भारतीय अर्थव्यवस्था नई बोतल में पुरानी शराब

फोटोः एएफपी
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यूपीए-एक और यूपीए-दो के दौरान पी. चिदंबरम तीन बार वित्तमंत्री बनाए गए और उन्होंने नौ बार सामान्य बजट और दो बार अंतरिम बजट पेश किया. चिदंबरम ने कांग्रेस, तीसरा मोर्चा, यूपीए-एक और यूपीए-दो के शासन के दौरान वित्त मंत्रालय और गृह मंत्रालय का जिम्मा अलग-अलग समय में सम्भाला. उन्होंने 1991 में देश की बदहाल अर्थव्यवस्था से लेकर 2005-06 और 2007-08 के दौरान तेज गति से बढ़ती अर्थव्यवस्था वाले दिन देखे. 2005 से लेकर 2008 तक लगभग 11 तिमाही के दौरान देश की विकास दर आठ फीसदी से ज्यादा की रही. जो भी हो चिदंबरम यह समझते होंगे कि वे कभी ऐसे वित्त मंत्री से नहीं मिले जिनके समय में देश की अर्थव्यवस्था की दर आठ या इससे ज्यादा की रही होगी. चिदंबरम के अनुसार, ‘यूपीए-दो के शासन के दौरान देश की अर्थव्यवस्था की दुर्गति हुई है जब प्रणब मुखर्जी के पास वित्त मंत्रालय का जिम्मा था.’ गौरतलब है कि वर्तमान राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी यूपीए-दो में पहले चार साल तक वित्त मंत्री रहे थे. चिदंबरम का मानना है कि यूपीए-एक के दौरान उन्होंने समेकित विकास के मद्देनजर जो आर्थिक नीतियां बनाई और लागू कीं, उसका प्रणब मुखर्जी ने सत्यानाश कर दिया. चिदंबरम ने पांच साल के दौरान अर्थव्यवस्था को मजबूती दी, उन नीतियों का गला 2009 में प्रणब मुखर्जी ने अपने चंद फैसलों से घोंट दिया.

वर्तमान केंद्र सरकार के मौजूदा वित्तमंत्री अरुण जेटली भी अर्थव्यवस्था के दलदल में फंसते हुए नजर आ रहे हैं. वह भी इस दलदल से निकलने की बजाय मुखर्जी की तरह ही खुद को बचाने की फिराक में लगे हुए जान पड़ते हैं. उनकी अब तक की नीतियों से यह संभावना पैदा हुई है कि आगामी दो साल में अर्थव्यवस्था और भी बदहाल स्थिति में पहुंच जाएगी. अर्थव्यवस्था की पतली हालत से उन्हें सिर्फ एक ही चीज बचा सकती है, नरेंद्र मोदी जैसी तेज किस्मत. चिदंबरम का मानना है कि कोई वित्तमंत्री वित्तीय सुदृढ़ीकरण के प्रयास को पीछे कैसे छोड़ सकता है? उनकी मानें तो जेटली और मुखर्जी दोनों ही अर्थव्यवस्था की बदहाली के लिए दोषी हैं.

मुखर्जी और जेटली की परिस्थितियों में अंतर है. मुखर्जी के मुताबिक 2008 में जब वे वित्तमंत्री थे तब विश्व अर्थव्यवस्था पूरी तरह आर्थिक मंदी की चपेट में थी और उनके पास इससे बचने का कोई चारा नहीं था. उन्हें यह सुनिश्चित करना था कि भारत की अर्थव्यवस्था इस मंदी के दुष्प्रभावों से बची रहे. जेटली की मानें तो इस हालत के लिए प्रणब मुखर्जी और पी. चिदंबरम दोनों ही दोषी हैं. अरुण जेटली ने 2015 में अपना दूसरा बजट पेश किया. जानकारों की मानें तो बीते एक दशक में यह सबसे रचनात्मक बजट है. वे ऐसा मान रहे हैं कि इस बजट के बाद अर्थव्यवस्था की सेहत सुधरेगी, विकास दर में तेजी आएगी और गरीबी खत्म होगी.

