घोटाले का असली सूत्रधार?

तमिलनाडु की सत्ता एक बार फिर संभालने के बाद मुख्यमंत्री जयललिता 14 जून को प्रधानमंत्री से मिलने दिल्ली आई थीं. इस मुलाकात के बाद उन्होंने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की जिसमें तमाम बातों के अलावा उन्होंने यह मांग भी कर डाली कि केंद्र सरकार में कपड़ा मंत्री दयानिधि मारन अगर खुद इस्तीफा नहीं देते तो प्रधानमंत्री को ही उन्हें हटा देना चाहिए.

जयललिता की यह मांग तहलका की उस तहकीकात के बाद आई थी जो साफ इशारा करती है कि संचार मंत्री रहते हुए मारन ने अपने पद का दुरुपयोग करते हुए एयरसेल कंपनी के पूर्व प्रमुख शिवशंकरन पर इस बात के लिए दबाव डाला कि वे अपनी कंपनी मैक्सिस समूह को बेच दें. इसके एवज में इस मलेशियाई कारोबारी समूह ने मारन बंधुओं को 700 करोड़ रु का फायदा पहुंचाया. कोई भ्रष्टाचार यदि सरकारी अधिकारियों और निजी क्षेत्र के लोगों की सांठ-गांठ से हुआ हो तो जांच एजेंसियां उसकी जांच करते हुए अक्सर लेन-देन का साक्ष्य जुटाने की कोशिश करती हैं. यह पता लगाने की कोशिश की जाती है कि सरकारी अधिकारी को घूस कैसे दी गई. नकद या फिर किसी और तरीके से.

इस साल जनवरी में सीबीआई ने एक रियल एस्टेट कंपनी के मालिक शाहिद उस्मान बलवा और कलैनार टीवी के बीच हुए लेन-देन का पता लगाया था. जब बलवा की कंपनी स्वान टेलीकॉम को बेशकीमती 2जी स्पेक्ट्रम आवंटित हो गया तो इसके बाद बलवा की कंपनी ने द्रमुक सुप्रीमो करुणानिधि के परिवार के स्वामित्व वाले कलैनार टीवी को 200 करोड़ रुपये हस्तांतरित किए थे. सीबीआई ने करुणानिधि की बेटी और इस टीवी चैनल में 20 फीसदी की हिस्सेदार कनिमोरी को गिरफ्तार करने के लिए इस साक्ष्य को पर्याप्त माना था. 26 अप्रैल को दाखिल किए गए पूरक आरोपपत्र में जांच एजेंसी ने कहा था कि यह लेन-देन वैध नहीं था बल्कि इसकी प्रकृति से पता चलता है कि यह यूनिफाइड एक्सिस सर्विस लाइसेंस (यूएएसएल), स्पेक्ट्रम और गलत तरीके मिले अन्य फायदों के एवज में स्वान टेलीकॉम द्वारा दी गई घूस थी.

अहम सवाल यह है कि क्या मैक्सिस-सन टीवी और मैक्सिस-सन एफएम सौदा इस हाथ दे-उस हाथ ले वाली तर्ज पर हुआ था

सूत्रों के मुताबिक सीबीआई अब केंद्रीय कपड़ा मंत्री दयानिधि मारन के परिवार के स्वामित्व वाले सन टीवी नेटवर्क और मलेशियाई कंपनी मैक्सिस ग्रुप के बीच हुए एक ऐसे ही सौदे की जांच में जुटी है. इसमें बलवा और कलैनार टीवी के बीच हुए लेन-देन की रकम से कहीं ज्यादा लेन-देन हुआ है. सौदे में शामिल मैक्सिस ग्रुप के पास देश की सातवीं सबसे बड़ी दूरसंचार कंपनी एयरसेल की 74 फीसदी हिस्सेदारी है.

नवंबर, 2006 में उस समय दूरसंचार मंत्री रहे मारन ने एयरसेल को 14 यूएएसएल दिए थे. 2जी स्पेक्ट्रम के ये लाइसेंस उसी कीमत पर दिए गए थे जिस कीमत पर राजा ने 2008 में स्वान, यूनिटेक और दूसरी कंपनियों को 2जी लाइसेंस दिए. एयरसेल ने 14 टेलीकॉम सर्कलों के लिए 1,399 करोड़ रुपये चुकाए थे. यह कीमत बोली की प्रक्रिया द्वारा 2001 में ही तय की गई थी जब भारत में दूरसंचार उद्योग शुरुआती चरण में था.

एयरसेल को ये लाइसेंस दो साल की ‘बेवजह’ देरी के बाद मिले थे और देरी मारन की अगुवाई वाले दूरसंचार विभाग की तरफ से की गई थी. नये क्षेत्रों में लाइसेंस पाने के लिए एयरसेल ने मई, 2004 में ही तब आवेदन कर दिया था जब मारन ने दूरसंचार मंत्री के तौर पर कार्यभार संभाला था. 2001 से 2009 के बीच हुए दूरसंचार लाइसेंसों के आवंटन के लिए गठित न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) शिवराज पाटिल की एक सदस्यीय समिति ने कहा है कि विभाग ने एयरसेल के आवेदन पर ‘गैरजरूरी’, ‘आधारहीन’ और ‘बेवजह’ आपत्तियां दर्ज की थीं. पाटिल ने यह रिपोर्ट 31 जनवरी को मौजूदा दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल को सौंपी है.

