शिवसेना को गुस्सा क्यों आता है?

IMG_0406web
फोटो- दीपक साल्वी

हाल ही में पाकिस्तानी गजल गायक गुलाम अली ने भारत में प्रस्तावित अपने सभी संगीत कार्यक्रम रद्द कर दिए. उन्होंने कहा कि वह भारत तब तक नहीं आएंगे, जब तक स्थितियां अनुकूल नहीं हो जातीं. गौरतलब है कि शिवसेना के विरोध के चलते ही मुंबई और पुणे में गुलाम अली का संगीत कार्यक्रम रद्द कर दिया गया था.  शिवसेना की उग्रता का यह सिर्फ इकलौता उदाहरण नहीं है, सूची काफी लंबी है. पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद महमूद कसूरी की किताब के विमोचन के दौरान शिवसैनिकों ने भाजपा के पूर्व नेता सुधींद्र कुलकर्णी का मुंह काला कर दिया. पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के प्रमुख शहरयार खान के साथ बीसीसीआई अध्यक्ष शशांक मनोहर की बातचीत नहीं होने दी.

शिवसेना के कार्यकर्ताओं ने बीसीसीआई मुख्यालय में घुसकर जमकर हंगामा काटा. शिवसेना ने पाकिस्तानी कलाकारों का विरोध करते हुए कहा कि वह उन्हें महाराष्ट्र में काम नहीं करने देगी. इसके अलावा जैन मंदिरों के सामने चिकन बेचने और पकाने का भी काम शिवसैनिकों ने बखूबी किया है. गौरतलब है कि महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के बाद से ही शिवसेना के तेवर पूरी तरह से बदल गए हैं. पार्टी ने अपनी उग्रता और ताकत का खुला प्रदर्शन किया है. मजेदार बात यह कि शिवसेना राज्य और केंद्र में सरकार की सहयोगी पार्टी के रूप में शामिल भी है. अगर हम राजनीतिक दल के रूप शिवसेना की बात करें तो पिछले कुछ दशकों में उसकी पहचान राष्ट्रवाद, हिंदुत्व और मराठी अस्मिता को लेकर बनी है. अब महाराष्ट्र के आज के हालात को देखें तो इन मसलों पर शिवसेना की जमीन तेजी से खिसक गई है. उनके चचेरे भाई राज ठाकरे मराठियों के बीच उग्र राजनीति करके खुद को मराठी मानुष का सच्चा हितैषी बताते हैं. दूसरी ओर उनकी वरिष्ठ सहयोगी भाजपा खुद राष्ट्रवादी पार्टी होने का दावा करती है और बेहतर तरीके से हिंदुत्व की राजनीति कर रही है. ऐसे में शिवसेना के सामने विकल्प ही नहीं रह गया था. दरअसल, महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के बाद से जो हालात पैदा हुए उसने शिवसेना के लिए उग्रता को जरूरी बना दिया. पिछले ढाई दशक से छोटे भाई की भूमिका निभा रही भाजपा का बड़ी पार्टी बनकर उभरना शिवसेना को पचा नहीं. विधानसभा चुनाव से ठीक पहले शिवसेना ने पिछले 25 सालों से चले आ रहे गठबंधन को फायदे के लिए तोड़ा था. जानकारों की माने तो विधानसभा चुनावों के पहले भाजपा और शिवसेना का गठबंधन टूटने के पीछे बड़ी भूमिका युवा नेताओं खासकर आदित्य ठाकरे जैसों की थी. युवा नेता किसी भी कीमत पर ज्यादा सीटें लेने के पक्ष में थे. वे भाजपा से बड़ी जीत हासिल कर यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि चुनाव बाद महाराष्ट्र की सत्ता पर शिवसेना काबिज हो या फिर मुख्यमंत्री तय करने में उनकी अहम भूमिका हो, लेकिन चुनाव परिणाम उतने बेहतर नहीं आए जितनी उम्मीद थी. महाराष्ट्र में कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) की नाकामी का पूरा फायदा शिवसेना नहीं उठा पाई. विधानसभा चुनावों में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. बदले हुए हालात में शिवसेना ने भाजपा का दामन तो थाम लिया, लेकिन यदि हम पार्टी की सोच और बाल ठाकरे की हनक को याद करें तो यह बिल्कुल अप्रत्याशित था. राज्य सरकार में भी शिवसेना का वर्चस्व कायम नहीं रहा. जूनियर पार्टनर के तौर पर शामिल होने के चलते कोई भी महत्वपूर्ण विभाग उसके हाथ में नहीं रहा. पार्टी ने आत्मसर्मपण करने जैसी हालत में भाजपा का समर्थन किया, क्योंकि भाजपा के पास एनसीपी के रूप में शिवसेना का एक विकल्प मौजूद था. ऐसे में शिवसेना की कमजोर होती स्थिति से कार्यकर्ताओं का भी मनोबल गिर गया. पार्टी के सामने सबसे बड़ी समस्या ऐसे मुद्दों की तलाश करना था जिससे अपनी खोई हुई लोकप्रियता और हनक फिर से हासिल की जा सके. मुंबई विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के विभाग के अध्यक्ष सुरेंदर जोंधाले बताते हैं, ‘शिवसेना जब पिछली बार सत्ता में आई थी तब उनका मुख्यमंत्री था. महाराष्ट्र में अब शिवसेना छोटी पार्टी की भूमिका में है. मंत्रिमंडल में भी उसे महत्वपूर्ण विभाग नहीं मिला, इसलिए सरकार के बडे़ फैसलों में वह शामिल नहीं हो पाती. इसकी निराशा उन्हें है. भाजपा के बड़े नेता बाल ठाकरे से मिलने आते थे, उनसे सलाह मशविरा करते थे, वैसा वे उद्धव के साथ नहीं कर रहे हैं, शिवसेना के कार्यकताओं को यह बात भी बहुत अखर रही है. ऐसे में खुद को हताशा से उबारने के लिए शिवसेना उग्र राजनीति का सहारा ले रही है.’

