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फेमिनिज्म का फैशन बन जाना

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हॉलीवुड की मुख्यधारा की फिल्मों में और मुख्यधारा के भारतीय नारीवाद में कुछ दिलचस्प समानताएं बताऊँ आपको? पिछले 3-4 दशकों से हॉलीवुड की मुख्यधारा की फिल्में वो हैं जो कि या तो दूसरे ग्रहों से आये एलियंस से निबट रही हैं, या फिर किसी रासायनिक-प्रदूषण की जद में आए ऐसे कीड़े-मकोड़े से जो किसी केमिकल-लोचे की वजह से इतना विशालकाय हो चुका है जिससे पूरी दुनिया को खतरा है और जिस पर जाबांज अमरीकी वैज्ञानिक-हीरो बहरहाल अकेले फतह पा लेता है. दोनों ही मामलों में ये फतह टीम की न होकर हीरो की होती है. यानी इन फिल्मों से जो सीधा सन्देश दिया जाता है वो पर्यावरण और प्रकृति से छेड़छाड़ न करने का होता है, लेकिन असल और बारीक सन्देश तो ये होता है की अमरीकी समाज अब उन सामाजिक समस्याओं और अपराधों से मुक्त है जिनमें बाकी दुनिया फंसी हुई है, और जिसके केंद्र में गैर-बराबरी, अन्याय और गुलामी है जो की हशिये पर खडे़ और वंचित समाज का निर्माण करती है, और जिसके घिनौने नतीजे पूरी दुनिया झेल रही है. पूंजीवाद, डिफेन्स-इंडस्ट्री और कॉर्पोरेट को जायज़ ठहराने के लिए सतत-दुश्मन (गैर-श्वेत, गैर-ईसाई/यहूदी पढ़ें) की जरूरत पर ये फिल्में चुप हैं. मानवाधिकारों के घनघोर उल्लंघन पर ये फिल्में चुप हैं, भयानक युद्ध सामग्री के नागरिकों पर इस्तेमाल पर ये फिल्में चुप हैं, डिफेन्स-कार्टेल की अंतरराष्ट्रीय साजिशों पर ये फिल्में चुप हैं. ये फिल्में बताती हैं की पूंजीवाद द्वारा अमरीका में आदर्श समाज स्थापित हो चुका है, अब लड़ाई बस एलियंस और प्रदूषण से है.

ऐसे ही भारतीय मुख्यधारा का नारीवाद भी उस लगभग-आदर्श समाज की सोफिस्टिकेटेड चौहद्दी में काम करने लगा है जिसमें उसके एक्सक्लूसिव-मुद्दे हैं फिल्म उद्योग में महिलाओं से गैर-बराबरी, कवियत्रियों पर आलोचकों की उदासीनता, साहित्य-पुरस्कारों में गैर-बराबरी, सार्वजानिक-नग्न्ता के बुनियादी हक़ पर रोक, ‘मनोरंजित’ होने के हक में गैर-बराबरी, आजाद-सेक्स पर रोक, मासिक-धर्म जैसे ‘अन्याय’ पर पुरुषों की उदासीनता, जैसे संभ्रांत मुद्दे भारतीय नारीवाद के मुख्य-पटल पर आ चुके हैं, और इनका समाधान भी एक ढाई मिनट की विज्ञापन फिल्म को पुरुषों के दिमाग में उतारकर मुमकिन है. ये वाला नारीवाद पूंजीवाद-उपभोक्तावाद-मार्किट-मीडिया-मूवमेंट के उत्सव का समर्थक है.

तो आखिर ये कौनसी स्त्रीवादी नजर है जिससे दलित महिलाओं को नंगाकर गांव में घुमाकर जिंदा जलाने के हादसे बच जाते हैं? जिससे आदिवासी महिलाओं के बलात्कार-हत्याएं नजर नहीं आतीं? जिससे मुजफ्फरनगर नस्लकुशी के गैंगरेप-हत्याएं नदारत रहती हैं? जिसमें दलित महिला के चुनाव जीतने पर उसे बतौर सजा गोबर खिलाया जाना नहीं दिखता? लेकिन एक शहरी लड़की का टैक्सी में हुआ बलात्कार इसलिए ज्यादा बड़ा अपराध बनता है क्यूंकि वो नशे में थी, मनोरंजित होकर वापिस जा रही थी और ऐसे में उसके साथ अपराध कर उसकी एक आइडियल शाम बर्बाद की गयी (मुझे पता है की ये लिखने पर मेरी पिटाई होनी है), एक नीच ड्राइवर की इतनी जुर्रत?

तो क्या कुल मिलाकर इस नारीवाद की नजर में सिर्फ दो बड़े अपराध हैं? एक- जिसमें उसके अपने से नीचे स्तर का पुरुष जाति और वर्ग की सीमा-रेखा पारकर उसके शरीर की अवहेलना करता है, और दो- जिसमें उसके अपने वर्ग या जात का पुरुष उसके प्रति उदासीन है. यानी ‘बराबरी, न्याय और आजादी’ के सार्वभौमिक सिद्धांत के बजाय वर्ग हित के दायरे में सार्वभौमिकता खोजना. ये संकुचित संवेदनशीलता 80 प्रतिशत का हाशिया बना देती है! कमाल! और मीडिया-न्यायपालिका में बैठे इनके मर्द उस पर ‘आम-सहमति’ का ठप्पा लगवा लाते हैं.

दुनिया की आधी आबादी को पॉलिटिकल-इकोनॉमी की बहस से बाहर रखने में महिला पत्रिकाओं की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण रही है. ये पत्रिकाएं ही तो हैं जो सलाद से लेकर सालसा तक सिखा रही हैं

यानी पुलिस-सेना द्वारा किया गया गैंग-रेप, हत्या क्यूंकि कमजोरों, वंचितों और अल्पसंख्यकों के साथ होता है इसलिए उस पर दिल्ली में आंदोलन नहीं होता, गाँव-कस्बों में ऊंची जात के पुरुषों द्वारा दलित महिला पर जघन्य हिंसा पर दिल्ली में आंदोलन नहीं होता, मुस्लमान-सिख-ईसाई महिला के साथ हिन्दू पुरुष-पुलिस-सेना द्वारा जो गैंग रेप-हत्या होती है उस पर आंदोलन नहीं होता. कुल मिला के सत्तासीन वर्ग की महिलाओं के पास उपलब्ध मंच-मीडिया-मूवमेंट बहुत संकुचित भागीदारी कर रहा है जिसकी दृष्टि में 70-80 प्रतिशत जनसंख्या के प्रति होनेवाले अपराध मायने नहीं रखते.  सार्वजानिक क्षेत्र में वंचितों को अवसर और प्रतिनिधितव के सवाल तो खैर शान्ति-कालीन एजेंडे में ही हो सकते हैं , जिन पर अभी क्या बात करें? लेकिन दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों के साथ घटित होती, आंखें पथरा देनेवाली, दिल दहला देनेवाली हिंसा की कहानियां तक इस वर्चस्ववादी नारीवाद को छू नहीं पातीं?

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इस सीमित नजर के नारीवाद के पास एक बड़ी पैदल सेना है जो युवा है, और मीडिया में जिसका हस्तक्षेप है, ये किसी भी फालतू पर नई सी लगनेवाली बात को ‘ट्रेंड’ करवा सकती है और ट्विटर से प्राइम-टाइम तक पहुंचा सकती है. लेकिन जिसके पास ये समझ नहीं है की साम्यवादी या दलित आंदोलन की ही तरह नारीवाद भी एक थ्योरेटिकल अनुशासन के तकाजों से बंधा है. ‘बराबरी, न्याय और आज़ादी’ के सार्वभौमिक सिद्धांत के बाहर जाते ही नारीवाद वो आत्म-केंद्रित विलास बन जाता है जिसका ऊपर जिक्र किया गया है. इंजीनियरिंग, आई-टी, मार्केटिंग, मास-कॉम की डिग्रियों से लैस, इस पैदल सेना को नहीं पता, की भारत में जातिवादी-हिंदुत्व द्वारा महिलाओं के साथ हुई बर्बरियत को केवल नारीवादी चश्मे से देखकर उसे समस्या न मानना, उसे महिला-आयोग की बेअसर रिकॉर्ड बुक तक सीमित कर देना है. और पूंजीवाद की सेवा में समर्पित राष्ट्र-राज्य के लिए इससे सुखद स्थिति और क्या होगी? मसलन, मलाला बनाम तालिबान मामले ही को देखें. जिसमे मलाला और तालिबान पर बात करनेवाले भूल गए की इन दोनों की डोर पूंजीवाद के हाथ में है, और पूंजीवाद के लिए ये दोनों स्क्रिप्ट की जरूरत हैं. इस पैदल सेना के पास सैद्धांतिक समझ की कमी ही वो कारण है जिसके चलते नारीवाद एक फैशन में तबदील हुआ जा रहा है.

अभी बीते 08 मार्च, यानी महिला दिवस पर कार्लरुहे, जर्मनी से एलोने नमक 2० साला युवती ने कुछ प्रचलित नारीवादी स्लोगन की पर्चियां माहवारी वाले नैपकिन्स पर चिपकाईं और 10 मार्च को ही भारत में नारीवाद को ‘अगले चरण’ में पहुंचा दिया. पुरुष माहवारी से नफरत न करें और उसके प्रति संवेदनशील हो जाएं. ठीक! लेकिन इस संवेदनशीलता की असलियत अगले ही हफ्ते कुंवारी-कन्या जिमाने में सामने आ गयी और सैद्धांतिक समझ से खाली इस पैदल सेना को ये सूझा ही नहीं की ‘कौमार्य’ का उत्सव असल में उनकी उस प्रिय ढाई-मिनट की वीडियो और ‘माहवारी-संवेदनशीलता’ के घनघोर विरोध में है. मीडिया में कन्या जिमाने की तस्वीरें जोश के साथ लगाई गईं पैदल सेना ‘लाइक’ और कॉमेंट करती रही. उन्हें नहीं पता चलता की ढाई मिनट के विज्ञापन वीडियो का निर्माण उस मीडिया ने किया जो महिलाओं को पुरुषों के लिए तैयार होना सिखाती रही है, और जिसकी अदाकारा गोरेपन की क्रीम बेचती रही है. दुनिया की आधी आबादी को पॉलिटिकल-इकोनॉमी की डिबेट से बाहर रखना, महिला पत्रिकाओं के सहयोग से ही जारी है. ये महिला पत्रिकाएं ही तो हैं जो सलाद से लेकर सालसा तक सिखाती हैं लेकिन इस बहस में कभी नहीं घुसतीं की दुनिया में संसाधन किस तरह बराबरी से बांटे जाएं. यानी नारीवाद ने वो बुनियादी मसले हल कर लिए हैं हॉलीवुड फिल्मों की तरह.

अबकी बार किसकी ललकार?

फोटोः एएफपी
फोटोः एएफपी
फोटोः एएफपी

लगभग 6 महीने के लंबे दौरे और विश्व कप में बढ़िया प्रदर्शन के बाद भी जब कप्तान धोनी झुके कंधे और थके साथियों के  साथ वतन वापस लौट रहे होंगे तब आईपीएल के क्रिकेट के कोलाहल ने शायद ही उन्हें चैन से सोने दिया होगा. विश्व कप के बीत जाने के एक हफ्ते के भीतर  ही आईपीएल का आगाज हो चुका है. कहनेवाले तो इसे क्रिकेट का ‘ओवरडोज’ भी बता रहे हैं जो खिलाड़यों को खुदा माने जानेवाले देश में खेल के खुमार को धीरे-धीरे कम कर देगा. हालांकि अथाह पैसे, रंगबिरंगी रोशनी, चमक-दमक, और चीयरलीडर्स के भड़कीले नाच के नीचे ये सारे सवाल फिलहाल दबे ही हुए हैं. नई उम्र के क्रिकेट के कद्रदान तो 8 अप्रैल से शुरू हो चुके आईपीएल के आठवें संस्करण को लेकर पहले की तरह ही रोमांचित हैं.

