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‘मन की पहली परत वही थी कि कम उमर में शादी ठीक होवे है’

Child_Abuseकुछ दिन पहले दो इत्तेफाक एक साथ हुए. पहला इत्तेफाक यह कि दिल्ली से जिस ट्रेन से वर्धा के लिए वापसी थी, उसी ट्रेन में 2 साल पहले बिल्कुल वही कोच और सीट मिली थी. वापसी के लिए जब टिकट कन्फर्म हुआ था तो इस इत्तेफाक को महसूस करना अच्छा लग रहा था- वही कोच और वही सीट. मुझे उस वक्त तक यह नहीं पता था कि दूसरा इत्तेफाक भी आज इसी ट्रेन और इसी सफर से जुड़ा था.

ट्रेन दिल्ली से गुजर रही थी और मैं 2 साल पहले की गई यात्रा को याद कर रही थी. धुंधली सी यादें. कुछ भी स्पष्ट नहीं दिख रहा था. मथुरा जंक्शन आया. खिड़की से बाहर नजर दौड़ाई. हल्की-हल्की बारिश हो रही थी. काफी देर तक बाहर देखती रही. यह अहसास हुआ कि सामनेे की खाली सीट पर लोग आ गए हैं. बारिश और हवा की गति भी तेज हो गई थी तो मैंने खिड़की के शीशेवाले पल्ले को नीचे खींच लिया. फिर मुड़कर बैठ गई. बैठते ही देखा कि सामनेवाली सीट पर जो व्यक्ति बैठा था, वह कुछ दिन पहले नागपुर से मथुरा आया था. एक-दूसरे को देख हम दोनों मुस्कुराए और मुझे इस दूसरे इत्तेफाक को उसी दिन अपने साथ जीना पड़ा. इस बार वो मेरे साथ मथुरा से नागपुर जा रहे थे.

पत्नी और बेटी भी साथ थी. पहली मुलाकात में उनकी कड़क आवाज से मुझे कुछ गलतफहमी भी हुई थी. लेकिन बाद में समझ में यह आया कि इस आदमी पर अभी शहर की चालाकी की छींट नहीं पड़ी है. दिल्ली आते वक्त यह व्यक्ति अकेला था. मुझे उसकी बातचीत का टोन अच्छा लग रह था. मैं एक-दो सवाल करती और वह आराम से उसका जबाव देता. अपने खेत, अपने गांव के परिवेश के बारे में बताते हुए मुझे यह समझ में आया कि वह किसी रिश्तेदारी से नागपुर से मथुरा लौट रहा है. दिल्ली से मेरी वापसी पर उसने अपने पत्नी और बेटी से परिचय कराया.

पत्नी मुस्कुराई और पहला सवाल पूछा कि अकेली हो? मैंने मुस्कुराते हुए बस हामी भरी. उसके चेहरे पर मैंने अपने लिए उपहास महसूस किया. उसकी नजर जब कहीं टिक गई तो मैंने नजर बचाकर उसे देखा. पत्नी गाढ़ी नीली सलवार और लाल पर तीखे हरे रंग का चौकोर पत्थर जड़ा हुआ समीज पहने हुए थी. माथा रंग-बिरंगे सूती दुपट्टे से ढका था. हाथ में दर्जनभर रंग-बिरंगी कांच की चूडि़यां और पोले ट्रेन की चलती लय के साथ हिल रहे थे. हथेली को देखकर उसकी कर्मठता का अंदाजा लगाया जा सकता था. चांदी-सी पायल एड़ी से झांक रही थी. चप्पल भी चमचमाता हुआ कुछ नया-सा था.

लड़की थोड़ी निनुवा (ऊंघ) रही थी. वह जींस और नारंगी-हरे रंग की टीशर्ट पहने हुए थी. जींस जो थोड़ी छोटी हो गई थी. हल्का पीला रूमाल उसके जींस की जेब से बाहर झांक रहा था. कलाई में स्टील-सी दिखनेवाली पतली चूड़ी पहन रखी थी. नेलपेंट ने पैर के नाखून पर अपना निशान छोड़ दिया था. उसने अपने पैर में चरचरी (वेलक्रो टेप) की आवाजवाली भूरी चप्पल डाल रखी थी. मेरा अंदाजा यह था कि वह तीसरी या चौथी कक्षा में पढ़ रही होगी. टिकट निरीक्षक के कोच में घुसते ही झूलती बोगी की चुप्पी टूट गई. इस बीच वह व्यक्ति तरोताजा होकर लौट आया था.

लड़की ने मां के कान में कुछ बुदबुदाया. मां और बेटी उठकर शायद वॉशरूम की ओर चले गए. उस व्यक्ति ने अचानक से कहा कि कल सुबह ही नागपुर से फोन आया कि आ जाओ, सब लोग देख लें तो फिर शादी कर देंगे. ‘अच्छा-अच्छा’ कहकर मैं दिमाग पर थोड़ा जोर देने लगी कि पिछली मुलाकात में क्या बात हुई थी. बस ध्यान में यह आया कि पिछली यात्रा में किसी रिश्तेदारी की बात इन्होंने कही तो थी. उसके चेहरे पर उतावलेपन को साफ पढ़ा जा सकता था. मुझे भी लगा कि थोड़ी जिज्ञासा दिखा देनी चाहिए और इस लिहाज से मैंने पूछ लिया कि कितनी बेटियां हैं? इस बीच मां और बेटी भी आ गईं. पिता ने सफेद पायजामे से ढंके पैर को मोड़ा और खिड़की से टिककर बैठ गए. यही है, रजनी नाम है.

मुझसे रहा नहीं गया और मैंने पूछ ही लिया कि किस क्लास में पढ़ती हो? उसके बदले में मां ने जवाब दिया ‘5वीं में…’ पिता ने बीच में टोकते हुए कहा इसकी ही शादी की बात करने नागपुर गया था.

मैं इतना ही कह पाई कि इसकी! फिर नजर बचाते हुए मैं तीनों को देख रही थी. मां को, पिता को, बेटी को, जिसे शहरी बनने की पूरी इच्छा थी, कोशिश भी की थी लेकिन मन की पहली परत वही थी कि कम उमर में शादी ठीक होवे है.

(लेखिका पत्रकार हैं और वर्धा में रहती हैं)

‘तुम लोग धरना देने में उस्ताद हो, देते रहो’

कौन

दिल्ली के सरकारी स्कूलों के अतिथि शिक्षकJantar Manter

कब
5 मई 2015 से जारी

कहां
जंतर मंतर

क्यों
मैं और मेरे साथी दिल्ली के सरकारी स्कूलों में बतौर अतिथि शिक्षक पढ़ाते हैं लेकिन स्थाई शिक्षक के आते ही हमें हटा दिया जाता है. कब नौकरी चली जाए कोई भरोसा नहीं. ऊपर से वेतन भी कम मिलता है, अब बताइए दिल्ली जैसे शहर में 10 से 12 हजार रुपये में कैसे खर्चा चले हम सबका. आखिर पढ़ाने का ही काम तो हम भी करते हैं तो फिर स्थाई को अधिक वेतन और हमें कम क्यों. यह सवाल है दिल्ली में अतिथि शिक्षक के रूप में पढ़ा रहे शोहेब राजा का. शोहेब, अस्मिता, प्रवीण, मनीष, आलोक समेत सात और साथियों के साथ अतिथि शिक्षकों की मांगों को लेकर भूख हड़ताल पर बैठे हैं.

इसके अलावा तमाम दूसरे शिक्षक बारी-बारी से अपने हक की लड़ाई के लिए यहां जुटते हैं. इनकी पूरी मागें जानने से पहले आवश्यक है कि हम यह जान लें कि अतिथि शिक्षक कौन हैं और इनकी नियुक्ति कैसे होती है. अतिथि शिक्षक की भर्ती मेरिट के आधार पर होती है. इनसे लगभग 6 महीने के कॉन्ट्रैक्ट पर लिया जाता है. इन्हें 600 रुपये रोज के हिसाब मानदेय दिया जाता है. शनिवार, रविवार सहित किसी प्रकार की सरकारी और गैर सरकारी छुट्टी होने पर इन्हें मानदेय नहीं मिलता है. दिल्ली में लगभग 17,000 अतिथि शिक्षक कार्यरत हैं. और सभी की यही कहानी है.

दिल्ली सरकार से इनकी मांग है कि इन्हें नियमित करने के साथ स्थाई तौर पर एक निश्चित वेतन दिया जाए, ताकि ये एक सम्मानजनक जिंदगी जी सकें और बच्चों का भविष्य संवार सकें. दिल्ली के द्वारका में दिल्ली सरकार के एक स्कूल में अतिथि शिक्षक के रूप में पढ़ानेवाले गौरव साहनी बताते हैं, ‘शिक्षकों के लिए आखिरी भर्ती 2009 में निकाली गई थी. इसका परिणाम 2014 में आया. अगर सरकार इसी तरह लचर भर्ती प्रक्रिया चलाती रही तो और अतिथि शिक्षकों की जरूरत पड़ेगी लेकिन हमारे प्रति सरकार के उदासीन रवैये के कारण हमारा शोषण हो रहा है.’

अतिथि शिक्षक गजेंद्र सिंह बताते हैं, ‘जंतर मंतर पर बैठने से पहले हम लोगों ने दिल्ली सचिवालय के सामने धरना दिया था. उस समय दिल्ली के शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया से भी मिले थे. उन्होंने कहा था कि हमें तो यह भी नहीं पता कि दिल्ली में अतिथि शिक्षक भी हैं. उन्होंने हम सबको भाजपा का दलाल कह दिया था. फिर हम मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से मिले तो उन्होंने कहा कि तुम लोग तो धरना देने में उस्ताद हो, धरना देते रहो कुछ न कुछ हो जाएगा. मुख्यमंत्री ने यह भी कहा था कि उनके द्वारा किए गए कुल वादों में से 30 से 40 प्रतिशत भी पूरे हो जाएं तो काफी है. अब आप ही बताइए क्या इस 30-40 प्रतिशत में हमारे वादे भी हैं? जबकि पिछली बार जब 49 दिनों की सरकार बनी थी तभी उन्होंने वादा किया कि अतिथि शिक्षकों को स्थाई कर दिया जाएगा.’

‘मुझे उस छोटे से शहर से प्यार है, जहां से मैं हूं’

कंगना, आपने परिवार के खिलाफ जाकर फिल्मों की तरफ रुख किया था. अब जबकि आप राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता बन चुकी हैं तो परिवार की क्या प्रतिक्रिया है?

पापा बेहद खुश हैं. उन्होंने कहा है कि यह मेरे जन्मदिन का सबसे बड़ा तोहफा है. मेरा जन्म 23 मार्च को हुआ था और मुझे यह खबर भी उसी दौरान मिली थी. तो इससे बड़ा तोहफा और क्या होगा. ऐसा नहीं था कि मेरे पैरेंट्स मुझसे प्यार नहीं करते थे या मुझ पर ज्यादती किया करते थे. मैं जिस जगह से आई हूं. वाकई वहां कभी किसी ने ऐसा काम नहीं किया था. तो उनके लिए यह सबकुछ अजीबोगरीब था. और वे मुझे लेकर चिंतित थे. इसलिए साथ नहीं दिया. लेकिन धीरे-धीरे मैंने पहचान बनानी शुरू की तो उन्हें भी एहसास हो गया कि मैं समझदार हूं, सही कदम उठाऊंगी. हां, शुरुआती दौर में चूंकि परिवार साथ नहीं था तो सलाह की कमी में मैंने बहुत सारे पैसे बर्बाद किए, लेकिन अब सब ठीक है.

राष्ट्रीय पुरस्कार क्या मायने रखता है?
मेरे जैसी लड़की जिसे कुछ भी पता नहीं था कि वह मुंबई जाकर करेगी क्या, कैसे रहेगी. जब मेहनत-लगन से इतना महान पुरस्कार मिलता है तो जाहिर-सी बात है यह बहुत मायने रखता है. आत्मविश्वास बढ़ता है और ऐसा लगता है कि मेरी जैसी छोटे शहर की बाकी लड़कियां जो यह सोचकर बैठ जाती हैं कि उनका जन्म तो सिर्फ पति की सेवा करने के लिए हुआ है. वह कहीं न कहीं मेरे से प्रभावित होती हैं और उन्हें हौसला मिलता है. वे उदाहरण दे सकती हैं कि कंगना भी छोटे शहर की थी. उसने इतना सब कर दिया तो हम भी कर सकते हैं.

अपनी बातों में आप अपने छोटे शहर की लड़की होने का जिक्र जरूर करती हैं. इसकी कोई खास वजह?
हां, चूंकि हो सकता है कि ये बात बड़बोली लगे. लेकिन हकीकत ये है कि यह इंडस्ट्री नए खासतौर से छोटे शहर से आए लोगों को तुरंत स्वीकार नहीं लेती. लोग आपका मजाक उड़ाते हैं. आपकी बातचीत के ढंग, भाषा, पहनावे-ओढ़ावे, हर चीज पर कटाक्ष होते हैं. हमसे उम्मीद की जाती है कि हम उनके अनुयायी बनें, जो बाकियों ने किया है. इस तरह के लोग आपको पीछे की तरफ खींचने की कोशिश करते हैं. अगर आप इंडस्ट्री का हिस्सा नहीं हैं तो आपको भी इस दुनिया को समझने में वक्त लगता है, ढलने में वक्त लगता है, मुझे भी लगा. मैंने सब कुछ सीखा किया. सीखने की यह प्रक्रिया आज भी जारी है. और इसलिए मुझे उस छोटे से शहर से प्यार है, जहां से मैं हूं. मेरा शहर मेरे साथ चलता है.

