कहानियां कुछ शहर-शहर सी

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चार कदमों से दो लोग आगे बढ़ते जा रहे हैं. दो हाथ बंधे हैं और दो खुले. पांव के नीचे की सड़क चल रही हैं और सर से आसमान गुजर रहा है. हिंदू कॉलेज की दीवारों के साथ गिरे पड़े पत्तों पर फ्रूटी के टेट्रा पैक फेंकने की धप्प आवाज से नींद टूट गई थी. हम दीवारों के साए में क्यों चल रहे हैं, समर. इस तरफ से क्यों नहीं जिस तरफ खुली सड़क है.

ऐसा होता नहीं है मेरी दोस्त. इश्क में जिस तरफ से भी चलो, तुम दीवारों के साए से घिर जाओगी. ये जो आसमान है जिससे तुम्हें लगता है कि एक खुला-सा साया है, दरअसल पहरा है. तो समर, मैं तुम्हारी निगाह में हूं या कायनात की? ऐसा नहीं है… मेरी निगाह में तो हो तुम, लेकिन दीवारों की निगाह से बचके नहीं. कम-से-कम तुम मेरा नाम लेकर तो बुला सकते थे…या कोई सुन भी रहा है…

यह क्या है? कहानी. जी हां! यह कहानी की एक नई विधा है-लप्रेक. लघु प्रेम कथा. ‘इश्क में शहर होना’ किताब में इतनी या इससे भी छोटी-छोटी कई प्रेम कहानियां शामिल की गई हैं. इस किताब का प्रकाशन राजकमल के नए उपक्रम ‘सार्थक’ के तहत ‘फेसबुक फिक्शन श्रृंखला’ में किया गया है. इस श्रृंखला की अगली किताबें मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार और पत्रकार गिरीन्द्र नाथ झा की आएंगी.

वरिष्ठ पत्रकार रवीश कुमार ने इस विधा को जन्म दिया है. रवीश ने इन कहानियों को फेसबुक जैसे जल्दबाजीवाले माध्यम पर रचा है. कहानियां छोटी होने की वजह से यह पाठकों को कई बार अचरज में डालती है तो कई बार उत्सुकता भी पैदा करती है. कई बार अरुचि भी पैदा करती है. रवीश खुद ही कहते हैं- ‘सभी कहानियां मेरे आसपास घटी हैं. इन कहानियों को विस्तार देने की कला मुझमें नहीं है. फेसबुक के कैरेक्टर को ध्यान में रखकर कहानियों का आकार हर हाल में छोटा ही रखना था. फेसबुक पर लोगों ने इसे बहुत पसंद किया. मैंने इन कहानियों को लिखते वक्त कभी सोचा नहीं था कि इसे किताब की शक्ल भी दी जा सकती है. यह तो सत्यानंद निरूपम और विनीत की वजह से संभव हो पाया है.’

आलोचक और साहित्यकार लप्रेक की आलोचना कर रहे हैं. कुछ इसके पक्ष में तो कुछ विपक्ष में हैं. सोशलसाइट फेसबुक पर लप्रेक की पैरोडी झप्रेक (झंझटी प्रेम कहानी) और मप्रेक (मेट्रो प्रेम कहानियां) भी लिखी जा रही हैं. इनसे परे हटकर बिक्री का आंकड़ा देंखे तो किताब की 7200 प्रतियां विश्व पुस्तक मेले में ही खप गईं थीं. यह एनडीवी टीवी के ‘रवीश की पाठशाला’ या ‘प्राइम टाइम’ वाले रवीश की लोकप्रियता का जादू है या इस नई विधा का, इस सवाल के जवाब में रवीश कुमार बताते हैं, ‘यह संभव है कि मेरी किताब की कीमत कम होने और मेरी लोकप्रियता के चलते लोग मेरी किताब खरीद ले रहे हों लेकिन वे पढ़कर मुझे हर रोज बड़ी संख्या में किताब के बारे में प्रतिक्रिया दे रहे हैं.’ प्रतिक्रिया देनेवाले कौन लोग हैं, इसके जवाब में वे कहते हैं- ‘कुछ अंग्रेजी के पाठक हैं. पाठ्यक्रम से इतर पहली बार किसी किताब को हाथ लगाने वाले, लड़के-लड़कियां और कुछ साहित्य की गंभीर समझ रखने वाले भी.’

