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बढ़ते सामाजिक तनाव का ग्रामीण चेहरा

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सांप्रदायिकता के इस दौर में दंगों और संघर्ष का माहौल चुटकी बजाते ही तैयार हो जाता है और पलक झपकते ही इसकी आंच देश-प्रदेश में फैल जाती है. हाल ही में हुए अटाली दंगे भी ‘जंगल की आग’ भड़काने वाली एक चिंगारी बन सकते थे.

विभिन्न संप्रदायों के बीच दिनों-दिन आपसी नफरत का दायरा बढ़ने को कुछ लोग राजनीतिक अपवाद मानते हैं पर जिस तरह समय-समय पर ऐसी सांप्रदायिक हिंसा बढ़ रही है, ये चिंतनीय है. दो साल पहले हुए मुजफ्फरनगर दंगों के बाद समाजशास्त्री दीपांकर गुप्ता ने दृढ़ता से कहा था कि साझा अर्थव्यवस्था पर आधारित बरसों पुराने ग्रामीण संबंध तेजी से नष्ट हो रहे हैं और अर्थव्यवस्था में आता हुआ ये बदलाव समाज में भी देखा जा सकता है. हरियाणा के अटाली गांव पिछले दिनों जो हुआ वो दीपांकर के दावे को और पक्का करता है.

2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगों के बाद जानबूझकर फैलाई जा रही इस नफरत के कई उदाहरण देखने को मिले हैं. पुराना ग्रामीण समाज शोषक था पर जिस तरह अब लगातार सांप्रदायिक झगड़े देखे जा रहे हैं, दो साल पहले तक ऐसा नहीं था. जातिवाद को लेकर लोग कट्टर थे पर एक हद तक सामंजस्य बनाकर भी रखा जाता था. पर अब ये सब बहुत तेजी से बदल रहा है. अगर पांच साल पहले पूर्वी उत्तर प्रदेश का शहाबपुर गांव जातिवाद के नाम पर हुए भेदभाव के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जगह बना सकता है तो इस मुद्दे की गूंज देश के नेताओं को तो सुननी होगी.

एक स्वतंत्र ग्रुप द्वारा तथ्यों को बताती एक रिपोर्ट और कुछ अन्य सूत्रों की माने तो दिखता है कि कैसे पिछले कुछ समय में पंचायतें खुद ही कानून बन गई हैं और उनको नियंत्रित करने की कोई भी कोशिश द्वेषपूर्ण रूप ले लेती हैं. ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर किया गया उनका ‘कड़ा’ नियंत्रण अब बढ़कर सामाजिक बंधनों और अंतरजातीय संबंधों को भी नियंत्रित करने का जरिया बनता जा रहा है, साथ ही हिंदुत्व कट्टरपंथियों द्वारा समाज में फैलाई गई  ‘लव जिहाद’ जैसी बेबुनियाद बात अब बहुत आगे जा चुकी है.

भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) का नेतृत्व भले ही साक्षी महाराज और गिरिराज सिंह के बयानों से शर्मिंदा हो पर इनके और इनके साथियों को पसंद करने वालों की तादात बढ़ती जा रही है. हालांकि यहां एक बात साफ कर देना जरूरी है कि मुजफ्फरनगर दंगों के बाद भाजपा के मुख्य नेतृत्व को प्रत्यक्ष रूप से इनका जिम्मेदार ठहराया गया था और सांप्रदायिक आधार पर मतदाताओं को अलग-अलग बांटने की नीयत से कुछ संदिग्धों को भी टिकट दिया गया. इस गैर-जिम्मेदाराना दृष्टिकोण के परिणाम अब कई मामलों में देखे जा सकते हैं. ‘ग्रामीण भारत का बदलता चेहरा’ विषय पर किए गए शिक्षाविद एलिजाबेथ बासिल और इशिता मुखोपाध्याय के एक अध्ययन के अनुसार:

  •  समाज के महत्वपूर्ण वर्गों को समान विकास और मौलिक लोकतंत्र के प्रति आश्वस्त न कर पाने की सरकार की विफलता ग्रामीण भारत में दिखाई देती है.
  •  ‘सामुदायिक मान्यताओं’ को दबा दिया गया है. जैसे-जैसे धर्मनिरपेक्षता का कमजोर आधार सामने आ रहा है हिंदुत्व की मानते हुए ‘सामुदायिक समस्याओं’ को ‘सांप्रदायिक नजर’ से सुलझाया जा रहा है.

 आशावादियों की मानें तो उन्हें लगता है कि दंगे की आग में जली और अस्थिर हरियाणा सरकार अटाली जैसे मामलों को आसानी से संभाल लेगी पर सच्चाई अलग है. मोहन भागवत से लेकर साक्षी महाराज तक ने इन विवादों को सुलझाने के बजाय तल्ख ही बनाया है. रोज एक भड़काऊ बयान इस सांप्रदायिक नफरत की फसल को सींचता है और हिंदुवादी कट्टरपंथी इसके जवाब में ओवैसी और उस जैसे कईयों को इसी तरह के जवाब देने के लिए प्रेरित करते हैं. खाप पंचायतें हों या ऑनर किलिंग, या फिर बहुचर्चित ‘लव जिहाद’ के मामले, ये सभी एक रणनीति का हिस्सा हैं. इन समूहों की अनाधिकृत अदालतें बस अपने फरमान थोपती हैं, खासकर महिलाओं पर. इन मूर्खतापूर्ण और अर्थहीन फरमानों में कपड़े क्या पहने जाने चाहिए और जीवनसाथी कौन और कैसा होगा का फैसला भी ये अदालतें ही लोगों के लिए लेना चाहती हैं. यह संकीर्ण मानसिकता हर जगह प्रभावी है जिसके परिणामस्वरूप शहरों और गांवों में होने वाले सामाजिक तनाव लगभग समान हो गए हैं.

गांवों में जातिवाद को लेकर लोग कट्टर जरूर थे पर एक हद तक सामंजस्य बनाकर भी रखा जाता था. पर अब ये सब बहुत तेजी से बदल रहा है

केंद्र और कई राज्यों में भाजपा का शासन होने के कारण छोटे स्तर पर भी आरएसएस की ‘शाखाओं’ का बनना एक नए नियम जैसा हो गया है. अब इनके काम करने का तरीका किसी अस्पष्टता में छुपा हुआ नहीं है- गौमांस खाने के मुद्दे से लेकर किसी समुदाय विशेष के पलायन तक ऐसा कुछ भी नहीं बचा है जिस पर इनकी नजर न पड़ी हो. यहां तक कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण विभाग में भी दीनानाथ बत्रा और वाई एस राव जैसे आरएसएस की कट्टर मानसिकता वाले लोग काम कर रहे हैं. ये तथाकथित ‘संस्कृति के रखवाले’ कुछ विशेष, पसंदीदा मिथकों को प्रचारित करने के लिए दोबारा इतिहास लिख रहे हैं. प्रचारित विचार के अनुसार दंगे शहरों में ही हुआ करते थे पर अब ये आंतरिक क्षेत्रों यानी गांवों में भी तेजी से बढ़ते देखे जा सकते हैं. दीपांकर बताते हैं कि आजादी के समय कृषि का भारत की जीडीपी में 60 प्रतिशत योगदान था, जो अब 14 प्रतिशत पर आ गया है और ये बदलाव

समाज और जीवन के विभिन्न पहलुओं में साफ तौर पर देखा जा सकता है. वे लोग, जो कभी धर्मनिरपेक्ष योजनाओं का चेहरा हुआ करते थे, आज निशाना बने हुए हैं और उनके नाम रिव्यू कमेटी और ऐसे ही फोरमों से हटाए जा रहे हैं.

देखा जाए तो सरकार का बीता हुआ एक साल खासी चर्चाओं में रहा पर चर्चा के कारण विवादित ही रहे. (संयोग से, अटाली दंगा भी सरकार के एक साल पूरा होने की पूर्वसंध्या पर ही भड़का था) अगर शहरी परिदृश्य संस्थागत ध्रुवीकरण को दिखा रहे हैं तो गांवों से आने वाली तस्वीर बढ़ते आर्थिक संकट और सामाजिक तनाव की है. तथाकथित सेकुलर(धर्मनिरपेक्ष) ब्रिगेड प्रत्यक्ष रूप से इस लक्ष्यहीन बहस से किनारा किए हुए है. समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश में चल रहे अपने कार्यकाल के दौरान ही अपनी जड़ें खो दी हैं, वहीं कांग्रेस और लेफ्ट भी किसी काम के नहीं हैं. इस सब खेल के बीच अब भाजपा का एजेंडा किसी से छिपा नहीं रह गया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार कहते रहते हैं कि उनके कार्यकाल में किसी भी समुदाय को निशाना नहीं बनाया जाएगा पर संघ परिवार के ‘सैनिकों’ पर इस बात का कोई असर नहीं दिख रहा है. जमीनी हकीकत कुछ और ही बताती है.