जब मार्च, 2006 में मलेशियाई कारोबारी टी. आनंद कृष्णन ने एयरसेल में 74 फीसदी हिस्सेदारी खरीद ली तब जाकर कहीं कंपनी की फाइल ने गति पकड़ी. कृष्णन मूल रूप से श्रीलंकाई तमिल हैं. इसके पहले तक इस कंपनी का स्वामित्व शिवा समूह के प्रमुख सी. शिवशंकरन के पास था. इस कंपनी का पुराना नाम स्टर्लिंग इन्फोटेक ग्रुप था. कृष्णन ने एयरसेल की 74 फीसदी हिस्सेदारी के लिए 3,390.82 करोड़ रुपये चुकाए. आज करीब आठ अरब डॉलर की कुल कीमत के साथ एयरसेल देश की सातवीं सबसे बड़ी दूरसंचार कंपनी है. आनंद कृष्णन द्वारा एयरसेल को खरीदे जाने के छह महीने के अंदर मंत्रालय ने इस कंपनी को 14 कमाऊ सर्कलों के लिए लाइसेंस जारी कर दिए थे. इसके बाद एयरटेल एक छोटी कंपनी से काफी बड़ी कंपनी में तब्दील हो गई जिसकी मौजूदगी भारत के कई हिस्सों में थी. कैग द्वारा 2जी लाइसेंसों की कीमतों के निर्धारण को पैमाना माना जाए तो एयरसेल को दिए गए इन लाइसेंसों की कीमत तकरीबन 22,000 करोड़ रुपये होनी चाहिए थी. पर एयरसेल ने इसके लिए महज 1,399 करोड़ रुपये चुकाए.

और दिलचस्प संयोग देखिए कि लाइसेंस मिलने के ठीक चार महीने बाद यानी फरवरी 2007 में आनंद कृष्णन ने अपने समूह की एक दूसरी कंपनी साउथ एशिया इंटरटेनमेंट होल्डिंग लिमिटेड (एसएईएचएल) के जरिए सन डायरेक्ट टीवी प्राइवेट लिमिटेड में चरणबद्ध तरीके से तकरीबन 600 करोड़ रुपये निवेश कर 20 फीसदी हिस्सेदारी हासिल कर ली. सन टीवी को दयानिधि के भाई कलानिधि और उनकी पत्नी कावेरी मारन चलाती हैं. इस निवेश को हरी झंडी आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति ने दी थी.

और लगभग इसी समय मारन परिवार को सन डायरेक्ट टीवी के 12.6 करोड़ अतिरिक्त शेयर आवंटित किए गए ताकि उनकी हिस्सेदारी 80 फीसदी के स्तर पर बनी रहे.  हैरानी की बात थी कि मारन परिवार को ये 10 रुपये प्रति शेयर के भाव पर दिए गए जबकि मैक्सिस ग्रुप ने इन शेयरों के लिए इससे कहीं ऊंची कीमत चुकाई थी. कहा जा सकता है कि दोनों तरह से फायदा मारन परिवार को ही हुआ. मैक्सिस समूह ने जब महंगी कीमत पर शेयर खरीदे तो इसका फायदा मारन परिवार को ही मिलना था क्योंकि कंपनी की अधिकांश हिस्सेदारी उनके पास ही थी. इस सौदे से उन्हें सन डायरेक्ट टीवी की गतिविधियों के विस्तार के लिए रकम मिली जिसकी उन्हें उस समय सख्त जरूरत थी. जब यह सौदा हुआ था तो उस वक्त सन की डीटीएच कंपनी घाटे में थी. सन डायरेक्ट टीवी की 2007-08 की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक कंपनी का कुल राजस्व 61.16 करोड़ रुपये था जबकि कंपनी को उस साल 73.27 करोड़ रुपये का घाटा हुआ था.दूसरी तरफ कम कीमत पर शेयर आवंटित होने का फायदा भी मारन परिवार को ही होना था.

फरवरी, 2008 से जुलाई, 2009 के बीच मैक्सिस समूह ने मारन परिवार की दूसरी कंपनी साउथ एशिया एफएम लिमिटेड में 100 करोड़ रुपये का निवेश और किया. सन एफएम रेडियो नेटवर्क का स्वामित्व इसी कंपनी के पास है. मैक्सिस समूह की सहयोगी कंपनी साउथ एशिया मल्टीमीडिया टेक्नोलॉजीज लिमिटेड (एसएएमटी) ने साउथ एशिया एफएम लिमिटेड में 50 करोड़ रुपये की इक्विटी खरीदी. उसने प्रेफरेंस शेयर्स (ऐसे शेयर जिनके धारकों को लाभांश में प्राथमिकता दी जाती है.) में भी 43.9 करोड़ रुपये का निवेश किया. अब अहम सवाल यह है कि क्या मैक्सिस-सन टीवी और मैक्सिस-सन एफएम के सौदे इस हाथ दे-उस हाथ ले वाली उसी तर्ज पर हुए थे जिस पर बलवा और कलैनार टीवी के बीच 200 करोड़ रुपये का सौदा हुआ था? लगता तो ऐसा ही है. दोनों सौदे संबंधित दूरसंचार कंपनी को लाइसेंस और स्पेक्ट्रम आवंटित होने के बाद ही हुए. दोनों ही मौकों पर करुणानिधि के करीबी परिजनों को ही फायदा मिला.