नए लोग जो इस क्षेत्र में आना चाहते हैं, उन्हें आप क्या सलाह देना चाहेंगी?
देखिए मैंने अपनी राह खुद बनाई क्योंकि मैं इस बात को लेकर स्पष्ट थी कि मुझे सिर्फ दिल की बात सुननी है और किसी की सलाह मानकर आगे नहीं बढ़ना. तो जब मैंने किसी दूसरे की सलाह नहीं मानी तो किसी और को कैसे अपने को फॉलो करने को कहूं. यह तो गलत होगा. हर किसी की जिंदगी के अलग अनुभव होते हैं और उन्हें उसी तरह, उसी आधार पर अपने लिए उद्देश्य तय करने पड़ते हैं. हां, मगर इतना जरूर कहूंगी कि सोच कर आएं कि कोई काम छोटा नहीं होता. बड़ा ब्रेक शुरुआत में ही मिल जाए जरूरी नहीं. कुछ न कुछ करते रहना चाहिए. और हमेशा सीखने की प्रक्रिया में विश्वास रखें.

नाकामयाबी का मुकाबला कैसे किया?
मैं यह नहीं कहूंगी कि मैं बाकी लोगों की तरह डिप्रेशन में नहीं गई. मुझे चिंता नहीं हो रही थी कि आगे मेरा क्या होगा. एक दौर में मेरे पास सिर्फ चरित्र भूमिकावाले किरदार करने के ऑफर आ रहे थे. या फिर ऐसी फिल्में जिसमें मुझे सिर्फ नाममात्र के लिए रखा गया है. कई सह-कलाकार तो मेरा मजाक भी उड़ाते थे. मैं नाम नहीं लूंगी. फब्तियां कसते थे. कई लोगों ने कहा कि मेरे पैकअप का टाइम आ गया है. अब मुझे बैग पैक कर चले जाना चाहिए. लेकिन मैंने उस वक्त भी मन में ये बात रखी थी कि वापस नहीं जाऊंगी. चाहे जो हो जाए. फिर मुझे ‘तनु वेड्स मनु’ जैसी फिल्म मिली और मैं वापस से ट्रैक पर आ गई. इसके बाद तो मुझे केंद्रीय भूमिकावाले किरदार निभाने का मौका मिलने लगा. भले ही ‘रज्जो’ और ‘रिवॉल्वर रानी’ बॉक्स ऑफिस पर नहीं चलीं, लेकिन मेरे दिल के बेहद करीब हैं ये फिल्में.

तीनों खान अभिनेताओं के साथ काम करने का कोई इरादा?
ऐसा नहीं है कि मानकर बैठी हूं कि उनके साथ फिल्में नहीं करनी. लेकिन मुझे अपने लिए मजबूत किरदारों वाली भूमिका ही चाहिए. अब पीछे मुड़कर नहीं देखूंगी. काफी संघर्ष कर लिया है. अब जो समय आया है, उसमें मुझे अच्छी और बेहतरीन फिल्में करनी हैं. ‘क्वीन’ से लोगों ने मुझमें जो विश्वास जगाया है, उससे मेरा आत्मविश्वास बढ़ गया है. मुझे दर्शकों की उम्मीदों पर खरा उतरना है.

कंगना तेरा स्वैगर लाख का…

Kangna

दूसरी लड़कियों की तरह वह भी आईने के सामने खड़ी होकर घंटों खुद को निहारा करती थीं, लेकिन कभी उन्होंने खुद में माधुरी या श्रीदेवी को तलाशने की कोशिश नहीं की. हमेशा उन्होंने आईने के उस पार अपनी पहचान को ढूंढने की कोशिश की है. सिंड्रेला जैसे किस्से-कहानियों से बचपन से ही उन्हें लगाव नहीं था. भाग्य के सहारे वह अपनी जिंदगी नीलाम नहीं करना चाहती थीं, बल्कि अपनी मर्जी से जीना चाहती थीं. बाकी लड़कियों की तरह इतराने की बजाय इसका विरोध करतीं. उन्हें इस बात से चिढ़ थी कि वह सिर्फ इसलिए भाग्यशाली कहला रही थीं, क्योंकि उनके बाद उनके भाई का जन्म हुआ है. झूठी वाहवाही उन्हें खैरात में हरगिज नहीं चाहिए थी. हां, उनका ख्वाब कभी अभिनेत्री बनना नहीं था. उन्हें इतना जरूर पता था कि वह जो भी बनेंगी अपने बलबूते बनेंगी.

जिस उम्र में लड़कियां पापा से खिलौनों की डिमांड करती हैं, उस उम्र में उन पर दूसरी ही धुन सवार थी. एक बार तो उन्होंने अपने पिता को पलटकर कह दिया कि दोबारा हाथ उठाएंगे तो मैं भी हाथ उठा दूंगी. हां, एक बात उन्होंने हमेशा गांठ बांधे रखी वह यह कि वह सिर्फ खुद की सुनेंगी और किसी की नहीं. अपने पापा की लाडली रानी भले ही न बन पाई हों लेकिन आज वह बॉलीवुड की ‘क्वीन’ हैं, कंगना रनौत. बेशक कंगना हिमाचल प्रदेश की बेटी हैं लेकिन सफलता उन्हें आसानी से नहीं मिली. उन्होंने संघर्षों के पहाड़ काटकर रास्ते बनाए और आज सफलता की ऊंची चोटी पर विराजमान हैं. कंगना उत्साहित हैं. लेकिन रुकी नहीं हैं. वे खुद को निखारने में जुटी हुई हैं. इसका प्रमाण आप ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ में उनके दोहरे किरदार ‘दत्तो’ और ‘तनु’ के रूप में देख सकते हैं. अपनी भाव भंगिमा, डांसिंग स्किल और हरियाणवी संवाद को उन्होंने बेहतरीन अंदाज में ‘दत्तो’ के रूप में ढाला है. उन्होंने दोनों किरदारों में जान डालने के लिए कड़ी मेहनत की है.

अभिनय के अलावा स्क्रिप्ट राइटिंग का प्रशिक्षण

बॉलीवुड में ‘क्वीन’ फिल्म जैसी सफलता हासिल करने के बाद अभिनेत्रियां जहां उसे भुनाने में जुट जाती हैं और प्रयोग करने से कतराने लगती हैं. ऐसे दौर में कंगना ने तय किया कि वे न्यूयॉर्क फिल्म अकादमी जाएंगी और वहां स्क्रिप्ट राइटिंग का प्रशिक्षण लेंगी. कंगना का मानना है कि उन्हें हमेशा खुद को साबित करना होगा और इसलिए उन्होंने सीखना जारी रखा. अंग्रेजी को लेकर उनकी खिल्ली उड़ाई गई तो उन्होंने न सिर्फ अपनी अंग्रेजी सुधारी, बल्कि अपने फैशन स्टेटमेंट पर भी काम किया. आज अपनी स्टाइलिंग वे खुद करती हैं. कंगना को ये बातें चुभती थीं कि लोग उनके घुंघराले बालों का मजाक बनाते हैं. कंगना ने अपनी जिंदगी की पहली हिंदी फिल्म दूरदर्शन पर देखी थी, जिसमें अमिताभ बच्चन और परबीन बॉबी थे. जब वह काफी छोटी थीं तब दादी मां के साथ टीवी देखा करती थीं.

उन्हें आज भी उस फिल्म का नाम याद नहीं है. और संयोग देखें वही लड़की जब बड़ी होती है और फिल्मी दुनिया का हिस्सा बनती है तो फिल्म ‘वो लम्हे’ में उन्हें परबीन बॉबी से प्रेरित किरदार निभाने का मौका मिलता है. कंगना मानती हैं कि बचपन में ही कोई न कोई कनेक्शन हो चुका था कि मुझे फिल्मों में ही आना है शायद. कंगना इस इंडस्ट्री से नहीं थीं. कंगना स्वीकारती हैं कि उन्होंने ‘गैंगस्टर’ फिल्म के लिए आॅडिशन दिया था. वे इस फिल्म के लिए विकल्प थीं. इसमें पहले चित्रांगदा सिंह अभिनय करनेवाली थीं लेकिन अचानक उन्होंने मना कर दिया था. सो, भट्ट कैंप से कंगना के पास फोन आया और उन्हें उनकी पहली फिल्म मिल गई.

पुरुष कलाकार की भूमिका निभाई

ये बात कहते हुए वह अपने दिल्ली में रहने के समय की चर्चा करती हैं कि किस तरह उन्हें अचानक सुप्रसिद्ध व वरिष्ठ रंगकर्मी अरविंद गौड़ की वर्कशॉप में पहली बार बतौर मॉनीटर के रूप में क्लास हैंडल करने को कहा गया. उस वक्त पहली बार कंगना को इस बात का एहसास हुआ कि उनके परिवार को भी उन पर भरोसा नहीं लेकिन कोई व्यक्ति तो है जो उनमें नेतृत्व क्षमता देख रहा है. वह थियेटर ग्रुप में भी बैक स्टेज का ही काम किया करती थीं. लेकिन एक रोज जब अचानक एक पुरुष कलाकार की तबीयत खराब हुई तो अरविंद के कहने पर कंगना ने उस कलाकार की भूमिका निभाई और उन्हें इसमें बेहद आनंद आया. उस वक्त उन्होंने महसूस किया कि शायद उन्हें अभिनय की राह चुननी चाहिए. उन्होंने थियेटर में ही पूरा जी लगा लिया. अरविंद गौड़ ने ही कंगना को सुझाया कि वह अभी काफी युवा हैं, उन्हें फिल्मों में कोशिश करनी चाहिए. तब कंगना ने मुंबई आने का निर्णय लिया. और उनके एक नए सफर की शुरुआत हुई.

कंगना जब पर्दे पर ‘गैंगस्टर’ की सिमरन बनी तो उसने उन सारे किंतु-परंतु जैसे शब्दों को निराधार कर दिया. पहली ही फिल्म में वह ट्रैजेडी क्वीन बनकर दर्शकों के सामने आईं. एक के बाद एक उन्होंने इंटेंस किरदार निभाने शुरू किए. लोग उन्हें पहली फिल्म में ही मीना कुमारी की उपाधि से नवाजने लगे थे. ‘वो लम्हे’, ‘लाइफ इन अ मेट्रो’ उनमें से एक थी. कंगना लेकिन वहां थोड़ी ठहरी. उन्होंने अपनी इमेज तोड़ी. फिर उनके सामने ‘तनु वेड्स मनु’ आई. कंगना मानती हैं कि ‘तनु वेड्स मनु’ में तनु के किरदार को एक पुरुष किरदार से अधिक शक्तिशाली दिखाया गया. कंगना कहती हैं कि जिंदगी में अगर ‘क्वीन’ की रानी के किरदार की तरह मेरे साथ कोई करे तो मैं उसे मजा चखाऊंगी. असल जिंदगी में वह खुद को ‘रिवॉल्वर रानी’ ही मानती हैं. तीन फिल्मों में लीड किरदार निभाने के बाद जब उनके पास ‘फैशन’ फिल्म आई तो वह चौंकी कि उन्हें चरित्र किरदार आॅफर हो रहे हैं. मतलब उनका कॅरियर संकट में है. लेकिन फिल्म रिलीज होने के बाद जब हर तरफ उसके छोटे-छोटे दृश्य व संवाद याद रखे जाने लगे, तब उन्हें एहसास हुआ कि उन्होंने कितना प्रभावशाली किरदार निभाया है.

शुरुआती दौर में कंगना भी अन्य अभिनेत्रियों की तरह ‘खान्स’ की हीरोइन बनना चाहती थीं. लेकिन अब उनका नजरिया बदल चुका है. डिप्रेशन के दौरान उन्होंने खुद को क्रिएटिव राइटिंग में उलझाए रखा. उन्होंने शॉर्ट फिल्में बनाईं. ‘द टच’ कंगना द्वारा बनाई गई ऐसी ही एक फिल्म है. यह वही कंगना हैं, जो कभी अंग्रेजी बोलने में लड़खड़ा जाया करती थी. अब अंग्रेजी भाषा में अपनी पहली शॉर्ट फिल्म बनाती है. फिल्म क्वीन की रानी की तरह कंगना कभी किसी लड़के से शादी के लिए मिन्नते नहीं कर सकतीं. कंगना को अभी शादी में कोई दिलचस्पी नहीं.

नाडिया की बायोपिक

उनकी मां की शादी 21 साल में हो गई थीं और उनके परिवार वाले भी चाहते थे कि कंगना 26 की होने के साथ ही व्याह रचा लें. लेकिन मातापिता की ‘हां’ में ‘हां’ मिलानेवालों में से वे नहीं. शायद कंगना के इस व्यक्तित्व से अब इंडस्ट्री के गंभीर फिल्मकार भी वाकिफ हो चुके हैं. तभी तो विशाल भारद्वाज उन्हें लेकर नाडिया (जिन्हें गॉड आॅफ स्टंट इन बॉलीवुड माना जाता था) पर बननेवाली बायोपिक की परिकल्पना कर रहे हैं. कंगना भी विशाल के साथ काम करने के लिए उत्सुक हैं. कंगना बहन रंगोली के बेहद करीब हैं. वे हर बात उनसे शेयर करती है. जब उनकी बहन एसिड अटैक का शिकार हुई थीं तो कंगना भी सदमे में चली गई थीं. कंगना को राष्ट्रीय पुरस्कार मिलने की खबर भी सबसे पहले रंगोली ने ही दी थी. कंगना बताती हैं, ‘मैं बहुत मुंहफट और हंसमुख लड़की हूं. जो मेरे करीब हैं, वे इस बात से वाकिफ होंगे. मुझे तो डेटिंग भी उस व्यक्ति के साथ पसंद है जो कूल हो न कि बहुत अधिक बुद्धिजीवी. सेट पर भी मैं खूब मौज मस्ती करती हूं.’

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कंगना रनौत से खास बातचीत

सलमान एक परपीड़क विचार है

न्यायपालिका में हमेशा से थोड़े से लाइसेंसशुदा ड्राइवर तबीयत के लोग होते आए हैं जिन्हें तगड़ा बोध होता है कि चालू व्यवस्था की स्टीयरिंग उनके हाथ में है. वे दो बातों का बहुत ख्याल रखते हैं. एक तो यह कि पब्लिक में न्यायपालिका का खौफ बना रहे, दूसरे कुछ चमकदार मामलों में फैसला ऐसा हो कि लोगों को अपने भीतर न्याय की आकांक्षा के जिंदा बचे रहने की न्यूनतम वजह दिखती रहे लेकिन यह संतुलन बिगड़ रहा है.