इस बीच, स्वतंत्र रूप से की गई जांचें बताती हैं कि अटाली की हिंसा पूर्व-निर्धारित थी, ऐसे में आरएसएस के पुराने वफादार यानी हरियाणा के मुख्यमंत्री की भूमिका कथित रूप से सामने आ रही है.

भाजपा प्रमुख अमित शाह के लिए राजनीति, सामाजिक सामंजस्य की कीमत पर सिर्फ जीतने का नाम है और ऐसे में निचले स्तर पर लोग बिना किसी प्रशासनिक कौशल के सिर्फ किसी व्यक्ति विशेष और ‘परिवार’ के प्रति अपनी वफादारी के बल पर फलते-फूलते रहते हैं. अगर ये संस्थान इन सब को अपने गले की फांस नहीं बनाना चाहते हैं तो उन्हें खुद में बदलाव लाने होंगे क्योंकि कोई भी छोटा या बड़ा उल्लंघन समय के साथ बढ़ते हुए रोष को दिखाएगा.

दर्द के निशां

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दिल्ली से लगभग 70 किमी दूर हरियाणा के फरीदाबाद जिले के अटाली गांव की एक उजाड़ सड़क पर एक बड़ा-सा फ्रीजर टूटा पड़ा है. यह अहमद का है, जिनकी कन्फेक्शनरी की दुकान को 25 मई की शाम हुई सांप्रदायिक हिंसा में तोड़-फोड़ के बाद लूट लिया गया. उस शाम के बाद से अहमद किसी अनजान जगह पर अपने रिश्तेदार के यहां छिपे हुए हैं.

हमेशा की तरह, ये दंगे भी हिंदू-मुस्लिमों के बीच आपसी भरोसे की कमी और बढ़ती अफवाहों के बाद ही शुरू हुए. उस शाम तक सब कुछ ठीक ही था जब हिंदू समुदाय के लगभग 2000 लोगों की भीड़ ने मामले को आर या पार करने की ठान ली. इस भीड़ पर आरोप है कि इसने मुसलमानों पर हमला किया और उनके घरों को आग लगा दी. अटाली के घटनाक्रम को अयोध्या में हुए मंदिर-मस्जिद मामले जैसा ही समझा जा रहा है पर यहां मंदिर के पास मस्जिद डिस्ट्रिक्ट कोर्ट की अनुमति के साथ बनाई जा रही थी. इन सब के बीच राहत की बात ये है कि इतनी बड़ी हिंसा में कोई मौत नहीं हुई हालांकि 50 से ज्यादा लोग घायल और चोटिल हुए, मगर इससे मिला सदमा कभी न भूलने वाला है. गांव के सभी मुस्लिम परिवारों के साथ कुछ हिंदू परिवार भी घर छोड़कर चले गए थे.

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क्या था विवाद
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ये जानना दिलचस्प है कि ये मामला 70 के दशक से चला आ रहा है, कैसे धीरे-धीरे बात बिगड़ती रही जब एक विवादित जमीन पर हिंदुओं को पूजा करने का अधिकार दिया गया. हिंदू इस जगह को राम जन्मभूमि कहते हैं और उनका कहना है ये गांव की पंचायत की संपत्ति है. वहीं मुस्लिमों का कहना है ये जमीन वक्फ बोर्ड की है जिस पर कोर्ट द्वारा उन्हें मस्जिद बनाने की आज्ञा भी मिल चुकी है. लगभग चार दशकों से ये मुद्दा जस का तस बना हुआ है.

गांव के हिंदुओं का कहना है कि सत्तर के दशक की शुरुआत तक उस जमीन पर मुस्लिमों का एक कब्रिस्तान हुआ करता था. चूंकि पास ही एक प्राचीन मंदिर था तो ऐसा सोचा गया कि कब्रिस्तान को यहां से हटा कर किसी दूसरी जगह बना दिया जाए. इसके लिए 1972 में, मुस्लिमों को कब्रिस्तान बनाने के लिए गांव के पास ही एक एकड़ जमीन भी दी गई. (हिंदुओं के अनुसार मस्जिद भी यहीं बनाई जानी थी) हालांकि मुस्लिम अब तक उसी विवादित जगह पर ही इबादत किया करते थे. बीते समय में हिंदुओं द्वारा इस मुद्दे को अधिकारियों की नजर में भी लाया गया पर बात कभी इतनी नहीं बिगड़ी कि दोनों संप्रदायों के बीच संघर्ष या टकराव कि स्थितियां बन जाएं.

स्थानीय निवासी तिलक कुमार शिकायती लहजे में कहते हैं, ‘वो दी गई जमीन पर मस्जिद क्यों नहीं बना रहें हैं जबकि वो तो इससे काफी बड़ी भी है!’ तिलक ये भी चाहते हैं कि गांव में मुस्लिम सुरक्षित लौट आएं. ‘ये हम सभी के लिए अच्छा होगा, हम कोई हिंसा नहीं चाहते. हम सब इतने समय से साथ रह रहे हैं पर वो (मुस्लिम) आज भी विवादित जगह पर ही मस्जिद बनाए जाने के लिए अड़े हुए हैं. कुछ समझौते तो करने ही पड़ते हैं.’

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अटाली के घटनाक्रम को अयोध्या के बाबरी मामले जैसा ही समझा जा रहा है. यहां मंदिर के पास मस्जिद कोर्ट की अनुमति से बनाई जा रही थी
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हालांकि मुस्लिमों का कुछ और ही कहना है. वे कहते हैं कि अलग से दी गई जमीन सिर्फ कब्रिस्तान के लिए थी मस्जिद के लिए नहीं. इसके अलावा ये जमीन गांव से बहुत दूर है. उनके अनुसार वो विवादित जगह पर बने एक अस्थायी भवन में ही इबादत किया करते थे पर 1992 में हिंदुओं द्वारा उसे जला दिया गया, जिसके बाद वहां एक टिन शेड बनाया गया जहां 2009 तक वे लोग नमाज पढ़ते थे.

हालिया संघर्ष में चोटिल 50 वर्षीय सुलेमान कहते हैं, ‘आखिर क्यों हमें नमाज पढ़ने के लिए दूर जाना चाहिए? ये हमारी जमीन है और मस्जिद यहीं बनेगी. कोर्ट ने भी हमारे ही पक्ष में फैसला दिया है. उन्हें (हिंदुओं) कोर्ट का फैसला मानना चाहिए.’ 31 मार्च को फरीदाबाद कोर्ट ने मुस्लिमों के पक्ष में फैसला सुनाते हुए उन्हें मस्जिद बनाने कि अनुमति दी थी. सुलेमान आगे बताते हैं, ‘हमने हरियाणा के वक्फ बोर्ड से संपर्क किया था और उन्होंने हमें आगे बढ़ने को कहा. साथ ही मस्जिद के निर्माण के लिए 2 लाख रुपये की मदद भी दी.’

2009 में दोनों संप्रदायों के बीच गुस्सा तब बढ़ने लगा जब मुस्लिमों ने विवादित भूमि पर मस्जिद और बाउंड्री बनाने का काम शुरू किया. हिंदुओं ने इसका विरोध किया और मस्जिद के निर्माण पर कोर्ट से स्टे आॅर्डर ले लिया. हिंदुओं का कहना है कि इसी वक्त, ग्राम प्रधान राजेश चौधरी ने, जो उस वक्त सरपंच के चुनाव में प्रत्याशी थे, मुस्लिमों से वादा किया कि यदि वे जीत गए तो मस्जिद बनवाने में मदद करेंगे. उस समय गांव में 500 के लगभग मुस्लिम मतदाता थे जो 3000 हिंदू मतदाताओं के अलग-अलग गुटों के बंटे होने के कारण उस चुनाव में निर्णायक साबित हो सकते थे. इस बार कोर्ट का ये फैसला गलत समय पर आया है. गांव में इस साल पंचायत के चुनाव होंगे जो अगस्त या सितंबर के बीच किसी भी समय हो सकते हैं.

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‘लव जिहाद’ कनेक्शन
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हालांकि एक तरह से देखा जाए तो दोनों संप्रदायों के बीच पनपी दुश्मनी अंतरधार्मिक विवाहों के कारण और बढ़ गई हैं. अगर आजकल की राजनीतिक ध्रुवीकरण की भाषा में कहें तो इसे ‘लव जिहाद’ का नाम भी दिया जा सकता है. ये सुनने में अतिरंजित शब्द लग सकता है पर फिर भी ये ग्रामीणों को उत्तेजित करने के लिए काफी है.

