Home Blog Page 1328

मंदना बनाम सेंसर बोर्ड

Mandana Karimiweb

सेंसर बोर्ड जब फिल्मों और इसके चाहने वालों को संस्कारी बनाने में व्यस्त था, उन्हीं दिनों बॉलीवुड में एक नया मील का पत्थर रख दिया गया है. सिचुएशनल कॉमेडी- सिटकॉम, रोमांटिक कॉमेडी-रोमकॉम से निकलकर अब एक नए जॉनर की फिल्म ने सेंसर बोर्ड के दरवाजे पर दस्तक दी है. एडल्ट कैटेगरी की इस फिल्म को भारत की पहली ‘पोर्न कॉम’ का तमगा मिला है. फिल्म का नाम ‘क्या कूल हैं हम-3’ है, जिसमें आफताब शिवदासानी और तुषार कपूर के साथ मंदना करीमी नजर आएंगी. फिल्म के ‘ए सर्टीफाइड’ पोस्टर मंदना के बिकिनी अवतार में कुछ ज्यादा ही बोल्ड नजर आ रहे हैं. भारतीय-ईरानी मूल की यह अभिनेत्री ‘रॉय’, ‘भाग जॉनी’ और ‘मैं और चार्ल्स’ फिल्मों में नजर आ चुकी हैं और इन दिनों बिग बॉस की वजह से चर्चा में हैं. मजेदार बात ये है कि फिल्म के पोस्टर, डायलॉग से लेकर ट्रेलर तक कुछ भी ‘संस्कारी’ नजर नहीं आ रहा. ऐसे में ये देखना जबरदस्त होगा कि जरूरत से ज्यादा ‘अनकूल’ सेंसर बोर्ड इस फिल्म के साथ मंदना को संस्कारी बनाता है या सिर्फ उसका बस सिर्फ ‘जेम्स बॉन्ड’ पर ही चलता है.

[box]

Daisyweb‘जय हो फिल्म के बाद कोई अच्छा प्रस्ताव नहीं मिल रहा था. अगर अच्छा प्रस्ताव मिलता तो हेट स्टोरी-3 जैसी इरोटिक थ्रिलर नहीं करती’

डेजी शाह, अभिनेत्री

[/box]

Bajirao-Mastani

 

 

 

देखा जब पहली बार…

रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण की रियल लाइफ जोड़ी ने ‘बाजीराव मस्तानी’ के साथ सिनेमाघरों में दस्तक दे दी है. इस फिल्म और शाहरुख खान की फिल्म ‘दिलवाले’ में सिनेमाघरों को लेकर विवाद जारी है. वहीं रणवीर और दीपिका की जोड़ी खूब सुर्खियां बटोर रही है. पिछले दिनों एक इंटरव्यू में रणवीर और दीपिका ने उन अनुभवों को साझा किया जब उन्होंने एक-दूसरे को पहली बार देखा था. दीपिका अपने रिलेशनशिप को लेकर जहां शांत रहती हैं, वहीं रणवीर कहीं ज्यादा बेबाक हैं. दीपिका के अनुसार, जब उन्होंने ‘बैंड बाजा बारात’ देखी तब उनकी नजर रणवीर पर पड़ी थी. दीपिका ने कहा, ‘यह लड़का कौन है और इसमें इतनी एनर्जी कैसे है?’ दूसरी ओर रणवीर पूरी बेबाकी से कहते हैं, ‘मैंने मकाऊ में जी सिने अवॉर्ड्स के समय सिल्वर ड्रेस में जब पहली बार दीपिका को देखा, तभी से उन पर फ्लैट हो गया था.’ तो अब तो भाई लोग समझ गए न कि आग दोनों तरफ बराबर लगी है.

 

0001webइश्क छुपता नहीं छुपाने से

काफी दिनों की चुप्पी के बाद वीजे, मॉडल और सिंगर अनुषा दांडेकर अचानक सुर्खियों में हैं. ये सब किसी मॉडलिंग असाइनमेंट या फिर किसी शो को लेकर नहीं बल्कि उनके रिलेशनशिप स्टेटस को लेकर है. खबर है कि वे टीवी कलाकार करन कुंद्रा के साथ रिलेशनशिप में हैं. मीडिया की बातों पर भरोसा किया जाए ताे दोनों दिल्ली में साथ पार्टी करते हुए देखे गए हैं. इसके अलावा करन ने सोशल मीडिया पर अनुषा के साथ एक इंटीमेट फोटो भी शेयर किया है. खबर यह भी है कि करन ने अनुषा को बतौर गिफ्ट एक पपी दिया है, जिसका नाम दोनों ने ‘मॉन्स्टर’ रखा है. करन कुछ भी सीधे तौर पर स्वीकार नहीं कर रहे हैं. वे बस इतना कह रहे हैं कि अभी वे कुछ दिन पहले ही अनुषा से मिले हैं और उनसे रिलेशनशिप के बारे में श्योर नहीं हैं. अब करन कुछ भी कहें लेकिन जिन्हें जो समझना था वो खुद-ब-खुद समझ जाएंगे.

जापान चलाएगा भारत में पहली बुलेट ट्रेन

gggggg

अब ये तय हो गया है कि भारत में पहली बुलेट ट्रेन जापान के सहयोग से दौड़ेगी. बुलेट ट्रेन परियोजना को लेकर 12 दिसंबर को भारत और जापान के बीच करार हो गया है. दिल्ली के हैदराबाद हाउस में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने इस डील पर हस्ताक्षर किए. 98 हजार करोड़ रुपये की इस योजना पर करार होने के बाद मुंबई-अहमदाबाद के बीच बुलेट ट्रेन चलाने का रास्ता साफ हो गया है. दोनों शहरों के बीच की दूरी करीब 505 किलोमीटर है जिसे ट्रेन से तय करने में अभी अमूमन 7 घंटे का वक्त लगता है. बुलेट ट्रेन चलने के बाद यह दूरी मात्र 2 घंटे में तय की जा सकेगी. इसमें एक तरफ की यात्रा करने का किराया लगभग 2800 रुपये होगा. इस परियोजना पर अनुमानित खर्च 98,805 करोड़ रुपये है जिसमें 2017 से 2023 के बीच निर्माण काल के दौरान मूल्य और ब्याज वृद्धि भी शामिल है. पटरी, ट्रेन और संचालन प्रणाली से जुड़े सभी उपकरण जापान ही उपलब्ध कराएगा. जापान इंटरनेशनल कॉर्पोरेशन एजेंसी (जेआईसीए) और भारत के रेल मंत्रालय ने 2 साल पहले हाईस्पीड रेल नेटवर्क बनाने और चलाने संबंधी पहलुओं के अध्ययन पर काम शुरू किया था. जेआईसीए की फाइनल रिपोर्ट में कहा गया था कि मुंबई-अहमदाबाद के बीच बुलेट ट्रेन 350 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ सकती है. ऐसा माना जा रहा है कि बुलेट ट्रेन का व्यावसायिक संचालन 2024 से शुरू हो जाएगा. गौरतलब है कि चीन भी इस महत्वाकांक्षी परियोजना को लेकर उत्साहित था लेकिन जापान के हाथ बाजी लगने के बाद भी चीन दुखी नहीं है. इस परियोजना के लिए चीन अधिक ब्याज दर पर पैसा देना चाहता था जिसके चलते मामला आगे नहीं बढ़ पाया. इस बारे में पूछे जाने पर चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता होंग ली ने कहा, ‘ये डील गंवाने के बाद भी चीन हाईस्पीड रेल नेटवर्क के क्षेत्र में भारत का सहयोग करने के लिए आगे बढ़ेगा.’

दिल्ली सचिवालय पर सीबीआई का छापा

Arvind-Kejriwalhhhh

क्यों पड़ा छापा?

पिछले दिनों सीबीआई ने भ्रष्टाचार की शिकायत मिलने पर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के प्रधान सचिव राजेंद्र कुमार के सचिवालय स्थित दफ्तर के साथ-साथ उनके घर पर भी छापेमारी की. वरिष्ठ नौकरशाह आशीष जोशी ने राजेंद्र कुमार पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए एसीबी से शिकायत की थी लेकिन एसीबी ने कोई कार्रवाई नहीं की तो उन्होंने 13 जुलाई को इसकी शिकायत सीबीआई से कर दी. मामला 2007 से 2014 के बीच दिल्ली सरकार के ठेके एक खास कंपनी को देने से जुड़ा है.

कौन हैं राजेंद्र कुमार?