पिछले साल आईपीएल के आधे मैच को संयुक्त अरब अमीरात में आयोजित किया गया था. इस बार ये पूरी तरह से भारतीय संस्करण होगा. आठवें आईपीएल में भी 8 टीमें ही एक-दूसरे के साथ खिताब के लिए होड़ कर रही हैं. लीग में किसी भी नई टीम को जगह नहीं दी गई है. देश में क्रिकट के संचालन की सबसे बड़ी संस्था बीसीसीआई की माने तो ऐसा फिक्सिंग और सट्टेबाजी पर लगाम लगाने के लिए किया गया है. हालांकि मैच या स्पॉट फिक्सिंग को लेकर अभी भी बीसीसीआई के पास कोई स्पष्ट नीति नहीं हैं. इसका जवाब उनके पास भी नहीं  है कि अगर कोई गेंदबाज लगातार ‘नो’ या ‘वाइड’ बॉल फेंकता है तो क्या वो अपने आप संदेह की सीमा में नहीं आ जाएगा?

सभी टीमों के सामंजस्य और संतुलन की बात करें तो बिना किसी विवाद के चेन्नई सुपरकिंग्स को सबसे ऊपर रखा जा सकता है. पिछले सात संस्करण में टीम के शानदार सफर से ये साबित भी होता है. महेंद्र सिंह धोनी की अगुवाई वाली सुपरकिंग्स अबतक चार बार फाइनल में पहुंची है और दो बार खिताब  अपने नाम किया है. बाएं हाथ के विध्वंसक बल्लेबाज ब्रैंडन मैकुलम और कैरिबियाई ओपनर ड्वैन स्मिथ के तौर पर धोनी के पास सबसे शानदार सलामी जोड़ी है. मध्यक्रम में सुरेश रैना, डूप्लेसिस और खुद धोनी के तौर पर टीम के पास विशेषज्ञ बल्लेबाजों की ऐसी टोली है जो किसी भी गेंदबाजी आक्रमण की बखिया उधेड़ने का माद्दा रखती है. कई नाजुक मौकों पर टीम को एक धारदार तेज गेंदबाज की कमी अखरती जरूर होगी लेकिन ज्यादातर मौकों पर मध्यम तेज गेदबाज इसकी भरपाई करते रहे हैं.

अगर कागज पर टीम की ताकत को आंका जाए तो रॉयल चैलेंजर्स बंगलुरु हमेशा मजबूत नजर आती है, लेकिन मैदान पर दबाव के दरम्यान बार-बार बिखरने की उसकी आदत उसे साउथ अफ्रीकी टीम के समकक्ष खड़ा कर देती है. टीम की कमान विराट कोहली के हाथों में है. उनकी अगुवाई में टीम ने 2009 और 2011 में खिताबी मुकाबला भी खेला. बावजूद इसके विजेता होने का सम्मान अभी उनके हाथ नहीं आया है. टीम के पास क्रिस गेल, एबी डिविलियर्स और डेरेन सैमी जैसे दमखमवाले बल्लेबाजों की कतार मौजूद है. पिछले साल इस सूची में युवराज सिंह भी शामिल हो गए थे. फिर भी टीम का प्रदर्शन औसत ही रहा. इस बार टीम ने ऑस्ट्रेलियाई तेज गेंदबाज मिशेल स्टार्क को अपने आक्रमण के बेड़े में शामिल किया है. विश्व कप में अपनी सटीक गेंदबाजी से सबसे सफल खिलाड़ी का तमगा हासिल करने वाले स्टार्क के आने से टीम की तंदरुस्ती में इजाफा होना तय है. हालांकि शुरुआती मैचों में वो उपलब्ध नहीं रहेंगे. ऐसे में टीम के आक्रमण की कमान वरुण एरोन और एडम मिलने के हाथों में है, जिनके पास यहां खुद को साबित करने का श्रेष्ठ मौका होगा.

स्पॉट फिक्सिंग को लेकर बीसीसीआई के पास कोई स्पष्ट नीति नहीं है. कोई गेंदबाज ‘नो’ या ‘वाइड’ बॉल फेंकता है तो क्या वो संदेह के घेरे में नहीं आ जाएगा?

साल 2008 में जब आईपीएल आरंभ हुआ था तब कोलकाता नाइट राइडर्स  एक कमजोर टीम आंकी गई थी. लेकिन जल्द ही गौतम गंभीर की कप्तानी में उसने एक जुझारु टीम की हैसियत हासिल कर ली. बिना किसी विस्फोटक विशेषण और सितारा खिलाड़ियों की कमी के बीच भी टीम ने 2012 और 2014 में आईपीएल का खिताब अपने नाम किया. रॉबिन उथप्पा, युसूफ पठान और मनीष पांडेय के तौर पर गंभीर के पास विपक्षी गेंदबाजों पर टूटकर पड़नेवाले बल्लेबाजों का विकल्प मौजूद है. गेंदबाजी में सुनील नरेन टीम के तुरुप के इक्के हैं. इस बार केसी करियप्पा अपने फिरकी के फंदे से आक्रमण को थोड़ी और धार दे रहे हैं. अपनी रहस्यमयी गेंदबाजी से बल्लेबाजों को बेदम करनेवाले करियप्पा पहले से ही चर्चा में हैं. अगर केकेआर अपनी क्षमता के मुताबिक प्रदर्शन करती है तो इस बार भी खिताब की दौड़ से उसे दरकिनार नहीं किया जा सकता.

पहले आईपीएल का खिताब अपने नाम करनेवाली राजस्थान रॉयल्स को उस सुनहरे मौके का इंतजार इस बार भी होगा. साल 2008 के बाद टीम कभी भी उस प्रदर्शन को नहीं दोहरा पाई है. बावजूद इसके रॉयल्स विपक्षी टीम को कड़ी टक्कर देने का इतिहास तो रखती ही है. स्टीव स्मिथ, अजिंक्य रहाणे, संजू सैमसन, टिम साऊदी, जेम्स फॉकनर और कप्तान शेन वॉटसन जैसे खिलाड़ी अपने दम पर मैच का पासा पलट सकते हैं. समूह के तौर पर देखें तो स्मिथ, रहाणे और वॉटसन टीम को ठोस शुरुआत दिलाने की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं. जबकि निचले क्रम पर फॉकनर और स्टुअर्ट बिन्नी को बड़े से बड़ा लक्ष्य हासिल करने की आखिरी कोशिश करनी होगी. हां, शेन वार्न के बाद टीम को कोई स्तरीय स्पिनर नहीं मिल पाया है. 44 साल के प्रवीण तांबे अपने चर्चित लेग ब्रेक की बदौलत इस कमी को पाटने की पूरी कोशिश करेंगे.

मुंबई इंडियंस की बात करें तो हर साल इसे खिताब का दमदार दावेदार माना जाता है. हालांकि रोहित शर्मा की अगुवाई वाली ये टीम सिर्फ साल 2013 में ही कप पर कब्जा जमा पाई. कभी टीम के कप्तान रहे रिकी पोंटिंग इस बार कोच के तौर पर टीम को अपनी सेवाएं दे रहे हैं. कंगारुओं को दो बार विश्व विजेता बनानेवाले पोंटिंग अपनी नई पारी को सफल बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ना चाहेंगे. एक समूह के तौर पर मुंबई इंडियंस संतुलित नजर आती है. विपक्षी आक्रमण को तहस-नहस करनेवाले विस्फोटक बल्लेबाजों के साथ पिच पर विकेटों की आंधी उड़ानेवाले गेंदबाजों की पूरी फौज रोहित की मदद के लिए मौजूद है. इस बार टीम को विजेता बनाने की जिम्मेदारी एरॉन फिंच, केरॉन पोलार्ड, लासिथ मलिंगा, जोश हेजलवुड और खुद रोहित शर्मा के कंधे पर है.

किंग्स इलेवन पंजाब की हैसियत हमेशा ही एक ऐसी विपक्षी की रही जो कभी भी मैदान पर पूरा दमखम नहीं झोंकती. लेकिन पिछले साल उसने अचानक ही अपना स्तर इतना ऊंचा कर लिया कि उसके सामने विरोधी टीमें बौनी नजर आने लगीं.  2013 में इसने न सिर्फ खिताबी मुकाबला खेला बल्कि पूरे टूर्नामेंट में जबरदस्त प्रतिस्पर्द्धा की मिसाल भी पेश की. कप्तान जॉर्ज बेली के अलावा वीरेंद्र सहवाग और कोच संजय बांगड़ की इसमें बड़ी भूमिका है. मिशेल जॉनसन, अक्षर पटेल, करनवीर सिंह और संदीप शर्मा गेंदबाजी आक्रमण की जिम्मेदारी सही से संभालें तो टीम इस बार भी अपना शानदार प्रदर्शन दोहरा सकती है. लेकिन टीम को विजेता बनाने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी ये होगा कि ग्लेन मैक्सवेल और डेविड मिलर का बल्ला विरोधी गेंदबाजों के सामने सही सलीके और सही समय पर बोले. आईपीएल के पहले संस्करण में शानदार प्रदर्शन करनेवाले दिल्ली डेयरडेविल्स उसके बाद औसत प्रदर्शन करने में भी असफल रही है. पिछले साल मुरली विजय, दिनेश कार्तिक और केविन पीटरसन जैसे महंगे खिलाड़ियों के आने से टीम को उम्दा प्रदर्शन की उम्मीद थी. बावजूद इसके उसने आखिरी पायदान पर ही अपना सफर समाप्त किया. इस बार दिल्ली ने युवराज सिंह पर दांव खेला है. आईपीएल के सबसे महंगे खिलाड़ी युवराज के साथ एल्बी मोर्केल और जहीर खान पर भी इस बार बड़ी जिम्मेदारी है. टीम की कमान नए कप्तान जेपी ड्यूमनी के हाथों में है जो हमवतन कोच गैरी कर्स्टन के साथ टीम में जुझारुपन के तत्व को तलाशने की कोशिश करेंगे.

शानदार खिलाड़ियों से सुसज्जित सनराइजर्स हैदराबाद के पिछले साल का प्रदर्शन संतोषजनक ही कहा जा सकता है. टीम किसी तरह दूसरे दौर तक पहुंचने में कामयाब रही. इस साल डेविड वार्नर की अगुवाई में टीम को बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद है. टीम के पास शिखर धवन, डेल स्टेन, भुवनेश्वर कुमार और ट्रेंट बाउल्ट के तौर पर शानदार खिलाड़ियों की भरमार है. अगर ये इकाई के तौर पर प्रदर्शन करते हैं तो कोई वजह नहीं कि सनराइजर्स के सिर पर आईपीएल के आठवें संस्करण का ताज ना सजे.

आईपीएल पर हमेशा ही गैरसंजीदा होने के आरोप लगते रहे हैं. आरोप ये भी हैं कि इस खेल ने बॉल पर बल्ले के वर्चस्व को बढ़ने में बड़ी भूमिका निभाई है

आईपीएल पर हमेशा ही गैरसंजीदा होने के आरोप लगते रहे हैं. आरोप ये भी है कि इस खेल ने बॉल पर बल्ले के वर्चस्व को बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाई है. कहने वाले तो यहां तक कहते हैं कि पिछले सात सालों में आईपीएल ने क्रिकेट के इस छोटे प्रारूप को भी बेहद ऊबाऊ, थकाऊ और एकतरफा बना दिया है. ऐसे में इस बार कागज पर बेहद मजबूत दिखनेवाली इन आठों टीमों पर ही आईपीएल को अधिक रोमांचक और मनोरंजक और प्रतिस्पर्द्धात्मक बनाने की जिम्मेदारी होगी.

रिपोर्टर्स: सीरियल में बनते देखें, टीआरपी के बताशे

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टीआरपी के बताशे बनाने के लिए न्यूजरूम में अब तक जो भी धत्तकर्म किए जाते रहे हैं, एक-एक करके मनोरंजन की शक्ल में वो अब दर्शकों के ड्राइंगरूम में पहुंचने जा रहे हैं. सोनी चैनल का नया सीरियल ‘रिपोर्टर्स’ न्यूज चैनल की उन्हीं रणनीतियों, चालाकियों और एजेंडे को दर्शकों के सामने पेश कर रहा है जिन्हें वो अब तक खबर, ब्रेकिंग न्यूज और ‘खुलासे’ के नाम पर कंज्यूम करते रहे हैं.