लगभग साल भर पहले, अहमद के 23 साल के बेटे नौशाद ने गांव की ही एक हिंदू लड़की के साथ भाग कर शादी कर ली. ग्रामीणों ने इस शादी का कड़ा विरोध किया. उसके बाद दोनों संप्रदायों में कई दौर की बातचीत के बाद गांव वालों ने इस शादी को स्वीकार कर लिया पर फिर भी स्थानीय लोगों की प्रतिक्रियाओं के डर से इस दंपति ने एक पड़ोसी गांव में रहना ही उचित समझा. हाल ही में इनके यहां बेटा भी हुआ है. इनकी शादी का मामला लोगों के ध्यान से उतर ही रहा था कि मस्जिद निर्माण का विवाद उठ खड़ा हुआ. दोनों की भागकर की गई शादी करने की बात दोनों समुदायों के लोगों के लिए एक-दूसरे पर तंज कसने और छींटाकशी करने का मुद्दा बन गई. इन सब विवादों के बाद ये दंपति अपने नवजात बच्चे के साथ कहीं छिप गए हैं.

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ये सुनने में हास्यास्पद है पर गांव में इस शादी को लेकर होने वाली व्यर्थ चर्चाओं ने तनाव को और बढ़ाया था. 53 वर्षीय फूलवती चूल्हे पर खाना बनाते हुए बताती हैं, ‘मुसलमान औरतें बोलती थीं कि हिंदुओं की लड़कियां तो ऐसे ही भागेंगी. हिंदुओं से अपनी लड़कियां नहीं संभल रहीं.’ संयोग से इस झगड़े के कारण गांव की पाइपलाइन से होने वाली गैस सप्लाई बंद हो गई है. लोग या तो चूल्हे पर खाना बना रहे हैं या ब्लैक में एलपीजी सिलेंडर खरीद रहे हैं. यहां छोचक एक रस्म होती है, जिसमें बेटी के यहां बच्चे के जन्म पर उपहार भेजे जाते हैं. ऐसा बताया गया कि इसे लेकर भी तानाकशी हुई जिसने तमाम प्रौढ़ महिलाओं में खासा गुस्सा भर दिया. वैसे पुरुषों ने इन सब को सिरे से ही नजरअंदाज किया. पर शायद उन्हें ध्यान देना चाहिए था.

मस्जिद निर्माण कार्य में साथ दे रहीं मुस्लिम महिलाएं उस रास्ते से मंदिर आने-जाने वाली हिंदू औरतों पर ताने कसती थीं. ऐसे एक मौके पर तो पथराव भी हुआ था. ‘शुरुआत उन्होंने की थी,’ आठ महिलाओं के दल के साथ नियमित रूप से मंदिर जाने वाली फूलवती आरोप लगाती हैं, ‘पहले तो हमने उनके उलाहनों पर ध्यान नहीं दिया पर जब हद पार हो गई तो हम सभी ने इसका विरोध किया, जिसके जवाब में उन्होंने हम पर पत्थरों से हमला कर दिया.’ भारत के शहरों में ऐसा अमूमन तब होता है जब किसी एक समुदाय का कोई धार्मिक जुलूस किसी दूसरे समुदाय के बाहुल्य वाले इलाके से होकर गुजरता है.

खैर, पुरानी ग्रामीण परंपराओं के अनुसार मामला पंचायत में पहुंचा और दोनों संप्रदायों के लोगों के बीच बातचीत भी हुई. पर आखिरकार हिंदुओं ने ये फैसला लिया कि वो उस प्राचीन मंदिर के पास हो रहे मस्जिद निर्माण का विरोध करेंगे. 25 मई की सुबह मस्जिद निर्माण के विरोध में रैली निकाल रही हिंदू महिलाओं पर पथराव भी हुआ था.

शाम तक ये मामला चरम तक पहुंच गया. जैसे ही हिंसा और आगजनी बढ़ी, गांव के लगभग 200 मुस्लिम परिवारों ने रातों-रात अटाली से 12 किमी. दूर बल्लभगढ़ पुलिस थाने में शरण ली. इस बीच अटाली गांव में प्रशासन ने धारा 144 लगा दी. बड़ी संख्या में पुलिस के जवान और कमांडो मस्जिद निर्माण स्थल सहित पूरे गांव की चौकसी में तैनात हो गए.

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थाने में जिंदगी
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संघर्ष के बाद थाने में रहे सुलेमान अपने टूटे घर के फोटो देख के रो पड़े. ‘जैसे ही हमें हिंसा और झगड़े के बढ़ने का पता चला, हमने जरूरी सामान बांधा और भाग निकले. इससे पहले कि हमलावर हम तक पहुंच पाते, हम गांव से बाहर निकल चुके थे.’ उनका घर मस्जिद के ठीक सामने है. वो आज उस जगह जाने में डरते हैं, जहां वो पले-बढ़े, जिसे वो घर कहते थे. उन्होंने मीडिया से निवेदन भी किया था कि वे उन्हें वहां से उनकी धार्मिक किताबें लाकर दे दें. दंगों के बाद लगभग 500 मुस्लिम बल्लभगढ़ थाने में रहे. ये किसी आपदा के बाद बने रिलीफ कैंप के जैसा दृश्य था. कुछ लोगों के बहुत अधिक गर्मी की शिकायत के बाद एसडीएम ने यहां तीन कूलरों की व्यवस्था भी करवाई.

रिलीफ कैंप में मदद कर रहे 21 साल के मो.जहीर ने बताया, ‘अभी तक तो खाने की कोई किल्लत नहीं हुई है. कभी हम घर से कुछ ले आते हैं तो कभी किसी एनजीओ के लोग दान करते हैं. प्रशासन ने कई शिकायतों के बाद यहां कुछ कूलर भी लगवा दिए हैं. पर इन सब के बावजूद, ये कोई जीने का तरीका तो नहीं है.’ गांव की ही एक शिक्षिका ने बताया, ‘ज्यादातर औरतों के पास अतिरिक्त कपड़े नहीं थे. खाने के लिए, मदद के लिए हम किसी और पर निर्भर थे. हमने भिखारियों जैसी जिंदगी जी. मुझे तो ये भी नहीं पता कि मैं अपनी नौकरी पर दोबारा जा भी पाऊंगी या नहीं.’ बहरहाल स्थितियां अब सामान्य होने लगी हैं. लगभग दस दिनों के बाद प्रशासन द्वारा सुरक्षा का आश्वासन देने पर मुस्लिम घर लौटे हैं पर मुश्किलें अभी भी बनी हुई हैं.

फोटो फीचर : देखें अटाली दंगे के बाद का मंजर

‘हमने गैर हिंदुओं के प्रवेश पर पाबंदी नहीं लगाई, उसे नियंत्रित किया है’

BGमंदिर में गैर हिंदुओं के बिना मंजूरी प्रवेश पर पाबंदी क्यों लगाई गई है?

देखिए, तकरीबन एक माह पहले मंदिर में आए कुछ गैर हिंदुओं की सुरक्षाकर्मियों के साथ झड़प हो गई थी. उस घटना के बाद एक ऐसे नियम की जरूरत महसूस की गई जिससे भविष्य में आगे कोई बड़ा झगड़ा-फसाद न हो. इस कारण से ये नियम बनाया गया है. लोग इस नियम का पालन कर रहे हैं. ये तो सामान्य-सी बात है. पता नहीं मीडिया इस पर इतना हंगामा क्यों मचा रहा है.

लेकिन सुरक्षाकर्मियों के साथ झड़प तो किसी की भी हो सकती है. नियम गैर हिंदुओं को लेकर ही क्यों बनाया गया?

कोई बड़ी घटना घटित हो इसके पहले हमें इसे नियंत्रित करना जरूरी था. हर व्यवस्था का अपना एक नियम होता है. मान लीजिए कहीं धोती पहनकर प्रवेश करने का नियम है और कोई कुछ और पहनकर चला जाए तो दिक्कत होगी ही. झगड़ा हो जाएगा. सबका अलग-अलग नियम होता है. जहां पवित्रता है, यानी मंदिर है वहां सब देखकर करना पड़ता है.

क्या इस नियम के पीछे कहीं ये सोच तो नहीं है कि मंदिर में अगर कोई हिंदू आएगा तो वो कोई समस्या खड़ी नहीं करेगा, जबकि गैर हिंदू कर सकता है?

हां, बिलकुल ऐसा है. ये भी हो सकता है कि कोई दूसरे धर्म का आता है और उससे गलती से कुछ हो जाता है तो भी लोग यही मानेंगे कि इसने जानबूझकर किया होगा.

मंदिर में तो बड़ी संख्या में लोग आते हैं. उनके बीच आप ये कैसे पहचानेंगे कि कौन हिंदू है और कौन गैर हिंदू?

