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‘बलात्कार का कानूनी लाइसेंस !’

आज के दिन 18 साल से बड़ी (बालिग) लड़की अपनी मर्जी से विवाह कर सकती है, बिना विवाह के यौन संबंध बना सकती है, सहजीवन में किसी के भी साथ रह सकती है, बच्चा गोद ले सकती है, खुद बच्चा पैदा कर सकती है, कृत्रिम गर्भाधान का रास्ता अपना सकती है- इन सबका मतलब ये है कि कोई भी बालिग लड़की अपने कानूनी अधिकारों का उपयोग कर सकती है.

1949 से 2013 तक (संशोधन से पहले) 16 साल से बड़ी उम्र की लड़की, अपनी मर्जी से किसी के भी साथ यौन संबंध बना सकती थी, जबकि लड़की के बालिग होने या विवाह योग्य उम्र 18 साल ही रही. सहमति से संभोग की उम्र, 16 साल से बढ़ाकर 18 साल इसलिए करनी पड़ी ताकि ‘देश की बेटियों’ को ‘यौन हिंसा’ से बचाया जा सके और कानूनी विसंगतियों को भी समाप्त किया जा सके.

अापराधिक कानून संशोधन अधिनियम, 2013 में सहमति से संभोग की उम्र 16 साल से बढ़ाकर 18 साल कर दी गई है, मगर 15 साल से बड़ी उम्र की पत्नी से सहवास अभी भी बलात्कार नहीं माना जाता. सरकार ने ‘वैवाहिक बलात्कार’ संबंधी न तो विधि आयोग की 205वीं रिपोर्ट की सिफारिश को माना और न ही जेएस वर्मा आयोग की राय कि ‘भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अपवाद को खत्म कर दिया जाना चाहिए.’

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सवाल है कि क्या भारतीय समाज (संसद-अदालत) अपनी ‘बेटियों’ को तो यौन संबंधों से बचाना चाहता है, पर नाबालिग पत्नी से बलात्कार करने का कानूनी अधिकार (हथियार) बनाए-बचाए रखना चाहता है. 15 साल की नाबालिग पत्नी से बलात यौन हिंसा की ‘शर्मनाक’ कानूनी छूट को कैसे न्यायपूर्ण माना-समझा जा सकता है? बलात्कार की संस्कृति को बढ़ावा देते इन अर्थहीन, विसंगतिपूर्ण और अंतर्विरोधी कानूनों से न बाल विवाह रोके जा सकते हैं और न ही बाल वेश्यावृत्ति.

नाबालिग पत्नी से यौन हिंसा की कानूनी छूट

बीते समय में दिल्ली की अदालत का एक फैसला सुर्खियों में रहा, जिसमें कहा गया था कि पत्नी से जबरन यौन संबंध बनाना बलात्कार का अपराध नहीं माना जाएगा. दरअसल इस पर बात करने से पूर्व इसके संक्षिप्त इतिहास पर गौर कर लेना ठीक होगा. 2008 में दिल्ली हाई कोर्ट में पूर्ण खंडपीठ के समक्ष एक मुकदमा बाल विवाह की वैद्यता को लेकर पेश हुआ था- महादेव बनाम भारत सरकार का मुकदमा. महादेव एक गरीब व्यक्ति था जिसकी साढ़े पंद्रह साल की एक बेटी थी जिसने किसी लड़के के साथ भागकर शादी कर ली थी. पुलिस में मामला दर्ज हुआ और जब वह मिली तो गर्भवती थी. पुलिस जब लड़की को कोर्ट में लेकर आई तो मजिस्ट्रेट ने उसे पति के साथ नहीं जाने दिया. लड़की अपने पिता के साथ जाना नहीं चाहती थी. मजिस्ट्रेट ने अंततः उसे नारी-निकेतन भेज दिया. वह 18 साल की होने तक नारी-निकेतन में ही रही. उसकी डिलीवरी भी नारी निकेतन में ही हुई.

मामला मेरे पास आया तो मैंने पाया कि हाई कोर्ट के फैसले में बहुत विरोधाभास हैं. मैंने मामले को आगे बढ़ाया तब यह बाल-विवाह की वैधता को लेकर तीन न्यायाधीश की पूर्णपीठ के समक्ष प्रस्तुत किया गया था. बाल विवाह की वैद्यता के सवाल को लेकर बहुत से विरोधाभास थे और उस वक्त मुझे यह लगा कि यह एक ऐसा मामला है जिसके सहारे मैरिटल रेप (वैवाहिक बलात्कार) पर बहस शुरू की जा सकती है. यहां उल्लेखनीय है कि जनता पार्टी के शासन (1978) में जब बाल विवाह रोकथाम अधिनियम, 1929 और हिन्दू विवाह अधिनियम, में संशोधन किए गए थे. 1978 में जब लड़की की शादी की उम्र 15 से बढ़ाकर 18 की गई, तब इसके कई पक्षों पर बहुत विचार-विमर्श किया गया था. मसलन मानसिक परिपक्वता से लेकर शारीरिक परिपक्वता तक.

जवाहर लाल नेहरू ने कहा है, हम हर भारतीय स्त्री से सीता होने की अपेक्षा करते हैं लेकिन पुरुषों से मर्यादा पुरुषोत्तम राम होने की नहीं

बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006 के मुताबिक, किसी भी लड़की की शादी की उम्र 18 साल और लड़के की उम्र 21 होनी अनिवार्य है. 18 साल से कम उम्र की लड़की की शादी 21 साल से कम उम्र के लड़के के साथ कराना दंडनीय अपराध है और दो साल का सश्रम कारावास या एक लाख रुपये तक का आर्थिक दंड या फिर दोनों हो सकते हैं. मगर न तो विवाह अवैध माना जाता है और न ही शादी के वक्त यदि लड़के की उम्र 18 साल से कम है तो इसे अपराध माना जाता.

2013 के संशोधन ने विवाह और सहमति से संभोग की उम्र 18 साल कर दी है मगर धारा 375 के अपवाद में आज भी यह प्रावधान बना हुआ है कि (नाबालिग) पत्नी के साथ जिसकी उम्र 15 साल से अधिक है, जबरन यौन संबंध ‘बलात्कार’ नहीं माना जाएगा. इन कानूनों में किए गए प्रावधानों में जब सहमति से सहवास की उम्र 18 साल कर दी गई है, तब 15 साल से बड़ी पत्नी के साथ सहमति से भी यौन संबंध की स्वीकृति कैसे दी जा सकती है? 15 साल की उम्र शारीरिक और मानसिक परिपक्वता की दृष्टि से बहुत ही छोटी उम्र है और हां, इस उम्र में नाबालिग लड़की पर किसी भी तरह का दबाव बनाना ज्यादा आसान हो सकता है.

अन्यायपूर्ण कानूनों की संवैधानिक वैधता को चुनौती

मैंने दिल्ली हाई कोर्ट में एक और याचिका दायर की. इसमें मैंने भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अपवाद (15 साल से बड़ी पत्नी के साथ सेक्स को बलात्कार नहीं माना गया है) की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी. भारतीय दंड संहिता की धारा 376 में उस वक्त यह प्रावधान किया गया था कि 12-15 साल तक की बीवी के साथ संबंध बनाने पर पति को दो साल की कैद या जुर्माना हो सकता है. यह जमानत योग्य अपराध था और इसमें अधिकारिक रूप से जमानत मिल सकती थी. इस प्रावधान की संवैधानिक वैधता को भी चुनौती दी गई.

सीआरपीसी की धारा 198 (6) में यह प्रावधान किया गया था कि कोई भी कोर्ट मैरिटल रेप के मामले को संज्ञान में नहीं लेगा. इसका मतलब ये हुआ कि आप अपने ऊपर हो रहे अन्याय के खिलाफ अदालत भी नहीं जा सकते हैं. इसमें पत्नी की उम्र का भी कोई जिक्र नहीं किया गया था मतलब पत्नी किसी भी उम्र की हो सकती है. हिन्दू अल्पवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम में धारा 6(सी) के तहत एक और विचित्र प्रावधान है कि अगर पति और पत्नी नाबालिग हों तो पति, पत्नी का अभिवावक होगा. कानून के इन सभी प्रावधानों की संवैधानिक वैधता को हाई कोर्ट में चुनौती दी गई. दिल्ली हाई कोर्ट में मामला चलता रहा. सरकारी वकील ने लगातार यह कहकर तारीख ली कि सरकार कानून में उचित संशोधन कर रही है. आपराधिक संशोधन विधेयक 2010, 2011 और 2012 के प्रारूप अदालत में पेश किए गए थे. सात दिसंबर 2012 को आपराधिक संशोधन विधेयक पर बहस चल ही रही थी कि 16 दिसम्बर 2012 को ‘निर्भया बलात्कार कांड’ आ खड़ा हुआ. देश भर में जोरदार आंदोलन हुए जिसके दबाव में आकर सरकार ने अध्यादेश जारी कर दिए. वर्मा कमीशन की रिपोर्ट भी आई और अंततः 3 फरवरी 2013 से आपराधिक संशोधन अधिनियम, 2013 लागू हुआ. महादेव केस के तमाम मुद्दे ‘निर्भया कांड’ के पीछे कहीं दब-छुप गए. अब यहां यह समझ लेना जरूरी होगा कि अापराधिक संशोधन अधिनियम, 2013 से पूर्व और संशोधन के बाद कानून के प्रावधानों में क्या फर्क आया.

 2013 से पूर्व कानून

अापराधिक संशोधन अधिनियम 2013 के लागू होने से पहले बिना सहमति के किसी औरत के साथ यौन संबंध स्थापित करना या 16 वर्ष से कम उम्र की लड़की के साथ (सहमति के साथ भी) संबंध स्थापित करना बलात्कार की श्रेणी में आता था. हालांकि 15 साल से अधिक उम्र की अपनी पत्नी के साथ जबरदस्ती किया गया यौन संबंध बलात्कार नहीं माना जाता रहा. भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के अनुसार किसी महिला के साथ बलात्कार करनेवाले को आजीवन कारावास की सजा दी जा सकती थी/है, लेकिन यदि पति 12 से 15 साल की अपनी पत्नी के साथ बलात्कार करता है तो अधिकतम सजा में ‘विशेष छूट’ थी. इस मामले में सिर्फ दो साल की जेल या जुर्माना या दोनों का प्रावधान था. बलात्कार संज्ञेय और गैर जमानती अपराध था लेकिन 12-15 साल की पत्नी के साथ बलात्कार संज्ञेय अपराध नहीं माना जाता था. इस अपराध में अाधिकारिक रूप से जमानत मिल सकती थी. 15 साल से कम उम्र की पत्नी के साथ बलात्कार के मामले में भी पुलिस कोई भी कार्रवाई नहीं कर सकती थी. ऐसे मामलों में गरीब नाबालिग लड़की को खुद ही कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ता और जटिल कानूनी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता था.

 2013 के बाद का कानून

अापराधिक कानून संशोधन अधिनियम 2013 में बलात्कार को अब ‘यौन हिंसा’ मान लिया गया है. इसमें सहमति से संभोग की उम्र 16 साल से बढ़ाकर 18 साल कर दी गई है जबकि धारा 375 के अपवाद में पत्नी की उम्र 15 साल ही है. 15 साल से कम उम्र की पत्नी से बलात्कार के मामले में अब सजा में कोई ‘विशेष छूट’ नहीं मिलेगी. ‘निर्भया’ कांड के बाद हुए संशोधन के बाद इस प्रावधान को भारतीय दंड संहिता से हटा लिया गया। अापराधिक संशोधन अधिनियम 2013 से पहले पति को सिर्फ ‘सहवास’ करने की छूट थी, मगर संशोधन के बाद तो ‘अन्य यौन क्रियाओं’ का भी अधिकार दे दिया गया है. यह किसी भी सभ्य समाज में उचित, न्यायपूर्ण नहीं माना-समझा जा सकता. अापराधिक संशोधन अधिनियम, 2013 को पारित करते समय सरकार ने ‘वैवाहिक बलात्कार’ संबंधी न तो विधि आयोग की 205वीं रिपोर्ट की सिफारिश को माना और न ही वर्मा आयोग के सुझाव. भारतीय विधि आयोग ने सिफारिश की थी कि भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अपवाद को खत्म कर दिया जाना चाहिए.

अापराधिक संशोधन अधिनियम, 2013 के बाद आज भी भारतीय दंड संहिता की धारा 375 का अपवाद, पति को अपनी 15 साल से बड़ी उम्र की नाबालिग पत्नी के साथ बलात्कार करने का ‘कानूनी लाइसेंस’ देता है, जो निश्चित रूप से नाबालिग बच्चियों के साथ मनमाना और विवाहित महिला के साथ कानूनी भेदभावपूर्ण रवैया है. यह भेदभावपूर्ण कानूनी प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 में दिए गए मौलिक अधिकार और मानवाधिकार का भी हनन करता है. परिणामस्वरूप शादीशुदा महिलाओं के पास चुपचाप यौन हिंसा सहन करने, बलात्कार की शिकार बने रहने या फिर मानसिक यातना के आधार पर पति से तलाक लेने या घरेलू हिंसा अधिनियम के अधीन मुकदमा करने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहा जाता है, जो नाकाफी है. दुनिया के लगभग छह मुल्कों में वैवाहिक बलात्कार को दंडनीय अपराध की श्रेणी में रखा गया है. नेपाल जैसे छोटे से मुल्क में वैवाहिक बलात्कार को अपराध माना गया है. नेपाल के सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में कहा था- ‘पत्नी की सहमति के बिना संभोग बलात्कार के दायरे में आएगा. धार्मिक ग्रंथों में भी पुरुषों को द्वारा पत्नी के बलात्कार की अनदेखी नहीं की गई है. हिन्दू धर्म में पति और पत्नी की आपसी समझ पर जोर दिया गया गया है.’

अंत में एक बात और यह कि आखिर दाम्पत्य में बलात्कार कानून से पुरुष समाज क्यों डरा हुआ है? इस कानून को न बनाए जानेवाले ये तर्क देते हैं कि वैवाहिक बलात्कार कानून बन जाने से विवाह और परिवार जैसी पवित्र संस्था को खतरा पहुंच सकता है. मैं जवाहर लाल नेहरू जी के शब्दों को याद करके इसका जवाब देना चाहूंगा- ‘हम हर भारतीय स्त्री से सीता होने की अपेक्षा करते हैं लेकिन पुरुषों से मर्यादा पुरुषोत्तम राम होने की नहीं.’

स्वतंत्र मिश्र से बातचीत पर आधारित

बेडरूम में कानून का क्या काम

Demonstrators hold placards as they take part in a protest rally in solidarity with a rape victim from New Delhi in Mumbai

जॉन मोरटाइमर ने क्लासिकल रमपोल श्रृंखला में लिखा है, ‘विवाह और कत्ल दोनों अनिवार्य रूप से आजीवन कारावास की ओर ले जाते हैं.’ इसका अंदाजा लगा पाना बहुत मुश्किल है कि वैवाहिक बलात्कार को आपराधिक ठहराए जाने के सवाल पर पर होरेेस रमपोल की प्रतिक्रिया क्या होती बात को लेकर किसी को अचरज हो सकता कि यह बात रमपोल ने वैवाहिक बलात्कार के अापराधीकरण के सवाल पर क्या कहा होता? क्योंकि जिस हिल्डा रमपोल से उन्होंने शादी की थी उनके बारे में उनका कहना था कि वो एक ऐसी महिला थी जिसकी आज्ञा का पालन आपको करना ही होगा.