हिंदी कहानी में इस तरह के दूसरे प्रयोग भी हो रहे हैं. हिन्द-युग्म और अंतिका प्रकाशन ने भी कुछ नए चेहरों को छापा है, जो हिंदी कहानी के एक नये पाठक वर्ग को आकर्षित करेगा. हिंदी युग्म ने दिव्य प्रकाश दुबे की ‘टर्म एंड कंडीशन्स अप्लाई’ और ‘मसाला चाय’, निखिल सचान की ‘नमक स्वादानुसार’, अनु सिंह चौधरी की ‘नीला स्कार्फ’ और अंतिका ने विनोद घनशाला की ‘नकाब’ प्रकाशित की है. इन कहानियों के नैरेशन, मुहावरे, संवाद की शैली पारंपरिक या हिंदी की मुख्यधारा की कहानियों से बिल्कुल अलहदा हैं. इन कहानियों में नॉस्टैलजिया भी बहुत है. अंग्रेजी शब्दों को अंग्रेजी वर्णमाला में लिखने का चलन आधुनिक शहरी मध्यवर्ग के बोलचाल के बदले ढंग से आया है. शहरी नई जीवनशैली के दबाव में स्त्री-पुरुष के बीच बढ़ रही टकराहटों को भी रेखांकित किया गया है. आपकी कहानियों के पात्र और पाठक कौन लोग हैं, इसके जवाब में दिव्य प्रकाश दुबे बताते हैं कि मेरी कहानियों के पात्र और पाठक दोनों नए उभरते हुए मध्यवर्ग से आते हैं. ये वो लोग हैं जो या तो पब्लिक स्कूल में पढ़ रहे हैं या पढ़कर निकले हों या फिर सरकारी स्कूलों से पढ़कर कॉरपोरेट सेक्टर में नौकरी कर रहे हों. आपने अंग्रेजी शब्दों को अंग्रेजी वर्णमाला में ही क्यों अपनी कहानियों में लिखा है- ‘आप मेरी कहानी जीवनशादी डॉटकॉम के शीर्षक को ही लें तो इसे हिंदी और अंग्रेजी में पढ़कर देंखे. जाहिर है कि आपको अंग्रेजी में पढ़ने में सहजता महसूस होगी. पिछले 1०-2० सालों में बातचीत में अंग्रेजी के शब्दों का प्रचलन बढ़ा है. आप यह महसूस करेंगे कि आपके आसपास रहनेवाले मध्यवर्गीय परिवारों के सदस्य कई बार आधा वाक्य हिंदी में और आधा अंग्रेजी में बोल रहे हैं. मेरी कहानी श्रीलाल शुक्ल के ‘रागदरबारी’ या प्रेमचंद की ‘ईदगाह’ नहीं होने जा रही है. मैं आइडिया सेलुलर नेटवर्क कंपनी में काम करता हूं. वीकएंड पर कहानियां लिखता था और ऑफिस के दोस्तों को सुनाता था तो उन्हें बहुत पसंद आती थीं.’

रवीश कुमार की लप्रेक ‘इश्क में शहर होना’  विश्व पुस्तक मेले में प्रकाशित होकर आई और सात-आठ दिनों में ही 7000 से ज्यादा प्रतियां खप गईं

कॉरपोरेट सेक्टर में काम करनेवाले अमित ढांढा एक सुबह दिल्ली मेट्रो में सवार गुड़गांव जा रहे थे और उनके हाथ में ‘मसाला चाय’ देखी तो पूछ लिया कि आपको कहानियां कैसी लगीं? जवाब था- ‘मैंने अभी-अभी जीवनशादी डॉटकॉम कहानी खत्म की है. ऐसा लग रहा है कि यह कहानी मेरी या मेरे आसपास के किसी दोस्त की है. विद्या कसम कहानी भी पढ़ी. ऐसा लगा कि मेरे बचपन को कहानी में उतार दिया गया है. बड़ा अच्छा लगता है पुराने दिनों को खासकर बचपन को याद करके.’ इस संवाददाता के यह पूछने पर कि आपका अधिकांश समय तो कंपनी में खप जाता होगा तब फिर आप पढ़ने का समय कब निकालते हैं, इसके जवाब में अमित बताते हैं, ‘इन किताबों में भारी-भरकम मसले भी बहुत हल्के-फुलके अंदाज में पेश किए गए हैं इसलिए पढ़ने में ज्यादा वक्त नहीं लगता है. एक बात और है कि इस किताब की कहानियों का दिमाग पर असर भी बहुत कम देर ही रहता है.’

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हिंदी कहानी में नएपन का छौंका  देने का काम विनोद घनशाला की ठगी पर आधारित कहानी संग्रह ‘नकाब’ भी खूब कर रहा है. यह अंतिका प्रकाशन से छपकर आई है. इसमें कुल पांच कहानियां हैं, जो सच्ची घटनाओं पर आधारित हैं. एक कहानीकार का एक कांसेप्ट पर पूरा कहानी संग्रह हिंदी प्रकाशन जगत में अनोखी घटना है. मजेदार तो यह है कि विनोद की योजना ठगी पर आधारित 150 कहानियां लिखने की हैं. ‘तहलका’ के इस संवाददाता ने जब विनोद घनशाला से पूछा कि आप पेशे से बिल्डर हैं फिर कहानियां लिखने का खयाल आपके मन में कैसे आया? वह बताते हैं- ‘मैं पांच साल ‘इप्टा’ के साथ जुडकर रंगकर्म में सक्रिय रहा हूं.  रचनात्मक खदबदाहट आपके भीतर आसपास की घटनाओं के मद्देनजर ही पैदा होती हैं. यकीन मानिए भवन-निर्माण के इस पेशे में मैं खुद ही ठगी का शिकार हुआ हूँ. धीरे-धीरे इतने किस्से मेरे अनुभव की गठरी में इकट्ठा होते चले गए जो मुझे अंदर तक बेचैन करते देते हैं. मुझे लगा कि क्यों न इन कहानियों को लिखा जाए? मई में मेरी दूसरी किताब छपकर आ जाएगी.’ क्या आपको इस किताब को लेकर कोई ऐसी प्रतिक्रिया मिली है जिसने आपका उत्साह बढ़ाया हो? विनोद मुस्कराते हुए कहते हैं, ‘वैसी तो अलग-अलग कहानियों को लेकर अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाएं आई हैं लेकिन एक जिक्र यहां करना चाहूंगा. इस संग्रह की कहानी ‘पैमाइश’ को पढ़कर एक पूर्व डीजी साहब उछल पड़े. वजह यह थी कि वे उस कहानी के पात्र से पहले से परिचित थे. इस कहानी के किरदार ने 90 के दशक में भोपाल शहर में 1 करोड़ रुपये की ठगी की थी. निश्चित तौर पर ऐसी प्रतिक्रियाओं से  मेरा या किसी भी कहानीकार हौसला बढ़ता है.’