[box]

हमेशा उग्र रही है शिवसेना

शिवसेना हमेशा से उग्र पार्टी रही है. पाकिस्तान का हम 1990 से लगातार विरोध कर रहे हैं. इसमें अब तक कोई बदलाव नहीं आया है. हाल फिलहाल की घटनाएं उसी का नतीजा हैं. जब तक पाकिस्तान आतंकवाद को प्रश्रय देना बंद नहीं करेगा, हमारा विरोध जारी रहेगा. हम स्थानीय चुनावों में जीत के लिए ऐसा विरोध नहीं कर रहे हैं. शिवसेना ने हर समय जनता के मुद्दे पर सरकार का लोकतांत्रिक तरीके से विरोध किया है. जहां तक बात महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के मुखिया राज ठाकरे की है, तो उन्होंने हमेशा रिक्शा-रेहड़ी वालों को परेशान किया है. आप ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं दे सकते हैं, जब शिवसैनिकों ने आम आदमी को परेशान किया है. हमारे लिए राष्ट्र सबसे ऊपर है.

प्रेम शुक्ल, कार्यकारी संपादक, दोपहर का सामना

[/box]

मजबूरी है उग्र राजनीति करना

बाल ठाकरे के बाद शिवसेना की कमान संभालने वाले उद्धव ठाकरे पार्टी का एक नरम चेहरा माने जाते थे. बाल ठाकरे के तेवर उनके भतीजे राज ठाकरे में देखने को मिलते हैं, जिन्होंने उनके जीवित रहते समय ही 2006 में शिवसेना से अलग होकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) का गठन किया. वह बाल ठाकरे द्वारा शिवसेना की कमान अपने बेटे उद्धव को दिए जाने से नाराज थे. खैर, बाल ठाकरे से ही राजनीति का ककहरा सीखने वाले राज ठाकरे ने भी राजनीति की गली में उन्हीं की तरह की क्रिकेट खेली. मराठी मानुष के हक के नाम पर पूरबियों को महाराष्ट्र से बाहर निकालने और टोल टैक्स जैसे मुद्दों पर सरकार की नाक में दम करके राज ने यह दिखाना भी चाहा कि वही मराठियों के सच्चे हितैषी व बाल ठाकरे के असली राजनीतिक वारिस हैं. हालांकि महाराष्ट्र की जनता ने उन पर ज्यादा विश्वास नहीं जताया और चुनावों में उनकी पार्टी को कभी बहुत अच्छी सफलता नहीं मिली है. लेकिन अगर हम चुनावी गणित को समझे तो यह बिल्कुल साफ है कि महाराष्ट्र में शिवसेना की खराब हालत के लिए महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना जिम्मेदार है. विश्लेषकों का मानना है कि मनसे  ने खुद भले ही ज्यादा सीटें हासिल नहीं की, लेकिन वह शिवसेना को नुकसान पहुंचाने में सफल रही. ऐसे में महाराष्ट्र में अब शिवसेना के सामने यह मजबूरी है कि उसे अपना वोट बैंक बचाए रखने के लिए राज ठाकरे की पार्टी से ज्यादा खुद को मराठी अस्मिता का रक्षक दिखाना है. इसके चलते हाल ही में जैनों के पर्यूषण पर्व के दौरान मुंबई में कुछ समय के लिए मनसे के कार्यकर्ताओं के साथ शिव सैनिक भी चिकन बेचते नजर आए. आदित्य ठाकरे मुंबई में नाइटलाइफ के समर्थन में उतर गए. पार्टी ने फिल्म अभिनेता शाहरुख खान का भी समर्थन किया. ऐसे तमाम उदाहरण भरे पड़े हैं. दरअसल शिवसेना कोई भी