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‘मजेदार कथानक साहित्य होता है’

Minakshi Thakurदेश के बड़े हिंदी प्रकाशन समूह अब भी लोकप्रिय साहित्य प्रकाशित करना  ‘टैबू’  (वर्जित कार्य) समझते हैं ऐसे में हार्पर कॉलिंस की ओर से लुगदी साहित्य प्रकाशित करने की कोई खास वजह?

देश का कोई भी प्रकाशक जबरदस्त कहानी ही तो ढूंढता है और हिंदी अपराध लेखन में सुरेंद्र मोहन पाठक (सुमोपा) से जबरदस्त कोई नाम नहीं. हिंदी में पॉकेट बुक प्रकाशन और लुगदी साहित्य का कल्चर था इसलिए बड़े हिंदी प्रकाशक ‘सुमोपा’ जैसे लेखकों को नहीं छापते थे. इसे लेकर एक किस्म की स्नॉबरी (दंभ) भी था. हम अपराध लेखन को मुख्यधारा में ले आए. मैं खुद सुरेंद्र मोहन पाठक के शिल्प की मुरीद हूं. मजेदार कथानक साहित्य होता है, न कि लुगदी साहित्य या उच्च साहित्य. अब तक हमने उनके तीन उपन्यास प्रकाशित किए हैं और पिछले डेढ़ साल में इनकी लगभग 30-30 हजार प्रतियां बेच चुके हैं.

फिर भी सुरेंद्र मोहन पाठक ही क्यों?

आप उनसे मिलें, अपराध लेखन, अन्य साहित्य के बारे में या फिर सिर्फ जीवन के बारे में ही बात कीजिए, आप खुद जान जाएंगी कि वो हमारे वक्त के खास लेखक हैं जिन्हें हम सब के बीच होना चाहिए, जिनकी किताबें घर-घर पहुंचनी चाहिए. वे ‘मासेस’ (आम जनता) के लेखक हैं और जल्द ही ‘क्लासेज’ (वर्ग विशेष) के लेखक भी बन जाएंगे. उनकी किसी किताब पर किसी ने अब तक फिल्म नहीं बनाई है पर अगर कोई अक्षय कुमार या सलमान खान को लेकर फिल्म बनाता तो बॉक्स ऑफिस पर बेहद सफल रहती.

उनकी किताबों का फीडबैक कैसा रहा?

दोनों उपन्यासों की लगभग तीस हजार कॉपी बिक चुकी हैं और अब भी बिक ही रही हैं.

‘कोलाबा कांस्पीरेसी’  का अंग्रेजी अनुवाद भी आया है, क्या उम्मीद है कि अंग्रेजी के पाठक इसे किस तरह लेंगे?

हमने इस महीने बाजार में अंग्रेजी की 5000 प्रतियां भेजी हैं. अभी तक तो अच्छा चल रहा है, आगे देखते हैं कि कितने अंग्रेजीदां कन्वर्ट होते हैं. वैसे ऑनलाइन शॉपिंग वेबसाइट ‘अमेजन’ पर हिंदी संस्करण पिछले वर्ष की सबसे सफल किताबों में से एक था.

क्या किसी अन्य हिंदी रचना (विशेषकर पल्प फिक्शन) का भी अंग्रेजी अनुवाद करवाया जा रहा है? 

हमने पहले भी इब्ने सफी के 15 उपन्यास प्रकाशित किए थे. और कई किताबों के अनुवाद पर भी काम चल रहा है. ये खासकर ‘न्यूजहंट’ (मोबाइल एप) पर बहुत अच्छी बिकती हैं.

आपने पहले कहीं बताया था कि आपको हिंदी किताबों के डिस्ट्रीब्यूशन में काफी परेशानी हुई जबकि अन्य प्रकाशकों के अनुसार हिंदी के पाठकों तक पहुंचना आसान है. क्या आपको लगता है कि आप आमजन तक पहुंचने में चूक रहे हैं?

जो कह रहे हैं कि हिंदी पाठकों तक पहुंचना आसान है उनका या तो खुद का डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क है या फिर उन्हें असली पाठक की कोई फिक्र ही नहीं है, उनका काम लाइब्रेरी के आॅर्डर से चल जाता है. पिछले दस सालों में तो कम से कम हिंदी डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क में कोई सुधार नहीं हुआ है. फिर कुछ किताबें हैं जो अपने दम पर चल जाती हैं, पाठक उनको ढूंढते हुए दुकानों तक आ जाते हैं तो डिस्ट्रीब्यूटर खुद किताबें उपलब्ध करवाने लगते हैं. हमारे यहां ऐसा पाठक की किताबों, पाउलो कोएल्हो के अनुवाद, अरविंद केजरीवाल की ‘स्वराज’ आदि के साथ हुआ है.

लोकप्रिय है, लुगदी नहीं

लोकप्रिय साहित्य को लुगदी साहित्य कहना ठीक नहीं है क्योंकि साहित्य के नाम जो कुछ परोसा जा रहा है, उसमें से बहुत कुछ ऐसा है जो लुगदी की तुलना में बहुत ही खराब और बेहद गिरा हुआ है. लोकप्रियता अगर किसी चीज के अच्छे होने का प्रमाण नहीं है तो लोकप्रिय होते ही कोई चीज खराब नहीं हो जाती है. मैं अपनी बात करूं तो मैंने छठी, सातवीं और आठवीं कक्षा की गर्मी की छुट्टियों में शरतचंद्र की ‘गृहदाह’, ‘शेष प्रश्न’, ‘चरित्रहीन’, ‘देवदास’ आदि पढ़ी. रवींद्रनाथ की ‘गोरा’, रांघेय राघव की ‘कब तक पुकारूं?’ गुलशन नंदा की ‘मैं अकेली’, ‘काली घटा’, ‘माधवी’, ‘घाट का पत्थर’, ‘पत्थर के होंठ’ आदि पढ़ डाली. कक्षा नौ में मैंने गुलशन नंदा की ‘कलंकिनी’ पढ़ी. मैं अब जब गुलशन नंदा के लेखन का मूल्यांकन करूं तो मुझे उनका लेखन ‘लाइट रीडिंग’ लगता है. लाइट रीडिंग से मेरा आशय भावनात्मक विषयों से है. ये साहित्य हल्के मनोभाव से पढ़े जाते हैं लेकिन असर लंबे समय तक पड़ता है. ये साहित्य किशोरावस्था से युवावस्था में प्रवेश करने की उम्र में पढ़े जाते हैं. इससे भावनात्मक मनोभूमि का निर्माण होता है.

शरतचंद्र की ‘गृहदाह’ और ‘चरित्रहीन’ में जो पात्र हैं, उनके उपन्यास में जो घर और पारिवारिक परिवेश दर्शाए गए हैं, वे यथार्थ जीवन से आते हैं. वहीं गुलशन नंदा ने अपने उपन्यासों में यथार्थ दिखाने की जगह आदर्श व भावनात्मक मूल्यों को दिखाने की कोशिश की. वे इन्हें मोहब्बत की दास्तान कहते हैं. मोहब्बत की दास्तान कहना भी उतना ही जरूरी है जितना यथार्थ की कहानी. जीवन के लिए दाल-रोटी कमाना और हल जोतना ही सिर्फ जरूरी नहीं है. जीवन को प्रेम की, भावना की भी बहुत जरूरत है. मेरे कहने का मतलब यह है कि जीवन का यथार्थ या जीवन से जुड़ी भावना केवल गंभीर साहित्य में है, वहां नहीं है ऐसा कहना ठीक नहीं.

मैंने लाइट रीडिंग की बात की है. मोहब्बत में पड़ गए. एक-दूसरे के लिए जीने-मरने लगे, ऐसी बातों के बगैर जीवन नहीं ठहरता लेकिन यह उदात्त है. ऐसी भावनागत बातें हमें दूसरी दुनिया में जीना सिखाता है. आज साहित्य के नाम पर बहुत अश्लील लिखा जा रहा है. 30-40 साल पहले गुलशन नंदा का उपन्यास ‘कलंकिनी’ आया था. यह इनसेस्ट (कुटुंब व्यभिचार) की कहानी है. यह चाचा द्वारा एक भतीजी को प्रताड़ित करने की कहानी है. उनकी ‘काली घटा’ में एयर होस्टेज की कहानी है. 1970-80 के दशक के जटिल मुद्दे उनके उपन्यासों के विषय बनाए गए. उन मुद्दों को वे प्रेम कहानियों के जरिए पाठकों तक पहुंचाते थे. उनके उपन्यासों के कथानकों का मूल्यांकन प्रेम कथानकों की तरह होना चाहिए. मुझे दुख है कि वे आज पूरी तरह से भुला दिए गए हैं. उनके उपन्यास बाजार में अब मिलते ही नहीं. यह भी दुखद है कि अश्लील साहित्य के बारे में बात करते हुए अक्सर गुलशन नंदा को मुहावरों की तरह इस्तेमाल में लाया जाता है. मैं जोर देकर कहना चाहूंगी कि गुलशन नंदा का साहित्य कहीं से भी अश्लील नहीं है. मैंने उन्हें छोटी उम्र में पढ़ा और मेरा मानना है कि छोटी उम्र में अश्लील बातों को लेकर ज्यादा दिक्कत महसूस होती है. मैं जब गुलशन नंदा को पढ़ रही थी तब प्रेमचंद और शरतचंद को भी पढ़ रही थी और मुझे उनकी रचनाओं में कहीं भी अश्लीलता नजर नहीं आई. गुलशन नंदा के उपन्यासों के पात्र करोड़पति नहीं थे. वे सामान्य जीवन के ही किरदार थे. उनके कथानकों में विधवा विवाह, बाल विवाह, नशाखोरी जैसे सवालों को शामिल किया गया. कोई किशोरवय जब युवावस्था में प्रवेश कर रहा होता है तब उसे इस तरह की साहित्य की दरकार होती है. ऐसा साहित्य इस उम्र में उदात्त प्रवृत्तियों की ओर प्रवृत्त करता है.

हिन्द पॉकेट बुक्स उन दिनों घरेलू लाइब्रेरी योजना चलाती थी जिसके अन्तर्गत सोलह रुपये में हर महीने छह किताबें पढ़ने को मिलती थीं. मैंने इस योजना के अन्तर्गत बहुत सारी किताबें पढ़ीं. अब इस तरह की कोई योजना नहीं चलाई जाती है. शिवानी हमारी प््रिय लेखिका हैं जिनकी हमने ‘कृष्णकली’, ‘शमशान चंपा’, ‘चौदह फेरे’, ‘भैरवी’ आदि पढ़ी हैं. वे जाति धर्म के राजनीतिक प्रश्न नहीं उठाती हैं तो क्या? मगर उन्होंने हमारा सिर्फ हिंदी भाषा से परिचय कराया उसकी तुलना बाणभट्ट की कादम्बरी से की जा सकती है. संस्कृतनिष्ठ भाषा के बावजूद आमजन उनकी किताबें बुक स्टाल से खरीदकर पढ़ता रहा. मूल प्रश्न यह है कि क्या अच्छा साहित्य है क्या लुगदी, इसका निर्णय कौन करेगा? साहित्य वही है जो पाठक के दिल में बसे. साहित्य के नाम पर ‘हंस’ या और दूसरी पत्रिकाओं में प्रेम के नाम पर कहानियां छापी गई हैं, वे मोहब्बत से दूर, पूरी तरह वीभत्सता का नमूना हैं. इस तरह की वीभत्स कहानियों को इसलिए कहानियों का दर्जा मिल जाता है क्योंकि वे हंस या ऐसी ही किसी साहित्यिक पत्रिकाओं में छप जाती हैं. यह बिल्कुल गलत धारणा है कि जो रचना साहित्यिक पत्रिका में छप गई और लोकप्रिय नहीं हुई, इसलिए अच्छी हैं. और कोई दूसरी रचना साहित्यिक पत्रिकाओं में नहीं छपी और पॉकेट बुक्स में छपकर लोकप्रिय हो गईं, इसलिए साहित्य नहीं, लुगदी है.

                                             स्वतंत्र मिश्र से बातचीत पर आधारित

‘साहित्य में तुम मेरी पीठ खुजाओ, मैं तुम्हारी खुजाता हूं… बेहद आम बात हैै’

surindr mohan

आपने एक साक्षात्कार में बताया था कि उर्दू और बंग्ला के साहित्यकारों ने आपको ज्यादा छुआ. हिंदी में सभी को आजमाया लेकिन जो तृप्ति उर्दू या बंग्ला के लेखकों को पढ़कर हुई वो हिंदी वालों को पढ़कर नहीं हुई. क्या हिंदी की किसी एक किताब ने भी प्रभावित नहीं किया?

नहीं, मैंने यह कभी नहीं कहा कि हिंदी के लेखक अच्छे नहीं हैं, प्रतिभासंपन्न नहीं है. भैरव प्रसाद गुप्त, इलाचंद्र जोशी, उपेंद्रनाथ अश्क, मनोहर श्याम जोशी, श्रीलाल शुक्ल और अमृतलाल नागर जैसे कितने ही लेखकों को मैंने अपनी कम उम्र में पढ़ा और सराहा. मैंने वस्तुत: यह कहा था कि मेरे खुद के लेखन और उसकी किस्म के मद्देनजर हिंदी का कोई लेखक मेरा प्रेरणास्रोत नहीं बन सका. ये मेरी व्यक्तिगत समस्या है, इसके अलावा कुछ नहीं.

अगर बात को थोड़ा और विस्तार दूं तो मेरे मन में कभी अभिलाषा ही नहीं जगी कि मैं फलां हिंदी लेखक जैसा बन सकूं और उस जैसा लिखकर, वैसी ख्याति अर्जित करूं. लेकिन कृश्न चंदर जैसा अल्फाज का जादूगर बनने की अभिलाषा हमेशा रही. इस्मत चुगताई जैसा किस्सागो बनने की मैंने हमेशा कोशिश की. मंटो की तरह सब्जेक्ट पर तीखी पकड़ हासिल करने का ख्वाब हमेशा देखा. ताराशंकर बंदोपाध्याय जैसा रचनाशिल्पी बन पाने की हसरत दिल में हमेशा रही. अपने 55 वर्षीय लेखन काल में मैं इन लेखकों की परछाई भी नहीं बन सका लेकिन उनकी हस्ती से, उनकी हैसियत से मैं निरंतर प्रेरणा पाता रहा हूं. हिंदी की बहुत सी किताबों ने मुझे बहुत बड़े पैमाने पर प्रभावित किया है.

रागदरबारी (श्रीलाल शुक्ल), बूंद और समुद्र (अमृतलाल नागर), गिरती दीवारें (उपेंद्रनाथ अश्क), कुरु कुरु स्वाहा (मनोहर श्याम जोशी), गुनाहों के देवता (धर्मवीर भारती) जैसे कई उपन्यासों को मैंने बहुत चाव से पढ़ा है. लेकिन कृश्न चंदर, इस्मत चुगताई, राजेंद्र सिंह बेदी, ख्वाजा अहमद अब्बास, वाजिद तबस्सुम, सआदत हसन मंटो, अहमद नदीम कासमी की रचनाओं को कई-कई बार टेक्स्ट बुक की तरह पढ़ा. इस तरह से मैं हिंदी के दिग्गज लेखकों को भी न पढ़ सका. हिंदी के कुछेक लेखकों को छोड़कर, जिनमें से कुछ के नाम मैंने पहले बताए. ज्यादातर हिंदी साहित्यकारों को पढ़कर कई बार ऐसा लगा कि जैसे मैं कहानी, उपन्यास, आत्मकथा और रिपोर्ताज की जगह केवल भाषा पढ़ रहा हूं. उर्दू और बंगाली लेखकों के साथ कभी मैंने ऐसा महसूस नहीं किया.

गंभीर साहित्य सृजन के बजाए लोकप्रिय साहित्य सृजन में हाथ आजमाने का फैसला क्यों किया?