एक के बाद एक प्रोमो से गुजरते हुए ऐसा लगता है कि पिछले कुछ सालों से खासकर सोशल मीडिया पर लोगों की सक्रियता बढ़ने के बाद से न्यूज चैनलों को लेकर जो समझ बनी है, उसका बड़ा हिस्सा इस सीरियल में मौजूद होगा. दूसरी तरफ अनन्या कश्यप (कृतिका कामरा) के संवाद खबरें या तो होती हैं या नहीं होती हैं के जवाब में कबीर (राहुल खंडेलवाल) का पहले उसे चूमना और फिर थप्पड़ खाकर स्त्री सशक्तिकरण के सवाल से जोड़कर खबर बनाना इस बात की तरफ इशारा करता है कि दर्शक जिसे सामाजिक सरोकार और सामाजिक बदलाव की खबर समझकर देखते हैं, उसका बड़ा हिस्सा एडिटिंग मशीन की संतानें हैं. उन खबरों को न्यूजरूम, स्टूडियो और डेस्क के बीच निर्मित किए जाता है. बहुत संभव है कि इन घटनाओं से जुड़कर दर्शक न्यूज चैनलों को मनोरंजन की शक्ल में ही सही बेहतर समझ सकेंगे.

लेकिन गौर करें तो इतना सब करते हुए भी रिपोर्टर्स सीरियल की पूरी पटकथा न्यूज चैनलों की कंटेंट और टीआरपी के सवाल से आगे नहीं बढ़ती और ऐसा लगता है कि आज देश के न्यूज चैनल सर्कस और लोकतंत्र के तमाशे की शक्ल ले चुके हैं, वो सिर्फ और सिर्फ टीआरपी के लिए हैं.और यहीं पर आकर सीरियल साल 2000 में बनी फिल्म “फिर भी दिल है हिंदुस्तानी” का दोहराव लगने लग जाता है. इतना ही नहीं बिजनेस माइंडेड एंकर और चैनल का बॉस कबीर और न्यूकमर अनन्या कश्यप के बीच की जो बनती केमेस्ट्री दिखाई जा रही है वो इस फिल्म के चरित्र अजय बख्शी (शाहरुख खान) और रिया बनर्जी (जूही चावला) से अलग नहीं जान पड़ती.

दूसरी तरफ देखें तो न्यूज चैनल के कारनामे पर अमेरिकी टेलीविजन पर द न्यूजरूम बहुत पहले प्रसारित हो चुका है जिसकी कोशिश रिपोर्टर्स कर रहा है. इस कड़ी में डर्ट्स (टेब्लॉयड) और द बेस्ट बिंग्स पहले से शामिल हैं. हिन्दी सिनेमा में भी फिर भी दिल है हिंदुस्तानी के अलावा, शोबिज, पेज थ्री, रण, कॉर्पोरेट, पीपली लाइव जैसी फिल्में हैं जो न्यूज चैनलों की वो शक्ल पेश करती हैं जो कि टीआरपी के पीछे हांफने के बीच से बनती है. ऐसे में ये सीरियल न्यूज चैनल की कहानी को ‘सिर्फ धरने से कुछ नहीं होता, धरने से होता है’ जैसे संवाद का प्रयोग करने के बावजूद यदि  ‘जो दिखता है, वो बिकता है’ की समझ में जाकर अटक जाता है तो इससे दर्शकों के बीच न्यूज चैनल को लेकर वही आधी-अधूरी, आड़ी-तिरछी समझ बनेगी जो जब-तक हादसे होते रहने की स्थिति में प्राइम टाइम के टॉक शो से बनती रही है.

अब रही बात मनोरंजन की तो न्यूज चैनल के बॉस कबीर और उससे काफी जूनियर अनन्या कश्यप के बीच दिखाने के लिए प्रोमो में अभी से ही जो तंबू तान दिए गए हैं, उससे छोटे पर्दे की दर्शक ‘बड़े अच्छे लगते हैं’ की प्रिया और रामकपूर की और ‘कुछ तो लोग कहेंगे’ की इंटर्न डॉ. निधि और बॉस डॉ. आशुतोष माथुर की जोड़ी देखकर बहुत पहले अघा चुकी है. ऐसी स्थिति में बल्कि कृतिका कामरा के गले से स्टेथोस्कोप हटाकर हाथ में चैनल का माइक थाम लेने के अलावा कुछ और हासिल नहीं होगा.

साल 2010-11 में सीरियलों का एक लॉट आ चुका है जिसमें स्त्री-पुरुष चरित्र के बीच पन्द्रह से बीस साल का फर्क और रिश्ता बॉस और इंटर्न या ट्रेनी का रहा है. हां ये जरूर है कि कबीर की शक्ल में सच का सामना के राहुल खंडेलवाल को जिस भव्यता के साथ इस सीरियल ने पेश किया है, पुरुष दर्शकों को अपनी बार्डड्रोब जंचाने की काफी कुछ टिप्स मिलेगी. कहानी के स्तर पर ये मीडिया पर बनी दर्जनभर फिल्मों से आगे बढ़ती नजर नहीं आता. शायद ऐसा करना खुद सोनी की व्यावसायिक मजबूरी रही हो. नहीं तो मनोरंजन चैनल के नाम पर ये तो पहले से ही हाफ क्राइम न्यूज चैनल हो ही चुका है.

सरजमीन-ए-दास्तानगोई

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फोटो: विकास कुमार

दस साल- एक कला शैली के लिए ये तो सफर की बस शुरुआत ही है. पिछले दिनों महमूद फारूकी साहब ने बातचीत के दौरान, जिस सरलता से ये बात कही, उससे मुझे एहसास हुआ कि दास्तानगोई को कितना आगे जाना है और इस सफर में हम सब की जिम्मेदारी क्या है. महमूद साहब फरमाते हैं, ‘दस साल तो बस हमें जमीन खोदने में लगे हैं. खुदाई के बाद अब हम बीज बोएंगे, फिर सिंचाई होगी, तब कहीं जाकर ऋतु आएगी और फल निकलेगा.’ जाती तौर पर इस बात के मायने मेरे लिए बेहद गहरे हैं. एक वक्त था जब रोजगार के लिए मैं अपनी इकलौती कुशलता- ‘कैसे कहा जाए’ – को बाजार में बेच रहा था, ताकि मेरे मालिक अपना सामान बेच सकें. फिर दास्तानगोई के रूप में मुझे एक ऐसी जमीन मिली, जिससे मैंने खुद को ज्यादा जुड़ा हुआ महसूस किया. यहां कैसे कहा जाए के अलावा, ‘क्या कहना है’ भी मेरे दिल के बेहद करीब था.

मेरा मानना है कि हर वो शख्स जिसे लगता है कि वो कहानी सुनाने की हमारी सदियों पुरानी इस परम्परा को फिर से जिंदा करना चाहता है- हर वो शख्स एक बीज है. ये बीज सुनानेवाले यानी दास्तानगो भी हो सकते हैं, और सुननेवाले यानी सामईन भी. पिछले दस सालों में टीम दास्तानगोई देश-विदेश में हजारों लोगों को कहानी सुनने का जायका चखा चुकी है. बेशक, ये सब के सब लौटकर आते हैं और फिर से उस मजे को जीना चाहते हैं. इसी मुहिम में उस्ताद की नवीनतम उपलब्धि है बच्चों को दास्तानगोई से जोड़ना. महमूद साहब की बनाई गई ‘दास्तान एलिस की’ और हमारी एक साथी वेलेंटीना की तैयार की गई ‘दास्तान गूपी बाघा की’, खास तौर पर बच्चों को ध्यान में रखकर पेश की गईं. ये तरक्की किसी इंकलाब से कम नहीं है. आपाधापी के इस दौर में जहां बच्चों के हाथ में आई-पैड थमा दिए जाते हैं ताकि मां-बाप बिना किसी रुकावट के अपने दफ्तर का काम कर सकें, एक घंटे तक माता-पिता का अपने नन्हे-मुन्नों को गोद में रखे, एक साथ किसी कहानी का लुत्फ उठाना- ये नजारा एक उम्मीद देता है.

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बीते दस सालों में उस्ताद महमूद फारूकी ने न सिर्फ अमीर हमजा की रवायती दास्तानों के लुत्फ को तहरीर से तकरीर में पहुंचाया है, बल्कि दास्तानों की एक नई नस्ल को भी जन्म दिया है. इनमें से दो का जिक्र जरूरी है. ‘मंटोइयत’ ने मुझे सिखाया कि कैसे दास्तानगोई का फन किसी की जीवनी बयान करने का लाजवाब तरीका है. इसी जमीन में हमारी टीम ने कबीर, खुसरो, घुम्मी कबाबी और मजाज लखनवी पर दास्तानजादियां बनाईं. उस्ताद का दूसरा कारनामा- ‘दास्तान-ए-सेडिशन’ मेरे लिए सबसे अहम है. बिनायक सेन की गिरफ्तारी और उन पर चले मुकदमे की कहानी को तिलिस्म-ए-होशरुबा की तर्ज पर सुना देना गैरमामूली है. ये दास्तान मेरे लिए शागिर्द के तौर पर एक ऐसा सबक है जिसे मैं बार-बार पढ़ता हूं. डिजिटल डिवाइड और इंटरनेट पर बनाई मेरी दास्तान का ढांचा मुझे इसी से हासिल हुआ. दास्तानगोई के फन के विकास और विस्तार में शैली के इस परिवर्तनात्मक उपयोग को मैं सिंचाई की तरह देखता हूं. इस उपयोग में शैली का मूल अखंड है, पर जो बात, उसके जरिये कही जा रही है, वो लगातार इस शैली को और उपजाऊ बना रही है. अब तक जो हुआ वो मात्र प्रयोग भर है. पर इन प्रयोगों की कामयाबी ने जो हौसला हमें दिया है, उससे अब ये काम शुरू होने जा रहा है. ‘दास्तान राजा विक्रम के इश्क की’ इस काम का आगाज है.

अब जबकि जमीन तैयार हो गई है, बीज बोकर देखे गए हैं और सींचने का इंतजाम शुरू हो गया है. वक़्त के साथ-साथ इस फन की कुदरती सादगी को फैलना होगा. उस रुत को लौटना होगा जिसमें दास्तानें सुनना और सुनाना हमारी रोजाना की जिंदगी का एक हिस्सा था. ये तभी मुमकिन है जब हमारे उस्तादों की नजर का आफताब हमारे िसर पर बना रहे, और दास्तानगोई के चाहनेवालों की गर्मजोशी इस ज़मीन के लिए धूप बने. वो तहजीब आए जब ‘वाह! वाह!’, ‘बहुत खूब’ और ‘क्या बात!’ से महफिल में वो रंग आए जैसे हरी-भरी फसल का होता है. सुखन का जादू यूं िसर चढ़कर बोले जैसे हवा के चलने से लहलाते खेत शोर मचाते हैं. उस जबान की मिठास की फरमाइश ता-कयामत तक की जाएगी.

10 साल की दास्तान

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फोटो: विकास कुमार

किस्से-कहानियां और दास्तानें, इन दिनों फूली नहीं समा रहीं. वजह- इन्हें सुनाए जाने की कला ‘दास्तानगोई’ इस साल अपने पुनरुत्थान के दस साल पूरे कर रही है. आज से दस साल पहले तक दास्तानगोई के बारे में बहुत कम लोग जानते थे और जो जानते थे वो भी इसे ‘माजी के हसीन औराक (भूतकाल के सुंदर पन्ने) की एक चीज’ समझते थे मगर पिछले दस साल इस हवाले से एक इंकलाब के गवाह रहे हैं. इंकलाब जिसकी सुबहें उस शख्स की कोशिशों के नूर से रौशन हैं जिसका नाम है महमूद फारूकी. जिनकी वजह से आज लोग दास्तानगोई को सिर्फ जानते ही नहीं बल्कि दीवानावार जानते हैं.

गौरतलब है कि दास्तानगोई उर्दू में दास्तान यानी लंबी कहानियां सुनाने की कला है. उर्दू में अलिफ लैला, हातिमताई वगैरह कई दास्तानें सुनाई जाती रहीं मगर इनमें सबसे मशहूर हुई ‘दास्ताने अमीर हमजा’, जिसमें हजरत मोहम्मद के चचा अमीर हमजा के साहसिक कारनामों का बयान होता है. मुगलों के जमाने में हिंदुस्तान आई ये कला 18वीं और 19वीं शताब्दी में अपने चरम पर थी. बाद के सालों में इसमें गिरावट आई और 1928 में आखिरी दास्तानगो मीर बाकर अली के इंतकाल के साथ ही ये कला पूरी तरह मिट गई.