राजेंद्र कुमार 1989 बैच के आईएएस अधिकारी हैं और केजरीवाल के करीबी अधिकारियों में माने जाते हैं. आशीष जोशी ने राजेंद्र पर आरोप लगाया था कि उन्होंने शिक्षा और आईटी विभाग में अपने कार्यकाल के दौरान बेनामी कंपनियां बनाकर वित्तीय धांधली को अंजाम दिया था. जोशी के मुताबिक, राजेंद्र कुमार 2002 से 2005 तक शिक्षा निदेशक रहे. कुमार ने दिनेश गुप्ता और संदीप कुमार के साथ मिलकर एंडेवर्स सिस्टम प्राइवेट लिमिटेड नाम से कंपनी बनाई. दिनेश शिक्षा विभाग को स्टेशनरी सप्लाई किया करते थे. 2007 में आईटी सचिव रहते हुए उन्होंने अपनी कंपनी को इस तरह से सूचीबद्ध कर दिया था कि वह बिना किसी टेंडर के ही सरकारी विभागों के साथ डील कर सके. शीला दीक्षित के कार्यकाल में सीएनजी किट घोटाले में भी उन पर आरोप लगे हैं. दो कंपनियों को बिना टेंडर ठेका दिया गया था जिसमें दिल्ली सरकार को करीब 100 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था.

अरविंद केजरीवाल का क्या है आरोप?

सीबीआई के छापे को लेकर केजरीवाल ने मोदी सरकार पर हमला बोल दिया है. उनका आरोप है कि राजेंद्र कुमार तो केवल बहाना हैं असली मकसद तो डीडीसीए घोटाले में फंस रहे अरुण जेटली को बचाना है. जेटली कुछ समय के लिए दिल्ली एवं जिला क्रिकेट संघ के अध्यक्ष रहे थे. केजरीवाल ने मीडिया से बातचीत में कहा, ‘सीबीआई मेरे कार्यालय में डीडीसीए से जुड़ी फाइलों को पढ़ती रही. अगर मैं मीडिया से बात नहीं करता तो वे उन फाइलों को जब्त कर लेते. मुझे ये जानकारी नहीं है कि सीबीआई उन फाइलों की कॉपी अपने साथ ले गई है या नहीं.’ जेटली से सवाल पूछते हुए उन्होंने कहा, ‘डीडीसीए में कथित धांधली की जांच किए जाने से जेटली डरे हुए क्यों हैं?’ केजरीवाल ने आरोप लगाया है कि ये सब पीएमओ के निर्देश पर हो रहा है.

..तो शायद मैं ये कहानी बताने के लिए जिंदा न बचती

Domestic1वो ग्रेजुएशन के दूसरे साल के इम्तिहान के दिन थे. हर विषय की परीक्षा के बीच कुछ दिन की छुट्टी होने के कारण जिस दिन परीक्षा होती थी उसके बाद का समय मौज-मस्ती के नाम होता था. यह शादियों का सीजन था. संयोग से उस रोज गांव में कई शादियां थीं. शाम ढलते ही बारात लेकर कई दूल्हे सड़कों पर निकल चुके थे. बैंड-बाजे की धुन पर थिरकते लोगों को देखने के लिए हम भागकर घर की छत पर पहुंच जाते. हमारे पुरुष प्रधान समाज में जब कहीं बारात जाती है तो बाराती अपने पौरुष का प्रदर्शन करते हुए चलते हैं. बारात के साथ और वर-वधू के फेरों के समय हमारे यहां फायरिंग आम बात है.

बारात में खुद को अलग दिखाने और अपने पौरुष का प्रदर्शन करने लिए कुछ युवा हथियार से बेहतर माध्यम किसी को नहीं समझते हैं. हालांकि ये शौक कई बार उनके साथ-साथ दूसरों के लिए भी घातक साबित होता है. इसके बावजूद ये ‘प्रथा’ हमारे समाज में बदस्तूर जारी है. पौरुष दिखने की पुरातन परंपरा से भइया भी अछूते नहीं थे. वो भी हथियार चलाने का शौक रखते थे. उनके पास भी एक पिस्तौल थी, इसकी जानकारी उस दिन के पहले तक घर में किसी को नहीं थी.

उस रोज भइया एक शादी में गए थे. मैं और छोटी बहन सोफे पर बैठकर टीवी पर फिल्म देखने में मशगूल थे. रात के तकरीबन दस बज चुके थे. तभी भइया दनदनाते हुए कमरे में दाखिल हुए और फिल्मी खलनायक की तरह बोले, ‘जल्दी से बताओ पहले किसको मरना है!’ यह कहकर उन्होंने हम दोनों पिस्तौल पर तान दी.

मुझसे छह साल बड़े भाई शादी से लौटने के बाद उसी खुमारी में थे. बारात के समय शायद उन्होंने भी फायरिंग की थी. घर लौटने पर भी फायरिंग का उनका भूत नहीं उतरा था. हम दोनों बहनें उनकी इस बात से चौंक गए क्योंकि उन्होंने इससे पहले इस तरह का मजाक नहीं किया था. हालांकि अगले ही पल जहां छोटी बहन खिलखिला कर हंस दी वहीं मैंने ये दिखाने की कोशिश कि मुझे कोई फर्क नहीं पड़ा. मेरे मुंह से निकल पड़ा, ‘टीवी के सामने से हटो, हवा आने दो.’ लेकिन इस बात का उन पर कोई असर नहीं हुआ. उन पर जैसे कोई भूत सवार था. उन्होंने कहा, ‘सच कह रहा हूं, मैं गोली चला दूंगा.’ इसके बाद छोटी बहन ने ‘चलाकर दिखाओ’ बोलकर उन्हें चुनौती दे डाली. कमरे में कुछ देर तक सन्नाटा था कि अगले ही पल गोली चलने की आवाज ने रात के सन्नाटे को चीर कर रख दिया. गांव में सनसनी फैल गई. गोली मेरे हाथ पर लग चुकी थी. दर्द इतना भयानक था कि मेरी चीख भी दबकर रह गई थी. गोली लगने की वजह से हाथ की नसें कट गईं थीं, जिसकी वजह से असहनीय दर्द हो रहा था. दर्द से आंखें बंद हो गई थीं और भीतर से जितनी तेज मैं चीखना चाहती थी उतना ही खुद को अशक्त महसूस कर रही थी. घर के बाहर गांव के लोग जुट गए थे. हाथ खून से लथपथ था.

एक पड़ोसी की मदद से मुझे गांव के पास ही एक नर्सिंग होम में ले जाया गया. उस छोटे से नर्सिंग होम में कोई सर्जन नहीं था जो मेरे बुरी तरह जख्मी हाथ का ऑपरेशन कर पाता. दर्द निवारक का कोई खास असर नहीं हो रहा था. करीब तीन घंटे तक मैं असहनीय दर्द से जूझती रही. रात को 2:30 बजे एक सर्जन को विशेष तौर पर मेरे इलाज के लिए शहर से बुलाया गया.

सुबह होश आने पर भी जेहन में कई सवाल उमड़-घुमड़ रहे थे. दिल और दिमाग भइया के गोली चलाने के पीछे के कारणों को ढूंढने में लगा था. हालांकि इसका किसी के पास कोई जवाब नहीं था. बाद में पता चला कि उस रात नर्सिंग होम के मालिक ने पुलिस न बुलाने के एवज में भइया से अच्छी खासी रकम उगाही थी. इस हादसे के बाद कई दिन तक वह बिल्कुल खामोश रहे. हथियार से कभी किसी का भला नहीं हुआ है, शायद वो ये बात समझ चुके थे. क्षणिक सुख के लिए चलाए गए हथियार कभी भी किसी खुशनुमा माहौल में मातम घोल सकते हैं. उस रोज गोली कहीं और लगी होती तो शायद मैं ये कहानी बताने के लिए जिंदा न बचती.

‘शब्दों में लिंग निर्धारण और उसे याद करने में भारत की जितनी ऊर्जा लग रही है, उतने में रॉकेट बनाया जा सकता है’

Rajendra Prasad Singh-27

आप निरंतर भाषा पर काम करते रहते हैं. कई भाषाओें पर काम करने के अलावा आपने तमाम भाषाओं के शब्दकोश भी तैयार किए हैं. इन दिनों क्या नया कर रहे हैं?

भाषा पर निरंतर काम करते रहने से ही जड़ता दूर होगी. भाषा विज्ञान के सामने चुनौतियों का जो पहाड़ है, वह तभी खत्म होगा. खैर आपने पूछा कि अभी क्या कर रहा हूं तो जल्द ही भारत की बोलियों पर एक किताब आने वाली है, जिसमें यह बताने की कोशिश है कि जो लोग बोलियों के मरने से चिंतित हैं, उन्हें यह जानना जरूरी है कि बोलियां बन भी रही हैं और उनके बनने की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है. जब समाज बदल रहा है, संस्कृति बदल रही है, जीवनशैली में बदलाव आ रहा है तो भाषाएं भी अपना स्वरूप बदल रही हैं. संक्रमण, मेल-मिलाप, तोड़फोड़ से नई भाषाओं का जन्म हो रहा है, पुरानी भाषाएं मर रही हैं. इधर मैंने बोलियों पर कुछ अध्ययन किया है. हिंदी के बारे में कहा जाता है कि इसका संसार 18 बोलियों पर खड़ा है जबकि अभी हकीकत यह है कि बोलियां 48 हो गई हैं.