मारन के समय मंत्रालय ने न सिर्फ एयरसेल को नये लायसेंस जारी करने में देर की बल्कि पिछले लाइसेंसों के लिए स्पेक्ट्रम देने में भी देर लगाई

कलैनार टीवी में ए राजा और उनके परिवार की कोई हिस्सेदारी नहीं है जबकि सन डायरेक्ट टीवी में दयानिधि के भाई कलानिधि और उनकी पत्नी की 80 फीसदी हिस्सेदारी है. इसलिए जहां तक लेन-देन से जुड़ी घटनाओं की बात है तो उन पर गौर करने पर पहली नजर में मारन ए राजा के मुकाबले कहीं ज्यादा साफ तरीके से संदेह के घेरे में दिखते हैं. जब केंद्र में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार थी और अरुण शौरी दूरसंचार मंत्री थे तो पांच मार्च 2004 को एयरसेल की सहयोगी और मुख्य कंपनी शिवा वेंचर्स लिमिटेड की सहयोगी डिशनेट वायरलेस लिमिटेड ने मध्य प्रदेश समेत कुल आठ सर्कलों में यूएएसएल के लिए आवेदन किया था. उस समय तक एयरसेल सिर्फ चेन्नई और तमिलनाडु सर्कल में ही सेवाएं दे रही थी. आवेदन के ठीक एक महीने बाद दूरसंचार विभाग ने आठों सर्कलों के लिए आशय पत्र (एलओआई) जारी कर दिए. पर सात सर्कलों के लाइसेंस पर ही दस्तखत हुए. इनमें मध्य प्रदेश शामिल नहीं था. एयरसेल लिमिटेड के पास तमिलनाडु क्षेत्र का लाइसेंस था, एयरसेल सेल्युलर लिमिटेड के पास चेन्नई सर्कल का लाइसेंस था और बाद में डिशनेट वायरलेस लिमिटेड के पास अन्य सर्कलों का लाइसेंस था. ये तीनों कंपनियां एयरसेल के नाम से ही दूरसंचार सेवाएं मुहैया करा रही थीं और इन तीनों कंपनियों का स्वामित्व सी. शिवशंकरन के स्टर्लिंग इन्फोटेक समूह के पास था जो अब शिवा ग्रुप बन गया है.

21 अप्रैल, 2004 को डिशनेट ने पूर्वी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश क्षेत्र में लाइसेंस के लिए आवेदन किया. तब तक उसे मध्य प्रदेश के लिए आशय पत्र जारी हो चुका था, पांच मई, 2004 को दूरसंचार विभाग ने पहली बार डिशनेट की फंडिंग पर सवाल उठाए. इसका परिणाम यह हुआ कि मध्य प्रदेश में इसके लाइसेंस और दूसरे क्षेत्रों के लिए किए गए इसके आवेदनों पर रोक लगा दी गई.

26 मई, 2004 को मारन ने बतौर दूरसंचार मंत्री कार्यभार संभाला.

जून, 2004 में डिशनेट ने दूरसंचार विभाग द्वारा उठाए गए सारे सवालों का विस्तृत जवाब भेज दिया.

आठ जुलाई, 2004 को दूरसंचार विभाग के सचिव ने पूर्वी और पश्चिम उत्तर प्रदेश के लिए कंपनी को आशय पत्र जारी करने और मध्य प्रदेश के लिए लाइसेंस पर दस्तखत के लिए समय बढ़ाने की सिफारिश की. इस प्रस्ताव को मारन के पास मंजूरी के लिए भेजा गया.

24 अगस्त, 2004 को मारन के निजी सचिव ने एक नोट में कहा कि उन्हें यह निर्देश दिया गया है कि डिशनेट और अन्य जगहों पर लाइसेंस रखने वाली उसकी सहयोगी कंपनी के स्वामित्व संबंधी विवरण मुहैया कराए जाएं. खास तौर पर तमिलनाडु और चेन्नई के लाइसेंस के बारे में जानकारी मांगी गई थी. यह भी पूछा गया था कि क्या डिशनेट और उसकी सहयोगी कंपनी ने कानूनों का उल्लंघन तो नहीं किया है. इस नोट के आधार पर डिशनेट को एक नोटिस जारी किया गया जिसका विस्तृत जवाब कंपनी ने विभाग को सौंपा.

अगले चार महीने तक दूरसंचार विभाग ने विभिन्न स्तरों पर कंपनी के सामने कई कानूनी मसले उठाए. इसके बाद फाइल कानूनी सलाहकार को सौंपी गई लेकिन इसे 17 दिसंबर, 2004 को वापस ले लिया गया.

1 मार्च, 2005 को डिशनेट ने हरियाणा, केरल, कोलकाता और पंजाब सर्कल के लाइसेंस के लिए भी आवेदन किया. यह फाइल दूरसंचार विभाग में घूमती रही और कोई निर्णय नहीं लिया गया. इस बीच दूरसंचार क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा 49 से बढ़ाकर 74 फीसदी कर दी गई.

अक्टूबर 2005 में मैक्सिस समूह ने एयरसेल के अधिग्रहण के लिए शिवशंकरण से संपर्क साधा.

14 दिसंबर 2005 को दूरसंचार विभाग ने नये यूएएसएल दिशानिर्देश जारी किए जिनके अनुसार अब किसी भी सर्कल में कितनी भी कंपनियां सेवा मुहैया करा सकती थीं. इसके अलावा किसी भी कंपनी के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से एक ही सर्कल में सेवा दे रही एक से ज्यादा कंपनियों में 10 फीसदी से ज्यादा हिस्सेदारी खरीदना भी प्रतिबंधित कर दिया गया.

30 दिसंबर, 2005 को एयरसेल और मैक्सिस के बीच अधिग्रहण के सौदे पर दस्तखत हो गए. इसके बाद डिशनेट के लंबित आवेदन पर मंत्रालय में तेजी से काम शुरू हो गया.

दो जनवरी, 2006 को डिशनेट को नये दिशानिर्देशों के मुताबिक जानकारी मुहैया कराने को कहा गया. कंपनी ने यह काम 17 दिन में कर दिया.

12 जनवरी 2006 को एयरसेल ने कर्नाटक, राजस्थान, मुंबई और महाराष्ट्र सर्कल में यूएएस लाइसेंस हासिल करने के लिए आवेदन किया.

फरवरी, 2006 में बिहार के लिए एयरसेल की सहयोगी कंपनी डिशनेट को शुरुआती स्पेक्ट्रम दिया गया. यह आवेदन 2004 के मई से लंबित था.

