Home Blog Page 1329

‘सुषमा स्वराज कहीं बेहतर कर सकती थीं, लेकिन उनके पूरे काम पर प्रधानमंत्री कार्यालय का ग्रहण लगा हुआ है’

Salman Khurshid by Shailendra (13ggg)

मोदी की विदेश नीति के बारे में आप क्या सोचते हैं?

यह काफी निराशाजनक है! उन्हें विदेश नीति की समझ नहीं है. भारत दुनिया का कोई पुलिसमैन नहीं है और उसे वैसा होने की इच्छा भी नहीं रखनी चाहिए. आपको अच्छा संवाद आना चाहिए. आप एकतरफा बात नहीं कर सकते. हर नेता अपने देश के बारे में कोई न कोई सपना बेचता है. उदाहरण के लिए मलेशिया का नारा है, ‘मलेशिया! आपका दूसरा घर!’ हम भी दूसरे शब्दों में यही बात कह रहे हैं, ‘आइए! ‘मेक इन इंडिया’ आइए! भारत में निवेश कीजिए लेकिन साफ ढंग से कहा जाए तो इस एकतरफा संवाद के तरीके से कोई क्यों प्रभावित होगा और दिलचस्पी लेगा?

लोग दिलचस्पी ले रहे हैं क्योंकि वे भारत को एक बाजार के रूप में देखते हैं. यही हमारी ताकत भी है. किसी और चीज में उनकी दिलचस्पी नहीं है. आपको उन्हें बताना चाहिए कि वे भारत किसलिए आएं. उन्हें बताना चाहिए कि भारत से निर्यात करने के लिए या फिर भारत में निवेश करने के लिए भारत आएं. जब मोदी कहते हैं ‘मेक इन इंडिया’ तो अभी तक यह साफ नहीं है कि उसका ठीक-ठीक क्या मतलब है. वे भी भारतीय बाजार को एक अवसर के रूप में देख रहे हैं, लेकिन यह पिछले दो दशक से हो रहा है.

कांग्रेस के पुराने आलोचकों का कहना है कि कांग्रेस की अपेक्षा मोदी पश्चिम के देशों के साथ ज्यादा मजबूती से पेश आ रहे हैं. उनका कहना है कि यूपीए सरकार चीन और रूस से डरती थी.

लेकिन क्या सचमुच आप रूस की उपेक्षा कर सकते हैं? अमेरिका भी ऐसा नहीं कर सकता. क्या आप चीन और जापान को नजरअंदाज कर सकते हैं? क्या आप चीन जाकर ये जता सकते हैं कि जापान है ही नहीं? क्या आप वियतनाम जाकर यह सोच सकते हैं कि चीन है ही नहीं.

पूरी दुनिया आज काफी जटिल हो चुकी है. लेकिन मोदी इस सबको सरलीकरण में देखते हैं. मुझे लगता है कि सिर्फ ‘मैं,’ ‘मेरा’ और ‘जो मैं सोचता हूं’ की बात की जा रही है. दुनिया से आप इस तरह पेश नहीं आ सकते. दुनिया के साथ काफी समझदारी से सौदे करने होते हैं. दुनिया से सौदे करने का मतलब है बड़ी मात्रा में लेन-देन करना. लेकिन मोदी का ध्यान दूसरी ओर है. अभी तक वे यह देख पाने में नाकाम रहे हैं कि जिस तरह से पश्चिम भारत को एक बाजार के रूप में देखता है वैसे ही भारत अफ्रीकी महाद्वीप को एक बाजार के रूप में देखता है. लेकिन अफ्रीका के बाजारों पर हम अभी तक ध्यान नहीं दे रहे हैं. जबकि हमारी स्थिति अफ्रीका में चीन की अपेक्षा कहीं ज्यादा मजबूत हैं. अफ्रीकी महाद्वीप के साथ हमारा ऐतिहासिक जुड़ाव है. मध्यपूर्व में भी हमारी स्थिति मजबूत है. लेकिन आप मध्यपूर्व में भारतीयों से मिलने नहीं जाते. आपको वहां जाकर सरकारों से भी बात करनी चाहिए. लेकिन मोदी सिर्फ भारतीयों से बात करते हैं. मध्य पूर्व जानना चाहता है कि ईरान और सऊदी अरब में क्या हो रहा है? तुर्की और मिस्र का क्या भविष्य है? आईएसआईएस की समस्या से कैसे पेश आया जाए? वे जानना चाहते हैं कि फलस्तीन कब एक वास्तविकता बनेगा? क्या मोदी ने कभी इन विषयों पर बोला है? फिर कौन सी विदेश नीति है उनकी?

विदेश नीति के मोर्चे पर मोदी की सबसे बड़ी नाकामी क्या है?

दुनिया को समझने की उनकी नाकामी. गुजरात से आगे उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आता. यहां वे भारत को भी नहीं समझते. बिहार के चुनाव परिणाम ने यह साफ तौर पर बता दिया है. वे दुनिया के बारे में क्या जानेंगे, जब वे भारत के बारे में ही कुछ नहीं जानते?

नेपाल से कमजोर होते संबंधों को किस प्रकार देखते हैं?

फिर से यही कहूंगा कि नेपाल कोई अनुयायी नहीं है. नेपाल मित्र है. हम चाहते हैं कि नेपाल शक्तिशाली देश बने. जब मोदी यह कहते हैं कि वहां का संविधान मधेसी समुदाय के हितों के लिहाज से अधिक समावेशी होना चाहिए तो उनकी इस बात से कोई असहमत नहीं हो सकता. लेकिन अगर यह मुद्दा हमारी चिंता में था तो इस पर हमें गंभीरता से काम करना चाहिए था. हमें इस पर मनन करना चाहिए कि हमारी निगरानी के बावजूद ऐसा कैसे हो गया. और अब जब ऐसा हो ही चुका है तो हमें इस समस्या को सुलझाने के बारे में सोचना चाहिए.

चीन के साथ संबंधों के बारे में क्या सोचते हैं? क्या आपको लगता है कि मोदी शक्ति संतुलन बनाने में सफल होंगे?

कैसा शक्ति संतुलन? चीन ने उन्हें घुमा दिया. हमें बिना कुछ दिए हमसे चीन काफी कुछ हासिल कर रहा है. चीन भारत में निवेश करना चाहता है इसलिए चीन भारत में निवेश करेगा ही. राजीव गांधी के समय से ही चीन के साथ एक संबंध विकसित हो रहा है. यह सारा काम हमारे द्वारा किया जा चुका है. लेकिन इस बारे में साफ तौर पर एक समझ रही है कि यह सब हड़बड़ी में नहीं किया जाना चाहिए. बहरहाल, यह बताइए कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के विषय में चीन ने मोदी की कौन-सी मदद की है? चीन ने भारत को विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर समर्थन देने के लिए क्या किया है? हमें चीन को बेहतर तरीके से समझने की जरूरत है साथ ही हमें यह भी कोशिश करने की जरूरत हैै कि वो हमें बेहतर तरीके से समझे. आप चीन को किसी और से सामना करने के लिए इस्तेमाल नहीं कर सकते. आपको उनसे सीधे दिल का रिश्ता कायम करना होगा.

मुझे लगता है सुषमा कहीं बेहतर कर सकती थीं. वे काफी ऊर्जावान मंत्री हैं लेकिन उनके पूरे काम पर प्रधानमंत्री कार्यालय का ग्रहण लगा हुआ है. सुषमा की असहायता स्पष्ट तौर पर नजर आती है

क्या आपको लगता है कि पाकिस्तान के साथ सौहार्द्रपूर्ण संबंध रखना महत्वपूर्ण है भारत के लिए?

कौन नहीं चाहेगा कि पाकिस्तान के साथ संबंध अच्छे हों. लेकिन हमें यह भी देखना होगा कि किसकी कथनी और करनी में अंतर है. पाकिस्तान के साथ अच्छे संबंध रखना बहुत ज्यादा आसान नहीं है. अगर कोई समस्या न हो तो पाकिस्तान के साथ अच्छे संबंध होना बड़ा मसला नहीं. लेकिन समस्याएं हैं और ये बहुत ही गंभीर हैं. हम न सिर्फ पूर्वी सीमा की तरफ से उसके लिए समस्या हैं बल्कि पश्चिम से भी समस्या ही हैं, क्योंकि अफगानिस्तान हमारा मित्र देश है.

विदेश मंत्री के रूप में सुषमा स्वराज के बारे में क्या सोचते हैं?

सुषमा बेहतर हैं. मुझे लगता है वे कहीं बेहतर कर सकती थीं. वे काफी ऊर्जावान मंत्री हैं लेकिन उनके पूरे काम पर प्रधानमंत्री कार्यालय का ग्रहण लगा हुआ है. इसमें हैरानी की बात नहीं है, लेकिन सुषमा स्वराज की असहायता ज्यादा से ज्यादा स्पष्टतौर पर नजर आती है. वे काफी मुश्किल परिस्थितियों में काम कर रही हैं.

हालांकि भारत की विदेश नीति पर राष्ट्रीय राजनीति का असर कम ही पड़ता है लेकिन हाल ही के घटनाक्रम खासतौर से बिहार के चुनावी नतीजों का कुछ असर पड़ेगा?

सुधारों की स्वीकार्यता हमेशा काफी दिक्कत भरी होती है. अभी इस बारे में कोई टिप्पणी करना जल्दबाजी होगी.

विदेश नीति के मोर्चे पर मोदी की सबसे बड़ी सफलता क्या है?

वो जिस गति से अपनी पहुंच बना रहे हैं, उसे निश्चय ही सफलता मान सकते हैं. जिस ऊर्जा से वे आगे बढ़े हैं, उस पर सवाल नहीं उठाए जा सकते, भले ही उसका कोई परिणाम मिलता नजर नहीं आता.

