जंतर मंतर पर बने एक अस्थायी टेंट के पास खड़े सैम नगैहते चिल्लाते हैं, ‘हमें गरीब आदिवासियों के लिए न्याय चाहिए.’ सैम ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की पढ़ाई कर रहे है. उनके साथ मणिपुर से आए कई सामाजिक कार्यकर्ता दिल्ली के प्रसिद्ध धरनास्थल जंतर-मंतर पर नवंबर की शुरुआत से ही डटे हुए हैं. ये लोग मणिपुर के चूराचांदपुर कस्बे में 1 सितंबर को पुलिस की गोलियों का शिकार हुए 9 युवा आदिवासियों के लिए न्याय की मांग कर रहे हैं. मणिपुर विधानसभा द्वारा पारित तीन ‘आदिवासी विरोधी’ बिलों का विरोध करने के लिए एक प्रदर्शन हुआ था, जिसमें ये 9 युवा भी शामिल थे.
दिल्ली में इस प्रदर्शन की अगुवाई कर रहे मणिपुर आदिवासी फोरम, दिल्ली (एमटीएफडी) ने टेंट के अंदर 9 प्रतीकात्मक ताबूत रखे हुए हैं.
घटना के विरोध में मृतकों के परिवारों ने शव लेने और दफनाने से मना कर दिया है. उनकी मांग है कि मणिपुर सरकार आरोपी स्पेशल पुलिस कमांडो के खिलाफ कार्रवाई करे, जिन्होंने कथित तौर पर फायरिंग की, जिससे प्रदर्शन कर रहे आदिवासियों की मौत हो गई.
मणिपुर के पहाड़ी क्षेत्रों में कुछ समय से तनाव की स्थिति बनी हुई है. 31 अगस्त को बुलाए गए विधानसभा के विशेष सत्र में पास किए गए विवादित विधेयकों के कारण हिंसक विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए. प्रदर्शन कर रहे आदिवासियों ने कथित तौर पर एक सांसद और पांच विधायकों के घरों में आग लगा दी, जिसमें राज्य के स्वास्थ्य मंत्री फुंगजथंग तोनसिंग का घर भी शामिल था. प्रदर्शनकारियों ने विधायकों पर आरोप लगाया कि विधायकों ने उनके हितों का ध्यान नहीं रखा और जब विधेयक पास किए जा रहे थे तब वे मूकदर्शक बने रहे.
पुलिस का दावा है कि जब भीड़ ने आग बुझाने के लिए जा रही अग्निशमन की गाड़ियों को रोका गया तब उन्हें उग्र भीड़ पर फायरिंग करनी पड़ी. इस फायरिंग में 11 साल के बच्चे समेत कुल आठ लोगों की मौत हो हुई थी.
आदिवासी संगठनों के मुताबिक संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करते हुए तीन बिलों- प्रोटेक्शन ऑफ मणिपुर पीपुल बिल, मणिपुर लैंड रेवेन्यू एंड लैंड रिफॉर्म्स (सातवां संशोधन) बिल, (एमएलआर एंड एलआर) मणिपुर शॉप्स एंड इस्टेब्लिशमेंट (द्वितीय संशोधन) बिल पास कर दिए गए. दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्री लैम खान पिअांग के मुताबिक, ‘संविधान के अनुच्छेद 371 सी में वर्णित ‘प्रेसीडेंट मणिपुर विधानसभा आदेश, 1972’ के मुताबिक, जो कानून आदिवासियों की आजीविका और जमीन को प्रभावित करे उसे बनाने से पहले ‘हिल एरिया कमेटी’ (एचएसी) की सहमति लेनी जरूरी है जो सभी आदिवासी विधायकों की आधिकारिक संस्था है. लेकिन कई मौकों पर अपने बहुमत के कारण हिल एरिया कमेटी के निर्णयों को सत्तारूढ़ पार्टियों ने प्रभावित किया है. लेकिन इस मामले में तो इन बिलों पर कमेटी से चर्चा भी नहीं की गई.’
‘अभी तक मणिपुर सरकार ने उन पुलिस कमांडो को तलाशकर उनके खिलाफ कार्रवाई भी शुरू नहीं की है जिन्होंने हमारे लोगों को मारा’
यहां ये जानना महत्वपूर्ण है कि मणिपुर के आदिवासी क्षेत्र देश के दूसरे आदिवासी क्षेत्रों की तरह संविधान की पांचवीं और छठी अनुसूची में शामिल नहीं हैं. संविधान का अनुच्छेद 371 सी ही इनका एकमात्र संरक्षक है.
पिअांग कहते हैं, ‘संघर्ष की शुरुआत गैर-आदिवासी बहुसंख्यक मेइतेई समुदाय द्वारा ज्वाइंट कमेटी फॉर इनर लाइन परमिट (जेसीएफआईएलपी) स्थापित करने के बाद हुई, जिसे बाहरी लोगों के मणिपुर राज्य में प्रवेश को नियंत्रित करने के लिए बनाया गया था. इस कदम के पीछे गैर-आदिवासियों की मंशा आदिवासियों के निवास पहाड़ी क्षेत्रों में जमीन के लेन-देन को सुगम बनाना था. लेकिन वे राज्य में मणिपुरी और गैर-मणिपुरी की कल्पना में आदिवासियों और उनकी जमीन के हस्तांतरण जैसे गंभीर सवालों को दरकिनार कर रहे थे. जेसीएफआईएलपी आंदोलन के जवाब में राज्य सरकार तीन बिल ले आई, जिससे जमीन के हस्तांतरण में तेजी और आदिवासियों के वजूद पर ही संकट मंडरा सकता है.’
एमटीएफडी के संयोजक रोमियो हमर के मुताबिक, ‘मेइतेई समुदाय बहुल कांग्रेस सरकार के गंदे खेल का खुलासा मणिपुर लैंड रेवेन्यू एंड लैंड रिफाॅर्म्स बिल के विश्लेषण से हो जाता है. बहुसंख्यक समुदाय के निवास मणिपुर घाटी में जमीन को लेकर बढ़ता दबाव संशोधन के लिए सबसे महत्वपूर्ण कारण रहा है. संशोधित बिल में भ्रमित करने वाले कई वाक्य हैं, जिन्हें आदिवासियों के खिलाफ तोड़-मरोड़कर इस्तेमाल किया जा सकता है. उदाहरण के लिए, ‘मणिपुर के मूल निवासी’ को सही तरीके से परिभाषित नहीं किया गया है. इन भ्रमों को असंवेदनशील नौकरशाही द्वारा अपने तरीके से इस्तेमाल करने के चलते पारंपरिक आदिवासी भूमि प्रशासन के तरीके पर गंभीर संकट आ जाएगा. इन सबसे सरकार की सच्ची मंशा जमीन हड़पने की लगती है.’ हालांकि मणिपुर सरकार ने कई प्रेस विज्ञप्तियों के माध्यम से सफाई देकर जमीन हड़पने के आरोपों का खंडन किया है.
हालिया विवादों पर अगर नजर दौड़ाएं तो पता चलता है कि ये विधेयक पहाड़ी क्षेत्रों में अल्पसंख्यक समुदाय के साथ गहरे संरचनात्मक भेदभाव के प्रतीक हैं. घाटी और पहाड़ी क्षेत्रों में सरकार के खर्च में स्पष्ट अंतर है. एमटीएफडी के सह-संयोजक मैवियो जे. वोबा कहते हैं, ‘महत्वपूर्ण सामाजिक ढांचे जैसे कृषि विश्वविद्यालय, मणिपुर विश्वविद्यालय, दो मेडिकल इंस्टीट्यूट, आईआईटी, नेशनल गेम्स काॅम्प्लेक्स और राज्य स्तरीय प्रशासनिक भवन सभी घाटी में स्थित हैं. यहां तक कि प्रस्तावित खेल विश्वविद्यालय भी घाटी में ही बनेगा.’
इसके अलावा राज्य की विधानसभा में प्रतिनिधित्व का मामला भी विवादास्पद है. वर्तमान में राज्य की 60 विधानसभा सीटों में से सिर्फ 20 ही आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं. वोबा कहते हैं, ‘राज्य की जनसंख्या में आदिवासी 40 से 45 प्रतिशत हैं. औसतन हर आदिवासी विधानसभा क्षेत्र की जनसंख्या 37 हजार है लेकिन मेइतेई बहुल घाटी में ये 27 हजार है. परिसीमन आयोग ने आदिवासी क्षेत्रों में विधानसभा सीटें बढ़ाने का सुझाव दिया था लेकिन निहित स्वार्थों के चलते उस पर अमल नहीं हुआ.’
जंतर मंतर पर मृतकों की याद में मोमबत्ती जलाते हुए सैम नगैहते कहते हैं, ‘हमारी आदिवासी संस्कृति में हम उन लोगों को बहुत आदर देते हैं जो मर चुके हैं. लेकिन इस मामले में हमने अपने मर चुके भाइयों को अभी तक दफनाया भी नहीं है जो तकरीबन तीन महीने पहले मारे गए थे. उनके शव चूराचांदपुर जिला अस्पताल के मुर्दाघर में सड़ रहे हैं, जहां शवों को रखने के लिए एक फ्रीजर तक का प्रबंध नहीं है. हम उन शवों को तब तक नहीं लेंगे जब तक हमें न्याय नहीं मिल जाता. हमें उम्मीद है कि एक दिन केंद्र सरकार हमारे इस दुख भरे विरोध को जरूर सुनेगी.’
यहां गौर करने वाली बात यह भी है कि विभिन्न आदिवासी समुदायों में व्याप्त असंतोष को देखते हुए मणिपुर सरकार ने 2 नवंबर को ‘हियाम खम’ (आदिवासी प्रथागत कानून में हियाम खम का मतलब आरोपी द्वारा गलती को स्वीकार कर लेना होता है) की तामील की यानी इस तरह राज्य सरकार ने स्वीकारा कि हत्याएं अन्यायपूर्ण थीं.
सैम के मुताबिक, ‘सरकार द्वारा किया गया हियाम खम सच्चा नहीं था. प्रथागत कानून के तहत एक सच्चे हियाम खम का मतलब उन अपराधियों द्वारा सार्वजनिक रूप से माफी मांगना होता है लेकिन अभी तक राज्य सरकार ने उन पुलिस कमांडो को तलाशकर उनके खिलाफ कार्रवाई भी शुरू नहीं की है जिन्होंने हमारे लोगों को मारा.’
आदिवासी इस ओर भी ध्यान दिलाते हैं कि मणिपुर में अब आदिवासियों द्वारा शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने के दौरान भी उन पर अंधाधुंध गोलियां चलाई जाती हैं. सैम कहते हैं, ‘अगर बहुसंख्यक समुदाय प्रदर्शन कर रहा है तो उत्पात चरम पर पहुंचने पर भी पुलिसवाले गोली नहीं चलाते. वे सिर्फ आंसू गैस और रबड़ की गोलियों का इस्तेमाल करते हैं. इसलिए हमारा ये संघर्ष राज्य में बढ़ते क्रूर नस्लवाद के खिलाफ भी है.’
कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने इस साल पहली बार टीपू सुल्तान की जयंती मनाने का फैसला किया, जिसका भाजपा व विहिप समेत अन्य संगठनों ने विरोध किया. इनका कहना है कि टीपू एक असहिष्णु और क्रूर शासक थे जिन्होंने हिंदुओं पर घोर अत्याचार किए. उन पर मंदिरों व गिरजाघरों को तोड़ने का भी आरोप है. हालांकि इतिहास में टीपू सुल्तान को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने वाले एक शक्तिशाली राजा के तौर पर जाना जाता है. 10 नवंबर को कोडागू जिले के मदीकेरी कस्बे में जयंती मनाने का विरोध कर रहे विहिप कार्यकर्ता उग्र हो गए जिसकी वजह से पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा. इस दौरान एक कार्यकर्ता की मौत हो गई. इस घटना के बाद हुई हिंसा में राज्य में अब तक तीन लोगों की मौत हो चुकी है. मुख्य विपक्षी दल भाजपा ने पूरे मामले की सीबीआई जांच की मांग की है.
गिरीश कर्नाड को क्यों मिली धमकी?
ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित नाटककार और अभिनेता गिरीश कर्नाड ने टीपू सुल्तान की जयंती मनाने के फैसले का स्वागत किया. उनका मानना है, ‘टीपू असहिष्णु नहीं था ये गलतफहमी अंग्रेजों के लिखे इतिहास के कारण हुई है जिसने उनकी छवि एक कट्टर शासक के तौर पर पेश की. टीपू सुल्तान अगर हिंदू होते तो उन्हें मराठा शासक छत्रपति शिवाजी के समान दर्जा मिलता.’ इसके बाद से गिरीश को टि्वटर पर जान से मारने की धमकियां मिल रही हैं. हालांकि गिरीश इन्हें मजाक की तरह ले रहे हैं.
क्यों हो रहा है रजनीकांत का विरोध?
टीपू सुल्तान पर फिल्म बनाने को लेकर भी बवाल मचा हुआ है. कुछ दिन पहले कन्नड़ फिल्म निर्माता अशोक खेनी ने इस फिल्म के बारे में रजनीकांत से बात की थी. अशोक का कहना है, ‘एक समारोह के दौरान फिल्म के बारे में रजनीकांत से बात की गई थी मगर उन्होंने फिल्म के लिए हामी नहीं भरी. हां, इस प्रोजेक्ट में उनकी रुचि जरूर है.’ लेकिन भाजपा और तमिलनाडु के हिंदू संगठनों ने रजनीकांत को चेताया है कि वे टीपू सुल्तान पर बनने वाली फिल्म में काम न करें. इसी कड़ी में हिंदू मुन्नानी नेता रामगोपालन ने यह कहते हुए रजनीकांत का विरोध किया कि टीपू सुल्तान ने अपने शासन के दौरान तमिलों पर बहुत जुल्म किए थे और उनको एक तमिल नागरिक होने के नाते यह फिल्म नहीं करनी चाहिए.
वस्तु एवं सेवा कर एक अप्रत्यक्ष कर है यानी ऐसा कर जो सीधे ग्राहकों से नहीं वसूला जाता लेकिन जिसकी कीमत अंत में ग्राहक से ही ली जाती है. इसे आजादी के बाद टैक्स प्रणाली में सुधार का सबसे बड़ा कदम माना जा रहा है. जीएसटी लागू होने पर देश के राज्यों में सभी चीजों पर टैक्स की दर एक समान रहेगी. मौजूदा कर व्यवस्था में वस्तुओं और सेवाओं पर अलग-अलग दर से टैक्स लिया जाता है. जीएसटी लागू होने के बाद केवल तीन टैक्स वसूले जाएंगे. पहला सीजीएसटी जिसे केंद्र सरकार वसूल करेगी. दूसरा एसजीएसटी यानी स्टेट जीएसटी जिसे राज्य सरकार वसूल करेगी. यह टैक्स राज्य के कारोबारियों से वसूला जाएगा. लेकिन यदि दो राज्यों के बीच कारोबार होता है तो उस पर आईजीएसटी (इंटीग्रेटेड जीएसटी) लिया जाएगा. इसे केंद्र वसूल करके दोनों राज्यों में समान रूप से बांट देगा.