मेरा शुरुआती रुझान गंभीर साहित्य में ही बना था और तब साठ के दशक की शुरुआत में मेरी कुछ कहानियां नई सदी, निहारिका, मनोहर कहानियां, मेनका, चित्रलेखा वगैरह में छपी थीं, लेकिन लोकप्रिय लेखन की कशिश ने जल्दी ही मुझे अपने शिकंजे में जकड़ लिया था. लोकप्रिय साहित्य के पाठक शुरू से ही बहुत ज्यादा रहे हैं. इस विधा का कोई लेखक उनकी उम्मीदों पर खड़ा उतरकर दिखाए तो उसकी तरक्की की रफ्तार बहुत  होती है. इस प्रलोभन ने मुझे भी चुंबक की तरह अपनी तरफ खींचा फिर मैं मिस्ट्री राइटर बन गया, मकबूल मिस्ट्री राइटर. दूसरा प्रलोभन पैसा था जिसे आसानी से नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था. इस संदर्भ में मैं अमेरिकी लेखक सैमुअल जॉनसन द्वारा कही गई एक पंक्ति का जिक्र करना चाहूंगा. जॉनसन कहते हैं, ‘कोई मूर्ख ही होगा जो बिना पैसे की उम्मीद के लिखता होगा.’ मेरे खयाल से पैसा किसी को नहीं काटता. हर कोई पैसा चाहता है. लेखक कैसा भी हो, किसी भी विधा का हो, हर कोई पैसे का तमन्नाई है. हर लेखक लोकप्रिय होना चाहता है क्यों भला? क्योंकि लोकप्रियता, मुद्राप्राप्ति का भी माध्यम है. लोकप्रियता के पीछे-पीछे ही पैसा चलता है बल्कि एक हद के बाद तो पैसा आगे-आगे चलने लगता है. कोई अपनी जुबानी कबूल करे न करे लेकिन सच्चाई तो यह है कि हर लेखक अपने लेखन से अर्थोपार्जन का अभिलाषी है. स्वान्त: सुखाय के लिए कोई नहीं लिखता, हर लेखक पैसे के लिए लिखता है.

अगर ऐसा न हो तो क्यों लेखक और प्रकाशक के बीच रॉयल्टी को लेकर झगड़े हों. कई बार तो दोनों ऐसे झगड़े कि मामला अदालतों की चौखट तक जा पहुंचा. अगर पैसा महत्वपूर्ण नहीं है तो क्या कोई स्थापित हिंदी लेखक टाॅलस्टाय की मिसाल बन सकता है जो अपनी जिंदगी में ही अपने सारे साहित्य को कॉपीराइट फ्री कर देने का अभिलाषी था?

गंभीर साहित्यकारों में से श्रीलाल शुक्ल, मनहर चौहान और आनंद प्रकाश जैन ने जासूसी उपन्यास लिखने में अपना हाथ आजमाया लेकिन वो अपनी कोशिशों में मुंह के बल गिरे. इन लोगों ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि इन्हें वहां पैसा दिखाई दिया, लेकिन इस कोशिश को करते वक्त वे भूल गए कि जिसका काम उसी को साझे, दूजा करे तो डंडा बाजे. अंत में इतना कहना है कि मैंने लोकप्रिय साहित्य को पैसे की वजह से चुना. ऐसा कहने और मानने में मुझे कोई झिझक नहीं है.

सत्तर-अस्सी के दशक को लोकप्रिय साहित्य और पॉकेट बुक्स व्यवसाय का स्वर्णकाल माना जाता है लेकिन आप इसे  ‘बहती गंगा में हाथ धोने’  का दौर कहते हैं, आखिर क्यों?

तब इस धंधे में गधे-घोड़े सब एक बराबर हो गए थे. इतने प्रकाशक हो गए थे, स्क्रिप्ट की खपत इतनी बढ़ गई थी कि तब जो कूड़ा-करकट छपता था जैसे-तैसे बिक ही जाता था. टीवी, इंटरनेट, केबल के अभाव में जो कुछ भी हाथ आता था, लोग पढ़ने बैठ जाते थे. तब गुणवत्ता की न कोई शिनाख्त थी, न अहमियत. इसी वजह से उस दौर में छद्म नामों (घोस्ट राइटिंग) से लेखन का प्रेत उठ खड़ा हुआ. अच्छा लेखक अच्छे पैसे मांगता था. इससे बचने के लिए प्रकाशकों ने अपने ट्रेडमार्क जैसे नकली लेखकों को साबुन-तेल की तरह प्रमोट करना शुरू कर दिया था. बड़े-बड़े साहित्यकारों को पॉकेट बुक्स में छापने की प्रशस्ति और गौरव प्राप्त करने वाले प्रकाशन ‘हिंद पॉकेट बुक्स’ ने कर्नल रंजीत के ट्रेड नाम से पहला घोस्ट राइटर खड़ा किया जो आगे चलकर व्यापक भ्रष्टाचार की मिसाल बना. हालात इतने बिगड़े कि प्रकाशक लेखकों को ब्लैकमेल करने लगे कि अगर वे इस धंधे से बाहर नहीं होना चाहते तो इन ट्रेड नामों से उपन्यास लिखना कबूल करें. अब ऐसे वक्त को मैं बहती गंगा में हाथ धोने का दौर न कहूं तो और क्या कहूं.

हिंदी में लोकप्रिय साहित्य को लेकर एक शुद्धतावादी रवैया दिखता है. इसके पीछे आप क्या वजह देखते हैं?

हां, इस बारे में एक भ्रम बना दिया गया है. ऐसा लगता है मानो हिंदी साहित्य लेखक बहुत कुलीन हैं और उनके मुकाबले लोकप्रिय साहित्य लेखक का दर्जा बाजारू औरत का है. ये हाउसवाइफ और हारलोट (वेश्या) जैसी तुलना है. इसके जरिये साहित्यिक लेखक अपने ईगो की तुष्टि करते हैं. जब राजकपूर बतौर फिल्म निर्माता अपनी मकबूलियत के शिखर पर थे तब किसी ने कहा था कि वो सत्यजीत रे जैसी फिल्में कभी नहीं बना सकते. इसका माकूल जवाब राजकपूर के बड़े बेटे ने दिया था कि क्या सत्यजीत रे राजकपूर जैसी फिल्में बना सकते थे? एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति के काम को हिकारत की निगाह से देखना गलत है, नाजायज है, गैरजरूरी है! क्या जासूसी उपन्यास लिखने में मेहनत नहीं लगती! ऊर्जा खर्च नहीं होती! क्या इस काम को बिना कमिटमेंट के, लापरवाही से अंजाम दिया जा सकता है! आप ऐसा कैसे मान सकते हैं कि लोकप्रिय साहित्य पढ़ने वाले पाठक के सामने कुछ भी परोसा जा सकता है. ऐसा नहीं है. पाठक घोड़े और गधे में फर्क कर लेता है. लोकप्रिय साहित्य का पाठक कल था, आज है और आगे भी रहेगा लेकिन ‘साहित्य’ का पाठक हमेशा नहीं रहता क्योंकि पाठक है ही नहीं. इसमें दोष पाठकों का नहीं है. गंभीर साहित्य लेखकों की तरफ से, प्रकाशकों की तरफ से ऐसी कोशिशें ही नहीं होती कि पाठक तक साहित्य आसानी से पहुंच जाए. जो लेखक और प्रकाशक पाठकों की कमी का रोना रोते हैं वही अपनी 100 पन्ने की किताब की कीमत 100 रुपये रखकर एक तरह से पाठक को धकियाते हैं, नतीजा ये होता है कि साहित्यिक किताबें आपस में पढ़ी-पढ़वाई जाती हैं.

एक सीमित, स्थापित जमात में उसकी चर्चा होती है बल्कि सप्रयास कराई जाती है और वाहवाही बटोरी जाती है. ‘ए’ की रचना प्रकाशित हुई तो ‘बी’ ने उसे उम्दा करार दे दिया और जब ‘बी’ ने एक किताब लिखी तो ‘ए’ ने उसकी तारीफ कर दी. साहित्यिक हलको में ‘यू स्क्रैच माई बैक, आई स्क्रैच योर्स’ माने ‘तुम मेरी पीठ खुजाओ, मैं तुम्हारी खुजाता हूं’ बेहद आम है. सबसे खास बात ये है कि इस पूरी प्रक्रिया में पाठक का कोई दखल नहीं होता है. अब आप ही फैसला कीजिए कि यह प्रक्रिया ठीक है या लोकप्रिय साहित्य का सिलसिला ठीक है, जिसमें पाठक का अपने प्रिय लेखक से निरंतर जुड़ाव बना रहता है. लोकप्रिय साहित्य का पाठक अपने लेखक की हैसियत बनाता है. खालिस साहित्यकार इस हैसियत से वंचित है क्योंकि पाठक उन्हें नसीब ही नहीं होता.

क्या आप ये मानते हैं कि इस शुद्धतावादी रवैये की वजह से लोकप्रिय साहित्य लेखकों का कोई नुकसान हुआ. क्या कभी अपने-आपको गंभीर साहित्यकारों से कमतर महसूस किया?

सवाल ही नहीं उठता. लोकप्रिय साहित्य का अपना संसार है और उसमें उसका लेखक अपना वजूद महसूस करता है. उसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि किसी अखबार या पत्रिका में उसके बारे में कुछ अच्छा छपा या नहीं. उसका पाठक उसके साथ है जो उसे मकबूलियत के उस सिंहासन पर स्थापित करता है जिस तक गंभीर साहित्य के लेखक की कभी पहुंच नहीं होती. दूसरी बात, मैं क्यों अपने-आपको उनसे कमतर महसूस करूं? क्या कमी है मुझमें या मेरे लेखन में? अलबत्ता खूबियां कई हैं, जिन्होंने मुझे उस मुकाम पर पहुंचाया है जिस पर मैं आज हूं और जिससे गंभीर साहित्य के अधिकतर लेखक रश्क करते हैं. एक अरसा पहले की बात है, तब हिंदी के एक बड़े साहित्यकार ने ‘कादंबिनी’ पत्रिका में एक लेख लिखा था. लेख में महाशय ने गुलशन नंदा जैसे लोकप्रिय लेखकों के खिलाफ खूब विष-वमन किया था और मांग की थी कि ऐसे लेखकों और प्रकाशकों पर बैन लगा देना चाहिए. इसी लेख में उन्होंने मांग की थी कि लेखन-प्रकाशन के धंधे में आने वालों के लिए एक ‘मिनीमम क्वालीफिकेशन’ होनी ही चाहिए. यहां एक बात और बता दूं कि ये लेख लिखने वाले बड़े साहित्यकार लोकप्रिय लेखन में हाथ आजमा चुके थे और मुंह के बल गिरे थे. जिस लेखन को वो घटिया और बैन लगाने लायक बता रहे थे उसी में उन्होंने घोस्ट नाम से जासूसी उपन्यास लिखे और फॉरेन मिस्ट्री मैगजीन की तर्ज पर हिंदी में जासूसी कहानियों की पत्रिका भी निकाल चुके थे. अब आप ही यह फैसला कीजिए कि क्यों मैं ऐसे मोटिवेटेड साहित्यबाजों से खुद को कमतर महसूस करूं.

पिछले पांच-दस साल में आपने हिंदी की कौन सी किताबें पढ़ीं हैं? खासकर जिन्हें गंभीर साहित्य माना जाता हो.

मैं 75 वर्ष का हो चुका हूं और इस उम्र में मेरा लिखने पर जोर ज्यादा है, पढ़ने पर कम है. क्योंकि पढ़ा हुआ तो मेरे साथ ही चला जाना है, लिखा मुझे पीछे छोड़ जाना है. जब काम ज्यादा, वक्त कम हो तो उस काम को अहमियत देनी पड़ती है जिसका हासिल ज्यादा हो. जब वक्त था, तब मैं दुनिया-भर के साहित्यिक लेखकों को पढ़ता था लेकिन अब ऐसा नहीं कर पाता. फिर भी पिछले पांच-दस साल में मैंने कुछ साहित्यक किताबें पढ़ी हैं जैसे, गालिब छूटी शराब (रवींद्र कालिया), वधस्थल (मनोहर श्याम जोशी), आग का दरिया (कुर्तुल एन हैदर), विवर (समरेश बसु), बस्ती (इंतजार हुसैन), रामनगरी (राम नगरकर), अभ्युदय (नरेंद्र कोहली), अभिशप्त (नानक सिंह), एक खत एक खुशबू (कृश्न चंदर), मोहन दास (उदय प्रकाश), कितने पाकिस्तान (कमलेश्वर), खट्टर काका (हरि मोहन झा) इनके अलावा कुछ और पुस्तकें भी पढ़ीं लेकिन उनके नाम इस घड़ी याद नहीं आ रहे हैं.

गंभीर साहित्यकारों के एक वर्ग का मानना है कि इंटरनेट, टीवी और फिल्मों की वजह से पाठक कम हुए हैं. किताबें कम बिक रही हैं. क्या आप इस बात से सहमति रखते हैं?

उनका यह मानना कि गंभीर साहित्य पढ़ने वाले पाठक इंटरनेट या टीवी की वजह से कम हुए हैं, गलत है, भ्रामक है. जो चीज कभी थी ही नहीं वो कम कैसे होगी? पहले ही कहां रखे थे गंभीर साहित्य पढ़ने वाले पाठक जो अब किन्ही वजहों कम होते जा रहे हैं. अगर सामूहिक तौर से देखा जाए तो इस बात में दम है. इंटरनेट, टीवी और फिल्मों के साथ-साथ तेजी से फैल रहे पिज्जा कल्चर ने पढ़ने का ढंग तो बदला है. आज लोग हिंदी पढ़ने के बजाए अंग्रेजी पढ़ने पर ज्यादा जोर दे रहे हैं. नया पाठक वर्ग तैयार ही नहीं हो रहा है. मेरे जैसे लेखक के साथ एक अच्छी बात यह है कि मेरा एक तय पाठक वर्ग है जो वर्षों से मेरे साथ खड़ा है. गंभीर साहित्य लिखने वालों की ऐसी कोई बुनियाद न कभी बनी है, न बनने वाली है. इस सवाल का दूसरा पहलू भी है. इस दौरान अंग्रेजी फिक्शन की रीडरशिप बड़ी तेजी से बढ़ी है. ऐसा हुआ है इसीलिए चेतन भगत के हालिया उपन्यास ‘हाफ गर्लफ्रेंड’ का प्रिंट ऑडर बीस लाख प्रतियों तक गया है. ऐसा लगता है कि पिज्जा पार्लर जाना, मल्टीप्लेक्स जाना, इंटरनेट में रुचि लेना और देसी लेखकों के अंग्रेजी उपन्यास पढ़ना एक ही लेवल के शौक बन गए हैं. हिंदी का लेखक इस समीकरण से बाहर है. हकीकत ये है कि साहित्य की जैसी कद्र बंगाली, मलयाली और मराठी में है, वो हिंदी में नहीं है. हिंदी कहने को तो राष्ट्रभाषा है लेकिन इसकी जो थोड़ी बहुत पूछ है वो देश की हिंदी बेल्ट की वजह से ही है. हमारे मौजूदा समाज में नई पौध को पठन-पाठन के लिए प्रोत्साहित करनेवाला कोई नहीं है. आधुनिक माता-पिता अपनी औलाद को पिज्जा और शॉपिंग का अर्थ तो समझाते हैं लेकिन उसे पुस्तकों के अद्भुत, विलक्षण संसार से अवगत नहीं करवाते.

गंभीर साहित्य रचने वालों को कई तरह के सम्मान मिलते हैं. क्या आपने कभी ऐसे सम्मान की चाहत की?

मुझे तो ऐसा कभी ख्याल तक नहीं आया. मैं जिस हाल में हूं, जिस मुकाम पर हूं, उससे संतुष्ट हूं. मेरे पाठकों की निगाह में मेरा जो दर्जा है, वो मुझे सबसे बड़ा इनाम जान पड़ता है. मेरे पाठक मुझ जैसे छोटे इंसान को किसी काबिल समझते हैं, ये क्या कम बड़ा इनाम है!

हिन्दी में जिन्हें गंभीर साहित्यकार माना जाता है उनके काम को आप कैसे देखते हैं? क्या किसी गंभीर साहित्यकार ने आपको प्रभावित किया है यदि हां तो कौन और क्यों ?

गंभीर साहित्यकारों के काम को मैं काबिले रश्क मानता हूं. उनकी साधना के मुकाबले में मेरे जैसे कारोबारी लेखक का लेखन कहीं नहीं ठहरता. उनके मुकाबले में अपने बारे में मुझे कोई खुशफहमी नहीं. वे लोग महान हैं, साहित्य साधक हैं, जन-जन के लिए प्रेरणादायक हैं जबकि मैं तो लेखक भी नहीं हूं. मैं तो एक व्यापारी हूं जिसका व्यापार लिखना है. कोई मुझे लेखक मानता है तो वो मुझ पर एहसान करता है. मैंने बेइंतहा गंभीर लेखकों को पढ़ा है लेकिन कृश्न चंदर ने मुझ पर सबसे गहरी छाप छोड़ी है. भाषा में साहित्य पैदा करना, बात को सजा-सजा कर कहना, तहरीर में दरिया जैसी रवानगी पैदा करना, अल्फाज की जादूगरी दिखाना कोई कृश्न चंदर से सीखे. मैंने उनकी एक-एक रचना को कई-कई बार पढ़ा है और हर बार ऐसा महसूस हुआ कि पहली दफा पढ़ रहा हूं. मेरे अंदाजे बयां पर उनकी स्पष्ट छाप है. मैं यह कहते हुए फख्र महसूस कर रहा हूं कि कम से कम अंदाज-ए-बयां के मामले में मैं कृश्न चंदर का गैर-ऐलानिया शागिर्द हूं.