दलित उत्पीड़न का वर्तमान

IMG_5952gggg
फोटोः विजय पांडेय

जिस समाज में हम रहते हैं वह उत्सवप्रेमी है, कानूनप्रेमी नहीं. हम पूरे ताम-झाम से आम्बेडकर जयंती, संविधान दिवस तो मना लेते हैं लेकिन आम नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों पर रोज हो रहे हमलों को लेकर उदासीन बने रहते हैं. ऐसा नहीं है कि सभी ‘आम नागरिकों’ को एक तराजू पर तौला जा सकता हो. इसे कई श्रेणियों में बांट कर देखना ही उचित है. जिस समूह के अधिकारों की जरा भी परवाह यह समाज नहीं करता, वह दलित समुदाय है. असल में, दलित समुदाय के संदर्भ में संवैधानिक अधिकारों का प्रश्न बाद में आता है, प्राथमिक सवाल उनके जीवन और उनके अस्तित्व का है.

आजादी मिलने के बाद से दलित समुदाय अपने अस्तित्व की सुरक्षा के लिए संघर्षरत है. अस्मिता का मुद्दा उनके लिए महत्वपूर्ण है जिनका वर्गांतरण हो चुका है या हो रहा है. ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है. कभी माना गया था कि जो दलित कस्बाई या शहरी हो गए हैं, जीवन की बुनियादी सुविधाएं जुटा चुके हैं, थोड़ी बहुत शिक्षा हासिल कर ली है, वे हिंसक जातिवादी हमलों की परिधि से बाहर आ चुके हैं. अब यह मान्यता बेतरह खंडित हो चुकी है. ऐसे साक्ष्यों का हमारे सामने अंबार लगा हुआ है जो चीख-चीख कर बता रहे हैं कि जातिवादी मानसिकता किसी भी श्रेणी के दलित को नहीं बख्शती. गांव से लेकर कस्बे तक, धुर देहात से लेकर महानगरों तक दलित हर जगह असुरक्षित हैं. वे हमेशा संकट के साये में जीते हैं. उनका घर-बार कभी भी लूटा जा सकता है. उनके पक्के मकानों से लेकर झुग्गियां तक कभी भी आग के हवाले की जा सकती हैं. दलित स्त्रियों के साथ कहीं भी और कभी भी बलात्कार हो सकता है. दुधमुंहे दलित बच्चों पर कभी भी पेट्रोल डालकर माचिस की तीली दिखाई जा सकती है. अपने दर्द का बयान करने वाले नवोदित दलित लेखकों को कभी भी घेरा जा सकता है. उनकी अंगुलियां काटी जा सकती जा सकती हैं या काटने की धमकी दी जा सकती है. आज जातिवादी हिंसा अपने उफान पर दिखाई दे रही है.

अब भी कुछ लोग यह कहते मिल जाएंगे कि जातिवाद गुजरे दिनों की हकीकत है. अब समाज बहुत आगे चला आया है. अब जाति की परवाह कौन करता है? ऐसे लोगों से सिर्फ इतना कहना चाहिए कि वे अखबारी रपटों पर एक नजर डाल लें. एक बार वैवाहिक विज्ञापनों पर सरसरी निगाह फेर लें. जाति व्यवस्था की विकट उपस्थिति जाहिर हो जाएगी. अंतरजातीय विवाह करने वालों के साथ जातिवादी समाज कितनी क्रूरता से पेश आता है, इसकी तमाम मिसालें आसपास मिल जाएंगी. पिछले डेढ़ दशक पर ही हम अपना ध्यान केंद्रित करें और जाति आधारित हिंसा की कुछ चुनिंदा घटनाओं को याद करें तो इस समाज की भयावह सच्चाई का कुछ अंदाज लग जाएगा. देश की राजधानी की नाक के ठीक नीचे महज कुछ किलोमीटर की दूरी पर आर्थिक रूप से विकसित हरियाणा राज्य में जातिवादी हमलों का एक सिलसिला चल रहा है. अक्टूबर 2002 में झज्जर जिले के दुलीना पुलिस चौकी इलाके में 5 दलित युवकों को गाय मारने के शक की बिना पर पीट-पीट कर मार डाला गया. इसी राज्य के सोनीपत जिले की तहसील गोहाना में अगस्त 2005 में पूरी वाल्मीकि बस्ती लूट कर जला दी गई. सोनीपत के पड़ोसी जिले करनाल के महमूदपुर में फरवरी 2006 में जाटव मोहल्ले पर हमला हुआ. इसमें मोहल्ले के करीब दो दर्जन लोग घायल हुए. बच्चों, बूढ़ों और महिलाओं को भी नहीं बख्शा गया. करनाल जिले के ही सालवन गांव में मार्च 2007 में लगभग 300 दलित घरों पर हमला हुआ. लूटने के बाद हमलावरों ने तमाम घरों में आग लगा दी. अप्रैल 2010 में हिसार जिले के मिर्चपुर गांव में वाल्मीकि बस्ती पर हमला हुआ. हमलावरों ने दो दर्जन घरों को आग लगा दी, कई घरों में लूटपाट की और हमले के वक्त सुबह नौ बजे बस्ती में जो भी मिला, उन्हें बुरी तरह मारा पीटा. ताराचंद वाल्मीकि की बारहवीं दर्जे में पढ़ने वाली होनहार बेटी सुमन (18 वर्ष) पोलियोग्रस्त होने के कारण भाग न सकी. पिता भी उसी के साथ रुके रहे. हमलावरों ने बाप-बेटी दोनों को जला दिया. दलितों को जिंदा जलाने का यह क्रम अभी हाल में पुनः संपन्न किया गया.

20 अक्टूबर, 2015 को फरीदाबाद जिले के सुनपेड गांव में दो दलित बच्चों- दिव्या (10 माह) और वैभव (2 वर्ष) को पेट्रोल डालकर जला दिया गया. इन बच्चों की मां रेखा (22 वर्ष) भी आंशिक रूप से जल गईं. उनका इलाज चल रहा है. पिता जितेंद्र (26 वर्ष) तक हमलावर पहुंच नहीं सके. हरियाणा के ठीक बगल में राजस्थान का हाल भी दलित उत्पीड़न के मामले में बिगड़ता नजर आ रहा है. इसी साल मई महीने में जाटलैंड कहे जाने वाले नागौर जिले के डांगावास गांव में तकरीबन 300 दबंगों ने योजना बनाकर दलित मेघवाल परिवार पर हमला किया. उन्होंने गृहस्वामी रतनाराम (65) को बेहद क्रूरता से मार डाला. पहले उनके ऊपर ट्रैक्टर चलाया गया फिर आंखों में अंगारे डाल दिए गए. उनके साथ ही परिवार के पांचाराम (55) और निकट के रिश्तेदार पोखरराम को भी मौत के घाट उतार दिया गया. हमले के शिकार चौथे व्यक्ति गणपतराम (35) की मेड़ता के अस्पताल में मृत्यु हो गई. अजमेर अस्पताल में पांचवें व्यक्ति गणेशराम (21) की मौत हुई. घर की महिलाओं के साथ बदसलूकी की गई. पप्पूड़ी देवी (32), बीदामी (60), सोनकी देवी (55), जसोदा (30), भंवरी (27) और शोभादेवी (25) के हाथ-पांव तोड़ दिए गए. उनके गुप्तांगों में लकड़ी डाली गई. इसके अलावा खेमाराम, मुन्नाराम, अर्जुनराम और किसनाराम को भी अपंग बनाने की कोशिश हुई. लोहे की रॉड से इनके हाथ-पांव तोड़े गए. ट्रैक्टर सहित घर का सारा सामान लूट लिया गया. 4 मोटर साइकिलें, ट्राली और अन्य वस्तुएं जला दी गईं. मेड़ता अस्पताल में भर्ती होने आए घायलों पर भी हमला हुआ. इस भीषण हत्याकांड के पीछे जमीन का मसला था.

किसी एक दलित व्यक्ति का झगड़ा अगर गैर दलित से होता है तो निशाने पर समूची दलित बस्ती ले ली जाती है. विवाद में शामिल दलित अपने पूरे जाति समुदाय का प्रतिनिधि मान लिया जाता है. बदला एक से न लेकर समूचे मोहल्ले से लिया जाता है

पिछली शताब्दी के सातवें दशक में गांव के दलित बस्ताराम मेघवाल ने 23 बीघे जमीन गांव के ही एक जाट परिवार को रेहन पर दी थी. बस्ताराम के वारिस रतनाराम ने जब यह जमीन वापस मांगी तो उन्हें दुत्कार दिया गया. बाध्य होकर उन्होंने अदालत की शरण ली. 1997 में दीवानी न्यायालय से पहली बार नोटिस जारी हुआ. फिर हाल ही में अदालत का फैसला रतनाराम के पक्ष में आया. यह दबंगों को नागवार गुजरा. उन्होंने दुस्साहसी दलित परिवार को सबक सिखाने के लिए ऐसी नृशंसता की. प्राप्त जानकारी के अनुसार इस गांव में दलितों की लगभग एक हजार बीघे जमीन दबंगों के कब्जे में है. दहशत का माहौल बनाने के लिए इस हत्याकांड को अंजाम दिया गया. मकसद था कि एक परिवार का हश्र देखकर गांव के शेष दलित अपनी जमीन वापस मांगने की जुर्रत नहीं करेंगे. पूरे घटनाक्रम में पुलिस की भूमिका अत्यंत संदिग्ध रही. वह साफ तौर से हमलावरों के पक्ष में खड़ी दिखी. हमले के दिन खबर मिलने के बावजूद थाने से 20 मिनट का रास्ता तय करने में उसने करीब दो घंटे लगाए. पहुंची तब जब हमलावर अपना काम करके जा चुके थे. अस्पताल में जब दलितों पर हमला हुआ तो पुलिस वहीं मौजूद थी, मगर मूकदर्शक बनी रही. पुलिस का यही रवैया दलित उत्पीड़न के हर मामले में दिखता है. गोहाना कांड में लूटपाट और आगजनी में हमलावरों को ढाई-तीन घंटे लगे. गोहाना से सोनीपत, पानीपत और रोहतक लगभग समान दूरी पर हैं. दमकल की गाड़ी को गोहाना तक पहुंचने में आधे से एक घंटे लगते हैं. मगर तीनों दमकल केंद्रों से गाड़ियां तब पहुंची जब लूटपाट हो चुकी थी और सारे मकान जल चुके थे. पुलिस को इस हमले के बारे में पहले से सूचना भी थी. मिर्चपुर कांड के दौरान पुलिस घटनास्थल पर ही तैनात थी. तब भी उसने कोई कार्यवाही नहीं की. सालवन में भी यही दोहराया गया. लगभग 300 झोपड़ियां और मकान लूटे गए, जलाए गए और प्रशासन देखता रहा.