तेरह साल से चलते ठोको और भागो केस में एक्टर सलमान खान को जेल का फैसला भी ऐसा ही अपवाद है वरना भरमार तो मेरठ के हाशिमपुरा जैसे मामलों की है जिनमें चौथाई सदी तक चले मुकदमे के अंत में वही पता चलता है जो पहले दिन भी सबको पता था यानी 40 से ज्यादा मुसलमानों को मारकर हिंडन नदी में फेंक दिया गया. किसने मारा, इसकी पड़ताल का काम अगली चौथाई सदी तक आराम से चल सकता है तब तक आखिरी हत्यारा भी सजा से बचने के लिए की गई तिकड़मों की सार्थकता पर संतुष्ट होकर गाजे बाजे के साथ बैकुंठ जा चुका होगा. जब पीड़ित और अपराधी दोनों समाप्त हो चुकते हैं तब भी न्याय व्यवस्था तत्परता से किनके लिए काम करती रहती है? इस सवाल के जवाब में व्यवस्था का पिछवाड़ा दिखने लगता है जिसे ढकने के लिए मिथकों, रूपकों के काव्यात्मक दुरुपयोग की जरूरत पड़ती है.

salman khan

मिसाल के लिए जयललिता उन्नीस साल तक चले आय से अधिक संपत्ति के मामले में सत्तर गवाहों के एक के बाद एक खामोश होने को अग्निपरीक्षा बता रही हैं जिससे वे खरे सोने-सी तपकर निकली हैं.

सलमान ने चट सजा पट जमानत के अलावा भी कई दिलफरेब नजारे दिखलाए. बाॅलीवुड के तमाम रौशन सितारे ओवरसाइज रंगीन चश्मों के पीछे सुबक रहे थे मानो उनके साथ भारी नाइंसाफी हुई हो. इनमें से एक तो कुत्तों के देश में सिर्फ अपने और सलमान भाई के मनुष्य होने के आत्मज्ञान की हद तक गया. काल्पनिक आंसुओं से भीगे इन चश्मों के बारे में मिलान कुंदेरा ने एक मार्के की बात लिखी है, ‘आप दुखी हों या न हों ये सामनेवाले में आपके दुख को महसूस कर पाने के अयोग्य होने का अपराधबोध तो पैदा कर ही देते हैं.’ जमानत मिलने के बाद देश-भर में फैंस ने अपने अनुभव के आधार पर कुछ इस अंदाज में खुशी का इजहार किया जैसे जितना वक्त फैसला आने में लगा कम से कम उतने दिन तो उनका हीरो बाहर रह ही सकता है. कुल मिलाकर ये लोग क्षुब्ध थे कि इस पिछड़े देश का कानून उनकी भावनाओं के साथ कदमताल करता हुआ क्यों नहीं चल रहा जबकि वे सचमुच दुखी हैं. सबसे दिलफरेब सलमान की गाड़ी के टायर के नीचे आकर मरे लोगों का अदृश्य हो जाना था.

सलमान औसत से नीचे दर्जे का अभिनेता है और ये लोग इतने नादान नहीं है कि उसके अभिनय के सम्मोहन में बंधकर बेखुदी की हालत में पहुंच जाएं. सलमान एक आत्मकेंद्रित, परपीड़क विचार है, ये लोग उसी की तरह जीना चाहते हैं. आप पैसेवाले हैं, बिगड़ैल हैं, आपका प्यार ऐसा है कि आप एक विश्वसुंदरी को पीट सकते हैं, शौक ऐसा कि आप बंदूक लेकर कहीं भी शिकार कर सकते हैं, रुतबा ऐसा कि अपने उन संबंधों के बूते किसी को भी हड़का सकते हैं जो अपने से ताकतवर लोगों की घरेलू पार्टियों में नाच गाकर बनाए गए हैं. अचानक आपको डर लगता है तो परोपकारी छवि बनाने लगते हैं जो किसी न्यूकमर लड़की को रोल दिलाने और बनियान के विज्ञापन में एक पिल्ले को डूबने से बचाने के कारण बनती है. आपके पास पावर और पैसा है इसलिए आपको खलता है कि आपको आपकी सनक के मुताबिक जीने क्यों नहीं दिया जा रहा है जबकि आप उसकी नकद कीमत चुकाने को तैयार हैं. सलमान के फैंस का एक तबका और है जो दरिद्र है, वह वैसी जिंदगी कभी नहीं जी सकता, चूंकि उसका किसी मूल्य में भरोसा नहीं बचा इसलिए अपने हीरो को पर्दे पर देखकर और अखबारों के गॉसिप पन्नों पर किस्से पढ़कर वैसी जिंदगी का काल्पनिक सुख निचोड़ रहा है. ये दोनों पावर के पीछे पगलाए तबके हैं जो अपनी झक में कानून की दखलंदाजी नहीं चाहते.

कमजोर तबके के फैंस को तो जिंदगी की सचाईयां बहुत जल्दी उनकी सही जगह दिखला देंगी लेकिन पैसे की चहारदीवारी से महफूज लोग तो अपनी काल्पनिक दुनिया में ही बने रहेंगे. हर आदमी को अपनी जिंदगी का खाका खींचने की आजादी है लेकिन दिक्कत यह है कि समकालीन राजनीति और अर्थव्यवस्था के नायक इस वक्त भारत को सुपर पावर बनाने का सपना देख रहे हैं जिसके मुख्य किरदार यही लोग हैं. फर्ज कीजिए अगर ऐसा हो ही जाता है तो यह हॉर्सपावर किस काम आएगी इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है.

भंवर में भाजपा

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बात पिछले महीने की है. पटना के गांधी मैदान में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह जैसे दिग्गजों की मौजूदगी में विराट कार्यकर्ता सम्मेलन होने के अगले दिन की. पटना के भाजपा कार्यालय में हर दिन की तरह जमावड़ा लगा था. उस रोज के सम्मेलन में पटना के सांसद शत्रुघन सिन्हा के गायब रहनेवाली खबर चर्चा में थी. भाजपा के ही दूसरे सांसद अश्विनी चौबे के मंच पर चढ़ने के बाद जगह और पूर्व इजाजत के अभाव में वहां से हटा देनेवाली खबर भी अलग से ‘मजावाद’ को बढ़ाए हुए थी. एक तरीके से हर्ष व्यक्त करने के दिन मायूस होने का माहौल था, क्योंकि आपसी खींचतान और अनुशासित पार्टी के नियंत्रणहीन होने की कथा सबके सामने आ चुकी थी और अमित शाह से लेकर राजनाथ सिंह जैसे नेताओं को भी बिहार के भाजपा सांसद कितना भाव देते हैं, यह सार्वजनिक तौर पर सबको पता चल चुका था.

भाजपा कार्यालय के पास ही अवस्थित जदयू कार्यालय में इस पर चुटकी लेनेवालों की जमात बैठी थी और पास के राजद कार्यालय में भी यही चर्चा का विषय था. भाजपा कार्यालय में भी इस बात पर बतकही चल रही थी लेकिन विषय बदलने के लिए एक छुटभैये नेता ने बात बदली. फटाफट सीटों का अनुमान लगना शुरू हुआ. राजद-जदयू के महाविलय में खींचतान पर मजा लेने की बात शुरू हुई. बात होती रही और बातों-बातों में ही बैठे-बैठे यह निष्कर्ष निकाल लिया गया कि भाजपा इस बार अपने दम पर इतनी सीट लाएगी कि सहयोगी दल लोजपा या राष्ट्रीय लोक समता पार्टी जैसे दलों के नेता भी फिर सरकार चलाने में ब्लैकमेल करने या दबाव बनाने की स्थिति में नहीं रहेंगे. खुद से ही विजयी समीकरण बिठा लेने और खुद को तसल्ली देने के बाद सभी निश्चिंत मुद्रा में आए.

तभी एक सवाल किसी ने हवा में उछाल दिया कि सब तो होगा लेकिन किसके नाम पर? नेता कौन होगा बिहार भाजपा का, नीतीश कुमार के मुकाबले भाजपा की ओर से कौन रहेगा? यह सवाल आते ही फिर माहौल तनाव का बना, जिस नेता ने यह सवाल उठाया था, उसे सभी ने घूरकर देखा और बतकही की चौकड़ी वहीं खत्म हो गई. भाजपा कार्यालय में हर दिन ऐसी ही बैठकों का दौर चलता है. सुबह राजद-जदयू के महाविलय में आनेवाली पेंच और परेशानियों पर मजा लिया जाता है. दोपहर बाद लगनेवाली चौकड़ी में सवर्णों का इतना, कुशवाहा का इतना, वैश्यों का इतना, पासवानों का इतना, मांझी के जरिए इतना, पप्पू यादव के बिदक जाने पर इतना, फलाना के जरिये इतना, वहां से इतना आदि का अनुमान लगाया जाता है और फिर सरकार बना ली जाती है और शाम आते-आते जब नेता का सवाल सामने आता है तो माहौल तनाव में बदल जाता है और सबके विदा हो जाने की बारी आती है.

एक अदद नेता की तलाश
भाजपा की यह परेशानी यूं ही नहीं. पहली बार सत्ता पाने की आस लगाए उसे एक अदद नेता की तलाश है. बात शुरू होती है तो सबसे पहला नाम सुशील मोदी का आता है, जो स्वाभाविक भी है. सुशील मोदी बिहार में भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं. बोलक्कड़ हैं, सरकार का अनुभव रहा है. नीतीश कुमार के साथ उपमुख्यमंत्री रह चुके हैं. लेकिन तर्क ये भी है कि सुशील की सीमा है. वे अभी तक ऐसे नेता नहीं बन सके हैं, जो भाजपा के कोर व कैडर वोट के अलावा किसी दूसरे वर्ग में अपील कर वोट निकलवा सकें. नीतीश कुमार के मुकाबले उनकी छवि ऐसी नहीं कि वे पूरे बिहार में अपने व्यक्तित्व से अपील कर सके. और फिर सबसे बड़ा पेंच यह है कि उन्हें लेकर भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व में संकट अलग है. मोदी वैश्य समुदाय से आते हैं और पास के झारखंड में भी रघुवर दास वैश्य नेता ही हैं, जो सीएम बने हैं. दो पड़ोसी राज्यों में वैश्य का ही प्रयोग भाजपा करना चाहेगी, इसमें संदेह है.

यह बात एक वरिष्ठ भाजपा नेता ही बताते हैं. वह कहते हैं कि सुशील मोदी को सामने करने का मतलब होगा कि भाजपा के अंदर साफ-तौर पर तीन खेमे का हो जाना, जिसमें एक खेमा गिरिराज सिंह, अश्विनी चैबे जैसे नेताओं का होगा तो दूसरा खेमा नंदकिशोर यादव जैसे नेताओं का. सुशील मोदी को लेकर भाजपा के कार्यकर्ताओं में भी एक खेमा है, जिनमें नाराजगी का भाव रहता है, क्योंकि जब वे नीतीश कुमार के साथ सत्ता में थे तो कई बार ऐसे लगते थे जैसे वे भाजपा के नेता कम, जदयू के नेता या नीतीश कुमार के ‘पोसुआ हनुमान’ ज्यादा हैं. और तो और नरेंद्र मोदी के मुकाबले नीतीश कुमार को बेहतर प्रधानमंत्री उम्मीदवार बतानेवाले बयान का इतिहास भी उनके साथ जुड़ा है, जो आए दिन भाजपा कार्यालय में उनके विरोधी नेता सुनाते रहते हैं.

सुशील मोदी के बाद नंदकिशोर यादव का नाम भाजपा खेमे में उठता है. नंदकिशोर संघप्रिय भी हैं और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष रह चुके हंै, सो कार्यकर्ताओं पर भी पकड़ है. इन्हें सामने करने से यादव मतों में बिखराव की भी उम्मीद की जाती है लेकिन उनकी सीमा सुशील मोदी की तरह ही मानी जाती है. उनके व्यक्तित्व में भी कभी राज्यव्यापी अपील नहीं रही. इन दोनों नेताओं के बाद एक लंबी फेहरिस्त है भाजपा में, जो समय-समय पर सीएम उम्मीदवार बन जाने का सपना देखते रहते हैं. इनमें लोकसभा में हार चुके शाहनवाज हुसैन, पटना सांसद व दुर्लभ बने रहनेवाले सांसद शत्रुघ्न सिन्हा, केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद समेत कई नेता हैं. अब भाजपा तय नहीं कर पा रही कि किसे सामने लाए. बात इतनी भी नहीं, अगली बात यह है कि अगर नंदकिशोर यादव या सुशील मोदी में किसी का नाम सामने लाया जाता है तो भाजपा में खुलेआम लड़ाई तय है और भितरघात को रोकने में कोई सक्षम न हो पाएगा, क्योंकि भाजपा में अंदरूनी तौर पर बिहार में किस स्तर की लड़ाई और खेमेबाजी ने कितनी दूरियां बढ़ा दी हैं, यह भाजपा का एक सामान्य कार्यकर्ता भी जानता है.

तो क्या बिन नेता पार कर लेंगे नैया
तब सवाल उठता है कि क्या बिना किसी नेता को सामने किए ही भाजपा बिहार में बेड़ा पार करना चाहेगी? यह सवाल इसलिए भी अहम बन जाता है, क्योंकि इसका संकेत भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने विराट कार्यकर्ता सम्मेलन में दिया था. शाह ‘जय-जय बिहार- भाजपा सरकार’ का नारा देते हुए विदा हुए थे और यह कह गए थे कि जब तक दो तिहाई बहुमत नहीं आता है, तब तक किसी कार्यकर्ता को चैन से नहीं बैठना है. शाह गांधी मैदान में नसीहतों की घुट्टी तो पिला गए थे लेकिन भूल गए थे कि वे खुद पहले ही एेलान कर चुके हैं कि बिहार में वे चुनाव नेता की घोषणा कर लड़ेंगे. भाजपा के एक खेमे का मानना है कि नरेंद्र मोदी के नाम पर ही चुनाव लड़ना ठीक होगा और बाद में महाराष्ट्र या हरियाणा की तर्ज पर किसी नेता को सामने करना ठीक होगा. लेकिन भाजपा के लिए बिहार में यह प्रयोग करना आसान न होगा, क्योंकि बिहार में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के मिलन के बाद यह तय हो चुका है कि इस बार चुनाव विशुद्ध रूप से जातीय गणित के आधार पर होगा और जातियों की गोलबंदी मजबूत एजेंडे के साथ सामने एक मजबूत नेता के रहने पर ही होती है.

