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आपातकाल की आपबीती

Indra gandhi on emergency

1975 में इंदिरा गांधी के खिलाफ जब चुनावों में धांधली के आरोप के बाद इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला आने वाला था तब जगमोहनलाल सिन्हा जज थे. मैं तब ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में काम किया करता था. हम सब, जो जयप्रकाश नारायण या जेपी आंदोलन से जुड़े थे वो तो यही चाहते थे कि फैसला इंदिरा जी के खिलाफ ही हो पर मन ही मन हम ये भी समझते थे कि उस वक्त इतनी मजबूत और ताकतवर इंदिरा गांधी के खिलाफ फैसला देने की हिम्मत आखिर किस न्यायाधीश में होगी! 1971 में जब उन्होंने पाकिस्तान के दो हिस्से किए थे तब अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें ‘दुर्गा’ कहा था. इंदिरा के खिलाफ जब फैसला आया तब जाहिर है हम सब खुश हुए पर तब तक कभी सोचा ही नहीं था कि इसके क्या परिणाम हो सकते हैं. जेपी का हेडक्वार्टर ‘इंडियन एक्सप्रेस’ हुआ करता था, जब भी वे दिल्ली आते तो विभिन्न संस्करणों के संपादकों से मिलते थे.

फैसला आने के एक या दो दिन बाद जब जेपी दिल्ली आए तो उन्होंने हम सभी को बुलाया. उन्होंने पूछा, ‘अब क्या करना चाहिए?’ सभी ने कहा कि अब जब वो (इंदिरा गांधी) सुप्रीम कोर्ट में अपील करने वाली हैं तो हम बस इंतजार कर सकते हैं. पर फिर भी हम ये चर्चा करने लगे कि मान लो अगर उन्हें पद से हटाया जाता है तब चुनाव होंगे. जेपी का कहना था कि चुनाव के बारे में बात करना फिजूल है क्योंकि वो वापस सत्ता में आ ही जाएंगी. असल में उनके शब्द थे, ‘मैं सोचता हूं कि यदि चुनावों की घोषणा होती है तो हमें इसमें भाग लेना चाहिए या नहीं न सोचकर, इनका बहिष्कार क्यों नहीं कर देना चाहिए?’ उस समय हम में से कुछ ने जवाब दिया, ‘जेपी हो सकता है कि आप सही हों पर रिपोर्टरों, संपादक को आ रहे पत्रों से मिले फीडबैक के आधार पर हम ये तो कह सकते हैं कि लोगों में बहुत गुस्सा है, भले ही वो इसे जाहिर करे या न करें.’ यहां डर एक महत्वपूर्ण पहलू था. फिर प्रस्ताव रखा गया कि लोगों का मिजाज भांपने के लिए हम अगले दिन के ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में एक प्रविष्टि छापेंगे कि उसी दिन शाम के 5 बजे रामलीला मैदान में जेपी एक जनसभा को संबोधित करेंगे.

पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने उन्हें आपातकाल लगाने की सलाह दी. आपातकाल के पीछेे असली मास्टरमाइंड रे ही थे

और फिर जो हुआ वो अविश्वसनीय था. रामलीला मैदान को छोड़िए, कनाॅट प्लेस तक लोगों का हुजूम ही हुजूम था. उस समय रामनाथ गोयनका ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के मालिक थे, और तब उन्होंने मुझसे कहा कि अब हमें इस मुद्दे के साथ आगे बढ़ना चाहिए. मैं तब फील्ड में काम किया करता था. मैं सबसे पहले जगजीवन राम से मिला. वहां मैंने देखा कि उन्होंने अपने फोन का रिसीवर उठा के अलग रखा हुआ था. मैंने पूछा कि ऐसा क्यों तो उन्होंने कहा, ‘हमें नहीं पता पर हो सकता है वे (इंदिरा गांधी) मेरे फोन कॉल टैप करवा रही हों. और मुझे ऐसा भी लगता है कि किसी भी वक्त मुझे गिरफ्तार किया जा सकता है.’ फिर मैं कमलनाथ के पास गया. ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के बोर्ड का तब पुनर्गठन हुआ था और रामनाथ गोयनका की जगह केके बिरला अध्यक्ष बनाए गए थे. कमलनाथ बोर्ड के सदस्य थे. मैं कमलनाथ को जानता था.. वो मुझे पंजाबी में हैलो कहा करते थे, मैं उनसे एक बार मिला भी था. वे संजय गांधी के करीबी थे. उन्होंने मुझसे कहा, ‘तुम संजय गांधी से क्यों नहीं कहते कि वो हमारे लिए लिखें?’ मैंने कहा कि हां अगर वो कुछ करते हैं तब मैं जरूर ऐसा करूंगा. उन्होंने पूछा, ‘क्या तुम उनसे मिलना चाहते हो?’ मैंने जवाब दिया, ‘अभी तो नहीं पर हां कभी तो मिलूंगा.’ आपातकाल के बाद मैंने उन्हें उनका वादा याद दिलाया और संजय गांधी से मिलने मैं श्रीमती गांधी के घर पहुंचा. मुझे आज भी याद है कि वो बरामदे में थीं.

वो हार चुकी थीं, सब जगह कागज बिखरे हुए थे, ये घर उस समय प्रधानमंत्री आवास ही था. संजय गांधी एक पेड़ के नीचे बैठे थे. मुझे देख कर वो आईं पर मैंने उनसे कहा, ‘नहीं आज मैं आपका नहीं संजय का इंटरव्यू लेने आया हूं.’ मैंने संजय से पूछा, ‘आपको कैसे लगा था कि इतना सब कर के आप आगे जा पाएंगे?’ उन्होंने कहा, ‘इसमें परेशानी ही क्या थी? बंसीलाल की मदद के साथ हम अच्छा ही कर रहे थे. (बंसीलाल उस समय रक्षा मंत्री थे, इससे पहले वो हरियाणा के पहले मुख्यमंत्री रह चुके थे पर बाद में संजय उन्हें दिल्ली ले आए). शायद मुझे कहीं कोई और बंसीलाल भी मिल सकता.’ उन्होंने आगे कहा, ‘मैंने जो स्कीम बनाई थी उसमें आने वाले 30 सालों तक कोई चुनाव नहीं था, मैंने एक नोट भी बनाया था.’ उन्होंने उस नोट की एक प्रति मुझे भी दी जिसमें एक ऐसी नई व्यवस्था थी जो संसदीय नहीं बल्कि अध्यक्षीय थी यानी समग्र शक्तियां एक व्यक्ति पर ही केंद्रित थीं. यहां चुनाव प्रत्यक्ष नहीं बल्कि अप्रत्यक्ष थे. यानी सभी चीजें अप्रत्यक्ष रूप से ही ‘मैनेज’ की जा सकती थीं.

न्यायाधीश

इन सब के बीच मैंने सोचा कि मुझे इलाहाबाद जाकर उन जज (जगमोहन सिन्हा) से तो जरूर मिलना चाहिए. वहां पहुंच कर मैंने उनके घर के बारे में पता किया और उनके पास पहुंच गया. जब वे मुझसे मिले तब मैंने उनसे कहा कि जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा अचरज में डाला वो थी आपका फैसला आने से पहले उसके बारे में किसी को अंदाजा तक नहीं हुआ कि वो क्या होगा. ‘आपने ये कैसे किया?’ उनसे मिलने पर मैंने सबसे पहले यही सवाल पूछा. उन्होंने बताया कि उन्होंने केस के इतिहास आदि से जुड़े हिस्से अपने स्टेनो को बोलकर लिखवाए थे पर बाकी पूरा फैसला उन्होंने अपने हाथ से लिखा था. स्टेनो को भी फिर छुट्टी पर भेज दिया. उनके एक साथी जज ने सिन्हा को ये भी बताया कि उन्होंने किसी से ये भी सुना है कि धवन (आरके धवन, इंदिरा गांधी के निजी सचिव) सिन्हा को सुप्रीम कोर्ट का जज बनाने की सोच रहे हैं. ऐसा मुझे सिन्हा ने बताया कि वो साथी उन्हें कुछ और ही संदेश देना चाह रहे थे. और जैसा मैंने अपनी किताब ‘द जजमेंट: इनसाइड स्टोरी ऑफ द इमरजेंसी इन इंडिया’ में भी लिखा है कि चरण सिंह ने सिन्हा का पता लगाया और उन्हें सजा भी दी. सिन्हा ने मुझे बताया कि वे साधु-संतों को बहुत मानते थे तो उन्होंने (श्रीमती गांधी के मददगारों ने) कुछ साधु-संतों के मेरे पास भेजा जिससे कि वो मेरे फैसले के बारे में कुछ जान सकें. सिन्हा ने आगे बताया, ‘जब मैंने उनका पूरा गेम प्लान देखा और उस केस की सभी बहसों को पढ़ने के बाद नतीजे पर पहुंचा तो मेरे दिमाग में ये साफ हो चुका था कि उन्होंने (इंदिरा गांधी ने) अपनी शक्तियों का दुरुपयोग किया है और मैं उन्हें इसकी सजा दूंगा’. सिन्हा पर काफी दबाव डाला गया… उनके परिवार को परेशान किया गया पर न ही वे नरम पड़े न ही अपने फैसले से डिगे.

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आपातकाल के विरोधी देश में आपातकाल लागू होने से पहले एक रैली को संबोधित करते जयप्रकाश नारायण

सलाहकार

फैसले के बाद जब इंदिरा गांधी को पद से हटा दिया गया था तब वे दिल्ली में ही थीं और एक समय पर उन्होंने गंभीरता से राजनीति को छोड़ने का सोचा था. पर तब संजय ने मोर्चा संभाला. वो रैलियां आयोजित करते जिसमें धवन सारी जिम्मेदारियां और व्यवस्था देखते, जिससे श्रीमती गांधी को ऐसा लगे और विश्वास हो जाए कि जनता इस निर्णय को जजों के द्वारा की गई एक साजिश के रूप में देख रही है. इस निर्णय के बाद और आपातकाल के पहले प्रेस स्वतंत्र था. प्रेस पर दबाव तो था पर इंदिरा गांधी की परेशानी का सबब था कि प्रेस लगातार इस बारे में लिख रहा था, लोग भले ही डरे हुए थे पर वो अब इस बारे में बात करने लगे थे कि अब वो क्या कर सकती थीं? या तो वो ये सब छोड़ देती या इससे निपटने का कोई और रास्ता तलाशतीं. ऐसे में सिद्धार्थ शंकर रे (पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री) ने उन्हें आपातकाल लगाने की सलाह दी. यानी आपातकाल के पीछे के असली मास्टरमाइंड सिद्धार्थ शंकर रे ही थे. मुझे याद है उस रात या अगली सुबह मुझे कलकत्ता जाना था और रे और मैं एक ही फ्लाइट में सफर कर रहे थे. वो बार-बार कॉकपिट में जा रहे थे. ये मुझे बाद में पता चला कि वो इस बारे में पूछ रहे थे कि आपातकाल की आधिकारिक घोषणा हुई या नहीं! नियमानुसार आपातकाल कैबिनेट से सलाह लेने के बाद ही लगाई जा सकती है पर यहां ऐसा कुछ नहीं हुआ था. उन्होंने (इंदिरा गांधी) कैबिनेट की मीटिंग बाद में बुलाई यानि ये घोषणा और बाकी सब निर्णय पूर्वव्यापी थे.

कमलापति त्रिपाठी

मुझे याद है दिल्ली में एक समय था जब जगजीवन राम को लगता था कि आपातकाल अस्थायी होगा और शायद श्रीमती गांधी उन्हें अगले चुनाव में प्रधानमंत्री पद के लिए चुनेंगी पर उनके (श्रीमती गांधी) दिमाग में कोई और ही नाम था, पुराने वफादार और उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी.

शाह कमीशन

1977 में भारत सरकार द्वारा शाह कमीशन का गठन किया गया. इसका मूल उद्देश्य आपातकाल के दौरान यानी 1975 से 1977 के बीच हुई ज्यादतियों के बारे में पता करना था. इसके अध्यक्ष जस्टिस जेसी शाह थे जो इससे पहले देश के चीफ जस्टिस रह चुके थे. उन्होंने जांच की और बताया कि आपातकाल घोषित होने के पीछे कोई खुफिया रिपोर्ट या सूचना नहीं थी. न लॉ और आर्डर को कोई खतरा था, न ही उसकी कार्यप्रणाली में कोई व्यवधान पड़ रहा था. ऐसा कहीं कुछ गड़बड़ नहीं था, कहीं नही. शाह कमीशन के अनुसार आपातकाल सिर्फ इंदिरा गांधी के उनके खिलाफ आए इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले से खुद को बचाने का प्रयास था, जिसमें उन्हें छह साल के लिए चुनावों के लिए अयोग्य ठहराया गया था. पर श्रीमती गांधी का असली बचाव जस्टिस कृष्णा अय्यर ने किया, जिन्होंने कहा था कि हां, इंदिरा गांधी संसद में भाग ले सकती हैं, उनके पास सभी अधिकार होंगे बस वो केवल मतदान नहीं कर सकतीं. तो इस तरह असली मदद तो जस्टिस कृष्णा अय्यर ने ही की हालांकि वो एक वामपंथी थे.

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आपातकाल का मास्टरमाइंड सिद्धार्थ शंकर रे (बांए से दूसरे) ही वो व्यक्ति थे, जिन्होंने इंदिरा गांधी को आपातकाल लागू करने की सलाह दी थी

प्रेस सेंसरशिप और मीडिया की भूमिका

इंदिरा गांधी मीडिया को खामोश कर देना चाहती थीं और इसीलिए प्रेस सेंसरशिप और बिना किसी जांच के लोगों को नजरबंद और हिरासत में लेना शुरू हुआ. मुझे याद है कि मैं उस वक्त प्रेस काउंसिल का सदस्य था और अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज थे. मैंने उनसे कहा कि वो एक मीटिंग बुलाएं और इस सेंसरशिप के विरोध में निंदा प्रस्ताव पारित करें. इस पर उन्होंने कहा, ‘इसका क्या फायदा होगा? कोई भी इसे (निंदा प्रस्ताव) नहीं छापेगा.’ मैंने कहा इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई इसे छापे या न छापे, कम से कम ये बात इतिहास में दर्ज तो होगी कि इस ज्यादती के खिलाफ कोई स्टैंड तो लिया गया था. तब उन्होंने कहा, ‘मैं कुछ स्थानीय सदस्यों से बात कर के देखता हूं.’ आपको ये जानकार बहुत आश्चर्य होगा कि प्रेस काउंसिल के एक भी स्थानीय सदस्य ने मेरा साथ नहीं दिया. जब भी मैं वो सब याद करता हूं, मुझे बस डर का माहौल ही याद आता है… पत्रकार डरे हुए थे. और श्रीमती गांधी तो आपातकाल के निर्णय पर कह भी चुकी थीं कि एक कुत्ता भी नहीं भौंका (नॉट अ सिंगल डॉग बार्क्ड). उनसे मिलने के बाद कुछ व्यक्तियों ने मुझे बताया कि उस वाक्य में वो मुझे संबोधित कर रहीं थीं.. ‘वो संपादक जो हेडलाइंस लगाता था, लिखता था, देखो उसका क्या हाल हुआ!’