ऐसा मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहती है, जिससे ऐसा संदेश जाए कि वह मराठी मानुष के हित का ध्यान नहीं दे रही है. इसके अलावा वह मनसे से आगे दिखने के चक्कर में अधिक आक्रामक भी है. हालांकि शिवसेना के मुखपत्र ‘दोपहर का सामना’ के कार्यकारी संपादक प्रेम शुक्ल इसे दूसरा रंग देने की कोशिश करते हैं और कहते हैं, ‘जहां तक बात राज ठाकरे की है, तो उन्होंने हमेशा रिक्शा-रेहड़ी वालों को परेशान किया है. आप ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं दे सकते हैं, जब शिवसैनिकों ने आम आदमी को परेशान किया है. हमारे लिए राष्ट्र सबसे ऊपर है. मजेदार बात यह है कि शिवसेना का मराठी मानुष का हमदर्द होने का दावा सिर्फ मनसे विरोध तक ही सीमित रह गया है. वह मराठवाड़ा में सूखे की मार झेल रहे और विदर्भ में खुदकुशी कर रहे किसानों के मसले पर उग्रता नहीं दिखा रही है. आश्चर्यजनक रूप से उनकी राजनीति आम आदमी की रोजमर्रा की परेशानियों से हमेशा दूर ही रहती है.

अस्तित्व बचाए रखने के लिए पाक राग

राजनीति में अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए खुद को चर्चा में बनाए रखना ही सबसे अच्छा उपाय है क्योंकि चर्चा के बाद ही प्रासंगिकता पर बात होती है. शिवसेना ने यही रास्ता अपनाया है. पार्टी ने खुद की अलग पहचान दिखाने के लिए पुराने पड़ चुके पाकिस्तान के मसले को रिचार्ज किया है. पाकिस्तान विरोध के चलते शिवसेना की चर्चा पूरे देश में होती रही है. प्रेम शुक्ल कहते हैं, ‘पाकिस्तान का हम 1990 से लगातार विरोध कर रहे हैं. इसमें अब तक कोई बदलाव नहीं आया है. हाल फिलहाल की घटनाएं उसी का नतीजा हैं. जब तक पाकिस्तान आतंकवाद को प्रश्रय देना बंद नहीं करेगा, हमारा विरोध जारी रहेगा.’ दरअसल, पाकिस्तान के उग्र विरोध के अलावा शिवसेना के बाकी मुद्दों पर उसकी सहयोगी भाजपा भारी पड़ रही है. विकास के मसले पर शिवसेना भाजपा की जूनियर पार्टनर होने के चलते पूरा श्रेय खुद नहीं ले पाएगी. हिंदुत्व का एजेंडा भाजपा की प्राथमिकता सूची में शामिल है. ऐसे में अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए शिवसेना ने आक्रामकता और उग्र राजनीति का पुराना पड़ चुका, लेकिन कारगर फाॅर्मूला पकड़ लिया. अब वह एक अलग पार्टी दिख रही है और हर मुद्दे पर विश्लेषक व जनता उसकी बातों पर ध्यान दे रहे हैं. हालांकि शिवसेना की मजबूरियां यहीं खत्म नहीं होती हैं. उसे सरकार में भी तब तक बने रहना है, जब तक कि यह सुनिश्चित न हो जाए कि अलग होने में उसका बड़ा फायदा है. शिवसेना भाजपा से अलग होने की गलती एक बार कर चुकी है. ऐसे में उसका नुकसान भी हुआ है. विश्लेषकों का मानना है कि अगर विधानसभा चुनाव में वह भाजपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ती तो उसकी हैसियत बड़े भाई की होती.