एक-दूसरे की नीतियों को गलत बताने और अर्थव्यवस्था के पिछड़ने के लिए दूसरे को जिम्मेदार ठहराने के इस खेल को समझने के लिए 2009 के समय की आर्थिक नीतियों को एक बार देखने की दरकार होगी. उस समय कांग्रेस सत्तारूढ़ थी. यह वही समय था जब कांग्रेस दोबारा सत्ता में आई थी और विश्व अर्थव्यवस्था में संकट का दौर शुरू हो गया था. इस दौरान अमेरिका जैसे विकसित देश भी मंदी की चपेट में थे. आर्थिक मामलों के जानकार विश्व अर्थव्यवस्था के इस संकट की तुलना 1930 की महामंदी से करने लगे थे. दुनिया के सभी मुल्कों की विकास दर की गति सुस्त पड़ गई थी. यह अनुमान लगाया जा रहा था कि जल्द ही इसकी जद में तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था वाले देश चीन और भारत भी आ जाएंगे.

तात्कालिक प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने अर्थव्यवस्था के विकास की गति को बनाए रखने के लिए दिसंबर 2008 में विशेष आर्थिक पैकेज मुहैया कराया. प्रणब मुखर्जी पहली बार जनवरी 2009 में और दूसरी बार मई 2009 में वित्तमंत्री बने. उन्होंने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए इसी विशेष पैकेज का सहारा लिया. उन्होंने 2009 में अपने बजट भाषण में कहा कि उनका लक्ष्य मांग में वृद्धि करना और सार्वजनिक परियोजना को विस्तार देना है ताकि रोजगार सृजन बड़े पैमाने पर हो तथा सार्वजनिक परिसंपत्तियों में वृद्घि हो सके. यह एक स्टैंडर्ड कीन्सियन समाधान था. 1930 में महामंदी के दौरान जॉन मेनार्ड कीन्स ने कहा था कि अर्थव्यवस्था को मंदी से बाहर निकालने के लिए सरकारों को सार्वजनिक खर्च में इजाफा करना चाहिए. कई विकसित देशों ने मेनार्ड कीन्स के सुझावों को अमल में लाया था. प्रणब मुखर्जी ने भी 2009 में अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए कीन्स के सुझावों पर अमल किया. उनकी यह पहल सफल रही थी. इस दौरान दुनिया के सिर्फ दो मुल्कों- चीन और भारत की अर्थव्यवस्था अपनी विकास दर तेज बनाए रखने में सफल रही थी.

हालांकि इसका दूसरा पक्ष यह रहा कि भारत का राजकोषीय घाटा बढ़ता रहा. 2007-08 में राजकोषीय घाटा कुल जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) का 2.7 फीसदी से बढ़कर 2008-09  सात फीसदी तक पहुंच गया था. विशेष आर्थिक पैकेज के तौर पर कुल 1,86,000 करोड़ रुपये वितरित किए गए. संभवतः महंगाई दर में इजाफे के लिए यह एक महत्वपूर्ण कारक रहा होगा. राजकोषीय घाटा को पूरा करने के लिए सरकार ने नोट छापे. इसका परिणाम यह हुआ कि खाद्य वस्तुओं की कीमतें आसमान छूने लगीं और यूपीए-दो का राजनीतिक बंटाधार होना शुरू हो गया. रोजमर्रा की वस्तुएं मसलन टमाटर, आलू, प्याज आदि की कीमतें सौ फीसदी तक बढ़ गईं, जिसका परिणाम लोकसभा चुनाव में यूपीए-दो को भुगतना पड़ा. महंगाई दर में बढ़ोत्तरी की वजह से 2009 से लेकर 2013 के बीच हुए कई राज्यों (पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक, बिहार और दिल्ली) में विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी. 2013 में चिदंबरम ने बजट भाषण में यह संकेत देते हुए कहा था, ‘मुद्रास्फीति दर ऊंची रहने की वजह से आर्थिक संकट का दौर बना रहेगा और महंगाई दर को नियंत्रण में रखने के लिए सख्त मौद्रिक नीतियां बनानी होंगी.’

