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राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग पर विवाद

Supreme Court by Shailendra 3

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) क्या है?

भारत में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति और तबादले के लिए प्रस्तावित निकाय का नाम राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग है. इस आयोग में कुल छह सदस्य होंगे. भारत के प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) इसके अध्यक्ष और सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठ न्यायाधीश इसके सदस्य होंगे. केंद्रीय कानून मंत्री को इसका पदेन सदस्य बनाए जाने का प्रस्ताव है. दो प्रबुद्ध नागरिक इसके सदस्य होंगे, जिनका चयन प्रधानमंत्री, भारत के प्रधान न्यायाधीश और लोकसभा में नेता प्रतिपक्षवाली तीन सदस्यीय समिति करेगी. अगर लोकसभा में नेता विपक्ष नहीं होगा तो सबसे बड़े विपक्षी दल का नेता चयन समिति में होगा. आयोग सुप्रीम कोर्ट तथा हाई कोर्ट के न्यायाधीश पद हेतु उस व्यक्ति की नियुक्ति की सिफारिश नहीं करेगा, जिसके नाम पर दो सदस्यों ने सहमति नहीं जताई होगी.

क्या है विवाद?

आयोग को लेकर विवाद के कारण सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दाखिल की गई हैं. मुख्य विवाद आयोग में कानून मंत्री को शामिल किए जाने को लेकर है. मामले में याचिकाकर्ता के वकील राम जेठमलानी ने सुप्रीम कोर्ट आयोग में कानून मंत्री की मौजूदगी पर सवाल उठाए. उन्होंने कहा कि भ्रष्ट सरकार भ्रष्ट न्यायपालिका चाहेगी और भ्रष्ट जजों की नियुक्ति करेगी. नेताओं को जजों की नियुक्ति में शामिल नहीं होना चाहिए. नेताओं के हितों का टकराव हमेशा रहता है और ये सिस्टम पूरी न्यायपालिका को दूषित करेगा. सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश एचएल दत्तू का कहना है कि जब तक शीर्ष अदालत इस मामले में कोई निर्णय नहीं सुनाती तब तक वह इस आयोग में शामिल नहीं होंगे. आयोग बनाने के लिए नया कानून कॉलेजियम सिस्टम खत्मकर 13 अप्रैल से लागू किया गया.

पहले क्या थी व्यवस्था?

वर्तमान में न्यायाधीशों की नियुक्ति एवं स्थानांतरण का निर्धारण एक कोलेजियम व्यवस्था के तहत होता है. इसमें सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश सहित चार अन्य वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं. यह प्रक्रिया वर्ष 1998 से लागू है. इसके तहत कोलेजियम सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति की अनुशंसा करता है.

पप्पू यादव राजद से छह साल के लिए बाहर

Pappu Yadav with wife by Shailendra 2

बिहार में विधानसभा चुनाव से पहले राजनीतिक समीकरणों के बनने बिगड़ने का खेल शुरू हो चुका है. जनता परिवार के निर्माण के साथ राज्य की राजनीति में आए बदलाव ने एक और नया मोड़ ‌ले लिया है. दिग्गज नेता लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद से पप्पू यादव को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है. पार्टी ने उनके लिए अपने दरवाजे छह सालों के लिए बंद कर दिए हैं. जानकारी के अनुसार, पार्टी विरोधी ‌गतिविधियों में लिप्त होने और अनुशासनहीनता के आरोप में यह कदम उठाया गया.

पप्पू यादव बिहार की मधेपुरा सीट से सांसद हैं. पिछले कुछ दिनों से पप्पू और पार्टी हाईकमान के बीच मतभेद खुलकर सामने आने लगे थे, जिसके बाद से उनका पार्टी से निकाला जाना तय हो गया था. हाल के दिनों में कुछ मौकों पर वह लालू के राजनीतिक उत्तराधिकारी होने का दावा पेश करने लगे थे. इसके अलावा जनता परिवार के विलय के आलोचक और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी के मुखर समर्थक के रूप में उभरने लगे थे. अब कयास लगाया जा रहा है कि पप्पू यादव मांझी के साथ मिलकर नई पार्टी बना सकते हैं. राजद ने 18 अप्रैल को पप्पू यादव को नोटिस दिया था. नोटिस में उनसे ‘पार्टी विरोधी गतिविधियों’ के बारे में सफाई मांगी गई थी. बहरहाल इस कार्रवाई से राजद को नुकसान भी उठाना पड़ सकता है. पप्पू यादव की कोसी इलाके में अच्छी पैठ है. ऐसे में वे राजद के वोट बैंक में सेंध लगा सकते हैं.

पढ़ें पप्पू यादव के साथ तहलका की बातचीत

चार महिला खिलाड़ियों ने की खुदकुशी की कोशिश, एक की मौत

saiकेरल के साई सेंटर (भारतीय खेल प्राधिकरण) में चार महिला खिलाड़ियों ने खुदकुशी करने की कोशिश की है. इनमें से 15 साल की एक एथलीट की अस्पताल में मौत हो गई है, ज‌बकि अन्य तीन खिलाड़ियों का इलाज चल रहा है. जानकारी के अनुसार वरिष्ठ खिलाड़ियों की प्रताड़ना से तंग आकर उन्होंने ये कदम उठाया.

चारों युवा खिलाड़ी साई के जलक्रीड़ा केंद्र में तैराकी का प्रशिक्षण ले रही थीं. पुलिस के मुताबिक चारों ने बुधवार शाम ‘ओथालांगा’ नाम का जहरीला फल खाया था. इसके बाद से उनकी तबीयत बिगड़ने लगी. बेहोशी की हालत में शाम सात बजे उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था, जिसके बाद एक की मौत हो गई. पुलिस ने हॉस्टल से सुसाइड नोट भी जब्त किया है. पुलिस ने अप्राकृतिक मौत का मामला दर्ज कर जांच शुरू कर दी है. उधर, खिलाड़ियों के परिजनों ने आरोप लगाते हुए कहा है कि कुछ वरिष्ठ खिलाड़ी उनका मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न कर रहे थे. हालांकि हॉस्टल वार्डन ने इन आरोपों को खारिज करते हुए कहा कि उत्पीड़न का कोई मामला नहीं है. मामले की गंभीरता को देखते हुए खेल मंत्रालय ने जांच के आदेश दे दिए हैं.

किशोरों को अपराध की जघन्यता के अाधार पर सजा

Children by Shailendra (1)

कैबिनेट ने किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम में संशोधनों को मंजूरी प्रदान कर दी जहां 16 से 18 साल आयु वर्ग के किशोर अपराधियों पर भारतीय दंड संहिता के तहत मुकदमा चलाया जा सकता है, अगर वे जघन्य अपराधों के आरोपी हैं. इस विधेयक को सरकार इसी सत्र में संसद में लाने की तैयारी में है. सरकार ने यह फैसला देश में बढ़ते बाल अपराध को मद्देनजर रखते हुए किया है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक 2002 में देश-भर में 484 नाबालिग, महिलाओं के खिलाफ अपराध में शामिल थे, वहीं 2011 में यह संख्या बढ़कर 1149 हो गई.

वर्तमान कानून में गंभीर अपराध करने वाले नाबालिग को किशोर न्याय बोर्ड के तहत महज तीन साल के लिए बाल सुधार गृह भेज दिया जाता है. निर्भया दुष्कर्म मामले के बाद यह बहस छिड़ी कि गंभीर अपराध करनेवाले नाबालिग को सिर्फ तीन साल में कैसे रिहा किया जा सकता है. निर्भया मामले में सबसे ज्यादा हैवानियत करनेवाला आरोपी भी नाबालिग है. इस विधेयक के पास होते ही नाबालिग अपराधियों पर वयस्क की तरह ही सामान्य अदालत में भारतीय दंड संहिता के तहत मुकदमा चलाया जा सकेगा. सरकार के इस फैसले का महिला संगठनों ने स्वागत किया है वहीं बाल अधिकार के लिए काम करनेवाली संस्थानों ने इसका विरोध किया है.

गुरुवार को केंद्र सरकार ने बाल न्याय अधिनियम संशोधन विधेयक को लोकसभा में पास करा लिया. महिला व बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने लोकसभा में विधेयक पेश करते हुए कहा, ‘इस कानून में न्याय और बाल अधिकार में तालमेल बैठाने की पूरी कोशिश की गई है. विपक्ष की आपत्ति के बाद केंद्र ने इस विधेयक के अनुच्छेद 7 को हटा दिया है.’ अब किशोरों से हुए अपराधों की प्रकृति (जघन्यता) के आधार पर उन्हें कठोर सजा दी जा सकेगी.

‘सलवा जुडूम’ फिर से शुरू होने के संकेत

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25 मई को महेंद्र कर्मा की पुण्यतिथि है. इसी दिन झीरम घाटी में होने वाले एक कार्यक्रम के दौरान इस अभियान को फिर से शुरू करने की घोषणा की जा सकती है. छविंद्र कर्मा की माने तो जागरूकता के अभाव के चलते बस्तर में नक्सली समस्या लगातार बढ़ रही है. तमाम गांवों में नक्सलियों का दबदबा बढ़ता जा रहा है जो कानून और ‌व्यवस्‍था के लिए खतरनाक है.

कम्युनिस्ट नेता रहे महेंद्र कर्मा ने कांग्रेस में शामिल होने के बाद ‘सलवा जुडूम’ अभियान की शुरुआत की थी. 2005 में शुरू हुए इस अभियान का जनक उन्हें ही माना जाता है. इस अभियान का राज्य सरकार की ओर मदद भी मिलती है.