मंदिर के प्रवेश द्वार पर भारी सुरक्षा व्यवस्था है. वहां तैनात सुरक्षाकर्मी और गार्ड्स को जो गैर हिंदू और विदेशी दिखते हैं वो उन्हें अलग बुला लेते है. बाकी वो लोग भी साइनबोर्ड पढ़कर खुद आकर पूछते हैं कि बताइए साइन कहां करना है. वहां एक रजिस्टर रखा हुआ है उसमें उनका नाम-पता नोट करने और उनसे साइन कराने के बाद गार्ड उन्हें साथ लेकर मंदिर दर्शन कराने जाता है और अपने साथ ही वापस लाता है. सारे गैर हिंदुओं के लिए ये नियम है. इसमें कोई दिक्कत नहीं है. सब बिना किसी बाधा के चल रहा है.

गैर हिंदुओं के प्रवेश संबंधी नियम की काफी आलोचना हो रही है. क्या इस नियम पर पुनर्विचार की संभावना है?

बिलकुल नहीं. देखिए यहां अनेक धर्मों के लोग दर्शन के लिए आते हैं. किसी ने अभी तक इस नियम का विरोध नहीं किया है. रजिस्टर रखा हुआ है, लोग अपनी एंट्री करके जा रहे हैं. इसको लेकर अभी तक मंदिर में आने वाले किसी व्यक्ति ने कोई नाराजगी व्यक्त नहीं की है.

क्या ये धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं है. क्या इसे एक सांप्रदायिक कदम नहीं माना जाना चाहिए?

देखिए ये देश में पहली बार नहीं हो रहा है. कई धार्मिक स्थलों पर ऐसी व्यवस्था है. कहीं आपको सिर ढककर जाना होता है तो कहीं कुछ और नियम है. तिरुपति बालाजी से लेकर जगन्नाथ मंदिर, पद्मनाभम मंदिर, त्रयंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग, द्वारिकाधीश मंदिर आदि अलग-अलग देवस्थानों के अपने नियम-कायदे हैं. हमने पाबंदी नहीं लगाई है लेकिन उसको नियंत्रित किया है. हमें कोई दिक्कत नहीं है. हमारे कुछ नियम हैं, आप उसका पालन करके दर्शन कीजिए.

‘योग का मतलब तो कुल-जमा होता है !’

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‘योग और इस्लाम’ को आप एक बार गूगल पर सर्च कर के तो देखिये! भारत ही नहीं दर्जनों मुस्लिम देशों में योग पर चर्चा और समर्थन दिख जाएगा. और तो और अशरफ एफ.निजामी ने 1977 में ही बाकायदा एक किताब लिखी जिसका शीर्षक है ‘नमाज : द योगा ऑफ इस्लाम’. यानी योग मुसलमानों के लिए कोई इस्लाम विरोधी क्रिया नहीं रही है, वरना नमाज की एक सकारात्मक तुलना योग से क्यों होती रही बार-बार? बल्कि योग ही नहीं आयुर्वेद, शास्त्रीय संगीत, शास्त्रीय-नृत्य आदि भी हिंदू पद्धति की ऐसी ही देन हैं जिस पर हिंदू-मुसलमान सभी भारतीय समान अधिकार मानते हैं. तो फिर आखिर ऐसा क्या हुआ की योग को लेकर समझदार, उच्च शिक्षित और धर्मनिरपेक्ष मुसलमान भी विरोध में खड़ा हो गया? दरअसल ये जिद पैदा करवाई गई. एक फ्रंट खोला गया जो ये आभास कराए कि अब भारत हिंदूवादी दस्तूर की तरफ बढ़ रहा है और गैर-हिंदू यहां लाचार होकर जिएगा.

भारतीय जनता पार्टी के 2014 के चुनाव घोषणा पत्र में ‘योग-व्यायाम और सूर्य-नमस्कार’ को अनिवार्य बनाना नहीं लिखा था. जो लिखा था वो है अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, कश्मीर से धारा 370 का खात्मा और यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करना. इसके अलावा वादा था कि महंगाई खत्म होगी, भ्रष्टाचार खत्म होगा, महिलाओं पर हिंसा खत्म होगी, काला धन वापस आएगा. जाहिर है, जो लिखा था और जिसका वादा था उससे तो सरकार और पार्टी दोनों मुंह मोड़ चुकी हैं, बल्कि इसके उलट कश्मीर में भाजपा गठबंधन की सरकार में लगातार वो काम किए गए जो अगर पिछली सरकार के समय हो जाते तो आसमान टूट पड़ता, लेकिन फिर भी अपने उस वोटर के लिए कुछ तो करना था जो ये मान रहे थे कि मोदी जी की सरकार बनी तो मुसलमानों को ‘ठीक’ कर देंगे. ऐसे मानस को शांत रखने के लिए सरकार ने हिंदूवादी संगठन और चेहरों को बेलगाम कर रखा है जो बयानबाजी से ये आभास देते रहे कि मुसलमानों को इस सरकार ने टाइट कर रखा है और अब मुसलमानों को भारत में रहना है तो ‘हमारी’ शर्तों पर रहना होगा.

भारतीय संविधान का मात्र क-ख जानने वाले भी जानते हैं कि वंदे मातरम की ही तरह योग को भी सबके लिए अनिवार्य करना सरकार के लिए नामुमकिन है और इसके लिए धर्म की आजादी का तर्क लाने की भी जरूरत नहीं. देश का संविधान ये आजादी देता है कि आप न चाहें तो आपसे जबरदस्ती ऐसा कोई काम नहीं करवाया जा सकता, भले ही वो आपकी सेहत के लिए कितना भी लाभदायक क्यों न हो. तमाम गैर-हिंदू, जिनमें धार्मिक अल्पसंख्यक और नास्तिक अल्पसंख्यक शामिल हैं, उन्हें इस ‘जबरदस्ती’ के कारण ही योग का विरोध करना पड़ा जबकि दुनिया के तमाम हिस्सों में स्वेच्छा से योग-दिवस मनाया जाएगा. ‘स्वेच्छा’ को ‘जबरिया’ में बदलकर योगी आदित्यनाथ और उनके हमखयाल हिंदू-संस्कृति के रखवालों ने इस तरफ ध्यान दिला दिया की योग एक ‘धार्मिक पद्धति’ है, इसमें ओम, सूर्य-नमस्कार, मंत्रोच्चारण, श्लोक आदि भी शामिल हैं और भारत का विश्वविद्यालय अनुदान आयोग योग के सिलेबस में लपेटकर धर्म पढ़ा रहा है. यानी, योग के शाब्दिक अर्थ तो हैं ‘कुल-जमा’, जिसे राजनीति ने ‘घटाने’ का औजार बना दिया.
खुद योगाचार्यों के बीच इस बात को लेकर काफी रोष है कि बाबा रामदेव ने योग का पेटेंट और ब्रांडिंग जिस प्रकार की है वो अश्लील बाजारवाद है और इस सरकारी अनिवार्यता की कोशिश को वो पतंजलि बिजनेस साम्राज्य की सेवा मानते हैं. दूसरी तरफ कानूनविद हैं जो संविधान के अनुच्छेद 25 और 28 के तहत ऐसी किसी भी अनिवार्यता को असंवैधानिक करार दे चुके हैं, तीसरी तरफ हैं वो मुसलमान प्रवक्ता जो इसे इस्लाम से जोड़कर धर्म आधारित विरोध कर रहे हैं और चौथी तरफ वो समाज है जो धर्म को नहीं मानता. सूर्य उसके लिए ब्रह्मांड का एक सितारा मात्र है और भूख से बदहाल देश में योग एक ‘ओवररेटेड’ बेवकूफी.
योगी आदित्यनाथ ने भारत में ही योग के कई मुखर विरोधी अपने उस एक बयान से पैदा कर दिए, जिसमें उन्होंने फरमाया की ‘सूर्य नमस्कार करना
जरूरी है, जिसे एतराज हो वो समंदर में डूब मरे’(और अल्पसंख्यकों को आधी रात में भी साथ देने का भरोसा दिलाने वाले प्रधानमंत्री विभाजन की इस राजनीति पर चुप हैं).
योगी आदित्यनाथ से मेरा सवाल है कि अगर मैं नमाज न पढ़ूं तो क्या कोई मौलाना मुझे समंदर में फेंक सकता है?

रविशंकर प्रसाद के मंत्रालय की साइट पर अश्लील लिंक

सूचना और प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद के मंत्रालय की वेबसाइट एक अश्लील लिंक जुड़ गई है. इन दिनों वेबसाइट पर ‌‌दिए गए उनके ट्विटर अकाउंट के लिंक पर क्‍लिक करने से एक दूसरा अश्लील अकाउंट खुल रहा है.

ravi

दूरसंचार मंत्रालय की वेबसाइट (www.dot.gov.in) पर मंत्रालय से जुड़े लोगों की प्रोफाइल और उनके ई-मेल आईडी की फेहरिस्त है. वेबसाइट के होमपेज पर ‘कॉन्टैक्ट अस’ नाम की लिंक पर क्‍लिक करते ही यह फेहरिस्त सामने आ जाती है. इस फेहरिस्त में सबसे पहला नाम रविशंकर प्रसाद का ही है. इसमें उनके ई-मेल आईडी के कॉलम में फेसबुक और ट्विटर अकाउंट का लिंक दिया गया है.