मुश्किल वित्तमंत्री अरुण जेटली के सामने वनमार्ण क्ेत्र में वनिेश को पुनजीर्वित करने की चुनौती है
मुश्किल वित्तमंत्री अरुण जेटली के सामने वनमार्ण क्ेत्र में वनिेश को पुनजीर्वित करने की चुनौती है

वैश्विक परिदृश्य में आए बदलाव की वजह से ऐसा हुआ. कच्चे तेल के भाव चढ़ने लगे थे. एक जनवरी 2010 को कच्चे तेल की कीमत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 80 डॉलर प्रति बैरल थी लेकिन 2011 के शुरुआत में कीमतें बढ़कर प्रति बैरल 110 डॉलर तक पहुंच गई. आगे यह भाव 50 फीसदी तक बढ़कर 120 डॉलर प्रति बैरल हो गया. चार साल के दौरान यह सर्वाधिक कीमत थी. हालांकि लंबे समय तक कच्चे तेल की कीमत 110 डॉलर प्रति बैरल के करीब बनी रही. 2012 के मध्य में कच्चे तेल के भाव में नरमी आई और यह गिरकर 90 डॉलर प्रति बैरल रह गई. लेकिन चंद हफ्तों के बाद ही कच्चे तेल के भाव में वृद्घि दर्ज की गई और यह फिर से 110 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच गई.

अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के भाव में वृद्घि होने से भारत को सर्वाधिक नुकसान उठाना पड़ा क्योंकि भारत ऐसा देश है जो अपनी ईंधन जरूरतों का बहुत बड़ा हिस्सा आयात करता है. 2013-14 में भारत द्वारा आयातित तेल का हिस्सा बढ़कर कुल तेल खपत का 70 फीसदी हो गया. इसी तरह भारत सोने का भी सबसे बड़ा आयातक देश है इसलिए भारत का आयात पर खर्च बढ़ता रहा. व्यापार संतुलन इस कदर बिगड़ गया कि आयात और निर्यात का अंतर 2011-12 की तुलना में बढ़कर 2012-13 में 200 अरब डॉलर हो गया. 2011-12 में आयात और निर्यात के बीच का अंतर 100 अरब डॉलर था. चालू वित्तीय घाटा अनियंत्रित किस्म से बढ़ा. इन सबके चलते भारत की अर्थव्यवस्था पर इसका असर कई स्तरों पर पड़ा.

2014 में जून से दिसंबर के मध्य रुपये के भाव बुरी तरह से गिर रहे थे. रुपये का भाव प्रति डॉलर 59 रुपये से गिरकर 63 रुपये तक पहुंच गया था. आर्थिक विशेषज्ञ यह मानने लगे थे कि रुपये के भाव डॉलर के मुकाबले गिरकर 80 रुपये तक जा सकते हैं. रुपये के भाव में अनियंत्रित गिरावट की वजह से आयात दिनोदिन महंगा होने लगा. भारत को दस लाख डॉलर की कीमतवाले तेल के लिए 6.30 करोड़ रुपये चुकाना पड़ रहा था जबकि पहले 5.90 करोड़ रुपये चुकाना पड़ रहा था. हालांकि इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि रुपये के भाव में गिरावट की वजह से निर्यात को बढ़ावा मिलता है और इससे विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ता है. लेकिन दुनिया भर में छायी मंदी की वजह से हमारे यहां ऐसा नहीं हुआ. यह सब 2008 की महामंदी के चलते हुआ. लिहाजा व्यापार असंतुलन और वित्तीय घाटा दिन-ब-दिन बढ़ता गया. दूसरी वजह रही अंतरराष्ट्रीय बजार में कच्चे तेल की कीमतों में वृद्घि होने से घरेलू स्तर पर सब्सिडी का बोझ बढ़ने लगा. इस घाटे का भुगतान नहीं हो पाने से सरकार की बैलेंस शीट बिगड़ रही थी. ऊर्जा क्षेत्र विकास में भूमिका नहीं निभा पा रहा था.

हालात का और बिगड़ना अभी बाकी था. जबरदस्त राजस्व घाटा, चालू खाता घाटा, महंगाई दर में वृद्घि और व्यापार घाटे की वजह से अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी ने भारतीय अर्थव्यवस्था पर सूक्ष्म और पैनी निगाह रखनी शुरू कर दी. स्टैंडर्ड एंड पूअर और मूडीज नामक रेटिंग एजेंसियों ने भारत की रेटिंग कम करने की धमकी तक दे डाली. इससे दुनिया के बड़े निवेशकों को यह संकेत मिलने लगा कि भारत में पूंजी निवेश करना बहुत जोखिम भरा है. भारतीय अर्थव्यवस्था 1991 वाली स्थिति में पहुंचती दिख रही थी. हालात यूपीए-दो के नियंत्रण से बाहर हो चुके थे.