तीन मार्च, 2006 को एयरसेल ने तीन और सर्कलों(दिल्ली, आंध्र प्रदेश और गुजरात) के लिए आवेदन किया.

13 मार्च 2006 को कंपनी को हिमाचल प्रदेश के लिए स्पेक्ट्रम आवंटित हो गया. यह भी तब से ही लंबित पड़ा था जब से मारन दूरसंचार मंत्री बने थे.

मार्च, 2006 में टी आनंद कृष्णन ने कंपनी के शेयरधारकों को बताया कि कंपनी ने स्टरलिंग इन्फोटेक समूह से एयरसेल की 74 फीसदी हिस्सेदारी खरीदने का काम पूरा कर लिया है.

एक नवंबर, 2006 को 14 सर्कलों के लिए आशय पत्र जारी करने को हरी झंडी मिल गई. एक पखवाड़े के अंदर सभी 14 लाइसेंस जारी कर दिए गए. एयरसेल ने इसके लिए 1,399.47 करोड़ रुपये चुकाए और एयरसेल एक झटके में छोटी क्षेत्रीय कंपनी से पूरे भारत में मौजूदगी वाली बड़ी कंपनी बन गई.न्यायामूर्ति शिवराज पाटिल ने अपनी रिपोर्ट में मारन की देरी करने की कवायद पर कड़ी टिप्पणी करते हुए कहा है, ‘अलग-अलग मौकों पर डिशनेट से मांगी गई सफाई अस्पष्ट और अप्रासंगिक थी.’ न्यायमूर्ति पाटिल ने यह भी कहा है कि कई मौकों पर मारन ने तय प्रक्रियाओं का भी पालन नहीं किया.

क्या शिवशंकरन पर कंपनी बेचने के लिए दबाव डाला गया ?

शिवशंकरन को अपनी कंपनी के बदले में 80 करोड़ डॉलर मिले थे. उस समय एयरसेल टेलीकॉम नौ सर्कलों में सेवाएं द रही थी और सात सर्कलों में सेवाएं शुरू करने के लिए लाइसेंस के उसके आवेदन मंत्रालय में लंबित थे. उस समय एयरसेल और ज्यादा सर्कलों में लाइसेंस आवेदन करना चाहती थी लेकिन वह ऐसा इसलिए नहीं कर पा रही थी क्योंकि उसके पहले के आवेदनों पर दूरसंचार मंत्रालय ने कोई फैसला नहीं लिया था. यदि एयरसेल को ये लाइसेंस मिलने के बाद बेचा जाता तो शिवशंकरन को और ज्यादा पैसा मिल सकता था. मारन से मिली 14 लाइसेंसों की अनुमति के बाद आज एयरसेल की मौजूदगी भारत के बड़े टेलीकॉम सर्कलों में है और इसका बाजार  मूल्य 7.5 – 8.0 अरब डॉलर है.

2005 में मारन जब दूरसंचार मंत्री थे उस दौरान एक जून को शिवशंकरन ने उन्हें एक चिट्ठी (अगले पन्ने पर देखें) लिखी. इसमें यह आरोप लगाया गया था कि मंत्रालय में मौजूद कुछ शक्तिशाली तत्व पूरी कोशिश कर रहे हैं कि उनके आवेदनों को मंजूरी न मिले.मारन के कार्यकाल में उनके मंत्रालय ने न सिर्फ एयरसेल को नये लाइसेंस जारी करने में देर की बल्कि जिन सर्कलों के लिए कंपनी को उनके मंत्री बनने के पहले ही लाइसेंस मिल गए थे उनके लिए जरूरी शुरुआती स्पेक्ट्रम देने में भी देर की गई. जस्टिस पाटिल ने इसे अपनी रिपोर्ट में अतार्किक बताया है.

मार्च, 2004 में (एनडीए शासन के दौरान) डिशनेट को बिहार और हिमाचल सर्कल के लिए लाइसेंस आवंटित किए गए थे (पांच और सर्कलों में लाइसेंस के अलावा). लेकिन उसे सेवाएं शुरू करने के लिए शुरुआती स्पेक्ट्रम नहीं दिया गया जो लाइसेंस के साथ ही जारी किया जाना चाहिए था. बिहार में स्पेक्ट्रम फरवरी, 2006 में दिया गया तो हिमाचल प्रदेश में मार्च, 2006 में. पाटिल ने अपनी रिपोर्ट में इस बात का जिक्र किया है. स्पेक्ट्रम उपलब्ध होने के बावजूद बिहार के लिए डिशनेट को यह आवंटित नहीं किया गया.

इस संबंध में शिवशंकरन की बार-बार की दरख्वास्तों का दूरसंचार मंत्रालय पर कोई असर नहीं पड़ा. इसी बीच अक्टूबर, 2005 में मलेशिया की एक कंपनी मैक्सिस कम्यूनिकेशन से एयरसेल खरीदने का प्रस्ताव दे दिया.  उस समय तक दूरसंचार क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा 74 फीसदी बढ़ाई जा चुकी थी. 30 दिसंबर, 2005 को मैक्सिस और एयरसेल के बीच कंपनी की हिस्सेदारी खरीदने का समझौता हुआ. कंपनी की बाकी 26 फीसदी हिस्सेदारी अपोलो हॉस्पिटल के रेड्डी परिवार ने खरीदी.

हाल ही में खबरें आई हैं जिनके मुताबिक सीबीआई के सामने शिवशंकरन ने गवाही दी है कि मारन ने उन्हें अपनी कंपनी मैक्सिस समूह को बेचने के लिए मजबूर किया. एयरसेल बेचने के बाद शिव ग्रुप ने एक और टेलीकॉम कंपनी एस-टेल बना ली थी जिसे ए राजा के कार्यकाल में छह सर्कलों के लिए लाइसेंस मिला है. 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में यह कंपनी भी सीबीआई की जांच के दायरे में है. तहलका ने जब शिवशंकरन से संपर्क किया तो उन्होंने कोई भी टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.

