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संघ के गले में अटक जाएंगे आम्बेडकर

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राष्ट्र निर्माता के रूप में बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर की विधिवत स्थापना का कार्य 26 नवंबर को संविधान दिवस मनाने की राजपत्र में की गई घोषणा के साथ संपन्न हुआ. संविधान दिवस संबंधी भारत सरकार के गजट में सिर्फ एक ही शख्सियत का नाम है और वह नाम स्वाभाविक रूप से बाबा साहेब का है. बाबा साहेब को अपनाने की भाजपा और संघ की कोशिशों का भी यह चरम रूप है लेकिन क्या इस तरह के अगरबत्तीवाद के जरिए बाबा साहेब को कोई संगठन आत्मसात कर सकता है? मुझे संदेह है.

इस संदेह का कारण मुझे आम्बेडकरी विचारों और उनके साहित्य में नजर आता है.

इस बात की पुष्टि के लिए मैं बाबा साहेब की सिर्फ एक किताब ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ का संदर्भ ले रहा हूं. याद रहे कि यह सिर्फ एक किताब है. पूरा आम्बेडकरी साहित्य ऐसे लेखन से भरा पड़ा है, जो संघ को लगातार असहज बनाएगा. ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ पहली बार 1936 में छपी थी. दरअसल, यह एक भाषण है, जिसे बाबा साहेब ने लाहौर के जात-पात तोड़क मंडल के 1936 के सालाना अधिवेशन के लिए तैयार किया था. लेकिन इस लिखे भाषण को पढ़कर जात-पात तोड़क मंडल ने पहले तो कई आपत्तियां जताईं और फिर कार्यक्रम ही रद्द कर दिया. इस भाषण को ही बाद में ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ नाम से छापा गया.

दूसरे संस्करण की भूमिका में बाबा साहेब इस किताब का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि अगर मैं हिंदुओं को यह समझा पाया कि वे भारत के बीमार लोग हैं और उनकी बीमारी दूसरे भारतीय लोगों के स्वास्थ्य और उनकी खुशी के लिए खतरा है, तो मैं अपने काम से संतुष्ट हो पाऊंगा.

जाहिर है कि बाबा साहेब के लिए यह किताब एक डॉक्टर और मरीज यानी हिंदुओं के बीच का संवाद है. इसमें ध्यान रखने की बात है कि जो मरीज है, यानी जो भारत का हिंदू है, उसे या तो मालूम ही नहीं है कि वह बीमार है या फिर वह स्वस्थ होने का नाटक कर रहा है और किसी भी हालत में वह यह मानने को तैयार नहीं है कि वह बीमार है. बाबा साहेब की चिंता यह है कि वह बीमार आदमी दूसरे लोगों के लिए खतरा बना हुआ है. संघ उसी बीमार आदमी का प्रतिनिधि संगठन होने का दावा करता है. वैसे यह बीमार आदमी कहीं भी हो सकता है. कांग्रेस से लेकर समाजवादी और वामपंथी तक उसके कई रूप हो सकते हैं लेकिन वह जहां भी है, बीमार है और बाकियों के लिए दुख का कारण है.

बीमार न होने का बहाना करता हुआ हिंदू कहता है कि वह जात-पात नहीं मानता. लेकिन बाबा साहेब की नजर में ऐसा कहना नाकाफी है. वे इस सवाल का जवाब ढूंढने की कोशिश करते हैं कि भारत में कभी क्रांति क्यों नहीं हुई. वे बताते हैं कि कोई भी आदमी आर्थिक बराबरी लाने की क्रांति में तब तक शामिल नहीं होगा, जब तक उसे यकीन न हो जाए कि क्रांति के बाद उसके साथ बराबरी का व्यवहार होगा और जाति के आधार पर उसके साथ भेदभाव नहीं होगा. इस भेदभाव के रहते भारत के गरीब कभी एकजुट नहीं हो सकते.

वे कहते हैं कि आप चाहे जो भी करें, जिस भी दिशा में आगे बढ़ने की कोशिश करें, जातिवाद का दैत्य आपका रास्ता रोके खड़ा मिलेगा. इस राक्षस को मारे बिना आप राजनीतिक या आर्थिक सुधार नहीं कर सकते. डॉक्टर आम्बेडकर की यह पहली दवा है. क्या संघ इस कड़वी दवा को पीने के लिए तैयार है? जातिवाद के खात्मे की दिशा में संघ ने पहला कदम नहीं बढ़ाया है. क्या वह आगे ऐसा करेगा? मुझे संदेह है.

डॉ. आम्बेडकर के मुताबिक जाति ने भारतीयों की आर्थिक क्षमता को कुंद किया है. इससे नस्ल बेहतर होने की बात भी फर्जी सिद्ध हुई है क्योंकि नस्लीय गुणों के लिहाज से भारतीय लोग सी3 श्रेणी के हैं और 95 प्रतिशत भारतीय लोगों की शारीरिक योग्यता ऐसी नहीं है कि वे ब्रिटिश फौज में भर्ती हो सकें. बाबा साहेब आगे लिखते हैं कि हिंदू समाज जैसी कोई चीज है ही नहीं. हिंदू मतलब दरअसल जातियों का जमावड़ा है. इसके बाद वे एक बेहद गंभीर बात बोलते हैं कि एक जाति को दूसरी जाति से जुड़ाव का संबंध तभी महसूस होता है, जब हिंदू-मुसलमान दंगे हों. संघ के मुस्लिम विरोध के सूत्र बाबा साहेब की इस बात में छिपे हैं. वह जाति को बनाए रखते हुए हिंदुओं को एकजुट देखना चाहता है, इसलिए हमेशा मुसलमानों का विरोध करता रहता है. दंगों को छोड़कर बाकी समय में हिंदू अपनी जाति के साथ खाता है और जाति में ही शादी करता है.

डॉ. आम्बेडकर बीमार हिंदू की नब्ज पर हाथ रखकर कहते हैं कि आदर्श हिंदू उस चूहे की तरह है, जो अपने बिल में ही रहता है और दूसरों के संपर्क में आने से इंकार करता है. इस किताब में बाबा साहेब साफ शब्दों में कहते हैं कि हिंदू एक राष्ट्र नहीं हो सकते. क्या संघ के लिए ऐसे आम्बेडकर को आत्मसात कर पाना मुमकिन होगा. मुझे संदेह है.

बाबा साहेब यह भी कहते हैं कि ब्राह्मण अपने अंदर भी जातिवाद पर सख्ती से अमल करते हैं. वे महाराष्ट्र के गोलक ब्राह्मण, देवरूखा ब्राह्मण, चितपावन ब्राह्मण और भी तरह के ब्राह्मणों का जिक्र करते हुए कहते हैं कि उनमें असामाजिक भावना उतनी ही है, जितनी कि ब्राह्मणों और गैर ब्राह्मणों के बीच है. वे मरीज की पड़ताल करके बताते हैं कि जातियां एक-दूसरे से संघर्षरत समूह हैं, जो सिर्फ अपने लिए और अपने स्वार्थ के लिए जीती हैं. वे यह भी बताते है कि जातियों ने अपने पुराने झगड़े अब तक नहीं भुलाए हैं. गैर-ब्राह्मण इस बात को याद रखता है कि किस तरह ब्राह्मणों के पूर्वजों ने शिवाजी का अपमान किया था. आज का कायस्थ यह नहीं भूलता कि आज के ब्राह्मणों के पूर्वजों ने उनके पूर्वजों को किस तरह नीचा दिखाया था.

संघ के संगठन शुद्धि का अभियान चला रहे हैं. बाबा साहेब का मानना था कि हिंदुओं के लिए यह करना संभव नहीं है. जाति और शुद्धिकरण अभियान साथ-साथ नहीं चल सकते. इसका कारण वे यह मानते हैं कि शुद्धि के बाद बाहर से आए व्यक्ति को किस जाति में रखा जाएगा, इसका जवाब किसी हिंदू के पास नहीं है. जाति में होने के लिए जाति में पैदा होना जरूरी है. यह क्लब नहीं है कि कोई भी मेंबर बन जाए. वे स्पष्ट कहते हैं कि धर्म परिवर्तन करके हिंदू बनना संभव नहीं है क्योंकि ऐसे लोगों के लिए हिंदू धर्म में कोई जगह नहीं है. क्या भारत का बीमार यानी हिंदू और कथित रूप से उनका संगठन आरएसएस, बाबा साहेब की बात मानकर शुद्धिकरण की बेतुका कोशिशों को रोक देगा? मुझे संदेह है.

अगर कोई हिंदू जाति से लड़ना चाहता है तो उसे अपने धार्मिक ग्रंथों से टकराना होगा. बाबा साहेब कहते हैं कि शास्त्रों और वेदों की सत्ता को नष्ट करो

हिंदू के नाम पर राजनीति करने वाले संगठन यह कहते नहीं थकते कि हिंदू उदार होते हैं. बाबा साहेब इस पाखंड को नहीं मानते. उनकी राय में, मौका मिलने पर वे बेहद अनुदार हो सकते हैं और अगर वे किसी खास मौके पर उदार नजर आते हैं, तो इसकी वजह यह होती है कि या तो वे इतने कमजोर होते हैं कि विरोध नहीं कर सकते या फिर वे विरोध करने की जरूरत महसूस नहीं करते.

बाबा साहेब इस किताब में गैर-हिंदुओं के जातिवाद की भी चर्चा करते हैं, लेकिन इसे वे हिंदुओं के जातिवाद से अलग मानते हैं. वे लिखते हैं कि गैर-हिंदुओं के जातिवाद को धार्मिक मान्यता नहीं है. लेकिन हिंदुओं के जातिवाद को धार्मिक मान्यता है. गैर-हिंदुओं का जातिवाद एक सामाजिक व्यवहार है, कोई पवित्र विचार नहीं है. उन्होंने जाति को पैदा नहीं किया. अगर हिंदू अपनी जाति को छोड़ने की कोशिश करेगा तो उनका धर्म उसे ऐसा करने नहीं देगा. वे हिंदुओं से कहते हैं कि इस भ्रम में न रहें कि दूसरे धर्मों में भी जातिवाद है. वे हिंदू श्रेष्ठता के राधाकृष्णन के तर्क को खारिज करते हुए कहते हैं कि हिंदू धर्म बेशक टिका रहा, लेकिन उसका जीवन लगातार हारने की कहानी है. वे कहते हैं कि अगर आप जाति की बुनियाद पर कुछ भी खड़ा करने की कोशिश करेंगे तो उसमें दरार आना तय है.

अपने न दिए गए भाषण के आखिरी हिस्से में बाबा साहेब बताते हैं कि हिंदू व्यक्ति जाति को इसलिए नहीं मानता कि वह अमानवीय है या उसका दिमाग खराब है. वह जाति को इसलिए मानता है कि वह बेहद धार्मिक है. जाति को मान कर वे गलती नहीं कर रहे हैं. उनके धर्म ने उन्हें यही सिखाया है. उनका धर्म गलत है, जहां से जाति का विचार आता है. इसलिए अगर कोई हिंदू जाति से लड़ना चाहता है तो उसे अपने धार्मिक ग्रंथों से टकराना होगा. बाबा साहेब भारत के मरीज को उपचार बताते हैं कि शास्त्रों और वेदों की सत्ता को नष्ट करो. यह कहने का कोई मतलब नहीं है कि शास्त्रों का मतलब वह नहीं है, जो लोग समझ रहे हैं. दरअसल शास्त्रों का वही मतलब है जो लोग समझ रहे हैं और जिस पर वे अमल कर रहे हैं. क्या संघ हिंदू धर्म शास्त्रों और वेदों को नष्ट करने के लिए तैयार है? मुझे शक है.

इस भाषण में वे पहली बार बताते हैं कि वे हिंदू बने रहना नहीं चाहते. संघ को बाबा साहेब को अपनाने का पाखंड करते हुए, यह सब ध्यान में रखना होगा. क्या राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ बाबा साहेब को अपना सकता है? बेशक. लेकिन ऐसा करने के बाद फिर वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ नहीं रह जाएगा.

सामाजिक प्रगतिशीलता के बहुत से प्रश्नों पर संघ और बाबा साहेब में समानता रही है

Rakesh Sinha Article web

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का आजादी से पहले मुख्य प्रभाव क्षेत्र महाराष्ट्र में था और सामाजिक रूढ़िवादिता के बीच में संघ ने प्रतिक्रियावादी सामाजिक प्रथाओं का जमकर विरोध किया. उसके दो उदाहरण हैं. पहला, जब महात्मा गांधी कौतूहलवश 1934 में संघ के शिविर में आए तो उन्होंने पाया कि ब्राह्मण और महार जाति के स्वयंसेवक एक साथ सहजता के साथ शिविर में रह रहे हैं. बाबा साहेब इसी महार जाति से थे. इसी कारण से बाबा साहेब का भी संघ के प्रति आकर्षण हुआ और वे 1938 में पुणे में संघ के शिविर में आए भी थे. उनके सामाजिक प्रगतिशीलता के बहुत से प्रश्नों पर संघ और बाबा साहेब में समानता रही है. इसी कारण संघ ने बाबा साहेब को साठ के दशक में ही महापुरुषों के प्रातः स्मरणीय नामों में जोड़ा है. जब उन पर अरुण शौरी ने ‘वर्शिपिंग फॉल्स गॉड’ नामक पुस्तक लिखी तो संघ के बड़े सिद्धांतकार दत्तोपंत ठेंगड़ी ने ‘डॉ. आम्बेडकर और सामाजिक क्रांति की यात्रा’ नामक पुस्तक लिखी. इसी प्रकार जब बाबा साहेब की 125वीं जयंती आई तो संघ ने उसे बड़े पैमाने पर मनाने का निर्णय लिया. सामाजिक अंतर्विरोधों और प्रतिक्रियावाद का विरोध संघ के सामाजिक दर्शन का अंग रहा है. यही कारण है कि संघ अंतरजातीय विवाहों और जातिविहीन समाज के लक्ष्य के प्रति हमेशा सकारात्मक रहा है. बाबा साहेब की विचारधारा में अनेक ऐसी बातें हैं जो उन्होंने तात्कालिक राजनीति और समकालीन सामाजिक प्रतिक्रियावाद के प्रत्योत्तर में कहा था. लेकिन उनमें जो मूलदृष्टि है उसकी दीर्घकालिक उपयोगिता है और उसके भाव से संघ की विचारधारा की निकटता है.

इसका दूसरा उदाहरण संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत का यह कथन है जिसमें उन्होंने कहा था कि धार्मिक शास्त्रों को वैज्ञानिक मूल्यों और मापदंड के आधार पर देखा जाना चाहिए. संघ की सामाजिक प्रगतिशीलता का एक और उदाहरण है. संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने स्वयंसेवकों के साथ जाकर एक शादी के मंडप में हो रहे बेमेल विवाह को रोका और लड़की को मंडप से उठाकर बाल विवाह से बचा लिया था. संघ महापुरुषों को जाति या राजनीति की सीमा में नहीं देखकर उनके मूल्यों का उपयोग सामाजिक समरसता के लिए करता है. फिर चाहे वे आम्बेडकर हों, गांधी हों या नारायण गुरु.

(लेखक संघ विचारक हैं)

आम्बेडकर की डगर पर दलित राजनीति का सफर

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Photo- Pramod Singh

‘राजनीतिक सत्ता सभी समस्याओं के समाधान की चाबी है’

-डॉ. भीमराव आम्बेडकर

बदलाव राजनीति की सबसे बड़ी खूबी है. वोट बैंक के लिए यहां समय-समय पर नायक भी बदले जाते हैं. राजनीतिक दल अपनी सुविधा के हिसाब से देश के नायकों पर अपनी दावेदारी जताते रहते हैं. संविधान दिवस के मौके पर सदन में हुई बहस को देखकर लगता है भीमराव आम्बेडकर सभी राजनीतिक दलों की जरूरत बन गए हैं. वैसे ऐसा नहीं है कि यह पहली बार हो रहा है. आम्बेडकर ने खुद भी राजनीतिक दल बनाए थे और बहुत सारे राजनीतिक दलों ने उनके नाम पर अपनी रोटियां भी सेंकी हैं. भारत में आम्बेडकर दलित राजनीति के जनक माने जाते हैं. उन्होंने ही सबसे पहले वर्ष 1936 में स्वतंत्र मजदूर पार्टी बनाई. वर्ष 1942 में उन्होंने शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन की स्थापना की.

उन्होंने 1956 में फेडरेशन को भंग करके रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया की स्थापना की घोषणा की जो तीन अक्टूबर, 1957 को अस्तित्व में आई. इस पार्टी ने 1957 में चुनाव लड़ा और इसे सफलता मिली. लेकिन 1970 तक आते आते यह पार्टी कई गुटों में बंट गई. वरिष्ठ पत्रकार और चिंतक अरुण कुमार त्रिपाठी कहते है, ‘आम्बेडकर अपने जीवन में राजनीतिक रूप से बेहद असफल रहे. राजनीति में वे कांग्रेस के सामने कभी चल नहीं पाए लेकिन एक समय के बाद जब कांग्रेस से दलितों का मोहभंग हुआ, तब से उनके अनुयायियों ने उनके नाम पर बड़ी राजनीतिक सफलता हासिल की. वह वैचारिक रूप से बहुत ही ज्यादा सफल रहे और आज देश के सबसे बडे़ हिस्से के मसीहा के रूप में हमारे सामने हैं. अब वोटबैंक के इर्द-गिर्द घूमने वाली चुनावी राजनीति ने धीरे-धीरे आम्बेडकर को एक प्रतीक बना दिया.’

