भारत में बढ़ती असहिष्णुता को लेकर देश छोड़ने के बॉलीवुड अभिनेता आमिर खान के बयान को लेकर बवाल मचा हुआ है. सरकार ने इसे देश में डर फैलाने की कोशिश बताया है. आमिर के इस बयान के बाद सरकार ने कहा कि आमिर देश में सुरक्षित हैं और देश छोड़ने की बात कहकर उन्होंने अपने चाहने वालों का अपमान किया है. केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी ने कहा कि हम आमिर को देश छोड़कर नहीं जाने देंगे. वे यहां सुरक्षित हैं. उन्होंने ये भी कहा कि उनका बयान राजनीति से प्रेरित है. सरकार के साथ ही पाकिस्तानी मूल के लेखक तारिक फतह ने भी आमिर के बयान की आलोचना की है. तारिक ने कहा, ‘हिंदुस्तान मुसलमानों के लिए सबसे सुरक्षित जगह है. अगर आमिर यहां असुरक्षित महसूस करते हैं, तो हर जगह असुरक्षित महसूस करेंगे.’
सोमवार को नई दिल्ली में आमिर ‘रामनाथ गोयनका पुरस्कार’ समारोह में बोल रहे थे जब उन्होंने कहा कि देश में बिगड़ते माहौल को लेकर एक बार उनकी पत्नी किरण राव ने देश छोड़ने की बात कही थी. वे बच्चों के भविष्य को लेकर चिंतित हैं.
आमिर ने देश की छवि को धक्का पहुंचाया : सरकार
केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरन रिजिजू ने कहा कि आमिर खान ने ऐसा बयान देकर देश की छवि को चोट पहुंचाई है. आंकड़े बताते हैं कि एनडीए सरकार में सांप्रदायिक घटनाएं कम हुई हैं, ऐसे में यह कहना कि असहिष्णुता बढ़ी है, गलत है. समस्याएं हैं, पर उन्हें मिलकर सुलझाना होगा.
विपक्ष ने सरकार पर साधा निशाना
विपक्ष ने आमिर खान के बयान के जरिए सरकार पर फिर निशाना साध लिया है. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा, ‘आमिर खान देशभक्त हैं और अगर वे किसी मुद्दे पर सवाल उठा रहे हैं, तो सरकार को उनकी बात सुननी चाहिए. हर उस व्यक्ति की देशभक्ति पर सवाल उठाया जा रहा है, जो सरकार के खिलाफ आवाज उठा रहा है.’ वहीं भाजपा नेता शाहनवाज हुसैन ने एक प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि आमिर डर नहीं रहे हैं, बल्कि लोगों को डरा रहे हैं और राहुल गांधी सहिष्णुता का पाठ न पढ़ाएं. सबसे ज्यादा असहिष्णुता कांग्रेस के शासन में ही फैली है.
दो खेमों में बंटा सोशल मीडिया
आमिर के बयान को लेकर सोशल मीडिया भी दो खेमों में बंट गया है. जहां बॉलीवुड अभिनेता अनुपम खेर ने ट्विटर पर उनके बयान की आलोचना की, वहीं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने उनका समर्थन किया. अनुपम खेर ने लिखा, ‘आमिर ने ऐसा बयान देकर असहिष्णुता की लौ को हवा दी है’. वहीं केजरीवाल का कहना है कि आमिर का कहा एक-एक शब्द सही है. सोशल मीडिया पर हैशटैग आमिर खान और हैशटैग इंटॉलरेंस पर लोग अपनी प्रतिक्रियाएं दे रहे हैं.
पत्रकारिता के क्षेत्र में उत्कृष्ट काम करने के लिए दिया जाने वाला ‘रामनाथ गोयनका एक्सीलेंस इन जर्नलिज्म’ अवार्ड इस साल कुल 57 पत्रकारों को दिया गया. पुरस्कार वितरण समारोह सोमवार को नई दिल्ली के आईटीसी मौर्या होटल में संपन्न हुआ. समारोह के मुख्य अतिथि वित्त और सूचना प्रसारण मंत्री अरुण जेटली थे.
ये पुरस्कार 2013-14 के लिए दिए गए थे, जिसमें सरोकारी पत्रकारिता करने के लिए मशहूर ‘तहलका’ को तीन पुरस्कार मिले. इसमें 2013 के लिए दो और 2014 के लिए एक पुरस्कार शामिल हैं. 2013 का ‘सर्वश्रेष्ठ हिंदी पत्रकारिता- प्रिंट’ श्रेणी का पुरस्कार राहुल कोटियाल और अतुल चौरसिया को ‘हत्याग्रही गांधी’ (तहलका हिंदी, अंक 31 मई 2013) के लिए मिला, वहीं 2014 में इसी श्रेणी में बृजेश सिंह की रिपोर्ट ‘क्यों छोड़े कोई आतंकवाद’ (तहलका हिंदी, अंक 15 अप्रैल 2014) को इस पुरस्कार से सम्मानित किया गया. ‘सर्वश्रेष्ठ अंग्रेजी पत्रकारिता- प्रिंट’ (2013) श्रेणी में ‘तहलका’ के ही रियाज़ वानी को ये पुरस्कार मिला.
‘तहलका हिंदी’ को लगातार पांचवें साल ‘सर्वश्रेष्ठ हिंदी पत्रकारिता- प्रिंट’ का रामनाथ गोयनका पुरस्कार मिला है. समारोह में शिरकत करने वाली हस्तियों में अभिनेता-निर्देशक आमिर खान, कांग्रेस नेता शशि थरूर, जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूख अब्दुल्ला, पूर्व वित्त मंत्री पी.चिदंबरम, भाजपा नेता राजीव प्रताप रूडी और भाजपा सांसद मनोज तिवारी शामिल थे.
दिल्ली के पटपड़गंज पश्चिम इलाके में बना ये घर विभिन्न कलाओं का केंद्र कहा जा सकता है. ये घर बहल परिवार का है. बहल परिवार यानी मां नवनिंद्र बहल, पिता ललित बहल और बेटे कनु बहल.
नवनिंद्र बहल पंजाबी साहित्य की पढ़ाई के बाद पटियाला की पंजाबी यूनिवर्सिटी के नाटक विभाग में पढ़ा चुकी हैं. उन्होंने थिएटर के लिए नाटक लिखे, उनका निर्माण किया साथ ही अभिनय में भी हाथ आजमाया. रंगमंच अभिनेता के रूप में उनके पति ललित बहल भी काफी सक्रिय रहे हैं. देश में जब टीवी इंडस्ट्री शुरुआती दौर में थी, तब ही बहल दंपत्ति उसमें हाथ अाजमा चुके थे. उस दौर में पंजाब में मची उथल-पुथल पर गुलजार की फिल्म ‘माचिस’ बाद में आई, उससे पहले ही ललित इस समस्या पर चर्चित टीवी धारावाहिक ‘अफसाने’ और टेलीफिल्म ‘हैप्पी बर्थडे’ और ‘तपिश’ बना चुके थे. वैसे नवनिंद्र तो हिंदी फिल्मों में छोटी लेकिन यादगार भूमिकाएं निभा चुकी हैं. बड़े परदे पर नवनिंद्र आखिरी बार विकास बहल की फिल्म ‘क्वीन’ में दिखीं थीं, जहां वे उस पंजाबी एनआरआई आंटी के किरदार में थीं, जो टूटी-फूटी फ्रेंच बोलती हैं. ललित को कभी फिल्मों में हाथ आजमाने का मौका नहीं मिला था लेकिन ये कमी भी तब दूर हो गई जब दो साल पहले उन्हें दिबाकर बनर्जी और यशराज फिल्म्स के बैनर तले बनने वाली फिल्म ‘तितली’ में ‘डैडी’ के किरदार के लिए चुना गया. यहां बात हालिया रिलीज फिल्म तितली के निर्देशक कनु बहल के परिवार की हो रही है , जिनके खून में ही रंगमंच, सिनेमा और अभिनय बसा हुआ है.
कनु की पहली फिल्म ‘तितली’ काफी वाहवाही बटोर रही है. यह कार चोरों के एक परिवार की कहानी है, जो दिल्ली के एक उपनगर में रहता है. इस तरह की कहानियां ही लोगों में उत्सुकता जगाने के लिए काफी होती हैं लेकिन दिलचस्पी तब और बढ़ जाती है जब मुख्य किरदार निभा रहे अभिनेता निर्देशक के पिता हों और फिर पता चले कि फिल्म के किरदारों के चयन की प्रक्रिया और भी मजेदार रही थी.