आपने एक बात कही कि भारत में भाषा विज्ञान के सामने चुनौतियों का पहाड़ खड़ा है. क्या कुछ चुनौतियों के बारे में बताएंगे?

अनगिनत चुनौतियां हैं. एक-दो बातें करते हैं. पहले तो यही कि 70 के दशक के शुरू में भाषायी गणना हुई थी. भारत में 1652 भाषाएं थीं. पांच दशक बाद अब 232 ऐसी भाषाएं हैं, जिन्हें सिर्फ एक आदमी जानता है. अब उनको भी भाषा में गिना जाता है. भाषा की परिभाषा यह है कि उससे विचारों का आदान-प्रदान हो, भावों का विस्तार हो. अब जिसे  जानने वाले एक लोग ही बचे हैं, उसे भी भाषा में शामिल करके रखना कौन सी बात है. अब दूसरी बात सुनिए. भारत में बच्चों को उलटा ही पढ़ाया जा रहा है. इसमें धीरे-धीरे सुधार लाने की जरूरत है. एबीसीडी…कखगघ… बच्चों को पढ़ाने की इस विधा में बदलाव लाने की जरूरत है. भाषाविज्ञान ध्वनियों से नहीं चलता, वाक्यों से चलता है. वाक्य उसकी मूल इकाई होती है, ध्वनि नहीं. आप खुद सोचिए कि सबसे पहले जब भाषा का आविष्कार हुआ होगा तो वाक्य ही आया होगा, ध्वनि नहीं. दुनिया में अभी कई भाषाएं हैं, जहां ध्वनि को इकाई नहीं माना जाता, वाक्यों को इकाई माना जाता है. एक और बात बताना चाहूंगा. भारत में दुनिया के चार सबसे प्रमुख भाषा परिवारों की भाषाएं बोली जाती हैं. सामान्यतया उत्तर भारत में बोली जाने वाली भारोपीय परिवार की भाषाओें को आर्य भाषा समूह, दक्षिण की भाषाओं को द्रविड़ भाषा समूह, आस्ट्रो-एशियाटिक परिवार की भाषाओं को मुंडारी भाषा समूह और पूर्वोत्तर में रहने वाली तिब्बती-बर्मी नृजातीय समूह की भाषाओं को नाग भाषा समूह के रूप में जाना जाता है.

भारत में भाषायी अध्ययन सिर्फ आर्य समूह को ही ध्यान में रखकर ज्यादा होता रहा है जबकि बाकी तीनों समूह कोई कम महत्वपूर्ण नहीं. आर्य समूह को आधार बनाने और संस्कृत को अवलंबन बनाने से भाषा विज्ञान का विकास रुका हुआ है. वह जड़ता का शिकार बना हुआ है. इन बातों का क्या असर पड़ता है?

बहुत असर पड़ता है. सबसे पहले तो अगर आप आर्य समूह को आधार बनाते हैं तो आप हमेशा द्वंद्व और दुविधा की दुनिया में रहते हैं. संस्कृत में सभी बातों का निदान नहीं है. आप एक शब्द जानते होंगे ‘मायके’ या ‘मैके’. ‘नैहर’ को कहा जाता है. ‘मायके’ का मतलब होता है मां का घर. बहुत ही लोकप्रिय शब्द है. अब इसकी तलाश संस्कृत से कीजिए, ओर-छोर का ही पता नहीं चलेगा. जब आप पूर्वोत्तर में जाएंगे तो मायके के ‘के’ का मतलब समझ में आएगा. वहां ‘के’ का मतलब घर होता है. वहीं से यह शब्द आया. एक और शब्द गांव-घर में बहुत मशहूर रहा है, सुने होंगे-कनखी. यानी आंख मारना या नजर बचाकर देखना. अब बताइए आंख दबाने को कनखी कहा जाता है. कान से उसका क्या लेना-देना! अब इस लोकप्रिय शब्द का मतलब संस्कृत को या आर्य भाषा को आधार बनाकर तलाशते रहिए, नहीं मिल पाएगा. दक्षिण भारत में जाएंगे तो मालूम होगा कि आंख को ‘कन’ कहा जाता है तो वहां से यह शब्द आया है. लेकिन हमारे यहां के भाषाविज्ञानी संस्कृत को ही बड़ा अवलंबन बनाकर भारत में भाषा विज्ञान को आगे बढ़ाना चाहते हैं और इससे भाषा और भाषा के अध्ययन दोनों का विकास रुका हुआ है. तत्सम-तद्भव वगैरह में ही सब उलझ कर रह जाते हैं. अब आप एक और शब्द ‘आम’ को देखिए. तत्सम ‘आम्र’ कहा जाता है, तद्भव ‘आम’. जबकि आप इसके मूल में जाइएगा तो यह मुंडारी शब्द है, ‘अम्ब’. यह वहीं से आया है. ‘अम्बू’, ‘निम्बू’, ‘अम्ब’ यह सब मुंडारी से आए हुए शब्द हैं. आप बिहार के औरंगाबाद वाले इलाके में जाएंगे तो कई इलाके इस नाम पर मिलेंगे- ‘अम्बा’, ‘कुटुम्बा’ आदि. मेरे कहने का मतलब यह है कि भारत के भाषा विज्ञानियों को थोड़ा अपने अवलंबन को बदलकर भाषा विज्ञान का विस्तार करना चाहिए या होने देना चाहिए नहीं तो मनुष्य को मनु की संतान बताया जाता रहेगा जबकि मनुष्य ‘मानुष’ से आया हुआ शब्द है और यह वेद ही बताता है.

आर्य भाषा समूह का जो वर्चस्व थोपा गया, वह इरादतन था या फिर उस समय की स्थितियां ही ऐसी थीं?

कुछ तो इरादतन भी और कुछ उस समय में समझ नहीं होने के कारण या दायरा सीमित होने के कारण. कुछ भारत जैसे देश में भाषा को गंभीरता से नहीं लेने और शोध नहीं होने के कारण भी. अब आप देखिए कि रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास लिखा. अब उन्होंने अपना पूरा आधार ही इसे लिखने के लिए एक पत्रिका ‘सरस्वती’ को बना दिया और उसी के आधार पर हिंदी साहित्य का इतिहास लिख दिया. हुआ यह कि मिर्जापुर, बनारस, इलाहाबाद के साहित्यकार और उस इलाके में होने वाली साहित्यिक गतिविधियां ही उसमें आ सकीं जबकि उस समय सिर्फ ‘सरस्वती’ पत्रिका ही तो नहीं निकलती थी. रामचंद्र शुक्ल के पास वही पत्रिका आती होगी, वही उन्होंने पढ़ा होगा और फिर इसी आधार पर लिखा होगा. कहने का मतलब है कि अब उसको ही जीवन भर आधार मत बनाए रखिए. बात को आगे बढ़ाइए. ऐसा नहीं करेंगे तो संकट और गहराएगा. हिंदी पर जिस तरह से यूपी-बिहार का वर्चस्व दिखता है, वही दिखता रहेगा जबकि हिंदी भाषी राज्य तो दस हैं देश में.

हिंदी को अपनी रूढ़ियों से निकलना होगा. व्याकरण को बोझ बनाने की बजाय उसे सहायक बनाना होगा

बतौर भाषा अगर बात करें तो हिंदी के सामने क्या संकट दिखता है?