दूसरी बात यह भी कि बिहार में अब चुनावी लड़ाइयां व्यक्तित्वों के आधार पर लड़ने का ट्रेंड हो चुका है. लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की भी लड़ाई एजेंडे से ज्यादा व्यक्तित्व की लड़ाई थी. विगत लोकसभा चुनाव में भी नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व की ही लड़ाई हुई थी. हालांकि वरिष्ठ पत्रकार अजय कुमार कहते हैं कि लड़ाई एजेंडे पर होगी और उसमें भाजपा पिछड़ जाएगी. राजनीतिक विश्लेषक प्रेम कुमार मणि कहते हैं कि लड़ाई एजेंडे पर भी होगी तो भाजपा अब पहलेवाली नहीं रही है. नीतीश और लालू एक हो गए हैं लेकिन महाविलय में मांझी का बाहर रहना भाजपा के लिए रामबाण का काम करेगा.

और अगर लड़ाई एजेंडे पर हुई तो…
बिहार का चुनाव इस बार जाति के आधार पर होना है यह तय है लेकिन ऊपरी तौर पर विकास और सामाजिक न्याय का एजेंडा रहेगा. सामाजिक न्याय के एजेंडे पर नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव एक मजबूत नेता हैं और उनकी पहचान रही है. उन दोनों नेताओं से मुकाबला करना भाजपा के लिए आसान नहीं होगा. राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन मानते हैं कि राजनीति में कभी भी लड़ाई व्यक्तित्व और एजेंडे पर होती है और लालू सामाजिक न्याय की राजनीति की शुरुआत करनेवाले नेता रहे हैं. नीतीश कुमार ने उसमें विकास, गवर्नेंस आदि का मामला जोड़कर न सिर्फ बिहार बल्कि उत्तर भारत की राजनीति को प्रभावित किया है, इसलिए वे बड़े नेता हैं और एजेंडा सेटर भी. महेंद्र सुमन की बात सही है. नीतीश इस मामले में एक बड़े नेता रहे हैं और उनकी पहचान भी वही रही है. सामाजिक न्याय के एजेंडे पर लड़ने के लिए भाजपा के पास नरेंद्र मोदी की जाति, बिहार के भाजपा नेताओं में सुशील मोदी, नंदकिशोर आदि का पिछड़ी जाति से आना और उपेंद्र कुशवाहा-रामविलास पासवान जैसे नेताओं के साथ रहने से उम्मीद जगती है. भाजपा को यह भी उम्मीद है कि वह ‘जंगलराज’ का नारा लगाकर लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के साथ आने के मसले को भुनाएगी और इसे प्रचारितकर बेड़ा पार कर लेगी.

जैसा कि भाजपा नेता शाहनवाज हुसैन कहते हैं, ‘नीतीश कुमार और लालू प्रसाद अकेले चुनाव नहीं लड़ पा रहे हैं, डरे हुए हैं, इसी से पता चलता है कि वे खुद पर कितना भरोसा खो चुके हैं.’ भाजपा नेताओं के ऐसे तर्क होंगे, और यही तर्क चलाने की कोशिश भी होगी. भाजपा के नेता यह भी बताने की कोशिश में लगे हुए हैं कि नरेंद्र मोदी से लेकर बिहार तक में पिछड़े नेताओं की भरमार है. इसका असर भी हो सकता है लेकिन दूसरी ओर इस बार नीतीश कुमार के साथ लालू प्रसाद होंगे. नीतीश कुमार अगर मौन साधकर भी खुलेआम कुछ नहीं बोल सकेंगे तो लालू प्रसाद उसकी भरपाई करते हुए सामाजिक न्याय की आक्रामक बातों को रखकर गोलबंदी की कोशिश करेंगे, जिसे करने में भाजपा को कई बार सोचना होगा, क्योंकि भाजपा अपने बड़े वर्ग सवर्णों को किसी भी हाल में हाथ से निकलने नहीं देना चाहेगी. सामाजिक न्याय के बाद विकास के एजेंडे पर बात होगी तो इस मसले पर भाजपा नेताओं को थोड़ी राहत मिल सकती है और वे इस बात का प्रचार अभी से ही कर रहे हैं कि नीतीश कुमार ने बिहार में तब तक ही कोई काम किया, जब तक भाजपा उनके साथ रही. भाजपा से अलगाव के बाद वे बिहार में कोई काम नहीं कर सके हैं. साथ ही भाजपा इस बात का भी प्रचार करेगी कि जो नीतीश कुमार, लालू प्रसाद के कुशासन और जंगलराज और विकास का काम खत्म हो जाने का एजेंडा बनाकर शासन में आए थे, वे फिर से उसी लालू प्रसाद के साथ हो गए हैं तो बिहार में विकास का काम फिर से भंवरजाल में फंस जाएगा.

इसके अलावा भाजपा को एक उम्मीद पहली बार केंद्र की ओर से बिहार के लिए मिले खास पैकेज को प्रचारित कर फल पाने पर है. हालांकि सूत्र यह बताते हैं कि भाजपा विकास को लेकर एक दूसरे एजेंडे पर भी काम कर रही है और संभव है कि अगले दो माह में नरेंद्र मोदी खुद बिहार में आकर ऐसी लोकलुभावन योजनाओं की घोषणा करेंगे, जिससे माहौल बदलेगा. अभी भी सच्चाई यही है कि बिहार में विकास के एजेंडे को जब नीतीश कुमार मसला बनाने की कोशिश कर रहे हैं, भाजपा उन्हें घेर लेने में सफल हो जा रही है. यही उम्मीद भाजपा को सपने पालने की छूट दिए जा रही है. लेकिन सामाजिक न्याय का एजेंडा हो या विकास का मसला, इस बार चुनाव में यह दूसरे मसले होंगे, सारा गणित जातियों के आधार पर लगना है और वह गणित इस बार लगातार उलझता हुआ दिख रहा है. मांझी फैक्टर अलग समीकरण बना रहा है. पप्पू यादव की बगावत अलग कहानी कहेगी.

जाति की राजनीति में कहां टिकेगी भाजपा
भाजपा के सामने तमाम बातों के बीच लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के मिलन के बाद बड़ा सवाल होगा कि जाति की राजनीति में वह कहां टिकेगी? भाजपा किसी तरह बिहार में तीन ध्रुवों की लड़ाई चाहती है, जिसमें एक ध्रुव पर लालू प्रसाद-नीतीश का गठबंधन हो, दूसरे ध्रुव पर भाजपा हो और तीसरे ध्रुव पर जीतन राम मांझी के साथ विद्रोहियों-बगावतियों का खेमा हो. इसलिए बार-बार जीतन राम मांझी द्वारा भाजपा को समर्थन देने का एेलान करने के बाद भाजपा नेता उस बारे में कुछ भी कहने से बच रहे हैं. भाजपा नेताओं को पता है कि मांझी को बैक सपोर्ट करके अलग से ही चुनाव लड़ाने से फायदा हो सकता है, सीधे साथ आ जाने से नुकसान की संभावना ज्यादा है, क्योंकि तब दो ध्रुवीय लड़ाई होगी और भाजपा की राह आसान नहीं रह जाएगी.

भाजपा नेताओं का गणित है कि सवर्ण, वैश्य, कुशवाहा, पासवान तो सीधे उसकी झोली में हैं. पप्पू यादव के बगावत के बाद कोसी इलाके का नीतीश और लालू प्रसाद का समीकरण गड़बड़ा सकता है. जीतन राम मांझी के कारण महादलितों का वोट इधर-उधर होगा और इतना मैनेज करने के बाद रास्ता आसान रहेगा. यह कहने-सुनने में तो आसान लगता है लेकिन इस रास्ते में दुविधा और पेंच ज्यादा हैं. उपेंद्र कुशवाहा और रामविलास पासवान, दो ऐसे संगी साथी भाजपा के हैं, जो भाजपा की वजह से जीवनदान पाकर तो राजनीतिक रूप से पुनर्जीवित जरूर हुए हैं लेकिन अब उनकी अपनी महत्वाकांक्षा है. लोजपा कार्यालय के बाहर चिराग पासवान बिहार के भावी सीएम के रूप में टंगे मिलते हैं तो उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी रालोसपा की कोई मीटिंग इस नारे के बिना अधूरी रहती है कि बिहार का सीएम कैसा हो-उपेंद्र कुशवाहा जैसा हो, इन नारों का मतलब साफ है कि उपेंद्र या रामविलास पासवान जानते हैं कि चुनाव में बेड़ा पार करने के लिए अपने आधार के विस्तार के लिए भाजपा को उन पर निर्भर रहना पड़ेगा, इसलिए वे ज्यादा से ज्यादा मोलभाव करना चाहेंगे.

दूसरा पेंच जीतन राम मांझी को लेकर है, जो अपनी रैली में तो खुलेआम कहते हैं कि वे भाजपा के साथ जा सकते हैं लेकिन बाद में यह भी कह देते हैं कि अगर उनका नेतृत्व स्वीकार हो तो वे लालू-नीतीश के साथ भी जा सकते हैं. यानी जीतन राम मांझी को लेकर भाजपा भी निश्चित नहीं है िक वे आखिरी समय तक किधर रहेंगे और अगर मांझी ने पलटी मारी तो भाजपा का सारा का सारा खेल गड़बड़ा सकता है. पप्पू यादव जैसे नेता भले ही आज बगावती तेवर अपनाकर कोसी इलाके में लालू-नीतीश के लिए परेशानी बनते दिख रहे हों लेकिन वह भाजपा के लिए मददगार साबित होंगे या रास्ता कुछ और तलाशेंगे, अभी कहना मुश्किल है.

भाजपा के लिए जातियों की राजनीति साधने में तीन बिंदुओं को ही साधना सबसे बड़ी चुनौती है. एक तो किसी तरह से महादलितों के वोट को लालू-नीतीश के पाले में जाने से रोकना. दूसरा मुस्लिम मत, जो एकमुश्त इस बार लालू-नीतीश के खाते में जाएंगे, उसमें बिखराव लाना और तीसरा यादव मतों का बिखराव कराना. इसके लिए भाजपा अपनी ओर से तैयारी कर रही है. मुस्लिम मतों के बिखराव के लिए साबिर अली जैसे नेताओं को प्रोमोटकर भाजपा अलग से मुस्लिम नेताओं की पार्टी बनवाना चाहती है. यादव मतों के लिए रामकृपाल यादव और नंदकिशोर यादव को अपने पाले में रखने के बाद वह पप्पू यादव में संभावनाओं के सूत्र तलाश रही है और महादलितों के लिए एकमात्र उम्मीद के तौर पर जीतन राम मांझी हैं. लेकिन इन तीनों योजनाओं में से कोई भी एक योजना ऐसी नहीं है, जिस पर आखिरी समय तक भरोसा किया जा सके.

…और यह भाजपा के भविष्य का चुनाव है
भाजपा कोई कसर नहीं छोड़ रही है. इस बार आरएसएस की ओर से दत्तात्रेय होसबोले जैसे संगठनकर्ता कमान संभाल रहे हैं. पार्टी के एक नेता बताते हैं कि बिहार मंे हम किसी भी तरह से हार नहीं चाहते. इसलिए बिहार भाजपा के एक खेमे में यह सुगबुगाहट भी है कि कोई रास्ता न दिखे तो फिर नीतीश के साथ ही जाने में कोई बुराई नहीं. अगर नीतीश के साथ गए तो फिर बी टीम ही बनकर रहना होगा. हालांकि नीतीश कुमार से मिलन की बात आगे नहीं बढ़ पा रही, क्योंकि दोनों को पता है कि अगर बिहार के भाजपा नेताओं का साथ नहीं मिलेगा, वे भितरघात करेंगे तो फिर कोई समीकरण काम नहीं आ सकेगा.

अब तो यही हैं दिल से दुआएं भूलने वाले भूल ही जाएं…

zareena

 

सतासी साल की जरीना बेगम लखनऊ की बहुचर्चित  दरबारी-बैठक गायिकी की आखिरी फनकार हैं. गायन की वो परंपरा जिसकी पराकाष्ठा का नाम बेगम अख्तर है, जरीना के बाद खत्म हो जाएगी. लेकिन ‘तहजीबवालों’ के बीच इसे लेकर कोई हलचल नहीं दिखती. तब भी नहीं जबकि जरीना गंभीर रूप से बीमार हैं, उनके आधे शरीर काे फालिज (लकवा) मार गया है, उनके पास इलाज-ओ-बसर के लिए पैसे नहीं हैं, एक अदद कमरा है अमीनाबाद के करीब हाता खुदाबख्श इलाके में, जिसमें अपने पूरे परिवार के बीच वो गुमनामी के बिस्तर पर पड़ी हुई हैं, जहां लखनवी तहजीब के ‘खुदाओं’ में से कोई भी उनका हाल जानने, मदद करने नहीं आता. एक जरा राहत देनेवाली खबर ये है कि पिछले दिनों उत्तर प्रदेश सरकार ने जरीना बेगम को पांच लाख रुपये की धनराशिवाला बेगम अख्तर अवार्ड देने की घोषणा की है. शायद इसके बाद हालात कुछ बेहतर हो सकें. इस बारे में जरीना बेगम ‘तहलका’ से कहती हैं- ‘सुनकर खुशी तो हुई मगर अभी मिला कहां है? पता नहीं कब मिलेगा? मिल जाएगा तब ज्यादा खुुशी होगी. अभी तो हालत जस की तस है’

बीमारी के चलते जरीना देर तक बोल नहीं पातीं, ज्यादा शिकायत भी नहीं करतीं. मगर इतना तो बता ही देती हैं कि लखनऊवालों से इस उपेक्षा की उन्हें उम्मीद नहीं थी. एक जुमला वो बार-बार दोहराती हैं- ‘पहले लखनऊ ऐसा नहीं था. लोग मदद करते थे’…और फिर कुछ देर खामोश रहने के बाद यकायक उन्हें अपनी गुरु बेगम अख्तर की गाई एक गजल का शेर याद दिलाने पर भूलते-भूलते याद आता है- अब तो यही हैं दिल से दुआएं/भूलनेवाले भूल ही जाएं…

जरीना बेगम को अपनी दुनिया में एक वक्त के लिए शोहरत तो खूब मिली लेकिन ये शोहरत उनकी जिंदगी को खुशहाली नहीं बख्श पाई

गौरतलब है इस हाल में भी जरीना बेगम गुफ्तगू के दौरान शेर सुनने और सुनाने की कायल हैं. शेरों के साथ साथ उनकी गुफ्तगू में सवाल भी बहुत से हैं. जिनमें से ज्यादातर वो लखनऊ से पूछती हैं. कुछ इस तरह- ‘पहले लखनऊ में शरीफों के बीच गायकों की इज्जत थी. बहुत से लोग थे जो उनकी कद्र जानते थे. बुरे वक्त में उनकी मदद को तैयार रहते थे. हमने खुद न जाने कितने लोगों की मदद की होगी. मगर आज जब हम इस हाल में हैं, हमारे लिए कौन आया ? पुरानी चीजों की इज्जत अब कोई नहीं करता.’