फिल्म में दिखाया गया है कि परिवार में कितनी बातें एक से दूसरे में आती हैं और ज्यादातर समय उन्हें भी इस बात का एहसास नहीं होता
बिना लाग-लपेट बोलने वाले कनु बताते हैं, ‘फिल्म में ‘डैडी’ के किरदार के रूप में अपने पिता को लेने का निर्णय एक जरूरत के मद्देनजर लिया गया. फिल्म की स्क्रिप्ट का पहला ड्राफ्ट बिल्कुल अलग था, यह अपने समय से आगे की कहानी थी. फिर भी मुख्य किरदार तितली के अलावा बड़े भाई का किरदार काफी बचकाना लग रहा था. इस पर मेरे और फिल्म के सह-लेखक शरत कटारिया के बीच काफी सोच-विचार और बहस हुई. कथानक पर हो रही बहस के बीच ही पिता का किरदार जेहन में आया. उसके बाद डैडी की भूमिका को निभाने के लिए एक अभिनेता को खोजने की जद्दोजहद शुरू हुई. ये पात्र ज्यादा अर्थपूर्ण नहीं था और तमाम वरिष्ठ अभिनेता इस तरह के किरदार सरलता से निभा लेते हैं, लेकिन मुझे एक ऐसा अभिनेता चाहिए था जो नैचुरल लगे.’ बहरहाल फिल्म के कास्टिंग डायरेक्टर अतुल मोंगिया के साथ काफी माथापच्ची करने के बाद ललित बहल को इस भूमिका के लिए चुना गया. कनु बताते हैं, ‘बड़े होने के दौरान मेरा और मेरे पिता का रिश्ता तनावपूर्ण रहा है, इसलिए ‘डैडी’ किरदार के पीछे के कुछ पहलुओं से वे पहले से ही वाकिफ थे.’
एक असामान्य परिवार के इर्द-गिर्द कहानी गढ़ने का विचार कनु के जीवंत अनुभवों से निकला था. वे बताते हैं, ‘तितली से पहले मैं किसी दूसरी स्क्रिप्ट पर काम कर रहा था जो बन नहीं पा रही थी. फिर मुझे लगा कि शायद वह एक अच्छी स्क्रिप्ट नहीं थी और मैं उसे पूरी ईमानदारी से नहीं लिख पा रहा था. व्यक्तिगत तौर पर तब मैं अपने तलाक के तनाव से जूझ रहा था और तब मैं सोचने पर मजबूर हो गया कि आखिर मैं फिल्में बनाना ही क्यों चाहता हूं! ‘तितली’ की कहानी वास्तव में तब निकलकर सामने आई जब मैंने खुद से कहा कि आगे जो भी करूंगा वह निजी और ईमानदार होगा.’
तब एक बड़े भाई की ज्यादतियों से परेशान होकर घर छोड़कर भागने की योजना बनाने वाले लड़के की कहानी सहज रूप में कनु के जेहन में आई. कनु मानते हैं कि जब कथानक लिखा जा रहा था तब ये कहानी पितृसत्ता, पारिवारिक हिंसा और भाग जाने को लेकर बुनी गई थी लेकिन फिल्म एक अलग ही रूप में निकलकर सामने आई. कनु बताते हैं, ‘फिल्म एक चक्र में चलती है. फिल्म में दिखाया गया है कि परिवार में कैसे, कितनी बातें एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे में आ जाती हैं और ज्यादातर समय खुद उन्हें भी इस बात का एहसास नहीं होता.’ यहां ललित भी हामी भरते हुए बताते हैं, ‘फिल्म में ऐसी ही कुछ बारीकियों को शामिल किया गया है. उदाहरण के लिए, आप जिस तरह दांतों को साफ करते हैं, कभी आप ध्यान दें तो पता लगेगा कि ये आप बिल्कुल अपने पिता की तरह ही करते हैं. अगर आप अपने परिवार से दूर भी हैं तब भी ये आपके अंदर ही, आपके साथ चलता है.’
साफगोई कनु को शायद उनके पिता से ही मिली है, जिन्होंने शुरुआत में फिल्म में कोई भी किरदार निभाने से साफ-साफ इंकार कर दिया था. इस फैसले के पीछे उनके अपने कारण थे. ललित कहते हैं, ‘मेरे दिमाग में कहीं ये था कि ये हम दोनों के लिए ही पहली फिल्म है. मेरा उसके साथ वैसे ही खटास भरा रिश्ता था. मैं इसलिए भी परेशान था कि कहीं अगर फिल्म चल नहीं पाई या मैं अपने किरदार से न्याय नहीं कर पाया तो इस असफलता के लिए कसूरवार मुझे ठहराया जाएगा.’ इसी के चलते उन्हें किरदार निभाने के लिए राजी करने के लिए दोस्तों और परिवार की जरूरत पड़ी लेकिन एक बार जब वे फिल्म के सेट पर पहुंच गए तो उन्हें समझ आ गया कि फिल्म के विषय पर कनु की पकड़ काफी मजबूत है.
कनु के मुताबिक, ‘वे अपने साथ वह संजीदगी और मजबूती लेकर आए जो किरदार के लिए चाहिए थी.’ लेकिन उनके पिता को फिल्म के सेट पर कभी भी स्क्रिप्ट नहीं दिखाई गई इसलिए वे इसका अंदाजा भी नहीं लगा पाए कि फिल्म आखिर है किसके बारे में. ललित मानते हैं कि फिल्म की शूटिंग से पहले होने वाली वर्कशॉप में जाने से उन्हें थोड़ा अंदाजा जरूर हो जाता था कि फिल्म किस दिशा में बढ़ रही है. फ्रांस में स्क्रीनिंग के वक्त ही ललित ने इस फिल्म को पहली बार देखा. ललित मानते हैं कि फिल्म में कुछ तत्व हैं जिनसे वह सहमति नहीं रखते लेकिन एक अभिनेता होने के नाते वह अपने निर्देशक को अलग रचनात्मक सोच रखने की आजादी देने को तैयार थे. हालांकि कनु बताते हैं कि फिल्म की शूटिंग के वक्त वे उत्सुकता से अपने पिता से ये पूछते थे कि उन्होंने अपने किरदार के लिए थोड़ी सी भी तैयारी की है या नहीं. तब ललित निष्पक्षता से जवाब देते कि उन्हें अपने निर्देशक की सोच में विश्वास है और वे वही करते हैं जो उनसे कहा जाता है.
बाप-बेटे के बीच इस तनावपूर्ण रिश्ते का कारण कनु के बचपन में छिपा है. नवनिंद्र बताती हैं, ‘सृजनात्मकता हमारे परिवार में रही है. मेरे पिता नाटककार थे और मां अभिनेत्री इसीलिए जब मैंने और ललित ने भी उसी दिशा में कदम बढ़ाए तो अपने ही बेटे को समय नहीं दे सके.’
जब 80 के दशक में लोग परिवार के साथ फिल्में देखने जाने लगे तब पारिवारिक फिल्मों को सिर्फ खुशियां मनाने तक सीमित कर दिया गया
यहां नवनिंद्र को बीच में रोकते हुए ललित बताते हैं, ‘अब कनु की फिल्म देखकर लगता है कि बड़े होने के दौरान उसने खुद को कितना उपेक्षित महसूस किया होगा.’ ललित ने अपनी पहचान खुद बनाई है और वे कनु के भविष्य को लेकर खासे चिंतित थे. उन्हें लगता था अभिनय कनु के लिए सबसे अच्छा विकल्प होगा. कनु अपने माता-पिता के टीवी धारावाहिकों का छोटा-मोटा हिस्सा भी बने पर धीरे-धीरे उनके माता-पिता समझ ही गए कि उन दोनों की प्राथमिकता भले ही अभिनय हो पर उनका बेटा ये नहीं करना चाहता. जब कनु ने फिल्म निर्देशक बनने की ख्वाहिश जाहिर की, तब उनके पिता को उन पर संदेह था. ललित बताते हैं, ‘वो खुद एक बच्चा था, उसमें निर्देशन के लिए जरूरी गंभीरता कैसे आ सकती थी, वो कैसे ऐसा निर्देशन कर सकता था जो अपरिपक्व न लगे.’
वैसे जब सिनेमा से जुड़े पारिवारिक संबंधों की बात आती है तब एक सवाल हमेशा खड़ा होता है कि भारतीय सिनेमा में परिवारों को एक सीमित परिधि में ही क्यों बांध दिया जाता है? 90 के दशक की फिल्में देखने वालों के लिए पारिवारिक फिल्म का मतलब सिर्फ ‘हैप्पी एंडिंग’ होता है.
पर नवनिंद्र ऐसा नहीं मानतीं. उनका कहना है कि 50 और 60 के दशक में भी अच्छी पारिवारिक फिल्में बनी हैं, ‘मदर इंडिया’, ‘दो बीघा जमीन’ इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं. नजरिया तब बदला जब 80 के दशक में लोग परिवार के साथ फिल्में देखने जाने लगे और पारिवारिक फिल्मों को सिर्फ सेलिब्रेशन यानी खुशियां मनाने तक सीमित कर दिया गया. कनु भी अपनी मां के विचार से सहमत हैं. वे मानते हैं कि कोई भी फिल्म उस दौर को ही दर्शाती है, जिसमें वह बनी है.