माओवादी ‘सलवा जुडूम’ से काफी नाराज थे. मानवाधिकार कार्यकताओं ने तो इसे खूनी संघर्ष बढ़ाने वाला अभियान बताया था. हुआ भी कुछ ऐसा ही था. नाराज न‌क्सलियों ने 2013 की 25 मई को झीरम घाटी में घात लगाकर कांग्रेस नेताओं पर हमला किया था. इस खौफनाक हादसे में 28 लोगों की मौत हो गई थी. इनमें से एक महेंद्र कर्मा थे. ‌हमले के दौरान नक्सली ‘महेंद्र कर्मा मुर्दाबाद’ के नारे भी लगा रहे थे.

 सलवा जुडूम मतलब शांति का कारवां

‘सलवा जुडूम’ एक आदिवासी शब्द है जिसका मतलब होता है- ‘शांति का कारवां’. इस अभियान में ग्रामीणों की सेना तैयार की जाती थी. ग्रामीणों को हथियार चलाने का विशेष प्रशिक्षण पुलिस देती थी. ग्रामीणों को विशेष पुलिस अधिकारी (एसपीओ) बनाया जाता था, ताकि वे नक्स‌लियों से लोहा ले सकें. इसके लिए ग्रामीणों को 1500 से 3000 रुपये तक का भत्ता भी दिया जाता है.

साल 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ और केंद्र सरकार को आदिवासियों को एसपीओ बनाने और उन्हें माओवादियों के खिलाफ हथियारों से लैस करने से रोक लगा दी थी. कोर्ट ने इसे असंवैधानिक करार दिया था.

‘मेरी रग-रग में बसा है साम्यवाद’

पिनाराई पिजयन | 70 | मार्सर्वादी कम्युनिस्ट पाटीर् के पोनित ब्यूरो सदस्य
पिनाराई पिजयन | 70 |
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो सदस्य

राज्य पार्टी के 50 वर्ष के इतिहास में 17 वर्षों तक उसका नेतृत्व करनेवाले पिनाराई को हर कोई अपने नजरिए से देखता है. एक खास दूरी के साथ पार्टी के सदस्यों (कार्ड होल्डर) के लिए वह बेहद सम्मान और आदर के पात्र हैं. दक्षिणपंथियों के लिए वह एक ऐसे व्यावहारिक वामपंथी हैं जो प्रतिबद्धता और विचारधारा के बजाय शासन-प्रशासन को अधिक तरजीह देता है. क्रांतिकारी झुकाव रखनेवाले मध्यवर्ग के अच्छे खासे हिस्से में उन्हें एक ऐसा खलनायक बनाकर तिरस्कृत भी किया जाता है, जिसने कॉर्पोंरेट और वर्ग शत्रुओं से गठबंधन करने के चक्कर में कम्युनिस्ट मूल्यों व सिद्धांतों की बलि दे दी है.लेकिन इस सबके बावजूद पार्टी के बाहर और भीतर विरोधी खत्तों में ‘दक्षिणपंथी’ और ‘भ्रष्ट’ माने जानेवाले पिनाराई विजयन ने अपने काम करने की चाल-ढाल को नहीं छोड़ा है. मैथ्यू सैम्यूएल को दिए अपने एक खास इंटरव्यू में वह साफ कहते हैं कि साम्यवाद (कम्युनिज्म) तो उनकी रग-रग में बसा है. पार्टी में उनको एक समय नापसंद करनेवाले कट्टर विरोधी और लोकप्रिय नेता वी.एस. अच्युतानंदन के चलते भले ही उन्हें आज अपने तौर तरीकों से काम करने का मौका नहीं मिल पा रहा है. गौरतलब है कि अच्युतानंदन से झगड़े के चलते एक वक्त उन्हें अपनी पोलित ब्यूरो की सदस्यता से भी हाथ धोना पड़ा था. लेकिन बदले हालात और अच्युतानंदन व उनके बीच घटती दूरी के कारण इस 70 वर्षीय नेता की फिर से चुनावी राजनीति में आने की पदचाप सुनाई दे रही है. पिनाराई को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने की संभावना भी व्यक्त की जा रही है. केरल में अगरचे इतिहास खुद को दोहराता है तो पिनाराई ईश्वर का अपना राज्य कहे जानेवाले इस प्रदेश की अगुआई करते दिखाई पड़ सकते हैं. और अगर ऐसा हो जाता है तो निसंदेह यह कायापलट का संकेत भी होगा. पेश है उनके इंटरव्यू के कुछ महत्वपूर्ण संपादित अंश.

आपने केरल में माकपा का 17 वर्ष तक नेतृत्व किया है. आपने पार्टी के इतिहास में सबसे अधिक समय तक सचिव के दायित्व का निर्वहन किया है. उथल-पुथल के उस दौर पर बात करने से पहले हम यह जानना चाहते हैं कि आप साम्यवादी (कम्युनिस्ट) आंदोलन की ओर आकर्षित कैसे हुए

मैं अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के लिए किसी व्यक्ति विशेष या फिर आत्मगत प्रभाव को तो जिम्मेदार नहीं ठहराना चाहता हूं. मेरा जन्म पिनाराई में हुआ. यह केरल के पारापरम गांव के पास स्थित है. पारापरम वो गांव है जहां कम्युनिस्ट पार्टी की सबसे पहली मीटिंग आयोजित हुई थी. मुझे आज भी याद है कि उस वक्त किए जा रहे पुलिसया अत्याचारों के दौरान भी हमारे इलाके से कई व्यक्ति ऐसे थे जो कम्युनिस्ट बन चुके थे.

मैं अपने गांव के आसपास कम्युनिस्ट कायकर्ताओं पर लगातार की जा रही पुलिस की ज्यादतियों व अत्याचारों की कहानियां सुनते हुए बड़ा हुआ. यह 1948 का दौर था. उस वक्त कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबंध लगा हुआ था. इस दौर में कम्युनिस्ट नेता भूमिगत ( अंडरग्राउंड) होकर काम कर रहे थे. पुलिस, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) के कार्यकर्ताओं का लगातार सुनियोजित तरीके से दमन कर रही थी.

बचपन में मेरी मां ने मुझे पुलिसया दमन और बर्बरता की कई कहानियां सुनाई थीं. मेरी यादों में मेरे बचपन की एक घटना आज भी ताजा है. एक दिन मेरी मां घर के कुएं के पास मेरा हाथ पकड़े खड़ी थीं और पास के इलाके में कम्युनिस्टों की खोज में जुटी पुलिस का एक किस्सा बता ही रहीं थीं कि उसी वक्त पुलिस और कुछ गुंडों ने हमारे घर पर धावा बोल दिया. उन्होंने हमारे घर के सारे समान को बाहर फेंक दिया. इसके बाद पुलिस मेरे बड़े भाई , जोकि कम्युनिस्ट समर्थक था, को बुरी तरह से पीटने के बाद गिरफ्तार करके अपने साथ ले गई. पुलिसया दमन की यह घटना और ऐसी कई घटनाओं के साथ-साथ बहादुर कम्युनिस्टों के प्रतिरोध की कहानियां आज भी मेरे जेहन में ताजा हैं. ये कहानियां और जीवन के अनुभवों ने मेरे स्कूली दिनों में मुझे कम्युनिस्ट बनने के लिए प्रेरित और प्रभावित किया. .

बचपन में मुझे राक्षसों से डर लगता था. लेकिन मेरा झुकाव वामपंथ कीओर भी बढ़ रहा था. मुझे याद है कि हाई स्कूल में पहुंचने तक मैं नास्तिक बन चुका था

क्या यह कहना सही होगा कि बचपन से ही आपका वामपंथ की ओर झुकाव था. शायद आपका पालन-पोषण कुछ अलग तरह से हुआ था. क्या आप अपने स्कूली जीवन में नास्तिक थे?

बिलकुल नहीं! मेरा बचपन किसी अन्य निम्न वर्गीय बच्चे की तरह ही था. पर जैसा मैंने पहले कहा है कि मेरे बचपन के दिनों से ही मेरा दिल -दिमाग साम्यवाद की ओर आकर्षित हो गया था. कई पौराणिक कथाओं को सुनते हुए मैं बड़ा हुआ हूं. मुझे राक्षसों और शैतानों से बहुत डर लगता था. मुझे आज भी याद है कि मैं अपने स्कूली दिनों में रसोई के पास बैठकर पढ़ा करता था क्योंकि मेरे मन में उस समय यह डर समाया हुआ था कि अगर मैं अकेला रहा तो शैतान मुझे पकड़ लेंगे. रसोई में मेरी मां काम करती रहती थी. इस वजह से मुझे कुछ संतोष मिलता था. जब मैं बड़ा होने लगा उसी दौरान मैंने थैयम देखने के लिए कवयूकल ( ये वो मंदिर हैं जहां छोटी जाति के लोग पूजा के लिए जाते हैं. थैयम इनके वार्षिक उत्सव का एक अनुष्ठान या एक किस्म की रस्म होती है) जाने लगा. अगर मुझे सही याद पड़ता है तो मैं हाई स्कूल में पहुंचने तक नास्तिक बन चुका था.

अपने राजनीतिक विकास के आरंभिक दौर में आपको किन दिग्गज नेताओं ने प्रभावित किया? उस वक्त वो कौन से प्रमुख मसले थे जिनसे पार्टी जुझ रही थी?

