निजता पर नजर

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तमाम तरह की सुधारवादी योजनाओं को लागू करने के बीच भारत सरकार की चाहत ये भी है कि अमेरिका की नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी (एनएसए) की प्रिज्म परियोजना की तर्ज पर वह भी भारतीयों के फोन कॉल, मैसेज, वीडियो कॉल, ईमेल और तमाम निजी जानकारियों पर निगरानी रखे. इस चाहत को पूरा करने के लिए सरकार इस साल के अंत तक देश में सेंट्रल मॉनीटरिंग सिस्टम (सीएमएस) योजना को लागू करने वाली है. इसके लागू होने के बाद फोन कॉल से लेकर इंटरनेट पर किए गए सारे काम भारतीय खुफिया एजेंसियों की नजर में रहेंगे.

इस कवायद का मतलब ये है कि सरकार आपके फोन कॉल सुनने, मैसेज और ईमेल पढ़ने के अलावा आपका पासवर्ड भी जान सकती है. साथ ही गूगल लोकेशन सर्विस और जीपीएस के जरिए आपके हर कदम की जानकारी रख सकती है.

सीएमएस परियोजना की बुनियाद 2007-2008 में संप्रग सरकार ने मुंबई हमले के बाद रखी थी. इसका जिम्मा भारतीय दूरसंचार प्रौद्योगिकी संस्था सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ टेलीमैटिक्स (सी-डॉट) को सौंपा गया था. सीएमएस के तहत खुफिया एजेंसियां बगैर मोबाइल और इंटरनेट कंपनियों के हस्तक्षेप और इजाजत के लोगों का सारा डाटा ले सकती हैं और उनके फोन टैप कर सकती हैं.  सीएमएस के लागू होते ही सरकार के पास लोगों के इलेक्ट्रॉनिक संचार से जुड़ी हर जानकारी होगी जो पहले सिर्फ मोबाइल और इंटरनेट कंपनियों के पास होती थी.

संप्रग सरकार को उम्मीद थी कि इस परियोजना को 2013 तक पूरा कर लिया जाएगा पर कुछ कारणों से इसे पूरा नहीं किया जा सका. अब केंद्र की भाजपा सरकार ने योजना को इस साल के आखिर तक लागू करने के संकेत दे दिए हैं. गृह मंत्रालय के वरिष्ठ अधिकारी के मुताबिक सीएमएस को लेकर बंगलुरु में केंद्रीय गृह सचिव एलसी गोयल की अध्यक्षता में आला अफसरों ने दूरसंचार विभाग के अधिकारियों के साथ बैठक की. बैठक में गृह सचिव ने इस योजना में हो रही देरी और इसे इस साल के अंत में लागू करने में आ रही दिक्कतों की समीक्षा की. गृह मंत्रालय के एक आला अफसर के मुताबिक कुछ कारणों से यह परियोजना पिछले छह महीनों से लटकी है. परियोजना के तहत दिल्ली और बंगलुरू में सीएमएस की इकाई (सेंट्रलाइज डाटा सिस्टम) बनाई गई है. यहां इसका परीक्षण जारी है. सीएमएस के तहत इंटरसेप्शन स्टोर एंड फॉरवर्ड (आईएसएफ) के सर्वर देश के 195 दूरसंचार सेवा प्रदाताओं के साथ स्थापित कर दिए गए हैं. सीएमएस के तहत देशभर में 21 क्षेत्रीय निगरानी तंत्र (आरएमसी) की स्थापित किए जाएंगे. उन्होंने यह भी कहा कि इस परियोजना के तहत किए गए फोन कॉल के रिकॉर्ड के विश्लेषण से देश के खिलाफ चल रहीं साजिशों, असामाजिक तत्वों और कर चोरी जैसी गंभीर समस्याओं से निपटा जा सकेगा.