कनु विस्तार से बताते हैं कि किस तरह आजादी के बाद का भारतीय सिनेमा आदर्शवाद से प्रभावित था. फिर सत्तर के दशक की फिल्मों में गुस्सा दिखाई दिया जो इस आदर्शवादी व्यवस्था के अधूरे वादों से उपजे मोहभंग की अभिव्यक्ति था और जब इस गुस्से से भी कोई फर्क नहीं पड़ा तो 80-90 के दशकों में इसका स्तर घटना स्वाभाविक ही था. और फिर 90 के उदारीकरण के बाद फिल्मों को उत्पाद के रूप में देखा जाने लगा, तभी से ही सिनेमा ने अपनी ताकत खो दी. कनु को हाल ही में आई फिल्म निर्देशकों की नई ब्रिगेड से काफी उम्मीदें हैं. ‘बदलापुर’, ‘एनएच 10’ और ‘दम लगा के हईशा’ जैसी फिल्मों की सफलता ने इस उम्मीद को पक्का किया है. पर भारतीय सिनेमा में कोई ‘आंदोलन’ चल रहा है, वे ऐसा नहीं मानते. वे खंडन करते हुए कहते हैं, ‘वास्तव में सत्यजीत रे और ऋत्विक घटक के समय के बाद दुनिया भारत को फिर से एक फिल्म बनाने वाले देश के रूप में पहचान रही है. मैं मानता हूं कि चंद निर्देशकों की पहली फिल्में बहुत अच्छी थीं लेकिन आंदोलन सिर्फ एक फिल्म बनाने से तो नहीं होते. यहां देखने वाली बात होगी कि हम दूसरी फिल्में कैसी बनाते हैं. तभी हमारा काम करने का तरीका यह दर्शा सकता है कि कोई आंदोलन है या नहीं.
कनु इस बात को भी नहीं मानते कि फिल्म सिर्फ उसके लेखक से संबंधित होती है. वे मानते हैं कि फिल्म उन सब की होती है, जो फिल्म बनाने में शामिल रहते हैं. ‘तितली’ भी किसी एक व्यक्ति से प्रभावित नहीं बल्कि खुद में ही एक सशक्त फिल्म है. ललित भी इस बात का समर्थन करते हैं. वे दृढ़ता से कहते हैं कि ये फिल्म उभरते भारत पर एक टिप्पणी है. कनु को संशय है पर ललित मानते हैं कि इस फिल्म की तुलना ‘दो बीघा जमीन’ से की जा सकती है, जिस तरह ‘द डेथ ऑफ ए सेल्समैन’ टूटे हुए अमेरिकी ख्वाब का प्रतिबिम्ब थी, उसी तरह फिल्म ‘तितली’ भी मौजूदा समय का आईना है.
बिहार की जनता को बधाई. यह भाजपा के खिलाफ एक जरूरी जनादेश है. यह चुनाव राष्ट्रीय संदर्भ में लड़ा गया था. राष्ट्रीय संदर्भ ही इसमें प्रधान बन गया था. 17 माह की सरकार में ही केंद्र की सरकार ने जो माहौल बना दिया है, उसमें सामंती और सांप्रदायिक ताकतों का परास्त होना जरूरी था.
भाजपा के खिलाफ जनादेश पर आप ज्यादा जोर दे रहे हैं. इसे नीतीश और लालू के पक्ष में भी तो कहा जा सकता है?
यह लालूजी या नीतीशजी के पक्ष में नहीं बल्कि भाजपा के खिलाफ जनादेश है. लालूजी और नीतीशजी का गठजोड़ बेहतर बन गया तो जनता ने फिर से मोहलत दे दी.
कुछ लोग अभी से ही यह बात करने लगे हैं कि नीतीश और लालू चूंकि बिल्कुल अलग-अलग तरीके के लोग हैं, इसलिए पांच साल साथ रह नहीं पाएंगे.
कुछ गड़बड़ियां तो हैं. नीतीश दस सालों से सरकार में हैं और गरीबों व मजदूरों की जो समस्या है, वह बढ़ी ही है.
जब भाजपा के खिलाफ यह जनादेश है तो फिर वामपंथ को और मजबूत विकल्प बनना चाहिए था. छह वाम दल एक साथ मिलकर चुनाव तो लड़े लेकिन जीत तो सिर्फ आपकी पार्टी की हुई.
वामपंथ विकल्प बनने की स्थिति में अभी नहीं था. ऐसे ध्रुवीकरण के बीच तीन सीटें हमें मिली हैं, इसे इस तरह से देखिए कि वामपंथ पर लोगों का भरोसा जगा है.
वामपंथियों ने आपस में गठजोड़ तो किया, लेकिन वे सही तरीके से साथ नहीं चल सके, ऐसा भी कहा जा रहा है.
गठजोड़ पहले से हो जाता तो प्रचार की धार को और मजबूत किया जा सकता था. लेकिन बिहार ने दिशा दी है. वामपंथियों में इससे उत्साह बढ़ेगा.
आप लोगों का वोट प्रतिशत तो घटा है, सीट भले ही तीन मिल गईं?
जिन महत्वपूर्ण सीटों पर हम 2010 में चुनाव लड़े थे या 2014 के लोकसभा में लड़े, उन सीटों पर हमारा वोट प्रतिशत बढ़ा है और संख्या के हिसाब से वोट भी. आप देखिए कि मीडिया जिसे दिन रात एक कर तीसरा मोर्चा बनाने में लगी हुई थी, उनका क्या हुआ? यह तो साफ हुआ कि यहां तीसरी ताकत वामपंथी हैं. वामपंथी तत्काल विकल्प देने की स्थिति में नहीं हैं लेकिन हम लोकतांत्रिक विपक्ष की भूमिका निभाएंगे और जनता की आवाज बनने की कोशिश करेंगे.
आपकी पार्टी तो बिना विधायक के होने के बावजूद विपक्ष की भूमिका निभाती रही है. इस बार फिर नीतीश सत्ता में आए हैं. आपकी रणनीति क्या रहेगी?
बिहार में अब भी सामंती ताकतें हैं. सरकार उन्हें संरक्षण देती रही है. निश्चित तौर पर हम योजना बनाकर लड़ेंगे लेकिन ऐसा नहीं करने वाले कि नीतीश को समय दिया जाएगा कि अभी तो सरकार बनी है, एक साल का समय दिया जाए. नीतीश का यह ग्यारहवां साल है और लालू का भी सोलहवां साल है. बिहार का आंदोलन हम तुरंत शुरू करेंगे. भूमि सुधार के सवाल पर, कृषि में सरकारी निवेश के लिए, वेतनमान के लिए. ऐसे कई मसले हैं, जिन पर आंदोलन तुरंत शुरू किया जाएगा.
बिहार में तो सभी वामदल साथ मिलकर चुनाव लड़े. आगे भी कई राज्यों में चुनाव हैं. वामदलों का यह गठजोड़ अभी बना रहेगा या फिर इस पर पुनर्विचार होगा?
नहीं, यह गठजोड़ अभी बिहार के लिए था. इस पर फिर से विचार होगा. कुछ मसलों पर हमारी एकता रही है, वह रहेगी लेकिन चुनावी गठजोड़ पर विचार होगा. अब देखिए कि पश्चिम बंगाल में भी चुनाव है. वहां सिंगुर-नंदीग्राम जैसे मसले रहे हैं, जिस पर सीपीएम ने अभी तक माफी भी नहीं मांगी है. अफसोस तक नहीं जताया है. आत्म आलोचना तक नहीं की है. यह सब देखते हुए आगे विचार होगा.
क्या इस चुनाव परिणाम को इस नजरिये से भी देखें कि आइडेंटिटी पॉलिटिक्स के कल्चर में भी बदलाव हुआ है क्योंकि दलितों की राजनीति के एक बड़े चेहरे के तौर पर जीतनराम मांझी उभरे, लेकिन दलित उनके साथ नहीं गए.
आइडेंटिटी पॉलिटिक्स की भी कुछ आवश्यक शर्तें होती हैं. पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी भारतीय जनता पार्टी के साथ चले गए. उस पार्टी के साथ जो रणवीर सेना के हत्यारों की संरक्षक रही है. यह तो व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए दिवालियापन की तरह था. जीतनराम मांझी एक बड़े नेता हैं, महत्वपूर्ण नेता हैं तो लोगों ने उनका सम्मान किया. उन्हें एक सीट पर जनता ने विजयी बना दिया लेकिन भाजपा के साथ जाना लोगों को अच्छा नहीं लगा था तो उन्हें सबक भी सिखाया. रही बात रामविलास पासवान या मांझी की ओर से वोट ट्रांसफर नहीं करवा पाने की तो यह भाजपा खुद कितना वोट ट्रांसफर करवा सकी.
एक बात परिणाम के दिन से ही कही जा रही है कि अब नीतीश या लालू के लिए राष्ट्रीय राजनीति में संभावना बन गई है और 2019 के लोकसभा चुनाव पर इसका गहरा असर पड़ेगा.