जीएसटी पर कांग्रेस को क्यों है आपत्ति?
जीएसटी के मुद्दे पर 27 नवंबर को प्रधानमंत्री ने सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह से मुलाकात की. जीएसटी लागू करने को लेकर कांग्रेस ने तीन शर्तें रखी हैं. पहली, जीएसटी की दर को 18 प्रतिशत रखा जाए. दूसरी, जीएसटी डिसप्यूट सेटलमेंट अथॉरिटी का गठन किया जाए. तीसरा, उत्पादक राज्यों के लिए एक फीसदी लेवी यानी कर के प्रावधान को हटाया जाए. मगर मोदी सरकार जीएसटी की दर 20 से 22 प्रतिशत तक रखना चाहती है. कांग्रेस का कहना है कि सरकार को इन मांगों पर ध्यान देना चाहिए और हड़बड़ी में संवैधानिक संशोधन नहीं करना चाहिए.
जीएसटी लागू होने से क्या फायदा होगा?
फिलहाल एक ही चीज अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग दाम पर बिकती है क्योंकि सब राज्यों में अलग कर प्रणाली है. अब हर चीज पर जहां उसका निर्माण हो रहा है, वहीं जीएसटी वसूल लिया जाएगा. उसके बाद उसके लिए आगे कोई टैक्स नहीं देना पड़ेगा. इससे पूरे देश में वह चीज एक ही दाम पर मिलेगी. कई राज्यों में टैक्स की दर बहुत ज्यादा है. ऐसे राज्यों में वो चीजें सस्ती होंगी. जीएसटी के जरिये सिंगल टैक्स स्ट्रक्चर होगा, कागजी कार्यवाही में कमी होगी और इसे समझना आसान होगा. इससे टैक्स जमा करना आसान होगा, कारोबारी टैक्स भरने में रुचि दिखाएंगे जिससे रेवेन्यू में बढ़ोतरी होगी. जीएसटी लागू होने के बाद जीडीपी ग्रोथ में करीब दो फीसदी उछाल का अनुमान है.
यह घटना वर्ष 1974 की है. उस समय देश की सरकार ने राजस्थान के पोखरण में परमाणु बम का परीक्षण किया था. उस वक्त टोंक जिले के ‘माता का भुरटिया’ नाम के हमारे गांव में अफवाह फैली कि आज हमारे देश में बम गिरने वाला है. अब गांव के उन नासमझों और अशिक्षितों को कौन समझाता कि हमारे देश की सरकार परमाणु बम का परीक्षण कर रही है. हम भी उस वक्त बच्चे ही थे. गांव के उन भोले-भाले लोगों ने न जाने कहां से यह अफवाह सुन ली कि आज कोई दूसरा देश परमाणु बम गिराने वाला है. उस दिन गांव में ऐसी दहशत फैली कि लोग दोपहर से पहले ही खेतों का काम निपटाकर घरों की ओर दौड़ने लगे. गांव के बड़े-बूढ़े कहने लगे कि आज कोई बाजार-वाजार नहीं जाएगा क्योंकि सभी बाजार घर से तीन से पंद्रह किलोमीटर की दूरी पर पड़ते थे.
गांव पर बम गिराए जाने की खबर पर सबको इतना पक्का यकीन था कि मौत आंखों के आगे दिखाई दे रही थी. तय हुआ कि सब अपने घर में रहें. अच्छे-अच्छे पकवान बनाएं और प्रेम से खाएं, आखिरी वक्त में एक साथ रहें या यूं कहें कि साथ-साथ मरें. संयोग से उस दिन जबरदस्त आंधी व बरसात भी शुरू हो गई, जिससे दहशत और भी ज्यादा गहरा गई. सबने इसे विनाश के लिए दिया गया प्रकृति का संकेत माना. उस रोज सब लोग अपने-अपने परिवार के साथ घरों में दुबके हुए थे. गांव की गलियां वीरान थीं.
मुझे याद है ठीक इसी तरह देश की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1975 में जब इमरजेंसी लगाई थी तब भी ऐसा ही नजारा और दहशत लोगों पर हावी था, क्योंकि उस वक्त घर के मर्दों को जबरदस्ती पकड़कर नसबंदी कराई जा रही थी. उस वक्त इतनी दहशत थी कि एक किलोमीटर दूर से पुलिस की जीप देखते ही घर के मर्द खेतों में जाकर छिप जाते थे. खेतों की सिंचाई की नहरों में उल्टे लेट जाते थे. हम बच्चे भी पड़ोस की चाची-ताई के साथ चारे की कुट्टी (एक त्रिशंकु आकार का चारा भरने का स्थान जिसकों राजस्थानी में ‘कंसारी’ कहते हैं) में बंद हो जाते थे. फिर शाम को ही सब लोग छिपते-छिपाते अपने घरों की ओर लौटते. ये सिलसिला कई दिनों तक चला, लोगों का जीना मुहाल हो गया था. बाद में लोगों ने अपना ये गुस्सा आम चुनावों में उतारा और इंदिरा जी चुनाव हार गईं.
खैर, मूल घटना पर लौटते हैं, जब पूरी रात भय और दहशत के साये में गुजरी. सवेरा हुआ तो लोग अनमने ढंग से उठे. जान चले जाने की रात भर की दहशत और अब जिंदा होने की पुष्टि. लोगों को भरोसा नहीं हो पा रहा था कि वे जिंदा हैं. न तो वे खुश हो पा रहे थे और न ही दुखी. फिर जब रेडियो के समाचारों से पता लगा कि हमारे देश में परमाणु बम बनाकर उसका परीक्षण किया गया है तब लोगों की जान में जान आई. हालांकि मानसिक रूप से उस रात हम सब मौत के डर के साये में थे और वो रात आज भी भुलाए नहीं भूलती.
दुखद है कि संवाद की नित नई तकनीक विकसित होने के बावजूद लोगों में विवेक और जागरूकता का विकास नहीं हो पा रहा है
यह तो सिर्फ हमारे गांव की घटना थी लेकिन मुझे याद है एक बार ऐसी ही झूठी अफवाह के चलते देश के अधिकांश शहरों में लोग पत्थर के गणेश को दूध पिलाने के लिए मंदिरों पर टूट पड़े थे. अब इसे श्रद्धा कहें या अंधविश्वास मगर सब लोगों का यही मानना था कि गणेश की मूर्तियां सचमुच दूध पी रही हैं. इन घटनाओं को कितने दशक बीत गए हैं. वैज्ञानिक प्रगति में तब से अब तक हमारे देश ने नित नए सोपान गढ़े. हम चांद और मंगल तक की दूरी नाप आए लेकिन अंधविश्वासों और अफवाहों से हमारा देश अब तक पीछा नहीं छुड़ा पाया है. अभी जुलाई में ही उत्तर प्रदेश के कई गांवों में सिल-बट्टे के खुद-ब-खुद छेदे जाने की अफवाह ने जोर पकड़ा था. अफवाहें जान-बूझकर फैलाई जाती हैं और इसका परिणाम काफी घातक होता है. दुखद है कि संवाद की नित नई तकनीक विकसित होने के बावजूद लोगों में वैज्ञानिक चेतना, विवेक और जागरूकता का विकास नहीं हो पा रहा. कई बार इन घटनाओं को याद कर जेहन में बार-बार सवाल उठता है कि क्या वाकई हम तरक्की कर रहे हैं या फिर देश में अब भी 40 साल पहले जैसे हालात जस के तस बने हुए हैं.
तेज आर्थिक विकास का सबसे ज्यादा नुकसान पर्यावरण को उठाना पड़ता है और प्रदूषण के रूप में इसके खतरे लोगों को झेलने पड़ते हैं. जमशेदपुर के लोगों के साथ भी ऐसा ही हो रहा है. विकास के नाम पर सालों पहले इस शहर को कल-कारखानों से पाट दिया गया और अब इनसे निकल रहा कचरा उनके स्वास्थ्य से लेकर उनकी खेती-किसानी पर बुरे असर छोड़ रहा है.
जमशेदपुर में टाटा पावर लिमिटेड के जोजोबेड़ा थर्मल पावर प्लांट और टाटा स्टील से रोजाना निकलने वाले हजारों टन राख और स्लैग (धातुमल) से शहर और आसपास की खेती योग्य जमीन बंजर होने लगी है. जल, जमीन और हवा प्रदूषण की चपेट में है. इसका सीधा असर पर्यावरण संतुलन और किसानों की कमाई पर पड़ा है. साथ ही लोगों को दमा जैसी बीमारियों से भी जूझना पड़ रहा है.
जोजोबेड़ा थर्मल पावर प्लांट से रोजाना लगभग 2,500 टन राख निकलती है, जिसे जमशेदपुर शहर के बाहरी इलाकों और इसके आसपास के गांवों में खपाया जाता है. कंपनी ठेकेदारों की मदद से राख और स्लैग से गांवों को पाट रही है. जमशेदपुर के बाहरी इलाके सुंदर नगर के हितकू गांव निवासी सोमनाथ सिंह की केडो गांव में जमीन है. इस जमीन पर हजारों टन राख गिराई गई है. इसके मुआवजे के नाम पर ठेकेदार ने कुछ रकम सोमनाथ को दी और कुछ बकाया कर दिया. इसके बाद सोमनाथ ने अपनी जमीन पर राख गिरवाना ही बंद करा दिया. उस राख को दबाने के लिए उपर से मिट्टी की परत भी डाली गई. अब इस जमीन में बड़ी-बड़ी दरारें पड़ गई हैं. बारिश के बाद यह राख पानी के साथ आसपास के खेतों में फैल गई और कुछ हिस्सा पास के पहाड़ी नाले ‘लेदाघड़ा’ में बह गया. नाले से होकर राख जहां-जहां फैली वहां के खेत अब बंजर हो गए हैं. इन खेतों में एक समय जहां भरपूर अनाज उपजता था वहीं अब सिर्फ कुछ खरपतवार उगे हुए नजर आते हैं. केडो गांव के निवासी दारा साहू बताते हैं, ‘जब से राख गिराई गई है, तब से आसपास के गांववालों का जीना हराम हो गया है. यहां के ग्रामीण परेशान हैं. वे लेदाघड़ा में स्नान करते थे, जानवरों को पानी पिलाते थे और खेतों को सींचते थे, मगर नाले में राख आने से पानी गंदा हो गया है और उसका बहाव भी कम हो गया है.’
स्लैगयुक्त पानी की चपेट में आकर फसल खराब हो रही है और मछली व अन्य जलीय जीव-जंतुओं की भी मौत हो रही है. इस वजह से दलमा के पारिस्थितिकी तंत्र पर भी खतरा मंडराने लगा है. वहीं पानी के संपर्क में आने वालों को त्वचा संबंधी रोग भी हो रहे हैं
इस तरह गर्मी के दिनों में जमीन में दबी राख हवा के साथ पूरे गांव को अपने कब्जे में लिए रहती है. इसी तरह टाटा स्टील से निकलने वाले स्लैग को गड्ढा भरने के नाम पर जहां-तहां फेंका जा रहा है. विशेषज्ञ बताते हैं कि इस स्लैग में सल्फर की भारी मात्रा रहती है, जो बारिश के पानी में घुलकर नदी, तालाब आदि के पानी को प्रदूषित कर देती है. फिर इस पानी को न तो पिया जा सकता है और न ही यह खेती करने योग्य होता है. पूर्वी सिंहभूम के सिविल सर्जन डॉ. श्याम कुमार झा बताते हैं, ‘विभिन्न उद्योगों के कारण प्रदूषण बढ़ा है. लोग अनेकों बीमारियों की चपेट में आ रहे हैं. उनमें सबसे अधिक संख्या दमा के रोगियों की है. प्रदूषण की चपेट में मनुष्य के साथ जानवर भी हैं.’ टाटा कंपनी पर्यावरण नियमों की अनदेखी कर जहरीले सल्फरयुक्त स्लैग परिष्कृत किए बगैर जमशेदपुर के लगभग 40 किलोमीटर के दायरे में गिरवा रही है. इतना ही नहीं पूर्वी एशिया में हाथियों के सबसे बड़े अभ्यारण्य दलमा के इको सेंसिटिव जोन की भी अनदेखी की जा रही है, जो इसकी चपेट में है. स्लैगयुक्त पानी की चपेट में आकर फसल खराब हो रही है और मछली व अन्य जलीय जीव-जंतुओं की भी मौत हो रही है. इस वजह से दलमा के पारिस्थितिकी तंत्र पर भी खतरा मंडराने लगा है. वहीं पानी के संपर्क में आने वालों को त्वचा संबंधी रोग भी हो रहे हैं.
जमशेदपुर से 25-30 किलोमीटर दूर स्थित गालूडीह के उलदा गांव के ग्रामीण भी इसी समस्या से परेशान हैं. टाटा स्टील कंपनी की ओर से गांव में स्लैग डालने के लिए बनाए गए तालाब से बहकर आए जहरीले पानी की चपेट में आकर उनकी फसल नष्ट हो रही है, छोटे तालाबों में पाली जाने वाली मछलियां भी मर रही हैं. ये ग्रामीण टाटा स्टील कंपनी से अपने नुकसान की भरपाई की मांग कर रहे है. गांववालों ने मांगें पूरी न होने की दशा में आंदोलन की भी चेतावनी दी है. उलदा गांव में लगभग चार वर्ष पहले टाटा स्टील ने सल्फरयुक्त स्लैग डंप करने के लिए तालाब बनवाया था. अब यह तालाब पिछले चार वर्ष में लगभग 50 एकड़ जमीन पर 50 फीट ऊंचा हो गया है. इसके निर्माण के समय स्लैग से निकलने वाले जहरीले पदार्थ से होने वाले परिणाम को समझने के बाद गालूडीह पंचायत के युवा मुखिया वकील हेमब्रम ने इसका विरोध किया था. तब उनका साथ बड़ाखुशी पंचायत के मुखिया बंसत प्रसाद सिंह, ग्रामीण उपेन मांझी, जमनीकांत महतो ने दिया था, लेकिन आसपास के गांववालों को अपने साथ लाने में ये असफल रहे और इस खतरनाक तालाब का निर्माण हो गया.