केरल पार्टी के संस्थापक सदस्य पी. कृष्णापिल्लई वो नेता थे जिनके बारे में हम अपने बचपन से सुनते आ रहे थे. जब मैं पार्टी में सक्रिय हुआ तो ई.एम.एस नंबूदरीपाद, ए.के .गोपालन और ई.के नाॅयनार जैसे कई दिग्गज नेता , पार्टी के प्रतीक बन चुके थे. पट्टीयम गोपालन जैसे प्रमुख नेता भी थे जब मैं छात्र था. यह वो वक्त था जब साम्यवादियों को कांग्रेस व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) दोनों की ओर से हमले झेलने पड़ रहे थे. खासकर आरएसएस केरल के उत्तरी भाग को टारगेट कर रही थी. थलासेरी में मुसलमानों के खिलाफ हुए सांप्रदायिक दंगे उनकी कार्य प्रणाली का एक बेहतरीन नमूना थे. ये सोच-समझकर भड़काए गए दंगे थे. इन दंगों में हमने अपने दो कामरेडों को हमेशा के लिए खो दिया. वे दोनों मुसलमानों का बचाव करने के दौरान मारे गए. मैं भी उन पार्टी कार्यकर्ताओं में से एक था जिसने आरएसएस से अल्पसंख्यकों को इस नरसंहार से बचाने की कोशिश की थी. यह एक मुश्किल काम था. लेकिन हम इसमें सफल इसीलिए हो पाए क्योंकि हमारे साथ जनता पीछे खड़ी थी.

इस तरह के अनुभवों ने शायद आपको सैद्धांतिक हठधर्मी बना दिया है या फिर माकपा जैसी पार्टी का नेतृत्व करने के लिए इस तरह की हटधर्मिता आवश्यक है? क्या जब आप चुनावी राजनीति में शिरकत करेंगे तो अपने कामकाज के तरीके बदलेंगे?

(मुस्कुराते हुए) ये सब व्यक्तियों के व्यक्तिगत गुण होते हैं. अच्छा अब क्या तुम यह भी मानते हो कि मैं कभी हंसता नहीं हूं? अरे, भई मैं भी हंसता हूं पर तभी जब उसकी कोई वजह होती है. चुनावी राजनीति में जाने से संबंधित तुम्हारे सवाल का जो दूसरा हिस्सा है, उसका मैं अभी जवाब नहीं दूंगा. हां पार्टी का नेता होने के नाते मैं वर्तमान परिस्थितियों पर टीका-टिप्पणी अवश्य कर सकता हूं. मैं नॉयनार मंत्रिमंडल में थोड़े समय के लिए मंत्री था. इस दौरान जिन्होंने भी मेरा विरोध किया वे आज मेरे कार्यों और प्रयासों की सराहना कर रहे हैं. 1996 में जब लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) सत्ता में आया तो राज्य गहरे बिजली संकट से जुझ रहा था. यहां बिजली की भारी कमी थी. सो तब हमारी सरकार की प्राथमिकता थी कि बिजली के क्षेत्र (पॉवर सेक्टर) में सुधार किए जाएं और यह जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई. और मुझसे जो भी बेहतर बन पड़ा मैंने किया.

राज्य सचिव के तौर पर 17 वर्षों तक काम करने के बाद, आपके नेतृत्व में पार्टी में आए बदलावों के बारे में आपकी क्या राय है? माकपा को मजबूत बनाने में आपका क्या योगदान है?

केरल में माकपा के पास एक लंबी परंपरा रही है जिसमें वरिष्ठ नेताओं जैसे ईएमएस नम्बूदरीपाद, एके गोपालन, सीएच कनरन और कई अन्य नेताओं की शानदार विरासत शामिल है. पार्टी के संस्थापक पी कृष्णापिल्लई और अन्य नेताओं द्वारा झेली गई तमाम कठिनाइयों की वजह से पार्टी मजबूत हुई. पार्टी की मौजूदगी के इन सभी वर्षों के दौरान, केरल के सामाजिक उतार-चढ़ाव और यहाँ के सामाजिक-राजनीतिक यथार्थ में माकपा का एक विशेष स्थान रहा. माकपा ने कभी भी अपने आप को जनता से दूर नहीं होने दिया. लोगों के मुद्दे उठाने में पार्टी सबसे आगे रही और जब हम सत्ता में नहीं रहे तब भी हमने आगे बढ़कर जनता के मुद्दे उठाए. कुछ ऐसे लोग भी हैं जो सत्ता में रहने के बावजूद संघर्ष जारी रखने के लिए हमारी आलोचना भी करते हैं.

माकपा आज भी मजदूर वर्ग की अपनी विचारधारा पर अडिग है. हम इस देश के वंचित तबको के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हैं

लेकिन ऐसा केवल इस वजह से हुआ कि हम उस समय भी लोगों का भरोसा कायम रखने में सफल रहे जब हमें राज्य में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा. हमारे सामूहिक राजनीतिक प्रयास महत्वपूर्ण रहे और इसका क्रेडिट (श्रेय) कोई एक व्यक्ति नहीं ले सकता है. यह समग्रता में पार्टी की उपलब्धि है. हमारी पार्टी में हर बात पर सामूहिक रूप से चर्चा करने और इसके अनुसार निर्णय लेने की व्यवस्था मौजूद है.

माकपा में अंदरूनी लड़ाई कोई नई बात नहीं है. आपके द्वारा जिम्मेदारी संभालने से पहले, केंद्रीय नेतृत्व ने राज्य इकाई में गुटबाजी को लेकर तीखी भर्त्सना की थी. लेकिन निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि जिन वर्षों के दौरान आप वहाँ प्रभारी थे, तब पार्टी में अंदरूनी लड़ाई सार्वजनिक तौर पर सामने आई. आप इस विचलन का सामना किस तरह कर सके? आपके अनुसार इसके कारण क्या हैं ?

देश में किसी भी राज्य में माकपा को ऐसी अंदरूनी लड़ाई नहीं झेलनी पड़ी हैं जैसी कि उसे केरल में झेलनी पड़ी. गुटों के बीच के झगड़े ऐसी चीज थी जिसने पार्टी के आधार को हिला दिया. इस समस्या का हल ढूंढ़ने में केंद्रीय नेतृत्व भी सहयोग करने के लिए हमारे साथ आकर खड़ा हुआ. इन सभी कारणों के मिले-जुले प्रभाव से, हम धीरे-धीरे गुटबाजी को नियंत्रित करने में सक्षम हुए हैं. राज्य में पार्टी को नष्ट करने की चाहत रखने वाले लोगों ने मीडिया के माध्यम से इसे ज्यादा से ज्यादा प्रचारित किया. पक्षपातपूर्ण और आधारहीन रिपोर्ट प्रकाशित की गईं और आज भी प्रकाशित की जा रही हैं. मेरे विचार से, हमारी नकारात्मक छवि प्रस्तुत करने की इस कोशिश का पार्टी ने सफलतापूर्वक मुकाबला किया है. हम कभी भी अपने सामाजिक आधार से दूर नहीं हुए और संकट का सामना करने के हमारे तरीके से भी यह बात पता चलती है. केंद्रीय नेतृत्व से राज्य इकाई को मिले समर्थन को देखकर भी राज्य इकाई वाकई काफी अभिभूत हुई.

हाल ही में राज्य इकाई की बैठक से वरिष्ठ नेता वीएस अच्युतानंदन के बैठक छोड़कर चले जाने से पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के विचारों में मतभेद एक बार फिर से सबके सामने आ गए. क्या अच्युतानंदन का व्यक्तिगत प्रभाव पार्टी नेतृत्व को उनके खिलाफ कार्रवाई करने से रोक रहा है?

इस मामले को बेहद गंभीरता से लिया गया है. पार्टी के पोलित ब्यूरो ने भी इस मामले को काफी गंभीरता से लिया है.

राज्य में जातिवाद लगातार मजबूत हो रहा है. मध्यवर्ग के बीच भी अपनी जाति और धर्म पर जोर देने की प्रवृत्ति हावी होती दिख रही है

केरल के कम्युनिस्ट आंदोलन को निकटता से जाननेवाले लोगों का कहना है कि अब पार्टी नेताओं के काम करने की शैली बदल गई है. पार्टी लगभग पिछले दशक के दौरान अधिक बाजार-उन्मुख हो गई है. उनका कहना है कि पार्टी की ‘पेरिपुवदा’ ‘कत्तन छाया’ संस्कृति ने क्रोनी कैपिटलिजम की घुसपैठ का रास्ता खोल दिया है.आलोचक उदाहरण देते हैं कि बड़े उद्यमियों और व्यवसायियों की मदद से माकपा ने एक टेलीविजन चैनल शुरू किया है.