भारत में किसी शख्स पर पुख्ता शक के आधार पर उसकी जासूसी करने के लिए एजेंसियों को केंद्रीय गृह सचिव से इजाजत लेनी होती है. एक आरटीआई से मिली जानकारी के मुताबिक सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों के अनुरोध पर केंद्रीय गृह सचिव रोजाना 300 फोन टैप करने की इजाजत देते हैं. अंतरराष्ट्रीय न्यूज एजेंसी ‘रॉयटर्स’ के मुताबिक भारत सरकार ने 2012 में गूगल से लोगों की निजी जानकारियां मांगने के लिए 4750 आवेदन किए थे. ऐसे आंकड़े मांगने के मामले में भारत अमेरिका के बाद दूसरे नंबर पर है. 9 जून, 2013 को अमेरिका की सेंट्रल इंटेलीजेंस एजेंसी (सीआईए) के पूर्व कर्मचारी एडवर्ड स्नोडेन ने इतिहास का सबसे बड़ा खुलासा करते हुए दुनिया को यह बताया था कि एनएसए अमेरिकी नागरिकों सहित कुछ दूसरे देशों के लोगों की अवैध तरीके से जासूसी कर रही है. इस खुलासे ने दुनिया भर के लोगों में डर का माहौल पैदा कर दिया. इस घटनाक्रम से अमेरिका को दुनिया भर में फजीहत भी झेलनी पड़ी थी.

दुनियाभर में ऐसी परियोजनाओं का बड़े पैमाने पर विरोध हुआ है. मानवाधिकार संगठन इसे लोकतंत्र के लिए खतरा मानते हैं. अगर तथ्यों पर नजर डालें तो पता चलता है कि ऐसी निगरानी परियोजनाओं से भी आतंकवाद पर लगाम नहीं लगाई जा सकी है. मानवाधिकार संगठनों के मुताबिक ऐसी परियोजनाएं सिर्फ लोगों में असुरक्षा और भय पैदा करती हैं. लोकतंत्र में सरकार सुरक्षा कारणों का हवाला देकर अपने ही नागरिकों की जासूसी करे, इसे जायज नहीं ठहराया जा सकता. ऐसे उदाहरण मिले हैं जहां सत्ताधारी दल विपक्षी दलों के नेताओं का फोन टैप करवाता है. ऐसे में यह भी संभव है कि सत्ताधारी दल अपने हितों को साधने के लिए सीएमएस का इस्तेमाल करे. गृह मंत्रालय के एडीजी कुलदीप सिंह धतवालिया ने बताया, ‘राष्ट्रीय सुरक्षा और प्रजातांत्रिक सुरक्षा के लिए सीएमएस बहुत जरूरी है. इसके जरिए हम लोगों पर निगरानी रखेंगे. लोगों को इससे घबराने की जरूरत नहीं है.’

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सीएमएस खुफिया एजेंसियों को भारतीय नागरिकों की तमाम निजी बातचीत सुनने और उनसे जुड़ी जानकारी हासिल करने का अधिकार देगा. यह नागरिकों के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होगा जिसके अंतर्गत लोगों को निजता का अधिकार मिला हुआ है. अगर किसी के ऊपर पुख्ता शक है तो सरकार को ये अधिकार है कि वह उसकी निगरानी रखे और उसकी बातचीत रिकॉर्ड करे. यह सही भी है, लेकिन सीएमएस के जरिए खुफिया एजेंसी उन लोगों के भी बातचीत का रिकॉर्ड रख सकेगी जिनके ऊपर किसी तरह का शक नहीं है. मतलब यह कि सीएमएस के जरिए हम सभी पर अपराधी की तरह निगरानी रखी जाएगी जो एक लोकतंत्र के लिए पूरी तरह से अस्वीकार्य है. दुनियाभर में ऐसे कम ही प्रमाण हैं जिससे यह साबित हो कि सीएमएस जैसी निगरानी वाली परियोजनाएं सुरक्षा और आतंकवाद के लिए हितकारी रही हैं.

डॉ. एंजा कोवाक्स, संस्थापक व शोधकर्ता इंटरनेट डेमोक्रेसी

एडवर्ड स्नोडेन ने यह भी खुलासा किया था कि खुफिया एजेंसियां ऐसी जानकारी से 1.5 फीसद मुजरिमों को ही गिरफ्त में ले पाती है. जब अमेरिका और ब्रिटेन जैसे तकनीक संपन्न मुल्कों में लोगों की निगरानी करनी वाली परियोजनाएं लगभग नाकाम साबित हुई हैं. ऐसे में भारत में सीएमएस कितना कामयाब हो पाएगा, ये बड़ा सवाल है. अमेरिकी खुफिया एजेंसी की निगरानी परियोजना ‘प्रिज्म’ के भारी विरोध और नाकामयाबी की वजह से अमेरिका ने लोगों पर सीमित निगरानी रखने के लिए यूएस फ्रीडम एक्ट पास किया है जिसके तहत लोगों की फोन से जुड़ी जानकारियां अब खुफिया एजेंसी के पास नहीं बल्कि टेलीकॉम कंपनियों को पास होंगी.