सबसे पहले तो यह समझना होगा कि हिंदी का जो समाज रहा है वह पारंपरिक रहा है. रूढ़ियों से ग्रस्त और शुद्धतावादी आग्रह रखने वाला भी. यही रवैया हिंदी भाषा के सामने संकट के तौर पर है. इसे मैं थोड़ा और विस्तार से बताता हूं. हिंदी भाषा की जब पहला शब्दकोश तैयार हुआ था तो 20 हजार शब्दों को लिया गया था उसमें और अंग्रेजी के पहले शब्दकोश में 10 हजार शब्द. आज अंग्रेजी के शब्दकोश में 7.5 लाख के करीब शब्द हैं और हिंदी दो लाख के आसपास ही फंसा हुआ है. हिंदी ने उदारता नहीं दिखाई, यह रूढ़ियों में फंसी रह गई. हिंदी टिकट, बैंक, ट्रेन का हिंदी मतलब तलाशती रह गई और अंग्रेजी ने ‘रिक्शा’ जैसे जापानी शब्द को, ‘टोबैको’ जैसे पुर्तगाली शब्द को, ‘चॉकलेट’ जैसे अमेरिकन मूल के शब्द को आसानी से अपने में समेटते हुए अपना ही शब्द बना लिया. भाषा को समृद्ध करने और उसे बढ़ाने के लिए उदारता चाहिए, रूढ़िवादी रवैया नहीं. हम अब भी कामता प्रसाद गुप्त के व्याकरण से ही हिंदी को तय करते हैं. फ्रांस जैसे देश में वहां की सरकार हर दस साल पर व्याकरण बदल देती है. हिंदी में तो कविता के लिए जिस तरह से छंद बंधन रहा है, उसी तरह से व्याकरण भी बंधन हो गया. महिलाओं के चूल्हे-चौके से, खेत-खलिहान से शब्द आते हैं लेकिन हम मर्यादा पुरुषोत्तम राम की तरह हिंदी को बनाए रखने में रह गए. यहां मर्यादा पुरुषोत्तम नहीं लीला पुरुषोत्तम कृष्ण चाहिए, जो हमेशा निर्धारित दरवाजे से ही नहीं घुसेंगे, खिड़की से भी आ जाएंगे, निकल जाएंगे. हिंदी को अपनी रूढ़ियों से निकलना होगा. व्याकरण को बोझ बनाने की बजाय उसे सहायक बनाना होगा. उससे मुक्त भी होना होगा और सिर्फ आर्य दुनिया में नहीं रहना होगा. हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, छत्तीसगढ़ यह सब हिंदी भाषी राज्य ही हैं, उनके शब्दों को लेना होगा, विस्तार करना होगा. और जो परिवर्तन हो रहा है, उसे भी समझना होगा. पहले घुटने से नीचे वाले हिस्से को ‘जंघा’ कहते थे, अब घुटने से ऊपर वाला हिस्सा ‘जांघ’ कहा जाता है. भाषा ऐसे ही अपना रूप-स्वरूप बदलती है. इसे मानना और जानना होगा क्योंकि यह वैज्ञानिक प्रणाली है कि हर एक हजार साल पर किसी भाषा के 19 प्रतिशत शब्द मर जाते हैं. उसकी जगह नए शब्द आ जाते हैं. पूरी दुनिया में ऐसा होता है. उसे लेकर आह नहीं भरते रहना होगा. कबीर ने अपने समय में व्याकरण से मुक्ति पाई तो देखिए उनका असर, तुलसीदास उसी आर्य प्रणाली में फंसे रह गए और उसके बाद छायावादी युग के लोग भी संस्कृत और आर्य प्रभाव में रहे. निराला से लेकर सुमित्रानंदन पंत तक. बाद के कालखंड में रेणु ने बंधन को तोड़ा तो देखिए उनकी कालजयिता. हमें बंधनों को तोड़ना होगा.

आपने तुलसीदास की बात कही. तुलसीदास ने तो अपने समय में ब्राह्मणों की भाषा, देव की भाषा, वर्चस्व की भाषा संस्कृत के काशी जैसे गढ़ में एक लोकभाषा अवधी को खड़ा किया.

मैं यह कह रहा हूं कि तुलसीदास ने अवधी में अधिकाधिक संस्कृतनिष्ठ शब्दों का भी प्रयोग किया.

आपने एक बात कही कि व्याकरण से मुक्ति चाहिए. क्या इससे भाषा का स्वरूप ही अलग नहीं हो जाएगा?

मैंने ऐसा नहीं कहा. मैंने कहा कि बेजा व्याकरण के दबाव में रहने या हिंदी को रखने की जरूरत नहीं. अब एक उदाहरण सुनिए. लिंग निर्णय की बात. देखिए हिंदी कितना बोझ झेल रही है. टेबल का लिंग क्या होगा, कुर्सी का लिंग क्या होगा, ईंट का लिंग क्या होगा, पत्थर का लिंग क्या होगा… अब दो लाख शब्द हैं, पूरी जिंदगी एक आदमी सभी शब्दों का लिंग जानने में ही लगा देगा. सिर्फ लिंगबोध के ही कारण वाक्य की क्रिया, विशेषण सब बदलने पड़ते हैं. राम जाता है, सीता जाती है. यह क्या है? अंग्रेजी व्याकरण में ऐसा क्यों नहीं. वहां तो सीधे होता है ‘राम इज गोइंग, सीता इज गोइंग’. ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ अंग्रेजी में देख सकते हैं आप. देखिए आदिवासी भाषाओं में, लिंग निर्णय का इतना बोझ नहीं है. यह आर्य पद्धति है, इसमें ऊर्जा लग रही है. जितनी ऊर्जा इसमें लगती है, उतने में तो नौजवान रॉकेट बना लेगा.

फिर एक तरीके से कहें कि राजभाषा हिंदी का जो कॉन्सेेप्ट देश के लिए है, वह भी ठीक नहीं. संपूर्ण देश के लिए सरकारी स्तर पर एक भाषा को निर्धारित कर देना भी ठीक नहीं.

ऐसा नहीं. राष्ट्र की एक अवधारणा होती है. भारत जब आजाद हुआ तो हिंदी का निर्धारण हुआ. इसका कोई एक कारण नहीं रहा. और यह पहली बार भी नहीं हुआ. हर शासन में शासक द्वारा अपनी भाषा चलाई गई है. मौर्य काल में प्राकृत को राजभाषा बनाया गया. तब सब लोग प्राकृत नहीं जानते थे. गुप्तकाल में संस्कृत राजभाषा बनी. मुगलकाल में फारसी को राजभाषा बना दिया गया. तब आम जनता तो ये भाषाएं नहीं बोलती थी. शेरशाह ने भी फारसी को ही चलाया, जबकि शेरशाह की खुद की भाषा पश्तो थी. बाबर की भाषा तुर्की थी. उसने तो अपनी जीवनी भी तुर्की भाषा में ही लिखी लेकिन राजभाषा फारसी को रखा. शासन और शासक वर्ग के इर्द-गिर्द जो लोग होते हैं, वह अपने अनुसार राजभाषाओं का निर्धारण करवाते रहे हैं. वह कोई समस्या नहीं. जनता अपने हिसाब से अपनी भाषा में व्यवहार करती है, नई भाषा का निर्माण करती है.

यूजीसी आंदोलन पर कब्जा

‘यूपी में आम्बेडकर का प्रभाव रहा है, बिहार के दलित गांधी टोपी में ही फंसे रह गए’

bihar_dalitfffffयह पुराना सवाल है लेकिन जरूरी भी कि उत्तर प्रदेश की तर्ज पर बिहार में दलित राजनीति अपने समूह के लिए अलग मजबूत नेतृत्व या राजनीति की तलाश क्यों पूरा नहीं कर सकी जबकि इसकी संभावनाओं के बीज मौजूद हैं. वैसे इसके ऐतिहासिक, सामाजिक और आर्थिक कारण रहे हैं. ऐतिहासिक कारण यह कि दलित राजनीति आम्बेडकर के विचारों से चल सकती है और बिहार में आम्बेडकर के विचारों को आने ही नहीं दिया गया. यहां के दलितों को शुरू से ही गांधी टोपी पहनाकर रखा गया, जिसका असर दिखता है. सामाजिक कारण यह है कि बिहार बंगाल के सूबे से निकला. यहां जमींदारी प्रथा लागू हुई थी. यानी किसानों को लगान जमींदारों को देना पड़ता था. जमींदार सामंत हो गए, सामंती प्रवृत्ति वाले हो गए. अधिकांश ऊंची जातियों के रहे. दूसरी ओर उत्तर प्रदेश में रैयतदारी की परंपरा आई थी. यानी लगान सीधे सरकार को देना पड़ता था. बीच में जमींदार नहीं थे. जमींदारी प्रथा ने बिहार को वर्षों जकड़े रखा. उसका असर अब भी है. इस परंपरा में दलितों का उभार इतना आसान नहीं था.