कम्युनिस्ट पार्टी के लिए यह बेहद स्वाभाविक है कि वह समय के अनुसार बदले. इसी भावना के साथ हमारी पार्टी भी बदली है. वह निश्चित तौर पर पुरानी शैली और तरीकों को छोड़कर आगे बढ़ गई है हालांकि हम मजदूर वर्ग की अपनी विचारधारा पर आज भी उसी मजबूती से डटे हैं जैसे कि हम पुराने समय में हुआ करते थे. कम्युनिस्ट पार्टी के तौर पर, हम इस देश के वंचित तबके और मजदूर वर्ग के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हैं और लगातार खड़े रहेंगे. जहाँ तक आप टेलीविजन चैनल की बात कर रहे हैं, कैराली टीवी कोई पार्टी चैनल नहीं है. जब कुछ युवा लोग एक टेलीविजन चैनल शुरू करने के विचार के साथ हमारे पास आए तो पार्टी ने इस पर विचार किया और आखिरकार हमने इसे मदद करने का फैसला किया क्योंकि न सिर्फ हम, बल्कि स्वतंत्र राय रखनेवाले कई लोग भी एक अलग तरह के टेलीविजन चैनल की जरूरत महसूस करते हैं जो समाज की समस्याएँ प्रसारित करने के लिए पर्याप्त समय दे. आज सभी ओर असर डालनेवाली संचार क्रांति से दूर रहना कोई समझदारी नहीं है. हमने चैनल के लिए फंड इकट्ठा करने को समर्थन दिया हालांकि ‘कैराली’ को माकपा चैनल के तौर पर कहे जाने की आलोचना होती है, लेकिन हमने इसे पार्टी चैनल के तौर पर बदलने की चाहत कभी नहीं रखी. जब पार्टी ने देशाभिमानी दैनिक शुरू किया तो हमने लोगों से फंड इकट्ठे किए. एके गोपालन जैसे बड़े नेता फंड इकट्ठा करने के लिए श्रीलंका जैसे देशों में गए. तो इसमें कोई विचलन नहीं है.

जिस दौरान आप माकपा के राज्य सचिव थे, उस समय कई पार्टियों ने लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) को छोड़ दिया। कई लोगों ने कहा कि आपके हठधर्मी रवैये की वजह से ये पार्टियाँ एलडीएफ छोड़कर गईं. यहाँ तक कि पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने भी कहा कि फ्रंट छोड़नेवाली पार्टियों को वापिस लाने के लिए समझाया जाना चाहिए था.

हमें उन लोगों से कोई समस्या नहीं थी जो हमें छोड़कर चले गए. पीजे जोसेफ की केरल कांग्रेस को माकपा या लेफ्ट फ्रंट से कोई समस्या नहीं रही और वे कोई कारण बताए बगैर फ्रंट को छोड़कर चले गए. जनता दल ने कोझिकोड संसदीय निवार्चन सीट से सीट शेयरिंग के मुद्दे पर फ्रंट को छोड़ा. यहाँ तक कि केंद्रीय नेतृत्व ने उनके सामने एक फार्मूला पेश किया लेकिन जनता दल नेतृत्व कोई समझौता करने को अनिच्छुक था. असल में हमें आरएसपी से भी कोई दिक्कत नहीं थी हालांकि वे कोल्लम संसदीय निर्वाचन सीट का मामला उठाते रहे. माकपा इस सीट से 10 से भी अधिक वर्षों से चुनाव लड़ती रही है. असल में, जब उनकी मांग पर बातचीत आगे बढ़ ही रही थी तभी आरएसपी ने फ्रंट छोड़ दिया.

मेरी साफ मान्यता है कि जो भी समाज विरोधी बात करेगा, मैं उसकी आलोचना करूंगा. मैं अपनी शैली नहीं बदलनेवाला मुझे अपने स्टैंड पर पूरा भरोसा है

क्या फ्रंट छोड़नेवाली पार्टियों को वापिस बुलाते हुए उनका स्वागत किया जाएगा?

यदि वे वाकई एलडीएफ में वापिस आना चाहते हैं तो उन्हें पहले यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) से गठबंधन समाप्त करना होगा और यूडीएफ के साथ गठबंधन तोड़ने की अपनी नीति की सार्वजनिक तौर पर घोषणा करनी चाहिए.

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नेपाल भूकंप: त्रासदी के चश्मदीद

नेपाल भुकंप
फोटो: प्रशांत रवि

नेपाल में आए भूकंप से राजधानी काठमांडू के बसंतपुर इलाके काे पूरी तरह से तबाह करके रख दिया है. आपदाओं के समय आस्था ही मानव का सहारा बनती है. राजधानी के दर्दनाक मंजर काे एक पत्रकार ने कैमरे में कैद करने के साथ कलमबद्घ भी किया

25 अप्रैल को नेपाल और उसके आसपास के इलाकों में भूकंप के जबरदस्त झटके महसूस किए गए. इसी दिन मैं और मेरे साथी रिपोर्टर नेपाल के लिए निकल गए. हम पटना से रक्सौल होते हुए बीरगंज पहुंचे और फिर वहां से पालुंगवाले रास्ते से आगे बढ़े. लामीटाडा से पालुंग की तरफ बढ़ते ही हमारे सामने भूकंप से हुई त्रासदी का मंजर साफ होने लगा था. समझ में आने लगा था कि आगे का मंजर और दर्दनाक होनेवाला है. लामीटाडा, महावीरे और अघोर बाजार इलाकों से होकर गुजरनेवाले शायद हम पहले पत्रकार थे, ऐसा इन इलाकों के प्रभावित लोगों ने बताया. सब बर्बाद हो चुका था. घर जमींदोज हो चुके थे और उनके मलबों के पास बैठकर लोग विलाप कर रहे थे. वहीं कुछ लोगों की जिंदगियां उनके घरों की तरह ही खत्म हो गईं.

अब तक बर्बादी का मंजर हमारी आंखों के सामने साफ हो चुका था. हम समझ चुके थे कि इस भूकंप ने नेपाल के बहुत बड़े हिस्से को तबाह कर दिया है. एक बात और, जब हम उन इलाकों से होते हुए आगे बढ़ रहे थे तब भी झटके महसूस हो रहे थे. हम समुद्र तल से करीब 1200 मीटर की ऊंचाई पर थे. तभी एक अधेड़ नेपाली हाथ हिलाता हुआ हमारी गाड़ी के सामने आ गया. नेपाली भाषा में कुछ बोलते हुए वो हमारी गाड़ी के बोनट पर चढ़ गया. आखिरकार हम उसके इशारे को समझ पाए. गाड़ी रोकी और नीचे उतरे. हमने पाया कि धरती में कंपन हो रही है. वो व्यक्ति शायद हमें इसी बारे में बता रहा था. तभी मैंने देखा कि थोड़ी दूर पर एक मकान धीरे-धीरे धरकते हुए पूरा का पूरा ढह गया.

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किसी तरह हम नेपाल की राजधानी काठमांडू पहुंच पाए. हमने देखा कि काठमांडू जिसे काठ का शहर भी कहा जाता है, लगभग तबाह हो चुका है. सोमवार की सुबह मैं अपने कैमरे के साथ काठमांडू के बसंतपुर इलाके में था. जीवन को मरते, लड़ते और उठते देखना बड़ा दुखदाई था. इसी इलाके में मैंने देखा कि पूरी तरह से ढह चुके एक मंदिर के बाहर एक महिला हाथ जोड़े खड़ी थी. बड़ी तबाही और बर्बादी के बीच आस्था का यह स्वरूप देखना मेरे लिए जबरदस्त अनुभव था. काठमांडू से बाहर, ऊंचाई पर ऐसे कई इलाके हैं जहां तक पहुंच पाना मीडिया और राहतकर्मियों के लिए भी एक चुनौती है. फिर भी कोशिश जारी है. मैं दो दिन तक इस तबाही के बीच रहने और देखने के बाद वापस पटना लौट आया हूं लेकिन उस मंजर को भूल पाना मुश्किल लग रहा है. बार-बार वो चेहरे आखों के सामने आ जाते हैं जिन्हें मैंने बर्बादी के बीच से उठते और संभलते हुए देखा है. जिन्हें मैंने उनके अपने ही घरों के बीच फंसकर मरे हुए देखा.

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दो हिंदूवादी नेताओं का ब्रिटेन ने रद्द किया वीजा

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ब्रिटेन ने दो भारतीय हिंदूवादी नेताओं का वीजा रद्द कर दिया है. ये दोनों कार्यकर्ता केरल के हैं. इनमें से एक हिंदू ऐक्य वेदी (संयुक्त हिंदू मोर्चा) की अध्यक्ष शशिकला टीचर और दूसरे इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंटिफिक हेरिटेज के निदेशक एन. गोपालकृष्‍णन हैं.

ब्रिटेन में रह रहे भारतीय समुदाय के लोगों ने इन दोनों की यात्रा के विरोध में शिकायत दर्ज ‌कराई थी, जिसके बाद सरकार ने यह कदम उठाया. शशिकला और गोपालकृष्‍णन क्रॉयडॉन शहर में होने वाले हिंदू धर्म महासम्मेलन में शामिल होने जा रहे थे. हिंदू ऐक्य वेदी और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंटिफिक हेरिटेज का विश्व हिंदू परिषद (आरएसएस) से करीबी संबंध है.

लंदन के एशियन लाइट समाचार पत्र के मुताबिक दोनों नेताओं के खिलाफ कट्टर हिंदू विचारधारा रखने की शिकायत दर्ज होने के बाद चेन्नई स्थित ब्रिटिश दूतावास ने उनका वीजा रद्द कर दिया. शिकायत के साथ अधिकारियों को दोनों नेताओं के यूट्यूब पर अपलोड किए गए भाषणों की अनुवादित कॉपी भी मुहैया कराई गई है. इससे पहले वर्ष 2002 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का वीजा भी गुजरात दंगे की वजह से रद्द कर दिया गया था. उस समय वे गुजरात के मुख्यमंत्री थे.