आम्बेडकर के नाम पर राजनीति की शुरुआत

रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के पतन के बाद महाराष्ट्र में दलित पैंथर और उत्तर भारत के कई इलाकों में अपने सम्मान के लिए दलित संगठनों का उग्र आंदोलन शुरू हुआ. इसी दौर में दलित राजनीति में कांशीराम ने काम शुरू किया. उन्होंने सबसे पहले बामसेफ, बाद में डीएस फोर तथा अंत में 1984 में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के नाम से एक राजनीतिक पार्टी की स्थापना की और आम्बेडकर के नाम पर राजनीति करनी शुरू की. आज जितनी भी दलित राजनीतिक पार्टियां हमारे सामने मौजूद हैं, उनमें बहुजन समाज पार्टी सबसे बड़ी पार्टी है. कांशीराम को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी और दलित पैंथर के बाद मृतप्राय दलित राजनीति में प्रेरणा शक्ति का संचार किया. बसपा के अलावा बिहार में रामविलास पासवान के नेतृत्व में दलित एकजुट हुए. इसी दौरान और भी कई दलित पार्टियां जैसे बाल कृष्ण सेवक की यूनाइटेड सिटीजन और उदित राज की जस्टिस पार्टी आदि के अलावा दक्षिण की कई पार्टियों ने आम्बेडकर के नाम पर जमकर राजनीति की.

इन सारे नेताओं ने अपनी राजनीति का आधार ही डॉक्टर आम्बेडकर  को बनाया. मायावती ने आम्बेडकर के नाम पर स्मारकों की लाइन लगा दी. देश में आम्बेडकर जयंती को जश्न की तरह मनाने की परंपरा शुरू हो गई. इन नेताओं ने आम्बेडकर के नाम पर खुद को दलितों का शुभचिंतक बताने की कोशिश की गई और उन्हें इसका फायदा भी मिला. हालांकि इन सारे दलों द्वारा की राजनीति से दलितों का भला होने की बात पर लेखक और जेएनयू में प्रोफेसर बद्री नारायण कहते हैं, ‘आम्बेडकर के नाम पर राजनीति करने वाले दलों ने दलितों को उतना फायदा नहीं पहुंचाया है, जितने के वे हकदार थे.’ वैसे डॉ. आम्बेडकर  ने 1952 में शेड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन की मीटिंग में राजनीतिक पार्टी की भूमिका की व्याख्या करते हुए कहा था, ‘राजनीतिक पार्टी का काम केवल चुनाव जीतना ही नहीं होता, बल्कि यह लोगों को शिक्षित करने, उद्वेलित करने और संगठित करने का होता है.’

किस ठौर पहुंची दलित राजनीति

अपने उदय के साथ ही दलित राजनीतिक दलों ने दूसरे दलों के साथ गठजोड़ करने से कभी गुरेज नहीं किया. बहुजन समाज पार्टी ने समाजवादी पार्टी के अलावा भाजपा से तीन बार गठजोड़ किया. आज पार्टी उत्तर प्रदेश विधानसभा में मुख्य विपक्षी पार्टी है तो लोकसभा में उसका कोई भी सांसद नहीं है. एक दूसरे दलित नेता रामविलास पासवान ने भाजपा के साथ गठबंधन किया है. इसके अलावा रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (ए) के राष्ट्रीय अध्यक्ष रामदास अठावले हैं जिन्होंने भीमशक्ति और शिवशक्ति को मिलाने की चाह में पहले तो शिवसेना से गठजोड़ किया और अब शिवसेना-भाजपा के सहारे अपने लिए राज्यसभा में सीट पा ली है. वहीं दलित नेता उदित राज भाजपा में शामिल हो गए हैं. इन दलों की आलोचना करने वालों का कहना है कि भारत में दलित राजनीति जातिवाद, अवसरवादिता, भ्रष्टाचार और दिशाहीनता का शिकार हो गई है.

लेखक और विचारक कंवल भारती कहते है, ‘इन दलों और नेताओं के लिए आम्बेडकर ऐसे चेक बन गए हैं, जिसे वे जब चाहें भुना सकते हैं. इन दलों को आम्बेडकर के विचारों से कुछ लेना-देना नहीं है या यूं कहें इन्हें आम्बेडकर की विचारधारा की एबीसी भी नहीं पता है. यह किसी भी तरह से आंबडेकर और दलितों के हित में नहीं है. उन्होंने हमेशा दलित वर्ग की बात की, लेकिन आज के दौर में सारे राजनीतिक दल जातियों की बात कर रहे हैं और हर दल किसी जाति का प्रतिनिधित्व कर रहा है. आम्बेडकर ने खुद ही कहा था जाति के नाम पर आप कोई भी निर्माण अखंड नहीं रख पाएंगे. देश को हिंदू राष्ट्र बनाने से आम्बेडकर ने आपत्ति जताई थी, ये दल उसी हिंदू राष्ट्र की वकालत करने वाली विचारधारा से गठजोड़ कर रहे हैं, यह आम्बेडकर के विचारों की हत्या है. इन दलों के नेता अपने निजी स्वार्थ के चलते ऐसा कर रहे हैं.’

‘आम्बेडकर सत्ता से तो जुड़े, लेकिन एक बड़े मकसद के लिए. वे सत्ता में रहे, तो पूरे दलित समुदाय को मजबूत किया. कांशीराम भी सत्ता से जुड़े, लेकिन दलाली के लिए’

हालांकि वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे इससे इतर राय रखते हैं, ‘जो आम्बेडकर की राजनीति और विचारों में अपनी जरूरत के हिसाब से संशोधन करने में सफल रहा वह दलित राजनीति में आगे गया. वहीं जो आम्बेडकर के किताबी ज्ञान में उलझा रहा वह असफल हो गया. कांशीराम जो मायावती के गुरु थे, उन्होंने आम्बेडकर के विचारों में अपने हिसाब से बदलाव किया. आम्बेडकर ने कहा था जाति को तोड़ देना चाहिए, तो कांशीराम ने कहा कि जातियों को मजबूत किया जाना चाहिए, क्योंकि हमें जातियों के जरिये ही नुमाइंदगी मिलती है. इस वजह से ही बहुजन समाज पार्टी आगे बढ़ी. जहां तक सवाल दलित दलों द्वारा सत्ता के लिए किए जाने वाले गठजोड़ का है तो आम्बेडकर ने खुद ही कहा था कि राजसत्ता मास्टर चाबी है, उसे प्राप्त करना है. इसी को कांशीराम ने कहा कि राजसत्ता मास्टर चाबी है. उन्होंने उसी को ध्यान में रखा. बहुजन समाज पार्टी ने इसी को ध्यान में रखा. वह हमेशा चुनाव के समय सक्रिय होती है. आम्बेडकर खुद हमेशा सत्ता के साथ रहे. जब अंग्रेजों की सत्ता थी तो वह उनके साथ रहे और जब कांग्रेस की सत्ता आई तो वह उसके कैबिनेट में शामिल हो गए. वे जानते थे कि राजसत्ता के साथ ही रहकर वे दलितों का उद्धार कर सकते हैं. वर्तमान दौर में भी दलित राजनीति बहुत ही कामयाब है. इसने भारतीय राजनीति में अपनी स्वीकार्यता सिद्ध कर दी है. आज दलित राजनीतिक दलों से दूसरे बड़े दलों को गठबंधन करना पड़ रहा है. उन्हें पूरी भागीदारी देनी पड़ रही है.’

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वहीं बद्री नारायण कहते हैं, ‘भीमराव आम्बेडकर सत्ता के साथ तो जुड़े, लेकिन वह एक बड़े मकसद के लिए था. वह सत्ता में रहे, तो पूरे दलित समुदाय को मजबूत बनाया. कांशीराम भी सत्ता के साथ जुड़े, लेकिन वह दलाली के लिए था.’

कुछ ऐसी ही राय कंवल भारती की भी है. वे कहते हैं, ‘जब आम्बेडकर ने राजनीति की, उस समय दलित चेतना-शून्य थे, उनकी कोई राजनीतिक समझ नहीं थी और हिंदू समाज उन्हें कोई भी अधिकार देने को तैयार नहीं था. ऐसे समय में जब आम्बेडकर अंग्रेजों से मिले, तो वह मंत्रिपद या अपने निजी स्वार्थ के लिए नहीं गए थे, वे पूरे समुदाय के हित के लिए गए थे. लेकिन आज के हालात दूसरे हैं. आज के नेता अपने हितों के चलते दलितों के हितों को ताक पर रख देते हैं.’

हालांकि अरुण कुमार त्रिपाठी दलित राजनीतिक दलों की सत्ता में हिस्सेदारी को गलत नहीं मानते हैं. उनका कहना है, ‘जब तक आप सत्ता में नहीं आएंगे, तब तक आप सामाजिक बदलाव नहीं ला पाएंगे. दलितों के लिए स्थितियां देश में आज भी बहुत ही अच्छी नहीं है. उत्तर प्रदेश को छोड़कर दलित राजनीतिक दल अपने दम से सत्ता में आने की स्थिति में कहीं नहीं आए हैं. ऐसे में उन्हें गठबंधन का सहारा लेना पड़ता है. गठबंधन बनाने पर दूसरे दल भी फायदा ले जाते हैं. दलित दलों को अभी लंबी लड़ाई लड़नी है. वैसे भी सत्ता में आने से दलितों में स्वाभिमान का विकास होता है, मुझे नहीं लगता कि सत्ता के लिए गठबंधन करने वाले दलित दलों को गलत कहना सही होगा.’

गठबंधन और दलित राजनीति से जुड़े सवाल पर भाजपा के सांसद उदित राज कहते हैं, ‘आम्बेडकर के नाम पर की गई दलित राजनीति अभी अधूरी है. अभी हमें लंबी लड़ाई लड़नी है. वैसे भी जातिवादी समाज में अपनी पार्टी खड़ी करना मुश्किल काम है. ऐसी परिस्थिति में यदि हम लोकसभा में जाने और अपने लोगों की आवाज उठाने के लिए दूसरी पार्टियों का सहारा ले रहे हैं, तो कोई बुराई नहीं है. मैंने भाजपा का दामन अपने लोगों की भलाई के लिए ही थामा है.’

संघ के ‘साहेब’

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भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने और मनुस्मृति को संविधान बनाने के उद्देश्यों के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना करने वाले केशव बलिराम हेडगेवार ने कभी सोचा नहीं होगा कि एक दिन उन्हीं की विचारधारा का वाहक प्रधानमंत्री मनुस्मृति का सार्वजनिक दहन करने वाले डॉ. आम्बेडकर को महानायक बताएगा. जो वर्ण व्यवस्था संघ के सपनों के हिंदू राष्ट्र का खाद पानी है, उसकी जड़ों पर प्रहार करने वाले आम्बेडकर अगर संघ के लिए सम्माननीय हो गए हैं तो प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि यह परिवर्तन कैसे हुआ? जिस वक्त गुरु गोलवलकर मनु को ‘दुनिया का पहला कानून बनाने वाला’ घोषित कर रहे थे, उस समय आम्बेडकर उसी वर्ण व्यवस्था को स्थापित करने वाले कानून के खिलाफ जंग छेड़े हुए थे. जब संघ आजाद भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली, तिरंगे और संविधान तक को खारिज कर रहा था, तब संविधान लागू हो चुका था और आम्बेडकर सभी नागरिकों के लोकतांत्रिक अधिकारों को भारतीय संविधान की मूल आत्मा बता रहे थे. जो आम्बेडकर पूरे जीवन हिंदू धर्म में व्याप्त जाति, वर्ण, छुआछूत और असमानता के खिलाफ लड़ते रहे, अंतत: उस धर्म का ही त्याग कर दिया, उन्हें अब हिंदू राष्ट्र के अलंबरदारों द्वारा अपने नायक के रूप में पेश करना अजूबे से कम नहीं है.

यह अजूबा उस राजनीतिक होड़ का हिस्सा है जिसके तहत सभी दल खुद को आम्बेडकर का असली वारिस साबित करने में जुटे हैं. संविधान दिवस मनाने की नई-नवेली रवायत के बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संसद में जब संविधान की महत्ता और डॉ. आम्बेडकर की तारीफ में पुल बांध रहे थे, तब यह सवाल अनुत्तरित ही रह गया कि राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति या संविधान की शपथ लेने वाले सांसद जब-तब किस हैसियत से भारतीय गणतंत्र को हिंदू राष्ट्र घोषित करते रहते हैं? क्या हमारा संविधान हिंदू राष्ट्र, मुस्लिम राष्ट्र आदि बनाने की इजाजत देता है?

आम्बेडकर का 125वां जयंती वर्ष इस मायने में अभूतपूर्व रहा कि आम्बेडकर के घोर वैचारिक विरोधी भी उनकी जय-जयकार करते दिख रहे हैं. अगर आम्बेडकर की सामाजिक लोकतंत्र की विचारधारा को भारतीय राजनीति में उनकी जयंती और नारों की तरह जगह मिल जाए तो देश में जातिगत भेदभाव और आर्थिक विषमता मिट जाएगी. इसके अलावा आम्बेडकर की स्वीकार्यता से संविधान में विशेष रूप से ​उल्लिखित स्वाधीनता और बंधुत्व जैसे मूल्यों को भी मजबूती मिलेगी, लेकिन क्या यह होड़ असल में आम्बेडकर के मूल्यों और सामाजिक न्याय की लड़ाई के लिए है जिसके लिए उन्होंने आजीवन संघर्ष किया?

आम्बेडकर के कट्टर विरोधी रहे संघ, उसकी राजनीतिक शाखा भाजपा और उन्हें हाशिये पर डाल देने वाली कांग्रेस भी उन्हें अपनाने की प्रतियोगिता में शामिल हैं

आम्बेडकर के समानता और न्याय के प्रयासों के कट्टर विरोधी रहे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, उसकी राजनीतिक शाखा भाजपा, उनसे टकराने, फिर अपनाने और फिर हाशिये पर डाल देने वाली कांग्रेस भी उन्हें अपना बनाने की दौड़ में शामिल हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि दलित-पिछड़ी जातियों के ‘मसीहा’ कहे जाने वाले आम्बेडकर जो अब तक दो बड़े दलों में उपेक्षित थे, अचानक उन्हें गांधी-नेहरू के बराबर स्थापित करने की कोशिश क्यों की जा रही है? क्या गांधी-नेहरू की विरासत पर सवार कांग्रेस को नए नायक की जरूरत है? क्या वीर सावरकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी और अटल बिहारी वाजपेयी का नायकत्व भाजपा के लिए बौना साबित हो रहा है? या फिर सरदार पटेल और गांधी को अपनाने वाली भाजपा के ‘नायक हड़प अभियान’ का अगला निशाना आम्बेडकर हैं?

कांग्रेस की एक परिवार से नेतृत्व आपूर्ति की परियोजना फेल हो चुकी है. उसकी तो हालत यह है कि वह अपने पुरखे पंडित नेहरू तक को नहीं बचा पा रही है. नेहरू की 125वीं जयंती वर्ष में भाजपा की सरकार ने सुभाष चंद्र बोस के परिवार की जासूसी के बहाने नेहरू पर जोरदार हमला बोला. केंद्रीय नेतृत्व के स्तर पर राजनीतिक और वैचारिक संकट से जूझ रही कांग्रेस आम्बेडकर से नजदीकी बढ़ाने का प्रयत्न करते हुए संविधान में बदलाव की सूरत में ‘रक्तपात’ की धमकी दे रही है तो दूसरी ओर संघ परिवार और भाजपा अपने लाव-लश्कर के साथ आम्बेडकर पर कब्जा करने में लगी है.

आम्बेडकर की 125वीं जयंती पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की ओर से उन पर अब तक का सबसे बड़ा आयोजन किया गया. इस कार्यक्रम में संघ के सरकार्यवाह सुरेश भैयाजी जोशी ने कहा, ‘आम्बेडकर और हेडगेवार दोनों ने समाज के रोगों का निदान करने का काम किया.’ इस दौरान संघ के मुखपत्रों- ‘पांचजन्य’ और ‘ऑर्गनाइजर’ ने आम्बेडकर विशेषांक निकाले और उन्हें नायक के तौर पर पेश करने की कोशिश की. इस आयोजन में संघ ने आम्बेडकर को मुसलमानों के खिलाफ, घर वापसी का समर्थक और राष्ट्रवादी साबित करने की कोशिश की. संघ की पत्रिकाओं में छपे लेखों में कहा गया कि आम्बेडकर राष्ट्रवादी थे और उन्होंने अपने समर्थकों से कहा था कि वह देश को सबसे पहले ध्यान में रखें. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कहा, ‘डॉक्टर आम्बेडकर युगपुरुष हैं जो करोड़ों भारतीयों के दिलों में वास करते हैं. आइए हम सब देश को आम्बेडकर के सपनों का भारत बनाने के लिए प्रतिबद्ध करें. एक ऐसा भारत जिस पर उन्हें गर्व हो.’ हालांकि, यूपी में दलितों का प्रतिनिधित्व करने वाली मायावती ने कहा, ‘भाजपा और कांग्रेस का आम्बेडकर-प्रेम नाटक है. हमारे मतदाताओं को इनसे सावधान रहना चाहिए.’

