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नेपाल में शांति होगी तभी भारत में शांति बनी रहेगी’

baburamआपकी इस भारत यात्रा का मकसद क्या था?

मेरी इस भारत यात्रा पहला मकसद यह था कि यहां जो नई सरकार आई है उसको समझना और उनसे संबंधों को आगे बढ़ाना. इसके अलावा नेपाल की वर्तमान परिस्थितियों में जिस प्रकार शांति प्रक्रिया आगे बढ़ रही है उसकी सफलता के लिए हमें अंतरराष्ट्रीय समुदाय का सहयोग भी चाहिए. चूंकि भारत हमारा करीबी देश है और उसका समर्थन भी जरूरी है. भारत के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह, भाजपा नेता राम माधव, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल समेत तमाम नेताओं से हमने बात की. हमारी बातचीत के दौरान भारत के वर्तमान राजनीतिक घटनाक्रम को समझने में भी हमें काफी मदद मिली है.

क्या कहा विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने आपसे?

उन्होंने भारत की नेपाल के प्रति सोच साफ की है. भारत, नेपाल में शांति और स्थिरता चाहता है. वह हमें हर संभव मदद देने को तैयार है, यह भारत के हित में भी है. वर्तमान सरकार यह चाहती है कि नेपाल में शांति प्रक्रिया जल्द पूरी हो. नेपाल के राजनीतिक दल इसके लिए मिलजुलकर काम करें. वहां का संविधान जल्द बने और लागू हो इसके लिए वहां के दल आपसी सहयोग करें. यही भारत की इच्छा है, यही भारत की नीति है. यही भारत का स्थायी भाव है.

क्या आप मानते है कि वर्तमान भारतीय सरकार नेपाल की संविधान सभा व इसके बनने की प्रक्रिया से वाकई सहानुभूति रखती है?

हां, भारत की यह पहले से ही नीति रही है, मनमोहन सिंह की सरकार की यही नीति थी. भारत के राजनीतिक दलों में विदेश नीति को लेकर कोई मतभेद नहीं होता है. सरकार बदलने से यहां की नीति नहीं बदलती है. वर्तमान भाजपा सरकार मनमोहन सिंह की विदेश नीति की निरंतरता की दिशा में काम कर रही है. मोदी जी ने जिस प्रकार दक्षिण एशियाई देशों को अहमियत दी है वह काफी सकारात्मक लक्षण है. हमें भी यही लगता है कि भारत में नेपाल के लिए काफी सकारात्मक माहौल है.

किन लक्षणों को आप सकारात्मक कह रहे हैं?

मोदी जी द्वारा अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के प्रमुख को बुलाना, फिर नेपाल की यात्रा करना. ये सभी सकारात्मक लक्षण हैं. यहीं से सद्भाव आगे बढ़ा है. वह पिछले 17 वर्षों में नेपाल आए पहले भारतीय प्रधानमंत्री हैं. यह दिखाता है कि नेपाल उनके लिए महत्वपूर्ण पड़ोसी देश है.

नेपाल इस वक्त जिस संकट से गुजर रहा है, खासकर संविधान सभा के मसले पर, जिसका आपने जिक्र भी किया है, इसमें आपकी जुबान में भारत के सद्भाव से आपकी और क्या उम्मीदें हैं या दूसरे शब्दों में कहें तो भारत से क्या चाहते हैं?

पहली बात नेपाल का संकट कोई नया संकट नहीं है. जब तक यह संकट खत्म नहीं हो जाता है तब तक यह किसी न किसी शक्ल में सामने आता रहेगा. इसमें उतार-चढ़ावों का आना स्वाभाविक है. मेरा मानना है कि हम सही दिशा की ओर जा रहे हैं लेकिन नेपाल की कुछ राजनीतिक शक्तियां शांति प्रक्रिया को लेकर किए अपने वादों को भूल गई हैं. हमें समग्र शांति समझौते को निबाहना होगा. जबकि नेपाली कांग्रेस और यूएमएल जैसे दल संविधान सभा और जनता के प्रति सही जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं कर रहे हैं. अपने दिल्ली प्रवास में मैंने अपने और नेपाल हितैषी भारतीय नेताओं को इन सब परिस्थितियों से अवगत कराने की कोशिश की है. ताकि मैं उनके विचारों को इस संबंध में जान सकूं. इस वैचारिक आदान-प्रदान से नेपाल की शांति प्रक्रिया को मदद मिलेगी, ऐसा मुझे लगता है.

कहीं आपकी मदद की मांग हस्तक्षेप को आमंत्रण तो नहीं है?

देखिए, मैं किसी को नेपाल में हस्तक्षेप के लिए आमंत्रित नहीं कर रहा हूं. नेपाल एक संप्रभु देश है. नेपाल की राजनीतिक-सामाजिक शक्तियां अपने हित-अहित का निर्णय लेने में सक्षम है. आपने मेरी बात का गलत अर्थ निकाला है. मैं शांति प्रक्रिया के संदर्भ में बात कर रहा हूं. संविधान सभा में आई रुकावट को हम शांति प्रक्रिया में आनेवाले उतार-चढ़ाव के तौर पर देखते हैं. आप जान लें कि अगर शांति प्रक्रिया अटकती है या फिर संघर्ष बढ़ता है तो इसका असर अड़ोस-पड़ोस पर भी अवश्य पड़ेगा.भारत में शांति के लिए नेपाल में शांति का होना बेहद जरूरी है. भारत चूंकि नेपाल का सबसे करीबी देश है, सो उसे इन परिस्थितियों से अवगत कराना आवश्यक था. इसमें भारतीय हस्तक्षेप को आमंत्रण जैसा कुछ भी नहीं है. भारत की सकारात्मक भूमिका से शांति प्रक्रिया को बल ही मिलेगा.

लेकिन मोदी जी तो शांति प्रक्रिया, खासकर संविधान सभा के मसले पर सर्वसम्मति के पक्षधर रहे हैं. अपनी नेपाल यात्रा के दौरान वे ऐसा बयान दे चुकें हैं, ऐसे में आपके समग्र शांति समझौतेवाले तर्क का क्या होगा. क्योंकि आपके अनुसार तो शांति प्रक्रिया को जारी रखने के लिए पूर्व में किए समझौतों का पालन करना ही होगा.

हां, यह बात सही है कि शांति समझौतों का पालन किए बगैर नेपाल संकट का सही समाधान नहीं निकलेगा. हम नेपाल के अन्य राजनीतिक दलों को यही समझाने की कोशिश कर रहे हैं. जनता भी इसके साथ है. प्रश्न सर्वसम्मति या बहुमत का नहीं है, प्रक्रिया की नींव को बनाए रखने का है. जनता सिर्फ समग्र शांति समझौतों के पक्ष में है. हमें मोदी जी पर भरोसा है. वह अपने पूर्ववर्तियों की तरह नेपाल की आंतरिक राजनीति में हस्तक्षेप के पक्षधर नहीं दिखाई देते हैं. नेपाल में मोदी जी के आलोचक दरअसल पाखंडी हैं. जहां तक उनके बयान के विरोध की बात है तो आपको पता ही है कि उनके बयानों का किन लोगों ने विरोध किया था. ये वही लोग है जो भारत आकर अपने निजी हितों की पैरवी करते-करवाते हैं.

अब जनयुद्घ का औचित्य नहीं हैं. आज जनचेतना वहां नहीं खड़ी जहां वो नब्बे के दशक में थी. शांतिपूर्ण तरीकों से भी विरोधियों को हराया जा सकता है

शांति प्रक्रिया में गतिरोध की सबसे बड़ी वजह क्या है?

गतिरोध की सबसे बड़ी वजह यूएमल और नेपाली कांग्रेस का रुख है. ये लोग जनयुद्घ थमने के बाद हुए समझौतों पर से लगातार पीछे हट रहे हैं. वे उन्हें लागू नहीं करना चाहते. इस संविधान सभा में उन्हीं मुद्दों पर गतिरोध बरकरार है जिन पर पहली संविधान सभा पर गतिरोध बना था. आपको याद दिलाना चाहता हूं कि यूएमएल और एनसी तो पुरानी वेस्टमिंस्टर संसदीय प्रणाली को लागू करने को तैयार बैठे हैं. यह लोग तो 199० से ही राजा प्रदत्त संविधान और व्यवस्था से सहमत हो गए थे. यह एक ऐसी व्यवस्था थी जिसमें संघवाद, धर्मनिरपेक्षता और सर्व समावेशी लोकतंत्र की कोई जगह नहीं थी.

पर मधेसी भी तो आपके पक्ष में नहीं हैं, वो जाति की राजनीति कर रहे हैं और आप वर्ग की.

ऐसा नहीं है. कई मसलों पर उनकी हमसे सैद्घांतिक सहमति है. जैसे हम जिस राजनीतिक व्यवस्था और संविधान की बात करते हैं, वे उससे काफी हद तक सहमत हंै. हम जिस आनुपातिक प्रतिनिधित्व की बात करते हैं उसमें दलित, महिलाएं और अन्य शोषित अस्मिताओं का पूरा स्थान और सम्मान है. यूएमएल और एनसी प्रक्रिया के नाम पर प्रगतिशील और लोकतांत्रिक संविधान के खिलाफ खड़े हैं. मधेसियों समेत सभी नई राजनीतिक शक्तियां संघवाद और सर्व समावोशी लोकतंत्र  के पक्ष में हैं जबकि पुरानी राजनीतिक पार्टिया बदलाव नहीं चाहती हैं. हमारा मधेसियों से कोई बड़ा मतभेद नहीं है. जाति के मसले पर हम खासे संवेदनशील हैं.

अगर गतिरोध बना रहा तो क्या आप वापस जनयुद्घ छेड़ेंगे?

नहीं, आज के हालत के मद्देनजर जनयुद्घ छेड़ने का कोई औचित्य नहीं है. जनता की चेतना आज वर्ष 2००० के स्तर पर नहीं खड़ी है वह आगे आ चुकी है. नई वैचारिक ऊंचाई पर पहुंच चुकी है. अब पहले जैसे जनयुद्घ या रणनीति की बजाय निर्माण की नई योजनाओं व जनसंघर्ष को अंजाम देना होगा. आज प्रतिगामी शक्तियों को शांतिपूर्ण तरीकों से भी हराया जा सकता है. इसके अलावा यह भी समझना होगा कि हमारी राजनीतिक सोच आज वहां नहीं खड़ी जहां वह नब्बे के दशक में थी.

क्या यही वजह है कि आपकी पार्टी में भी भारतीय वाम पार्टियों की तरह टूट हो रही है.

कुछ टूट तो हुई है. बिखराव आया है. पर नेपाली माओवादियों का हर धड़ा शांति प्रक्रिया में हमारे मूलभूत सिद्घांतों से मौटे तौर पर सहमत है. वह भी सर्व समावेशी लोकतंत्र की ही वकालत करते हैं. मुझे उम्मीद है कि हम अपने अन्य मतभेद भी सुलझा लेंगे. असली परेशानी तो एनसी और यूएमएल की ओर से है.

पर एनसी और यूएमएल तो आप लोगों पर शांति प्रक्रिया को बाधित करने का आरोप लगाते हैं.

देखिए, तथ्य तो यह है कि वो हम ही थे जो राजतंत्र के खिलाफ लड़े और आज भी उसके खिलाफ जन भावनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं. एनसी और यूएमएल तो राजतंत्र को कमोबेश स्वीकारने को पहले से तैयार हैं. इस पृष्ठभूमि में देखेंगे तो साफ नजर आएगा कि शांति प्रक्रिया आज जहां तक और जिस स्तर पर पहुंची है वह माओवादियों के कारण है. रुकावट हमने नहीं उन्होंने खड़ी कर रखी हैं, पूर्व समझौतों का पालन न करके. इसके अतिरिक्त प्रक्रिया और विषयवस्तु में विषयवस्तु ज्यादा अहम है. संविधान सभा, मूलत: इस विषयवस्तु का प्रतिनिधित्व करनेवाले समग्र शांति समझौते को लागू करने का एक प्रभावी तरीका और व्यवस्था है. इसी सोच के साथ इसकी स्थापना की गई थी. पर आज एनसी इस मसले पर वादा खिलाफी कर रही है और यूएमएल उसके साथ है. हम वैकल्पिक राजनीति स्थापित करना चाहते हैं और वो पुरानी पड़ चुकी राजनीति की तरफ जनता को ले जाना चाहते हैं.

भारत में आम आदमी पार्टी भी वैकल्पिक राजनीति की बात करती है. माओवादियों और आम आदमी पार्टी की वैकल्पिक राजनीति में अंतर और समानताएं क्या हैं

अंतर या समानताओं पर कुछ कहना तो जल्दबाजी होगी. हम लोग तो अभी नई राजनीतिक परिस्थितियों को समझने की कोशिश ही कर रहे हैं. जैसा मैंने कहा कि मेरी यात्रा का मकसद ताजा हालत का अध्ययन करना भी था. नेपाल में हम  वैकल्पिक लोकतंत्र की वकालत कर रहे हैं जो वैकल्पिक राजनीति का एक मॉडल ही माना जाएगा. हां हमारे इस मॉडल में और आम आदमी पार्टी की सोच में कुछ अंतर तो अवश्य है.  लेकिन इतना है कि हम दोनों ही पुरानी व्यवस्था का अपने तरीकों से विरोध कर रहे हैं.

वैकल्पिक राजनीति की आपकी परिभाषा क्या है?

पारंपरिक लोकतांत्रिक राजनीति मूलतः कुछ लोगों के हाथ में है. खासकर अमीर और ताकतवर ही इसका उपभोग करते हैं. इन तत्वों ने राजनीति और लोकतंत्र के अर्थों को सीमित और कमजोर बना दिया है. यह एक प्रकार का औपचारिक लोकतंत्र है. नेपाल की आम जनता की इसमें भागीदारी नहीं के बराबर है. इसीलिए हमने जनयुद्घ छेड़ा था. सच्चा जनवादी लोकतंत्र स्थापित करना हमारा लक्ष्य है. संविधान सभा के जरिए हम इसे संस्थागत स्वरूप देना चाहते हैं. वैकल्पिक राजनीति से हमारा आशय जनवादी लोकतंत्र की स्थापना है. ‘आप’ ने अपने तरीकों से हमारा ध्यान जरूर खींचा है. पर अभी हम इसे ठीक से समझना चाहते हैं. प्रत्यक्ष लोकतंत्र और सीधी भागीदारी के अंतर को स्पष्ट करना आवश्यक है. हम नेपाल में शोषित राष्ट्रीयताओं, दलितों और महिलाओं आदि की भागीदारी सिर्फ सरकार के सहयोग के रूप में नहीं बल्कि व्यवस्था निर्माण और संचालन में उनकी भूमिका सुनिश्चित करना चाहते हैं. इसीलिए हम आनुपातिक प्रतिनिधित्व की वकालत कर रहे हैं.

नेपाल को मौजूदा संकट से निकालने का क्या तरीका होगा?

देखिए, सभी राजनीतिक शक्तियों को समग्र शांति समझौता लागू करने से ही समाधान निकलेगा. अगर ऐसा नहीं होगा तो हम जनता के बीच वापस जाएंगे. जनता ही समाधान निकालेगी.

अंत में चीन और भारत में आपकी प्राथमिकता में कौन है?

हम इस सवाल को प्राथमिकता की नजर से नहीं देखते हैं. हमारे लिए दोनों देश करीबी हंै. भारत एक उभरती विश्व शक्ति है. हम भारत और चीन दोनों से सहयोग करने को तैयार हैं, और यह सुनिश्चित कर देना चाहते हैं कि हमारी सीमाओं का पड़ोसी देशों के खिलाफ इस्तेमाल न हो. खासकर भारत के साथ तो हम हर हाल में शांति और समृद्घि की कामना करते हैं.

आजमगढ़: आतंक-अमन पर गफलत

azamgarhकई भाषाओं के मर्मज्ञ राहुल सांकृत्यायन, प्रख्यात शिक्षाविद अलामा शिब्ली नोमानी, प्रसिद्ध साहित्यकार अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’, महाराणा प्रताप और अकबर के बीच हुए युद्ध पर ‘हल्दीघाटी’ नाम का महाकाव्य रचनेवाले श्यामनारायण पांडेय, शायर कैफी आजमी और मशहूर अदाकारा शबाना आजमी ये कुछ नाम हैं जिन पर उत्तर प्रदेश के एक अति पिछड़े जिले आजमगढ़ को आज भी नाज है. वहीं सिक्के के दूसरे पहलू पर आतंकवादी अबू सलेम का भी नाम गुदा हुआ है, जिसके चलते कला-साहित्य की इस उर्वर भूमि पर बदनामी के बादल भी छाए हुए हैं.