पत्रकारिता पर भारी निकटता

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क्या राज्यसभा टीवी सफेद हाथी में तब्दील होता जा है? देश के टैक्स जमा करनेवाले नागरिकों के फंड से चल रहे इस चैनल की कार्यप्रणाली पर कई तरह के सवाल इन दिनों उठाए जा रहे हैं. इसकी नियुक्ति को लेकर सबसे ज्यादा सवाल उठ रहे हैं. जब तमाम न्यूज चैनल मंदी के दौर से गुजर रहे है तब चैनल के सीईओ की नियुक्ति भी सवालों के घेरे में है.

राज्यसभा टीवी चैनल उच्च सदन की आवाज माना जाता है. इससे इसी तरह की परिपक्वता की भी उम्मीद की जाती है. हालांकि हकीकत में ऐसा कुछ होता नजर नहीं आ रहा. चार साल पहले जब इस चैनल को लॉन्च किया गया था तब एक बड़ी आबादी की उम्मीदें इसके प्रति जगी थीं. मगर हुआ इसके ठीक उलट, उम्मीदें गलत साबित हुईं. एक विशेषाधिकार प्राप्त चैनल में पेशेवर दक्षता को परे रखकर ‘बड़े घरों’ या फिर राजनीतिज्ञों से निकटतावाले लोगों की भर्ती की जा रही है. चैनल की ओर से अपनाई जा रही नियुक्ति प्रक्रिया पर दुख जताते हुए एक वरिष्ठ पेशेवर ने बताया, ‘यह एक ऐसी जगह बनती जा रही है जहां पत्रकारिता के ज्ञान को परे रख दिया जाता है, अगर आप ‘बड़े’ परिवार या किसी बड़े राजनीतिज्ञ की सिफारिश के साथ आए हैं.’ राजस्व पाने के लिए बिना कोई व्यापार मॉडल अपनाए राज्यसभा टीवी चैनल को 28.94 करोड़ रुपये के कम बजट के साथ 26 अगस्त 2011 को लॉन्च किया गया था. हालांकि इस पर 1700 करोड़ रुपये से ज्यादा का खर्च आया. चैनल को राज्यसभा वित्तीय मदद देती है इसलिए यह आसानी से समझा जा सकता है कि इसे चलाने के लिए किसके खून-पसीने की कमाई लगाई जा रही है.

गौर करनेवाली बात ये है कि ये सब अच्छी परिस्थितियों में नहीं हो रहा. ये तब हो रहा है जब भारत में टीवी चैनल खराब दौर से गुजर रहे हैं. पिछले एक साल में कई निजी न्यूज चैनल- पी-7, भास्कर न्यूज, जिया न्यूज आदि बंद हो चुके हैं, वहीं कुछ दूसरे चैनल अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं. धन और संसाधनों की कमी इसके प्रमुख कारण हैं. दरअसल ये चैनल विज्ञापनों से राजस्व पाने में पूरी तरह से असफल साबित हुए हैं. हालांकि अगर राज्यसभा टीवी की बात करें तो इसे धन की कमी कभी नहीं हुई. इन स्थितियों में भी यह चैनल ऐसा राजस्व पैदा करने में असफल रहा जो इसके लिए उपयोगी रहा हो. ‘तहलका’ को मिली जानकारी के अनुसार, राज्यसभा टीवी के सालाना बजट की तुलना लोकसभा टीवी से की जाए तो यह 2014-15 में 69.28 करोड़ रुपये है. यह राशि लोकसभा टीवी के बजट से पांच गुनी ज्यादा है. वहीं दूरदर्शन के दूसरे चैनलों की बात करें तो इसके 19 चैनलों का सालाना बजट औसतन 20 करोड़ रुपये है. यह भी गौर किया जाना चाहिए कि जब उच्च सदन ने अपना चैनल शुरू करने का निर्णय लिया था तब लोकसभा टीवी चैनल शुरू होने के साथ लोकसभा की कार्यवाहियों का सीधा प्रसारण भी करने रहा था.

एक रिपोर्ट में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) ने स्पष्ट रूप से बताया था कि राज्यसभा टीवी के पास कोई रूपरेखा नहीं है. कैग ने राज्यसभा टीवी के औचित्य पर सवाल उठाते हुए इस बात पर ध्यान खींचा था कि राज्यसभा टीवी प्रबंधन पुरानी एचडी (हाई डेफिनिशन) तकनीक को वरीयता देता है, जबकि नवीनतम एचडी तकनीक की जरूरत है. कैग ने यह भी सुझाया था कि दो स्टूडियो की बजाय इस चैनल के लिए एक स्टूडियो होना चाहिए. अभी एक स्टूडियो का इस्तेमाल समाचार और दूसरे का प्रोग्रामिंग के लिए होता है. 2013-14 की कुछ मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, लोकसभा टीवी सरकार और सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों के विज्ञापन और जागरूकता के जरिए 13.98 करोड़ रुपये का राजस्व पैदा करता है. वहीं राज्यसभा टीवी चैनल के पास गिनाने को कुछ भी नहीं है. कैग की रिपोर्ट यह भी खुलासा करती है कि चैनल के पूरी तरह से कार्यात्मक होने के दौरान फरवरी 2012 तक इसके कार्यकारी निदेशक और कार्यकारी संपादकों ने टैक्सी से आने जाने पर 60 लाख रुपये खर्च किए थे.

सीईओ गुरदीप सिंह सप्पल ही नहीं राज्यसभा टीवी में 103 दूसरे पेशेवरों की नियुक्ति भी उचित मानदंडों को परे रख मोटी तनख्वाह पर की गई है

इसके अलावा राज्यसभा टीवी को एक सरकारी सहायता प्राप्त चैनल में पहले गैर नौकरशाह सीईओ की नियुक्ति करने का भी ‘गौरव’ प्राप्त है. सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार इस चैनल से जुड़ने से पहले वर्तमान सीईओ गुरदीप सिंह सप्पल का पत्रकारिता में अनुभव पांच साल से ज्यादा नहीं था. बीआईटीवी में उन्होंने दो साल तक काम किया. इसके अलावा एक साल वीडियो एडिटर के रूप में और एक साल एसोसिएट प्रोड्यूसर के तौर पर काम किया था. सप्पल ने दूरदर्शन के मार्केटिंग विभाग में भी चार महीने तक काम किया है. राज्यसभा सचिवालय की ओर से 10 अप्रैल 2012 को जारी एक ज्ञापन में बताया गया था कि सप्पल को तीन साल के अनुबंध पर 1,75,000 रुपये की तनख्वाह पर नियुक्ति किया गया है. मजे की बात ये है कि लोकसभा टीवी के प्रमुख की तनख्वाह 1.5 लाख रुपये ही है. सप्पल को जिस राशि पर अनुबंधित किया गया था सामान्य तौर पर किसी संयुक्त सचिव को इतना दिया जाता है. इतना ही नहीं सप्पल की तनख्वाह समय-समय पर संशोधित भी की जाती रही. ‘तहलका’ को मिली उनकी सैलरी स््लिप की एक कॉपी के अनुसार नवंबर 2014 के लिए सप्पल को तनख्वाह के रूप में 2,22,250 रुपये मिले. इतना ही नहीं इस राशि पर सप्पल तीन अलग-अलग सरकारी भूमिकाओं को कार्यान्वित करते हैं. न तो वह भारतीय प्रशासनिक सेवा और न ही भारतीय सूचना सेवा से हैं. इसके बावजूद संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी होने के साथ वह राज्यसभा सभापति और उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी के विशेष कार्य अधिकारी (ओएसडी- ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी) हैं. आरटीआई के जरिये मांगी गई सूचना के अनुसार राज्यसभा टीवी चैनल के सीईओ पद की नौकरी के लिए कभी विज्ञापन नहीं जारी किया गया. इसके विपरीत लोकसभा टीवी के सीईओ की नौकरी के लिए प्रमुखता से विज्ञापन जारी हुए थे. कुछ वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं से निकटता का सप्पल ने खूब फायदा काटा.

सीईओ गुरदीप सिंह सप्पल दिल्ली पर्यटन और परिवहन विकास निगम के अध्यक्ष मनीष चतरथ को रिपोर्ट करते थे. कांग्रेस का वार रूम जब ‘15, रकाबगंज रोड’ पर हुआ करता था तब चतरथ दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के करीबी सहयोगी माने जाते थे. यह वही समय था जब सप्पल ने कांग्रेसी नेताओं से नजदीकी बढ़ानी शुरू की थी. यह नजदीकी उन्हें यह पद दिलाने में मददगार साबित हुई. सप्पल का नाम तब सामने आया था जब राज्यसभा सचिवालय में संयुक्त सचिव स्तर और इसके ऊपर के अधिकारियों की नियुक्ति पर सवाल उठाते हुए एक जनहित याचिका दाखिल की गई थी. यह याचिका प्रख्यात अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने दाखिल की थी. इसमें राज्यसभा सचिवालय के परिच्छेद 6 अ (नियुक्ति के तरीकों और योग्यता) की वैधता को चुनौती दी गई थी. उन्होंने 2008 से राज्यसभा सचिवालय में हुई सभी नियुक्तियों की जांच करने की आज्ञा देने की मांग की थी.