एक और कारण शैक्षणिक और आर्थिक है. 1924 में आम्बेडकर ने अंग्रेज गवर्नर जनरल से कहा था कि आप दो काम कर दीजिए. आप हमारे समाज के लोगों यानी अछूतों को जमीन दे दीजिए और अछूत पाठशाला खुलवा दीजिए. ऐसी पाठशाला, जो दलित बस्ती में हो, शिक्षक भी उसमें दलित ही हों. यह काम उत्तर प्रदेश में हुआ. उसी दलित पाठशाला से मैं पढ़ा और बाद में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एमए किया, एलएलबी का टॉपर बना. बिहार के लोग इससे वंचित रहे. या कहें उन्हें सिर्फ गांधी टोपी के जाल में फंसाकर रखा गया. तो इसका असर लंबे समय तक रहेगा. अब ऐसे समाज पर प्रभावी वर्ग आसानी से अपना अधिकार भी जमा लेता है और प्रभावी दल ऐसे लोगों को खरीद भी लेते हैं. बिहार में वही होता है. इसलिए दलित गुलामी वाली मानसिकता से अभी निकल नहीं सके हैं. दूसरी बात यह कही जाती है कि मंडल के तो 25 साल हो गए, इतने सालों में तो ऐसा होना चाहिए था. हां सही है कि मंडल के 25 साल हो गए लेकिन मंडल का क्रेडिट भी दूसरे को दे दिया गया था जबकि इसकी बुनियाद खुद आम्बेडकर साहब ने रखी थी. पिछड़ों को आरक्षण देने की बात पहली बार उन्होंने ही की थी. संविधान की धारा 340 से 342 तक में आरक्षण का प्रावधान किया. लेकिन उसी समय जब बाबा साहब ने यह बात कही तो पिछड़ा वर्ग के ही कुछ मशहूर नेताओं ने इसका विरोध किया. गांधीवाद को फैलाने के लिए तब पिछड़ी जाति के नेताओं में ही जनेऊ बांटने की शुरुआत हो गई या कहिए कि करवा दी गई. पिछड़ी जाति के लोग क्षत्रिय बनने को बेताब हो गए. मामला इधर से उधर हो गया. बात बदल गई. उसके बाद काका कालेलकर कमीशन बना. कमीशन ने भी अनुशंसाएं कीं, लेकिन तत्कालीन कांग्रेसी सरकार ने अफरातफरी मचने का तर्क देकर उसे दबा दिया. फिर मंडल कमीशन बना. कांशीराम समेत समान विचार वाले नेताओं के लंबे संघर्ष के बाद यह लागू हो सका. लेकिन तब भी यह राजनीतिक कारणों से लागू हुआ और मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने का श्रेय भी सीधे वीपी सिंह को दे दिया गया. सच यह है कि उन्होंने भी चौधरी देवीलाल के उभार को रोकने के लिए मंडल बम चलाया था. दिक्कत यह है कि मंडल कमीशन की रिपोर्ट अभी पूरी तरह से लागू नहीं हो सकी है और पिछड़े नेता भी उसके बारे में सही से नहीं जानते, इसलिए स्थिति ऐसी है.

यह सही है कि पहचान की राजनीति में चेहरे का महत्व होता है लेकिन अब स्थितियों ने एजेंडे को महत्वपूर्ण बना दिया है. अब इस बार के बिहार चुनाव की ही बात करें. एजेंडा महत्वपूर्ण हो गया. रामविलास पासवान की बात कीजिए या जीतन राम मांझी की, वे अपने को अंदर से आम्बेडकरवादी तो मानते हैं लेकिन ऊपरी तौर पर स्वार्थों में फंस जाते हैं. छोटे स्वार्थों को तो छोड़ना होगा. इस बार तो रामविलास पासवान की जाति के लोगों ने भी उन्हें वोट नहीं दिया. मांझीजी पढ़े-लिखे आदमी हैं. इतिहास के छात्र रहे हैं. थोड़ा भी पढ़ा लिखा आदमी चिंतक हो ही जाता है इसलिए जब वे सत्ता में आए तो उन्होंने आक्रामक तरीके से दलितों के सवाल खड़े किए. आर्य-अनार्य जैसी बात भी की. उसके इन बयानों से उनके लोग सचेत हुए, जागरूक हुए. उनके पक्ष में सोचा भी लेकिन वे फिर आरएसएस की दरी बिछाने लगे. वो आरएसएस, जो सामंतों और दलित नरसंहार में शामिल लोगों का संरक्षक रहा है. जो आरक्षण पर पुनर्विचार की बात कर रहा है. और फिर दरी बिछाने वाला आदमी अधिक से अधिक उस पर पालथी मारकर बैठ सकता है तो लोगों ने उन्हें सिर्फ दरी पर बैठने लायक छोड़ा. बिहार के दोनों नेताओं के लिए मौका है कि अभी चिंतन करें और आम्बेडकरवादी बनें. अगर ऐसा नहीं होता है, दलित नेता आम्बेडकरवादी नहीं बनते हैं तो यह सोचना सिर्फ सुखद एहसास देता रहेगा कि बिहार में भी उत्तर प्रदेश की तर्ज पर दलित राजनीति अलग हो जाएगी. इसके लिए सबसे पहले बिहार के दलित नेताओं को थोड़ा स्वार्थ से ऊपर उठना होगा. बहुत सारे लोग सवाल उठाते हैं कि मंडल युग के बाद नवसामंतवाद का उदय भी राजनीति में हुआ है, जो दलितों के लिए घातक है. मुझे लगता है कि यह सही हो सकता है लेकिन बिहार को तो अभी पुराने सामंतवादियों से ही निकलना है. सामाजिक बदलाव की गति शुरू हो चुकी है. जब पुराने सामंतवादियों की जकड़न से बिहार निकल जाएगा तभी नवसामंतों से भी निकलने का रास्ता निकलेगा.

(लेखक आम्बेडकर संस्थान पटना के प्रमुख हैं)

(निराला से बातचीत पर आधारित)

‘अगर आप वोट करने की उम्र से ऊपर हैं और राजनीति को संदेह से देखते हैं तो आपको बच्चों की पेंटिंग प्रतियोगिता में हिस्सा लेना चाहिए’

Deebakar1

‘अवॉर्ड वापसी’  के चलते आप चर्चा में हैं. लोगों का कहना है कि ऐसा तो हमेशा से होता आया है तो फिर अब ऐसी कौन सी बात हुई है जो एक फिल्मकार इस पर बात कर रहा है. आप इस पर क्या कहेंगे?

जब सिख विरोधी दंगे हुए तो उस समय मैं स्कूल में पढ़ रहा था. जब आडवाणी ने रथयात्रा निकाली थी तब मैंने रामायण देखने वाले दोस्तों से कहा था कि वे इस ‘बकवास’ से प्रभावित न हों. फिर जब मुंबई दंगों की आग भड़की तब मैंने इस बारे में लिखा भी था और ज्यादा से ज्यादा लोगों के बीच इसे साझा भी किया था. यहां तक कि मैंने अपनी एडवरटाइजिंग एजेंसी के न्यूज लेटर पर इसे प्रकाशित कराने की भी कोशिश की, लेकिन इसे हटा लिया गया क्योंकि मेरे मुस्लिम बॉस मेरे ये लिखने से सहज नहीं थे. इसके बावजूद अगर आप मानते हैं कि मैं पहले नहीं बोला तो मैं माफी चाहता हूं. दूसरी बात, अब मैं एक नई शुरुआत कर रहा हूं. अभी शुरुआत की है, तो आशीर्वाद दीजिए.

आप क्या सोचते हैं कि एक फिल्ममेकर को किस हद तक राजनीतिक होना चाहिए?

(हंसते हुए) ये बेकार का सवाल है! मैं आपका सवाल समझ रहा हूं. मुझे याद है एक एक्टिविस्ट ने कुछ पत्रकारों से कहा कि हर चीज पॉलीटिकल होती है तो उन सबने उसे हैरानी से देखा. तो जैसे ही आप कहते हो कि हर जगह राजनीति होती है तो इसे सीधे देश की राजनीति से जोड़कर देख लिया जाता है. लोग एकबारगी हैरान हो जाते हैं कि एक फिल्मकार भी राजनीतिक समझ रख सकता है. ये ठीक उसी तरह से है, जैसे जब मैंने अपनी मां को ‘लव सेक्स और धोखा’ फिल्म का नाम बताया तो वे चौंक गईं. तो इस माहौल में अगर आप वोट करने की उम्र से ऊपर हैं और राजनीति या राजनीति करने को संदेह से ही देखते हैं तो आपको बच्चों की किसी पेंटिंग प्रतियोगिता में हिस्सा लेना चाहिए.

अब अापकी पिछली रिलीज फिल्म  ‘तितली’  की बात करते हैं. इस फिल्म पर शानदार प्रतिक्रियाएं आ रही हैं और यह रणवीर शौरी के करिअर की अब तक की सर्वश्रेष्ठ फिल्म मानी जा रही है. नकारात्मक माहौल वाले परिवार की यह कहानी जबर्दस्त तरीके से ध्यान खींचने वाली साबित हुई. ऐसा कैसे हुआ?

आपने सही कहा. ‘खोसला का घोंसला’ के बाद यह फिल्म रणवीर शौरी की अब तक की श्रेष्ठ फिल्म है. जहां तक नकारात्मक माहौल वाले परिवार की कहानी की बात है तो कनु बहल (फिल्म के निर्देशक) कार चोरी पर फिल्म बनाना चाहते थे. हालांकि आजकल नई तरह की कहानियों पर बात करने के लिए माहौल काफी अनुकूल है लेकिन किसी कहानी को लोगों तक पहुंचाने के लिए यह एकमात्र कसौटी नहीं है. मैं समझता हूं कि अपनी जिंदगी के कुछ मिलते-जुलते पहलुओं के कारण कनु इस तरह की कहानी के प्रति आकर्षित हुए. ऐसे में कहानी की पृष्ठभूमि में बदलाव आना शुरू हुआ. कार चोरी की कहानी से यह कार चोरों की कहानी बनी. इसके बाद कहानी ने फिर करवट बदली और एक ऐसे मध्यमवर्गीय परिवार पर आ टिकी जो कार चोरी में लगा है. यह सब काफी महत्वपूर्ण ब्योरा था. इस तरह शुरुआत हुई और फिर ‘तितली’ पर काम हुआ. शुरुआत में यह कुछ और थी और विकसित होते-होते कुछ और हो गई.