हेमब्रम बताते हैं, ‘ग्रामीण भोलेभाले हैं उनको स्लैग डंप से होने वाले प्रदूषण और नुकसान का अनुमान नहीं था. उन्हें धन का लालच देकर भटका दिया गया और वे टाटा स्टील का सहयोग करने लगे.’ जबकि हेमब्रम के साथ वाले चाहते थे कि मामले को लेकर तीनपक्षीय वार्ता हो. टाटा स्टील, जिला प्रशासन और ग्राम पंचायत के बीच अनुबंध हो, जिसमें लिखा हो कि कचरा डंप करने से किसी भी प्रकार का जल, जमीन और वायु प्रदूषण न हो और गांववालों का नुकसान होने की दशा में उचित मुआवजा मिले.’
पर अब चार साल बाद हाल ये है कि स्लैग से बहकर आए जहरीले पानी ने ग्रामीणों की जमीनों को बंजर बना दिया है. खेत में लगी फसल जलकर नष्ट होने लगी है. इस तालाब से कुछ दूरी पर स्थित बिरसा अनुसंधान केंद्र के निदेशक जे. टोपनो ने बताया, ‘स्लैग से निकला पानी जमीन की उर्वर क्षमता को नष्ट कर रहा है. इससे जमीन में फसल नहीं लग पाती है. साथ ही इस पानी के संपर्क में आने वाले किसानों को बीमारियां भी हो रही हैं.’ हालांकि अब तक कितनी जमीन बंजर हुई है, इसके बारे में विभाग से कोई जानकारी नहीं मिल पाई है.
झारखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण क्षेत्रीय कार्यालय सह प्रयोगशाला की ओर से टाटा पावर लिमिटेड को जल नियंत्रण अधिनियम 1974 व वायु नियंत्रण अधिनियम 1981 के उल्लंघन के लिए नोटिस भेजकर चेताया भी गया है, मगर इसका असर होता नहीं दिख रहा है
झारखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण क्षेत्रीय कार्यालय सह प्रयोगशाला की ओर से टाटा पावर लिमिटेड को जल नियंत्रण अधिनियम 1974 व वायु नियंत्रण अधिनियम 1981 के उल्लंघन के लिए नोटिस भेज कर चेताया भी गया है, मगर इस नोटिस का कुछ खास असर होता नहीं दिख रहा है. उधर, कृषि, पशुपालन व सहकारिता मंत्री रणधीर सिंह ने पूरे मामले की जांच कराने की बात कही है. उन्होंने कहा है, ‘खेती योग्य जमीन का बंजर होना और जहरीले पानी से जीवों की मौत होना गंभीर बात है. पूरे मामले की जांच करने के बाद दोषियों के खिलाफ उचित कार्रवाई की जाएगी.
उलदा पंचायत प्रधान छोटू सिंह बताते हैं, ‘टाटा स्टील के स्लैग डंप करने वाले तालाब की चपेट में आकर उनकी तीन एकड़ जमीन बंजर हो गई है. हर साल लाखों रुपये का नुकसान उठाना पड़ रहा है.’ छोटू हर साल एक एकड़ जमीन पर 50 से 60 हजार रुपये तक का धान उपजाने के साथ मछली भी पालते थे. इससे उनको 10 से 12 हजार रुपये की अतिरिक्त कमाई हो जाती थी. अब वे अपने खेत से एक रुपया भी नहीं कमा पा रहे हैं. उनके परिवार में सात सदस्य हैं. उनके साथ ही गांव के 40 अन्य किसान भी अपनी उपजाऊ जमीन से हाथ धो बैठे हैं. किसानों ने इसके लिए टाटा स्टील से मुआवजे की भी मांग की थी. पिछले साल उनकी तीन एकड़ जमीन के लिए महज 34 हजार रुपये मुआवजे के रूप में दिए गए. गांव के लाल मोहन सिंह बताते हैं, ‘मेरी सात एकड़ जमीन है, जो बंजर हो चुकी है. मेरी जमीन के अलावा 40 किसानों की सैकड़ों एकड़ जमीन तालाब के जहरीले पानी की चपेट में आकर अपनी उर्वर क्षमता खो चुकी है. हमें परिवार पालने में तकलीफ उठानी पड़ रही है. हमारी मांग है कि टाटा स्टील हमें स्थायी नौकरी या रोजगार उपलब्ध कराए, वरना हम आंदोलन के लिए सड़क पर उतरेंगे.’ इस संबंध में पक्ष जानने के लिए टाटा स्टील प्रबंधन को पत्र लिखा गया, पर प्रबंधन की ओर से किसी भी तरह का जवाब नहीं दिया गया.
अगर कहा जाए कि दुनिया के सबसे स्मार्ट शहरों के बारे में सोचिए तो जाहिर तौर पर लंदन, न्यूयॉर्क, मेक्सिको और सिंगापुर (हालांकि ये एक देश है) का नाम ही जेहन में आता है. मगर आपको ये जानकर हैरानी होगी कि न्यूयॉर्क स्थित एक थिंक टैंक ‘इंटरनेशनल कम्युनिटी फोरम’ (आईसीएफ) द्वारा 2015 में जारी दुनिया के सर्वोत्तम 7 शहरों की सूची में इनमें से एक भी नहीं है. रियो डी जेनेरो (ब्राजील) को छोड़ दें तो सभी अनजान नामों के छोटे शहर हैं जैसे कोलंबस (संयुक्त राष्ट्र अमेरिका), इप्स्विच (ऑस्ट्रेलिया) और न्यू ताइपे सिटी (ताइवान).
आने वाले दिनों में जब शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू 98 प्रस्तावित स्मार्ट शहरों की सूची में से पहले 20 शहरों को चुनेंगे तो जाहिर है उसकी तारीफ ही की जाएगी पर समस्या उसके बाद शुरू होगी. दरअसल इस योजना को लागू करने की जल्दी में नायडू ने इसकी प्रक्रिया को इच्छानुसार छोटा कर लिया है. इस योजना में एक स्मार्ट सिटी की परिभाषा, उसकी परिकल्पना और उसकी व्यापकता अब भी अस्पष्ट है. इसके उद्देश्यों को पाने में लगने वाली समयावधि भी बिना कारण ही कम कर दी गई है. एक कंसल्टेंसी फर्म, जिसने इस प्रोजेक्ट का हिस्सा बनने से मना कर दिया था, कहती है, ‘अगर शहरों के तैयार किए गए फाइनल खाकों और योजनाओं के बारे में बात करें तो ये योजना विश्व के किसी भी शहर की नकल-भर ही होगी. आपको इसमें बहुत कम या न के बराबर ही नयापन मिलेगा.’
सरकार की इस महत्वाकांक्षी परियोजना की वेबसाइट (डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डॉट स्मार्ट सिटीज डॉट जीओवी डॉट इन) के अनुसार, ऐसी योजनाओं की परिकल्पना देश व शहर के लिहाज से बदलती रहती है और ये कई बार उस स्थान विशेष के रहवासी और नीति निर्माताओं पर निर्भर करती है. यानी ये साफ है कि यूरोप या अमेरिका का कोई भी स्मार्ट शहर भारत से बिल्कुल अलग होगा, यहां तक कि भारत में ही अलग-अलग शहरों को स्मार्ट सिटी में विकसित करने के लिए अलग योजनाओं की जरूरत होगी. सभी शहरों के लिए एक ही जैसी योजना बना देने से काम नहीं चलेगा. ये एक सामान्य-सी बात है जो हम सभी के शहरों और नगरों के अनुभवों पर आधारित है.
‘किसी शहर को ‘स्मार्ट’ बनाने की पहली शर्त ‘स्मार्ट’ नागरिक हैं. अगर नागरिक ही स्मार्ट नहीं होंगे तो स्मार्ट सिटी बनाने के उद्देश्य बेमानी हो जाएंगे’
दुर्भाग्य से शहरी विकास मंत्रालय कुछ और ही चाहता है. उसका जोर इस बात पर है कि उनकी स्मार्ट सिटी की परिकल्पना का केंद्र सतत विकास था, जिसका उद्देश्य आसपास के सघन क्षेत्रों को विकसित करते हुए एक दोहराया जा सकने वाला मॉडल बनाया जाए, जिससे अन्य नगरों को स्मार्ट सिटी बनने की राह मिल सके. यहां मंत्रालय ने ये नोट भी जोड़ा कि योजना यह भी थी कि स्मार्ट बनाए जा रहे शहरों के अंदर ही इन मॉडलों को दोहराया जा सके और इन्हें देश के विभिन्न क्षेत्रों और भागों में प्रेरणास्वरूप देखा जाए. यहां साफ तौर पर इस योजना के पीछे छुपे विरोधाभास देखे जा सकते हैं.
मंत्रालय ने अपनी रणनीति में ‘पैन-सिटी डेवलपमेंट’ (संपूर्ण शहरी विकास) को भी शामिल किया है. इसका उद्देश्य मौजूदा शहरी संरचना को बेहतर बनाने के लिए कुछ आम समस्याओं का कुछ चुनिंदा ‘स्मार्ट’ समाधान देना है. उदाहरण के लिए परिवहन के लिए बेहतर ट्रैफिक मैनेजमेंट की व्यवस्था लाई जा सकती है, अशुद्ध पानी को वापस प्रयोग में लाने योग्य बनाया जा सकता है आदि. ‘पैन-सिटी’ यानी संपूर्ण शहर को किसी भी प्रस्ताव में शामिल करना जरूरी-सा हो गया है, जिसके पीछे विचार ये है, ‘स्मार्ट सिटी योजना एक सघन क्षेत्र में काम करेगी इसलिए जरूरी है कि वहां के रहवासियों को लगे कि इसमें उनके लिए भी कुछ है.’
इसी कारण वहां एक या अधिक ‘स्मार्ट’ समाधान होने चाहिए, जिससे इस योजना के ‘सहभागिता’ का सिद्धांत अपना महत्व साबित कर पाए. पर आने वाले कुछ सालों में ‘पैन-सिटी-सॉल्यूशन’ कई बड़ी समस्याओं को जन्म दे सकता है. पहला तो यही कि अपना लक्ष्य पाने की होड़ में काम करने वाली एजेंसियां कई शाॅर्ट-कट अपनाएंगी, जिससे इसके अधूरे क्रियान्वयन की संभावना रहेगी. दूसरा, भ्रष्टाचार की संभावनाओं को भी नकारा नहीं जा सकता. एजेंसियां नगर निकायों को इन समाधानों को शहर-भर में लागू करने के लिए भ्रष्टाचार का सहारा ले सकती हैं और अंतिम ये कि बाहरी योजनाकार कुछ नया सोचने की बजाय आसान समाधानों को इन योजनाओं में शामिल करेंगे.
स्मार्ट सिटी योजना से जुड़े दस्तावेज पढ़ने पर एक दूसरा पहलू भी सामने आता है. इस योजना का दायरा अस्पष्ट और अस्वाभाविक रूप से विस्तृत है. उदाहरण के लिए, इस योजना के बुनियादी ढांचे में पानी की समुचित सप्लाई, निश्चित बिजली आपूर्ति, कारगर पब्लिक ट्रांसपोर्ट व्यवस्था, सस्ते वाजिब दाम में घर, सुचारु आईटी व्यवस्थाएं, सुशासन, सुरक्षा और सतत विकास जैसी बातें कही गई हैं. ये तो स्पष्ट है कि अकेले नगर पालिकाओं द्वारा इतनी सुविधाएं दे पाना संभव नहीं है, न ही राज्य सरकारें ऐसा कर सकती हैं जब तक उनमें और विभिन्न मंत्रालयों और उनके विभागों में ऐसा समन्वय हो जैसा अब तक न देखा गया हो.
यहां स्मार्ट सिटी योजना में ‘आवश्यक सुविधा’ में सुचारु रूप से बिजली आपूर्ति की बात की गई है, जहां ऊर्जा की आवश्यकता का दस फीसदी सौर ऊर्जा से पूरा किया जाना चाहिए, ऐसा कहा गया है. कारगर पब्लिक ट्रांसपोर्ट व्यवस्था के लिए ‘नॉन-मोटर ट्रांसपोर्ट’ यानी पैदल या साइकिल पर चलने को प्रोत्साहन देना होगा. अगर ‘ग्रीनफील्ड प्रोजेक्ट’ की बात करें तो पुनर्निर्मित या पुनर्विकसित
इमारतों को छोड़कर सभी बिल्डिंगों का हरा-भरा होना और ऊर्जा का सही इस्तेमाल करना जरूरी होगा. ये केवल कुछ आंकड़े हैं, जिन्हें निश्चित रूप से कार्यान्वयन करने वाली एजेंसियों द्वारा तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाएगा.
स्मार्ट सिटी योजना का जब टेंडर निकालेगा तब सबसे कम बोली लगाने वाला ही जीतेगा और ऐसे में रिसर्च पर होने वाला खर्च अपने आप ही कम हो जाएगा
दुनिया भर में स्मार्ट शहरों का एक निश्चित लक्ष्य है. जैसे अमेरिका का अर्लिंग्टन कंट्री शहर. अमेरिका की राजधानी वाशिंगटन से नजदीक होने के कारण यहां अमेरिकी रक्षा मंत्रालय की रिसर्च प्रोजेक्ट एजेंसियां हैं. इस शहर का उद्देश्य साफ है कि संघीय निर्णयों से शहर को प्रभावित नहीं होने देना है. आईसीएफ की सात सबसे स्मार्ट शहरों की सूची में से ये भी एक है. इन्होंने अपने इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए ‘द अर्लिंग्टन वॉल’ नाम की रणनीति बनाई है, जिसमें शहर के 40 के लगभग नागरिक संगठन शहर में विभिन्न मुद्दों के लिए होने वाले फैसलों के संदर्भ में अपनी राय देंगे.
दूसरा उदाहरण न्यू ताइपे सिटी का है, इनका फोकस ब्रॉडबैंड सुविधा पर है. पिछले 5 सालों में इस शहर में इंटरनेट प्रयोग की दर 91 फीसदी रही है, जिसमें 100 एमबीपीएस की स्पीड से इंटरनेट सेवा दी गई थी. इस इंटरनेट सेवा का लाभ 300 से अधिक स्कूलों को भी मिला है. इस ब्रॉडबैंड प्रोजेक्ट को एक और योजना ‘नॉलेज ब्रिज’ से जोड़ा गया है, जिससे उद्योगों और विश्वविद्यालयों के बीच समन्वय स्थापित किया जा सके, जिससे कौशल और रोजगार के अवसर बढ़ सकें.