सौदे से जुड़ी गुत्थियां 

मार्च, 2006 में मैक्सिस ने एयरसेल में कुल 7,880.82 करोड़ रुपये का निवेश किया. मैक्सिस ने अपनी पूर्ण स्वामित्व वाली सहयोगी इकाई ग्लोबल कम्यूनिकेशन सर्विसेज होल्डिंग लिमिटेड के जरिए एयरसेल के 65 फीसदी शेयर खरीदे और नौ फीसदी शेयर अपनी एक और कंपनी डेक्कन डिजिटल प्राइवेट लिमिटेड के जरिए खरीदे. डेक्कन डिजिटल प्राइवेट लिमिटेड में मैक्सिस की 26 फीसदी की हिस्सेदारी है.

टेलीकॉम क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के नियमों के मुताबिक कोई भी विदेशी कंपनी भारत में किसी कंपनी में 74 फीसदी से ज्यादा की हिस्सेदार नहीं हो सकती. मैक्सिस ने 3390.82 करोड़ रुपये में एयरसेल की सीधी हिस्सेदारी खरीदी थी जबकि 4490 करोड़ रुपये प्रिफ्रेंस शेयर की खरीद के जरिए निवेश किए गए थे. अब सवाल यह है कि एयरसेल में मैक्सिस के इतने भारी निवेश के बाद क्या अप्रत्यक्ष रूप से एयरसेल का नियंत्रण कंपनी के हाथ में नहीं आ गया था और क्या यह प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से जुड़े नियमों का उल्लंघन नहीं है? मैक्सिस के 7880.82 करोड़ रुपये के निवेश के मुकाबले रेड्डी परिवार ने डेक्कन डिजिटल के जरिए एयरसेल में 26 फीसदी की अप्रत्यक्ष हिस्सेदारी के लिए सिर्फ 34.17 करोड़ रुपये का निवेश किया था. मैक्सिस-एयरसेल का सौदा होने के बाद मार्च, 2006 में मलेशिया स्टॉक एक्सचेंज, बुरसा मलेशिया को सूचना देते हुए मैक्सिस ने सेल्फडिक्लेरेशन दाखिल किया था कि एयरसेल में अपने निवेश से हुए मुनाफे में उसका हिस्सा 99.3 फीसदी होगा.

सवाल ये भी हैं कि क्या  रेड्डी परिवार ने, अपने बड़े साझीदार के साथ प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से जुड़े नियमों का उल्लंघन नहीं किया? मैक्सिस ने बतौर भारतीय साझीदार रेड्डी परिवार क्यों चुना? इस मामले में एक बात तो साफ है कि इसकी वजह रेड्डी परिवार की आर्थिक हैसियत कतई नहीं है. उन्होंने एयरसेल की एक होल्डिंग कंपनी में महज 34.17 करोड़ रुपये का निवेश किया है. तो क्या रेड्डी बंधु किसी तीसरे और प्रभावशाली व्यक्ति की तरफ से काम कर रहे थे जो सीधा इस सौदे में शामिल नहीं हो सकता था? (गौरतलब है कि दयानिधि के पिता मुरासोली मारन का 2003 में चेन्नई के अपोलो हॉस्पिटल में काफी लंबे समय तक इलाज चला था. यह माना जाता है कि इस दौरान उनकी काफी अच्छी देखभाल की गई थी और तभी से मारन और रेड्डी परिवार की नजदीकियां बढ़ीं).

सीबीआई इन गुत्थियों को सुलझाने की कोशिश कर रही है. दिसंबर, 2010 में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के आधार पर वह 2001 के बाद आवंटित लाइसेंस और स्पेक्ट्रम के मामलों की जांच भी कर रही है. इस सिलसिले में उसने कुछ अज्ञात व्यक्तियों के खिलाफ जांच भी शुरू की है. सूत्रों के मुताबिक जांच अब  खत्म होने वाली है और सीबीआई जल्द ही यह तय करेगी कि 2जी घोटाले में और नये लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज किए जाने की जरूरत है या नहीं.

अपोलो हॉस्पिटल की निदेशक सुनीता रेड्डी ने तहलका के भेजे अपने लिखित स्पष्टीकरण में कहा है, ‘ हम आपको सूचित कर रहे हैं कि अपोलो हॉस्पिटल और डॉ प्रताप सी रेड्डी का टेलीकॉम सेक्टर में कोई निवेश नहीं है. हम आगे यह भी स्पष्ट करना चाहते हैं कि सिंद्या सिक्युरिटीज एंड इनवेस्टमेंट प्राइवेट लिमिटेड, जिनके प्रोमोटर पी द्वारकानाथ रेड्डी और श्रीमति सुनीता रेड्डी हैं, ने एयरसेल में निवेश किया है और टेलीकॉम सेक्टर एक उभरता हुआ क्षेत्र है इसलिए यह पूरी तरह रणनीतिक निवेश है…हम आगे यह भी स्पष्ट करना चाहते हैं कि सिंद्या सिक्युरिटीज एंड इनवेस्टमेंट प्राइवेट लिमिटेड का एयरसेल में निवेश पूरी तरह भारतीय नियमों और सभी विनियामकों की मंजूरी/सहमति से हुआ था.’ तहलका ने कलानिधि मारन और दयानिधि मारन को भी कुछ सवाल भेजे थे लेकिन उनकी तरफ से हमें कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली.