‘उस नोट में एक ऐसी व्यवस्था का जिक्र था जो संसदीय नहीं बल्कि अध्यक्षीय थी यानी समग्र शक्तियां एक व्यक्ति पर ही केंद्रित थीं. यहां चुनाव प्रत्यक्ष नहीं बल्कि अप्रत्यक्ष थे’

मैं आपातकाल हटाने (क्योंकि ये लोकतंत्र के खिलाफ थी) और सेंसरशिप के खिलाफ एक निंदा प्रस्ताव बनाकर उस पर पत्रकारों के दस्तखत लेने के लिए अखबारों के दफ्तरों में घूमता था. विद्याचरण शुक्ल, जो आपातकाल के दौरान सूचना एवं प्रसारण मंत्री थे, मेरे मित्र थे. उन्होंने मुझसे पूछा, ‘वो दस्तखत किया हुआ प्रेमपत्र कहां हैं? मैं उन पत्रकारों को ठीक करता हूं.’ मैंने कहा, ‘मुझे माफ करें, मैं वो आपको नहीं दे सकता.’ वो बोले, ‘अच्छा ठीक है, पर कम से कम आ कर मुझसे मिल तो लो.’ फिर मैं उनसे मिलने गया. उन्होंने मुझे ये कहकर धमकाया कि हो सकता है मुझे गिरफ्तार कर लिया जाए. मैंने कहा, ‘क्या होगा यदि मुझे गिरफ्तार कर भी लिया गया? मैंने तो यही सुना है कि सभी नेता कभी न कभी गिरफ्तार हुए थे और गिरफ्तारी के बाद उनका राजनीतिक कद बढ़ा ही था.’ मैंने श्रीमती गांधी को एक पत्र (बॉक्स देखें) लिखा था जिसमें मैंने नेहरू की बात दोहराई थी, ‘मैं एक दबे या सुनियंत्रित प्रेस की तुलना में एक पूरी तरह से स्वतंत्र प्रेस को तरजीह दूंगा भले ही उसमें इस स्वतंत्रता के दुरुपयोग का खतरा ही क्यों न शामिल हो.’ हिरासत में तीन महीने रहने के बाद जब मैंने दोबारा शुरुआत करने की कोशिश शुरू की तब भी किसी पत्रकार ने मेरा साथ नहीं दिया. हर कोई अपनी नौकरी खोने या जेल जाने के डर से भयभीत था. गिरिलाल जैन, जो तब टाइम्स ऑफ इंडिया के साथ थे, ने तो मुझसे तो पूछा भी था कि जेल में शुष्क शौचालय होते हैं या फ्लश शौचालय! मैंने कहा, ‘शुष्क.’ वो बोले, ‘ये तो समस्या है.’ बात को न बढ़ाकर अगर मोटे तौर पर समझें तो हां पत्रकारों पर दबाव था, पर जैसा लालकृष्ण आडवाणी ने कहा है कि जब उन्हें झुकने को कहा गया तब वो रेंगने लगे. समय बदल रहा था. अब मालिक ताकतवर हो गए थे क्योंकि उन्होंने देख लिया था कि वो पत्रकार जो बड़े-बड़े लेख लिखते हैं, कितनी आसानी से सरकार के काबू में आ गए. तो यहां दबाव सरकार का नहीं बल्कि मालिकों का था. सरकार मालिकों से संपर्क साधती और उनके माध्यम से प्रेस को संचालित करती.

जेपी आंदोलन

जेपी आंदोलन ने एक अलग ही तरह का माहौल तैयार कर दिया था, जो बहुत जरूरी भी था. उस समय राजनीति में भ्रष्टाचार को लेकर कोई संदेह ही नहीं रह गया था क्योंकि ओडिशा में नंदिनी सतपथी पर अपने चुनावी अभियान में भ्रष्टाचार करने के आरोप लग चुके थे. जेपी ने इंदिरा गांधी से शिकायत भी की थी कि एक चुनावी अभियान पर इतना धन क्यों बर्बाद किया जा रहा है. हालांकि श्रीमती गांधी ने इस बात से साफ इंकार किया कि चुनावों में अधिक धन खर्चा गया है.

पीएन हक्सर

पीएन हक्सर (जो इंदिरा गांधी के प्रधान सचिव थे) का सिर्फ ये कहना था कि अब समय आ गया है कि अपने समाजवाद के उस सपने को वास्तविकता में बदला जाए जिसके बारे में उन्होंने स्कूल-कॉलेज में पढ़ा था. उन्होंने मुझसे कहा कि अब ये काम करने का समय है. हालांकि सच ये है कि हक्सर ने कुछ समय तक इस उम्मीद में संजय गांधी का साथ दिया था कि शायद ये कोई नई तरह की व्यवस्था है, एक नया निजाम है पर वामपंथी होने की वजह से संजय ने उन्हें सचिव के पद से हटा दिया. इस पद से हटा कर उन्हें योजना आयोग भेज दिया गया. ये बिलकुल वैसा ही था जैसा उनसे पहले इंदर कुमार गुजराल के साथ हुआ था. गुजराल को भी तब योजना आयोग का रास्ता दिखा दिया गया था जब उन्होंने संजय गांधी से कहा था कि वो उनकी मां की कैबिनेट के मंत्री हैं और संजय उन्हें आदेश नहीं दे सकते.

गुजराल को तब योजना आयोग का रास्ता दिखाया गया जब उन्होंने संजय गांधी से कहा कि वो प्रधानमंत्री के कैबिनेट मंत्री हैं, संजय उन्हें आदेश नहीं दे सकते

प्रणब मुखर्जी

प्रणब मुखर्जी भी इन सब का हिस्सा थे. भले ही आज वे अपने संस्मरण में कुछ भी कहें, वो इस बात से हट नहीं सकते क्योंकि उस दौर में वो संजय गांधी के दाएं हाथ जैसे थे, उनके खासमखास थे. वस्तुतः तो उन्हें उस उच्च संवैधानिक दफ्तर का भी प्रयोग नहीं करना चाहिए जहां बैठकर वो अपने संस्मरण लिखते हैं. हम उस कार्यालय का सम्मान करते हैं पर अब उस कार्यालय को चुनौती देना सही नहीं होगा.

मेरी गिरफ्तारी

मेरे गिरफ्तार होने के एक दिन पहले ‘मेनस्ट्रीम’ के निखिल चक्रवर्ती ने मुझसे कहा था कि अपना घर साफ कर लो. उसी दोपहर रामनाथ गोयनका ने मुझसे कहा, ‘मुझे नहीं पता वो तुम्हारे साथ क्या करने वाले हैं पर आजकल मैं जहां भी जाता हूं बस तुम्हारा ही नाम सुन रहा हूं… कि कैसे इस व्यक्ति ने लेख लिख-लिखकर इंदिरा गांधी के खिलाफ एक माहौल तैयार कर दिया है. वो सब तुम्हारे खिलाफ हैं.’  तो अगले दिन सुबह जब पुलिस मेरे घर आई तो मैंने उनसे कहा कि वो मेरे पूरे घर की तलाशी ले सकते हैं, पर वो बोले, ‘हम आपके घर की तलाशी लेने नहीं बल्कि आपको गिरफ्तार करने आए हैं!’ ये मेरे लिए अप्रत्याशित था क्योंकि इस बारे में तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था. इससे पहले मैं कभी जेल नहीं गया था तो जब मैं वहां पहुंचा तो मैंने देखा कि मेरे वार्ड में 28 और लोग भी थे. उनमें से अधिकतर जनसंघ के लोग थे. हालांकि मैं उनके खिलाफ लिखता था पर वे मेरा सम्मान करते थे. मेरी सुनते भी थे. जब उन्होंने मुझसे कहा कि वे लोग आने वाले स्वतंत्रता दिवस का बहिष्कार करने की सोच रहे हैं, तब मैंने कहा, ‘क्यों? हम क्यों स्वतंत्रता दिवस का बहिष्कार करें? हमें इंदिरा गांधी ने आजादी नहीं दिलाई! ये हमारे पूर्वजों ने एक लंबी लड़ाई लड़ कर हासिल की है, इसलिए हमें झंडा फहराना चाहिए और वो सहमत भी हुए.’ मुझे तब ही हिरासत में लिया गया था जब मैंने इंदिरा गांधी को वो पत्र लिखा था. पर मेरी पत्नी की बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका के बिना, इंदिरा में मुझे छोड़ा न होता. मेरा केस सुनने वाले जजों को बाद में ट्रांसफर या पद अवनति (डिमोशन) के रूप में सजा मिली. एक समय पर ओम मेहता (जो इंदिरा गांधी सरकार में गृह राज्यमंत्री, स्वतंत्र प्रभार थे) ने मुझसे पूछा था कि क्या मुझे जेल खराब लगी. ‘बहुत ज्यादा’, मैंने जवाब दिया. तो उस पर उन्होंने मुझे मुंहतोड़ जवाब देते हुए कहा कि आपको अशोका होटल थोड़े न भेजा था.

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जारी रहेगी प्रफुल्ल बिदवई की लड़ाई

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प्रफुल्ल जी के लिए ऐसे अचानक श्रद्धांजलि लिखनी पड़ेगी, कभी सोचा न था. मैं 1990 के शुरुआती वर्षों में अर्थनीति और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर उनके लेख पढ़ते हुए बड़ा हुआ. तब के अखबारी लेखक पीछे छूटते गए, लेकिन बाद में नई दिल्ली स्थित जेएनयू में अंतरराष्ट्रीय राजनीति में पीएचडी करते हुए भी उनका लिखा उतना ही काम आया. वे एक विद्वान, पेशेवर, प्रतिबद्ध पत्रकार और बुद्धिजीवी थे. परमाणु निरस्त्रीकरण और अणु ऊर्जा, दक्षिण एशिया से लेकर फिलस्तीन तक के मुद्दे, पर्यावरण की वैश्विक राजनीति और उसका जनपक्ष, सांप्रदायिकता और सेकुलरिज्म, बाजार का अर्थशास्त्र और लातिन अमेरिका के जन केंद्रित प्रयोग जैसे हर मुद्दे पर गहन रिसर्च और उनकी तह तक जाना उनकी खासियत थी. भारत के अकादमिक जगत और पत्रकारिता दोनों की व्यापक दरिद्रता के दौर में एक मिसाल थे प्रफुल्ल बिदवई.

वे कभी वामपंथी दल के मेंबर नहीं रहे. नंदीग्राम-सिंगूर से लेकर सामाजिक न्याय व अन्य लोकतांत्रिक मुद्दों पर खुली आलोचना की लेकिन वे वामपंथ के भरोसेमंद दोस्त थे, इसमें किसी को कभी कोई शक न हुआ.

1977 में उन्होंने परमाणु ऊर्जा विभाग पर खोजी रिपोर्ट लिखी और सुरक्षा-खामियों को सार्वजनिक करने पर देशद्रोही तक कहलाए, 1984 में भोपाल गैस कांड  के बाद उनके पड़ताली लेख इंसाफ तलाशते भुक्तभोगियों का संबल बने. 90 के दशक में सांप्रदायिकता के तांडव और बाजार की नृशंसता पर उनकी कलम ने चोट किया. 1998 में युद्धप्रेमी राष्ट्रवाद के कानफोड़ू शोर के बीच उन्होंने निर्भीकता से परमाणु परीक्षणों की निंदा की और शोधपरक लेखों के माध्यम  समझाया कि क्यों अणु बम दक्षिण एशिया में सुरक्षा नहीं देते बल्कि हमें हथियारों की होड़ में झोंकते हैं और पश्चिमी देशों पर निर्भर बनाते हैं.

परमाणु मुद्दे से उनका केंद्रीय सरोकार रहा और मनमोहन सिंह सरकार के तहत हुई परमाणु डील का प्रफुल्ल बिदवई ने मुखर विरोध किया. उसके राजनीतिक, पर्यावरणीय और मिलिट्री खतरों से आगाह किया. 2010 में परमाणु दुर्घटनाओं से होने वाले नुकसान की भरपाई का बोझ विदेशी कंपनियों से हटाकर भारतीय आमजन के कंधे पर डालने की सरकारी कोशिशों के विरोध में उन्होंने डटकर लिखा और बोला. 2011 में जापान के फुकुशिमा परमाणु दुर्घटना के बाद एक बार फिर उन्होंने भारत में सुरक्षा कमियों और अणु ऊर्जा के अंतर्निहित व असाध्य खतरों ओर ध्यान दिलाया और इस प्रकरण में जुबानी सरकारी आश्वासनों की पोल भी खोली. उसी दौरान महाराष्ट्र के जैतापुर, तमिलनाडु के कुडनकुलम, गुजरात के मीठीविर्दी, आंध्रप्रदेश के कोव्वाडा, हरियाणा के गोरखपुर व देश के अन्य कई इलाकों में प्रस्तावित अणु ऊर्जा परियोजनाओं खिलाफ स्थानीय ग्रामीणों के आंदोलनों का सशक्त समर्थन किया.

पिछले साल जब मोदी सरकार ने आते ही वह आईबी रिपोर्ट जारी की जिसके अनुसार कुछ ‘देशद्रोही’ लोग व संस्थाएं ‘विकास’ से जुड़ी परियोजनाएं रोककर भारत की वृद्धि दर दो प्रतिशत कम कर रहे हैं, तो उसमें प्रफुल्ल और उनके बनाए परमाणु बम व अणु ऊर्जा विरोधी मंच ‘सीएनडीपी’ का नाम शुरुआती पन्नों पर था. तब मोदी का शबाब चरम पर था लेकिन प्रफुल्ल बिदवई ने कॉनस्टीट्यूशन क्लब में प्रेसवार्ता कर निडरता से इस दुष्प्रचार का मुंहतोड़ दिया और सरकार को आरोपों को साबित करने की खुली चुनौती दी. विकास की जनविरोधी परिभाषा को अंतिम सत्य मानकर उसे पुलिस मैन्युअल में बदल देने और सभी असहमतों को ठिकाने लगाने वालों को दी गयी प्रफुल्ल बिदवई की वह चुनौती हमें आगे बढ़ानी है.

परमाणु डील के मुद्दे पर विपक्ष में रहते समय विरोध करने वाली भाजपा के मौजूदा प्रधानमंत्री हर विदेशी दौरे में परमाणु समझौतों और मुआवजे की शर्तों में विदेशी कंपनियों के ढील देने को ट्रॉफी तरफ चमकाते हैं. इन करारों की आखिरी मार उन किसानों-मछुआरों पर पड़नी है जिनके यहां फुकुशिमा के बाद पूरी दुनिया में नकारे गए ये परमाणु प्लांट लगाए जा रहे हैं. प्रफुल्ल ने मोदी सरकार के एक साल पूरे होने पर शायद जो आखिरी लेख लिखा, वह आने वाले कई सालों तक हमें दिशा दिखाएगा क्योंकि साल-निजाम बदलते रहते हैं लेकिन आम जनता और प्रफुल्ल बिदवई सरीखे उसके भरोसेमंद दोस्तों की लड़ाई जारी रहती है.

‘महिलाओं की समस्या सुनना मेरा काम है, लोग आरोप लगाते हैं तो लगाएं’

Barkha Singhआप पर एक गंभीर आरोप लगाया जाता है कि आपने दिल्ली महिला आयोग के अध्यक्ष पद का राजनीतिकरण कर दिया है. ऐसा लगता है कि दिल्ली महिला आयोग एक पार्टी विशेष के लोगों के खिलाफ कुछ ज्यादा ही सक्रिय है.