1993 में मुंबई बम धमाकों के पीछे इस जिले के सरायमीर में जन्मे अबू सलेम का नाम उजागर होने के बाद से आजमगढ़ पर आतंक का गढ़ होने का ऐसा दाग लगा, जिसे अब तक मिटाया नहीं जा सका है. इसके बाद से अक्सर ऐसे पल आए, जिनसे पूर्वांचल के इस जिले को शर्मसार होना पड़ा. आजमगढ़ की शाख बचाने की तरह-तरह की कोशिशें की जाती रही हैं. इन्हीं कोशिशों के बीच एक शख्सियत का नाम उभरकर सामने आया है, जिसका आजमगढ़ और मुंबई दोनों शहरों से गहरा जुड़ाव है. चंद्रपाल सिंह नाम का यह शख्स बॉलीवुड का उभरता हुआ निर्देशक है.

चंद्रपाल गलत कारणों से हो रहीं आजमगढ़ की पहचान को लेकर आहत हैं, इसी वजह से उन्होंने ‘आजमगढ़’ नाम की फिल्म बनाने की घोषणा की है. मुंबई में पासपोर्ट के लिए उन्होंने वर्ष 2007 में आवेदन किया था, जो पिछले आठ साल से नहीं बना है, क्योंकि उन्होंने अपने स्थायी पते में जिले का नाम आजमगढ़ लिखा हुआ है.

चंद्रपाल सिंह का जन्म आजमगढ़ जिले के एक गांव रूप देवारा खास राजा में हुआ. इनके दादा इंद्रासन सिंह स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे. एक आम पूर्वांचली युवा की तरह चंद्रपाल का फिल्मों के प्रति आकर्षण उन्हें मुंबई खींच लाया और फिर वे यहीं के होकर रह गए, लेकिन अपनी जड़ों से वह आज भी जुड़े हुए हैं. 12वीं पास करने के बाद 1996 में जब वे 18 वर्ष के रहे होंगे तभी मुंबई आ गए थे और लगभग दो दशक से बॉलीवुड ही उनकी कर्मभूमि है. पासपोर्ट न बन पाने के कारणों की पड़ताल के दौरान उन्हें पता चला कि आाजमगढ़ की गलत और भ्रामक पहचान की वजह से ऐसा हुआ.

चंद्रपाल सिंह के अनुसार पासपोर्ट से जुड़े सारे दस्तावेज सही थे लेकिन आजमगढ़ से जुड़े होने के कारण उन्हें पासपोर्ट जारी नहीं किया गया. चंद्रपाल कहते हैं, ‘मानो आजमगढ़ में जन्म लेकर मैंने कोई अपराध किया हो. मैंने देखा है कि यहां के लोगों को हमेशा शक की नजर से देखा जाता है. यह सही है कि यहां के कुछ लोगों का संबंध कई बड़े अपराधों से रहा है, लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि यहां का हर व्यक्ति अपराधी है. हर जगह अच्छे और  बुरे लोग होते हैं. इसी मिट्टी में राहुल सांकृत्यायन, कैफी आजमी सरीखे लोग भी पैदा हुए. लोग अच्छाइयों को भूल जाते हैं, लेकिन बुराइयों को हमेशा याद रखा जाता है. यहां से जुड़े लोगों में से किसी को नौकरी नहीं मिलती है तो किसी को स्कूल में एडमिशन नहीं मिलता.’

वह आगे बताते हैं, ‘अपने लोगों से जुड़ी इन समस्याओं को देखते हुए मैंने इस मुद्दे को लेकर शोध शुरू कर दिया. आखिर क्यों आजमगढ़ की छवि खराब है. ऐसे कौन से पहलू हैं, जिन्होंने एक पूरे शहर को बदनाम करके रख दिया है. मुझे लगा कि यह मुद्दा बेहद संवेदनशील होने के साथ-साथ बहुत नाटकीय भी है, जिसके आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक पहलू निकलकर सामने आते हैं. यहां के युवा वर्ग में कुछ कर गुजरने का जज्बा हो, जोश में होश खो देना हो या फिर बुजुर्गों का अपनी मिट्टी से लगाव हो, ये सब मुझे इतना महत्वपूर्ण लगा कि आजमगढ़ को लेकर मैंने एक फिल्म बनाने का फैसला किया.’

मुंबई धमाकों में अबू सलेम का नाम आने के बाद राष्ट्रीय स्तर पर आजमगढ़ की छवि आतंकियों के गढ़ के रूप में स्थापित हो गई है. क्या एक फिल्म उस स्टीरियोटाइप को तोड़ पाएगी? 

मुंबई में उन्होंने काम के साथ ब्रॉडकास्टिंग, कैमरा तकनीक और हैंडलिंग के बारे सीखा. फिर सिनेमैटोग्राफी की जानकारी ली और अपना व्यवसाय शुरू किया. कुछ समय तक उन्होंने कैमरामैन का भी काम किया. अब उनके पास 200 फिल्म शूटिंग कैमरे हैं, जिनकी मदद से वह विभिन्न स्टूडियो और चैनलों को सेवा मुहैया कराते हैं. चंद्रपाल बताते हैं, ‘शौक तो था फिल्म लाइन में काम करने का. यह नहीं मालूम था कि कैमरे के आगे काम करूंगा या पीछे लेकिन जहां चाह हो वहां राह निकल ही आती है.’

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चंद्रपाल सिंह इससे पहले दो फिल्में लॉन्च कर चुके हैं- ‘लकीर का फकीर’ और ‘भूरी’. चंद्रपाल ने ‘लकीर का फकीर’ फिल्म से मॉडल एजाज खान को बड़े परदे पर लॉन्च किया था. उनकी दूसरी फिल्म ‘भूरी’ में रघुवीर यादव, मार्शा पौर, शक्ति कपूर, आदित्य पंचोली, कुनिका सदानंद जैसे कलाकार प्रमुख भूमिका में हैं. फिल्म ग्रामीण भारत पर आधारित है, जिसमें 23 साल की एक युवती की शादी 55 साल के अधेड़ व्यक्ति से कर दी जाती है. वह बेहद खूबसूरत है. अपनी खूबसूरती के कारण उसे तमाम कटु अनुभवों से गुजरना पड़ता है. फिल्म पुरुष प्रधान समाज में एक महिला के उत्पीड़न को बयां करती है. जसबीर भाटी के निर्देशन में बनी यह फिल्म इसी साल रिलीज होनेवाली है.

आजमगढ़ की बात करें तो पाकिस्तानी सिनेमा के पुरोधा सैयद शौकत हुसैन रिजवी भी यहीं से हैं. यहीं से उन्होंने कोलकाता होते हुए लाहौर का सफर तय किया था. फिल्म ‘खानदान’ से उन्होंने 1932 में बॉलीवुड के खतरनाक खलनायकों में से एक प्राण को लॉन्च किया था. इतना ही नहीं ‘क्लोजअप अंतराक्षरी’, ‘सारेगामापा’ जैसे हिट टेलीविजन  म्यूजिकल शो बनानेवाले गजेंद्र सिंह भी यहीं से आते हैं. उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री राम नरेश यादव और वरिष्ठ राजनीतिज्ञ अमर सिंह भी इसी मिट्टी की देन हैं. इस जिले के इतिहास का यह उजला पक्ष अब धुंधला हो चला  है.

अाजमगढ़ का होने के नाते राजनीतिज्ञ अमर सिंह बतौर प्रमोटर चंद्रपाल सिंह की इस फिल्म से जुड़े हैं. चंद्रपाल अब तक दो फिल्में बना चुके हैं

चंद्रपाल सिंह बताते हैं, ‘यहां के युवा आज विभिन्न क्षेत्रों में अच्छा काम कर रहे हैं. आजमगढ़ फिल्म से जुड़े अधिकांश युवा भी मेरे गृहनगर आजमगढ़ से हैं और वे बहुत ही प्रतिभावान हैं. ये युवा भी इस संवेदनशील मुद्दे को लेकर फिल्म बनाने का विचार रखते थे.’ इसके अलावा कुछ साथियों की मदद से चंद्रपाल लखनऊ में एक संस्थान भी चलाते हैं, जहां फिल्म लाइन में काम करनेवाले तमाम युवाओं को इसके तकनीकी पहलुओं की जानकारी दी जाती है. एआरएस मीडिया एंड टेक्नोलॉजी नाम के इस संस्थान में कई तरह के पाठ्यक्रम संचालित किए जाते हैं. ‘आजमगढ़’ फिल्म को यही संस्थान प्रोड्यूस कर रहा है.

चंद्रपाल का दावा है कि उन्होंने हजारों युवाओं को बॉलीवुड में काम करने का मौका दिलाया है. उनके अनुसार आजमगढ़, गोरखपुर, देवरिया, बलिया, बड़हलगंज जिलों के तमाम युवा ट्रेन में भरकर रोजाना मुंबई पहुंचते हैं. इनमें से तमाम हीरो बनने का ख्वाब सहेजे रहते हैं, लेकिन उन्हें ये नहीं पता होता है कि कैसे क्या करना है. एआरएस मीडिया एंड टेक्नोलॉजी संस्थान उनके ख्वाब को हकीकत में बदलने में मदद करता है.

फिल्म में रोल के लिए मनोज बाजपेयी, रघुवीर यादव, मुकेश तिवारी से चंद्रपाल की बातचीत चल रही है. वे बताते हैं कि संवेदनशील विषय होने के कारण कलाकार थोड़ा हिचक रहे हैं, लेकिन उनकी कोशिश जारी है. फिल्म की शूटिंग आजमगढ़ और गोरखपुर जिलों में ही करने की उनकी योजना है. यहां सुरक्षा की आशंका को लेकर भी कलाकारों में फिल्म से जुड़ने के प्रति हिचक है. फिल्म उन्हीं आतंकी और आपराधिक घटनाओं को अपने अंदर समेटेगी, जिसकी वजह से आजमगढ़ बदनाम हो चला है. फिल्म के बारे में इससे ज्यादा बताना चंद्रपाल ने मुनासिब नहीं समझा. गर्मी के बाद फिल्म फ्लोर पर जाएगी.

प्रमोटर के रूप में वरिष्ठ राजनेता अमर सिंह इस फिल्म से जुड़ चुके हैं. अमर  खुद आजमगढ़ के हैं. चंद्रपाल की ‘भूरी’ के प्रीमियर के समय अमर सिंह मुंबई पहुंचे थे. उसी दौरान चंद्रपाल ने उनसे अपनी नई फिल्म के बारे में बातचीत की थी और जिसके बाद उन्होंने फिल्म से जुड़ने की इच्छा जाहिर की थी. फिल्म के ऑडिशन बीते 25 फरवरी से शुरू हो गए हैं. चंद्रपाल सिंह इस फिल्म को बनाने में जुट गए हैं, ताकि आजमगढ़ के उजले पहलू से लोग वाकिफ हों और जिले के दूसरे लोगों को उनकी तरह देश में कहीं भी किसी तरह की परेशानी का सामना न करना पड़ा. फिल्म में चंद्रपाल यहां की वह छवि पेश करेंगे, जो धूमिल हो चुकी है.

श्रीनि खेमे पर भारी पड़ी ठाकुर की गुगली

भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर की सचिव पद पर जीत अप्रत्याशित नहीं है
भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर की सचिव पद पर जीत अप्रत्याशित नहीं है

सत्ता के गणित से मिली जीत

अनुराग हिमाचल प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष हैं. बीसीसीआई सचिव पद के लिए उन्हें शरद पवार खेमे से भी समर्थन मिला. पवार खुद बीसीसीआई अध्यक्ष बनना चाहते थे लेकिन पूर्वी क्षेत्र से पर्याप्त समर्थन नहीं होने के कारण उन्होंने कदम खींच लिए. श्रीनिवासन खेमे ने डालमिया का नाम अध्यक्ष के लिए आगे बढ़ा दिया और डालमिया निर्विरोध चुन भी लिए गए. सत्ता के समीकरणों को अपने अनुकूल करने में माहिर पवार भी हार माननेवालों में से नहीं हैं. बीसीसीआई में पैठ बनाने के लिए भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी लंबे समय से बेकरार रहे हैं. अनुराग ठाकुर क्रिकेट बोर्ड से लंबे समय से जुड़े रहे हैं और क्रिकेट प्रशासक के रूप में काम करने का उनके पास अनुभव भी है. यह िस्थति राजनीति के दो छोरों पर खड़े दो चाणक्यों पवार और शाह के मिलन का कारण बन गई. इतना ही नहीं अमित शाह के बेटे जय शाह ने भी ठाकुर को जिताने में भूमिका अदा की. बोर्ड में सभी क्षेत्रों के प्रतिनिधियों को ठाकुर के पक्ष में मतदान करने की खास ताकीद की गई. नतीजा भी उनके पक्ष में आया, विश्व के सबसे धनी क्रिकेट बोर्ड के महत्वपूर्ण पद पर भाजपा के युवा नेता काबिज हो गये.

सचिव पद के लिए संजय पटेल का नाम पहले ही तय माना जा रहा था. लेकिन रातों-रात समीकरण ऐसे बदले कि श्रीनिवासन खेमा हतप्रभ रह गया. संजय पटेल को 14 वोट और अनुराग ठाकुर को 15 वोट मिले और सचिव के पद पर शरद पवार खेमे के ठाकुर जीत गए.

संजय पटेल की हार एन श्रीनिवासन के लिए बहुत बड़ा झटका है क्योंकि  पटेल हर मौके पर, हर विवाद में श्रीनिवासन के साथ खड़े रहे थे. पिछले कुछ समय में बोर्ड में उनका प्रभाव लगातार बढ़ रहा था. ऐसे में उन्हें सचिव पद के लिए चुना जाना लगभग तय माना जा रहा था.

श्रीनिवासन कैंप के लिए मनमानी आसान नहीं है

अब बीसीसीआई में श्रीनिवासन कैंप का एकछत्र राज्य नहीं चलेगा. अनुराग ठाकुर की तरफ से उनके एकाधिकार को चुनौती मिलना तय है क्योंकि वे विपक्षी गुट से जीतकर पहुंचनेवाले एकमात्र सदस्य हैं. सचिव का पद महत्वपूर्ण होता है साथ ही ठाकुर के पास पवार खेमे का समर्थन भी है. लोकसभा और विधानसभा चुनावों में लगातार हार के बाद शरद पवार इन दिनों राजनीतिक वनवास झेल रहे हैं. बीसीसीआई वह जगह है जहां से पवार सत्ता के गलियारों में अपनी प्रासंगिकता को बनाए रख सकते हैं. इसलिए उन्होंने अनुराग ठाकुर को समर्थन दिया. बोर्ड की निर्णय प्रक्रिया में सचिव की स्थिति महत्वपूर्ण होती है और श्रीनि खेमे के धुर विरोधी पवार गुट के समर्थन के कारण ठाकुर मजबूत स्थिति में है. उठापटक के दौर से गुजर रही बीसीसीआई की दुर्दशा की एक वजह लंबे समय से यहां एक खेमे का  एकाधिकार भी है.

पद संभालते ही अनुराग ठाकुर ने अपनी आगामी योजनाओं की एक झलक सबके सामने रख दी है. नए सचिव का कहना है कि बीसीसीआई की छवि को साफ करना उनकी प्राथमिकता है. छवि मजबूत करने के साथ ही बोर्ड की कोशिश होगी कि क्रिकेट को नए स्थानों पर ले जाया जाए, इसे और ज्यादा लोकप्रिय बनाया जाय और टीम इंडिया ज्यादा से ज्यादा टेस्ट मैच खेले. फिक्सिंग और आईपीएल विवादों से जूझ रही भारतीय क्रिकेट के लिए जरूरी है कि ‘जेंटलमैन’ खेल एक बार फिर से अपनी उस पुरानी प्रतिष्ठा को पा सके. बोर्ड अध्यक्ष जगमोहन डालमिया ने भी संकेत दे दिए हैं कि फिलहाल बोर्ड में उनकी सबसे पहली प्राथमिकता सत्ता के टकराव से दूर रहने की होगी. उन्होंने सचिव पद पर अनुराग के नाम की घोषणा के साथ ही उम्मीद जतायी कि सचिव अनुराग ठाकुर के डेढ़ दशक के प्रशासनिक अनुभवों का उपयोग कर भारतीय क्रिकेट को नई ऊंचाई तक ले जाएंगे. बोर्ड में किसी भी तरह के टकराव की स्थिति नहीं बनेगी.