एक तरफ जरीना बेगम अपनी तंगहाली और लखनऊवालों की बेकद्री से हारकर ये कहने पर मजबूर हैं कि पुरानी चीजों की कोई इज्जत नहीं करता वहीं दूसरी ओर उसी लखनऊ में पुरानी चीजों की इज्जत करने के नाम पर बड़े-बड़े तमाशे हो रहे हैं, जिनमें खूब तहजीब-तहजीब खेला जा रहा है. इनमें सबसे बड़ा तमाशा सरकारें ‘लखनऊ महोत्सव’ के नाम से पिछले कई दशकों से करवाती आ रही हैं जिसका उद्देश्य तो लखनऊ की कला-संस्कृति को बढ़ावा देना है लेकिन इसमें जरीना बेगम जैसे जरूरतमंद और लायक लखनवी कलाकारों की कला के लिए कोई जगह या आर्थिक आश्वासन नहीं है, मगर मुंबई से आए फिल्मी और पॉप गायक मोटी फीस लेकर यहां हर साल जलवा-अफरोज होते हैं. इसी तरह पिछले चार-पांच सालों से निजी संस्थाओं द्वारा भी शहर में बेवजह और बावजह बहुत से साहित्यिक-सांस्कृतिक उत्सव करवाए जाते हैं जिनमें लखनवी तहजीब के पुनरुद्धार के लिए ढेर सारा पैसा खर्च होता है. मगर इनका करम भी जरीना बेगम पर नहीं होता कि उनका बुढ़ापा ठीक से कटे और लखनऊ की बैठक गायिकी का मुस्तकबिल महफूज हो सके. शहर में वाजिद अली शाह के नाम को भुनानेवाले बहुत हैं मगर उस फराख-दिल बादशाह की तरह फनकारों को नवाजनेवाले बहुत कम.

मूलरूप से बहराइच के नानपारा कस्बे की रहनेवाली जरीना बेगम को गाने में दिलचस्पी बचपन में अपने आस-पास के माहौल से हुई. उनके वालिद शहंशाह हुसैन नानपारे के स्थानीय कव्वाल थे. इसके बावजूद घर में लड़कियों के गाने को कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता था. सो जरीना बेगम ने छिप-छिपाकर गाने का रियाज शुरू किया. ऐसे ही छिप-छिपकर वे रेडियो स्टेशन तक पहुंचीं. फिर जब लखनऊ आईं तो फिरंगी महलवाले उस्ताद गुलाम हजरत से सीखना शुरू किया. लेकिन उनके हुनर को असल मकाम तब मिला जब वे बेगम अख्तर के नजदीक आईं. बेगम अख्तर ने ही उनको बैठक गायिकी के आदाब और तौर-तरीके सिखाए. इसके बाद जरीना ने अपने शौहर तबला-नवाज कुरबान अली के साथ देश भर की महफिलों में अपनी गायिकी के जौहर बिखेरे. आकाशवाणी ने भी उनको ए ग्रेड आर्टिस्ट के बतौर स्वीकार किया. उनमंे बेगम अख्तर की झलक थी. मगर इसके बावजूद जरीना को वो मकाम नहीं मिला जो बेगम अख्तर से सीखी दूसरी गायिकाओं को मिला. जरीना न तो पढ़ी-लिखी थीं न ही इतनी तेज कि बदलते वक्त से कदम मिला सकें. यही वजह है कि उन्हें अपनी दुनिया में एक वक्त के लिए शोहरत तो खूब मिली लेकिन ये शोहरत उनकी जिंदगी को खुशहाली नहीं बख्श पाई.

उन्हे पता है कि एक दुनिया है अवध के बैठक गायन की जो उनके बाद नहीं रहेगी. वो ये भी जानती हैं कि लखनऊ उनकी कीमत उनके मरने के बाद ही समझेगा

बदलते हुए लखनऊ में जरीना बेगम की गायिकी लगातार बिसराई जाती रही. इस बीच पारिवारिक विवादों ने भी उनसे उनका बहुत कुछ छीनकर उन्हें एक छोटे से कमरे में महदूद कर दिया. इन्हीं परेशानियों के बीच कुछ साल पहले उनके शौहर कुरबान अली का इंतकाल हो गया और उसके बाद बबार्दी में रही-सही कसर लकवे के हमले ने पूरी कर दी. फिलहाल उनकी बेटी रुबीना और एक पांव से विकलांग बेटा अयूब उनके साथ रहते हैं. जो बहुत कोशिशों के बाद भी जरीना की दवाइयों और इलाज के लिए जरूरी पैसे नहीं जुटा पाते. उनकी बेटी रूबीना को सरकार और शहर के पैसेवालों दोनों से मदद की उम्मीद थी मगर किसी ने कुछ नहीं किया.

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पिछले साल देश भर में बेगम अख्तर की जन्मशती रंगारंगी से मनाई गई. बड़े-बड़े जलसे हुए बेगम अख्तर की याद में. मगर किसी ने भी बेगम अख्तर की परंपरा की आखिरी वाहक जरीना बेगम को इस धूमधाम का हिस्सा बनाने की जहमत नहीं की. अपने मददगारों के नाम पर तकरीबन पचास लाख की आबादीवाले लखनऊ शहर में रुबीना फकत चार-पांच नाम ही गिना पाती हैं . वे कहती हैं- ‘उम्मीद तो बहुत लोगों से थी लेकिन गिने-चुने लोगों ने ही मदद की. जैसे सबा दीवान ने बहुत मदद की है, मंजरी चतुर्वेदी ने बहुत मदद की है, सनतकदा से माधवी और अस्करी ने मदद की है और शीशमहलवाले नवाब साहब ने मदद की है… पैसा तो है लोगों के पास. मगर गरीब की मदद के लिए नहीं.’

जरीना बेगम के गिने-चुने मददगारों में से एक सूफी कथक नृत्यांगना मंजरी चतुर्वेदी हैं जो जरीना को लेकर खासी फिक्रमंद हैं. उनका ‘सूफी कथक फाउंडेशन’ जरीना को  कुछ आर्थिक मदद भी देता है. मंजरी चतुर्वेदी ने ही मई 2014 में दिल्ली में खास जरीना बेगम के सहायतार्थ एक कार्यक्रम भी आयोजित किया था जिसमें जरीना बेगम ने लकवा होने के बाद पहली बार कोई सार्वजनिक प्रस्तुति दी थी. कार्यक्रम में जरीना ने 86 साल की उम्र में बीमारी के बावजूद एक घंटे से ऊपर ऐसा अद्भुत गायन किया था कि सुननेवाले मंत्रमुग्ध थे और कार्यक्रम खत्म होने पर उन्हे स्टैंडिंग ओवेशन मिली थी.  ‘तहलका’ से बातचीत में मंजरी कहती हैं- ‘जब हम कार्यक्रम के लिए प्रायोजक तलाश रहे थे तो ज्यादातर का कहना था कि अस्सी साल की बीमार औरत गा कहां पाएगी और अगर गाया भी तो उसे सुनने कौन आएगा. मगर जरीना बेगम के कार्यक्रम को जैसी कामयाबी और कवरेज मिली वैसी बाॅलीवुड कलाकार को भी नहीं मिलती. असल में हम अपनी संस्कृति का सम्मान करना नहीं जानते. जरीना बेगम जैसी गायिका को हम सिर्फ इसलिए तवज्जो नहीं देते क्योंकि वो अपनी कला को आज के हिसाब से बेचना नहीं जानतीं, वो ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं हैं, टेकसेवी भी नहीं हैं.’

87 साल की उम्र और बीमारी से सरापा जूझने के बावजूद जरीना बेगम की गाने से मोहब्बत कम नहीं हुई है. वे अभी भी लगभग हर रोज रियाज करती हैं, थोड़ी देर ही सही. रात को नींद के आलम में भी अगर कोई शेर, गजल या धुन याद आ जाती है तो फौरन उठकर बैठ जाती हैं और बेटे या बेटी से एक कॉपी पर नोट करवा देती है. उन्हें मदद की सख्त जरूरत है लेकिन वो किसी से उम्मीद नहीं बांधतीं. उन्हें पता है कि एक दुनिया है अवध की बैठक गायन की जो उनके बाद दुनिया में नहीं रहेगी. वो ये भी जानती हैं कि मुर्दापरस्तों और अतीत-जीवियों की भरमारवाला लखनऊ उनकी कीमत उनके मरने के बाद ही समझेगा. मगर वो ज्यादा शिकायत नहीं करतीं. अपने पसंदीदा शायर जिगर मुरादाबादी के दो शेर सुनाती हैं और एक लंबी खामोशी अख्तियार कर लेती हैं.

कोई मस्त है, कोई तश्नालब तो किसी के हिस्से में जाम है

मगर इसका कोई करेगा क्या, ये तो मयकदे का निजाम है

इसी कायनात में ऐ ‘जिगर’ कोई इंकलाब फिर आएगा

के बुलंद हो के भी आदमी अभी ख्वाहिशों का गुलाम है.

भंवर में भाजपा

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बात पिछले महीने की है. पटना के गांधी मैदान में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह जैसे दिग्गजों की मौजूदगी में विराट कार्यकर्ता सम्मेलन होने के अगले दिन की. पटना के भाजपा कार्यालय में हर दिन की तरह जमावड़ा लगा था. उस रोज के सम्मेलन में पटना के सांसद शत्रुघन सिन्हा के गायब रहनेवाली खबर चर्चा में थी. भाजपा के ही दूसरे सांसद अश्विनी चौबे के मंच पर चढ़ने के बाद जगह और पूर्व इजाजत के अभाव में वहां से हटा देनेवाली खबर भी अलग से ‘मजावाद’ को बढ़ाए हुए थी. एक तरीके से हर्ष व्यक्त करने के दिन मायूस होने का माहौल था, क्योंकि आपसी खींचतान और अनुशासित पार्टी के नियंत्रणहीन होने की कथा सबके सामने आ चुकी थी और अमित शाह से लेकर राजनाथ सिंह जैसे नेताओं को भी बिहार के भाजपा सांसद कितना भाव देते हैं, यह सार्वजनिक तौर पर सबको पता चल चुका था.

भाजपा कार्यालय के पास ही अवस्थित जदयू कार्यालय मंे इस पर चुटकी लेनेवालों की जमात बैठी थी और पास के राजद कार्यालय में भी यही चर्चा का विषय था. भाजपा कार्यालय में भी इस बात पर बतकही चल रही थी लेकिन विषय बदलने के लिए एक छुटभैये नेता ने बात बदली. फटाफट सीटों का अनुमान लगना शुरू हुआ. राजद-जदयू के महाविलय में खींचतान पर मजा लेने की बात शुरू हुई. बात होती रही और बातों-बातों में ही बैठे-बैठे यह निष्कर्ष निकाल लिया गया कि भाजपा इस बार अपने दम पर इतनी सीट लाएगी कि सहयोगी दल लोजपा या राष्ट्रीय लोक समता पार्टी जैसे दलों के नेता भी फिर सरकार चलाने में ब्लैकमेल करने या दबाव बनाने की स्थिति में नहीं रहेंगे. खुद से ही विजयी समीकरण बिठा लेने और खुद को तसल्ली देने के बाद सभी निश्चिंत मुद्रा में आए. तभी एक सवाल किसी ने हवा में उछाल दिया कि सब तो होगा लेकिन किसके नाम पर? नेता कौन होगा बिहार भाजपा का, नीतीश कुमार के मुकाबले भाजपा की ओर से कौन रहेगा? यह सवाल आते ही फिर माहौल तनाव का बना, जिस नेता ने यह सवाल उठाया था, उसे सभी ने घूरकर देखा और बतकही की चौकड़ी वहीं खत्म हो गई. भाजपा कार्यालय में हर दिन ऐसी ही बैठकों का दौर चलता है. सुबह राजद-जदयू के महाविलय में आनेवाली पेंच और परेशानियों पर मजा लिया जाता है. दोपहर बाद लगनेवाली चौकड़ी में सवर्णों का इतना, कुशवाहा का इतना, वैश्यों का इतना, पासवानों का इतना, मांझी के जरिए इतना, पप्पू यादव के बिदक जाने पर इतना, फलाना के जरिये इतना, वहां से इतना आदि का अनुमान लगाया जाता है और फिर सरकार बना ली जाती है और शाम आते-आते जब नेता का सवाल सामने आता है तो माहौल तनाव में बदल जाता है और सबके विदा  हो जाने की बारी आती है.