जब से आम आदमी पार्टी की सरकार सत्ता में आई है तभी से आरोप लग रहे हैं. ये संयोग ही है कि जब इस पार्टी की पिछली सरकार थी तब भी उनके एक नेता के खिलाफ शिकायत हुई और जब पार्टी दोबारा सत्ता में आई है तब भी शिकायतें मिल रही हैं. मुझे इस कुर्सी पर कांग्रेस की सरकार ने बिठाया था, लेकिन जिस वक्त मैं इस कुर्सी पर हूं तब मैं केवल आयोग की अध्यक्ष हूं मेरा काम है महिलाओं के हित के लिए उनके साथ खड़ा होना. उनकी मदद करना. उनकी रक्षा करने की कोशिश करना और पिछले कई सालों से मैं यही कर रही हूं. यहां कोई पार्टी-वार्टी नहीं है. यहां केवल पीड़िताएं आती हैं और हम पूरे मन से उनकी परेशानी और शिकायतें सुनते हैं. जब दूसरी बार इस पार्टी की सरकार बनी तो एक मामले में कुमार विश्वास का नाम आया. हम किसी को भी बुलाने नहीं जाते हैं. पीड़िता खुद आयोग के सामने आती हैं और जो मामला हमारे सामने आएगा हम उसका पक्ष सुनेंगे ही. आयोग का यही काम है. इसके बाद भी लोग आरोप लगाते हैं तो लगाएं.

क्या आपको लगता है कि दिल्ली महिला आयोग ने आप नेता कुमार विश्वास और दिल्ली के पूर्व कानून मंत्री सोमनाथ भारती के मामले को प्रेस के सामने ले जाने में थोड़ी जल्दबाजी की? आप पर आरोप है कि इन दोनों ही मामलों को सुलझाने की कोशिश करने के बजाय आपने प्रेस वार्ता आयोजित करने में ज्यादा रुचि ली.

देखिए… ऐसा है. आरोप चाहे जो भी लगाए जाएं. सच्चाई यह है कि मैंने दोनों ही मामलों में प्रेस वालों को बुलाने या उन्हें कुछ बताने की कोई कोशिश नहीं की. सोमनाथ भारती पर इससे पहले भी एक मामला बना था तब वो दिल्ली के कानून मंत्री थे. उस वक्त नाइजीरियन महिलाएं खुद आयोग के सामने उनके खिलाफ आरोप लेकर आई थीं. उस वक्त भी मुझ पर यह आरोप लगाया गया था कि हमने प्रेस को बताया कि महिलाओं ने शिकायत की है. मीडिया के लोग खुद बहुत सक्रिय रहते हैं अगर उन्हें किसी मामले की जानकारी हो जाती है और वो उसे खबर बना देते हैं. इसमें मैं कुछ नहीं कर सकती. इस बाबत लोगों ने आयोग से आरटीआई के माध्यम से भी जानकारी मांगी है. उन्हें भी हमने यही कहा कि आयोग ने कोई प्रेस वार्ता आयोजित नहीं की थी.

सोमनाथ भारती की पत्नी लीपिका मित्रा आपके घर पर प्रेस से बात कर रही थीं. जब वहां सोमनाथ भारती की मां आईं तो आपने उन्हें अपने घर में आने से रोक दिया. आपने उन्हें दफ्तर आने को कहा… क्यों?

बिल्कुल. यहां यह समझना होगा कि कौन किस इरादे से क्या कर रहा है. आप मेरे दफ्तर आए हैं. बाहर लोगों की भीड़ खड़ी है. वो सब महिलाएं हैं. मैं सबको सुनूंगी. जिस कुर्सी पर मैं बैठी हूं उसकी यही जिम्मेदारी है. इनमें से एक भी महिला मुझसे नाराज होकर नहीं जाएगी. मेरी न तो सोमनाथ भारती से दुश्मनी है और न ही मुझे उनकी माताजी से कोई परेशानी है. उस दिन भारती ने अपनी दो महिला वकीलों को मेरे घर में जबरदस्ती घुसवा दिया. ये कहां से सही है? मैं किसी मामले को तमाशा बनाने में विश्वास नहीं करती. बाद में मैंने अखबार में विज्ञापन देकर सोमनाथ भारती की मां को बुलाया. उस दिन उनकी माता जी अपने आप वहां नहीं आई थीं, उन्हें भेजा गया था. अब वो आएं. दफ्तर में आएं. घर पर आएं. जहां चाहे वहां आएं और मिलें लेकिन अब वो नहीं आएंगी. कई बार बुलाने के बाद भी वो नहीं आईं. एक बात और बताना चाहती हूं. लीपिका ने अपनी सास के खिलाफ कभी एक शब्द नहीं बोला.

मुझे भी उस घटना का अफसोस है लेकिन एक बात सोमनाथ भारती को भी समझनी चाहिए. वो इतने पढ़े-लिखे हैं फिर भी वो अपनी मां का इस्तेमाल कर रहे हैं. ये शर्म की बात है.

…कुमार विश्वास के मामले में क्या हुआ?

उस मामले में तो कुमार विश्वास दोषी थे ही नहीं. हमने तो उन्हें बतौर गवाह आयोग के सामने आने के लिए कहा था क्योंकि जिस महिला का मामला था उसका पति बार-बार यह कह रहा था कि जब तक कुमार मीडिया के सामने यह नहीं कहेंगे कि उनका मेरी पत्नी से कोई संबंध नहीं है तब तक मैं उसे अपने साथ नहीं रखूंगा. हमने तीन दिन तक उस आदमी को यहां घंटों समझाया. वो गांव-देहात का आदमी था. हमारी कोई बात उसने नहीं मानी तब हमने कुमार विश्वास को बुलाने की बात कही. मैं क्या करती? जिस महिला का मामला था वो आम आदमी पार्टी की कार्यकर्ता थी. कुमार विश्वास जब अमेठी से चुनाव लड़ रहे थे तो वो उनके साथ थी. अव्वल तो यह मामला आयोग के सामने आना ही नहीं चाहिए था. कुमार विश्वास और अरविंद केजरीवाल को ही मामले को संभाल लेना चाहिए था लेकिन उन्होंने उसकी पीड़ा को समझा ही नहीं. उस बेचारी का पति आज भी उसे अपने से अलग रखता है.

‘मकान मालिक को तुमसे दिक्कत है, तुम अपने इलाके में जाओ’

pigeonsस्नातक की पढ़ाई के दौरान एक न्यूज चैनल में इंटर्नशिप करने दिल्ली आया था. साल 2013 के दिसंबर का सर्द महीना था. मेरा दोस्त नोएडा सेक्टर 12 में रहता था. उसने कह रखा था एक महीने की ही बात है मेरे यहां रह लेना. नई दिल्ली रेलवे स्टेशन उतरकर उसे फोन किया और उसके यहां पहुंच गया. सुबह तैयार होकर दफ्तर के लिए निकल गया. करीब सात दिन हुए होंगे. दफ्तर से वापस आकर कमरे पर सो रहा था कि किसी ने दरवाजे की घंटी बजाई. दरवाजे पर दो आदमी कुछ कागजात लेकर खड़े थे. इससे पहले मैं उनसे कुछ पूछ पाता उन्होंने एक साथ तीन-चार सवाल दाग दिए ‘कौन हो तुम? तुम तो यहां नहीं रहते? यहां जो रहता है वह कहां गया? आईकार्ड दिखाओ.’

मैं घबरा गया और सोचा ये क्या बला है. खैर मैंने उन्हें अपना नाम बताया और उनसे बैठने को कहा फिर दोस्त को फोन करके बुलाया. दोस्त ने आने के बाद मुझे अंदर जाने को कहा और उन लोग से बातचीत करने लगा. मैं फिर से सो गया. उठने के बाद दोस्त से पूछा कि वो लोग कौन थे और क्यों आए थे? उसने बताया, ‘वो ब्रोकर थे जिन्होंने ये मकान किराये पर दिलवाया है. ये पता करने आए थे कि यहां कोई और रहने आया है क्या, शायद मकान मालकिन ने उन्हें बता दिया है कि कोई और यहां रह रहा है. मैंने उन्हें बताया मेरा भाई है. कुछ दिनों में चला जाएगा पर वे माने ही नहीं, उनका कहना है तुम यहां नहीं रह सकते हो.’

मेरा नाम सुनकर न तो कोई ब्रोकर मकान देता, न मकान मालिक. कुछ की शर्त यह थी कि साथ में कोई हिंदू हो तब ही मकान देंगे

मैंने कहा कि उनसे कहो कि एक महीने का किराया ज्यादा ले लें. उसने कहा ठीक है कल ब्रोकर से मिलकर बात करते हैं. दूसरे दिन हम दोनों ब्रोकर से मिलने गए. बातचीत हुई हमने कहा कि एक महीने का किराया कुछ बढ़ाकर ले लो, उसमें क्या हर्ज है? ब्रोकर ने कहा हमें कोई हर्ज नहीं पर मकान मालकिन को है, वो भी तुमसे. मैंने मजाक में कहा, ‘क्यूं मैं कोई चोर हूं क्या?’ उन्होंने अजीब से लहजे में कहा, ‘नहीं, फिर भी मकान मालकिन को तुमसे दिक्कत है और उन्होंने मना किया है, इसलिए बोल रहा हूं कि तुम अपने इलाके में चले जाओ.’ मैंने पूछा अपना इलाका मतलब? पर उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया. मैंने कहा ठीक है मैं सीधा मकान मालकिन से ही बात करता हूं. तब उन्होंनेे कहा, ‘देखो मकान मालकिन अपने घर में किसी मुसलमान को नहीं रखना चाहती और हमें भी मुसलमानों का रेंट एग्रीमेंट बनवाने में दिक्कत आती है. इसलिए यहां मुसलमानों को किराये पर मकान नहीं मिलते. वैसे मुझे आप लोगों से कोई दिक्कत नहीं है पर मैं मजबूर हूं. किसी मुस्लिम इलाके में मकान ले लो आसानी से मिल जाएगा.’

यह सब सुनकर अजीब-सा लगा. जिंदगी में पहली दफा ऐसा महसूस हुआ मानो मैं औरों से अलग हूं. चूंकि तब तक मेरे साथ ऐसा कभी नहीं हुआ था इसलिए शायद मुझे ऐसा लग रहा था वरना आए दिन ये सब पढ़ने को मिल ही जाता है. जैसे ही हम वापस घर पहुंचे, मकान मालकिन दरवाजे पर खड़ी मिलीं, मैंने सोचा बात करके देखता हूं पर मेरे बोलने से पहले ही उन्होंने पूछ लिया कि कब जा रहे हो यहां से? मैंने कुछ भी बोलना मुनासिब न समझा और यह बोलकर ऊपर चला गया कि एक-दो दिन में चला जाऊंगा. उस दिन मकान मालकिन ने मेरे दोस्त की अच्छी तरह से खबर ली और मुझे जल्द भगाने को कहा.

खैर, दूसरे ही दिन से मैंने कमरा ढूंढना शुरू कर दिया पर वहां कमरा मिलना मुश्किल था. मेरा नाम सुनकर न तो कोई ब्रोकर मकान दे रहा था, न ही कोई मकान मालिक. उनमें से कुछ की शर्त यह थी कि साथ में कोई हिंदू हो तब ही मकान दिया जाएगा. मकान ढूंढने के दौरान मैं मकान मालकिन से छिपकर दोस्त के यहां आता था. जब भी आता दोस्त को फोन कर पूछ लेता था कि मकान मालकिन गेट पर तो नहीं है. इशारा मिलते ही मैं चुपके से अंदर चला जाता. फिर मैंने आसान रास्ता अख्तियार किया और जामिया नगर आ गया. यहां किसी को मेरे नाम की परवाह भी नहीं थी. शायद मुझे ‘अपने इलाके’ में छत मिल गई.

 

 

 

ब्रेकिंग न्यूज के बादशाह!

INDIA-RELIANCE

बीसवीं सदी की शुरुआत में बोर्ड पर खेले जाने वाले लूडोनुमा खेल ‘मोनोपोली’ ने, जिसे भारत में ‘व्यापार’ नाम से जाना गया, बाजार में दस्तक दी थी. इसे भूमि स्वामित्व और सामंतवाद की बुराईयों को उजागर करने के लिए तैयार किया गया था. बाद में पार्कर बंधुओं की ओर से इसमें किए गए बदलावों के बाद ये खेल मुक्त व्यापार, पूंजीवाद और व्यवसायीकरण के चारों ओर ही घूमने लगा. बोर्ड पर घूमते हुए खिलाड़ी संपत्ति की खरीद-फरोख्त करते हैं, घर और होटल बनाते हैं, अपने ‘शहरों’ पर किराया वसूलते हैं और अपनी विरासत बनाने का प्रयास करते हैं. इसके साथ ही विजेता अपने प्रतिद्वंद्वी को दिवालिया करने की कोशिश में भी लगा रहता है.

 अंबानी बंधु यानी बड़े भाई मुकेश और छोटे भाई अनिल की कार्यप्रणाली को देखें तो पता चलता है कि उनके दिमाग में भी कुछ ऐसी ही रणनीति चल रही है. वे देश के सबसे बड़े मीडिया समूह का निर्माण करना चाहते हैं. साथ ही अमेरिका, यूरोप, दक्षिण और पूर्वी एशिया, अफ्रीका और पश्चिम एशिया तक भी अपने पंख फैलाना चाहते हैं. अगर ये दोनों बेगाने भाई हाथ मिला लेते हैं- जैसा इन्होंने पिछले कुछ अवसरों पर किया है- तो वे अगले न्यूज कॉर्प, सीबीएस कॉरपोरेशन, टाइम वार्नर, बर्टेल्समैन एजी, वाल्ट डिज्नी, विवेंडी या सोनी की तरह एक बड़ा नाम बनकर उभर सकते हैं.

अगर उनकी योजनाएं सफल होती हैं तो उनके मीडिया साम्राज्य का विस्तार प्रिंट से लेकर ब्रॉडकास्ट और डिजिटल तक सभी क्षेत्रों में हो जाएगा. वे केबल, डायरेक्ट टू होम (डीटीएच), ऑप्टिक-फाइबर नेटवर्क (जमीन और समुद्र के भीतर भी), टेलीकॉम टावर और मल्टीप्लेक्स जैसी वितरण श्रृंखला के भी मालिक होंगे. डिजिटल और टेलीकॉम (2जी, 3जी और ब्रॉडबैंड) समेत वे विभिन्न मंचों पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराएंगे. इनके कंटेंट (विषय वस्तु) में समाचार, मनोरंजन, ई-कॉमर्स, सुरक्षा, वित्तीय सेवाएं, शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं और प्रशासन आदि शामिल होंगे.

अंबानी बंधु यानी मुकेश और छोटे भाई अनिल की कार्यप्रणाली को देखें तो पता चलता है कि वे देश के सबसे बड़े मीडिया समूह का निर्माण करना चाहते हैं

अगर ऐसा होता है तो न्यूज कॉर्प के मालिक रूपर्ट मर्डोक की तरह, अंबानी बंधु भी सूचना के क्षेत्र में दुनिया के सबसे बड़े निर्माता, अधिग्रहणकर्ता और प्रसारक में से एक हो सकते हैं. गौरतलब है कि मर्डोक ‘वाल स्ट्रीट जर्नल’ और ‘द टाइम्स’ (यूके) समेत 150 प्रिंट पब्लिकेशन, कई केबल और सेटेलाइट चैनलों और पब्लिशिंग हाउस के मालिक हैं. वे डीटीएच वितरण के क्षेत्र में भी हैं साथ ही डिजिटल प्लेटफार्म पर भी मौजूद हैं. वे फिल्म और टीवी सीरियल में भी पैसा लगाते हैं. उनके पास म्यूजिक गैलरी के अधिकार हैं. साथ ही प्रमुख खेल आयोजनों जैसे नेशनल फुटबाल लीग (यूएस) के टेलीविजन प्रसारण अधिकार हैं. इन सब के साथ ही वे सभी महाद्वीपों पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं.