ये महमूद फारूकी का ही कमाल है कि सैकड़ों साल पुरानी एक कला जो 1928 में खत्म हो गई थी तकरीबन 80 साल बाद 2005 में फिर से जिंदा हो जाती है और 2015 में खुद में शबाब की आहटें महसूस करने लगती है. इन दस सालों में महमूद और उनकी टीम अपनी कहानियों के साथ दुनियाभर में घूमे हैं, हजार से ज्यादा शो किए हैं. लोगों को दास्तानगोई के मानी और आदाब समझाए हैं, पुरानी दास्तानें सुनाई हैं, नई दास्तानें सुनाई हैं. नए दास्तानगो और नए सुनने वाले पैदा किए हैं, और इन सबसे ऊपर कहानियों के इस मुल्क में कहानी सुनने-सुनाने की परंपरा को उसका खोया हुआ रूतबा वापस दिलाया है.

दास्तानगोई की इस कामयाबी की एक वजह है इस मुल्क का कहानियों से प्यार. ये मुल्क कहानियों से मोहब्बत करना और उनको अपना बनाना जानता है

तहलका से बातचीत में महमूद कहते हैं, ‘हम एक ऐसे आर्ट फॉर्म को जिंदा करने की कोशिश कर रहे हैं जो औपनिवेशिक काल के असर से गायब हो गया. हम एक्ट ऑफ कल्चरल रिवाइवल कर रहे हैं. जो एक राजनीतिक कार्य है. हिंदुस्तान के बुद्घिजीवियों से मेरी ये शिकायत रही है कि वो 19वीं शताब्दी के पहले के हिंदुस्तान के बारे में कुछ नहीं जानते. जदीद दास्तानगोई के दस साल पूरे होने के मौके पर जो नई दास्तान हमने तैयार की है वो राजा विक्रम की है. हिंदुस्तान में अगर किसी आदर्श राजा की हमें झलक मिलती है तो वो राजा विक्रम हैं. बात इससे जुड़ती है कि गुजरात दंगों के बाद पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ये कहा कि गुजरात में राजधर्म का पालन नहीं हुआ… तो हम अपनी दास्तानों में यही बताते हैं कि राजधर्म क्या है. नीति क्या है.’

दास्तानगोई के पुनरुत्थान के दस साल पूरे होने के मौके पर ‘राजा विक्रम के इश्क की दास्तान’ का प्रीमियर दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में चार और पांच अप्रैल को हुआ. जिसमें महमूद फारूकी और दारैन शाहिदी ने मिलकर दर्शकों को राजा विक्रम की दास्तान सुनाई. 120 मिनट की इस लंबी दास्तान के दोनों शो सुपरहिट रहे. इस दास्तान को ‘बेताल पच्चीसी’ और ‘सिंघासन बत्तीसी’ के पारंपरिक किस्सों के गहन अध्ययन के साथ मशहूर लोक-कथाकार एके रामानुजन की लोक कहानियों एवं खुुदा-ए-सुखन मीर तकी मीर की शायरी के संगम से तैयार किया गया है. पत्रकार के रूप में चर्चित रहे दारैन शाहिदी दास्तानगोई से अपने जुड़ाव के बारे में कहते हैं, ‘दास्तानगोई करके जो आत्मिक संतुष्टि मुझे मिलती है वो दास्तानगोई से मेरे जुड़ाव का हासिल है. इस जुड़ाव के जरिए मुझे अपने बुजुर्गों अपने पुरखों की जबान, उनकी तहजीब को पढ़ने, सुनने, समझने, अपने अंदर समाने और फिर लोगों के सामने पेश करने का मौका मिलता है. इस काम में अद्भुत आनंद है. महमूद के शब्दों में कहूं तो पिछले दस साल में हमें मिली कामयाबी बुुजुर्गों की जूतियां सीधी करने का सदका है.’

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दास्तानगोई के मैदान में महमूद मशहूर उर्दू आलोचक शमसुर्रहमान फारूकी से प्रेरणा लेकर उतरे थे. 2005 में दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में उन्होंने अपने साथी हिमांशु त्यागी के साथ मिलकर पहली दास्तान सुनाई थी. ये एक रिवायती दास्तान थी यानी कि अमीर हमजा की सैकड़ों साल पुरानी दास्तान थी. ये परफॉर्मेंस बहुत कामयाब रही थी और इसी के बाद दास्तानगोई के सिलसिले संजीदगी से शुरू हुए. महमूद की हमसफर अनूषा रिजवी ने जदीद दास्तानगोई की महफिल को डिजाइन किया. इसका मंच, लाइट, परिधान वगैरह उन्हीं की देन है. हिमांशु त्यागी के बाद दानिश हुसैन दास्तानगोई में महमूद के दीर्घकालिक सहयोगी बने. महमूद और दानिश ने मिलकर दूसरी पीढ़ी के कई युवा दास्तानगो भी तैयार किए. जिनमें अंकित चड्ढ़ा, योजित सिंह, नदीम, पूनम, फौजिया, मनु, अशहर, रजनी, फिरोज और नुसरत समेत कई दूसरे नाम हैं.

जदीद दास्तानगोई के सफर में एक अहम पड़ाव रिवायती दास्तानों से हटकर समकालीन विषयों पर दास्तानें तैयार करना और सुनाना था. इससे दास्तानगोई अपने दौर में हस्तक्षेप का भी एक अहम जरिया बनती दिखाई दी. इस तरह की दास्तानों में सआदत हसन मंटो पर आधारित दास्तान मंटोइयत, बिनायक सेन की अलोकतांत्रिक गिरफ्तारी पर आधारित, दास्तान-ए-सेडीशन, मुल्क के बंटवारे पर आधारित दास्तान-ए-तकसीम-ए-हिन्द, विजयदान देथा की कहानी पर आधारित दास्तान, चौबोली, एलिस इन वंडरलैंड पर आधारित दास्तान बेहद कामयाब रहीं. महमूद की ही प्रेरणा से उनके सबसे होनहार शागिर्दों में से एक अंकित चड्ढा ने भी कई नई और एकदम अनूठी दास्तानें लिखीं जिन्हें खूब सराहा गया. इन दास्तानों में अमीर खुसरो की दास्तान, कबीर की दास्तान, मोबाइल फोन की दास्तान, कॉरपोरेट जगत की दास्तान और उर्दू शायर मजाज लखनवी की दास्तान प्रमुख हैं.

अंकित कहते हैं, ‘नए विषयों पर दास्तानें लिखना मेरे लिए दास्तानगोई के फॉर्म को समझने और सीखने की एक प्रक्रिया थी. साथ ही नई दास्तानों को सुनने के बाद लोगों ने खुद आकर मुझसे कहा है कि क्या आप फलां-फलां विषय पर दास्तान लिख सकते हैं. तो इन दास्तानों को लिखना फॉर्म के विकास में एक महत्वपूर्ण पड़ाव था.’

जदीद दास्तानगोई के दस साल पूरे करने के सिलसिले में हमें ये समझना जरूरी है कि यह काफी अर्सा पहले मर चुकी एक कला के दोबारा नए सिरे से जिंदा होने की परिघटना है. इसलिए पिछले दस सालों में कला और संस्कृति की दुनिया में दास्तानगोई ने एक बिल्कुल नया अध्याय जोड़ा है. साथ ही इस कला ने लोगों को फिर से वाचिक परंपरा यानी ओरल ट्रेडिशन के नजदीक ले जाने का काम किया है. देश के तमाम छोटे-बड़े शहरों में लोगों को जबान और बयान की ताकत समझाई है. दास्तानगोई ने खास-ओ-आम के भेद को मिटाते हुए हिंदुस्तान का परिचय फिर से कहानियों की उस अनमोल विरासत से कराया है जो बदलते वक्त के साथ बिसरा दी गई थीं. अंग्रेजी की आंधीवाले इस दौर में दास्तानगोई ने अवाम को उर्दू की अजमत और हुस्न का एहसास करवाया है. इस सिलसिले में महमूद फारूकी कहते हैं, ‘पिछले दस सालों में अगर दास्तानगोई को अविश्वसनीय सफलता मिली तो इसलिए क्योंकि पूरे हिंदुस्तान में हर छोटी-बड़ी जगह उर्दू के चाहनेवाले फैले हुए हैं. ये दास्तानें अगर हम उर्दू के अलावा किसी और जबान में सुनाते तो हमें कुछ खास हिस्सों में तो कामयाबी मिलती मगर पूरे हिंदुस्तान में इस तरह की कामयाबी न मिलती. इस कामयाबी की एक और वजह है- इस मुल्क का कहानियों से प्यार. ये मुल्क कहानियों से मोहब्बत करना और उनको अपना बनाना जानता है. अगर ऐसा न होता तो हातिमताई या अलिफ लैला या लैला मजनूं या मुल्ला नसीरूद्दीन की कहानियों पर यहां फिल्में और सीरियल क्यों बनते. इन कहानियों का भला हिंदुस्तान से क्या ताल्लुक. दरअसल कहानियां सुनना सुनाना, कहानियों में बात कहना इस देश की परंपरा में है.’

आधुनिक दास्तानगोई के दस साल मुकम्मल होना निश्चित तौर पर महमूद फारूकी और उनकी टीम के लिए बड़ी कामयाबी है, और इस कामयाबी का जश्न 2015 में पूरे साल अलग-अलग आयोजनों द्वारा मनाया जाएगा. 4-5 अप्रैल को दिल्ली में हुई राजा विक्रम की दास्तान इसी सिलसिले का पहला आयोजन थी. इसके साथ ही आगे के दस सालों के लिए भी महमूद के सामने कई लक्ष्य हैं. वे अगले दस सालों में हिंदुस्तान के हर बड़े शहर में कम से कम दो दास्तानगो तैयार कर देना चाहते हैं. इसके साथ ही महमूद चाहते हैं कि वे इस विशाल देश में जगह जगह छिपे कहानियों के खजाने को लोगों के सामने लाएं, और उनके जरिए से लोगों को अपनी तारीख, अपनी तहजीब, अपनी रिवायत से परिचित करवाएं जिसे लोगों ने अंग्रेजों और अंग्रेजियत के प्रभाव में आकर न जाने कब भुला दिया था.

तवील होने लगी हैं इसलिए रातें

कि लोग सुनते-सुनाते नहीं कहानी भी

‘हम जनता को गैर भाजपा, गैर कांग्रेस और मजबूत विकल्प देना चाहते हैं’

hd_devegodaजनता परिवार में मिलकर आप जेडीएस के लिए क्या संभावनाएं देख रहे हैं?

पिछले साल नवंबर से इस बारे में बातचीत चल रही थी, मुलायम सिंह ने सभी समाजवादी पृष्ठभूमि वाले राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को एक मंच पर साथ आने का अनुरोध किया, उन्होंने मुझे भी साथ आने का आग्रह किया. जनता परिवार मेरे लिए फिलहाल सबसे ज्यादा सांप्रदायिक राजनीति के बरक्स धर्मनिरपेक्ष दलों का गठजोड़ है और केंद्रीय राजनीति में एक किस्म की जो विकल्पहीनता की स्थिति है उसके लिए आनेवाले सालों में बेहतर गुंजाइश बना सकती है. ये अच्छी बात है कि जनता परिवार में शामिल होने वाले सभी दल एक नेता, एक झंडा और एक चुनाव चिह्न पर सहमत हो गए हैं. और जहां तक इस गठबंधन से जेडीएस के लिए संभावनाओं की बात है तो अभी आगे बहुत समय है, कर्नाटक में 2018 में चुनाव होने हैं और केंद्र में चार साल बाद. हमारे लिए बेहतर यही है कि हम इस समय में एक मजबूत गैर भाजपा, गैर कांग्रेस विकल्प तैयार कर जनता को दें.

कर्नाटक में इससे आपको तुरंत क्या फायदा होगा?