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विश्वस्त सूत्रों के अनुसार केवल सप्पल ही नहीं राज्यसभा टीवी में 103 पेशेवरों की नियुक्ति भी उचित मानदंडों को परे रख मोटी तनख्वाह पर की गई है. उदाहरण के तौर पर देखें तो सीईओ के सहायक निदेशक चेतन संजन दत्ता एक बैंक क्लर्क हैं और सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया से प्रतिनियुक्ति पर आए हैं. दत्ता को सप्पल का दायां हाथ माना जाता है. सभी फाइलें उनकी टेबल से होकर ही गुजरती हैं. लाभ पानेवाले दूसरे अधिकारी अनिल जी. नायर हैं, जो चैनल के कार्यकारी संपादक (न्यू मीडिया) हैं. वह सप्पल के नजदीकी दोस्त के रूप में जाने जाते हैं. एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता से नजदीकी की वजह से चर्चा में रहीं अमृता राय की एंकर के रूप में नियुक्ति भी पद के लिए जरूरी अनुभव के बिना की गई थी.

इसी तरह से चैनल के कार्यकारी संपादक राजेश बादल की नियुक्ति भी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल की सिफारिश के बाद हुई. राज्यसभा सांसद सत्यव्रत चतुर्वेदी की बेटी निधि चतुर्वेदी की नियुक्ति को लेकर भी नाराजगी है. 80 हजार रुपये की तनख्वाह पर निधि को सलाहकार बनाया गया है. सूत्रों ने बताया कि पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के रिश्तेदार विनीत के. दीक्षित भी सलाहकार पद पर कार्यरत हैं. सप्पल के करीबी दोस्त गिरीश निकम की पक्षपातपूर्ण नियुक्ति भी सवालों के घेरे में है. निकम उन विशेषाधिकार प्राप्त सलाहकारों में से हैं, जिनकी ऑफिस में उपस्थिति जरूरी नहीं. यह रिपोर्ट प्रकाशित होने से पहले ‘तहलका’ राज्यसभा टीवी के सीईओ गुरदीप सिंह सप्पल से उनका पक्ष जानने की कोशिश कई बार की लेकिन उनसे संपर्क नहीं हो सका.

‘डेमोक्रेसी में जनता तय करेगी विरासत, हम और आप नहीं’

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आप इतने भटकाव-बिखराव के साथ आंदोलन चलाते हैं. कभी कोई आंदोलन चलाते हैं और फिर उसे बीच में रोककर दूसरे में लग जाते हैं?

लड़ना पड़ेगा. हम तो सबसे पहले नेताओं से ही लड़ रहे हैं. हमने तय किया है कि इनसे लड़े बिना कुछ नहीं कर सकते.

राजनीतिज्ञों से या राजनीतिक प्रवृत्तियों सेे?

राजनीतिज्ञों से. सबकी प्रवृत्ति एक जैसी है. एनटी रामाराव, एमजी रामचंद्रन, नेहरू से लेकर मायावती को भी देख लिया गया. एक महीना में अरविंद केजरीवाल और नरेंद्र मोदी तक को देख लिया गया. इन दो जादूगरों को अब भी देख ही रहे हैं. सबकी प्रवृत्ति एक जैसी है.

राजनीतिज्ञों से लड़िएगा और सिस्टम यही रहेगा तो बदलाव क्या होगा?

पॉलिटिकल सिस्टम को बनाता कौन है? पॉलिटिशियन न! दलाल को पैदा कौन किया? पदाधिकारी को रावण कौन बनाया? इस सारे सिस्टम की कमान किसके हाथ में है? सब पॉलिटिशियन के हाथों में है. हिंदू-मुसलमान करानेवाला कौन है? जाति का जहर फैलानेवाला कौन? गरीब अमीर के मसले को डाइलूट कर देनेवाला कौन? राजनीतिज्ञों से लड़ने के साथ ही हम वैचारिक बदलाव की लड़ाई लड़ना चाहते हैं. हां लेकिन पूरा रास्ता अहिंसात्मक रखेंगे. हिंसा के रास्ते से तो कुछ नहीं बदलेगा. नक्सलियों का देख लिया कि उन्होंने क्या किया.

लेकिन बड़े बदलाव तो राजनीति करती है. आप तो सामाजिक आंदोलन जैसी कोई बात कर रहे हैं?

यह राजनीति है किसके लिए. तंत्र लोक के लिए न. लेकिन अब तो तंत्र ही मालिक बन गया है. एक मुख्यमंत्री को इतनी ताकत होती है जितनी भगवान को नहीं होती. लेकिन क्या कारण है कि अब तक किस सीएम ने बदलाव की कोशिश नहीं की बिहार में. अब देखिए देश में भी. प्रधानमंत्री ‘मन की बात’ कर रहा है. यह तो विचित्र बात है. मन की बात तो गरीब और विवश आदमी करता है न. पीएम किसानों से मन की बात कर रहे हैं लेकिन 60 हजार करोड़ रुपये अदानी-अंबानी को सब्सिडी देने के लिए तो मन की बात नहीं कर रहे हैं.

कुछ दिनों पहले तो आप मोदी की तारीफ कर रहे थे तब आपकी आलोचना हुई थी?

भइया मैं किसी की तारीफ नहीं कर रहा था. मुझसे ज्यादा मेरी प्रोसिडिंग उठाकर देख लीजिए. हां, लेकिन वह सशक्त आदमी तो हैं, इससे कैैसे इंकार कर सकते हैं. व्यवहार में, देखने-दिखाने में. अपने कामों को परोसने में. उसने अपनी मार्केटिंग तो की. डायनेमिक तो है वह. इसकी कोशिश तो कर रहा है. मैंने यह बात कही थी. लेकिन मैं दूसरी बात कहना चाहता हूं. अब आज के समय में सभी नेताओं की कोशिश से इंसान का ही अस्तित्व खत्म करने की तैयारी है. आजादी के 67 सालों बाद फूड बिल आ रहा है, खाना देने के लिए, पानी पीने को नहीं है. जिस देश में स्वास्थ्य जरूरी नहीं है. लोहिया ने कहा था, ‘राजा हो या भंगी की संतान-सबकी शिक्षा एक समान.’ सब तो धरा का धरा रह गया.

‘लालूजी के बेटे ने राजद का ककहरा नहीं जाना है. राहुल 15 सालों से संघर्ष कर रहे हैं. अखिलेश ने सात साल संघर्ष किया, मायावती की लाठियां खाई. उन्हें सीखने दें लालूजी’

लोहिया की बातों को लोहियावादियों ने भी ताक पर रखा?

सभी विचाराधाराओं को उन्हें माननेवालों ने रख दिया. वैसा ही हुआ है, छोड़िए न पुरानी बात. हाल में तो अन्ना आंदोलन का जोर रहा था. आंदोलन के बाद नौ प्रतिशत भ्रष्टाचार बढ़ गया. आंदोलन में गरीब तो जुटे नहीं, बेईमान जुट गए. वकील, डॉक्टर, मास्टर, नेता, नौजवान सब बोले कि ‘मैं भी अन्ना.’ जेठमलानी वकील हैं. दो करोड़ रुपये लेकर कहने लगे कि आसाराम पर केस करनेवाली महिला को हिस्टिरिया है. छी-छी… जेठमलानी. गरीब का घर जब तक बिक न जाए, तब तक वकील लोग केस चलाते हैं. वह भी कहने लगा कि हम भी अन्ना. 44 प्रतिशत गरीबी सिर्फ डॉक्टरों की वजह से है. अमन और इंसानियत ही सबसे बड़े डॉक्टर हैं. डॉक्टर भी कहने लगा था कि वह भी अन्ना. रात में दो बजे तक व्हाटस ऐप और फेसबुक से फुर्सत न लेनेवाला नौजवान भी कहने लगा था कि मैं भी अन्ना.

आपने डॉक्टरों के बारे में आंकड़े बताए. उनके कुकर्मों के खिलाफ लड़ाई शुरू की लेकिन एक मुकाम तक पहुंचने के बाद उसमें ढील दे दी?

कहां छोड़ दिया. हम लगातार जनसंवाद के माध्यम से यह मामला उठा रहे हैं. कहां छोड़ दिया. छोड़ने का सवाल ही नहीं. सदन में रोज मामला उठा रहा हूं. डेमोक्रेटिक फ्रंट पर ही उठाऊंगा न! मैं बता रहा हूं लोगांे को कि डॉक्टर पैसे के लालच में 62 प्रतिशत मामलों में घुटने बदल देते हैं. 53 प्रतिशत मरीजों को डॉक्टरों ने फर्जी तरीके से कैंसर रोगी बनाया. 67 प्रतिशत लोगों की किडनी पैसे के लिए बदली गई. ये सब मैं अपने मन से नहीं कह रहा. भारत के संदर्भ में जापान और अमेरिका का सर्वे है. 78 प्रतिशत को सुई नहीं दी जानी चाहिए लेकिन फिर भी दी जाती है. 85 प्रतिशत बगैर सर्जरी के डिलिवरी नहीं हो रही. यह भी एक खेल है. एक की जगह नौ दवाई लिखते हैं. आईसीयू में जबरदस्ती ले जाते हैं. ये सब तो हर सभा में बताता हूं. लोगों को भी जागरूक होना होगा.

ठीक है आप इन बातों को जनसंवाद में उठा रहे हैं. आपका जो ये जनसंवाद है, उसका मूल मकसद क्या है?

आम जनों को जानना. उनसे पूछना. उनको बताना कि 67 सालों बाद पॉलिटिशयन कहां हैं और आप कहां हैं. और ये देश कहां है. आपका राज्य कहां है?

आपके इस जनसंवाद में लालूजी की तस्वीर रहती है?

मैं दल में हूं इसलिए है.

लेकिन राजद की तस्वीरों में तो राबड़ीजी की तस्वीर भी रहती है. आपके संवाद में तो लालूजी ही दिखते हैं सिर्फ!