कंटेंट के बादशाह

नेटवर्क 18 और ईटीवी समूह का अधिग्रहण करने के बाद मुकेश अंबानी की रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड (आरआईएल) अंग्रेजी, हिंदी, तेलुगू, उर्दू, बंगाली और गुजराती जैसी विभिन्न भाषाओं में कई चैनलों द्वारा रोज-ब-रोज प्रसारित होने वाले ढेर सारे कंटेंट तक पहुंच बना ही चुका है. ये कंटेंट प्राथमिक रूप से समाचार (मुख्यधारा और व्यापार) और मनोरंजन (फिल्म, संगीत, धारावाहिक और खेल) का मेल हैं. 2011 में आरआईएल ने स्कूली शिक्षा और डिजिटल लर्निंग पर केंद्रित डिजिटल प्लेटफार्म ‘एक्स्ट्रामार्क्स एजुकेशन’ को भी अधिग्रहित किया था.

अनिल ने ‘टीवी टुडे’ और ‘ब्लूमबर्ग टीवी’ के शेयर खरीदने के साथ ‘बीबीसी’ और ‘रेडियो नीदरलैंड्स’ जैसे अंतरराष्ट्रीय समाचार चैनलों से करार भी किया है

आरआईएल ने बार-बार सार्वजानिक रूप से कहा है कि उसका उद्देश्य ‘शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा, सुरक्षा, वित्तीय सेवा, मनोरंजन और सरकार-नागरिक इंटरफेस जैसे प्रमुख क्षेत्रों’ में अपनी मौजूदगी दर्ज कराना है. इरादा ये है कि उपभोक्ता आसानी से, डिजिटली उपलब्ध ‘नए कंटेंट’ तक पहुंचे, जिससे देश में एक नए डिजिटल युग की शुरुआत हो सके. मुकेश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ड्रीम प्रोजेक्ट ‘डिजिटल इंडिया’ में अपना योगदान देकर, उसे विस्तार देना चाहते हैं.

Reliance-10

छोटे भाई अनिल ने भी कंटेंट पर पकड़ कायम करने में खासी तरक्की की है. शुरुआत उन्होंने ‘टीवी टुडे’ और ‘ब्लूमबर्ग टीवी’ जैसे समाचार चैनलों के कम पर पर्याप्त शेयर खरीदने से की थी. मगर बाद में उन्होंने ‘बीबीसी’ और ‘रेडियो नीदरलैंड्स’ जैसे अंतरराष्ट्रीय समाचार सामग्री निर्माताओं से करार किया. उनका ‘आर वर्ल्ड’ नियमित रूप से दिनभर अंतरराष्ट्रीय खबरें देता है. हालांकि पिछले कुछ वर्षों से अनिल ने अपना ध्यान संगीत, फिल्म, खेल और मनोरंजन से जुड़ी दूसरी सामग्रियों की ओर केंद्रित किया है.

यूनिवर्सल म्यूजिक के साथ किए गए एक करार के अनुसार अनिल की कंपनी से जुड़े उपभोक्ता तीन लाख गानों में से अपनी पसंद चुन सकते हैं. उन्होंने कुछ प्रमुख फिल्म प्रोडक्शन हाउस, जिनके मालिक स्टीवन स्पीलबर्ग, जूलिया रॉबर्ट्स, ब्रैड पिट, निकोलस केज, जिम कैरी और टॉम हैंक्स जैसे फिल्मी सितारें हैं, के साथ भी एग्रीमेंट किए हैं. 2008 में अनिल ने स्पीलबर्ग के प्रोडक्शन हॉउस ‘ड्रीम वर्क्स’ के साथ 1.5 बिलियन डॉलर (तकरीबन 96 अरब 3 करोड़ 75 लाख रुपये) का व्यावसायिक गठबंधन किया था, जिसके तहत आने वाले पांच सालों में 30-35 फिल्में बनाने का लक्ष्य रखा गया लेकिन कुछ ही फिल्में बनाई जा सकीं.

इसके साथ ही ‘वार्नर होम वीडियो’ और ‘पैरामाउंट पिक्चर्स’ जैसी दुनिया की बड़ी कंपनियों से किए गए करार भी अनिल की फिल्म और म्यूजिक कंपनियों के कारोबार में इजाफा करेंगे. वार्नर के साथ हुए करार के तहत वे भारत, श्रीलंका और बांग्लादेश में उनकी वीसीडी, सीडी और ब्लू-रे उत्पादों की बिक्री और वितरण कर सकते हैं. इस समूह के एक वरिष्ठ प्रबंधक के अनुसार, ‘यह विशेष लाइसेंस… न केवल इन दोनों पक्षों के लिए बल्कि फिल्म प्रेमियों के लिए भी फायदेमंद होगा.’ इन सबके साथ अनिल फिल्म रेस्टोरेशन (संग्रहण) के भी एक प्रोजेक्ट से जुड़े हुए हैं.

हालांकि अब तक अनिल के कुछ प्रयास ज्यादा सफल नहीं हुए, पर वे अब भी कंप्यूटर गेमिंग (जपाक डॉट कॉम, जंप गेम और इंडिया गेम्स का गठजोड़), सोशल नेटवर्क्स (अपने उपभोक्ताओं को फेसबुक, ट्विटर और लिंक्ड-इन के उपयोग की सुविधा देना) टीवी पर इंटरनेट, माइक्रोसॉफ्ट विंडो और क्लाउड कंप्यूटिंग के रूप में अप्रत्यक्ष सामग्री को लेकर बहुत ज्यादा उत्साही हैं. आने वाले समय में वे इन सभी सुविधाओं को डीटीएच, डिजिटल और मोबाइल क्षेत्र में भी लाना चाहते हैं.

बराबर के वितरक

टेलीविजन वितरण में अनिल अपने बड़े भाई से पहले ही शुरुआत कर चुके है. वे डीटीएच के सबसे बड़े कारोबारियों में से एक हैं. हाल ही में उन्होंने पुरानी कंपनी रिलायंस के साथ जुड़े चोटी के चार केबल मल्टी-सिस्टम-ऑपरेटर में से प्रमुख ‘डीजी केबल’ का भी अपनी डीटीएच कंपनी में विलय किया है. अब समूह की सभी टेलीविजन वितरण सेवाएं चाहे वो डीटीएच हो, केबल हो या इंटरनेट प्रोटोकॉल टीवी, इस नई व्यापारिक इकाई के साथ ही काम करेंगी. दो साल पहले ऐसी खबरें आई थीं कि अनिल अपने डीटीएच व्यवसाय को चेन्नई के सन ग्रुप को बेच सकते हैं, लेकिन ये सौदा हुआ नहीं. उनके पास देश-भर में सैकड़ों सिनेमाघर हैं, हालांकि उन्होंने मल्टीप्लेक्स कारोबार को बेच दिया है. देश-भर में उनकी कंपनी के लगभग 50 एफएम स्टेशन चलते हैं, एक रेडियो स्टेशन सिंगापुर में भी है जिसे 2008 में शुरू किया गया था.

इस दौड़ में बड़े भाई मुकेश भी पीछे नहीं हैं. हाल ही में उन्होंने पूरे देश में कारोबार करने के लिए एक केबल एमएसओ (मल्टीपल सिस्टम ऑपरेटर) लाइसेंस के लिए आवेदन किया है. विशेषज्ञों की मानें तो मुकेश की रिलायंस जिओ इंफोकॉम (आरजेआई) को मिलाकर कुल 150 आवेदकों को डिजिटल केबल वितरण की इजाजत मिल सकती है. ऐसी अफवाहें भी सुनी गईं है कि आरजेआई देश के सबसे बड़े चार या पांच केबल एमएसओ में से एक के 26 प्रतिशत शेयर की हिस्सेदारी चाहती है. वैसे भारत में समीर मनचंदा की सबसे बड़ी केबल डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी ‘डेन नेटवर्क्स’ में उनकी एक प्रतिशत से ज्यादा हिस्सेदारी है.

करार-दर-करार

मीडिया की सत्ता पाने के इस खेल में, दोनों भाइयों के लिए डिजिटल मोबाइल कंवर्जेंस सबसे फायदेमंद सौदा होगा. मुकेश के पास पूरे देश में 4जी (ब्रॉडबैंड) सेवा मुहैया कराने का लाइसेंस है. वो देश के 5000 शहरों और कस्बों यानी 90 प्रतिशत शहरी भारत और लगभग 2.15 लाख गांवों में 4जी सेवा देने के लिए 70,000 करोड़ रुपये का विशाल निवेश करने की योजना बना रहे हैं. एक तरह से देखा जाए तो यह मोदी के ‘डिजिटल इंडिया’ का निजीकृत स्वरूप होगा. 4जी और केबल के साथ, आरजेआई वायरलेस, वायरलाइन और केबल के जरिये कंटेंट  का वितरण कर सकती है.

जिन बड़ी वैश्विक परियोजनाओं में मुकेश ने निवेश किया है उनमें से एक ‘बे ऑफ बंगाल गेटवे’ (बीबीजी) परियोजना है. समुद्र के अंदर स्थापित 8000 किलोमीटर लंबी यह केबल व्यवस्था परियोजना मलेशिया और सिंगापुर को भारत (मुंबई और चेन्नई) और श्रीलंका के रास्ते पश्चिमी एशिया से जोड़ेगी. आरआईएल की एक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया, ‘बीबीजी निर्माण की योजना न सिर्फ दक्षिण-पूर्व एशिया और मध्य पूर्व के बीच संपर्क बनाएगी, बल्कि भारत, मिडिल ईस्ट और सुदूर पूर्व एशिया में बने हुए और नए बन रहे इंटर-कनेक्शन के जरिए यूरोप, अफ्रीका और सुदूर पूर्व एशिया को जोड़ेगी.’

अगर उनकी 4जी और ब्रॉडबैंड रणनीति चल पड़ती है तो वायरलाइन (ऑप्टिक फाइबर, पानी के भीतर व जमीनी केबल व्यवस्था) और वायरलेस (टेलीकॉम टावर) के रूप में आधारभूत संरचनाएं बनाना बहुत श्रमसाध्य काम होगा, इसलिए आरजेआई ने बीबीजी के अलावा टेलीकॉम कंपनी भारती एयरटेल के साथ भी एक समझौता किया है. ‘इंडीफिजीबल राइट टू यूज’ (तोड़ा न जा सकने वाला करार) समझौते के तहत भारती, आरजेआई को समुद्र के भीतर स्थापित अपनी आई2आई सबमरीन केबल पर डाटा क्षमता उपलब्ध कराएगा. गौरतलब है कि भारती एयरटेल की ये केबल भारत और सिंगापुर को जोड़ती है, जिसके लैंडिंग बिंदु भारत में चेन्नई और सिंगापुर में टुअस में हैं.

न्यूज कॉर्प के मालिक रूपर्ट मर्डोक की तरह, अंबानी बंधु भी सूचना के क्षेत्र में दुनिया के सबसे बड़े निर्माता, अधिग्रहणकर्ता और प्रसारक में से एक हो सकते हैं

 घरेलू स्तर पर, मुकेश अपने छोटे भाई से ऑप्टिक फाइबर नेटवर्क के उपयोग के लिए अनुबंध कर चुके हैं. अप्रैल 2013 में मुकेश ने अपनी 4जी सेवाओं को शुरू करने के लिए अनिल के 1.2 लाख किलोमीटर लंबे इंटरसिटी ऑप्टिक फाइबर नेटवर्क के इस्तेमाल करने के लिए 1200 करोड़ रुपये का भुगतान किया था. एक साल बाद, आरजेआई ने 5 लाख किलोमीटर लंबे इंटरसिटी फाइबर नेटवर्क के इस्तेमाल के लिए इसी तरह के एक अन्य समझौते पर दस्तखत किए. इसी तरह वायरलेस सेवाओं के प्रयोग के लिए, अनिल की कंपनी के जमीनी और छत पर लगे टेलीकॉम टावरों का इस्तेमाल करने के लिए मुकेश अपने छोटे भाई को 1200 करोड़ रुपये देने पर राजी हुए. इसी तरह के कई समझौते उन्होंने कुछ अन्य घरेलू कंपनियों के साथ भी किए, जिनके पास बड़ी संख्या में टेलीकॉम टावर हैं.

जैसा कि पहले बताया गया कि अनिल ऑप्टिक फाइबर और टेलीकॉम टावरों के नेटवर्क के मालिक हैं. 2जी और 3जी मोबाइल सेवाओं में सफल प्रवेश के बाद उन्होंने अपने बड़े भाई की तरह 4जी और ब्रॉडबैंड सेवाओं पर अपनी नजरें गड़ाई हुई हैं. इसके अतिरिक्त वे फ्लैग (फाइबर-ऑप्टिक केबल अराउंड द ग्लोब) के रूप में काम करने वाले समुद्र के भीतर केबल लिंक के भी मालिक हैं. साथ ही वे चीन से भारत होते हुए पूर्वी एशिया को जोड़ने वाले जमीनी केबल कनेक्शन के निर्माण संबंधी समझौते पर भी हस्ताक्षर कर चुके हैं. उनका एक नया प्रोजेक्ट ‘मेट्रो ईथरनेट’ है, जो सिनेमाघरों में डिजिटल फिल्म को दिखाने की सुविधा उपलब्ध कराता है.

 रणनीतिक साझेदारी

एक हालिया रिपोर्ट की मानें तो मुकेश ने सन समूह को खरीदने की कोशिश की है, सन समूह का ताना-बाना प्रिंट, प्रसारण, डिजिटल और रेडियो से लेकर केबल और डीटीएच वितरण तक फैला हुआ है. हालांकि आरआईएल और सन दोनों ही इस बात का खंडन कर चुके हैं- पर आरआईएल के एक प्रबंधक ने अनौपचारिक रूप से ‘तहलका’ को बताया कि सन के साथ कोई बात नहीं हुई है- हालांकि दोनों रणनीतिक साझेदारी कर सकते हैं. यह साझेदारी शेयर खरीदने से संबंधित भी हो सकती है जहां आरआईएल सन के कुछ शेयर खरीद सकती है या फिर सामग्री तथा वितरण में हिस्सेदारी ले सकती है.

