एकला चलो रे…

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सीताराम येचुरी के पास स्पष्ट नजरिया है लेकिन उन्हें धुंधलकों से भरे रोडमैप के सहारे संघर्षों से पार पाना होगा. हालांकि येचुरी अपार क्षमताओं से भरे हुए हैं और वे तमाम कठिनाइयों और विरोधाभासों से पार पाने के लिए जाने जाते हैं. वे अपने नजरिए और मान्यताओें को स्थापित करने के लिए जाने जाते हैं. नेतृत्व कौशल से भरपूर 62 वर्षीय येचुरी को यह पता है कि उनके सामने अलीमुद्दीन स्ट्रीट से लेकर एके गोपालन भवन तक चुनौतियों का पहाड़-सा खड़ा है. संभव है कि इन चुनौतियों को दूर करने के लिए उन्हें पार्टी में पुनर्निर्माण की प्रक्रिया चलाने की दरकार होगी.

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) यानी माकपा के नए प्रमुख को इस बात का भी खयाल रखना होगा कि पार्टी के अंदर वरिष्ठ नेता वीएस अच्युतानंदन सहित दूसरे बड़े नेता भी हैं, जो पार्टी के अंदर निर्णय लेने की भूमिका में रहे हैं, उनकी किसी तरह की उपेक्षा न हो और तत्काल तकरार जैसी कोई स्थिति न पैदा हो.

येचुरी की कुशाग्रता और उनकी प्रतिभा का जश्न मनाया जा चुका है और उनकी बुद्घिमत्ता वामपंथ के करीबी लोगों के बीच स्वीकार्य है. वे इस बारे में टिप्पणी भी कर चुके हैं. येचुरी के हाथ में व्यावहारिक चुनौतियां ये हैं कि वे अपनी प्रतिभा से पार्टी की साख को कितना विस्तार दे पाएंगे? क्या वे ग्रीस और लातिन अमेरिका में वामपंथ के अनुभवों से सीख लेंगे और उसके आधार पर नेतृत्व दे पाएंगेे?

वामपंथ को कमजोर छवि से बाहर निकालने का जिम्मा

येचुरी का लोगों से मेलजोल का कौशल बहुत बड़ा है. वामपंथ के पुराने लोग एक कहानी याद करते हैं कि कैसे ज्याेति बसु ने येचुरी को ‘खतरनाक’ कॉमरेड बताया था. श्रद्घेय ज्योति बसु ने येचुरी के लिए ऐसा कहने के पीछे यह वजह बताई थी कि वे बहुत सारी भाषाओं में बहुत सहजता से संवाद कर सकते हैं. वे बंगाल के कॉमरेडों के साथ बांग्ला में बात कर सकते हैं. ठीक इसी तरह वे दूसरी भारतीय भाषाओं में अच्छी तरह संवाद कर लेते हैं. लेकिन माकपा प्रमुख होने के नाते उन्हें उत्साह व प्रेरणा से भर देनेवाली भाषा में बात करनी होगी ताकि वामपंथ की कमजोर छवि से उसे बाहर निकाला जा सके.

2004 में कांग्रेस नेतृत्ववाली केंद्र की यूपीए सरकार को माकपा ने समर्थन दिया था तो फिर वह पश्चिम बंगाल के आगामी चुनाव में कांग्रेस का साझीदार क्यों नहीं बन सकती है

क्या इस तीक्ष्ण बुद्घिवाले प्रबंधक के नेतृत्व में वामपंथ नया रोडमैप बनाने के बारे में पुनर्विचार करेगा? येचुरी बहुत विकट परिस्थितियों में आत्मविश्वास से भरे होते हैं और अखंडित वामपंथ और माकपा को बदलने में उनकी सकारात्मक सोच महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी. संभव है कि पार्टी जड़ता और समस्याओं से घिरी हो लेकिन पार्टी की पतवार अब जोरदार नए प्रमुख के पास तो है ही. यहां एक बुनियादी सवाल यह पैदा होता है कि अकेले दम पर येचुरी पार्टी (माकपा) का भविष्य बदलने में कहां तक कामयाब हो पाएंगे? इस बारे में पार्टी के एक सक्रिय कार्यकर्ता तंज कसते हुए कहते हैं, ‘प्रकाश करात के जमाने से चली आ रही विरासत के तौर पर समस्या का अंत तो हुआ. अब हम कम से कम नए क्षितिज की ओर देख तो सकते हैं.’