भाजपा के आम्बेडकर प्रेम को नाटक क्यों माना जाए? लेखक सुभाष गाताडे अपनी हालिया प्रकाशित पुस्तक ‘हेडगेवार, गोलवलकर बनाम डॉ. आम्बेडकर’ में लिखते हैं, ‘जिन्होंने जीते जी आम्बेडकर का मखौल बनाया, उनसे दूरी बनाए रखी और उनके विचारों के प्रतिकूल काम करते रहे, अब उनकी बढ़ती लोकप्रियता को भुनाने और दलित-शोषित अवाम के बीच पैठ बनाने के लिए उनके मुरीद बनते दिख रहे हैं. ऐसी ताकतों में सबसे आगे है हिंदुत्व ब्रिगेड के संगठन, जो डॉ. आम्बेडकर को- जिन्होंने हिंदू धर्म की आंतरिक बर्बरताओं के खिलाफ वैचारिक संघर्ष एवं व्यापक जनांदोलनों की पहल की, जिन्होंने 1935 में येवला के सम्मेलन में ऐलान किया कि मैं भले ही हिंदू पैदा हुआ, मगर हिंदू के तौर पर मरूंगा नहीं और अपनी मौत के कुछ समय पहले बौद्ध धर्म का स्वीकार किया (1956) और जो ‘हिंदू राज’ के खतरे के प्रति अपने अनुयायियों एवं अन्य जनता को बार-बार आगाह करते रहे, उन्हें हिंदू समाज सुधारक के रूप में गढ़ने में लगे हैं.’

भीमराव आम्बेडकर की विचारधारा के आधार पर काम करने वाली तमाम पार्टियां और संस्थाएं हैं. इस दावेदारी में नए दलों का प्रवेश आम्बेडकर की बढ़ती प्रासंगिकता का स्पष्ट संकेत है

इन आयोजनों के दिनों में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने कानपुर में एक सभा में दावा किया कि वे ‘संघ की विचारधारा में यकीन रखते थे’ और हिंदू धर्म को चाहते थे. हाल में संघ और भाजपा की ओर से इस तरह की तमाम बातें कही गईं. सुभाष गाताडे कहते हैं, ‘इनकी कोशिश यह भी है कि तमाम दलित जातियां- जिन्हें मनुवाद की व्यवस्था में मानवीय हकों से भी वंचित रखा गया- उन्हें यह कहकर अपने में मिला लिया जाए कि उनकी मौजूदा स्थितियों के लिए ‘बाहरी आक्रमण’ यानी इस्लाम जिम्मेदार है.’

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तथ्य यही बताते हैं कि आम्बेडकर के जीते जी हिंदुत्ववादी संगठनों से उनके संबंध कभी सामान्य नहीं थे, यहां तक कि बंटवारे के उन दिनों में जब डॉ. आम्बेडकर बार-बार जनता को ‘हिंदू राज के खतरे के बारे में आगाह कर रहे थे’, वहीं गोलवलकर-सावरकर और उनके अनुयायियों का लक्ष्य भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना था. जब स्वतंत्र भारत के लिए संविधान-निर्माण की प्रक्रिया जोरों पर थी, तब डॉ. आम्बेडकर के नेतृत्व में जारी इस प्रक्रिया का संघ ने विरोध किया था और अपने मुखपत्रों में मनुस्मृति को ही आजाद भारत का संविधान बनाने की हिमायत की थी, संघ के दूसरे सुप्रीमो गोलवलकर से लेकर सावरकर, सभी उसी पर जोर दे रहे थे.

उन दिनों जब डॉ. आम्बेडकर ने हिंदू कोड बिल के माध्यम से हिंदू स्त्रियों को पहली दफा सम्पत्ति और तलाक के मामले में अधिकार दिलाने की बात की थी, तब कांग्रेस के रूढ़िवादी धड़े से लेकर हिंदूवादी संगठनों ने  इसे हिंदू संस्कृति पर हमला बताया था. उनके घर तक जुलूस निकाले गए थे. इतिहासकार रामचंद्र गुहा के मुताबिक, उन दिनों संघ की अगुवाई में आम्बेडकर का जबरदस्त विरोध किया गया था. अकेले दिल्ली में ही 79 रैलियों-सभाओं का आयोजन हुआ था और नेहरू-आम्बेडकर के पुतले जलाए गए थे.

अब सवाल है कि जिस संघ के सामने हिंदू राष्ट्र का स्पष्ट एजेंडा है, उसे हिंदू व्यवस्था के घोर विरोधी आम्बेडकर की जरूरत क्यों है? आम्बेडकर के नाम पर पहले से राजनीति करने वाली कई पार्टियां हैं और उनकी विचारधारा के आधार पर काम करने वाली सैकड़ों संस्थाएं हैं. इस दावेदारी में नए दलों का प्रवेश आम्बेडकर की बढ़ती प्रासंगिकता का स्पष्ट संकेत है. सामाजिक कार्यकर्ता और विचारक आनंद तेलतुम्बड़े कहते हैं, ‘अगर मूर्तियां, निशानियां, तस्वीरें, पोस्टर, गीत और गाथाएं, किताबें और पर्चे या फिर स्मृति में बसे जलसों का आकार किसी की महानता को मापने के पैमाने होते तो शायद इतिहास में ऐसा कोई नहीं मिले जो बाबा साहेब आम्बेडकर की बराबरी कर सके. उनके स्मारकों की फेहरिस्त में नई जगहें और आयोजन जुड़ते जा रहे हैं. वे ऐसी परिघटना बन गए हैं कि कुछ वक्त बाद लोगों के लिए यकीन करना मुश्किल हो जाएगा कि ऐसा एक इंसान कभी धरती पर चला भी था, जिसे जानवरों तक के लिए पानी के सार्वजनिक स्रोत से पानी पीने के लिए संघर्ष करना पड़ा था. आज उनको अपनाने की होड़ है. संघ परिवार ने हाल में आम्बेडकर को जिस तरह से हथियाने की मंशा जाहिर की हैं, वे इतनी खुली है कि दलितों को उनकी भीतरी चालों को समझने में देर नहीं लगी है.’Dr Ambedkar Statue Damaged (1)hhhh

यह सच है कि गांधी के बाद आम्बेडकर भारत के निःसंदेह सबसे पूजनीय नेता हैं. छोटे-छोटे कस्बों, गांव, शहर, चौराहे और पार्कों में जगह-जगह उनकी मूर्तियां लगी हैं. हालांकि, गांधी समेत समूची कांग्रेस से आम्बेडकर का हमेशा छत्तीस का आंकड़ा रहा क्योंकि राजनीतिक हिंदू की नुमाइंदगी करने वाली कांग्रेस आम्बेडकर की मुख्य विरोधी थी. 1932 में गोलमेज सम्मेलन के दौरान आम्बेडकर ने दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग रखी, लेकिन महात्मा गांधी ने इसका तीखा विरोध किया और आखिर में उन पर दबाव डालकर पूना समझौते पर दस्तखत करवा लिए गए. जानकारों का एक तबका मानता है कि इससे दलितों के एक आजाद राजनीतिक अस्तित्व की गुंजाइश को जड़ से खत्म कर दिया. आजादी के बाद कांग्रेस की यह पूरी कोशिश थी कि आम्बेडकर संविधान सभा में न रहें. गांधी जी के प्रयासों की वजह से आम्बेडकर को संविधान सभा में चुना गया. हिंदू कोड बिल के मसले पर पीछे हटने के मामले को लेकर आम्बेडकर ने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया. इस मसले पर आम्बेडकर के घोर विरोधी हिंदूवादी ही थे. आनंद तेलतुम्बड़े के मुताबिक, बाद में आम्बेडकर ने संविधान को नकारते हुए यह तक क​हा था, ‘उन्हें नौकर की तरह इस्तेमाल किया गया. यह किसी के भी काम का नहीं है और इसको जलाने वाला मैं पहला इंसान होऊंगा. उन्होंने कांग्रेस को ‘दहकता हुआ घर’ कहा था जिसमें दलितों के लिए खतरा ही खतरा है.’

आधुनिक भारत में आम्बेडकर अकेले ऐसे नेता थे जिन्होंने दलितों और अछूतों के मसले काे प्रमुखता से उठाया और हिंदू धर्म में व्याप्त संस्थानिक अमानवीयता की धज्जियां उड़ाकर रख दीं. वे समाज के सभी वर्गों को धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक सभी क्षेत्रों में समान स्थान दिए जाने के पक्षधर थे. इसके लिए उन्होंने समान अवसर की लड़ाई छेड़ी. उनके प्रत्येक सामाजिक संघर्ष के पीछे यही मौलिक भावनाएं थीं. बंबई विधान परिषद में एसके बोले प्रस्ताव हो, महाड बावड़ी सत्याग्रह हो (जिसमें 10,000 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था) मंदिर प्रवेश आंदोलन हो, महार वतन आंदोलन, जाति को समूल नष्ट करने के लिए संघर्ष या मनुस्मृति दहन हो, इन सबके पीछे आम्बेडकर की यही मंशा थी कि समाज में किसी के साथ जन्म आधारित भेदभाव न करके सबको समान अवसर दिए जाएं.

जाति और वर्ण व्यवस्था को ‘दैवीय’ बताने वाले जिस ग्रंथ की आम्बेडकर होलिका जला रहे थे, संघ उसे पूरे देश में लागू करने का पक्षधर था. जाहिर है कि आम्बेडकर के इस संघर्ष के कारण उनका कट्टर विरोधी संघ ही था. यह देखना मजेदार है कि है कि आम्बेडकर द्वारा 1927 में ‘मनुस्मृति’ जलाने और ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ और ‘रिडल्स इन हिंदुइज्म’ जैसे ग्रंथों को भूलकर संघ उनके ‘पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इंडिया’ जैसे ग्रंथ को प्रचारित करता है. इसके अलावा उनके हिंदू धर्म से विद्रोह कर बौद्ध धर्म अपनाने को हिंदू धर्म से बाहर निकलने की बजाय ‘धर्म की आध्यात्मिक ऊंचाई’ छूने के तौर पर पेश करता है.

‘संघ राष्ट्रीय बहस में से गांधी-नेहरू को हटाना चाहता है. इससे सेक्युलरिज्म की बहस समाप्त हो जाएगी. ये आम्बेडकर को गांधी-नेहरू का प्रतिद्वंद्वी बनाने की चाल है’

यह मजबूरी ही है कि अब उसी संघ को जागरूक होती दलित और पिछड़ी जातियों को गोलबंद करने के लिए आम्बेडकर का सहारा लेना पड़ रहा है. जीबी पंत संस्थान, इलाहाबाद के शोधार्थी रमाशंकर कहते हैं, ‘आम्बेडकर के व्यक्तित्व में सहज ज्ञान, 20वीं शताब्दी के इतिहास की समझ और नेतृत्व की क्षमता का गजब मेल था. वे उन लोगों की आवाज थे जिन्हें अमेरिका, आयरलैंड या भारत में ऐतिहासिक रूप से पीछे धकेल दिया गया था. जब भी सामाजिक न्याय की बात होगी या सबको आर्थिक रूप से सक्षम बनाए जाने की कोई परियोजना अमल में लाने की बात की जाएगी, आम्बेडकर संदर्भवान हो उठेंगे. आज पूरी दुनिया को न्यायपूर्ण होने के साथ एक लोकतांत्रिक व्यवस्था होने का वादा पूरा करना है. स्त्रियों के लिए एक ऐसी दुनिया बनानी है जिसमें पुरुष वर्चस्व को कानूनी रूप से तोड़ा जा सके. एक करुणा आधारित समाज बनाया जा सके जिसमें हिंसा न हो. आम्बेडकर इसके लिए बेहतरीन नायक हैं. यह बात नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी, मायावती के साथ भारत के नौजवानों को पता है.’

नई सदी में दलित जातियां मजबूत हुई हैं. अब वे शिक्षा तक पहुंच ​बना रही हैं और अपने एक स्वायत्त नायक के रूप में आम्बेडकर को चिह्नित कर रही हैं, जिसमें उन्हें जाति की गलीज बंदिशें और धर्म की अमानवीय यातना से मुक्ति दिलाने वाला नायक दिखता है. आम्बेडकर जयंती पर देश भर में दिवाली जैसा आयोजन अब आम बात है. दलित जातियों के लिए आम्बेडकर एक ऐसे नायक हैं जो पूरी तरह उसे अपने लगते हैं. हिंदू देवी-देवताओं के शोषणकारी महात्म्य के उलट आम्बेडकर के पास दलित जातियों की मुक्ति की चाबी है. डीयू की शोधछात्रा चंद्रकला प्रजापति कहती हैं, ‘जिनका इस समाज में कोई अधिकार नहीं था, उनके लिए आम्बेडकर का बहुत महत्व है. मेरे परिवार में भी ऐसा है. अब जो लोग पढ़ लिख रहे हैं, वे समझते हैं कि आम्बेडकर उनके लिए क्या हैं. हमारे आसपास के परिवारों में आम्बेडकर के लिए ईश्वर जैसा सम्मान है और यह किसी व्यक्ति की पूजा नहीं है, यह उस विचार की पूजा है, जो उनके अधिकारों और उनकी मुक्ति की बात करता है.’

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लेखिका अनीता भारती कहती हैं, ‘आम्बेडकर शुरू से ही दलितों के नायक रहे हैं, लेकिन अब गैर-दलित तबके में भी उनकी स्वीकार्यता बढ़ रही है. पहले शिक्षा व्यवस्था में दलितों के लिए जगह नहीं थी. अंग्रेजों के कारण खिड़की खुली और बाद में हमारे संविधान ने समान अवसर का अधिकार दिया. शिक्षा और जागरूकता बढ़ने के साथ लोगों काे यह अच्छे से समझ में आया कि अशिक्षित होना ही गुलामी की जड़ है. जागरूकता बढ़ने के साथ आम्बेडकर की ताकत को अब पहचाना गया है. जातिवाद अपने बदले हुए रूप में अभी भी जिंदा है. जो पीड़ित हैं उनके लिए आम्बेडकर मुक्ति के प्रतीक हैं.’ जो समुदाय अपने इस नायक को भावनात्मक जुड़ाव और आस्था के साथ पूजता है, उसे रिझाने के लिए सियासी दलों को आम्बेडकर का जयकारा जरूरी लगता है.

दिल्ली विवि के प्रोफेसर व लेखक अपूर्वानंद कहते हैं, ‘आम्बेडकर का नायकत्व पिछले 25 वर्षों से स्थापित हो चुका है, जब दलित-पिछड़ी राजनीति का उभार हुआ. तब से आम्बेडकर केंद्रीय भूमिका में हैं. राजनीति में अलग-अलग वर्ग से ऊर्जा आती है. आजकल यह ऊर्जा सबसे ज्यादा दलित पिछड़ी जातियों से आ रही है. अब ये जातियां दावेदारी पेश कर रही हैं. आम्बेडकर ने कहा था कि हम बंजर जमीन पर फूल रोपने की कोशिश कर रहे हैं. वह बंजर जमीन अब जाकर टूटी है और आम्बेडकर की प्रासंगिकता और भी बढ़ी है. इसलिए इन जातियों में पैठ बनाने के लिए संघ ने अपनी रणनीति बदल ली है. दूसरे, संघ राष्ट्रीय बहस में से गांधी-नेहरू को हटाना चाहता है. ये दोनों हट जाएंगे तो सेक्युलरिज्म की बहस समाप्त हो जाएगी. वे आम्बेडकर को गांधी-नेहरू का प्रतिद्वंद्वी बनाने की चाल के तहत भी ऐसा कर रहे हैं.’

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संविधान प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. आम्बेडकर (बाएं) डॉ. राजेंद्र प्रसाद को संविधान का पहला मसौदा सौंपते हुए (फरवरी, 1948)

हालांकि, संघ आम्बेडकर को उस रूप में अपनाने को राजी नहीं है, जिस रूप में वे संघर्षरत रहे. संघ दलितों के इस अखिल भारतीय प्रतीक को संदर्भों से काटकर और  ‘गोएबलीय’ (गोएबल- हिटलर का प्रचार मंत्री था) प्रचारतंत्र में लपेटकर पेश कर रहा है. उसने आम्बेडकर के भगवाकरण पर काम करना शुरू कर दिया है. हेडगेवार के साथ आम्बेडकर की तुलना, उनको मुसलमान विरोधी और ‘घर वापसी’ समर्थक बताना या राष्ट्रवादी हिंदू बताना इसी झूठे प्रचारतंत्र की एक कड़ी है. संघ परिवार की देश व समाज की जो कल्पना है, आम्बेडकर उसके ठीक विपरीत खड़े हैं. इसलिए सामाजिक न्याय के पक्षधर, धर्म और जातीय जकड़बंदी से मुक्त होने को छटपटाते आम्बेडकर को संघ परिवार भगवाधारी राष्ट्रवादी बनाकर पेश करता है. जिन आम्बेडकर ने चेताया था कि ‘हिंदू राष्ट्र तबाही लाने वाला होगा’, जिन आम्बेडकर ने शपथ ली थी कि वे एक हिंदू के रूप में नहीं मरेंगे, उन्हीं आम्बेडकर को संघ परिवार ‘एक महान हिंदू’ के रूप में पेश करता है. हिंदू धर्म से विद्रोह करते हुए आम्बेडकर ने जिस बौद्ध धर्म को अपनाया था, संघ उसे हिंदू धर्म का ही एक संप्रदाय कहता है. जानकार कहते हैं कि स्वतंत्रता संघर्ष के वर्षों में उपेक्षित आम्बेडकर तब अचानक महत्वपूर्ण हो उठे जब 1960 के दशक के मध्य में दलित और पिछड़ों की नुमाइंदगी करने वाले क्षेत्रीय दलों का उभार हुआ. कांग्रेस ने दलितों को अपनाने, साथ मिलाने की रणनीति पर काम करना शुरू किया. दलितों का वोट पाने के लिए उनकी गोलबंदी जरूरी थी और आम्बेडकर अकेले ऐसे नेता रहे जिनका दलितों पर प्रभाव है. लोकसभा में 84 सीटें आरक्षित होने और अन्य जातियों की तुलना में ज्यादा संगठित होने के चलते दलित समुदाय पर सभी पार्टियों की नजर है. राज्यों की विधानसभाओं और स्थानीय निकायों में आरक्षित सीटों के लिए भी पार्टियां ऐसा कर रही हैं.