ठाकुर के तेवर हैं आक्रामक

सचिव बनते ही अनुराग ठाकुर ने स्पष्ट कर दिया कि गुटबाजी से अलग उन्हें क्रिकेट के बेहतर भविष्य के लिए काम करना है. बीसीसीआई ‘वनमैन शो’ नहीं है यह कहकर एक तरह से उन्होंने श्रीनिवासन गुट पर परोक्ष हमला भी किया. पीटीआई को दिए एक इंटरव्यू में अनुराग कहते हैं कि पिछले दिनों बीसीसीआई को लेकर कई विवाद रहे. इन विवादों को देखकर सुप्रीम कोर्ट ने भी बोर्ड की कार्यप्रणाली में सुधार की बात कही थी. वक्त आ गया है कि इन सबको ठीक किया जाए. बोर्ड के अंदर के कामकाज के तरीके को दुरुस्त करना, बोर्ड की छवि ठीक करना और जवाबदेही बढ़ाना ये तीन चीजें मेरी प्राथमिकता हैं. इसके साथ ही खेल की लोकप्रियता बढ़ाने और क्रिकेट के प्रति लोगों का विश्वास फिर से बहाल करने पर भी जोर दिया जाएगा. उन्होंने कहा कि पद मेरे लिए महत्वपूर्ण नहीं है लेकिन बीसीसीआई से जुड़े विवादों का निपटारा कर फिर से इसकी छवि दुरुस्त करना उनकी प्राथमिकता है. बोर्ड की कार्यप्रणाली में सुधार के साथ ही उन्होंने आईपीएल फ्रैंचाइजी और उससे जुड़े विवादों को खत्म करना अपनी प्राथमिकता में बताया.

श्रीनिवासन  की विदाई और उन्हीं के समर्थन से डालमिया की वापसी परिकथाओं सी है. भले ही डालमिया बीसीसीआई में श्रीनि के समर्थन से आए हों लेकिन आगे वे श्रीनिवासन के लिए बड़ी चुनौती बन सकते हैं. भारतीय क्रिकेट को विवादमुक्त रखते हुए उसकी छवि को दुरुस्त करना भी उनके लिए बड़ी चुनौती होगी.

खोखलेपन का महिमामंडन

इलस्ट्रेशनः जव‍जिथ सीवी

हर चीज को योजनाबद्ध ढंग से किसी एप्प के जरिए तेजी से संचालित करने की इच्छावाले समय में इस कॉलम का नाम ‘औघट घाट’ अजीब लगता है. कोई ऐसा घाट जो पानी तक पहुंचने के चालू इंतजामों से परे हो. सुनते ही मुझे ध्वनिसाम्य के कारण औघड़ की याद आई. जैसे कोई कहे चल और आपके भीतर कलकल नदी बहने लगे. मैंने संपादक से कहा, मैं सबसे पहले उन लोगों पर लिखूंगा जिनसे रातों को लखनऊ के श्मशान भैंसाकुंड में मिलता था.

अराजकतावाले बेलगाम दिन थे. भोर का तारा उगने यानी अखबारों के बंडल सड़क पर गिरने से पहले डेरे पर लौटना नहीं होता था. हम कुछ दोस्त जो कुछ भी ध्यानखींचू, वर्जित और परेशान करनेवाला था उसे जानकर, डकार न लेने का दिखावा करते हुए पचा लेना चाहते थे. अराजकता हम सभी को दुनियावी पैमाने पर तबाह कर रही थी लेकिन साथ ही दुनिया को चलाने वाले भीतर के पलंजर का स्पर्श करा रही थी इसलिए उसके सम्मोहन में बंधे थे. यह अराजकता के भीतर की व्यवस्था थी.

जाड़े की एक रात किसी दोस्त ने भैंसाकुंड में धूनी रमाए एक नए त्रिकालदर्शी औघड़ के बारे में बताया, शहर में उसके बैनर लगे हुए थे, वह सारी जिज्ञासाओं के समाधान कागज पर लिख देता था. हम तीन-चार लोग आधी रात के बाद मदिरा, मूंगफली और सिगरेटों का चढ़ावा लेकर श्मशान पहुंचे. अंधेरे में लाशों की चिराइन गंध, कुहरे में नदी की गरम सांस के साथ उठती उल्लुओं की चीख और चमगादड़ों के उड़ानवृत्त से घिरा औघड़ काले चिथड़ों में धूनी की राख के सामने बनैले कुत्तों के साथ बैठा ऊंघ रहा था.

एक चेले ने हमारे आने का प्रयोजन बताया तो उसने जागकर धूनी के सामने बैठने का उनींदा इशारा किया. इष्टदेव को मदिरा चढ़ाने के बाद उसने प्रसाद बांटा. हम लोग तंत्र-मंत्र की वाचिक और किताबी जानकारियों के आधार पर औघड़ के सत्त को टटोलने की कोशिश करते रहे. मौका पाकर एक मित्र राघवेंद्र दुबे ने शिवतांडव स्त्रोत का सस्वर पाठ करते हुए एक लघु नृत्यनाटिका भी प्रस्तुत की जिससे वह मुदित हुआ लेकिन जल्दी ही ऊब गया. उसने जम्हाई लेते हुए हाथ हिलाकर सभा बर्खास्त करते हुए अगली रात आने को कहा.

हम लोग ज्यादा भेंट और तैयारी के साथ अगली रात पहुंचे तो उसने चेले को मदिरा की बोतलों के साथ गुप्त पूजा के लिए नदी की ओर भेज दिया. वह थोड़ी देर बाद भीगी धोती में लौटा तब उन्माद से भभकती देहभाषा और मंत्रों के साथ आगे की कार्रवाई शुरू हुई. उसने झूमते हुए हम तीनों को एक-एक सादा कागज थमाया जिस पर हमें नाम, जन्मतिथि और जन्म स्थान लिखकर वापस कर देना था. औघड़ ने कागज हाथ में आते ही तेजी से घसीटकर लिखना शुरू किया.

पुतलियों को छोड़कर हमारा बाकी शरीर हिल रहा था, हम उसकी ओर दम साधे उत्कंठा में ताक रहे थे. वहां होल्डर से झूलते इकलौते बल्ब की रोशनी में अपने अज्ञात मानस और आगत को काफी देर तक पढ़ने के बाद हमने तय योजना के मुताबिक कागज आपस में बदल लिए. हमने पाया कि हम सभी एक ही भयावह पैटर्न पर घसीटे गए थे और हमारा उद्धार उन तांत्रिक अनुष्ठानों से होना था जो वही कर सकता था. थोड़ी-सी बहस के बाद तीन औघड़ों से हमारी मारपीट शुरू हो गई. पटका-पटकी से उठे धूल धक्कड़ और कुत्तों की गुर्राहट के बीच हम लोग औघड़ को भाग जाने की चेतावनी देते हुए वहां रखी एक खोपड़ी, हड्डियों, मालाओं और इकलौते बल्ब के साथ मोटरसाइकिलों से वापस लौट आए.

उस रात मैंने बहुत दुख के साथ महसूस किया कि औघड़ भी नकली होने लगे हैं. उनके गिर्द भय और रहस्य का सिर्फ एक पुरातन घेरा बचा है जिसे वे मार्केटिंग कंपनियों जैसे कौशल से बचाए रखते हैं.

यह समय जैसे उस रात का ही विस्तार है जिसमें फरेब और सस्तेपन को एक खास नीयत से ग्लैमराइज किया जा रहा है. यह खोखलेपन के महिमामंडन का समय है. जो नहीं है उसका घटाटोप प्रचार करते हुए तथाकथित पौष्टिक पावरोटी से लेकर एक प्रतापी प्रधानमंत्री तक कुछ भी बनाया जा सकता है. छवियों के खालिस प्रबंधन से विचारक, संत, लेखक, दार्शनिक, सुंदरियां और किसिम-किसिम के महानायक तैयार करनेवाले जानते हैं कि जो जितना लुंजपुंज और सारहीन होगा उतना ही पूंजी निर्भर प्रचारजीवी होगा. उसे बनाकर मुनाफा खींचना और घाटे का सौदा साबित होने पर मिटा देना आसान होगा… इस सस्तेपन को महसूसकर जो खुजली मचती है वह बहुत कीमती है.

उसकी खरोंच ही योग्य मनुष्यों को उनकी सही जगह तक ले जाने वाला यात्रापथ बनेगी.

‘आप’सी खींचतान

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गांव-चौपालों में एक कहानी खूब प्रचलित है. कहानी एक किसान परिवार की है. किसान के चार लड़के थे. चारों बड़े मेहनती थे. सुबह से शाम तक खेत में काम करते. किसानी से बड़ी मुश्किल से इन पांचों का परिवार चलता था. सब एक-दूसरे पर भरोसा करते थे. मुश्किल से मुश्किल समय में भी साथ रहते थे. कुछ समय बाद परिवार के दिन बहुरे. गरीबी कम हुई और परिवार में समृद्धि आई. खेत में काम करने के लिए नौकर आ गए. काम कम हुआ. काम के कम होने से भाईयों को खाली बैठकर सोचने-समझने का मौका मिला. कुछ समय तक तो सब ठीक रहा लेकिन थोड़े ही दिनों बाद सब आपस में लड़ने लगे. छोटी-छोटी बातें लड़ाई का कारण बन गईं. साथ-साथ काम करनेवाले चारों भाई एक-दूसरे पर तोहमत मढ़ने लगे. थोड़े समय बाद चारों अलग हो गए. खेत-खलिहान बंट गए. गाय-बैल बंट गए. बंटवारे के बाद चारों ने अपने-अपने हिस्से के खेत में फिर खुद काम करना शुरू किया. एक भाई अपने आप को दूसरे भाई से ज्यादा समृद्ध बनाने के लिए जी-तोड़ मेहनत-मजदूरी करने लगा. इस तरह मेहनत और काम ने इनके बीच पनपी कलह को खत्म कर दिया.

यह कहानी फिलहाल दिल्ली की सत्ता पर काबिज आम आदमी पार्टी में चल रही अंतर्कलह पर सटीक बैठती है.

कहानी के पात्र अपनी मेहनत के बल पर आई समृद्धि की वजह से लड़ने लगे थे तो आम आदमी पार्टी का शीर्ष नेतृत्व दिल्ली में मिली अभूतपूर्व जीत के खुमार में आपस में भिड़ गए हैं. एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप गढ़ने के साथ से शुरू हुई और यह लड़ाई अब अपने बदसूरत स्वरूप में उस दिल्ली की जनता के सामने है जिसने महीनाभर पहले आप पर अंधविश्वास जताया था. कहानी का अंतिम हिस्सा पूरा होना अभी बाकी है जब सारे नेता अपनी-अपनी राह जाकर मेहनत-मजूरी में लग जाएंगे.

पार्टी के संस्थापक सदस्य रहे योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को पार्टी की सर्वोच्च्य निर्णायक संस्था, राजनीतिक मामलों की समिति (पीएसी) से हटाया जा चुका है. यह फैसला चार मार्च को पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारणी में लिया गया. इन दोनों नेताओं पर आरोप है कि इन्होंने दिल्ली चुनाव में पार्टी को हराने के लिए काम किया और ये अरविंद केजरीवाल को पार्टी के संयोजक पद से हटाना चाहते थे. योगेंद्र यादव पर आरोप है कि उन्होंने कुछ पत्रकारों के जरिए मिलकर ऐसी खबरें प्लांट करवाईं जिससे पार्टी के संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की छवि खराब हो. पीएसी से हटाने और अपने ऊपर पार्टी विरोधी गतिविधि चलाने के आरोपों के बाद योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण ने पार्टी कार्यकर्ताओं (वॉलंटियर्स) के नाम एक चिट्ठी लिखी है. चिठ्ठी में यह दावा किया गया है कि उन पर जो आरोप लगाए जा रहे हैं वो सच नहीं हैं. चिट्ठी में दोनों नेताओं ने साफ किया है कि उन्होंने दिल्ली चुनाव में उम्मीद्दवारों की चयन प्रक्रिया पर सवाल उठाए जिसकी वजह से अब उन पर ऐसे आरोप लगाए जा रहे हैं. योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण ने अपने ऊपर पार्टी द्वारा लगाए जा रहे हर आरोप को यह कहते हुए खारिज किया है कि उन्होंने पार्टी के हित में कुछ जरूरी सुझाव दिए थे. ये सुझाव पार्टी के उन सिद्धांतों और मूल्यों से जुड़े थे जिन पर इसकी नींव पड़ी थी. विधानसभा चुनावों से पहले पार्टी अपने इन सिद्धातों से बुरी तरह डिग चुकी थी. अपने दावों की जांच दोनों नेता पार्टी की आतंरिक लोकपाल से करवाने की मांग कर रहे हैं.

 पीएसी से हटने के बाद योगेंद्र और प्रशांत ने चुप रहने का मन बनाया है
पीएसी से हटने के बाद योगेंद्र और प्रशांत ने चुप रहने का मन बनाया है

फिलहाल आप आदमी पार्टी में दो फाड़ हो चुके हैं

जिन परिस्थितियों में आप का सारा विवाद सतह पर आया है उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि लंबे समय से पार्टी के भीतर तलवारें खिंची हुईं थीं. 26 फरवरी को अचानक से ही लड़ाई सतह पर आ गई. राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में पार्टी नेता दिलीप पांंडे ने एक ऑडियो टेप चलाया. इसमें आप के एक नेता विभव कुमार द हिंदू अखबार की पत्रकार चंदर सुता डोगरा से बात कर रहे थे. बातचीत का लब्बोलुआब यह था कि योगेंद्र यादव ने उन्हें बताया था कि हरियाणा में पूरी यूनिट विधानसभा चुनाव लड़ना चाहती थी लेकिन अरविंद केजरीवाल ने इस पर वीटो कर दिया था. आप का एक धड़ा इसे पार्टी विरोधी गतिविधि   बता रहा है. इसे लेकर पार्टी दोफाड़ हो चुकी है. दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया, पार्टी प्रवक्ता संजय सिंह, आशीष खेतान और आशुतोष एक तरफ हैं तो दूसरी तरफ योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण, मयंक गांधी और शांति भूषण सहित पार्टी के दूसरे वरिष्ठ नेता हैं. मजेदार यह है कि जिस अरविंद केजरीवाल के इर्द गिर्द पार्टी यह सारा बंटवारा हुआ है वह इस विवाद पर चुप हैं. अरविंद केजरीवाल की तरफ से इस संबंध में केवल एक आधिकारिक बयान ट्विटर के माध्यम से आया है. उन्होंने तीन मार्च को एक पोस्ट में कहा कि वो पार्टी में चल रही कलह से आहत हैं. वे इस लड़ाई में न पड़कर दिल्ली की जनता से मिले जनादेश का सम्मान करना चाहते हैं, जनता के लिए काम करना चाहते हैं.

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पार्टी में जैसे ही घनघोर घमासान मचना शुरू हुआ ठीक उसी समय अरविंद दस दिन की मेडिकल लीव पर बंगलुरु चले गए. वहां वे प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति से अपनी खांसी और डाइबिटीज का इलाज करवा रहे हैं. पार्टी के कुछ नेताओं को लगता है कि अरविंद के लौटने पर इस पूरे विवाद का पटाक्षेप हो जाएगा. पर यह दूर की कौड़ी दिखती है. पार्टी के एक सूत्र गुमनामी की शर्त पर बताते हैं, ‘अरविंद लगातार पार्टी में अपने समर्थक नेताओं के संपर्क में हैं. चैट और एसएमएस के माध्यम से लगातार उनकी बात मनीष सिसोदिया आदि से हो रही है. अगर उन्हें इस विवाद को सुलझाना होता तो वो वहां से भी ऐसा कर सकते थे. पर वे ऐसा नहीं कर रहे हैं जबकि हर दिन के साथ पार्टी और नेताओं की छीछालेदर मीडिया और जनता के बीच बढ़ती जा रही है. जाहिर है इस पूरे मसले को सुलझाने को लेकर अरविंद की खुद की मंशा बेहद संदिग्ध है.’

पार्टी के अरविंद समर्थक नेता मीडिया में लगातार ऐसे बयान दिए जा रहे हैं जिससे पार्टी के भीतर योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण का बने रहना लगभग मुश्किल हो गया है. दूसरी तरफ खुद अरविंद केजरीवाल के ऐसे-ऐसे ऑडियो स्टिंग सामने आ रहे हैं जिनमें वे विधानसभा चुनावों से पूर्व कांग्रेस के साथ जोड़-तोड़ से अपनी सरकार बनाने की कवायद करते नजर आ रहे हैं. लेकिन पहले बात योगेंद्र और प्रशांत भूषण से शुरू हुए विवाद की. पंजाब से आम आदमी पार्टी के सांसद भगवंत मान तहलका से बातचीत में कहते हैं, ‘योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण का अपराध बहुत बड़ा है. जितना बड़ा उनका अपराध है उसके मुकाबले पार्टी ने उन्हें कम सजा दी है. इन दोनों नेताओं को नैतिकता के आधार पर खुद ही इस्तीफा दे देना चाहिए.’ मान के बयान से अगर कोई सूत्र पकड़ना हो तो यही बात कही जा सकती है कि अरविंद की रणनीति खुद चुप रहते हुए अपने समर्थकों के माध्यम से यादव और भूषण पर उस हद तक दबाव बनाने की है कि वे खुद ही पार्टी छोड़ दें. यह नैतिकता के आधार पर भी हो सकता है, बर्खास्तगी के रूप में भी हो सकता है और इन दोनों के चुपचाप पार्टी छोड़ देने के रूप में भी हो सकता है. लेकिन यादव और भूषण ने भी अपनी रणनीति के तहत पार्टी में बने रहने की बात बार-बार दोहराई है. जाहिर है यह स्थिति पार्टी के अरविंद धड़े के लिए बहुत असहज है. जनता के बीच छवि बनाए रखने के लिए वह इन दोनों नेताओं को बर्खास्त करने का खतरा नहीं उठाना चाहती है. जनता और वॉलंटियर की नाराजगी की एक झलक सोशल मीडिया में दिख भी चुकी है.