नहीं, राबड़ी देवीजी की तस्वीर नहीं है.

क्यों?

राबड़ी देवीजी मेरे लिए मां की तरह हैं लेकिन तस्वीर नहीं लगाता. अब तो मंच पर लालूजी की तस्वीर भी नहीं दिखेगी, क्योंकि उनको चापलूसों ने कहना शुरू कर दिया है कि आपकी तस्वीर लगाकर पप्पू यादव घूम रहा है. लीजिए मंच से हटा दे रहे हैं.

आप चाहते क्या हैं?

ये बताना कि आपके नेता करना चाहते तो कुछ भी कर सकते थे, आपके लिए. एक सीएम चाहेगा तो क्या नहीं बदल जाएगा. हमको तीन महीना का समय दंे. हम एफिडेविट बनाकर देंगे कि अगर कुछ नहीं कर सके तो राजनीति नहीं करेंगे. अगर तीन महीने बाद दलाल और बिचौलिया सोच भी लें धरती पर आना तो जो नहीं सो. मैं राजनीति ही नहीं करूंगा. एक चपरासी और पंचायत सचिव पैसा  लेने की सोच भी ले तो राजनीति नहीं करूंगा. अधिकारी अगर आम आदमी को मालिक की तरह आदर न दे तो मैं छोड़ दूंगा. आम आदमी के टैक्स से ही हमको तनख्वाह मिलती है. अगर आम आदमी को ही सम्मान नहीं मिलेगा तो काहे की राजनीति. हम बेईमान हैं और हम ही बेईमानी करेंगे तो कैसे होगा.

‘जेठमलानी दो करोड़ रुपये लेकर कहने लगे कि आसाराम पर केस करनेवाली महिला को हिस्टिरिया है. छी-छी जेठमलानी. गरीब का घर बिक न जाए, तब तक वकील केस चलाते हैं’

बड़ा द्वंद्व है. दुविधा है. आप लालूजी की तस्वीर भी रखते हैं और उनके खिलाफ ही मोर्चा खोल रहे हैं?

लालूजी मेरे लिए आदरणीय हैं. कल को उनके साथ नहीं भी रहेंगे तो भी रहेंगे. विचारों के कारण. संस्कारों के कारण.

राजद के लोगों का साथ मिल रहा है?

नहीं, कहीं नहीं. कुछ लोग आते हैं, जो मेरे विचारों से सहमत हैं. जिनमें संघर्ष करने की क्षमता नहीं वे साथ नहीं आते. जो सरकार बनने की उम्मीद में आस लगाए हुए हैं, वे नहीं आते.

विरासत पर बात उठाई है. बेटा तो बेटी क्यों नहीं?

मैंने कहा कि बेटा-बेटी में फर्क नहीं. तीन लोग उनके घर में हंै तो फिर बेटी क्यों नहीं. अब लालूजी ने कहा कि कार्यकर्ताओं को टिकट नहीं. बड़ा गजब का बयान है उनका. हम तो जानना चाहते हैं कि क्या लालूजी परिवारवालों को टिकट देंगे, दलालों को टिकट देंगे तो कार्यकर्ताओं को क्यों नहीं. दलालों-चाटुकारों का टिकट क्यों नहीं काटते. परिवार के लिए क्यों नहीं काटते. अभी तो महाविलय हुआ है अभी से ही यह रंग.

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लंबे समय बाद आपने बात उठाई, परिवार का प्रयोग तो वे पहले से करते रहे हैं?

भइया मेरे, वे क्या प्रयोग करते रहे हैं, उससे मतलब नहीं. आप देखिए कि रामलखन सिंह यादव की विरासत इन्हें मिल गई. चौधरी चरण सिंह की विरासत मुलायम सिंह को मिल गई. डेमोक्रेसी में जनता न विरासत तय करेगी. हम और आप तय नहीं कर सकते. जनता तय कर ले कि लालूजी के बेटे को आगे बढ़ाना है तो कौन रोक लेगा.

आप रहेंगे न साथ में?

मेरी शुभकामना है. लेकिन बात तो यह है न कि अभी लालूजी के बेटे ने राजद का ककहरा नहीं जाना है. राहुल गांधी 15 सालों से संघर्ष कर रहे हैं. अखिलेश ने सात साल संघर्ष किया. मायावती की लाठियां खाई. उन्हें सीखने दें लालूजी. विरासत के बारे में पप्पू यादव कैसे बोलेगा कि उनका बेटा जनता की रहनुमाई करनेवाला विरासत संभालेगा. दुनिया में किसी के मुंह से सुना क्या. क्या नेहरूजी ने कहा. यह लालूजी पहले आदमी हैं जो इस तरह विरासत पर बोले. ये तो विचित्र बात है.

लालूजी ने पप्पू यादव की ओर इशारा करके तो नहीं कही विरासतवाली बात?

पता नहीं उन्हें किसने सलाह दी. मैं तो सबसे ज्यादा उनका आदर करता रहा हूं.

लेकिन उनको लगता है कि पप्पू यादव तो बहकता रहता है. कभी निर्दलीय, कभी सपा से तो कभी किसी दल से. आप अलग-अलग रास्ता अपनाते रहते हैं और अब कोसी छोड़ बिहार घूम रहे हैं तो चुनौती दिखी होगी?

इंिडयन डेमोक्रेटिक फेडरल पार्टी बनाई. सपा का अध्यक्ष रहा. जनता दल में संसदीय बोर्ड में मेंबर बना. मैं तो बचपन से ये सब करता रहा हूं. 1987 से मैं ऐसा करता रहा हूं.

क्यों. आपने इतने ठांव क्यों बदले. इतने बेचैन क्यों?

जहां मुझे संतुष्टि नहीं मिलेगी, वहां क्यों रहूंगा. मैं 90 के दशक से राजनीति में हूं. जहां जनता के पक्ष में बात नहीं होगी, वहां रहकर क्या करूंगा. पूंजीपतियों ने मिलकर इसमें से 12 साल तो मुझे जेल में डलवा दिया. 12 साल तीन महीने के बाद मैं आया. कोसी ही क्यों उनकी लहर को रोक देता है. क्यों मोदी का जादू कोसी में नहीं चलता. क्यों पति-पत्नी दोनों जीत जाते हैं. इन 12 सालों में किसी का उदय हो जाना चाहिए था. लालूजी के पुत्र का उदय हो जाना चाहिए था. मुझे ही संसद में बोलने का श्रेय मिलता है. इस दौरान मुझे मीडिया से लेकर सबने ऐसे पेश किया जैसे मैं बड़ा विलेन हूं लेकिन जनता ने तो मेरा साथ दिया. मैं बिहार के संपन्न किसान परिवार से हूं. मेरे दादा कोर्ट के ज्यूरी हुआ करते थे. मेरे परिवार ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी. मेेरे पिता ने दो बार एमपी का चुनाव लड़ा, और एक बार एमएलए का. मेरे पिता आध्यात्मिक आदमी हैं. मुझे क्या जरूरत थी, क्या कमी थी कि मैं विलेन हो गया. मैं तो फौज में जाना चाहता था. मुझे देखकर मेरी मां गाती थी, ‘तुझे सूरज कहूं या चंदा.’ दादा कहता था कि बड़ा पहलवान बनेगा. लेकिन कुछ लोगों ने मिलकर पप्पू यादव को खलनायक की तरह पेश किया.

फिर किसने यह छवि बनाई? बाहुबली पप्पू यादव को ही बिहार और देश जानता है?

मुट्ठी-भर लोगों ने, जिन्हें लगा कि मैं उनके लिए चुनौती हूं. पदाधिकारियों ने. जनता के दुश्मनों ने.

राजनीति में पिताजी से सीखकर आए?

नहीं, दादा की वजह से ही  हमारा परिवार राजनीति में है. हमारे दादा कोर्ट के ज्यूरी हुआ करते थे उससे पहले मुखिया भी रहे. मैं अमेरिका पढ़ने जा रहा था. जिला स्कूल और आनंदमार्गी स्कूल का टॉपर था. कहां पप्पू यादव बाहुबली था. ऊंचे सपने थे. वह तो सामाजिक जरूरतों ने ढकेल दिया मुझे भी राजनीति में लेकिन यहां आकर पाया कि राजनीतिक लोग सबसे ज्यादा दुष्चरित्र, बेईमान, लुटेरे हैं, गंदे हैं.

आप कभी राजनेता की तरह बात कर रहे हैं कभी सामाजिक सुधारकर्ता की तरह?

हां, मैं खुद से लड़ता हूं. राजनीति का पक्ष भारी पड़ता है कभी, तो कभी दूसरा पक्ष.

आप 90 के दशक में राजनीति में आए. उसी समय सामाजिक न्याय की राजनीति शुरू हुई. लालू- नीतीश का भी युग रहा ये. ऐसे बिहार की राजनीति में इन 25 सालों के सफर को कैसे देखते हैं?