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 एक वेबसाइट (www.newslaundry.com) में प्रकाशित एक हालिया लेख में यह दावा किया गया है कि आरआईएल संभवतः एक अन्य बड़े प्रसारक समूह एनडीटीवी के साथ भी एक डील साइन कर चुकी है, ये बिलकुल वैसी ही डील है जैसी आरआईएल ने नेटवर्क 18 समूह को आधिकारिक रूप से टेकओवर करने से पहले उनके साथ की थी. आरआईएल की एक पूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कंपनी ने शिनानो रिटेल (जो कि आरआईएल समूह का ही हिस्सा है) को 403.85 करोड़ रुपये दिए, जहां से ये पैसा विश्वप्रधान कॉमर्शियल नाम की एक और कंपनी तक पहुंचा. जब यह सौदा हुआ तब शिनानो रिटेल और विश्वप्रधान कॉमर्शियल का पता एक ही था. इसी वर्ष एनडीटीवी समूह की मुख्य संस्थापक कंपनी राधिका रॉय प्रणय रॉय प्राइवेट लिमिटेड को ठीक इतनी ही धनराशि 403.85 करोड़ रुपये अनसिक्योर्ड लोन (बिना किसी सिक्योरिटी के ऋण) के रूप में प्राप्त हुई थी. हालांकि कंपनी की बैलेंसशीट में इसके स्रोत का कोई उल्लेख नहीं था लेकिन आयकर विभाग का दावा है कि यह पैसा उसे विश्वप्रधान कॉमर्शियल से मिला. ये घटनाक्रम बिलकुल वैसा ही था जैसा आरआईएल ने नेटवर्क 18 के मामले में किया था. उस मामले में ऋण की राशि को बाद में इक्विटी और औपचारिक मालिकाना हक में बदल दिया गया.

एकाधिकार काे लेकर बेकरार

केबल टीवी, डिजिटल और टेलीकॉम और ऐसे ही कई कंटेंट और प्रचार-प्रसार के अन्य माध्यमों के स्वामित्व की जिस कोशिश में अंबानी बंधु लगे हुए हैं, वैसी स्थिति दुनिया में कहीं भी मौजूद नहीं है. ज्यादातर विकसित देशों में

क्रॉस मीडिया ओनरशिप पर प्रतिबंध है, यहां तक की मीडिया के बड़े खिलाड़ी भी इस तरह की संपूर्ण और विशाल उपस्थिति दर्ज करने की उम्मीद नहीं कर सकते. हालांकि मुकेश और अनिल को ये एहसास है कि भविष्य में

उन्हें तेज कदम बढ़ाने होंगे.

पिछले कुछ वर्षों में, भारत में आलोचकों और नियामकों ने क्रॉस मीडिया ओनरशिप को प्रतिबंधित करने के लिए काफी शोर मचाया गया है, जिससे मीडिया में एकाधिकारों और अल्पाधिकारों को रोका जा सके. उनमें से कुछ का तर्क ये भी है कि ऐसा हो ही चुका है. हाल ही में टेलीकॉम नियामक इस मुद्दे पर सूचना और प्रसारण मंत्रालय को अपनी सिफारिशें प्रस्तुत कर चुके हैं. हालांकि सरकार ने इन्हें खारिज कर दिया है, पर उन पर बढ़ता दबाव शायद मीडिया नीतियों में बदलाव ला सकता है.

वर्तमान में ऐसे कई व्यवसायी हैं जिनके पास मुकेश और अनिल के बराबर ही मीडिया संगठन हैं या उतने ही संसाधन हैं. लेकिन अंबानी बंधुओं समेत ये सब इस बात को जानते हैं कि इससे पहले कि क्रॉस-मीडिया ओनरशिप पर प्रतिबंध लगे, उन्हें अपने मीडिया साम्राज्य को एक मुकाम तक पहुंचा देना होगा. इस तरह के हालात में सरकार के लिए पूर्वव्यापी प्रतिबंध लगाना मुश्किल होगा और वो भविष्य के लिए ही सोचेगी. मीडिया के इस बोर्ड गेम में जो भी, जितनी जल्दी मोनोपोली (एकाधिकार) कायम कर लेगा, वही असली विजेता होगा.

किराये पर किचकिच

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महानगरों की सीमा के पार स्थित गांव, कस्बों और छोटे शहरों के लाखों बच्चों का सपना होता है कि वह महानगर में आकर अपनी पढ़ाई-लिखाई कर भविष्य के रास्ते संवारे. इनमें से अधिकांश युवाओं का सपना राजधानी दिल्ली से होकर गुजरता है. हर साल लाखों की संख्या में छात्र-छात्राएं अपना भविष्य बनाने दिल्ली की ओर कूच करते हैं. मगर दिल्ली जैसे महानगरों की हकीकत कुछ और है. यहां आने के बाद उनके जीवन का सफर संघर्ष में बदल जाता है. किराये का मकान खोजने से इस संघर्ष की शुरुआत होती. फिर किराया और मकान मालिकों के चंगुल में वे ऐसा फंसते हैं कि निकलना मुश्किल होता है.

 राजधानी वजीराबाद में रहकर यूपीएसी की तैयारी करने वाले संतोष कुमार आजमगढ़ से हैं. वे बताते हैं, ‘जब दिल्ली आया तो मेरे एक जानने वाले यहां पहले से तैयारी कर रहे थे. पहले सोचा था कि मुखर्जी नगर में रहूंगा, लेकिन यहां कमरा बिना प्रॉपर्टी डीलर के नहीं मिलता है. प्रॉपर्टी डीलर से यहां के महंगे किराये के बारे में पता चला. किसान परिवार से मेरे जैसे आए लड़कों का यहां रहना काफी मुश्किल है. फिर कुछ लोगों ने बताया कि बाइपास की दूसरी तरफ वजीराबाद है. वहां सस्ता मकान मिल जाता है.’

 वजीराबाद की कहानी ये है यहां सभी सुविधाएं नहीं मिलती हैं. नोट्स भी लेना हो तो उसके लिए मुखर्जी नगर आना होता है. इस वजह से काफी समय बर्बाद होता है. इसके अलावा वजीराबाद में बिजली और पानी की भी काफी दिक्कत होती है. सारा समय इन दिक्कतों से निपटने में ही खत्म हो जाता है. इसके इतर मुखर्जी नगर जैसे इलाकों में रहने वाले के लिए 12 हजार से लेकर 16 हजार रुपये तक किराया है. वहीं दिल्ली के दूसरे इलाकों में पांच से छह हजार रुपये में कमरे आसानी से मिल जाते हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय में आसपास के इलाकों में कमरों का किराया दिन-ब-दिन आसमान छू रहा है. हाल ये है कि तमाम इलाकों में नियम-कानून को परे रख मनमाना किराया वसूला जा रहा है. इस वजह से छात्र-छात्राओं को मजबूर होकर सड़क पर उतरना पड़ा. इसके लिए छात्र-छात्राएं दिल्ली रूम रेंट कंट्रोल मूवमेंट संगठन के बैनर तले पिछले कुछ दिनों से आंदोलन कर रहे हैं. इतना ही नहीं संगठन ने गांधी जयंती पर अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल करने का फैसला लिया है.

दिल्ली विश्वविद्यालय के लक्ष्मीबाई कॉलेज की छात्रा श्वेता सिंह हॉस्टल न मिलने की वजह से गांधी विहार में रहती है. श्वेता बताती हैं, ‘मैं बिहार के सहरसा के एक गांव से 12वीं करने के बाद दिल्ली पढ़ने आई. हॉस्टल के अलावा कहीं और रहना काफी महंगा पड़ता है. मेरे कमरे का किराया 12 हजार है. इसमें मेरे अलावा दो लड़कियां और रहती हैं. घर से सात से आठ हजार रुपये ही मिलते हैं. अचानक कोई खर्च आ जाए तो उतने पैसों में गुजारा करना मुश्किल हो जाता है.’

आंदोलन कर रहे छात्र-छात्राओं की मांग है कि दिल्ली किराया नियंत्रण अधिनियम, 1958 लागू किया जाए ताकि किराये की दर हर जगह समान हो

 दिल्ली रूम रेंट कंटोल मूवमेंट से जुड़कर आंदोलन कर रहे छात्र-छात्राओं की मांग है कि दिल्ली किराया नियंत्रण अधिनियम, 1958 लागू किया जाए ताकि किराये की दर हर जगह समान हो. एक जगह तीन हजार तो दूसरी जगह 13 हजार रुपये का किराया न वसूला जाए. संगठन का आरोप है कि राजधानी में मकान मालिक किराये की रसीद तक नहीं देते हैं. इसके अलावा किरायेदारों से ढंग से पेश भी नहीं आते हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय और उसके दूसरे कॉलेजों में चल रही दाखिले की प्रक्रिया के चलते राजधानी में इन दिनों कमरों के किराये में आग लगी हुई है और छात्र-छात्राएं मकान मालिकों के मनमाने किराये पर कमरा लेकर रहने को मजबूर हो रहे हैं. किराये पर कमरा लेने की प्रक्रिया कितनी जटिल और महंगी है इसे ऐसे समझा जा सकता है. हालात इतने बुरे हैं कि कुछ मकान मालिक खुद अपने मकान के एजेंट या प्रॉपर्टी डीलर बन जाते हैं या अपने किसी पड़ोसी को बना देते हैं. प्रक्रिया ये है कि किराये का कमरा दिलाने के एवज में एजेंट या प्रॉपर्टी डीलर 15 दिन का किराया अपने मेहनताने के तौर पर वसूलता है. इसके बाद छात्र-छात्राओं को मालिक को सिक्योरिटी मनी यानी एक महीने का किराया और एक महीने का किराया बतौर एडवांस चुकाना पड़ता है. मान लीजिए एक कमरे का किराया 10 हजार है. ऐसे में आपको पांच हजार यानी 15 दिन का किराया एजेंट को, 10 हजार रुपये सिक्योरिटी मनी और कमरे का एडवांस किराये के रूप में 10 हजार और देने पड़ते हैं. यानी 10 हजार कमरा लेते वक्त आपको कुल 25 हजार रुपये चुकाने पड़ते हैं, जो किसी छात्र के लिए अदा करना खासा मुश्किल होता है. इन परिस्थितियों में मकान मालिक खुद या उसका कोई करीबी एजेंट बन जाए तो उसे इस जटिल प्रकिया के चलते पांच हजार रुपये सीधे-सीधे मिल जाते हैं.

 दिल्ली रूम रेंट कंटोल मूवमेंट के संयोजक प्रवीण कुमार बताते हैं, ‘दिल्ली किराया नियंत्रण अधिनियम, 1958 में, वर्ष 1995 में संशोधन किया गया, लेकिन उस पर फिर कभी कोई बात नहीं की गई. दिल्ली सरकार ने भले ही बिजली-पानी की दर सस्ती कर दी हो लेकिन छात्र-छात्राओं से अब भी पुरानी दरों पर बिल वसूला जा रहा है.’ इन मांगों के समर्थन में अब तक 30,000 से अधिक लोगों ने मांगपत्र पर हस्ताक्षर किया है. दिल्ली विश्वविद्यालय के अध्यापक संघ भी इसके समर्थन में नजर आ रहे हैं.

 दिल्ली यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन (डूटा) की अध्यक्ष नंदिता नारायण कहती हैं, ‘दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए हर साल लाखों की संख्या में छात्र-छात्राएं आते हैं. मैं छात्रों की हर मांग का समर्थन करती हूं. गरीब छात्रों के लिए रियायती दरों पर भोजन, पानी और आवास उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है. विश्वविद्यालय और इसके हॉस्टलों के बाहर भी इसे लागू करना चाहिए.’

दिल्ली यूनिवर्सिटी स्टूडेंट यूनियन (डूसू) के उपाध्यक्ष परवेश मलिक कहते हैं, ‘हम लोग विश्वविद्यालय से लगातार हॉस्टल की संख्या बढ़ाने का लेकर बात कर रहे हैं. विश्वविद्यालय प्रशासन ने हमें आश्वासन दिया है कि जल्दी ही हॉस्टलों की संख्या बढ़ाई जाएगी. इसे लेकर हम दिल्ली सरकार से भी मिल चुके हैं. दिल्ली किराया नियंत्रण अधिनियम, 1958 छात्रहित में लागू होना चाहिए. दिल्ली विश्वविद्यालय में आइसा के अध्यक्ष अमन नवाज कहते हैं, ‘आइसा इस मामले को काफी समय से विश्वविद्यालय प्रशासन के सामने उठाती रही है, लेकिन डूसू में आइसा का प्रतिनिधित्व न होने के कारण प्रशासन हमारी बातों को सही तरह से नहीं सुनता है. आइसा दिल्ली रूम रेंट कंट्रोल मूवमेंट केे साथ है.’

दिल्ली विश्वविद्यालय अधिनियम की धारा 33 में हर छात्र-छात्रा के लिए अनिवार्य रूप से आवास की व्यवस्था करना विश्वविद्यालय की जिम्मेदारी बताई गई है. दिल्ली विश्वविद्यालय में हॉस्टल की संख्या काफी कम है, जिसकी वजह से छात्रों को मजबूरी वश बाहर कमरा लेकर रहना पड़ता है और मकान मालिक का अत्याचार सहना पड़ता है.

दिल्ली के वैसे तो लगभग सभी इलाकों में छात्र-छात्राएं रहते हैं, लेकिन मुख्य तौर पर मुखर्जी नगर, दिल्ली विश्वविद्यालय के आसपास के इलाकों में, लक्ष्मी नगर के आसपास और जेएनयू के आसपास रहते हैं. कमरा लेते वक्त किरायेदार उनसे तमाम तरह के सवाल पूछते हैं, फिर तमाम दस्तावेज मांगे जाते हैं.

देवघर झारखंड के मूल निवासी सौरभ पांडे लक्ष्मी नगर में रहकर सीए की तैयारी कर रहे हैं. उनका कहना है, ‘किरायेदार का पुलिस की ओर से सत्यापन होने के बाद और तमाम दस्तावेज जमा होने के बाद भी मकान मालिक किरायेदार को शक की निगाह से देखता है कि ये किराया देगा या भाग जाएगा. किराया देने में अगर एक दिन की भी देरी हो जाए तो मकान मालिक बेचैन होने लगता है और सामान तक बाहर फेंकने की बात करने लगता है.’

‘छात्र-छात्राएं घर वालों से किराये के लिए समय से पैसा लेते हैं, पर हमें समय से नहीं देते. समय पर हमें पैसा नहीं मिलेगा तो हम अपना काम कैसे करेंगे?’

दिल्ली विश्वविद्यालय के नजदीक ही क्रिश्चियन कॉलोनी है. मणिपुर के मांगचा यहां रहकर लॉ की पढ़ाई कर रहे हैं. पांच साल पहले वह डीयू में पढ़ाई करने के लिए आए थे. हॉस्टल न मिलने की वजह से उन्हें बाहर रूम लेकर रहना पड़ रहा है. उन्होंने डीयू से ही स्नातक किया है. जब पढ़ने आए तो तीन दोस्तों ने मिलकर विजय नगर में दो रूम का एक मकान 8000 रुपये महीने की दर से किराये पर लिया. लेकिन एक साल बाद ही मकान मालिक ने किराया बढ़ाकर 12 हजार रुपये कर दिया. वे बताते हैं, ‘इस वजह से कमरा छोड़ना पड़ा. क्रिश्चियन कॉलोनी में काफी दिक्कत है. कमरा थोड़ा सस्ता है मगर छोटा है. कॉमन वॉशरूम हैं, घर की हालत भी बहुत जर्जर है. पर किराया कम होने से लोग यहां रहने को मजबूर हैं.’

कमोबेश यही हाल दिल्ली के लाडो सराय में रहने वाली मेघा का है. वह एक साल पहले ही टोंक स्थित बनस्थली विद्यापीठ से बीटेक करने के बाद यहां गेट  की तैयारी करने आई हैं. वह बताती हैं, ‘मकान मालिक मकान देने से पहले दो महीने का सिक्योरिटी मनी मांगते हैं. एडवांस नहीं देने पर पीजी मिलना मुश्किल होता है. किराया देने में एक-दो दिन देरी हो जाए तो मकान मालिक काफी गंदे तरीके व्यवहार करते हैं.’

