अजनबी शहर के अनजान लोगों का कर्ज

Cउस रोज का वाकया जेहन में आज भी ताजा है. मौत एकदम करीब नजर आ रही थी. पहली दफा खुद के खर्च हो जाने का डर लग रहा था. इसका जिक्र बस इसलिए कि दुनिया में अब भी अच्छे लोगों की कमी नहीं है. जिन्होंने अनजान शहर में मुझ पर ऐसा स्नेह बरसाया, जिसका कर्ज मैं ताजिंदगी नहीं चुका सकता.

यह वाकया साल 2013 के नवंबर महीने का है. तारीख थी आठ. औरंगाबाद  में ऑफिस का काम निपटा कर रात तकरीबन 11 बजे घर (सतना) जाने के लिए निकला था, ताकि घरवालों के साथ फुलौरी (भतीजे) के जन्मदिन की खुशियों में शामिल हो सकूं. काफी दिन बाद घर जाने का मौका हाथ लगा था आैर मैं इसे किसी भी सूरत में गंवाना नहीं चाहता था.

औरंगाबाद से जलगांव जाने के लिए मैंने बस पकड़ी थी. वहां से सुबह 5:30 बजे सतना जाने वाली ट्रेन पकड़नी थी. औरंगाबाद से जलगांव तक का सफर उम्मीद के मुताबिक रात में तकरीबन 3:30 बजे खत्म हो गया. जलगांव रेलवे स्टेशन के अंदर दाखिल होने से पहले मैंने चाय के घूंट लेना मुनासिब समझा. गाड़ी का इंतजार प्लेटफॉर्म नंबर तीन पर कर ही रहा था कि अचानक सिर में कुछ तकलीफ सी महसूस हुई. ठंडे पानी से गला तर करते हुए मुंह धोया कि बेसिन के पास कदम लड़खड़ा गए. संभलते हुए अपने पैरों पर खड़ा होने की कोशिश में था, तभी जेहन में एक सवाल गूंजा, ‘आज चुक जाओगे क्या?’

सर्दी की उस रात के कुछ ही पलों में मैं पसीने से तरबतर हो उठा था. स्टेशन छोटा होने और रात के कारण चहल-पहल कम थी. किसी तरह इर्द-गिर्द की चीजों के सहारे खड़ा हुआ तो पाया कि आंखों के सामने का अंधेरा और गहराता जा रहा था. ऐसा लग रहा था कि दिमाग सुन्न पड़ जाएगा. मन में बस यही दुआ उठ रही थी कि खुदा..! आज मत बुझा ये दीपक. एक दिन बाद मेरे भतीजे का पहला जन्मदिन था. कमबख्त उसे देखना भी नसीब नहीं होगा क्या..? मैं संभलता हुआ पास पड़ी कुर्सी पर बिछ सा गया. आसपास से गुजरते लोग धुंधले होते नजर आ रहे थे. यकायक मैं चिल्लाया मां… इस चीख ने कुछ ही दूर स्थित रेलवे की ओर से संचालित फूड कोर्ट में बैठे एक सज्जन का ध्यान खींच लिया था. अंधेरे और धुंध की परवाह छोड़कर मैं किसी तरह लड़खड़ाते हुए उसके पास पहुंचा.

‘क्या लोग थे यार..! स्टेशन मास्टर ने कहा कि आप इलाज कराकर आओ, ट्रेन रुकी रहेगी. हुआ भी ऐसा ही’

शरीर साथ नहीं दे रहा था. सिर दर्द से फट रहा था और अंधेरा बढ़ता जा रहा था. आंखों से आंसू रिसने लगे थे. फिर भी शायद हिम्मत अभी बची हुई थी. किसी तरह उसे समेटकर उस अजनबी से मैंने कहा, ‘मुझे लगता है जहरखुरानी का शिकार हो गया हूं, डॉक्टर चाहिए बचा लो. उस भले आदमी ने जीआरपी के दो जवानों को इत्तला देकर उन्हें बुलाया. टूटी-फूटी मराठी और हिंदी में उन जवानों से मैंने क्या कहा, कुछ याद नहीं. उसके बाद जीआरपी के जवान मुझे स्टेशन मास्टर के केबिन में ले गए. वहां हिम्मत के साथ उम्मीद थोड़ी और जागी. उन्हें उसी हाल में अपना सारा हाल सुनाया.

तब तक किसी भी परचित से बात नहीं की थी. बड़े भाई की तरह अपने एक वरिष्ठ साथी को भी फोन कर हाल बताया. घड़ी की सुईयां तेजी से भाग रही थीं और रात काली होकर बीत चुकी थी, सुबह के पांच बज रहे थे. स्टेशन मास्टर ने मुझे सिविल अस्पताल ले जाने के लिए कहा. मगर मैं किसी भी हाल में ट्रेन नहीं छोड़ना चाह रहा था. हालांकि फिर जो कुछ भी हुआ वह अप्रत्याशित था. क्या लोग थे यार..! स्टेशन मास्टर ने कहा कि आप इलाज कराकर आओ, ट्रेन रुकी रहेगी. हुआ भी ऐसा ही, ट्रेन तब तक रुकी रही जब तक कि मैं इलाज कराकर न आ गया. दरअसल यह जहरखुरानी नहीं थी बल्कि मेरी अस्त-व्यस्त दिनचर्या और खानपान का नतीजा था. बेसमय खाने और चाय की वजह से बनी गैस ने सिर पकड़ लिया था और अक्ल ठिकाने आ गई.

उस दिन उन भले लोगों ने अजनबी शहर में दिल खोलकर स्नेह लुटाया. शुक्रिया जलगांव..! जिंदगी उधार रही, कभी करम हुआ तो फिर तुम्हारे दर पर आऊंगा. तुम और तुम्हारे यहां के लाेग न होते तो पता नहीं क्या होता.

(लेखक पत्रकार हैं)