सेक्स प्रेम की अभिव्यक्ति हो हिंसा की नहीं

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वैवाहिक बलात्कार (मैरिटल रेप) की बात करते समय यह तो जान लें कि विवाह कहते किसे हैं? कानून के अनुसार विवाह उस व्यवस्था को कहते हैं जिसके भीतर जन्म लेनेवाली संतान जायज संतान कही जाती है. जाहिर है कि जब विवाह को संतान के जन्म से जोड़कर ही परिभाषित किया गया है तो इसमें पति-पत्नी के बीच का दैहिक रिश्ता ही है जो उन्हें दंपति बनाता है. दांपत्य के भीतर पति-पत्नी के बीच प्यार, मित्रता, शत्रुता, उदासीनता, उनमें आयु, शिक्षा, पृष्ठभूमि और विचारों के अंतर के बारे में कानून मौन रहता है. ऐसे में इच्छा-अनिच्छा और सहमति-असहमति का प्रश्न जटिल हो जाता है.

वैवाहिक बलात्कार का मसला मीडिया में भले ही आज उठ रहा है, लेकिन यह कोई नया मसला नहीं है. महिलाओं के प्रति हो रही हिंसा को रोकने के लिए बने हमारे नारीवादी संगठन ‘सुरक्षा’ ने 1989 में लखनऊ में वैवाहिक बलात्कार पर गोष्ठी आयोजित की थी, जिसमें तत्कालीन डीआईजी कंचन चौधरी और कानून के प्रो. बलराज चौहान भी शामिल हुए थे. प्रोफेसर चौहान ने बताया था कि कानून 498 ए, के तहत शारीरिक और मानसिक क्रूरता के लिए दंड की व्यवस्था है, इसलिए अलग से कानून नहीं बनाया गया. मगर हमारा मूल प्रश्न अनुत्तरित रह गया था. जहां परस्पर प्रेम के अभाव, वैमनस्य, उदासीनता और अपमानजनक व्यवहार के कारण दैहिक संबंध ही क्रूरता मालूम हो, वहां क्या हो? जहां न हिंसा हो, न मारपीट वहां क्या सेक्स को क्रूरता कहकर 498 ए में दंडित कर देंगे?

पिछले तीस सालों में परिवार के भीतर शोषण की शिकायत लेकर आई हजारों किशोरियों, युवतियों और महिलाओं के लंबे बयान बताते हैं कि दिन भर गाली-गलौज और मारपीट करनेवाले निम्न आयवर्ग के पति से लेकर, सारा दिन घमंड में चूर रहकर पत्नी से सीधे मुंह बात तक न करनेवाले अमीर पति तक रात में शयनकक्ष में स्त्री को यौनदासी के रूप में इस्तेमाल करते हैं. ऐसे पति, पत्नी को बेवफा और बदचलन बताते हैं पर उन्हें घर छोड़कर जाने भी नहीं देते. वह चली जाएगी तो उनकी रोज की खुराक कैसे पूरी होगी? इस तरह स्त्री शरीर उनके रोजाना उपयोग की चीज है. स्त्री रोग विशेषज्ञ भी बताती हैं कि किस प्रकार जच्चा-बच्चा अस्पताल में बच्चे को जन्म देने के लिए भर्ती पत्नी के पति अस्पताल में ही बलात्कार करते हैं और और उन्हें क्षत-विक्षत अवस्था में पड़ा रहने देते हैं. यह बातें हम सब जानते हैं, पर कहते नहीं.

वैवाहिक बलात्कार का मामला इतना सरल नहीं है. यह जानना भी रोचक होगा कि यदि पत्नी घर छोड़कर चली जाए तो उसे वापस बुलाने के लिए हिंदू विवाह कानून की धारा 9 के तहत दावा किया जाता है जिसे बोलचाल की भाषा में तो रुखसती का दावा कहा जाता है मगर उसका कानूनी नाम है ‘रेस्टिट्यूशन ऑफ कांजुगल राइट्स’ यानी दैहिक संबंधों पर अधिकार की पुनर्स्थापना यानी पति का पत्नी से दैहिक संबंध रखने का हक. यदि वह प्रताड़ित होकर भी घर छोड़कर गई है तो भी वापस आकर पति को यह हक सौंपे. यह हक पत्नी को भी है मगर हम सब जानते हैं कि यह दावा पति ही करते हैं. यह स्पष्ट है कि विवाह शरीर पर हक देता है. पितृसत्तात्मक व्यवस्था चलाने के लिए परिवार ही सबसे ताकतवर इकाई है. पितृसत्तात्मक और पैट्रीलोकल व्यवस्था में विवाह का अर्थ स्त्री का सब कुछ पीछे छूट जाना है और पुरुषों को सबकुछ मिल जाना. अपने पुराने परिवार के साथ एक स्त्री भी जो प्रेमिका, पत्नी, संगिनी भी है और सेविका और यौनदासी भी. वह जायदाद का हिस्सा है जिसे जैसे चाहे इस्तेमाल करे.

