुए कहते हैं, ‘वैसी तो अलग-अलग कहानियों को लेकर अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाएं आई हैं लेकिन एक जिक्र यहां करना चाहूंगा. इस संग्रह की कहानी ‘पैमाइश’ को पढ़कर एक पूर्व डीजी साहब उछल पड़े. वजह यह थी कि वे उस कहानी के पात्र से पहले से परिचित थे. इस कहानी के किरदार ने 90 के दशक में भोपाल शहर में 1 करोड़ रुपये की ठगी की थी. निश्चित तौर पर ऐसी प्रतिक्रियाओं से  मेरा या किसी भी कहानीकार हौसला बढ़ता है.’

‘अ’सत्य कथाएं

गोरखपुर से 40 किलोमीटर दूर एक गांव के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में डॉक्टरी कर रहे एक मित्र और तहलका के नियमित पाठक से दो-ढाई महीने पहले हुई बातचीत के दौरान एक बात सामने आई थी उसे तहलका के पाठकों से साझा करना जरूरी है. यह इसलिए जरूरी है क्योंकि इस अंक की कल्पना की एक कड़ी उस बातचीत से भी जुड़ी है. डॉक्टर साब ने कहा, ‘तहलका बहुत ही गंभीर और गरिष्ठ होती है, राजनीतिक विषयों पर ज्यादा केंद्रित होती है. हमारे जैसे राजनीति में कम रुचि रखनेवालों के लिए भी कभी-कभार कुछ आना चाहिए.’ तहलका अपने स्वभाव के मुताबिक ही डॉक्टर साब की इच्छा को पूरी कर सकता था. इसके लिए एक अदद अवसर और एक नए विचार की दरकार थी. मौका और दस्तूर की ताक में लगी तहलका की टीम को यह अवसर होली के रूप में मिला और विचार राजनीति और इतिहास से जुड़ी कुछ बेहद प्रचलित गप्पबाजियों के रूप में.

होली और ठिठोली का रिश्ता ऐसा ही है जैसे हमारी फिल्मों और साहित्य में वर्णित चोली और दामन का, बेहद गहरा, बेहद करीब. इसी मौके को ध्यान में रखकर इस अंक की आवरण कथा बुनी गई है. इसमें देश के गंवई और शहरी समाज के ताने-बाने में गुंथी हुई कुछेक गल्प कथाएं समाहित की गई हैं. इन कहानियों से हम सबका सामना चौक-चौबारों, चाय की दुकानों, पंचायतों, चलती ट्रेनों, रुकी हुई बसों, खाप की बैठकों, दारुल-शफा की अड़ियों, गंगा के घाटों पर जमनेवाली बैठकी में गाहे बगाहे होता रहता है. तर्क, सच्चाई और यथार्थ की जमीन से दो इंच ऊपर चलनेवाली ये कहानियां अपने कहन में जो भरोसा समेटे होती हैं और भाषा में जो छौंका लगाए होती हैं वह इसे न सिर्फ विश्वसनीय बना देता है बल्कि साल दर साल मौखिक रूप में आगे बढ़ते-बढ़ते इतना परिष्कृत और संशोधित हो जाता है कि एक पीढ़ी इन कहानियों पर यकीन करने लगती है.

लेकिन एक पत्रिका के रूप में तहलका की अपनी पत्रकारीय जिम्मेदारी भी  है. जिम्मेदारी का तकाजा है कि कहानियां तो सबके सामने आएं लेकिन पाठकों को यह न लगे कि तहलका उन कहानियों का समर्थन कर रहा या उन्हें विश्वसनीय बना रहा है. जितने दिलचस्प तरीके से भारतीय समाज के बीच फैली इन कहानियों को पाठकों के सामने रखा गया है उतने ही तर्कसंगत तरीके से उन कहानियों की निर्मम पड़ताल भी की गई है. ज्यादातर कहानियां तर्क की कसौटी पर आकर दम तोड़ देती हैं. इन तमाम बातों से अलग एक सच्चाई यह भी है ही कि तमाम आधुनिकता, उदारीकरण और सूचना क्रांति के बावजूद एक बड़ा समाज इससे कटा हुआ है, उसकी अपनी अलग दुनिया है, उसके अपने सच हैं, उसका अपना इतिहास है, उसका अपना तर्कशास्त्र है. एक जरूरत के रूप में तार्किकता को अपनाना इस हिस्से में अभी भी शेष है. लेकिन यह होली का मौका है और इस मौके पर इन कहानियों से रूबरू होना बिल्कुल जायज है. इनमें से ज्यादातर कहानियां हंसाती हैं, गुदगुदादी हैं, थोड़ा परेशान भी करती हैं. लेकिन आप बुरा न मानें, सामने होली है.