भारत के संदर्भ में देखें तो यहां महिला की सहमति के बिना उससे संबंध बनाने को ही मुख्यतः बलात्कार के रूप में परिभाषित किया जाता है. अगर बलात्कार का आरोप साबित हो जाता है तो अपराधी को दंडस्वरूप सात साल से लेकर उम्रकैद तक की सजा सुनाई जा सकती है. हालांकि भारतीय कानून विवाहित लोगों के साथ अलग व्यवहार करता है. भारतीय दंड संहिता की धारा 375 के अनुसार ‘किसी पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ, जिसकी उम्र 15 साल से कम न हो, बनाया गया यौन संबंध बलात्कार नहीं है.’ वकीलों के बीच इस परिच्छेद को बलात्कार के वैवाहिक स्तर पर मिली रियायत के रूप में जाना जाता है.

यह तार्किक रूप से इस बात का अनुपालन करता है कि वर्तमान कानून के अनुसार पत्नी का बलात्कार नहीं किया जा सकता है. हालांकि आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम, 2013 के बाद भारतीय दंड संहिता में शामिल की गई धारा 376 साथ ही एक अपवाद भी प्रस्तुत करती है. यह पति से अलग रह रही पत्नी के साथ बिना उसकी इच्छा के शारीरिक संबंध बनाने को सजा के दायरे में तो लाती है पर इसे बलात्कार नहीं कहती.

जस्टिस जेएस वर्मा समिति की रिपोर्ट में पति को बलात्कार के अपराध से मिली रियायत को रद्द करने का सुझाव दिया गया था. तात्कालीन यूपीए सरकार ने इस सिफारिश को पूरी तरह से स्वीकार करने से इंकार कर दिया और धारा 376 बी को कानूनी जामा पहना दिया, जो पति द्वारा जबरन शारीरिक संबंध बनाने को केवल उस परिस्थिति में अपराध मानती है जिसमें पत्नी, पति से अलग रह रही हो.

यह ध्यान में रखते हुए कि आपराधिक कानून में 2013 में हुए संशोधन को अभी दो साल भी नहीं गुजरे हैं और इसकी उपयोगिता या अनुपयोगिता के बारे में तयशुदा तरीके से कुछ कहने के लिए अभी पर्याप्त समय नहीं लिया गया है, कोई भी यह नहीं चाहेगा कि न्यायिक अवस्थिति इतनी जल्दी सवालों के घेरे में आ जाए. मैं यहां उस विवाद का जिक्र करना चाहूंगा जो अभी पिछले दिनों उस वक्त भड़क उठा जब डीएमके की कनिमोझी द्वारा पूछे गए एक सवाल का जवाब देते हुए केंद्रीय गृह राज्यमंत्री हरीभाई पार्थीभाई चौधरी ने कहा, ‘वैश्विक स्तर पर वैवाहिक बलात्कार की जो अवधारणा है उसे समुचित रूप से भारतीय संदर्भ में लागू नहीं किया जा सकता है.’

इसके बाद स्त्रीवादी आंदोलन और इसके समर्थकों ने इस बात पर जोर देते हुए हंगामा शुरू कर दिया कि वैवाहिक स्तर पर यह रियायत देना, जिसे बहुत पहले ही खत्म कर दिया जाना चाहिए था, कानून में अराजकता को बढ़ावा देता है. वे जोर देकर कहते हैं कि वैवाहिक स्तर पर यह रियायत इस सोच से संचालित है कि शादी के बाद कोई महिला हमेशा के लिए पति की इच्छा पर शारीरिक संबंध बनाने के लिए सहमत हो चुकी है. वे तर्क देते हैं कि वैवाहिक स्तर पर मिली इस रियायत को खत्म करने के लिए यह जरूरी होगा कि शारीरिक संबंध बनाने से जुड़े हर कार्य में, यहां तक की विवाह संस्था के भीतर भी, हर मौके पर विशिष्ट सहमति जरूरी हो. एक धार्मिक संस्कार के रूप में विवाह संस्था उन विचारों से अलग है जो महिला अधिकारों की कीमत पर प्रतिगामी  सांस्कृतिक और धार्मिक नियमों को थोपती है.

पति-पत्नी के बीच शारीरिक संबंधों में दोनों की सहमति मानी जाती है. ऐसा न हो कि दोनों को एक-दूसरे को छूने से पहले सहमति लेने की जरूरत पड़े

ऐसे तर्क लाभदायक ओर युक्तिसंगत दिख सकते हैं लेकिन मेरे जैसा संदेहवादी इसकी व्यवहारिकता पर सवाल खड़े करेगा. हिंसा के मामले और पति-पत्नी के अलग-अलग रहने की स्थिति को छोड़कर मेरी राय यही होगी कि पति-पत्नी के नितांत निजी क्षणों से इस कानून का कोई संबंध न हो. हिंसा हमेशा ही अपराध की श्रेणी में आती है और वैवाहिक स्तर पर ऐसी कोई रियायत नहीं हैं जो इसे छिपाए. अगर पति, पत्नी को पीटता है तो वह उसके खिलाफ उन्हीं कानूनी उपायों का सहारा ले सकती है जो किसी दूसरे व्यक्ति के खिलाफ उसे लेने का अधिकार है.  सिर्फ शारीरिक संबंधों से जुड़े मामलों में पति के लिए यह एक अपवाद है. वैवाहिक जीवन की किसी भी अवस्था में अगर पत्नी उस परिकल्पित सहमति से खुद को अलग करना चाहती है तो उसके लिए अलग होकर जीने का रास्ता खुला है. इसके बाद किसी भी तरह का जबरन यौन संबंध धारा 367 (बी) के तहत अपराध होगा.

वैवाहिक स्तर पर रियायत देने के लिए यह तर्क भी दिया जाता है कि यौन संबंधों के मामले में संभावित अपराध का तनाव बिस्तर पर प्रदर्शन को प्रभावित न करे. ये माना जाना चाहिए कि मानव जाति की वंश-वृद्घि के हित में वैवाहिक संबंधों के भीतर पति-पत्नी के बीच बनने वाले शारीरिक संबंधों में दोनों की सहमति है. ऐसा न हो कि हर बार पति-पत्नी को एक-दूसरे को छूने से पहले सहमति पत्र लेने की जरूरत पड़े. अगर पति-पत्नी संबंध बनाने से पहले ये सोचने लगें कि पता नहीं उनकी इस क्रिया  को न्यायाधीश या पुलिस वाले किस रूप में देखेंगे, अगर दोनों में से कोई भविष्य में किसी एक के खिलाफ शिकायत दर्ज करा दे. इससे शारीरिक संबंधों की आदिकाल से चली आ रही गोपनीयता पर भी बुरा असर पड़ेगा. अगर दोनों के मन में ये भावना आ जाएगी कि उन्हें कोई  पुलिस वाला या कोई जज देख रहा है या यूं कहें कि उनकी बेहद निजी क्रिया सार्वजनिक टीका-टिप्पणी और कानूनी आखड़ों से बाहर नहीं है तो फिर ऐसी स्थिति में उस पूरी क्रिया  के आनंद का खात्मा हो जाएगा.

वैवाहिक यौन संबंधों के अपराधीकरण की स्थिति में तो इसका सबसे ज्यादा दुरुपयोग उन पत्नियों द्वारा किया जाएगा जो अपने पतियों से बदला लेना चाहती हैं. सुप्रीम कोर्ट ने बीते साल अर्नेश कुमार के मामले की सुनवाई करते हुए वैवाहिक प्रताड़ना कानून के दुरुपयोग होने पर चिंता जताई. कोर्ट की टिप्पणी थी,  ‘हाल के वर्षों में वैवाहिक विवादों में तेजी से वृद्घि हुई है. देश में विवाह संस्था को बहुत आदर प्राप्त है. भारतीय दंड संहिता में 498 ए को पति या परिवारवालों के हाथों किसी स्त्री की प्रताड़ना के खिलाफ हथियार के रूप में लाया गया था. 498 ए संज्ञेय धारा है. इसके तहत गिरफ्तार हुए आरोपी को जमानत नहीं मिलती है, लेकिन ऐसा देखने में आया है कि कई महिलाओं ने इसका दुरुपयोग किया है. उन्होंने पति और उसके परिवारवालों को प्रताड़ित करने के लिए इस धारा का इस्तेमाल किया. इस धारा के तहत पति और उनके रिश्तेदार की गिरफ्तारी बहुत आसानी से हो जाती है. कई मामलों में पति के निशक्त माता-पिता या दशकों से विदेशों में रहनेवाले उसके भाई-बहनों की भी गिरफ्तारियां हुईं.’ 498 ए के तहत तीन साल की कैद और बलात्कार साबित होने पर उम्रकैद की सजा होती है. मामूली प्रावधान के चलते कानून के दुरुपयोग के इतिहास को देखते हुए कोई भी इसके गलत इस्तेमाल करने की संभावनाओं से इंकार नहीं कर सकता. ज्यादातर वकील आपराधिक कानूनों के वैवाहिक क्षेत्र तक फैलने के प्रति सचेत करते हैं.

इस कानून की नीति में वैवाहिक पुनर्मिलाप की सुविधा भी होनी चाहिए एक पक्ष को आपराधिक न्याय व्यवस्था की बेपनाह छूट दे देना अनियमितताओं से भरा और बहुत ही बुरा है. स्त्री-पुरुष के बीच के संघर्ष को लेकर इस बात की इजाजत नहीं दी जानी चाहिए कि यह विवाह संस्था को ही खत्म कर दे.

शादी या बलात्कार का अधिकार

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आश्रय संबंधी सामान्य नियमों के अनुसार, कहा गया है कि विवाह के साथ ही स्त्री, अपने पति को यह अधिकार दे देती है कि वो जब चाहे अपनी इच्छानुसार उससे शारीरिक संबंध बना सकता है और इस नियम में किसी भी प्रकार का बदलाव नहीं हो सकता. हालांकि कनाडा, दक्षिण अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में इसे रद्द कर दिया गया है. जस्टिस वर्मा कमेटी का कहना है, ‘हमारा दृष्टिकोण ‘सीआर वी यूके’ मामले में यूरोपियन कमीशन ऑफ ह्यूमन राइट्स से प्रेरित है जिसके अनुसार एक बलात्कारी सिर्फ बलात्कारी होता है, भले ही उसका पीड़ित से कोई भी संबंध हो.’ कमेटी ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की सैंड्रा फ्रेडमैन की बात का हवाला देते हुए कहती है, ‘विवाह को स्त्री के कानूनी और यौनिक अधिकारों के खत्म हो जाने के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए.’ वर्मा समिति 1993 में आए ‘महिलाओं के खिलाफ हिंसा के उन्मूलन की घोषणा’ और उससे पहले आए ‘महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के सभी रूपों के उन्मूलन का समागम (सीईडीएडब्ल्यू)’ का हवाला देते हुए अपनी बात आगे बढ़ाती है. फरवरी 2007 में संयुक्त राष्ट्र की सीईडीएडब्ल्यू कमेटी ने सिफारिश की थी कि भारत को चाहिए कि वह अपने दंड संहिता में बलात्कार की परिभाषा का दायरा और बढ़ाए ताकि महिलाओं द्वारा भोगे जा रहे यौन उत्पीड़न की व्यथा को समझकर उसका कोई समाधान निकाला जा सके. साथ ही ‘वैवाहिक बलात्कार’ को अपवाद की श्रेणी में न रखकर ‘बलात्कार’ की श्रेणी में रखा जाए. (25 जून 1993 को भारत ने सीईडीएडब्ल्यू को अंगीकार किया था.) यहां वर्मा कमेटी का कहना था कि महिलाओं के प्रति हो रही घरेलू हिंसा से निपटने के लिए देश में अपेक्षित कानून का न बन पाना एक प्रकार से अंतरराष्ट्रीय परंपरा के उल्लंघन के रूप में देखा जाएगा. फिर भी इसके खिलाफ आवाज उठानेवालों में तमाम वकील कानूनविद, राजनीतिक दलों के सदस्य और धार्मिक गुरु और विद्वान शामिल हैं. अब तक केंद्र में रही सरकारों, चाहे वो यूपीए सरकार हो या वर्तमान की राजग सरकार, दोनों ने ही वैवाहिक बलात्कार को लेकर यथास्थिति बनाए रखने पर ही जोर दिया है. धर्म और राजनीति दोनों मिलकर इस मुद्दे को और जटिल बना रहे हैं. हाल ही में इस्लाम और ईसाई धर्म के कुछ उपदेशक सरकार के इस रवैये के समर्थन में नजर आ रहे थे.

इस्लाम के अनुसार ‘बलात्कार’ और ‘वैवाहिक बलात्कार’ में कोई फर्क नहीं है. इसलिए दोनों तरह के अपराधों की सजा एक ही होनी चाहिए. भारतीय दंड संहिता में संशोधन की जरूरत है ताकि वैवाहिक बलात्कार की स्थिति में महिलाओं को उचित न्याय मिल सके. इसके बिना स्त्री-पुरुष समानता की बात करना बेमानी है

मौलाना वहीदुद्दीन खान, इस्लामिक विद्वान

बहरहाल सरकार का अपना मत है. पिछले साल दो जुलाई को राजग सरकार ने कहा था कि घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005 यौन हिंसा समेत सभी प्रकार की हिंसा से स्त्रियों का बचाव करता है. इसके बाद हाल ही में हुई आलोचनाओं से अपना बचाव करते हुए सरकार ने जवाब दिया कि साल 2000 में आई विधि आयोग और 2003 की संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट में वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में रखे जाने के विचार को सिरे से खारिज कर दिया गया था. बलात्कार संबंधी वर्तमान कानूनों को देखते हुए विधि आयोग का कहना था कि अगर वैवाहिक बलात्कार को अपवाद न मानकर आईपीसी के तहत अपराध की श्रेणी में रखा गया तो ये वैवाहिक संबंधों में कानून का हस्तक्षेप और ज्यादा बढ़ा देगा.