अभी यह कहना जल्दबाजी होगी. अभी देखा जाएगा. भाजपा के साथ क्या हो रहा है. भाजपा ने जो नहीं कहा था, वह कर रही है और जो कहा था, वह नहीं कर रही. इसलिए भाजपा के खिलाफ अभी सिर्फ लेखक, कलाकार नहीं, मजदूर-छात्र-नौजवान और किसान सब लड़ रहे हैं. हां, बिहार के चुनाव परिणाम से उन्हें लड़ने की ताकत मिलेगी. यह साफ हो गया कि संसद के अंदर अब सरकार को मुश्किल होगी. लेकिन नीतीश कुमार और लालूजी काे अभी देखा-परखा जाना है इसलिए अभी से ही 2019 के चुनाव के बारे में बोलना जल्दबाजी है.
मनोरंजन हर तबके के लोगों के जीवन का एक खास हिस्सा होता है और हिंदुस्तान में फिल्में मनोरंजन का पसंदीदा साधन हैं. सिनेमा का हिंदुस्तान में वही महत्व है जो यूरोपीय देशों में किताबों का, हर वर्ग का व्यक्ति कमोबेश फिल्मों का शौकीन है. फिल्में आम आदमी की जिंदगी का अहम हिस्सा हैं पर मल्टीप्लेक्सों की चमक देश के सबसे निचले तबके तक नहीं पहुंच पाती और सिंगल स्क्रीन सिनेमा हॉल लगातार बंद हो रहे हैं, जहां जाना भी उनकी सीमित आय के चलते मुमकिन नहीं है. पर औद्योगिक विकास का प्रतीक बने नोएडा की कई गलियों में चल रहे सिनेमा पार्लर बॉलीवुड फिल्मों को समाज के आखिरी सिरे तक पहुंचा रहे हैं. टिनशेड में चल रहे ये सिनेमा पार्लर दिन भर की मेहनत-मजदूरी के बाद आए मुफलिसों के लिए खुशी का जरिया हैं. ‘तहलका’ एक ऐसे ही सिनेमा पार्लर तक पहुंचा और जाना कि कैसे 150 रुपये के पॉपकॉर्न युग में 15 रुपये में ‘सलमान भाई’ की फिल्म का लुत्फ उठाया जा सकता है.
नोएडा के सेक्टर 63 से सटे ममूरा गांव के आखिरी छोर पर बना है सत्यम पैलेस. यहां तक पहुंचने का रास्ता टेढ़ी-मेढ़ी गलियों और गंदगी से अटी पड़ी नालियों के बीच से होकर गुजरता है. जाहिर सी बात है कि ‘पैलेस’ बस इसके नाम में ही है. लगभग सौ गज में टिनशेड के बने सत्यम पैलेस की हालत यहां आने वाले दर्शकों की माली हालत जैसी ही है. अंदर घुसते ही टूटी-फूटी बेंच और उखड़ा हुआ फर्श आपका स्वागत करेंगे. लंबाई में बने इस कमरे के शुरू में ही एक प्रोजेक्टर रूम है, जिसमें इस पैलेस के मालिक ने अपने रहने की व्यवस्था की हुई है. यहीं से लोगों को फिल्म का टिकट दिया जाता है और अगर खुले पैसे नहीं हैं तो बाकी बचे पैसों के बदले गुटखा थमा दिया जाता है.
पैलेस के मालिक हैं तीस साल के हरिंदर बैंसला, जो उत्तर प्रदेश के बागपत के एक निर्धन परिवार से ताल्लुक रखते हैं. बचपन में ही उनके पिता की असमय मृत्यु हो गई, जिसके बाद परिवार की जिम्मेदारी मां पर आ गई. चूंकि वे घर में बड़े थे तो 12वीं के बाद पढ़ाई छोड़कर मां की जिम्मेदारी कम करने की सोची. पढ़ाई छोड़ने के बाद उन्होंने कुछ साल नोएडा के दादरी में कंस्ट्रक्शन के क्षेत्र में काम किया. उसमें अनुमानित सफलता नहीं मिली न ही काम में मन लगा. दादरी में उन्होंने ऐसे कई सिनेमा पार्लर देखे थे, वहीं से ये सिनेमा पार्लर बनाने का विचार आया और ममूरा आकर हरिंदर ने साल 2011 में सत्यम पैलेस की शुरुआत की. इसके संचालन में हरिंदर की मदद करते हैं 22 साल के दिनेश पांडेय. पांडेय इटावा के रहने वाले हैं और जैसे-तैसे 12वीं पास कर पाए हैं. पिता पंडिताई का काम करने के साथ-साथ 20 बीघा खेती की देखभाल भी करते हैं. एक छोटा भाई है जो अभी पढ़ाई कर रहा है. मालिक हरिंदर के मुकाबले उनके सहायक पांडेय के घर की स्थिति थोड़ी बेहतर है लेकिन अपने पैरों पर खड़े होने की चाहत उन्हें नोएडा खींच लाई. मालिक और सहायक का एक-दूसरे पर अटूट विश्वास है और दोनों का आपसी व्यवहार बहुत दोस्ताना है. पांडेय यहां पर काम को नौकरी की तरह न लेकर सह-मालिक के रूप में जिम्मेदारी संभालते हैं.
यहां एक नियम है. अगर आप किसी शो के शुरू होने के बाद पहुंचते हैं तो आप अगले शो में दिखाई जाने वाली फिल्म भी उसी टिकट पर देख सकते हैं यानी एक टिकट में दो फिल्मों का मजा
हम जब वहां पहुंचे तो फिल्म ‘अंजाम’ का 3 से 6 का शो खत्म होने को था. उस शो में कुल 12 दर्शक मौजूद थे. यहां सामान्य सिनेमा हालों से उलट हर शो में अलग-अलग फिल्में दिखाई जाती हैं. किसी एक फिल्म को पूरे दिन दोहराया नहीं जाता. यहां आने वाले दर्शक शहर में कुछ छोटी लेकिन जरूरी सेवाएं देते हैं, जैसे- रिक्शा चलाना, बेलदारी, जमादारी, पंचर लगाना, ढाबों पर काम करने वाले नाबालिग, सिक्योरिटी गार्ड आदि. शो देखने आने वाले लोगों का उम्र वर्ग 14 साल से लेकर 55 साल तक है. हालांकि नौजवानों की संख्या अधिक रहती है.
बहरहाल, 6 से 9 के शो में मात्र 20 दर्शक मौजूद हैं. इस शो में संजय दत्त और सलमान खान की फिल्म ‘चल मेरे भाई’ दिखाई जाने वाली है. सत्यम पैलेस में चलने वाली फिल्में पुरानी होती हैं लेकिन यहां आने वाले दर्शक उन्हें इस उत्साह और चाव से देखते हैं जैसे कि वे आज ही रिलीज हुईं हों. पूरे दिन की थकान उतारने का शायद ये उनका सबसे बेहतर जरिया होता है. यहां फिल्म का टिकट मात्र 15 रुपये है लेकिन दर्शकों को ये भी ज्यादा लगता है. मगर एकाकीपन दूर करने और दूसरे साथियों के साथ फिल्म देखने की चाहत इन्हें यहां खींच ही लाती है. शहर में अलग-थलग पड़े ये लोग जब साथ इकट्ठा होते हैं तो नजारा देखते ही बनता है. सभी अपनी परेशानियों को भूल फिल्म देखने में मशगूल हो जाते हैं.
यहां एक और नियम है. अगर आप किसी शो के शुरू होने के बाद पहुंचते हैं तो आप अगले शो में दिखाई जाने वाली फिल्म भी उसी टिकट पर देख सकते हैं यानी एक टिकट में दो फिल्मों का मजा. किसी दिन 8 से 10 लोग अगर किसी फिल्म की मांग कर दें तो उनकी फरमाइश हरिंदर खुश होकर स्वीकार कर लेते हैं. दिन में दिखाई जाने वाली फिल्मों की सूची सुबह ही पैलेस के बाहर चस्पा कर दी जाती है ताकि दर्शक अपनी पसंद के हिसाब से शो का चुनाव कर सकें. आमतौर पर पूरे दिन में तकरीबन 100 से 125 लोग यहां फिल्म देखने पहुंचते हैं. शनिवार और रविवार को दर्शकों की संख्या बढ़ जाती है. वैसे यहां हर रविवार 6 से 9 के शो में भोजपुरी फिल्में ही चलती हैं.
फिल्मों के प्रदर्शन की तकनीक के बारे में हरिंदर बताते हैं, ‘सीडी और प्रोजेक्टर के माध्यम से हम फिल्मों का प्रदर्शन करते हैं. पुरानी फिल्मों की सीडी खरीदते हैं और फिर उन्हें प्रोजेक्टर के जरिए पर्दे पर दिखाते हैं.’ जगह की कमी के चलते पर्दे के आस-पास ही टूटी-फूटी बेंचों को दर्शकों के बैठने के लिए जमाया गया है मगर इससे कोई समस्या नहीं. सबको बस फिल्म देखने से मतलब होता है, इसलिए शिकायत का तो कोई सवाल ही नहीं. हां, बीच-बीच में गाना आने पर आवाज घटाने या बढ़ाने की मांग जरूर उठती रहती है. तालियों और सीटियों के बीच गाने का पूरा आनंद लिया जाता है.