संघ आम्बेडकर को अपनाने के हास्यास्पद प्रयास में तो है, लेकिन साथ में हिंदू राष्ट्र के एजेंडे पर भी काम कर रहा है. अब देखना है कि एक तरफ आम्बेडकर के ‘सामाजिक न्याय’ से परिपूर्ण ‘समतामूलक लोकतंत्र’ और ‘धर्मनिरपेक्ष संविधान’ की विरासत है तो दूसरी ओर संघ का मुसलमान मुक्त भारत का सपना है. अपूर्वानंद कहते हैं, ‘याद रहे कि भाजपा की ही सरकार ने राजस्थान में उच्च न्यायालय के सामने हिंदुओं के आदि विधिवेत्ता मनु की प्रतिमा भी लगवा दी है. एक है वर्तमान की मजबूरी यानी संविधान की रक्षा के लिए बना न्यायालय और दूसरा है भविष्य का लक्ष्य यानी मनुस्मृति का भारत.’ समय साबित करेगा कि भाजपा और कांग्रेस का आम्बेडकर प्रेम लोकतांत्रिक भारत में उनकी जरूरत के चलते है या फिर वोटबैंक पर कब्जे के लिए रचा जा रहा सियासी प्रपंच? यह सवाल दीगर है कि जिस छुआछूत के विरुद्ध आम्बेडकर आजीवन संघर्षरत रहे, दलितों के मंदिर में प्रवेश न पाने के रूप में वह व्यवस्था अब तक जिंदा है. प्रधानमंत्री मोदी समेत संघ-भाजपा और कांग्रेस के आम्बेडकर-प्रेम में इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था को खत्म करने का कोई जिक्र अब तक नहीं सुनने को मिला है.

‌बारिश से तमिलनाडु में 15 हजार करोड़ का नुकसान

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विनाशकारी बारिश से तमिलनाडु में अब तक तकरीबन 269 लोगों की मौत हो चुकी है. इस बीच एक और दर्दनाक हादसा चेन्नई के एक अस्पताल में घटा. शुक्रवार को इस अस्पताल में वेंटिलेटर पर रखे गए 18 लोगों की मौत बिजली कटने और ऑक्सीजन की सप्लाई न मिलने की वजह से हो गई. यह हादसा अड्यार नदी के पास स्‍थित मद्रास इंस्‍टिट्यूट ऑफ ऑर्थोपेडिक्स एंड ट्रॉमेटोलॉजी अस्पताल (एमआईओटी) में हुआ. हादसे के वक्त 75 मरीज अस्पताल में भर्ती थे. इनमें से 57 मरीजों को अलग-अलग अस्पतालों में भर्ती करा दिया गया था, लेकिन 18 मरीजों को बचाया नहीं जा सका. अस्पताल में जब बाढ़ को पानी भरना शुरू हुआ था तब वहां 575 मरीज भर्ती थे.

उद्योग संगठन एसोचेम ने बारिश से अब तक तकरीबन 15 हजार करोड़ रुपये का नुकसान होने का अनुमान लगाया है. आने वाले दिनों में इसके और बढ़ने की भी आशंका है. देश में ऑटोमोबाइल उद्योग के दूसरे बड़े केंद्र चेन्नई में विभिन्न वाहन कंपनियों ने भी अपने निर्माण प्लांट पर उत्पादन रोक दिया है. ह्यूंडई, रेनॉल्ट, बीएमडब्‍ल्यू, फोर्ड, रॉयल एनफील्ड और यामाहा प्लांट पर काम ठप है. ह्यूंडई के प्लांट से 6.8 लाख कारों का सालाना निर्माण किया जाता है. कंपनी में बीते बुधवार से काम रुका हुआ है. इसके अलावा फोर्ड के चेन्नई स्‍थित प्लांट से सालाना 3.4 लाख इंजन और दो लाख कारों का सालाना उत्पादन है. रॉयल इनफील्ड भी नवंबर में चार हजार मोटरसाइकिलों को निर्माण बारिश की वजह से नहीं कर सकी. इन दोनों कंपनियों के प्लांट में भी काम रुका हुआ है. इसके अलावा देश के सबसे पुराने अखबारों में से एक ‘द हिंदू’ अखबार भी 137 साल में पहली बार दो दिसंबर को नहीं प्रकाशित हो सका. अखबार के प्रिंटिंग प्लांट में पानी भरने से प्रकाशन नहीं हो सका.

राज्यभर में लगातार हो रही बारिश से जनजीवन बुरी तरह से अस्त-व्यस्त हो चुका है. राज्य में बारिश ने पिछले 100 साल का रिकॉर्ड तोड़ दिया है. बाढ़ के चलते राज्य में रेल, विमान व बस सेवा प्रभावित लगभग ठप पड़ चुकी है. चेन्नई के निचले इलाकों में बारिश की वजह से भारी तबाही मची हुई है. भारी बारिश के चलते राज्य की झीलें भी पानी से लबालब भरी हुई हैं. हजारों लोग बिना खाने और बिजली के अलग-अलग हिस्सों में फंसे हुए हैं. कई क्षेत्रों में फोन सेवा भी शुरू नहीं हो पाई है. मौसम विभाग ने आने वाले दो-तीन दिनों में भारी बारिश की आशंका जताई है. ऐसे में राज्य के हालात और खराब हो सकते हैं. हालांकि शुक्र की बात ये है कि शुक्रवार को बारिश से लोगों को थोड़ी सी राहत मिली है. निचले इलाकों से पानी उतरना शुरू हो गया है. अड्यार और कुंभ नदी का जलस्तर भी कम हो रहा है. सेना और एनडीआरएफ की टीमें इलाके में फंसे लोगों को बचाने के लिए युद्धस्तर पर राहत और बचाव के काम में लगी हुई हैं.

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तमिलनाडु में अब तक तकरीबन 269 लोगों की मौत हो चुकी है वहीं आंध्र प्रदेश में भी 54 लोग मारे गए हैं. ये जानकारी लोकसभा में गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने दी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राहत पैकेज के रूप में तमिलनाडु को एक हजार करोड़ रुपये की घोषणा की है. गुरुवार को उन्होंने बाढ़ प्रभावित हिस्सों का दौरा भी किया. राज्य की मुख्यमंत्री जे. जयललिता ने बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करने के बाद केंद्र सरकार से पांच हजार करोड़ रुपये के राहत पैकेज की मांग की थी.

पिच फिक्सिंग

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मुंबई का वानखेड़े स्टेडियम भारत और दक्षिण अफ्रीका के बीच खेली गई पांच एकदिवसीय मैचों की सीरीज के अंतिम और निर्णायक मुकाबले के लिए तैयार था. इससे पहले खेले चार मुकाबलों में दो-दो जीत के साथ दोनों टीमें बराबरी पर थीं. इसलिए निर्णायक मुकाबले में कांटे की टक्कर होने की पूरी उम्मीद थी. दर्शकों से खचाखच भरे स्टेडियम में दक्षिण अफ्रीका ने टॉस जीतकर पहले बल्लेबाजी का फैसला किया और साधारण स्तर की भारतीय गेंदबाजी का लाभ उठाकर 438 रनों का पहाड़ सा ऐसा स्कोर खड़ा कर दिया, जिसकी कल्पना उस दिन शायद किसी ने नहीं की थी.

यहीं से इस मैच में भारत की जीत की संभावनाएं लगभग समाप्त सी हो गई थीं. भारत की पारी शुरू होती, उससे पहले ही भारतीय टीम निदेशक रवि शास्त्री ने एक नया बवाल खड़ा कर दिया. वह पिच क्यूरेटर सुधीर नाईक पर भड़क उठे और भारत की संभावित हार का ठीकरा उन पर फोड़ अपशब्द कहना शुरू कर दिया.

रवि शास्त्री का आरोप था कि भारतीय गेंदबाजों को पिच से कोई मदद नहीं मिली. पिच घरेलू टीम के पक्ष में व्यवहार नहीं कर रही थी. इस विवाद ने खासा तूल पकड़ा. सुधीर नाईक ने बोर्ड से शास्त्री की शिकायत की तो सुनील गावस्कर और कपिल देव जैसे दिग्गज शास्त्री के पक्ष में इस तर्क के साथ आ खड़े हुए कि घरेलू टीम को घरेलू परिस्थितियों का लाभ तो मिलना ही चाहिए. यहां से यह बात तय हो गई थी कि दोनों टीमों के बीच खेली जाने वाली आगामी चार टेस्ट मैचों की गांधी-मंडेला सीरीज में पिच की भूमिका सबसे अहम रहेगी. हुआ भी यही, टी-20 और एकदिवसीय सीरीज में मेहमान दक्षिण अफ्रीकी टीम से करारी शिकस्त झेलने के बाद भारतीय टेस्ट कप्तान विराट कोहली और टीम प्रबंधन को भली-भांति समझ आ गया था कि टेस्ट में विश्व नं. 1 और पिछले नौ साल से विदेशी दौरों पर अजेय दक्षिण अफ्रीकी टीम को हराना लोहे के चने चबाने जैसा है. केवल स्पिनर और स्पिन विकेट के सहारे भारतीय परिस्थितियों में खुद को ढाल चुके मजबूत दक्षिण अफ्रीकी बल्लेबाजी क्रम पर काबू नहीं पाया जा सकता. साथ ही डेल स्टेन, मोर्ने मोर्केल और वरनॉन फिलेंडर में वो क्षमता है कि वह किसी भी विकेट पर अपनी तेज रफ्तार गेंदों से विपक्षी खेमे को तहस-नहस कर सकें.

कप्तानों के सुझाव पर रणजी मैचों के दौरान टीम हित में पिच बनवाई जा रही हैं, जिसे भारतीय क्रिकेट के भविष्य के लिए सकारात्मक नहीं कहा जा सकता

यही सब दिमाग में रख कोहली जब मोहाली पहुंचे तो सबसे पहले पिच क्यूरेटर दलजीत सिंह से मुलाकात कर आशीर्वाद लिया. वानखेड़े में हुई गलती शास्त्री और कोहली दोहराना नहीं चाहते थे. साथ ही इस सीरीज में जीत-हार के दोनों के लिए ही बहुत अधिक मायने थे. लंबे समय से भारतीय कप्तानी को लेकर चल रहे शीत युद्ध के कारण इन दोनों की साख भी दांव पर लगी थी. हार का मतलब होता कोहली की कप्तानी पर सवाल और धोनी के पक्ष में माहौल. इन सभी पक्षों को ध्यान में रख स्वाभाविक था कि बैकफुट पर आई भारतीय टीम मोहाली में घरेलू परिस्थितियों का भरपूर लाभ उठाना चाहेगी और इस मैच का मैन ऑफ द मैच पिच रहेगी. यानी कि वानखेड़े से शुरू हुआ पिच विवाद आगे भी थमने वाला नहीं था लेकिन इस बार पिच के पेंच में दक्षिण अफ्रीकी उलझने वाले थे. मैच से पहले मोहाली की पिच देखने के बाद दक्षिण अफ्रीकी बल्लेबाज फाफ डू प्लेसिस यह भांप भी गए और मीडिया में बोले, ‘मैं बस यही कह सकता हूं कि यह पिच सामान्य से भी अधिक सूखी नजर आ रही है.’

हुआ भी वही जिसकी उम्मीद थी. मोहाली के विकेट पर पहले ही दिन से स्पिनरों को वह घुमाव मिलने लगा जिसकी अपेक्षा एक स्पिनिंग ट्रैक पर तीसरे दिन की जाती है. विकेट कितना सूखा था यह इस बात से समझा जा सकता है कि पहले ही दिन डीन एल्गर जैसा पार्ट टाइम स्पिनर भारतीय बल्लेबाजों को अपने घुमाव से छका रहा था. यह देख अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं था कि आगे आर. अश्विन, रविंद्र जडेजा और अमित मिश्रा की तिकड़ी क्या कमाल दिखाने वाली है. मैच तीन दिन में खत्म हो गया. पूरे मैच के दौरान स्पिनर्स ने 35 विकेट निकाले. जिसमें भारतीयों का योगदान 19 विकेट का रहा. बल्लेबाज एक-एक रन के लिए जूझते नजर आए और तेज गेंदबाज विकेट के लिए. पिच और इस भारतीय रणनीति की चौतरफा आलोचना की गई लेकिन स्थितियां बदली नहीं, बंगलुरु के चिन्नास्वामी स्टेडियम में भी लगभग समान ही विकेट था. वहीं तीसरे टेस्ट की नागपुर की पिच का मिजाज पढ़कर गावस्कर बोले, ‘यहां पहली पारी में बल्लेबाजी बहुत मुश्किल होगी और आखिरी पारी में लगभग असंभव.’ उनकी भविष्यवाणी सही साबित हुई और तीसरे दिन चाय के बाद मैच खत्म हो गया. पिच के मिजाज को समझने के लिए इतना ही काफी है कि दक्षिण अफ्रीका का मजबूत बल्लेबाजी क्रम पहली पारी में 79 रनों पर ढेर हो गया और मैच के दूसरे दिन कुल 20 विकेट गिरे.

माइकल वान, मैथ्यू हेडन, डेविड लॉयड, वसीम अकरम सहित कई पूर्व दिग्गज अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ी इस पिच विवाद का हिस्सा बन चुके हैं. वह ऐसी पिचों को क्रिकेट खेलने के लिहाज से अनुपयुक्त करार दे रहे हैं और घरेलू परिस्थितियों का जरूरत से अधिक लाभ उठाने के लिए भारतीय टीम द्वारा अपनाई जा रही इस रणनीति की कड़ी आलोचना कर रहे हैं. वहीं गावस्कर इस पूरे विवाद में कोहली और रवि शास्त्री का पक्ष लेते हुए एक चैनल से बात करते हुए कहते हैं, ‘घरेलू टीम के अनुकूल पिच बनाने में गलत क्या है. जब आपको आपकी पसंद की पिच नहीं मिलती तो हताशा होती है और व्यंग्यात्मक टिप्पणी की जाती है. लेकिन अपनी भाषा पर नियंत्रण होना चाहिए. जब निराशा होती है तो ऐसे शब्द कहे जाते हैं जो शास्त्री ने कहे लेकिन बाद में खेद होता है’. कपिल देव कहते हैं, ‘सीरीज का नतीजा काफी कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि पिच कैसी बनती है. अगर दक्षिण अफ्रीका के मुताबिक पिच बनती है तो भारत को मुश्किल होगी. लेकिन अगर भारतीय टीम के हिसाब से पिच बनेगी तो हम जीत सकते हैं.’

लेकिन इस बीच सवाल यह है कि आदर्श पिच कैसी हो? जिस पिच पर तीन दिन में नतीजा निकल आए और एक-एक रन को बल्लेबाज जूझें, क्या उसे खेल के लिहाज से आदर्श विकेट कहा जा सकता है? कई विशेषज्ञ इसे बेवजह का तूल करार दे रहे हैं. उनका कहना है कि दूसरे देशों में भी तीन दिन में मैच खत्म होते हैं, इसमें कौन सी नई बात है? लेकिन भारतीय पिचों के आंकड़े एक नई ही कहानी कह रहे हैं. 2013 से अब तक भारत ने अपने मैदानों पर कुल नौ टेस्ट मैच खेले हैं जिनमें से 5 तीन दिन में खत्म हुए हैं, दो मैच चार दिन में जबकि वर्तमान सीरीज का ही बंगलुरु मैच ड्रॉ रहा जिसके भी तीन दिनों में खत्म होने की संभावना थी. इस दौरान केवल एक ही मैच रहा जो कि पांच दिन तक चल सका. इन सभी में भारत को जीत मिली. तीन दिन में खत्म होने वाले मैचों का ऐसा प्रतिशत इस दौरान किसी और देश में नहीं देखा गया. जो साबित करता है कि भारत में घरेलू परिस्थितियों का लाभ लेने के लिए पिछले कुछ समय से अपने विकेटों के साथ कुछ ज्यादा ही प्रयोग किया जा रहा है.

इस समयांतराल में भारतीय पिचों में आए इस बदलाव की पटकथा के पीछे भारतीय टीम की असुरक्षा की वह भावना भी हो सकती है, जब 2012 में इंग्लैंड, भारत के दौरे पर आया था और ग्रीम स्वान-मोंटी पनेसर की जोड़ी ने भारत की घरेलू परिस्थितियों का फायदा बखूबी उठा भारत का दांव उसी पर चल उसे चारों खाने चित कर दिया था. उसके  बाद से ही भारतीय पिचों का स्तर इतना गिरा दिया गया कि केवल घरेलू स्पिन गेंदबाज ही घरेलू परिस्थितियों का फायदा उठा सकें.

पूर्व भारतीय अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेटर मनिंदर सिंह कहते हैं, ‘इस तरह की पिचें विश्व में कहीं नहीं मिल सकतीं. ये तो विकेट ही नहीं बनीं. आप अपनी घरेलू परिस्थितियों का लाभ उठाना चाहते हैं तो ऐसे विकेट तो बनाएं कि मैच चौथे दिन तक जाए. ये कुछ ज्यादा हो रहा है.’ वह आगे कहते हैं, ‘आप घरेलू परिस्थितियों का फायदा उठाइए. टर्निंग ट्रैक बनाइए, इसमें कुछ गलत नहीं है. लेकिन ऐसी पिचें बनाइए जो कि संभवत: दूसरे दिन से टर्न लेना शुरू करें. कुछ तो क्रिकेट देखने को मिले. कुछ तो खेल हो. ऐसी पिच कि कोई बल्लेबाज अर्द्धशतक भी नहीं लगा सका, जबकि विश्व की चोटी की टीम खेल रही हो. यह सवाल खड़े करता है. और ऐसे विकेट से आखिर लाभ किसे हो रहा है? जीतने के बाद हमें लग रहा है कि इससे भारतीय टीम का विश्वास बढ़ रहा है तो यह गलत है. मेरे मुताबिक विश्वास बढ़ नहीं रहा होगा. ये हम अपने ही विश्वास को जबरदस्ती धक्का मार रहे हैं. हमें विश्वास ये रखना चाहिए कि हम सामान्य घरेलू परिस्थितियों में भी जीत सकते हैं. मुझे ये यकीन है कि हमारे पास इतना टैलेंट है कि दक्षिण अफ्रीका की इस टीम को हम सामान्य परिस्थितियां रखते तो भी हरा देते.’

अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय पिचों पर मचे बवाल को देखने और उसकी तुलना अन्य देशों की पिच बनाने की परंपरा से करने से पहले यह देखना भी जरूरी है कि घरेलू स्तर के क्रिकेट में भी भारत में यही परिपाटी चल पड़ी है कि प्रदर्शन से ज्यादा पिच के मिजाज को महत्व दिया जा रहा है. राज्य क्रिकेट संघ अपने कप्तान के सुझाव पर रणजी मैचों के दौरान अपनी टीम के हित में ऐसी पिच बना रहे हैं जिन पर मुकाबला दो ही दिन में खत्म हो रहा है. यह एक डरावनी तस्वीर है जो भारतीय क्रिकेट के भविष्य के लिहाज से कतई सकारात्मक नहीं कही जा सकती. मनिंदर सिंह कहते हैं, ‘आप अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट में घरेलू परिस्थितियों का लाभ उठाने के लिए ऐसी पिच बनाते हैं तो माना जा सकता है कि आप अंतर्राष्ट्रीय रैंकिंग में बढ़त कायम करना चाहते हैं. लेकिन यह तो रणजी ट्रॉफी में भी हो रहा है कि पांच-पांच दिन के मैच दो-दो दिन में खत्म हो रहे हैं. और जिन क्रिकेट संघ में ऐसा हो रहा है वे कह रहे हैं कि दोनों टीमों के लिए तो पिच एक ही जैसी थी. ये तर्क बिल्कुल गलत है. क्योंकि इस तरह हम न तो आगे जा रहे हैं और न पीछे जा रहे हैं, हम नीचे जा रहे हैं. इस तरह तो भविष्य में हमें कोई अंतर्राष्ट्रीय स्तर का क्रिकेटर मिलेगा ही नहीं. ऐसी ही पिच बनाते रहिए, दो स्पिनर खिलाइए और दो दिन में जीत जाइए. खिलाड़ियों की मैच प्रैक्टिस हो ही नहीं पाएगी. टैलेंट को आप कैसे खोजोगे? विकेट ही इस कदर खराब होगा कि उस पर पैर जमाना भी मुश्किल हो तो एक बल्लेबाज अपनी तकनीक को सुधारे भी तो कैसे? ये शह कहां से मिल रही है कि मेजबान टीम है, जैसी मर्जी वैसी पिच बना सकते हैं? भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) की जिम्मेदारी बनती है कि इस पर विचार करे. अंतर्राष्ट्रीय मैच में तो आपने बना दिए ऐसे विकेट पर प्रथम श्रेणी क्रिकेट में तो सही बनाइए. वरना भस्मासुर वाली स्थिति बनते देर नहीं लगेगी.’

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मनिंदर की बात सही भी जान पड़ती है. अगर पिछले छह सालों के भारत के अंतर्राष्ट्रीय रिकॉर्ड पर नजर डालें तो चौंकाने वाले आंकड़े सामने आते हैं. इस अवधि में भारत ने घरेलू सरजमीं पर खेले कुल 25 मुकाबलों में से 17 जीते, तीन हारे हैं और बाकी ड्रॉ रहे हैं. वहीं भारतीय उपमहाद्वीप में खेले 9 मुकाबलों में से 5 में जीत दर्ज की, दो हारे और बाकी ड्रॉ रहे. लेकिन जब टीम उपमहाद्वीप के बाहर गई तब उसकी क्षमताओं का सही आकलन हुआ. उपमहाद्वीप के बाहर खेले गए 27 में से केवल तीन मुकाबले वह जीत सकी जबकि 17 में हार मिली और पांच ड्रॉ रहे. वहीं 2011 से उपमहाद्वीप के बाहर खेले गए 21 मैचों में से महज एक मैच में ही उसने जीत का स्वाद चखा है और 16 में हार मिली है.

विशेषज्ञों की राय है कि इसके पीछे यही कारण है कि सबसे पहले तो हम घरेलू स्तर पर ही ऐसी पिचें तैयार कर रहे हैं जो अंतर्राष्ट्रीय मानकों पर खरी नहीं उतरती, विश्व क्रिकेट के लिहाज से अल्पमत में हैं. जिसका नुकसान हमें यह उठाना पड़ता है कि खिलाड़ियों की प्रैक्टिस नहीं हो पाती. जब स्पिन फ्रेंडली विकेट पर स्पिनर मैच जिता रहे हैं तो क्यों एक रणजी टीम तेज गेंदबाज पर दांव लगाए. इसका नुकसान यह है कि न तो तेज गेंदबाजी को बढ़ावा मिल रहा है और न बल्लेबाज तेज गेंदबाजी झेलने के अभ्यस्त हो पा रहे हैं. वहीं दूसरी ओर पिछले कुछ सालों से विदेशी टीमों के भारत दौरे पर जैसे विकेट बनाए जा रहे हैं उससे हमारे खिलाड़ी जीत तो रहे हैं पर उनमें मुकाबला करने का जुझारूपन पैदा नहीं हो पा रहा है. घरेलू परिस्थितियों का अनुचित लाभ लेकर आसानी से मिली जीत संतोष तो दे सकती है लेकिन विपरीत परिस्थितियों में लड़ने का जुझारूपन नहीं दे सकती. हमें महीने भर बाद ही ऑस्ट्रेलिया का दौरा करना है, अगर यहां हम विकेट में अधिक छेड़छाड़ न कर उसे सामान्य भारतीय परिस्थितियों के मुताबिक ही रखते तो हमारे बल्लेबाजों को स्टेन, मोर्केल, फिलेंडर जैसे विश्वस्तरीय तेज गेंदबाजों की गेंदों पर अधिक खेलने का मौका मिलता, जो कि ऑस्ट्रेलियन परिस्थितियों में हमारे लिए लाभदायक होता. हमारे पास मैच प्रैक्टिस के लिए ढंग के तेज गेंदबाज हैं नहीं और विदेशी टीमों के गेंदबाज जब हमारी जमीन पर आते हैं तो हम उन्हें अपनी घरेलू परिस्थितियों में भी खेलना नहीं चाहते. इसलिए जब विदेशी दौरों पर जाते हैं और अचानक उनके तेज गेंदबाजों का सामना करते हैं तो ताश के पत्ते की तरह हमारी बल्लेबाजी बिखर जाती है.

पूर्व भारतीय बल्लेबाज और वर्तमान में दिल्ली क्रिकेट संघ के उपाध्यक्ष चेतन चौहान भी नागपुर और मोहाली की पिच को क्रिकेट के लिहाज से आदर्श नहीं मानते. लेकिन साथ ही कहते हैं, ‘दोनों ही टीम के बल्लेबाजों ने तकनीकी तौर पर दृढ़ता का परिचय नहीं दिया.’ तीन दिन में खत्म हो रहे मुकाबलों के पीछे वह पिच को तो दोष देते ही हैं, साथ ही कहते हैं, ‘इसके लिए टी-20 और एकदिवसीय भी जिम्मेदार हैं. बल्लेबाजों में न तो अब राहुल द्रविड़, वीवीएस लक्ष्मण, जैक कैलिस, शिवनारायण चंद्रपॉल की तरह विकेट पर जमे रहने का धैर्य रहा है और न ही टेस्ट मैचों के लिए आवश्यक तकनीक.’

इस बीच अपने बचाव में मोहाली टेस्ट के बाद दिया कोहली का यह तर्क कि ये नतीजा देने वाली पिचें हैं, जो टेस्ट प्रारूप में कम होते दर्शकों को दोबारा मैदान पर खींचकर लाएंगी, गले नहीं उतरता. अगर ऐसा होता तो नागपुर मैच के दौरान स्टेडियम खचाखच भरा होता. दर्शक नतीजा नहीं, क्रिकेट का रोमांच देखना चाहते हैं. तभी तो दो साल पहले भारत और दक्षिण अफ्रीका के बीच जोहानिसबर्ग में खेले गए ड्रॉ टेस्ट में भी दर्शकों का उत्साह चरम पर था क्योंकि वहां नतीजा न आकर भी नतीजा निकला था. दक्षिण अफ्रीकी दर्शकों के लिए यह जीतने सरीखा था कि पहली पारी में पिछड़ने के बाद चौथी पारी में 458 रनों के असंभव से लक्ष्य के आगे भी उनकी टीम ने घुटने नहीं टेके और मैच के ड्रॉ होने से पहले महज सात रन जीत से दूर थे, वहीं भारतीय समर्थकों के लिए यह जीत से कमतर नहीं था कि अंतिम क्षणों में उनकी टीम ने हार को ड्रॉ में बदल डाला.  यहां जीत न भारत की हुई और न दक्षिण अफ्रीका की, यहां जीत क्रिकेट की हुई. कोहली समय के साथ यह सीखेंगे.

‘तीन दिन में खत्म हो रहे मुकाबलों के लिए पिच तो दोषी हैं ही, साथ ही इसके लिए टी-20 और एकदिवसीय फॉर्मेट भी जिम्मेदार हैं’

टेस्ट क्रिकेट का इतिहास गवाह रहा है कि मेजबान टीमें अपने मनमाफिक पिचें तैयार कराती रही हैं. ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, इंग्लैंड जैसे देशों में तेज और हरी विकेट मिलती हैं तो दक्षिण अफ्रीका की उछाल भरी पिचें मेहमानों की नाक में दम करती हैं. ऐसी ही मनमाफिक पिचों की परंपरा भारतीय उपमहाद्वीप के देशों की भी रही है. श्रीलंका और भारत में स्पिन ट्रैक ही बनाए जाते रहे हैं. यही कारण है कि टेस्ट क्रिकेट को इम्तिहान के नजरिये से देखा जाता है, जब बल्लेबाज को अलग-अलग विकेट के हिसाब से खुद को ढालना पड़ता है, रन बनाने के लिए जूझना पड़ता है. लेकिन मनमाफिक पिच बनाने की परंपरा जब बेकाबू हो जाए, तो वह क्रिकेट समर्थकों को दुखी करती है. इस जीत का एक पहलू यह भी है कि आने वाले समय में कुछ ऐसी ही हालत भारतीय सूरमाओं की विदेशी पिचों पर होगी, जब गेंद छाती तक आएगी और गेंद की स्विंग और सीम का अंदाजा लगाना मुश्किल हो जाएगा. लिहाजा दक्षिण अफ्रीका पर भारत की इस जीत का मजा उठाते वक्त यह ध्यान रखना होगा कि न तो यह असली जीत है, न ही असली टेस्ट क्रिकेट. शायद इसीलिए विश्व क्रिकेट के कई दिग्गज समय-समय पर यह आवाज उठाते रहे हैं कि टेस्ट मैचों के विकेट बनाने का काम आईसीसी को अपने हाथों में ले लेना चाहिए.

संघ की सूचना, मना है पूछना!

I30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या के बाद 4 फरवरी 1948 को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. इस प्रतिबंध  के पीछे कोई और नहीं बल्कि तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल थे. वही सरदार पटेल, जिनके गौरवगान में आज संघ परिवार कोई कसर नहीं छोड़ता और सरकार भी उनके सम्मान में गुजरात में सरदार सरोवर बांध पर ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ के नाम से दुनिया की सबसे बड़ी प्रतिमा बनवा रही है.

प्रतिबंध के बाद आरएसएस ने पटेल को लिखित रूप में यह आश्वासन दिया था कि वे अपना एक संविधान बनाएंगे जिसमें खास तौर पर ये दर्ज होगा कि आरएसएस का राजनीति से कोई संबंध नहीं होगा और ये सिर्फ सांस्कृतिक कार्यों से जुड़ी संस्था होगी. इस मामले को और स्पष्ट रूप से जानने के लिए आरएसएस पर लगे प्रतिबंध से जुड़ीं फाइलें मददगार साबित हो सकती थीं, जो न सिर्फ आरएसएस के इतिहास के इस काले पन्ने को दिखातीं बल्कि वर्तमान में इस ‘संस्था के प्रिय’ बनते जा रहे पटेल का आरएसएस के प्रति नजरिया भी दर्शातीं. हालांकि ‘तहलका’ को मिली जानकारी के अनुसार गृह मंत्रालय की  ‘आरटीआई’ विंग केंद्रीय लोक सूचना अधिकारी (सीपीआईओ) के पास भी आरएसएस पर लगे प्रतिबंध के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है.

पीपी कपूर नाम के शख्स द्वारा गृह मंत्रालय में इस विषय से जुड़ी जानकारी के लिए दायर आरटीआई याचिका के जवाब में सीपीआईओ ने बताया, ‘यह दोहराया जाता है कि सीपीआईओ के अंतर्गत उपलब्ध किसी भी दस्तावेज या फाइल में महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद आरएसएस पर प्रतिबंध लगाए जाने को लेकर जानकारी नहीं है.’ सीपीआईओ ने ये भी कहा कि जानकारी जुटाने के लिए समुचित प्रयास भी किए गए हैं.

आरटीआई के नियमों के अनुसार अगर कोई व्यक्ति उसकी याचिका को मिले जवाब से संतुष्ट न हो तो वह गृह मंत्रालय के संयुक्त सचिव के पास अपील कर सकता है. जब ‘तहलका’ ने इस बारे में संयुक्त सचिव रश्मि गोयल से संपर्क किया तब उन्होंने कहा, ‘मैं इस पर जवाब देने के लिए अधिकृत व्यक्ति नहीं हूं.’

केंद्र की भाजपा सरकार के ‘पटेल एजेंडा’ के चलते गुजरात के सरदार सरोवर बांध पर ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ के नाम से पटेल की प्रतिमा लगवाई जा रही है

ऐसे जवाब से कई संभावनाएं उठती हैं. क्या गृह मंत्रालय ऐसी कोई जानकारी छिपा रहा है? या फाइलें सचमुच खो गईं हैं? अगर ऐसा हुआ है तो इसका जिम्मेदार कौन है? भाजपा या कांग्रेस?

हरियाणा के आरटीआई कार्यकर्ता पीपी कपूर ने गृह मंत्रालय को पहली बार जनवरी 2014 में लिखा था, फिर जनवरी 2015 में, फिर अगस्त 2015 में. हालांकि जवाब हर बार एक ही रहा कि उनके पास उपलब्ध दस्तावेजों में इस बारे में कोई जानकारी नहीं है. कपूर का कहना है, ‘सरकार अपने पटेल एजेंडे और ब्रांड को बचाने के लिए जानकारी छुपा रही है, क्योंकि अगर पटेल के समय में आरएसएस पर लगे प्रतिबंध के बारे में कोई बात सामने आती है तो उनके लिए पटेल को सामने रखकर प्रचार करना शर्म की बात होगी.’

वैसे केंद्र की भाजपा सरकार के ‘पटेल एजेंडा’ के चलते गुजरात के सरदार सरोवर बांध पर ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ के नाम से सरदार पटेल की प्रतिमा बनवाई जा रही है. विश्व की इस सबसे बड़ी प्रतिमा की लंबाई लगभग 182 मीटर होगी. इसके अलावा पिछले आम चुनावों के समय जनसभाओं में प्रधानमंत्री मोदी भी ‘लौह पुरुष’ की तारीफ करते नजर आते थे.

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज में  कार्यरत आदित्य मुखर्जी उन लोगों में से हैं जो यह मानते हैं कि सरदार पटेल ने 1948 में आरएसएस को कभी किसी तरह की क्लीनचिट नहीं दी. उनका कहना है, ‘अगर ऐसा हुआ है तो सरदार पटेल ने गांधी की हत्या के बाद 25 हजार आरएसएस कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी कैसे होने दी?’

ऐसा ही सवाल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सलमान खुर्शीद उठाते हैं, ‘अगर आरएसएस को क्लीनचिट मिली थी तो वे क्यों उन दस्तावेजों को सार्वजनिक नहीं कर देते?’ वे आगे जोड़ते हैं, ‘दरअसल भाजपा और आरएसएस के पास आजादी की लड़ाई से जुड़ा कोई ऐतिहासिक चरित्र नहीं है. ऐसे में वो इस शून्य को पाटने के लिए कांग्रेस के नेताओं को शामिल करने की कोशिश कर रहे हैं. ऐसा हो सकता है कि भाजपा और आरएसएस ने ही सीपीआईओ को इस मुद्दे से जुड़ी जानकारी सार्वजनिक करने से रोका हो क्योंकि इससे उनका ‘पटेल एजेंडा’ खतरे में आ जाएगा. वैसे जब पटेल गृहमंत्री थे और संघ पर प्रतिबंध लगाया गया था, तब भाजपा अस्तित्व में ही नहीं थी. पटेल कांग्रेस के नेता थे और अगर कोई उन्हें उन्हीं की पार्टी के प्रतिरोधी के बतौर पेश करता है तो उसके उद्देश्यों पर संदेह होना लाजमी है.’