प्रख्यात अधिवक्ता राम जेठमलानी भी इस पहलू का समर्थन करते हुए कहते हैं, ‘अगर आपकी शादी में सब कुछ ठीक नहीं है और पति द्वारा पत्नी पर जोर-जबरदस्ती का आरोप है तो पत्नी के पास उसे छोड़कर जाने का विकल्प हमेशा खुला रहता है. विवाह संबंधों के बीच बलात्कार के प्रावधान को क्यों लाया जाना चाहिए? घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम और आईपीसी की धारा 498ए के तहत महिलाओं को नागरिक अधिकार मिलते हैं.’ इसके इतर समय-समय पर कई सांसदों ने वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में रखने की पैरवी की है, मगर उनकी पार्टी इससे इत्तेफाक नहीं रखती. सीपीएम की पोलितब्यूरो सदस्य बृंदा करात कहती हैं कि विवाह के प्रमाण पत्र को जबरन संबंध बनाने का लाइसेंस नहीं माना जा सकता. कई बार संसद में भी सांसदों ने ये मुद्दा उठाया मगर उनकी आवाज कानून में किसी तरह का बदलाव करने लायक समर्थन नहीं जुटा पाई. पिछली बार संसद में इसकी गूंज यूपीए सरकार के कार्यकाल में सुनाई दी थी. मार्च 2013 में गृह मंत्रालय की संसदीय स्थायी समिति की ओर से आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2012 पर 167वीं रिपोर्ट पेश की गई थी. तब समिति ने जस्टिस वर्मा कमेटी की ओर से दी गईं सिफारिशों को अस्वीकार कर दिया था. आईपीसी की धारा 375 पर चर्चा करते हुए समिति के कुछ सदस्यों ने सुझाव दिया था कि विवाह के समय दी गई सहमति को हमेशा के लिए नहीं माना जा सकता और अगर पत्नियों को इतनी स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वे संबंधों के बीच वैवाहिक बलात्कार का मुद्दा उठा सकें. हालांकि कुछ सदस्यों का ये भी मानना था कि इसे अपराध का दर्जा देने से विवाह नाम संस्था खतरे में पड़ सकती है. राजग सरकार में संसदीय मामलों और शहरी विकास मंत्री एम. वेंकैया नायडू ने इस समिति की अध्यक्षता की थी. उस वक्त आई कुछ मीडिया रिपोर्टों की माने तो नायडू का भी यही कहना था कि अगर वैवाहिक बलात्कार को अपराध माना गया तो समाज में परिवार नाम का तंत्र खत्म हो जाएगा.

इस समिति के प्रस्तावों को लेकर तत्कालीन सांसद डी. राजा और सीपीआई के प्रसंता चटर्जी ने असहमति जाहिर की थी. उनका कहना था कि वैवाहिक बलात्कार को अपवाद मानना भारतीय संविधान के उस प्रावधान के खिलाफ है जिसमें महिलाओं को पुरुषों के बराबर का दर्जा दिया गया है और जो उन्हें पूर्ण स्वतंत्रता से, किसी भी हिंसा के बिना (शादी के पहले या बाद) सम्मान से जिंदगी जीने का अधिकार देता है. उन्होंने इस बात पर भी आपत्ति दर्ज कराई कि अलग रह रही बीवी पर किए गए यौन उत्पीड़न को भी आईपीसी की धारा 376बी के तहत रखा जा रहा है जो सामान्य स्थिति में उत्पीड़न की धारा है, जबकि विवाह के बाद किया गया दैहिक शोषण ज्यादा गंभीर है.

वैवाहिक बलात्कार को अपराध करार देने से शादी का स्वरूप ही नष्ट हो जाएगा. यौन सुख या शारीरिक सुख लेना शादी का एक सहज हिस्सा है. मियां-बीवी दोनों को ये समझना चाहिए. इस्लाम किसी भी प्रकार की जबरदस्ती या जबरन संबंध बनाने का समर्थक नहीं है. स्त्री हो या पुरुष दोनों को समानता का अधिकार है

प्रोफेसर अखतरुल वसी, पद्मश्री

वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में लाने के लिए छिड़ी बहस में तमाम धार्मिक विद्वान और उपदेशक भी इसके विरोध में खड़े नजर आ रहे हैं. जामिया मिलिया इस्लामिया में ‘इस्लामिक स्टडीज’ पढ़ाने वाले पद्मश्री अख्तरुल वसी के मुताबिक वैवाहिक बलात्कार को अपराध करार देने से शादी का स्वरूप ही नष्ट हो जाएगा. वे कहते हैं, ‘यौन सुख या शारीरिक सुख लेना शादी का एक सहज हिस्सा है. मियां-बीवी दोनों को ये समझना चाहिए.’ दूसरी तरफ वे ये भी कहने से नहीं चूकते कि इस्लाम किसी भी प्रकार की जबरदस्ती या जबरन संबंध बनाने का समर्थक नहीं है.

जाने-माने इस्लामिक विद्वान मौलाना वहीदुद्दीन खान एक विपरीत दृष्टिकोण रखते हैं. उनके मुताबिक, ‘इस्लाम के अनुसार ‘बलात्कार’ और ‘वैवाहिक बलात्कार’ में कोई फर्क नहीं है. इसलिए दोनों की सजा एक ही होनी चाहिए.’

सीरियन ऑर्थोडॉक्स चर्चेस (उत्तर भारत) के अध्यक्ष बिशप पॉलस मार डिमिट्रिअस ने वैवाहिक बलात्कार पर हो रही विवेचना में अपनी राय साझा की. इसे अपनी निजी राय बताते हुए वे कहते हैं, ‘वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में लाना उतना असरदार नहीं होगा जितना ये सुनने या देखने में लग रहा है. यह एक समस्या को तो खत्म कर देगा मगर दूसरी कई समस्याओं को जन्म देगा. हम लोग विवाह की पवित्रता में विश्वास रखते हैं और इसमें साथी से जबरदस्ती बनाए गए संबंधों के लिए कोई जगह नहीं है.’ वहीं अगर सैद्धांतिक तौर पर देखा-परखा जाए तो ये बात देवदूत पॉल की उस शिक्षा के बिलकुल विपरीत है, जिसमें वे कहते हैं, ‘एक पत्नी की देह पर उसका कोई अधिकार न होकर उसके पति का अधिकार होता है, इसी प्रकार पति के शरीर पर उसका नहीं बल्कि पत्नी का अधिकार होता है.’ ये वाक्य बाइबल की ‘बुक वन कोरिंथिअंस (7:4)’ में लिखा हुआ है, जिसका सीधा अर्थ यह है कि विवाह हो जाने के बाद पति-पत्नी का एक दूसरे की देह पर सामान रूप से पूर्ण अधिकार होता.

इस मुद्दे पर दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधन कमेटी के मीडिया सलाहकार परमिंदर सिंह भी सरकार के साथ हैं. उनका कहना है, ‘पश्चिमी परंपराओं को भारतीय परंपराओं में नहीं मिलाना चाहिए क्योंकि हिंदुस्तानी महिलाएं अपने पति या उसके किए गए किसी काम पर उंगली नहीं उठातीं.’ वे साफ शब्दों में कहते हैं, ‘पत्नी की मर्जी के बिना पति द्वारा बनाए गए शारीरिक संबंधों को हिंदुस्तान में बलात्कार की श्रेणी में नहीं रखा जाना चाहिए. हम इसका विरोध करते हैं.’  दोनों पक्षों को सुनने-समझने के बाद यही लगता है कि वैवाहिक बलात्कार का समाधान या तो अलगाव है या शादी का खारिज होना जिसके अपने प्रभाव और नतीजे हो सकते हैं. इन्हीं नतीजों को ध्यान में रखते हुए भारत में परिवार न्यायालय के साथ मजिस्ट्रेट घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम के तहत मामलों में दोनों (मियां-बीवी) को पहले सलाह देते हैं. अगर पति फिर भी नहीं सुधरते या बीवी के प्रति अपना व्यवहार नहीं बदलते तब तलाक ही एकमात्र उपाय रह जाता है.

‘लोग विवाह की पवित्रता में विश्वास रखते हैं और इसमें साथी से जबरदस्ती बनाए गए संबंधों के लिए कोई जगह नहीं है.’

एक तथ्य ये भी है कि महिलाएं ऐसे मामलों में उतनी बेबस नहीं होतीं जितनी दिखती हैं. मतलब उन्हें कई तरह के कानूनी अधिकार मिले हुए हैं. वे घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम के तहत मजिस्ट्रेट से मदद मांग सकती हैं. वहीं आईपीसी के प्रावधानों के तहत पत्नियां जो पति से अलग हो चुकी हैं, उनके खिलाफ बलात्कार की शिकायत कर सकती हैं. इस अधिनियम में महिलाओं को दोहरा लाभ मिलता है. पहली, वे चाहें तो उसी घर में पति या फिर लिव-इन पार्टनर के साथ रह सकती हैं और दूसरी, वह व्यक्ति अपनी शारीरिक जरूरतें उसके ऊपर थोप नहीं सकता. शिक्षाविद मीनाक्षी मुखर्जी बताती हैं, ‘अग्रणी माने जाने वाले पश्चिमी देशों में भी महिलाएं वैवाहिक बलात्कार की शिकायतें दर्ज करवाती हैं मगर ठोस नतीजा तभी मिलता है जब वे तलाक ले लेती हैं. भारतीय परिप्रेक्ष्य में औरतों के आर्थिक रूप से स्वतंत्र न होने के कारण बात तलाक तक पहुंचती ही नहीं.’

इन सब के बीच एक सच यह भी है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51ए में साफ-साफ दर्ज है कि हर नागरिक का मौलिक कर्तव्य है कि अगर वो किसी भी महिला/महिलाओं के प्रति कोई अपमानजनक या घृणित कृत्य होते देख रहा है तो उसे उस बात का पुरजोर विरोध करना चाहिए. इन सबके बीच ये बात भी भुला दी गई है कि वैवाहिक बलात्कार मात्र भावातिरेक में किया गया अपराध ही नहीं है बल्कि सामान्य मानवधिकारों का भी गंभीर उल्लंघन है. अनिल कौल कहते हैं, ‘अगर पत्नी द्वारा लगाए गए वैवाहिक बलात्कार के आरोप पति पर सिद्ध हो जाते हैं तो उसे इस बिना पर तलाक लेने का अधिकार मिलना चाहिए. उसी तरह अगर ये आरोप किसी निजी स्वार्थ या ओछेपन की भावना से लगाए गए हों तो इनकी सजा उसी आधार पर निर्धारित होनी चाहिए.’

शादी या बलात्कार का अधिकार

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पिछले साल वैलेंटाइन डे यानी 14 फरवरी को जब पूरी दुनिया प्यार की खुमारी में डूबी एक-दूसरे को प्यार का पैगाम दे रही थी, तब सरिता (बदला हुआ नाम) बुरी तरह प्रताड़ित और अपमानित होकर खून से लथपथ अपने ही घर के एक कोने में डरी-सहमी पड़ी हुई थी. जिस आदमी से उसने टूटकर प्यार किया और दो साल पहले एक बेहद निजी समारोह में शादी की, वही अब उसे शारीरिक, मानसिक और बेइंतहां यौन प्रताड़ना दे रहा था. उस रोज सरिता के पति ने उसके निजी अंगों में टॉर्च डालकर बुरी तरह पीटने के बाद अप्राकृतिक यौन संबंध बनाया था. उसे याद करते हुए वह बताती हैं, ‘जानवरों के जैसी उसकी वहशियाना हरकत उस दिन चरम पर पहुंच गई थी. मेरे शरीर को नोच-नोचकर उसने छिन्न-भिन्न कर दिया था. मेरे सीने और पैरों पर जहां-तहां उसके काटने के निशान थे. उस वक्त शरीर के कई अंगों ने काम करना बंद कर दिया था.’ सरिता के साथ यह वहशियाना हरकत शादी के कुछ दिनों बाद ही शुरू हो गई थी. महीनों से जारी उत्पीड़न और पिटाई के दौर के बाद इस दर्दनाक यौन प्रताड़ना ने उस दिन को सरिता की जिंदगी का सबसे भयानक दिन बना दिया था. उसकी हालत देख उसके ससुरालवाले भी डर गए थे. वे उसे लेकर तुरंत अस्पताल भागे. अस्पताल में कई दिनों बाद जब वह होश में लौटी तो पता चला कि वह अपने अजन्मे बच्चे को खो चुकी है. सरिता के दर्द का अंत यहीं नहीं था. उसके दर्द का दौर अब भी जारी है. बच्चे को खोने से बुरी तरह टूट चुकी सरिता ने पति की प्रताड़ना के खिलाफ 17 फरवरी 2015 को सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, मगर यहां से भी उसे निराशा हाथ लगी. शीर्ष अदालत ने उसकी याचिका पर सुनवाई करने से यह कहते हुए इंकार कर दिया कि उसका मामला जनहित का मुद्दा नहीं बल्कि बेहद निजी है.


इस साल 29 अप्रैल को केंद्रीय गृह राज्यमंत्री हरिभाई पार्थीभाई चौधरी ने राज्यसभा में एक सवाल का लिखित जवाब देते हुए बताया कि विभिन्न पहलुओं को ध्यान में रखते हुए भारत के संदर्भ में वैवाहिक रिश्तों में बलात्कार की अवधारणा पर विचार नहीं किया जा सकता. डीएमके की सांसद कनिमोझी ने यह सवाल उठाया था. इसका जवाब देते वक्त हरिभाई चौधरी 100 ईसा पूर्व के लगभग लिखी गई ‘मनुस्मृति’ में युवतियों और विवाहित स्त्रियों के रहन-सहन और आचार-व्यवहार की सदियों पुरानी मान्यताओं को समर्थन देते नजर आ रहे थे. कनिमोझी जानना चाह रही थीं कि ‘जबरदस्ती बनाए गए वैवाहिक संबंध’ को भी ‘बलात्कार’ की श्रेणी में लाने के लिए क्या सरकार भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में संशोधन करेगी?

Sanjay Hegde read बेडरुम में कानून का क्या काम |संजय हेगड़े | अधिवक्ता

इसके जवाब में मंत्रीजी का यह तर्क था कि  शिक्षा का स्तर या अशिक्षा, गरीबी, अनगिनत सामाजिक प्रथाएं और जीवन मूल्य, धार्मिक मान्यताएं, विवाह को संस्कार के रूप में देखने की समाज की मानसिकता आदि के चलते ‘विश्वस्तर पर वैवाहिक दुष्कर्म की परिभाषा को भारत में सीधे तौर पर लागू नहीं किया जा सकता.

‘सामाजिक मान्यताओं’ और ‘धार्मिक विश्वास’ के बारे में जब हरिभाई पार्थीभाई चौधरी बात कर रहे थे तो महसूस हो रहा था कि वे ‘मनुस्मृति’ में कही गई बातों को ही आगे बढ़ा रहे हैं. ‘मनुस्मृति’ में महिलाओं पर नियंत्रण रखने की बात कही गई है और ये बताया गया है कि कैसे एक महिला का कर्तव्य अपने पति को संतुष्ट रखना और उसकी आज्ञा मानना है.