जासूसी और सेक्स थ्रिलर का कॉकटेल

James Headly Chase

लुगदी साहित्य में जासूसी के साथ रोमांस परोसने का सिलसिला काफी पुराना है. इस तरह के उपन्यासों की पाठक संख्या आज भी बनी हुई है. 80 और 90 के दशक में प्रकाशित उपन्यासों में रोचकता को बनाए रखने के लिए जासूसी एक महत्वपूर्ण तत्व होता था. इसके अलावा इसमें रोमांस का तड़का लगाया जाता था. जेम्स हेडली चेइज ऐसे ही एक उपन्यासकार थे, जिन्होंने 90 से ज्यादा जासूसी उपन्यास लिखे. इन उपन्यासों की बदौलत यूरोप में उन्हें थ्रिलर उपन्यासों का बादशाह कहा जाने लगा था. इतना ही नहीं उनके लिखे 50 से ज्यादा उपन्यासों पर फिल्में भी बन चुकी हैं.

 24 दिसंबर 1906 को लंदन में जन्मा यह उपन्यासकार भारत में काफी लोकप्रिय हुआ था. क्राइम फिक्शन, रहस्य, रोमांच, जासूसी और रोमांस के कॉकटेल से वे उपन्यास रचते थे. जिनका हिंदी में अनुवाद करके भारत में प्रकाशित कराया जाता था. जासूसी उनकी पसंदीदा विधा थी, इसका पता इस बात से चलता है कि उन्होंने अपने कई नाम रखे हुए थे. वे कई नामों (पेन नेम) से लिखा करते थे. जन्म के बाद उन्हें ‘रेने लॉज ब्रेबेजॉन रेमंड’ नाम मिला. इसके अलावा वह ‘जेम्स एल. डोचर्टी’, ‘रेमंड मार्शल’, ‘आर. रेमंड’ और ‘एंब्रोस ग्रांट’ के नाम से भी जाने जाते थे. हालांकि वे सबसे ज्यादा लोकप्रिय जेम्स हेडली चेज के नाम से ही हुए. भारत में इसी नाम से आए उनके उपन्यास अच्छी खासी संख्या में बिक चुके हैं.

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जेम्स ने अपने पेशेवर सफर की शुरुआत द्वितीय विश्व युद्घ के समय इंग्लैंड की रॉयल एयरफोर्स में सेवा देकर की थी, लेकिन ये उन्हें ज्यादा समय तक रास नहीं आया और किताबें पढ़ने और बेचने का शौक उन्हें उपन्यास लेखन की दुनिया में ले आया. 90 के दशक में जेम्स हेडली चेइज की लोकप्रियता को देखते हुए कुछ दूसरे भारतीय लेखकों ने भी छद्म नामों से बाजार में उपन्यास उतारे. इनमें जासूसी और रोमांस के साथ सेक्स को भी खूब जगह मिलती थी. ऐसा ही एक छद्म नाम रीमा भारती का है. जिनके उपन्यास का कंटेंट पूरी तरह से फिल्मी होता है. शायद ये एक तरह का चलन है. छद्म नाम होने की वजह से आप किसी भी हद तक इरोटिक (कामुक) कंटेंट पाठकों को परोस सकते हैं. इससे वास्तविक लेखक की पहचान और प्रसिद्घि भी प्रभावित नहीं होते.

 बहरहाल, मसाला फिल्मों की तरह ये उपन्यास मार-धाड़ के साथ जासूसी, देशभक्ति, थ्रिलर और एडल्ट कंटेंट से भरपूर होते हैं. रीमा भारती की बात करें तो उन्हें उनके उपन्यासों में भारत की कथित सीक्रेट सर्विस एजेंसी ‘आईएससी’ का एजेंट बताया जाता है. उपन्यासों में रीमा भारती का किरदार एक देशभक्त के रूप में गढ़ा जाता है जो अपने मकसद को पूरा करने के लिए अपने शरीर का इस्तेमाल करने से भी नहीं चूकतीं. जेम्स हेडली चेइज के उपन्यास अब बहुत ही कम नजर आते हैं, लेकिन जासूसी, रोमांच, रोमांस और सेक्स के इसी कॉकटेल की वजह से ‘रीमा भारती’ जैसे लेखक आज भी रेलवे स्टेशनों के बुक स्टॉलों की शान बने हुए हैं.

लुगदी या लोकप्रिय : मुख्यधारा के मुहाने पर

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वर्दी वाला गुंडा, पतझड़ का सावन, सूरजमुखी, प्सासी नदी, प्यासे रास्ते, झील के उस पार, शर्मीली, चिंगारी, पाले खां, चेंबूर का दादा, लाल निशान, नरक का जल्लाद, पिशाच का प्यार, तड़ीपार, काला अंग्रेज, पुलिस क्या करे, पुनर्जन्म कातिल, बहरूपिया, सुहाग और सिंदूर, सिंगला मर्डर केस, दहकते शहर… ये कुछ ऐसे उपन्यासों के नाम हैं, जिन्होंने लोकप्रियता के झंडे गाड़े और हिंदी पट्टी के युवा वर्ग पर अपनी बादशाहत कायम की. इन उपन्यासों के लेखक इब्ने शफी, रानू, गुलशन नंदा, सुरेंद्र मोहन पाठक, वेदप्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश काम्बोज, कुशवाहाकांत, रीमा भारती, कर्नल रंजीत और दिनेश ठाकुर जैसे लेखक हैं. इन उपन्यासों की बिक्री सबसे ज्यादा रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड के बुक स्टॉल से हुआ करती थी. 1960-70 में इन किताबों की इतनी धूम थी कि लेखकों को अग्रिम रॉयल्टी दी जाती थी. अग्रिम रॉयल्टी दिए जाने के बारे में एक किस्सा बहुत मशहूर है. वह यह कि गुलशन नंदा जब दिल्ली या मुंबई के एयरपोर्ट से बाहर निकलते थे तो प्रकाशक रुपयों से भरी अटैची लेकर उनके पीछे-पीछे दौड़ता था. आलम यह था कि जो प्रकाशक गुलशन नंदा को बैग पकड़ाने में सफल हो जाता, वह अगले कुछ महीने चैन की नींद सो सकता था क्योंकि अगला उपन्यास नंदा उनके लिए ही लिखने वाले होते थे. यह वह दौर था जब गुलशन नंदा और राजेश खन्ना का कॅरियर अपने परवान पर था. गुलशन नंदा की कहानियों पर 35 से ज्यादा हिंदी फिल्में बनीं और करीब 25 फिल्में सुपरहिट रहीं. इन सुपरहिट फिल्मों में राजेश खन्ना अभिनीत बहुत सारी फिल्में शुमार रहीं. नंदा के बारे में एक किस्सा और प्रचलित है. कहा जाता है कि जब वह अपनी प्रसिद्घि के चरम पर थे तो अपना एक उपन्यास राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर को भेंट करने पहुंच गए.दिनकर ने उनके उपन्यास को घटिया साहित्य कहकर कहकर फेंक दिया था. तब नंदा अपना-सा मुंह लेकर वापस लौटे थे.

‘सुरेंद्र मोहन पाठक के दोनों उपन्यासों के प्रिंट ऑर्डर 30 हजार हैं. ऑनलाइन रिटेल स्टोर ‘अमेजन’ पर उनकी किताब सर्वाधिक बिक रही है’

हिंदी आलोचकों ने लोकप्रिय और सस्ता होने की वजह से इसे लुगदी साहित्य का नाम दिया. हिंदी के आलोचकों के इस दृष्टिकोण को युवा कथाकार व जानकीपुल ब्लॉग के मॉडरेटर प्रभात रंजन सामंती करार देते हैं. वे बताते हैं, ‘हिंदी साहित्य का सबसे ज्यादा नुकसान आलोचकों ने किया है. यही वजह है कि अब आलोचकों की भूमिका खत्म हो रही है. अब लेखक, पाठक और प्रकाशक बच गए हैं. खांचेबाजी का आलम देखिए कि नामवर सिंह ने हिंदी साहित्य के बड़े उपन्यासकार-कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु को आंचलिक कहकर खारिज करने की कोशिश की थी.’ हिंदी प्रकाशन का नजरिया अब बदल रहा है और गंभीर साहित्य छापने वाले प्रकाशक भी इन लुगदी सितारों की किताबें छापने लगे हैं. हार्पर कॉलिन्स प्रकाशन ने सुरेंद्र मोहन पाठक के दो उपन्यास ‘कोलाबा कॉन्सपिरेसी’ और ‘जो लड़े दीन के हेत’ छापे हैं. हार्पर कॉलिन्स मूलतः अंग्रेजी का प्रकाशक है लेकिन पिछले कुछ सालों से हिंदी की किताबें भी छाप रहा है. इस प्रकाशन ने लुगदी के पहले लेखक इब्ने सफी को भी छापना शुरू किया है. हार्पर कॉलिन्स की संपादक मीनाक्षी ठाकुर ने ‘तहलका’ से बातचीत में बताया, ‘सुरेंद्र मोहन पाठक के दोनों उपन्यासों के प्रिंट ऑर्डर 30 हजार हैं. इन किताबों को बहुत अच्छा रिस्पाॅन्स मिल रहा है. ऑनलाइन रिटेल स्टोर ‘अमेजन’ पर सुरेंद्र मोहन पाठक की किताब सर्वाधिक बिक रही है.’ हिंदी के बड़े प्रकाशकों ने अभी तक लुगदी साहित्य से दूरी बनाई हुई थी लेकिन पिछले कुछ सालों से उन्हें भी इस साहित्य या इसके आसपास के साहित्य की लोकप्रियता और बाजार पर पकड़ बनाने का मोह सताने लगा है.

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हालांकि लुगदी साहित्य के बारे में वरिष्ठ साहित्यकार असगर वजाहत कहते हैं, ‘लुगदी साहित्य, गंभीर साहित्य के लिए जरूरी है. पहले भी लुगदी में ईमानदारी, नेकी, देश प्रेम जैसे मूल्य आधारित विषय होते थे और आज भी जो लिखा जा रहा है उसमें भी कुछ मूल्य होते हैं.’ राजकमल प्रकाशन समूह के अधिकारी सत्यानंद निरूपम ‘तहलका’ से बातचीत में कहते हैं, ‘राजकमल प्रकाशन ने लुगदी साहित्य का जब-तब प्रकाशन किया है. हमारे यहां चंद्रकाता और चंद्रकांता संतति का प्रकाशन पहले किया जा चुका है, जिसे पाठकों की ओर से अच्छा रिस्पाॅन्स मिला है. समूह ने बीच-बीच में लुगदी साहित्य को कई बार छापने की कोशिश की है. अब हम इस तरह का साहित्य छापने के लिए ‘फंडा’ नाम का उपक्रम शुरू करने जा रहे हैं.’ इस उपक्रम के बारे में वह कहते हैं, ‘हिंदी समाज में मास लिटरेचर के पाठक हमेशा से बहुत रहे हैं. उनकी बहुत बेकद्री भी हुई है. सिर्फ आम पाठकों के लिहाज से हम इस साल सितंबर तक एक और नया उपक्रम ‘फंडा’ नाम से ला रहे हैं, जिसमें स्तरीय जीवनोपयोगी साहित्य और स्वस्थ मनोरंजन प्रधान साहित्य छापा जाएगा. हम जब फिक्शन छापेंगे तो जाहिर है उसके तहत जासूसी उपन्यास भी प्रकाशित होंगे.’

हिंदी में लुगदी साहित्य की शुरुआत इब्ने सफी के उपन्यासों से हुई. इब्ने सफी, इब्ने सईद और राही मासूम रजा तीनों दोस्त थे. एक दिन बातचीत के दौरान उनके बीच जासूसी उपन्यासों पर चर्चा निकल पड़ी. तब बातों ही बातों में राही मासूम रजा ने कहा कि बगैर सेक्स का तड़का डाले जासूसी उपन्यास लोकप्रिय नहीं हो सकता है. असरार अहमद उर्फ इब्ने सफी ने इसे चुनौती के तौर पर लिया और बगैर किसी सेक्स प्रसंग के पहला उपन्यास ‘दिलेर मुजरिम’ लिखा. यह उपन्यास जबरदस्त हिट साबित हुआ. फिर तो इब्ने सफी ने जासूसी उपन्यासों की दुनिया में तहलका मचा दिया. वरिष्ठ कथाकार असगर वजाहत भी इब्ने सफी की रचनाओं के प्रशंसक रहे हैं. उन्होंने कहा, ‘इब्ने सफी जासूसी उपन्यासों के उस्ताद थे. उनके उपन्यास में सामाजिकता का पुट होता था.’ इब्ने सफी के इमरान सीरीज के उपन्यासों की बदौलत उनके मित्र अली अब्बास हुसैनी ने भी अपना एक प्रकाशन गृह खोल लिया. उनकी एक किताब का अनुवाद अंग्रेजी के मशहूर प्रकाशन रैंडम हाउस ने प्रकाशित किया. हार्पर कॉलिन्स ने  उनकी 15 किताबों को प्रकाशित कर एक तरह से जासूसी उपन्यासों के इस पहले भारतीय लेखक की ओर ध्यान आकर्षित करने का काम किया. सफी की लोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके बारे में एक दौर में कहा जाता था कि ‘चंद्रकांता’ और ‘चंद्रकांता संतति’ ने बड़े पैमाने पर हिंदी के पाठक तैयार किए, जिस जमीन पर हिंदी साहित्य की विकास यात्रा शुरू हुई.

रहस्य और रोमांच से भरे कथानक वाले उपन्यासों की धूम इस कदर मची कि रानू और गुलशन नंदा तो हिंदी पट्टी के तकरीबन हर घर में पहुंचने लगे थे. रानू और गुलशन नंदा महिलाओं और कॉलेज छात्र-छात्राओं की पहली पसंद हुआ करते थे. गुलशन नंदा ने जब 1962 में अपना पहला उपन्यास लिखा तो उसकी 10 हजार प्रतियां छपीं. ये प्रतियां बाजार में आते ही खत्म हो गईं और मांग को देखते हुए दोबारा दो लाख और प्रतियां छपवानी पड़ी थी. पहले उपन्यास की सफलता से उत्साहित प्रकाशक ने भविष्य में गुलशन नंदा के उपन्यासों का पहला संस्करण ही पांच लाख का छपवाना शुरू कर दिया था. उस दौर में उन उपन्यासों की कीमत पांच रुपये हुआ करती थी और सारा खर्चा काटकर भी प्रकाशक को हर प्रति पर एक रुपये का मुनाफा होता था, जो कि उस वक्त के लिहाज से बेहतरीन मुनाफा माना जाता था. इस तरह के उपन्यासों की मांग यात्राओं के दौरान बेहद ज्यादा होती थी. छोटी और लंबी यात्रा करने वाले पांच से दस रुपये तक का यह उपन्यास खरीदते और अपने गंतव्य तक पहुंचने से पहले इसे पढ़ जाते थे. इनकी लोकप्रियता का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि सुरेंद्र मोहन पाठक का उपन्यास ‘पैंसठ लाख की डकैती’ की अब तक 25 लाख से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं. भले ही 40 साल में ये आंकड़ा हासिल हुआ हो, लेकिन हिंदी के लिए यह स्थिति अकल्पनीय है. इस तरह के उपन्यासों की लोकप्रियता को देखते हुए कई घोस्ट राइटर्स ने भी पैसे की खातिर लिखना शुरू कर दिया. ‘मनोज’ ऐसा ही काल्पनिक नाम था जिसकी आड़ में कई लेखक लिखा करते थे. ‘वर्दी वाला गुंडा’ जैसे लोकप्रिय उपन्यास के लेखक वेद प्रकाश शर्मा भी स्वीकारते हैं कि उन्होंने लगभग दो दर्जन उपन्यास बतौर ‘घोस्ट राइटर’ लिखे हैं. जासूसी और हल्की रोमांटिक कथाओं के बड़े बाजार बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और कुछ-कुछ राजस्थान के अलावा दिल्ली और मुंबई जैसे महानगर भी थे. इन रोमांटिक उपन्यासों में जिस तरह का हल्का-फुल्का सेक्स प्रसंग होता था, जिसने इन्हें लोकप्रिय बनाने में मदद की. साठ और सत्तर के दशक में भारतीय समाज में सेक्स प्रसंगों को लेकर इस तरह का खुलापन नहीं था, जैसा अब है.