ट्विटर लिंक पर क्‍लिक करते ही जो प्रोफाइल खुलती है वह रविशंकर प्रसाद की न होकर किसी ‘रामजन प्रसाद’ की है. इतना ही नहीं इस पर जो कंटेंट हैं वे अश्लील हैं. हैरानी की बात ये है कि पिछले ‌कुछ दिनों से ये अश्लील ट्विटर अकाउंट मंत्रालय की ‌वेबसाइट से जुड़ा हुआ है और मंत्रालय से जुड़े किसी शख्स का इस पर ध्यान तक नहीं गया.

‘माओवादियों को हर तरह के अतिवाद से बचना होगा’

ramsharan joshi

‘यादों का लाल गलियारा : दंतेवाड़ा’  किताब एक तरह से आपके नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की 44-45 सालों की पूरी यात्रा का नतीजा है. नक्सल और भारतीय राज व्यवस्था के बीच की दिक्कत को कैसे समझा जा सकता है?

मैंने 1971 से लेकर 2013 के बीच बस्तर की कई बार यात्राएं कीं. बीते चार-पांच दशकों में जो राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव देश में आए हैं, उसके परिप्रेक्ष्य में हमें आदिवासियों की समस्या को समझना होगा. मैं अपनी किताब में सिर्फ बस्तर तक सिमटकर नहीं रहा बल्कि इसके जरिए मैंने पूरे आदिवासी समाज की समस्या को समझने की कोशिश की है. मेरी चिंता में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, झारखंड, ओडिशा, आंध्र प्रदेश के साथ दुनिया के तमाम मुल्कों के आदिवासी समाज शामिल हैं. मैंने इस विशेष समाज के लोगों को विशेष संदर्भ में समझने की कोशिश की है. सबसे पहले यह समझना जरूरी होगा कि परिवर्तन और विकास क्या हैं? जवाहर लाल नेहरू के जमाने से यह बात हो रही है कि आदिवासियों को मुख्यधारा में शामिल किया जाए. अब सवाल यह है कि मुख्यधारा है क्या? मुख्यधारा की कसौटियां क्या हैं? सवाल यह है कि मुख्यधारा और विकास की कसौटियां कौन तय करता है?  हम जब तक इन सवालों के जवाब नहीं ढूंढ़ेंगे तब तक आदिवासी समाज और भारतीय राज व्यवस्था के बीच अविश्वास का माहौल बना रहेगा.

जवाहर लाल नेहरू लोक कल्याणकारी नीतियों पर बहुत जोर देते थे. कहा जाता है कि नई उदारीकरण की नीतियां लागू होने के बाद से सरकारी नीतियों से लोक कल्याण की बातें धीरे-धीरे खत्म होती चली गईं?

नेहरू के समय राज्य की कल्पना में लोक कल्याणकारी नीतियों के सहारे पिछड़ गए लोगों को मुख्यधारा में शामिल कराना था. इसके पीछे उनका तर्क यह था कि अगर साम्यवाद और मुक्त अर्थव्यवस्था से दूर रहना है तो हमें लोक कल्याणकारी नीतियों को अपनाना ही पड़ेगा. लोक कल्याणकारी नीतियों को अपनाने से दो अतिवादी (साम्यवाद और मुक्त अर्थव्यवस्था) परिस्थितियों से बचा जा सकता है. यही वजह है कि नेहरू ने मिश्रित अर्थव्यवस्था के सिद्घांत को आगे बढ़ाया. नेहरू की मान्यता यह थी कि राज्य अगर हस्तक्षेपकर्ता की भूमिका में नहीं होगा तो गरीब लोग पिसते चले जाएंगे और समतावादी और न्याय की भूमिका का निर्वहन नहीं हो पाएगा. लोक कल्याणकारी नीतियों के तहत भूमि-सुधार, जमींदारी प्रथा का उन्मूलन, पंचायती राज आदि कई बड़े काम हुए, लेकिन जुलाई 1991 में जब नई उदारीकरण की व्यवस्था शुरू हुई तब राज्य के चरित्र में गुणात्मक परिवर्तन दर्ज किया गया. उस समय पीवी नरसिम्हा राव देश के प्रधानमंत्री और डॉ. मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे. अब यह कहा जाने लगा कि राज्य सुविधा मुहैया कराने की भूमिका का निर्वहन करेगा. वह अब हस्तक्षेपकारी भूमिका में नहीं होगा. राज्य की इस नई भूमिका को मैं एक उदाहरण के जरिए समझाना चाहूंगा. एक अखाड़ा तैयार करके एक ओर दुनिया के सबसे ताकतवर पहलवान को और दूसरी ओर रामशरण जोशी जैसे किसी आदमी को खड़ा कर दिया जाए और यह कहा जाए कि हमने अखाड़े की व्यवस्था कर दी है और अब आप लोग लड़िए. इसका परिणाम क्या होगा, इस बारे में ज्यादा माथापच्ची करने की जरूरत नहीं होगी. ठीक इसी तरह विश्व व्यापार संगठन में एक ओर अमेरिका है तो दूसरी ओर भूटान या मालदीव. दोनों लड़ेंगे तो उसके परिणाम क्या होंगे? राज्य के इस सुविधाकर्ता वाली भूमिका के लिए चालू भाषा में मैं दल्ला ही कह सकता हूं.

‘बगैर संसद में पहुंचे और बगैर शस्त्र उठाए कुछ भी नहीं बदला जा सकेगा. इन दोनों ही चरम स्थितियों से माओवादियों को बचना होगा’   

बीते कुछ सालों में नक्सलियों के बारे में जबरन वसूली और मासूम लोगों की हत्या करने की खबरें जोर-शोर से आने लगी हैं. पहले नक्सलियों के बारे में एक सामान्य धारणा थी कि आम लोग उनके दुश्मन नहीं हैं और वे सिर्फ अपने दुश्मनों की जान लेते हैं? क्या आज वे अपने उद्देश्यों से भटकने लगे हैं?

मैं इस प्रश्न का जवाब माओवादी या नक्सलियों के प्रवक्ता के तौर पर नहीं दे रहा हूं. आपने नक्सलियों के धन उगाही और मासूम लोगों की हिंसा के बारे में पूछा तो यहां साफ कर दूं कि मैं नक्सलियों की कुछ बातों का शुरू से विरोधी रहा हूं. चारू मजूमदार ने व्यक्तिगत हिंसा, व्यक्तिगत सफाया (शोषणमूलक व्यवस्था को समाप्त करने के या क्रांति के नाम पर किसी व्यक्ति की हत्या ) की बात की थी. मैं शुरू से इस व्यक्तिगत सफाये के सिद्घांत का विरोधी रहा हूं. व्यक्तिगत सफाये में बहुत ही मामूली घरों के लोग मारे जाते हैं. उनकी हिंसा किसी भी दृष्टि से, यहां तक कि क्रांति के दृष्टिकोण से भी जायज नहीं ठहराई जा सकती है. क्रांति मूलतः शोषण के खिलाफ है. अब सिपाही या सूचना देने वाला आदमी भी अपने चूल्हे को जलाने के लिए नौकरी कर रहा है तो उसको मारने का क्या औचित्य है? क्रांतिकारियों का यह नैतिक दायित्व है कि वे ऐसे लोगों को समझा-बुझाकर क्रांति की विचारधारा से लैस करें. वेे उनका विश्वास अर्जित करें. यह सब गोली-बंदूक से नहीं होने वाला है. लेनिन की एक बात का जिक्र मैं यहां करना चाहूंगा- ‘आप गरीब, मजदूर के घर पैदा हुए हैं या अमीर के घर, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है. एक क्रांतिकारी होने के लिए आपको क्रांति की चेतना से लैस होना पड़ेगा.’

आखिर क्या हो गया कि नक्सलियों के बारे में आम लोगों की राय बदल गई?