सरिता कहती हैं, ‘जब एक लड़की की शादी होती है तब उसके बहुत सारे सपने होते हैं. जैसे- प्यार किए जाने का सपना और अपने साथी के साथ खुशनुमा जिंदगी बिताने का सपना… मगर हकीकत कुछ और ही होती है. मैं और मेरी जैसी दूसरी औरतें एक अलग ही खौफनाक हकीकत का सामना करती हैं.’ दफ्तर में ही सरिता को उनका प्यार मिला और उन्होंने शादी कर ली. उनकी शादी में सबसे बड़ी दिक्कत ये थी कि वह मुस्लिम परिवार से थीं और उनके पति हिंदू. अपने से पहले कुछ दूसरी युवतियों, जिन्होंने ऐसी ही स्थितियों का सामना किया था और जो इस दुविधा में रहीं कि अपने पति के लिए धर्म परिवर्तन करें या नहीं, सरिता ने हिंदू धर्म अपनाने का फैसला किया.

भारतीय दंड संहिता की धारा 375 में मिली छूट को हटाने की जरूरत है क्योंकि यह बराबरी और किसी के जीने के संवैधानिक अधिकारों का हनन करती है. आपराधिक कानून में संशोधन करने के बाद ऐसे मामलों में महिला और दोषी व्यक्ति के रिश्तों की परवाह किए बगैर उसकी ‘सहमति’ को ज्यादा तवज्जो देना चाहिए 

वृंदा ग्रोवर, अधिवक्ता

हालांकि जो एक पूर्ण प्रेम कहानी लग रही थी वो जल्द ही तमाम तरह की दुश्वारियों से घिर गई. सरिता का पति उन्हें बुरी तरह से पीटने लगा था, उन्हें अपमानित करने लगा था और कभी-कभी तो गर्म या ठंडा पानी डालकर बाथरूम में बंद कर देता था. सरिता बताती हैं, ‘मैं अपनी नौकरी पर ध्यान नहीं दे पा रही थी, क्योंकि प्रताड़ना के भयानक पल हमेशा आंखों के सामने तैरते रहते थे. मैं उन्हें भुला नहीं सकती थी. उन पलों की यादें मुझे डराती रहती थीं. वो दर्द अब भी मेरे जेहन में जिंदा है.’

सरिता उन तमाम महिलाओं में से एक हैं जो वैवाहिक बलात्कार का शिकार हुई हैं. ये एक ऐसा मुद्दा है जिसे भारत के रोजमर्रा के जीवन में जगह नहीं मिलती. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार 53 देशों में वैवाहिक बलात्कार अपराध नहीं है. इसमें पाकिस्तान, सउदी अरब के साथ भारत भी शामिल है. तकरीबन 10 प्रतिशत भारतीय महिलाएं ही अपने पतियों द्वारा यौन प्रताड़ना का शिकार हुईं हैं.

सरिता के मामले ने नई दिल्ली में 16 दिसंबर, 2012 को 23 साल की पैरामेडिकल छात्रा के साथ हुए सामूहिक दुष्कर्म के मामले की भी यादें ताजा कर दी हैं. दोनों ही मामलों में दिखाई गई वहशियत लगभग एक जैसी है लेकिन कानून की नजरों में निर्भया के दोषियों को ही दुष्कर्म के मामले में सजा हो सकी. जबकि सरिता के मामले में पति को सजा नहीं हो सकी क्योंकि वैवाहिक रिश्तों में दुष्कर्म को अपराध नहीं माना जाता. आईपीसी की धारा 375 कहती है, ‘अगर एक युवती 15 साल से बड़ी हो तो उसके साथ पति द्वारा यौन संबंध बनाना, दुष्कर्म की श्रेणी में नहीं आता.’ इस अपवाद ने कानूनी पक्षकारों, एनजीओ और सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक धड़े को कार्यपालिका और न्यायपालिका की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाने पर मजबूर किया. इस मामले को लेकर बहस और कानून बनाने की चर्चा गर्म है.

 arvind jain read‘बलात्कार का कानूनी लाइसेंस !’ | अरविंद जैन | अधिवक्ता

अधिवक्ता वृंदा ग्रोवर बताती हैं, ‘कानून की इस धारा को हटाने की जरूरत है क्योंकि यह बराबरी और किसी के जीने के संवैधानिक अधिकारों का हनन करता है. आपराधिक कानून में संशोधन करने के बाद ऐसे मामलों में महिला और दोषी व्यक्ति के रिश्तों की परवाह किए बगैर उसकी ‘सहमति’ को तवज्जो देनी चाहिए.’ अधिवक्ता करुणा नंदी महसूस करती हैं कि पति द्वारा पत्नी से बलात्कार और बलात्कार के दूसरे मामलों में भेद करना बेहद शर्मनाक और पूरी तरह से अतार्किक है. करुणा कहती हैं, ‘कुछ लोग का ऐसा मानना है कि कुछ बलात्कार ‘पवित्र’ और कुछ ‘आपराधिक’ होते हैं. दरअसल यह भेद महिलाओं के खिलाफ सबसे जघन्य हिंसा है.’ एनजीओ ह्यूमन राइट्स वॉच की दक्षिण एशिया निदेशक मीनाक्षी गांगुली विवाह संस्थाओं को सुरक्षा देने की सलाह पर गृह राज्यमंत्री को आड़े हाथों लेती हैं. वह कहती हैं, ‘यह राज्य का काम नहीं कि वह संस्कृति (विवाह संस्था) को बढ़ावा दे. बजाय इसके उसे राज्य के नागरिकों खासकर महिलाओं की सुरक्षा पर ध्यान देना चाहिए.’

यह राज्य का काम नहीं कि वह संस्कृति (विवाह संस्था) को बढ़ावा दे. बजाय इसके उसे राज्य के नागरिकों खासकर महिलाओं की सुरक्षा पर ध्यान देना चाहिए. गृह राज्यमंत्री बेवजह विवाह संस्थाओं की वकालत कर रहे हैं. ऐसी संस्थाओं को चाहिए कि वे महिलाओं को भी वे ही अधिकार दें जो पुरुषों को मिले हुए हैं

मीनाक्षी गांगुली , ह्यूमन राइट वाच की दक्षिण एशिया प्रमुख

16 दिसंबर 2012 को हुए निर्भया बलात्कार कांड के बाद आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम 2013 के तहत हुआ एकमात्र सुधार ये है कि पति द्वारा पत्नी पर अलग रहने की स्थिति में (जब तलाक का मामला कोर्ट में चल रहा हो और वे न्यायिक रूप से अलग रह रहे हों) किए गए यौन शोषण को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 376बी के तहत एक संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध की श्रेणी में रखा गया. इसमें न्यूनतम दो और अधिकतम सात साल कैद व जुर्माने की सजा का प्रावधान है.

Muslim brides sit as they wait for the start of a mass marriage ceremony in Ahmedabad  readदोराहे पर राय | केएन अशोक | दीप्ति श्रीराम

हालांकि ये बात उन नारीवादियों और इस मसले को लेकर काम कर रहे दूसरे कार्यकर्ताओं को संतुष्ट करने में नाकाम रही है जिनका मानना है कि विवाह के भीतर बनाए गए जबरन संबंध को बलात्कार की श्रेणी में रखा जाना चाहिए. कानूनी जानकार अनिल कौल कहते हैं कि ये वास्तविक मुद्दे से भटकाने के लिए बनाया गया एक पर्दा है जिससे शोषण को ढका जा रहा है.

ऐसा करना समाज में फैले पाखंडों को नीतिगत बनाने की कोशिश है. वैसे कानून के जानकारों में कुछ संजय हेगड़े (देखें पेज 46) जैसे भी हैं जो ये मानते हैं कि घरेलू हिंसा या अलग रह रहे दंपतियों के मामलों को छोड़कर कानून को किसी की भी वैवाहिक निजता में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए. हालांकि उनके तर्क के खिलाफ वृंदा ग्रोवर कहती हैं, ‘आईपीसी में धारा 498ए और घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005 की व्यवस्था के बाद क्या निजी है और क्या सार्वजानिक, ये फर्क करना ही मुश्किल हो गया है. कानून तो उसी वक्त परिवार में आ जाता है जब वहां जान-बूझकर किसी महिला को नुकसान पहुंचाया जाता है.

पति द्वारा पत्नी से बलात्कार और बलात्कार के दूसरे मामलों में भेद करना बेहद शर्मनाक और पूरी तरह से अतार्किक है. ये कहां का नियम है कि अपराध के एक जैसे मामले को दो चश्मों से देखा जाए. कुछ लोग ये तथ्य बताते हैं कि कुछ दुष्कर्म ‘पवित्र’ और कुछ ‘आपराधिक’ होते हैं. दरअसल यह भेद महिलाओं के खिलाफ सबसे जघन्य हिंसा है

करुणा नंदी, अधिवक्ता

ग्रोवर की बात का समर्थन करते हुए अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला संघ (एआईपीडब्ल्यूए) की सचिव कविता कृष्णन कहती हैं, ‘जब किसी बस या फुटपाथ पर हुआ बलात्कार कानून के दायरे में है तो बेडरूम में किया गया बलात्कार इससे बाहर कैसे हो सकता है?’

shalini read सेक्स प्रेम की अभिव्यक्ति हो हिंसा की नहीं | शालिनी माथुर| वरिष्ठ लेखिका

वैवाहिक बलात्कार को अपराध मानने को लेकर हुई बहस में अब तक की सबसे बड़ा हस्तक्षेप आपराधिक कानून अधिनियम में संशोधन किए जाने के लिए बनी जस्टिस जेएस वर्मा कमेटी ने किया है. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रहे स्वर्गीय जस्टिस वर्मा के प्रतिनिधित्व में बनी इस कमेटी में हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट की पूर्व मुख्य न्यायाधीश लीला सेठ और पूर्व सॉलीसिटर जनरल गोपाल सुब्रह्मण्यम सदस्य थे. कमेटी का गठन 23 दिसंबर 2012 को किया गया था. कमेटी ने 23 जनवरी 2013 को अपनी रिपोर्ट सौंपी थी. कमेटी की अनुशंसा थी कि वैवाहिक बलात्कार को अपवाद की श्रेणी से हटा देना चाहिए (देखें पेज 43). तर्क ये दिया गया था कि वैवाहिक बलात्कार को माफी या छूट देना विवाह के साथ जुड़ी उस रूढ़िवादी मान्यता को पोषित करता है जिसके अनुसार बीवी को पति की जागीर या संपत्ति समझा जाता है.

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बे‘पटरी’ जिंदगी

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कोई इन्हें कुत्ता कहे या कुछ और… फुटपाथ इनका बसेरा था, है और जो हालात नजर आ रहे हैं, ये आगे भी रहेगा. फुटपाथ पर कोई शौक से नहीं साेता, ये इनकी मजबूरी है. अकेले राजधानी में ही हजारों लोग फुटपाथ पर गुजर-बसर करने को मजबूर हैं. 2011 की जनगणना के मुताबिक देशभर में 17.7 लाख लोग बेघर हैं. कई बार केंद्र और राज्य सरकारें इन तथ्यों की अनदेखी करती हुई दिखती हैं. फुटपाथ पर सोने वाले ये लोग जानते हैं कि देश में क्या चल रहा है और कौन लोग इन्हें कुत्ता कह रहे हैं. इनके मुताबिक बॉम्बे हाईकोर्ट को सलमान की सजा पर रोक नहीं लगानी चाहिए थी. इन घटनाक्रमों को लेकर इस वर्ग में गुस्सा है.


 

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चंदू ब्यास | मधुबनी, बिहार

होटल में खाना बनाते हैं 

‘मैं सन 1986 से दिल्ली में हूं. कुछ नहीं बदला है. उस समय भी ऐसे ही सड़क किनारे सोए रहते थे और आज भी सो रहे हैं. आप मीडियावाले आते हैं, फोटो लेते हैं और चले जाते हैं. पता नहीं आप लोग फोटो खींचकर क्या करते हैं? कुछ होता तो दिखता नहीं. ये सरकारी रैनबसेरे बने हुए हैं… जाइए उसमें और वहां की फोटो लीजिए… पटरी पर सोएं तो सलमान खान या कोई दूसरा अपनी गाड़ी चढ़ा देगा. रैनबसेरों में सोया नहीं जा सकता. इसके बाद कहेंगे कि पटरी पर कुत्ते सोते हैं… हद है… करोड़ों लोग हैं इस देश के अंदर जो पटरी पर सोते हैं… क्या इतने लोग कुत्ते हैं..?

आखिर गरीब करे तो क्या करे? जाएं तो कहां जाए? जाइए… आप अपना काम कीजिए… हमको कुछ नहीं कहना है… आपसे कहने से कुछ बदलेगा तो नहीं न… जाइए..जाइए… सोने दीजिए…’


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बिशनू पंडित | पश्चिम बंगाल

बेरोजगार

‘सलमान खान ने जो किया या कहा वो गलत है. आप मेरी सुनिए. मैं 4 साल पहले अपने गांव से दिल्ली आया था. कुछ समय पहले तक रोज 400-500 रुपये कमाता था… आज बेकार हूं. दाहिना हाथ सूख गया है और दाहिने पैर का घुटना काम नहीं करता. पिछले साल अगस्त की बात है. यहीं सो रहा था. एक गाड़ीवाले ने फुटपाथ पर गाड़ी चढ़ा दी. किसी तरह जान बच गई. कोर्ट में केस चल रहा है. गरीब आदमी हूं. पुलिसवाले भी कुछ नहीं बताते. तारीख पर कोर्ट जाने के लिए पैसे भी नहीं रहते हैं. जिन्होंने गाड़ी चढ़ाई वो अमीर लोग हैं. पता नहीं कोर्ट में क्या फैसला होगा. हम तो चाहते हैं कि उन्हें सजा न दी जाए… हमें मुआवजा मिल जाए… अगर उन्हें सजा मिल भी गई तो उससे मेरे

हाथ-पैर काम तो नहीं करने लगेंगे न? मैं कमा तो सकूंगा नहीं. मेरा जीवन तो बर्बाद ही हो गया न?


 

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राजकुमार | रायपुर,  छत्तीसगढ़

रिक्शा चालक 

‘वर्ष 2000 में दिल्ली आ गया था. हाथ रिक्शा चलाता था. कुछ ही दिन पहले एक बसवाले ने मेरा पैर कुचल दिया. ये देखिए बैंडेज लगा है. रात में बस अड्डे के पास पटरी पर सो रहा था. नींद में पैर थोड़ा नीचे आ गया. बसवाले ने गाड़ी पीछे करते समय चढ़ा दी. अभी तो कोई काम नहीं कर पाता हूं. कभी मंदिर से लेकर खा लेता हूं तो कभी कोई दोस्त-यार खिला देता है. सलमान खान हो या कोई और. जब तक ड्राइवर लापरवाही नहीं करेगा तब तक गाड़ी पटरी पर चढ़ ही नहीं सकती. अब जब उन्हें सजा मिली है तो वो और उनके साथी लोग बेकार की बातें बना रहे हैं. उन्हें चुपचाप अपने किए की सजा भुगतनी चाहिए.’