दलित दमन की घटनाओं में एक और बात गौर करने लायक है. किसी एक दलित व्यक्ति का झगड़ा अगर गैर दलित से होता है तो निशाने पर पूरा दलित समुदाय, समूची दलित बस्ती ले ली जाती है. विवाद में शामिल दलित अपने पूरे जाति समुदाय का प्रतिनिधि मान लिया जाता है. बदला एक से न लेकर समूचे मोहल्ले को सबक सिखाया जाता है. जाति आधारित हिंसा के मामलों में पुलिस प्रशासन की भूमिका इतनी बार जाहिर हो चुकी है कि दलित आसान शिकार मान लिए गए हैं. पुलिस एफआईआर लिखने में आनाकानी करती है. रिपोर्ट लिखी भी तो तथ्यों और सूचनाओं को दबंगों के हित में यथासंभव तोड़-मरोड़ दिया जाता है. इससे आगे न्याय पाने का रास्ता अवरूद्ध रहता है. दलित उत्पीड़न के मामलों में दोषसिद्धि की दर चिंताजनक रूप से निम्न है.

एक और बात विचारणीय है. उत्पीड़न के तमाम मामलों का विश्लेषण करें और उत्पीड़कों की वास्तविक जाति की शिनाख्त करें तो पाएंगे कि इस समाज की प्रायः सभी जातियां दलितों के विरूद्ध हैं. शास्त्रीय शब्दावली में माना जाता रहा है कि दलितों के उत्पीड़क त्रैवर्णिक (ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य) हैं. इधर की घटनाएं साबित करती हैं कि जो जाति समुदाय चौथे वर्ण में आते हैं, वे भी दलितों पर हिंसा करने में पीछे नहीं हैं. ओडिशा के बालंगीर जिले के लाठोर कस्बे में जनवरी 2012 में दलित बस्ती पर हमला हुआ. लूटने के बाद बस्ती में आग लगा दी गई. गैस सिलेंडर में विस्फोट करके छत उड़ा दी गईं. लगभग 40 घर तबाह हो गए. यह दलित बस्ती सुना जाति की है. हमलावर मेहर जाति के लोग थे जो ओबीसी श्रेणी में आते हैं. झगड़ा बहुत मामूली बात पर शुरू हुआ. एक दलित लड़का मेहर जाति की दुकान पर शर्ट खरीदने गया. वहां दुकानदार से उसकी बक झक हो गई. उसी का बदला लेने के लिए इतना बड़ा हमला किया गया. इस हमले की भनक दलित बस्ती को लग गई थी, इसलिए इसमें हताहत तो कोई नहीं हुआ मगर आर्थिक तबाही ऐसी हुई कि वर्तमान स्थिति तक आते-आते दलितों को एक दशक से कम नहीं लगेगा. कुछ ऐसा ही खौफनाक मंजर तमिलनाडु के धर्मपुरी जिले में नजर आया. यहां नवंबर 2012 में नायकनकोट्टाइ के तीन गांवों पर एक साथ हमला किया गया. परैयार दलितों के लगभग 500 घर लूटे गए और करीब साढ़े तीन सौ मकानों को आग के हवाले कर दिया गया. यहां भी हमला तकनीकी रूप से अति पिछड़ी जाति (मोस्ट बैकवर्ड कास्ट-एमबीसी) वन्नियार ने किया. मसला अंतरजातीय विवाह का था. दलित युवक इलावरासन और वन्नियार युवती दिव्या ने आपसी सहमति से शादी कर ली. यह बात वन्नियारों को सह्य नहीं थी. उन्होंने दलितों को सबक सिखाने के लिए ऐसी साजिश रची कि वे अगले दो दशकों तक शायद ही अपनी आर्थिक हालत ठीक कर सकें.

दलितों के उत्पीड़न की मीडिया में चर्चित ये कुछ-एक बानगियां थीं. छोटे-छोटे जातिवादी हमलों और वैयक्तिक हिंसा के मामले अखबारों के पन्ने पर रोज देखे जा सकते हैं. अगर हम सचमुच डॉ. आम्बेडकर और उनके रचे संविधान के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना चाहते हैं तो इस अनवरत क्रूरता को तत्काल रोकने के उपाय ढूंढने होंगे.

(लेखक वरिष्ठ आलोचक और चिंतक हैं)

हरियाणाः दलितों की कब्रगाह

Bhagana Rape Protest by Vijay Pandeygggg
फोटोः विजय पांडेय

23 मार्च, 2014 को हरियाणा के हिसार जिले में भगाना गांव की चार दलित लड़कियों के साथ कथित रूप से गैंगरेप किया गया. लगभग डेढ़ साल बीत चुका है लेकिन कथित आरोपियों को सजा मिलनी अभी बाकी है. हिसार की स्थानीय अदालत ने सभी आरोपियों को बरी कर दिया है. गांव के दलित अपना विरोध जारी रखे हुए हैं लेकिन सरकार ने इस ओर से अपने कान बंद कर लिए हैं और न्याय तंत्र में भी उनके पक्ष की कोई सुनवाई नहीं हो रही है.

हिसार शहर से 10 किमी. दूर स्थित भगाना हरियाणा का पारंपरिक बसावट वाला ऐसा गांव है जहां बड़ी संख्या में प्रभावशाली जाट समुदाय के लोग रहते हैं. जाट समुदाय के लोग गांव के बीचोबीच में रहते हैं और सीमांत पर दलित समुदाय के लोग रहते हैं. वर्तमान सरकार और पिछली सरकारों की सारी योजनाओं में इन भेदभाव भरे जाति संबंधों को बदलने की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया है. अब भगाना उस जाति आधारित हिंसा का केंद्र बन चुका है जो हरियाणा और उत्तर भारत के अन्य हिस्सों में उभर रही है.

भगाना गैंगरेप की पीड़िताएं और उनके परिवार अब खौफ के माहौल में जी रहे हैं क्योंकि कथित बलात्कारी खुलेआम घूम रहे हैं. पीड़ितों की न्याय की मांग को नकार कर व्यवस्था ने एक प्रकार से गांव में जातिगत भेद को और पुख्ता कर दिया है. गांव के दलितों के अनुसार उच्च जाति के लोग दलित लड़कियों को अब भी छेड़ते हैं. इस कारण से दलित लड़कियां दिन ढलने के बाद घर से निकलने का साहस नहीं कर पातीं. 14 वर्षीय शांति (बदला हुआ नाम) ने लंबे वक्त तक दोषियों को सजा मिलने का इंतजार किया लेकिन अब उन्हें न्याय की उम्मीद कम ही है. ‘शुरुआत में मैं लड़ने के लिए दृढ़ थी और मुझे लगता था कि मैं उन्हें (दोषियों को) जेल भेज कर रहूंगी. लेकिन अब मैं टूट चुकी हूं और उम्मीद खो चुकी हूं. बलात्कारी खुलेआम घूम रहे हैं और मेरी जिंदगी नरक बनकर रह गई है, क्यों? क्योंकि मेरा बलात्कार हुआ है?’ ये कहते हुए वह रो देती हैं. उनकी मां बताती हैं कि न्याय के लिए उन्होंने कितना संघर्ष किया. ‘जो कर सकते थे, हमने वह सब किया. हमने राष्ट्रीय महिला आयोग से भी संपर्क किया और सोनिया गांधी के पास भी गए, लेकिन कुछ नहीं हुआ. यहां तक कि राष्ट्रीय महिला आयोग ने तो हमारा मामला अपने पास लेने से ही इंकार कर दिया.’

दलितों की लड़ाई बराबरी और सम्मानजनक जीवन के लिए है. ऊंची जातियों के जानवर जिस तालाब से पानी पीते हैं, उसी से दलितों के जानवर भी पानी पी सकें, लड़ाई इस हक की है

शांति का परिवार अब उम्मीद खो चुका है. बहरहाल, कुछ अन्य दलितों ने संवेदनहीन और निष्ठुर व्यवस्था के खिलाफ लड़ने का निर्णय लिया है. गांव में दलितों के घरों की दीवारों पर आप डॉ. आम्बेडकर के चित्र लगे हुए देख सकते हैं. बच्चे नमस्ते नहीं बल्कि ‘जय भीम’ से आपका स्वागत करते हैं. बलात्कार के समय से ही गांव के दलित कार्यकर्ता विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. जब न्यायतंत्र से निराशा हाथ लगी तो इन कार्यकर्ताओं ने सरकार और व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष के लिए विभिन्न मंचों का गठन किया. ऐसा ही एक मंच दिल्ली में है और एक हिसार में है. ऊंची जातियों की हिंसा के खिलाफ प्रदर्शन के परिणाम गंभीर होते हैं. छोटे-छोटे आरोपों में दलित कार्यकर्ताओं को उठाकर जेल में बंद कर दिया जाता है. उन पर लकड़ी चुराने से लेकर देशद्रोह तक के मामले दर्ज कर दिए जाते हैं. यहां तक कि विरोध करने वाले परिवारों को गांव से बाहर भी खदेड़ दिया जाता है. इन दलित कार्यकर्ताओं का कहना है कि राज्य और ऊंची जातियां उनके संघर्ष को खत्म करना चाहती हैं ताकि उन्हें हर रोज होने वाले शोषण का शिकार बनाया जा सके. कार्यकर्ताओं ने अपनी शिकायतें बहुत से मंत्रियों और राज्य अधिकारियों को भेजी हैं लेकिन उन्हें वादों के अलावा कुछ नहीं मिला है.

जब लगातार की जाने वाली अपील और प्रदर्शनों का कोई फायदा नहीं हुआ तो दलित कार्यकर्ताओं ने कुछ ऐसा किया जिससे जाति आधारित पूरी व्यवस्था के दोहरे चेहरे से नकाब उतर गया. अपने प्रदर्शन को अंतिम रूप देते हुए भगाना के दलित परिवारों ने नई दिल्ली में जंतर-मंतर पर धरना देने के दौरान घोषणा की कि वे सभी इस्लाम धर्म अपना रहे हैं. जो मामला पिछले दो वर्ष में लगभग भुलाया जा चुका था, इस घोषणा के साथ अचानक राजनीतिक संगठनों और मीडिया, दोनों के लिए आकर्षण का केंद्र बन गया. धर्म परिवर्तन को जबरन रोकने के लिए एक ओर विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता वहां पहुंच गए, दूसरी ओर खुद को पाक साफ बचाने के उद्देश्य से दिल्ली पुलिस भी वहां पहुंच गई और कार्यकर्ताओं को अपना प्रदर्शन खत्म करने के लिए कहा.