आप जानते हैं कि 1970 के माओवादी आंदोलन और आज के माओवादी आंदोलन में जमीन-आसमान का फर्क है. पहले इस आंदोलन का नेतृत्व मध्य वर्ग या निम्न वर्ग के हाथों में था लेकिन आज यह उन लोगों के हाथों में चला गया जो सीधे तौर पर दमन के शिकार हो रहे हैं. पहले नक्सलवादी आंदोलन का नेतृत्व उच्च जाति के हाथों में था लेकिन अब यह दलित और आदिवासियों के हाथ में चला गया है. बहुत बड़ा फर्क यही आया है. संभव है कि नेतृत्वकारी भूमिका में आए बदलाव की वजह से वे ‘सैद्घांतिक भटकाव’ के शिकार हुए हों. हालांकि इस बारे में मेरे पास कोई ठोस सबूत नहीं है. मेरा मानना है कि अगर पैसा गलत तरीके से आएगा तो चीजें गलत दिशा में बढ़ेंगी. यह बात मैं गांधीवादी नजरिए से नहीं कह रहा हूं. पूंजी का अपना एक चरित्र होता है और उसकी अपनी एक कार्यशैली होती है. यह हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि पैसा देने वाला हर व्यक्ति क्रांतिकारी एंगेल्स नहीं हो सकता. अगर माओवादी भटकाव के शिकार हो गए हैं तो इसे लेकर मुझे कोई अचरज नहीं है.

नक्सली और पुलिस के बीच मुठभेड़ होती है तो कई बार पुलिसकर्मियों की भी जान चली जाती है. राज्य मारे गए पुलिस को शहीद बताता है लेकिन पुलिस का काम मुठभेड़ के दौरान जान लेना और जान देना होता है. क्या राज्य यह सब करके अपने पक्ष में माहौल तैयार करना चाहता है ताकि मूल समस्या से लोगों का ध्यान हटाया जा सके?

देखिए, राज्य का भी आतंक होता है. आज आप संसद या विधानसभा में प्रतिनिधियों के बारे में आंकड़ाें पर गौर करें तो पता चलेगा कि वहां करोड़पतियों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ रही है. मेरा सीधा-सा सवाल यह है कि क्या सांसदों और विधायकों के अनुपात में ही देश के सामान्य नागरिकों (गरीब, पिछड़ा, दलित और आदिवासियों) की पूंजी में इजाफा हुआ है? मुझे लगता है कि गरीब और गरीब होते चले गए हैं. अगर इतना अन्याय है तो फिर उसके ऐसे परिणाम ही सामने आएंगे. पुलिसकर्मी भी किसी का बच्चा है और उसके मरने का दुख सभी को होना चाहिए. लेकिन सवाल यह है कि क्या उन्हें शहीद बनाने से समस्या का समाधान हो जाएगा? समस्या का समाधान तो तब होता है जब वहां से शोषण, दमन उत्पीड़न गुरबत हो. आप ऐसी समस्या ही क्यों रहने देते हैं जहां पुलिसकर्मी या माओवादी शहीद हों? मैं राज्य के समक्ष एक काल्पनिक परिस्थिति पेश करना चाहता हूं. कल को माओवादी दिल्ली तक पहुंचने में सफल हो जाएं और फिर अपने लोगों को शहीद बताना शुरू कर दें और पुलिस वाले जो आज शहीद हो रहे हैं और उन्हें गद्दार तो फिर क्या करेंगे? इसलिए सरकारों को बहुत ध्यान से इस मसले के हल की ओर बढ़ना चाहिए. माओवाद की समस्या काे हल करने के लिए सरकार को अपने अलग-अलग विभाग के अधिकारियों-कर्मचारियों की एक ईमानदार फौज खड़ी करने की दरकार है जो आदिवासियों के लिए समर्पित हो. आप सलवा जुडूम पैदा कर सकते हैं तो एक ईमानदार कर्मचारियों-अधिकारियों का समर्पित कैडर क्यों नहीं पैदा कर सकते हैं?

मोदी सरकार छत्तीसगढ़ में 24 हजार करोड़ रुपये की परियोजना शुरू करने जा रही है.  अतीत के मद्देनजर पुनर्वास, उचित मुआवजा आदि मामलों का निपटारा अब ढंग से होगा, इसका कैसे भरोसा किया जा सकता है?

मैंने अपनी किताब में नेशनल मिनरल डेवलपमेंट कॉरपोरेशन की बात उठाई है. दंतेवाड़ा में एनएमडीसी ने सबसे पहले हजारों करोड़ रुपए खर्च करके उद्योग खड़ा किया था. फिर भिलाई में. यह सब नेहरू के जमाने में हुआ था. यहां चिंता करने वाली बात यह है कि जो कंपनी 24 हजार करोड़ रुपये लगाएगी वह आदिवासी को कमोडिटी से ज्यादा कुछ नहीं समझेगी. आदिवासियों की जमीनें ली जाएंगी तो उन्हें कैसे मुआवजा दिया जाएगा? क्या वे परियोजना को इस तरह लागू करेंगे कि प्रतिरोध की कोई गुंजाइश ही न बचे. क्योंकि विस्थापन से केवल जीविकोपार्जन ही नहीं है बल्कि बोली, भाषा, संस्कृति आदि सब कुछ क्षत-विक्षत हो जाता है.

माओवाद का भविष्य क्या है?

भारत जैसे देश में अब सशस्त्र क्रांति लाना संभव नहीं. संभव हो जाए तो अच्छी बात है. लेकिन क्यों संभव नहीं है, इसका जवाब यह है कि भारत अब बहुत शक्तिशाली राज्य में तब्दील हो चुका है. दुनिया के तमाम पूंजीवादी मुल्कों में इस मसले पर बहुत घनिष्ठता है इसलिए वे कभी भी नहीं चाहेंगे कि किसी मुल्क में क्रांति संभव हो. 1936 में माओत्से तुंग विशाल रैली (लॉन्ग मार्च) निकाल सकते थे लेकिन आज आप जगदलपुर से साउथ ब्लॉक, दिल्ली तक लॉन्ग मार्च करना चाहें तो यह संभव नहीं हो पाएगा. अब क्रांति के नए माध्यम ढूंढने होंगे. माओवादियों को अति संसदवाद से और अतिसंविधानेत्तरवाद से बचना होगा. मतलब यह कि बगैर संसद में पहुंचे हुए कुछ नहीं बदलेगा और दूसरा यह कि बगैर शस्त्र उठाए कुछ भी नहीं बदल सकेगा. इन दोनों ही चरम स्थितियों से बचना होगा.

 

इंसेफलाइटिस से बिहार में पांच बच्चों की मौत

encephalitisउत्तरी बिहार में भीषण गर्मी के चलते इंसेफलाइटिस का खतरा बढ़ गया है. अब तक यहां पांच बच्चों की मौत हो चुकी है और तकरीबन 15 बच्चों का अलग-अलग अस्पतालों में इलाज चल रहा है.

इस साल इस बीमारी से सबसे पहली मौत 28 मई को हुई थी. इंसेफलाइटिस से उत्तरी बिहार और पूर्वांचल में हर साल सैकड़ों बच्चों की मौत होती है. मच्छरों के काटने से फैलने वाली इस बीमारी की शुरुआत तेज बुखार से होती है. अमेरिका के अटलांटा की संस्था सेंटर्स फॉर डिजीज कंटोल एंड प्रिवेंशन अब प्रभावित बच्चों में कुपोषण के स्तर का पता लगाएगी. यह पहला मौका है जब कुपोषण को आधार बनाकर इस बीमारी के कारणों का पता लगाने की कोशिश की जाएगी. विशेषज्ञों की टीम प्रभावित बच्चों के खून और मूत्र के सैंपल जुटाकर कुपोषण के स्तर का डाटा तैयार करेगी.

जब दौलताबाद में सिमटी थी ‘दिल्ली’

daulatabad

आपने बातों ही बातों में कभी न कभी ‘दिल्ली से दौलताबाद’ वाले जुमले का जिक्र जरूर सुना होगा. मगर शायद ही कभी सोचा न हो कि शहरों की दूरियों को लेकर ये मुहावरा कैसे उपजा और क्यों? दरअसल, दिल्ली से दौलताबाद के बीच की वर्तमान में सड़क मार्ग से दूरी लगभग 2100 से 2400 किमी. के बीच है. जिसे 1300 ईस्वी में मोहम्मद बिन तुगलक ने पूरी प्रजा के साथ तय किया था, जिसे भारतीय इतिहास में चीन के ‘लाॅन्ग मार्च’ की तरह भी देखा जाता है. दौलताबाद या देवगिरी महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र के औरंगाबाद जिले से 13 किमी. की दूरी पर है, जहां कभी पूरी दिल्ली को राजधानी के तौर पर बसाया गया.

स्थानीय इतिहासकार डॉ. शेख रमजान की मानें तो दक्कन के पठार में सबसे पहले मुगल आक्रमणकारी के रूप में अलाउद्दीन खिलजी ने सन 1295 से 1298 तक देवगिरी किले (अब दौलताबाद किला) पर हमला बोला था. इस अभेद किले को जीतने के लिए उसने रसद (दाना-पानी) तक बंद करा दिया था, जिसके बाद यादव वंश के राजा रामदेव ने हार स्वरूप राजस्व देना स्वीकार किया. कहा जाता है कि राजस्व में मिली अकूत दौलत को लादने के लिए खिलजी के बेड़े में शामिल हाथी-घोड़े और ऊंट कम पड़ गए थे.