Cइसके अलावा स्थानीय निकायों में भी कई जगह शिवसेना ने भाजपा के समर्थन से अपनी सत्ता कायम की है. ऐसे में भाजपा का साथ छोड़ने का मतलब अपने असर को कम करना है. यही नहीं अपना स्वतंत्र अस्तित्व तलाश रही शिवसेना अगर भाजपा का साथ छोड़ती है तो महाराष्ट्र और देश के बाकी हिस्सों में यह संदेश जाएगा कि ऐसा करके वह राष्ट्रवादी और हिंदुत्ववादी ताकतों को कमजोर कर रही है. शिवसेना यह तमगा भी हासिल नहीं करना चाहती. इसी के चलते शिवसेना की परंपरागत दशहरा रैली को संबोधित करते हुए पार्टी अध्यक्ष उद्धव ठाकरे भाजपा को सख्त संदेश देने में पीछे नहीं हटे और कहा कि भविष्य शिवसेना का है और अगर जरूरत पड़ी तो वह अकेले आगामी लड़ाईयां (चुनाव) लड़ने को तैयार है. लेकिन साथ ही उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि पार्टी सरकार में बनी रहेगी और महाराष्ट्र सरकार किसी भी तरह के खतरे में नहीं है. गौरतलब है कि विश्लेषकों का मानना था कि दशहरा रैली के दौरान शिवसेना भाजपा गठबंधन टूट सकता है. वैसे शिवसेना ने 19 जून 1966 को अपने गठन के बाद से ही कई बार अपने एजेंडे में बदलाव किया है. दरअसल शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे बहुत ही शातिर नेता थे. उन्हें यह बात अच्छी तरह से पता थी कि किस वक्त कौन सी चाल चलनी है और किसका विरोध करना है. शिवसेना ने पहले दक्षिण भारतीयों का विरोध किया, फिर वामपंथियों का, बाद में उत्तर भारतीयों का. कभी हिंदुत्व का एजेंडा इनके लिए सबसे ऊपर रहा, तो कभी पाकिस्तान का विरोध कर उग्र राष्ट्रवाद को हवा दी. समय के हिसाब से पार्टी ने हमेशा अपनी रणनीति बदली. लेकिन आज शिवसेना राजनीति के जिस चौराहे पर खड़ी है, वहां उसे पता ही नहीं है कि किस रास्ते को पकड़ना बेहतर होगा. ऐसे में घबराई और मजबूर शिवसेना को अपनी आक्रामक छवि को बनाए रखना ही एकमात्र विकल्प दिख रहा है.

[box]

नई पीढ़ी के आगे आने से बदला है तेवर

शिवसेना सिर्फ राजनीतिक दल नहीं है, बल्कि आंदोलन का नाम है. इसलिए प्रदर्शन करना इसका इतिहास रहा है. शिवसेना में जो नई पीढ़ी आई है, वह इसे आगे बढ़ा रही है. अभी हमें जो दिखाई दे रहा है, वह इसी का परिणाम है. सबसे अच्छी बात यह है कि यह सिर्फ राजनीतिक नहीं है. शिवसेना के कार्यकर्ता सामाजिक मामलों पर भी प्रदर्शन कर रहे हैं . मुझे नहीं लगता इसका कारण भाजपा के साथ किसी तरह की प्रतिद्वंद्विता है और न ही स्थानीय चुनावों को इसका कारण मानना चाहिए. यह बहुत ही स्वाभाविक है. नई पीढ़ी आक्रामक तरीके से आगे बढ़ती है और ऐसा हर पार्टी के लिए होना बहुत जरूरी भी है.