कर्नाटक में कांग्रेस, भाजपा और जेडीएस यही तीन दल हैं, यहां आरजेडी, जदयूू या समाजवादी पार्टी नहीं हैं, जिससे हम 2018 विधानसभा चुनाव के मद्देनजर कोई गठजोड़ करें या सीटों का समझौता करें. बिहार और उत्तर प्रदेश में चुनाव में कम समय है, इन दोनों राज्यों में जनता परिवार के गठन से चुनावी राजनीति में बहुत फर्क पडे़गा इसलिए राजद और जदयू दोनों जल्दी विलय चाहते हैं. जद (एस) का राज्य में अपना जनाधार है हम उसे मजबूत करने के लिए पहले से ही काम कर रहे हैं.

फिर भी आपकी कोई तो रणनीतिक सोच होगी विलय के पीछे, संभवतः राष्ट्रीय राजनीति में बड़ी भूमिका?

लोकसभा चुनाव में चार साल हैं, इस बीच बिहार विधानसभा चुनाव में  जदयू और राजद गठबंधन के प्रदर्शन से बहुत कुछ साफ हो जाएगा, अगर इस गठबंधन को जीत मिलती है तो इससे कर्नाटक ही नहीं पूरे देश में जनता परिवार को लेकर बहुत सकारात्मक सोच बनेगी और भाजपा के राजनीतिक दावे कमजोर होंगे.

आपकी अपनी पार्टी में इस विलय पर सहमति है, खासतौर पर आपके बेटे कुमारस्वामी की राय अलग तो नहीं?

नहीं नहीं! पूरी पार्टी हमारे सभी नेता, कार्यकर्ता इस विलय के पक्ष में हैं, कुमारस्वामी की भी जनता परिवार को पूर्ण सहमति है, अगर सब ठीक से हो गया तो कुमारस्वामी जनता परिवार के चुनाव चिह्न के साथ कर्नाटक विधानसभा चुनाव लड़ने को भी तैयार हैं, कर्नाटक की जनता जद (एस) से परिचित है, चुनाव चिह्न बदलने से भी उसके समर्थन में कोई फर्क नहीं पड़नेवाला.

अगले लोकसभा चुनाव में जनता परिवार अगर सरकार बनाने की स्थिति में हो तो प्रधानमंत्री पद को लेकर आपकी क्या राय है?

ये चार साल बाद की बात है, अभी इसपर क्या कहें? मोदी जी के पास अभी चार साल दो महीने का समय है, तब तक बहुत चीजें साफ होंगी, इस सरकार को लेकर जनता का भ्रम भी दूर होगा, जैसे सबसे पहले ये पता चला कि मोदी सरकार कुछ भी हो किसानों की हिमायती पार्टी तो नहीं है. लोकतंत्र में जनमत के आधार पर ही कोई भी पार्टी किसी नेता के हक में बड़े फैसले भी करती है. अगले चुनाव तक जनता फिर अपने अगले नेता को चुन ही लेगी.

सांप्रदायिकता के विरोध और धर्मनिरपेक्षता की मजबूती का छद्मराग

जनता परिवार का महाविलय हो रहा है. छह दलों का विलय हो रहा है लेकिन यह मूलतः नीतीश कुमार और लालू प्रसाद की पार्टी का विलय है. इस महाविलय का पहला परीक्षण भी बिहार में ही होना है. इसी साल होनेवाले बिहार विधानसभा चुनाव में. बाकी विलय में शामिल दूसरे चार दलों का बिहार चुनाव में कोई असर नहीं होनेवाला. नीतीश कुमार इस महाविलय के लिए आगे आए, अच्छी बात है. राजनीति में यह सब होता ही रहता है, सो हो रहा है. मैं तो भाजपा से अलगाव के बाद से ही कह रहा था कि नीतीश कुमार का भी अब एजेंडा अगर भाजपा से लड़ना ही हो गया है और लालू प्रसाद का पहले से ही यही एजेंडा है तो अब दोनों के अलग रहने का कोई मतलब नहीं. उन्हें साथ ही आ जाना चाहिए. चलिए, देर से ही सही आ रहे हैं लेकिन अब जिस तरह से आ रहे हैं और जिस तरीके से आ रहे हैं, वह कोई बहुत फलदायी साबित नहीं होने जा रहा. इस संदेह के पीछे कई कारण मुझे दिखते हैं.

पहली बात तो यही कि नीतीश कुमार बार-बार कह रहे हैं कि सांप्रदायिक ताकतों से लड़ने के लिए, सांप्रदायिकता को रोकने के लिए और धर्मनिरपेक्षता को मजबूत करने के लिए वे ऐसा कर रहे हैं. उनके मुंह से यह बात सुनना किसी को हजम नहीं होता. सांप्रदायिकता को रोकने का मतलब उन्हें भाजपा को रोकने से है और यह सब जानते हैं कि 1992 की घटना के बाद भाजपा ज्यादा सांप्रदायिक थी. वह ज्यादा अछूत थी. जब नीतीश कुमार और उनकी पार्टी ने भाजपा का साथ दिया था. साथ लिया था. और उसके बाद 2002 में गुजरात कांड के वक्त नरेंद्र मोदी या भाजपा ज्यादा सांप्रदायिक थी, तब भी नीतीश कुमार और उनकी पार्टी भाजपा के साथ ही बने रहे. और आज अचानक कह रहे हैं कि सांप्रदायिकता को रोकने के लिए यह विलय हो रहा है तो यह फालतू बात है. नारे के तौर पर ठीक हो सकता है लेकिन नीयत ठीक नहीं. हां, लालू प्रसाद कहें कि वे सांप्रदायिकता विरोधी हैं तो एक हद तक वह बात समझ में आती भी है.

वैसे यह सवाल भी अपनी जगह बना रहेगा कि इस बार जनता परिवार के विलय में जो लालू प्रसाद या मुलायम सिंह यादव शामिल हो रहे हैं, ये दोनों भी कभी न कभी भाजपा का साथ लेकर सरकार बना चुके हैं. और भाजपा कभी भी गैरसांप्रदायिक पार्टी तो रही नहीं!

लेकिन यहां सवाल दूसरा है. यह विलय मूलतः बिहार के लिए हो रहा है, बिहार के दो प्रमुख दलों का हो रहा है और इसमें हालिया दिनों में तीसरे अहम कोण की तरह उभरे जीतन राम मांझी हैं. सवाल यही है कि क्या मांझी के बिना नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव का मिलन पूरा है. मेरे जैसे लोगों का जवाब है- नहीं और कतई नहीं. मांझी अब इस हैसियत में आ चुके हैं कि वे जनता परिवार के विलय का पूरा खेल बिगाड़ सकते हैं. वे बिहार में दलितों की राजनीतिक आकांक्षा के प्रतीक बनकर उभरे हैं, इसीलिए दलितों में इस महाविलय को लेकर उत्साह नहीं दिख रहा. आज स्थिति यह है कि बिहार में एनडीए यानी भाजपा, लोजपा, रालोसपा वगैरह को मिला लें तो 40 प्रतिशत के करीब वोट बनता है और दूसरी ओर राजद, जदयू, कांग्रेस आदि को मिला लें तो यह भी करीब उतना का ही होता है. अब राजद, जदयू, कांग्रेसवाले वोट में कम से कम सात-आठ प्रतिशत वोट को इधर-उधर करने की क्षमता तो मांझी में है ही. इस तरह अभी से ही यह साफ दिख रहा है कि क्या होनेवाला है. मेरा मानना है कि अभी भी इस महाविलय में मांझी को शामिल करना चाहिए. उन्हें शामिल किये बिना इस विलय का कोई मतलब नहीं. इसके लिए अगर नीतीश कुमार या लालू प्रसाद को मांझी के सामने झुकना पड़े तो झुकना चाहिए. मांझी साथ होंगे तभी आप कह भी सकेंगे कि आप हिंदुत्ववादी पोंगापंथी से भी लड़ रहे हैं क्योंकि इसके खिलाफ लड़ाई लोहियावादियों ने नहीं लड़ी है, समाजवादियों ने नहीं लड़ी है बल्कि बाबा साहब अांबेडकर, पेरियार, फुले, कांशीराम, मायावती जैसे लोगों ने लड़ी है और जीतन राम मांझी उसी परंपरा का विस्तार हैं. मांझी ने ही खुलकर पहली बार बिहार में हिंदुत्ववादी पोंगापंथी के खिलाफ बोलना भी शुरू किया. मांझी ही यह कहने का साहस दिखा सकते थे कि दलितों, आदिवासियों व कुछ अतिपिछड़ों को छोड़कर सब विदेशी हैं, बाहरी हैं.

वैसे मेरी ओर से नीतीश कुमार को बिन मांगे ही यह सलाह है मांझी को मिलाने की. नीतीश व्यक्तिवादी राजनीति करते हैं, नामालूम वे ऐसा करेंगे या नहीं. वे सार्वजनिक सवालों को व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और अहंकार से जोड़कर अब तक राजनीति करते रहे हैं. लालू के साथ उनकी लड़ाई वैचारिक नहीं, व्यक्तिगत ही थी. भाजपा के साथ उनकी लड़ाई वैचारिक नहीं, व्यक्तिगत ही है. भाजपा से तो नीतीश कुमार को कभी परहेज नहीं रहा. वह तो अंतिम समय तक आडवाणी की मांग करते रहे. उस आडवाणी की, जिन पर बाबरी विध्वंस का मुकदमा अब तक चल रहा है. नीतीश यह विलय तो कर रहे हैं लेकिन अपमानित कर कोई खड़ा नहीं हो सका है, यह याद रखना होगा. महाभारत में द्रौपदी का अपमान कौरवों ने किया था, कौरव खत्म हो गए, द्रौपदी पक्ष की जीत हुई. राजनीति में कभी चरण सिंह ने इंदिरा गांधी को अपमानित किया था, चरण सिंह मिट गए, इंदिरा और मजबूत हो गईं. नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी का अपमान किया था, मोदी देश के पीएम बन गए, नीतीश अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ने की स्थिति में आ गए. अब नीतीश कुमार ने मांझी का अपमान किया है, इतिहास की गवाही के अनुसार इसका भी अपना असर तो होगा ही.

(निराला से बातचीत पर आधारित)

उत्तर के पैंतरे में दक्षिण का टोका

अपनी-अपनी रणनीति: बिहार में राजनीति की नई इबारत लिखने काे तैयार नीतीश-लालू
अपनी-अपनी रणनीति:बिहार में राजनीति की नई इबारत लिखने काे तैयार नीतीश-लालू

जनता परिवार में शामिल होने वाले छह दलों में कर्नाटक की जद (एस) दक्षिण भारत से अकेली पार्टी है और फिलहाल कर्नाटक में बहुत मतबूत स्थिति में नहीं है. कांग्रेस शासित कर्नाटक में भाजपा विपक्ष है और जद (एस) तीसरे स्थान पर, इसलिए अपनी मौजूदा राजनीतिक हैसियत के साथ जद (एस), जनता परिवार के मार्फत राष्ट्रीय राजनीति और कर्नाटक में क्या हासिल कर पाएगी ये आनेवाले समय में पता चलेगा. लेकिन इतिहास में जाएं तो पता चलता है कि तीसरे मोर्चे की राजनीति में जनता पार्टी और जनता दल की बहुत अहम भूमिका रही है. कर्नाटक में जद (एस) और लोकशक्ति पार्टी बाद में इसी से आस्तित्व में आई हैं. जनता पार्टी की विरासत रामकृष्ण हेगड़े जैसे लोकप्रिय जननेता के दौर से शुरू होती है, 1983 में यहां हेगड़े के नेतृत्व में जनता पार्टी ने बाहर से भाजपा के समर्थन के साथ पहली गैरकांग्रेसी सरकार बनाई थी. इसलिए ये दिलचस्प है कि हमेशा कांग्रेेस के खिलाफ एक होनेवाली जनता पार्टी इस बार भाजपा के विरोध में एक हो रही है.