 

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लालबाबू | बेतिया, बिहार

दिहाड़ी मजदूर 

‘पटरी पर कोई शौक से नहीं सोता है. दिनभर मजदूरी करते हैं, ट्रक से सामान उतारते और चढ़ाते हैं तो दो पैसा मिलता है. लेकिन इतना भी नहीं मिलता कि किराए पर कमरा ले सकें. दिल्ली में 1995 से हैं. हम सलमान खान के फैन हैं. उनकी सारी फिल्में देख रखी हैं. लेकिन एक बात समझ नहीं आई. पहले सलमान को पांच साल की सजा मिली और उसी दिन हाईकोर्ट ने उन्हें जमानत दे दी, क्यों? जब संजय दत्त जेल जा सकता है. ओमप्रकाश चौटाला जेल में रह सकते हैं तो सलमान क्यों नहीं. गलती तो सलमान ने की ही है. बिना शराब पीए गाड़ी पटरी पर नहीं चढ़ती. ई एक गायक है न… अभिजीत. वो कहता कि जो सड़क किनारे सोएगा वो मरेगा. पटरी किसी के बाप की है क्या?’


 

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ताहिरा | आजमगढ़,

उत्तर प्रदेश

‘मेरा लड़का है, शमीम. उसे खून की उल्टी आती है. इसी का इलाज करवाने आई हूं. 14 फरवरी 2015 को दिल्ली आए थे. डॉक्टर आज-कल कर रहे हैं. भर्ती ही नहीं कर रहे हैं. भर्ती होने का इंतजार कर रहे हैं. हर रात इसी बस स्टैंड पर सोते हैं. दिन में भी यहीं रहते हैं. जब यहां धूप आ जाती है तो किनारे चले जाते हैं. क्या करें?’


 

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रमेश | हाजीपुर, बिहार

फूल विक्रेता

‘किसी को भी वैसा नहीं बोलना चाहिए जैसा सलमान खान के साथी लोगों ने बोला है. मैं खुद पिछले 3 साल से पटरी पर सो रहा हूं. क्या करूं इसके अलावे मेरे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं है. पटरी पर जो सोता है उ भी इंसान होता है. उसे भी बुरा लगता है. ई लोग जैसा बोले हैं उ सही बात नहीं है. ऐसा नहीं बोलना चाहिए था. हम सिनेमा नहीं देखते हैं लेकिन पटरी पर सोनेवाले कई लोगों को जानते हैं जो हर नई फिल्म देखते हैं. खासकर सलमान खान का सिनेमा तो लोग जरूरत देखते हैं.’


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अर्जुन शर्मा | नेपाल

दिहाड़ी मजदूर 

‘सलमान खान के साथी लाेगों ने बहुत गलत बोला है… जैसे, फुटपाथ पर सोनेवाले कचरा होते हैं… कीड़े होते हैं… पटरियों पर मर जाते हैं… ये बात गलत है… मैं 1999 से दिल्ली में हूं. खूब मेहनत करता हूं लेकिन इतनी कमाई नहीं होती कि किराये के कमरे में रह सकूं. सरकार ने तो गाड़ी चलाने के लिए और पैदल चलनेवालों के लिए अलग-अलग रूट बना रखा है. पटरी पर सोनेवाले तो पैदल चलनेवालों की जगह पर सोते हैं… तो सलमान खान की गाड़ी पैदलपथ पर कैसे चढ़ गई? ये तो उनकी गलती है न? मदिरा सेवन करके अगर गाड़ी चलाएंगे तो ऐसा ही परिणाम भुगतना पड़ेगा. उनके साथी आैर चाहनेवाले कचरा बोल के हमारा इन्सल्ट कर रहे हैं… ये ठीक बात नहीं है. मैं सलमान खान का फैन था लेकिन इस बात से हमारा दिल दुख गया है. सलमान खान भी इंसान हैं और पटरी पर सोनेवाला भी इंसान है. अगर वो एक्टर है तो क्या हो गया? उन्होंने तो हिरन का भी शिकार कर रखा है. इसका भी केस चल रहा है. ऐसे एक्टर को हम पटरीवाले भी पसंद नहीं करते हैं. हम भी इन्हें दुतकारते हैं.’

 

 

‘फांसी के समय मैं बैजू में पूरी तरह खोया हुआ था’

Girija Shanker3किसी कैदी को फांसी देने के समय वहां उपस्थित होकर रिपोर्टिंग करना बहुत मुश्किलों से भरा रहा होगा? अपने अनुभव साझा करें.

मैंने जब यह रिपोर्टिंग की थी तब मेरी उम्र महज 25 साल की थी. पत्रकारिता के मेरे शुरुआती दिन थे. तब सचमुच यह पता नहीं था कि फांसी की रिपोर्टिंग करना कोई दुर्लभ काम है. देशबंधु, जहां मैं काम करता था, अखबार में रिपोर्टिंग प्रकाशित होने के बाद जब देश भर से प्रतिक्रियाएं आईं और कई पत्र-पत्रिकाओं ने उस रिपोर्ट को प्रकाशित किया तब अहसास हुआ कि हमने कोई महत्वपूर्ण व नायाब रिपोर्टिंग की है.

अखबार के संपादक ने आपको कॅरियर की शुरुआत में ही इतनी बड़ी जिम्मेदारी कैसे दे दी?

इस रिपोर्टिंग का प्रस्ताव मैं और मेरे एक सहयोगी सुनील ने जब अपने संपादक ललित सुरजन को दिया तो उन्होंने हमारा उत्साहवर्द्घन किया और सहर्ष अपनी सहमति दी थी. मेरे वरिष्ठ स्व. राजनारायण मिश्र ने फांसी देखने व रिपोर्टिंग की अनुमति दिलाने में मदद की थी. तब रिपोर्टरों की कोई बीट नहीं होती थी. इससे रिपोर्टर किसी विषय या क्षेत्र में बंधा न होकर हर विषय और विधा की रिपोर्टिंग कर सकता था. इतना ही नहीं, प्रूफ पढ़ने से लेकर पेज जमाने तक का काम रिपोर्टर को ही करना पड़ता था. अक्सर रिपोर्टर ही इवेंट या विषय चुनता था जिसे संपादक के साथ चर्चा कर अंतिम रूप दिया जाता था. संपादक से रिपोर्ट का प्लान बनाने से लेकर काॅपी को अंतिम रूप देने तक जीवंत संवाद बना रहता था. हमारे संपादक ललित सुरजन के अनुभव का लाभ मुझे लंबे समय तक कई मौकों पर मिलता रहा.

इस रिपोर्टिंग से पहले आपने क्या तैयारी की थी?

यह वाकई बहुत मुश्किल मामला था. इससे पहले कभी फांसी की सजा दिए जाने की रिपोर्टिंग का कोई उदाहरण मेरे सामने नहीं था. यह घटना भी जीवन की आम घटनाओं से बिल्कुल अलग थी. अतः इस रिपोर्टिंग पर जाने से पहले कोई तैयारी करना संभव नहीं था. बस, मन में उठते सवालों और जिज्ञासाओं को विस्तार देते हुए उनके जवाब ढूंढ़ने का मानस बना हुआ था. टेपरिकॉर्डर, कैमरा आदि साथ रखने की अनुमति नहीं थी. डायरी भी साथ नहीं थी. केवल सारी घटना को आंखों व कानों के जरिए दिमाग में उतारने की तैयारी भर थी. फांसी की सजा दिए जाने के कुछ दिन पहले जेल अधीक्षक जीके अग्रवाल ने जब यह जानकारी मुझे दी तब से ही इस घटना की रिपोर्टिंग करने का मानस बन गया था. यह जानते हुए भी कि फांसी की सजा दिए जाने के दौरान किसी पत्रकार की उपस्थिति बिना विशेष अनुमति के संभव नहीं होगी. राष्ट्रपति द्वारा मर्सी पिटीशन खारिज होने की सूचना मिलने के साथ ही फांसी की सजा दिए जाने की तारीख तय हो जाती है और जेल में इसकी तैयारियां शुरू हो जाती हंै. इन तैयारियों से मैं तीन-चार दिनों से रूबरू होता रहा और जब फांसी की सजा दिए जाने के दिन से इसे देखने की अनुमति मिली तो वह रोमांचक क्षण था. इस प्रक्रिया को आप रिपोर्टिंग की मेरी तैयारी कह सकते हैं.

फांसी की रिपोर्टिंग तो क्राइम रिपोर्टिंग है. क्या उसके बाद भी आपने क्राइम रिपोर्टिंग की?

मैं क्राइम रिपोर्टर कभी नहीं रहा, न इसमें मेरी कोई दिलचस्पी रही. यह तो एक विशेष घटना थी जिसकी नवीनता ने रिपोर्टिंग के लिए आकर्षित किया था. विकास पत्रकारिता मेरा विषय था और बस्तर में आदिवासियों के विकास की विसंगति पर मेरी रिपोर्ट को 1980 में स्टेट्समैन का रूरल रिपोर्टिंग अवार्ड मिला था. बाद में चुनाव व राजनीति मेरा विषय हो गया और पिछले दो दशक से इसी विषय पर मैं काम कर रहा हूं. लोगों को यह अचरज होगा कि राजनीतिक विश्लेषण के बीच ‘आंखों देखी फांसी’ कहां से आ गई. यह मेरी रिपोर्टिंग का अपवाद भी है और विशिष्ट प्रसंग भी.

हर पत्रकार की यह लालसा होती है कि वह कोई ऐसी रिपोर्ट लिखे जिसकी चर्चा लंबे समय तक होती रहेे. उस समय यह बहुत बड़ी खबर रही होगी. क्या आज की तरह उस समय भी ब्रेकिंग न्यूज जैसी लालसा पत्रकारों के मन में रहती थी?

1978 में जब मैंने यह रिपोर्टिंग की थी तब ब्रेकिंग न्यूज की पत्रकारिता नहीं होती थी. तब नाम कमाना, कॅरियर बनाना पत्रकारों की सोच नहीं होती थी. हां, कुछ अलग, कुछ बेहतर, कुछ नया करने की ललक जरूर होती थी, जो मुझमें भी थी और उसी के चलते फांसी जैसी दुर्लभ रिपोर्टिंग संभव हो सकी.

बैजू की फांसी के समय आपकी मनःस्थिति कैसी थी?

मेरी मनःस्थिति से ज्यादा महत्वपूर्ण बैजू की मनःस्थिति थी जिसे पढ़ने-समझने की कोशिश मैं कर रहा था. बैजू एक अनपढ़ ग्रामीण था जो अपने मनोभावों को शब्दों में व्यक्त करने में असमर्थ था. अतः संवाद से परे दाढ़ी में छिपे उसके चेहरे, उसकी आंखों और उसकी भाव-भंगिमाओं से ही उसकी मनःस्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता था. मेरी मनःस्थिति का तो मुझे खयाल ही नहीं था, मैं तो पूरी तरह बैजू में खोया हुआ था.

बैजू कीे फांसी के लगभग 36 साल बाद किताब की जरूरत महसूस क्यों हुई?

जरूरत कुछ नहीं थी. फांसी की रिपोर्टिंग की चर्चा लंबे समय तक होती रही. कुछ मित्रों ने सलाह दी कि इसे पुस्तक का रूप दिया जाना चाहिए क्योंकि यह दुर्लभ प्रसंग है. काफी समय तक मैं ऊहापोह में रहा कि वाकई ऐसा करना चाहिए और हां, तो कैसे? इसी उधेड़बुन में फांसी की सजा से संबंधित प्रकाशनों से गुजरता गया. अधिकांश सामग्री फांसी की सजा को कायम रखने या समाप्त करने के पक्ष में थी, जिससे मैं बचना चाहता था. मैं फांसी की सजा दिए जाने की घटना तक अपने आपको सीमित रखना चाहता था ताकि पुस्तक रिपोर्टिंग पर ही केंद्रित हो पाए. इसे मैं फांसी की सजा पर व्यापक अध्ययन या शोध प्रबंध नहीं बनाना चाहता था. एक पत्रकार के रूप में अपनी रिपोर्टिंग को केंद्र में रखकर फांसी की सजा से संबंधित तथ्यों को मैंने पुस्तक के रूप में शामिल किया ताकि फांसी की सजा को पाठक समग्रता में जान सकें. धीरे-धीरे पुस्तक का स्वरूप उभरने लगा लेकिन दैनंदिन जद्दोजहद में वक्त नहीं मिल पा रहा था. इसलिये इसे  तैयार करने में बरसों का वक्त लग गया. मेरा आलस्य भी इस देरी की एक वजह रही.

किताब की भूमिका में आपने लिखा है कि  लिखते समय बार-बार काट-छांट करनी पड़ी और बहुत बदलाव भी, जो आपके स्वभाव के विपरीत था. आपसे जानना चाहूंगा.

इस रिपोर्टिंग पर किताब लिखने का खयाल कभी नहीं रहा. जैसा मैंने पहले कहा था कि रिपोर्टिंग करने के पहले मुझे अहसास ही नहीं था कि फांसी की रिपोर्टिंग कोई दुर्लभ रिपोर्टिंग है. लिहाजा न तो घटना से संबंधित कोई नोट्स लिया गया था और न कोई अन्य होमवर्क. फांसी की सजा पाए कैदी बैजू द्वारा बताई गई बातों की तस्दीक करने या उसके गांव जाकर उसके परिवार से मिलने का भी काम नहीं किया जा सकता था. मेरी पूरी एकाग्रता फांसी की सजा दिए जाने की रिपोर्टिंग तक सीमित थी और रिपोर्टिंग के बाद यह चैप्टर समाप्त हो गया था. अब जब इस रिपोर्टिंग को पुस्तक का स्वरूप देेने की पहल हुई तब संकट यह था कि घटना से संबंधित संदर्भ व जानकारियां भी देनी थीं और विषय से बाहर के विस्तार से भी बचना था. कोशिश पूरी थी कि पुस्तक फांसी की रिपोर्टिंग पर ही केंद्रित हो. वैसे भी जब कोई पुस्तक टुकड़ों-टुकड़ाें में व लंबे अंतराल में लिखी जाए तब उसे अंतिम रूप देने में ऐसा होना स्वाभाविक है.