पहाड़-सी चुनौतियां

वाम की दिलेरी मात्र से नव-उदारवाद और घोर पूंजीवाद की समस्याओं  से निपट पाने में शायद ही कामयाबी मिल पाएगी और इसके दम पर तुरत-फुरत शायद ही बदलाव की संभावना निकाली जा सकेगी. माकपा के महासचिव ने राजग सरकार को राष्ट्रपति के धन्यवाद अभिभाषण के दौरान एक संशोधन के लिए दबाव डालकर मुश्किल में डाल दिया था. इस तेजतर्रार नेता को असली चुनौती तो पोलित ब्यूरो और केंद्रीय समिति में मिलनेवाली है जहां उन्हें गैर-समझौतावादी कॉमरेडों से नई राजनीतिक चुनौतियों से पार पाने के लिए तौर-तरीकों में बदलाव लाने के बारे में उनकी हठधर्मिता से जूझना होगा.

पार्टी के विशाखापत्तनम सम्मेलन को लेकर थोड़ा गौर फरमाना जरूरी होगा. येचुरी को अच्युतानंदन के अलावा केरल इकाई की घोर नकारात्मक ताकतों से भी जूझना होगा. लेकिन सच तो यह है कि पार्टी खुद भी इनको लेकर उधेड़बुन में रही है और करात भी व्यक्तिगत तौर पर इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं थे कि बुद्घिमत्ता, हठधर्मिता पर जीत दर्ज कर लेगी.

माकपा का पार्टी कांग्रेस (सम्मेलन) इस मायने में ऐतिहासिक हो गई कि इसमें पहली बार ऐसा हुआ जब पोलित ब्यूरो इस निर्णय पर एकमत नहीं हो पाया कि पार्टी का नेतृत्व कौन करेगा और यह असमंजस की स्थिति तब है जब पार्टी अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. प्रतिस्पर्द्घी केरल इकाई ने एस. रामचंद्रन पिल्लई के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाया. यहां तक कि उन्होंने बंगाल इकाई के लोगों से सीताराम येचुरी को अगले महासचिव के तौर पर प्रस्तावित नहीं करने का अनुरोध भी किया था.

केरल और बंगाल के मतांतर को तवज्जो नहीं

येचुरी को केरल इकाई का जोरदार विरोध झेलना पड़ा लेकिन अंत में व्यक्तिगत प्रसिद्घि की वजह से उन्हें जीत मिली. येचुरी की जीत से बंगाल इकाई गदगद है और यही कारण है कि बंगाल में पार्टी को फिर से मजबूत स्थिति में ला पाना उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती होगी. वे यह जानते हैं कि इस उदासीन और बंटे हुए माहौल के बीच पार्टी को अगले साल होनेवाले चुनाव की भी तैयारी शुरू करनी हैै. वास्तविकता तो ये है कि हर कोई प्रकाश करात और उनके अंतर्मुखी स्वभाव को वामपंथ की दुर्गति के लिए जिम्मेदार ठहरा रहा है. हालांकि पश्चिम बंगाल में मिली हार के समय येचुरी पार्टी के पश्चिम बंगाल इकाई के प्रभारी थे. येचुरी और बंगाल पार्टी इकाई ने हार के तत्काल बाद यूपीए-1 से समर्थन वापसी लेने के निर्णय के वक्त को जिम्मेदार ठहराया था. उनका कहना था कि यूपीए-1 से समर्थन वापस लेने के तुरंत बाद राज्य में चुनाव संपन्न होना था और कांग्रेस ने वाम की हार को सुनिश्चित करने के लिए तृणमूल का दामन थाम लिया था.