भरत कुमार राउत, पूर्व राज्यसभा सांसद व राजनीतिक विश्लेषक

[/box]

भाजपा के अपने फायदे

इन सब बातों पर गौर करें तो यह सवाल स्वाभाविक रूप से उठता है कि आखिर शिवसेना की आक्रामकता पर भाजपा चुप क्यों नजर आ रही है, जबकि शिवसेना ने अपनी बयानबाजी व आक्रामकता से केंद्र व राज्य में सहयोगी भाजपा के लिए कई बार असहज स्थिति पैदा कर दी है. दरअसल एनसीपी के रूप में विकल्प मौजूद होने के बावजूद चुप रहने में भाजपा का ही फायदा है, क्योंकि राज्य में एनसीपी की छवि बहुत साफ नहीं है, उसके नेताओं पर भ्रष्टाचार के मामले चल रहे हैं. इसके अलावा सरकार में शामिल शिवसेना के उग्र होने के बावजूद भाजपा राज्य में अपना आधार तेजी से बढ़ा रही है. सरकार में शामिल होने के चलते भाजपा के हर निर्णय पर शिवसेना की मुहर लग ही जाती है. ऐसे में भाजपा के लिए यह गठबंधन घाटे का सौदा नहीं है. इस पर महाराष्ट्र भाजपा प्रभारी और राष्ट्रीय महासचिव सरोज पांडेय ने कहा, ‘भाजपा का शिवसेना के साथ गठबंधन सिर्फ विकास के लिए है. शिवसेना क्या कर रही है, इस पर हमे कुछ कहना नहीं कहना है. विकास हमारा लक्ष्य है. जिस दिन हमारे इस उद्देश्य पर आघात लगेगा, हम गठबंधन पर विचार करेंगे. इसके पहले तक भारतीय जनता पार्टी शिवसेना के साथ है.’ वैसे भी अगर हम बात शिवसेना की करें तो वह सिर्फ चुनावी फायदे के लिए उग्र है और इसमें सफलता मिलते ही उसके सुर नरम भी पड़ जाते हैं. इसका उदाहरण हाल ही में हुए कल्याण-डोबिंवली व कोल्हापुर महानगर पालिका के साथ ही 71 नगर परिषद चुनावों के परिणाम हैं. इन स्थानीय चुनावों में शिवसेना ने बेहतरीन प्रदर्शन किया, कई जगहों पर पहली बार उसके प्रत्याशियों ने जीत दर्ज की. परिणाम आने के एक दिन बाद ही शिवसेना ने भाजपा के साथ संघर्ष विराम का संकेत देते हुए कहा है कि चुनावों के दौरान जो कुछ भी होता है, वह अस्थायी होता है और हमें पुरानी बातों को भूल जाना चाहिए. चुनाव से पहले शिवसेना के जिस आक्रामक रुख के कारण सहयोगी भाजपा के साथ उसके रिश्तों में गिरावट देखने को मिली थी, उसी आक्रामक रुख में नरमी के संकेत देते हुए शिवसेना ने कहा कि विकास सुनिश्चित करने के लिए हर किसी को साथ लेकर चलना चाहिए. ऐसे में विश्लेषकों का मानना है कि 2017 तक होने वाले स्थानीय चुनावों के कारण शिवसेना ऐसे उग्र हमले भाजपा पर जारी रखेगी और भाजपा उन्हें तब तक नजरअंदाज करती रहेगी, जब तक कि केंद्र या राज्य सरकार को कोई बड़ा नुकसान न उठाना पड़े.

[box]

राजनीतिक हताशा का परिणाम है शिवसेना की उग्रता

शिवसेना जब पिछली बार सत्ता में आई थी तब उनका मुख्यमंत्री था. महाराष्ट्र में अब शिवसेना  छोटी पार्टी की भूमिका में है. मंत्रिमंडल में भी उसे महत्वपूर्ण विभाग नहीं मिला, इसलिए सरकार के बडे़ फैसलों में वह शामिल नहीं हो पाती. इसकी निराशा उन्हें है. भाजपा के बड़े नेता बाल ठाकरे से मिलने आते थे, उनसे सलाह मशविरा करते थे वैसा वे उद्धव के साथ नहीं कर रहे हैं, शिवसेना के कार्यकताओं को यह बात भी बहुत अखर रही है. ऐसे में खुद को हताशा से उबारने के लिए शिवसेना उग्र राजनीति का सहारा ले रही है. हालांकि उसे इसका फायदा नहीं मिल रहा है. भाजपा ऐसे मसलों पर चुप्पी साधकर शिवसेना को तवज्जाे नहीं दे रही है. बस समय-समय पर उसके नेता शिवसेना को उसकी हद याद दिलाते रहते हैं.

सुरेंदर जोंधाले, अध्यक्ष, राजनीति शास्त्र विभाग, मुंबई विश्वविद्यालय

[/box]