1970-90 तक ऐसे साहित्य के लिए हिकारत-सा माहौल था. वहीं जब इन उपन्यासों पर ‘कटी पतंग’ जैसी फिल्में बनतीं तो पूरा परिवार देखता था

हल्का-फुल्का कहे जाने वाले उपन्यासों की अग्रिम बुकिंग का भी अपना जलवा है. जासूसी उपन्यासों के सम्राट वेद प्रकाश शर्मा ने बताया, ‘पहले ही दिन मेरे उपन्यास वर्दी वाला गुंडा की 15 लाख प्रतियां बिक गई थीं.’ सच तो यह है कि इस उपन्यास को थ्रिलर उपन्यास में क्लासिक का दर्जा हासिल है. इस उपन्यास की अब तक 8 करोड़ से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं. सुरेंद्र मोहन पाठक का उपन्यास ‘पैंसठ लाख की डकैती’ की भी 25 लाख से ज्यादा कॉपियां बिकीं. हिंदी साहित्य में किसी लेखक की कोई कृति इस आंकड़े को छूने की बात तो दूर आसपास भी नहीं पहुंची होगी. हिंदी के बड़े लेखक खुद ही बताते हैं कि प्रकाशक हमारी किताब की चार या पांच सौ प्रतियां छापते हैं.

1970-90 तक खुद को सभ्य और संस्कारी कहलाने वाले घरों में लुगदी साहित्य को लेकर हिकारत-सा माहौल बना दिया गया था. वहीं जब उन्हीं उपन्यासों पर बनीं ‘कटी पतंग’ और ‘झील के उस पार’ जैसी फिल्मों को दूरदर्शन पर प्रसारित कराया जाता या ये शहर-कस्बों के सिंगल स्क्रिन पर लगते तो पूरा परिवार देखने साथ जाता था. अौर तो और किसी भावुक कर देने वाले दृश्य पर सबकी आंखों से एक साथ आंसू झरते और फिल्म की कहानी पर कई-कई दिनों तक चर्चा में पूरा परिवार मशगूल रहता. स्लेटी कागजों और चटख रंग के कवर वाले इन उपन्यासों को छोटे शहरों के रेलवे स्टेशन पर विक्रेता छुपाकर रखता था और अपने खास ग्राहकों के आते ही इधर-उधर नजरें घुमाता और मौका पाते ही हाथ में उपन्यास पकड़ाते हुए कहता, ‘भैया, परसों 150 कॉपी आई थी. बस एक कॉपी आपके लिए बचाकर रखा था.’ घर में इन उपन्यासों के पाठक भी इसे घर में बिस्तर के नीचे, पुआल में दबाकर या छप्पर या कनाती में खोंसकर रखते थे ताकि किसी की नजर न पड़े. छिपकर या चोरी से इन उपन्यासों को पढ़ने की वजह युवा कथाकार संदीप मील बताते हैं, ‘हमें इसे चोरी से इसलिए पढ़ना पढ़ता था क्योंकि हमारे घरवालों को लगता था कि हम पाठ्यक्रम की पढ़ाई से दूर न हो जाएं. दरअसल इन उपन्यासों का नशा बड़ा जोरदार होता था. एक बार उपन्यास पढ़ना शुरू करता तो उसे खत्म करके ही दम लेता था.’ क्या आपने कुछ ऐसे उपन्यास भी पढ़े जो अश्लील थे? इसके जवाब में वे कहते हैं, ‘हां, कुछ लेखक सेक्स बेचते हैं. ऐसे लोग लुगदी में भी हैं और तथाकथित गंभीर और तथाकथिक स्त्री विमर्श रचनाकारों में भी. अगर इन आलोचकों को अश्लीलता की फिक्र है तो होली और शादी-ब्याह के मौके पर भौंडे गीतों का कारोबार बंद करवाएं. अब काशीनाथ सिंह की काशी का अस्सी को किस श्रेणी में रखा जाए? खुशवंत सिंह के किस्सों को क्या माना जाए?’

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लुगदी साहित्य के दीवानों में वे भी रहे जो ठीक से पढ़-लिख नहीं पाते थे. मेरे मित्र की दादी की पढ़ाई कक्षा एक के बाद ही छूट गई. वह लगभग अनपढ़ थीं, लेकिन उपन्यास को लेकर उनकी दीवागनी ऐसी थी कि वह एक-एक शब्द जोड़कर उसका अर्थ निकालती थीं. दरअसल कई छोटी-छोटी नदियां मिलकर एक बड़ी नदी और कई बड़ी-छोटी नदियों का जल इकट्ठा होकर सागर और महासागर बनता है. जीवन के किसी भी अनुशासन में विस्तार या व्यापकता इसी रास्ते आती है. मगर हिंदी के पुरोधा, समीक्षक और आलोचक कई तरह के भेदभावों को जिंदा रखते हुए साहित्य की समृद्घि और साहित्य जगत का विस्तार करना चाहते हैं. लेकिन हकीकत यह है कि जाति, क्षेत्र, गुट, वरिष्ठ, कनिष्ठ के अलावा सस्ता, महंगा, लोकप्रिय, अलोकप्रिय, गंभीर, हल्का जैसे अनगिनत भेद के बने रहने के चलते हिंदी साहित्य का संसार समय के साथ बड़ा होने के बजाय सिकुड़ता जा रहा है. इन भेदभावों से न ही गंभीर साहित्य का भला हो पा रहा है और न ही पल्प (लुगदी) साहित्य का. हिंदी में इस परिपाटी के लिए कथाकार प्रभात रंजन कहते हैं, ‘सस्ता है, लोकप्रिय है तो लुगदी है. इस तरह की परिभाषा का क्या मतलब? मानो सस्ता होना या लोकप्रिय होना कोई अपराध हो?’ प्रभात लुगदी साहित्य लेखन की प्रतिबद्घता के बारे में बताते हैं, लुगदी साहित्य में एक बड़े लेखक ओमप्रकाश शर्मा हुए जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के मजदूर संगठन अखिल भारतीय मजदूर संघ (एटक) के सदस्य भी थे. ओमप्रकाश शर्मा दिल्ली में अंबा सिनेमा के निकट बिड़ला मिल में मजदूरी करते थे और शाम को प्रतिबद्घता के साथ मजदूरों के लिए उपन्यास लिखा करते थे. उनकी मान्यता यह थी कि इस तरह के साहित्य पढ़ने से उनमें पढ़ने की आदत डलती है और मजदूर अपराध से दूर रहते हैं. आज की तारीख में बता दीजिए कौन साहित्यकार इतनी प्रतिबद्घता के साथ मजदूरों के लिए लिख रहा है? आप उसे गंभीर और लुगदी के चक्कर में एक कौड़ी का लेखक मानने को तैयार नहीं है.’

हिंदी के गंभीर उपन्यासों की तुलना में सुरेंद्र मोहन पाठक और वेद प्रकाश शर्मा के उपन्यास ज्यादा बिकते हैं. दरअसल वेद प्रकाश शर्मा और सुरेंद्र मोहन के उपन्यास के किरदार बहुत सामान्य या असफल किस्म के लोग होते हैं. किसी उपन्यास का पात्र मामूली इंश्योरेंस एजेंट, वकील, पत्रकार होता है. वेद प्रकाश के उपन्यास पर एक सीरियल ‘केशव पंडित’ बना है जिसका मुख्य पात्र केशव वकील हैं. उसने वकालत की कोई पढ़ाई नहीं की है लेकिन अदालत में उसके तर्कों के आगे बड़े-बड़े वकीलों के पसीने छूटते हैं. केशव के तर्कों का जवाब देने के लिए जजों को किताब पढ़ना पढ़ता है. आप ट्रेन या बस में सफर करते हुए अकसर लोगों को ऐसी बातचीत करते हुए सुना होगा कि नेता तो बेकार हैं. इन नेताओं से ज्यादा राजनीति तो मैं जानता हूं. वास्तव में ऐसे सामान्य जीवन के संवाद इन उपन्यासों में मिलते हैं जो आसानी से ‘लूजर क्लास’ के मन में एक किस्म का ‘सेंस ऑफ एचीवमेंट’ पैदा करते हैं.

वेद प्रकाश शर्मा का वर्दी वाला गुंडा उपन्यास लुगदी साहित्य का संभवतः अंतिम सर्वाधिक हिट उपन्यास रहा है. यह उपन्यास राजीव गांधी की हत्या को केंद्र में रखकर लिखा गया है. हालांकि वेद प्रकाश शर्मा इस उपन्यास की रचना प्रक्रिया के बारे में बताते हैं, ‘मैं एक दिन शाम को घूम रहा था तब एक चौराहे पर पुलिस चौकी के आसपास भीड़ जमा थी और एक पुलिस वाला एक आदमी को डंडा दिखा रहा था. पुलिस के इस तरह के आतंक को लेकर वर्दी वाला गुंडा उपन्यास अस्तित्व में आया.’ इस उपन्यास के प्रचार-प्रसार के लिए उत्तर भारत के शहरों में होर्डिंग्स लगाए गए थे. अग्रिम बुकिंग हुई थी. हालांकि इस तरह के साहित्य का वह स्वर्णिम दौर टीवी पर ढेर सारे जासूसी और फैमिली ड्रामा वाले धारावाहिकों के प्रसारित होने से अब कमजोर होने लगा है. वेद प्रकाश शर्मा, सुरेंद्र मोहन पाठक और रीमा भारती का बाजार अभी भी है. हिंदी के बड़े प्रकाशक इस साहित्य को लेकर योजनाएं शुरू कर रहे हैं. इसका मतलब यह लगाया जाना चाहिए कि गंभीर कहा जाने वाला साहित्य पाठकों से दूर हुआ है जबकि लुगदी साहित्य में अभी भी मुनाफे की संभावनाएं बची हुई हैं. वरिष्ठ साहित्यकार और ‘समयांतर’ के संपादक पंकज बिष्ट का कहना है कि आप साहित्य और लुगदी साहित्य को एक-दूसरे के विरोध में खड़ा करके देखें, यह ठीक नहीं है. इस समय लोगों की पढ़ने की आदत ही खत्म हो रही है. गुलशन नंदा के साहित्य में ही नहीं बल्कि उस दौर के किसी भी लेखक की रचनाओं में अश्लीलता नहीं है. आजकल जो साहित्य रचा जा रहा है, वह गुलशन नंदा की रचनाओं से कमतर है. हिंदी में बेस्ट टैलेंट नहीं आ रहा है. मीडियॉकर लोग आ रहे हैं, जो साहित्य में कब्जा जमा रहे हैं. मध्यवर्ग हिंदी सहित अपनी-अपनी भाषाओं से दूर होकर अंग्रेजी में लिखना और बोलना अच्छा समझने लगा है.

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कुपोषण : पहले जरा इसे समझिए

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एक ही दवा लगातार खाने से उसका असर कम होने लगता है. कुपोषण पर अब तक इतनी बहस हुई कि यह विषय ही बेमानी -सा लगने लगा है. फिलहाल नीति निर्धारकों के लिए कुपोषण का मतलब किन्हीं खास डिब्बाबंद पोषण आहार कंपनियों के लिए दरवाजे खोलने का पर्यायवाची है. कुपोषण के मूल कारणों के समाधान में उनकी रुचि नहीं है. संभवत: इसलिए क्योंकि जीडीपी तभी बढ़ेगी जब किसी कंपनी को हजारों करोड़ के ठेके मिले. कहीं आंगनबाड़ी में अंडे का विरोध मध्य प्रदेश सरकार की पैकेटबंद पोषण आहार कंपनियों के लिए बेहतर, स्थायी और प्रभावी विकल्प खड़ा करने की कोशिश तो नहीं? कुपोषण की राजनीति को समझने वाली मध्य प्रदेश की सरकार दस सालों में समुदाय आधारित प्रबंधन का कार्यक्रम खड़ा नहीं कर पाई. जीवन का 90 प्रतिशत शारीरिक और मानसिक विकास पांच साल की उम्र तक हो जाता है. यदि कुपोषण जकड़ ले तो यह विकास 85 प्रतिशत तक भी सीमित रह सकता है या 50 प्रतिशत तक भी. इसका मतलब है कि शिक्षा से लेकर मेक इन इंडिया तक सब इस बात से तय होता है कि बच्चे कितने कुपोषित हैं.

पोषण की असुरक्षा का पहला और सबसे गहरा असर महिलाओं और छोटे बच्चों पर पड़ता है. गर्भवती और धात्री महिलाओं को पर्याप्त प्रोटीन, लौह तत्व और अन्य सूक्ष्म पोषक तत्व नहीं मिलते, तो गर्भस्थ शिशु का सही विकास नहीं हो पाता है. वे कम वजन के पैदा होते हैं. बीते ढाई दशकों में विकास के दावों के साथ कुपोषण भी बढ़ा है. सबसे पहले 1992-93 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-1 से पता चला कि मध्य प्रदेश में 57.4 फीसदी बच्चे कम वजन और 22.3 प्रतिशत बच्चे अति कम वजन के हैं. बाद में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-2 से पता चला कि राज्य में कम वजन के बच्चे 55.1 प्रतिशत के रह गए हैं. तब तक उदारवाद का साया इतना नहीं गहराया था, इसलिए कम वजन के बच्चों की संख्या कुछ घटी. फिर 2001 में पीपुल्स यूनियन फाॅर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) ने सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर कर कहा कि एक तरफ अनाज के गोदाम लबालब भरे हैं और दूसरी तरफ राजस्थान, मध्य प्रदेश, ओडिशा, झारखंड, बिहार में लोग भूखे मर रहे हैं. इनमें आधे से ज्यादा बच्चे हैं. तब कोर्ट ने निर्देशित किया कि सभी खाद्य, सामाजिक और रोजगार सुरक्षा की योजनाओं का जवाबदेह क्रियान्वयन हो. इसके बाद 2005-06 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-3 के नतीजों से यह साफ हो गया कि अनियोजित विकास कुपोषण बढ़ा रहा है. मध्यप्रदेश में कम वजन के बच्चों की संख्या बढ़कर 60 प्रतिशत हो गई, यानी 100 में से 60 बच्चे कम वजन के. फिर भी सरकार गतिशील नहीं हुई क्योंकि कुपोषण उसके लिए गंभीर मामला नहीं था.

ऐसे विकास का क्या फायदा ?

समुदाय को लगातार अच्छा, विविधतापूर्ण भोजन नहीं मिलने की स्थिति कुपोषण पैदा करती है. ऐसी स्थिति कब बनती है? क्यों बनती है? किनके लिए बनती है? जाहिर है जब अनाज, दाल, सब्जियों, दूध, अंडों, फलों का उत्पादन कम हो, कीमतें बढ़ती जाएं, लोगों के पास स्थायी और सुरक्षित रोजगार के साधन न हों, तब पोषक भोजन भला कैसे नसीब होगा?  मध्य प्रदेश को तीन बार भारत सरकार से कृषि कर्मण पुरस्कार मिल चुका है. लेकिन इसके पीछे की कहानी यह है कि 2005-2014 के बीच कुल कृषि रकबा 19711 हजार हेक्टेयर से बढ़कर 23233 हजार हेक्टेयर हो गया. सिंचित क्षेत्रफल भी 5878 हजार से बढ़कर 8965 हजार हेक्टेयर हुआ. इससे खाद्यान्न उत्पादन तो बढ़ना ही था, जो 143.31 लाख टन से बढ़कर 276 लाख टन पर पहुंच गया. मध्य प्रदेश फिलहाल प्रति व्यक्ति 380 किलो अनाज पैदा करता है. हालांकि, प्रति व्यक्ति अनाज की खपत 141 किलो (ग्रामीण) और 124 किलो (शहरी) पर ही टिकी है.

राशन प्रणाली को छोड़कर बच्चों और महिलाओं के पोषण हकों को विकास की कालीन के नीचे छिपा दिया गया है

अब हमें दो सवालों के जवाब खोजने हैं. पहला यह कि खाद्यान्न माने क्या?  दूसरा सवाल यह है कि उत्पादन में इजाफे का लाभ किसे मिला? भारत में एनएसएसओ की पौष्टिक अंतर्ग्रहण (अक्टूबर 2014 में जारी) रिपोर्ट से पता चलता है कि मध्य प्रदेश के गांवों में 1972-73 के दौरान प्रति व्यक्ति उपभोग 2423 कैलोरी था, जो 2011-12 में घटकर 2110 कैलोरी रह गया, जबकि शहरों में यह 2229 कैलोरी से घटकर 2029 कैलोरी हो गया. गांवों में प्रोटीन अंतर्ग्रहण 68 ग्राम से घटकर 61.8 ग्राम और शहरों में 61 से 58 ग्राम तक घटा.