 एक अदद नेता की तलाश

भाजपा की यह परेशानी यूं ही नहीं. पहली बार सत्ता पाने की आस लगाए उसे एक अदद नेता की तलाश है. बात शुरू होती है तो सबसे पहला नाम सुशील मोदी का आता है, जो स्वाभाविक भी है. सुशील मोदी बिहार में भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं. बोलक्कड़ हैं, सरकार का अनुभव रहा है. नीतीश कुमार के साथ उपमुख्यमंत्री रह चुके हैं. लेकिन तर्क ये भी है कि सुशील की सीमा है. वे अभी तक ऐसे नेता नहीं बन सके हैं, जो भाजपा के कोर व कैडर वोट के अलावा किसी दूसरे वर्ग में अपील कर वोट निकलवा सकें. नीतीश कुमार के मुकाबले उनकी छवि ऐसी नहीं कि वे पूरे बिहार में अपने व्यक्तित्व से अपील कर सके. और फिर सबसे बड़ा पेंच यह है कि उन्हें लेकर भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व में संकट अलग है. मोदी वैश्य समुदाय से आते हैं और पास के झारखंड में भी रघुवर दास वैश्य नेता ही हैं, जो सीएम बने हैं. दो पड़ोसी राज्यों में वैश्य का ही प्रयोग भाजपा करना चाहेगी, इसमें संदेह है.

सुशील मोदी और नंदकिशोर यादव की छवि कभी राज्यव्यापी अपीलवाली नहीं रही. दोनों में किसी एक को सीएम उम्मीदवार बनाने पर पार्टी में लड़ाई तय है

यह बात एक वरिष्ठ भाजपा नेता ही बताते हैं. वह कहते हैं कि सुशील मोदी को सामने करने का मतलब होगा कि भाजपा के अंदर साफ-तौर पर तीन खेमे का हो जाना, जिसमें एक खेमा गिरिराज सिंह, अश्विनी चैबे जैसे नेताओं का होगा तो दूसरा खेमा नंदकिशोर यादव जैसे नेताओं का. सुशील मोदी को लेकर भाजपा के कार्यकर्ताओं में भी एक खेमा है, जिनमें नाराजगी का भाव रहता है, क्योंकि जब वे नीतीश कुमार के साथ सत्ता में थे तो कई बार ऐसे लगते थे जैसे वे भाजपा के नेता कम, जदयू के नेता या नीतीश कुमार के ‘पोसुआ हनुमान’ ज्यादा हैं. और तो और नरेंद्र मोदी के मुकाबले नीतीश कुमार को बेहतर प्रधानमंत्री उम्मीदवार बतानेवाले बयान का इतिहास भी उनके साथ जुड़ा है, जो आए दिन भाजपा कार्यालय में उनके विरोधी नेता सुनाते रहते हैं. सुशील मोदी के बाद नंदकिशोर यादव का नाम भाजपा खेमे में उठता है. नंदकिशोर संघप्रिय भी हैं और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष रह चुके हंै, सो कार्यकर्ताओं पर भी पकड़ है. इन्हें सामने करने से यादव मतों में बिखराव की भी उम्मीद की जाती है लेकिन उनकी सीमा सुशील मोदी की तरह ही मानी जाती है. उनके व्यक्तित्व में भी कभी राज्यव्यापी अपील नहीं रही. इन दोनों नेताओं के बाद एक लंबी फेहरिस्त है भाजपा में, जो समय-समय पर सीएम उम्मीदवार बन जाने का सपना देखते रहते हैं. इनमें लोकसभा में हार चुके शाहनवाज हुसैन, पटना सांसद व दुर्लभ बने रहनेवाले सांसद शत्रुघ्न सिन्हा, केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद समेत कई नेता हैं. अब भाजपा तय नहीं कर पा रही कि किसे सामने लाए. बात इतनी भी नहीं, अगली बात यह है कि अगर नंदकिशोर यादव या सुशील मोदी में किसी का नाम सामने लाया जाता है तो भाजपा में खुलेआम लड़ाई तय है और िभतरघात को रोकने मंे कोई सक्षम न हो पाएगा, क्योंकि भाजपा में अंदरूनी तौर पर बिहार में किस स्तर की लड़ाई और खेमेबाजी ने कितनी दूरियां बढ़ा दी हैं, यह भाजपा का एक सामान्य कार्यकर्ता भी जानता है.

तो क्या बिन नेता पार कर लेंगे नैया

तब सवाल उठता है कि क्या बिना किसी नेता को सामने किए ही भाजपा बिहार में बेड़ा पार करना चाहेगी? यह सवाल इसलिए भी अहम बन जाता है, क्योंकि इसका संकेत भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने विराट कार्यकर्ता सम्मेलन में दिया था. शाह ‘जय-जय बिहार- भाजपा सरकार’ का नारा देते हुए विदा हुए थे और यह कह गए थे कि जब तक दो तिहाई बहुमत नहीं आता है, तब तक किसी कार्यकर्ता को चैन से नहीं बैठना है. शाह गांधी मैदान में नसीहतों की घुट्टी तो पिला गए थे लेकिन भूल गए थे कि वे खुद पहले ही एेलान कर चुके हैं कि बिहार में वे चुनाव नेता की घोषणा कर लड़ेंगे. भाजपा के एक खेमे का मानना है कि नरेंद्र मोदी के नाम पर ही चुनाव लड़ना ठीक होगा और बाद में महाराष्ट्र या हरियाणा की तर्ज पर किसी नेता को सामने करना ठीक होगा. लेकिन भाजपा के लिए बिहार में यह प्रयोग करना आसान न होगा, क्योंकि बिहार में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के मिलन के बाद यह तय हो चुका है िक इस बार चुनाव विशुद्ध रूप से जातीय गणित के आधार पर होगा और जातियों की गोलबंदी मजबूत एजेंडे के साथ सामने एक मजबूत नेता के रहने पर ही होती है.

दूसरी बात यह भी कि बिहार में अब चुनावी लड़ाइयां व्यक्तित्वों के आधार पर लड़ने का ट्रेंड हो चुका है. लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की भी लड़ाई एजेंडे से ज्यादा व्यक्तित्व की लड़ाई थी. विगत लोकसभा चुनाव में भी नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व की ही लड़ाई हुई थी. हालांकि वरिष्ठ पत्रकार अजय कुमार कहते हैं कि लड़ाई एजेंडे पर होगी और उसमें भाजपा पिछड़ जाएगी. राजनीतिक विश्लेषक प्रेम कुमार मणि कहते हैं कि लड़ाई एजेंडे पर भी होगी तो भाजपा अब पहलेवाली नहीं रही है. नीतीश और लालू एक हो गए हैं लेकिन महाविलय में मांझी का बाहर रहना भाजपा के लिए रामबाण का काम करेगा.

और अगर लड़ाई एजेंडे पर हुई तो…

बिहार का चुनाव इस बार जाति के आधार पर होना है यह तय है लेकिन ऊपरी तौर पर विकास और सामाजिक न्याय का एजेंडा रहेगा. सामाजिक न्याय के एजेंडे पर नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव एक मजबूत नेता हैं और उनकी पहचान रही है. उन दोनों नेताओं से मुकाबला करना भाजपा के लिए आसान नहीं होगा. राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन मानते हैं कि राजनीति में कभी भी लड़ाई व्यक्तित्व और एजेंडे पर होती है और लालू सामाजिक न्याय की राजनीति की शुरुआत करनेवाले नेता रहे हैं. नीतीश कुमार ने उसमें विकास, गवर्नेंस आदि का मामला जोड़कर न सिर्फ बिहार बल्कि उत्तर भारत की राजनीति को प्रभावित किया है, इसलिए वे बड़े नेता हैं और एजेंडा सेटर भी. महेंद्र सुमन की बात सही है. नीतीश इस मामले में एक बड़े नेता रहे हैं और उनकी पहचान भी वही रही है. सामाजिक न्याय के एजेंडे पर लड़ने के लिए भाजपा के पास नरेंद्र मोदी की जाति, बिहार के भाजपा नेताओं में सुशील मोदी, नंदकिशोर आदि का पिछड़ी जाति से आना और उपेंद्र कुशवाहा-रामविलास पासवान जैसे नेताओं के साथ रहने से उम्मीद जगती है. भाजपा को यह भी उम्मीद है कि वह ‘जंगलराज’ का नारा लगाकर लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के साथ आने के मसले को भुनाएगी और इसे प्रचारितकर बेड़ा पार कर लेगी. जैसा कि भाजपा नेता शाहनवाज हुसैन कहते हैं, ‘नीतीश कुमार और लालू प्रसाद अकेले चुनाव नहीं लड़ पा रहे हैं, डरे हुए हैं, इसी से पता चलता है कि वे खुद पर कितना भरोसा खो चुके हैं.’ भाजपा नेताओं के ऐसे तर्क होंगे, और यही तर्क चलाने की कोशिश भी होगी. भाजपा के नेता यह भी बताने की कोशिश में लगे हुए हैं कि नरेंद्र मोदी से लेकर बिहार तक में पिछड़े नेताओं की भरमार है. इसका असर भी हो सकता है लेकिन दूसरी ओर इस बार नीतीश कुमार के साथ लालू प्रसाद होंगे. नीतीश कुमार अगर मौन साधकर भी खुलेआम कुछ नहीं बोल सकेंगे तो लालू प्रसाद उसकी भरपाई करते हुए सामाजिक न्याय की आक्रामक बातों को रखकर गोलबंदी की कोशिश करेंगे, जिसे करने में भाजपा को कई बार सोचना होगा, क्योंकि भाजपा अपने बड़े वर्ग सवर्णों को किसी भी हाल में हाथ से निकलने नहीं देना चाहेगी. सामाजिक न्याय के बाद विकास के एजेंडे पर बात होगी तो इस मसले पर भाजपा नेताओं को थोड़ी राहत मिल सकती है और वे इस बात का प्रचार अभी से ही कर रहे हैं कि नीतीश कुमार ने बिहार में तब तक ही कोई काम किया, जब तक भाजपा उनके साथ रही. भाजपा से अलगाव के बाद वे बिहार में कोई काम नहीं कर सके हैं. साथ ही भाजपा इस बात का भी प्रचार करेगी कि जो नीतीश कुमार, लालू प्रसाद के कुशासन और जंगलराज और विकास का काम खत्म हो जाने का एजेंडा बनाकर शासन में आए थे, वे फिर से उसी लालू प्रसाद के साथ हो गए हैं तो बिहार में विकास का काम फिर से भंवरजाल में फंस जाएगा. इसके अलावा भाजपा को एक उम्मीद पहली बार केंद्र की ओर से बिहार के लिए मिले खास पैकेज को प्रचारित कर फल पाने पर है. हालांकि सूत्र यह बताते हैं कि भाजपा विकास को लेकर एक दूसरे एजेंडे पर भी काम कर रही है और संभव है कि अगले दो माह में नरेंद्र मोदी खुद बिहार में आकर ऐसी लोकलुभावन योजनाओं की घोषणा करेंगे, जिससे माहौल बदलेगा. अभी भी सच्चाई यही है कि बिहार में विकास के एजेंडे को जब नीतीश कुमार मसला बनाने की कोशिश कर रहे हैं, भाजपा उन्हें घेर लेने में सफल हो जा रही है. यही उम्मीद भाजपा को सपने पालने की छूट दिए जा रही है. लेकिन सामाजिक न्याय का एजेंडा हो या विकास का मसला, इस बार चुनाव में यह दूसरे मसले होंगे, सारा गणित जातियों के आधार पर लगना है और वह गणित इस बार लगातार उलझता हुआ दिख रहा है. मांझी फैक्टर अलग समीकरण बना रहा है. पप्पू यादव की बगावत अलग कहानी कहेगी.

जाति की राजनीति में कहां टिकेगी भाजपा

भाजपा के सामने तमाम बातों के बीच लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के मिलन के बाद बड़ा सवाल होगा कि जाति की राजनीति में वह कहां टिकेगी? भाजपा किसी तरह बिहार में तीन ध्रुवों की लड़ाई चाहती है, जिसमें एक ध्रुव पर लालू प्रसाद-नीतीश का गठबंधन हो, दूसरे ध्रुव पर भाजपा हो और तीसरे ध्रुव पर जीतन राम मांझी के साथ विद्रोहियों-बगावतियों का खेमा हो. इसलिए बार-बार जीतन राम मांझी द्वारा भाजपा को समर्थन देने का एेलान करने के बाद भाजपा नेता उस बारे में कुछ भी कहने से बच रहे हैं. भाजपा नेताओं को पता है कि मांझी को बैक सपोर्ट करके अलग से ही चुनाव लड़ाने से फायदा हो सकता है, सीधे साथ आ जाने से नुकसान की संभावना ज्यादा है, क्योंकि तब दो ध्रुवीय लड़ाई होगी और भाजपा की राह आसान नहीं रह जाएगी. भाजपा नेताओं का गणित है कि सवर्ण, वैश्य, कुशवाहा, पासवान तो सीधे उसकी झोली में हैं. पप्पू यादव के बगावत के बाद कोसी इलाके का नीतीश और लालू प्रसाद का समीकरण गड़बड़ा सकता है. जीतन राम मांझी के कारण महादलितों का वोट इधर-उधर होगा और इतना मैनेज करने के बाद रास्ता आसान रहेगा. यह कहने-सुनने में तो आसान लगता है लेकिन इस रास्ते मंे दुविधा और पेंच ज्यादा हैं. उपेंद्र कुशवाहा और रामविलास पासवान, दो ऐसे संगी साथी भाजपा के हैं, जो भाजपा की वजह से जीवनदान पाकर तो राजनीतिक रूप से पुनर्जीवित जरूर हुए हैं लेकिन अब उनकी अपनी महत्वाकांक्षा है. लोजपा कार्यालय के बाहर चिराग पासवान बिहार के भावी सीएम के रूप में टंगे मिलते हैं तो उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी रालोसपा की कोई मीटिंग इस नारे के बिना अधूरी रहती है कि बिहार का सीएम कैसा हो-उपेंद्र कुशवाहा जैसा हो, इन नारों का मतलब साफ है कि उपेंद्र या रामविलास पासवान जानते हैं कि चुनाव में बेड़ा पार करने के लिए अपने आधार के विस्तार के लिए भाजपा को उन पर निर्भर रहना पड़ेगा, इसलिए वे ज्यादा से ज्यादा मोलभाव करना चाहेंगे. दूसरा पेंच जीतन राम मांझी को लेकर है, जो अपनी रैली में तो खुलेआम कहते हैं कि वे भाजपा के साथ जा सकते हैं लेकिन बाद में यह भी कह देते हैं कि अगर उनका नेतृत्व स्वीकार हो तो वे लालू-नीतीश के साथ भी जा सकते हैं. यानी जीतन राम मांझी को लेकर भाजपा भी निश्चित नहीं है िक वे आखिरी समय तक किधर रहेंगे और अगर मांझी ने पलटी मारी तो भाजपा का सारा का सारा खेल गड़बड़ा सकता है. पप्पू यादव जैसे नेता भले ही आज बगावती तेवर अपनाकर कोसी इलाके में लालू-नीतीश के लिए परेशानी बनते दिख रहे हों लेकिन वह भाजपा के लिए मददगार साबित होंगे या रास्ता कुछ और तलाशेंगे, अभी कहना मुश्किल है.