‘मैंने पहले भी विभिन्न मुद्दों पर अपनी बात रखी है, इसके बावजूद अगर आप मानते हैं कि मैं पहले नहीं बोला तो मैं माफी चाहता हूं. अब मैं एक नई शुरुआत कर रहा हूं, आशीर्वाद दीजिए’

यशराज फिल्म्स से आपका जुड़ना आप दोनों के लिए कैसा रहा?

यह दोनों के लिए ही मुश्किल था. यशराज के लिए अपने पुराने ढांचे से बाहर आकर जोखिम लेना निश्चय ही सीखने की राह पर उनके लिए एक नया मोड़ था. उन्होंने इससे पहले कभी कम बजट की फिल्म नहीं बनाई थी. यह हम दोनों के लिए ही अनूठा अनुभव था. हमने कभी किसी फिल्म को 60 लाख रुपये के कम बजट पर बाजार में नहीं उतारा था. किसी एक फिल्म का न्यूनतम मार्केटिंग बजट लगभग 3 करोड़ रुपये होता है. तो इस तरह ‘तितली’ केवल डिजिटल मार्केटिंग और जबानी प्रचार पर निर्भर थी.

आपने एक विज्ञापन कंपनी से करिअर की शुरुआत की. बाद में फिल्म निर्देशन और निर्माण के क्षेत्र में आए. जिस तरह की फिल्में आप बनाते हैं उससे एक फिल्ममेकर और प्रोड्यूसर के तौर पर काफी दिक्कतें आई होंगी. यह सफर कैसा रहा?

मेरी फिल्में ‘ओए लक्की! लक्की ओए!’ और ‘खोसला का घोंसला’ जबानी प्रचार पर ही चलीं. खोसला… जैसी फिल्म के साथ क्या किया जाए, किसी को समझ नहीं आ रहा था. फिर यूटीवी ने इसे कॉमेडी फिल्म के तौर पर प्रचारित करने का प्रस्ताव रखा लेकिन सच कहूं तो एक नए फिल्मकार के रूप में मुझे यह प्रस्ताव भयभीत करने वाला लगा, क्योंकि यह असल में एक कॉमेडी फिल्म नहीं थी. लेकिन यूटीवी के रॉनी स्क्रूवाला मुझे यह यकीन दिलाने में सफल रहे कि दर्शकों में यह एक कॉमेडी की तरह हिट रहेगी, क्योंकि उन्हें व्यंग्य व नाटक के बीच का अंतर पता नहीं होता. अगर दोनों फिल्मों को देखें तो मेरी बाद की फिल्मों की अपेक्षा ये दोनों ही अपनी बनावट और मार्केटिंग में महज ‘भीड़ को खींचने वाली फिल्म’ से कहीं बढ़कर थीं. मैंने यह सुनिश्चित किया कि इन फिल्मों में गाने जरूर हों. ‘लव सेक्स और धोखा’ (एलएसडी) और ‘शंघाई’ जैसी फिल्मों में भी गाने थे. असल में ये सब ध्यान आकर्षित करने के पैंतरे हैं. ये पैंतरे ऐसे माहौल में बने रहने के लिए जरूरी हो जाते हैं, जहां दर्शक शतुरमुर्ग के स्वभाव (वास्तविकता से इंकार करने वाले) और परंपरागत खयालात वाले हों. ऐसे में ऐसी फिल्मों के लिए बीच का रास्ता अपनाना पड़ता है लेकिन ‘तितली’ के साथ ऐसा नहीं है. इस फिल्म के बारे में किसी भी तरह का समझौता नहीं किया गया है. मेरे उलट कनु फिल्म में गाने रखने और खासतौर से किरदारों को गाते हुए दिखाने को लेकर सहज नहीं थे.

Shanghaijjj

बॉलीवुड में हमेशा गानों, ड्रामा और परिवार की परंपरा रही है. क्या आप सोचते हैं कि अकेले इंडस्ट्री ही इस तरह की फिल्में बनाने में दिलचस्पी लेती है या दर्शकों की भी दिलचस्पी होती है?

मैं समझता हूं कि भारत में एक बड़ा दर्शक वर्ग परिवार, ड्रामा और गानों से भरपूर फिल्में देखना पसंद करता है. इन्हें ‘दर्दनिवारक फिल्में’ कहा जा सकता है, जिन्हें देखते हुए वे अपना गम कम होता महसूस करते हैं. बहुत कम लोग ऐसे हैं, जो इसके इतर फिल्मों को देखना पसंद करते हैं. मैं समझ सकता हूं जब कोई स्टूडियो कहता है कि नॉन स्टार वाली फिल्म बनाकर खुदकुशी क्यों करना! वैसी फिल्म बनाएं जो इस तरह के दर्शकों को खींचती हों. तब डिस्ट्रीब्यूटर भी पूछते हैं कि ‘आप खोसला का घोंसला जैसी फिल्म क्यों नहीं बनाते?’ ‘खोसला का घोंसला’ से ‘तितली’ तक के सफर के दौरान हिंदी सिनेेमा में हुए विकास को वे कभी नहीं समझ पाएंगे.

संक्षेप में कहूं तो यह काफी कठिन काम है और इस तरह का काम करने का साहस बहुत कम लोग ही कर पाते हैं. आदि (यशराज फिल्म्स के आदित्य चोपड़ा) जैसे शख्स का सपना है कि मुख्यधारा के सिनेमा के साथ ही वह इस तरह की फिल्में भी बनाए.

‘मैं समझता हूं कि एक बड़ा दर्शक वर्ग परिवार, ड्रामा और गानों से भरपूर फिल्मों को देखना पसंद करता है. इन्हें ‘दर्दनिवारक फिल्में’ कहा जा सकता है, जिन्हें देखते हुए वे अपना गम कम होता महसूस करते हैं’

अभय देओल और इमरान हाशमी अलग तरह की भूमिकाएं निभाने वाले अभिनेता हैं. दोनों में कोई मेल नहीं. ऐसे में  ‘शंघाई’  फिल्म में इमरान हाशमी की भूमिका ने सबको चौंका दिया, क्योंकि आमतौर पर हम भट्ट कैंप के साथ उन्हें बिल्कुल अलग तरह की फिल्मों में देखने के आदी हैं. ऐसे अभिनेताओं से चरित्र अभिनय कराने की कैसे सूझी?

ये लोग अपनी पुरानी छवियों से खुद तंग आ चुके थे. अब तक मैंने जितने अभिनेता देखे हैं उनमें इमरान हाशमी सबसे बुद्धिमान, सुलझे और प्रोफेशनल अभिनेताओं में से एक हैं. इमरान पुरानी छवि में कैद महसूस कर रहे थे और उससे मुक्त होना चाहते थे. हालांकि ऐसा कहने वाले बहुत लोग हैं कि ‘शंघाई’ जैसी फिल्म क्यों बनाई जाए जो 50 करोड़ रुपये नहीं कमा सकती. इमरान और अभय देओल जैसे अभिनेता बहुत दबाव में थे और हर दिन अपनी पुरानी छवि से बाहर आने की कोशिश कर रहे थे.

मैं बता नहीं सकता कि किस तरह बुद्धिजीवी पत्रकार इमरान हाशमी की निंदा उनके किसिंग सीन की वजह से करते थे. तो इस तरह आप देख सकते हैं कि अभिजात्य वर्ग के लोग भी प्रचलित छवियों से प्रभावित हो जाते हैं. अगर आप अब भी इमरान के अभिनय की क्षमता नहीं देख पा रहे हैं तो मैं कहूंगा आप अंधे हैं. मैं ऐसा कोई डॉक्टर नहीं जिसने उन दोनों अभिनेताओं को अभिनय की घुट्टी पिलाई है. इमरान ने ‘गैंगस्टर’ और कुछ दूसरी फिल्मों में बेहतरीन काम किया है. इसके बावजूद उनकी आलोचना इस ओर भी संकेत करती है कि अब भी समाज के एक वर्ग में संकीर्णता है और जब आप कोई नई राह चुनते हैं तो कहीं से भी आपको सहयोग नहीं मिलता.