स्मार्ट सिटी बनाने के साथ वहां रहने वाले लोगों को भी ‘स्मार्ट’ बनाना जरूरी है. एक कंसल्टेंंट के मुताबिक किसी शहर को ‘स्मार्ट’ बनाने की पहली शर्त ही ‘स्मार्ट’ नागरिक हैं. अगर नागरिक ही स्मार्ट नहीं होंगे तो स्मार्ट सिटी बनाने के उद्देश्य कुछ ही समय में बेमानी हो जाएंगे. हमारे सामने दिल्ली और मुंबई के उदाहरण हैं. कॉमनवेल्थ खेलों के समय देश की राजधानी में ढेरों फ्लाईओवर, सब-वे, ओवरहेड ब्रिज बनाए गए, सड़कें चौड़ी की गईं. नतीजा, आज वो सब या तो जाम से भरे हुए हैं या उनका बहुत कम प्रयोग हो रहा है.
इसीलिए स्मार्ट शहरों के साथ जरूरी है संचार की ऐसी रणनीति जो नागरिकों को स्मार्ट बनाने में सहयोगी हो. हालांकि वर्तमान सरकार ने ‘स्वच्छ भारत अभियान’, ‘सेल्फी विद डॉटर’ जैसी योजनाओं के प्रचार के लिए देशव्यापी विज्ञापन अभियान चलाया हुआ है, पर विशेषज्ञों का मानना है कि ॒इससे कोई परिणाम नहीं निकलेंगे. कारण- विभिन्न शोधों के अनुसार भारत में किसी भी समुदाय की विशेष जरूरतों को पूरा करने के लिए सबसे ज्यादा जरूरत ‘सहभागिता और स्थानीय रूप में अपनी बात पहुंचाने’ की होती है. तो ऐसे में स्थानीय लोगों को स्मार्ट सिटी की जरूरत समझाने के लिए उनकी इन्हीं जरूरतों को पूरा करते हुए कोई रास्ता ईजाद करना होगा. विशेषज्ञों के अनुसार नीति-निर्माताआें को स्मार्ट सिटी की योजना में नागरिकों की भागीदारी सुनिश्चित करनी होगी, जिसमें स्थानीय समुदायों को भी बात रखने का मौका मिले.
ऐसा उदाहरण सरे (कनाडा) में देखा गया. आईसीएफ की सात सबसे स्मार्ट शहरों की सूची में ये भी शामिल है. इस शहर में ‘मेयर्स हेल्थ टेक्नोलॉजी वर्किंग ग्रुप’ बनाया गया है, जिसमें 50 विश्वविद्यालयों के प्रतिनिधि, स्वास्थ्य अधिकारी, एनजीओ, व्यापारिक संघ और सरकार जुड़े हैं. इस ग्रुप का उद्देश्य स्थानीय रोजगार को 50 फीसदी तक बढ़ाना है.
स्मार्ट बनने की दौड़
देखा जाए तो शहरी विकास मंत्री द्वारा की गई सबसे बड़ी गलती 98 शहरों के नाम चुनने में हुई जल्दबाजी है. शुरुआती रूप में सलाहकारों के पास स्मार्ट सिटी योजना बनाने के लिए सौ दिन का समय था, पर विशेषज्ञ मानते हैं कि ये अवधि काफी कम है. उनमें से एक बताते हैं, ‘इससे पहले हम कई शहरों में सार्वजनिक स्वास्थ्य की योजनाओं पर काम कर चुके हैं और ऐसे प्रयोगों में एक साल या उससे ज्यादा का समय लगता है. यहां तक कि जब राज्य सरकारों और स्थानीय प्रशासन ने हमें जानकारियों और पूर्व में हुए प्रोजेक्ट से अवगत कराया हुआ था, तब भी जमीनी हकीकत कुछ और ही निकली. आधिकारिक जानकारी पुरानी थी और योजनाओं की उपलब्धियों के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया था. और सबसे जरूरी, लोगों के इन योजनाओं के बारे में विचार योजनाकारों के बिल्कुल उलट है.’
ऐसी स्थिति में स्मार्ट सिटी की योजना में इन कंसल्टेंट्स के पास एक ही रास्ता बचता है कि वे विभिन्न शहरों के लिए बनी योजनाओं में से ही कुछ तथ्य उधार ले लें. ऐसा करना महज नकल करना ही होगा, जिसमें स्थानीय जरूरतों और शहर विशेष की असल स्थितियों की कोई जानकारी नहीं होगी. यानी बिना किसी जानकारी के आधार पर ये सलाहकार इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार करने का काम शुरू कर देंगे भले ही आगे वह स्थानीय आबादी द्वारा इस्तेमाल किया जाए या नहीं. इसका सबसे बड़ा उदाहरण दिल्ली का ‘बस रैपिड ट्रांजिट सिस्टम’ (बीआरटी) है, जिसकी शुरुआत से ही आलोचना हुई और फिर इसे बंद कर दिया गया.
स्मार्ट सिटी योजना अपरिपक्व है इसलिए जब इसका टेंडर निकाला जाएगा तब सबसे कम बोली लगाने वाला ही जीतेगा और ऐसे में रिसर्च पर होने वाला खर्च अपने आप ही कम हो जाएगा. यहां उन्हें ये भी संदेह रहेगा कि ये सलाहकार कहीं नगर पालिका के साथ कोई मिलीभगत न कर रहे हों. मान लेते हैं अगर स्मार्ट सिटी की योजना का ठेका लेने भर के लिए कोई व्यक्ति 5 लाख रुपये की बोली लगाता है और योजना को क्रियान्वित करने के समय सलाहकार के हिस्से में कटौती कर देता है. विशेषज्ञ कहते हैं कि पहले कुछ मामलों में ऐसा हो चुका है. उनमें से एक ने बताया, ‘कोई भी सलाहकार कुछ लाख रुपयों में स्मार्ट सिटी का प्लान नहीं बना सकता, इसके लिए ऑनलाइन शोध निहायत ही जरूरी है.’
भारी-भरकम राशि का निवेश
सरकारी आंकड़ों के अनुसार केंद्र आने वाले 5 सालों में 98 शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने पर 48 हजार करोड़ रुपये खर्च करेगा यानी औसतन हर शहर पर प्रतिवर्ष लगभग सौ करोड़ रुपये खर्च होंगे. लगभग उतना ही खर्च संबंधित राज्य या नगर निकाय को भी देना होगा. यानी अगले 5 सालों के लिए कुल एक लाख करोड़ रुपये की राशि उपलब्ध होगी. तो ऐसे में क्या एक स्मार्ट सिटी बनाने के लिए प्रतिवर्ष 200 करोड़ रुपये या पांच सालों के लिए 1 हजार करोड़ रुपये पर्याप्त होंगे? स्पष्ट रूप से नहीं! इसे भी एक उदाहरण से ही समझते हैं. कॉमनवेल्थ खेलों के आयोजन से पहले दिल्ली को बेहतर बनाने के प्रयास में 66,550 करोड़ रुपये लगे थे, जहां 5,700 करोड़ रुपये सिर्फ फ्लाईओवर और पैदल पुलों के निर्माण में खर्च हुए. दिल्ली मेट्रो के विस्तार के लिए 16,887 करोड़ रुपयों की जरूरत पड़ी, वहीं बिजली की सुचारु आपूर्ति के लिए बनाए गए बिजली के नए प्लांटों पर 35 हजार करोड़ रुपये खर्च हुए.
अगर ये भी मान लिया जाए कि ये आंकड़े बढ़ा-चढ़ाकर बताए गए हैं, तब भी ये तो साफ है कि कॉमनवेल्थ खेलों के दौरान पैसों का बड़ा हेर-फेर हुआ है. ऐसे में वर्तमान सरकार की इस स्मार्ट सिटी परियोजना के लिए तो एक लंबी समयावधि के लिए दसियों हजार करोड़ रुपयों की जरूरत होगी.
केंद्र भी इस तथ्य से वाकिफ है. स्मार्ट सिटी के फाइनेंस से जुड़े एक दस्तावेज में कहा गया है, ‘ऐसा अनुमान है कि योजना के लिए लगातार पूंजी लगाने की जरूरत होगी.’ केंद्र और राज्य सरकारों से मिलने वाला अनुदान तो प्रोजेक्ट की लागत का अंश-भर होंगे, इसलिए इन अनुदानों को आंतरिक और बाहरी स्रोतों से आर्थिक मदद के लिए बढ़ाना होगा. यहां हो सकता है कि आंतरिक स्रोत यूजर फीस और बेनेफिशरी (लाभार्थी) शुल्क बढ़ा दें और बाहरी स्रोत म्युनिसिपल बॉन्ड्स, वित्त संस्थानों से मदद या पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप जैसे माध्यमों की मदद ले सकते हैं.
हालांकि ये सब भी खासी परेशानियों से भरा है. ज्यादातर नगर निगम आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हैं. दिल्ली के ही तीनों नगर निगमों पूर्वी दिल्ली नगर निगम, उत्तरी दिल्ली नगर निगम और नई दिल्ली नगर निगम को ले लीजिए, इनमें से केवल एक ही को आय मिलती है. पूर्वी और उत्तरी दिल्ली नगर निगम क्रमशः 500 करोड़ और 1 हजार करोड़ के वार्षिक घाटे में चल रहे हैं, वहीं, नई दिल्ली नगर निगम ने वर्ष 2013-14 में 335 करोड़ रुपये का लाभ दर्ज किया है.
योजना के लिए लगातार पूंजी लगाने की जरूरत होगी. केंद्र और राज्य सरकारों से मिलने वाला अनुदान तो प्रोजेक्ट की लागत का अंश-भर होगा
अगर स्थानीय निकाय सेवाओं के बदले टैक्स बढ़ा देते हैं तो जाहिर है उपभोक्ताओं में गुस्सा बढ़ेगा, जिससे स्मार्ट सिटी योजना में कही गई ‘सिटीजन-फ्रेंडली’ बात सीधे खत्म हो जाएगी.
जैसे वित्तीय संकट का सामना नगर निकाय कर रहे हैं, उसमें बॉन्ड्स या बाहर से ऋण लेकर धन नहीं जुटाया जा सकता. पिछले कुछ समय में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप भी इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में सक्षम साबित नहीं हुआ है. इस प्रकार स्थानीय निकायों के पास धन जुटाने का जो विकल्प बचता है वह ये कि वे दोतरफा या बहुपक्षीय संस्थाओं के अनुदान के सहारे अतिरिक्त रकम जुटाएं.
स्मार्ट सिटी बनाने की योजना तो अच्छी है पर वर्तमान स्थितियों को देखकर लगता है कि कहीं ये बेवकूफी भरा और सिटीजन- ‘अनफ्रेंडली’ (लोगों के लिए प्रतिकूल) न साबित हो. सरकार को इसी अवधारणा पर रहने की बजाय इससे बेहतर योजना, जो ज्यादा उपयोगी हो, को सोचकर उस पर काम करने की जरूरत है. स्मार्ट सिटी सिर्फ जमीन पर या भौतिक रूप से नहीं बनती, बल्कि लोगों के दिमागों में बनती है. यहां समझने वाली बात ये है कि रोम जैसे बड़े शहर को बनने में पांच या दस साल नहीं लगे थे! अगर वैश्विक रूप से देखा जाए तो अधिकतर स्मार्ट शहरों को बनने में बीस से तीस साल का समय लगा है.
क्या विधानसभा चुनाव में महागठबंधन की इतनी बड़ी जीत की उम्मीद आपको थी?
पूरा दो सौ प्रतिशत. जदयू और कांग्रेस के संग महागठबंधन बनने के दिन से ही उम्मीद थी. बिहार में राजग के किसी भी नेता में मुझे हरा देने का दम नहीं है. प्रचार के दौरान ही हमने देख लिया था कि लहर हमारे पक्ष में है.
बहुत सारे चुनाव सर्वेक्षणों में आपको या महागठबंधन को बढ़त में नहीं दिखाया गया या फिर ज्यादा भाव नहीं दिया गया. क्या आप इससे निराश हुए?
देखिए, हम राजनीति विज्ञान का पढ़ाई किया हूं और बहुत अच्छे से जानता हूं कि चुनाव सर्वेक्षण और एग्जिट पोल कइसे किया जाता है. जब आप लोगों का हाल-चाल लीजिएगा, उन लोगों के सुख-दुख में भागीदार बनिएगा त किसी भी परीक्षा में कभी फेल नहीं होइएगा, फिर चाहे उ विधानसभा या लोकसभा चुनाव ही काहे न हो.
आपने पहली बार नॉन प्लेइंग कैप्टन के रूप में 2014 के चुनाव का सामना किया और राजद 40 में से कुल 4 सीट ही जीत सकी. 2014 के चुनावों में आप इतनी बुरी तरह से क्यों हारे?
बिहार में एक कहावत है, जब परिवार बंटता है न त उसका नाजायज फायदा गांव का लोग उठाता है. हम और हमारा छोटा भाई नीतीश अलग-अलग रास्ता पकड़ लिया था, इसीलिए सांप्रदायिक ताकतों को लाभ मिला. अब जब हम एक हो गए हैं तब लोगों ने उन्हें दूर बिहार से उखाड़ फेंका.
आपको ऊंची जातियों का दुश्मन माना जाता है, खासकर जब आपने घोषणा की कि यह लड़ाई अगड़ों और पिछड़ों की है. क्या आप वाकई अगड़ों के दुश्मन हैं?
हम अगड़ा जाति के गरीबों के विरोध में कभी नहीं रहा हूं. हम उन लोगों को पिछड़ा मानता हूं क्योंकि उ सब जरूरी साधनों से वंचित रहे हैं. हम बांटो और राज करो की राजनीति में विश्वास नहीं करता हूं. हमारा विरोध समाज के शोषकों से है. ये वीपी सिंह थे जिन्होंने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू किया. क्या वे पिछड़ी जाति के थे? वे हमारे नेता हैं. आज भी हमारी पार्टी में अगड़ी जाति के बहुत सारा नेता भरा हुआ है.
क्या आपको लगता है कि ध्रुवीकरण के बावजूद अगड़ी जातियों ने भी राजद उम्मीदवारों को वोट दिया?
बिहार का लोग जाति और संप्रदाय से ऊपर उठ रहा है. उन्होंने हमारी पार्टी और महागठबंधन की दूसरी पार्टियों को भी वोट दिया है. इनमें अन्य पिछड़ा वर्ग है, अति पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक, गरीब और अगड़ी जाति के शोषित लोग भी हैं. यह गणित और रसायन (केमिस्ट्री) दोनों के हिसाब से स्पष्ट बहुमत है.
तो क्या अगली सरकार नीतीश के नेतृत्व में बनने जा रही है?
हम पहले ही घोषित कर चुका हूं कि नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री होंगे. मेरे और उनके बीच कोई मतभेद नहीं है. वे परखे हुए मुख्यमंत्री हैं और बिहार में रहकर लोगों के कल्याण के लिए काम करेंगे.