मध्य प्रदेश (ग्रामीण) में प्रति व्यक्ति अनाज की दैनिक खपत 384 ग्राम है. हर व्यक्ति के हिस्से में 28 ग्राम दाल रोज आती है. 179 ग्राम सब्जी, 24 ग्राम फल, 1.7 ग्राम सूखे मेवे, 13.6 ग्राम मसाले भी रोज के खाने में शामिल हैं. दूध की प्रति व्यक्ति खपत 135 मिलीलीटर है. एनएसएसओ के मुताबिक, औसतन एक व्यक्ति के भोजन पर रोज का खर्च 24.32 रुपये आता है. मध्य प्रदेश के शहरों में अनाज का उपभोग और कम हुआ है. यहां हर व्यक्ति की थाली में रोजाना 339 ग्राम अनाज आता है. दाल का उपभोग 31 ग्राम प्रतिदिन है. शहरी क्षेत्रों में भोजन पर रोजाना का खर्च लगभग 29 रुपये है. साफ है कि उत्पादन की बढ़ोतरी का असर खाद्य सुरक्षा पर पड़ता नहीं दिख रहा है. शायद इसलिए कि कृषि या कृषि उत्पादन के मकसद बदल गए हैं.

असंवेदनशील सोच

भारत सरकार के सैंपल रजिस्ट्रेशन सर्वे (2013) के मुताबिक, मध्य प्रदेश में प्रति एक लाख जीवित जन्म पर पांच साल से कम उम्र के 69 बच्चों की मृत्यु होती है. इस परिभाषा के अनुसार, 2013 में जीवित पैदा हुए 19 लाख बच्चों में से 1.383 लाख बच्चे पांचवां जन्मदिन मनाने से पहले ही दुनिया छोड़ गए. इसका सीधा संबंध कुपोषण के ऊंचे स्तर से है. कुपोषित बच्चों के डायरिया, निमोनिया, खसरा और मलेरिया से मरने की आशंका 19 गुना तक बढ़ जाती है. अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य शोध पत्रिका ‘द लांसेट’ के मानकों पर सैंपल रजिस्ट्रेशन सर्वे (2013) में बताई गई मृत्यु दर के आधार पर आकलन करें तो मध्य प्रदेश में निमोनिया से 34,382 और डायरिया से 27,696 बच्चों की मौत हुई. दरअसल हमें ऐसी सोच की जरूरत है, जो कुपोषण से निपटने के लिए पर्याप्त संसाधन आवंटित करे, अलग-अलग समुदायों में भोजन के व्यवहार को संरक्षित और प्रोत्साहित करे. जिसमें सांस्कृतिक भेदभाव न हो, पोषण आहार कालाबाजारियों के हवाले न रहे और कुपोषण से लड़ाई में समाज को मुख्य भूमिका में रखा जाए. मध्य प्रदेश में ऐसा कुछ नहीं हुआ. केवल बाल पोषण कार्यक्रम के लिए 2010-11 से 2014-15 के दौरान 5139.56 करोड़ रुपये खर्च किए गए. लेकिन 1.07 करोड़ बच्चों के पोषण पर खर्च 3 रुपये प्रतिदिन से ज्यादा नहीं बढ़ा.

‘बीमारू’ राज्य की छवि को बदलने के लिए राज्य सरकार ने विजय राजे सिंधिया बीमा योजना शुरू की. नवजात शिशु उपचार इकाइयां भी बनाईं. गंभीर कुपोषित बच्चों के इलाज की व्यवस्था, यानी पोषण पुनर्वास केंद्रों का ढांचा खड़ा हुआ. बाद में ऐसी योजनाएं कब बंद हो जाती हैं किसी को खबर तक नहीं लगती है. मुफ्त दवा योजना के तहत घटिया क्वालिटी की दवाएं बांटी जाती हैं. डाॅक्टरों के आधे पद खाली पड़े हैं; क्यों?  न तो यह सवाल पूछा जाता है, न जवाब देने के लिए कोई उत्तरदायी है. स्वास्थ्य, पोषण, कृषि जैसे क्षेत्रों में नवाचारी पहल के लिए मध्य प्रदेश बीते एक दशक में देश का सबसे अग्रणी राज्य रहा है, लेकिन इसमें दृष्टि और निरंतरता का अभाव साफ झलकता है. शायद यही वजह है कि कई योजनाएं आगे बढ़ने से पहले ही दम तोड़ गईं.

लिंगभेद किशोरी और बालिकाओं के विकास और विश्वास तो तोड़ देता है. इसी संदर्भ में मध्य प्रदेश में कन्यादान योजना सरकार खुद चलती है, जिसमें विवाह भेंट का आवरण डालकर दहेज की व्यवस्था की जाती है. मातृत्व हकों की बात करते हुए हमारे सामने अकसर ऐसी घटनाएं तैर जाती हैं जब पता चलता है कि गर्भवती महिला को प्रसव पीड़ा के दौरान स्वास्थ्य सेवकों ने थप्पड़ मार-मार कर चुप करवाया, कभी ऐसे डांटा कि मां के हाथ से नवजात शिशु छिटक कर गिर गया और कई बार बच्चे का जन्म सड़क के किनारे ही हो गया. महिला श्रमिक प्रसव से एक दिन पहले तक कड़ा श्रम करने के लिए मजबूर हैं क्योंकि उन्हें मातृत्व हक नहीं मिलता. यह हिंसा भी कुपोषण का एक बहुत बड़ा कारण है, इसे खारिज नहीं किया जा सकता.

राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण की 68वें दौर की रिपोर्ट (2014) में पौष्टिक अंतर्ग्रहण के संदर्भ में कहा गया है कि मध्य प्रदेश की ग्रामीण जनसंख्या कुल ऊर्जा का 62.82 प्रतिशत और प्रोटीन का 67 प्रतिशत हिस्सा अनाज से लेती है. असल में सही और गुणवत्तापूर्ण पोषण के लिए यह हिस्सा दालों,  दूध,  अंडे, फल-सब्जियों और पशुजन्य प्रोटीन से लिया जाना चाहिए. गरीबी और संसाधनों पर से नियंत्रण जाने का मतलब है, थाली में रोटी और नमक रह जाना. लोगों को आर्थिक रूप से संपन्न मत बनाइए, उन्हें संसाधनों से संपन्न बनाइये; तब कम से कम पोषण आहार के लिए किसी बच्चे को आंगनबाड़ी केंद्र न आना पड़ेगा. भोजन में विविधता का सार यही है. लेकिन मध्य प्रदेश में अब भी स्थानीय मूल के बारीक और मोटे अनाजों (जैसे रागी, मक्का, कोदो, कुटकी आदि) को प्रोत्साहित नहीं किया जा रहा है. मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने दुनिया भर के उद्योगपतियों को संदेश दिया है कि वे जिस जमीन पर उंगली रखेंगे, वह झट से मिल जाएगी. अलबत्ता, ऐसी प्रतिबद्धता किसानों, खेतिहर मजदूरों, बच्चों-महिलाओं की पोषण सुरक्षा के लिए नहीं दिखती. विगत दस सालों में मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड-बघेलखंड के 12  जिलों से होने वाला मजबूरी का पलायन तीन गुना बढ़ गया. क्योंकि आजीविका का संकट गहराता गया, ऐसे में कुपोषण जड़ से खत्म होने से रहा. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून (2013) के तहत राज्य सरकार को आंगनबाड़ी, मध्याह्न भोजन, राशन प्रणाली और मातृत्व हक से जुड़े कानूनी प्रावधान लागू करने थे किन्तु राशन प्रणाली को छोड़कर बच्चों और महिलाओं के पोषण हकों को विकास की कालीन के नीचे छिपा दिया गया है.

चित्र कथा : दर्द के निशां

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13 साल का अमान अली हिंसा के समय भागते हुए अपनी कुछ किताबें साथ ले गया था. वापस आकर अपनी बची हुई किताबों और स्कूल बैग को जला हुआ देखकर वो दुखी हो गया. अमान पिछले कई हफ्तों से स्कूल नहीं गया 


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75 साल के अब्दुल हफीज आगजनी में जलाई गई अपनी धार्मिक किताबों के अवशेष के साथ. वो बताते हैं कि विवादित मस्जिद स्थल के सामने बना उनका घर हिंसा का सबसे अधिक शिकार हुआ है. मस्जिद के निर्माण को मॉनीटर करने के लिए लगा हुआ सीसीटीवी कैमरा हफीज के घर से ही संचालित होता था, उसकी हार्ड डिस्क को काफी नुकसान पहुंचा है


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विवादित मस्जिद स्थल पर नमाज पढ़ते लोग. हिंसा के दौरान टूटी बाहरी दीवार की मरम्मत प्रशासन द्वारा करवाई गई है.


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आस मोहम्मद प्राइवेट नौकरी करते हैं, और उन्होंने वापस नौकरी पर जाना शुरू कर दिया है वहीं उनकी पत्नी घर की देखरेख कर रही हैं. दंगे में उनके मात्र एक कमरे के घर से कुछ कीमती सामान और पैसे लूट लिए गए. उनके चार बच्चे अभी तक रिश्तेदार के घर से वापस गांव नहीं लौटे हैं


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नगमा बताती हैं कि उनकी 6 महीने की बेटी को गुस्साई भीड़ ने आग में फेंक दिया था पर उनके पड़ोसियों ने बच्ची को बचा लिया. नगमा अपने पति शेरदिल और तीन बच्चों के साथ रहती हैं. हिंसा से बच्चे इतने डर गए हैं कि उन्होंने घर लौटने से ही मना कर दिया है


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25 साल के युसूफ की हाल ही में शादी हुई थी. वो बताते हैं कि घर में जलाया हुआ सब समान और फर्नीचर बिलकुल नया था. उनकी पत्नी इतनी डर गईं हैं कि उन्होंने गांव लौटने से ही मना कर दिया है. युसूफ एक प्राइवेट कंपनी में काम करते हैं और उन्हें डर है कि बिना किसी सूचना के इतने दिनों तक काम पर न जाने के कारण उनकी नौकरी न चली जाए


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ऑटो ड्राइवर रईसुद्दीन रोते हुए कहते हैं, ‘उनका घर पूरी तरह बर्बाद हो गया है. ये मरम्मत से परे है, हमें इसे फिर से बनाना होगा.’ वो अपना काम फिर से शुरू भी नहीं कर सके हैं. तनाव के डर से वो अब तक अपनी पत्नी और बच्चों को गांव ले कर नहीं आए हैं.


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बेवा नन्नो अपने एक कमरे के छोटे से घर में. वो अपने इकलौते बेटे के साथ रहती हैं जिसकी शादी दिसंबर में होनी है. जो थोड़ा-बहुत फर्नीचर उनके पास था और जो भी पैसा उन्होंने बेटे की शादी के लिए बचाया था वो सब दंगे में बर्बाद हो गया

‘कर्म कर वेतन की चिंता छोड़ दे’

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॥ कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन मा कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि॥

यह गीताप्रेस, गोरखपुर की ओर से प्रकाशित और देशभर में प्रसारित होने वाली ‘श्रीमदभगवतगीता’ के अध्याय दो का 47वां श्लोक है. इसका अर्थ है- तेरा कर्म में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं. इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो. इसके अर्थ की और व्याख्या करें तो इस श्लोक में चार तत्व हैं. पहला, ‘कर्म करना तेरे हाथ में है’. दूसरा, कर्म का फल किसी और के हाथ में है. तीसरा, कर्म करते समय फल की इच्छा मत कर और चौथा फल की इच्छा छोड़ने का यह अर्थ नहीं है कि तू कर्म करना भी छोड़ दे.

इस हिसाब से लगता है गीताप्रेस प्रबंधन ने इस श्लोक और इसमें निहित अर्थ को कुछ ज्यादा ही गंभीरता से ले लिया है. तभी तो ‘फल’ यानी वेतन को लेकर पिछले कुछ महीनों से कर्मचारियों ने प्रबंधन के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है. इस कहानी के दो पहलू हैं. कर्मचारियों के नजरिये से देखें तो यह उनके अधिकारों के हनन की दास्तां बयां करता है. दूसरा पहलू गीताप्रेस प्रबंधन का है जो मामले में खुद को पाक-साफ बता रहा है. वहीं प्रशासन कह रहा है कि सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा है. आपसी खींचतान की ये कहानी पिछले साल तीन दिसंबर को लोगों के सामने आई, जब वेतन विसंगति को लेकर कर्मचारियों ने धरना प्रदर्शन किया.

इस लड़ाई की पड़ताल करने पर पता चला कि  इतिहास में इसकी जड़ें कई दशक गहरी हैं. कोलकाता के गोबिंद भवन ट्रस्ट की ओर से गीताप्रेस का संचालन किया जाता है. इस ट्रस्ट की ओर से ऋषिकेश में गीता भवन के नाम से कुछ फर्म जैसे- सत्संग केंद्र, आयुर्वेदिक दवा की दुकान और कपड़े की एक दुकान चलाए जाते हैं. वार्षिक वेतन वृद्घि और वेतन विसंगति की असल लड़ाई गीता भवन को लेकर ही है. कर्मचारी नेता मुनिवर मिश्र बताते हैं, ‘इन फर्मों के कर्मचारियों को पूरे वेतन पर 10 प्रतिशत वृद्घि, 100 रुपये की विशेष वृद्घि और 10 प्रतिशत का एचआरए (मकान किराया भत्ता) अलग से मिलता है मगर गोरखपुर में इस तरह की कोई भी सहूलियत कर्मचारियों को नहीं दी जाती.’ कर्मचारियों की मांग है कि प्रदेश सरकार की ओर से जारी न्यूनतम वेतन के जीओ को लागू करने के साथ वार्षिक वेतन वृद्घि, आवास भत्ता, जैसे गीता भवन, ऋषिकेश में लागू किया गया है, वही सुविधा गीताप्रेस की सभी यूनिटों पर बिना किसी भेदभाव के समान रूप से लागू की जाए. इसके अलावा गीताप्रेस में कैंटीन खोलने की मांग भी कर्मचारियों ने रखी थी.

वेतन को लेकर प्रबंधन की ओर से की जा रही गड़बड़ियों की कोई जांच नहीं हुई थी. जांच इस बात की हुई थी कि गीताप्रेस में मैन पावर कितना है. वहां कैंटीन खोली जाए या नहीं. इसी की जांच हुई थी. कैंटीन खोलने का मामला था. प्रबंधन का कहना था कि 500 से कम कर्मचारी हैं. फिर जांच हुई तो 500 से ज्यादा कर्मचारी पाए गए थे. इसके बाद प्रबंधन का कहना था कि इसमें ज्यादातर ठेके के कर्मचारी है. समझौते में एडीएम सिटी ने आदेश कर दिया कि संख्या ज्यादा हो या कम, फिलहाल आप कैंटीन खोलिए. वेतन के मामले की जांच को लेकर जिलाधिकारी से अनुमति लेनी होती है. इसके लिए हमें किसी तरह की अनुमति नहीं थी. उनकी मांगों के दो-तीन बिंदु श्रमायुक्त कानपुर को भेजा गया है. उस पर अभी कोई निर्णय नहीं हुआ है. अगर कर्मचारी वेतन विसंगति की जांच होने की बात कर रहे हैं तो इसमें मैं क्या कह सकता हूं. ये तो उन्हीं से पूछा जाना चाहिए

 आरसी गुप्ता, उप श्रमायुक्त गोरखपुर

गीताप्रेस में इन दिनों 200 से ज्यादा स्थाई और 400 से ज्यादा अस्थाई कर्मचारी हैं. कर्मचारियों के अनुसार प्रबंधन प्रदेश सरकार की ओर से जारी हर पुनरीक्षित न्यूनतम वेतन राजाज्ञा (जीओ) को चुनौती देता रहा है. इस संबंध में 31 मई 1992 को जारी जीओ को गीताप्रेस की ओर से इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी गई थी. इसकी सुनवाई 19 वर्षों तक चली. मामले में 23 दिसंबर 2010 को निर्णय देते हुए गीताप्रेस की याचिका हाई कोर्ट ने खारिज कर दी. हाई कोर्ट ने 31 मई 1992 को जारी जीओ को पूरी तरह से वैध ठहराया था. कर्मचारी नेता रवींद्र सिंह बताते हैं, ‘इस निर्णय के आने के बाद भी प्रबंधन ने इसे लागू करने में कोई रुचि नहीं दिखाई. इसके बाद सितंबर, 2011 में कर्मचारियों की मांग पर उप श्रमायुक्त गोरखपुर ने गीताप्रेस की स्थलीय जांचकर मामले की रिपोर्ट दी. रिपोर्ट में प्रबंधन को न्यूनतम वेतन देने के नियम का उल्लंघन करने का दोषी ठहराया गया था.’ हालांकि उप श्रमायुक्त गोरखपुर आरसी गुप्ता इस बात का खंडन करते हुए कहते हैं, ‘मेरे कार्यालय में सिर्फ कैंटीन बनाने को लेकर हुए विवाद का निपटारा हुआ था. वेतन विसंगति की जांच मेरी ओर से नहीं की गई थी.’