बिहार में दलित राजनीति को नेतृत्व की दरकार

28-33 Bihar Dalit_Layout 1gggg

रमाशंकर आर्य पटना विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं. वे दलित मसलों के जानकार हैं. बिहार के चुनाव परिणाम से खुश दिखते हैं. उनकी खुशी का राज भाजपा की हार में छिपा है. कहते हैं, ‘चलिए यह अच्छा हुआ कि रामविलास पासवान और जीतन राम मांझी की हार हुई. यह उनके लिए जरूरी था. इस चुनाव परिणाम ने हम सबको खुशी तो दी है. इसकी वजह भी है. लालू प्रसाद दलितों को वोट दिलवाने की स्थिति में लाए, वरना बिहार में दलित वोट के अधिकार से ही वंचित रहते थे. उनके बाद नीतीश ने दलितों को नई शक्ति दी. आज पंचायत और निकाय में 16 प्रतिशत दलित हैं तो यह नीतीश कुमार की ही देन है. अब मंत्रिमंडल में भी करीब 18 प्रतिशत दलितों को जगह मिल गई है.’

हालांकि प्रो. आर्य समेत बिहार से ताल्लुक रखने वाले दूसरे दलित चिंतकों को एक विश्वसनीय दलित नेता की कमी भी खलती है. उनका कहना है कि बिहार में कोई दलित नेता स्वतंत्र रूप से, विश्वसनीयता के साथ, दलितों के बीच में अपनी साख बनाते हुए क्यों खड़ा नहीं हो पा रहा. प्रो. आर्य कहते हैं, ‘एक सर्वमान्य और बड़ी सोच वाले दलित नेता का उभार नहीं हो पाना चिंता का विषय है. इस पर चर्चा के लिए जल्द ही पटना में दलित रिसर्च स्कॉलरों का जमावड़ा होने वाला है.’ मंडल के 25 साल गुजर जाने और कथित तौर पर मंडल पार्ट टू की शुरुआत होने के बाद भी अपनी जमात से एक मजबूत व विश्वसनीय नेतृत्व को विकसित नहीं कर पाने की दलितों की चिंता राजनीतिक तौर पर वाजिब भी है. साथ ही पड़ोस के उत्तर प्रदेश की तरह पिछड़ों के राज से अलग दलित राज की संभावना न बन पाने की कसमसाहट भी कइयों में है.

 दो दलित दिग्गजों की चिंता

ऐसा नहीं है कि इस बार के बिहार चुनाव परिणाम को लेकर दलित राजनीति या दलित वोट बैंक के नजरिये से चिंता में कोई एक नेता या राजनीतिक खेमा है. सभी खेमों में एक जैसी बेचैनी है. हालांकि कांग्रेस और लालू प्रसाद यादव इससे बाहर हैं. कांग्रेस इसलिए बेचैन नहीं है, क्योंकि इस बार के बिहार चुनाव में उसके पास खोने को कुछ नहीं था और जो पाने को था, उसे उससे बहुत ज्यादा हासिल हो गया. लालू प्रसाद के माथे पर चिंता की लकीरें इसलिए नहीं हैं, क्योंकि वे फिर से अपने बिखरते वोटों को सहेजने में सफल हो गए हैं. साथ ही सही समय पर अपनी सत्ता और राजनीति भी अपने उत्तराधिकारियों को सौंप चुके हैं. वह बहुत चतुराई से नीतीश कुमार की बिछाई बिसात अतिपिछड़ा, महादलित, पसमांदा आदि को भी खत्म करने की राह पर बढ़ चुके हैं.

दलित चिंतकों को एक विश्वसनीय दलित नेता की कमी भी खलती है. उनका कहना है कि बिहार में कोई दलित नेता अपनी साख बनाते हुए क्यों खड़ा नहीं हो पा रहा

दलित वोटों को लेकर सबसे बड़ी चिंता में रामविलास पासवान हैं. उनका एक मशहूर जुमला रहा है. ‘हम हालात बदलने पर किसी के साथ नहीं जाते बल्कि हम जिधर जाते हैं, उधर अच्छे दिन आ जाते हैं, हालात बदल जाते हैं.’ यह जुमला इस बार कारगर तो नहीं ही हुआ साथ ही उनकी पूरी राजनीति का मिथ भी इस बार करवट लेते दिखा. उनकी पार्टी को 4.8 प्रतिशत वोट और दो सीटें मिलीं. उनके तमाम रिश्तेदार हार गए. पहली बार ऐसा हुआ जब उन्हें अपनी जाति का भी वोट नहीं मिला और न ही ये वोट वे राजग को ट्रांसफर करवा पाए. रामविलास पासवान को पार्टी बनाने के बाद 29 सीटें मिली थीं, फिर धीरे-धीरे वह इकलौते विधायक वाली राष्ट्रीय पार्टी के नेता भर बनकर रह गए. पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ होने के चलते उन्हें संजीवनी मिल गई. अब सवाल ये है कि जिस भाजपा के साथ वे पुनर्जीवन पाकर बड़ा उभार पाने में सफल हुए थे, उसी के साथ रहने पर पहली बार उनकी जाति के वोटरों ने भी उनका साथ क्यों छोड़ दिया? अपने गढ़ और सुरक्षित सीटों पर दलितों ने भी उन्हें क्यों नकार दिया? उनका वोट बैंक पहली बार क्यों खिसक गया?

बिहार की राजनीति में तेजी से उभरकर दलित राजनीति की आकांक्षा और उम्मीदों के स्वर बने राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के माथे पर भी चिंता की लकीरें हैं. इमामगंज सीट पर दिग्गज दलित नेता व राज्य के पूर्व विधानसभा अध्यक्ष और नीतीश कुमार के प्रिय उदयनारायण चौधरी को हराने का सुख तो उन्हें है लेकिन अपनी अलग पार्टी बनाने, भाजपा से सहयोग लेने के बावजूद इकलौती सीट पर जीत दर्ज करा पाने की कसक उनके मन में है. उन्हें 2.3 प्रतिशत वोट और एक सीट मिली. सवाल यह है कि ऐसा क्यों हुआ?

रामविलास पासवान की बात करें तो जानकार बताते हैं कि उन्होंने परिवारवाद को इतनी तरजीह दी है कि उनकी जाति के लोग ही उनसे बिदक रहे हैं. यह शायद पासवान की पार्टी के हार का कारण बताने में जल्दबाजी जैसा है, क्योंकि उन्होंने पहली बार परिवारवाद नहीं किया. वे इसके लिए जाने जाते रहे हैं और अपने दोनों भाइयों, बेटों को पहले ही राजनीति में सेट कर चुके हैं. इस बार वे अपने दामाद और भतीजे को लेकर आए थे, जो नहीं चल सके. कुछ जानकार बताते हैं कि रामविलास पासवान को पिछली बार तक ऊर्जा इसलिए मिली थी क्योंकि नीतीश कुमार ने उन्हें खत्म हो जाने के बाद फिर से बढ़ जाने का एक मौका उपलब्ध करा दिया था. नीतीश कुमार ने 18 जातियों को लेकर जब महादलित नाम से दलितों की एक अलग श्रेणी बनाई थी तो उसमें पासवान को छोड़ दिया गया था. तब रामविलास पासवान के समर्थकों ने पासवानों के बीच यह बात फैला दी थी कि पासवानों को इसलिए नीतीश कुमार ने अलग-थलग छोड़ दिया है, क्योंकि वे रामविलास पासवान को वोट देते हैं. पूरे पासवान रामविलास के पीछे गोलबंद हो गए थे और अगड़ी जातियों के साथ गोलबंदी कर लोजपा के लिए जीत की राह को आसान बना दिया था. लेकिन इस बार ऐसा नहीं था. हो सकता है कि दोनों कारण सही हों. इस बार पासवान ने परिवारवाद को लेकर थोड़ा अलग किस्म का वातावरण बनाया भी था. बोचहा जैसी सीट से पहले उन्होंने एक महिला उम्मीदवार को प्रत्याशी बनाया. फिर अपने नाराज दामाद अनिल साधु को मनाने के लिए महिला प्रत्याशी को हटाकर दामाद को मैदान में उतार दिया था. हालांकि जीत उसी महिला प्रत्याशी की हुई. हो सकता है कि महादलित का मसला इस बार चुनावी मैदान में नहीं रहने के कारण भी पासवान वोटों का बंटवारा हो गया हो.

पासवान की तरह ही जीतन राम मांझी की हार की कहानी भी अलग है. उन्होंने नीतीश कुमार से अलग होकर नेतृत्व को चुनौती दी. कुछ लोगों ने मांझी को अवसरवादी कहा लेकिन मांझी को साहसी कहने वाले भी बहुतेरे रहे. अब सवाल उठ रहा है कि आगे मांझी क्या करेंगे? क्या वे फिर से दलितों में विश्वास जगा पाएंगे? मांझी को जानने वाले कहते हैं कि वे कभी बहुत मुश्किल और चुनौती की राजनीति नहीं करते. अभी उनके पास तीन विकल्प हैं. पहला, वह अगले चुनाव तक दलितों की राजनीति को मजबूत करें और जो 2.3 प्रतिशत वोट उन्हें मिला है, उसे और आगे बढ़ाने की कोशिश करें. दूसरा, वह राजग के साथ बने रहें. केंद्र में राजग की सरकार है तो उन्हें कोई अच्छी जिम्मेदारी मिल जाए. तीसरा, वह महागठबंधन में वापसी कर जाएं, क्योंकि महागठबंधन में अभी जो तीन दल हैं, उनके साथ मांझी रह चुके हैं और सबके बुरे दिन के संकेत मिलने पर साथ छोड़ते गए हैं. मांझी इस मसले पर बात नहीं करते हैं. उनके करीबी बताते हैं कि अभी वे चिंतन कर रहे हैं और हार की समीक्षा के बाद ही कुछ तय करेंगे.