हम और हमारा छोटा भाई नीतीश अलग-अलग रास्ता पकड़ लिया था, इसीलिए सांप्रदायिक ताकतों को लाभ मिला
राजग नेता यह दावा करते हैं कि जल्दी ही जंगलराज लौट आएगा और आपका व नीतीश कुमार का गठबंधन लंबे समय तक नहीं चल पाएगा.
हमारा दृढ़ विश्वास मंगलराज में है. हमने अपने 15 वर्ष के शासन के दौरान बेजुबान लोगों को जुबान दिया. हाशिये का लोग बंधुआ मजदूर का जीवन जी रहा था, हमने उनको बंधन से मुक्त कराया. और राजग नेताओं को हमारे गठबंधन के बारे में क्यों चिंता होती है? जल्द ही उनको पता चल जाएगा कि इस गठबंधन पर सदा के लिए मोहर लग गई है.
बढ़ती असहिष्णुता को देखते हुए लेखक, फिल्मकार और वैज्ञानिक अपने राष्ट्रीय सम्मान लौटा रहे हैं. क्या अब विरोध के तौर तरीके बदलेंगे?
अगर आपको याद हो तो इस साल की शुरुआत में जब अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत आए थे तो उन्होंने भारत में यहां बढ़ते रंगभेद/नस्लभेद के लिए चेताया था. अमेरिका लौटने के बाद ओबामा ने कहा था कि अगर महात्मा गांधी आज जिंदा होते तो वे दुखी होते. उनके इस वक्तव्य का क्या अर्थ था? भाजपा सत्ता के लिए लाशों पर राजनीति करती है. भाजपा के लिए आरएसएस एजेंडा सेट करती है. लेकिन जब तक हम जिंदा हूं तब तक ये ताकतें अपने मंसूबों में कामयाब नहीं होंगी.
आपका अगला लक्ष्य क्या है? क्या आप भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ अपना प्रचार जारी रखेंगे?
देखिए, अब हम सबसे पहले हाथ में लालटेन लेकर बुनकरों का हाल जानने बनारस जाऊंगा. मोदी ने कई मौकों पर कहा है कि गंगा मईया ने मुझे यहां लोगों की सेवा के लिए बुलाया है. हम देखूंगा कि मोदी ने उहां कौन सी सेवा की है. फिर कोलकाता जाऊंगा और उसके बाद दूसरे राज्यों में भी जाऊंगा. आखिर में हस्तिनापुर (दिल्ली) पहुंचूंगा. बिहार में महागठबंधन की महाविजय से मोदी घबरा गए हैं. अब वे गुजरात जाने की सोच रहे हैं.
असहिष्णुता के मुद्दे पर बयान देकर विवादों में घिरे बॉलीवुड के मिस्टर परफेक्शनिस्ट आमिर खान ने बुधवार को अपनी सफाई दी. आमिर ने अपने बयान में कहा है, ‘सबसे पहले मैं एक बात साफ करना चाहूंगा, न मेरा, न मेरी पत्नी का देश छोड़ने का कोई इरादा है. न हमारा ऐसा कोई इरादा था, न है और न होगा. जो कोई भी ऐसी बात फैलाने की कोशिश कर रहा है, उसने या तो मेरा इंटरव्यू नहीं देखा, या जानबूझकर गलतफहमी फैलाना चाह रहा है. भारत मेरा देश है, मैं इससे बेइंतहा प्यार करता हूं और यही मेरी सरज़मीं है.
दूसरी बात, इंटरव्यू के दौरान जो भी मैंने कहा है, मैं उस पर अटल हूं. जो लोग मुझे देशद्रोही कह रहे हैं उनसे मैं कहूंगा, मुझे गर्व है अपने हिन्दुस्तानी होने पर और इस सच्चाई के लिए मुझे न किसी की इजाजत की जरूरत है और न ही किसी के सर्टिफिकेट की. जो लोग इस वक्त मुझे गालियां दे रहे हैं, क्योंकि मैंने अपने दिल की बात कही है, उनसे मैं कहना चाहूंगा कि मुझे बड़ा दुख है कि वो मेरा कहा सच साबित कर रहे हैं और उन सारे लोगों का मैं शुक्रिया अदा करना चाहूंगा जो आज इस वक्त मेरे साथ खड़े हैं. हमें हमारे खूबसूरत और बेमिसाल देश के चरित्र को सुरक्षित रखना है. हमें सुरक्षित रखना है इसकी एकता को, इसकी अखंडता को, इसकी विविधता को, इसकी सभ्यता और संस्कृति को, इसके इतिहास को, इसके अनेकतावाद के विचार को, इसकी विविध भाषाओं को, इसके प्यार को, इसकी संवेदनशीलता को और इसकी जज्बाती ताकत को.’
आखिर में मैं रवींद्रनाथ टैगोर की एक कविता दोहराना चाहूंगा. कविता नहीं बल्कि यह एक प्रार्थना है-
जहां उड़ता फिरे मन बेखौफ और सर हो शान से उठा हुआ जहां ज्ञान हो सबके लिए बेरोकटोक बिना शर्त रखा हुआ जहां घर की चौखट सी छोटी सरहदों में न बंटा हो जहां जहां सच की गहराइयों से निकले हर बयान जहां बाजुयें बिना थके लकीरें कुछ मुकम्मल तराशें जहां सही सोच को धुंधला न पाएं उदास मुर्दा रवायतें जहां दिलो-दिमाग तलाशें नए ख्याल और उन्हें अंजाम दे ऐसी आजादी के स्वर्ग में, ऐ भगवान, मेरे वतन की हो नई सुबह
कांग्रेसियों के बारे में कहा जाता है कि जब वे सत्ता में होते हैं, तभी नियंत्रित रहते हैं, एकजुट रहते हैं. सत्ता से हटते ही अनुशासन का आवरण उनसे हटने लगता है आैैर बिखराव शुरू हो जाता है. इसके उलट समाजवादियों के बारे में कहा जाता है कि वे संकट के समय में ही एक रहते हैं, एक साथ आते हैं लेकिन सत्ता मिलते ही वे टूटने लगते हैं. बिहार में इसे थोड़ा और दिलचस्प बनाकर कहा जाता है कि कोई भी समाजवादी तीन साल से अधिक समय तक साथ नहीं रह सकता. यह बिखराव समाजवादियों को विरासत में मिला है और यही उनके लिए अभिशाप है. इस बार जब दो बड़े समाजवादी नेता लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार एक साथ हुए और बड़ी जीत हासिल की तो जीत के दिन से ही यह सवाल भी हवा में तैरने लगा कि क्या ये एक रह पाएंगे या फिर समाजवादी राजनीति की परंपरा को निभाते हुए अपनी राह अलग कर लेंगे?
यह सवाल बड़े स्तर पर भाजपा समर्थकों व सवर्णों द्वारा उठाया गया लेकिन ऐसा नहीं कि यह सवाल सिर्फ उनकी ओर से ही उठा. बिहार की चौपालों में भी यह सवाल इन दिनों छाया हुआ है और यह सवाल अगर उठ रहे हैं तो उसके पीछे कुतर्क या बेजा कारण की बजाय ठोस आधार है. इतिहास के पन्नों को पलटकर देखें तो मोरारजी देसाई-चौधरी चरण सिंह, वीपी सिंह-चंद्रशेखर से लेकर लालू-नीतीश के अलगाव की कहानी का इतिहास रहा है. नीतीश ने 1993 में ही लालू से अलग राह बनानी शुरू कर दी थी. वह समय कोई मामूली समय नहीं था. वह मंडल राजनीति के उफान के दिन थे. तब लालू बिहार के बड़े नेता बनकर उभरे थे, देश-भर में हलचल थी लेकिन नीतीश कुमार ने अपनी अलग राह बनानी शुरू कर दी थी. इस बार लालू और नीतीश के साथ आने और भारी जीत दर्ज करने के दिन से ही अलग रास्ता अपनाने की बात कही जा रही है तो इसके पीछे सिर्फ इतिहास के इन पन्नों को पलटकर ही संभावना या आशंका नहीं जताई जा रही बल्कि और भी कई तर्क जोड़े जा रहे हैं, जिससे यह अनुमान लगाया जा रहा है कि आने वाले दिनों में एक ही राजनीतिक स्कूल से निकलने के बावजूद दो ध्रुवों से राजनीति करने वाले दोनों दिग्गज आपस में ही टकराएंगे. दोनों के दो ध्रुवों से राजनीति करने की बात को कई लोग खारिज करते हुए कहते हैं कि इसे इस तरह से भी देखा जा सकता है कि नीतीश कुमार मूलतः लालू प्रसाद का ही विस्तार हैं. लालू ने सामाजिक न्याय की राजनीति की तो नीतीश ने उसका विरोध नहीं किया बल्कि उसका विस्तार किया और उसमें आवश्यक तत्व जातीय, लैंगिक और आर्थिक न्याय का फॉर्मूला जोड़ा. पिछड़ा को अतिपिछड़ा समूह में बांटकर जातीय न्याय के एजेंडे को आगे बढ़ाया, दलितों में से महादलित को आगे कर दलितों में जातियों को सशक्त किया और महिलाओं को आरक्षण के कई मौके देकर लैंगिक न्याय का परिचय दिया.
यह सही भी है लेकिन दोनों के बीच टकराव होने की स्थिति बनने के पीछे जो तर्क दिए जा रहे हैं, उसमें भी दम है. एक बात कही जा रही है कि इतिहास यह रहा है कि जब भी कोई बड़ी जीत हासिल होती है तो उसमें विपक्ष भी छिपा होता है. इस बार की नीतीश और लालू की जीत में विपक्ष भी शामिल है. राजनीतिक कार्यकर्ता संतोष यादव कहते हैं, ‘मुझे अभी से ही दिख रहा है कि इस सरकार में ही विपक्ष के सारे तत्व छुपे हुए हैं और आने वाले समय में उसका स्वरूप दिखेगा.’ यह बात सिर्फ संतोष यादव नहीं कहते, कई लोग इसे प्रकारांतर से कहते रहे हैं. ऐसा कहने के पीछे के कई आधार हैं. एक तो महत्वाकांक्षाओं के टकराव का होना माना जा रहा है. ऐसी धारणा है कि लालू बिहार की राजनीति में अपने दोनों बेटों को स्थापित कराने के बाद अब देश की राजनीति में अपना दखल बढ़ाना चाह रहे हैं. इसके लिए अब उनकी कोशिश होगी कि वे दिल्ली में अपना ठीक-ठाक इंतजाम करें. बताया जा रहा है कि लालू खुद केंद्र की राजनीति में अब सिर्फ किंगमेकर की ही भूमिका निभा सकते हैं इसलिए वे पहले से बिसात बिछाना चाहेंगे. इसके लिए वे राज्यसभा में पत्नी राबड़ी देवी को भेजेंगे. कयास मीसा भारती को लेकर भी लगाए जा रहे हैं. वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेश्वर कहते हैं, ‘राबड़ी देवी की संभावना इसलिए ज्यादा है, क्योंकि राबड़ी के जाने से प्रमुख जगह पर आवास मिलेगा, जहां रहकर लालू एक केंद्र बनना चाहेंगे. मीसा को भेजने पर यह नहीं संभव होगा.’
नीतीश मूलतः लालू का ही विस्तार हैं. लालू ने सामाजिक न्याय की राजनीति की तो नीतीश ने उसका विस्तार किया और उसमें जातीय, लैंगिक व आर्थिक न्याय का फॉर्मूला जोड़कर उस एजेंडे को आगे बढ़ाया
फोटोः विजय पांडेय
लालू क्या करेंगे, यह तो वही जानें. संभव है दोनों को भेज दें, क्योंकि अब उनके पास वह ताकत है. दूसरा यह कि लालू 2019 के लोकसभा चुनाव तक खुद को राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़े नेता और भाजपा विरोध की धुरी के तौर पर स्थापित करना चाहेंगे. इसका संकेत वे बिहार चुनाव परिणाम के दिन ही दे चुके हैं. उस रोज से वह बार-बार दोहरा रहे हैं कि वे अब केंद्र की राजनीति करेंगे और नीतीश को बिहार की राजनीति करने देंगे. लालू की आकांक्षा ऐसी ही है लेकिन बिहार में तीसरी पारी खेलने का जनादेश प्राप्त कर चुके नीतीश की भी खुद यही पुरानी इच्छा रही है और वे केंद्रीय राजनीति में अपनी बड़ी भूमिका की तलाश करते रहे हैं. इसे लेकर दोनों के बीच टकराव की स्थिति बनेगी. बिहार चुनाव में लाख कोशिश के बावजूद भले ही लालू ने बाजी अपने हाथ ले ली और उसके हीरो भी बन गए लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव तक केंद्रीय राजनीति में भाजपा विरोध की एक धुरी खुद नीतीश कुमार बनना चाहेंगे, क्योंकि तीन बार एक महत्वपूर्ण राज्य का मुख्यमंत्री बनने के बाद उनकी भी एक बड़ी हसरत देश की राजनीति में शीर्ष पर विराजने की रहेगी, रही भी है. टकराव के बिंदु सिर्फ यही नहीं होंगे, दोनों के काम करने का तरीका बिल्कुल अलग रहा है और उसे लागू करने का भी. वैसे यह भी कहा जा रहा है कि नीतीश कुमार एक कुशल मैनेजर हैं इसलिए वे जब बिल्कुल विपरीत ध्रुव वाली भाजपा जैसी बड़ी पार्टी को दस सालों तक मैनेज करते रहे तो लालू को मैनेज करके रखना उनके लिए मुश्किल नहीं होगा. लेकिन यह कहना जितना आसान है, उसे कर दिखाना इतना आसान नहीं. राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘अभी यह कहना जल्दबाजी है दोनों के बीच टकराव होंगे, क्योंकि इन दोनों दलों के टिकट पर जो लोग इस बार जीतकर आए हैं, वे लगभग एक ही राजनीतिक समूह से हैं. इनमें पिछड़े और दलित ही अधिक हैं और दोनों ही दल के विधायकों को नीतीश को या लालू को नेता मानने में कोई परेशानी नहीं होगी, इसलिए इस स्तर पर टकराव कम होगा, लेकिन टकराव इस बिंदु पर होगा कि लालू प्रसाद स्वाभाविक तौर पर सत्तालोभी रहे हैं, उनका लोभ जागेगा और फिर नीतीश के लिए यह मैनेज करना आसान नहीं होगा. और रही बात दोनों नेताओं के राष्ट्रीय राजनीति में आकांक्षा की तो यह अभी खयाली पुलाव जैसा है. बस इतना ही होगा कि बिहार की राजनीति में मजबूत होने से देश की राजनीति में दोनों का महत्व बढ़ेगा, दोनों और मजबूत होंगे और कुछ नहीं. इस समय देश में जयललिता, ममता बनर्जी, मुलायम सिंह यादव, नवीन पटनायक जैसे ढेरों नेता हैं, जो यही आकांक्षा रखते हैं और सब मजबूत भी हैं. लालू नीतीश को तो पूरे भारत में अपना प्रभाव बढ़ाने से पहले पड़ोस के झारखंड और पूर्वी उत्तर प्रदेश के ही इलाके में अपना प्रभाव दिखाकर खुद को साबित करना होगा.’