नागरिकों के मानवाधिकार और निजता के हनन के सवाल पर गृह मंत्रालय के एडीजी का कहना है, ‘लोगों को अधिकारियों पर भरोसा रखना चाहिए और जो व्यक्ति राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में संलिप्त नहीं हंै उन्हंे सीएमएस से कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए. उन्हें डरने की कोई जरूरत नहीं है. अधिकारी देश की सुरक्षा के लिए तत्पर हैं और यह परियोजना देशहित में है.’ अमेरिका में ‘प्रिज्म’ परियोजना पर उठे सवाल पर उन्होंने कहा कि हम अमेरिका से तुलना नहीं कर सकते.

एनजीओ ‘इंटरनेट डेमोक्रेसी की संस्थापक और शोधकर्ता डॉ. एंजा कोवाक्स के अनुसार, ‘अमेरिकी सिविल लिबर्टीज यूनियन के आंकड़ों के मुताबिक आतंकवादियों पर लगाम लगाने में पारंपरिक जांच ही अहम भूमिका अदा करते हैं. आतंकवाद से निपटने में इस तरह की ऑनलाइन निगरानी परियोजनाओं का योगदान कम ही रहा है. चिंताजनक बात यह है कि खुफिया एजेंसियों की जवाबदेही सिर्फ गृह मंत्रालय और प्रधानमंत्री के प्रति होती है. संसद के प्रति उनकी कोई जवाबदेही नहीं होती और भारत में दूसरे लोकतंत्रिक देशों की तरह निगरानी पर नियंत्रण रखने जैसी कोई व्यवस्था नहीं है. ऐसे में सीएमएस के दुरुपयोग की आशंका ज्यादा है. सीएमएस से भले ही खुफिया एजेंसियों का काम आसान हो जाए पर यह पूरी तरह से नागरिकों के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है. मैं इसे देश के लिए लाभदायक नहीं मान सकती.’

पूर्व केंद्रीय सूचना प्रौद्योगिकी और दूरसंचार राज्यमंत्री मिलिंद देवड़ा, जिनके कार्यकाल में इस परियोजना की नींव पड़ी, मानते हैं कि इसका गलत इस्तेमाल किया जा सकता है. देवड़ा के मुताबिक, ‘इस परियोजना के फायदे और नुकसान दोनों हैं. इसके लागू होने से यह पता कर पाना मुश्किल होगा कि कौन बेवजह जासूसी का शिकार हो रहा है. इसके साथ एक और कानून की जरूरत होगी जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि नागरिकों के मौलिक अधिकार का हनन न हो. भारत में कोई भी ऐसा कानून नहीं है जिसके तहत सरकार लोगों की जासूसी कर सके.’

भारत के आईटी एक्ट, 2000 के तहत शक के आधार पर सीमित समय के लिए किसी व्यक्ति का फोन टैप किया जा सकता है. इसके लिए केंद्रीय गृह सचिव से मंजूरी लेनी जरूरी है. दिलचस्प बात यह है कि ब्रिटिश शासन के दौरान बनाए गए इंडियन टेलीग्राफ एक्ट में भी आम लोगों की निजता का काफी ख्याल रखा गया था. इस कानून के मुताबिक फोन से जुड़ी जासूसी या तो लोगों के सुरक्षा कारणों या फिर आपातकाल लागू होने पर की जा सकती थी. 2008 में भारत सरकार ने इंडियन टेलीग्राफ एक्ट में काफी बदलाव कर आईटी एक्ट पास किया. इसमें इस प्रावधान को बदल दिया गया. अब सरकार किसी मामले की छानबीन के दौरान या किसी पर शक होने पर फोन टैप कर सकती है.