इसके संचालन के बारे में हरिंदर बताते हैं, ‘2011 में जब मैंने इस पैलेस की शुरुआत की तो दर्शकों की संख्या अच्छी-खासी रहती थी. एक-एक शो में दर्शकों की संख्या 80 से 100 के आस-पास रहती थी लेकिन अब ये बंद होने के कगार पर पहुंच गया है. कमाई तो छोडि़ए अब इसे चलाने का खर्च भी बड़ी मुश्किल से निकल पा रहा है.’ खर्च के बारे में उन्होंने बताया, ‘इसको चलाने में महीने का कुल खर्च 48 से 50 हजार रुपये पड़ता है और कमाई मात्र 60 से 65 हजार के आस-पास हो पाती है. यानी महीने के अंत में हमारे पास कमाई के नाम पर 10-15 हजार रुपये बचते हैं. इतने पैसों में हम क्या करें! इसी से मुझे अपने सहायक को भी तनख्वाह देनी होती है. पोस्टर लगाने वाले लड़के का खर्च भी इसी से निकालना पड़ता है.’ हरिंदर बाकायदा हर हफ्ते 3,000 रुपये मनोरंजन कर का भुगतान भी करते हैं, साथ ही 5 हजार रुपये के करीब बिजली का बिल आता है. इस जगह का किराया भी 5 हजार रुपये प्रतिमाह है. जेनरेटर के लिए डीजल, फिल्मों के पोस्टर, रख-रखाव, मशीनों की खराबी आदि का बिल जोड़कर कुल खर्चा पचास हजार के करीब बैठता है. हर साल लाइसेंस का नवीनीकरण भी कराना होता है. हरिंदर बताते हैं, ‘जब तक चल रहा है चल रहा है. वरना हम इसे बंद करके कुछ और काम करेंगे.’ प्राइवेट सेक्टर में नौकरी के बारे में पूछने पर वे कहते हैं, ‘पढ़ाई हमने इतनी की नहीं कि कोई अच्छी नौकरी मिल जाए. बाकी फिर दूसरे लोगों के अनुभव से पता चलता है कि प्राइवेट सेक्टर में कितना काम लिया जाता है. इसीलिए जैसे-तैसे गाड़ी खींच रहे हैं.’ हरिंदर की तरह ही बाकी लोग भी घटती कमाई के चलते परेशान हैं और कई तो अपने सिनेमा पार्लरों पर ताला जड़कर किसी दूसरे धंधे में लग गए हैं.
इस बातचीत के दौरान नशे में धुत एक व्यक्ति आया और हरिंदर से पैसे व मुफ्त टिकट मांगने लगा. काफी मना करने के बाद भी वह शख्स आधा घंटे तक वहीं हंगामा करता रहा जिसे जबरदस्ती बाहर निकाला गया. हरिंदर इस पर कहते हैं, ‘ये यहां रोज का काम है.’ ये पूछने पर कि टिकट का किराया क्यों नहीं बढ़ाते, उनका जवाब था, ‘एक बार किराया बढ़ाकर 20 रुपये किया था लेकिन फिर लोगों ने आना ही बंद कर दिया. इसलिए मजबूरन हमें फिर से टिकट 15 रुपये का करना पड़ा. दरअसल मल्टीमीडिया फोन इतने सस्ते हो गए हैं कि लोग उन पर ही आसानी से फिल्में देख लेते हैं तो हमारे पास क्यों आएं?’
बहरहाल, 6 से 9 वाला शो साढ़े आठ से कुछ पहले खत्म हुआ. 9 बजे तक के खाली समय में हरिंदर पुराने गाने दिखाते हैं. अगर आम मध्यमवर्गीय लोग फिल्म देखने जाते हैं तो सबसे पीछे की सीट चुनते हैं लेकिन यहां स्थिति अलग है. जो पहले आता है वह सबसे आगे की बेंच पर बैठने की कोशिश करता है ताकि स्क्रीन और बड़ी नजर आए.
यहां आने वाले दर्शक भी अनूठे हैं. हॉल में करीब 25-30 लोग मौजूद हैं. इसमें आरा, बिहार के रहने वाले विजय भी हैं. 38 साल के विजय बेलदारी का काम करके महीने में 9 हजार रुपये तक कमा लेते हैं और ममूरा में ही किराये पर चार लोगों के साथ कमरा साझा करते हैं. कुल मिलाकर 500 रुपये कमरे का किराया पड़ता है. खाने का खर्च निकालकर बाकी बचे पैसे घर भेज देते हैं. आज 9 से 12 के शो में फिल्म ‘नो एंट्री’ देखने पहुंचे हैं. विजय बताते हैं, ‘कमरे पर टीवी नहीं है. दूसरा यहां कई लोगों के साथ बड़े पर्दे पर फिल्म देखने में मजा आता है. फिर 15 रुपये में आजकल मिलता ही क्या है! यही देखकर खुश हो लेते हैं. आपकी तरह महंगी जगहों पर तो जा नहीं सकते.’
अगली बेंच पर मुलाकात होती है उत्तर प्रदेश के कासगंज के सतवीर से. पूरे दिन की थकान और तनाव सतवीर के चेहरे पर साफ-साफ दिखाई देते हैं. 25 साल के सतवीर पिछले साल दीवाली के ही वक्त बेलदारी का काम करने नोएडा आए थे. सतवीर की माली हालत बेहद खराब है. मुश्किल से बात करने को तैयार हुए सतवीर कहते हैं, ‘घर में 6 भाई हैं और कुल 4 बीघा जमीन है. ऐसे में बेलदारी नहीं करेंगे तो और क्या करेंगे! जैसे-तैसे खाना-पीना चल रहा है बस.’ वह रहते कहां हैं, यह पूछने पर मायूसी के साथ बताते हैं, ‘रहने का कोई ठिकाना नहीं है. कभी पार्क में सो जाते हैं तो कभी फुटपाथ पर.’ किसी के साथ कमरा साझा करने की सलाह पर वे कोई जवाब नहीं देते.
‘साहब कमरे पर टीवी नहीं है. यहां कई लोगों के साथ बड़े पर्दे पर फिल्म देखने में मजा आता है. फिर 15 रुपये में आजकल मिलता ही क्या है! यही देखकर खुश हो लेते हैं
वहीं पास में बैठे हैं मुनिंदर. मुनिंदर 25 साल के हैं और सेक्टर 62 के एक अपार्टमेंट में जमादार का काम करते हैं. साढ़े सात हजार रुपये कमाने वाले मुनिंदर ममूरा में ही किराये के कमरे में अपने भाई के साथ रहते हैं. मुनिंदर काफी खुशमिजाज हैं, वे कहते हैं, ‘हमारा यही मनोरंजन है. इसी में खुश हैं हम. ज्यादा पैसा आपकी शांति छीन लेता है. और फिर घर में अकेले पड़े रहने से अच्छा है कि अपने भाई-बंधुओं के बीच थोड़ा टाइमपास कर लें. वरना कल से तो गाड़ी उसी पटरी पर दौड़नी है. लोगों के साथ सिनेमा देखने में मजा आता है. यहां लोग हंसते हैं सीटी, ताली बजाते हैं. इसी में मन हल्का हो जाता है. रविवार की छुट्टी के दिन तो यहां खड़े होने की भी जगह नहीं होती. गर्मियों में तो लोग यहां सिर्फ सोने के लिए आते हैं क्योंकि कूलर चलने से यहां बहुत ठंडा रहता है.’
इसके बाद बात हुई कोने में चुपचाप बैठे रामबाबू से. रामबाबू बिहार के मधुबनी के रहने वाले हैं और नोएडा में रिक्शा चलाते हैं. परेशान और थके हुए रामबाबू से जब उनकी उम्र के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, ‘हमारी उम्र पूछकर आप क्या करोगे.’ काफी पूछने पर बोले, ‘मैं चालीस साल का हूं. बीवी खत्म हो गई, बच्चे थे ही नहीं. 10 साल पहले नोएडा आए थे तबसे बिहार वापस ही नहीं गए. आज तबियत खराब थी तो रिक्शा भी नहीं चला पाए.’ रहते कहां हैं? ‘यहीं पास की झुग्गियों में.’ रात के साढ़े ग्यारह बजे आखिरी शो खत्म होता है. सभी दर्शकों की पृष्ठभूमि लगभग विजय, सतवीर, मुनिंदर और रामबाबू जैसी ही है. कम उम्र के होने के बावजूद वे बेहद उम्रदराज नजर आते हैं. नींद के आगोश में डूबे दर्शक एक-एक कर बाहर निकलते हैं और अपने-अपने ठिकानों की ओर चल पड़ते हैं. सुबह से शाम तक की जी-तोड़ मेहनत के बाद अगले दिन इनमें से तमाम लोग फिर सत्यम पैलेस का रुख करेंगे.