दूसरी ओर आज भले जद (एस) या देवगौड़ा जनता पार्टी की परंपरा और विरासत की बात कर रहे हों लेकिन वो भी इसे खंडित करनेवालों में से रहे हैं. गौरतलब है कि उनके प्रधानमंत्रित्व काल में उनके निर्देश पर ही तत्कालीन जनतादल अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने रामकृष्ण हेगड़े को जनतादल से निष्कासित कर दिया था. बाद में हेगड़े ने लोकशक्ति पार्टी बना ली और 1999 लोकसभा चुनाव भाजपा के साथ मिलकर लड़े तब राज्य में इसी गठबंधन को अधिकतम लोकसभा सीटें हासिल हुई थीं. ये बात भी दिलचस्प है कि जनतादल का गठन 1988 में बंगलुरु में ही जनता पार्टी और कुछ छोटी विपक्षी पार्टियों के मेल से हुआ था और 1994 में देवगौड़ा ने कर्नाटक में जनता दल की सरकार बनाई थी. 1996 में इसी जनता दल के नेता के तौर पर एचडी देवगौड़ा संयुक्त मोर्चे की सरकार में प्रधांनमंत्री बने थे. लेकिन 1999 आते आते जनता दल बिखर गया, जद (एस) और जदयू दोनों इसी टूट से निकली पार्टियां हैं. हालांकि देवगौड़ा शुरू से धर्मनिरपेक्ष राजनीति की हिमायत करते आए हैं, 1999 में भाजपा के नेतृत्ववाली एनडीए सरकार को समर्थन देने के मसले पर ही कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री जेएच पटेल और देवगौड़ा में अलगाव हुआ था, जेएच पटेल जेडीयू के साथ गए और देवगौड़ा ने जनता दल सेक्यूलर या जद (एस)  का गठन कर लिया. लेकिन इसी जद (एस) ने बाद में कर्नाटक में कांग्रेस के साथ भी गठबंधन किया और 2004 में भाजपा के साथ मिलकर सरकार भी बनाई, जिसमें 20 महीने तक एचडी कुमारस्वामी मुख्यमंत्री  रहे.

1983 में हेगड़े के नेतृत्व में जनता पार्टी ने बाहर से भाजपा के समर्थन के साथ पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनाई थी

दरअसल, 1999 के बाद  धर्मनिरपेक्ष राजनीति का सैद्धांतिक दावा करने के बावजूद जद (एस) की पहचान एक अवसरवादी दल की बनी है खासतौर पर देवगौड़ा के प्रधानमंत्री बनने और पार्टी की कमान कुमारस्वामी के हाथ में आ जाने के बाद. वरिष्ठ पत्रकार और राजीतिक विश्लेषक अरविंद मोहन की राय में भी कुमारस्वामी को हल्के में नहीं लिया जा सकता, क्योंकि वो पैसेवाले हैं, मेहनती हैं और वोक्कालिंगा वोटबैंक पर उनकी मजबूत पकड़ है. कर्नाटक में जाति विमर्श हमेशा से धर्मनिरपेक्ष राजनीति को काटता रहा है, उत्तर भारत के जाट वोटबैंक की तरह वोक्कालिंगा जाति कर्नाटक के एक खास भौगोलिक क्षेत्र में केंद्रित है, जो जद (एस) का मजबूत आधार है. दूसरी ओर राष्ट्रीय राजनीति में भले जद (एस) को बहुत बड़ी भूमिका नहीं मिले लेकिन शक्ति संतुलन के खेल में ये पार्टी निर्णायक हो सकती है. वैसे देवगौड़ा बहुत सधे हुए राजनीतिज्ञ हैं, पिछली बार भी अचानक उनका नाम प््रधानमंत्री के लिए लिया गया तब कोई विरोध नहीं कर पाया था, आगे भी समय आने पर बहुत होशियारी से वो अपना कोई पत्ता फेंक सकते हैं.

दरअसल, जद (एस) की संभावना सिद्धारमैया और मोदी की छवि की चमक घटने के साथ बढ़ने की है. सिद्धारमैया बेशक विवादरहित और साफ छवि वाले मुख्यमंत्री हैं, लेकिन बतौर मुख्यमंत्री बहुत लोकप्रियता  हासिल नहीं कर पाएं हैं. ऐसे में भाजपा को टक्कर देते हुए जद (एस) राज्य में अपनी स्थिति मजबूत करती है तो जनता परिवार में उसकी हिस्सेदारी बढ़ेगी. दूसरी ओर बिहार चुनाव में जनता परिवार का प्रदर्शन अगर बेहतर होता है तो कर्नाटक में जद (एस) को जरूर फायदा मिल सकता है. राष्ट्रीय नेताओं का हमेशा कर्नाटक की जनता पर प्रभाव रहा है, जद (एस) के सबसे बड़े आदर्श जयप्रकाश नारायण हैं, और इसे लोकसभा चुनाव में भाजपा को मिली सफलता से भी समझा जा सकता है जब विधानसभा चुनाव हार जाने के बावजूद मोदी की छवि के कारण भाजपा का प्रदर्शन अच्छा रहा.

वैसे, जद (एस) भले जनता पार्टी के गठन को लेकर सकारात्मक हो लेकिन कर्नाटक में कांग्रेस-भाजपा इसे अपने लिए चुनौती नहीं मान रहे हैं. कांग्रेस को सिद्धारमैया के शासन पर भरोसा है, कर्नाटक कांग्रेस प्रवक्ता दिनेश गुंडु राव पार्टी की प्रतिक्रिया बताते हुए कहते हैं, अगर सचमुच विचारधारा के आधार पर धर्मनिरपेक्ष दल एक साथ आ रहे हैं तो हम उनका स्वागत करते हैं. लेकिन जद (एस) ने कर्नाटक में अवसरवादिता की राजनीति की है और भाजपा विरोध की बात करते समय भूल रहे हैं उन्होंने भाजपा के साथ राज्य में सरकार बनाई है. कांग्रेस के लिए यही देखना दिलचस्प होगा कि जिस जद (एस) में कई मसलों पर पिता-पुत्र की राय और बयान एक-दूसरे से अलग होते हैं, वहां अलग दलों के साथ इनका कितना और कितने समय तक सामंजस्य बैठ पाता है.

जबकि भाजपा खुद के विरुद्ध ही लामबंद हो रहे जनता परिवार को लेकर कर्नाटक में चिंतित क्यों नहीं दिख रही नहीं? इसका जवाब देते हुए कर्नाटक विधानपरिषद में नेता विपक्ष के. ईश्वरप्पा कहते हैं, कर्नाटक में सिर्फ जद (एस) है, कोई और पार्टी यहां आकर उसके साथ चुनाव नहीं लड़नेवाली. भाजपा को न तो राज्य में इस गठबंधन से खतरा है न ही राष्ट्रीय स्तर पर, क्योंकि भाजपा की स्वीकार्यता बढ़ रही है, अल्पसंख्यक  भी पार्टी से जुड़ रहे हैं इसलिए गोवा में भाजपा की सरकार बनी. पहले जिसे केवल ब्राह्मणों, फिर बनियों और केवल उत्तर भारत की पार्टी कहा गया आज उसकी मौजूदगी पूरे देश में है. दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक सभी उससे जुड़े हैं, जबकि जद (एस) धर्मनिरपेक्षता का दिखावा करनेवाली एक जातिवादी पार्टी है. भाजपा को  अगर खतरा है तो अपने ही दल के कुछ कट्टर हिंदुवादियों से, पार्टी इसे समझ रही है. मोदी भी लगातार संदेश दे रहे हैं कि उदारवादी राजनीति ही भाजपा की असली राजनीति है. भाजपा से अलग हुए येदुरप्पा और श्रीरामलू जैसे नेता पार्टी में वापस आ गए, इसलिए विधानसभा चुनावों में हार के बावजूद लोकसभा चुनाव में भाजपा को 38 में से 17 सीटें मिलीं. कर्नाटक भाजपा अध्यक्ष प्रहलाद जोशी भी जनता परिवार की चुनौती को सिरे से नकारते हुए कहते हैं, नीतीश कुमार हमारे साथ थे, लोकसभा चुनाव में भाजपा से अलग होकर चुनाव लड़ने पर बिहार की जनता का  समर्थन उन्हें नहीं मिला ऐसे में वो कैसी संभावना पर विचार कर रहे हैं? और जहां तक देवगौड़ा जी की बात है तो अपने कैरियर के लिए ये उनका राजनीतिक प्रयोग भी हो सकता है, क्योंकि कर्नाटक में तो मुकाबला कांग्रेस भाजपा के बीच ही है.

महाविलय में छुपे हैं महाबिखराव के सूत्र

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जनता परिवार में छह दलों के मिलने अथवा विलय होने की खबरें रोज ही देख-सुन रहा हूं. इसके पीछे कहीं और कभी सामाजिक न्याय की राजनीति को मजबूत करने की बात कही जा रही है तो कहीं सांप्रदायिकता के विरोध करने की बात. लेकिन मुझे दोनों में संदेह लगता है. सामाजिक न्याय का एक चरण पूरा हो चुका है और अब दूसरे अध्याय की जरूरत है और उस दूसरे अध्याय के लिए लोहिया आदि के जमाने के नारे से और इन पुराने नेताओं से कुछ होगा, ऐसा नहीं लगता. 1990 के नारे से भी कुछ होगा, संदेह है. सामाजिक न्याय के दूसरे चरण के लिए नया नारा चाहिए, दौर के अनुसार नई भाषा चाहिए, नए कार्यक्रम चाहिए, नई कार्यशैली चाहिए और उससे भी बढ़कर नए लोग चाहिए. लेकिन दुर्भाग्य से जो दल मिल रहे हैं वे 1990 की बिसात और बुनियाद पर ही राजनीति को आगे बढ़ा देना चाहते हैं. 1990 से अब तक 25 साल का समय हो चुका है और एक चक्र पूरा हो चुका है. आरक्षण और हिस्सेदारी आदि का एक काम तो फिर भी बहुत हद तक हो चुका है, अब सीधे-सीधे सत्ता-शासन में हिस्सेदारी चाहिए. सामाजिक न्याय में पिछड़ी बहुतेरी ऐसी जातियां हैं, जो अब भी सत्ता-शासन से बहुत दूर हैं. उन्हें अब सत्ता में हिस्सेदारी चाहिए. जो हिस्सेदारी देगा, हिस्सेदारी के लिए रास्ता खोलेगा, वह समूह उधर ही जाएगा. अभी भी न जाने कितनी ऐसी जातियां हैं, जिनके समुदाय में एक करोड़पति नहीं मिलेगा. जो इसके लिए अवसर खोलेगा, वह समूह उधर ही जाएगा. उन्हें समाजवादी सिद्धांत, नीति और सांप्रदायिकता आदि का नारा देकर नहीं रोका जा सकता. सुदूर गांव में रहनेवाले अतिपिछड़ों और महादलितों के लिए सांप्रदायिकता बड़ा मसला नहीं है, उन्हें हिस्सेदारी चाहिए. उन्हें सामाजिक न्याय की लड़ाई से जोड़ने के लिए नए नारे चाहिए लेकिन इस महाविलय के प्रस्ताव में कुछ भी ऐसा नहीं दिख रहा.

आप सामाजिक न्याय की लड़ाइयों का या आंदोलनों का इतिहास देखिए. हमेशा नए तरीके अपनाकर राजनीतिक व सामाजिक लड़ाई लड़ी गई है और उसका असर बहुत दिनों बाद हुआ और एक चरण के बाद फिर तरीके बदलते रहे हैं. बिहार में 40 के दशक में त्रिवेणी संघ के जरिये राजनीति हुई, जनेउ आंदोलन चला. उससे माहौल बना तो लोहिया ने उसे आगे बढ़ाने के लिए एक सुव्यवस्थित रूप देते हुए 50 के दशक में पिछड़ा पावे सौ में साठ, सप्तक्रांति, चौखंभा राज आदि का नारा दिया, जो लोकप्रिय हुआ और उसके पक्ष में गोलबंदी हुई. तब कर्पूरी जैसे नेता का उभार हुआ. बाद में उसी का परिणाम रहा कि 90 में बिहार में मंडल आंदोलन सफल हुआ, राजनीति में सब कुछ बदला. 25 सालों तक राज बदला रहा और उस मंडल आंदोलन ने और सामाजिक न्याय की लड़ाई ने मानसिक तौर पर भी परिवर्तन किए. उसी का असर यह है कि निचले स्तर तक राजनीतिक चेतना का विकास हुआ है, आत्मसम्मान का भाव जगा है, 90 के दशक में बड़े हुए नौजवान पीढ़ी की दूसरी आकांक्षाएं बढ़ी हैं और अब आप कहेंगे कि राजनीतिक चेतना और तमाम आकांक्षा को छोड़ दो और नब्बे के दशक की तरह ही हमारे साथ रहो तो यह व्यावहारिक तौर पर नहीं होगा. फिर सामाजिक न्याय की लड़ाई में ऊपर से गोलबंदी होगी, निचले स्तर से बिखराव होगा और जब बिखराव होगा तो विचारधारणा गौण हो जाएगी. विचारधारा गौण होगी तो व्यक्तिगत स्वार्थों का टकराव होगा. ऊपरी स्तर पर नेता अपने स्वार्थ के लिए मिलेंगे और निचले स्तर पर जनता अपने समुदाय की आकांक्षा की पूर्ति के लिए अलग-अलग ठांव तलाशेगी और इसमें कुछ बुरा भी नहीं.