यह बात सही है कि दोनों दलों के विधायक एक ही राजनीतिक समूह से हैं, इसलिए टकराव की स्थिति कम बनेगी लेकिन संभावना सिर्फ विधायकों के बीच टकराव की नहीं. यहां महत्वपूर्ण यह भी है कि नीतीश कुमार पिछले दस सालों से भाजपा के साथ एक तरीके से स्वतंत्र रूप से काम करने के अभ्यस्त रहे हैं. वह सारे निर्णय और फैसले खुद लेने के अभ्यस्त हैं और बिल्कुल अपने तरीके से काम करने के लिए जाने जाते रहे हैं. जो नीतीश को जानते हैं वे यह भी जानते हैं कि नीतीश कुमार को ज्यादा हस्तक्षेप पसंद नहीं और वे उसे बर्दाश्त नहीं कर पाते. सवाल यह उठ रहा है कि क्या लालू यादव इतनी आजादी उन्हें देंगे. यह इतना आसान नहीं होगा. नीतीश तो फिर भी अपने कार्यकाल में सिर्फ बड़े अधिकारियों पर अपने नियंत्रण के लिए जाने जाते हैं, यही उनकी शैली रही है लेकिन लालू दारोगा, बीडीओ और डीएसपी तक के ट्रांसफर-पोस्टिंग का भी हिसाब-किताब रखने के लिए ख्यात हुए थे. बात इतनी ही नहीं होगी नीतीश और लालू साथ रहते हुए भी भविष्य में अपने लिए एक सुगम और संभावनाओं के द्वार बनाकर रखना चाहेंगे ताकि कभी अलगाव की स्थिति में उनका भविष्य सुरक्षित रखे. इसके लिए दोनों के रास्ते अलग होंगे. यह बिहार चुनाव चलने से लेकर चुनाव परिणाम के दिन तक दिखा. नीतीश बहुत शालीन तरीके से बोलते रहे कि बिहार की सभी जातियों ने उनका साथ दिया है, सवर्णों ने भी लेकिन लालू उनके सामने ही इस बात को काटते रहे और पिछड़ों, अतिपिछड़ों, दलितों और कुछ गरीब सवर्णों का साथ मिलने की बात करते रहे. नीतीश बिक्रम, बरबीघा, बक्सर जैसे सीटों को आधार बनाकर आगे की राजनीति करना चाहेंगे. ये कुछ ऐसी सीटें हैं, जहां सवर्णों ने खुलकर महागठबंधन का साथ दिया. लालू प्रसाद इसके उलट पिछड़ों, विशेषकर यादवों, दलितों और मुसलमानों को साथ रखकर राजनीति साधना चाहेंगे ताकि उनका राजनीतिक भविष्य सुरक्षित रहे. लालू प्रसाद इसलिए भी ऐसा बार-बार दिखाना चाहेंगे, क्योंकि इस बार की जीत का गणित उन्हें पता है. उन्हें पता है कि दलितों और पिछड़ों के गोलबंद होने से ही उनको यह भारी जीत मिली.
बहरहाल सिर्फ इतना ही नहीं होगा, टकराव की संभावना इसलिए भी बनेगी क्योंकि नीतीश केंद्र से बेहतर रिश्ते रखकर अपने सुशासन और गवर्नेंस के साथ विकास की योजनाओं को आगे बढ़ाकर भविष्य में खुद को मजबूत करना चाहेंगे और अपना एक आधार विकसित करना चाहेंगे जबकि लालू अब से लेकर 2019 तक लगातार नरेंद्र मोदी और भाजपा सरकार का विरोध कर अपने को राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत करना चाहेंगे. साथ ही बिहार में अपने पक्ष में या अपने नाम पर मिले अपार जनसमर्थन को ठोस रूप देना चाहेंगे ताकि अगले लोकसभा चुनाव में भी वह भाजपा विरोध के हीरो बने रहें. यानी सीधे शब्दों में कहें तो लालू प्रसाद अपने लिए अभी से ही लोकसभा चुनाव की तैयारी करेंगे जबकि नीतीश कुमार के लिए ऐसा करना मुश्किल होगा.
लालू के बारे में कहा जाता है कि वे ‘डेमोक्रेसी अगेंस्ट गवर्नेंस’ के प्रणेता रहे हैं जबकि नीतीश ‘डेमोक्रेसी विद गवर्नेंस एंड डेवलपमेंट’ के प्रणेता हैं. जानकार कहते हैं कि अब यह देखना दिलचस्प होगा कि दोनों के बीच समझौते के बिंदु क्या होंगे. एक तो बिंदु भाजपा को हराने का था, इसलिए उसका असर दिखा लेकिन अब आगे चुनौतियां हैं. अब अगर एजेंडे को ठोस कर पाएंगे तो दोनों में एकता रहेगी लेकिन अगर उस पर एकमत नहीं रहेंगे तो दुनिया की कोई ताकत इन्हें एक नहीं रख पाएगी. महेंद्र सुमन कहते है, ‘शिक्षा, स्वास्थ्य और खेती के लिए ठोस एजेंडा बनाकर दोनों काम करें. इससे दोनों को फायदा मिलेगा दोनों लेकिन ऐसा कर पाएंगे, यह संभव नहीं दिखता.’ यह आशंका ऐसे ही नहीं है. इसके पीछे भी ठोस आधार है. लालू ने देख लिया है कि रेल मंत्री रहते हुए उन्होंने विकास के एजेंडे को आगे बढ़ाया, लेकिन उसका उस तरह से फायदा नहीं हुआ, जिस तरह से मंडल-2 की बात कहने से हुआ था. इन सबके बाद कुछ और आशंकाओं के आधार पर अभी से अनुमान लगाया जा रहा है. एक तो यह कि नीतीश ने पिछले दस सालों में अपने लिए अलग किस्म का वोट बैंक डेवलप किया था. उन्होंने कांग्रेसी तरीके को अपने पाले में किया था, जिसके तहत भूमिहार और दूसरे सवर्णों के अलावा महादलित और अतिपिछड़े, उनके लिए ईवीएम का बटन दबाते थे. नीतीश अपनी इसी राजनीति को आगे भी बढ़ाना चाहेंगे, क्योंकि वे जानते हैं कि मंडल-2 की राजनीति में वे दूसरों से नहीं, लालू से ही पिछड़ जाएंगे, जबकि लालू मंडल-2 की राजनीति को ही तरजीह देकर अपनी सियासत को और मजबूत करना चाहेंगे. नीतीश ने अपने लिए महादलित, अतिपिछड़ा और मुसलमानों में पसमांदा जैसी कैटेगरी को राजनीतिक तौर पर खड़ा कर वोट बैंक बनाया था. साथ ही सवर्ण आयोग गठित कर अपने लिए एक इंतजाम किया था. वे फिर से वैसा ही कोई आधार बनाना चाहेंगे. यह आधार वे अगले लोकसभा चुनाव तक बनाना चाहेंगे. तब लालू प्रसाद ऐसे किसी भी आधार को बनाने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा साबित होंगे. और बात सिर्फ इतनी नहीं होगी. इस बार के चुनाव में भाजपा को जो 34 प्रतिशत वोट मिला है, वह सिर्फ सवर्णों और वैश्यों का वोट नहीं है, उसमें दलितों और अतिपिछड़ों का भी वोट है.
चुनाव में मंडल-2 के नाम पर अतिपिछड़ों या महादलितों की बजाय पिछड़ों का और उसमें भी यादवों का जो उभार हुआ है, उसका असर निचले स्तर पर दिखाई पड़ेगा. सामाजिक समीकरण पर भी उसका असर पड़ेगा
चिंतक रामाशंकर आर्य कहते हैं, ‘नीतीश की जीत से हम सब खुश हैं. अभी बड़े दुश्मन यानी पुराने सामंतों के संरक्षक भाजपा को परास्त करना था तो दलितों ने नीतीश के नेतृत्व पर भरोसा जताया, लेकिन हमारे दलित नेता का उभार नहीं होना दलितों को चिंतित किए हुए है. इसके लिए नए सिरे से कोशिश होगी, लेकिन इसके साथ ही दलित जानते हैं कि पुराने सामंतों की तरह ही नवसामंतों यानी अपर क्लास पिछड़ों से भी दलितों को उतना ही खतरा है, इसलिए यह दलितों के लिए चिंता की बात है.’ बहरहाल यह माना जा रहा है कि इस बार के चुनाव में मंडल-2 के नाम पर अतिपिछड़ों या महादलितों की बजाय पिछड़ों का और उसमें भी यादवों का जो उभार हुआ है, उसका असर निचले स्तर पर दिखाई पड़ेगा. सामाजिक समीकरण पर भी उसका असर पड़ेगा. यादवों की राजनीतिक मजबूती दस सालों के बाद हुई है, उसका असर होगा.
67 साल की उम्र. 11 सालों तक खुद चुनाव नहीं लड़ने की स्थिति. पिछले लोकसभा चुनाव में पत्नी राबड़ी देवी और बेटी मीसा भारती, दोनों की बुरी हार. लोकसभा चुनाव के पहले ही दिल का ऑपरेशन और डॉक्टरों की सख्त हिदायत कि न ज्यादा भागदौड़ करनी है, न ही तनाव लेना है. कुल मिलाकर इस विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव इन्हीं स्थितियों के साथ खड़े थे. एक तरीके से टूटे हुए और बिखरे हुए भी. चुनाव शुरू होने के पहले जिस मुलायम सिंह यादव को ‘समधीजी-समधीजी’ कहकर लालू गले लगा रहे थे, वही ऐन मौके पर अलग हो गए. मुलायम सिर्फ अलग ही नहीं हुए, अपने बेटे अखिलेश को बिहार भेजकर लालू पर निशाना भी साधने-सधवाने लगे. इसके अलावा लालू को सहयोगी कांग्रेस द्वारा भी उपेक्षा ही मिल रही थी. राहुल-सोनिया द्वारा लालू को भाव न दिए जाने के किस्से सामने आ चुके थे. इतने के बाद उनके अपने दल के अंदर छुटभइये नेताओं की बगावत और विरोध अलग था. लालू की मुसीबत यहीं खत्म नहीं हो रही थी, नए-नवेले साथी बने नीतीश कुमार के दोस्त बन जाने के बाद भी उनसे अछूत की तरह बर्ताव कर रहे थे. रही-सही कसर मीडिया पूरी कर रहा था, जहां या तो नरेंद्र मोदी हीरो थे या फिर नीतीश कुमार.
इन तमाम कमजोरियों को देखते हुए ही विपक्षी भाजपा ने एक सुनियोजित रणनीति बनाई कि उसके नेता लगातार लालू यादव पर प्रहार करेंगे. लालू की इन कमजोर स्थितियों को देखते हुए बिहार में एक बड़े तबके ने यह माहौल बनाया कि नीतीश ने अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार ली है. वे लालू के साथ गए हैं, अब कहीं के नहीं रहेंगे, न तीन में बचेंगे, न तेरह में. देश के कई बड़े विश्लेषकों और बुद्धिजीवियों ने लिख दिया कि नीतीश कुमार ने अपना भविष्य तो दांव पर लगाया ही, बिहार का भविष्य भी दांव पर लगा दिया है. कुल मिलाकर इस बार के चुनाव में लालू के हिस्से में कांटे ही कांटे थे. कोई और नेता होता तो वह किसी तरह अपना अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ता. कदम फूंक-फूंक कर रखता. अपने लक्ष्य को छोटा कर निर्धारित करता और फिर उसे ही पाने के लिए दिन-रात एक करता. लेकिन लालू ने सब उलटा किया, वह भी अपने तरीके से, अपने अंदाज में. डॉक्टरों ने ज्यादा भाग-दौड़ करने को मना किया तो वे बिहार में सबसे ज्यादा चुनावी सभा करने वाले नेता बन गए. विधानसभा चुनाव के दौरान उन्होंने 11,600 किमी. चलकर 251 चुनावी सभाएं कीं. पप्पू यादव जैसे नेता रोजाना विरासत को चुनौती देते रहे तो वह जवाब में एक ही बात करते रहे कि पप्पू के बारे में लालू बोलेगा तो वह खुद को बड़ा नेता समझने लगेगा, इसलिए हम कुछ नहीं बोलेंगे. भाजपा ने जंगलराज कहकर निशाना साधना शुरू किया तो उसका जवाब उन्होंने अपने अंदाज में दिया. पहले एक पोस्टर जारी किया, जिस पर लिखा, ‘जब दिया गरीबों को आवाज, उसे कहता है जंगलराज.’ फिर एक वाक्य को सभी सभाओं में दोहराने लगे, ‘भाजपा वाला जंगलराज कहता है तो हम कहते हैं कि जंगल में तुम क्या करने आए हो, जाओ जंगल से बाहर.’ जिस कांग्रेस को लालू से परेशानी थी, उस कांग्रेस की बड़ी नेता सोनिया गांधी को सामने बिठाकर ही लालू ने यह एहसास करा दिया कि आप भ्रम में न रहें. साथ रहकर भी संकोच का आवरण ओढ़कर थोड़ा अलगाव-दुराव का भाव रखने वाले नीतीश को तो उन्होंने इतने तरीके से सिर्फ मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी बना दिया और यह सब देखते-जानते हुए भी नीतीश कुछ कह सकने की स्थिति में नहीं रहे.
लालू ने चुनाव के दौरान सब उलटा किया, वह भी अपने अंदाज में. डॉक्टरों ने ज्यादा भाग-दौड़ करने से मना किया तो वे सबसे ज्यादा चुनावी सभा करने वाले नेता बन गए. विधानसभा चुनाव के दौरान उन्होंने 11,600 किमी. चलकर 251 चुनावी सभाएं कीं
इसका नतीजा सबके सामने है. इतनी मुश्किल स्थितियों में लालू बिहार के चैंपियन बनकर उभरे हैं. तमाम राजनीतिक भविष्यवाणियों को झुठलाते हुए उन्होंने खुद के लिए 190 सीटों का लक्ष्य निर्धारित किया और 178 सीटें लाकर उसे प्राप्त करने के करीब भी पहुंच गए. यह सब कैसे हुआ? क्या नीतीश कुमार के साथ आने की वजह से? क्या जनता के मन में भाजपा के प्रति बढ़ी नाराजगी ने लालू को इतना बड़ा मौका दे दिया? क्या संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण वाले बयान ने उन्हें फिर से सबसे बड़ा नेता बन जाने का अवसर दे दिया? ऐसे तमाम सवाल हो सकते हैं और इसके जवाब भी लोग अपने हिसाब से दे रहे हैं, लेकिन जो लालू को जानते हैं, उनकी राजनीति को जानते हैं, वे यह भी जानते और मानते हैं कि सिर्फ इन वजहों से ही लालू प्रसाद को इस बार के चुनाव में ‘मैन ऑफ द मैच’ जैसा नहीं बन जाना था.