एक आम आदमी के पास बेशक मनोरंजन के अनेक साधन हो सकते हैं लेकिन शहरों में छोटे-मोटे काम करने वाले इन लोगों के पास सीमित विकल्प हैं. इनमें भी इन्हें दस बार सोचना पड़ता है क्योंकि जेब हमेशा इसकी इजाजत बड़ी मुश्किल से देती है. फिर भी इन्हें कोई शिकायत नहीं, जहां दो पल चैन मिल जाए, ये वहीं खुश हैं. लेकिन दुख की बात है कि इनके मनोरंजन का इकलौता साधन भी बंद होने की कगार पर है. ममूरा से लगभग 10 किमी दूर सिनेमा पार्लर के गढ़ कहे जाने वाले भंगेल कस्बे के सभी सिनेमा पार्लर बंद हो चुके हैं. आस-पास के लोगों ने बताया कि उन्हें बंद हुए 2 साल हो गए. वहां अब या तो गोदाम हैं या फिर बाजार बन चुके हैं. बढ़ते खर्चों और दर्शकों की घटती संख्या के कारण शहर में मौजूद इक्का-दुक्का सिनेमा पार्लर भी आने वाले समय में नदारद हो जाएंगे. फिर ऐसे लोग अपने मनोरंजन का साधन कहां तलाशेंगे?
चेंज डॉट ओआरजी विभिन्न मसलों पर निजी प्रकार के अभियान चलाने वालों के लिए ही नहीं बल्कि सम्पन्न और सशक्त लोगों के लिए भी अपने अभियान के समर्थन में जनमत जुटाने का एक प्रभावशाली माध्यम बनकर उभरा है. कर्नाटक से निर्दलीय राज्यसभा सांसद राजीव चंद्रशेखर बताते हैं, ‘चेंज डॉट ओआरजी से मेरा परिचय तब हुआ, जब मैं विभिन्न मुद्दों पर लोगों तक पहुंचने, उन्हें जागरूक करने और ऑनलाइन भारतीयों का संगठित समर्थन पाने के तरीके खोज रहा था.’
राजीव को प्रसन्नता हुई जब रक्षा सेवाओं में कार्यरत नागरिकों के मताधिकार के लिए दायर की गई उनकी याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने महत्वपूर्ण फैसला दिया और भारतीय चुनाव आयोग को निर्देश जारी कर कहा कि सैनिकों के मताधिकार पर अंकुश न लगाया जाए. उनकी याचिका के समर्थन में 65, 000 लोगों ने ऑनलाइन हस्ताक्षर किए थे. सुप्रीम कोर्ट को धन्यवाद देते हुए कहते हैं, ‘अब भारतीय सैनिक भी आम मतदाता की श्रेणी में आ गए हैं और देश में चुनावों के दौरान वो जहां भी नौकरी पर तैनात होंगे, वहीं से वोट डालने के अधिकारी होंगे. व्यस्क मताधिकार को जमीन पर वास्तविकता में बदलने की कोशिशों के बारे में चंद्रशेखर बताते हैं, ‘जैसे ही मुझे 2013 में यह पता लगा कि जानते हुए भी हम अपने सैनिकों और उनके परिजनों के मताधिकार का उल्लंघन कर रहे हैं तो मैंने इसकी वकालत करते हुए अपनी तरफ से सरकार से संवाद बनाने की पूरी कोशिश की.’ लेकिन कोई ठोस प्रतिक्रिया न मिलती देख चंद्रशेखर ने अपनी बात रखने के लिए चेंज डॉट ओआरजी के माध्यम से ऑनलाइन समर्थन जुटाने की ठानी. इस ऑनलाइन याचिका पोर्टल ने इस मुद्दे पर उन्हें बड़ी संख्या में लोगों का समर्थन पाने में मदद भी की. उनकी एक और याचिका फिलहाल इस वेबसाइट पर ट्रेंड कर रही है जिसमें वे बच्चों को यौन शोषण से बचाने के लिए देश के प्रधानमंत्री से कदम उठाने की अपील कर रहे हैं. अभी तक उन्होंने केवल इन्हीं दो अभियानों को वेबसाइट पर प्रचारित किया है.
चंद्रशेखर पहले एक सफल व्यापारी थे. सरकार तक अपनी बात पहुंचाने के लिए आम नागरिकों की तुलना में, चंद्रशेखर के पास कहीं अधिक सशक्त साधन हैं. लेकिन आम लोगों के लिए अपनी मांग के समर्थन में ज्यादा से ज्यादा समर्थक जुटाने और व्यापक जागरूकता फैलाने में ऑनलाइन अभियान खासे प्रभावी रहे हैं. पैरा एथलीटों और विकलांगों के लिए काम करने वाले प्रदीप राज का कहना है, ‘ऑफलाइन संगठित करने की अपेक्षा लोगों को ऑनलाइन संगठित करना खासा आसान साबित हुआ है.’
भारत में चेंज डॉट ओआरजी ने समाज की समस्या बन चुके विभिन्न मुद्दों के खिलाफ लोगों को आवाज उठाने का अवसर दिया है
राज को चेंज डॉट ओआरजी के बारे में पहली बार तब पता लगा जब उन्होंने भोपाल गैस त्रासदी के मामले में एक याचिका पर हस्ताक्षर किया. इसके बाद उन्होंने खुद खिलाड़ियों और विकलांगों के अधिकारों के लिए याचिका दाखिल करनी शुरू की. उनमें से एक याचिका आम चुनाव 2014 से पहले विकलांगता अधिकार विधेयक संसद में प्रस्तुत किए जाने को लेकर थी. इससे पहले राज ने एक और याचिका लगभग दो साल पहले पैरालंपिक कमेटी ऑफ इंडिया (पीसीआई) के उस फैसले के खिलाफ लगाई थी जिसमें पीसीआई ने किसी भी पैरा-एथलीट के कोच और माता-पिता को लंदन पैरालंपिक्स 2012 के दौरान खेल गांव के अंदर जाने की अनुमति देने से इंकार कर दिया था. राज को सफलता भी मिली. वह बताते हैं, ‘लंदन पैरालंपिक में हार के दौरान मैंने भारत सरकार से पीसीआई के खिलाफ कदम उठाने के लिए याचिका लगाई. 24 घंटे के अंदर पीसीआई को कारण बताओ नोटिस भेजकर कड़ी कार्रवाई की गई. यह जीत सिर्फ इसलिए मिली क्योंकि उन्हें 9,000 से ज्यादा लोगों का समर्थन मिला था.’
2014 में खेल मंत्रालय के नियमानुसार पीसीआई को राष्ट्रीय खेल संघ (एनएसएफ) की ओर से वार्षिक मान्यता नहीं दी गई . इस साल की शुरुआत में पीसीआई के खिलाफ समर्थन पाने के लिए प्रदीप राज ने दोबारा एक और याचिका चेंज डाॅट ओआरजी पर शुरू की. इस बार यह याचिका बोर्ड मे विकलांगों का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए थी. पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम का कहना था, ‘लोकतंत्र में, किसी राष्ट्र की समग्र खुशहाली, शांति और खुशी के लिए हर नागरिक की खुशी और वैयक्तिकता का सम्मान होना महत्वपूर्ण है.’ असहमति व्यक्त करना वैयक्तिकता का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जो लोकतंत्र का भी सबसे महत्वपूर्ण अंग है. इस संदर्भ में चेंज डॉट ओआरजी उल्लेखनीय भूमिका निभा रहा है, जहां जीवन के हर क्षेत्र के लोग खेल से लेकर पर्यावरण तक के मुद्दों पर अपनी असहमति व्यक्त कर याचिका लगा सकते हैं.
यह माध्यम याचिका की शुरुआत करने वाले को पूर्ण स्वायत्तता प्रदान करता है. भारत में चेंज डॉट ओआरजी की प्रमुख प्रीति हर्मन का कहना है, ‘यह एक याचिका शुरू करने का माध्यम है जो आपके अभियान को आगे बढ़ाता है. साइट पर सबसे लोकप्रिय लोग और अभियान वे हैं जिनकी निजी कहानियां सभी पर व्यापक छाप छोड़ने वाली हैं. वे सीधा निर्णायकों से सवाल कर एक निश्चित समय सीमा में निर्णय लिए जाने की मांग करते हैं.’ चेंज डॉट ओआरजी जब याचिका के लिए एक बार पर्याप्त समर्थन जुटा लेता है तो बदलाव की मांग को लेकर निर्णायकों के पास जाना अगला कदम होता है. इस तरह कई याचिका-कर्ताओं का सुझाव वास्तविकता में तब्दील हुआ और वे बदलाव लाने में सफल हुए हैं. हर्मन बताती हैं, ‘साइट के वर्तमान 30 लाख उपयोगकर्ताओं में से कम से कम एक तिहाई (10 लाख) लोगों की याचिकाएं सफल रही हैं.’
[ilink url=”https://tehelkahindi.com/even-a-common-man-can-bring-change-says-preeti-harman/” style=”tick”]पढ़ें प्रीति हर्मन का पूरा साक्षात्कार [/ilink]
चेंज डॉट ओआरजी की हालिया सफल याचिका अंतर्राष्ट्रीय बास्केटबॉल संघ (एफआईबीए) के उस फैसले के खिलाफ थी जिसमें संघ ने सिखों के पगड़ी बांधकर खेलने को प्रतिबंधित कर दिया था. इस याचिका की शुरुआत आरपीएस कोहली ने की थी. कोहली की याचिका से सहमति जताते हुए पिछले साल सितंबर में एफआईबीए ने अंतर्राष्ट्रीय खेलों में सिख समुदाय के पगड़ी पहनने से प्रतिबंध हटा लिया.