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सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के मुताबिक बिना पुख्ता सबूत के लोगों की इस तरह से निगरानी करवाना गैरकानूनी है. किसी व्यक्ति या संस्थान की निगरानी के लिए गृह सचिव की इजाजत जरूरी है. साथ ही मामला राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा होना चाहिए. सेंट्रल मॉनीटरिंग सिस्टम के तहत अगर किसी व्यक्ति का फोन बिना पुख्ता वजह से टैप किया जा रहा है तो उस व्यक्ति के साथ उन लोगों की भी निजता खतरे में पड़ जाएगी जो उससे फोन पर बात करते हैं. ऐसे मामलों में दस में से आठ फोन ऐसे होंगे जो उसके लिए निजी होंगे. ऐसे में उन आठ लोगों की भी निजता में सेंध लग जाएगी जिनका उस मामले से कोई सरोकार नहीं है.

प्रशांत भूषण, वरिष्ठ वकील 


दिल्ली स्थित नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के सीनियर फेलो और इंडिया स्पेशल फोर्स के लेखक सैकत दत्त के मुताबिक, ‘सीएमएस भारतीय नागरिकों के अधिकार को पूरी तरह से खतरे में डाल देगा. अगर देश सीएमएस जैसे अपारदर्शी तरीके से अपने ही नागरिकों की जासूसी करने लगे तो सरकार की ओर से इसका दुरुपयोग नहीं किया जाएगा, इस आशंका से कैसे बचा जा सकेगा. संयुक्त राष्ट्र संघ ने बिना पुख्ता वजह लोगों की इलेक्ट्रॉनिक जासूसी जैसे फोन टैपिंग और इंटरनेट ट्रेसिंग को मानवाधिकार का उलंघन बताया है. न्यूयॉर्क स्थित मानवधिकार कार्यकर्ता और इंटरनेट शोधकर्ता सिंथिया वोंग के मुताबिक, ‘अगर भारत सत्तावादी शासन की तरह आगे नहीं बढ़ना चाहता, तो भारत को इस मुद्दे पर पारदर्शिता अपनाते हुए लोगों को यह जानकारी देनी होगी कि कौन उनके निजी डाटा को इकट्ठा कर रहा है और यह इस्तेमाल कहां हो रहा है. यह भी सुनिश्चित करना होगा कि इकट्ठा किए गए आंकड़ों का गलत इस्तेमाल न हो.

पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) बनाम भारत सरकार के मामले में 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने फोन टैपिंग को निजता के अधिकार का उल्लंघन बताया था. कोर्ट के मुताबिक अवैध तरीके से किए गए फोन टैपिंग असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक हैं. इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने फोन टैपिंग के लिए कुछ गाइडलाइन तय की थी जिसके अनुसार केंद्रीय गृह सचिव की अनुमति के बिना कोई फोन टैप नहीं किया जा सकता है. साथ ही फोन टैपिंग के रिकॉर्ड साठ दिन के अंदर नष्ट कर दिए जाने चाहिए. 1988 में कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े के कार्यकाल में भी फोन टैपिंग का बड़ा मामला सामने आया था. विपक्ष का आरोप था कि हेगड़े ने विपक्षी नेताओं के फोन टैप के आदेश देकर उनकी निजता में सेंध लगाई है. भारी विरोध के बाद हेगड़े को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था.

इंडिया सेंटर फॉर इंटरनेट के कार्यकारी प्रबंधक सुनील अब्राहम के मुताबिक, ‘इस तरह के निगरानी तंत्र की सबसे बड़ी खामी यह है कि इसके लागू होने से हैकर केे लिए लोगों की निजी जानकारियों में सेंध लगाना आसान हो जाएगा. हैकर डाटा चुराने के लिए सीधे सीएमएस के डेटाबेस को निशाना बनाएंगे. उन्हें एक साथ तमाम लोगों की निजी जानकारियां मिल जाएंगी.

भारत में ऐसे कई मामले सामने आएं हैं जब सत्ताधारी दलों ने सीबीआई जैसी संस्था का दुरुपयोग किया है. संप्रग सरकार के समय सीबीआई को ‘सरकार का तोता’ तक कहा गया. ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि क्या सीएमएस जैसी परियोजना का दुरुपयोग नहीं होगा