पश्चिम बंगाल में इस समय पार्टी की हालत बहुत खराब है और इसका जनाधार तेजी से सिकुड़ रहा है और दूसरी ओर राज्य में भाजपा अपना दखल तेजी से बढ़ा रही है. इस बिगड़ती हुई तस्वीर को येचुरी कैसे संभाल सकेंगे?  क्या वे दुर्जेय हरकिशन सिंह सुरजीत से सीख लेकर ऐसी राजनीतिक रणनीति बनाएंगे जिसके बूते बंगाल को फिर से फतह किया जा सकेगा? पार्टी के पुनर्गठन की दिशा में यह सबसे जरूरी कदम होगा.

नवउदारीकरण से समझौता नहीं

वाम खुद को दलदल में फंसा हुआ महसूस कर रहा है, यह आसानी से कहा जा सकता है लेकिन उसे इस स्थिति से बाहर निकल पाना उतना ही मुश्किल होगा. माकपा ने अपने 21वें पार्टी सम्मेलन में यह निर्णय लिया है कि वह नव-उदारवादी नीतियों काे बढ़ावा देनेवाली कांग्रेस और किसी भी क्षेत्रीय पार्टियों के साथ समझौता नहीं करेगी. मार्क्सवाद-लेनिनवाद की पुरानी किताबों में लिखी बातों पर गौर करते हुए पार्टी यह मान रही है कि नव-उदारवादी नीतियों के खिलाफ लोगों को एकजुट किया जा सकता है. लेकिन पार्टी को अपने गढ़ में राजनीतिक हड़ताल के आयोजन में भी बहुत मुश्किलें पेश हो रही हैं. क्या पार्टी अपने इस धर्मनिष्ठ तौर-तरीकों के जरिए इस संकट से पार पा सकेगी?

माकपा में बहुत सारे लोग चुनाव के मद्देनजर कांग्रेस के साथ गठजोड़ करने के पक्ष में हो सकते हैंै. बंगाल की पार्टी इकाई पिछले चुनाव में पराजय के बाद कांग्रेस के साथ गठजोड़ करने में दिलचस्पी दिखा रही है. येचुरी के लिए यह अकेले रस्सी पर चलने जैसा होगा. पश्चिम बंगाल में अगर पार्टी कांग्रेस के साथ गठजोड़ कर पाने में किसी वजह से सक्षम नहीं होती है तो यह तय है कि केरल इकाई को इससे चिढ़ मचेगी और उसे प्रतिरोध का मौका देने जैसा होगा. केरल माकपा की सबसे पुरानी इकाई है.

पश्चिम बंगाल में कांग्रेस का साथ !

गौरतलब है कि माकपा ने 2004 में केंद्र में कांग्रेस की नेतृत्ववाली यूपीए सरकार को समर्थन दिया था. अगर पार्टी केरल और पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के खिलाफ मोर्चा लेती है और केंद्र में कांग्रेस को समर्थन देती है तो फिर यह सवाल बहुत लोगों के मन में उठ सकता है कि फिर समर्थन के उन्हीं तर्कों के साथ बंगाल चुनाव में इस बार पार्टी कांग्रेस के साथ गठजोड़ क्यों नहीं कर सकती है? लेकिन येचुरी, सुरजीत नहीं हैं और ज्योति बसु जैसे लोग अब जिंदा नहीं हैं जो अपनी कुशाग्र और व्यावहारिक बुद्घि के बल पर पार्टी को केंद्र में बनाए रख पाने में सक्षम थे और अब उनकी प्रतिकृति तैयार कर पाना भी आसान नहीं है.

भूमि अधिग्रहण विधेयक का विरोध करने के लिए विपक्ष को एक करना बहुत जरूरी होगा. अधिग्रहण के मसले पर राज्यसभा में सीताराम येचुरी को विरोध का परचम लहराने के लिए कांग्रेस और दूसरी बुर्जुआ पार्टी को अपने साथ लेना बहुत जरूरी होगा. राष्ट्रपति द्वारा संसद को संबोधित करने के समय विपक्ष को एकजुट करने का काम येचुरी बखूबी निभा सकेंगे. वे उत्प्रेरक का काम भलीभांति कर पाएंगे. सदन के पटल पर इससे इतर येचुरी के लिए दूसरी वामपंथी पार्टियों के बड़े नेताओं का दबाव झेलना एक बड़ी चुनौती होगी और यह सीपीएम के लिए कांग्रेस जैसी धर्मनिरपेक्ष पार्टी के साथ गठजोड़ में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा. इसी साल पश्चिम बंगाल में होनेवाले सीपीएम के विशेष प्लेनम (कुछ खास स्थिति में छोटा सम्मेलन आयोजित किया जाता है) में संगठन की दिक्कतों के बारे में चर्चा की जाएगी. येचुरी पार्टी के कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा करने और उसे दूर करने को लेकर लंबे समय तक इंतजार नहीं करना चाहेंगे.