पॉजीटिव खबर चलाइए…

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बरसों बाद इन दिनों एक बार फिर फील गुड का माहौल है, देश-विदेश में फिर इंडिया शाइन कर रहा है. चमकदार लिबास है, चमकदार नेता हैं और चमकदार बातें हैं. जनता ने जितना चाहा था उससे ज्यादा मिल रहा है, पॉलीटिकल लीडर के साथ मोटिवेशनल और स्प्रिचुअल लीडर भी मिल गया है. इस फील गुड से भला मीडिया कैसे अलग रह सकता है. प्रधानमंत्रीजी देश के बाहर थे लेकिन सक्षम संचार के इस युग में एक ऐतिहासिक चिट्ठी उन तक पहुंच गई. देश के एक बड़े अखबार के मालिक ने इस चिट्ठी के जरिए सकारात्मकता के नए आंदोलन की जानकारी प्रधानमंत्री तक पहुंचाई थी. प्रधानमंत्रीजी ने इस जानकारी को विदेश से देश के ही नहीं दुनिया के लोगों तक पहुंचाया. दुनिया को पता चला कि इस वक्त भारत में ही नहीं बल्कि भारत के मीडिया में सकारात्मकता की बयार बह रही है. इस समाचार पत्र में एक पूरा दिन ही पॉजीटिव खबरों के नाम कर दिया गया है. ये बात और है कि देश में असमय बारिश और ओलावृष्टि के कारण किसान त्राहिमाम कर रहे हैं. दिल्ली में मासूमों के साथ बलात्कार का सिलसिला रुक नहीं रहा है. सरकारी महकमों में भ्रष्टाचार बदस्तूर जारी है, नई और वैकल्पिक राजनीति की बात करनेवालों में भी कीचड़ में गिरने की होड़ मची है. और तो और दिल्ली के लुटियंस इलाके में संसद से महज दो किलोमीटर की दूरी पर हजारों की भीड़ और क्रांतिकारी नेताओं, मंत्रियों, मुख्यमंत्री की आंखों के सामने एक आदमी फांसी लगाकर खुुद को खत्म कर लेता है. बकौल मोदी जी और अग्रवाल साहब, मिट्टी डालिए इस मातमपुर्सी पर. माहौल को खुशनुमा बनाइए, अच्छे दिनों की अच्छी बातें लोगों तक पहुंचाइए. पॉजीटिव खबर चलाइए, निगेटिविटी को देश से दूर भगाइये.

करीब पंद्रह साल की पत्रकारिता और अब पत्रकारिता शिक्षण में समाचार की जितनी परिभाषाएं हमने समझी या सुनी है उनमें से पॉजीटिव और निगेटिव वाला ये गूढ़ ज्ञान हमसे न जाने कैसे छूट गया. अब तक तो यही मान कर चल रहे थे कि खबर सिर्फ खबर होती है उसे पॉजीटिव या निगेटिव कैसे कहा जा सकता है. किसी भी समाचार में सबसे प्रमुख तत्व सूचना का होता है और सूचना को निगेटिव मानकर उसे जनता तक पहुंचाने से कैसे रोका जा सकता है. जिसको नकारात्मक कहकर रोकने की वकालत की जा रही है वह नकारात्मकता की सूचना है जिसके सबके सामने आने से ही जो कुछ निगेटिव है उसको खत्म करने की कवायद और बहस समाज में शुरू होती है. पत्रकारिता के मौजूदा परिदृश्य में निश्चित रूप से कई बुराइयां हैं जिनको ठीक करना, उन पर नए सिरे से विचार करना जरूरी है लेकिन खबरों के पॉजिटिव-निगेटिव वर्गीकरण की कतई जरूरत नहीं है. मीडिया एक आईना है. उसमें नजर आनेवाले सच को किसी भी प्रकार का प्रमाण पत्र देने का काम मीडिया का नहीं है.

पत्रकारिता में एक नए प्रयोग के तौर पर राजनीति, समाज और सत्ता के सकारात्मक पहलुओं को सामने लाने को नाजायज नहीं ठहराया जा सकता. शायद विकासात्मक पत्रकारिता की अवधारणा भी यही कहती है किंतु समूची पत्रकारिता को दिशा दिखाने के नाम पर समाचार को नकारात्मक या सकारात्मक ठहराए जाने का विचार बेहद अपरिपक्व है. प्रधानमंत्री जी कथित सकारात्मक खबरों को प्रोत्साहित करने के स्थान पर मीडिया संस्थानों को सच को सच की तरह पेश करने की आजादी का भरोसा देते तो शायद अधिक फलदायी होता.

राहुल की वापसी!

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‘अगर आप गांधी परिवार से नहीं होते तो क्या राजनीति में होते? 27 जनवरी 2014 को टीवी पर प्रसारित एक इंटरव्यू में ‘टाइम्स नाउ’ चैनल के अरनब गोस्वामी ने राहुल गांधी से ये सवाल पूछा था. इसके बाद कुछ समय के लिए एक बेढंगी शांति छा गई थी.

उस समय अगर उन्होंने एक स्पष्ट और प्रभावी ‘हां’ बोल दिया होता तो ये उनके आलोचकों का मुंह बंद करने के साथ उन पर संदेह जतानेवाले लोगों को आश्वस्त भी करता. साथ ही यह उनके भाषण के समय आगे बैठनेवाले लोगों को भी प्रभावित करता लेकिन इसके बजाय इस युवा नेता ने इस सवाल को प्रभावहीन तरीके से समझाने की कोशिश की, जो कि उनकी छवि को और कमजोर साबित करनेवाला हुआ. अप्रैल 2015 में 56 दिन की छुट्टी से लौटने के बाद राहुल गांधी ने एक अनिच्छुक राजनेता होने की अपनी छवि को फिर से तोड़ने की कोशिश की है. दिल्ली के रामलीला मैदान पर 19 अप्रैल को हुई रैली में यह साबित करने की कोशिश की गई कि लगभग दो महीने की छुट्टी के दौरान उन्होंने आत्मचिंतन किया और पार्टी को नई दिशा देने के लिए विचार करते रहे.

रैली में गोलमोल बातें करने के बजाय किसानों को दोपहर के सूरज को चुनौती देनेवाला बताते हुए उन्होंने सीधे कहा था, ‘अपने उद्योगपति मित्रों का कर्ज चुकाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भूमि अधिग्रहण बिल लेकर आए हैं. वह आपकी जमीन उद्यमियों को देना चाहते हैं, जिनसे चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने कर्ज लिया था.’ तीन दिनों के बीच उन्होंने दो बार संसदीय हस्तक्षेप किया. 22 अप्रैल को लोकसभा में नेट न्यूट्रैलिटी पर स्थगन प्रस्ताव के लिए नोटिस दिया और इससे पहले 20 अप्रैल को भूमि अधिग्रहण बिल पर संसद में जोरदार भाषण. उनके विरोधियों ने जो भी उनके बारे में सोचा होगा ये उससे कहीं ज्यादा बेहतर था.

आंकड़े खुद इस बात की मुनादी कर रहे हैं कि वे इसके लिए पूरी तरह से जिम्मेदार नहीं हैं. पिछले 11 साल में जिसमें राहुल संसद के सदस्य रहे, उन्होंने सिर्फ तीन बार भाषण दिया, आठ बार बहस की और सिर्फ तीन सवाल पूछे. इसके अलावा लोकसभा में उनकी उपस्थिति लगातार घटती गई. 14वीं लोकसभा के समय उनकी उपस्थिति 63 फीसदी थी जो 15 लोकसभा  के समय 43 फीसदी पर आ गई.

दूषित आक्रामकता को छोड़ते हुए जनवरी 2014 में जब उन्होंने ‘कांग्रेस एक सोच है. ये सोच हमारे दिल में है’  की बात कही तो उनमें एक बदलाव देखा गया. सितंबर 2013 में उनमें प्रचंड आक्रामकता देखने को मिली जब उन्होंने कहा था, ‘यह अध्यादेश पूरी तरह से बकवास है. इसे फाड़कर फेंक देना चाहिए’ इससे पहले जनवरी 2013 में जयपुर में दिए भाषण में उन्होंने ‘सत्ता जहर है’ की बात कही, जिसके बाद उन्हें कांग्रेस का उपाध्यक्ष बना दिया गया. इन सबको कोई भी उनकी नई छवि के रूप में देख सकता है. राहुल पहले से कहीं अधिक आत्मविश्वासी और शांत नजर आ रहे हैं. यह छवि आक्रामक कम, मुखर ज्यादा है.

इसे ऐसे देख सकते हैं, गांधी के इस वंशज के भाषण ने हाल ही में मोदी सरकार को भी प्रतिक्रिया देने पर मजबूर कर दिया. भूमि अधिग्रहण बिल को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चौतरफा आलोचनाओं से घिरे हुए थे. अपना बचाव करते हुए उन्हें यह तक कहना पड़ा कि उनकी सरकार किसानों और अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए अब भी दृढ़प्रतिज्ञ है. लोकसभा में राहुल ने जिस हाजिरजवाबी और व्यंग्य का परिचय दिया उसका इस्तेमाल मोदी अपने भाषणों में प्रचुर मात्रा में करते थे. जब राहुल ने सरकार की भर्त्सना की और भारत की कृषि आधारित 67 फीसदी आबादी की अनदेखी करती मोदी की इच्छाओं पर सवाल उठाए तब वह सरकारी पक्ष के समक्ष बढ़त लेते नजर आ रहे थे.

राहुल गांधी ने अपनी छुट्टियों का अच्छा इस्तेमाल किया है. उन्होंने अपने भाषण कौशल पर काम किया है. यह अच्छा संकेत है कि उनकी वाकपटुता ने मोदी सरकार को परेशान कर दिया

‘मेरे मन में एक सवाल है. अगर प्रधानमंत्री राजनीतिक गणनाओं को समझते हैं, तो वह क्यों 67 फीसदी से ज्यादा की आबादी के गुस्से को बढ़ाना चाहते हैं?’ राहुल के इस सवाल ने तब सबको आश्चर्य में डाल दिया था. फिर उन्होंने अंतिम प्रहार करते हुए कहा, ‘सिर्फ एक ही जवाब मेरे दिमाग में आ रहा है और वह है, जमीन की कीमतें बहुत ही तेजी से बढ़ रही हैं और आपके उद्यमी साथियों को वे जमीनें चाहिए. यही कारण है कि आप देश के किसानों को कमजोर करने में लगे हुए हैं और फिर आप उन्हें अध्यादेश की कुल्हाड़ी से काट देंगे.’ कांग्रेस पर लंबे समय तक नजर रखनेवालों ने ‘तहलका’ को बताया, ‘लगता है राहुल ने अपनी छुट्टियों का अच्छा इस्तेमाल किया है. उन्होंने भाषण देने के अपने कौशल पर काम किया है. यह अच्छा संकेत है कि उनकी वाकपटुता ने मोदी सरकार को परेशान कर दिया.’ पार्टी का एक धड़ा पहले ही इस युवा नेता को अध्यक्ष बनाए जाने के प्रस्ताव का समर्थन कर रहा है. हालांकि इस प्रस्ताव पर अमरिंदर सिंह, शीला दीक्षित और उनके बेटे संदीप ने विरोध भी जताया है. यूपीए-2 सरकार में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे हरीश खरे इसे युवा गांधी पर विश्वास जताने के उचित समय के रूप में देखते हैं. खरे ने बताया, ‘जितनी जल्दी वह पद संभालेंगे पार्टी के लिए उतना ही अच्छा होगा. सत्ता के दो केंद्रों (सोनिया व राहुल) को लेकर संगठन में बनी भ्रम की स्थिति भी तब खत्म हो जाएगी.’

सवाल कई, जवाब नहीं

इन सबके बीच कई सवाल उठ रहे थे. जैसे- क्या राहुल का नया सुधरा हुआ रूप बहुत देरी से नजर आया? क्या वे पार्टी को असंगतिहीनता के दायरे से निकाल सकते हैं? क्या वे अपने दम पर पार्टी चलाने का माद्दा रखते हैं? इस तरह के कई सवाल हैं लेकिन उनके जवाब किसी के पास नहीं हैं. अपनी किताब ‘द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर द मेकिंग एंड अनमेकिंग ऑफ मनमोहन सिंह’ में संजय बारू लिखते हैं, ‘यूपीए-1 के समय सोनिया और कांग्रेस के पास वास्तव में ‘प्लान बी’ नहीं था. राहुल प्रधानमंत्री पद के लायक नहीं थे और सोनिया, डॉ. सिंह के अलावा दूसरे किसी पर भरोसा नहीं कर सकती थीं. यूपीए-2 के समय ‘प्लान बी’ आकार लेने लगा था क्योंकि तब तक राहुल भी प्रभार लेने के लिए तैयार होते दिख रहे थे.’

दरअसल ये सब कांग्रेस की उस नीति का हिस्सा थे जिसके तहत राहुल गांधी की छवि चमकाकर उन्हें प्रधानमंत्री पद का तार्किक दावेदार बताना था. पार्टी से जुड़े सूत्रों ने बताया कि 2012 में प्रतिभा देवी सिंह पाटिल के उत्तराधिकारी के तौर पर मनमोहन सिंह को भारत के राष्ट्रपति पद पर पदोन्नत करने का प्रस्ताव लाया गया था. मगर यह प्रस्ताव जितनी जल्दी परवान चढ़ा उतनी ही जल्दी लुढ़क भी गया क्योंकि तब तक प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति पद की शपथ ले चुके थे. यहां यह भी बताने योग्य है कि अगर मनमोहन सिंह राष्ट्रपति बनते तो प्रणब की चाहत प्रधानमंत्री बनने की होती जो किसी भी सूरत में गांधी परिवार को स्वीकार्य नहीं था.

पहली और आखिरी बार पार्टी में बदलाव संजय गांधी के समय में किया गया. उस दौरान संजय गांधी ने पार्टी में युवा नेताओं की पौध तैयार की थी, जो पार्टी की अब तक सेवा कर रहे हैं

हालांकि 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के खराब प्रदर्शन ने राहुल की छवि सुधारने के प्रयासों को भी लगभग खत्म कर दिया था. यह स्थिति 2013 की छमाही तक बनी रही. इसके बाद राहुल ने फिर से अपनी छवि सुधारने के प्रयास शुरू कर दिए थे. बारू अपनी किताब में लिखते हैं, ‘संभवतः तब अपनी छवि सुधारने के लिए राहुल ने शासन-प्रशासन को ललकारने को चुना.’  इसे इस घटनाक्रम से समझा जा सकता है कि सितंबर 2013 में गांधी के इस वंशज ने सांसदों और विधायकों को दोषी ठहराए जाने से बचानेवाले यूपीए सरकार के बिल को फाड़कर अपना गुस्सा जाहिर किया था.

राहुल पर भरोसा भी शक भी

यूपीए-1 सरकार में मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू ने तहलका से बातचीत में कहा, ‘राहुल गांधी एक भोले-भाले आदमी है, लेकिन कांग्रेस पार्टी के लिए बोझ हैं.’ मनमोहन सिंह राहुल गांधी से कुशल राजनीतिज्ञ हैं? इस सवाल पर पलटकर जवाब देते हुए उन्होंने कहा, ‘निश्चित रूप से, कोई सवाल ही नहीं, प्रभावशाली भाषण देने के अलावा राजनीति में बहुत से काम हैं (किसी के लिए यह जरूरी है) धैर्य रखना जरूरी बात है.’

संजय बारू ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का पक्ष लेते हुए पार्टी के मामलों में उनकी सक्रियता लगातार बनाए रखने की मांग की. वहीं, कुछ ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि सोनिया गांधी पहले ही पार्टी में एक लंबी पारी खेल चुकी हैं और अब पार्टी को नए नेता की जरूरत है. एक सूत्र ने बताया, ‘छंटनी की प्रक्रिया के बाद एकमात्र शख्स राहुल गांधी ही बचते हैं.’ यह तर्क दिया गया है कि पार्टी को नए सिरे से संगठित करने की जरूरत है और समय-समय पर राहुल इसकी नैतिक जिम्मेदारी लें. पहली और आखिरी बार नए सिरे से पार्टी में बदलाव संजय गांधी के समय में किया गया था. उस दौरान संजय गांधी ने पार्टी में युवा नेताओं की पौध तैयार की थी, जो पार्टी की अब तक सेवा कर रहे हैं. इनमें कमल नाथ, अहमद पटेल, अशोक गहलोत और पीसी चाको शामिल थे, जिन्होंने संजय गांधी के समय पर अपनी महत्वाकांक्षाओं को सीमित रखा.