इस महाविलय में बिखराव के और भी पुख्ता संकेत मिल रहे हैं. महाविलय से बिखराव के रास्ते तैयार हो रहे हैं. उत्तरप्रदेश से मायावती को लिए बिना और बिहार से जीतन राम मांझी को लिए बिना आप सामाजिक न्याय की राजनीतिक लड़ाई का अध्याय पूरा नहीं कर सकते. मेरी राय है महाविलय की इस बेला में महाबिखराव के सबसे स्वर्णिम दिन हैं और अब ऐसे में अगर इसका फायदा भाजपा या एनडीए के नेता अगले विधानसभा चुनाव में नहीं उठा पाते हैं तो यह उनकी अपनी नाकामी होगी, उनके नेतृत्व की नाकामी होगी.

(निराला से बातचीत पर आधारित)

स्वार्थ का संगम!

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जब तक यह रिपोर्ट प्रकाशित होगी और आप इससे गुजर रहे होंगे, पूरी संभावना है तब तक दिल्ली में मुलायम सिंह के आवास से जनता परिवार के विलय की घोषणा हो चुकी होगी या उसकी आखिरी प्रक्रिया चल रही होगी. मुलायम सिंह यानी नेताजी के नेतृत्व में लालू प्रसाद यादव, शरद यादव, नीतीश कुमार, जनता दल (एस) वाले पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा, समाजवादी जनता पार्टी वाले कमल मोरारका, इंडियन नेशनल लोकदल वाले चौटाला परिवार के सदस्य आदि एक-दूसरे से गलबहियां भी कर रहे होंगे और हाथ ऊपर उठाकर दृश्यों को कैमरे में कैद करवा रहे होंगे. संभव है इस रिपोर्ट के आने और इससे आपके गुजरने तक सब मिलकर कोई संयुक्त प्रेस सम्मेलन भी कर लें और देश के संकटों पर बात करते हुए भाजपा को उखाड़कर फेंक देने, देश में समाजवादियों की सरकार कैसे बनेगी आदि का खाका भी पेश कर दें. ये देश-दुनिया, काॅरपोरेट, मोदी, सांप्रदायिकता, समाजवाद आदि को मिलाकर इतना जबर्दस्त काॅकटेल बनाकर पेश करने की कोशिश करेंगे कि उसमें बार-बार बिहार को लाने से बचेंगे. वे देश को बचाने के लिए इस विलय की बुनियाद तैयार होने की बात कहेंगे लेकिन एक सामान्य बच्चे की भी समझ में आनेवाली बात यह होगी कि फिलहाल यह सब बिहार में प्रयोग करने के लिए और बिहार में सबकुछ बचाने के लिए हो रहा विलय होगा. बिहार में इस महाविलय का परीक्षण इसी साल के आखिरी में होगा. अगर वह सफल रहा तो उसका मनोवैज्ञानिक असर 2017 में होनेवाले उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव पर पड़ेगा और फिर 2019 में होनेवाला लोकसभा चुनाव इस प्रयोग का अहम पड़ाव होगा. लेकिन इस महाविलय का पूरा भविष्य बिहार विधानसभा चुनाव से ही तय होना है. बहरहाल, दूसरी बात.

अपनी-अपनी रणनीति विहार में राजनीवत की नई इिारत वलखने काे तैयार नीतीश-लालू
अपनी-अपनी रणनीति विहार में राजनीवत की नई इिारत वलखने काे तैयार नीतीश-लालू

इस महाविलय में न कुछ नया है, न कुछ बुरा और न ही हंगामा मचाने जैसी बात. समय और परिस्थितियों के अनुसार यह एक जरूरी राजनीतिक अभ्यास है, जो समय-समय पर पहले भी होता रहा है. कांग्रेस भी करती रही है और भाजपा भी. राजनीति में मिलना-हटना फिर जुड़ना बहुत सामान्य-सी बात रही है. इसलिए ही राजनीति के चरित्र को एक भद्दी गाली मुहावरे के तौर पर दी जाती रही है कि इसमें न कोई स्थायी दोस्त होता है, न स्थायी दुश्मन. और ऐसी प्रक्रियाओं में बात यदि समाजवादियों की हो, जनता परिवार की हो तो मिलने-जुड़ने-बिछुड़ने और अलग होते ही एक-दूसरे का अस्तित्व खत्म करनेवाली लड़ाई लड़ने का समृद्ध इतिहास और लंबा अभ्यास भी रहा है. समाजवादियों के आपस के झगड़े के इतिहास की शुरुआत जयप्रकाश नारायण और डाॅ. राममनोहर लोहिया के जमाने से ही हो गई थी और अपने जमाने में दोनों एक-दूसरे के खिलाफ बोलने के कई अवसर भी तलाशे थे. खैर! वह बात पुरानी हो गई. जनता परिवार के मिलन और बिछड़न की कहानी का मूल अध्याय 1977 के बाद शुरू हुआ था. जयप्रकाश नारायण की सलाह पर 1977 में चार दलों को मिलाकर जनता पार्टी का गठन हुआ था और उसे केंद्र में सत्ता भी मिली थी. बाद में जगजीवन राम की पार्टी सीएफडी का भी उसमें मिलन हो गया था. लेकिन जब एक-दूसरे के अहं टकराने लगे तो सब अलग भी हो गए थे. फिर लगभग एक दशक बाद बीपी सिंह ने कोशिश कर जनता दल को 1988 में खड़ा किया और 1989 में सत्ता भी मिल गई लेकिन अगले ही साल 1990 में उससे चंद्रशेखर अलग भी हो गए थे. दो सालों बाद मुलायम सिंह  ने अपने कुनबे के साथ अलग रास्ता अपना लिया था, 1994 में जाॅर्ज फर्नांडिस और नीतीश कुमार ने अलग रास्ता अपना लिया था और 1997 में लालू प्रसाद ने अलग पार्टी बना ली थी. लगभग एक साल बाद ओम प्रकाश चौटाला अपनी राह पकड़ चल दिए थे. और अब जब एक बार फिर मिल रहे हैं तो वही पुराना सवाल सामने खड़ा है कि अलग ही क्यों हुए थे. क्या कोई राजनीतिक वजह थी या अहं के टकराव और व्यक्तिगत स्वार्थों की वजह से खंड-खंड घमंड पालते हुए ये अलग हुए थे. जवाब दूसरावाला सही है. बिना किसी ठोस राजनीतिक वजह के प्रायः सबके अपने स्वार्थ थे. तब स्वार्थों का टकराव हुआ था तो अलग हुए थे, अब स्वार्थ साधने हैं तो साथ आने की एक और बड़ी राजनीतिक परिघटना घट रही है. यह जानते हुए भी कि इस महाविलय की प्रक्रिया को बेहद ही अस्वाभाविक बुनियाद पर तैयार किया गया है. हालांकि इस बीच उम्मीद की सबसे बड़ी किरण यही है  कि 1977 हो या 1988, समाजवादी जब-जब मिले हैं, एक बड़ी परिघटना घटी है. जैसा कि शरद यादव कहते हैं,  ‘हमारे मिलन से परिवर्तन का इतिहास रहा है. हम मिलते हैं तो केंद्र की सत्ता को हिला देते हैं.’ शरद यादव के ऐसा कहने के पीछे या उनके इस आत्मविश्वास के पीछे की वजह 1977 और उसके बाद 1989 में मिलन से सत्ता में हुई वापसी है. लेकिन 2015 के हिसाब से शायद खयाली पुलाव बनाने जैसी बात भी.

इस महाविलय में दलों और नेताओं की एक-एक कर बात करें तो बहुत सारी बातें स्पष्ट होती हैं. इस महाविलय का मुखिया नेताजी यानी सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव को बनाया गया है. यह वही मुलायम सिंह यादव हैं, जिनके प्रधानमंत्री बनने का एक बेहतरीन मौका कभी आया था और लालू प्रसाद ने वीटो पावर लगाकर नेताजी की तमाम उम्मीदों पर पानी फेर दिया था. वह कसक अभी भी नेताजी को रहती और किसी न किसी तरह से वह अभिव्यक्त भी होती रही है. बेशक मुलायम सिंह यादव फिलहाल उत्तर प्रदेश के बड़े नेता हैं, उनकी पार्टी सत्ता में हैं, वे अपने परिवार के दर्जन-भर सदस्यों को राजनीति में सेट करवा चुके हैं लेकिन उत्तर प्रदेश के बाहर उनका असर ज्यादा नहीं दिखता. इस महाविलय में सजपा जैसी पार्टी शामिल है, जिसके संस्थापक मुखिया चंद्रशेखर ने सबसे पहले जनता दल में बगावत का बिगुल फूंका था और वीपी सिंह के खिलाफ हुए थे. खैर! अभी तो सजपा को कमल मोरारका देख रहे हैं और वह पार्टी किसी एक राज्य क्या, पक्के तौर पर किसी एक खास इलाके में भी प्रभावशाली रह गई हो, यह दावे से नहीं कहा जा सकता. इस महाविलय में एचडी देवगौड़ा अपनी पार्टी जदएस के जरिये आए हैं. परिस्थितियों की देन की तरह देवगौड़ा देश के प्रधानमंत्री जरूर बन गए थे और राज भी किया लेकिन वे प्रधानमंत्री रहते हुए भी इतने असरदार नेता कभी नहीं रहे कि पूरे देश क्या, दक्षिण में ही अपने ताप और इकबाल से असर पैदा कर सकें. ऐसे में उत्तर भारत में उनके किसी असर की उम्मीद करना व्यर्थ के चिंतन जैसा है. फिलहाल देवगौड़ा अपने बेटे के साथ अपने गृह राज्य कर्नाटक में किसी तरह अपने वजूद को बचाने की लड़ाई लड़ रहे नेता हैं. और आखिर में इस महाविलय के दो अहम किरदारों की बात सामने आती है, जिनके लिए इसे जल्दी में किया गया है. वे दो किरदार लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार हैं, उनकी पार्टी राजद और जदयू है.