सबसे प्रसिद्ध याचिका तेजाबी हमले की शिकार बनने के बाद नई जिंदगी की शुरुआत करने वाली लक्ष्मी ने 2013 में शुरू की थी. अपने अनुभव को बांटते हुए लक्ष्मी बताती हैं, ‘मैंने याचिका तब शुरू की जब मुझे महसूस हुआ कि सरकार इस जघन्य कृत्य पर रोकथाम लगाने को लेकर गंभीर नहीं है. मुझे ऑफलाइन भी समर्थन प्राप्त था पर उतनी संख्या में नहीं जितना कि सरकार पर दबाव बनाने के लिए जरूरी थी. इंटरनेट अब किसी भी मुद्दे पर बहस और अपनी असहमति व्यक्त करने का एक बड़ा माध्यम बन गया है, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए लक्ष्मी ने अपनी मुहिम के समर्थन में चेंज डॉट ओआरजी का सहारा लिया. पचास हजार से ज्यादा लोग उनकी याचिका के समर्थन में आगे आए. लक्ष्मी कहती हैं, ‘मैं अब भी पोर्टल का उपयोग करती हूं और यह बड़ी सुकून देने वाली बात है कि अब यह हिंदी में भी शुरू हो चुका है.’ वह प्रसन्नता जाहिर करते हुए कहती हैं, ‘यह बहुत ही अच्छी बात है कि अब मैं याचिका अपनी भाषा में लिख और पढ़ सकती हूं.’
लक्ष्मी की याचिका ने सफलता का स्वाद तब चखा जब वह तत्कालीन गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे के पास देश में तेजाब की खुली बिक्री रोके जाने की मांग लेकर पहुंची और चेंज डाॅट ओआरजी पर अपने समर्थन को दिखाया. तब केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों को निर्देश दिया कि तेजाब की खुदरा बिक्री पर कठोर नियंत्रण किया जाए. इसके बाद न जाने कितनी ही मासूमों के सपने जला चुके घरेलू सफाई के काम आने वाले तेजाब को विष अधिनियम, 1919 के अंतर्गत आने वाले पदार्थों में शामिल कर लिया गया.
इसमें कोई दो राय नहीं कि चेंज डॉट ओआरजी अपने लोकतांत्रिक अधिकारों के इस्तेमाल का वर्तमान में एक सबसे लोकप्रिय जरिया है. लेकिन इसके पीछे लगा ‘डॉट ओआरजी’ भ्रम की स्थिति भी पैदा करता है और इस कारण से इसे अक्सर गलती से नॉन प्रॉफिट ऑर्गेनाइजेशन (एनजीओ)समझ लिया जाता है. समस्या याचिका शुरू करने वाले के सत्यापन को लेकर भी होती है. हैदराबाद की नालसर लॉ यूनिवर्सिटी का ही उदाहरण लें जहां छात्रों और लोकल मीडिया ने एक -दूसरे पर आरोप लगाते हुए याचिका लगानी शुरू कर दी. अब इनमें कौन सही था और कौन गलत, यह विवाद उत्पन्न हो गया. बहरहाल, ऐसी गड़बड़ अक्सर होती रहती हैं.
भारत में चेंज डॉट ओआरजी ने समाज की समस्या बन चुके विभिन्न मुद्दों के खिलाफ लोगों को आवाज उठाने का अवसर दिया है. प्रदीप राज कहते हैं, ‘लोगों का सही जगह तक पहुंचना ही देश में सबसे बड़ी चुनौती है. अगर हम स्कूल नहीं जा सकते, कॉलेज भी नहीं जा सकते, अस्पताल और ऑफिस भी नहीं जा सकते क्योंकि हम अपंग हैं तो फिर अधिकारों की बात करने का क्या फायदा! हम उन्हीं मौजूद कानूनों और उपायों को लागू कराने में जूझते हैं जिनसे हमारे अधिकार सुनिश्चित होते हैं. बिल पेश हो जाते हैं, पारित हो जाते हैं पर इन नए बने कानूनों को कभी लागू नहीं किया जाता.’ ऐसे में चेंज डॉट ओआरजी अपनी बात रखने और लक्ष्य तक प्रभावी पहुंच बनाने का एक आसान तथा क्रांतिकारी माध्यम है.
जो भी कहा जाए, पर यह सच है कि चेंज डॉट ओआरजी ने आम जनता को अपने मुद्दे को अंजाम तक पहुंचाने का एक माध्यम दिया है. लोकतंत्र की आत्मा को सुरक्षित रखने का यह एक नया तरीका है, जो कि लोगों का है, लोगों के लिए है और लोगों के द्वारा है.
चेंज डॉट ओआरजी को हिंदी में शुरू करने का फैसला क्यों किया गया जबकि आज लोग अंग्रेजी में संवाद करना अधिक पसंद करते हैं?
भारत की इंटरनेट आबादी का 47 प्रतिशत वो हिस्सा है जो अंग्रेजी के अलावा भी किसी एक सामान्य भाषा को तरजीह देता है. ऐसी आशा है कि भविष्य में देश में इंटरनेट के विकास में क्षेत्रीय भाषाओं की अहम भूमिका रहने वाली है. मैं मानती हूं कि चेंज डॉट ओआरजी में काफी संभावनाएं हैं भारत में बदलाव लाने की. लेकिन यह लक्ष्य तब तक हासिल नहीं किया जा सकता जब तक कि क्षेत्रीय भाषाओं को दरकिनार किया जाता रहेगा. हिंदी देश के एक तिहाई हिस्से में बोली जाती है. चालीस करोड़ लोगों की यह भाषा है इसलिए हमने सामाजिक बदलावों की गति बढ़ाने के लिए सबसे व्यापक रूप में बोले जाने वाली भाषा के साथ शुरुआत करने का फैसला किया.
भारत में चेंज डॉट ओआरजी वेबसाइट की शुरुआत के पीछे क्या पृष्ठभूमि रही?
चेंज डॉट ओआरजी का मकसद दुनियाभर में लोगों को उन बदलावों को लाने के लिए मजबूत बनाना है जो कि वह लाना चाहते हैं. भारत भी उन कुछ देशों में से एक था जहां 2012 में चेंज डॉट ओआरजी की शुरुआत की गई. एक खुले मंच के रूप में हम चाहते थे कि भारत की आम जनता भी ऑनलाइन याचिकाओं के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर बदलाव ला सके. बदलाव लाने वाले केवल वे लोग नहीं हों जो स्वयं को एक्टिविस्ट मानते हैं या जो राजनीतिक समझ रखते हैं या फिर किसी क्षेत्र विशेष से हैं.
क्या याचिका और याचिकाकर्ता के लिए कोई शर्त भी होती है?
हम लोगों के लिए बदलाव लाने वाली याचिका लगाने का एक माध्यम उपलब्ध कराते हैं. यह फेसबुक की तरह ही है जो अपने यूजर्स को सोशल नेटवर्किंग का एक माध्यम उपलब्ध कराता है. फेसबुक ऐसे कोई मापदंड निर्धारित नहीं करता कि लोगों को क्या पोस्ट करना है और क्या नहीं. वैसे ही चेंज डॉट ओआरजी पर भी याचिका की शुरुआत करने वाला ही अभियान को आगे बढ़ाता है. हम केवल यह चेतावनी देते हैं कि चेंज डाॅट ओआरजी का उपयोगकर्ता कोई भी आपत्तिजनक सामग्री न डाले या हिंसा को बढ़ावा देने वाला कोई काम न करे.
एक याचिका को जब पर्याप्त समर्थक मिल जाते हैं तो अगला कदम क्या होता है? निर्णायकों से बदलाव की कैसे मांग की जाती है?
अलग-अलग याचिकाकर्ता अलग-अलग रणनीति अपनाते हैं. सोशल मीडिया के द्वारा अपनी याचिका पर फैसला लेने वाले निर्णायकों तक पहुंचकर अपनी याचिका को मिले समर्थन को दिखाना, मीडिया में प्रचार करना या निर्णायकों के पास प्रत्यक्ष जाकर याचिका और उस पर समर्थन में किए गए हस्ताक्षर उन्हें सौंपना, कुछ सबसे लोकप्रिय नुस्खे हैं. मीडिया और सोशल मीडिया में याचिका की लोकप्रियता ही निर्णायकों के कान खड़े करने के लिए काफी होती है. उनकी नजर बनी रहती है कि संबंधित याचिका को कितना समर्थन मिल रहा है? उन्हें जवाब देने का एक विकल्प भी उपलब्ध कराया जाता है और याचिका पर हस्ताक्षर करने वालों से संवाद स्थापित करने का भी.