यादव राजाओं ने बाद में दिल्ली के सुल्तान को राजस्व देना बंद कर दिया था, जिससे देवगिरी को 1307,1310 और 1318 में मलिक कफूर का आक्रमण झेलना पड़ा. इसके बाद 1324 ईस्वी के दौरान दिल्ली का सुल्तान मोहम्मद बिन तुगलक बना, जिसने दक्कन के इस अभेद किले में मिली अकूत दौलत को देखते हुए ही इसका नाम  ‘दौलताबाद’ यानी (दौलत से आबाद) रखा. इस तरह से देवगिरी (देवों की पूजा का स्थान) ‘दौलताबाद’ हो गया. तुगलक ने अपनी महत्वाकांक्षी योजना पर काम करते हुए सुनियोजित ढंग से पूरी दिल्ली को देवगिरी में बसाने के लिए दोनों शहरों के बीच के मार्ग पर सालों-साल काम कराया. इसका विस्तार से जिक्र तुगलक के समकालीन इतिहासकार जियाउद्दीन बर्नी की फारसी भाषा में लिखी किताब ‘तारीखे-फिरोजशाही’ में मिलता है. बर्नी ने तुगलक को दूरदर्शी सोच वाला सुल्तान माना है, वो लिखता है कि दिल्ली का देश के दूसरे छोर पर होना राजधानी के लिहाज से तुगलक को सही नहीं लगा. पूरे देश पर शासन करने के लिए दौलताबाद को भारत के मध्य में पाते हुए उसने सबसे उपयुक्त स्थान समझा. दो चरणों में 1326 से 1327 और 1328 से 1329 में पूरी दिल्ली को सुल्तान ने दौलताबाद में बसाया.

इसके लिए उसने प्रजा के साथ अपनी मां मकदूम बाई को सबसे पहले भेजा, ताकि प्रजा को भरोसा हो सके. काफिले के साथ इतिहासकार ईसामी भी सफर कर रहा था, जिसने इसके बारे में फारसी भाषा की किताब ‘फुतूहुस्सलातीन’ में लिखा है. उसने अपनी किताब में तुगलक को इसके लिए ‘पागल बादशाह करार’ दिया है. बहरहाल दिल्ली के लोग 7-8 साल में ही मराठी आबो-हवा और भिन्न संस्कृति में तालमेल बिठाने से उकता गए और वापस भागने लगे. ईसामी ने लिखा है कि सुल्तान को एक दशक में ही अपनी भूल का एहसास हो गया और उसने दिल्ली को वापस राजधानी घोषित कर दिया. तमाम लोग वापस लौट गए और काफी हमेशा के लिए यहीं बस गए और उनके साथ उनकी संस्कृति और कारोबार भी यहीं रहा. हालांकि ‘दौलताबाद से दिल्ली’ यात्रा का जिक्र इतिहास में नहीं मिलता है, लेकिन लगभग 10 साल बाद सुल्तान का आदेश जारी होने की पुष्टि है. डॉ. शेख मानते हैं कि यहां अब तक तुगलक का लाया अंगूर, अंजीर, नान-खलिया (एक तरह का भोजन) अभी भी लोग खा रहे हैं. तुगलक ने अपने काल में सोने-चांदी और चमड़े की मुद्राएं भी चलाईं थीं.

इतिहास के इस घटनाक्रम ने न सिर्फ इस शहर को नया नाम दिया बल्कि भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी घटना का गवाह बना दिया. तभी से ‘दिल्ली से दौलताबाद’ जुमला हर किसी की जबान पर चढ़ा.

पर्यावरण सजगता के संकल्प का दिन

Yamuna River by Shailendra

सरकारी कैलेंडर में देखें तो पर्यावरण पर बातचीत 1972 में हुए संयुक्त राष्ट्र संघ के स्टॉकहोम सम्मेलन से शुरू होती है. पश्चिम के देश चिंतित थे कि विकास का कुल्हाड़ा उनके जंगल काट रहा है. विकास की पताकानुमा उद्योगों की ऊंची चिमनियां, संपन्नता के वाहन, मोटर गाडि़यां आदि उनके शहरों का वातावरण खराब कर रही हैं. देवता सरीखे उद्योगों से निकल रहा चरणामृत वास्तव में ऐसा गंदा और जहरीला पानी है जिसने उनकी सुंदर नदियों, नीली झीलों को काला-पीला बना दिया. जिस तकनीक के कारण यह काला-पीला रोग लगा था उससे उबरने की दवा खोजने के फेर में पर्यावरण संरक्षण की नई बहस पैदा हुई. यह बहस हर साल 5 जून को चरम पर पहुंच जाती है क्योंकि यह दिन पर्यावरण के समारोहों के समापन और शुरुआत दोनों का दिन होता है. जो देश अपने आप को थोड़ा पिछड़ा मान रहे थे, उन्होंने इस बहस में अपने आप को शामिल करते हुए कहा कि ठीक है तुम्हारी नदियां गंदी हो रही हैं तो तुम मेरे यहां चले आओ. मेरी नदियां अभी साफ हैं. उद्योग लगाओ और जितना हो सके गंदा करो.

ब्राजील जैसे देशों ने सीना ठोककर कहा कि हमें पर्यावरण नहीं विकास चाहिए. भारत ने भले ही इस तरह सीना ठोककर दावा न किया हो लेकिन दरवाजे तो उसने भी कुछ इसी अंदाज में खोले थे. गरीबी से निपटना है तो विकास चाहिए. और इस विकास से थोड़ा बहुत पर्यावरण नष्ट हो जाए तो यह हमारी लाचारी है. इस दौर में वामपंथियों ने भी कहा कि हम पर्यावरण की विलासिता नहीं ढो सकते. इस दौर में कई संजय गांधियों का भी उदय हुआ जिन्होंने पर्यावरण संवर्द्घन की बात आधे मन और समझ से भले की हो लेकिन परिवार नियोजन का दमन पूरे मन से चलाया.

पर्यावरण की समस्या को ठीक से समझने के लिए हमें प्राकृतिक साधनों के बंटवारे को, उसकी खपत को समझना होगा. सीएसई (सेंटर फॉर साइंस एंड इन्वॉयरन्मेंट) के निदेशक स्वर्गीय अनिल अग्रवाल ने इस बंटवारे का एक मोटा खाका बनाया था. कोई 5 प्रतिशत आबादी दुनिया के प्राकृतिक संसाधनों के 60 प्रतिशत पर कब्जा किए बैठी है. 10 प्रतिशत आबादी के हाथ में कोई 25 प्रतिशत साधन हैं. लेकिन 60 प्रतिशत की फटी झोली में मुश्किल से 5 प्रतिशत साधन हैं. हालत ऐसी भी रहती तो एक बात थी. लेकिन इधर 5 प्रतिशत हिस्से की आबादी पूरी थमी हुई है. साथ ही जिन 60 प्रतिशत प्राकृतिक संसाधनों पर आज जिनका कब्जा है वह लगातार बढ़ रहा है. दूसरे वर्ग की आबादी में बहुत कम बढ़ोतरी हुई है. तीसरे 25 प्रतिशत की आबादी में वृद्धि हो गई है और उनके संसाधन हाथ से निकल रहे हैं. इस तरह चौथे 60 प्रतिशत वाले वर्ग की आबादी तेजी से बढ़ चली है परिणाम उनके हाथ में बचे-खुचे संसाधन तेजी से खत्म हो रहे हैं. यह चित्र केवल भारत का नहीं पूरी दुनिया का है. आबादी का तीन चौथाई हिस्सा बस किसी तरह जिंदा रहने की कोशिश में अपने आस-पास के पर्यावरण को बुरी तरह नोच रहा है. दूसरी ओर 5 प्रतिशत की पर्यावरण विलासिता भोगने वाली आबादी ऐसे व्यापक और सघन दोहन में लगी है कि उसके लिए भौगोलिक सीमाओं का कोई मतलब नहीं है. कर्नाटक, मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश में लगे कागज उद्योग ने पहले यहां के जंगल खाए, अब वे दूर-दराज के जंगलों को खाते-खाते अंडमान निकोबार तक जा पहुंचे हैं. जो जितना ताकतवर है वह दूसरे के हिस्से का पर्यावरण उतनी ही तेजी से निगलता है. दिल्ली अपने हिस्से की यमुना का पानी तो पीती है लेकिन कम पड़ जाए तो गंगा को भी निचोड़ लाती है. इंदौर पहले अपनी छोटी-सी खान नदी को मार देता है फिर पानी के लिए नर्मदा के धन्ने बैठ जाता है. भोपाल पहले अपने विशाल ताल को कचरे से भर देता है फिर 80 किलोमीटर दूर बह रही नर्मदा से पीने के पानी की योजना बनाने लगता है. लेकिन नर्मदा के किनारे बसा जबलपुर नर्मदा के पानी से वंचित रहता है.