यादव और भूषण को पार्टी में अलग-थलग करने के लिए करावल नगर से आप विधायक कपिल मिश्रा ने हस्ताक्षर अभियान शुरू किया है. पार्टी सूत्रों के मुताबिक तीनों नेताओं को पार्टी से निकालने के प्रस्ताव पर 28 मार्च से शुरू होनेवाली राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में चर्चा हो सकती है. बैठक से पहले केजरीवाल खेमा तीनों नेताओं के खिलाफ यह मुहिम चला रहा है. हालांकि आप के ही कुछ दूसरे विधायकों ने इस हस्ताक्षर अभियान का विरोध भी किया है और इस पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया है. अभी तक जो दो फाड़ पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के स्तर पर दिख रहा था, हस्ताक्षर अभियान के बाद वह पार्टी के निचले स्तर यानी विधायकों के बीच भी फैल गया है. पार्टी के विधायक भी इस मसले पर बंट चुके हैं. इस पूरे प्रकरण का अंत किस तरह से होगा इसका इंतजार सबको है लेकिन बीते दो हफ्तों में जितना कुछ बना और टूटा है वह कई बड़े सवाल खड़े करता है. सबसे पहला सवाल तो यही है कि क्या यह पार्टी बाकी राजनीतिक दलों से किसी भी मायने में अलग है, अरविंद केजरीवाल का ताजा ऑडियो टेप (देखें बॉक्स पृष्ठ 54 पर) और आशुतोष जैसे कर्कश, तथ्यहीन प्रवक्ताओं की लफ्फाजियों ने वह चोला तार-तार कर दिया है. दूसरी बात, राजनीति में बदलाव के नारे के साथ अस्तित्व में आई आम आदमी पार्टी के भीतर कई स्तर पर गंभीर बदलावों की जरुरत है. लेकिन पार्टी का मौजूदा चाल-चलन इसके विपरीत जाता दिख रहा है.

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घमासान का कालचक्र

n26 फरवरी : योगेंद्र यादव पर दिल्ली आप सचिव दिलीप पांडेय ने पहली बार राष्ट्रीय कार्यकारणी की बैठक में अरविंद के खिलाफ काम करने का आरोप लगाया. सबूत के तौर पर पांडेय ने ‘द हिंदू’ की पत्रकार चंदर सुता डोगरा से फोन पर हुई बातचीत का टेप सामने रखा. यह टेप मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के निजी सहयोगी विभव कुमार ने पत्रकार को बिना बताए रिकॉर्ड किया था. पत्रकार चंदर सुता डोगरा ने द हिंदू में ‘फेडिंग प्रॉमिस ऑफ द इंडियन स्प्रिंग’ नाम से लेख लिखा था. लेख के अनुसार, हरियाणा में आप की यूनिट ने मजबूत पकड़ बना ली थी और बहुत से स्वयंसेवी यहां से राज्य में चुनाव लड़ने के लिए उत्साहित थे. वहां आप की यूनिट की अगुवाई योगेंद्र यादव कर रहे थे. लेकिन अरविंद केजरीवाल ने वीटो कर हरियाणा में चुनाव न लड़ने की घोषणा कर दी थी. यह फैसला अलोकतांत्रिक था. विभव को फोन पर डोगरा ने बताया कि यह जानकारी उन्हें योगेंद्र यादव ने दी थी.

4 मार्च : आप की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में बहुमत से फैसला लिया गया कि योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण पीएसी में नहीं रहेंगे. दोनों नेताओं को बाहर करने के प्रस्ताव के पक्ष में 11 और विरोध में आठ मत पड़े.

5 मार्च : आप के वरिष्ठ नेता मयंक गांधी ने बैठक की गतिविधियों की जानकारी ब्लॉग के जरिए सार्वजनिक कर दी. अपने ब्लॉग में मंयक ने पार्टी, केजरीवाल सहित कई नेताओं पर आरोप लगाया.

7 मार्च : आप की नेता अंजली दामनिया ने प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव और मयंक गांधी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. अंजली ने अपने बयान में मयंक गांधी पर ब्लॉग के माध्यम से बैठक की बातें सार्वजनिक करने के लिए अनुशासनात्मक कार्रवाई की मांग की. अंजली ने प्रशांत भूषण पर यह आरोप लगाया कि उन्होंने पार्टी को दिल्ली चुनाव में हराने के लिए काम किया.

10 मार्च : पीएसी से योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण के हटाये जाने के बाद चौतरफा आलोचना झेल रही आम आदमी पार्टी ने अपनी आधिकारिक वेबसाइट पर एक पत्र जारी कर आधिकारिक रूप से योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण पर पार्टी विरोधी गतिविधि में शामिल होने का आरोप लगाया और पीएसी से उनके निष्काषन को सही बताया.

11 मार्च :  पार्टी द्वारा सार्वजनिक आरोप लगाने के बाद प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव ने संयुक्त रूप से एक पत्र लिखा. इस पत्र के माध्यम से दोनों नेताओं ने अपने ऊपर लगाए जा रहे आरोपों को निराधार बताया. दोनों नेताओं ने मांग की है कि उन पर लगाए जा रहे आरोपों की जांच पार्टी के लोकपाल से करवाई जाए.

11 मार्च : आम आदमी पार्टी पार्टी के पूर्व विधायक राजेश गर्ग और अरविंद केजरीवाल के बीच बातचीत का एक टेप सार्वजनिक हुआ है. इसमें केजरीवाल दोबारा से आप की सरकार बनाने के लिए कांग्रेसी विधायकों को तोड़ने की साजिश कर रहे हैं.

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पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र नहीं?

यह सवाल पार्टी में कई मौकों पर, कई अलग-अलग सदस्यों के द्वारा उठाया जा चुका है. आप के पूर्व विधायक विनोद कुमार बिन्नी, शाजिया इल्मी और भारत में कम कीमत पर हवाई यातायात मुहैया करवानेवाले बड़े उद्योगपति कैप्टन जीआर गोपीनाथ तक कई नेताओं ने यह शिकायत की है. सबने पार्टी छोड़ने या पार्टी से निकाले जाने की बड़ी वजह इसी आंतरिक लोकतंत्र के अभाव को बताया था. हालांकि यह बात ध्यान देने वाली है कि पार्टी से निकाले जाने के बाद विनोद कुमार बिन्नी और पार्टी छोड़ने के बाद शाजिया इल्मी भाजपा में शामिल हो गए. शाजिया इल्मी उन नेताओं में थीं जो एक समय में अरविंद के खास माने जाते थे. पार्टी के लिए एक विधानसभा और एक लोकसभा चुनाव लड़ चुकीं शाजिया ने जब लोकसभा चुनावों के बाद मई 2014 में पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दिया तो पत्रकारों से बात करते हुए अरविंद केजरीवाल पर पार्टी के भीतर लोकतंत्र बहाल न करने का आरोप लगाया. अलग-अलग समय पर पार्टी से बाहर जानेवाले कई लोगों के आरोप भी कमोबेश वैसे ही थे जैसे आज योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण लगा रहे हैं.

यह बात भी दिल्चस्प है कि जब पार्टी से बाहर जाने वाले लोग आंतरिक लोकतंत्र के अभाव की बात कर रहे थे तब ये दोनों नेता लगभग चुप थे. अगर आज पार्टी में लोकतंत्र नहीं होने की बात कही जा रही है तो इसके लिए अरविंद केजरीवाल के साथ-साथ योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण की भूमिका भी कहीं न कहीं बनती है. इस बारे में वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश लिखते हैं, ‘इसके लिए सिर्फ केजरीवाल या उनके खास गुट को जिम्मेवार ठहराना पूरी तरह सही नहीं होगा. इसके लिए वे भी जिम्मेवार हैं, जिन्हें हाईकमान ने पीएसी से बाहर का रास्ता दिखाया. महज दो साल पहले गठित पार्टी में इतना ताकतवर हाईकमान एक व्यक्ति के कारण पैदा नहीं हो सकता. प्रशांत हों या योगेंद्र, सबने केजरीवाल के इर्द-गिर्द खास तरह का राजनीतिक आभामंडल बुने जाने की प्रक्रिया में अपना-अपना अवदान दिया.’

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‘छह विधायक कांग्रेस से अलग होकर हमें समर्थन कर दें’

11 मार्च को एक ऑडियो टेप सामने आया है. इसमें रोहिणी से पार्टी के पूर्व विधायक राजेश गर्ग अरविंद केजरीवाल के साथ बातचीत कर रहे हैं. बातचीत में अरविंद केजरीवाल विधानसभा चुनावों से पहले जोड़तोड़ करके, कांग्रेस विधायकों को तोड़ने की बात कर रहे हैं ताकि चुनाव लड़े बिना एक बार फिर से दिल्ली में सरकार बना सकें. इस ऑडियो से नाराज होकर वरिष्ठ नेता अंजली दामनिया ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया, लेकिन बाद में इस्तीफा वापस ले लिया.

टेप लीक होने में अपनी भूमिका से इनकार करते हुए राजेश गर्ग ने यह गंभीर आरोप लगाकर सनसनी फैला दी कि केजरीवाल तथा उनके दो विश्वस्त सहयोगी- मनीष सिसोदिया और संजय सिंह दिल्ली में सरकार बनाने के लिए जरूरी विधायकों का समर्थन जुटाने के लिए कांग्रेस विधायकों को तोड़ने की कोशिश में थे.

उन्होंने अपने आरोप के समर्थन में एक संपादित ऑडियो क्लिप भी जारी की. उन्होंने दावा किया कि ऑडियो क्लिप में जो आवाज है वह केजरीवाल की है. उनका कहना था कि इससे आप नेतृत्व की सच्चाई और पारदर्शिता के दावों की कलई खुल जाती है. गौरतलब है कि आप के ही पूर्व विधायक द्वारा जारी इस ऑडियो टेप में अरविंद केजरीवाल अपने विधायक से कह रहे हैं कि कांग्रेस तो समर्थन देगी नहीं तो इस बात के लिए कोशिश करो कि कांंग्रेस के छह विधायक एक अलग गुट बनाकर हमारा समर्थन कर दें. इसके बाद कांग्रेस के पूर्व विधायक आसिफ मुहम्मद ने दावा किया है कि उसके पास एक ऐसा वीडियो है जिसमें पार्टी नेता संजय सिंह सरकार बनवाने के बदले उन्हें मंत्री पद का लालच दे रहे हैं.

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पार्टी में अरविंद केजरीवाल के बढ़ते कद और फिर इसी वजह से उपजी समस्या के बारे में एनडीटीवी के वरिष्ठ प्रबंध संपादक ऑनिंद्यो चक्रवर्ती का मानना है कि चुनाव के वक्त पार्टी की बजाय किसी एक नेता को चेहरा बनाने का यह खतरा रहता ही है कि वो व्यक्ति पार्टी के भीतर भी ताकतवर हो जाए. अपने लेख में चक्रवर्ती लिखते हैं, ‘आम आदमी पार्टी व्यक्ति पूजा की इस राजनीति की सबसे नई और शायद और सबसे ज्यादा लाभ हासिल करनेवाली पार्टी रही है. सामाजिक कार्यकर्ताओं और आम नागरिकों का आंदोलन होने के बावजूद हाल के चुनावों में इसने खुद को एक नेता के सहारे बेचा. इसका नारा ‘पांच साल केजरीवाल’ और ‘मांगे दिल्ली दिल से, केजरीवाल फिर से’ जैसे आकर्षक कारोबारी जिंगल एक आम नायक के तौर पर केजरीवाल की सुनियोजित छवि निर्माण में महत्वपूर्ण रहे.’

चक्रवर्ती अपने लेख में आगे लिखते हैं, ‘आज जिन योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण ने ‘आप’ के भीतर बढ़ती केजरीवाल भक्ति को मुद्दा बनाया है, वे तब इस चुनावी रणनीति का हिस्सा थे. दरअसल, तब जब मैंने प्रशांत भूषण से पूछा कि क्या पार्टी की जगह केजरीवाल को पेश करना सही था तो उन्होंने माना कि यह चीज केवल चुनाव प्रचार के दौरान होनी चाहिए थी. मुझे प्रशांत भूषण का यह भरोसा कुछ यूटोपियाई लगा कि जब चुनावों के बाद चीजें सामान्य हो जाएंगी, तब व्यक्ति पूजा की जगह आंतरिक लोकतंत्र बहाल हो जाएगा. राजनीति में व्यक्ति पूजा का ऐसा कोई जादुई बटन नहीं होता, जिसे आप चुनाव जीतने के लिए ऑन कर दें और चुनाव बीतने के बाद जब अपनी बात चलाना चाहें तब ऑफ कर दें.’

इस सब से इतर पार्टी के कुछ नेताओं की मानें तो पार्टी में हाई कमान कल्चर कभी था ही नहीं. मनीष सिसोदिया, संजय सिंह, आशुतोष और आशीष खेतान सहित कई नेता बार-बार यह दोहराते रहे हैं कि पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र शुरू से आज तक है. इस बारे में आम आदमी पार्टी का सोशल मीडिया देखने वाले अंकित लाल कहते हैं, ‘अगर पार्टी में लोकतंत्र नहीं होता तो आज इस मुद्दे पर देश के हर कोने से कार्यकर्ता नहीं बोल रहे होते. पार्टी के भीतर भी कई बार हम आपस में बुरी तरह से लड़े हैं. मैं खुद कई बार अरविंद के साथ कई मुद्दों पर एक मत नहीं हो पाया और हम घंटों एक-दूसरे से बहस करते रहे.’ अंकित आगे कहते हैं, ‘योगेंद्र और प्रशांत भूषण के बारे में भी जो फैसला हुआ है वो पार्टी ने लिया है. पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन किया गया है.’ पार्टी के वरिष्ठ नेता प्रो. आनंद कुमार भी यह मानते हैं कि इस प्रकरण की वजह से आम आदमी पार्टी को पूरी तरह से अलोकतांत्रिक बता देना ठीक नहीं है. वो कहते हैं, ‘आज की तारीख में जितनी भी पार्टियां हैं उसमें किसी की हिम्मत नहीं है कि कोई भी व्यक्ति पार्टी के सर्वोच्च पद पर बैठे व्यक्ति पर एक सवाल उठा दे. ऐसा करने पर तुरंत सवाल उठाने वाले व्यक्ति को बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है.’

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‘आप’सी खींचतान

नाराजगी पाटीर् के शीषर् नेताओं की लड़ाई से कायर्कतार् स्तब्ध हैं
बंगलुरु में प्राकृतिक चिकित्सा करवा रहे अरविंद के कुनबे में घमासान मची है.
बंगलुरु में प्राकृतिक चिकित्सा करवा रहे अरविंद के कुनबे में घमासान मची है.

तहलका से बातचीत में प्रो. कुमार यह भी मानते हैं कि पार्टी के तीन वरिष्ठ नेताओं पर जिस तरह के आरोप लगाए जा रहे हैं, जिस तरह से उनकी छवि को खराब करने की कोशिश हो रही वह भी ठीक नहीं है. वे कहते हैं, ‘अभी-अभी पार्टी को बड़ी जीत मिली है. हर बड़ी जीत के बाद मतभेद और मनभेद उभरते हैं. वैसे भी यह पारंपरिक पार्टी जैसा संगठन नहीं है. हम इन चीजों से, इन प्रक्रियाओं से और मजबूत होकर उभरेंगे.’

पार्टी के एक दूसरे वरिष्ठ नेता अपना नाम न छापने की शर्त पर प्रो. कुमार के उस भरोसे की हवा निकाल देते हैं कि इन प्रक्रियाओं से पार्टी मजबूत होकर उभरेगी. वे बताते हैं, ‘देखिए, योगेंद्र और प्रशांत जिन मुद्दों की बात कर रहे हैं वो पार्टी के सिद्धांतों और मूल्यों से जुड़े मुद्दे हैं. ये दोनों-तीनों लोग मनीष सिसोदिया, आशुतोष, आशीष खेतान और संजय सिंह से कहीं ज्यादा लोकप्रिय और स्थापित चेहरे रहे हैं. योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण और शांति भूषण ने आज तक पार्टी से कुछ चाहा नहीं है. बल्कि इन्होंने पार्टी को एक कार्यकर्ता के तौर पर दिया ही है. अगर वो टीम अरविंद को पार्टी के सिद्धांत से भटकने से अगाह कर रहे हैं तो क्या गलत कर रहे हैं?’