कर्पूरी ठाकुर, चंद्रशेखरजी, मधु लिमये, देवीलाल, लालू यादव, शरद यादव, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान, भूपेंद्र नारायण मंडल, जगदेव बाबू जैसे कई लोगों ने इसमें जोर लगाया. जगदेव बाबू को यहीं लाठी से मारा गया. कर्पूरी अपमानित हुए. सामाजिक न्याय की लड़ाई का दौर लंबे समय से चल रहा था. नब्बे के दशक में एक सरकार बनी. यह कहिए. इसके पहले भी सामाजिक न्याय की सरकार बनी थी. 90 की सरकार के बाद राजनीतिक और सामाजिक जागरूकता बढ़ी. प्रत्येक क्रिया के विपरित प्रतिक्रिया शुरू हुई. इन स्थितियों में लालूजी को मौका मिला. लीडरशिप उनका था तो लालूजी का नाम हुआ. लेकिन बिहार की समस्या का समाधान नहीं हुआ. आर्थिक व शैक्षणिक सुधार तो नहीं हुआ. कोई समाधान तो नहीं मिला इस दिशा में. बिहार को न्याय और विकास तो नहीं मिला. बिहार राजनीति की उर्वर भूमि बना रहा. 8400 गांव हैं, लेकिन तकरीबन 5600 गांवों में आज भी स्कूल नहीं हैं. सिर्फ 18 लाख नौजवान बीए में पढ़ते हैं. आज तक मात्र नौ हजार बेटियां तकनीकी शिक्षा ले सकी हैं. हम अपनी विरासत को नहीं संभाल सके. शासन और ज्ञान की परंपरा को आगे नहीं बढ़ा सके इन सालों में. बिहार के पास एक लंबी परंपरा है. कर्ण की नगरी यहीं है. सीता, आर्यभट्ट,  अशोक, शेरशाह सूरी से लेकर विद्यापति, भिखारी ठाकुर, बाबू कुंवर सिंह, मंडन मिश्र यहीं के हैं. ऐसी परंपरा रही लेकिन हम उसे आगे नहीं बढ़ा सके.

‘लालूजी ने गरीब के मर्म को समझा. तब सोशल मीडिया नहीं था लेकिन अब दो मिनट में दुनिया बदलने की हड़बड़ी है. लालूजी यह नहीं समझ पा रहे हैं. जनता उकताई हुई है’

आप ये कह रहे हैं कि सामाजिक न्याय की राजनीति और सत्ता के 25 सालों में सिर्फ जागरूकता फैलाने का काम हुआ?

नहीं, जाति का जहर भी फैलाया गया और उससे अपना मकसद साधा गया.

लालू और नीतीश में क्या फर्क देखते हैं. दोनों ने इन 25 सालों में राज किया?

लालूजी ने निश्चित रूप से गरीब की भाषा और मर्म को समझा. तब सोशल मीडिया नहीं था. लेकिन अब समय बदल गया. अब दो मिनट में दुनिया बदलने की हड़बड़ी है. लालूजी यह नहीं समझ पा रहे हैं. जनता उकताई हुई है. मोदी को लाती है उसी उम्मीद में. मोदी जी गिर जाते हैं. लालू के उलट नीतीश कुमार जी दूसरी राह पर चले. ब्यूरोक्रेसी को हावी कर दिया. लालूजी के राज में ब्यूरोक्रेसी के मन में डर था. पैसा लेता था तो काम भी करता था. जनता को आंख नहीं दिखाता था लेकिन नीतीश के राज में उलटा हुआ. लालूजी के राज में भी उन्हीं लोगों ने लूटा जो नीतीश कुमार के राज में लूटे या लूट रहे हैं. अफसोस ये होता है कि सामाजिक न्याय की राजनीति में बड़े वर्ग का साथ मिला, जिसका उपयोग न लालू कर सके, न नीतीश. अल्पसंख्यक, पिछड़े, दलित, अतिपिछड़ा, ऊंची जातियाें में राजपूतों की बड़ी आबादी सामाजिक न्याय के साथ रही लेकिन लालूजी संभाल नहीं पाए. लालूजी के राज में एक जाति को लगा कि उनका राज आ गया. वे बाहुबली बनने लगे. तब लोगों को लगा कि फर्क क्या है, पहलेवाले भी तो यही करते थे. तब नारा चला कि यादवों को खत्म करो. यादव गाली बने. फिर नीतीश कुमार के कंधे पर पिछड़ों को बांटा गया और राज किया गया. नीतीश कुमार भी घिर गए. छटपटाहट है उनमें कि इनको बदलो, उनको बदलो.

किसमें छटपटाहट है. सवर्णों में?

नहीं सवर्णों को नहीं कहूंगा. बिहार में कुछ 50 घराने हैं, जो सत्ता की सियासत को हमेशा साधने में लगे रहते हैं, वही ये सब खेल करते हैं.

आपने एक बात कही कि लालू उस समय आ गए. क्या आप ये कहना चाह रहे थे कि लालू सिर्फ परिस्थितियों की देन की वजह से नेता बने, स्वाभाविक नेता नहीं?

हां, इससे इंकार नहीं कि वे परिस्थितियों की देन की तरह आए नेता थे लेकिन ऐसा भी नहीं कह सकता  िक वे नेता नहीं थे. वे 1974 के आंदोलन में सक्रिय थे. वे नेता रहे हैं.

बिहार में अब तो जीतन राम मांझी एक अहम नेता हैं, क्या कहेंगे आप?

हां, वे एक अहम नेता हैं. वे जिस घर में जाएंगे वह एक मजबूत खेमा होगा. मुझे डर है कि कहीं झारखंडवाला हाल न हो जाए महाविलय पार्टी का.

क्या हुआ झारखंड में?

झारखंड में जनता दल यू और राजद की जमानत जब्त हो गई. हेमंत सोरेन का साथ छोड़े तो असर दिख गया. कीमत चुकानी पड़ी.

पप्पू यादव सीएम बनने की लड़ाई लड़ रहे हैं. आपने कहा भी कि आपको तीन माह दिए जाएं तो ऐसा कर देंगे, वैसा कर देंगे?

आपने पूछा तो कहा.

आपकी कोई बात नहीं मानी जा रही. महाविलय हो चुका है. मांझी अलग हैं. लालूजी अब बार-बार कह रहे हैं कि मेरा बेटा उत्तराधिकारी है. ज्यादातर आपको सुना रहे हैं.

उत्तराधिकारी तो अब नीतीश कुमार हो गए. अब  यह सवाल ही खत्म हो गया.

आपको तो कोई दिक्कत नहीं है न?

मुझे किसी से क्या दिक्कत है. लेकिन ये तो सब जानते हैं न कि आज अगर यादवों को जंगलराज का पर्याय माना जाता है, उनको गाली दी जाती है तो उसमें नीतीश की भूमिका सबसे ज्यादा रही है. उन्होंने यादवों के बारे में ऐसा प्रचारित करवाया. लेकिन ऐसा होता तो है नहीं. पप्पू यादव या लालू यादव खराब हैं तो इससे पूरे यादव समाज को गाली नहीं देनी चाहिए. लेकिन नीतीश कुमार ने तो ये करवाया था.

आप करेंगे क्या? लालूजी आपको किनारे कर चुके हैं. नीतीश ही उत्तराधिकारी बन गए. आपकी किसी बात काे महत्व नहीं दिया गया न. क्या अलग रास्ता अपनाएंगे?

अब यह जमात और वर्कर तय करेगा. मैं घूम रहा हूं. राजद के कार्यकर्ताओं से मिल रहा हूं.

आप महाविलय के बाद राजद और लालटेन को अपने पास रखना चाहेंगे?

ऐसा कुछ नहीं है. राजदवाले नेता और कार्यकर्ता चाहेंगे तो ऐसा होगा.

पत्नी और कांग्रेस सांसद रंजीत रंजन की भूमिका आपके कॅरियर में अहम रही है.

रंजीत रंजन की बड़ी भूमिका रही है. जितनी भूमिका मेरे दादा और पिता की रही है, उतनी ही भूमिका मेरी पत्नी की रही है.

आपके और पत्नी के विचार एक हैं. आप युवा संवाद में उनकी तस्वीर भी लगाते हैं. वह कांग्रेस से आप राजद से. राजनीतिक तौर पर अलग-अलग क्यों हैं आप दोनों?

वह कांग्रेस की विचारधारा मानती हैं. मेरे लिए बिहार प्राथमिक सूची में है. अलग-अलग विचारधारा है इसलिए दल में हैं.

अगर आप दोनों बेस्ट पॉलिटिकल कपल हैं तो अलग क्यों. एक और एक ग्यारह क्यों नहीं बन रहे. बिहार के लिए ही सही.

यह तो कांग्रेस को तय करना चाहिए. हो सकता है कि कांग्रेस के मन में दुविधा हो. हो सकता है कि कांग्रेस के मन में हो कि मैं बाहुबली के रूप में प्रचारित किया जाता रहा हूं. लेकिन अब इस छवि का क्या किया जाए. अमित शाह पर तमाम आरोप लगे लेकिन वे आज देश की सबसे बड़ी पार्टी के अध्यक्ष हैं. आडवाणीजी पर आरोप लगा, वे गृहमंत्री बने.

आपको कांग्रेस प्रस्ताव दे तो जाएंगे. वह तो बिहार में मर गयी है?

देखेंगे. कांग्रेस बड़ी पार्टी है. वह कभी नहीं कहेगी कि मर गई है. कांग्रेस में मजबूत जनाधारवाली मेेरी पत्नी रंजीत हैं, वे आगे आएंगी तो मैं उनके साथ रह सकता हूं. अपना स्वार्थ क्यों देखूंगा.

रंजीत को आगेकर कांग्रेस कहे कि पप्पू साथ दीजिए तो क्या करेंगे?

क्या किसी दल के साथ रहना जरूरी है. कल कांग्रेस मुझे अपने काम करने से रोकने लगे तो उसके साथ कैसे रह पाऊंगा. मैं बहुत दुविधा में रहता हूं.