बनी हुई है चुनौती

इसलिए अगर राहुल भविष्य में पार्टी का नेतृत्व करना चाहते हैं तो कैसे आगे बढ़ें इस पर सोचना चाहिए. इस पर लोगों के बहुत से मत हैं. इमेज गुुुरु दिलीप चेरियन के मुताबिक, ‘एक नेता की तीन खूबियां होनी चाहिए- िनरंतरता, ब्रांड वैल्यू और अपने कार्यों से खुद की भूमिका साबित करना.’ चेरियन ने बताया, ‘राहुल ने अपनी स्थिरता से खिलवाड़ किया. कुछ समय के लिए वह एंग्री यंगमैन होते हैं तो कुछ समय के लिए राजनीति से गायब हो जाते हैं तो कभी बेअसर युवा की भूमिका में होते हैं.  दुर्भाग्यवश जब वह खुद को चित्रित करते हैं तो लोगों को पता नहीं होता कि उनसे क्या अपेक्षा की जाए.’ चेरियन ने उम्मीद जताई कि कांग्रेसी अगर राहुल गांधी पर विश्वास जताएं तो उन पर इस बात का दबाव बनेगा कि वह निरंतर बने रहें, उपलब्ध रहें और अचानक गायब न हों. जब युवा गांधी ने गरीब समर्थक, दलित समर्थक और किसान समर्थक रवैया अख्तियार कर लिया है, तो उन्हें भाजपा के इस खाली गढ़ पर हमला बोलना चाहिए, इसके खिलाफ वंचित अल्पसंख्यकों को साथ लेना चाहिए जो भाजपा पर सवाल खड़े कर रहे हैं. तार्किक रूप से यह उनके लिए बड़ा कैनवास बन सकता है. चेरियन की सलाह है कि राहुल गांधी जल्द ही सोशल मीडिया पर आ जाएं.

जब युवा गांधी ने गरीब समर्थक, दलित समर्थक, और किसान समर्थक रवैया अख्तियार कर लिया है, तो उन्हें अल्पसंख्यकों को साथ लेना चाहिए जो भाजपा पर सवाल खड़े कर रहे हैं

‘टाइमलेस लीडरशिपः 18 लीडरशिप सूत्राज फ्रॉम भगवद गीता’ किताब के लेखक और आईआईएम लखनऊ के प्रोफेसर देवाशीष चटर्जी ने बताया, ‘राजनीतिक नेतृत्व, संगठनात्मक नेतृत्व से कहीं ज्यादा कठिन है. राहुल को किसी तरह स्थिर और निरंतर रहना होगा. उन्हें आगे बढ़नेवाली टीम को रखना होगा, जिसमें पूरक क्षमताओंवाले लोग शामिल हों. उन्होंने सतर्क करते हुए कहा कि अधिक गरीब समर्थक होना, कॉर्पोरेट विरोधी होना नहीं होता, इसमें बहुत बारीक फर्क होता है.

विचारणीय बिंदु

बॉब डिलन मुश्किल से 21 साल के थे जब उन्होंने ये यादगार पंकि्तयां लिखीं, ‘हाऊ मैनी रोड्स मस्ट अ मैन वॉक डाउन, बिफोर यू कॉल हिम अ मैन’. यह गीत लिखने के तकरीबन 53 साल बाद 16 अप्रैल को राहुल एक नई  शुरुआत करने के लिए अपने घर लौटे. अपने भाषण में उन्होंने काफी तंज कसा है लेकिन क्या इस समय में वे इसी तरह बने रहेंगे?

पार्टी निश्चित रूप से आशा करती है लेकिन राहुल खुद ही पहले कह चुके हैं, ‘एक व्यक्ति जो घोड़े पर सवार होकर आता है उसके पीछे सूरज अस्त हो रहा है और करोड़ो लोग उसका इंतजार कर रहे होते हैं’ क्या खुद वह कांग्रेस में सब कुछ समय पर ठीक कर सकेंगे.

मगर क्या राहुल में मोदी को चुनौती देने की क्षमता है ?

क्या वाकई राहुल मोदी को चुनौती देने की क्षमता रखते हैं? इस संबंध में कुछ ने ये तर्क दिया कि लोगों में गलत धारणा है कि नेतृत्व क्या था और इसके अंदर क्या समाहित है. अभी आम धारणा बनी है कि जो भी चुनाव में जीत दिलवाता है, वही नेता है. इसका मतलब यह है कि चुनाव में हारनेवाले को नेता के तौर पर नहीं देखा जाता. पार्टी का वह धड़ा जो कि राहुल के साथ था, उसे विश्वास था कि कांग्रेस को उनके नेतृत्व की जरूरत है और साथ मिलकर काम किया जाए.

तो चिदंबरम की उस टिप्पणी को कैसे देखा जाए जो उन्होंने अक्टूबर 2014 में एनडीटीवी पर कहा था, ‘गांधी परिवार के बाहर का भी कोई शख्स पार्टी का अध्यक्ष बनाया जा सकता है? (क्या गैर-गांधी परिवार से कोई अध्यक्ष बन सकता है? चिदंबरम से ये सवाल पूछा गया था. तब उन्होंने जवाब दिया था, ‘हां, किसी दिन, मैं ऐसा सोचता हूं.’) नेतृत्व को लेकर पार्टी की दुविधा का पता संजय बारू की किताब से भी चलता है, जिसमें उन्होंने लिखा कि पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने भी यह विश्वास जताया था कि एक राजनीतिक संगठन जो कि एक सदी पुराना है, जिसने स्वतंत्रता आंदोलन में भी हिस्सा लिया है, उसे नैतिक रूप से खुद भी नेहरू-गांधी के अलावा अपने बारे में सोचना चाहिए.

हालांकि बारू ने कम्युनिस्ट नेता स्वर्गीय मोहित सेन का जिक्र करते हुए बताया, ‘उन्होंने कहा था कि शीर्ष पर नेहरू-गांधी परिवार के किसी सदस्य के बिना कांग्रेस टूट जाएगी, बिखर जाएगी.

संयोग से 1996 में कांग्रेस के संसदीय चुनाव हारने के बाद पार्टी के कुछ नेताओं ने मांग की थी कि राव को पार्टी अध्यक्ष पद से हटाया जाना चाहिए. उनमें से एक कमल नाथ ने कहा था, ‘जब टीम हार रही है तो उसके कप्तान को इस्तीफा दे देना चाहिए. हालांकि 2014 के आम चुनावों के बाद पार्टी के किसी नेता ने इस तरह की कोई मांग नहीं की. इसके बाद सोनिया और राहुल ने इस्तीफा देने की पेशकश की थी लेकिन कांग्रेस कार्य समिति ने ताबड़तोड़ एक प्रस्ताव पासकर दोनों की नेतृत्व क्षमता पर पूरा विश्वास प्रकट किया था.

बहरहाल आगे बढ़ते हुए राहुल गांधी से उम्मीद की जाती है कि वह राजनीति में माहिर बनें, न सिर्फ सरकार पर सवाल उठाएं बल्कि समान विचारधारावाले दलों के साथ अच्छे संबंध बनाएं. सीमित न रहें और गठबंधन के नए रास्ते खोजें. तभी मोदी को जोरदार चुनौती दी जा सकती है.  हाल ही में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के महासचिव बनाए गए सीताराम येचुरी अपने पूर्ववर्ती प्रकाश से कहीं ज्यादा उदार और सुलभ हो सकते हैं. ऐसे में राहुल गांधी और येचुरी को मिलकर एक समान रणनीति बनानी चाहिए ताकि केंद्र सरकार को चुनौती दी जा सके.

एकला चलो रे…

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सीताराम येचुरी के पास स्पष्ट नजरिया है लेकिन उन्हें धुंधलकों से भरे रोडमैप के सहारे संघर्षों से पार पाना होगा. हालांकि येचुरी अपार क्षमताओं से भरे हुए हैं और वे तमाम कठिनाइयों और विरोधाभासों से पार पाने के लिए जाने जाते हैं. वे अपने नजरिए और मान्यताओें को स्थापित करने के लिए जाने जाते हैं. नेतृत्व कौशल से भरपूर 62 वर्षीय येचुरी को यह पता है कि उनके सामने अलीमुद्दीन स्ट्रीट से लेकर एके गोपालन भवन तक चुनौतियों का पहाड़-सा खड़ा है. संभव है कि इन चुनौतियों को दूर करने के लिए उन्हें पार्टी में पुनर्निर्माण की प्रक्रिया चलाने की दरकार होगी.

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) यानी माकपा के नए प्रमुख को इस बात का भी खयाल रखना होगा कि पार्टी के अंदर वरिष्ठ नेता वीएस अच्युतानंदन सहित दूसरे बड़े नेता भी हैं, जो पार्टी के अंदर निर्णय लेने की भूमिका में रहे हैं, उनकी किसी तरह की उपेक्षा न हो और तत्काल तकरार जैसी कोई स्थिति न पैदा हो.

येचुरी की कुशाग्रता और उनकी प्रतिभा का जश्न मनाया जा चुका है और उनकी बुद्घिमत्ता वामपंथ के करीबी लोगों के बीच स्वीकार्य है. वे इस बारे में टिप्पणी भी कर चुके हैं. येचुरी के हाथ में व्यावहारिक चुनौतियां ये हैं कि वे अपनी प्रतिभा से पार्टी की साख को कितना विस्तार दे पाएंगे? क्या वे ग्रीस और लातिन अमेरिका में वामपंथ के अनुभवों से सीख लेंगे और उसके आधार पर नेतृत्व दे पाएंगेे?

वामपंथ को कमजोर छवि से बाहर निकालने का जिम्मा

येचुरी का लोगों से मेलजोल का कौशल बहुत बड़ा है. वामपंथ के पुराने लोग एक कहानी याद करते हैं कि कैसे ज्याेति बसु ने येचुरी को ‘खतरनाक’ कॉमरेड बताया था. श्रद्घेय ज्योति बसु ने येचुरी के लिए ऐसा कहने के पीछे यह वजह बताई थी कि वे बहुत सारी भाषाओं में बहुत सहजता से संवाद कर सकते हैं. वे बंगाल के कॉमरेडों के साथ बांग्ला में बात कर सकते हैं. ठीक इसी तरह वे दूसरी भारतीय भाषाओं में अच्छी तरह संवाद कर लेते हैं. लेकिन माकपा प्रमुख होने के नाते उन्हें उत्साह व प्रेरणा से भर देनेवाली भाषा में बात करनी होगी ताकि वामपंथ की कमजोर छवि से उसे बाहर निकाला जा सके.

2004 में कांग्रेस नेतृत्ववाली केंद्र की यूपीए सरकार को माकपा ने समर्थन दिया था तो फिर वह पश्चिम बंगाल के आगामी चुनाव में कांग्रेस का साझीदार क्यों नहीं बन सकती है

क्या इस तीक्ष्ण बुद्घिवाले प्रबंधक के नेतृत्व में वामपंथ नया रोडमैप बनाने के बारे में पुनर्विचार करेगा? येचुरी बहुत विकट परिस्थितियों में आत्मविश्वास से भरे होते हैं और अखंडित वामपंथ और माकपा को बदलने में उनकी सकारात्मक सोच महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी. संभव है कि पार्टी जड़ता और समस्याओं से घिरी हो लेकिन पार्टी की पतवार अब जोरदार नए प्रमुख के पास तो है ही. यहां एक बुनियादी सवाल यह पैदा होता है कि अकेले दम पर येचुरी पार्टी (माकपा) का भविष्य बदलने में कहां तक कामयाब हो पाएंगे? इस बारे में पार्टी के एक सक्रिय कार्यकर्ता तंज कसते हुए कहते हैं, ‘प्रकाश करात के जमाने से चली आ रही विरासत के तौर पर समस्या का अंत तो हुआ. अब हम कम से कम नए क्षितिज की ओर देख तो सकते हैं.’

पहाड़-सी चुनौतियां

वाम की दिलेरी मात्र से नव-उदारवाद और घोर पूंजीवाद की समस्याओं  से निपट पाने में शायद ही कामयाबी मिल पाएगी और इसके दम पर तुरत-फुरत शायद ही बदलाव की संभावना निकाली जा सकेगी. माकपा के महासचिव ने राजग सरकार को राष्ट्रपति के धन्यवाद अभिभाषण के दौरान एक संशोधन के लिए दबाव डालकर मुश्किल में डाल दिया था. इस तेजतर्रार नेता को असली चुनौती तो पोलित ब्यूरो और केंद्रीय समिति में मिलनेवाली है जहां उन्हें गैर-समझौतावादी कॉमरेडों से नई राजनीतिक चुनौतियों से पार पाने के लिए तौर-तरीकों में बदलाव लाने के बारे में उनकी हठधर्मिता से जूझना होगा.

पार्टी के विशाखापत्तनम सम्मेलन को लेकर थोड़ा गौर फरमाना जरूरी होगा. येचुरी को अच्युतानंदन के अलावा केरल इकाई की घोर नकारात्मक ताकतों से भी जूझना होगा. लेकिन सच तो यह है कि पार्टी खुद भी इनको लेकर उधेड़बुन में रही है और करात भी व्यक्तिगत तौर पर इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं थे कि बुद्घिमत्ता, हठधर्मिता पर जीत दर्ज कर लेगी.

माकपा का पार्टी कांग्रेस (सम्मेलन) इस मायने में ऐतिहासिक हो गई कि इसमें पहली बार ऐसा हुआ जब पोलित ब्यूरो इस निर्णय पर एकमत नहीं हो पाया कि पार्टी का नेतृत्व कौन करेगा और यह असमंजस की स्थिति तब है जब पार्टी अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. प्रतिस्पर्द्घी केरल इकाई ने एस. रामचंद्रन पिल्लई के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाया. यहां तक कि उन्होंने बंगाल इकाई के लोगों से सीताराम येचुरी को अगले महासचिव के तौर पर प्रस्तावित नहीं करने का अनुरोध भी किया था.