वेतन विसंगति को लेकर हम लोगों का आंदोलन चल रहा है. इस साल की शुरुआत में प्रशासन का हस्तक्षेप हुआ तब बातचीत के बाद हमने एक-दो महीने के लिए आंदोलन स्थगित कर दिया था. अब हमने प्रबंधन को मांगें पूरी करने के लिए 30 जून तक का समय दिया है. उसके बाद हम आंदोलन को आगे बढ़ाएंगे. हमने मुख्यमंत्री को ज्ञापन दिया है और जिलाधिकारी को भी पत्र लिखा है. जिलाधिकारी ने कर्मचारियों से कहा था कि आप लोग एक-दो महीने शांत रहिए. उसके बाद जो उचित होगा किया जाएगा. गीताप्रेस की व्यवस्था के बारे में प्रशासन को उन्होंने (प्रबंधन) एकतरफा बात बताई है. हम लोगों का पक्ष सुना नहीं गया. हम लोग किसी भी कीमत पर अपना आंदोलन वापस नहीं लेंगे. चाहे उसके लिए अपनी जान देनी पड़े या कुछ भी करना पड़े. हम लोगों की शर्तें पूरी हुए बिना हम किसी के धमकाने से पीछे हटने वाले नहीं

रमन कुमार श्रीवास्तव, कर्मचारी नेता, गीताप्रेस

बीते साल तीन दिसंबर को कर्मचारियों का गुस्सा एक बार फिर फूट पड़ा. कर्मचारियों ने शहर के कुछ दूसरे मजदूर संगठनों के साथ मिलकर जुलूस निकाल कर जिलाधिकारी कार्यालय पर धरना-प्रदर्शन किया. कर्मचारियों ने वेतन विसंगति खत्म करने की मांग पूरी होने तक आंदोलन जारी रखने का संकल्प लिया था. हालांकि उस वक्त जिलाधिकारी रंजन कुमार ने आश्वासन दिया था कि प्रबंधन से बातचीत कर असहमतियों को सुलझा लिया जाएगा. इसके बाद कर्मचारियों ने धरना खत्म कर दिया था. आवाज बुलंद कर रहे गीताप्रेस के कर्मचारियों के जुलूस में माध्यमिक शिक्षक संघ, डेली मजदूर संघ, मजदूर बिगुल दस्ता, नौजवान सभा व चीनी मिल मजदूर यूनियन के कार्यकर्ता भी शामिल हुए थे. उस दिन कर्मचारियों ने सामूहिक अवकाश लेकर यह प्रदर्शन किया था. इसके बाद मामला शांत हो गया, लेकिन कर्मचारियों की मांगों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया.

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कर्मचारियों के अनुसार, इसके विरोध में 16 दिसंबर को प्रबंधन ने गीताप्रेस के तीन कर्मचारियों को बर्खास्त करते हुए यहां अनिश्चितकालीन तालाबंदी कर दी. मुख्य गेट पर ताला लगा हुआ था और एक नोटिस चस्पा था, जिसमें तीन दिसंबर के धरना प्रदर्शन का हवाला देते हुए ये कार्रवाई करने का हवाला दिया गया था. नोटिस के अनुसार, ‘कर्मचारियों ने बिना सूचना दिए प्रदर्शन व जुलूस निकाला, यह उत्तर प्रदेश औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 6 (एस) का उल्लंघन है. उत्तर प्रदेश औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 6 (एस) (3) प्रबंधन को तालाबंदी घोषित करने का अधिकार देती है. इस अराजक माहौल में प्रतिष्ठान चलाना संभव नहीं है. कभी भी कोई अप्रिय घटना घट सकती है. इसलिए प्रबंध तंत्र ने अनिश्चितकालीन तालाबंदी का निर्णय लिया है.’ इसकी वजह यह थी कि उन्होंने 15 दिसंबर को वेतनवृद्घि और वेतन विसंगति को लेकर जिलाधिकारी को एक मांगपत्र सौंपा था. तालाबंदी के खिलाफ कर्मचारियों ने एक बार फिर जिलाधिकारी से गुहार लगाई. कर्मचारियों को बर्खास्त करने के पहले उन्हें नोटिस भी नहीं दिया गया था. तब जिलाधिकारी ने तालाबंदी व कर्मचारियों की बर्खास्तगी को गैरकानूनी बताया था. मुनिवर मिश्र बताते हैं, ‘जिलाधिकारी को मांगपत्र सौंपना प्रबंधन को नागवार गुजरा था. इसके अगले दिन 16 दिसंबर, 2014 को जब हम काम करने के लिए गीताप्रेस पहुंचे तो मेन गेट पर ताला लगा हुआ था. साथ ही प्रेस में अनिश्चितकालीन बंद को लेकर एक नोटिस लगाया था, जिसमें प्रबंधन की ओर से बताया गया था कि तीन कर्मचारियों- मैं और मेरे दो साथी वीरेंद्र सिंह और रामजीवन शर्मा को बर्खास्त कर दिया गया है.’ वह कहते हैं, ‘हमने एक बार फिर जिलाधिकारी से मामले में हस्तक्षेप करने की गुहार लगाई. जिसके बाद 17 दिसंबर 2014 को गीताप्रेस में अनिश्चितकालीन तालाबंदी को हटाने के साथ बर्खास्त कर्मचारियों की पुनर्बहाली का आदेश दिया गया. इसके बाद 24 दिसंबर 2014 से 19 मार्च 2015 तक उप श्रमायुक्त कार्यकर्ता से अपर जिलाधिकारी (नगर) की अध्यक्षता में बातचीत के कई दौर चले. इसमें जीओ के मुताबिक जिन मुद्दों पर सहमति नहीं बन पाई थी, उसे अपर श्रमायुक्त, कानपुर के मार्गदर्शन के लिए भेजा गया.’

‘प्रबंधन के लोग अब तानाशाही पर उतर आए हैं. पहले गीताप्रेस में इन लोगों ने हंगामा करवाया अब गीता भवन में हंगामा करवा रहे हैं. इन सबका कोई मतलब नहीं है. लगभग 20 सालों से हमें वार्षिक वेतन वृद्घि मिलती थी, जो इस साल नहीं दी गई. बगैर किसी कारण के इन लोगों (प्रबंधन) ने इसे बंद कर दिया. जब इन लोगों से बात की गई तो इनका एक ही जवाब था कि हम लोग वेतन वृद्घि नहीं देंगे, आप लोगों को जैसा करना है कर लीजिए. इसके बाद कई बार प्रबंधन से बात करने की कोशिश की गई, लेकिन उनकी एक ही रट थी कि इस मामले को लेकर हमसे बात करने के लिए मत आइए. मजबूरी में हमें जनप्रतिनिधियों को बीच में लाना पड़ा. जनप्रतिनिधियों से भी उन्होंने अंट-शंट बात की तो हंगामा शुरू हो गया. इस पर प्रबंधन के लोगों ने रातोरात प्रतिष्ठानों पर ताला लगाया और भाग गए. उसके बाद हम लोगों ने भी प्रतिष्ठानों में अपना ताला लगाकर धरना प्रदर्शन कर रहे हैं. उप श्रमायुक्त के यहां भी बैठक के लिए चार बार बुलाया गया, लेकिन प्रबंधन की ओर से कोई पहुंचा नहीं’

राजीव शर्मा, कर्मचारी, गीता भवन, ऋषिकेश

कर्मचारियों का आरोप है कि न्यूनतम वेतन के संबंध में जारी राजाज्ञा को लेकर गीताप्रेस प्रबंधन की ओर स्थाई और अस्थाई श्रेणी के कर्मचारियों का लगातार शोषण किया जा रहा है. आरोप है कि गीताप्रेस में 400 से ज्यादा अस्थाई कर्मचारी हैं, जो पिछले 25 सालों से कार्यरत हैं. इन्हें न तो न्यूनतम वेतन दिया जा रहा है और न ही श्रम कानून का पालन किया जा रहा है. कर्मचारियों का कहना है कि तमाम मुद्दों पर उप श्रमायुक्त कार्यालय में सहमति बनने के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं की गई. इस बीच 12 दिसंबर को उप श्रमायुक्त कार्यालय पर गीताप्रेस में कैंटीन खोलने की सहमति बनी थी. इसके अलावा तय हुआ कि ओवरटाइम करने पर श्रमिकों को दोगुने दर से भुगतान किया जाएगा. श्रमिकों की सेवानिवृत्ति आयु 58 से 60 वर्ष करने के संबंध में श्रमिक प्रतिनिधियों द्वारा स्थायी आदेश में संशोधन के लिए प्रार्थना पत्र दिया जाएगा. एडहॉक वेतन को मूल वेतन में समायोजित करने के संबंध में न्यूनतम वेतन के संबंध में जारी राजाज्ञा वर्ष 2006 व 2014 के संबंध में शासन से मार्गदर्शन प्राप्त किया जाएगा.

अभी तो गीताप्रेस में कोई दिक्कत नहीं है. बातचीत हो गई है. उसके बाद कोई आया नहीं. हम लोगों का काम धमकाने का थोड़े ही है. हम लोग कार्रवाई करेंगे कि धमकी देंगे. प्रशासन का आदमी भला धमकी क्यों देगा. देखिए सबका परसेप्शन अलग-अलग है. मान लीजिए गीताप्रेस में काम चलने लगा और करोड़ों प्रतियां निकलने लगीं तो किसी को खराब लग रहा होगा, तो लोग कुछ भी बोल सकते हैं. बहुत लोग ऐसे हैं जो केवल नकारात्मक विचारधारा में जीते हैं. वो चाहते हैं कि हर चीज रुकी रहे तो सब उनको पूछेगें. अगर नहीं रुकेगी तो उनको कौन पूछेगा. वहां (गीताप्रेस) एक-दो (कर्मचारी) हैं उस तरह के, जो काम चलता है तो दुखी हो जाते हैं. कुछ लोग चाहते हैं कि काम रुका रहे. एक महीने से कोई दिक्कत रिपोर्ट नहीं हुई है

रंजन कुमार, जिलाधिकारी गोरखपुर

कर्मचारियों का आरोप है कि मूल वेतन में सालाना वृद्घि न करके प्रबंधन की ओर से एडहॉक वेतन पर वृद्घि की जा रही है. रवींद्र सिंह बताते हैं, ‘वेतन दो हिस्सों में होता है. ‘मूल वेतन’ और ‘महंगाई भत्ता’. वहीं गीताप्रेस में वेतन को दो भागों में बांट दिया गया है. ‘मूल वेतन’ और ‘एडहॉक’. प्रबंधन इंक्रीमेंट के पैसे को मूल वेतन में न जोड़कर एडहॉक में डाल देता है. जबकि नियम के मुताबिक इंक्रीमेंट मूल वेतन में जुड़ता है. बाकी के पैसे पर महंगाई भत्ते की चोरी की जा रही है. जैसे किसी कर्मचारी का मूल वेतन 5750 रुपये है. अब जब इंक्रीमेंट लगता है तो महंगाई भत्ता बढ़ता है. अब मान लीजिए उस कर्मचारी का वेतन 5750 से 7000 रुपये हो गया है. ऐसे में 1250 रुपये की जो बढ़ोतरी हुई उसे एडहॉक वेतन में डाल दिया जाता है. अगली बार जब फिर इंक्रीमेंट लगेगा तो उसी 5750 रुपये के मूल वेतन पर ही लगेगा. पिछली बार मिली 1250 रुपये की वृद्घि को मूल वेतन में जोड़ा जाता तो अगली बार 7000 रुपये के मूल वेतन पर प्रबंधन को इंक्रीमेंट देना पड़ता. प्रबंधन का ये खेल कई वर्षों से जारी है.’

इस बीच फरवरी में कर्मचारियों ने उस वक्त फिर से हंगामा शुरू कर दिया जब उनसे ‘फॉर्म 12’ की जगह ‘फॉर्म 18’ भरने को कहा गया. कर्मचारियों के अनुसार उप श्रमायुक्त कार्यालय पर हुई बैठक में उनकी हाजिरी ‘फॉर्म 12’ भरे जाने पर सहमति बनी थी. ‘फॉर्म 12’ स्थाई कर्मचारियों की ओर से भरे जाने के लिए था जबकि ‘फॉर्म 18’ ठेका कर्मचारियों से भरवाया जाता है. मामला कर्मचारियों को स्थाई करने का था, लेकिन प्रबंधन ने ऐसा करने से मना कर दिया था. मार्च में न्यूनतम वेतन को लेकर एक बार कर्मचारियों ने हंगामा किया. कर्मचारियों का आरोप था कि उप श्रमायुक्त की जांच में कुल 337 ठेका कर्मचारी मौके पर कार्य करते पाए गए थे, जिसमें से प्रबंधन मात्र 100 कर्मचारियों को ही न्यूनतम वेतनमान दे रहा है. साथ ही गत दिसंबर में डेढ़ दिन के तालाबंदी का वेतन ठेका कर्मचारियों को नहीं दिया गया जबकि स्थायी कर्मचारियों को दे दिया गया है. कर्मचारियों का आरोप है, ‘श्रमायुक्त कार्यालय पर मार्च में हुई बैठक में अस्थाई कर्मचारियों को कॉन्ट्रैक्ट लेबर के रूप में रखने का प्रशासन की ओर से दबाव डाला गया. इसके अलावा प्रबंधन की ओर से बातचीत में बनी सहमतियों का पालन करने से इंकार कर दिया गया. जिलाधिकारी और दूसरे कर्मचारियों की ओर से दबाव डालकर कर्मचारियों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई करने की धमकी दी गई और कर्मचारियों से मामले की जांच को छह महीने तक स्थगित रखने के लिए कहा गया.’

गीताप्रेस एक सार्वजनिक संस्था है. यह मुनाफा कमाने वाली कंपनी नहीं है. हम कर्मचारियों को न्यूनतम वेतन देने के नियमों का पालन करते हैं. कर्मचारियों के वेतन में वृद्घि भी की गई थी. उन्हें कम देने का सवाल ही नहीं उठता. इसके अलावा कर्मचारी अगर और मांगते हैं तो ये हमारे बस की बात नहीं है. वेतन और वेतन वृद्घि देने का नियम अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग होता है. आप दूसरे प्रांत की बात  नहीं कर सकते. दूसरे प्रांतों के कानून को यहां लागू नहीं किया जा सकता

बैजनाथ अग्रवाल, न्यासी व्यवस्थापक, गीताप्रेस

हालांकि गोरखपुर के जिलाधिकारी इन बातों का खंडन करते हुए कहते हैं, ‘हम धमकी क्यों देंगे, जबकि हमारा काम कार्रवाई करने का है.’ बहरहाल उप श्रमायुक्त कार्यालय में हुई बैठक में जिन मुद्दों पर सहमति नहीं बनी थी उनकी सूची श्रमायुक्त, कानपुर को भेजी गई है. कर्मचारियों ने मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को भी एक मांगपत्र भेजकर मामले की निष्पक्ष जांच कराने की मांग की है.

निजता पर नजर

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तमाम तरह की सुधारवादी योजनाओं को लागू करने के बीच भारत सरकार की चाहत ये भी है कि अमेरिका की नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी (एनएसए) की प्रिज्म परियोजना की तर्ज पर वह भी भारतीयों के फोन कॉल, मैसेज, वीडियो कॉल, ईमेल और तमाम निजी जानकारियों पर निगरानी रखे. इस चाहत को पूरा करने के लिए सरकार इस साल के अंत तक देश में सेंट्रल मॉनीटरिंग सिस्टम (सीएमएस) योजना को लागू करने वाली है. इसके लागू होने के बाद फोन कॉल से लेकर इंटरनेट पर किए गए सारे काम भारतीय खुफिया एजेंसियों की नजर में रहेंगे.

इस कवायद का मतलब ये है कि सरकार आपके फोन कॉल सुनने, मैसेज और ईमेल पढ़ने के अलावा आपका पासवर्ड भी जान सकती है. साथ ही गूगल लोकेशन सर्विस और जीपीएस के जरिए आपके हर कदम की जानकारी रख सकती है.