पार्टी में भिन्न-भिन्न स्तरों पर काम कर रहे नेताओं और वॉलंटियर्स से बात करने पर एक समझ यह बनती है कि दिल्ली चुनाव में मिली अप्रत्याशित जीत के बाद अरविंद केजरीवाल के आसपास कुछ ऐसे नेताओं का जमावड़ा बढ़ गया है जो राजनीति में रहते हुए समझौते और लेन-देन को गलत नहीं मानते. ये लोग इसे व्यावहारिकता का तकाजा बताते हैं. वहीं योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण और शांति भूषण जैसे कई दूसरे लोग सैद्धांतिक और व्यावहारिक रूप से इन भटकावों के लिए तैयार नहीं हैं.

गुटबाजी : भरोसेमंद बनाम गैर-भरोसेमंद?

आज जब आप की गुटबाजी सतह पर आ चुकी है तब यह सवाल भी खड़ा होने लगा है कि क्या पार्टी के भीतर अपने विश्वासपात्रों का एक गुट अरविंद खड़ा करना चाहते हैं. इसका सबूत पार्टी के वरिष्ठ नेता मयंक गांधी का वह ब्लॉग है जिसे उन्होंने पांच मार्च को लिखा था. इसमें साफ-साफ कहा गया है कि अरविंद पीएसी में भूषण और योगेंद्र को नहीं चाहते थे. उन्होंने साफ कहा था कि अगर ये दोनों पीएसी में रहेंगे तो वे संयोजक के पद से इस्तीफा दे देंगे. पार्टी के एक वरिष्ठ नेता जिन्हें पार्टी के शीर्ष पांच नेताओं में रखा जा सकता है इसे अलग तरीके से समझाते हैं, ‘सत्ता में आने के बाद पार्टी में तेजी से दो गुट बने हैं. एक गुट वह है जो सत्ता के इर्द-गिर्द रहते हुए उसका स्वाद लेना चाहता है. दूसरा गुट वह है जो पार्टी में उसके मूल सिद्धांतों और मूल्यों को स्थापित करने पर जोर दे रहा है. जाहिर है कि अरविंद इन दिनों सत्ता का स्वाद लेनेवाले नेताओं के गुट से घिरे हैं.’

वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश के शब्दों में, ‘आप में एक दीवार खिंच चुकी है, ‘भरोसेमंद’ और ‘गैर-भरोसेमंद’ के बीच. ‘गैर-भरोसेमंद’ लोगों में वे हैं, जो कभी सहमत तो कभी असहमत भी हो सकते हैं यानी जिनका रुख पहले से तय नहीं है. भरोसेमंद लोगों में पार्टी के नेताओं का वह तबका है जो अरविंद केजरीवाल की हर बात पर ‘हां’ करनेवाला है. आज की तारीख में गैर-भरोसेमंद लोगों की टीम में पार्टी के संस्थापक सदस्य प्रशांत भूषण, शांति भूषण, योगेंद्र यादव और मंयक गांधी जैसे नेता खड़े हैं. ये ऐसे लोग हैं जिनका पार्टी बनने के पहले भी एक स्वतंत्र विचार और सिद्धांत रहा है. दूसरी तरफ संजय सिंह, आशुतोष, आशीष खेतान, दिलीप पांडे सहित कई ऐसे नेता हैं जिनका सार्वजनिक जीवन पार्टी में शामिल होने के साथ ही शुरू हुआ है. एक तरह से इनका राजनीतिक जीवन अरविंद केजरीवाल के वरदहस्त में शुरू हुआ है.’ मनीष सिसोदिया आंदोलन के समय से अरविंद केजरीवाल के साथ जरूर हैं लेकिन वो हमेशा अरविंद केजरीवाल के पीछे खड़े होनेवाले सहयोगी के तौर पर जाने जाते रहे हैं. पार्टी के कई अन्य नेता भी दबी जुबान में स्वीकार करते हैं कि दूसरे गुट को अरविंद का समर्थन प्राप्त है. इसके समर्थन में यह तर्क भी दिया जा रहा है कि अगर अरविंद का इशारा नहीं होता या अरविंद की सहमति नहीं होती तो पार्टी के दो संस्थापक सदस्यों पर जूनियर नेता इतने कड़े हमले नहीं कर रहे होते. पार्टी के एक तबके में यह सोच है कि अगर किसी ने पार्टी का अनुशासन तोड़ा है या पार्टी का अहित किया है तो ये बातें और उसके खिलाफ कार्रवाई पार्टी के उचित फोरम पर होनी चाहिए न कि इस तरह से मीडिया में सार्वजनिक लानत-मलानत करके. जाहिर है यह सब अरविंद केजरीवाल के इशारे पर ही हो रहा है.

नेताओं और कार्यकर्ताओं की यह चिंता एक हद तक सही भी है. पहले दिन से योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण और शांति भूषण पर जिस तरह के जुबानी हमले पार्टी के बड़े और छोटे नेता कर रहे हैं वो बिना किसी बड़े नेता की शह के संभव नहीं है. आशीष खेतान ने सोशल मीडिया साईट पर यह तक लिख दिया कि शांति भूषण, प्रशांत भूषण और शालिनी भूषण मिलकर पार्टी पर कब्जा करना चाहते हैं. बाद में आशीष खेतान ने यह कहते हुए माफी मांग ली कि उनके दिल में प्रशांत भूषण और शांति भूषण के लिए बहुत सम्मान है.

चार मार्च को पार्टी कार्यकारणी की बैठक में योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को पीएसी से बाहर करने का फैसला हुआ. इस नतीजे तक पहुंचने के पहले मतदान हुआ. 21 सदस्यीय कार्यकारणी में आठ मत इन दोनों नेताओं के पक्ष में पड़े जबकि 11 वोट इन्हें पीएसी से हटाने के पक्ष में पड़े. बहुमत के आधार पर दोनों नेताओं को पीएससी से बाहर कर दिया गया. इस बैठक और मतदान से एक बात और साफ हुई कि 21 सदस्यों की कार्यकारणी में सारे सदस्य एकमत नहीं थे. इस बैठक के बाद महाराष्ट्र में पार्टी के बड़े चेहरे और राष्ट्रीय कार्यकारणी के सदस्य मयंक गांधी ने बैठक की पूरी जानकारी अपने ब्लॉग पर जारी कर दी. मंयक ने पारदर्शिता की दुहाई देते हुए कार्यकारिणी की बैठक में हुई गतिविधियों पर एक ब्लॉग लिखा. इस ब्लॉग में उन्होंने दुख जताया कि कैसे कुछेक नेताओं ने मिलकर योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को पीएससी से निकालने की तैयारी की. मयंक ने अपने इस ब्लॉग में सीधे केजरीवाल पर भी निशाना साधा. वे लिखते हैं, ‘दिल्ली चुनाव अभियान के दौरान प्रशांत ने उम्मीदवारों के चयन को लेकर कई बार पार्टी के खिलाफ प्रेस कॉन्फ्रेंस करने की धमकी दी थी. हमारे बीच से कुछ लोग मामले को चुनाव तक टालने में सफल रहे. यह आरोप लगाया गया कि योगेंद्र यादव, अरविंद के खिलाफ षडयंत्र कर रहे हैं और कुछ सबूत पेश किए गए. अरविंद के प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव से गंभीर मतभेद थे और आपसी विश्वास की भी कमी थी. 26 फरवरी की रात जब राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य अरविंद केजरीवाल से मिलने पहुंचे तो उन्होंने साफ कह दिया कि अगर दोनों लोग पीएसी के सदस्य बने रहेंगे तो वह संयोजक के पद पर काम नहीं कर पाएंगे.’

मयंक अपने ब्लॉग में आगे लिखते हैं, ‘योगेंद्र यादव समझ गए थे कि अरविंद केजरीवाल उन्हें पीएसी में नहीं देखना चाहते हैं. उन्होंने खुद ही पेशकश की थी कि वे और प्रशांत भूषण पीएसी से हटने के लिए तैयार हैं. योगेंद्र यादव ने दो विकल्प सुझाए थे. पीएसी फिर से बनाई जाए जिसमें वे दोनों नहीं रहेंगे या फिर पीएसी काम करती रहे, लेकिन दोनों इसकी बैठकों और गतिविधियों से दूर रहेंगे. केजरीवाल के वफादार नेताओं ने इस पर विचार भी किया लेकिन बाद में उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने योगेंद्र और प्रशांत को हटाने का प्रस्ताव रखा. संजय सिंह ने प्रस्ताव का समर्थन किया.’

आप के भीतर उपजे इस संकट का एक सिरा महत्वाकांक्षी नेताओं की लोलुपता की ओर भी जाता है. ये वे नेता हैं जिनका रास्ता योगेंद्र या प्रशांत के हटने पर ही खुल सकता है. पार्टी के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता कहते हैं, ‘सत्ता के साथ बहुत सी ऐसी चीजें आती हैं जो साथियों को आपस में लड़ने-झगड़ने पर आमादा कर देती हैं. सत्ता के साथ पद आता है, प्रतिष्ठा आती है. और इसकी इच्छा रखकर राजनीति में आए लोग ज्यादा दिनों तक इंतजार नहीं कर पाते. दिल्ली में जीत हासिल हुई है. कुछ लोगों को राज्यसभा जाना है. ऐसे में इन दोनों लोगों को पार्टी से निकालने पर बहुत से नेताओं का हित सध जाएगा.’ वो आगे कहते हैं, ‘एक और बात है कद की. योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण के सामने वो सारे नेता बहुत बौने हैं जो आज इन दोनों पर हमलावर हैं. हो सकता है कि इन दोनों के कद से अरविंद केजरीवाल को भी थोड़ी परेशानी हो रही हो. ऐसे में जब दिल्ली में सत्ता पांच साल रहनेवाली है तो यही ठीक समय होगा जब इस तरह की बाधाओं से निपट लिया जाए.’

 

पार्टी के शीर्ष नेताओं की आपसी लड़ाई से कायर्ककर्ता स्तब्ध हैं
पार्टी के शीर्ष नेताओं की आपसी लड़ाई से कायर्ककर्ता स्तब्ध हैं

दूसरी पार्टियों से अलग कैसे?

‘हम राजनीति करने नहीं, राजनीति बदलने आए हैं’, ‘आप पुरानी पार्टियों से अलग है, हम उन्हें राजनीति िसखा देंगे’, ‘अगर हमने घमंड किया तो हम भी भाजपा और कांग्रेस जैसे हो जाएंगे’. पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल द्वारा अलग-अलग मौकों पर दिए गए ये कुछ ऐसे बयान हैं जिनसे भ्रम हो सकता है कि आम आदमी पार्टी बाकी पार्टियों से अलग है. इस पार्टी से जो लोग जुड़े हैं वो केवल सेवा के लिए जुड़े हैं. सिद्धांत के लिए जुड़े हैं. ऐसे दावे केवल अरविंद केजरीवाल नहीं बल्की पार्टी का हर नेता और हर कार्यकर्ता करता रहा है. अब पार्टी के भीतर हाईकमान कल्चर की बात हो रही है. सामान्य लोगों को भी यह साफ-साफ समझ में आ रहा है कि पार्टी में अरविंद केजरीवाल और उनके गुट से असहमति रखने वालों को योजनाबद्ध तरीके से निपटाया जा रहा है. ऐसे में यह सवाल बार-बार उठ रहा है कि क्या आप भी औरों जैसी ही है?

बाकी पार्टियों से अलग होने का दावा गलत साबित हो रहा है. पार्टी उस मुकाम पर खड़ी दिख रही है जिसे जोड़-तोड़, खरीद-फरोख्त, व्यक्तिपूजा जैसी चीजों से कोई परहेज नहीं है. लेकिन पार्टी के कुछ नेता सारा परदा उठ जाने के बाद भी पार्टी विद डिफरेंस का राग छेड़े हुए हैं. अंकित लाल कहते हैं, ‘आज भी आम आदमी पार्टी दूसरों से अलग है. अगर हम भाजपा और कांग्रेस जैसे होते तो यह सवाल ही नहीं उठता कि किसने क्या गलत किया और किसकी क्या जिम्मेदारी होनी चाहिए.’

पार्टी के वरिष्ठ नेता प्रो. आनंद कुमार यह तो मानते हैं कि आम आदमी पार्टी दूसरों से अलग है लेकिन साथ ही वो यह भी जोड़ते हैं कि मौजूदा संकट से पार्टी कैसे निपटती है उससे यह तय होगा कि हम कितने अलग हैं. वो कहते हैं, ‘फिलहाल बाहर गलत संदेश ही जा रहा है. पार्टी के नेताओं की छवि अगर धूमिल होगी तो उससे पार्टी की छवि भी कमजोर होगी. अगर कोई अरविंद की छवि धूमिल करने की कोशिश कर रहा है तो वो पार्टी को ही कमजोर कर रहा है. उसी तरीके से अगर कोई योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण और शांति भूषण को सार्वजनिक तौर से नीचा दिखाने की कोशिश में लगा है तो वह भी पार्टी को ही कमजोर कर रहा है. हम कितने लोकतांत्रिक हैं. कितने उदार हैं और कितने समझदार हैं वो इससे ही साबित होगा कि हम इस समस्या से कैसे निपटते हैं.’

आम आदमी पार्टी के नेता खुद को बाकियों से अलग होने की चाहे जितनी भी दलीलें दें लेकिन पार्टी के कई कदम इसे ठेंगा दिखाते हैं. 2013 में पार्टी जब अपना पहला चुनाव लड़ रही थी तब पार्टी ने अपने उम्मीदवारों के चयन की एक प्रक्रिया तय की थी. उस समय इसकी चौतरफा तारीफ हुई थी. लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव और 2015 के विधानसभा चुनावों में पार्टी ने इन मानकों को किनारे करते हुए उम्मीदवारों की हैसियत और जीतने की क्षमता के आधार पर टिकट बांटना शुरू कर दिया.

इसी प्रकार लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद पार्टी ने एक बार फिर से उसी कांग्रेस पार्टी की मदद से दिल्ली में सरकार बनाने की नाकाम कोशिश की जिसका समर्थन उसने कुछ महीने पहले ठुकराया था. इस मामले में खुद अरविंद केजरीवाल की शुचिता और ईमानदारी चिंदी-चाक हो गई है. हाल ही में सामने आए एक ऑडियो टेप की बातें बहुत विस्फोटक हैं. अपने एक पूर्व विधायक राजेश गर्ग से अरविंद, कांग्रेस के विधायकों को तोड़ने की बात कह रहे हैं. उन्हें अलग पार्टी बनाने की सलाह दे रहे हैं. इन बातों से सिर्फ यही साबित होता है कि आम आदमी पार्टी फिलहाल भले ही पूरी तरह से भाजपा या कांग्रेस नहीं हुई है लेकिन बहुत तेजी से उसी रास्ते पर बढ़ रही है.

कार्यकर्ता : निराश और हताश

जिस तरह से देश में होनेवाला हर चुनाव गरीब-वंचित और किसानों के नाम पर लड़ा जाता है, उसी तरह से आप में मची उठापटक भी कार्यकर्ताओं की आड़ में चल रही है. पार्टी जब सार्वजनिक रूप से योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण पर आरोप लगाती है तो इस बात का हवाला देती है कि जब देशभर के कार्यकर्ता दिल्ली चुनाव में लगे हुए थे तब ये दोनों पार्टी को हराने में लगे हुए थे. जब प्रशांत और योगेंद्र यादव को पीएससी से निकाला गया तब दोनों नेता बड़ी ही विनम्रता से कहा कि वे बतौर कार्यकर्ता पार्टी से जुड़े रहेंगे और पार्टी के कहेनुसार काम करेंगे. अपने ब्लॉग की शुरुआत मंयक गांधी पार्टी के कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए करते हैं. जब आप आधिकारिक रूप से अपनी वेबसाइट पर योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण पर आरोप तय करती है और इसके जवाब में योगेंद्र और प्रशांत जो पत्र लिखते हैं वो भी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए ही लिखे जाते हैं.

यानी पार्टी के कार्यकर्ता फिलहाल नेताओं के लिए अहम हैं. इस पार्टी से जुड़े ज्यादातर कार्यकर्ता युवा हैं और मुखर हैं. वो सार्वजनिक रूप से अपनी बात रखते हैं और मौका आने पर अपनी पार्टी के बड़े से बड़े नेता से सवाल भी करते हैं. हालिया विवाद में टीम अरविंद के लिए यही सबसे बड़ा सिरदर्द है कि पार्टी के कार्यकर्ताओं और शुभचिंतकों का एक बड़ा तबका यह मान रहा है कि पार्टी योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण के साथ गलत कर रही है. बिहार में पार्टी के सक्रिय कार्यकर्ता नीरज कुमार हालिया प्रकरण से दुखी हैं. वो कहते हैं, ‘जो भी हो रहा है वो गलत है. अगर आम आदमी पार्टी में अरविंद का योगदान है तो उससे कम योगदान योगेंद्र यादव, शांति भूषण और प्रशांत भूषण का नहीं है. लेकिन आज अरविंद पार्टी को हिटलरशाही से चलाना चाहते हैं. आज जिस तरीके से इनको पार्टी से कुछ लोग खारिज करने में लगे हुए हैं वो गलत है.’