आबादी का तीन चौथाई हिस्सा बस किसी तरह जिंदा रहने की कोशिश में अपने आस-पास के पर्यावरण को बुरी तरह नोच रहा है

आधुनिक विज्ञान, तकनीक और विकास के नाम पर हो रही यह लूटपाट प्रकृति से (खासकर ऐसे भंडारों से जो दोबारा नहीं भरे जा सकते) पहले से कहीं ज्यादा कच्चा माल खींचकर उसे अपनी जरूरत के लिए नहीं बल्कि लालच के लिए पक्के माल में बदल रही है. इस कच्चा-पक्का की प्रक्रिया में जो कचरा पैदा होता है उसे विकास के पैरोकार ठिकाने लगाना अपना काम नहीं समझते. उसे वह ज्यों का त्यों प्रकृति के दरवाजे पर पटक आना जानता है. इस तरह उसने हर चीज को एक उद्योग में बदल दिया है जो प्रकृति से ज्यादा से ज्यादा हड़पता है और बदले में इसे ऐसी कोई चीज नहीं देता जिससे उसका चुकता हुआ भंडार फिर से भरे. और देता भी है तो ऐसी रद्दी चीजें, धुआं, गंदा जहरीला पानी आदि की प्रकृति में अपने को संवारने की जो कला है, उसका जो संतुलन है वह डगमगा जाता है. यह डगमगाती प्रकृति, बिगड़ता पर्यावरण नए-नए रूपों में सामने आ रहा है.

कहां तो देश के 33 प्रतिशत हिस्से को वन से ढंकना था और कहां अब मुश्किल से 10 प्रतिशत वन बचे हैं. उद्योगों और बड़े-बड़े शहरों की गंदगी ने देश की 14 बड़ी नदियों के पानी को प्रदूषित कर दिया है. सिकुड़ रही खेती पर जमीन ने जो दबाव बनाया है उसकी चपेट में चारागाह भी आए हैं. वन गए तो वन के बाशिंदे भी विदा होने लगे. बिगड़ते पर्यावरण की इस लंबी सूची के साथ ही साथ सामाजिक अन्यायों की एक समानांतर सूची भी बनती चली गई है जिसका असर तो सब पर पड़ता ही है. पर क्या कोई इन समस्याओं से लड़ पाएगा? बिगड़ता पर्यावरण संवारने के भारी-भरकम दावों के बीच क्या हम एक छोटा सा संकल्प ले सकते हैं कि इसे अब और नहीं बिगड़ने देंगे? दिवसों और जलसों के बीच ऐसा संकल्प पर्यावरण के भोग विलास वाली 24 घंटे की चिंता को चौबीसों घंटे की संस्कारित सजगता में बदल देगी. क्या किसी पर्यावरण दिवस पर हम ऐसा संकल्प करने के लिए तैयार होंगे?

दिल जीतने वाला कलाकार

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आप इन्हें ओमकारा के रज्जू के रूप में बेहतर जानते होंगे जो अपने आसपास के बड़े सितारों के बीच जब यह कहकर नदी में कूदता है कि उसे तैरना नहीं आता तो दरअसल एक्टिंग के पानी का वह खूबसूरत तैराक है. रज्जू की मंगेतर को नायक ने मंडप से उठा लिया है और दीपक डोबरियाल के अभिनय में यह दोहरी खूबी है कि उसे कुशलता से निभाते हुए भी वे किसी भी पल उस किरदार से सहानुभूति नहीं जगने देते. हां, वे अपने ‘अजी हां’ और ‘चल झुट्टा’ के साथ याद पक्का रहते हैं.

यूं तो यह फिल्मी व्याकरण की एक घिसी-पिटी कहावत है कि अच्छे अभिनेता एक सीन से भी आपको याद रह जाते हैं लेकिन बहुत सारे प्रतिभावान अभिनेताओं के साथ दीपक के लिए भी इस कहावत का इस्तेमाल जरूरी है. फिर वह चाहे ‘दिल्ली 6’ का हलवाई हो, ‘शौर्य’ का चुप्पा कैदी कैप्टन हो, ‘ब्लू अम्ब्रेला’ के भला अंग्रेजी में भी कोई झूठ बोलता है? वाले कुछ सेकंड हों या गुलाल का एक दृश्य जिसमें पान की दुकान पर खड़े दीपक एक शब्द भी नहीं बोलते और उनकी हल्की मुस्कुराहट और आंखों की हरकत का कॉम्बिनेशन दिल जीत लेता है. ऐसी ही दिल जीतने पारी उन्होंने फिल्म ‘तनु वेड्स मनु’ के दोनों भागों में खेली है.

पौड़ी गढ़वाल के काबरा गांव में जन्मे और दिल्ली में पले-बढ़े दीपक से यह पूछा जाए कि अभिनेता बनने का ख्याल पहली बार उनके दिल में कब आया तो जवाब में मिलने वाली जगह, जहां यह ख्याल आया, वाकई दिलचस्प है. उनके स्कूल में प्रार्थना और राष्ट्रगान के तुरंत बाद वहीं हाजिरी ली जाती थी. दीपक सबसे आगे खड़े होकर रोल नंबर बोलते थे. शुरू में यह घबराहट का काम होता था जिसमें उनके पैर कांपते थे लेकिन बाद में उन्हें इसमें मजा आने लगा. और तो और, वे उसी दौरान इशारों और आवाज के उतार-चढ़ाव का इस्तेमाल करके अपने दोस्तों से बात भी कर लेते थे. तब उनमें पहली बार मंच का मोह जगा और उसका केंद्र बनने का इसके तुरंत बाद उन्होंने पढ़ाई को कोरेस्पॉन्डेंस के हवाले करके थियेटर की राह पकड़ ली और सात साल दिल्ली में नाटक करते रहे, छह साल अरविंद गौड़ के साथ ‘अस्मिता’ में और एक साल पं. एनके शर्मा के निर्देशन में.

मां को उनका यह शौक जितना भाता था, पिताजी उतना ही अपने बेटे के कॅरियर के लिए परेशान होते थे. उन्हें सरकारी नौकरी के लिए बेटे के ओवरएज हो जाने की फिक्र होती जा रही थी और बेटा मुंबई चला गया था. फिर संघर्ष के कुछ साल थे, लेकिन दीपक मानते हैं कि मुंबई में इतने लोग संघर्ष कर रहे होते हैं कि एक सामूहिक हौसला आपको आगे खींच ले जाता है. हालांकि वह संघर्ष एक अलग स्तर पर अब भी जारी है. अब ऑफर काफी मिलने लगे हैं लेकिन उन्हें ऐसी भूमिकाओं की तलाश है जिनमें वे अपनी सीमाओं से भी आगे जा सकें. उनके किरदारों का आकार भी बढ़ता जा रहा है और वैराइटी भी. जहां इसी शुक्रवार रिलीज हुई बेला नेगी की ‘दाएं या बाएं’ में वे मुख्य भूमिका निभा रहे हैं वहीं मृगदीप लांबा की कॉमेडी ‘तीन थे भाई’ में वे श्रेयस तलपड़े और ओम पुरी के साथ हैं. उनका चेहरा-मोहरा बॉलीवुड की मुख्यधारा के परंपरागत नायकों जैसा नहीं है और इस बात से वे कभी परेशान भी नहीं दिखते. शायद वे मुख्यधारा की फॉर्मूला कहानियों के सांचे में खुद को असहज ही महसूस करते हैं. बेला नेगी उन्हें बेहद मासूम बताती हैं. उन्हें लगता है कि उनकी फिल्म के नायक के चरित्र की जितनी विरोधाभासी परतें हैं- वह ईमानदार भी है और स्वार्थी भी, बुद्धू भी है और समझदार भी- उन्हें दीपक हर बारीकी के साथ जी गए हैं.

साधारण नैन-नक्श वाला ये शख्स फिल्मों में हमारे शहर या हमारे घर के  आसपास रहने वाला नजर आता है. दीपक अपने अभिनय में अपनी इस खूबी से बहुत ही सहजता से कायम रखने में सफल रहे हैं. ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ में जानदार अभिनय के कारण कंगना ने भले ही सारा बाजार लूट लिया हो, लेकिन दर्शक दीपक डोबरियाल के उम्दा अभिनय को भुलाए नहीं भूल सकते. उनमें एक स्थायी सकारात्मकता है जो खिलंदड़पने या बेफिक्री जैसी भी लगती है लेकिन उसकी जड़ें शायद उनके पहाड़ी गुणसूत्रों में हैं. वे उस बल्लेबाज की तरह हैं जो आपको विज्ञापनों में या अपने स्टाइलिश शॉट्स के गुण गाता हुआ भले ही न दिखे लेकिन बात उस पर छोड़ोगे तो वह मैच निकाल ले ही जाएगा.