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 इन परिस्थितियों से दिल्ली आने वाले हर छात्र-छात्राएं रूबरू हो रहे हैं. इन सब दिक्कतों की मुख्य वजह दिल्ली किराया नियंत्रण अधिनियम, 1958 का लागू न होना है. इस कानून का मुख्य उद्देश्य किरायेदारों के हितों की रक्षा करना है. यह कानून मकान मालिक को किरायेदारों से ज्यादा किराया वसूलने और जबरदस्ती मकान से निकालने से प्रतिबंधित करता है. विश्व के लगभग 40 देशों में किराया नियंत्रण कानून मौजूद है. इस कानून के लागू होने के 30 साल बाद इसमें संशोधन कर दो बदलाव किए गए. पहला 3500 रुपये से ज्यादा किराया चुकाने वालों को इस कानून के दायरे से बाहर कर दिया गया. दूसरा, हर तीन साल पर 10 प्रतिशत तक किराया बढ़ाने का प्रावधान किया गया. इसके बाद 1995 में भारत सरकार ने दिल्ली किराया अधिनियम पास कर दिया. इसके तहत बाजार भाव के हिसाब से किराया तय करने और जरूरत पड़ने पर किरायेदार को मकान से बेदखल करने का प्रावधान कर दिया गया. किरायेदारों ने इसका विरोध किया तो सरकार को इसे वापस लेना पड़ा.

पढ़ाई करने के लिए दिल्ली आने वाले छात्र-छात्राओं के प्रति मकान मालिकों का नजरिया भी ठीक नहीं होता. मकान मालिकों का ये मानना है कि जो बच्चे यहां आते हैं उनके परिवार वालों के पास इतना तो पैसा होता है कि वे 10,000 या 12,000 रुपये तक किराया चुका सकंे. तभी वह इतने महंगे शहर में पढ़ने के लिए अपने बच्चों को भेजते हंै. इसे मकान मालिक सुखबीर मल्होत्रा की नजर से समझा जा सकता है. वे कहते हैं, ‘अगर इतना किराया नहीं दे सकते तो यहां क्यों पढ़ने आते हैं? हमने भी तो अपनी मेहनत के पैसे से घर बनाया है. अगर हमें समय से किराया न मिले तो हम अपने घर में इन्हें क्यों रहने दें? छात्र-छात्राएं अपने घर वालों से किराये के लिए समय से पैसा ले लेते हैं, लेकिन हमें समय से नहीं देते. अगर सही समय पर हमें पैसा नहीं मिलेगा तो हम अपना काम कैसे करेंगे? ये जब हमारे यहां रहने आते हैं तो काफी सभ्य बनकर आते हैं, बाद में कमरे पर पार्टी और हुल्लड़बाजी करते हैं.’ इस तरह की सोच वाले मकान मालिकों का मानना है दिल्ली किराया नियंत्रण कानून नहीं लागू होना चाहिए क्योंकि इससे सभी मकान मालिकों को दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा और छात्र-छात्राएं मनमानी करने लगेंगे.

2009 में दिल्ली में हाउस टैक्स संबंधी नियमावली बनाई गई थी, जिसके तहत हाउस टैक्स संपत्ति के क्षेत्रफल के हिसाब से तय किया जाता है. पहले यह संपत्ति पर मिलने वाले किराये पर तय किया जाता था, लेकिन क्षेत्रफल के हिसाब से हाउस टैक्स तय किए जाने के वजहों से मकान मालिक अब मनमाने तरीके से किराया वसूलने के साथ टैक्स की चोरी करता है. 2005 में शहरी क्षेत्रों के विकास के लिए जवाहर लाल नेहरू शहरी नवीकरण मिशन (जेएनएनयूआरएम) लागू किया गया था. इसके तहत शहरी क्षेत्रों में सात जरूरी सुधार होने थे. इनमें किराया अधिनियम में भी सुधार किया जाना था. दिल्ली की एक स्वयंसेवी संस्था पीआईएल वाच ग्रुप ने इस मिशन और इसके तहत किराया कानून से संबंधित किराया कानूनों की पड़ताल कर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है. इसमें बताया गया कि जेएनएनयूआरएम के शुरू होने के बाद किसी भी एक राज्य में किराये से संबंधित कानून में कोई बदलाव नहीं हुआ है. खैर, दिल्ली सरकार और उपराज्यपाल के बीच छिड़ी जंग में छात्र-छात्राओं से जुड़ा ये अहम मुद्दा कहीं खो सा गया है.

लुगदी, घासलेट, अश्लील, मुख्यधारा… साहित्य के स्टेशन

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मिलिट्री डेयरी फार्म, सूबेदारगंज, इलाहाबाद. लौकी की लतरों से ढके एस्बेस्टस शीट की ढलानदार छतों वाले उन एक जैसे स्लेटी, काई से भूरे मकानों का शायद कोई अलग नंबर नहीं था. हर ओर ऊंची पारा और लैंटाना घास थी. कंटीले तारों से घिरे खेत थे जिनके आगे बैरहना का जंगल था. घास में ट्यूबवेल की नालियों और बिना टोटियों वाले नलकों का पानी रिसता रहता था जिससे हमेशा तरोताजा रहने वाली ऊब मुझे पकड़ लेने के लिए घात लगाए दुबकी रहती थी. सत्तर के दशक के वे दिन बेहद बड़े होते थे.

हर तरफ इतनी ऊब कि घर के पास अस्तबल के घोड़े आधी रात को हिनहिनाते थे और दूर बाड़े में बंद जर्सी गायें तक सूनी दोपहरी से घबराकर चिल्लाती थीं… ऊपर से डेयरी फार्म के मिल्क प्लांट में सफेद वर्दी पहन काम करने वाले लगभग जल्लाद थे. वे मेरी उम्र के बच्चों को पुचकार कर प्लांट के अंदर बुला लेते थे और धमका कर केन के ढक्कनों में जबरदस्ती दूध पिलाते थे. दूध पीते समय हांफने और घुटी हुई सांसों से हमारी यातना का पता चलता था जिससे वे काफी खुश होते थे. यह ऊब ही थी जिससे त्रस्त होकर लड़के एयरगन या गुलेल से मारी गई कोई भी चिड़िया सूखी घास पर भून कर खा जाते थे, फ्रीजर से सांड़ों के सीमन चुरा के कई दिन शैतानी कल्पना में गोते लगाते थे कि किसी लड़की को इससे गर्भवती कर दिया जाए तो पैदा होने वाला बछड़ा या बच्चा कैसा होगा, मैं दबे पांव लेटर बाक्स में करीने से सजी चिट्ठियां पार किया करता था ताकि एकांत में पढ़कर जान सकूं कि यहां रहने वालों के पेट में और फौज के भीतर क्या चल रहा है.

मैं छठी या सातवीं में पढ़ता था. स्कूल में हमेशा से नींद आती थी क्योंकि वह मधुमक्खी का छत्ता था जिसमें टीचरों, छात्रों का अस्तित्व भन-भन-भन से ज्यादा कुछ नहीं था जो कभी कभार डंक भी मारते थे. पढ़ाई बोझ थी लेकिन बाहर पढ़ने का चस्का विकट था. साइनबोर्ड, सामानों के लेबल, लिफाफे, काॅपियों पर चढ़े अखबारों के कवर सब चाट जाता था फिर भी ऊब से छुटकारा नहीं था. छिपकर घोड़ों की प्रणयलीला देखने के बाद उफनाई बौराहट से भरकर स्टॉक यार्ड में घास के बंडलों पर कूदना पड़ता था, ट्यूबवेल की किलोमीटरों लंबी नाली में लेटकर शलजम खाते हुए दोपहर काटनी पड़ती थी. पढ़ना जादू जैसी चीज है जो उड़ाकर कहां से कहां ले जाती है, यह मैं अनपढ़ लोगों की आंखों में वीरानी और अचरज से भांपने लगा था.

पड़ोस में पंजाब से आए काफी गंभीर से लगते जयपाल सिंह उर्फ पप्पू भइया थे, जिनके पास एक स्टील की कंघी थी. इंटर पास करने में ही उनके घने बाल तिल-चावली हो चुके थे जिन्हें विनोद मेहरा स्टाइल में खूब जतन से संवारते थे. वे नीम के पेड़ के नीचे एक चारपाई पर लेटे हमेशा कोई मोटी किताब पढ़ते या क्रिकेट की कमेंटरी सुनते रहते थे. उनके रेडियो से अक्सर फूटने वाला एक गाना…जलता है जिया मेरा भीगी भीगी रातों में… मेरी जबान पर चढ़ गया था जिसके कारण मुझे शर्मिंदगी झेलनी पड़ती थी क्योंकि सुनने वालों के कान खड़े हो जाते थे और मैं काफी छोटा था. बाद में इसी गाने की धुन तुलसीदास से भी अधिक लोकप्रिय लेखक मस्तराम की सीलबंद किताबें पढ़ते हुए मेरे भीतर बजने लगती थी. बिहारी और घनानंद पर मुंह बिचकाने वाले हिंदी के पुरोधा अपनी कल्पित शालीन छवियों के खोल में घोंघों की तरह सिमटे रहे, इन्हीं किताबों ने कई पीढ़ियों को फर्जी धार्मिक लंतरानियों, नैतिकता, पवित्रता और संबंधों को आंधी की तरह मरोड़ देने वाली सेक्स की शक्ति की सहजता से परिचित कराया, फूहड़ तरीके से ही सही औरत-मर्द को समझने की अंतदृष्टि दी. जाड़े की एक दोपहर क्रिकेट कमेंट्री चल रही थी, आसमान में सरसराती पटरंगा और चांदतारा के पेंच लड़ रहे थे, जर्सी गाएं ऊब के मारे बिलबिला रही थीं, किताब नीचे गिर गई थी और पप्पू भइया खटिया पर मुंह खोले खर्राटे ले रहे थे. मैंने चुपचाप किताब उठा ली और घास पर लेटकर पढ़ने लगा.

वहां ब्लास्ट अखबार का एक रिपोर्टर सुनील था जो दरअसल बड़ा भारी जासूस था. वह लकी स्ट्राइक सिगरेट से धुएं के छल्ले बनाते हुए सोचता था, उसके पास एक बहुत पॉवरफुल बाइक थी और एक रिवॉल्वर था जिसे अनलोड करते समय सावधान न रहे तो कारतूस का खोखा सीधे थोबड़े पर लगता था. उसे एक मर्डर को खोलने का काम सौंपा गया था, उसने पता लगा लिया था कि हत्यारा लंगड़ा है जिसका एक जूता जमीन पर पूरा नहीं पड़ता और वह पूरी सिगरेट नहीं पीता. इसी सुराग के बूते उसे यकीन था कि वह उसे जल्दी ही पकड़ लेगा.

पप्पू भइया जब तक जागे तब तक मैं मटमैले मोटे पन्नों वाली आधी किताब भकोस कर किसी वयस्क में बदल चुका था जो हत्यारे को पकड़ने और बचने की तरकीबें सोचता हुआ दुनिया के दिलफरेब रहस्यों में खोया हुआ था. उन्होंने हैरत से देखते हुए अपनी किताब लेने के लिए हाथ बढ़ाया, मैने याचना के भाव से देखा, जिसका मतलब यह था कि आप मुझसे जो चाहे ले लें लेकिन यह किताब बस थोड़ी देर और मेरे पास रहने दें. मैंने किताब नहीं दी तो वे उठकर मेरी तरफ बढ़े मैं उसे पढ़ते-पढ़ते पीछे सरकने लगा. थोड़ी देर तक यह खिसकम खिसकाई चली फिर वह ठिठक गए. वह एक विरल क्षण रहा होगा. हम दोनों ने एक-दूसरे को पहचान लिया जो दरअसल उम्र में काफी फासला होने के बावजूद एक ही दुनिया के बाशिंदे थे. इत्तफाक था कि वह सुरेंद्र मोहन पाठक का उपन्यास था. वह प्रेमचंद, मुक्तिबोध, शमशेर, निराला, महादेवी, अज्ञेय या धर्मवीर भारती की भी कोई किताब हो सकती थी लेकिन उनमें तब न हम दोनों की रुचि थी न संवेदना कि उन्हें समझ सकें. यह बात अपनी जगह है कि इनमें से किसी ने जासूसी उपन्यास और क्राइम थ्रिलर नहीं लिखे जिनके जरिए हम हर कहीं अपराध की अचूक उपस्थिति, अपराधियों की पारदर्शी भूमिगत दुनिया और उन पर काबू पाने के विचित्र तरीकों जो खुद पुलिस वालों को अपराधियों में बदल देते हैं, के बारे में कोई अनुमान लगा सकें. फिर भी हम दोनों को कुछ वैसा उदात्त सा लगा जैसा शेक्सपियर, कालिदास या दोस्तोयेवस्की की रचनाओं को समझने वाले साहित्यिक लोगों को गहन विमर्श के बीच की चुप्पियों में महसूस होता है.

यह चरित्रों, उनके वर्णन की शैली और किताब में आए सभी की जिंदगियां जी लेने की असंभव इच्छा रखने वाले दो बेमेल रसिकों की साझा अनुभूति थी. इसके बाद उन्होंने मुझे जेम्स हेडली चेइज का उपन्यास ‘दुनिया मेरी जेब’ में पढ़ने को दिया. अक्सर वह किराए पर दो किताबें लाते थे, जिस किताब को नहीं पढ़ रहे होते उसे मैं चुपचाप उठाकर घरों के पिछवाड़े की ओर निकल जाता और पकड़ लिए जाने के डर से हड़बड़ी में असामान्य तेज गति से पढ़कर वापस कर देता था. गुलशन नंदा, कुश्वाहा कांत, प्यारेलाल आवारा, रानू, राजन-इकबाल सीरिज वाले सीएस बेदी, इब्ने शफी आदि को पढ़ना एकांत में प्रेमिका से मिलने जैसा असामाजिक काम था जिसका नतीजा घर वालों की नजर में मेरी पढ़ाई, जिंदगी और उनकी छद्म नैतिकता सबकुछ को तबाह कर सकता था.

इन किताबों ने रहस्यों को पचाकर भी गुमसुम बने रहने का जो आत्मविश्वास दिया उससे जल्दी ही मनोहर कहानियां और सत्यकथाएं पढ़ने का भी जुगाड़ बैठ गया. उन पत्रिकाओं के कटेंट से ज्यादा इंद्रजाल, वशीकरण, मर्दानगी, कुष्ठ रोग, बवासीर, भगंदर, कद बढ़ाने, गोरा बनाने, शराब छुड़ाने, यौन रोगों से मुक्ति दिलाने वाली दवाओं के विज्ञापन आसपास के लोगों के असल व्यक्तित्वों के बारे में बताते थे जो इन्हें वीपीपी से मंगाने के बारे में बड़ी हसरत से बात किया करते थे. वही यह भी बताते थे कि फलां की वीपीपी में कैमरे की जगह ईंट या दवाओं की जगह खड़िया का चूरा निकला, यह सब कुछ फरेब है. एक विज्ञापन जोरो शॉट रिवाल्वर का था जो जानवरों को डराने, आत्मरक्षा और नाटकों में इस्तेमाल के लिए था. साथ में 12 कारतूस मुफ्त थे, जिसे पैसे जुटा लेने के बाद भी मंगाने की हिम्मत नहीं जुटा पाया. तब की वीपीपी अब मुझे जिंदगी के रूपक जैसी लगती है जिसमें एेन वक्त पर ऐसा कुछ हो जाता है कि बड़ी हसरतें पूरी नहीं होतीं.