इन दलित परिवारों द्वारा धर्म परिवर्तन की घोषणा ने पूरी व्यवस्था के संवेदनहीन रुख को उजागर किया है. लेकिन पुलिस ने हिंदुत्व के स्वनियुक्त संरक्षक की तरह व्यवहार किया और उन लोगों पर झपट पड़ी जो एक दूसरे धर्म को चुनकर शोषक सामाजिक व्यवस्था की जकड़न से बाहर आना चाह रहे थे. पुलिस और धार्मिक संगठनों की ये आवाजें हालांकि तब आगे नहीं आईं जब भगाना में इन दलित परिवारों के साथ अमानवीय हिंसा की जा रही थी. यह सब कुछ लोकतंत्र के गढ़ राजधानी दिल्ली में हुआ. इस पूरे वाकये से एक सवाल उपजता है- क्या राज्य केवल एक मूकदर्शक है या फिर वह अब जातिवाद को पुष्ट करने की भूमिका में आ गया है?

सतीश, जो कि अब अब्दुल कलाम के नाम से जाने जाते हैं, न्याय की इस लड़ाई में लगातार आगे रहे हैं. उसका कहना हैं, ‘अपने समुदाय को ऊपर उठाने के संघर्ष के लिए मैंने सब कुछ छोड़ दिया है. मैंने हमारे महान नेता अाम्बेडकर के रास्ते पर चलने का फैसला किया है. मुझे उम्मीद है कि अगर हम लगातार संघर्ष करते रहे तो हमें इस व्यवस्था से एक दिन न्याय जरूर मिलेगा.’ अब्दुल कलाम की आंखों में एक गहरा निश्चय दिखाई देता है. उनका मानना है कि लगातार संघर्ष करते रहने के परिणामस्वरूप कुछ बदलाव आ रहे हैं. ‘मुझे पूरी उम्मीद है कि अगर हम अपनी लड़ाई बीच में न छोड़ें तो हमारी जीत होगी और दोषियों को सजा मिलेगी.’

भगाना के दलितों की लड़ाई सिर्फ बलात्कारियों को सजा दिलाने की लड़ाई तक सीमित नहीं है. लड़ाई में कहीं बड़े मुद्दे भी शामिल हैं. जैसे गांव की सामूहिक जमीन पर जाटों के कब्जे का मामला. शिकायत के बावजूद पुलिस ने इस बारे में कुछ भी नहीं किया. यह लड़ाई खाप पंचायतों द्वारा दलितों के सामाजिक बहिष्कार के खिलाफ भी है. ऊंची जातियों के जानवर जिस तालाब से पानी पीते हैं, उसी तालाब से दलितों के जानवर भी पानी पी सकें, इस हक के लिए लड़ाई है. दूसरे शब्दों में दलितों की लड़ाई बराबरी और सम्मानजनक जीवन के लिए है.

दिल्ली, जिसे प्रगति, विकास और आधुनिकता का गढ़ माना जाता है, वहां से भगाना गांव तक की दूरी तीन घंटे में तय की जा सकती है. हालांकि ग्रामीण हरियाणा की जातिगत हिंसा का यह किस्सा दिल्ली के सामान्य नागरिक को पिछड़े हुए समुदायों का बर्बर व्यवहार लगेगा. लेकिन हरियाणा में होने वाली यह एकमात्र घटना हो, ऐसा नहीं है. इस तरह की खबरें इफरात में सामने आ रही हैं. हाल ही में फरीदाबाद के सुनपेड गांव में दलित जाति के दो बच्चों को ऊंची जाति के लोगों द्वारा जिंदा जला दिया गया. इसी तरह हिसार के बाठला गांव में ऊंची जाति के लोगों ने एक दलित व्यक्ति को पेड़ से लटका कर मार दिया. दिल्ली से महज दो घंटे की दूरी पर सोनीपत के गोहाना गांव में 14 वर्ष का दलित लड़का रहस्यमय परिस्थितियों में मृत पाया गया. पुलिस ने उसे कबूतर चोरी के आरोप में गिरफ्तार किया था. इस तरह की घटनाओं की सूची लंबी होती जा रही है.

जाति आधारित हिंसा की खबरें हर रोज आती हैं. कुछ सुर्खियां बनती हैं तो कुछ खो जाती हैं. हिसार से 20 किमी. दूर बाठला की घटना सुनपेड की घटना की तरह राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित नहीं हो पाई

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों पर नजर डालें तो पिछले एक वर्ष में हरियाणा में जाति आधारित हिंसा तेजी से बढ़ी है. दो दलित बच्चों को जिंदा जलाए जाने की हाल की घटना हमें मिर्चपुर की दिल दहलाने वाली घटना की याद दिला देती है. 21 अप्रैल, 2010 को दलितों की पूरी बस्ती को ऊंची जाति के लोगों द्वारा आग के हवाले कर दिया गया था. इस घटना के बाद मिर्चपुर के दलित पलायन करके हिसार में आ गए. अधिकांश दलित परिवार दबंग जाट जाति के खेतों में काम करते थे. इस पलायन के परिणामस्वरूप इन दलित परिवारों का पूरा आर्थिक आधार ही चरमरा गया. अपनी जड़ें छोड़कर हिसार आ बसने पर इन्हें लंबे समय तक कोई काम नहीं मिला और इन्हें दूसरों से मिलने वाली आर्थिक मदद पर निर्भर रहना पड़ा. दूसरी ओर जाटों को उत्तर प्रदेश और बिहार से आए सस्ते मजदूर मिल गए. मिर्चपुर में भी भगाना की तरह दलित परिवार की महिलाओं के साथ ऊंची जाति के लोगों द्वारा बदसलूकी की जा रही थी. जब दलित समुदाय ने इसके खिलाफ आवाज उठाई तो उनकी बस्ती को जला कर राख कर दी गई. मिर्चपुर के दलित अब एकदम जीर्ण-शीर्ण अस्थायी कैंप में रह रहे हैं. टेंटों में जगह-जगह पानी जमा हो जाने से बीमारियों का खतरा बना रहता है. हालांकि, इस बस्ती को पुलिस सुरक्षा दी गई है, क्योंकि हिसार के कामरी रोड पर बसी इस बस्ती में मिर्चपुर कांड के बहुत से चश्मदीद गवाह भी रहते हैं. 55 वर्ष के सत्यवान कहते हैं, ‘सवाल केवल यही नहीं है कि हम कभी अपने घरों को नहीं लौटेंगे, बल्कि मुद्दा यह है कि व्यवस्था से हमारा भरोसा उठ चुका है. हमने कितनी ही बार पुलिस से सहायता मांगी है, लेकिन कोई फायदा नहीं.’ अपने आंसू रोकते हुए वे कहते हैं, ‘अपनी जगह के साथ हमारी यादें जुड़ी हुई हैं, हम वहां बड़े हुए हैं..लेकिन आज हम भिखारियों की तरह रह रहे हैं.’

IMG_8039gggg

कैंप में रहने वाली एक महिला बहुत आशंकित होकर यह सवाल करती है कि क्या इन अफवाहों में कोई सच्चाई है कि आरक्षण खत्म कर दिया जाएगा. ऐसा प्रतीत होता है कि मोहन भागवत के हालिया बयान ने यहां हरियाणा के इस कैंप तक पर असर डाला है. इन लोगों की दुर्दशा बताती है कि मिर्चपुर हत्याकांड को भुला दिया गया है. जाति आधारित हिंसा की खबरें हर रोज आती हैं. कुछ सुर्खियां बनती हैं तो कुछ छोटी सी जगह में सिमट कर खो जाती हैं. हिसार से 20 किमी. दूर बाठला की घटना सुनपेड की घटना की तरह राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित नहीं हो पाई. 8 अक्टूबर को इसी गांव के गुरुचरण को ऊंची जाति के लोगों ने पेड़ से लटका कर मार डाला.

स्थानीय दलित बताते हैं कि गुरुचरण की मौत के एक दिन पहले से कुछ ऊंची जाति के लोग उसका पीछा कर रहे थे. इस परिवार की त्रासदी यहीं नहीं रुकी. गुरुचरण के चाचा बदन सिंह जो इस मामले के चश्मदीद गवाह थे, उन्हें पुलिस स्टेशन बुलाया गया. गांव वाले बताते हैं कि एसीपी जसनदीप सिंह रंधावा द्वारा पूछताछ के बाद बदन सिंह काफी परेशान दिखाई दे रहे थे. गांव वालों का यह भी कहना है कि गुरुचरण के हत्यारों ने बदन सिंह को अपना बयान बदलने के लिए धमकाया था. एक दिन अचानक उन्होंने आत्महत्या कर ली. उसके पास से एक सुसाइड नोट मिला जिसमें लिखा था कि उस पर बयान बदलने के लिए दबाव बनाया गया था. हालांकि, इस सुसाइड नोट की विश्वसनीयता की पुष्टि नहीं हो पाई है.

गांव वालों ने यह भी बताया कि 24 अक्टूबर तक गुरुचरण की हत्या की एफआईआर भी दर्ज नहीं की गई थी. इस कारण उन्होंने एक शांतिपूर्ण प्रदर्शन किया जिसमें वे आधे कपड़े पहने थे. इन प्रदर्शनकारियों के खिलाफ झूठे मामले दर्ज कर लिए गए. ‘तहलका’ ने जब जाटों और पुलिस से संपर्क साधना चाहा तो उन्होंने कोई प्रतिक्रिया देने से इंकार कर दिया.