मैक्स ने सन डायरेक्ट और सन रेडियो में भारी निवेश किया

जैसा कि बताया जा चुका है मैक्सिस द्वारा एयरसेल के टेकओवर के बाद न सिर्फ एयरसेल के वे आवेदन मंजूर हो गए जो दो साल से भी ज्यादा वक्त से लटके पड़े थे, बल्कि सात नये टेल्कॉम सर्कलों में ऑपरेट करने के लिए दिए गए कंपनी के नये आवेदनों को भी चटपट मंजूरी मिल गई. पहले के सात और नये सात आवेदनों को मिलाकर कंपनी ने कुल 14 लाइसेंसों के लिए 1,399 करोड़ रु अदा किए. कैग के आकलन के मुताबिक अगर बोली के जरिये नीलामी होती तो इन 14 लाइसेंसों के एवज में सरकार की झोली में 22,000 करोड़ रु से भी ज्यादा की रकम आ सकती थी.

मार्च 2007 में, यानी लाइसेंस मिलने के तीन महीने बाद मैक्सिस ग्रुप की एक कंपनी एस्ट्रो ऑल एशिया नेटवर्क्स ने अपनी एक सबसिडियरी साउथ एशिया एंटरटेनमेंट लि. के जरिए भारत में डीटीएच सेवा उपलब्ध कराने के लिए सन डायरेक्ट टीवी के साथ एक साझे उपक्रम का एलान किया.

दो मार्च और 19 मार्च, 2007 को विदेशी निवेश संवर्धन बोर्ड और सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने एस्ट्रो को सन डायरेक्ट में 20 फीसदी हिस्सेदारी खरीदने के लिए जरूरी मंजूरियां दे दीं.

10 दिसंबर, 2007 को एस्ट्रो ने सन डायरेक्ट के 39,677,420 शेयर खरीद लिए. इसके लिए 315.71 करोड़ रुपये चुकाए गए. अब एस्ट्रो की सन डायरेक्ट में 20 फीसदी हिस्सेदारी हो चुकी थी. फरवरी, 2008 से जनवरी, 2009 के दौरान एस्ट्रो ने सन डायरेक्ट में और 29,319,882 नये शेयर खरीद लिए जिसके लिए उसने 233.3 करोड़ रुपये चुकाए. नए शेयरों की खरीद इस तरह से की गई कि सन डायरेक्ट में मारन परिवार की हिस्सेदारी 80 फीसदी से नीचे न जाए और एस्ट्रो की 20 फीसदी से ऊपर. पांच दिसंबर, 2009 को एस्ट्रो ने 6,283,775 अतिरिक्त शेयर और खरीदे और इसके लिए कुल 50 करोड़ रुपये चुकाए. यह भी इसी अंदाज में हुआ कि एस्ट्रो की हिस्सेदारी 20 फीसदी ही बनी रहे.

28 फरवरी, 2008 को एस्ट्रो ने अपनी सबसिडियरी साउथ एशिया मल्टीमीडिया टेक्नॉलॉजीज लि. के जरिए मारन ग्रुप के स्वामित्व वाली साउथ एशिया एफएम लि. (एसएएफएल) में 6.98 फीसदी हिस्सेदारी खरीदी. इसके लिए 14.92 करोड़ रु चुकाए गए. एसएएफएल के पास भारत में 23 एफएम रेडियो स्टेशनों के लाइसेंस थे. 

जुलाई, 2009 में रेडियो उद्योग के क्षेत्र प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से जुड़े नियमों में बदलाव से एस्ट्रो को एसएएफएल में अपनी सीधी हिस्सेदारी बढ़ाने की छूट मिल गई. जुलाई, 2009 में हिस्सेदारी का यह आंकड़ा 20 फीसदी तक पहुंच गया. यह कुछ इस क्रम में हुआ.

22 जून, 2009 को 19.23 करोड़ रु में एसएएफएल के 1,922,854 के नए इक्विटी शेयरों की खरीद की गई

23 जुलाई, 2009 को 19.39 करोड़ में एसएएफएल के 19,389,198 नये इक्विटी शेयर खरीदे गए

23 जुलाई 2009 को ही 13.84 करोड़ रु चुकाकर एएच मल्टीसॉफ्ट प्राइवेट लि. से एसएएफएल के 13,836,296 शेयरों की खरीद की गई. तीन अगस्त 2009 को एसएएफएल में 43,900, 136 सीसीपी शेयरों की खरीद के एवज में कुल 43.90 करोड़ रु चुकाए गए. 

रिश्वत के आरोपों को नकारते हुए मैक्सिस कम्युनिकेशन ने 24 मई को एक बयान जारी किया. इसमें उनसे कहा है कि एयरसेल में अपनी हिस्सेदारी बेचने के लिए शिवा ग्रुप पर कोई दबाव नहीं डाला गया था. कंपनी ने इस पर भी जोर दिया कि एयरसेल में मैक्सिस के निवेश और सन डायरेक्ट टीवी में एस्ट्रो के निवेश का आपस में कोई संबंध नहीं है.

मैक्सिस-सन डायरेक्ट सौदे में सीबीआई क्या तलाश रही है ?

सीबीआई ने ए राजा पर लाइसेंस जारी करने में पहले आओ पहले पाओ नीति के गलत इस्तेमाल का आरोप लगाया है. जांच एजेंसी का आरोप है कि राजा ने 2001 की दरों पर ही लाइसेंस जारी कर दिए, बिना यह विचार किए हुए कि दूरसंचार क्षेत्र में इस दौरान अपार विस्तार हो चुका है. सीबीआई के मुताबिक स्वान और यूनिटेक जैसी कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए राजा ने मनमाने तरीके से फैसले लिए. उन्हें 2001 की कीमत पर लाइसेंस दिए गए और आवेदनों में कई झोल होने के बावजूद. जांच एजेंसी के मुताबिक इसके एवज में उन्हें और कनिमोरी को कथित रूप से 200 करोड़ रु मिले जिन्हें डीएमके के टीवी चैनल कलैनार टीवी में निवेश की तरह दिखाया गया.
अब सवाल उठता है कि क्या मारन ने भी ऐसा ही किया था. क्या उन्होंने भी पहले आओ- पहले पाओ की नीति का दुरुपयोग करते हुए मैक्सिस-एयरसेल सौदे के बाद एयरसेल को कथित रूप से फायदा पहुंचाया?