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दूसरे वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री मणिशंकर अय्यर कहते हैं, ‘मुझे दस्तावेजों के बारे में तो नहीं पता पर मैं ये जरूर कहूंगा कि 1925 में आरएसएस के गठन के बाद से पटेल के पास उससे जुड़ने के लिए लगभग 22 सालों का समय था पर उन्होंने ऐसा नहीं किया. उस समय लाला लाजपत राय और मदन मोहन मालवीय जैसे कई कांग्रेसी नेता हिंदू महासभा से जुड़े हुए थे पर पटेल उनमें कभी शामिल नहीं थे. इससे ये तो समझ ही सकते हैं कि पटेल की आरएसएस से जुड़ने की कभी कोई मंशा नहीं थी.’ वे ये भी जोड़ते हैं, ‘भाजपा को किसी दूसरे के इतिहास में ‘नायक’ खोजने के बजाय अपने ही इतिहास में किसी ऐसे नायक को तलाशना चाहिए.’

दूसरी ओर भाजपा नेता इस बात पर अड़े हैं कि स्वतंत्रता सेनानी सिर्फ कांग्रेस की बपौती नहीं हैं बल्कि वे पूरे देश के नायक हैं. भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव राम माधव कहते हैं, ‘मैं कांग्रेस को याद दिलाना चाहूंगा कि आजादी की लड़ाई के समय कांग्रेस कोई राजनीतिक दल नहीं बल्कि एक आंदोलन था. राजनीतिक दल ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ की स्थापना आजादी के बाद हुई है.’ ऐसा ही भाजपा उपाध्यक्ष और राज्यसभा सांसद प्रभात झा का मानना है. वे कहते हैं, ‘सरदार पटेल का ताल्लुक देश के 125 करोड़ लोगों से है. वे ही वो व्यक्ति थे जिन्होंने (हैदराबाद के) निजाम को हराया था.’ उन्होंने इस मामले पर ‘तहलका’ के बाकी सवालों का जवाब देने से मना कर दिया.

‘20 दिसंबर 1948 को जयपुर में पटेल ने एक भाषण दिया था, जहां उन्होंने साफ कहा था कि वे किसी भी प्रकार की सांप्रदायिकता को स्वीकार नहीं करेंगे’

इतिहास से जुड़ा एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि सरदार पटेल ने ही आरएसएस कोे तिरंगा फहराने पर जोर दिया था. हालांकि आरएसएस द्वारा तिरंगा कुछ मौकों पर ही फहराया गया. पहली बार आजादी के समय 1947 में आरएसएस मुख्यालय पर तिरंगा फहराया गया, दूसरी बार 26 जनवरी 1950 में और फिर दशकों के बाद 2002 में. सितंबर में हुए एक सेमिनार में आरएसएस के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनोहर वैद्य ने कहा था कि झंडे का रंग भगवा होना चाहिए क्योंकि तिरंगा सांप्रदायिक है. हालांकि इतिहास की इन बातों का सामने आना मुश्किल ही लगता है. आदित्य मुखर्जी बताते हैं, ‘यूपीए सरकार ने ‘इंडियन काउंसिल फॉर हिस्टोरिकल रिसर्च’ को एक प्रोजेक्ट दिया था जिसके अंतर्गत उसे 1947 से 1950 तक के दस्तावेज इकट्ठे करने थे पर जब भाजपा सरकार सत्ता में आई तब इंडियन काउंसिल फॉर हिस्टोरिकल रिसर्च के अध्यक्ष बदल गए और बिना कोई कारण बताए इस प्रोजेक्ट को बंद कर दिया गया.’

इतिहासकार और ‘पटेल, प्रसाद एंड राजाजी: मिथ ऑफ द इंडियन राइट’ और ‘नेहरू-पटेल : अग्रीमेंट विदइन डिफरेंस’ जैसी किताबों को लिखने वाली नीरजा सिंह बताती हैं, ‘20 दिसंबर 1948 को जयपुर में सरदार पटेल ने एक भाषण दिया था, जहां उन्होंने साफ कहा था कि वे देश में किसी भी प्रकार की सांप्रदायिकता को स्वीकार नहीं करेंगे. भले ही वो किसी भी संस्था द्वारा फैलाई जाए. उन्होंने तो हिंदू महासभा से जुड़े महंत दिग्विजय नाथ, प्रोफेसर राम सिंह और देश पांडेय के कामों की भी आलोचना की थी.’ वे आगे कहती हैं, ‘भाजपा का पटेल एजेंडा फेल हो चुका है. पहले उन्होंने कहा कि मेक इन इंडिया के तहत सरदार पटेल की सबसे बड़ी प्रतिमा लगाई जाएगी पर अब ये मेड इन चाइना होगी. भाजपा को परिपक्व राजनीति करनी चाहिए. साथ ही राजनीतिक लाभ लेने के लिए मशहूर व्यक्तियों को हथियाने की आदत छोड़ देनी चाहिए.’

सुनहरे सपनों की फीकी चमक

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लखनऊ की रहने वाली शिक्षिका पुष्पा की रुचि सरकार की नई योजनाओं में खूब रहती है. वह बहुत सारी योजनाओं को लेकर आस-पास के लोगों को जागरूक भी करती रहती हैं. जब उन्होंने केंद्र की मोदी सरकार की सोने पर ब्याज मिलने की योजना के बारे में सुना, तो खासी उत्साहित हो गईं और इसके बारे में जानकारी जुटाने लगीं. लेकिन जब उन्हें यह पता चला कि उन्हें अपने सोने के आभूषण को सरकार द्वारा बनाए गए शुद्धता जांच केंद्र पर ले जाकर गलवाना होगा और तब उन्हें सोने पर ब्याज मिलेगा तो उनकी सारी खुशी काफूर हो गई.

पुष्पा बताती हैं कि उनके पास सोने के जो आभूषण हैं, उनसे ढेरों यादें जुड़ी हैं. कुछ गहने उनके पति ने बनवाए पर ज्यादातर उन्हें घर के बड़े-बूढ़ों ने दिए हैं, जो पीढ़ी दर पीढ़ी उसी रूप में हस्तांतरित होने चाहिए. उन्हें गलाने के बारे में वह सोच भी नहीं सकतीं. भले ही इनसे उन्हें कोई फायदा नहीं हो रहा है, पर उन्हें गहनों को देखकर संतुष्टि मिलती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने धनतेरस से पहले स्वर्ण मौद्रीकरण योजना 2015, सार्वभौमिक स्वर्ण बॉन्ड योजना और अशोक चक्र के निशान वाले सोने के सिक्के जारी करने की तीन योजनाओं की शुरुआत की थी. इनका मकसद सोने को बैंकिंग प्रणाली में लाना व इसके बढ़ते आयात पर रोक लगाना था. बढ़ते आयात के चलते भारत दुनिया के उन देशों में शामिल है जो सोने के सबसे बड़े खरीददार हैं. भारत सालाना 1000 टन सोने का आयात करता है जिससे भारी मात्रा में विदेशी मुद्रा बाहर चली जाती है. इससे राजकोषीय घाटे पर दबाव बढ़ता है. अनुमान है कि देश में लोगों के पास और मंदिरों में कुल मिलाकर करीब 20 हजार टन सोना पड़ा है, जिसकी अनुमानित कीमत 52 लाख करोड़ रुपये होती है.

 सोने से बड़ी हैं उम्मीदें

योजनाओं की शुरुआत करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि जिस देश के पास घर-परिवार और संस्थानों में 20 हजार टन सोना बेकार रखा हो, ऐसे देश के गरीब रहने की कोई वजह नहीं है. भारत कुछ नई पहलों और सही नीतियों के साथ आगे बढ़ते हुए गरीब देश के तौर पर अपनी पहचान को खत्म कर सकता है. स्वर्ण मौद्रीकरण योजना 2015 के तहत लोग अपने पास उपलब्ध सोने को जमा कर सकेंगे जिस पर उन्हें 2.5 प्रतिशत सालाना ब्याज मिलेगा. जबकि सार्वभौमिक स्वर्ण बॉन्ड योजना के तहत आपको सोना खरीदने की जरूरत नहीं होगी, बल्कि सोने के नाम पर आपको बॉन्ड पत्र मिलेगा. निवेशक बॉन्ड पत्र खरीदकर सालाना 2.75 प्रतिशत तक ब्याज प्राप्त कर सकेंगे. बॉन्ड पांच ग्राम से 100 ग्राम सोने तक के होंगे और 500 ग्राम से ज्यादा खरीदने की छूट नहीं होगी. लेकिन अगर जरूरत है तो समय से पहले भी पैसे निकालने की छूट मिलेगी. ये बॉन्ड बैंक और पोस्ट ऑफिस से खरीद जा सकेंगे. स्वर्ण बॉन्ड की अवधि पूरी होने पर आपको सोना नहीं मिलेगा बल्कि ब्याज के साथ सोने की उतनी कीमत (जो उस समय होगी) नकद मिल जाएगी. अगर सोने की कीमत गिर जाती है तो सरकार विकल्प देगी कि आप तीन साल या फिर उससे ज्यादा वक्त के लिए बॉन्ड आगे बढ़ा दें मतलब उस वक्त न भुनाएं. इसके साथ ही सरकार ने अशोक चक्र और महात्मा गांधी के चित्र वाले पांच ग्राम तथा दस ग्राम के सोने के सिक्के चलाकर लोगों को निवेश का एक और विकल्प दिया. वैसे सोने को हमारे देश में एक वैकल्पिक और सुरक्षित निवेश के तौर पर देखा जाता है लेकिन अधिकांश सोना घरों की तिजोरियों और बैंकों के लॉकर में बंद है, इसलिए इसे रखने वाले को इससे किसी भी तरह का फायदा नहीं होता. सिर्फ इस धातु की कीमत बढ़ने पर ही पूंजी बढ़ने की उम्मीद होती है. ऐसे में अगर लोग सरकार की योजनाओं का हिस्सा बनते हैं तो वे इससे कुछ आय भी अर्जित कर सकते हैं.

फ्लॉप हो गईं योजनाएं

उद्योग निकाय रत्न एवं आभूषण निर्यात संवर्धन परिषद (जीजेईपीसी) के अनुसार स्वर्ण मौद्रीकरण योजना का पहला पखवाड़ा निराशाजनक रहा. इस दौरान महज 400 ग्राम सोना ही जमा कराया गया. इसी तरह सरकार की बहु-प्रचारित स्वर्ण बॉन्ड खरीद योजना से प्राप्त अंतिम राशि पर अगर नजर डालें तो एक तरह से यह योजना भी लोगों को आकर्षित करने में विफल रही है. इस योजना से मात्र 150 करोड़ रुपये ही जुटाए जा सके. वरिष्ठ आर्थिक विश्लेषक भरत झुनझुनवाला इन योजनाओं की विफलता का कारण भरोसे की कमी बताते हैं. वे कहते हैं, ‘लोगों का सोना खरीदने का मकसद उसे बेचकर पैसा कमाना नहीं होता है. वे अपनी सुरक्षा के लिए सोना खरीदते हैं. अगर लोगों को सरकार और बैंकों पर भरोसा होता, तो वे सोना खरीदते ही नहीं. ऐसे में सोना खरीदकर सरकार या बैंकों के हाथ में देने की कोई भी योजना सफल ही नहीं हो सकती है.’

भारत में सोने की चाहत बहुत प्रबल है. यह अचल पूंजी के साथ-साथ पारिवारिक विरासत की निशानी भी होती है. पुश्तों से ये बचत की पूंजी जमा करने और सुरक्षित निवेश का आसान जरिया माना जाता रहा है. ऐसे में इन योजनाओं की शुरुआत से ही यह सवाल उठाया जा रहा था कि कितने लोग अपने ‘खानदानी’ सोने की पहचान मिटने यानी आभूषणों को गलाने की इजाजत देंगे. ढाई प्रतिशत तक ब्याज की सुविधा और फिर एक निश्चित समय के बाद जमा सोने को उतनी ही मात्रा में वापस पाने जैसे प्रावधानों से उम्मीदें बढ़ी थी, लेकिन लोगों ने इसमें रुचि नहीं दिखाई.

दिल्ली विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर डॉ. आसमी रजा सोने से जुड़े भावानात्मक लगाव और योजनाओं को लाने के गलत समय को इस तात्कालिक विफलता की बड़ी वजह बताते हैं. उनके अनुसार, ‘भारतीय महिलाओं का सोने के साथ बहुत गहरा लगाव है. वे लंबे समय से इसी के जरिये उपहारों का आदान-प्रदान करती आ रही हैं. ऐसे में लोगों से निवेश के लिए सोना निकलवाने के लिए हमें बढ़िया ऑफर देना होगा. अभी हमारी वित्तीय व्यवस्था में सोना गिरवी रखने पर बहुत अच्छा रिटर्न नहीं मिलता है. इन योजनाओं की विफलता के लिए हमारा अंडरसाइज फाइनेंशियल सिस्टम जिम्मेदार है. अंडरसाइज सिस्टम का मतलब पारदर्शिता से है. भारत इतना बड़ा देश है और हमने सोने की शुद्धता की जांच के लिए बहुत कम ही केंद्र बनाए. सरकार का फोकस तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों पर रहा. यह योजना बहुत ही कम समयावधि के लिए लोगों के सामने आई है और इसमें निरंतरता की जरूरत है. इसके अलावा सरकार ने एक तय मात्रा से अधिक सोना जमा करने पर उसके स्रोत के बारे में जानकारी देने की अनिवार्यता तय कर दी. इससे भी लोगों ने इस योजना में रुचि नहीं दिखाई. सबसे बड़ी बात योजना को लाने के समय को लेकर है. इस समय अंतर्राष्ट्रीय बाजार में सोने का दाम पांच साल के सबसे निचले स्तर पर है. इसके अलावा पिछले करीब तीन सालों में भारत के इक्विटी मार्केट और सोने के दामों में विपरीत संबंध दिखाई पड़ रहा है. इसके चलते भी निवेशक अभी पैसा लगाने को तैयार नहीं हैं.’ फिलहाल सोने की जांच के लिए कम केंद्र होने की बात सरकार भी मान रही है. देशभर में योजना के लिए महज 29 जांच केंद्र और चार रिफाइनरी हैं. लोगों से मिली ठंडी प्रतिक्रिया को देखते हुए वित्त मंत्रालय ने योजनाओं को लेकर 15 दिन के भीतर 19 नवंबर को तीसरी बार बैठक की. इसमें भारतीय मानक ब्यूरो, हॉलमार्क एसोसिएशन, बैंकों सहित सभी पक्ष शामिल हुए. इस दौरान साल के अंत तक सोना जांच केंद्र और रिफाइनरी की संख्या बढ़ाकर क्रमश: 55 और 20 करने का लक्ष्य रखा गया. इसके अलावा वित्त मंत्रालय के सूत्रों का कहना है कि सरकार अब भारतीय मानक ब्यूरो (बीआईएस) से प्रमाणित ज्वेलर्स को सोने की शुद्धता की जांच का जिम्मा सौंपने पर भी विचार कर रही है. बीआईएस से प्रमाणित देशभर में कुल 13,000 ज्वेलर्स हैं.

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नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी अल्टरनेटिव्स के चेयरमैन मोहन गुरुस्वामी का कहना है, ‘इस योजना की शुरुआत करने का मकसद लॉकरों में बेकार पड़े सोने को वित्तीय उपयोग में लाने का है. यह सोच सही है, लेकिन सरकार को यह बात समझनी होगी कि इस पर लोगों का क्या सोचना है. जैसे कि यदि कोई अपने घर पर कई पीढ़ियों से पड़े सोने को लेकर बैंक के पास जाएगा तो उससे सवाल-जवाब शुरू हो जाएगा. यह सोना आपको कहां से मिला? आपने आयकर भरा है या नहीं? इसके लिए पैसा कहां से आया? सोने को लोगों के घरों से बाहर निकालने के लिए सरकार को ऐसी लुभावनी नीति बनानी चाहिए, जिससे इन सवालों से गुजरना ही नहीं पड़े. सरकार ने इस बारे में सोचा ही नहीं जिससे योजना फ्लॉप हुई.’

‘सरकार को इस योजना को जनसुलभ बनाने के साथ ही इस बात का ध्यान रखना होगा कि काले धन वाले इसे अपने हित में इस्तेमाल न कर पाएं’

विशेषज्ञ सोना जमा करने की एक थकाऊ प्रक्रिया को भी योजना सफल न होने का कारण बता रहे हैं. यह प्रक्रिया कई चरणों में पूरी होती है. इसके लिए आपको सरकार से मान्यता प्राप्त केंद्र पर अपने आभूषणों ले जाकर उसकी शुद्धता की जांच करानी होगी. यहां आपको गहनों की शुद्धता के बारे में जानकारी दी जाएगी. यानी सोना 22 कैरेट है, 24 कैरेट है, 18 कैरेट या इससे कम का है. अगर दी गई जानकारी के बाद ग्राहक अपने सोने को जमा कराने पर राजी होता है तो आगे की प्रक्रिया शुरू होगी और अगर राजी नहीं होता है तो उसे गहने वापस कर दिए जाएंगे. इस प्रक्रिया में करीब 45 मिनट का समय लगेगा और ग्राहक को सोने की जांच के लिए 300 रुपये चुकाने होंगे. जांच केंद्र की ओर से दी गई जानकारी के बाद अगर ग्राहक सोने के गहनों को बैंक में जमा कराने पर राजी होता है तो उसे उन्हें पिघलाने के लिए एक फॉर्म भरना होगा. पिघलाने के पहले उनकी सफाई की जाएगी. फिर उनको तौल कर पिघलाया जाएगा. इसके बाद उसे छड़ों में तब्दील कर दिया जाएगा. इसमें 3-4 घंटे लग सकते हैं. ग्राहक चाहे तो इसके बाद भी सोने को बैंक में जमा करने से मना कर सकता है, अगर वह मना करता है तो उसे प्रति 100 ग्राम सोने को पिघलाने पर 500 रुपये फीस चुकानी होगी और सोने की छड़ उसे सौंप दी जाएगी. अगर ग्राहक सोने को बैंक में जमा कराने पर राजी होता है तो कलेक्शन सेंटर से उसको सोने की शुद्धता और मात्रा के बारे में एक सर्टिफिकेट दिया जाएगा. उसे बैंक में दिखाने पर ग्राहक का गोल्ड सेविंग अकाउंट शुरू कर दिया जाएगा. इसके लिए कम से कम 30 ग्राम सोने की अनिवार्यता है. ग्राहक और जांच केंद्र जितने सोने की जानकारी देंगे, बैंक उतना ही सोना ग्राहक के अकाउंट में दर्शाएगा. इस पर मिलने वाला ब्याज बैंक तय करेगा. साथ में ग्राहक चाहे तो ब्याज को सोने के तौर पर भी ले सकता है या फिर उसे कैश करा सकता है. विशेषज्ञों का कहना है कि शुरुआती दौर में जांच केंद्र, बैंक और सरकार के समन्वय में कमी इस योजना के फ्लॉप होने का कारण हैं.