सोनीपत के गोहाना गांव में 14 वर्षीय एक दलित लड़का कबूतर चोरी के आरोप में पुलिस द्वारा गिरफ्तार करने के बाद रहस्यमय परिस्थितियों में मृत पाया गया. हालांकि पुलिस का कहना है कि लड़का अपने घर में मृत पाया गया है और उनका इस मौत से कोई लेना-देना नहीं है. इस घटना से पुलिस और दलित समुदाय के बीच तनाव बढ़ गया है. गोहाना की घटना के बाद यमुनानगर में 21 वर्षीय दलित युवक को कथित रूप से किसी पुरानी रंजिश के परिणामस्वरूप गांव के पूर्व प्रधान ने जिंदा जला दिया. पुलिस ने इसे प्रथमदृष्टया आत्महत्या का मामला बताया है लेकिन परिवार वालों ने पुलिस की इस कहानी को मानने से इंकार कर दिया है.

हरियाणा और उत्तर भारत के दूसरे हिस्सों में दलितों को इस तरह से निशाना क्यों बनाया जा रहा है? राजनीतिक विज्ञानी रजनी कोठारी की किताब ‘कास्ट एंड इंडियन पॉलिटिक्स’ के प्राक्कथन में बताया गया है कि ‘जहां दलितों के पास जमीन नहीं है, वहां वे अधिक निशाना बनाए जाते हैं.’ भगाना के दलित, जिनके पास जमीन नहीं है, इस वक्तव्य के सटीक उदाहरण हैं. बहरहाल यह विडंबना ही है कि समाज में ऊंच-नीच को कायम रखने के लिए जाति के नाम पर किस तरह आदमी ही आदमी को मौत के घाट उतार रहा है.

‘मैं भी मरूंगा और भारत के भाग्य विधाता भी’

फाइल फोटो
फाइल फोटो
फाइल फोटो

कविता और वास्तविक जीवन दोनों में समान रूप से ‘विद्रोही’ और जनपक्षधर आवाज हमेशा के लिए खामोश हो गई. 58 वर्षीय कवि रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ ने 8 दिसंबर को इस दुनिया से अलविदा कह दिया. वे मंगलवार को पिछले डेढ़ माह से विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के दफ्तर के सामने सरकार की शिक्षा नीतियों के विरोध में हो रहे धरना-प्रदर्शन में शामिल होने पहुंचे थे. दोपहर धरनास्थल पर अचानक उनके शरीर में कंपन हुआ और कुछ देर बाद उनकी सांसें थम गईं. डॉक्टरों ने मृत्यु का कारण ब्रेन डेथ (दिमाग का अचानक काम करना बंद कर देना) बताया है.

धरनास्थल पर मौजूद छात्रों के मुताबिक, कवि विद्रोही मंगलवार को छात्रों के सरकार विरोधी मार्च में शामिल होने पहुंचे थे लेकिन ​तबियत कुछ खराब लगी तो मार्च में शामिल न होकर धरनास्थल पर ही लेट गए. दोपहर दो बजे के आसपास उनके शरीर में अचानक कंपकंपी होने लगी. कुछ देर बाद ही उनकी नब्ज बंद हो गई. उन्हें तुरंत अस्पताल ले जाया गया, जहां डॉक्टरों ने उनकी मृत्यु की पुष्टि की.

देर रात उनका शव एलएनजेपी अस्पताल के पीछे शवदाहगृह में रखवाया गया है. बुधवार को लोदी रोड​ स्थित शवदाहगृह में उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा. उनके परिजनों को सूचना दे दी गई है.
विद्रोही उपनाम से कविता लिखने वाले रमाशंकर यादव बीते दो दशकों से  जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) परिसर में ही रहते थे. जेएनयू के शोधार्थी ताराशंकर ने दुख व्यक्त करते हुए कहा, ‘विद्रोही हमारे समय के वास्तविक जनकवि थे. और देखिए ‘आसमान में धान बोने वाला’ ये निर्भीक कवि गया भी तो संघर्ष करते हुए.’
इस दौर में वे ऐसे कवि थे जो आजीवन सिर्फ कविता ‘कहता’ रहे. उन्होंने कभी अपनी कविताओं को लिपिबद्ध नहीं किया. अपनी सारी कविताएं उन्हें जुबानी याद थीं. यह फक्कड़ कवि जेएनयू के छात्रों और तमाम कविता प्रेमियों के बीच बेहद लोकप्रिय रहे.
उनकी एक प्रसिद्ध कविता-
मैं भी मरूंगा
और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूं- आराम से
उधर चल कर वसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा’

‘मैं इंदिरा गांधी की बहू हूं, मैं किसी से नहीं डरती’

FB photo 34ggg

मामले में भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका पर दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने सोनिया और राहुल को निजी तौर पर पेशी के लिए समन भेजा था जिसे उन्होंने दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती दी थी. लेकिन दिल्ली हाईकोर्ट ने दोनों को कोई राहत न देते हुए अदालत में पेश होना का आदेश दिया था. नेशनल हेराल्ड अखबार पर मालिकाना हक एसोसिएट्स जर्नल्स लिमिटेड (एजेएल) का है. कांग्रेस ने 26 फरवरी 2011 को एजेएल की 90 करोड़ रुपये की देनदारी का जिम्मा अपने ऊपर ले लिया. जिसके बाद पार्टी ने एजेएल को 90 करोड़ रुपये का कर्ज दिया और फिर 5 लाख रुपये की पूंजी वाली यंग इंडियन कंपनी बनाई. इसमें सोनिया और राहुल की 38-38 प्रतिशत की हिस्सेदारी थी. बाकी 24 फीसदी की हिस्सेदारी कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मोतीलाल वोरा और ऑस्कर फर्नांडीस के पास है.

बाद में एजेएल के 10-10 रुपये के 9 करोड़ शेयर यंग इंडियन कंपनी को दे दिए गए जिसके बदले उसे कांग्रेस का कर्ज चुकाना था. 9 करोड़ शेयर के साथ यंग इंडियन कंपनी की एजेएल में हिस्सेदारी 99 फीसदी हो गई. इसके बाद कांग्रेस पार्टी ने टीजेएल का 90 करोड़ रुपये का लोन माफ कर दिया. ऐसा करने से यंग इंडियन कंपनी को मुफ्त में ही एजेएल का मालिकाना हक मिल गया. इसका मतलब ये हुआ कि मुफ्त में यंग इंडियन कंपनी को एजेएल का मालिकाना हक मिल गया. भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने इन 90 करोड़ रुपये के मामले में हवाला कारोबार का शक जताया है.

स्वामी ने आरोप लगाया है कि ये सब दिल्ली में बहादुर शाह जफर मार्ग स्थित हेराल्ड हाउस की 1600 करोड़ रुपये की संपत्ति पर कब्जा करने के लिए किया गया है. स्वामी की याचिका के मुताबिक साजिश के तहत जानबूझकर यंग इंडियन कंपनी को एजेएल की संपत्ति पर मालिकाना हक दे दिया गया. उनका कहना है, ‘हेराल्ड हाउस को केंद्र सरकार ने अखबार चलाने के लिए संपत्ति दी थी इसलिए उसका व्यावसायिक इस्तेमाल नहीं किया जा सकता.’ इस मामले पर मंगलवार को संसद में कांग्रेस सांसदों ने जमकर हंगामा किया. कांग्रेस और राहुल गांधी ने मोदी सरकार पर बदले की राजनीति के तहत कार्रवाई करने का आरोप लगाया है. वहीं भाजपा का कहना है कि मामला कोर्ट में है और उसका इससे कोई लेना-देना नहीं है.

नेहरू ने शुरू किया था नेशनल हेराल्ड

नेशनल हेराल्ड नाम के अंग्रेजी समाचार पत्र की स्थापना 9 सिंतबर 1938 को लखनऊ में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने की थी. इसका मालिकाना हक एसोसिएट्स जर्नल्स लिमिटेड के पास था जो कौमी आवाज (उर्दू), नवजीवन (हिंदी) अखबार भी निकालती थी. आजादी के बाद नेशनल हेराल्ड कांग्रेस का मुखपत्र समझा जाता था जिसमें नेहरू संपादकीय लेख लिखा करते थे. शुरू से ही इस अखबार को वित्तीय घाटे का सामना करना पड़ा और 1940 और 1970 में कुछ समय के लिए बंद भी करना पड़ा था. घटते सर्कुलेशन के कारण अंततः ये अखबार 2008 में बंद हो गया.

दक्षिण में दलित दमन

DSC_7252hhhh

23 अक्टूबर की सुबह मध्य कर्नाटक के देवनगर में स्थित अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति के हॉस्टल में पत्रकारिता के विद्यार्थी हुचंगी प्रसाद से मिलने एक अनजान आदमी पहुंचा.

उस अनजान आदमी ने प्रसाद को बताया कि उसकी मां को दिल का दौरा पड़ा है और उसे अस्पताल में भर्ती किया गया है. अजनबी ने प्रसाद से कहा कि वह उसे मां के पास ले जाने के लिए आया है. लेकिन यह एक साजिश थी. उस आदमी के साथ जाने पर हुचंगी प्रसाद को 10-12 हुड़दंगियों की भीड़ ने रास्ते में रोका और धमकाया. प्रसाद का अपराध यह था कि उन्होंने एक वर्ष पहले जाति व्यवस्था के बारे में एक ‘विवादास्पद’ किताब लिखी थी जिस पर इन हिंदुत्ववादी हुड़दंगियों की नजर हाल ही में पड़ी.

प्रसाद बताते हैं, ‘हमला करने वाले मेरी किताब को हिंदू विरोधी कहते हुए मुझे धकिया रहे थे, क्योंकि मैंने किताब में देवनगर में जाति व्यवस्था के तहत हो रहे अन्याय के बारे में लिखा था. उन्होंने चाकू बाहर निकाल कर मुझे यह कहते हुए धमकाने लगे कि वे मेरी उंगलियां काट डालेंगे, ताकि मैं कभी न लिख सकूं.’ प्रसाद किसी तरह उन हमलावरों से बचकर जंगल की तरफ भाग निकले. बचते बचाते अपने हाॅस्टल पहुंचे और पुलिस में शिकायत दर्ज की.

यह घटना लेखक एमएम कलबुर्गी की हत्या के तीन महीने बाद और उनके निवास स्थान से महज 100 किमी. की दूरी पर घटी. उत्तर भारत में दलितों पर लगातार बढ़ते हमलों की गूंज अब दक्षिण के कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों में भी पहुंचने लगी है. कुछ राजनीतिक विश्लेषक इसे केंद्र में सत्ता बदलने के साथ राजनीतिक वातावरण बदलने के परिणाम के रूप में देखते हैं.