 कैडर सिस्टम पड़ा कमजोर

पार्टी के केंद्रीय कमेटी के सदस्य सुनीत चोपड़ा ने सीपीएम छोड़ने के बाद जो प्रतिक्रिया दी थी, उसके बाद यह महसूस किया गया था पार्टी में कैडर सिस्टम ढीला पड़ गया है. पार्टी को अनुशासन को लेकर सख्ती करनी होगी. सुनीत चोपड़ा लगभग दो दशकों तक पार्टी की केंद्रीय समिति के सदस्य रहे. उन्होंने पार्टी छोड़ने के बाद यह आरोप लगाया था कि वह पार्टी इसलिए छोड़ रहे हैं क्योंकि वे करात की चापलूसी नहीं कर सकते हैं. उन्होंने नेतृत्व के मोर्चे को लेकर कई बार सवाल उठाए थे.

येचुरी की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वह माकपा के जनाधार का कितना विस्तार कर पाते हैं और वह दूसरी पार्टियों से रिश्ते कितने बेहतर बनाकर रख पाते हैं

केरल के विद्रोही लोकप्रिय नेता अच्युतानंदन इस बात के लिए बाध्य होंगे क्योंकि उनके और येचुरी के बीच घनिष्ठ संबंध हैं. नए महासचिव अगर गैर-कृषक नेता को तवज्जो देंगे तब केरल इकाई किस तरह प्रतिकिया देगा, यह देखने वाली बात होगी. केरल इकाई में यह चर्चा है कि येचुरी राज्य समिति में अच्युतानंदन को शामिल करने के लिए जोर डालेंगे. लेकिन येचुरी केरल इकाई की इच्छाओं का भी जरूर ख्याल रखना चाहेंगे क्योंकि पोलित ब्यूरो में चार और केंद्रीय समिति में 14 सदस्य इसी राज्य से आते हैं. येचुरी बंगाल और केरल के बीच समन्वय बिठा पाने में समर्थ होंगे और अगर वे ऐसा कर पाएं तो उनके लिए यह सफलता की बड़ी कुंजी होगी. पार्टी की चुनौतियों से पार पाने में येचुरी की बुद्घिमत्ता की परीक्षा होनी तय है.

सुरजीत को छोड़कर अबतक माकपा के सभी महासचिव दक्षिण भारत के हुए हैं लेकिन येचुरी को राज्यसभा का टिकट पश्चिम बंगाल से मिला. येचुरी इस बात के लिए जाने जाते हैं कि वे अपने पूर्व के लोगों की तुलना में लोगों की आसान पहुंच में हैं और वे विचारधारा के सवाल पर अपनी खिड़की खुली रखते हैं. येचुरी को शीर्ष पर पहुंचने से रोकने की हरसंभव कोशिश इनके पूर्ववर्ती नेताओं ने की. येचुरी अब मुक्त हैं और उनकी सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वह माकपा  के जनाधार का विस्तार कर पाने में कितने कारगर होंगे. उनकी सफलता इसपर निर्भर होगी कि वे दूसरी पार्टियों से कितना अच्छा रिश्ता कायम रखने में कामयाब हो पाते हैं. क्या वे इस असंभव काम माकपा को पराभव के कीचड़ से बाहर निकालने में कर पाएंगे? अगर वे आंशिक तौर पर भी सफल होते हैं तो यह उनकी जोरदार सफलता होगी.