जनता परिवार के मिलन और बिछड़न की कहानी का मूल अध्याय 1977 के बाद शुरू हुआ. जेपी की सलाह पर 1977 में चार दलों से जनता पार्टी गठित हुई और उसे केंद्र में सत्ता मिली थी

इन दोनांे नेताओं के एक हो जाने की बात को ही इस महाविलय की पूरी प्रक्रिया मंे सबसे बड़ी परिघटना मानी जा रही है. दोनों बिहार की राजनीति करनेवाले नेता हैं और बिहार में ही सिमट कर रह जानेवाले नेता भी. दोनों राज्य के मुख्यमंत्री रहे हैं, दोनों की पार्टी मजबूत रही है और है भी, दोनों एक ही राजनीतिक स्कूल के छात्र रहे हैं, दोनों केंद्र में भी मंत्री रहे हैं लेकिन दोनों में से किसी का ताप और प्रभाव कभी इतना नहीं बढ़ सका कि वे अपने राज्य से बाहर भी अपना जनाधार खड़ा कर सकें. और नहीं तो कम से कम बिहार से बाहर रहनेवाले बिहारियों के बीच ही अपने प्रभाव को दिखा सकें. हां, बिहार का पड़ोसी राज्य झारखंड में कुछेक दूसरी वजहों से इन दोनों की पार्टियों के उम्मीदवार जीतते रहे हैं. खैर यह भी अलग किस्म की बात है. इन दोनों नेताओं के और दोनों के दलों के सदा-सदा के लिए मिलन या विलयन में भले पेंच न हो और अभी यह स्वार्थ का साथ फाॅर्मूले के तहत हो भी जाए लेकिन उसके बाद इसके नफे-नुकसान से जुड़े कई सवाल ऐसे हैं जिसका जवाब खुलकर विश्लेषक भी नहीं दे पा रहे. विश्लेषकों का एक वर्ग है, जो साफ-साफ कह रहा है कि दोनों नेताओं के मिलन से बिहार जैसे राज्य की राजनीति में सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि पिछड़ों-अल्पसंख्यकों की गोलबंदी होगी. फिर से मंडलयुग की तरह आंधी चलेगी और भाजपा का रथ बिहार में रुक जाएगा. बिहार में भाजपा का रथ रुकना या नहीं रूकना, यह बिल्कुल ही अलग किस्म का सवाल है और यह अभी बहुत कुछ पर निर्भर करेगा. यह लगातार नरेंद्र मोदी के गिरते ग्राफ और कम होती लोकप्रियता, अब तक कोई बड़े फैसले नहीं लिए जानेवाली बात, बिहार प्रदेश भाजपा में सीएम कैंडिडेट बनने के लिए आपसी सिरफुटव्वल आदिवाले फैक्टर पर भी निर्भर करेगा. यहां सवाल यह है कि क्या वाकई में ऐसा होगा कि नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के मिलन से बिहार की राजनीति में पिछड़ों-अल्पसंख्यकों-दलितों का मिलन होगा और फिर देखते ही देखते सारे समीकरण बदल जाएंगे? राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन बेहतर तरीके से इस सवाल का जवाब देते हैं. वह कहते हैं कि ऐसा इतनी आसानी से होगा, यह कहना हड़बड़ी है. एक तो यह पिछड़ों का मिलन या विलयन नहीं है. यह मूलतः उच्च पिछड़ी जातियों का मिलन है. यादव और कुरमी नेता का और उसमें भी यादव नेताओं का पलड़ा भारी है. एक साथ उत्तर भारत के तीन-तीन बड़े यादव वर्षों बाद मिल रहे हैं, बेशक इससे यादवों में उत्साह आएगा, वे गोलबंद होंगे लेकिन यह इस मिलन का खतरा भी होगा. जैसे ही यादव मतदाताओं की गोलबंदी होगी, वैसे ही गैर यादव पिछड़े अलग ध्रुव पर जाने लगंेगे. महेंद्र सुमन कहते हैं कि बात इतनी ही नहीं है, यह भी देखना होगा कि अब पिछड़ों की राजनीति 1990 से बहुत दूर जा चुकी है. अब अतिपिछड़ा एक अलग समूह बन चुका है और दलित राजनीति में स्वर जगानेवाले एक नए नेता जीतन राम मांझी भी बिहार में उदित हो चुके हैं. ऐसी स्थिति में यह कह देना कि महज राजद-जदयू के मिलन-विलयन से बहुत कुछ बदल जाएगा, जल्दबाजी होगी.

महेंद्र सुमन जो कहते हैं, उसका विस्तार दूसरे रूप में भी बिहार में अभी से ही दिखाई पड़ता है. इस विलय के बाद यह तय है कि अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों की गोलबंदी महाविलय के बाद अस्तित्व में आई नई पार्टी की ओर होगी. इसका एक बड़ा कारण यह होगा कि बिहार जैसे राज्य में मुसलमानों के पास दूसरा कोई विकल्प भी नहीं होगा. कांग्रेस खत्म हो चुकी है और दूसरे दल भाजपा के साथ हैं. लेकिन अल्पसंख्यकों के बाद किसी और समूह या पिछड़ी-दलित जाति के बारे में ताल ठोककर या दावे के साथ यह नहीं कहा जा सकता िक वह विलय के बाद खड़ी हुई पार्टी के साथ खड़ी हो जाएगी. अगर यादवों की ही बात करें तो यह तय है कि लालू प्रसाद आज भी बिहार में यादवों के सबसे बड़े नेता हैं और उनके साथ मुलायम सिंह यादव का नाम जुड़ने और शरद यादव के भी साथ रहने से यादवों की गोलबंदी होगी लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में जिस तरह से भाजपा ने बिहार में यादव मतदाताओं में सेंधमारी की, वह अलग किस्म का संकेत दे चुकी है. और अभी स्थितियां भी बदल रही हैं. यादव नेताओं में से लालू के करीबी रहे रामकृपाल यादव भाजपा के साथ हैं और मंत्री भी हैं. रामकृपाल की राज्यव्यापी अपील तो नहीं लेकिन राज्य भर में जाने जाते हैं. यादव नेताओं में से ही उत्तर बिहार में प्रभाव, असर और पकड़ रखनेवाले पप्पू यादव इन दिनों राजद में रहते हुए ही उत्तराधिकार के सवाल पर लालू प्रसाद से छत्तीस का आंकड़ा बनाते हुए नई चुनौती के तौर पर खड़े हो रहे हैं. पप्पू यादव उत्तराधिकार की बजाय जीतन राम मांझी को इस महाविलय से अलग रखने की बात को लेकर बवाल काट रहे हैं और इसका असर यादवों पर नहीं पड़ेगा तो दलितों-महादलितों पर तो पड़ना तय ही है. और दूसरी ओर नंदकिशोर यादव के रूप में एक बड़े यादव नेता तो भाजपा के विधायक दल के ही नेता हैं. यादवों के बाद नीतीश कुमार की जाति कुरमी की बात करें तो उसका रुख इस बात पर निर्भर करेगा कि महाविलय के बाद नेतृत्व नीतीश कुमार के पास रहता है या नहीं. अगर लालू प्रसाद की बड़ी भूमिका रहेगी तो कुरमी पूरी तरह से इस महाविलय के पक्ष में खुलकर नहीं आ सकेंगे. उच्च पिछड़ी जातियों में दो और अहम जातियां कुशवाहा और वैश्य हैं. कुशवाहा जाति के नए नेता के तौर पर उपेंद्र कुशवाहा का उदय हो चुका है और वे भाजपा के साथ हैं. वैश्य पारंपरिक तौर पर भाजपा के साथ माने जाते हैं. लेकिन सवाल सिर्फ इन उच्च पिछड़ी जातियों का नहीं. राजनीतिक विश्लेषक प्रेम कुमार मणि कहते हैं कि पिछले 25 सालों मंे सामाजिक न्याय की राजनीति के बाद निम्न पिछड़ों, जिसे नीतीश कुमार ने अतिपिछड़ा समूह के तौर पर खड़ा किया और दलितों, जिसे बांटकर नीतीश कुमार ने महादलित वर्ग बनाया था, उनमें राजनीतिक आकांक्षा बहुत बढ़ी है. वह अब सत्ता में सीधे हिस्सेदारी चाहता है और दुर्भाग्य से इस महाविलय के बाद बननेवाली पार्टी में अतिपिछड़ों और दलितों में से किसी का नेतृत्व करनेवाला उनके समूह से कोई प्रमुख नेता नहीं है. राजनीतिक चिंतक प्रसन्न कुमार चौधरी कहते हैं, उत्तरप्रदेश में मायावती इनके साथ नहीं है और बिहार में दलित राजनीति के नये स्वर बने जीतन राम मांझी विरोध में हैं, इसका असर होगा. प्रसन्न चौधरी की बातों को आगे बढ़ाएं तो यह भी अहम है कि समाजवादी राजनीति को ही आगे बढ़ाकर और जनता दल से ही निकले बीजू जनता दल के नेता नवीन पटनायक की दूर-दूर तक इस महाविलय में रुचि नहीं दिखी है. तमाम समाजवादी नेताओं में नवीन पटनायक की पहचान अलग किस्म की है. वे भाजपा से अलग होकर भी अपना जनाधार लगातार बढ़ाते रहनेवाले नेता के तौर पर उभरे हैं और इस बार की मोदी आंधी में भी ओडिशा में अपने दम पर करिश्मा करनेवाले नेता माने गए हैं.

प्रेम कुमार मणि, प्रसन्न चौधरी या महेंद्र सुमन की बातों से इंकार नहीं किया जा सकता. बिहार के लिए और नीतीश कुमार-लालू प्रसाद की साख बचाने के लिए और अगले बिहार विधानसभा चुनाव को साधने के लिए ही यह महाविलय हो रहा है, यह सब जानते हैं. लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद से ही लालू प्रसाद ने गणित जोड़कर कहना शुरू कर दिया था कि नीतीश का इतना, मेरा इतना, कांग्रेस का इतना, वामपंथियों का इतना हुआ और अगर सब साथ रहते तो भाजपा इतनी बड़ी जीत बिहार में हासिल नहीं करती. लालू प्रसाद ने यही कहकर पासा खेला था जिस पर नीतीश कुमार मोहित हुए थे और उसके बाद लगातार इस महाविलय के लिए दिल्ली से लेकर पटना तक की दौड़ लगाते रहे और लालू प्रसाद लगातार इसे टालते रहे. लालू प्रसाद ने पासा फेंकने के बाद मौन ही साध लिया था और पूछने पर यही कहते थे कि इतनी हड़बड़ी क्या है, जब होगा तो देश के स्तर पर होगा और जैसे होगा वह मुलायम सिंह यादव तय करेंगे. लालू प्रसाद निश्चिंतता की बजाय चिंतन के मूड में थे, क्योंकि इस महाविलय से फायदे अगर नीतीश कुमार और उनको, दोनों को संयुक्त रूप से होने हैं तो नुकसान भी दोनों को ही होना है. लालू प्रसाद दुविधा में रहे तो इसकी वजह यह बताई गई िक वे इस बात से चिंतित थे कि अगर महाविलय के बाद नीतीश कुमार के नेतृत्व का एलान वे कर देते हैं तो संभव है कि कुरमी नेतृत्व के नाम पर यादव मतदाता बिखर जाए और लोकसभा चुनाव में आंशिक रुख दिखाने के बाद इस बार विधानसभा चुनाव में ज्यादा संख्या में भाजपा की ओर रुख कर जाए. लालू प्रसाद जानते हैं कि अगर एक बार भाजपा की ओर यादव मतदाता चले गये तो फिर उनकी भावी पीढ़ी के लिए बिहार में राजनीतिक फसल काटने को कुछ खास नहीं बचेगा. हालांकि लालू प्रसाद यादव इस महाविलय के बारे में अब खुलकर बोलने लगे हैं और उन्होंने अपना उत्तराधिकारी भी अपने बेटे को घोषित कर दिया है लेकिन अभी भी इस महाविलय के बाद पार्टी के नेतृत्व के सवाल पर चुप्पी ही साधे रहते हैं.

इस तरह देखें तो इस महाविलयवाली पार्टी में मिलन-विलयन के बाद नए सिरे से अतिपिछड़ों और महादलितों में आधार वोट तलाशने और उसे फिर से खड़ा करने की चुनौती बड़ी होगी. और यही समूह होगा जो आगे बिहार में चुनावी राजनीति की दिशा और दशा तय करेगा. महाविलयवाली पार्टी के पास यह चुनौती इसलिए भी बड़ी होगी, क्योंकि जीतन राम मांझी तो लगातार दलितों के बीच अभियान चला ही रहे हैं, वे भाजपा के साथ जाने के लिए बेताब से भी दिख रहे हैं. दूसरी ओर पहले से ही बिहार के एक बड़े दलित नेता रामविलास पासवान भाजपा के साथ हैं. भाजपा के एक बड़े नेता बताते हैं कि हमारी पार्टी की रणनीति साफ है कि हम अतिपिछड़ों और दलितों को सबसे ज्यादा तवज्जो देंगे. उन्हें प्रखंड कमिटी का अध्यक्ष बनाएंगे, बूथ कमिटी उनके हवाले करेंगे और आखिरी में वोट के वक्त यही कमिटियां सबसे कारगर होती हैं.

महाविलय का पहला परीक्षण बिहार विधानसभा चुनाव में होगा. यह सफल रहा तो इसका असर 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के साथ ही 2019 के लोकसभा चुनावों पर भी पड़ेगा

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रिपोर्ट: उत्तर के पैंतरे में दक्षिण का टोका

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इंटरव्यू: पूर्व प्रधानमंत्री और जनता दल (एस) के मुखिया एच. डी. देवगौड़ा खास बातचीत

विचार: महाविलय में छुपे हैं महाबिखराव के सूत्र