केरल और बंगाल के मतांतर को तवज्जो नहीं

येचुरी को केरल इकाई का जोरदार विरोध झेलना पड़ा लेकिन अंत में व्यक्तिगत प्रसिद्घि की वजह से उन्हें जीत मिली. येचुरी की जीत से बंगाल इकाई गदगद है और यही कारण है कि बंगाल में पार्टी को फिर से मजबूत स्थिति में ला पाना उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी. वे यह जानते हैं कि इस उदासीन और बंटे हुए माहौल के बीच पार्टी को अगले साल होनेवाले चुनाव की भी तैयारी शुरू करनी हैै. वास्तविकता तो ये है कि हर कोई प्रकाश करात और उनके अंतर्मुखी स्वभाव को वामपंथ की दुर्गति के लिए जिम्मेदार ठहरा रहा है. हालांकि पश्चिम बंगाल में मिली हार के समय येचुरी पार्टी के पश्चिम बंगाल इकाई के प्रभारी थे. येचुरी और बंगाल पार्टी इकाई ने हार के तत्काल बाद यूपीए-1 से समर्थन वापसी लेने के निर्णय के वक्त को जिम्मेदार ठहराया था. उनका कहना था कि यूपीए-1 से समर्थन वापस लेने के तुरंत बाद राज्य में चुनाव संपन्न होना था और कांग्रेस ने वाम की हार को सुनिश्चित करने के लिए तृणमूल का दामन थाम लिया था.

पश्चिम बंगाल में इस समय पार्टी की हालत बहुत खराब है और इसका जनाधार तेजी से सिकुड़ रहा है और दूसरी ओर राज्य में भाजपा अपना दखल तेजी से बढ़ा रही है. इस बिगड़ती हुई तस्वीर को येचुरी कैसे संभाल सकेंगे?  क्या वे दुर्जेय हरकिशन सिंह सुरजीत से सीख लेकर ऐसी राजनीतिक रणनीति बनाएंगे जिसके बूते बंगाल को फिर से फतह किया जा सकेगा? पार्टी के पुनर्गठन की दिशा में यह सबसे जरूरी कदम होगा.

नवउदारीकरण से समझौता नहीं

वाम खुद को दलदल में फंसा हुआ महसूस कर रहा है, यह आसानी से कहा जा सकता है लेकिन उसे इस स्थिति से बाहर निकल पाना उतना ही मुश्किल होगा. माकपा ने अपने 21वें पार्टी सम्मेलन में यह निर्णय लिया है कि वह नव-उदारवादी नीतियों काे बढ़ावा देनेवाली कांग्रेस और किसी भी क्षेत्रीय पार्टियों के साथ समझौता नहीं करेगी. मार्क्सवाद-लेनिनवाद की पुरानी किताबों में लिखी बातों पर गौर करते हुए पार्टी यह मान रही है कि नव-उदारवादी नीतियों के खिलाफ लोगों को एकजुट किया जा सकता है. लेकिन पार्टी को अपने गढ़ में राजनीतिक हड़ताल के आयोजन में भी बहुत मुश्किलें पेश हो रही हैं. क्या पार्टी अपने इस धर्मनिष्ठ तौर-तरीकों के जरिए इस संकट से पार पा सकेगी?

माकपा में बहुत सारे लोग चुनाव के मद्देनजर कांग्रेस के साथ गठजोड़ करने के पक्ष में हो सकते हैंै. बंगाल की पार्टी इकाई पिछले चुनाव में पराजय के बाद कांग्रेस के साथ गठजोड़ करने में दिलचस्पी दिखा रही है. येचुरी के लिए यह अकेले रस्सी पर चलने जैसा होगा. पश्चिम बंगाल में अगर पार्टी कांग्रेस के साथ गठजोड़ कर पाने में किसी वजह से सक्षम नहीं होती है तो यह तय है कि केरल इकाई को इससे चिढ़ मचेगी और उसे प्रतिरोध का मौका देने जैसा होगा. केरल माकपा की सबसे पुरानी इकाई है.

पश्चिम बंगाल में कांग्रेस का साथ !

गौरतलब है कि माकपा ने 2004 में केंद्र में कांग्रेस की नेतृत्ववाली यूपीए सरकार को समर्थन दिया था. अगर पार्टी केरल और पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के खिलाफ मोर्चा लेती है और केंद्र में कांग्रेस को समर्थन देती है तो फिर यह सवाल बहुत लोगों के मन में उठ सकता है कि फिर समर्थन के उन्हीं तर्कों के साथ बंगाल चुनाव में इस बार पार्टी कांग्रेस के साथ गठजोड़ क्यों नहीं कर सकती है? लेकिन येचुरी, सुरजीत नहीं हैं और ज्योति बसु जैसे लोग अब जिंदा नहीं हैं जो अपनी कुशाग्र और व्यावहारिक बुद्घि के बल पर पार्टी को केंद्र में बनाए रख पाने में सक्षम थे और अब उनकी प्रतिकृति तैयार कर पाना भी आसान नहीं है.

भूमि अधिग्रहण विधेयक का विरोध करने के लिए विपक्ष को एक करना बहुत जरूरी होगा. अधिग्रहण के मसले पर राज्यसभा में सीताराम येचुरी को विरोध का परचम लहराने के लिए कांग्रेस और दूसरी बुर्जुआ पार्टी को अपने साथ लेना बहुत जरूरी होगा. राष्ट्रपति द्वारा संसद को संबोधित करने के समय विपक्ष को एकजुट करने का काम येचुरी बखूबी निभा सकेंगे. वे उत्प्रेरक का काम भलीभांति कर पाएंगे. सदन के पटल पर इससे इतर येचुरी के लिए दूसरी वामपंथी पार्टियों के बड़े नेताओं का दबाव झेलना एक बड़ी चुनौती होगी और यह सीपीएम के लिए कांग्रेस जैसी धर्मनिरपेक्ष पार्टी के साथ गठजोड़ में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा. इसी साल पश्चिम बंगाल में होनेवाले सीपीएम के विशेष प्लेनम (कुछ खास स्थिति में छोटा सम्मेलन आयोजित किया जाता है) में संगठन की दिक्कतों के बारे में चर्चा की जाएगी. येचुरी पार्टी के कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा करने और उसे दूर करने को लेकर लंबे समय तक इंतजार नहीं करना चाहेंगे.

 कैडर सिस्टम पड़ा कमजोर

पार्टी के केंद्रीय कमेटी के सदस्य सुनीत चोपड़ा ने सीपीएम छोड़ने के बाद जो प्रतिक्रिया दी थी, उसके बाद यह महसूस किया गया था पार्टी में कैडर सिस्टम ढीला पड़ गया है. पार्टी को अनुशासन को लेकर सख्ती करनी होगी. सुनीत चोपड़ा लगभग दो दशकों तक पार्टी की केंद्रीय समिति के सदस्य रहे. उन्होंने पार्टी छोड़ने के बाद यह आरोप लगाया था कि वह पार्टी इसलिए छोड़ रहे हैं क्योंकि वे करात की चापलूसी नहीं कर सकते हैं. उन्होंने नेतृत्व के मोर्चे को लेकर कई बार सवाल उठाए थे.

येचुरी की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वह माकपा के जनाधार का कितना विस्तार कर पाते हैं और वह दूसरी पार्टियों से रिश्ते कितने बेहतर बनाकर रख पाते हैं

केरल के विद्रोही लोकप्रिय नेता अच्युतानंदन इस बात के लिए बाध्य होंगे क्योंकि उनके और येचुरी के बीच घनिष्ठ संबंध हैं. नए महासचिव अगर गैर-कृषक नेता को तवज्जो देंगे तब केरल इकाई किस तरह प्रतिकिया देगा, यह देखने वाली बात होगी. केरल इकाई में यह चर्चा है कि येचुरी राज्य समिति में अच्युतानंदन को शामिल करने के लिए जोर डालेंगे. लेकिन येचुरी केरल इकाई की इच्छाओं का भी जरूर ख्याल रखना चाहेंगे क्योंकि पोलित ब्यूरो में चार और केंद्रीय समिति में 14 सदस्य इसी राज्य से आते हैं. येचुरी बंगाल और केरल के बीच समन्वय बिठा पाने में समर्थ होंगे और अगर वे ऐसा कर पाएं तो उनके लिए यह सफलता की बड़ी कुंजी होगी. पार्टी की चुनौतियों से पार पाने में येचुरी की बुद्घिमत्ता की परीक्षा होनी तय है.

सुरजीत को छोड़कर अबतक माकपा के सभी महासचिव दक्षिण भारत के हुए हैं लेकिन येचुरी को राज्यसभा का टिकट पश्चिम बंगाल से मिला. येचुरी इस बात के लिए जाने जाते हैं कि वे अपने पूर्व के लोगों की तुलना में लोगों की आसान पहुंच में हैं और वे विचारधारा के सवाल पर अपनी खिड़की खुली रखते हैं. येचुरी को शीर्ष पर पहुंचने से रोकने की हरसंभव कोशिश इनके पूर्ववर्ती नेताओं ने की. येचुरी अब मुक्त हैं और उनकी सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वह माकपा  के जनाधार का विस्तार कर पाने में कितने कारगर होंगे. उनकी सफलता इसपर निर्भर होगी कि वे दूसरी पार्टियों से कितना अच्छा रिश्ता कायम रखने में कामयाब हो पाते हैं. क्या वे इस असंभव काम माकपा को पराभव के कीचड़ से बाहर निकालने में कर पाएंगे? अगर वे आंशिक तौर पर भी सफल होते हैं तो यह उनकी जोरदार सफलता होगी.

करिश्माई कॉमरेड

क्या ‘लेफ्ट हैंड ड्राइव’ के लेखक पार्टी को सही दिशा में ले जा पाएंगेे? पूरी दुनिया में वामपंथी आंदोलन के बहुत सारे नायक और नायिकाएं हुए हैं जिनकी अपनी एक छवि रही है, इनमें से एक नाम पार्टी के नए चुने गए महासचिव का भी है.

मौजूदा भारतीय राजनीति में सीताराम येचुरी को लोग जलवाफरोश के बतौर याद करते हैं. वे कभी भी बहुत हड़बड़ी में नहीं दीखते हैं. अलग-अलग भाषा में अपनी निपुणता बढ़ाने के अलावा माकपा के नए प्रमुख की छवि कुछ-कुछ ज्योति बसु की तरह बनती जा रही है. उनकी सौम्यता और मधुरता से अपनी बात रखने की कला क्या वामपंथ को सुरक्षा दे पाएगी? वे राज्यसभा में अक्सर हस्तक्षेप करते हैं. येचुरी 1984 -1992 तक माकपा की केंद्रीय समिति के सदस्य रहे और 1992 से पोलित ब्यूरो के सदस्य हैं. उनके कई रंग हैं. वे राजनेता, अर्थशास्त्री, लेखक और स्तंभकार के तौर पर पहचाने जाते हैं.

येचुरी का जन्म तत्कालीन मद्रास (अब तमिलनाडु) राज्य के एक तेलगु परिवार में 12 अगस्त 1952 को हुआ था. उनके पिता का नाम सर्वेश्वर सोमायाजुला येचुरी है. उनके पिता आंध्रप्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम में इंजीिनयर थे. येचुरी ने स्कूल की पढ़ाई आंध्र प्रदेश में पूरी की और सीबीएससी द्वारा आयोजित बारहवीं कक्षा में वे प्रथम आए. इसके बाद वे कॉलेज की पढ़ाई के लिए हैदराबाद स्थित निजाम कॉलेज पहुंचे. उन्होंने मुल्की और गैर मुल्की के आंदोलन में शामिल होने के लिए कॉलेज की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी.

येचुरी ने अपनी पढ़ाई दोबारा शुरू की. उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफंस कॉलेज से अर्थशास्त्र में बीए. की पढ़ाई पूरी की और अर्थशास्त्र में एमए. की पढ़ाई के लिए जवाहर लाल नेहरू (जेएनयू), नई दिल्ली में दाखिला लिया. वे यहां आकर वामपंथी आंदोलन से प्रभावित हुए और 1974 में स्टुडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) से जुड़ गए. युवा नेता को आपातकाल के दौरान गिरफ्तारी की वजह से अपनी पीएचडी की पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी थी. बाद में वे जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गए.

येचुरी 1978 में एसएफआई के राष्ट्रीय संयुक्त सचिव बनाए गए और कुछ समय के बाद उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया. 1984 में येचुरी को माकपा की केंद्रीय समिति में शामिल कर लिया गया और उसके बाद अगले ही साल उनका चयन पार्टी की फैसला लेने वाली इकाई के लिए हो गया.

वे राज्यसभा के लिए पहली बार 2005 में चुने गए और इस दौरान वे कई संसदीय समिति के सदस्य रहे और वहां अपनी महत्वपूर्ण सेवाएं दीं. वे 2011 में राज्यसभा के लिए दोबारा चुने गए. इस वामपंथी नेता ने विपक्ष की ओर से अहम भूमिका निभाई.

‘लेफ्ट हैंड ड्राइव’ के अलावा येचुरी ने ‘ह्वाट इज हिंदू राष्ट्र?’ पुस्तक लिखी है. येचुरी ने पत्रकार सीमा चिश्ती से शादी की और उनके लेख नई दिल्ली से प्रकाशित होनेवाले कई महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में नियमित तौर पर प्रकाशित होते हैं. पार्टी ढलान पर है लेकिन येचुरी के पाठकों का दायरा अभी भी व्यापक है. येचुरी को एक बेटी और दो बेटे हैं. वे अपने कॉलेज के दिनों में टेनिस के अच्छे खिलाड़ी भी हुआ करते थे.

अपना दल से पराई हुईं अनुप्रिया

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अपना दल में पारिवारिक कलह चरम पर पहुंच चुका है. पार्टी मां-बेटी की लड़ाई का मैदान बन चुकी है. मिर्जापुर से सांसद अनुप्रिया पटेल को उनकी मां कृष्‍णा पटेल ने गुरुवार को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया. मां-बेटी के बीच काफी दिनों से मचे घमासान के चलते पार्टी दो फाड़ होती नजर आ रही है.

जानकारी के मुताबिक गुरुवार को लखनऊ के लालबाग में मां कृष्‍णा पटेल ने पार्टी कार्यालय का ताला तोड़कर कब्जा जमा लिया. इसके बाद एक प्रेस विज्ञप्‍ति जारी कर उन्होंने बताया कि अनु‌प्रिया पटेल को पार्टी से निकाल दिया गया है. इससे पहले बुधवार को अनुप्रिया पटेल ने कृष्‍णा पटेल के कब्जे वाले पार्टी के कार्यालय में ताला जड़ दिया था.

विरासत संभालने की जंग

पार्टी गतिविधियों में बढ़-चढ़कर भाग लेने वाली अनुप्रिया पटेल को पार्टी की विरासत सौंपने की तैयारी पिछले साल ही शुरू हो गई थी, लेकिन चार नवंबर 2014 को हुए वाराणसी अधिवेशन में मां कृष्णा पटेल ने अपनी विरासत अनुप्रिया पटेल की जगह दूसरी बेटी पल्लवी पटेल को सौंपते हुए उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष घोषित कर दिया. इसी के बाद से पार्टी में विरासत संभालने की जंग छिड़ गई. इसके अगले महीने पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष होने के नाते कृष्‍णा पटेल ने अनुप्रिया को महासचिव पद से हटा दिया. इसे गलत बताते हुए अनुप्रिया ने कृष्णा को राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटाते हुए खुद को पाट्री का राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित कर दिया था. उसके बाद से मां-बेटी में पार्टी के अंदर ही वर्चस्व की लड़ाई का दौर जारी है.