चुनाव में सारा गणित जातियों के आधार पर लगना है. मांझी फैक्टर अलग समीकरण बना रहा है. पप्पू यादव की बगावत भी अलग रंग दिखाएगी

भाजपा के लिए जातियों की राजनीति साधने में तीन बिंदुओं को ही साधना सबसे बड़ी चुनौती है. एक तो किसी तरह से महादलितों के वोट को लालू-नीतीश के पाले में जाने से रोकना. दूसरा मुस्लिम मत, जो एकमुश्त इस बार लालू-नीतीश के खाते में जाएंगे, उसमें बिखराव लाना और तीसरा यादव मतों का बिखराव कराना. इसके लिए भाजपा अपनी ओर से तैयारी कर रही है. मुस्लिम मतों के बिखराव के लिए साबिर अली जैसे नेताओं को प्रोमोटकर भाजपा अलग से मुस्लिम नेताओं की पार्टी बनवाना चाहती है. यादव मतों के लिए रामकृपाल यादव और नंदकिशोर यादव को अपने पाले में रखने के बाद वह पप्पू यादव में संभावनाओं के सूत्र तलाश रही है और महादलितों के लिए एकमात्र उम्मीद के तौर पर जीतन राम मांझी हैं. लेकिन इन तीनों योजनाओं में से कोई भी एक योजना ऐसी नहीं है, जिस पर आखिरी समय तक भरोसा किया जा सके.

 …और यह भाजपा के भविष्य का चुनाव है

भाजपा कोई कसर नहीं छोड़ रही है. इस बार आरएसएस की ओर से दत्तात्रेय होसबोले जैसे  संगठनकर्ता कमान संभाल रहे हैं. पार्टी के एक नेता बताते हैं कि बिहार मंे हम किसी भी तरह से हार नहीं चाहते. इसलिए बिहार भाजपा के एक खेमे में यह सुगबुगाहट भी है कि कोई रास्ता न दिखे तो फिर नीतीश के साथ ही जाने में कोई बुराई नहीं. अगर नीतीश के साथ गए तो फिर बी टीम ही बनकर रहना होगा. हालांकि नीतीश कुमार से मिलन की बात आगे नहीं बढ़ पा रही, क्यांेकि दोनों को पता है कि अगर बिहार के भाजपा नेताओं का साथ नहीं मिलेगा, वे िभतरघात करेंगे तो फिर कोई समीकरण काम नहीं आ सकेगा.            l

सेक्स प्रेम की अभिव्यक्ति हो हिंसा की नहीं

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वैवाहिक बलात्कार (मैरिटल रेप) की बात करते समय यह तो जान लें कि विवाह कहते किसे हैं? कानून के अनुसार विवाह उस व्यवस्था को कहते हैं जिसके भीतर जन्म लेनेवाली संतान जायज संतान कही जाती है. जाहिर है कि जब विवाह को संतान के जन्म से जोड़कर ही परिभाषित किया गया है तो इसमें पति-पत्नी के बीच का दैहिक रिश्ता ही है जो उन्हें दंपति बनाता है. दांपत्य के भीतर पति-पत्नी के बीच प्यार, मित्रता, शत्रुता, उदासीनता, उनमें आयु, शिक्षा, पृष्ठभूमि और विचारों के अंतर के बारे में कानून मौन रहता है. ऐसे में इच्छा-अनिच्छा और सहमति-असहमति का प्रश्न जटिल हो जाता है.

वैवाहिक बलात्कार का मसला मीडिया में भले ही आज उठ रहा है, लेकिन यह कोई नया मसला नहीं है. महिलाओं के प्रति हो रही हिंसा को रोकने के लिए बने हमारे नारीवादी संगठन ‘सुरक्षा’ ने 1989 में लखनऊ में वैवाहिक बलात्कार पर गोष्ठी आयोजित की थी, जिसमें तत्कालीन डीआईजी कंचन चौधरी और कानून के प्रो. बलराज चौहान भी शामिल हुए थे. प्रोफेसर चौहान ने बताया था कि कानून 498 ए, के तहत शारीरिक और मानसिक क्रूरता के लिए दंड की व्यवस्था है, इसलिए अलग से कानून नहीं बनाया गया. मगर हमारा मूल प्रश्न अनुत्तरित रह गया था. जहां परस्पर प्रेम के अभाव, वैमनस्य, उदासीनता और अपमानजनक व्यवहार के कारण दैहिक संबंध ही क्रूरता मालूम हो, वहां क्या हो? जहां न हिंसा हो, न मारपीट वहां क्या सेक्स को क्रूरता कहकर 498 ए में दंडित कर देंगे?

पिछले तीस सालों में परिवार के भीतर शोषण की शिकायत लेकर आई हजारों किशोरियों, युवतियों और महिलाओं के लंबे बयान बताते हैं कि दिन भर गाली-गलौज और मारपीट करनेवाले निम्न आयवर्ग के पति से लेकर, सारा दिन घमंड में चूर रहकर पत्नी से सीधे मुंह बात तक न करनेवाले अमीर पति तक रात में शयनकक्ष में स्त्री को यौनदासी के रूप में इस्तेमाल करते हैं. ऐसे पति, पत्नी को बेवफा और बदचलन बताते हैं पर उन्हें घर छोड़कर जाने भी नहीं देते. वह चली जाएगी तो उनकी रोज की खुराक कैसे पूरी होगी? इस तरह स्त्री शरीर उनके रोजाना उपयोग की चीज है. स्त्री रोग विशेषज्ञ भी बताती हैं कि किस प्रकार जच्चा-बच्चा अस्पताल में बच्चे को जन्म देने के लिए भर्ती पत्नी के पति अस्पताल में ही बलात्कार करते हैं और और उन्हें क्षत-विक्षत अवस्था में पड़ा रहने देते हैं. यह बातें हम सब जानते हैं, पर कहते नहीं.

वैवाहिक बलात्कार का मामला इतना सरल नहीं है. यह जानना भी रोचक होगा कि यदि पत्नी घर छोड़कर चली जाए तो उसे वापस बुलाने के लिए हिंदू विवाह कानून की धारा 9 के तहत दावा किया जाता है जिसे बोलचाल की भाषा में तो रुखसती का दावा कहा जाता है मगर उसका कानूनी नाम है ‘रेस्टिट्यूशन ऑफ कांजुगल राइट्स’ यानी दैहिक संबंधों पर अधिकार की पुनर्स्थापना यानी पति का पत्नी से दैहिक संबंध रखने का हक. यदि वह प्रताड़ित होकर भी घर छोड़कर गई है तो भी वापस आकर पति को यह हक सौंपे. यह हक पत्नी को भी है मगर हम सब जानते हैं कि यह दावा पति ही करते हैं. यह स्पष्ट है कि विवाह शरीर पर हक देता है. पितृसत्तात्मक व्यवस्था चलाने के लिए परिवार ही सबसे ताकतवर इकाई है. पितृसत्तात्मक और पैट्रीलोकल व्यवस्था में विवाह का अर्थ स्त्री का सब कुछ पीछे छूट जाना है और पुरुषों को सबकुछ मिल जाना. अपने पुराने परिवार के साथ एक स्त्री भी जो प्रेमिका, पत्नी, संगिनी भी है और सेविका और यौनदासी भी. वह जायदाद का हिस्सा है जिसे जैसे चाहे इस्तेमाल करे.

एक स्त्री ने बताया, उसका पचास वर्ष का पति 16-17 साल की निर्धन लड़कियों को घर लेकर आता है और उसके और बच्चों के सामने ही उनसे संसर्ग करता है

दिल्ली में जब निर्भया कांड हुआ तो उसमें बलात्कार के अलावा मिसोजिनिस्ट (नारी द्वेषी) क्रूरता, बर्बरता, नृशंसता और वहशत शामिल था. हमारे संगठन में हुई चर्चा में अनेक संपन्न परिवारों की प्रतिष्ठित पतियों की पत्नियों ने बताया कि उनके पति तो पिछले 20 वर्षों से इस प्रकार का अस्वाभाविक आचरण कर रहे हैं. बस वे मरी नहीं हैं. माथे पर बिंदी लगाकर, मांग में सिंदूर भरकर, बार्डर और पल्ले की साड़ी पहनकर संभ्रात होने का नाटक रचती इन महिलाओं के कारण ही ‘प्रसन्न भारतीय परिवार’ की छवि बनी रहती है.

वैवाहिक बलात्कार सहते रहने का एक कारण मां होना भी है. कुछ वर्ष पहले हमारे पास एक युवा सिख दंपति का मामला आया था. पति दुकान पर गया हुआ था तो उसकी अनुपस्थिति में सास ने बहू पर उबलता हुआ दूध डाल दिया, फिर तेल छिड़क कर आग लगाने दौड़ी. बहू ने जेठानी के बेटे को दुकान पर भेजकर पति को बुलाने भेजा. पति नहीं आया. रात को लौटा. किस्सा सुनने के बाद भी बैठकर खाना खाता रहा. पत्नी मायके चली गई. पुलिस की मदद से जब हमने पति को बुलवाया तो वह माफी मांगने लगा, पैर छुए और कहने लग, ‘तू बस एक बार घर चल.’ हम लोग द्रवित हो गए और हमें लगा कि संभव है उसका मन बदल गया हो. हमने उससे घर लौट जाने को कहा. वह बोली इसके कहने का मतलब है एक बार तू घर चल जब मां बना दूंगा तो फिर देखता हूं कहां जाएगी? वह भाग्यशाली थी, घर नहीं गई. आज जीवित है और खुश भी. वह अन्य महिलाओं के केस भी सुलझाती है. यदि मां बन गई होती तो क्या वह घर छोड़ पाती?

बलात्कार का अर्थ है कि स्त्री की असहमति से संसर्ग करना, या उसे झांसा देकर संसर्ग करना. पत्नी असहमत क्यों है? असहमत है तो यहां क्यों पड़ी है? घर क्यों नहीं छोड़ देती? क्या आदमी हर बार बाॅन्ड पेपर पर लिखकर सहमति मांगेगा? औरतें भी तो ऐसी हैं, सहूलियतें तो सारी चाहिए और इस बात पर नखरे. ऐसा कहने वाले कई हैं और ऐसा सोचने वाले अधिकांश. इस बात पर स्पष्टता से कह पाना नामुमकिन है कि पति-पत्नी का संबंध किस दिन बलात्कार कहलाएगा और किस दिन संबंध- मगर जानते समझते हम सब हैं कि वर्तमान पारिवारिक व्यवस्था में पत्नी के शरीर पर पुरुष का वर्चस्व है. यह विधि सम्मत है और समाज सम्मत भी. इसी कारण 376 की धारा में पति को शामिल नहीं किया गया है. आज यदि हमारे देश की सरकारें और न्यायपालिका यह कर रही हैं कि ऐसा कानून भारतीय संस्कृति के खिलाफ है, तो क्या वे यह कह रही हैं कि हमारी संस्कृति बलात्कार को प्रश्रय देती है, या वे यह कह रही है कि बलात्कार का इल्जाम लगाएगी तो औरत जाएगी कहां? वह बेघर हो जाएगी. इसका अर्थ तो यह हुआ कि यदि इस घर में रहना है तो अपनी मर्जी के विरुद्घ यौनदासी बनकर रहना होगा. रोटी और छत के बदले यौन सेवा. यह एक सोचने की पद्धति है जिसमें हम मानव को शरीर के रूप में एसेंशियलाइज करते हैं. पुरुष भोक्ता है और स्त्री भोग की वस्तु. इन सारी बातों के आलोक में जब घरेलू हिंसा निवारण विधेयक बन रहा था, उसमें उत्तर भारत के सलाहकारों में हम लोग भी शामिल थे. उसमें शारीरिक, मानसिक हिंसा के साथ-साथ खासतौर पर यौन हिंसा को भी शामिल किया गया था. यौन हिंसा का दायरा बलात्कार से ज्यादा व्यापक है. और फिर बलात्कार भी क्या केवल पति करता है? ‘चादर डालना’, ‘रख लेना’, ‘चूड़ी पहनाना’ आदि क्या है? क्या किशोरियों का बलात्कार चाचा, फूफा और उनके बेटे नहीं करते? यदि न्यायपालिका घरेलू हिंसा कानून (2005) को इसकी पूर्ण भावना से लागू करे तो वैवाहिक बलात्कार करनेवाले को भी दंडित किया जा सकेगा. मेरी राय में यह कानून पर्याप्त है.