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घोटाला दर घोटाला कोल ब्लॉक और स्पेक्ट्रम आवंटन जैसे घोटाले यूपीए सरकार के ताबूत में
आखिरी कील साखबत हुए

चिदंबरम को 2012 में दोबारा वित्तमंत्री बनाया गया और उन्होंने तूफानी अंदाज में चीजों को ठीक करने की कोशिश की. उन्होंने चालू खाता घाटे को कम करने के लिए सोने और इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं के आयात पर कर भार बढ़ाया. पर यह इजाफा सिर्फ वैश्विक और घरेलू कीमतों के बीच हुआ था जिसका फायदा तस्करों ने उठाया. जांच एजेंसियों मसलन खुफिया राजस्व विभाग (डीआरआई) और प्रवर्तन निदेशालय ने यह जानकारी दी थी कि 2013 और 2014 में सोने की तस्करी में 500 फीसदी की वृद्घि हुई है. विश्व स्वर्ण परिषद का यह अनुमान था कि आर्थिक संकट और वित्तीय संकट के दौरान सोने की मांग में कोई कमी नहीं दर्ज की गई और कुल उपभोग का आधे से ज्यादा तस्करी की गई.

वित्तमंत्री की दूसरी प्राथमिकता राजस्व घाटे को नियंत्रित करना थी. यही वजह है कि उन्होंने गैर-योजना खर्च में कोई कटौती नहीं की. गैर-योजना खर्च में सामान्यतः सरकारी कर्मचारियों के वेतन और ब्याज का भुगतान शामिल होता है. वित्तमंत्री ने योजनागत खर्च में कटौती की जिसमें सार्वजनिक परियोजना के अंतर्गत उत्पादन और ढांचागत खर्च को शामिल किया जाता है. हालांकि कुछ समय बाद विकास की गति अवरुद्घ हो गई. चिदंबरम इस बात के लिए इच्छुक थे कि अल्पावधि में राजस्व घाटा को कम किया जाए और राजस्व की स्थिति में सुधार लाया जाए. वित्तमंत्री की यह रणनीति यूपीए-दो के काम आ गई.

जन-धन योजना यूपीए-एक और दो सरकार की तरह ही मोदी सरकार भी वित्तीय समािेशन पर ध्यान लगाए हुए है
जन-धन योजना यूपीए-एक और दो सरकार की तरह ही मोदी सरकार भी वित्तीय समािेशन पर ध्यान लगाए हुए है

2011-12 में विकास दर में गिरावट दर्ज की गई जो अगले वित्तीय वर्ष में भी जारी रही. भारत को आजादी मिलने के बाद से लेकर अब तक ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था कि लगातार तीन साल यानी पहले के मुकाबले दूसरे और दूसरे के मुकाबले तीसरे साल अर्थव्यवस्था की विकास दर में गिरावट का क्रम जारी रहा हो. विकास दर 2010-11 में 8.9, 2011-12 में 4.9 और 2012-13 में 4.7 फीसदी रही. विकास दर में गिरावट का यह सिलसिला लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस (यूपीए-दो) के लिए ताबूत का आखिरी कील सिद्घ हुआ. मोदी सरकार के नेतृत्व में आते ही सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़े में मामूली से फेरबदल के बाद विकास दर 2014-15 में 6.6 फीसदी तक पहुंच गई और 2014-15 में 7.5 फीसदी रहने का अनुमान जताया गया. हालांकि आर्थिक मामलों के जानकारों का मानना है कि अगर पुराने यानी यूपीए-दो के फॉर्मूले से गणना की जाए तो 2014-15 में विकास दर 5 फीसदी का आंकड़ा ही छू पाएगी. संभव है कि प्रणब मुखर्जी और पी. चिदंबरम शायद इस बात से खुश होंगे कि अरुण जेटली ने अर्थव्यवस्था की विकास दर को मई 2014 में लोकसभा चुनाव के बाद बढ़ाने में कामयाबी पाई है. नए वित्तमंत्री को अर्थव्यवस्था की सुस्ती दूर करने के लिए सख्त उपायों का सहारा लेना पड़ेगा. हालांकि भाग्य मोदी और जेटली के पक्ष में है. केंद्र में सत्ता की कमान हाथ आते ही कच्चे तेल के भाव में भारी गिरावट दर्ज की गई. बिना किसी बड़े उपायों को लागू किए ही महंगाई दर में कमी दर्ज की गई. कच्चे तेल के भाव में गिरावट का मतलब है आयात बिल में कमी और चालू खाता घाटे में भी कमी आना. वस्तुओं की कीमतों में कटौती का मतलब है मांग में वृद्घि दर्ज किया जाना और इसके चलते विकास दर में थोड़ी वृद्घि और सरकार के राजस्व में इजाफा होना है. कुल मिलाकर अर्थव्यवस्था फिर से पटरी पर लौट आई. वित्तमंत्री अरुण जेटली के दूसरे बजट की अर्थशास्त्रियों और उद्योग जगत ने खूब सराहना की है. चिदंबरम ने जेटली के आंकड़ों के सही होने के बारे में शंका जाहिर की.