लालू की बड़ी जीत को जो नीतीश कुमार का साथ मिलना बता रहे हैं, उनसे यह पूछा जा सकता है कि फिर नीतीश कुमार खुद के लिए ऐसा करिश्मा क्यों नहीं कर पाए, जो लालू ने किया? नीतीश कुमार के पास तो प्रशांत किशोर जैसे चुनावी मैनेजर भी थे. ऐसे कई नेता भी थे, जो टीवी पर नीतीश का पक्ष संभालते थे. उनके पास अतिपिछड़ों, महादलितों और महिलाओं को ज्यादा हक देने का श्रेय भी था तो फिर वे उसे महागठबंधन के साथ ही अपने दल के पक्ष में भी उस तरह से क्यों नहीं करवा पाए. जबकि लालू इसमें सफल रहे. जो लोग मोहन भागवत के बयान को ही एकमात्र बड़ा कारण मानते हैं तो उनसे यह पूछा जा सकता है कि लालू तो संघ प्रमुख के बयान से पहले ही जातीय जनगणना को सार्वजनिक किए जाने की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे थे. जो लोग उनकी इस बड़ी जीत को सिर्फ जाति की राजनीति के जीत के चश्मे से देख रहे हैं और उसे ही स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं, उनसे यह भी पूछा जा सकता है कि जाति की राजनीति की शुरुआत तो भाजपा ने ही की. सबसे पहले उसने चक्रवर्ती सम्राट अशोक की जाति तय की और उसके बाद जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा, रामविलास पासवान जैसे नेताओं को साथ मिलाकर बिसात बिछाई. खुद भाजपा ने प्रधानमंत्री को अतिपिछड़ा जाति का बताने से लेकर तमाम तरह की कोशिशें की. क्यों भाजपा का यह ऐलान भी काम नहीं आ सका कि जीत हासिल होने पर कोई पिछड़ा ही मुख्यमंत्री बनेगा? इतने के बाद बिहार में जिस एक बात को सबसे ज्यादा बार कहा जा रहा है, वह यह कि संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अगर आरक्षण का बयान नहीं दिया होता तो लालू इतने बड़े नेता नहीं बनते और भाजपा की इतनी बुरी हार नहीं होती. इन लोगों से यह पूछा जा सकता है कि लालू की यह जीत अगर सिर्फ संघ प्रमुख के बयान की वजह से ही हुई है तो फिर उस बयान का खंडन करने में प्रधानमंत्री से लेकर भाजपा के राष्ट्रीय स्तर के 36 नेता क्यों सफल नहीं हो सके? वह यह बात बिहार की जनता को क्यों नहीं समझा पाए कि आरक्षण पर कोई संकट नहीं है. अकेले लालू कैसे यह समझाने में सफल हो गए कि आरक्षण पर खतरा है. और अगर ऐसा है, तब यह बात भी माननी चाहिए कि लालू की कनविंसिंग पावर प्रधानमंत्री समेत 36 बड़े नेताओं की तुलना में ज्यादा रही.
फोटोः कृष्ण मुरारी किशन
चुनाव के बाद बिहार में बहुत सारे लोग इस बात की हवा फैला रहे हैं कि परिणाम नीतीश या लालू की जीत से ज्यादा भाजपा की हार वाला है. भाजपा को हराने का अभियान था, इसलिए यह बड़ी जीत हासिल हुई? ऐसे तर्कों के एवज में यह सवाल भी बनता है कि जब किसी तरह भाजपा को हराने का ही अभियान था तो फिर पप्पू यादव जैसे नेता, जो पैसा लेकर अपनी पूरी ताकत लगा दिए, वे अपने कोसी के इलाके में भी प्रभावी क्यों नहीं हो सके. मायावती की बसपा आरक्षित सीटों पर भी जीत के लिहाज से न सही, वोट प्रतिशत बढ़ा लेने में सफल क्यों नहीं हो सकी. इस बार साथ होकर लड़े छह वाम दल ज्यादा सीटों पर जीत क्यों नहीं हासिल कर सके. इनमें सिर्फ माले ही तीन सीट को क्यों ला सकी. बिहार में कभी बहुत मजबूत रही भाकपा जैसी पुरानी पार्टी खुद को उभारने में क्यों सफल नहीं रही?
‘बिहार को हमसे ज्यादा कौन बूझेगा. हम बड़े विश्लेषकों और सर्वेक्षणों के फेर में नहीं पड़ता हूं. हम जनता की भीड़ देखकर समझ गए थे कि बाजी इस बार पलट गई है और हमारे हाथ में आने वाली है’
इतने सारे सवालों के जवाब बडे़-बड़े विश्लेषक अपने तरीके से देते हैं. वो जीत-हार के हजार कारण देते हैं लेकिन लालू एक लाइन में जवाब देते हैं, ‘बिहार को हमसे ज्यादा कौन बूझेगा. हम बडे़ विश्लेषकों और सर्वेक्षणों के फेर में नहीं पड़ता हूं. हम जनता की भीड़ देखकर समझ गया था कि बाजी इस बार पलट गई है और हमारे हाथ में आने वाली है, इसलिए मैं 190-190 कहता रहा और अपनी धुन में रहा. अपने मसले से टस से मस नहीं हुआ. मैं जनता की नब्ज जानता हूं.’
लालू प्रसाद का यह जवाब सही भी लगता है. वे जनता की नब्ज पकड़ने के उस्ताद नेता हैं. यह पहला मौका नहीं है जब लालू ने जनता की नब्ज को पकड़ा या समझा. कई बार वे नब्जों की गति को भी अपने हिसाब से ढाल लेते हैं. वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेश्वर कहते हैं, ‘इस बार के बिहार चुनाव में एक बड़ी चाल यह रही कि भाजपा लालू पर निशाना साधने की पूरी रणनीति बनाने में लगी रही और उसके अनुसार काम करती रही, लेकिन लालू ने अपनी चालों से पूरी भाजपा टीम को अपनी पिच पर लाकर मैच खेलने को मजबूर कर दिया. लालू की पिच पर उनसे बड़ा बल्लेबाज, बॉलर और फील्डर कोई हो ही नहीं सकता. आप देखिए कि भाजपा नीतीश कुमार को परास्त करने के लिए विकास बम से लेकर पैकेज बम तक फोड़ती रही और तमाम तरह की बातें करती रही लेकिन लालू ने मोहन भागवत का बयान आने से पहले से ही जातीय जनगणना को सार्वजनिक करने की मांग करके भाजपा को अपनी पिच पर लाने की कोशिश की. अंत में वह सफल भी रहे. भाजपा के बड़े नेताओं के साथ ही प्रधानमंत्री खुद लालू के बिछाए जाल में फंसे. वो भी जातिगत और सांप्रदायिक राजनीति की बात करने लगे. और उसी दिन लग गया कि अब लालू से पार पाना इनके बस की बात नहीं.’
राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘चुनाव में पिछड़ों की अभूतपूर्व गोलबंदी हुई है. 1995 वाली स्थिति बनी है. यह गोलबंदी सिर्फ और सिर्फ लालू प्रसाद ही करवा सकते थे. दरअसल लालू प्रसाद एक ऐसे नेता हैं, जिनकी 100 गलतियों को 100 वर्षों तक पिछड़े व दलित माफ करते रहेंगे और अगले 100 वर्ष तक अगड़े उनसे अलगाव का भाव बरतते रहेंगे.’ राजनीतिक विश्लेषक प्रेम कुमार मणि कहते हैं, ‘यह चुनाव परिणाम अब तक किसी को समझ में नहीं आ रहा कि ऐसा कैसे हुआ, क्यों हुआ लेकिन यह सबको समझ में आ रहा है कि इस बार के चुनावी मैच में मैन ऑफ द मैच लालू प्रसाद ही रहे.’
मणि जीत के इस समीकरण को नीतीश और लालू के अलग-अलग फ्रेम में बांधते हैं. ऐसा सिर्फ वही नहीं कर रहे. पूरे बिहार में अब इस पर बात जारी है कि जीत के हीरो नीतीश हैं या लालू. यह बहस चुनाव परिणाम के बाद से शुरू हुई है और एक तरह से यह बेजा बहस है. बिहार के चुनाव को देखें तो यह साफ होगा कि नीतीश जीत के बाद हीरो बने या जीतकर भी वे उतने बड़े हीरो नहीं बन सके, जितने बड़े स्वाभाविक तौर पर लालू बन गए. इसका आकलन सिर्फ उन्हें या उनकी पार्टी को मिली सबसे ज्यादा सीटों से नहीं किया जा सकता बल्कि पूरे चुनाव में या चुनाव के पहले लालू ने जो नीति-रणनीति अपनाई, उससे वे हीरो बनते गए.
नीतीश की ही सभा में लालू ने बहुत आसानी से नीतीश और कांग्रेस दोनों को बैकफुट पर लाकर एक बड़ी चाल चल दी. ऐसा करके लालू ने पूरे बिहार में पिछड़ों को और उसमें भी विशेषकर यादवों को यह संदेश दे दिया कि वे गोलबंद हों
इसके लिए लालू प्रसाद यादव की रणनीति को लोकसभा चुनाव के बाद से ही देखना होगा. लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद लालू प्रसाद ने ही यह कहा था कि हमारे वोटों के बिखराव का फायदा बिहार में भाजपा या नरेंद्र मोदी को मिला है. लालू के इस बयान के बाद से ही हिसाब मिलाकर देखा गया तो आंकड़े गवाही देने लगे. लालू की ही पहल थी कि लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद नीतीश के साथ मिलकर बिहार में उपचुनाव लड़े और अच्छी जीत मिली. यह एक तरीके से टेस्ट करने जैसा था. उसके बाद लालू ही पहल करते रहे, बात आगे बढ़ती गई लेकिन इस बढ़ती हुई बात के बावजूद नीतीश, लालू की तरह आश्वस्त नहीं दिखे. लालू हमेशा इस महागठजोड़ में सफलता के सूत्र देखते रहे, आंकते रहे. नीतीश साथ आने को राजी होकर भी दूरी का भाव बरतते रहे. जब चुनाव प्रचार अभियान की शुरुआत हुई तो नीतीश कुमार के सलाहकार प्रशांत किशोर ने नीतीश के नेता के रूप में चयन हुए बिना ही पटना में ‘यूं ही बढ़ता रहे बिहार’, ‘एक बार और नीतीश कुमार’ वाले बड़े-बड़े पोस्टर टंगवा दिए. इसे लेकर नीतीश से सवाल हुए. उन्होंने कहा कि उन्हें जानकारी नहीं. उसके बाद नीतीश नेता चुने गए, लालू ने ही उनके नाम का ऐलान किया लेकिन नीतीश अकेले ही प्रचार अभियान चलाते रहे. पटना से लेकर बिहार के अलग-अलग हिस्सों में नीतीश के ही पोस्टर-होर्डिंग लगते रहे, गाने बजते रहे. इन सबसे लालू को दूर रखा गया. अब कहा जा रहा है कि यह प्रशांत किशोर के प्रचार अभियान का हिस्सा था कि लालू प्रसाद को पहले थोड़ा दूर रखा जाए, फिर बाद में पोस्टर पर लाया जाए, साथ होने का एहसास कराया जाए.
फोटोः सोनू किशन
अब ऐसे तमाम तर्क दिए जा रहे हैं कि सब कुछ रणनीति के तहत हुआ लेकिन यह एक तरीके से सच्चाई को झुठलाने वाली बात है. सच यही है कि जब नीतीश कुमार के बड़े और आकर्षक होर्डिंग लग रहे थे और पूरा पटना रातोंरात उनके पोस्टरों से पट रहा था तब भाजपा, पप्पू यादव और लोजपा जैसी पार्टियां भी उस पोस्टर वार में अपनी जगह तलाशने में लगे हुए थे. उस वक्त लालू अपने तरीके से चुनावी अभियान में लगे हुए थे. वे जातिगत जनगणना को जारी करने की मांग को लेकर पटना के गांधी मैदान में धरना-प्रदर्शन कर रहे थे. अपने समर्थकों के साथ राजभवन मार्च कर रहे थे. जब सबके पोस्टर चमकने लगे और सबने अपने-अपने रथ निकालने शुरू किए तो लालू राजधानी पटना में टमटम यात्रा निकालकर सबके अभियान की हवा निकाल रहे थे. उस टमटम यात्रा से ही अंदाजा लग गया था कि भाजपा या नीतीश कुमार कितना भी प्रचार कर लें, लालू कोई भी एक अभियान चलाकर सबका ध्यान अपनी ओर खींच लेंगे. उसके बाद भी नीतीश की उन्हें लेकर हिचक दूर नहीं हुई. वे दूरी का भाव बरतते ही रहे. सीटों का बंटवारा हो जाने, टिकट का वितरण हो जाने के बाद भी साझा प्रचार अभियान की कमी लगातार दिखती रही और बार-बार बताया जाता रहा कि नीतीश कुमार व उनके साथी ऐसा कर ‘चित भी मेरी, पट भी मेरी’ वाली स्थिति पाना चाहते थे. अगर लालू प्रसाद के साथ हार हुई तो भी वे अपनी छवि बचाकर रखना चाहते थे ताकि वे कह सकें कि उन्होंने कभी शालीनता नहीं तोड़ी, कभी जाति की बात नहीं कही और जीत जाएंगे तो सेहरा उनके माथे बंधेगा ही. लेकिन दूसरी ओर लालू प्रसाद इन तमाम किस्म की नीतियों-रणनीतियों से अलग अपनी धुन में लगे रहे. भाजपा को हराने से पहले उन्होंने नीतीश कुमार और कांग्रेस को चित किया, उन्हें बैकफुट पर लाने का काम किया. दोनों को चित करने के लिए और दोनों के तारणहार के तौर पर चुनाव से बहुत पहले उन्होंने खुद को बहुत ही चतुराई से स्थापित कर दिया. यह पटना के गांधी मैदान में आयोजित स्वाभिमान सम्मेलन में हुआ, जब उनके साथ नीतीश कुमार और सोनिया गांधी दोनों थे. उस सभा में एक वरिष्ठ नेता की तरह जब उन्हें सबसे अंत में बोलने का मौका मिला तो लालू ने भारी भीड़ को देखकर उसके अनुसार ही बोलना शुरू कर दिया. सबसे पहले उन्होंने कांग्रेस की सोनिया गांधी को समझाया कि वे उन्हें कमतर आंकने की कोशिश न करें और वे जो उन्हें उपेक्षित करती हैं, वह ठीक नहीं है. सोनिया के सामने ही दूसरे शब्दों में यह बात कहकर लालू ने एक तरीके से कांग्रेस को अपना संदेश दे दिया. उसके बाद उन्होंने कहा कि नीतीश डरते रहते हैं, इन्हें धुकधुकी लगी हुई है कि हम उनको सीएम बनाएंगे कि नहीं लेकिन हम यहां भारी भीड़ में उन्हें आश्वस्त करना चाहते हैं कि उनको ही सीएम बनवाएंगे, डरे नहीं. नीतीश कुमार की ओर से आयोजित सभा में लालू ने बहुत आसानी से नीतीश और कांग्रेस दोनों को बैकफुट पर लाकर एक बड़ी चाल आसानी से चल दी. ऐसा करके लालू प्रसाद ने आसानी से पूरे बिहार में पिछड़ों को और उसमें भी विशेषकर यादवों को यह संदेश दे दिया कि वे गोलबंद हों, क्योंकि महागठबंधन की जीत पर नीतीश भले ही सीएम बनें लेकिन असली हीरो और किंगमेकर लालू प्रसाद ही रहेंगे. लालू यादवों की नब्ज पकड़ चुके थे कि नीतीश और भाजपा द्वारा बार-बार खलनायक और जंगलराज का पर्याय बनाए जाने के बाद वे सत्ता में वापसी की छटपटाहट में हैं. ऐसी स्थिति में श्रेष्ठताबोध की राजनीति ही यादवों को गोलबंद होने का अवसर देगी. लालू ने सिर्फ उसी मंच से अपने को किंगमेकर जैसा साबित नहीं किया बल्कि बीच में जब-जब मौका आया, तब-तब उन्होंने इस संदेश को अधिकाधिक फैलाने की कोशिश की कि वे हीरो हैं, किंगमेकर रहेंगे.