नीरज कहते हैं, ‘इस पूरे कांड से जो संदेश हम जैसे कार्यकर्ताओं तक आ रहा है वो यह कि हम चाहे कितना भी अच्छा काम कर लें, जब तक अरविंद या उनके आसपास के चार-पांच लोग हमसे खुश नहीं होंगे तब तक हमारा कुछ नहीं होगा. निराशा बढ़ती जा रही  है. समझ नहीं आ रहा कि हो क्या रहा है.’ वहीं आम आदमी पार्टी की तरफ से भोपाल से लोकसभा का चुनाव लड़ चुकी रचना ढिंगरा बार-बार दोहराती हैं कि हम वापसी करेंगे. उन्हें उम्मीद है कि पार्टी के वरिष्ठ नेता आपसी विवाद का कोई सही हल खोज लेंगे. पार्टी जल्दी ही रौ में आ जाएगी.

लेकिन पार्टी के कौशांबी स्थित मुख्यालय में बैठनेवाले कार्यकर्ता इस सबसे हैरान-परेशान हैं. कार्यकर्ता अपने नेताओं की इस आपसी लड़ाई को समझने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन वो इसे जितना समझने की कोशिश कर रहे हैं उतना ही उलझते जा रहे हैं. दफ्तर के रोजमर्रा के काम में हाथ बंटाने वाले कार्यकताओं का एक बड़ा तबका इस इंतजार में है कि जल्दी से जल्दी अरविंद बंगलोर से वापस आ जाएं. इनका ऐसा मानना है कि अरविंद केजरीवाल आएंगे और सब ठीक कर देंगे.

खींचतान और निराशा के इस माहौल में पार्टी के कार्यकर्ता अपने नेतृत्व से सवाल कर रहे हैं. पिछले कुछे दिनों में ही सोशल मीडिया पर आम आदमी पार्टी, अरविंद केजरीवाल और पार्टी के दूसरे नेताओं से लगभग 50 हजार लोगों ने सवाल पूछे हैं. सवाल पूछने का यह सिलसिला जारी है. संभव है कि अरविंद केजरीवाल, प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव सहित पार्टी के बाकी नेताओं को साथ लाने में कार्यकर्ताओं के ये सवाल अहम भूमिका निभाएं.

डालमिया को मुकुट और श्रीनिवासन को राज

बाजीगर: हार कर जीतनेवाले बाजीगर साबित हुए हैं जगमोहन डालमिया
बाजीगर: हार कर जीतनेवाले बाजीगर साबित हुए हैं जगमोहन डालमिया

साल 2006 में पिलकॉम खातों की हेराफेरी से जुड़े विवाद के बाद जगमोहन डालमिया बीसीसीआई से विदा हो गए. उस वक्त ज्यादातर लोगों की सोच थी कि भारतीय क्रिकेट बोर्ड में डालमिया का वक्त खत्म हो चुका है. पूर्व बीसीसीआई और आईसीसी अध्यक्ष ने एक दशक के बाद फिर से अध्यक्ष के तौर पर बोर्ड में जबर्दस्त वापसी की है. हालांकि डालमिया की यह वापसी लंबे समय से चल रही बीसीसीआई की जटिल राजनीति को और ज्यादा उलझाने के लिए काफी है और बोर्ड की इस राजनीति को डालमिया से बेहतर शायद ही किसी ने अनुभव किया हो.

चयन के बाद 74 वर्षीय डालमिया ने अपने आलोचकों पर कटाक्ष करते हुए कहा, ‘जिन लोगों ने मुझे क्रिकेट बोर्ड से बाहर का रास्ता दिखाया था आज मेरे लिए खुशी से तालियां बजा रहे हैं.’ इस बात को अभी ज्यादा अरसा नहीं हुआ है जब शरद पवार, एन श्रीनिवासन, आईएस बिंद्रा, शशांक मनोहर, एसी मुथैया और ललित मोदी ने डालमिया को बाहर करने के लिए हाथ मिलाया था.

क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ बिहार के सचिव आदित्य वर्मा ने श्रीनिवासन के बोर्ड से बाहर होने पर अपनी खुशी जाहिर की. तहलका से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘भारतीय क्रिकेट की बेहतरी के लिए लंबे समय से मैंने श्रीनिवासन को हटाने के लिए संघर्ष किया है. आखिरकार यह संभव हो सका और मेरे प्रयासों को सफलता मिली. मैं चाहता था कि शरद पवार और डालमिया एक साथ आएं और मुझे खुशी है कि ऐसा हो सका. डालमिया एक कुशल प्रशासक हैं और भारतीय क्रिकेट से वर्षों से जुड़े रहे हैं. मुझे उम्मीद है कि तीन साल के उनके कार्यकाल में भारतीय क्रिकेट नई ऊंचाइयों को छुएगा और बिहार के खिलाड़ियों को उनका समुचित हक मिल सकेगा.’

डालमिया की परिकथाओं-सी वापसी की शुरुआत 2007 में हुई थी, जब उन्होंने बॉम्बे उच्च न्यायालय के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी थी. वहां से आरोपमुक्त होने के बाद जगमोहन डालमिया को क्रिकेट प्रशासक के तौर पर दुबारा एक नई जिंदगी मिली. इस फैसले ने बीसीसीआई में देर-सबेर ही सही उनकी वापसी के रास्ते खोल दिए थे. इसके बाद कलकत्ता उच्च न्यायालय ने भी डालमिया के खिलाफ लगे सभी आरोप निरस्त कर दिए. साल 2008 में डालमिया ने  क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ बंगाल के अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा. इस चुनाव में उन्होंने कोलकाता के पुलिस कमिश्नर प्रसून मुखर्जी को हराया. इस जीत ने यह साबित कर दिया कि डालमिया अपनी रणनीतिक चालों के दम पर आगे भी टिके रहनेवाले हैं.

इसके कुछ साल बाद 2013 में जब आईपीएल6 में स्पॉट फिक्सिंग विवाद उठा, तब उंगली तत्कालीन बीसीसीआई अध्यक्ष एन श्रीनिवासन और उनके दामाद गुरुनाथ मयप्पन पर भी उठी. ऐसे समय में डालमिया तारणहार के तौर पर उभरे. चार महीने के लिए उन्हें अंतरिम अध्यक्ष बनाया गया. कह सकते हैं कि डालमिया ने बेहतरीन वापसी की.

सर्वोच्च न्यायालय ने एन श्रीनिवासन के बीसीसीआई अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी. लिहाजा डालमिया का नाम रेस में सबसे ऊपर आ गया क्योंकि इस बार बीसीसीआई अध्यक्ष पद के लिए नामित करने की बारी ईस्ट जोन की थी. मीडिया में ऐसी खबरें भी थीं कि एनसीपी नेता और बीसीसीआई के पूर्व अध्यक्ष शरद पवार भी अध्यक्ष पद के लिए किस्मत आजमाना चाहते थे लेकिन उनके पास संख्या बल नहीं था इसलिए उन्होंने पीछे हटना ठीक समझा. पवार के दौड़ से बाहर होते ही डालमिया के लिए रास्ता पूरी तरह साफ हो गया.

बीसीसीआई मामलों के जानकार और क्रिकेट लेखक वी श्रीवास्तव ने तहलका को बताया, ‘74 साल की उम्र में डालमिया के पास बीसीसीआई में बदलाव के लिए कौन सी प्रेरणा और योजना होगी.   बीसीसीआई की कार्यप्रणाली पर सर्वोच्च न्यायालय ने नाराजगी जाहिर की है. ऐसे में क्या डालमिया सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों को मानते हुए भारतीय क्रिकेट का बेड़ा पार कर सकेंगे?’

श्रीनिवासन के पुराने वफादार लगभग सभी महत्वपूर्ण पदों पर जीत दर्ज करने में सफल रहे. बोर्ड के पदाधिकारियों पर उनकी पकड़ कितनी मजबूत है, इससे समझा जा सकता है कि पांच में से चार पदों पर श्रीनिवासन खेमे के उम्मीदवार सफल रहे. शरद पवार का सचिव पद के लिए भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर का समर्थन श्रीनिवासन के लिए तगड़ा झटका रहा. अनुराग ठाकुर ने संजय पटेल को हराया. ठाकुर ने यह सफलता भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के बेटे जय शाह के सहयोग से हासिल की. तहलका को सूत्रों के हवाले से जानकारी मिली है कि अमित शाह ने विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधियों को अनुराग ठाकुर की जीत सुनिश्चित कराने की खास हिदायत दी थी. भाजपा के लोगों में झारखंड क्रिकेट एसोसिएशन के अमिताभ चौधरी संयुक्त सचिव और तेलंगाना स्टेट क्रिकेट

एसोसिएशन के जी गंगाराजू उपाध्यक्ष (दक्षिण क्षेत्र) पद पर विजयी रहे.

सर्वोच्च न्यायालय ने भी बोर्ड की कार्यप्रणाली और पारदर्शिता के अभाव पर सवाल उठाए हैं. इन गंभीर चुनौतियों से डालमिया कैसे निपटेंगे, इस पर सबकी निगाहें टिकी हैं. राष्ट्रीय चयनकर्ता अशोक मल्होत्रा ने तहलका से कहा, ‘डालमिया की वापसी सकारात्मक संदेश है. बीसीसीआई विश्व का सर्वाधिक धनी बोर्ड है, उसे यहां पहुंचाने में डालमिया की बड़ी भूमिका है

(विजय ग्रोवर के सहयोग के साथ)

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सवर्ण राजनेता: सप्तमो अध्याय समाप्ते !

saptamoबिहार के कुछ ब्राह्मण नेताओं से बात कीजिए और उनकी बातों पर गौर कीजिए. बहुत दिलचस्प जवाब मिलते हैं उनसे. मिसाल के तौर पर जगन्नाथ मिश्र से पूछें कि फिलहाल तो किसी सवर्ण या ब्राह्मण के हाथ सत्ता की बागडोर आने की गुंजाइश नहीं दीखती, इसके जवाब में वे कह उठते हैं- अरे! क्यों नहीं. राजनीति में कभी भी कुछ भी हो सकता है. मिश्र तमिलनाडु का उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘देखिए, वहां दलित राजनीति होती है लेकिन दलितों की नेता तो जयललिता ही हैं न! फिर बिहार में ऐसी स्थिति क्यों नहीं हो सकती है? जयललिता ब्राह्मण हैं लेकिन दलितों की नेता हैं. एक और बड़े ब्राहमण नेता हैं जयनारायण त्रिवेदी. वे ब्राह्मण समाज के प्रमुख हैं और जदयू के उपाध्यक्ष भी रहे हैं. फिलहाल वे केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के कोषाध्यक्ष हैं. इससे आगे बढ़कर वे अतीत में झांकते हैं और फिर कहते हैं, ‘देखिए ब्राह्मणों ने हमेशा से चाणक्य की भूमिका निभाई है और भविष्य में भी वे इस भूमिका में सक्रिय रहेंगे. चाणक्य के बगैर सत्ता चल ही नहीं सकती.

एक नेता प्रेमचंद मिश्र हैं. कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहे हैं. वे बताते हैं कि असल में बिहार के ब्राह्मणों ने कांग्रेस का साथ छोड़ दिया इसलिए उनकी दुर्गति हो रही है. वे बुनियादी तौर पर ब्राह्मणों के विरोधी रहे लालू प्रसाद के साथ कांग्रेस से किनारा करके जाते रहे. प्रेमचंद मिश्र कहते हैं जिस दिन ब्राह्मण फिर से कांग्रेस के साथ आ जाएंगे, उसी दिन से उनका भाग्य बदल जाएगा.

कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष प्रेमचंद मिश्र का मानना है कि जिस दिन ब्राह्मण पार्टी के साथ हो जाएंगे उस दिन हमारे भाग्य बदलने लग जाएंगे   

आप अलग-अलग ब्राह्मण नेताओं से बात कीजिए, आपको सभी मंगल ग्रह से बात करते हुए नजर आएंगे. मानों वे राजनीति के मैदान से दूर आभासी संसार रचने में जुटे हों. वे चाणक्य से लेकर अब तक बिहार की राजनीति में ब्राह्मणों की राजनीतिक भूमिका बता देंगे. वे हकीकत से अनजान बने रहना चाहते हैं. बिहार को वे बार-बार चाणक्य की कर्मभूमि बताते हैं. चंद्रगुप्त को बनाने में चाणक्य की भूमिका को रेखांकित करते हैं लेकिन सच तो यह है कि उसी बिहार में जीतन राम मांझी प्रकरण के बाद नीतीश कुमार के नेतृत्व में जो सरकार बनी है, उस मंत्रिमंडल में एक भी ब्राह्मण शामिल नहीं है. संभव है कि यह आजादी के बाद का पहला मंत्रिमंडल है जिसमें एक भी ब्राह्मण नहीं है. इस मंत्रिमंडल को देखते हुए यह बात पानी की तरह साफ हो चुकी है कि बिहार की राजनीति में कभी ब्राह्मणों का वर्चस्व रहा होगा लेकिन अब उन्हें तवज्जो देने न देने से कोई फर्क नहीं पड़नेवाला. राज्य की राजनीति के लिए अब ‘वे सबसे निष्क्रिय व अनुपयोगी समूह में तब्दील हो चुके हैं.

दिलचस्प यह है कि जाति की राजनीति के खोल में समा चुकी या समाने को बेचैन बिहार की राजनीति में ब्राह्मणों को एक सिरे से बाहर कर देने का मसला महत्वपूर्ण नहीं है. हां, सवर्णों के नाम पर राजनीतिक गलियारे मंे रोज-ब-रोज बात जरूर हो रही है. नीतीश कुमार पहले तो सवर्णों के लिए सवर्ण आयोग बनाकर अपनी राजनीति साधने में लगे हुए थे लेकिन मांझी सवर्णों के लिए अलग से आरक्षण का पासा फेंक चुके हैं. इस बिगड़े समीकरण में अगड़ी जातियों को एक सवर्ण समूह में बदलने के बाद ब्राह्मणों का नुकसान सबसे ज्यादा हुआ है.

गौरतलब है कि बिहार में सवर्ण जातियों में आबादी के आधार पर सबसे बड़ी जाति ब्राह्मणों की है लेकिन जिस बिहार में चाणक्य को एक प्रतीक मानकर बार-बार ब्राह्मणों को श्रेष्ठ रणनीतिकार बताया जाता रहा है और जिस बिहार में कई ब्राह्मण नेताओं ने बतौर मुख्यमंत्री और मंत्री रहकर लंबे समय तक राज किया है आज वहां ओबीसी राजनीति के उभार के बाद अतिपिछड़ों व दलित-महादलितों की राजनीति के उभार के दौर में ऐसा क्या हो गया कि सवर्ण समूह की तो हैसियत बढ़ी लेकिन ब्राह्मण इतने उपेक्षित या अनुपयोगी होते गये? राजनीतिक विश्लेषक प्रेम कुमार मणि  बताते हैं कि सवर्णों के समूह में ब्राह्मणों को हाशिये पर धकेल दिया जाना बहुत स्वाभाविक है. यह वह समूह है, जो कुख्यात लोगों को पैदा नहीं कर सकता. दबंगों को पैदा नहीं कर सकता फिर राजनीतिक पार्टियों के लिए क्यों उपयोगी बना रहेगा? मणि कहते हैं- ‘बिहार की राजनीति में ब्राह्मण एक ही बार सबसे महत्वपूर्ण रहे हैं. यह एक मिथ गढ़ लिया गया है कि कांग्रेस के समय में ब्राहमणों की चलती थी. वह कहते हैं कि 30 के दशक में जायेंगे तो कायस्थों का वर्चस्व कांग्रेस में था. उसके बाद भूमिहारों व राजपूतों का आया. बाद में इंदिरा गांधी ने जब नये राजनीतिक समीकरण बनाये तो उसमें ब्राहमणों को अलग किया और ब्राह्मणों के साथ पिछड़े, दलितों व मुसलमानों को मिलाकर सत्ता की सियासत के लिए एक नया समीकरण बनाया जो हिट हुआ. इसे लेकर सवर्णों की ही दूसरी जातियों में ब्राह्मणों से ईर्ष्या बढ़ी. मणि कहते हैं कि बिहार में जेपी (जयप्रकाश नारायण) आंदोलन के समय ब्राह्मणों को दरकिनार कर दिया गया था. जेपी आंदोलन के समय इस तरह का एक नारा चला था- लाला, ग्वाला और अकबर के साला वाली जाति की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है. मणि संभावना टटोलले हुए कहते हैं कि बिहार में अब आगे दूसरे रूप में ब्राह्मणों का राजनीतिक महत्व बढ़ने की गुंजाइश दिखाई देती है क्योंकि जीतन राम मांझी ने दलित राजनीति के नये अध्याय की शुरुआत कर दी और दलित जब राजनीति में अपना आयाम तलाशेगा तो अतिपिछड़ों के साथ ब्राह्मणों का ही समीकरण बनाना उसके लिए सबसे बेहतर होगा. ब्राह्मणों को दलितों के नेतृत्व का साथ देना होगा और इससे ब्राह्मण समूह को कोई परेशानी भी नहीं होगी. ऐसा पहले भी होता रहा है.

राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन ने बातचीत में कहा, ‘ब्राह्मणों को ऐतिहासिक सम्मोह छोड़ना होगा. वे अब भी अतीत में जी रहे हैं इसलिए उनकी यह गति तो होनी  थी. रही बात भूमिहार और राजपूतों को तवज्जो मिलने की तो उसकी एक वजह यह है कि इन दोनों अगड़ी जातियों का एक हिस्सा समाजवादी और वामपंथी आंदोलन में सक्रिय भूमिका में रहा इसलिए उनकी प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है. सुमन कहते हैं कि एक और बात पर आप गौर करें कि 1980 से 90 के बीच ब्राह्मणों का वर्चस्व बिहार की राजनीति में रहा और रामलखन सिंह यादव जैसे दिग्गज कांग्रेसी नेताओं को दरकिनार कर विंदेश्वरी दुबे और भागवत झा ‘आजाद’ को मंत्री और मुख्यमंत्री बनाया गया था.  यह प्रकृति और राजनीति का नियम है कि शीर्ष पर पहुंचने के बाद ढलान की बारी आती है. कुछ वर्षों बाद ओबीसी राजनीति का भी पराभव काल शुरू होगा जिसकी दस्तक सुनायी देने लगी है.

बिहार में कुछ जो चर्चित ब्राह्मण नेता हुए, उसमें कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके प्रजापति मिश्र, ललित नारायण मिश्र, विनोदानंद झा, जगन्नाथ मिश्र, विंदेश्वरी दुबे, केदार पांडेय, भागवत झा ‘आजाद’ आदि का नाम लिया जाता है. इसमें कुछ मुख्यमंत्री के पद तक पहुंचे. ये सभी कांग्रेसी रहे. समाजवादी नेताओं में रामानंद तिवारी एक बड़े नाम हुए लेकिन उनकी पहचान ब्राह्मण नेता की नहीं रही. बाद में उनके बेटे शिवानंद तिवारी भी राजनीति में आये और चर्चित रहे लेकिन उनकी पहचान भी ब्राहमण नेता की नहीं रही. समाजवादी राजनीति में ब्राह्मण नेताओं की उपस्थिति कभी ‘ब्राह्मण’ की नहीं रही. जेपी आंदोलन में भी ब्राह्मणों की भूमिका वैसी नहीं रही. जो खुर्राट ब्राह्मण नेता हुए, कांग्रेसी पृष्ठभूमि के रहे और वे धीरे-धीरे अपने ही कुनबे में सिमटते गये. भागवत झा ‘आजाद’ की राजनीतिक फसल उनके बेटे कीर्ति झा  ‘आजाद’ के सांसद बनने तक सिमट गयी. ललित नारायण मिश्र के परिवार से उनके बेटे विजय मिश्र जदयू से विधान परिषद के सदस्य हैं, विजय मिश्र के भी बेटे ऋषि मिश्र जदयू के कोटे से ही विधायक हैं लेकिन नीतीश कुमार की पार्टी में उनकी हैसियत भी बस एक विधान पार्षद या विधायक भर की है. इसी परिवार से ताल्लुक रखनेवाले जगन्नाथ मिश्र के परिवार की कहानी कुछ अलग है. जगन्नाथ मिश्र खुद कई बार मुख्यमंत्री रहे, बाद में जब कांग्रेसी राजनीति के दिन लद गये तो अपनी राजनीति बचाये रखने के लिए नीतीश के संगी-साथी बने, फिर अपने बेटे नीतीश मिश्र की सियासत को चमकाने में ऊर्जा लगाते रहे. नीतीश मिश्र मंत्री भी बने. अब जगन्नाथ मिश्र और उनके बेटे जीतन राम मांझी खेमे में हैं. जदयू खेमे में एक संजय झा का नाम बीच-बीच में आता रहा और कहा जाता रहा कि वे नीतीश कुमार के रणनीतिकारों में से हैं. लेकिन अब संजय झा भी हाशिये पर भेजे गये नेता से मालूल पड़ रहे हैं.

जगन्नाथ मिश्र कई बार मुख्यमंत्री रहे लेकिन दिन लदे तो नीतीश कुमार के साथ लग गए आैर अपने बेटे नीतीश मिश्र की सियासत चमकाने में ऊर्जा लगाते रहे

जदयू खेमे की बात छोड़ अगर राजद की बात करें तो वहां रघुनाथ झा ब्राह्मण नेता के तौर पर रहे लेकिन उनकी भी हैसियत कभी ऐसे ब्राहमण नेता की नहीं बन सकी, जिसकी राज्यव्यापी अपील हो. अब तो वे पूरी तरह पराभव की ओर अग्रसर हैं. भाजपा में प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडेय ब्राह्मण समुदाय से जरूर हैं लेकिन अपनी पार्टी में भी उनका वैसा प्रभाव नहीं, जैसा कि दूसरों का है. कहा जाता है कि वे आपसी गुटबाजी में इस्तेमाल करने के लिए बनाये गये अध्यक्ष हैं. भाजपा के एक वरिष्ठ नेता अश्विनी चौबे हैं जो भागलपुर से विधायक थे. वे राज्य में मंत्री भी थे, फिलहाल ब्राह्मण बहुल संसदीय क्षेत्र बक्सर से सांसद हैं. वैसे यह भी सच है कि बिहार से वर्तमान समय में दो सांसद ब्राह्मण हैं और दोनों भाजपा के ही हैं. प्रदेश अध्यक्ष भी ब्राह्मण हैं, इसलिए भाजपा भी राजनीतिक तौर पर ब्राह्मणों को अपने खेमे का मतदाता मानकर निश्चितंता की मुद्रा में ही है.

ब्राहमण समाज से ताल्लुक रखनेवाले बीएन तिवारी उर्फ भाईजी भोजपुरिया कहते हैं कि ब्राह्मणों की अगर आज राजनीतिक पूछ घटी है तो उसके लिए खुद ब्राह्मण नेता ही जिम्मेवार हैं. कभी किसी ब्राह्मण नेता ने भूमिहारों, राजपूतों या दूसरी जातियों की तरह गोलबंद करने की कोशिश नहीं की, जिसके चलते ब्राह्मण हमेशा बिखरे रहे और कभी इस खेमे में तो कभी उस खेमे में जाते रहे और आज वे इस स्थिति में पहुंच गए हैं.

स्वतंत्र पत्रकार अमित कहते हैं कि 90-95 तक ब्राहमणों का वर्चस्व रहा लेकिन उसके बाद वे उपयोग किये जाते रहे और उसके बाद तो उन्हें कठपुतली की तरह नचाया जाता रहा और वे नाचते भी रहे. भाजपा में भी यदि मंगल पांडेय अगर प्रदेश अध्यक्ष बने हैं तो ऐसा उनकी कोई राज्य स्तरीय अपील के कारण संभव नहीं हुआ. अपना मकसद साधने के लिए उन्हें मोहरे की तरह इस्तेमाल में लाया गया. अमित कहते हैं कि बिहार में ब्राह्मण राजनीति की नियति बस इतनी ही  है कि सभी नेताओं को अपने-अपने क्षेत्र में समेटकर रखा जाता रहा है और एक-दूसरे को आपस में ही लड़ाकर कभी किसी को तो कभी किसी को आगे किया जाता रहा है. अमित कहते हैं कि आप खुद ही देख लीजिए कि बक्सर में लालमुनी चौबे भाजपा के बड़े नेता थे. वे लगातार ब्राह्मण बहुल बक्सर से चुनाव लड़ते रहे, जीतते रहे. वे बहुत पहले ही विधायक दल के नेता भी बने थे. लेकिन एक बार कम वोट से लोकसभा चुनाव क्या हारे तो उन्हें दरकिनार करने के लिए ब्राह्मण नेता अश्विनी चौबे को वहां ले जाया गया और उनकी राजनीति खत्म की गई. अमित कहते हैं कि ब्राह्मणों का इस्तेमाल सभी दल इसी तरह करते रहे हैं. लालू प्रसाद ने भी राधानंदन झा को अपने साथ बनाये रखा और उन्हें चाणक्य और पता नहीं क्या-क्या कहा गया लेकिन राधानंदन को एक समय के बाद उपेक्षित किया गया.

जदयू के एक वरिष्ठ और नीतीश कुमार के करीबी नेता कहते हैं कि नीतीश के मंत्रिमंडल में अभी कोई ब्राह्मण नहीं है तो अचरज की क्या बात. इससे पहले भी नीतीश कुमार ऐसा करते रहे हैं. 2009 में भी लोकसभा चुनाव में उन्होंने एक भी ब्राह्मण को टिकट नहीं दिया था. ऐसा क्यों? नीतीश कुमार क्यों सवर्णों में भूमिहारों के प्रति और लालू प्रसाद यादव राजपूतों के प्रति दीवाने दिखते हैं जबकि नीतीश के मतदाताओं में ब्राह्माणों ने भी उनका उतना साथ दिया है जितना भूमिहार मतदाताओं ने. इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है. जदयू के वरिष्ठ नेता रहे और लालू-नीतीश दोनों के साथ रह चुके वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी ने इस संवाददाता से बाचतीत में कहा कि इसमें अचरज की कोई बात नहीं है. लोकतंत्र में सियासत के समीकरण तो बदलते रहते हैं.

बिहार की सियासत का जातीय समीकरण यह कहता है कि सवर्णों में ब्राह्मणों की आबादी करीब चार प्रतिशत है. ब्राह्मणों से थोड़ी कम आबादी भूमिहारों की है. लगभग तीन प्रतिशत राजपूत हैं और एक प्रतिशत के करीब कायस्थ. फिर ब्राह्मण समुदाय के बीच आज एक ऐसा बड़ा नेता नहीं है जो राजनीति में उनकी इस दुर्गति का जवाब दे! जवाब फिर वही मिलता है-बिहार में इस समय समाजवादियों की राजनीति का युग है. जेपी आंदोलन से निकले नेताओं का युग है. जेपी आंदोलन के दौरान ब्राह्मणों के वर्चस्व को खत्म करने का व्यापक अभियान चलाया गया, जिसका असर मानों अब हो रहा है. अब इतिश्री रेवाखंडे हो चुका है तो संभव है कि एक बार फिर से बिहार में नये किस्म से राजनीति की शुरुआत हो तो शायद ब्राह्मणों की भूमिका बढ़े लेकिन फिलहाल यह भी दिल बहलानेवाले एक खयाल की तरह ही लग रही है…

‘कश्मीर में अत्याचार के लिए उमर अब्दुल्ला जिम्मेदार हैं, मैं नहीं’

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फोटोः फैसल खान

जेल से रिहाई पर हो रहे विवाद पर आपकी क्या प्रतिक्रिया है?

जेल से मेरी रिहाई न्यायिक प्रक्रिया के तहत हुई है. कोर्ट ने सरकार की तरफ से मेरे ऊपर लगाए आरोपों के बावजूद मुझे बेल पर छोड़ा है. मुझे किसी गैर कानूनी प्रक्रिया के तहत नहीं छोड़ा गया है. इस पर इतना विवाद क्यों हो रहा है, मैं समझ नहीं पा रहा हूं. कोर्ट के आदेश के बाद भी क्या मुझे जेल से बाहर आने का अधिकार नहीं है? इसका सीधा मतलब यही निकलता है कि सिर्फ विचारधारा अलग होने की वजह से मुझे आजादी के संवैधानिक अधिकार से भी वंचित रखा जाए.

क्या आप अपनी रिहाई का श्रेय मुफ्ती को देंगे?

नहीं! बिल्कुल नहीं. मुझे कानूनी तौर पर रिहा किया गया, इसमें राज्य सरकार की क्या भूमिका हो सकती है? मैंने जिंदगी के 17 वर्ष जेल में बिताए हैं. 90 के दशक में और उसके बाद 2001. 2008, 2010, और फिर 2015 में कई दफा गिरफ्तार किया गया, फिर छोड़ दिया गया. मैं साढ़े चार साल बाद जेल से छूटा हूं, इसमें राज्य सरकार की दयादृष्टि का सवाल कहां से आता है?

आप पर 2010 से विरोध प्रदर्शन के नेतृत्व का आरोप है?

पहली बात, कोर्ट ने मेरे खिलाफ लगाए आरोपों को निराधार बताया. इससे पहले भी कई दफा जब जन सुरक्षा कानून के तहत मुझे गिरफ्तार किया गया, कोर्ट ने उन आरोपों को भी पूरी तरह निरस्त कर दिया था. दूसरी बात मैं, 2010 में विरोध करनेवाले उस जनसमूह में शामिल था, जो भारत सरकार से अपने ‘आत्मनिणर्य’ के अधिकार को लेकर प्रदर्शन कर रहा था. लेकिन मैं इसका नेतृत्व नहीं कर रहा था. ध्यान रहे कि भारत सरकार की तरफ से संयुक्त राष्ट्र में ‘आत्मनिणर्य’ का वादा कश्मीर के लिए किया गया था. जनआंदोलन किसी नेता के मोहताज नहीं होते. यह लोगों के आक्रोश की परिणति थी. लेकिन तत्कालीन उमर अब्दुल्ला की सरकार ने 120 युवाओं की मौत का जिम्मेदार मुझे बना दिया. कश्मीर में हुए अत्याचार के लिए उमर अब्दुल्ला जिम्मेदार हैं, मैं नहीं. मैंने बचपन से ही अपनी ज्यादातर उम्र जेल में काटी है इसलिए अगर मुझे दोबारा गिरफ्तार किया जाता है तो वह भी कोई बड़ी बात नहीं होगी।

पाक उच्चायोग से हुर्रियत नेता सैयद अली शाह गिलानी की मुलाकात और फिर आपकी रिहाई के बीच क्या कोई संबंध है?

इन दो घटनाओं के बीच कैसा संबंध हो सकता है? गिलानी जब दिल्ली में थे तो पाक उच्चायोग ने उनसे मुलाकात की. यह मुलाकात हर वर्ष होती है, इसमें नया क्या है? यह एक किस्म की शिष्टाचार मुलाकात होती है. इस वर्ष भी इस मुलाकात के बाद उन्हें 23 मार्च को होनेवाले ‘पाकिस्तान दिवस’ के लिए आमंत्रित किया गया. महज संयोग है कि जिस वक्त गिलानी की पाक उच्चायोग से मुलाकात हुई, तभी मैं भी जेल से रिहा हुआ.

राज्य में जिस तरह का राजनीतिक परिदृश्य बना है उसे देखते हुए क्या आपको लगता है कि अलगाववादियों को अपनी रणनीति बदलने की जरूरत है? यदि जवाब हां है तो फिर वह क्या होगी ?

हमारा लक्ष्य है कि संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर के लिए भारत सरकार ने जो वादा किया है, उसे लागू किया जाए. इस मुद्दे पर हम कोई समझौता नहीं कर सकते है. रणनीति में बदलाव किया जा सकता है. लेकिन रातों-रात यह बदलाव भी संभव नहीं है. इस पर हमें गहराई व गंभीरता से विचार करना होगा. सभी पहलुओं पर चर्चा करनी होगी. गिलानी समेत सभी हुर्रियत नेताओं के साथ मिलकर हम इस पर चर्चा अवश्य करेंगे.

राजनीतिक प्रक्रिया में हुर्रियत की भागीदारी पर आपका क्या कहना है?

मैं पिछले साढ़े चार वर्षों से जेल में बंद था. इस दौरान यहां की स्थिति में क्या बदलाव हुए हैं, उससे परिचित होने में मुझे थोड़ा वक्त लगेगा. चुनावों में जनता की भागीदारी बढ़ रही है, हमें इसके कारणों की पड़ताल करनी होगी. गिलानी के दिल्ली लौटने के बाद हम उनसे चर्चा करेंगे. कोई भी रणनीति आपसी सहमति से बनेगी.

जेल से बाहर आने के बाद प्राथमिकताएं क्या हैं? अलगाववादी आंदोलन के लिए आपके पास कोई नई दृष्टि है ?