करिश्माई कॉमरेड

क्या ‘लेफ्ट हैंड ड्राइव’ के लेखक पार्टी को सही दिशा में ले जा पाएंगेे? पूरी दुनिया में वामपंथी आंदोलन के बहुत सारे नायक और नायिकाएं हुए हैं जिनकी अपनी एक छवि रही है, इनमें से एक नाम पार्टी के नए चुने गए महासचिव का भी है.

मौजूदा भारतीय राजनीति में सीताराम येचुरी को लोग जलवाफरोश के बतौर याद करते हैं. वे कभी भी बहुत हड़बड़ी में नहीं दीखते हैं. अलग-अलग भाषा में अपनी निपुणता बढ़ाने के अलावा माकपा के नए प्रमुख की छवि कुछ-कुछ ज्योति बसु की तरह बनती जा रही है. उनकी सौम्यता और मधुरता से अपनी बात रखने की कला क्या वामपंथ को सुरक्षा दे पाएगी? वे राज्यसभा में अक्सर हस्तक्षेप करते हैं. येचुरी 1984 -1992 तक माकपा की केंद्रीय समिति के सदस्य रहे और 1992 से पोलित ब्यूरो के सदस्य हैं. उनके कई रंग हैं. वे राजनेता, अर्थशास्त्री, लेखक और स्तंभकार के तौर पर पहचाने जाते हैं.

येचुरी का जन्म तत्कालीन मद्रास (अब तमिलनाडु) राज्य के एक तेलगु परिवार में 12 अगस्त 1952 को हुआ था. उनके पिता का नाम सर्वेश्वर सोमायाजुला येचुरी है. उनके पिता आंध्रप्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम में इंजीिनयर थे. येचुरी ने स्कूल की पढ़ाई आंध्र प्रदेश में पूरी की और सीबीएससी द्वारा आयोजित बारहवीं कक्षा में वे प्रथम आए. इसके बाद वे कॉलेज की पढ़ाई के लिए हैदराबाद स्थित निजाम कॉलेज पहुंचे. उन्होंने मुल्की और गैर मुल्की के आंदोलन में शामिल होने के लिए कॉलेज की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी.

येचुरी ने अपनी पढ़ाई दोबारा शुरू की. उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफंस कॉलेज से अर्थशास्त्र में बीए. की पढ़ाई पूरी की और अर्थशास्त्र में एमए. की पढ़ाई के लिए जवाहर लाल नेहरू (जेएनयू), नई दिल्ली में दाखिला लिया. वे यहां आकर वामपंथी आंदोलन से प्रभावित हुए और 1974 में स्टुडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया (एसएफआई) से जुड़ गए. युवा नेता को आपातकाल के दौरान गिरफ्तारी की वजह से अपनी पीएचडी की पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी थी. बाद में वे जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गए.

येचुरी 1978 में एसएफआई के राष्ट्रीय संयुक्त सचिव बनाए गए और कुछ समय के बाद उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया. 1984 में येचुरी को माकपा की केंद्रीय समिति में शामिल कर लिया गया और उसके बाद अगले ही साल उनका चयन पार्टी की फैसला लेने वाली इकाई के लिए हो गया.

वे राज्यसभा के लिए पहली बार 2005 में चुने गए और इस दौरान वे कई संसदीय समिति के सदस्य रहे और वहां अपनी महत्वपूर्ण सेवाएं दीं. वे 2011 में राज्यसभा के लिए दोबारा चुने गए. इस वामपंथी नेता ने विपक्ष की ओर से अहम भूमिका निभाई.

‘लेफ्ट हैंड ड्राइव’ के अलावा येचुरी ने ‘ह्वाट इज हिंदू राष्ट्र?’ पुस्तक लिखी है. येचुरी ने पत्रकार सीमा चिश्ती से शादी की और उनके लेख नई दिल्ली से प्रकाशित होनेवाले कई महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में नियमित तौर पर प्रकाशित होते हैं. पार्टी ढलान पर है लेकिन येचुरी के पाठकों का दायरा अभी भी व्यापक है. येचुरी को एक बेटी और दो बेटे हैं. वे अपने कॉलेज के दिनों में टेनिस के अच्छे खिलाड़ी भी हुआ करते थे.