राष्ट्रीय अपराध रिकाॅर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2013 में अनुसूचित जातियों के विरुद्ध अपराध की संख्या 39,408 थी जो वर्ष 2014 में 47,064 हो गई. जबकि वर्ष 2012 में यह संख्या 33,655 थी और वर्ष 2011 में भी लगभग यही थी. इसके अलावा वर्ष 2013 में जहां 676 दलितों की हत्या हुई वहीं पिछले वर्ष दलितों की हत्या की संख्या बढ़कर 744 हो गई. आंकड़ों की इस राष्ट्रीय तस्वीर में दक्षिण भारत का योगदान बढ़ता ही जा रहा है. जातिगत भेदभाव से संबंधित प्रथाओं के संदर्भ में तमिलनाडु और कर्नाटक की स्थिति एक जैसी है. कहीं खुले और कहीं दबे रूप में हाेटलों और चाय की दुकानों में अलग गिलास रखने से लेकर मंदिरों में प्रवेश पर पाबंदी और आॅनर किलिंग तक जातिगत भेदभाव काफी गहरा है. इन ‘छुपी हुई अस्पृश्य प्रथाओं’ के कारण दलित खुद को मुख्यधारा के सार्वजनिक जीवन से काट कर रखते हैं ताकि उन्हें अपमानित न होना पड़े.

दलितों को जमीन और रोजगार की गारंटी के संबंध में सरकारों द्वारा किए गए वादे अक्सर अधूरे ही रह जाते हैं. दलितों द्वारा जमीन के लिए या फिर अपने अधिकारों के लिए किए गए दावे का अर्थ आज भी दबंग जातियों की ओर से मुसीबत को बुलावा ही होता है. दबंग जातियों से संबंधित अपराधियों को सजा देने में प्रशासन अक्सर नाकाम रहता है, परिणामस्वरूप दबंग जातियों के हौसले बढ़ते जाते हैं और दलितों पर हमले तेज हो जाते हैं.

तमिलनाडु में दलित जब-तब उच्च जातियों के कोप का भाजन बनते रहते हैं. यह राज्य उन शीर्ष पांच राज्यों में शामिल है, जहां बीते पांच वर्ष में ज्यादा जातीय हिंसा हुई

बंगलुरु के सामाजिक चिंतक मोहम्मद तहसिन बताते हैं, ‘दक्षिण कन्नड़, उडुपि, हासन, मंड्या और चित्रदुर्गा में ब्राह्मणवादी वर्चस्व ज्यादा है, परिणामस्वरूप जाति व्यवस्था की जकड़न भी मजबूत है. सारे राज्य में आप देखेंगे कि दलित गांव से अलग एक बस्ती में बसे हैं.’

तमिलनाडु में दलित कुल जनसंख्या का 21 प्रतिशत हैं और जब तब उच्च जातियों के कोप का भाजन बनते रहते हैं. यह राज्य उन शीर्ष पांच राज्यों में शामिल है, जहां बीते पांच वर्ष में सबसे ज्यादा जातीय हिंसा हुई है. द्रविड़ राजनीति न केवल दलितों के हितों की रक्षा करने में नाकाम रही है बल्कि इसने अन्य पिछड़ा वर्ग और दलितों के बीच भी गहरी खाई बना दी है. अतीत की ब्राह्मण विरोधी चेतना ने धीरे-धीरे दलित विरोधी चेतना को भी हवा दी है. वोट पर नजर गड़ाए द्रविड़ पार्टियों के जातिगत मुद्दों पर अपनी आवाज नर्म करने के साथ ही अनेक जातीय समूह कुकुरमुत्ते की तरह उग आए जिनका उद्देश्य ऊंची जातियों की तथाकथित ‘शुद्धता’ को बचाए रखना है.

दलितों के राजनीतिक और नागरिक अधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था ‘एविडेंस’ के प्रबंधन निदेशक ने ‘तहलका’ को बताया, ‘तमिलनाडु में कम से कम 230 प्रकार की अस्पृश्यता प्रचलन में है. हैरानी की बात है कि सरकार इसे स्वीकार नहीं करती, जबकि पिछले तीन वर्ष में आॅनर किलिंग के 73 मामले दर्ज किए जा चुके हैं.’ तमिलनाडु अनटचेबिलिटी इरेडिकेशन फ्रंट के महासचिव सैमुअल राज कहते हैं, ‘राज्य में भाजपा जातिगत भेदभाव को बढ़ावा न देने को लेकर सावधान रहती है. लेकिन केंद्र में सत्ता में आते ही तस्वीर बदलने लगती है.’ हाल ही में मदुरै में एक सार्वजनिक सम्मेलन में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और स्वदेशी जागरण मंच के अध्यक्ष एस. गुरुमुर्ति ने खुल्लमखुल्ला जाति व्यवस्था को महिमामंडित किया. इस तरह प्रोत्साहन कट्टर जातीय समूहों के हौसले बढ़ाता है और उन्हें संरक्षण भी प्रदान करता है.

जाति व्यवस्था की लोकप्रियता पढ़े-लिखे मोबाइल इस्तेमाल करने वाले नौजवानों में भी अच्छी खासी है, जैसा कि जातिवादी समूहों की सदस्यता से से साफ जाहिर होता है. ऑनर किलिंग के आरोपी युवराज नाम के एक ऐसे ही युवक को पुलिस से घिरे होने के बावजूद भीड़ का जोरदार

स्वागत मिलता है. युवराज पर ऊंची जाति की लड़की से प्रेम करने वाले दलित गोकुल राज की हत्या करने का आरोप है. सैमुअल कहते हैं, ‘पहले सभी पार्टियां जातीय हिंसा की निंदा करती थी. पेरियार, सिंगारवेलार और जीवननांदम जैसे दिग्गज लोग जाति व्यवस्था के सामने चट्टान की तरह खड़े थे. लेकिन अब केवल वामपंथी और दलित आंदोलनों में ही ये मामले उठाए जाते हैं.’

मद्रास इंस्टिट्यूट ऑफ डेवलपमेंटल स्टडीज में कार्यरत एसोसिएट प्रोफेसर सी. लक्ष्मणन का कहना है कि चुनावी लाभ के लिए दबंग जातियों द्वारा दलित आंदोलन में पैदा कर दिए गए मतभेद के कारण भी दलित आंदोलन कमजोर पड़ा. ‘यह भी एक कमजोर कड़ी रही. गैर सरकारी संगठनों ने मुद्दों का वि-राजनीतिकरण किया और लोगों के रोष को ठंडा करने का काम किया. इस तरह जनता के मुद्दों का इस्तेमाल अपने लाभ के लिए किया.’ लक्ष्मणन शिक्षित ‘असंवेदनशील’ मध्यवर्गीय दलित वर्ग की ओर ध्यान दिलाते हुए कहते हैं, ‘मुफ्त चीजें बांटने की राजनीतिक संस्कृति ने मतदाताओं के सोचने के तरीके को बदला और उन्हें अदूरदर्शी जनता में तब्दील कर दिया.’

मई माह में चित्रलेखा नाम की दलित आॅटो रिक्शा ड्राइवर ने केरल में कन्नूर जिला कलेक्ट्रेट के सामने अपने धरने के 122 दिन पूरे किए. चित्रलेखा को एदत कस्बे में ऑटो स्टैंड को इस्तेमाल करने से रोका गया. चित्रलेखा कहती हैं, ‘उन्हें यह बात स्वीकार नहीं थी कि एक महिला, वो भी एक दलित महिला वही काम करे जो वे करते हैं. इसलिए वे मुझे तंग करते हैं.’

चित्रलेखा के साथ जहां अन्याय हुआ, ठीक वैसे ही एक अन्य दलित महिला उद्यमी सौम्या देवी को केरल के कोची गांव में उद्योग के लिए जगह देने से इंकार कर दिया गया. ऐसा तब है जब सामाजिक परिदृश्य के हिसाब से केरल में अपेक्षाकृत सकारात्मक तस्वीर दिखाई देती है, और जातिगत हिंसा गाहेबगाहे होती है. इसके बावजूद इस तरह की घटनाएं दिखाती हैं कि केरल भी जातिगत भेदभाव से आजाद नहीं है. सामाजिक कार्यकर्ताओं और कुछ विद्वानों का कहना है कि पिछले कुछ वर्षों में राज्य में दलितों के विरुद्ध हिंसा के मामलों में बढ़ोतरी हुई है.

जाने-माने लेखक और डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर रूपेश कुमार बताते हैं कि हालांकि केरल को अन्य दक्षिण राज्यों के समकक्ष नहीं रखा जा सकता लेकिन राज्य के सामाजिक ढांचे में जातीय भेदभाव और हिंसा काफी स्पष्ट तौर पर देखने को मिलती है. कालीकट के पेरामब्रा गांव में गवर्नमेंट वेलफेयर लोअर प्राइमरी स्कूल नाम का एक स्कूल ‘केवल दलितों के लिए’ स्कूल में तब्दील हो चुका है, क्योंकि ऊंची जातियों ने अपने बच्चों को इस स्कूल में दाखिला दिलाना बंद कर दिया है. जब ‘तहलका’ ने इस बारे में खोजबीन की तो पाया कि पिछले 10 वर्ष से परया समुदाय के अलावा किसी अन्य समुदाय के एक भी विद्यार्थी ने इस स्कूल में दाखिला नहीं लिया है.

वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक टिप्पणीकार बीआरपी भास्कर के अनुसार, ‘केरल में वर्तमान में अस्पृश्यता के मामले की शायद ही कोई शिकायत आती हो लेकिन अन्य राज्यों के मुकाबले जातीय भेदभाव अत्यंत परिष्कृत रूप में यहां प्रचलित है. दलित जनसंख्या अनेक संगठनों और नेताओं की अनुयायी है और विभाजित है.  इस तरह वह मुख्यधारा के दलों की पिछलग्गू बनी हुई है. दलित ये महसूस तो करते हैं कि वामपंथी पार्टियों ने उनके हितों की रक्षा नहीं की है, इसके बावजूद अधिकांश अब भी उन्हें ही वोट देते हैं. मुस्लिम नेतृत्व में चल रहीं वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया और सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया दलितों को अपनी ओर खींचने की पुरजोर कोशिश में हैं.’ बहरहाल, राज्य के सत्ता ढांचे में दलितों का प्रतिनिधित्व काफी कम है. वाम तथा अन्य प्रगतिशील संगठनों पर दलित अस्मिता के मुद्दे पर चुप्पी साधने का आरोप जाता है जिसे अंततः वे एक खतरे के रूप में देखते हैं.