2015 के बजट पर अगर गौर फरमाएं तो यह पता चलता है कि  कई जगह पर आंकड़ों की बाजीगरी की गई है. सरकार के राजस्व, जिसमें कर राजस्व भी शामिल है, के बारे में उम्मीद की गई है कि इसमें वृद्घि दर्ज की जाएगी. यह इस बात का संकेत है कि वित्तमंत्री विकास दर में वृद्घि की उम्मीद नहीं रख रहे थे. जो भी हो विकास दर छह फीसदी के आसपास ही रहेगी और ऋण की वजह से आंकड़ों के अंतिम अंक में फेरबदल होगा. यह खतरनाक है कि पूंजी खाते में योजना खर्च बढ़कर 34 फीसदी तक पहुंच जाएगा. सार्वजनिक खर्च में इजाफा एक अच्छा संकेत है. हालांकि यह दुर्भाग्य ही है कि कुल योजनागत खर्च, जिसमें राजस्व खाते भी शामिल हैं, में कमी आई और इसमें वृद्घि नहीं की जाएगी. इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि पूंजी निर्माण और उत्पादक परिसंपत्ति के लिए सहायता में 16 फीसदी तक की कमी की जाएगी. इन परिस्थितियों में जेटली कैसे विकास दर में वृद्घि की उम्मीद कर रहे हैं? निजी क्षेत्र के निवेश में भी कमी आने की संभावना जताई जा रही है. 2014-15 में अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए जेटली ने चिदंबरम के उपायों का अनुसरण किया है. जेटली ने गैर-योजनागत खर्च में कोई खास छेड़छाड़ नहीं की है. इसमें उन्होंने मामूली कटौती की है. वित्तमंत्री ने योजनागत खर्च में 18.6 फीसदी तक की कटौती की है. इन आंकड़ों के मद्देनजर यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि देश चालू वित्तीय वर्ष में 6.6 फीसदी विकास दर हासिल कर पाएगा? संभव है कि भाजपा के शासनकाल में आंकड़ों में हेरफेर करके लक्षित विकास दर को हासिल कर लिया जाए.

तेरह राजनीतिक दलों के गठबंधनवाली यूपीए-दो सरकार के कार्यकाल के समय अच्छी नीतियों और साफ छवि के बावजूद पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कई घोटालों में फंस गए थे. एक दुर्लभ उदाहरण की बात करें तो, कोयला ब्लॉक आवंटन मामले में बरती गई अनियमितताओं में उनकी भूमिका को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें पूछताछ के लिए बुलवाया था. बड़े-बड़े घोटालों जैसे- टेलीकॉम (1,76,000 करोड़ रुपये का घोटाला), कोयला ब्लॉक आवंटन (1,86,000 करोड़ का घोटाला) और राष्ट्रमंडल खेल घोटालों ने यूपीए-दो सरकार को हिलाकर रख दिया था. सरकार के घमंडी और अभिमानी कैबिनेट मंत्री अपना बचाव करने में विफल हो गए थे. तब लोगों को उन्हें चुनने की अपनी मूर्खतापूर्ण गलती का एहसास हुआ.

सरकार से नाराजगी के कारण जनता ने यूपीए-दो सरकार को सत्ता से बाहर करने का फैसला कर लिया. कैग की ओर से सरकारी खजाने को पहुंचे नुकसान के चौंका देनेवाले आंकड़े पेश करने के बावजूद तत्कालीन दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल ने दावा किया था कि स्पेक्ट्रम आवंटन मामले में किसी तरह का नुकसान नहीं हुआ था. वहीं चिदंबरम ने कहा था कि कोल ब्लॉक आवंटन घोटाले में कोई नुकसान नहीं हुआ है क्योंकि पृथ्वी के अंदर पड़े खनिज अभी भी मौजूद हैं और निजी कंपनियों की ओर से उन्हें निकाला जाना बाकी है.