जब सबने अपने-अपने रथ निकालने शुरू किए तो लालू राजधानी पटना में टमटम यात्रा निकाल सबके अभियान की हवा निकाल रहे थे. उससे ही अंदाजा लग गया था कि कितना भी प्रचार कोई कर ले, लालू सबका ध्यान अपनी ओर खींच ही लेंगे
लालू प्रसाद से यह पूछने पर कि नीतीश तो विरोधी थे आपको ही पछाड़कर आगे गए थे, फिर कैसे उनके साथ समीकरण बना रहे हैं और जीत का दावा कर रहे हैं? तब उनका जवाब था, ‘अरे हम नीतीश को भेजे थे हनुमान बनाकर दुश्मन के खेमे में कि जाओ और भेद लेकर आओ और लंका का दहन भी कर आओ. नीतीश ने हनुमान की भूमिका निभा दी है तो अब लौट आए हैं हमारे खेमे में.’ लालू ऐसी बातें कहकर खुद को बड़े नेता के तौर पर स्थापित करते रहे और चुनाव परिणाम आ जाने के बाद भी जब नीतीश को हीरो बनाने की तमाम कोशिशें होती रहीं और मीडिया ‘नीतीशगान’ में लगा रहा तब लालू ने एक बार में बाजी पलटकर फिर से संदेश दे दिया कि नीतीश उनके शागिर्द हैं, सेनापति भर हैं, असली हीरो, राजा, गुरु या किंगमेकर वही हैं. चुनाव परिणाम आने के दिन भारी भीड़ में एक बार फिर लालू ने कहा कि नीतीश ही सीएम बनेंगे और अब यहीं रहकर बिहार को संभालेंगे. मैं अब बनारस से लेकर दिल्ली तक जाकर राष्ट्रीय राजनीति को देखूंगा, समझूंगा और मोदी का विरोध करूंगा. ऐसा कहकर लालू जीत जाने के बाद भी बाजी को अपने हाथ में रख लिए कि नरेंद्र मोदी के विरोध और उस विरोध से निकली जीत के असली हीरो वही हैं.
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ऐसा कहकर लालू प्रसाद कोई आत्ममुग्धता वाली बात भी नहीं कर रहे बल्कि यह पूरे चुनाव में देखा भी गया कि वही हीरो रहे, जिन्होंने भाजपा की पूरी टीम का मुकाबला किया. बीच चुनाव में तो कई ऐसे मौके आए, जब उन्होंने न सिर्फ शब्दावलियों व मुहावरों को बदलकर भाजपा को नीतीश से लड़ने की बजाय खुद से लड़ने के लिए मजबूर किया बल्कि बातों में उलझाकर जाति और संप्रदाय की राजनीति पर भी आ जाने को विवश भी किया. इतना ही नहीं प्रचार के दौरान ऐसे कई मौके आए, जब उन्होंने अपने पहले से निर्धारित सभाओं में भी फेरबदल कर दिए और इसके लिए उन्हें किसी की सलाह या सुझाव की जरूरत नहीं रही. कई बार ऐसा हुआ, जब लालू ने फेर बदल कर अपनी सभा को वहां तय करवा दिया, जिस इलाके में नरेंद्र मोदी की सभा हुई. वो मोदी की सभा के पहले या तो उस इलाके में मोदी का खेल बिगाड़ते रहे या मोदी की सभा के बाद उनकी बातों की असर की धार को कमजोर करते रहे.
लालू प्रसाद ने भाजपा से पहले नीतीश से एक बड़ी बाजी सीटों के बंटवारे में जीती. सीटों के बंटवारे में नीतीश कुमार अपनी पार्टी के लिए ज्यादा सीट चाहते थे लेकिन लालू ने बराबरी के बंटवारे की शर्त रखी. बहुत दिनों तक मतभेद रहा लेकिन लालू एक बार अपनी बात कहकर फिर अपने अभियान में ही लग गए. नीतीश कुमार को मजबूर होना पड़ा कि वे लालू प्रसाद की शर्तों पर आएं. यह नीतीश की मजबूरी भी थी क्योंकि लोकसभा चुनाव में यह साबित हो गया था कि अलग-अलग लड़ने की स्थिति में लालू प्रसाद उनसे ज्यादा बड़े नेता साबित होंगे और ऐसा लोकसभा चुनाव में अधिक सीट और अधिक वोट पाकर लालू ने साबित भी कर दिया था.
‘चुनाव में पिछड़ों की अभूतपूर्व गोलबंदी हुई है. यह गोलबंदी सिर्फ लालू ही करवा सकते थे. वह ऐसे नेता हैं, जिनकी 100 गलतियों को 100 वर्षों तक पिछड़े व दलित माफ करते रहेंगे और अगले 100 वर्ष तक अगड़े उनसे अलगाव का भाव बरतते रहेंगे’
महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘लालू प्रसाद यादव का कोई भी काम योजनाबद्ध नहीं होता और यही उनके काम करने का अंदाज है.’ सुमन की बातों का विस्तार करें तो उसे कई स्तरों पर देख सकते हैं और तब साबित होता है कि वे नब्ज समझने के साथ ही रणनीतियों को मन ही मन बनाने और फिर खुद से ही उसे लागू कर देने के उस्ताद नेता रहे हैं. इसका एक बेहतरीन नमूना और मिलता है. उसे एक किस्से के रूप में एक बड़े पत्रकार सुनाते हैं जो अपने एक साथी को लेकर लालू प्रसाद यादव के पास गए थे. यह वह समय था जब नीतीश कुमार परेशान से थे. आचार संहिता लगने के कोई एक सप्ताह पहले की बात है. नीतीश पटना में दो महत्वपूर्ण योजनाओं का उद्घाटन करने की हड़बड़ी में थे. उन्हें पटना के बेली रोड पर बने फ्लाईओवर और बेली रोड पर ही बन रहे राज्य संग्रहालय का उद्घाटन करना था. तब तक दोनों में से किसी का काम पूरा नहीं हो सका था. फ्लाईओवर बन गया था लेकिन एक तरफ का काम बाकी था और राज्य संग्रहालय तो अब तक पूरा नहीं हो सका है. नीतीश कुमार तब दोनों के उद्घाटन की तिथि एकबारगी से तय कर दोनों महत्वपूर्ण निर्माण कार्यों का श्रेय अपने पास रखकर भविष्य में अपने काम का हिसाब जोड़ने में व्यस्त थे. उस समय भाजपा की ओर से एक बयान आया कि उसने देश को पहला पिछड़ा प्रधानमंत्री दिया. लालू प्रसाद उस समय उसी वरिष्ठ पत्रकार और उनके साथी के साथ बैठे हुए थे. वरिष्ठ पत्रकार बताते हैं कि जिस समय अमित शाह का यह बयान आया उस समय लालू को इसके बारे में बताया गया. तब लालू कुछ नहीं बोले. वह पत्रकार कहते हैं कि उन्होंने लालूजी से कहा कि भाजपा झूठ बोल रही है, पहले पिछड़े प्रधानमंत्री तो देवगौड़ा थे, जो आप लोग ही दिए थे. यह सुनते ही लालू प्रसाद तुरंत गति में आ गए. उनके दिमाग से यह बात निकली हुई थी. तुरंत देवगौड़ा को फोन मिलवाया. सीधे पूछे कि किस जाति के हैं आप देवगौड़ाजी. जवाब मिला. लालू प्रसाद ने तुरंत मीडिया वालों को फोन मिलवाया कि मेरा बयान जारी करवाओ की भाजपा झूठ बोल रही है, पहला पिछड़ा प्रधानमंत्री हम लोगों ने दिया था-देवगौड़ा के रूप में. अमित शाह को जवाब दो. वरिष्ठ पत्रकार बताते हैं कि लालू प्रसाद को वे और उनके साथी समझाते रहे कि शाम को आराम से प्रेस कॉन्फ्रेंस कर बताइए, आप सब काम अचानक, बिना प्लानिंग के, इतनी हड़बड़ी में क्यों करते हैं. तब लालू ने जवाब दिया कि इतना मौका राजनीति में नहीं मिलता. हम नहीं बोलेंगे, कोई दूसरा बोल देगा तो लालू एक मौका खो देगा, मुंह देखता रह जाएगा. वह पत्रकार वहीं बैठे रहे, पांच मिनट में लालू ने अमित शाह को जवाब देकर अपने बयान को देश भर में चर्चित करवा दिया. पत्रकार कहते हैं कि उनके साथ चुनाव प्रबंधन का जो उस्ताद साथी गया था, वह एकटक लालू प्रसाद यादव को देखता ही रह गया कि इतने तेज दिमाग के नेता को चुनाव प्रबंधक की क्या जरूरत है.
ऐसा नहीं कि लालू यादव ने उस रोज अनायास ही यह किया. वह रोजाना की राजनीति में बहुत कुछ अनायास, बिना प्लानिंग करते रहते हैं लेकिन कुछ भी प्लानिंग के साथ न करके सब कुछ प्लानिंग के साथ ही करते हैं. उन्होंने 1997 में राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री भी बनाया था तो सबने कहा था कि यह अचानक बिना सोचे समझे फैसला ले रहे हैं, अब इनकी नइया डूब जाएगी. रसोई से निकाल एक महिला को सत्ता के शीर्ष पर बिठाकर अपनी राजनीति खत्म कर रहे हैं. लेकिन उस समय लालू प्रसाद ने अगर यह फैसला नहीं लिया होता और राबड़ी देवी की जगह किसी और को मुख्यमंत्री बना दिया होता तो आज वह बिहार के राजनीतिक इतिहास में दफन हो चुके होते. लालू प्रसाद ने अपने सालों को आगे बढ़ाया, उससे बदनामी हुई तो समय रहते ही कैसे अलग हुआ जाता है, उसे भी दिखाया. लालू प्रसाद ने समझदारी के साथ पहले अपनी बेटी मीसा को ही राजनीति में लाकर आजमाया, जब बात नहीं बनी तो मीसा को भविष्य की राजनीति के लिए सुरक्षित रख दिया.
‘अरे हम नीतीश को भेजे थे हनुमान बनाकर दुश्मन के खेमे में कि जाओ, भेद लेकर आओ और लंका का दहन भी कर आओ. नीतीश ने हनुमान की भूमिका निभा दी है तो अब लौट आए हैं हमारे खेमे में’
इस बार जब पप्पू यादव से लेकर तमाम दूसरे नेता दोनों बेटों को राजनीति में लाने को लेकर उन पर हमला बोलते रहे, राजद के नेता भी इसका विरोध करते रहे लेकिन लालू प्रसाद जान गए थे कि इस बार नहीं तो फिर आगे कभी नहीं. और लालू प्रसाद ने इस बार अगड़ा-बनाम पिछड़ों की लड़ाई भी एक बार सही समय पर ही शुरू की. उनके दल में सवर्ण नेताओं की भरमार रही है. राजपूत जाति से उनके दल में बड़े नेता रहे हैं लेकिन लालू लोकसभा चुनाव में ही जान गए थे कि राजपूतों की निष्ठा उनके दल के प्रति नहीं बल्कि राजपूत उम्मीदवारों के प्रति ज्यादा है, इसलिए इस बार उनके दल के नेता रघुवंश प्रसाद सिंह जो भी बोलते रहे, लालू प्रसाद ने ज्यादा नोटिस नहीं लिया. जगतानंद सिंह जैसे दिग्गज नेता मौन साधे रहे, लालू प्रसाद ने उस पर ध्यान नहीं दिया. लालू ने इस बार अगर सीधे तौर पर भूमिहारों का विरोध किया और अपने दल से एक भी भूमिहार को टिकट नहीं दिया तो यह भी सिर्फ इस चुनाव में अगड़ा बनाम पिछड़ा होने की कहानी नहीं थी. लोकसभा चुनाव में लालू प्रसाद एक बार भूमिहारों की शरण में जाकर, भूराबाल साफ करो जैसे नारे पर माफी मांगकर, अपने कार्यकर्ताओं को भूमिहारों को सामंत न कहने की हिदायत आदि देकर आजमा चुके थे कि इसका उन्हें कोई फायदा नहीं मिला था, भूमिहार उनसे नहीं जुड़ सके थे. महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘लालू प्रसाद जानते हैं कि वे एक ऐसे नेता हैं, जो अगले कई साल तक बिना गलती के भी सवर्णों के बीच खलनायक ही बने रहेंगे, इसलिए उन्होंने इस बार आखिरी बार की तरह आर पार की लड़ाई छेड़ी.’ कहने का मतलब यह कि लालू प्रसाद एक ऐसे नेता हैं, जो स्थितियों को देखकर अपना दांव, अपनी रणनीति सब बदलते रहते हैं. हालांकि पिछले 25 वर्षों से उन्होंने सिर्फ एक बात में बदलाव नहीं किया है और वह है भाजपा विरोध.