फिलहाल मैं अपने परिवार और परिजनों से मिलूंगा. इस बीच उन्होंने अपने जिन करीबियों को खो दिया है, मैं उनकी आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना करूंगा. इसके बाद हम मिल-बैठकर भविष्य की योजनाओं पर बात करेंगे. कश्मीर की आजादी के लिए शांतिपूर्ण तरीके से संघर्ष करेंगे. न ही मैं और न आम कश्मीरी आतंकवादी है. हम अपने संवैधानिक अधिकारों की मांग कर रहे हैं.

बेमेल ब्याह और तलाक के हजार बहाने

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भारतीय संविधान में जम्मू कश्मीर की विशेष स्थिति होने के कारण राज्य के लोगों को भारतीय नागरिकता के साथ स्थायी निवास प्रमाण पत्र भी दिया जाता है. ये प्रमाण पत्र सिर्फ उन लोगों को दिया जाता है जिन्हें जम्मू कश्मीर के संविधान का अनुच्छेद छह स्टेट सब्जेक्ट कहता है. स्टेट सब्जेक्ट होना एक तरह से राज्य की नागरिकता का काम करता है. इसके अभाव में ये लोग राज्य में किसी तरह की जमीन-जायदाद नहीं खरीद सकते और न इन्हें सरकारी नौकरी मिल सकती है. भाजपा लंबे समय से इन लोगों को स्टेट सब्जेक्ट का दर्जा देने की मांग करती आई है लेकिन गठबंधन सरकार चलाने के लिए बने कॉमन मिनिमम प्रोग्राम से ये वादा भी गायब है.

भाजपा का यह सख्त रवैया रहा है कि कश्मीर विवाद से जुड़ी किसी भी चर्चा में वह राज्य के पृथकतावादियों को शामिल नहीं करेगी. पाकिस्तान के राजदूत ने कश्मीरी पृथकतावादियों को कुछ महीने पहले जब बातचीत के लिए बुलाया तो भाजपा की इसी नीति के तहत मोदी सरकार ने पाकिस्तान की सचिव स्तरीय वार्ता रद्द कर दी थी. भाजपा सरकार मानती है कि पृथकतावादी कश्मीर के प्रतिनिधि नहीं हैं. लेकिन न्यूनतम साझा कार्यक्रम के माध्यम से हुर्रियत समेत उन सभी संगठनों से बातचीत की बात पार्टी ने स्वीकारी है जिनकी प्रदेश में भूमिका है. भले उनकी राजनीतिक विचारधारा जो भी हो.

भाजपा के विचारों में बदलाव का सिलसिला यहीं नहीं थमा. पार्टी जिस पूर्व पृथकतावादी नेता सज्जाद लोन को कुछ समय पहले तक देश का गद्दार और पाकिस्तानी एजेंट कहा करती थी उस सज्जाद लोन को सरकार में मंत्री बनवाने के लिए भाजपा ने पीडीपी पर दबाव डाला. पीडीपी लोन को मंत्री नहीं बनाना चाहती थी. भाजपा ने लोन को अपने कोटे से मंत्री बनाया. चुनावों से पहले खुद नरेंद्र मोदी ने लोन से प्रधानमंत्री आवास में मुलाकात की थी.

ऐसा नहीं है कि समझौता सिर्फ भाजपा ने किया है. पीडीपी की बात करें तो उसके लिए विचारधारा को कुछ समय तक ठंडे बस्ते में डालने का सबसे बड़ा प्रमाण उसका भाजपा से गठबंधन करना ही है. पीडीपी जिस भाजपा को सांप्रदायिक मानती रही है उसके साथ उसने सरकार बना ली. एक ऐसी पार्टी जिसके बारे में पीडीपी को पता है कि उसे अल्पसंख्यक संदेह की नजर से देखते हैं, उससे दूरी बरतते हैं, उसकी छवि मुस्लिम विरोधी पार्टी की है, वो पार्टी जम्मू कश्मीर के किसी तरह के विशेषाधिकार के खिलाफ है, जो धारा 370 को खत्म करना चाहती है. बावजूद इसके पीडीपी ने भाजपा से गठबंधन किया.

इस समझौते के साथ ही जो बड़ा समझौता पीडीपी ने किया वो है आफ्स्पा को लेकर. पीडीपी हमेशा से आफ्स्पा के विरोध में रही है और इसे हटाने की मांग करती रही है. पार्टी ने अपने घोषणापत्र में वादा किया था कि अगर वो सत्ता में आई तो आफ्स्पा को हटाया जाएगा. लेकिन दोनों दलों के बीच बने कॉमन मिनिमम प्रोग्राम ने इस मुद्दे को भी मिनिमाइज कर दिया.

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kn_govindacharya‘पीडीपी लाभ उठा रही है, भाजपा पत्तल उठा रही है’

भाजपा को जम्मू कश्मीर में सरकार बनानी ही नहीं चाहिए थी. मैं इसे सत्ता के लिए समझौता करने के रूप में देखता हूं. भाजपा ने सत्ता के लिए अपने सिद्धांत से समझौता किया है. व्यवहारिकता और अवसरवादिता में फर्क होता है. जहां व्यवहारिकता सिद्धांत के विपरीत हो वो अवसरवाद में बदल जाती है. व्यवहारिकता सिद्दांतों के लिए पोषक होनी चाहिए न कि विनाशक. हमें दिख रहा है कि कैसे जम्मू कश्मीर में पीडीपी अवसर का लाभ उठा रही है और भाजपा वहां पत्तल उठा रही है. अब आप डैमेज कंट्रोल करते रहिए. भाजपा को पता होना चाहिए कि उसका जो कैडर है वो व्यवहारवाद पर तो बना ही नहीं. वो तो भावनात्मक राष्ट्रवाद और निस्वार्थ मनोभाव की परिणति है. उसके काडर को सत्ता राजनीति की ऐसी अवसरवादी चालें हजम नहीं होतीं. मुझे लगता है आगे स्थिति और खराब होगी. आगे ये मांग जरूर उठेगी की पार्टी सरकार से समर्थन वापस ले. समय गुजरने के साथ भाजपा का सरकार में बने रहना देश के लिए घाटे का सौदा साबित होगा. पार्टी और नेताओं की बात छोड़िए. इनको सरकार बनानी ही नहीं चाहिए थी. भाजपा दिल्ली में इससे बेहतर स्थिति में थी लेकिन उसने दिल्ली में सरकार बनाने में इतना समय क्यों लगाया था. अब दिल्ली से तो ज्यादा संवेदनशील मामला कश्मीर का है. तो फिर उसे इतनी जल्दी क्या पड़ी थी सरकार बनाने की. सरकार बनाना स्वंय में कोई लक्ष्य तो है नहीं. सरकार बनाना साधन होता है खासकर भाजपा सरीखी पार्टी के लिए. भाजपा कश्मीर में सिद्धांतचित हुई है.

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सरकार बनने के अगले दिन मीडिया से बातचीत में भाजपा के वरिष्ठ नेता और प्रदेश के उप मुख्यमंत्री निर्मल सिंह ने कहा, ‘हमने कश्मीर में असंभव को संभव बना दिया है. हम चाहते हैं कि प्रदेश में तरक्की हो. हमारा उद्देश्य है कि जम्मू और कश्मीर का जो धार्मिक विभाजन है वो खत्म हो. यही हमारे न्यूनतम साझा कार्यक्रम की आत्मा है. जम्मू कश्मीर की जनता सुशासन चाहती है. वो चाहती है कि सरकार काम करे. वो पारदर्शी हो, भ्रष्टाचार मुक्त हो. मुफ्ती मोहम्मद सईद को असंभव को संभव बनाने का श्रेय दिया जाना चाहिए.’

भाजपा नेताओं ने इस गठबंधन सरकार को ऐतिहासिक बताया तो पीडीपी प्रवक्ता नईम अख्तर का भी बयान आ गया. उन्होंने गठबंधन सरकार को एक नई सकारात्मक राजनीति की शुरुआत बताया. बकौल नईम, जम्मू कश्मीर ही नहीं बल्कि इसने पूरे देश के लिए एक नया मानक स्थापित किया है. लोकतंत्र को जम्मू कश्मीर में नया जीवन मिला है.

ये सही है कि पीडीपी और भाजपा का मिलना तेल और पानी के मिलन जैसा है. ये आपस में घुल मिल नहीं सकते. लेकिन फिर भी यह माना जा रहा है कि दोनों पार्टियां, जो इतनी मुश्किलों के बाद साथ आई हैं वो इस ऐतिहासिक संबंध को बनाए रखने के लिए कोई कोर कसर बाकी नहीं रखेंगी. तो फिर क्या कारण है कि महज एक महीने के भीतर ही मामला तलाक के पास पहुंचता दिखाई दे रहा है.

पार्टी नेताओं से बातचीत में संकेत मिल जाता है कि दोनों दलों ने भले एक-दूसरे के साथ गठबंधन कर सरकार बना ली है लेकिन दोनों को इस बात का एहसास है कि दोनों दलों का वोटर दूसरी पार्टी का घोर विरोधी है. गठबंधन के कारण पार्टी को अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों की नाराजगी का भी डर बना हुआ था. पीडीपी के एक विधायक कहते हैं, ‘मुफ्ती साहब को भी पता है कि कश्मीर की जनता भाजपा के बारे में क्या सोचती है. लेकिन पार्टी ने भाजपा के साथ मिलकर सरकार बनाई. इसका चाहे जो फायदा वो कश्मीर की जनता को बताएं लेकिन एक सवाल तो खड़ा होता ही है कि पार्टी ने भाजपा और मोदी से क्यों हाथ मिलाया.’

जानकार बताते हैं कि समर्थकों के इसी वर्ग को संतुष्ट करने के लिए कि पार्टी ने अपनी विचारधारा से कोई समझौता नहीं किया है मुफ्ती ने अपने तरीके से लोगों को संबोधित करना शुरू किया. कहा जा रहा है कि इसी के तहत शपथ ग्रहण के घंटे-भर के भीतर ही मुफ्ती मोहम्मद सईद ने उस पार के लोगों, आतंकियों और पृथकतावादियों की तारीफ करनेवाला बयान दिया. कश्मीर की राजनीति को समझनेवाले मानते हैं कि अफजल गुरु के मामले में कुछ होना जाना नहीं है लेकिन सिर्फ एक तबके को संतुष्ट करने और भाजपा से गठबंधन करने के कारण उपजी नाराजगी और संदेह को कम करने के लिए पार्टी ने अपने आठ विधायकों से अफजल गुरु संबंधी पत्र लिखवाया.

पीडीपी के सूत्र बताते हैं कि उसी सोच के तहत मसर्रत की रिहाई मुफ्ती सरकार द्वारा किए जाने कि बात प्रचारित की गई. सच यह है कि मसर्रत को पहले ही हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने बरी करने का आदेश दे रखा था. उसे सभी मामलों में जमानत मिल गई थी. लेकिन सरकारी लापरवाही के कारण वो जेल से बाहर नहीं आ पाया था. इस मसले पर सबसे ज्यादा फजीहत भाजपा समेत केंद्र सरकार की हुई है. जनता के मन में सवाल है कि वो कौन वजह सी थी जिसने राष्ट्रपति शासन के दौरान सरकार को मर्सरत के खिलाफ कार्रवाई करने से रोका था. वहीं यह कैसे हो सकता है कि केंद्र सरकार को इस मामले में कुछ मालूम न हो. सरकार इतनी मासूम तो नहीं. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक मीर इमरान कहते हैं, ‘देखिए इन तीनों मामलों के माध्यम से पीडीपी उस जनता की नाराजगी दूर करना चाहती है जो भाजपा से गठबंधन के चलते नाराज है. पार्टी ये बताना चाहती है कि भाजपा से उसका गठबंधन उसकी शर्तों पर हुआ है और उसने कोई समझौता नहीं किया है. ऐसा तो नहीं है कि ये आखिरी बार है और इसके बाद पार्टी कश्मीर में चुनाव नहीं लड़ेगी. मुफ्ती को पता है कि अगले चुनाव में उनका भाजपा के साथ जाना ही नेशनल कॉन्फ्रेंस का चुनावी मुद्दा रहनेवाला है.’ भाजपा की परेशानी और गठबंधन में गांठ का जन्म यहीं से होता है. उसे पता है कि राजनीतिक रूप से जो पीडीपी का फायदा है वही भाजपा का नुकसान है. यानी जो कुछ भी मुफ्ती सईद और उनकी सरकार ने पिछले दिनों में कहा और किया वो सारी चीजें भाजपा की जम्मू केंद्रित राजनीति के लिए नुकसानदेह है. भाजपा का एक धड़ा पीडीपी से गठबंधन के खिलाफ था. ऐसे में पीडीपी के बयानों और मसर्रत की रिहाई ने कोढ़ में खाज का काम किया.

पिछले एक महीने में प्रदेश भाजपा के नेताओं ने ही अपनी पार्टी की गठबंधन सरकार के खिलाफ कई प्रदर्शन किए हैं. भाजपा कार्यकर्ता और समर्थक शुरू में इस गठबंधन को लेकर खासे उत्साहित थे क्योंकि कश्मीर में पहली बार उनकी सरकार बनने जा रही थी, लेकिन अब वही कार्यकर्ता पीडीपी से चिढ़े बैठे हैं. पार्टी के एक कार्यकर्ता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘कश्मीर में सरकार बनाना हम सभी के लिए गर्व की बात है. श्यामा प्रसाद ने कश्मीर के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए. ये  ऐतिहासिक मौका है. मैं अपनी पार्टी के नेताओं और लोगों के बारे में कह सकता हूं कि सभी चाहते हैं कि ये गठबंधन सफल हो. लेकिन पीडीपी अपनी हरकतों से इसकी हत्या करने पर तुली है. वह अपनी राजनीति चमका रही है. एक सीमा से ज्यादा तो समझौता नहीं किया जा सकता. वो नहीं सुधरे तो संबंध तो टूट ही जाएगा.’

पार्टी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘देखिए अब सब सामने आ चुका है, वो आदमी सभी मामलों में बरी हो चुका था. उसे छोड़ा जाना ही था. पार्टी को भी उससे आपत्ति नहीं थी लेकिन जिस तरह से उसकी रिहाई के बाद मीडिया ने मामले को रंग दिया, तथ्यों की अनदेखी की उससे पार्टी को मजबूरन उसका विरोध करना पड़ा. वो एक सामान्य न्याय व्यवस्था का मामला था. लेकिन मीडिया ने लोगों के मन में भावना डाल दी कि मसर्रत एक खुंखार आंतकी है.’ प्रधानमंत्री को मजबूर होकर इस विषय पर बयान देना पड़ा. नीतीश कुमार जैसे नेता जो शायद ही किसी राष्ट्रीय विषय पर बोलते सुनाई दिए हों, वे भी मसर्रत की रिहाई पर भाजपा को घेरते नजर आए. पूरा विपक्ष राष्ट्रवाद के आसमान पर और राष्ट्रवाद की चैंपियन भाजपा जमीन पर आ गई.

अखनूर से भाजपा विधायक राजीव शर्मा कहते हैं, ‘पीडीपी ने जो कुछ कहा और किया है उस हमारी कोई सहमति नहीं है. आगे से ऐसा होगा तो इसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. हमें पूरा जनादेश नहीं मिला था. जनता ने हमें विकास के लिए जनादेश दिया है. हमें वही करना है. हमने धारा 370 और अपनी विचारधारा से कोई समझौता नहीं किया है.’ भाजपा चाह कर भी अपनी इस खीज को मिटा नहीं पा रही कि पीडीपी ने गठबंधन के बावजूद अपने वोटर को जो संदेश देना था,वो दे दिया है जबकि भाजपा इस मसले पर बुरी तरह पिछड़ गई है. इसके साथ नैतिक और वैचारिक हार का डर भाजपा नेताओं को लगातार दुस्वप्न दिखा रहा है.

सो, जम्मू कश्मीर में भाजपा और पीडीपी का गठबंधन एक ऐसा संबंध है जिसे दोनों में से कोई भी, किसी भी वक्त तोड़ना चाहे तो उसके पास सैंकड़ों बहाने मौजूद हैं. जम्मू कश्मीर भारत का कोई अन्य प्रदेश नहीं है जहां गठबंधन की सरकार चल रही है. राजनीतिक विश्लेषक मीर इमरान कहते हैं, ‘यहां का गठबंधन एक दीर्घकालीन प्रभाव पैदा कर सकता है. वो चाहे तो जम्मू और कश्मीर, हिंदू और मुस्लिम के बीच की खाई को पाट सकता है. भारत और जम्मू कश्मीर के बीच के अंतर को कम कर सकता है. भाजपा और पीडीपी दोनों को कुछ नरम कर सकता है. लेकिन इसके लिए अल्पकालिक राजनीतिक स्वार्थ नहीं बल्कि व्यापक राजनीतिक दृष्टि की जरूरत है.’ मीर कहते हैं, ‘बाकी अन्य दलों को भी इस गठबंधन को मजबूत बनाने में अपना योगदान देना चाहिए. बाकी इसके तोड़ने के तो हजारों कारण दोनों दलों के पास हैं ही.’

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