सीएमएस परियोजना की बुनियाद 2007-2008 में संप्रग सरकार ने मुंबई हमले के बाद रखी थी. इसका जिम्मा भारतीय दूरसंचार प्रौद्योगिकी संस्था सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ टेलीमैटिक्स (सी-डॉट) को सौंपा गया था. सीएमएस के तहत खुफिया एजेंसियां बगैर मोबाइल और इंटरनेट कंपनियों के हस्तक्षेप और इजाजत के लोगों का सारा डाटा ले सकती हैं और उनके फोन टैप कर सकती हैं.  सीएमएस के लागू होते ही सरकार के पास लोगों के इलेक्ट्रॉनिक संचार से जुड़ी हर जानकारी होगी जो पहले सिर्फ मोबाइल और इंटरनेट कंपनियों के पास होती थी.

संप्रग सरकार को उम्मीद थी कि इस परियोजना को 2013 तक पूरा कर लिया जाएगा पर कुछ कारणों से इसे पूरा नहीं किया जा सका. अब केंद्र की भाजपा सरकार ने योजना को इस साल के आखिर तक लागू करने के संकेत दे दिए हैं. गृह मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक सीएमएस को लेकर बंगलुरु में केंद्रीय गृह सचिव एलसी गोयल की अध्यक्षता में आला अफसरों ने दूरसंचार विभाग के अधिकारियों के साथ बैठक की. बैठक में गृह सचिव ने इस योजना में हो रही देरी और इसे इस साल के अंत में लागू करने में आ रही दिक्कतों की समीक्षा की. गृह मंत्रालय के एक आला अफसर के मुताबिक कुछ कारणों से यह परियोजना पिछले छह महीनों से लटकी है. परियोजना के तहत दिल्ली और बंगलुरू में सीएमएस की इकाई (सेंट्रलाइज डाटा सिस्टम) बनाई गई है. यहां इसका परीक्षण जारी है. सीएमएस के तहत इंटरसेप्शन स्टोर एंड फॉरवर्ड (आईएसएफ) के सर्वर देश के 195 दूरसंचार सेवा प्रदाताओं के साथ स्थापित कर दिए गए हैं. सीएमएस के तहत देशभर में 21 क्षेत्रीय निगरानी तंत्र (आरएमसी) की स्थापित किए जाएंगे. उन्होंने यह भी कहा कि इस परियोजना के तहत किए गए फोन कॉल के रिकॉर्ड के विश्लेषण से देश के खिलाफ चल रहीं साजिशों, असामाजिक तत्वों और कर चोरी जैसी गंभीर समस्याओं से निपटा जा सकेगा.

भारत में किसी शख्स पर पुख्ता शक के आधार पर उसकी जासूसी करने के लिए एजेंसियों को केंद्रीय गृह सचिव से इजाजत लेनी होती है. एक आरटीआई से मिली जानकारी के मुताबिक सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों के अनुरोध पर केंद्रीय गृह सचिव रोजाना 300 फोन टैप करने की इजाजत देते हैं. अंतरराष्ट्रीय न्यूज एजेंसी ‘रॉयटर्स’ के मुताबिक भारत सरकार ने 2012 में गूगल से लोगों की निजी जानकारियां मांगने के लिए 4750 आवेदन किए थे. ऐसे आंकड़े मांगने के मामले में भारत अमेरिका के बाद दूसरे नंबर पर है. 9 जून, 2013 को अमेरिका की सेंट्रल इंटेलीजेंस एजेंसी (सीआईए) के पूर्व कर्मचारी एडवर्ड स्नोडेन ने इतिहास का सबसे बड़ा खुलासा करते हुए दुनिया को यह बताया था कि एनएसए अमेरिकी नागरिकों सहित कुछ दूसरे देशों के लोगों की अवैध तरीके से जासूसी कर रही है. इस खुलासे ने दुनिया भर के लोगों में डर का माहौल पैदा कर दिया. इस घटनाक्रम से अमेरिका को दुनिया भर में फजीहत भी झेलनी पड़ी थी.

दुनियाभर में ऐसी परियोजनाओं का बड़े पैमाने पर विरोध हुआ है. मानवाधिकार संगठन इसे लोकतंत्र के लिए खतरा मानते हैं. अगर तथ्यों पर नजर डालें तो पता चलता है कि ऐसी निगरानी परियोजनाओं से भी आतंकवाद पर लगाम नहीं लगाई जा सकी है. मानवाधिकार संगठनों के मुताबिक ऐसी परियोजनाएं सिर्फ लोगों में असुरक्षा और भय पैदा करती हैं. लोकतंत्र में सरकार सुरक्षा कारणों का हवाला देकर अपने ही नागरिकों की जासूसी करे, इसे जायज नहीं ठहराया जा सकता. ऐसे उदाहरण मिले हैं जहां सत्ताधारी दल विपक्षी दलों के नेताओं का फोन टैप करवाता है. ऐसे में यह भी संभव है कि सत्ताधारी दल अपने हितों को साधने के लिए सीएमएस का इस्तेमाल करे. गृह मंत्रालय के एडीजी कुलदीप सिंह धतवालिया ने बताया, ‘राष्ट्रीय सुरक्षा और प्रजातांत्रिक सुरक्षा के लिए सीएमएस बहुत जरूरी है. इसके जरिए हम लोगों पर निगरानी रखेंगे. लोगों को इससे घबराने की जरूरत नहीं है.’

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सीएमएस खुफिया एजेंसियों को भारतीय नागरिकों की तमाम निजी बातचीत सुनने और उनसे जुड़ी जानकारी हासिल करने का अधिकार देगा. यह नागरिकों के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा जिसके अंतर्गत लोगों को निजता का अधिकार मिला हुआ है. अगर किसी के ऊपर पुख्ता शक है तो सरकार को ये अधिकार है कि वह उसकी निगरानी रखे और उसकी बातचीत रिकॉर्ड करे. यह सही भी है, लेकिन सीएमएस के जरिए खुफिया एजेंसी उन लोगों के भी बातचीत का रिकॉर्ड रख सकेगी जिनके ऊपर किसी तरह का शक नहीं है. मतलब यह कि सीएमएस के जरिए हम सभी पर अपराधी की तरह निगरानी रखी जाएगी जो एक लोकतंत्र के लिए पूरी तरह से अस्वीकार्य है. दुनियाभर में ऐसे कम ही प्रमाण हैं जिससे यह साबित हो कि सीएमएस जैसी निगरानी वाली परियोजनाएं सुरक्षा और आतंकवाद के लिए हितकारी रही हैं.

डॉ. एंजा कोवाक्स, संस्थापक व शोधकर्ता इंटरनेट डेमोक्रेसी

एडवर्ड स्नोडेन ने यह भी खुलासा किया था कि खुफिया एजेंसियां ऐसी जानकारी से 1.5 फीसद मुजरिमों को ही गिरफ्त में ले पाती है. जब अमेरिका और ब्रिटेन जैसे तकनीक संपन्न मुल्कों में लोगों की निगरानी करनी वाली परियोजनाएं लगभग नाकाम साबित हुई हैं. ऐसे में भारत में सीएमएस कितना कामयाब हो पाएगा, ये बड़ा सवाल है. अमेरिकी खुफिया एजेंसी की निगरानी परियोजना ‘प्रिज्म’ के भारी विरोध और नाकामयाबी की वजह से अमेरिका ने लोगों पर सीमित निगरानी रखने के लिए यूएस फ्रीडम एक्ट पास किया है जिसके तहत लोगों की फोन से जुड़ी जानकारियां अब खुफिया एजेंसी के पास नहीं बल्कि टेलीकॉम कंपनियों को पास होंगी.

नागरिकों के मानवाधिकार और निजता के हनन के सवाल पर गृह मंत्रालय के एडीजी का कहना है, ‘लोगों को अधिकारियों पर भरोसा रखना चाहिए और जो व्यक्ति राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में संलिप्त नहीं हंै उन्हंे सीएमएस से कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए. उन्हें डरने की कोई जरूरत नहीं है. अधिकारी देश की सुरक्षा के लिए तत्पर हैं और यह परियोजना देशहित में है.’ अमेरिका में ‘प्रिज्म’ परियोजना पर उठे सवाल पर उन्होंने कहा कि हम अमेरिका से तुलना नहीं कर सकते.

एनजीओ ‘इंटरनेट डेमोक्रेसी की संस्थापक और शोधकर्ता डॉ. एंजा कोवाक्स के अनुसार, ‘अमेरिकी सिविल लिबर्टीज यूनियन के आंकड़ों के मुताबिक आतंकवादियों पर लगाम लगाने में पारंपरिक जांच ही अहम भूमिका अदा करते हैं. आतंकवाद से निपटने में इस तरह की ऑनलाइन निगरानी परियोजनाओं का योगदान कम ही रहा है. चिंताजनक बात यह है कि खुफिया एजेंसियों की जवाबदेही सिर्फ गृह मंत्रालय और प्रधानमंत्री के प्रति होती है. संसद के प्रति उनकी कोई जवाबदेही नहीं होती और भारत में दूसरे लोकतंत्रिक देशों की तरह निगरानी पर नियंत्रण रखने जैसी कोई व्यवस्था नहीं है. ऐसे में सीएमएस के दुरुपयोग की आशंका ज्यादा है. सीएमएस से भले ही खुफिया एजेंसियों का काम आसान हो जाए पर यह पूरी तरह से नागरिकों के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है. मैं इसे देश के लिए लाभदायक नहीं मान सकती.’

पूर्व केंद्रीय सूचना प्रौद्योगिकी और दूरसंचार राज्यमंत्री मिलिंद देवड़ा, जिनके कार्यकाल में इस परियोजना की नींव पड़ी, मानते हैं कि इसका गलत इस्तेमाल किया जा सकता है. देवड़ा के मुताबिक, ‘इस परियोजना के फायदे और नुकसान दोनों हैं. इसके लागू होने से यह पता कर पाना मुश्किल होगा कि कौन बेवजह जासूसी का शिकार हो रहा है. इसके साथ एक और कानून की जरूरत होगी जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि नागरिकों के मौलिक अधिकार का हनन न हो. भारत में कोई भी ऐसा कानून नहीं है जिसके तहत सरकार लोगों की जासूसी कर सके.’

भारत के आईटी एक्ट, 2000 के तहत शक के आधार पर सीमित समय के लिए किसी व्यक्ति का फोन टैप किया जा सकता है. इसके लिए केंद्रीय गृह सचिव से मंजूरी लेनी जरूरी है. दिलचस्प बात यह है कि ब्रिटिश शासन के दौरान बनाए गए इंडियन टेलीग्राफ एक्ट में भी आम लोगों की निजता का काफी ख्याल रखा गया था. इस कानून के मुताबिक फोन से जुड़ी जासूसी या तो लोगों के सुरक्षा कारणों या फिर आपातकाल लागू होने पर की जा सकती थी. 2008 में भारत सरकार ने इंडियन टेलीग्राफ एक्ट में काफी बदलाव कर आईटी एक्ट पास किया. इसमें इस प्रावधान को बदल दिया गया. अब सरकार किसी मामले की छानबीन के दौरान या किसी पर शक होने पर फोन टैप कर सकती है.

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सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के मुताबिक बिना पुख्ता सबूत के लोगों की इस तरह से निगरानी करवाना गैरकानूनी है. किसी व्यक्ति या संस्थान की निगरानी के लिए गृह सचिव की इजाजत जरूरी है. साथ ही मामला राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा होना चाहिए. सेंट्रल मॉनीटरिंग सिस्टम के तहत अगर किसी व्यक्ति का फोन बिना पुख्ता वजह से टैप किया जा रहा है तो उस व्यक्ति के साथ उन लोगों की भी निजता खतरे में पड़ जाएगी जो उससे फोन पर बात करते हैं. ऐसे मामलों में दस में से आठ फोन ऐसे होंगे जो उसके लिए निजी होंगे. ऐसे में उन आठ लोगों की भी निजता में सेंध लग जाएगी जिनका उस मामले से कोई सरोकार नहीं है.

प्रशांत भूषण, वरिष्ठ वकील 


दिल्ली स्थित नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के सीनियर फेलो और इंडिया स्पेशल फोर्स के लेखक सैकत दत्त के मुताबिक, ‘सीएमएस भारतीय नागरिकों के अधिकार को पूरी तरह से खतरे में डाल देगा. अगर देश सीएमएस जैसे अपारदर्शी तरीके से अपने ही नागरिकों की जासूसी करने लगे तो सरकार की ओर से इसका दुरुपयोग नहीं किया जाएगा, इस आशंका से कैसे बचा जा सकेगा. संयुक्त राष्ट्र संघ ने बिना पुख्ता वजह लोगों की इलेक्ट्रॉनिक जासूसी जैसे फोन टैपिंग और इंटरनेट ट्रेसिंग को मानवाधिकार का उलंघन बताया है. न्यूयॉर्क स्थित मानवधिकार कार्यकर्ता और इंटरनेट शोधकर्ता सिंथिया वोंग के मुताबिक, ‘अगर भारत सत्तावादी शासन की तरह आगे नहीं बढ़ना चाहता, तो भारत को इस मुद्दे पर पारदर्शिता अपनाते हुए लोगों को यह जानकारी देनी होगी कि कौन उनके निजी डाटा को इकट्ठा कर रहा है और यह इस्तेमाल कहां हो रहा है. यह भी सुनिश्चित करना होगा कि इकट्ठा किए गए आंकड़ों का गलत इस्तेमाल न हो.

पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) बनाम भारत सरकार के मामले में 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने फोन टैपिंग को निजता के अधिकार का उल्लंघन बताया था. कोर्ट के मुताबिक अवैध तरीके से किए गए फोन टैपिंग असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक हैं. इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फोन टैपिंग के लिए कुछ गाइडलाइन तय की थी जिसके अनुसार केंद्रीय गृह सचिव की अनुमति के बिना कोई फोन टैप नहीं किया जा सकता है. साथ ही फोन टैपिंग के रिकॉर्ड साठ दिन के अंदर नष्ट कर दिए जाने चाहिए. 1988 में कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े के कार्यकाल में भी फोन टैपिंग का बड़ा मामला सामने आया था. विपक्ष का आरोप था कि हेगड़े ने विपक्षी नेताओं के फोन टैप के आदेश देकर उनकी निजता में सेंध लगाई है. भारी विरोध के बाद हेगड़े को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था.

इंडिया सेंटर फॉर इंटरनेट के कार्यकारी प्रबंधक सुनील अब्राहम के मुताबिक, ‘इस तरह के निगरानी तंत्र की सबसे बड़ी खामी यह है कि इसके लागू होने से हैकर केे लिए लोगों की निजी जानकारियों में सेंध लगाना आसान हो जाएगा. हैकर डाटा चुराने के लिए सीधे सीएमएस के डेटाबेस को निशाना बनाएंगे. उन्हें एक साथ तमाम लोगों की निजी जानकारियां मिल जाएंगी.

भारत में ऐसे कई मामले सामने आएं हैं जब सत्ताधारी दलों ने सीबीआई जैसी संस्था का दुरुपयोग किया है. संप्रग सरकार के समय सीबीआई को ‘सरकार का तोता’ तक कहा गया. ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि क्या सीएमएस जैसी परियोजना का दुरुपयोग नहीं होगा

शाकाहारी सरकार, कुपोषित नौनिहाल

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मध्य प्रदेश के लिए कुपोषण एक ऐसा नासूर है, जिसे जितना कुरेदो दर्द उतना ही बढ़ता है. गाहे-बगाहे बहस में आने वाला यह मुद्दा बीते दो माह में फिर चर्चा का विषय बना, क्योंकि सरकार ने कुपोषण के खिलाफ अपने ही विभाग के तार्किक प्रस्ताव को खारिज कर दिया. राज्य के महिला एवं विकास विभाग ने चर्चा के लिए प्रस्ताव रखा था कि तीन जिलों- अलीराजपुर, मंडला और होशंगाबाद में एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम (आईसीडीएस) के तहत बच्चों को हफ्ते में 2 से 3 दिन अंडे खिलाए जाएं. प्रस्ताव के शुरुआती दौर में ही राज्य के जैन संगठनों ने विरोध करना शुरू कर दिया था. प्रभावशाली समुदाय के जरिये मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को प्रेरित किया गया कि वे इसका विरोध करें.