वहीं, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के रिटायर्ड प्रोफेसर अरुण कुमार के अनुसार, ‘सरकार ने खुद को सक्रिय दिखाने के लिए बगैर तैयारी के ही इस योजना की शुरुआत कर दी है. सरकार ने जल्दबाजी में रोडमैप तैयार नहीं किया है. ऐसा सिर्फ इस योजना के ही साथ नहीं है. स्वच्छ भारत अभियान और गुड गवर्नेंस जैसी योजनाओं में भी यही कमी सामने आई थी. वैसे इस योजना के बारे में जैसे-जैसे लोगों को पता चलेगा, यह लोगों को आकर्षित करेगी. बस एक अंदेशा है कि कहीं यह काले धन को सफेद करने का जरिया न बन जाए. सरकार को इस योजना को जनसुलभ बनाने के साथ ही इस बात का ध्यान रखना होगा कि काला धन रखने वाले इसे अपने हित में इस्तेमाल न कर पाएं.’ वित्त मंत्रालय द्वारा इन योजनाओं को लेकर 15 दिन के भीतर तीन बार बुलाई गई बैठक इस बात की पुष्टि करती है कि सरकार ने एक अच्छी पहल जरूर की, लेकिन इसकी शुरुआत बहुत ही हड़बड़ी में की.

नगालैंड में कलम पर लगाम!

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संपादकीय पेज की जगह खाली थी. नगालैंड के अखबारों- नगालैंड पेज, ईस्टर्न मिरर और मोरंग एक्सप्रेस के पाठक हैरान थे. राष्ट्रीय प्रेस दिवस, जो भारत में स्वतंत्र और जिम्मेदार प्रेस के प्रतीक दिवस के रूप में मनाया जाता है, पर इन अखबारों ने संपादकीय पेज को कोरा छोड़ दिया था.

देश में आपातकाल के बाद प्रिंट मीडिया द्वारा विरोध करने का यह सबसे मजबूत तरीका इसलिए अपनाया गया क्योंकि असम राइफल्स के एक कर्नल ने मीडिया को धमकी भरा पत्र लिखा था. 25 अक्टूबर को सामने आए इस पत्र में इन अखबारों पर एक प्रतिबंधित संगठन की गैर-कानूनी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगाया गया था.

मोरंग एक्सप्रेस ने संपादकीय पेज खाली रखने का कारण बताते हुए लिखा, ‘सत्ता द्वारा स्वतंत्र प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को कमजोर करने की कोशिश की जा रही है, उसके खिलाफ अपना विरोध दर्ज कराने के लिए हम संपादकीय पेज खाली छोड़ने का विकल्प चुन रहे हैं.’

असम राइफल्स ने इन अखबारों के अलावा ‘नगालैंड पोस्ट’ और ‘कैपी’ को भी उग्रवादी संगठनों के बयान न छापने के लिए कहा है. ‘कोई भी लेख जो उग्रवादी संगठन  ‘नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (खापलंग)’ (एनएससीएन-के) की मांगें छापता है और उन्हें प्रचारित करता है वह गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम, 1957 का उल्लंघन है और इसलिए आपके अखबार को ये सब नहीं छापना चाहिए.’ पत्र में आगे लिखा है कि केंद्रीय गृह मंत्रालय ने एनएससीएन (के) को गैरकानूनी संगठन घोषित कर दिया है. अधिसूचना की एक प्रति और उन लेखों को भी पत्र के साथ संलग्न किया गया है.

इस औपचारिक फरमान का उद्देश्य, जिसकी विषय-वस्तु में ‘गैर-कानूनी संगठनों को मीडिया का समर्थन’ लिखा है, नगा मीडिया को उग्रवादी संगठनों के विचारों को लिखने से रोकना है. इसके चलते मीडिया बिरादरी और दूसरे लोगों में गुस्सा है. नगालैंड पेज की मोनालिसा चंगकीजा मानती हैं, ‘असम राइफल्स ये सब नगालैंड में हथियारबंद संगठनों पर लगाम लगाने की अपनी असफलता से ध्यान भटकाने के लिए कर रही है.’

देश के दूसरे हिस्सों में भी गूंज रहे ताजा घटनाक्रम में कई पेंचिदा मुद्दे शामिल हैं. नगा संपादक इस घटनाक्रम को संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार अभिव्यक्ति की आजादी और संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार पर घोषणा के उल्लंघन के रूप में देखते हैं. ये घटनाक्रम आपातकाल के दिनों में प्रेस सेंसरशिप के फरमानों की याद दिलाता है जब इंडियन एक्सप्रेस अखबार और नई दुनिया जैसे कुछ अखबारों ने अपने संपादकीय पेज खाली छोड़े थे.

नगालैंड का गठन 1963 में अशांत परिस्थितियों में हुआ था इस वजह से सामाजिक और राजनीतिक विरोधाभास इसे विरासत में मिले हैं. संपादक कहते हैं कि ऐसी स्थिति में सभी पक्षों की राय और स्थिति को रिपोर्ट करना जरूरी हो जाता है. नगालैंड के 6 अखबारों के संपादकों ने एक संयुक्त बयान में कहा है, ‘राज्य, गैर-राज्य और काॅरपोरेट से प्रभावित हुए बिना हम अपनी संपादकीय स्वतंत्रता को निभाते समय निष्पक्ष और गैर-पक्षपातपूर्ण रहेंगे.’

संपादकों के संयुक्त बयान पर असम राइफल्स ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा, ‘मीडिया को स्वतंत्र रूप से रिपोर्ट करने के लिए कभी मना नहीं किया गया. हालांकि प्रतिबंधित संगठन के द्वारा व्यावसायिक अधिष्ठानों को भेजे जबरन वसूली के नोटिस को छापना उस संगठन को फंड इकट्ठा करने के लिए उकसाने जैसा है, जिससे उगाही हुई रकम का इस्तेमाल सरकारी एजेंसियों और सुरक्षा बलों के खिलाफ विनाशकारी गतिविधियों में किया जा सके.’

राज्य में हालांकि चुनी हुई सरकार है लेकिन आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट (आफ्स्पा) के निरंतर विस्तार के कारण सेना को अधिक शक्तियां मिली हुई हैं. असम राइफल्स ने कई मौकों पर उन संवाददाताओं पर आर्मी विरोधी होने का आरोप लगाया है जिन्होंने उनके आचरण पर सवाल उठाए. लेकिन सीधे तौर पर आरोप लगाने का सिलसिला इस वर्ष संघर्षविराम के उल्लंघन के बाद शुरू हुआ है. मोरंग एक्सप्रेस के एक प्रतिनिधि ने ‘तहलका’ को बताया, ‘जुलाई में जब हमारे एक रिपोर्टर ने तथाकथित रूप से असम राइफल्स द्वारा मारे गए दो बच्चों के बारे में सवाल पूछा तो उन्होंने हमें आर्मी विरोधी और प्रतिबंधित संगठन का समर्थक करार दे दिया.’

गौर करने लायक बात ये भी है कि जब संघर्ष क्षेत्र में रिपोर्टिंग की बात आती है तो सभी पक्षों की बात सुनना राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारिता दोनों के लिए एक सामान्य प्रथा है. नगालैंड पोस्ट के संपादक इस सेंसरशिप को असम राइफल्स द्वारा दी गई एक ढकी-छिपी हुई धमकी मानते हैं.

इसके अलावा, राज्य के प्रशासनिक और नागरिक मुद्दे असम राइफल्स के अधिकार क्षेत्र में नहीं आते. यहां के अखबार खुद को भारतीय प्रेस काउंसिल के प्रति जवाबदेह मानने के लिए तैयार हैं. वे ऐसे मुद्दों पर राज्य सरकार के चुने हुए सदस्यों से मिलने के लिए भी स्वतंत्र हैं.

हैप्पी टू ब्लीड : मेरी माहवारी तेरी मानसिक बीमारी

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13 नवंबर को केरल के प्रसिद्ध ‘सबरीमाला मंदिर’ के त्रावणकोर देवाश्वम बोर्ड के नवनिर्वाचित अध्यक्ष प्रयार गोपालकृष्णन ने मीडिया से बात करते हुए कथित तौर पर ये कहा कि जब तक एअरपोर्ट पर हथियार चेक करने जैसी कोई स्कैन मशीन महिलाओं की ‘पवित्रता’ जांचने के लिए उपलब्ध नहीं होती, तब तक महिलाओं का मंदिर में प्रवेश वर्जित रहेगा. केरल के इस प्रसिद्ध तीर्थस्थल पर 10 साल से 50 साल की उम्र तक की महिलाओं का प्रवेश वर्जित है. ऐसी मान्यता है कि मंदिर में प्रतिष्ठित देव अयप्पा ब्रह्मचारी थे और इसलिए महिलाएं (जिन्हें मासिक स्राव होता है) मंदिर में नहीं जा सकतीं.

बहरहाल, प्रयार गोपालकृष्णन के इस कथित बयान के बाद पटियाला से स्नातक कर रहीं 20 साल की निकिता आजाद ने एक ऑनलाइन यूथ मंच पर प्रयार गोपालकृष्णन के नाम एक खुला खत लिखा, जिसमें सालों से मासिक स्राव के नाम पर महिलाओं के साथ हो रहे भेदभावों, इससे फैलने वाली भ्रांतियों और तमाम तरह की सामाजिक वर्जनाओं का विरोध किया गया. इसमें उन्होंने महिलाओं से इस तरह के सामाजिक टैबू को तोड़कर सामने आने की बात भी कही, साथ ही ‘हैप्पी टू ब्लीड’ लिखे सेनेटरी नैपकिन के साथ अपनी तस्वीर पोस्ट करते हुए लोगों से इस तरह के पितृसत्तात्मक रवैये के खिलाफ खड़े होने को भी कहा. सोशल मीडिया पर ‘हैप्पी टू ब्लीड’ मुहिम को लोगों ने हाथोंहाथ लिया. निकिता बताती हैं, ‘हमें लगा नहीं था कि इस मुहिम को इतनी सकारात्मक प्रतिक्रिया मिलेगी. देश भर से हजारों लोग सामने आए और इस अभियान से जुड़े. सबसे खुशी की बात ये है कि इसमें पुरुषों का भी एक बड़ा वर्ग है. हमारा उद्देश्य किसी धर्म या समुदाय विशेष का विरोध नहीं है, बल्कि हम महिलाओं के जीवन में होने वाली इस कुदरती घटना को समाज में स्वीकार्यता दिलाना चाहते हैं.’

निकिता की ये मुहिम एक जरूरी बड़े मुद्दे को सामने लाकर उस पर बात करने की शुरुआत भर है. समस्या सिर्फ मासिक स्राव को लेकर नाक-भौं सिकोड़ने वाला नजरिया नहीं है बल्कि इसके परिणाम हैं.

‘मैं 12 साल की थी और मुझे पता ही नहीं था ये (स्राव) क्या है. मेरी मां की मौत कैंसर से हुई थी. तब मुझे लगा मुझे भी कैंसर हो गया है’

भारतीय समाज की बनावट ऐसी है कि महिलाओं के मुद्दे हमेशा गैरजरूरी समझे गए. उनकी शिक्षा, जरूरतें,  स्वास्थ्य आदि हमेशा से समाज में चल रहे सुधारों से दूर ही रहे. ऐसे में मासिक स्राव, रिप्रोडक्टिव हेल्थ यानी प्रजनन स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं तो सामने ही नहीं आईं. इनके बारे में बात करना ही वर्जित है. हालत ये है कि आज 21वीं सदी में भी ऐसे मामले सामने आते हैं जहां इसे असामान्य माना जाता है और उन पांच-सात दिनों में उस महिला को अपवित्र. इस ‘अपवित्रता’ का आलम ये है कि उन कुछ दिनों में महिलाओं को तमाम तरह के प्रतिबंधों में रहना होता है, जैसे वे रसोई, पूजाघर या मंदिर में नहीं जा सकतीं, तुलसी का पौधा या कोई पूजन की वस्तु नहीं छू सकतीं. उनका बिस्तर अलग कर दिया जाता है. वे किसी पुरुष के पास नहीं बैठ सकतीं, बाहर नहीं जा सकतीं आदि. ये हाल किसी क्षेत्र विशेष का नहीं है बल्कि देश के कमोबेश हर गांव-शहर, चाहे वो दक्षिण का हो या उत्तर-पूर्व का, में इस तरह की कई वर्जनाएं देखने को मिल जाएंगी. निकिता कहती हैं, ‘प्राइवेट डोमेन यानी घरों में ये बातें होती रहती हैं पर जब कोई सार्वजनिक तौर पर ये निर्णय ले कि पीरियड्स के दौरान महिला को कहां आना-जाना चाहिए तो मुद्दा भेदभाव और लैंगिक समानता की जरूरत पर आ जाता है और हमें इससे लड़ना है. हमारे अभियान को मिली प्रतिक्रियाएं देख कर लगता है कि इस पर बोलना तो सब चाहते थे पर बोलने के लिए कोई मंच नहीं था. कई लोग जो इस क्षेत्र में काम कर रहे थे, उन्होंने भी हमें सपोर्ट किया. ये एक सकारात्मक बदलाव है जो किसी भी समाज के विकास के लिए सहायक होगा.’

फेसबुक पर शुरू हुई इस मुहिम को इवेंट के रूप में 21 से 27 नवंबर तक रखा गया था पर सकारात्मक प्रतिक्रियाएं देखते हुए इसकी अवधि एक हफ्ते और बढ़ाकर 4 दिसंबर तक कर दी गई है. निकिता के साथ इस मुहिम को शुरू करने में उनके दोस्तों की भूमिका रही है. दो हफ्तों के बाद सोशल मीडिया पर मिली प्रतिक्रिया के आधार पर एक रिपोर्ट तैयार कर के राष्ट्रीय महिला आयोग को भेजी जाएगी और एक याचिका भी दायर की जाएगी जिसके अनुसार देश में कहीं भी मासिक स्राव के आधार पर महिलाओं के साथ भेदभाव न किया जाए न ही ऐसी रीतियों को बल मिले जो इससे जुड़ी रूढ़ियों को मजबूत कर रही हैं. इसी उद्देश्य से निकिता और उनके दोस्त ऑनलाइन जनमत जुटाने वाली वेबसाइट ‘चेंज डॉट ओआरजी’ पर भी याचिका डाल चुके हैं.

 ‘मैं मासिक स्राव के समय बेवकूफों की तरह एक मोजे में बालू भर के प्रयोग करती थी. इससे मेरे शरीर में संक्रमण हो गया था’

मासिक स्राव से जुड़े मुद्दों को लेकर होने वाले इस दुराव-छिपाव का सबसे खराब असर ये है कि महिलाएं अपने शरीर के प्रति, उसमें होने वाले कुदरती बदलावों के प्रति एक अपराधबोध महसूस करती हैं और दुर्भाग्यपूर्ण है कि ये अपराधबोध पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता जाता है. दिल्ली डायलॉग कमीशन से जुड़ी डॉक्टर निम्मी रस्तोगी बताती हैं, ‘ये किसी भी और बायोलॉजिकल फंक्शन जैसी प्रक्रिया है, उतनी ही सामान्य जितना भोजन का पचना और ऐसे समय में महिलाएं उतनी ही सामान्य होती हैं जितना कोई और आम इंसान. पर समाज में सालों से लगातार होते आ रहे ये भेदभाव और वर्जनाएं लड़कियों को एक अजीब सी हीनभावना से भर देते हैं, जिस कारण वे अपने ही शरीर को लेकर सहज नहीं हो पातीं.’