नया कानून असली पीड़ित को न्याय नहीं दे सकेगा. वैवाहिक बलात्कार होते ही तब हैं जब पति को विश्वास हो कि पत्नी भयभीत और निरुपाय है. अभी हाल में एक स्त्री आई जिसके दो बेटे हैं. उसका पचास वर्ष का पति 16-17 साल की निर्धन लड़कियों को घर लेकर आता है और उसके और बच्चों के सामने ही उनसे संसर्ग करता है. मां-बेटे रोते हैं. हमने कहा इस बार तुम मायके में रह जाओ. यहां कोई काम कर लो. वह बोली पति एक-एक महीने के अंतराल पर ही दो बार तलाक कह चुका है, तीसरी बार कह दिया तो बच्चों को लेकर कहां जाऊंगी? हमने कहा, फोन पर ही तो कहा है, किसने सुना, तुम कचहरी में इंकार कर देना, ‘नहीं दीदी, खुदा तो देख ही रहा है.’ खुदा से डरने वाली इस नेक बंदी ने इससे भी ज्यादा दर्दनाक बात यह बताई की तमाम अनैतिक रिश्तों के बावजूद पति उसके साथ प्रतिदिन संसर्ग करता ही है. इस कारण से उसे अपने शरीर से घृणा होती जा रही है, क्या यह सामान्य स्त्री अदालत में यह बयान दे पाएगी? लोग कहते हैं कि दहेज के झूठे केस चलाए जा रहे हैं. एक सच यह भी है कि मामला यौन हिंसा और वैवाहिक बलात्कार का होता है पर मुकदमा दहेज का लिखवाना पड़ता है.

यह समय सनसनीखेज चर्चा चलाने का नहीं है. नारी  विमर्श के नाम पर सामान्य यौन आकांक्षा और कामोन्माद में फर्क न करने वालों के लिए यह सरस चर्चा है पर जनसामान्य के लिए नारकीय यंत्रणा. अस्वाभाविक आचरण अपने चरम पर है. अनेक मामलों में पुरुष पोर्न फिल्में दिखाकर पत्नी को वैसा ही आचरण करने पर बाध्य करते हैं. एक युवा लड़की शादी के एक महीने बाद ही तलाक लेने आ गई और उसे अपने पति से शिकायत थी, ‘ही यूजेज मी लाइक अ बॉय.’ समलैंगिक लड़के भी घर की सफाई और रोटी-पराठे बनाने के लिए लड़कियों से शादी करके उन्हें इस प्रकार उत्पीड़ित करते हैं.

यह समय गंभीर अंतर्दर्शन का है. स्त्री-पुरुष समकक्षता की चेतना जगाए बिना इस समस्या का समाधान नामुमकिन है. सेक्स प्रेम की अभिव्यक्ति हो न कि हिंसा की. शादी को वर्चस्व और शक्ति प्रदर्शन का उपकरण न बनाएं, इस भावना के साथ चलकर ही इसे रोका जा सकता है.

दोराहे पर राय

Muslim brides sit as they wait for the start of a mass marriage ceremony in Ahmedabad

 

बलात्कार पर दो नजरिए कभी नहीं हो सकते. बलात्कार हर हालत में बलात्कार होता है, चाहें वह सड़क पर हो या किसी शादीशुदा जोड़े के बेडरूम में. अपराधी पति, पिता, भाई या प्रेमी, कोई भी हो अगर उसने घर के अंदर या बाहर बलात्कार किया है तो उसे कभी भी कमतर यौन हिंसा के बतौर नहीं देखा जाना चाहिए. अगर इस सामान्य से तथ्य को पैमाना बनाकर एक प्रगतिशील कानून और वैधानिक सुधार के लिए पहल की जाए तो हमारी न्यायपालिका और राजनीतिक संगठन एक बेहतर लोकतांत्रिक और समतामूलक समाज बनाने की दिशा में आगे बढ़गी.

2012 में भयावह निर्भया बलात्कार कांड के बाद घटी बहुत सी घटनाओं ने बलात्कार को देश की मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों के लिए चिंता का विषय बना दिया था. आपराधिक कानून में संशोधन के लिए न्यायाधीश जेएस वर्मा के नेतृत्व में एक समिति गठित की गई. वर्मा समिति द्वारा पेश की गई रिपोर्ट में बहुत सारे सुझाव शामिल किए गए. वर्मा समिति ने अपनी रिपोर्ट में वैवाहिक बलात्कार को लेकर कई सिफारिशें कीं जैसे यौन प्रताड़ना को परिभाषित करने की बात ताकि इसमें असहमति और यौन प्रकृति के दूसरे कृत्यों को शामिल किया जा सके. समिति ने सिफारिश की थी कि आईपीसी के तहत वैवाहिक बलात्कार को मिली छूट भी हटाई जानी चाहिए. हालांकि जब समिति की सिफारिशों को गृह मंत्रालय की संसदीय स्थाई समिति के पास भेजा गया तो समिति के दो सदस्यों को छोड़कर सभी ने इन सिफारिशों को सिरे से खारिज कर दिया. आखिर क्या कारण है कि हमारे सांसद वैैवाहिक बलात्कार का मुद्दा उठने के साथ ही असहज हो जाते हैं?

कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव शकील अहमद ‘तहलका’ से बातचीत में कहते हैं, ‘मीडिया में आई बहुत सारी रिपोर्ट और सर्वेक्षण के अनुसार, हमारे यहां की आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों की वजह से औरतों की स्थिति लाभवाली नहीं है. इस संबंध में वर्मा समिति ने कुछ सिफारिशें की हैं लेकिन सवाल ये है कि साथ रह रहे लोगों की गतिविधियों पर कानून कैसे नजर रखेगा. इस वजह से इस मुद्दे पर एक राष्ट्रीय स्तर पर बहस चलाने की दरकार है. किस तरह का कानून होना चाहिए इसे लेकर आम सहमति बनाने की जरूरत है.’

वैवाहिक बलात्कार को लेकर तमाम राजनेताअों ने समय-समय पर अपनी चिंता जताई  है. ये चिंताएं मुख्य रूप से दो सामाजिक मिथकों पर आधारित हैं. पहला, एक शादीशुदा महिला इस कानून का अपने पति के खिलाफ दुरुपयोग कर सकती है. दूसरा, दंपति के बेडरूम में घुसपैठ करने की इजाजत कानून को नहीं मिलनी चाहिए. भाजपा सांसद महेश गिरि के अनुसार ‘वैवाहिक बलात्कार जैसे जटिल मामले को देखते हुए थाने में बैठे पुलिस अधिकारियों को पहले यह सुनिश्चित करना चाहिए कि केस दर्ज किए जाने योग्य है या नहीं. नहीं तो अक्सर यह देखने को मिलता है कि पति से बदला लेने के लिए पत्नी उस पर दुष्कर्म का आरोप लगा देती है.’

1980 के दशक में चले जोरदार महिला आंदोलनों की बदौलत महिलाओं से जुड़े बहुत सारे मुद्दों को लेकर सीधे-सीधे कानून बनाया जा सका था. इसी दौर में विधायिका ‘दहेज हत्या’ और ‘दहेज प्रताड़ना’ को घरेलू हिंसा के तहत जोड़कर देख रही थी, जिसे समीक्षा के तहत रख दिया गया. उस दौर के कानून के मुताबिक दहेज प्रताड़ना में सिर्फ घरेलू हिंसा को जोड़ा गया था. इसलिए आईपीसी में संशोधन की जरूरत महसूस की गई. इसी संदर्भ में 1998 में घरेलू हिंसा (रोकथाम) अधिनियम अस्तित्व में आया.

परिवार के अंदर किसी भी महिला के प्रति शारीरिक, यौन, मौखिक, भावनात्मक तौर पर हिंसा को घरेलू हिंसा (रोकथाम) अधिनियम, 1998 के तहत रखा गया. इसके अलावा दहेज की धारणा भर को भी घरेलू हिंसा के तहत माना गया. अिधनियम के तहत यह भी माना गया कि मां, बेटियां, बहनें और पत्नियाें के अलावा अनौपचारिक संबंधों में

रह रहीं महिलाएं भी घरेलू हिंसा की शिकार हो सकती हैं.

इस अधिनियम ने जब प्रगतिशील लैंगिक राजनीति के दरवाजे खोले तब इसके दुरुपयोग के भी सवाल उठे. इसी वजह से शकील अहमद  और महेश गिरि जैसे नेता वैवाहिक बलात्कार के संदर्भ में संदेह प्रकट कर रहे हैं, क्योंकि घरेलू हिंसा (रोकथाम) अधिनियम 1998 के तहत कई सारे ऐसे मामले भी दर्ज कराए गए जो बाद में झूठे साबित हो गए थे. हालांकि जब कोई उन झूठे मामलों की ओर देखता है तो वह इसे घरेलू हिंसा के दर्ज न होने वाले मामलों की तुलना में नगण्य पाता है.

घरेलू हिंसा (रोकथाम) अधिनियम का दुरुपयोग कोई भी महिला अपनी दुश्मनी निभाने के लिए कर सकती हैं, जैसे अनगिनत तर्क 1998 में इसे लागू होने से नहीं रोक सके बल्कि साल 2005 में घरेलू हिंसा से महिलाओं के संरक्षण अधिनियम से इसे और मजबूती मिली. बाद में इसके दुरुपयोग किए जाने का तर्क हल्का साबित होने लगा जब ये पाया गया कि इस कानून की मदद से बड़ी संख्या में महिलाएं घरेलू हिंसा से लड़ाई  लड़ने में सक्षम हो गईं. 2005 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार, महिलाओं के साथ काेई और नहीं बल्कि सबसे ज्यादा यौन हिंसा उनके पतियों ने ही की है. वैवाहिक बलात्कार से जुड़े मौजूदा कानून के तहत पति को छूट देकर भारत में यौन हिंसा के खिलाफ लड़ाई को पंगु बनाने का काम किया जा रहा है.

आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता आशुतोष का कहना है कि शादी किसी भी पुरुष को उसकी पत्नी की इच्छा के विरुद्घ उससे संबंध बनाने की इजाजत नहीं देती. दूसरे शब्दों कहा जाए तो जब वैवाहिक बलात्कार की बात होती है तो मुख्य मुद्दा ‘सहमति’ ही होता है. लेकिन क्या कानून ने ‘सहमति’ और स्वीकार्य यौन हिंसा के बीच दीवार खड़ी कर दी है?

दो साल पहले भारतीय शयनकक्षों में जबरन कानून तब लागू किया गया जब सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को गैरअपराध मानने के खिलाफ आदेश दिया. कोर्ट ने तब यह घोषित किया था कि आईपीसी की धारा 377 के अनुसार किसी भी तरह का सेक्स, चाहें वो सहमति से हो या असहमति से और जो अप्राकृतिक हो उसे अपराध माना जाएगा. तब ‘अप्राकृतिक यौन संबंधों’ को लेकर कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और अधिवक्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ आवाज उठाई थी, लेकिन इसे पूरी तरह से नकार दिया गया.

वैवाहिक बलात्कार के मामले में कानून की स्थिति जो भी हो, उनमें यही कहा जाएगा कि कोई भी जब शादी कर लेता है तब उसके मूल अधिकार खत्म हो जाते हैं

ऐसे में तमाम तरह की शैलियों में होने वाले यौन संबंधों को लेकर सवाल उठाए गए. उन्हें कानूनी और गैरकानूनी मानने को लेकर बहसों का दौर चला, लेकिन अदालत ने इन तमाम सवालों से किनारा करके सिर्फ स्त्री-पुरुष संबंधों को बरकरार रखने तक सीमित रखा है. हालांकि अपने आदेश में अदालत ने संसद में धारा 377 की प्रासंगिकता पर बहस की जरूरत पर बल जरूर दिया. ‘वैवाहिक अधिकारों की बहाली’ शीर्षक वाले हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 9 के तहत यह प्रावधान किया गया है कि अगर दांपत्य जीवन में पति या पत्नी में से कोई भी साथ छोड़ देता है तो ऐसी स्थिति में अदालत उसे वापस उसके साथ घर जाने का आदेश दे सकती है.

इस मसले पर 1983 में एक ऐतिहासिक फैसला देते हुए आंध्र प्रदेश हाई कोर्ट ने कहा था कि यह कानून व्यक्तिगत यौन स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है. विवाह को पवित्र संस्था मानने से इंकार करते हुए टी. सरीता बनाम वी. वेंकटसुबैया मामले में न्यायाधीश जे. चौधरी ने फैसला सुनाते हुए कहा था कि धारा 9 वैवाहिक संबंधों में यौन संबंध बनाने या न बनाने के किसी व्यक्ति के अधिकार को राज्य को सौंप देती है. उन्होंने आदेश दिया कि इस तरह से अधिकारों का हस्तानांतरण किसी व्यक्ति की संपूर्णता को नुकसान पहुंचाएगा. साथ ही उसके या उसकी वैवाहिक और घरेलू निजता का उल्लंघन करेगा. हालांकि धारा 9 दंपति (पति या पत्नी) के बीच जबरन संबंध बनाने का अधिकार नहीं देती है. न्यायाधीश चौधरी का मानना था कि महिला को ऐसा करने पर बाध्य होना पड़ता है क्योंकि स्त्री-पुरुष के बीच खासकर वैवाहिक संबंधों में शक्ति पुरुष के हाथों में ही होती है. इस मामले में निष्कर्ष के तौर पर न्यायाधीश ने एक व्यक्ति विशेष के अधिकारों को ऊपर रखते हुए कहा था कि धारा 9, संविधान के अन्तर्गत अनुच्छेद 21 के तहत देश के नागरिकों को जीवन जीने और निजी स्वतंत्रता के मूल अधिकार का उल्लंघन है.

दुर्भाग्यवश, दिल्ली हाई कोर्ट ने न्यायाधीश चौधरी के फैसले को एक साल के भीतर ही पलटते हुए यह कहा था कि संविधान के प्रावधानों को बेडरूम में घुसपैठ की इजाजत देना ‘चीनी मिट्टी के बर्तन की दुकान में सांड़’ को प्रवेश की अनुमति देने जैसा है और इसके चलते विवाह नाम की संस्था बर्बाद हो जाएगी. उस साल के बाद में दिल्ली हाई कोर्ट के ‘विवाह संस्था को बचाए रखने’ की दलील से सुप्रीम कोर्ट भी सहमत दिखा. बहरहाल वैवाहिक बलात्कार के मामले में कानून की स्थिति जो भी हो, लेकिन जो स्थितियां हैं उनमें यही कहा जाएगा कि कोई भी जब शादी के बंधन में बंध जाता है तब उसके मूल अधिकार समाप्त हो जाते हैं. लोकतंत्र के लिहाज से हकीकत में यह अच्छी बात नहीं है.

 वरुण बिधुड़ी के सहयोग से