कनीमोरी और अन्य के खिलाफ अपने पूरक आरोपपत्र में सीबीआई ने अपने इस दावे के समर्थन में 14 कारण गिनाए हैं कि कलैनार टीवी में 200 करोड़ का निवेश एक वास्तविक कारोबारी सौदा नहीं था. इसमें शेयरहोल्डरों के बीच कोई समझौता नहीं हुआ. बलवा ने अपनी सबसिडियरी कंपनी कूसेगांव फ्रूट्स एेंड वेजीटेबल्स में पैसा हस्तांतरित किया था जिसने इसे सिनेयुग को हस्तांतरित किया और यहां से पैसा कलैनार टीवी को गया. कलैनार और सिनेयुग का दावा था कि पैसे का हस्तांतरण कलैनार टीवी में 20 फीसदी हिस्सेदारी खरीदने के लिए हुआ. उधर 2009 में कलैनार टीवी की बैलेंस शीट देखी जाए तो इसमें उस पैसे का एक हिस्सा ही दर्ज दिखता है. 25 करोड़ की इस रकम को असुरक्षित कर्ज के रूप में दिखाया गया है. आखिर में पूरी रकम इक्विटी यानी हिस्सेदारी में नहीं बदली गई बल्कि इसे कर्ज के रूप में दिखाया गया और वापस कर दिया गया. यह वापसी भी तब हुई जब 2010 में सीबीआई ने राजा को पूछताछ के लिए बुलाया.
अब सवाल उठता है कि क्या मैक्सिस-सन डायरेक्ट टीवी सौदे और मैक्सिस-सन रेडियो सौदे में सब कुछ ठीक तरीके से हुआ. क्या सीबीआई को यह साबित करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य मिल पाएंगे कि ये सौदे भी बलवा-सिनेयुग-कलैनार सौदे की तरह आपसी फायदे के सौदे थे? जहां सीबीआई ने अपने पत्ते अभी नहीं खोले हैं वहीं जस्टिस पाटिल ने इस साल 31 मई को दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल को सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में मारन की भूमिका कई मौकों पर दोषपूर्ण पाई है. रिपोर्ट में एयरसेल के आवेदनों को बिना वजह लटकाए रखने का जिक्र तो है ही यह मारन की मनमानी के कई और उदाहरण भी उजागर करती है.

रिपोर्ट कहती है कि आइडिया सेल्यूलर को इसके यूएएसएल आवेदन में हुई गड़बड़ियों को सुधारने के लिए एक साल का विस्तार दिया गया था. गौरतलब है कि आइडिया ने मुंबई सर्विस एरिया के लिए यूएएसएल के लिए तीन अगस्त, 2005 को आवेदन किया था. यह विस्तार सदस्य (वित्त) की मंजूरी के बिना दिया गया. उस समय के दिशानिर्देश कहते थे कि आवेदनों में हुई गड़बड़ियां सुधारने के लिए अधिकतम समय सीमा ज्यादा से ज्यादा तीस दिन की ही हो सकती है और वह भी सदस्य (वित्त) की मंजूरी के साथ ही मान्य होगी. मगर आइडिया सेल्यूलर के मामले में जो हुआ वह साफ तौर पर बताता है कि नियमों का उल्लंघन हुआ. जस्टिस पाटिल ने कहा भी है कि स्पष्ट तौर पर तय दिशानिर्देशों का पालन नहीं किया गया.

14 दिसंबर, 2004 को एस्सार स्पेसटेल प्रा. लि. ने असम, बिहार, हिमाचल प्रदेश, जम्मू एवं कश्मीर, पूर्वोत्तर, उड़ीसा, मध्य प्रदेश के लिए यूएएसल के लिए आवेदन किया था. 12 जनवरी, 2005 को दूरसंचार मंत्रालय ने एस्सार को इक्विटी स्ट्रक्चर में कमियों का ध्यान दिलाते हुए एक पत्र लिखा. पत्राचार 18 मई , 2006 तक चलता रहा. जस्टिस पाटिल ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है, ‘सूचना मांगने और कमियां बताने का काम चरणबद्ध तरीके से हुआ.’ इससे मारन की नीतियों के संदेहास्पद होने का संकेत मिलता है.

कैसे मारन ने स्पेक्ट्रम की कीमतों को वित्त मंत्रालय के दायरे से बाहर रखा

डिशनेट-एयरसेल के आवेदन में हो रही असामान्य देरी और लाइसेंस से जुड़े कई दूसरे मामलों में मारन द्वारा की गई गड़बड़ी के अलावा जस्टिस पाटिल ने इस पहलू पर भी विस्तार से रोशनी डाली है कि किस तरह से मारन स्पेक्ट्रम की कीमत जैसे महत्वपूर्ण मसले को वित्त मंत्रालय के दायरे से बाहर रखवाने में सफल रहे. 23 फरवरी, 2006 को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की हरी झंडी मिलने के बाद मंत्रियों के एक समूह का गठन किया गया था. इसका काम था स्पेक्ट्रम के प्रभावी और अधिकतम इस्तेमाल से जुड़े मुद्दों तो देखना. इस समूह में रक्षामंत्री, गृहमंत्री, वित्तमंत्री, संसदीय कार्यमंत्री और दूरसंचार मंत्री शामिल थे. इसके कार्यक्षेत्र में स्पेक्ट्रम कीमतों के निर्धारण संबंधी सुझाव देना भी शामिल था.