आखिरकार, फैसला यही हुआ कि आंगनबाड़ी में बच्चों को अंडा नहीं मिलेगा. मीडिया रिपोर्ट कहती हैं कि कट्टर शाकाहारी मुख्यमंत्री ने बच्चों को अंडा खिलाने के प्रस्ताव को खारिज किया. इन खबरों से ऐसा लगता है कि शासन व्यवस्था पूरी तरह से व्यक्ति केंद्रित हो चुकी है. अव्वल तो यह निर्णय राज्य सरकार और शासन व्यवस्था के तौर-तरीकों पर गंभीर सवाल खड़े करता है, साथ ही यह संकेत भी देता है कि कुपोषण को लेकर सामाजिक ही नहीं, वैज्ञानिक दृष्टिकोण का भी पूरी तरह से अभाव है.

दाल-चावल, सब्जी, रोटी, खीर-मक्खन, सोया-पनीर कुछ भी हो, कुपोषण से निपटने के लिए अच्छे ही हैं. उसी कड़ी में अंडा भी ज्यादा पोषण का महत्वपूर्ण स्रोत है. यदि आप सम्मान के साथ बिना भ्रष्ट आचरण के ये सब खिला सके तो कुपोषण तो कम हो ही जाएगा. इसमें कोई शक नहीं है. शक तो मंशा पर है कि क्या वास्तव में हम कुपोषण के पहाड़ को चढ़ने की मंशा रखते भी हैं. दाल कम पानी ज्यादा, पोषण आहार के पैकेट में बदबू, कभी मिले-कभी न मिले; कोई भरोसा नहीं; जो खिलाने की नीति बनाई उस पर अनैतिक क्रियान्वयन हावी हो गया. ऐसे में ही सरकार का कहना कि भले अच्छा हो, पर अंडे का विकल्प लागू न होगा. यह एक विकल्प है, अनिवार्यता नहीं.

दूध या अंडा ?

बात केवल अंडे तक सीमित नहीं है; न ही यह अंतिम विकल्प है. बात बेहतर पोषण, सहज उपलब्धता की है. बाल पोषण अधिकार की विशेषज्ञ डॉ. दीपा सिन्हा कहती हैं, ‘भोजन में विविधता महत्वपूर्ण है. यदि बच्चों को दूध, दाल, फल, सब्जी, अनाज, तेल मिल पाएं, तो भी सूक्ष्म पोषक तत्वों की जरूरत पूरी हो सकती है. लेकिन एनएसएसओ और नेशनल न्यूिट्रशन मॉनीटरिंग ब्यूरो के अध्ययन बताते हैं कि ज्यादातर आबादी को विविधतापूर्ण भोजन नहीं मिल पाता. इस सूरत में बच्चों के लिए अंडा एक अनिवार्यता बन जाती है, क्योंकि प्रोटीन और सूक्ष्म पोषक तत्वों का दूसरा कोई बेहतर विकल्प भी नहीं.’

भारत में अक्टूबर 2014 की पौष्टिक अंतर्ग्रहण रिपोर्ट (एनएसएसओ) कहती है कि मध्य प्रदेश में लोगों को 70.7 प्रतिशत प्रोटीन अनाज से मिलता है. बाकी का 10.8 प्रतिशत प्रोटीन दाल और 9 प्रतिशत दूध से मिलता है. अनाज से मिलने वाला प्रोटीन अच्छी गुणवत्ता का नहीं माना जाता. प्रोटीन का अच्छा स्रोत दूध है, लेकिन ऊंची कीमत और शुद्धता के अभाव ने उसे समाज से दूर किया है. मध्यप्रदेश में 5 साल से छोटे बच्चों के दूध पर औसतन 54 रुपये मासिक (1.80 रुपये प्रतिदिन) खर्च होता है. अब मध्यप्रदेश सरकार भरोसा दिला रही है कि आंगनबाड़ी में बच्चों को सप्ताह में 2 से 3 दिन दूध मिलेगा.

‘अंडा केवल पोषण के लिहाज से ही नहीं, बल्कि किफायती और सुरक्षित भी है. इसे आसानी से पकाया जा सकता है और यह समुदाय में पोल्ट्री उद्योग को बढ़ावा देने में कारगर होगा. वैसे भी बच्चों को जो विविधताभरा भोजन चाहिए, वह संपन्न परिवारों को ही नसीब होता है’

वंदना प्रसाद, कम्युनिटी पीडियाट्रिशियन और राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की पूर्व सदस्य

अंडे को लेकर जारी बहस के बीच राज्य खाद्य पदार्थ परीक्षण प्रयोगशाला की रिपोर्ट में सामने आया कि 2014-15 में दूध के 983 नमूनों की जांच में 282 यानी 29 प्रतिशत मिलावटी निकले. सीधी जिले में तो 100 फीसदी दूध मिलावटी निकला. जब 88 लाख बच्चों को नियमित रूप से दूध देने की बात हो रही है तो इस पक्ष को नजरअंदाज कैसे किया जा सकता है?   यह भी देखें कि आंगनबाड़ी में तीन दिन दूध देने के लिए महीने भर में 21.12 लाख लीटर दूध जरूरी होगा.

कोरकू आदिवासियों के साथ काम कर रही स्पंदन की सीमा प्रकाश कहती हैं, ‘आंगनबाड़ी में अगर बच्चों को अंडा मिला तो उनकी और महिलाओं की मौजूदगी बढ़ेगी. बच्चों की सही वृद्धि, निगरानी और स्वास्थ्य जांच भी हो सकेगी. यह पहल स्थानीय समुदाय को मुर्गी पालन के लिए प्रेरित करेगी, जो पूरे परिवार की पोषण सुरक्षा में भी योगदान देगा.’

जमीनी अध्ययनकर्ता और इंडियन इंस्टीट्यूट आॅफ टेक्नोलॉजी (दिल्ली) में अर्थशास्त्र पढ़ाने वाली एसोसिएट प्रोफेसर रीतिका खेरा मानती हैं, ‘अंडे बच्चों और लड़कियों के लिए पशु उत्पादित प्रोटीन का श्रेष्ठ स्रोत है. इसमें विटामिन-सी के अलावा हर पोषक तत्व मौजूद है. देश के 15 राज्यों में आंगबाड़ी और मध्याह्न भोजन में बच्चों को अंडा मिल रहा है. छत्तीसगढ़ और राजस्थान में अगड़ी जातियों ने अंडे की राह में रोड़े अटकाए, लेकिन शाकाहारी परिवारों के लिए इसकी जगह दूध और केले दिए जा सकते हैं. यह एक पक्षीय निर्णय नहीं हो सकता.’ राष्ट्रीय पोषण संस्थान (हैदराबाद) ने भी अंडे को प्रोटीन का बेहतर स्रोत माना है. संस्थान ने वंचित तबकों, खासतौर पर बच्चों और महिलाओं के लिए इसकी उपलब्धता सुनिश्चित करने की सिफारिश की है. अंडे में लगभग सभी अमीनो एसिड्स मौजूद हैं. अगर एक किलोग्राम वजन के बच्चे को अंडा मिले तो उसे रोजाना 1.2 ग्राम प्रोटीन की जरूरत होगी. इसके बजाय उसे यदि सब्जी और अनाज खिलाएं तो 2 ग्राम प्रोटीन की जरूरत होगी.

शाकाहारी राज्य और शाकाहारी समाज 

यह जानना बेहद दिलचस्प है कि मध्य प्रदेश में अंडे पर नीतिगत निर्णय जैन समाज के किसी कार्यक्रम के मंच पर ही होता है. ऐसे ही एक मंच से 2009-10 में अंडे की खिलाफत की जमीन तैयार की गई थी. इस साल फिर यही हुआ. शाकाहारी परिवार के बच्चे पर अंडा खाने की बाध्यता बेशक नहीं होनी चाहिए. उन्हें दूध-केले का विकल्प दिया जा सकता है. लेकिन इस मुद्दे पर चर्चा नहीं हो रही. बस फैसला सुना दिया जाता है.  राज्य में आधे बच्चों और गर्भवती-धात्री महिलाओं को टेक होम राशन दिया जाता है, यदि चाहना हो तो अंडे के लिए अलग व्यवस्था बनाई जा सकती है.

शिवपुरी जिले में सहरिया आदिवासियों के बीच काम कर रहे अजय यादव कहते हैं, ‘पोहरी ब्लॉक में 24 तरह के पैकेट बंद आहार गांव की छोटी-छोटी दुकानों में मिल रहे हैं. उन पर पहले पाबंदी लगानी चाहिए थी. अंडा तो इनसे कहीं ज्यादा जरूरी है.’

‘द हिंदू’ और ‘सीएनएन-आईबीएन’ के वर्ष 2006 में किए गए अध्ययन से पता चला कि मध्य प्रदेश की 35 प्रतिशत जनसंख्या शाकाहारी है. जनगणना 2011 के मुताबिक, भारत में सबसे ज्यादा आदिवासी (1.52 करोड़) मध्य प्रदेश में रहते हैं. इनमें से 90 प्रतिशत शाकाहारी नहीं हैं. लेकिन इनमें कुपोषण इस कदर है कि 28.27 लाख बच्चों में से 71.4 प्रतिशत बच्चे कम वजन के हैं. दलित बच्चों में 17.59 लाख में से 62.6 प्रतिशत कम वजन के हैं. फिर भी सरकार इन तबकों से कभी नहीं पूछती कि उन्हें अंडे से परहेज तो नहीं? जिस मंच पर ‘अंडा रहित पोषण’ का निर्णय लिया गया, वह सामाजिक-आर्थिक रूप से सबसे संपन्न तबकों का है. पोषण आहार कार्यक्रम का लाभ लेना उनकी प्राथमिकता में नहीं है.

नीति नहीं, राजनीति

मध्य प्रदेश में वर्ष 2008-09 में 67.15 करोड़ अंडों का उत्पादन हुआ, जो 2014 में बढ़कर 96.71 करोड़ हो गया. मछली पालन को लेकर मध्य प्रदेश सरकार की नीति कहती है, ‘बढ़ती आबादी, बेरोजगारी तथा पौष्टिक आहार में कमी की सूरत में मत्स्य पालन रोजगार के साथ प्रोटीन युक्त किफायती भोजन भी देता है (आर्थिक सर्वेक्षण 2014-15).’ इसका मतलब है कि अंडे पर रोक सरकारी नीति नहीं, बल्कि एक खास संदर्भ और परिस्थिति में लिया गया निर्णय है. सितंबर 2007 में मध्य प्रदेश सरकार ने गंभीर कुपोषित बच्चों के इलाज के लिए प्रोजेक्ट शक्तिमान शुरू किया था. इसमें एक साल के लिए 19 जिलों के 38 विकासखंडों के 1000 गांवों में बच्चों को उबले अंडे और उबले आलू खिलाए गए. कुपोषणग्रस्त 10 हजार बच्चों का इलाज हुआ. सरकार का दबाव अंडे की जरूरत पर भारी पड़ता दिख रहा है. मार्च से अगस्त 2010 के बीच इंदौर के गांवों में पंचायतों की पहल पर 4123 गंभीर कुपोषित बच्चों को अंडे खिलाए गए. इससे 3077 बच्चों का वजन बढ़ा, 1452 बच्चे गंभीर से मध्यम श्रेणी में आ गए और 310 बच्चे सामान्य हो गए. इसके बावजूद 2010 में अटल बाल स्वास्थ्य और पोषण मिशन की स्थापना से ही अंडा देने का प्रावधान हटा लिया गया क्योंकि राज्य के तीन मंत्रियों- गोपाल भार्गव, अर्चना चिटनिस और जयंत मलैया को इस पर आपत्ति थी. अंडे का विरोध समाज ने नहीं किया. राज्य सरकार ने ही इसे रोकने की पहल की थी. जरा नजर उठाकर देखिए; समाज का एक हिस्सा कभी भी दूसरे हिस्से के खान-पान को रोकते हुए नजर न आएगा; फिर रोक की पहल कौन कर रहा है; जरा सोचिये!

इसके बाद भी कुपोषण प्रबंधन कार्यक्रमों की नीति बनाते समय अंडे के विकल्प की बात कही गई, लेकिन इसे खारिज कर दिया गया. 1 जून 2015 को जवाहर लाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय, जबलपुर में आयोजित एक कार्यक्रम में राज्य की पशुपालन मंत्री कुसुम महदेले ने मुख्यमंत्री की मौजूदगी में कहा कि मछली या मांस खाने वालों को अंडा देने में कुछ गलत नहीं है. असल में वे राज्य को मछलीमय और कछुआमय बनाने की बात कह रही थीं. मध्य प्रदेश में 3 से 6 साल के बच्चों को स्वयं सहायता समूहों से गरम और पका हुआ पोषण आहार मिलता है. एक बच्चे के लिए 4 रुपये का बजट बहुत कम है. इस पर भी स्वयं सहायता समूहों से बिल पास करवाने के नाम पर रिश्वत मांगी जाती है. दूसरी तरफ टेक होम राशन की व्यवस्था में भी गुणवत्ता और मात्रा को लेकर सवाल उठते रहे हैं. टेक होम राशन में मिल रही खिचड़ी में नमक, हल्दी और तेल मिला होने से स्वाद में बदलाव और अजीब तरह की बू की शिकायत के चलते बच्चे, महिलाएं उसे नहीं खा पाते. प्रोफेसर ज्यां द्रेज कहते हैं, ‘पोषण आहार के लिए अंडा बेहतर विकल्प है.’

वस्तुतः जब यह स्पष्ट है कि पोषण आहार का एक खास स्रोत किसके लिए (समाज के उस तबके के लिए जो सामाजिक आर्थिक रूप से हाशिए पर धकेला गया है और जहां अंडा त्याज्य नहीं है) जरूरी खाद्य पदार्थ है. उस विषय पर सांस्कृतिक सवाल कौन (सामाजिक और आर्थिक रूप से ऊंचे मुकाम पर बैठा समुदाय, जिसने कुपोषण का दंश ही न झेला हो) उठा रहा है! इस व्यवस्था में प्रभावशाली समुदायों द्वारा उठाई गई सांस्कृतिक आपत्तियों पर समावेशी शासन-व्यवस्था के तहत समाज से कोई चर्चा किए बिना सरकार तत्काल निर्णय ले लेती है कि सभी बच्चों को (जिनमें आदिवासी और दलित समुदाय के बच्चे सबसे ज्यादा हंै) अंडे के विकल्प से वंचित किया जाता है. यह विषय केवल आंगनबाड़ी, कुपोषण और अंडे तक ही सीमित नहीं है, यह अनुभव हमें राज्य और समाज के मौजूदा वर्ग चरित्र का दर्शन भी करवाता है.     l

‘प्रोटीन का मापन उसके जैविक मूल्य के आधार पर होता है. दालों और अनाज का जैविक मूल्य 60 और 70 के बीच है, जबकि अंडे में प्रोटीन का जैविक मूल्य 100 है. अंडे में अमीनो एसिड्स होने के कारण शरीर इसे सौ फीसदी सोख लेता है. इसे सरल शब्दों में समझें तो शाकाहारी भोजन से प्राप्त प्रोटीन का जैविक मूल्य पशु उत्पादों से कम होता है’

वीणा शत्रुघ्न, राष्ट्रीय पोषण संस्थान, हैदराबाद की पूर्व उप-निदेशक

विदेशी तर्कों पर टिकी देसी ‘प्रगतिशीलता’

अंडे पर रोक का ऐलान करने के 48 घंटे के भीतर पीपुल्स फॉर एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनिमल्स (पेटा) की देसी शाखा ने शिवराज सिंह चौहान को ‘प्रगतिशील अवॉर्ड’ थमा दिया. इसके लिए यह दलील दी गई कि अंडा खाने से हार्ट अटैक की 19 और डायबिटीज की 68 फीसदी आशंका बढ़ जाती है. इसके अलावा आंतों का कैंसर होने की बात भी पेटा की विज्ञप्ति में कही गई है. राष्ट्रीय पोषण संस्थान की पूर्व उप निदेशक वीणा शत्रुघ्न इन दलीलों को निराधार ठहराती हुई कहती हैं कि अव्वल तो ये विदेशों में हुए अध्ययनों पर टिकी हैं, जहां लोग फल-सब्जियों के बजाय शक्कर, वसा, सोडियम ज्यादा खाते हैं. उनके भोजन में मांस ज्यादा, अनाज कम होता है. नतीजा मोटापा, दिल की बीमारी और कैंसर के रूप में दिखाई देता है. भारतीय परिप्रेक्ष्य में ऐसा कोई अध्ययन नहीं हुआ, जिससे साबित होता हो कि अंडा खाने से कैंसर और हार्ट अटैक का खतरा रहता है. अलबत्ता यह जरूर है कि गर्भावस्था में पोषण की कमी से कम वजन के बच्चे पैदा होते हैं. वे कहती हैं कि पेटा को पहले भारतीय संदर्भों में पोषण की जानकारी जुटा लेनी चाहिए.

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