आठवीं पास कर गांव लौटने पर मैंने पाया कि लुगदी साहित्य ने मेरे एक चाचा हरिश्चंद्र ‘हरीश’ को बदल दिया है. उन्होंने अपना उपन्यास ‘प्रतिशोध की ज्वाला’ खेत रेहन रखकर छपवाया था. वे बैक कवर पर अपनी फोटो वाली किताब घर आने वाले मेहमानों को सत्कार के बाद देते थे, पुस्तक भेंट के उन तरल क्षणों में उनके प्रधान पिता उन्हें लेखक नहीं, घर फूंकने वाले लेखक की देह के खास हिस्से पर उगे उपेक्षित बालों के गुच्छे की उपाधि से विभूषित कर रहे होते थे. उनके उपन्यास की शुरुआत ही काफी अविश्वसनीय तरीके से हुई थी जिसमें घोड़े पर भागती चंबल की एक डकैत, पुलिस फायरिंग के बीच पहाड़ी से कूद जाती है और अपने पेटीकोट में फिट पैराशूट के सहारे चकमा देकर बच निकलती है. संभवतः फूलन देवी से प्रेरित वह उनकी आखिरी किताब साबित हुई. उसके बाद उन्होंने स्कूल खोला, नाटक खेले, कविताएं लिखीं और धक्के खाते हुए लगभग तबाह हुए.

मुझे अब तक कम से कम दस ऐसे लोग मिले हैं जिन्होंने ऐसे उपन्यास लिखे और उनकी जिंदगी का एकमात्र मकसद उन्हें दुनिया के सामने लाना था. ऐसे लोगों में दिल्ली सरकार का परिवहन मंत्री गोपाल राय भी शामिल हैं, जिन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय में हुई एक झड़प में गोली खाने के बाद उपेक्षित हालत में गांव में रहते हुए दो रजिस्टरों में एक उपन्यास लिखा था. वे अनछपे रजिस्टर बहुत दिनों तक मेरे पास पड़े रहे. मैं मेरठ के रूढ़िवादी जाट परिवार की पांच बच्चों की उस मां के बारे में बताऊं जो अपने बड़े बेटे की उम्र के एक लड़के से प्यार करती थी, दो चोटियां बांधती थी और हमेशा गुलशन नंदा या रानू को पढ़ती रहती थी. ताश खेलना और छिप कर सिगरेट पीना उसका एक और शौक था. वह मरने के दिन तक ऐसी ही रही. उसका कहना था, अगर मैं ये नॉवेल न पढ़ती तो कब की मर गई होती. ऐसी महिलाओं की हमारे समाज में कमीं नहीं जिन्हें ये उपन्यास कल्पनाओं में मुकम्मल जिंदगी देते हैं. इन किताबों के लेखक मुझे जनता की नब्ज जानने वाले उन सांसदों जैसे लगते हैं जो जातिवाद, क्षेत्रवाद, प्रलोभन, आतंक और लोकप्रियता के घालमेल से हर बार चुनाव जीत जाते हैं और हिंदी की तथाकथित मुख्यधारा के लेखक टीवी चैनलों पर बैठे जमीन से कटे उन बौद्धिक चुनाव विश्लेषकों जैसे जो हमेशा गलत साबित होते हैं. हिंदी का औसत लेखक साल में जो न पढ़ी जा सकने लायक, अनजानी भाषा में एक-दो कहानियां लिख पाता है उससे कहीं अधिक दिलफरेब कहानियां अखबारों में हर दिन छपी मिलती हैं. उसका अपने पाठक से कनेक्ट टूट गया है इसलिए आमलोग प्रेमचंद के बाद के किसी लेखक का नाम तक नहीं जानते. लुगदी, घासलेट, अश्लील, तथाकथित मुख्यधारा ये छोटे छोटे स्टेशन हैं जो साहित्य की लंबी यात्रा में आते हैं. साहित्य निरंतर बदलते आदमी के धूसर, अज्ञात अब तक न कहे गए हिस्से को कहने की कोशिश ही तो है.

सुब्रत राय और सुप्रीम कोर्ट में ‘छत्तीस’ का आंकड़ा

subrata_roy_jpg_1424443fसहारा प्रमुख सुब्रत राय को एक बार ‌फिर सुप्रीम कोर्ट से झटका लगा और उन्हें जमानत नहीं मिल सकी. सुप्रीम कोर्ट ने सुब्रत राय को जमानत के लिए 5000 करोड़ रुपये की बैंक गारंटी और 5000 करोड़ रुपये नकद जमा कराने के लिए कहा है.फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि फिलहाल बैंक गारंटी दिए बिना जमानत नहीं दी जा सकती. इसके बाद अगर वो रिहा हो जाते हैं, तो उन्हें 9 किस्तों में 18 महीने के भीतर बाकी रकम जमा करानी होगी. पहली किश्त के तौर पर तीन महीने के भीतर तीन हजार करोड़ रुपये देने होंगे, जबकि बाकी रकम आठ किस्तों में चुकाने होंगे. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अगर राय लगातार तीन किस्तें चुकाने में नाकाम रहते हैं तो उन्हें और तिहाड़ में बंद सहारा के दो निदेशकों को हिरासत में ले लिया जाएगा.
राय को ब्याज सहित निवेशकों के 36 हजार करोड़ रुपये लौटाने को सुप्रीम कोर्ट ने कहा है. सुब्रत राय पिछले साल मार्च से तिहाड़ जेल में बंद हैं.कोर्ट ने उन्हें मार्च 2014 में निवेशकों के 24000 करोड़ रुपये लौटाने का आदेश दिया था, जिसे पूरा करने में सहारा राय नाकाम रहे. दरअसल सहारा समूह की दो कंपनियों सहारा इंडिया रियल स्टेट कॉरपोरेशन लिमिटेड और सहारा हाउसिंग फाइनेंस कॉरपोरेशन लिमिटेड ने साल 2007-2008 के दौरान निवेशकों से 24000 करोड़ इकट्ठा किए गए थे. कोर्ट ने यह रकम सहारा को 15 फीसद ब्याज के साथ निवेशकों को लौटाने के लिए कहा था. इस तरह कोर्ट ने सुब्रत राय को निवेशकों के कुल 36000 करोड़ रुपये लौटाने के लिए निर्देश दिया है. कोर्ट ने आदेश दिया है कि जेल से रिहा होने के बाद सुब्रत राय और अन्य आरोपियों को अपना पासपोर्ट जमा कराना होगा. साथ ही कोर्ट के आदेश पर ही वे विदेश यात्रा कर सकेंगे. भारत में भी कहीं आने-जाने के लिए उन्हें पुलिस को सूचना देनी होगी. ये सब तक करना होगा जब वे बैंक‌ गारंटी जमा करेंगे.

‘जो जिया सो लिखा, हवा-हवाई कुछ नहीं’

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आपके उपन्यास  ‘वर्दी वाला गुंडा’  की आठ करोड़ प्रतियां बिक चुकी हैं. ये रिकॉर्ड बिक्री है. इसके बनने की प्रक्रिया क्या थी?

प्रक्रिया लंबी थी पर मैं संक्षेप में बताता हूं. मैं जिस समाज से आता हूं वहां वर्दी का खौफ हमेशा से रहा है. इसके अलावा हर रोज किसी न किसी से एक ऐसी कहानी सुनने को मिलती थी जिसमें किसी पुलिस वाले की दबंगई शामिल रहती थी. ये सारी फुटकर कहानियां दिमाग में किसी कोने में कुलबुला रही थीं. एक शाम मैं अपने दोस्त के साथ टहल रहा था, तभी देखा कि उत्तर प्रदेश पुलिस का एक वर्दीधारी सिपाही नशे में धुत चौराहे पर इधर-उधर लाठियां भांज रहा है. उसे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था कि लाठी किसके माथे पर लग रही है, किसकी कमर पर. इस सिपाही को देखकर पहली दफा मेरे मन में ख्याल आया कि ये तो वर्दी की गुंडागर्दी है और इसी से ‘वर्दी वाला गुंडा’ नाम मेरे जहन में आया. मुझे लगा कि ये रोचक नाम है और फिर मैं इस नाम से उपन्यास लिखने लगा. थोड़ा लिखने के बाद महसूस हुआ कि कहानी में अभी दम नहीं है, कहानी कमजोर है. इसी दौरान एक दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना में राजीव गांधी की मौत हो गई और मैंने इस घटना को भी अपने उपन्यास में शामिल किया. लोगों ने इसे बहुत पसंद किया. मुझे लगता है कि पाठकों को कथानक से ज्यादा ‘वर्दी वाला गुंडा’ नाम पसंद आया.

छोटी उम्र में ही आपके पिता जी का देहांत हो गया था. किराये के जिस घर में आप रहते थे वो एक बारिश में ढह गया. निजी जीवन में एक के बाद एक कई दुख देखे हैं, लेकिन जो आप लिखते हैं उसमें वो दुख या पीड़ा नहीं दिखती. उसमें थ्रिलर होता है, रोमांस होता है. क्या जो जीवन में भोगा उसे लिखने का ख्याल कभी नहीं आया?

ऐसा नहीं है. मैंने वही लिखा जो अपने और दूसरों के जीवन से महसूस किया. आप जिसे दुख कह रहे हैं, मैं उसे एक तरह का थ्रिल मानता हूं. अपना-अपना नजरिया है. आपने सही कहा बचपन में ही मेरे पिता जी गुजर गए थे,जब मैं दस-बारह साल का था तब बारिश में हमारा किराये का घर ढह गया था.

आज जब मैं उन घटनाओं को याद करता हूं तो खास तरह का थ्रिल महसूस करता हूं. तब दुख हुआ होगा लेकिन आज उन दुखों को याद करके कांप जाता हूं. मेरे जैसा जीवन न जाने कितने लोगों ने जिया होगा. मैंने जो भी लिखा है वो जिया हुआ यथार्थ है, हवा-हवाई कुछ भी नहीं है. मेरे जीवन में जो दुख आए उन्हीं से यह सीख मिली कि चाहे कुछ भी हो रुकना नहीं है, आगे ही बढ़ना है.

समय-समय पर कई साहित्यकारों और जानकारों ने साहित्य को परिभाषित किया है. आपकी दृष्टि  में साहित्य के क्या मायने हैं? आपके विचार से साहित्य क्या है या किसे कहना चाहिए?

हमारे सामने ‘साहित्य’ की कई परिभाषाएं हैं. मैंने भी साहित्य की कई परिभाषाएं देखी-सुनी हैं, लेकिन इन सब में जो मुझे याद है या जिस परिभाषा से मेरी सहमति है वो है- साहित्य समाज का दर्पण है. मैं इस एक पंक्ति से ही साहित्य को समझता हूं. हालांकि हम जो लिखते हैं उसे कई लोग साहित्य न कहकर ‘लुगदी साहित्य’ कहते हैं जबकि हम वही लिखते हैं जो समाज में चल रहा होता है. हम समाज से ही कहानियां लेते हैं. हां, इन कहानियों में हम अपनी कल्पना जरूर डालते हैं. ‘वर्दी वाला गुंडा’ में उसी तरह की पुलिसवालों का जिक्र है जैसे हमारे बीच होते हैं.

जब मैंने देखा कि दहेज के लिए लड़कियों को जलाया जा रहा है, प्रताड़ित किया जा रहा है तो मैंने ‘बहू मांगे इंसाफ’ लिखी. इस उपन्यास को भी पाठकों ने बहुत पसंद किया. कई हजार पत्र मिले. थोड़े दिनों बाद मैंने ऐसी कई कहानियां सुनी जिसमें कुछेक परिवारों पर दहेज के फर्जी मामले दर्ज करा दिए गए थे. तब मैंने ‘दुल्हन मांगे दहेज’ लिखी. पाठकों ने इसे भी खूब सराहा. मेरे विचार से हम समाज से कहानियां लेते हैं और उसे आसान और रोचक तरीके से समाज को वापस करते हैं. अगर इसे कोई व्यक्ति साहित्य नहीं मानता है तो न माने, उसकी मर्जी है. मुझे केवल उन पाठकों से मतलब है जिन्होंने हर एक उपन्यास के बाद मुझे झोले भर-भर के पत्र लिखे हैं.

आखिर वे कौन लोग हैं जो तय करते हैं कि कौन-सा उपन्यास  ‘लुगदी साहित्य’  है और कौन-सा  ‘वास्तविक साहित्य’  है? क्या आप ऐसे किसी व्यक्ति या ऐसी किसी संस्था को जानते या मानते हैं?

(हंसते हुए) पचास साल उम्र हो गई है. लंबे वक्त से लिख भी रहा हूं. पाठकों का प्यार भी मिलता है लेकिन आजतक मैं ऐसे किसी व्यक्ति या ऐसी किसी संस्था को नहीं जान पाया हूं. जब जानता ही नहीं हूं तो मानने का सवाल कहां उठता है. हां, मैं अपने उन असंख्य पाठकों को जानता हूं जिनसे मुझे हर रोज मरते दम तक लिखते रहने की प्रेरणा मिलती है. जिसकी जो मर्जी हो कहता रहे, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. मुझे ऐसे किसी कथित साहित्यिक उपन्यास का लेखक बनना पसंद नहीं, जिसकी पांच सौ या हजार प्रतियां छपें और वो भी लाइब्रेरी के शेल्फ में जाकर कैद हो जाए. मैं अपने पाठकों के बीच रहना चाहता हूं और इसी से मुझे खुशी मिलती है. वैसे तो मैं इन चीजों के बारे में कभी कुछ सोचता नहीं हूं लेकिन कभी-कभी दुख होता है कि बिना पढ़े ही किसी किताब को ‘लुगदी  साहित्य’ बता दिया जाता है. किसी भी किताब को अच्छा या बुरा कहने से पहले उसे पढ़ना चाहिए. किसी किताब का मूल्यांकन केवल इस आधार पर नहीं किया जाना चाहिए कि वो किस तरह के कागज पर छप रही है.

साहित्य रचनाओं के लिए कई सम्मान मिलते हैं, सभा-गोष्ठियां होती हैं. इन सम्मानों के बारे में क्या सोचते हैं? क्या कभी इच्छा नहीं हुई कि आपको साहित्य के मंच से सम्मान मिले?

सच कहूं तो कभी भी नहीं. एक पल के लिए भी नहीं. कभी खयाल नहीं आया कि मुझे किसी मंच से कोई सम्मान मिलेगा भी या नहीं. शायद इसके पीछे वजह यह थी कि मैं शुरू से ही जानता था कि ऐसा कभी होगा नहीं. दूसरी बात कि मंच से मिलने वाला शॉल या कोई सम्मान उतना बड़ा नहीं हो सकता जो मुझे पाठकों से मिला है. पाठकों से जो प्रेम और सम्मान मुझे मिला है या जो अभी भी मिल रहा है वो ऐसे कई सम्मानों से कई गुना ज्यादा बड़ा है और मेरे लिए महत्वपूर्ण भी है. अपने जीवन की सबसे यादगार घटना सुनाता हूं. ‘वर्दी वाला गुंडा’ तब बाजार में आ चुका था. मैं अपने चार बच्चों और पत्नी के साथ ट्रेन से दार्जिलिंग जा रहा था. हमारी चार बर्थ को छोड़कर हर बर्थ पर लोग ‘वर्दी वाला गुंडा’ ही पढ़ रहे थे. बच्चे छोटे थे तो वो शोर मचाने लगे कि पापा-पापा आपकी किताब. बड़ी मुश्किल से मैंने उन्हें चुप करवाया और ऊपर वाली सीट पर कंबल डालकर सो गया. आप कल्पना कीजिए कि मुझे उस वक्त कैसा लगा होगा. उस वक्त जो खुशी मुझे मिली वो ऐसे किसी भी सम्मान से बहुत बड़ी थी.