‘99 फीसदी लोगों को मालूम ही नहीं कि संविधान किस चिड़िया का नाम है’

kashayap article web

देश के संविधान ने नागरिकों से जो वादे किए थे, जो लक्ष्य रखे थे, उनमें से बहुत सारे पूरे हुए हैं, बहुत कुछ नहीं पूरे हुए. यह बड़ा सवाल है कि उनका विश्लेषण करके देखा जाए कि क्या पूरा हुआ है और क्या नहीं. मोटी सी बात है कि एक पहला वादा यह था कि गरीबी दूर होगी, अशिक्षा दूर होगी, सबको बराबरी का हिस्सा मिलेगा, लेकिन यह सब पूरा नहीं हुआ है. न गरीबी दूर हुई, न अशिक्षा दूर हुई. यह लक्ष्य अभी बहुत दूर हैं. बहुत सारी चीजें हैं जो अभी नहीं पूरी नहीं हो सकी हैं. अगर संविधान और वर्तमान परिस्थितियों का ढंग से विश्लेषण किया जाए तो स्थितियां साफ होंगी.

संविधानसभा में जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि जो संविधान हम बनाने जा रहे हैं, हमें ये आशा है कि उसके सहारे गरीबी दूर होगी, पिछड़ापन दूर होगा, हर एक भारतीय के सर पर छत पर होगी, सबके तन पर कपड़ा होगा. अगर संविधान ये सब नहीं कर सका तो संविधान मेरे लिए कागज के टुकड़े से ज्यादा कुछ नहीं होगा. उस आधार पर अगर जांचें तो असफलता ही असफलता नजर आएगी. लेकिन इस संविधान के अंतर्गत हमारी उपलब्धियां भी बहुत हैं. दोनों ही पक्ष हैं, उपलब्धियां भी हैं, असफलताएं भी हैं.

उन सारे लक्ष्यों को पाने के प्रयास चल रहे हैं. हर सरकार अपने हिसाब से प्रयास करती है. मौजूदा सरकार भी प्रयास कर रही है. और हमें आशा करनी चाहिए कि वह अच्छा कर पाएगी. हमारा देश बहुत बड़ा है, बहुत बड़ी आबादी है, विविधताएं हैं, हितों के संघर्ष हैं, सबको देखते हुए समय लग सकता है लेकिन जो वर्तमान सरकारें हैं, उनकी दिशा ठीक है. देर जरूर लग रही हैं. वर्तमान सरकार से जनता में इतनी आशाएं पैदा हो गई हैं कि सबको लगता है कि देर हो रही है, जल्दी होना चाहिए, बहुत कुछ और होना चाहिए.

संविधान दिवस या आम्बेडकर दिवस मनाया जा रहा है लेकिन केवल दिवस मनाने से कुछ होने वाला नहीं है. हमारे देश में उत्सव मनाने की, भाषण देने की और जलसे करने की प्रवृत्ति बहुत बलवती है लेकिन जब जमीन पर काम करने की बात आती है, वहां हम लोग पिछड़ जाते हैं

लोकतंत्र एक सतत प्रक्रिया है. इसमें ऐसा नहीं कह सकते कि यात्रा का अंत हो गया, ऐसा नहीं हो सकता. यह यात्रा ऐसी है कि चलती रहती है, जब तक लोकतंत्र सुरक्षित है, तब तक हमें आशावान रहना चाहिए.

यह जो सेक्युलरिज्म या समाजवाद जैसे शब्दों को संविधान की प्रस्तावना से हटाने की बातें उठ रही हैं, मैं समझता हूं कि यह कोई मुद्दा नहीं है. इन शब्दों को हटा देने से कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है. पूरे संविधान की मूल भावना ये है कि किसी भी नागरिक के साथ जाति के आधार पर या मजहब के आधार पर किसी तरह का भेदभाव नहीं कहा जा सकता. वर्तमान सरकार की जो नीतियां हैं, वे समाजवादी तो किसी तरह से नहीं हैं. तो उन शब्दों को हटाएं या न हटाएं उनसे कोई फर्क नहीं पड़ता. सवाल यह है कि अगर समाजवाद को आप बेसिक फीचर मानते हैं तो समाजवादी नीतियां होनी चाहिए. समाजवादी नीतियों को तो गुडबाय कह दिया गया है. तो ये शब्द संविधान में पड़े रहें या हटा दिए जाएं, कोई अर्थ नहीं हैं.

संविधान दिवस या आम्बेडकर दिवस मनाया जा रहा है लेकिन केवल दिवस मनाने से कुछ होने वाला नहीं है. हमारे देश में उत्सव मनाने की, भाषण देने की और जलसे करने की प्रवृत्ति बहुत बलवती है लेकिन जब जमीन पर काम करने की बात आती है, वहां हम लोग पिछड़ जाते हैं. आप संविधान की बात कर रहे हैं, संविधान में एक भाग है नागरिकों के मूल कर्तव्य. सबसे पहला मूल कर्तव्य है कि प्रत्येक नागरिक का मूल कर्तव्य होगा कि वह संविधान का अनुसरण करे और संविधान के आदर्शों और संविधान की संस्थाओं का आदर करे. लेकिन हमारे देश में 99 फीसदी लोगों को मालूम ही नहीं है कि संविधान किस चिड़िया का नाम है. क्या संविधान है भारत का, क्या नागरिकों के अधिकार हैं, क्या मूल कर्तव्य हैं. भयंकर सांविधानिक निरक्षरता है. जो पढ़े लिखे लोग हैं, उनमें भी सांविधानिक निरक्षरता है. सबसे पहला काम यह होना चाहिए कि बजाय जलसे करने और भाषण देने के, कोई ऐसी योजना सामने आनी चाहिए कि जिसके द्वारा देश के हर गांव में, हर घर में, हर व्यक्ति को संविधान के बारे में जागरूक किया जाए. सांविधानिक साक्षरता दिवस के रूप में व्यापक आंदोलन चलाया जाना चाहिए.

(लेखक लोकसभा के पूर्व महासचिव व संविधान विशेषज्ञ हैं )

राजनीतिक दलों में दलितों के लिए प्रतिबद्धता की कमी

BSP Muslim Chhatriya Vaishya Sammelan 8gggg

दलितों पर लगातार हमलों के कारण सामाजिक संरचना में ही मौजूद हैं. निचली जातियां जैसे-जैसे बेहतर स्थिति में पहुंचती हैं, जैसे-जैसे उनका सामाजिक-राजनीतिक उभार होता है तो दबंग जातियां सोचती हैं कि निचली जातियां सिर उठा रही हैं इसलिए वे हिंसक प्रतिक्रियाएं देती हैं. ऐसी घटनाओं में राजनीतिक हस्तक्षेप न के बराबर है. दलित जब भी अपने अधिकार को मनवाने का साहस करता है, उस पर हमला होता है. हालांकि, यूपी में यह कम हुआ है. जहां पर राजनीतिक सशक्तिकरण कम है, वहां पर हमले ज्यादा देखने में आते हैं. हरियाणा से दलितों पर हमले की ज्यादा घटनाएं रिपोर्ट होती हैं क्योंकि हरियाणा में गैरबराबरी ज्यादा है. बराबरी के प्रयासों से सवर्ण जातियों को असुविधा होती है, इसलिए वहां ऐसा ज्यादा होता है.

दलितों के विरुद्ध हिंसा की घटनाएं राष्ट्रीय स्तर पर तो बढ़ रही हैं और बढ़ती जाएंगी, लेकिन स्थानीय स्तर पर इसमें कमी देखी जा रही है. जैसे उत्तर प्रदेश में ऐसी घटनाओं में कमी आई है. दलितों पर हमले की प्रवृत्ति बढ़ेगी या घटेगी, यह राजनीतिक प्रतिबद्धता से तय होता है. इस दिशा में राजनीतिक इरादे बहुत अहम हैं, जो कि फिलहाल कमजोर दिख रहे हैं. कोई भी पार्टी दलितों की स्थिति को लेकर प्रतिबद्ध नहीं हैं. दलितों पर कहीं भी हमला होता है तो राजनीतिक पार्टियां लगभग न के बराबर प्रतिक्रिया देती हैं. कई बार तो राजनीतिक दल ऐसे हमलों को प्रोत्साहित करके और बढ़ाने की कोशिश करते हैं. जातिवाद को राजनीतिक दल वोट बैंक के चक्कर में और मजबूती देने की कोशिश करते हैं, जो जगह-जगह दलितों पर हमले और उनके खिलाफ संगठित हिंसा के रूप में दिखता है.

हाल के वर्षों में जनतंत्र ने सत्ता एवं सामाजिक संरचना के पिरामिड में उथल-पुथल मचाई है. जो सामाजिक समूह नीचे रहे हैं, वे ऊपर आए और जो ऊपर रहे हैं वे नीचे गए. हालांकि, ‘भारतीय जनतंत्र’ से ऊंच और नीच को समाप्त कर समानता लाने की अपेक्षा अब भी दूर की कौड़ी ही है. भारतीय समाज एवं राजसत्ता के शीर्ष पर ब्राह्मण और ठाकुर जैसी जातियां लंबे समय से रही हैं. शिक्षा, विकास एवं नेतृत्व से उसका एक तबका आजादी के पहले से ही जुड़ा रहा है. राममनोहर लोहिया की समाजवादी राजनीति के उभार के बाद यादव और कुर्मी जैसी मध्य जातियां एवं उत्तर प्रदेश में कांशीराम की बहुजन राजनीति के उभार के बाद दलित जातियां उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में सत्ता के शीर्ष तक पहुंची हैं.