लेकिन 28 फरवरी, 2006 को मारन ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखकर स्पेक्ट्रम की कीमत को मंत्रिमंडलीय समूह के कार्यक्षेत्र से बाहर करने के लिए कहा. उन्होंने लिखा, ‘एक फरवरी, 2006 को हुई हमारी मुलाकात आपको याद होगी. उस दौरान यह बात हुई थी कि मंत्रिमंडलीय समूह का दायरा सिर्फ रक्षा विभाग द्वारा खाली किए गए स्पेक्ट्रम तक ही होगा. आपने मुझे आश्वासन दिया था कि इसका कार्यक्षेत्र हमारे मनमुताबिक ही होगा और उस वक्त यह दायरा रक्षा विभाग द्वारा खाली किए जा रहे स्पेक्ट्रम तक ही सीमित था. अब मुझे यह जानकर हैरानी है कि इसका दायरा फैलता ही जा रहा है. इनमें से कुछ चीजें तो ऐसी हैं कि उनका मंत्रालय के सामान्य कामकाज से सीधा टकराव हो रहा है. यदि आप  संबंधित पक्ष को कार्यक्षेत्र की सीमाओं में हमारे द्वारा सुझाए गए सुधार करने के लिए निर्देश दे सकें तो मैं आपका अत्यंत आभारी रहूंगा.’

कैग के मुताबिक अगर बोली के जरिए नीलामी होती तो इन 14 लाइसेंसों के लिए सरकार को 22000 करोड़ रु से भी ज्यादा मिलते

प्रधानमंत्री ने उनकी बात मान ली और सात दिसंबर, 2006 को मंत्रिमंडलीय समूह के कार्यक्षेत्र का पुनर्निर्धारण करते हुए स्पेक्ट्रम की कीमतों से जुड़े प्रावधान को खत्म कर दिया गया. इसके छह महीने बाद, छह जून, 2007 को (13 मई, 2007 को मारन को हटाकर ए राजा को दूरसंचार मंत्री बना दिया गया था) वित्त मंत्रालय ने स्पेक्ट्रम की कीमत को मंत्रिमंडलीय समूह के कार्यक्षेत्र में शामिल करने की मांग की. लेकिन दूरसंचार विभाग के सचिव ने किसी भी तरह के फेरबदल से इनकार कर दिया. इस तरह मारन ने जो राह चुनी थी राजा उसी पर आगे बढ़ते रहे. यूएएसएल और स्पेक्ट्रम की कीमत से जुड़े सभी फैसले दूरसंचार विभाग ने वित्त मंत्रालय की मंजूरी के बिना ही लिए जबकि भारत सरकार के नियमों के मुताबिक यह जरूरी था.
दोनों मंत्रियों ने स्पेक्ट्रम की कीमत का मुद्दा कैबिनेट और मंत्रियों के समूह के दायरे से दूर ही रखा. इसके बाद भी यह बाद हैरान करती है कि न तो सरकार और न ही प्रधानमंत्री कार्यालय में से किसी ने इस पर कोई सवाल खड़ा नहीं किया.

संचार भवन में मारन का तीन वर्षीय कार्यकाल विवादों से भरपूर रहा था. उनके रतन टाटा के साथ बेहद तनावपूर्ण संबंध रहे. ये चर्चा चौफेर थी कि मारन बंधु टाटा स्काई में मोटी हिस्सेदारी चाहते थे. लेकिन जब टाटा ने उनके इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया तब दूरसंचार विभाग ने टाटा टेलीसर्विसेज के विस्तार की राह में रोड़े अटकाना शुरू कर दिया. साल 2010 के मध्य में सामने आए नीरा राडिया और रतन टाटा की बातचीत के टेप में टाटा की मारन के प्रति गहरी नाराजगी और दूरसंचार मंत्री के रूप में ए राजा की पसंदगी जाहिर होती है. उसमें टाटा ने चिंता जताई थी कि अब मारन राजा के पीछे हाथ धोकर पड़ जाएंगे.

इसी साल एक और पूर्व दूरसंचार मंत्री अरुण शौरी ने यह कहकर मारन को कटघरे में खड़ा किया कि टूजी घोटाले के असली सूत्रधार मारन थे. उनका कहना था, ‘मारन के समय में ही शर्तों में एक और वाक्य जोड़ा गया जिसके मुताबिक एक सर्कल में ऑपरेटरों की अधिकतम संख्या पर कोई रोक-टोक नहीं होगी. इस तरह के बदलाव सिर्फ दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (टीआरएआई) के द्वारा ही प्रस्तावित हो सकते हैं. ‘शर्तों में यह परिवर्तन 2005 में ही हो गया था जबकि ट्राई ने 2007 में जाकर इसकी संस्तुति की. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर किस ज्योतिष ज्ञान की बदौलत मारन ने दो साल पहले ही यह संस्तुति कर दी थी? इससे साफ संकेत मिलता है कि असल में कुछ योजनाएं बनी थीं जो पूरी नहीं हो सकीं और जिन्हें बाद में ए राजा ने अंजाम दिया.’

तो क्या मारन ने टूजी घोटाले की नींव रखी थी? क्या एयरसेल-मैक्सिस-सन डाइरेक्ट टीवी के बीच हुआ सौदा उस पूरे घोटाले का एक नमूना भर था जिसे बाद में ए राजा ने बड़े पैमाने पर अंजाम दिया? इसका जवाब पुख्ता सबूतों में छिपा है और यहीं पर सीबीआई की असल परीक्षा होनी है.