हिंदी साहित्य में क्या-क्या पढ़ा है? खासकर यदि अपने समकालीन  साहित्यकारों का कुछ पढ़ा हो तो बताएं?

मैंने प्रेमचंद का पूरा काम पढ़ा है. आज भी जब मन कई बार थकता है तो मैं उन्हें ही पढ़ता हूं. बाकी अपने समकालीनों में से किसी को नहीं पढ़ा. अगर कभी कोई किताब उठाई भी तो बहुत बोरियत हुई. कई किताबें तो ऐसी हैं कि अगर उनमें से देह, बिस्तर और सेक्स निकाल दीजिए तो कुछ बचेगा ही नहीं. सेक्स के बाहर भी एक दुनिया है. एक बहुत बड़े लेखक हैं, नाम नहीं लेना चाहूंगा. उनका एक कहानी संग्रह ‘जन्नत’ पढ़ने बैठा. बाप रे बाप! हर पन्ने पर सेक्स, हर पन्ने पर बिस्तर! इसके अलावा कुछ है ही नहीं. ऐसे शब्द और ऐसे चित्रण हैं कि मैं बता भी नहीं सकता. सेक्स पर लिखने या बात करने से मुझे कोई गुरेज नहीं लेकिन हम इसे कितना और कैसे लिखें इसकी एक सीमा तो तय होनी ही चाहिए न? एक किताब में कहानी के हिसाब से बिस्तर या बेडरूम का जिक्र हो सकता है लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए कि केवल यही हो और कहानी कुछ हो ही नहीं. ईमानदारी से कहूं तो मैंने अपने समकालीन हिंदी साहित्यकारों को बहुत पढ़ा नहीं है और ऐसा न कर पाने का कोई अफसोस भी नहीं है.

तन-बदन सुलगाने वाले उपन्यास

50-1सवाल: रहस्य व रोमांच के धागे, कलम रूपी सुई में पिरोकर रोचक व तेज रफ्तार वाले कथानक का ‘ताना-बाना’ बुनने वाले केशव पंडित के थ्रिलर, सस्पेंस और रोमांस से फुल हाहाकारी उपन्यास सबसे ज्यादा क्यों पढ़े जाते हैं?

जवाव: ये उस दूल्हे से पूछिए, जो ‘सुहाग-सेज’ पर बैठी दुल्हन को भुलाकर पहले केशव पंडित के उपन्यास को पढ़ता है तथा फिर उसी उपन्यास को ‘मुंह दिखाई’ में अपनी दुल्हन को भेंट कर देता है!

माफ कीजिएगा यह मेरा सवाल-जवाब नहीं है. यह तो प्रोमो है… प्रोमो है केशव पंडित के आने वाले हाहाकारी उपन्यास का. ऐसा हाहाकारी उपन्यास जो आपके तन, बदन और मन तीनों को सुलगा कर रख देगा. अब जरा इस तरह के अन्य प्रलयंकारी उपन्यासों के नामों पर एक नजर डालिए – जूता करेगा राज, खून से सनी वर्दी, कानून किसी का बाप नहीं, सोलह साल का हिटलर, धमाका करेगी रोटी, लाश पर सजा तिरंगा, खून बहा दे लाल मेरे, शेर के औलाद, तबाही मचाएगी विधवा, नागिन मांगे दूध, चींटी लड़ेगी हाथी से, पगली माई बोले जयहिंद, लड़ेगा भाई भगवान से, अंधा वकील गूंगा गवाह, गंगा बहेगी अदालत में, जूता ऊंचा रहे हमारा, तू पंडित मैं कसाई, बालम का चक्रव्यूह, झटका 440 वोल्ट का, बारात जाएगी पाकिस्तान, कातिल मिलेगा माचिस में, दहेज में रिवाल्वर… और भी कई अगड़म-बगड़म नाम इसमें शुमार हैं.

जवान हो रहा था. स्कूलिया साहित्य से मन ऊब सा गया था. सुभद्रा कुमारी चौहान के वीर रस की कविताओं का रस भी सूख सा गया था. सिलेबस की किताबें काटने को दौड़ती थीं. तब इन्हीं लुगदी कागज पर लिखे जाने वाले साहित्यों ने मुझे बचाया था. कहने का मतलब पढ़ने में मेरी रुचि को बचाए रखा था. ये अगड़म-बगड़म नहीं होते तो आज मैं भी वो नहीं होता जो आज हूं. और भी अच्छा हो सकता था या और भी बुरा. बाद वाले की संभावना ज्यादा थी. उस वक्त दिल को दो ही लोग सुकून देते थे. मिथुन चक्रवर्ती और वेदप्रकाश शर्मा. इन घासलेटी साहित्य से अपना दिल कुछ ऐसा लगा कि परिवार और समाज ने ‘आवारा’ का तगमा तक दे दिया. पिताजी विद्यापति, प्रेमचंद और नागार्जुन से जितना प्यार करते थे उससे कई गुना ज्यादा मेरे आदर्श वेदप्रकाश शर्मा, रानू, कुशवाहा कांत या फिर गुलशन नंदा से नफरत. देश में जिस वक्त रामायण, महाभारत जैसे सीरियल सड़कों को वीरान बना रहे थे, ठीक उसी समय ‘वो साला खद्दरवाला’ मेरे अंदर बैठे विद्रोही को सुलगा रहा था. टेलीविजन पर रामायण शुरू होते ही लोग उससे चिपक जाते थे और मैं अपने घासलेटी साहित्य से. शायद यही कारण रहा हो कि मर्यादा पुरुषोत्तम राम या फिर धर्म राज के जगह मेरा आदर्श कर्नल रंजीत बना. कर्नल रंजीत जिसके पास दुनिया के हर समस्या का समाधान था. जो साइंटिफिक तरीके से सोचता था. कमाल तो भगवान राम भी करते थे. लेकिन उनके चमत्कार में मेरे ‘कैसे?’ का जवाब नहीं होता था. वहीं रंजीत के हर कमाल का साइंटिफिक एक्सप्लेनेशन होता था. फिर चाहे वो सिगरेट के राख से कातिल को पकड़ना हो या डीएनए टेस्ट से मरने वाले के बारे में पता लगा लेना. उन अगड़म-बगड़म कहानियों के खलनायकों के नाम भी मुझे खासे आकर्षित करते थे. मसलन ‘चक्रम’, ‘अल्फांजो’, ‘जम्बो’, ‘गोगा’, ‘टिंबकटू’, ‘कोबरा’ आदि आदि. कहानियों को लिखने का अंदाज इतना निराला होता था कि पाठक उसे पढ़ते वक्त सिर्फ और सिर्फ उसी के होकर रह जाते थे. कुछ-कुछ वैसा ही कंसंट्रेशन (एकाग्रता) जैसे वाल्मिकी या दुर्वाशा का तपस्या करते वक्त रहा होगा. संवाद ऐसे जीवंत और फिसलते हुए कि सिनेमा या सीरियल के बड़े-बड़े उस्ताद स्क्रिप्ट राइटर, कथाकार के शागिर्द बनने को मचल उठते थे. लेखन कौशल की कुछ बानगी आप भी देखिए-

‘एक सिगरेट होठों के बीच दबाने पर उसने माचिस से एक तिली निकाल कर मसाले पर उसके सिर को रगड़ा. चट… की आवाज के साथ तिली जली- लेकिन बारिश की आवाज, बादलों की गरज और बिजली की कड़क में दबकर रह गई.’

‘उसने सिगरेट में कश लगाकर कसैले धुएं की बौछार नैना के चेहरे पर छोड़ी तथा पान का पीक जमीन पर थूका. नैना चीख पड़ी. उसने नैना की दोनों कलाइयों को आपस में मिलाकर दाहिने हाथ से पकड़ ली और बायीं हथेली को उसके होंठ पर प्रेशर कुकर के ढक्कन की मानिन्द ही चिपका दिया.’

सौंदर्य बोध की भी इन लेखकों में कोई कमी नहीं होती है. और उपमा-अलंकार में तो कोई कंजूसी करते ही नहीं-

‘मैं डिटेक्टिव एजेंसी खोलना चाहती हूं केशव… ओनली फॉर लेडीज… चारमीनार की सिगरेट गुलाबी होंठों के करीब पहुंची ही थी कि झील-सी नीली आंखों वाले केशव ने हाथ को नीचे करके सिगरेट को ऐश-ट्रे में डाल दिया और मुस्कुराते हुए सोफिया को देखने लगा. कोई उन्तीस वर्षीय सोफिया. बला की खूबसूरत अप्सरा सी. रंग ऐसा कि मानो चांदी के कटोरे में भरे दूध में गुलाब की पंखुड़ियों को घोल दिया गया हो. आंखें ऐसी की मानो कांच की बड़ी प्यालियों में शराब डालकर उनमें हरे रंग के जगमगाते हीरे डाल दिए गए हों. मोतियों से सफेद व दमकते दांत तथा पतले-पतले, नाजुक, गुलाबी व रसीले होंठ. सुनहरे रंग के घने व लंबे केश. लंबे कद वाला जिस्म- मानो ऊपर वाले ने मोम को अपने हाथों में सजा-संवारकर उसमें प्राण फूंक दिए हों…’ बाप रे बाप….

इन उपन्यासों को लिखने वाले प्रमुख लेखकों में वेदप्रकाश शर्मा, रानू, कुशवाहा कांत, गुलशन नंदा, केशव पंडित आदि हैं. लेकिन इनमें भी वेदप्रकाश शर्मा ने सबसे ज्यादा नामवरी और धन दोनों कमाया. वेदप्रकाश शर्मा जिसे हिंदी साहित्यकारों की बिरादरी लेखक भी शायद ही माने कि उनकी रचनाओं ने निर्मल वर्मा, कमलेश्वर या राजेंद्र यादव जैसे दिग्गजों को काफी पीछे छोड़ दिया है. मेरठ के वेदप्रकाश 2005 में अपनी उम्र के पचास साल पूरे होने के मौके पर एक विशेषांक ‘काला अंग्रेज’ लिखा, जो उनका 150वां उपन्यास था. शर्मा पिछले बीस साल से सबसे बिकाऊ लेखक हैं. उनका सबसे ज्यादा बिकने वाला उपन्यास ‘वर्दी वाला गुंडा’ था जिसकी करीब 8 करोड़ प्रतियां बिकीं. उनके दूसरे उपन्यास भी औसतन 4 लाख बिक जाते हैं. शर्मा के उपन्यास पर फिल्म- ‘बहू मांगे इंसाफ’ बनी जिसमें दहेज की समस्या को नए कोण से उठाया था. इसके अलावा उनके उपन्यास ‘लल्लू’ पर ‘सबसे बड़ा खिलाड़ी’ और ‘सुहाग से बड़ा’ पर ‘इंटरनेशनल खिलाड़ी’ बन चुकी हैं. अब हैरी बावेजा ‘कारीगर’ बना रहे हैं, वहीं ‘कानून का बेटा’ पर भी एक फिल्म बनाई जा रही है. इनकी पटकथाएं भी शर्मा लिख रहे हैं. इन उपन्यासों के लेखकों के हिसाब से उनका पात्र भी यूनिक होता है और उनकी पसंद भी. मसलन सुरेंद्र मोहन पाठक के हीरो सुनील और विमल महंगे ‘डनहिल’ या ‘लकी स्ट्राइक’ सिगरेट का ही कश लेगा. वहीं केशव पंडित के कहानियों का हीरो केशव मुफलिसी में जीता है और सस्ते ‘चारमीनार’ को धूककर ही संतुष्ट दिखता है. इसी प्रकार सुरेंद्र मोहन पाठक के ‘ब्लास्ट’ अखबार का रिपोर्टर सुनील जिस होटल या रेस्तरां में जाता था घटना या दुर्घटना भी वहीं होती थी.

लगभग हरेक उपन्यास के पीछे लेखक के आगामी उपन्यास का टीजर जरूर छपता है. इन टीजरों को इतने आकर्षक ढंग से लिखा जाता है कि पाठक अगले उपन्यास को खरीदने को मजबूर सा हो जाता है. इसकी भी एक बानगी पढ़िए…

‘इस बार दिमाग के जादूगर इंस्पेक्टर विजय की टक्कर अपनी ही बीवी सोफिया से हो रही है.’,

‘मुजरिमों को तिगनी का नाच नचाने वोले केशव  पंडित का दिमाग अपना चमत्कार दिखला पाएगा या सिर्फ घूमकर ही रह जाएगा?’, ‘बिल्कुल नई थीम’ नए ‘आइडिया’ पर लिखा गया बेहद रोचक, तेज रफ्तार और सस्पेंस से भरपूर उपन्यास, जो आपके धैर्य की भरपूर परीक्षा लेगा!’

इन उपन्यासों को गौर से पढ़ने पर एक दिलचस्प बात यह सामने आई कि लगभग सभी प्रकाशक मेरठ के ही हैं. यह भी एक शोध का विषय हो सकता है. उपन्यास के पीछे या बीच में छपे विज्ञापन भी काफी मनोरंजक होते है और प्राय: एक ही तरह के होते हैं. मसलन-

जोरो शाॅट रिवाल्वर- जानवरों को डराने के लिए, आत्मरक्षा और नाटकों के लिए. रिवाल्वर के साथ बारह कारतूस मुफ्त में प्राप्त करें.’ या ‘मात्र 30 दिनों में अंग्रेज़ी सीखें’ यह भी देखने में आता है कि इस तरह के उपन्यास बस स्टैंड या रेलवे स्टेशनों पर ही ज्यादा बिकते हैं. इसका भी मनोवैज्ञानिक विश्लेषण होना चाहिए.

हिंदी की ऐसी हल्की-फुल्की, मनोरंजक किताबें हाथों हाथ बिकती हैं जिन्हें साहित्य की श्रेणी में रखने में भी शायद आलोचकों को झिझक हो. अब आलोचकों को यह तथ्य स्वीकार कर लेना चाहिए कि मनोरंजक पुस्तक लोकप्रिय होते हैं. अब यह समय आ गया है कि गंभीर साहित्य लिखने का तरीका भी बदले ताकि ज्यादा से ज्यादा लोगों को आकर्षित किया जा सके. अगर गंभीर साहित्य लिखने वाले लोग वेद प्रकाश शर्मा या सुरेंद्र मोहन पाठक के उपन्यास पढ़ लें, तो वे भी सोचने को मजबूर हो जाएंगे कि वे क्यों पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं. निजी तौर पर कहूं तो मैंने सभी तरह की किताबें पढ़ी हैं. उन लेखकों में मुंशी प्रेमचंद भी हैं और वेदप्रकाश शर्मा भी. अपने-अपने क्षेत्र में दोनों ही महान हैं. दोनों का अपना अलग मुकाम है. आप उनकी तुलना कैसे कर सकते हैं, क्या केएल सहगल भांगड़ा या रॉक संगीत गा सकते हैं? वही बात इन दोनों लेखकों की भी है. आप क्या सोचते हैं..?