हालांकि जैसे ही मीडिया की ओर से सरकार की आलोचना शुरू हुई, तूफान खड़ा हो गया. इन घोटालों को लेकर यूपीए-दो सरकार हमेशा ही बैकफुट पर रही. यह एक तरह की ‘पॉलिसी पैरालिसिस’ वाली स्थिति थी, जिसमें सरकार कोई निर्णय लेने में पूरी तरह से अक्षम साबित हुई. उस समय सुधार भी बैकफुट पर थे. यह तब था जब सिंह ने सुधारीकरण के कुछ कदम जैसे- खुदरा क्षेत्र में एफडीआई लाने की कोशिश की थी. इसको लेकर कांग्रेस और उसके सहयोगियों के बीच ही विवाद शुरू हो गया था. इस कारण ‘अधिकतम सरकार और न्यूनतम शासन’ की दशा साफ दिखने लगी थी.

ऐसे में देश की जनता को शायद एक मजबूत नेता का इंतजार था. इस निराशाजनक माहौल में मोदी का पदार्पण होता है. उन्होंने गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए वहां के कथित विकास को बखूबी भुनाया. उन्होंने जनता को आश्वस्त किया कि उनकी सरकार के आने के बाद देश की विकास दर बढ़ेगी, इससे सबका विकास संभव होगा. उन्होंने दिखाया कि कैसे उनकी नीतियों की बदौलत निर्माण और कृषि क्षेत्र में बढ़ोतरी हुई. यह सब इसलिए हुआ क्योंकि उन्होंने ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’ और बिना भ्रष्टाचार के पूर्ण पारदर्शिता की अवधारणा का अनुसरण करने की बात कही थी. इसी तरह मोदी ने लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान और प्रधानमंत्री बनने के बाद ‘न खाऊंगा और न खाने दूंगा’ के नारे को भी बार-बार दोहराया. कम विकास, ऊंची मुद्रास्फीति और नौकरियों की कमी के दौर में भ्रष्टाचार के निशान किसी भी सरकार की छवि को पूरी तरह से बर्बाद कर देते हैं. यूपीए-दो सरकार में भ्रष्टाचार के इतने मामले उजागर होने के बाद उच्च, मध्य और निम्न, हर वर्ग का व्यक्ति सरकार से नाराज था. सरकार का रिश्ता समुदाय, जाति और धर्म से छूट गया. इससे पता चलता है कि 2014 के लोकसभा चुनावों में समाज के सभी वर्गों ने भाजपा को क्यों चुना.

विडंबना यह है कि अगर प्रणब मुखर्जी, पी. चिदंबरम और अरुण जेटली के विभिन्न बजट भाषणों की तुलना की जाए तो देखा जा सकता है कि इनमें कितनी समानताएं हैं. जिन प्रमुख मुद्दों पर उन्होंने प्रकाश डाला है, जिन पर जोर दिया है और जो भाषा इस्तेमाल की है, ऐसा लगता है कि तीनों ने उदारतापूर्वक एक-दूसरे से इन्हें उधार मांगा है. इससे साबित होता है कि ज्यादातर वित्तमंत्री एक ही समूह का हिस्सा हैं. हालांकि प्रचलित सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक माहौल में लोग किसी एक की तुलना में दूसरे पर ज्यादा भरोसा करते हैं.

इस निष्कर्ष को साबित करने के लिए कुछ घटनाक्रमों पर नजर डालते हैं. अपने दूसरे बजट भाषण में जेटली ने कहा है, ‘राजग-दो सरकार की तीन में से एक उपलब्धि ‘जन-धन योजना’ की सफलता थी. किसने सोचा था कि 100 दिनों के कम समय में 12.5 करोड़ से ज्यादा परिवार वित्तीय रूप से मुख्यधारा में लाए जा सकेंगे.’ जेटली के अनुसार उनकी सरकार की पहल पर इस योजना के तहत गरीब लोगों के बैंक खाते खोले गए. लेकिन क्या वास्तव में यह उनकी सरकार की पहल थी? इससे पहले जेटली ने स्वीकार किया है कि दशकों से वित्तीय समावेशन की बात हो रही है. अपने बजट भाषण में वे यह बताने से बचते रहे कि 2009 के अपने बजट भाषण में मुखर्जी ने कहा था कि यूपीए-एक सरकार ने बिना किसी तामझाम के जीरो बैलेंस या बहुत ही कम पैसे पर बैंक खाते खोलने की प्रक्रिया शुरू की है.

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