एक स्त्री ने बताया, उसका पचास वर्ष का पति 16-17 साल की निर्धन लड़कियों को घर लेकर आता है और उसके और बच्चों के सामने ही उनसे संसर्ग करता है

दिल्ली में जब निर्भया कांड हुआ तो उसमें बलात्कार के अलावा मिसोजिनिस्ट (नारी द्वेषी) क्रूरता, बर्बरता, नृशंसता और वहशत शामिल था. हमारे संगठन में हुई चर्चा में अनेक संपन्न परिवारों की प्रतिष्ठित पतियों की पत्नियों ने बताया कि उनके पति तो पिछले 20 वर्षों से इस प्रकार का अस्वाभाविक आचरण कर रहे हैं. बस वे मरी नहीं हैं. माथे पर बिंदी लगाकर, मांग में सिंदूर भरकर, बार्डर और पल्ले की साड़ी पहनकर संभ्रात होने का नाटक रचती इन महिलाओं के कारण ही ‘प्रसन्न भारतीय परिवार’ की छवि बनी रहती है.

वैवाहिक बलात्कार सहते रहने का एक कारण मां होना भी है. कुछ वर्ष पहले हमारे पास एक युवा सिख दंपति का मामला आया था. पति दुकान पर गया हुआ था तो उसकी अनुपस्थिति में सास ने बहू पर उबलता हुआ दूध डाल दिया, फिर तेल छिड़क कर आग लगाने दौड़ी. बहू ने जेठानी के बेटे को दुकान पर भेजकर पति को बुलाने भेजा. पति नहीं आया. रात को लौटा. किस्सा सुनने के बाद भी बैठकर खाना खाता रहा. पत्नी मायके चली गई. पुलिस की मदद से जब हमने पति को बुलवाया तो वह माफी मांगने लगा, पैर छुए और कहने लग, ‘तू बस एक बार घर चल.’ हम लोग द्रवित हो गए और हमें लगा कि संभव है उसका मन बदल गया हो. हमने उससे घर लौट जाने को कहा. वह बोली इसके कहने का मतलब है एक बार तू घर चल जब मां बना दूंगा तो फिर देखता हूं कहां जाएगी? वह भाग्यशाली थी, घर नहीं गई. आज जीवित है और खुश भी. वह अन्य महिलाओं के केस भी सुलझाती है. यदि मां बन गई होती तो क्या वह घर छोड़ पाती?