एक महीने में औसतन आप कितनी याचिकाएं पाते हैं और इनमें से कितनी सफल हो पाती हैं?
हर महीने औसतन 1,200 याचिकाएं चेंज डॉट ओआरजी पर लगाई जाती हैं. वे एक हस्ताक्षर भी पाती हैं और तीन लाख से अधिक भी पा सकती हैं. साइट पर मौजूद तीस लाख उपयोगकर्ताओं में से एक तिहाई कम से कम एक सफल याचिका का हिस्सा रहे हैं.
किसी याचिका को रोकने का निर्णय कब लिया जाता है?
ज्यादातर याचिका लगाने वाले जब अपना लक्ष्य पा लेने में सफल हो जाते हैं तो अपनी जीत घोषित कर देते हैं. अर्थात जब उनकी याचिका पर निर्णायकों द्वारा आवश्यक कदम उठा लिए जाते हैं . याचिकाकर्ता अपने लक्ष्य की प्राप्ति न होने तक लोगों का समर्थन जुटाने के लिए जब तक चाहे अपनी याचिका लोगों के हस्ताक्षर के लिए खुली रख सकता है. उसके पास यह भी विकल्प होता है कि यदि वह अपनी याचिका को आगे बढ़ाना जरूरी न समझे तो बंद कर दे.
क्या कभी ऐसा हुआ कि आपकी ओर से विज्ञापित किसी याचिका का विरोध हुआ हो?
चेंज डाॅट ओआरजी एक खुला मंच हैं, हम किसी याचिका का विज्ञापन नहीं करते. चेंज डॉट ओआरजी पर आप देखोगे कि जो लोग क्षेत्रीय, राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर बदलाव लाने के लिए प्रयासरत हैं वे याचिकाओं की शुरुआत करते हैं.
यहां राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मुद्दों पर ही नहीं बल्कि खेल, मनोरंजन और संस्कृति से भी संबंधित याचिकाएं लगाई जाती हैं. चेंज डॉट ओआरजी विपरीत परिस्थितियों में भी बदलाव के लिए जूझ रहे लोगों के कठोर प्रयासों की तस्वीर प्रस्तुत करता है. कई बार एक ही मुद्दे पर विरोधी याचिका भी लग जाती है. लेकिन चेंज डॉट ओरजी का मानना है कि विरोधाभास होना और उन पर बहस सामाजिक बदलाव के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है.
पांचजन्य ने अपने लेख में जो आरोप लगाया है कि जेएनयू नक्सली, माओवादी या आतंकियों के समर्थकों का केंद्र है, यह झूठ है. वे किस मंशा से ऐसा कह रहे हैं, यह उन्हीं को बेहतर पता होगा. संघ और भाजपा से भी जुड़े कई लोग वहां से पढ़कर निकले हैं. निर्मला सीतारमण जैसी भाजपा की वरिष्ठ नेता जेएनयू से ही हैं. भाजपा की छात्र इकाई एबीवीपी वहां मौजूद है. कांग्रेस और भाजपा दोनों के प्रत्याशी वहां के छात्रसंघ में रह चुके हैं. इस बार भी एबीवीपी का एक प्रत्याशी ज्वाइंट सेक्रेटरी पद पर केंद्रीय पैनल में चुना गया है. जेएनयू में संघ की शाखा लगती है. उन्हें बताना चाहिए कि क्या ये सभी माओवादी हैं?
मैं इस विश्वविद्यालय को 1972 से जानता हूं. 1973 में छात्रसंघ अध्यक्ष रहा. अध्यापक के रूप में कार्य करना शुरू किया तो शिक्षक संघ का अध्यक्ष भी रहा. इस कैंपस की 45 साल की कहानी मुझे मालूम है. जेएनयू देश भर के सभी विचारों का केंद्र है. वैचारिक खुलापन उस परिसर की संस्कृति है जहां पर हर धारा के मानने वाले लोग हैं. कभी भी इस विश्वविद्यालय ने किसी तरह की राष्ट्रविरोधी गतिविधि को प्रोत्साहित नहीं किया. उस कैंपस में पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों मौजूद हैं. देश के सभी विचारों और प्रवृत्तियों की झलक वहां मिल जाएगी. जेएनयू में वाम के अंदर भी कई धाराएं हैं. 60-70 प्रतिशत छात्रों को राजनीति से कोई वास्ता नहीं होता.
जेएनयू के शिक्षक संघ में भी सभी दलों व विचारों का प्रतिनिधित्व रहा है. वामपंथ, दक्षिणपंथ और समाजवाद को मानने वाले शिक्षक रहे हैं तो हम जैसे गांधी, लोहिया और जयप्रकाश नारायण के समर्थक भी रहे, हम सबको अपनी क्षमतानुसार विजय-पराजय मिली. आज भी वहां भाजपा समर्थक शिक्षक हैं.
पिछले सालों में भारत सरकार के प्रशासन में सचिव, विदेश सचिव जैसे पदों पर जेएनयू से निकले छात्रों ने सेवाएं दीं. केंद्र से लेकर राज्यों के प्रशासन और राजनीति में जेएनयू से निकले छात्र सबसे ज्यादा हैं. पूरे भारत में जेएनयू के विद्यार्थी सम्मानित नजर से देखे जाते हैं. कई विश्वविद्यालयों के कुलपति जेएनयू से निकले अध्यापक रहे. सरकार की सुरक्षा सलाहकार समिति और अन्य समितियों में रहे हैं. राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में प्रशासन, शिक्षा, मीडिया, स्वयंसेवी संगठनों और राजनीति में जेएनयू से निकले लोगों ने भागीदारी की और उल्लेखनीय योगदान दिया है. जेएनयू ने राष्ट्रनिर्माण में गौरवपूर्ण योगदान दिया है जो विकास का एक मॉडल पेश करता है.
जहां तक जेएनयू के नक्सली समर्थक होने का सवाल है, आज तक वहां के किसी भी अध्यापक को न तो गिरफ्तार किया गया, न ही कोई ऐसे गंभीर आरोप वाले मुकदमे चले. जबकि अन्य विश्वविद्यालयों में ऐसा हुआ. पिछले 45 साल में एकमात्र घटना हुई जब हवाला कांड में एक छात्र पकड़ा गया था और उसे सजा भी हुई.
एक सबसे महत्वपूर्ण बात है कि जेएनयू की जो सामाजिक बनावट है, वह संविधान तक में नहीं है. जातीय रूप से पिछड़े छात्रों के अलावा हर तरह के पिछड़े युवाओं को वहां पर लाभ मिलता है. गांव से आए बच्चों, पिछड़े-दलितों और छात्राओं को विशेष लाभ मुहैया कराया जाता है. जेएनयू जैसी व्यवस्था देश के अन्य विश्वविद्यालयों में नहीं है. जेएनयू ऐसा क्यों बन पाया, इसके कई कारण हैं. शिक्षा के क्षेत्र में तीन बड़ी बीमारियां हैं- भ्रष्टाचार, नकलबाजी और नियुक्तियों में लेनदेन व राजनीतिक हस्तक्षेप. जेएनयू की प्रवेश परीक्षा में पारदर्शिता है. यहां की संरचना ऐसी है कि नकल जैसी व्यवस्था सफल नहीं हो सकती. परीक्षा प्रणाली ऐसी है कि आपको लगता है कि आपका नंबर कम आया, या आपके साथ अन्याय हुआ है तो आप उसे चुनौती दे सकते हैं. नियुक्तियों में पारदर्शिता होने के कारण शिक्षकों से लेकर कुलपतियों तक को निर्मल प्रक्रिया अपनाई जाती है.
वैचारिक खुलापन जेएनयू की सबसे खास बात है. यह कैंपस पूरी तरह जाति और संप्रदाय से मुक्त है. यहां पर कश्मीरी, तमिल, पूर्वोत्तर सभी जगह के लोग आते हैं और अपनी बात कहते हैं. सब मसलों पर चर्चा होती है. सीरिया, ईरान, इराक से लेकर अमेरिका और पूरी दुनिया के मसलों पर वहां बहसें होती हैं.
भाजपा के मित्रों से यह पूछना पड़ेगा कि दुनिया के टॉप विश्वविद्यालयों में जेएनयू की ही गणना क्यों होती है. यह एशिया में सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में से एक है, बाकी राज्यों के विश्वविद्यालय क्यों नहीं हैं? ऐसे विश्वविद्यालय की परंपरा की निंदा करना खुद पर सवाल खड़े करना है. जेएनयू कैंपस आरएसएस के लिए कभी बंद नहीं रहा. वहां पर असहमत लोग भी हैं. आरएसएस और भाजपा को चाहिए कि वे जेएनयू की निंदा करने की जगह अपने आप को टटोलें कि दलितों, महिलाओं, आदिवासियों के बारे में उनके क्या दृष्टिकोण हैं? समाज की बड़ी आबादी के बारे में उनकी सोच दोयम दर्जे की क्यों है? जेएनयू इसलिए प्रतिष्ठित है कि वहां इन सबके लिए बराबर जगह है.
(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)
(लेखक जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर हैं)