अस्सी के दशक में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद उभरी राजनीति से आया सामाजिक जलजला समाज के पारंपरिक ढांचे में गुणात्मक परिवर्तन ला चुका है. दलित जातियों का उभार होने की वजह से ऊंची जातियां उनके प्रति आक्रामक होती हैं. ये हमले उसी आक्रामकता का परिणाम हैं. हालांकि, निचली जातियां जहां मजबूत हुई हैं, वहां यह प्रवृत्ति कम हुई है. उत्तर प्रदेश में अब पहले जैसे हालात नहीं हैं. अब वहां अगर दलितों पर हमले होते हैं तो निचली जातियां भी एक हद तक प्रतिक्रिया देती हैं. राजनीतिक और सामाजिक मजबूती ही दलितों के विरूद्ध हिंसा पर अंकुश लगाएगी.

(मेकिंग ऑफ दलित रिपब्लिक के लेखक )

हमारे सामाजिक ढांचे में ही खराबी है

UP Dalit by Shailendra Pandey P (78)hhhh

हर दिन कहीं न कहीं ​दलितों पर क्रूरतापूर्ण हमलों की खबरें आती हैं. आप पूछते हैं कि ऐसा क्यों हो रहा है? दरअसल, हमारे पूरे समाज की संरचना ही ऐसी है कि यहां दलितों पर हमले कोई हैरानी की बात नहीं है. यह होना ही है. सत्ता में भागीदारी बढ़ने के साथ-साथ दलितों पर हमले भी बढ़े हैं. असल में हमने दलितों के सशक्तिकरण की बात तो की, लेकिन जाति को खत्म करने की जगह​ जिंदा रखा. संविधान में भी यह खेल किया गया कि आरक्षण तो मिले लेकिन जाति जिंदा रहे. जाति और धर्म की संरचना को संवैधानिक ढंग से जिंदा रखा गया है. इस पर कोई सवाल नहीं करता. जैसे आजकल कोई गाय की राजनीति पर सवाल नहीं करता, उसका अपने फायदे में कितना भी खतरनाक इस्तेमाल हो. उसी तरह संविधान की संरचना अगर जातिगत व्यवस्था को बनाए रख रही है तो कोई सवाल नहीं उठाता. यह सब ऊंंची जाति के लोगों की चाल थी कि जाति व्यवस्था जिंदा रहे. जाति जब तक जिंदा है, तब तक दलितों के साथ छुआछूत, भेदभाव और हिंसक हमले होते रहेंगे.

आम्बेडकर का मिशन जाति का जड़ से खात्मा था ताकि एक ऐसा समाज बनाया जा सके जो आजादी, बराबरी और भाईचारे पर आधारित हो. लेकिन आम्बेडकर के लिए जितने प्यार का दिखावा किया जाता है, उतनी ही हिकारत उनके सपनों को लेकर बनी हुई है. जातियों को भूल जाइए, जिन्हें संविधान में जज्ब कर दिया गया था और जिन्हें ऊपर से लेकर नीचे तक पूरे समाज को अपनी चपेट में लेना था; छुआछूत जिसको असल में गैरकानूनी करार दिया गया था, अब भी अपने सबसे क्रूर शक्ल में मौजूद है. हाल में कई सर्वे रिपोर्ट में छुआछूत की दहला देने वाली घटनाएं उजागर हुई हैं. असल में छुआछूत जाति का महज एक पहलू है और जातियां बनी रहीं तो छुआछूत भी कभी खत्म नहीं होगी. आम्बेडकर का आजादी, बराबरी और भाईचारे का आदर्श बहुत दूर है और हरेक गुजरते हुए दिन के साथ यह और भी दूर होता जा रहा है. आज भारत की गिनती दुनिया के सबसे गैरबराबरी वाले समाज में होती है! एक जातीय समाज में भाईचारा वैसे भी कल्पना से बाहर की बात है, 1991 के बाद के नए जातीय भारत में तो और भी कल्पनातीत हो गया है.

विकास का ऐसा कोई पैमाना नहीं है, जिसमें दलितों और गैरदलितों (बदकिस्मती से इसमें मुसलमान भी शामिल हैं, जिनकी दशा दलितों जितनी ही खराब है) के बीच की खाई बढ़ी नहीं है. इस खाई की सबसे चिंताजनक विशेषता यह है कि यह पहले चार दशकों के दौरान घटती हुई नजर आई, जबकि नवउदारवादी सुधारों को अपनाने के बाद से यह बड़ी तेज गति से और चौड़ी हुई है. इन नीतियों ने दलितों को कड़ी चोट पहुंचाई है और उन्हें हर मुमकिन मोर्चे पर हाशिये पर धकेला है. अगर उत्पीड़नों को जातीय चेतना के प्रतिनिधि के रूप में लिया जाए तो कोई भी इस नतीजे पर पहुंचने से नहीं बच सकता कि पिछले नवउदारवादी दशकों में जातीय चेतना अभूतपूर्व गति और तेजी से बढ़ रही है.

1968 में तमिलनाडु के किल्वेनमनी में, जहां 44 दलित औरतों और बच्चों को जिंदा जला दिया गया था, वहां दलित हिंसा अपनी नई शक्ल में सामने है. आंध्र प्रदेश (करमचेडु, चुंदरू) के बदनाम अत्याचारों, बिहार के दलित जनसंहारों ने यह साफ है कि राज्य दलितों के खिलाफ जातिवादी अपराधियों को शह दे रहा है. 1996 में बथानी टोला जहां 21 दलितों की हत्या कर दी गई, 1997 में लक्ष्मणपुर बाथे जहां 61 लोगों को काट डाला गया, 2000 में मियांपुर जहां 32 लोग मारे गए, नगरी बाजार जहां 10 लोगों की 1998 में हत्या कर दी गई और शंकर बिगहा जहां 1999 में 22 दलितों का जनसंहार किया गया था. हरियाणा दलितों पर अत्याचार के लिए बदनाम है जहां मिर्चपुर जैसी भयावह घटनाएं हुईं.

ज्यादातर लोग इन समस्याओं का सतही ढंग से आकलन करते हैं, जबकि सतह पर देखने से चीजें साफ नहीं होंगी न ही उनके उपाय हो सकेंगे. हमारे सामाजिक ढांचे में ही खराबी है. संविधान कहता है कि छुआछूत नहीं होनी चाहिए, लेकिन समाज में आज भी छुआछूत जारी है. उसे खत्म नहीं किया जा सका क्योंकि जाति के उन्मूलन की बात ही नहीं हुई. जो उपाय किए गए, वे जाति को जिंदा रखकर किए गए और वही आज भी हो रहा है.

संविधान बनने के बाद शुरुआत में आरक्षण की व्यवस्था इसलिए नहीं की गई थी कि लोग जातीय रूप से पिछड़े हैं, ​बल्कि इसलिए ​की गई ​थी कि वे सामाजिक-आर्थिक ढांचे से बाहर हैं. वे वंचित हैं इसलिए आरक्षण दिया गया था. आम्बेडकर ने जाति उन्मूलन की बात की थी, लेकिन वे असफल रहे. देखिए, आरक्षण दलित-वंचित तबके को आगे बढ़ाने के लिए आवश्यक तो है लेकिन वह कोई पैनाशिया (रामबाण) नहीं है कि सारी समस्याएं उसी से ठीक हो जाएंगी.

संविधान कहता है कि छुआछूत नहीं होनी चाहिए, लेकिन समाज में आज भी छुआछूत जारी है. क्योंकि जाति के उन्मूलन की बात ही नहीं हुई

दलितों की स्थिति सुधारने की दिशा में आरक्षण कोई खास मदद नहीं कर पाया है. आप जायजा लेकर तुलनात्मक अध्ययन कर सकते हैं. दलित समुदाय के लोग जहां थे, वे वहीं हैं. आरक्षण की नूराकुश्ती से उन्हें कोई लाभ नहीं मिला, क्योंकि इस तंत्र की संरचना में खराबी है, जो वंचितों को आगे नहीं आने देती. पहले यह था कि लोग वर्ण व्यवस्था के मुताबिक रहते थे, उनमें छुआछूत आदि तो थी, लेकिन शोषणकारी व्यवस्था के बावजूद समाज एक-दूसरे की मदद पर निर्भर था. जबसे वंचित-दलित तबके पावर शेयरिंग में शामिल होने लगे, ऊंची जातियां आक्रामक होने लगीं. शहरों में हालत उतनी बुरी नहीं है, जितनी गांवों में है. ऊंची जातियों के लोग लगातार दलितों पर हमले कर रहे हैं और राजनीति इसमें कोई अंतर नहीं ला पा रही है. आज के दलित नेता और दलितों की नुमाइंदगी करने वाली पार्टियां बिचौलिया बनकर रह गए हैं. ​दलितों के नाम पर कई पार्टियां बनीं, कई नेता सक्रिय हैं, लेकिन उनसे ज्यादा उम्मीद नहीं दिखती. उत्तर प्रदेश में मायावती और कांशीराम ने अच्छी मंशा के साथ काम किया लेकिन यह तंत्र ऐसा है कि वे लोग कुछ नहीं कर सके. मायावती भी कांग्रेस और भाजपा के बीच उलझकर रह गईं. ​दलित राजनीति भी अभी संघर्ष की हालत में है. उसे तमाम चालबाजियों से निपटना है.

दलित समुदाय के लिए फिलहाल कोई राष्ट्रीय आवाज नहीं है. क्योंकि जब आप कहते हैं दलित तो इसका मतलब कोई एक ​जाति नहीं है. जाति तो चमार है, पासी है, कोयरी है. दलित शब्द उस पूरे समुदाय को संबोधित है जिसके तहत तमाम वंचित जातियां हैं. उनको एकत्र करने की ​आवश्यकता है. एक ऐसा केंद्रबिंदु तैयार किया जाना चाहिए जहां पर दलित समुदाय को मोबलाइज किया जा सके. जहां तक हालात में बदलाव का सवाल है तो हमारा ऐसा मानना है कि बदलाव आएगा. लेकिन वह किसी की वजह से नहीं आएगा. बदलाव समय की मांग है. इसलिए आएगा. नई पीढ़ी ज्यादा प्रगतिशील है और वह तमाम पुराने ढांचों को तोड़ रही है. इसलिए आशा की जानी चाहिए कि समय के हिसाब से जाति खत्म होगी.

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और विचारक हैं)

(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)