बलात्कार का अर्थ है कि स्त्री की असहमति से संसर्ग करना, या उसे झांसा देकर संसर्ग करना. पत्नी असहमत क्यों है? असहमत है तो यहां क्यों पड़ी है? घर क्यों नहीं छोड़ देती? क्या आदमी हर बार बाॅन्ड पेपर पर लिखकर सहमति मांगेगा? औरतें भी तो ऐसी हैं, सहूलियतें तो सारी चाहिए और इस बात पर नखरे. ऐसा कहने वाले कई हैं और ऐसा सोचने वाले अधिकांश. इस बात पर स्पष्टता से कह पाना नामुमकिन है कि पति-पत्नी का संबंध किस दिन बलात्कार कहलाएगा और किस दिन संबंध- मगर जानते समझते हम सब हैं कि वर्तमान पारिवारिक व्यवस्था में पत्नी के शरीर पर पुरुष का वर्चस्व है. यह विधि सम्मत है और समाज सम्मत भी. इसी कारण 376 की धारा में पति को शामिल नहीं किया गया है. आज यदि हमारे देश की सरकारें और न्यायपालिका यह कर रही हैं कि ऐसा कानून भारतीय संस्कृति के खिलाफ है, तो क्या वे यह कह रही हैं कि हमारी संस्कृति बलात्कार को प्रश्रय देती है, या वे यह कह रही है कि बलात्कार का इल्जाम लगाएगी तो औरत जाएगी कहां? वह बेघर हो जाएगी. इसका अर्थ तो यह हुआ कि यदि इस घर में रहना है तो अपनी मर्जी के विरुद्घ यौनदासी बनकर रहना होगा. रोटी और छत के बदले यौन सेवा. यह एक सोचने की पद्धति है जिसमें हम मानव को शरीर के रूप में एसेंशियलाइज करते हैं. पुरुष भोक्ता है और स्त्री भोग की वस्तु. इन सारी बातों के आलोक में जब घरेलू हिंसा निवारण विधेयक बन रहा था, उसमें उत्तर भारत के सलाहकारों में हम लोग भी शामिल थे. उसमें शारीरिक, मानसिक हिंसा के साथ-साथ खासतौर पर यौन हिंसा को भी शामिल किया गया था. यौन हिंसा का दायरा बलात्कार से ज्यादा व्यापक है. और फिर बलात्कार भी क्या केवल पति करता है? ‘चादर डालना’, ‘रख लेना’, ‘चूड़ी पहनाना’ आदि क्या है? क्या किशोरियों का बलात्कार चाचा, फूफा और उनके बेटे नहीं करते? यदि न्यायपालिका घरेलू हिंसा कानून (2005) को इसकी पूर्ण भावना से लागू करे तो वैवाहिक बलात्कार करनेवाले को भी दंडित किया जा सकेगा. मेरी राय में यह कानून पर्याप्त है.

नया कानून असली पीड़ित को न्याय नहीं दे सकेगा. वैवाहिक बलात्कार होते ही तब हैं जब पति को विश्वास हो कि पत्नी भयभीत और निरुपाय है. अभी हाल में एक स्त्री आई जिसके दो बेटे हैं. उसका पचास वर्ष का पति 16-17 साल की निर्धन लड़कियों को घर लेकर आता है और उसके और बच्चों के सामने ही उनसे संसर्ग करता है. मां-बेटे रोते हैं. हमने कहा इस बार तुम मायके में रह जाओ. यहां कोई काम कर लो. वह बोली पति एक-एक महीने के अंतराल पर ही दो बार तलाक कह चुका है, तीसरी बार कह दिया तो बच्चों को लेकर कहां जाऊंगी? हमने कहा, फोन पर ही तो कहा है, किसने सुना, तुम कचहरी में इंकार कर देना, ‘नहीं दीदी, खुदा तो देख ही रहा है.’ खुदा से डरने वाली इस नेक बंदी ने इससे भी ज्यादा दर्दनाक बात यह बताई की तमाम अनैतिक रिश्तों के बावजूद पति उसके साथ प्रतिदिन संसर्ग करता ही है. इस कारण से उसे अपने शरीर से घृणा होती जा रही है, क्या यह सामान्य स्त्री अदालत में यह बयान दे पाएगी? लोग कहते हैं कि दहेज के झूठे केस चलाए जा रहे हैं. एक सच यह भी है कि मामला यौन हिंसा और वैवाहिक बलात्कार का होता है पर मुकदमा दहेज का लिखवाना पड़ता है.

यह समय सनसनीखेज चर्चा चलाने का नहीं है. नारी  विमर्श के नाम पर सामान्य यौन आकांक्षा और कामोन्माद में फर्क न करने वालों के लिए यह सरस चर्चा है पर जनसामान्य के लिए नारकीय यंत्रणा. अस्वाभाविक आचरण अपने चरम पर है. अनेक मामलों में पुरुष पोर्न फिल्में दिखाकर पत्नी को वैसा ही आचरण करने पर बाध्य करते हैं. एक युवा लड़की शादी के एक महीने बाद ही तलाक लेने आ गई और उसे अपने पति से शिकायत थी, ‘ही यूजेज मी लाइक अ बॉय.’ समलैंगिक लड़के भी घर की सफाई और रोटी-पराठे बनाने के लिए लड़कियों से शादी करके उन्हें इस प्रकार उत्पीड़ित करते हैं.

यह समय गंभीर अंतर्दर्शन का है. स्त्री-पुरुष समकक्षता की चेतना जगाए बिना इस समस्या का समाधान नामुमकिन है. सेक्स प्रेम की अभिव्यक्ति हो न कि हिंसा की. शादी को वर्चस्व और शक्ति प्रदर्शन का उपकरण न बनाएं, इस भावना के साथ चलकर ही इसे रोका जा सकता है.