वैसे समाज में महिलाओं से जुड़े मजाक सभी को पता होते हैं. पुरुषों में ‘पीएमएस जोक्स’ के प्रति खासी दिलचस्पी देखी जाती है. (प्री-मेन्स्ट्रूअल सिंड्रोम, माहवारी से कुछ समय पूर्व की अवस्था है, जिसमें अक्सर महिलाएं चिड़चिड़ी हो जाती हैं.) पर उस अवस्था के दौरान वे किन परेशानियों से गुजर रही हैं, पुरुष इसके प्रति असंवेदनशील ही नजर आते हैं. इस असंवेदनशीलता के लिए किसी एक को जिम्मेदार ठहरा देना सही नहीं है. एक लंबे समय से ‘छुपाने’ की प्रवृत्ति ने ही आधी समस्याओं को जन्म दिया है. अगर घर में बेटी मासिक स्राव से गुजर रही है तो उससे उम्मीद की जाती है कि इस बारे में किसी को पता न चले, खासकर घर के पुरुषों को. यदि वो मेन्स्ट्रूअल क्रेम्प्स से जूझ रही है तो सिर दर्द या मोच के बहाने उसे स्कूल या कॉलेज नहीं जाने दिया जाता. यानी कहीं से भी पुरुष उस पीड़ा के आसपास से भी नहीं गुजरते जो वो महसूस कर रही होती है. परिणामस्वरूप ये असंवेदनशीलता असामान्य रूप से सामने आती है. बंगलुरु में रहने वाली एक शिक्षिका बताती हैं, ‘मेरे पति मेरे मासिक स्राव के दिनों में भी संबंध बनाने की जिद करते हैं, बिना ये सोचे कि ये मेरे लिए कितना पीड़ादायी है. वे ये भी जानते हैं कि इससे मुझे कई तरह के इन्फेक्शन हो सकते हैं, पर उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता.’

पुरुषों में मासिक धर्म को लेकर तमाम तरह के सवाल उठते हैं, जो सहज भी हैं पर समाज का माहौल इस बात की इजाजत ही नहीं देता कि वे इस तरह के सवाल पूछ सकें. स्कूल या घर में ऐसे सवाल पूछना उन्हें सीधे ‘उद्दंड’ या ‘अभद्र’ की श्रेणी में ला देता है. यौन शिक्षा की जरूरत को न समझना भी एक बड़ी समस्या है. शहरों में तो स्थिति फिर भी ठीक है पर नवीं कक्षा की स्कूली किताबों में ‘प्रजनन तंत्र’ का पाठ शायद ही देश के किसी छोटे शहर के स्कूल में पढ़ाया गया हो. वैसे मासिक स्राव से जुड़ी ‘छुपाने’ की प्रवृत्ति को प्रश्रय देने में बाजार भी पीछे नहीं है.

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‘द कचरा प्रोजेक्ट’ एक ऑनलाइन मंच है, जो समाज, पर्यावरण, महिलाओं आदि के मुद्दों से जुड़े सुधारों के लिए काम करता है. द कचरा प्रोजेक्ट ने 28 मई 2014 (जिसे मेन्स्ट्रूअल हाइजीन डे के रूप में मनाया जाता है) से एक कैंपेन ‘पीरियड फॉर चेंज’ चलाया, जिसका उद्देश्य लोगों (महिला और पुरुष दोनों) को समान रूप से पीरियड्स और सेनेटरी कचरे के बारे में जागरूक करना है. प्रोजेक्ट की फाउंडर अर्पिता भगत कहती हैं, ‘सेनेटरी नैपकिन बनाने वाली कंपनियों के नाम हमेशा एक गलत आइडियोलॉजी लेकर चल रहे हैं. ‘व्हिस्पर’ मतलब फुसफुसाना, यानी कहीं न कहीं आप इस बात पर जोर दे रहे हैं कि ये बात सबके सामने नहीं बल्कि फुसफुसा के ही करनी है. ये गलत है. ऐसा नहीं होना चाहिए.’

इन उत्पादों के विज्ञापन ‘सोच बदलने’ की बात करते हैं पर वे उसी दकियानूसी सोच को और मजबूत करते आ रहे हैं जो समाज में चली आ रही है.

निकिता आजाद द्वारा शुरू किए गए ‘हैप्पी टू ब्लीड’ अभियान के दो मुख्य उद्देश्य हैं. पहला तो मासिक स्राव से जुड़े सामाजिक टैबू तोड़ना और दूसरा सब्सिडाइज्ड मेन्स्ट्रूअल केयर यानी पीरियड्स के दौरान सस्ती और अच्छी देखभाल जैसे मेन्स्ट्रूअल कप का प्रयोग, सस्ते सेनेटरी नैपकिन्स, टैम्पून आदि की जानकारी. सेनेटरी नैपकिन्स का प्रयोग सुविधाजनक होता है पर मासिक स्राव से जुड़ी ‘शर्म’ के चलते महिलाएं दुकान पर जाकर इसे खरीदने में झिझकती हैं और कपड़े का प्रयोग करती हैं, जिसमें कई तरह के इन्फेक्शन होने का खतरा बना रहता है.

वैसे अगर सेनेटरी नैपकिन के प्रयोग से जुड़े आंकड़े देखें तो ये काफी निराशाजनक हैं. मुंबई का दासरा फाउंडेशन जन-कल्याण से जुड़े मसलों पर काम करता है. जून 2014 में दासरा द्वारा किए गए एक सर्वे के अनुसार देश की लगभग 70 फीसदी महिलाओं की सेनेटरी उत्पादों तक पहुंच ही नहीं है. अज्ञानता, झिझक के अलावा एक बड़ा कारण गरीबी भी है. एक पत्रकार सेनेटरी हाइजीन के मुद्दे और निचले तबके में महिलाओं के गिरते स्वास्थ्य का हाल परखने के लिए जब दिल्ली की एक बस्ती में पहुंचीं तब उन्हें जवाब मिला कि या तो हम सेनेटरी नैपकिन खरीद सकते हैं या खाना! बहरहाल कई सामाजिक संस्थाएं सस्ते और अच्छी गुणवत्ता के सेनेटरी नैपकिन बनाने के लिए आगे आई हैं, जिससे संभव है कि गरीब तबके की महिलाओं की रिप्रोडक्टिव हेल्थ सुधारने की दिशा में कदम उठाए जा सकेंगे. साथ ही सरकारों द्वारा भी भी बच्चियों को स्कूलों में सेनेटरी नैपकिन्स बांटे जा रहे हैं.

पर यहां भी सवाल ये उठता है  कि क्या सेनेटरी नैपकिन दे देने भर से जिम्मेदारी खत्म हो जाती है? जिस समाज में सालों से महिलाएं अखबार में छुपाकर, काली पॉलीथिन में रखकर सेनेटरी नैपकिन प्रयोग करती आई हैं, क्या वो झिझक यूं खुल पाएगी? अर्पिता बताती है, ‘हां, पिछले कुछ समय में पीरियड्स से जुड़ी बातों को लेकर जागरूकता तो बढ़ी है पर उतनी नहीं, जितने की जरूरत है. लड़कियां समझती हैं कि ये छुपाने की बात नहीं है पर फिर भी वो इस पर बात करने में सहज नहीं हो पातीं. हमें उस आजादी की जरूरत है, जहां बिना किसी झिझक के अपनी बात कही जा सके. बच्चियों को नैपकिन्स देना अच्छा कदम है पर इसका क्या फायदा अगर उन्हें ये ही न पता हो कि इसे कैसे प्रयोग करना है? इसके लिए  लंबा सफर तय करना अभी बाकी है.’

देश के ग्रामीण इलाकों में आज भी महिला स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं का समाधान तब तक नहीं होता जब तक महिला की स्थिति बिल्कुल ही खराब न हो जाए. मासिक स्राव के दिनों में महिलाओं का शरीर ज्यादा संवेदनशील हो जाता है और ऐसे में अगर उन्हें कोई समस्या हो, जिसके बारे में वे खुलकर न कह पाएं तो हालत खराब ही होती चली जाती है. इस ‘झिझक’ से जुड़ा सबसे खराब पहलू यही है. कहीं न कहीं देश में हर साल बढ़ती मातृ-शिशु मृत्यु दर का बीज रिप्रोडक्टिव हेल्थ को लेकर बरती जाने वाली इसी लापरवाही से पड़ जाता है. बात अगर ग्रामीण क्षेत्रों की करें तो पता चलता है कि पीढ़ी दर पीढ़ी सिर्फ अज्ञानता आगे बढ़ रही है. महिलाओं को अपने शरीर के बारे में ही अधकचरी जानकारी होती है जो तमाम संक्रमणों और बीमारियों को न्योता देती है. दासरा फाउंडेशन द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट ‘स्पॉट ऑन- इम्प्रूविंग मेनस्ट्रुअल हाइजीन इन इंडिया’ में बताया गया है कि कैसे गांवों में आज भी महिलाएं कपड़े या सेनेटरी नैपकिन के विकल्प के रूप में राख, बालू, अखबार या फूस का प्रयोग करती हैं. और ये सब उनके लिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है, यही वो तरीका है, जो वे सालों से प्रयोग होता देखती आई हैं. इस हाल में कैसे उम्मीद की जाए कि उन्हें प्रजनन से संबंधी बीमारियां नहीं होंगी. ये रिपोर्ट ये भी बताती है कि किस तरह देश में इस मुद्दे को कोई जगह नहीं मिलती जबकि ये स्वास्थ्य, पर्यावरण और शिक्षा से सीधे जुड़ता है.

दसरा की रिपोर्ट के अनुसार:

• जो महिलाएं मासिक स्राव के समय अनहाइजिनिक तरीके अपनाती हैं, उनमें रिप्रोडक्टिव ट्रैक्ट इन्फेक्शन (प्रजनन अंग संबंधी संक्रमण) आम महिलाओं से 70 प्रतिशत ज्यादा देखे गए हैं.

• एक महिला द्वारा साल भर में लगभग 125-150 किलो नॉन-बायोडिग्रेडेबल सेनेटरी कचरा फेंका जाता है जिससे पर्यावरण को खासा नुकसान पहुंचता है.

• स्कूलों में शौचालय और पानी के उचित इंतजाम न होने के चलते 23 फीसदी बच्चियां स्कूल छोड़ देती हैं.

इसके इतर भी कुछ आंकड़ें बताते हैं कि मासिक स्राव से जुड़े मिथकों के चलते इसके शुरू हो जाने के बाद लड़कियों का स्कूल जाना बंद करवा दिया जाता है. देश में जोर-शोर से चल रहे ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के नारे उस वक्त बेमानी हो जाते हैं जब मिथकों, स्कूलों में शौचालय और पानी की कमी के चलते लड़कियां पढ़ाई छोड़ देती हैं.

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समस्या सिर्फ स्कूलों में शौचालयों की कमी से जुड़ी नहीं है. कामकाजी महिलाओं की समस्या इससे भी बड़ी है. कचरा प्रोजेक्ट द्वारा किए गए एक सर्वे के अनुसार देश के बड़े शहरों में सार्वजनिक शौचालयों की स्थिति भी खराब है. 2013-14 में किए गए इस सर्वे में दिल्ली में पुरुषों के लिए 4000 सार्वजनिक शौचालय थे जबकि महिलाओं के लिए सिर्फ 300. मुंबई के लगभग 2,849 सार्वजनिक शौचालयों में महिलाओं के लिए अलग शौचालय की कोई व्यवस्था नहीं है. कोलकाता में 300 सार्वजनिक शौचालय हैं, जिनका प्रयोग महिला-पुरुष दोनों ही करते हैं. सिर्फ शौचालयों की संख्या ही नहीं यहां साफ-सफाई की कोई ढंग की व्यवस्था न होने से होने वाली परेशानियों की फेहरिस्त भी लंबी है. कई कामकाजी महिलाएं बताती हैं कि काम पर जाने के दौरान वे कहीं भी बाथरूम का प्रयोग नहीं करतीं. अव्वल तो उन्हें पेशाब करने के लिए कोई उपयुक्त जगह नहीं मिलती और अगर मिल भी जाए तो वहां सफाई न होने से कई तरह के संक्रमण होने की आशंका रहती है. मासिक स्राव के दिनों में ये दिक्कत और बढ़ जाती है. आदर्श रूप से सेनेटरी नैपकिन या टैम्पून चार से छह घंटों के बाद बदलना चाहिए पर ऐसे माहौल में ये संभव नहीं हो पाता. लंबे समय तक एक ही नैपकिन या टैम्पून के उपयोग से संक्रमण होने के खतरे बढ़ जाते हैं. डॉ. रस्तोगी बताती हैं, ‘वैसे भी लंबे समय तक पेशाब रोकने से आपके ब्लैडर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और मासिक स्राव के समय तो अंग ज्यादा संवेदनशील हो जाते है. ऐसे में स्राव के समय एक ही नैपकिन का प्रयोग खुजली, जलन जैसी समस्याओं को जन्म देता है.’

देश में कामकाजी महिलाओं का प्रतिशत बढ़ रहा है पर काम करने के माहौल को उनके अनुकूल बनाने की ओर किसी का ध्यान नहीं है. आज भी कई ऑफिस ऐसे हैं जहां महिलाओं के लिए बाथरूम की व्यवस्था नहीं है या महिला-पुरुष के लिए कॉमन बाथरूम है. जयपुर में कार्यरत एक मीडियाकर्मी बताती हैं, ‘हमारे स्टाफ में दो-तीन महिलाएं ही थीं तो अलग बाथरूम की जरूरत नहीं समझी गई. आम दिनों में तो चल जाता था पर मासिक स्राव के समय नैपकिन को फेंकने की कोई व्यवस्था न होने से अजीब स्थिति हो जाती थी, जिसका हल सिर्फ उन दिनों में छुट्टी लेना ही लगता था. क्योंकि ये औरतों से जुड़ा मसला है तो आप इस पर दफ्तर में खुलकर बात ही नहीं कर सकते.’

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ये स्थिति कहीं न कहीं उस चुप्पी की वजह से आती है जो मासिक स्राव जैसी सहज प्रक्रिया के बारे में बात करते हुए ओढ़ ली जाती है. गांवों में साक्षरता का स्तर शहरों की अपेक्षा कम होता है, पर हिचकिचाहट वहां भी है. जेएनयू की एक शोधार्थी शिवानी इससे जुड़ा अपना अनुभव बताती हैं. ‘मुझे पिछले कुछ सालों से पीसीओएस (पॉलीसिस्टिक ओवरी सिंड्रोम) है. शुरू में जब मैंने खुद में आ रहे बदलाव देखे तब मैं कुछ समझ नहीं पाई. कुछ महीनों तक मैं ये बात किसी से भी नहीं कह पाई कि मुझे पीरियड्स से संबंधी कोई परेशानी हो रही है. मुझे लगता था कि पता नहीं कोई इस पर क्या कहेगा! पर फिर उस झिझक को तोड़ते हुए मैं डॉक्टर के पास गई और इलाज शुरू किया. आज मैं इस बारे में आसानी से बात कर सकती हूं. आपके पीरियड्स से जुड़ी समस्याएं उतनी ही सामान्य हैं, जितनी शरीर की कोई और तकलीफ.’ इस मामले में डॉ. निम्मी का भी यही कहना है, ‘पीसीओएस दो तरह के होते हैं, जिनमें एक ज्यादा खतरनाक होता है. पर फिर भी बीमारी कितनी भी छोटी क्यों न हो, उसका समाधान करना जरूरी है. यही पीसीओएस लंबे समय तक नजरअंदाज किए जाने पर किसी यूटराइन (गर्भाशय संबंधी) संक्रमण या किसी भी प्रकार के कैंसर का रूप ले सकता है.’

‘मेरे स्कूल के शौचालय में न पानी था न कूड़ेदान. अगर मैं नैपकिन बाहर फेंकती तो लड़के जान जाते कि मुझे स्राव हो रहा है और चिढ़ाते’

अगर सोचें कि हिचक सिर्फ मासिक स्राव से जुड़ी हुई है तो ऐसा नहीं है. शिवानी बताती हैं, ‘बहुत सी लड़कियां आज पीसीओएस से जूझ रही हैं, पर फिर भी वे इस बारे में बात नहीं करतीं. बहुतों को इस बारे में कुछ मालूम ही नहीं है वहीं कुछ इस ‘प्राइवेट’ मामले पर बात करना नहीं चाहतीं. यहां समाज में बांझपन से जुड़ा लांछन भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. अधूरी जानकारी के चलते ऐसा समझ लिया जाता है कि अगर महिला को पीरियड्स से संबंधी कोई परेशानी है तो वो मां नहीं बन पाएंगी. यहां शर्म छोड़कर अपने शरीर के प्रति अन्याय न करते हुए आगे आने की जरूरत है.’

उचित जानकारी का अभाव भ्रांतियों को जन्म देता है और ऐसा समाज जहां पहले से ही मिथकों की कोई कमी न हो वहां भ्रांतियों की फसल खड़ी हो जाती है. इस मुद्दे पर महिलाओं से बात करने पर ये भी सामने आया कि कई जगहों पर टैम्पून या मेनस्ट्रुअल कप के उपयोग को कौमार्य से जोड़ कर देखा जाता है. ऐसा समझा जाता है कि टैम्पून का प्रयोग कौमार्य भंग कर देता है.

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घूम-फिरकर बात एक ही जगह आती है कि यदि स्त्री सशक्तिकरण पर इतनी बात हो रही है, महिला आरक्षण का मुद्दा हर बार सुर्खियां बन रहा है तो इतनी आधारभूत बात को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है? कैसे उन्हें किसी समय विशेष पर ‘अपवित्र’ माना जा सकता है? देश के कुछ हिस्सों में स्त्री को धरती के समान सृजन का पर्याय मानकर उसके पहले मासिक स्राव को उत्सव की तरह मनाया जाता है. जरूरत जागरूकता की है. इसे सिर्फ महिलाओं का मुद्दा मानना गलत है. बंगलुरु की सोशल एक्टिविस्ट सोनम का कहना है, ‘इस तरह के मिथक समाज से निकलने चाहिए. ये 16वीं सदी नहीं है. महिलाओं के शरीर से जुड़ी बातों को धर्म-समुदाय-राजनीति से नहीं जोड़ा जाना चाहिए. मुझे खुशी है कि ‘हैप्पी टू ब्लीड’ जैसी मुहिम इन मुद्दों को मुख्यधारा में ला रही है, इससे इन मुद्दों से जुड़ी शर्म और झिझक कम होगी.’