प्रो. आर्य कहते हैं, ‘मांझीजी को जब सत्ता मिली थी तो पूरे बिहार में दलितों के बीच उम्मीद जगी और अगर वे अलग लड़ते तो बिना संदेह आज बहुत अच्छी स्थिति में होते और पूरे बिहार से दलितों का समर्थन उन्हें मिलता.’ राजनीतिक कार्यकर्ता और बामसेफ से जुड़े मनीष रंजन कहते हैं, ‘मांझी फैक्टर का जो असर बिहार के चुनाव में होना था वह हुआ है. भाजपा की दो भूल, एक तो टिकट वितरण में अगड़ों का वर्चस्व और दूसरा आरक्षण वाला विवादित बयान, अगर नहीं आया होता तो मांझी भाजपा की नैया बहुत मजबूती से पार करवा देते, क्योंकि उनकी बात दलितों तक पहुंच चुकी थी.’ ये बातें सही हैं, लेकिन मांझी के वोट बिखराव और पूरे दलित समुदाय पर पकड़ नहीं बन पाने की एक वजह उनके और पासवान के बीच का टकराव भी रही. पासवान ने मांझी को छोटा नेता कहा तो मांझी ने जवाब में उन्हें परिवार का नेता कहा. दोनों नेताओं की आपसी जंग की वजह से भी दलित वोट एक समूह की तरह नहीं बन सका.

महागठबंधन के नेताओं की चिंता गैरवाजिब नहीं है, क्योंकि चुनाव परिणाम ने ये साफ कर दिया कि भाजपा ने दलितों-अतिपिछड़ों में अपना आधार बढ़ा लिया है

इसके अलावा चुनाव परिणाम ने नीतीश-लालू को भारी जीत दिलाने के बावजूद दलित राजनीति के नजरिये से कोई बहुत अच्छा संकेत नहीं दिया है. यह अलग बात है कि राज्य में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 40 सीटों में से 35 पर महागठबंधन का ही कब्जा हुआ. फिर भी चुनाव परिणाम कुछ अलग संकेत देते हैं. मनीष कहते हैं, ‘भाजपा नेता सुशील मोदी जो लगातार कह रहे थे कि मंडल और कमंडल, दोनों उनके पास हैं, इससे भाजपा ने संकेत दे दिए हैं कि कमंडल के साथ मंडल पर भी उसने डोरे डाले हैं और इस बार किसी कारण गड़बड़ी हो गई लेकिन भविष्य में वह दूसरी राह भी अपना सकती है.’ इन बातों की पड़ताल करें तो यह संकेत मिलते भी हैं.

 गणित के संकेत

चुनाव परिणाम ने सिर्फ दलित वोट या राजनीति के नजरिये से पासवान और मांझी को ही चिंतित नहीं किया है बल्कि दूसरे और कई दल भी परेशान हैं. बिहार में 2011 की जनगणना के अनुसार दलित आबादी करीब 16 प्रतिशत है. हालांकि मांझी जैसे नेता इसे 23 प्रतिशत मानते रहे हैं और कई विश्लेषक भी इसे 20 प्रतिशत से कम नहीं मानते. इनका मानना है कि दलित आबादी में एक बड़ा हिस्सा ऐसा होता है जो इधर से उधर पलायन करता रहता है, इसलिए वह जनगणना में शामिल नहीं हो पाता. यह बात सही भी है. खैर अगर उस पक्ष को छोड़ भी दें तो दलितों की बड़ी आबादी बिहार में है. नीतीश कुमार ने इसी दलित वोट को अपने पाले में और लालू से अलग करने के लिए एक समय में महादलित कार्ड खेला था. उसका लाभ भी उन्हें मिला था. इस बार के चुनाव में भाजपा ने भी दो दिग्गज दलित नेताओं को अपने पाले में इसी वोट को साधने के लिए किया था. हालांकि वह कुछ करिश्मा नहीं कर सके. लेकिन इन सबके बाद भारी जीत हासिल करने वाले नीतीश-लालू की जोड़ी को भी दलित राजनीति के नजरिये से चुनाव परिणाम ने कोई कम चिंतित नहीं किया है. विजयी होने के बावजूद चिंतित होने की वजहें भी ठोस हैं. इस बार के चुनाव में भाजपा को 24 प्रतिशत वोट मिले हैं और अगर उसके सहयोगियों को मिला दें तो राजग को कुल करीब 34.1 प्रतिशत वोट मिले हैं. महागठबंधन के नेताओं की चिंता यह है कि वोटों की प्रतिशतता के बावजूद भाजपा का खेल गड़बड़ा गया या िफर मोहन भागवत के आरक्षण वाले विवादित बयान के बाद दलित और पिछड़े उससे नाराज हो गए. इसके इतर चिंता ये भी है कि वह कौन सा समूह है, जिसने भाजपा के वोट प्रतिशत को इस बार बढ़ाकर 24 प्रतिशत कर दिया. पिछली बार नीतीश के साथ रहने और उनके जरिये महादलित-अतिपिछड़ों का भी वोट पाने के बावजूद 17-18 प्रतिशत के बीच ही रह गया था. हालांकि एक तर्क यह दिया जा रहा है कि भाजपा अधिक सीटों पर लड़ी इसलिए उसका वोट प्रतिशत ज्यादा है, पर महागठबंधन के नेताओं की यह चिंता गैरवाजिब नहीं है. क्योंकि भाजपा इस बार भले ही पिछड़ गई लेकिन चुनाव परिणाम ने यह साफ कर दिया कि उसने दलितों और अतिपिछड़ों में अपने आधार का विस्तार कर लिया है. यह आनेवाले दिनों में चुनौती की तरह ही होगा.

इस बात की पुष्टि सिर्फ मतदान में मिले कुल प्रतिशत वाले वोट ही नहीं करते बल्कि चुनाव के बाद सीएसडीएस जैसी संस्था ने भी अपनी अध्ययन रिपोर्ट के जरिए यह साफ किया कि इस बार चुनाव परिणाम में अतिपिछड़ों ने 35 प्रतिशत वोट महागठबंधन को किया तो 43 प्रतिशत वोट राजग को. पासवानों में 19 प्रतिशत वोट महागठबंधन को गया तो 54 प्रतिशत राजग को और महादलितों में 25 प्रतिशत वोट महागठबंधन को गया तो 30 प्रतिशत राजग को. राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘ये आंकड़े भविष्य की राजनीति के संकेत दे रहे हैं. संकेत साफ हैं कि भाजपा ने इस बार अतिपिछड़े और दलितों में सेंधमारी की है क्योंकि उसके सहयोगियों के वोटों को अलग कर दें तो वह अलग 10 प्रतिशत होता है और भाजपा का अपना 24 प्रतिशत है. वोटों के प्रतिशत और सीटों के बीच संख्या के अनुपात में अचानक ही उतार-चढ़ाव होता है. लालू जब अपने सबसे अच्छे दिनों में थे तो 29 प्रतिशत वोट पाकर ही 164 विधायकों के साथ सरकार बना ली थी.

इस बार के चुनाव में भाकपा माले सिर्फ डेढ़ प्रतिशत वोट पाकर ही तीन सीटें अपने पाले में करने में सफल रही है. इस लिहाज से राजग का 34 प्रतिशत वोट और उसमें दलितों व अतिपिछड़े वोटों का भी ठीक ठाक सामंजस्य हो जाना आगे के लिए चुनौती है. यह चुनौती लालू के लिए कम और नीतीश के लिए ज्यादा है. लालू ने अपने पुराने समीकरण का फिर से रिवाइवल कर लिया है लेकिन इस चुनाव में वे सारे कोर वोट बैंक समूह, जिसे नीतीश कुमार ने अपने लिए या अपनी राजनीति के लिए खड़ा किया था, एक हो गए हैं. बिहार के अब सारे दलित महादलित हो चुके हैं. लालू प्रसाद ने इसकी घोषणा भी कर दी है कि बिहार के सारे दलित अब महादलित की सुविधा लेंगे. सिर्फ दलित-महादलित ही नहीं, अतिपिछड़ा और पिछड़ा मिलकर एक हो गए हैं और राजनीति मंडल की ओर मुखातिब हो गई है. मुसलमानों में नीतीश ने पसमांदा और अशराफ मुसलमानों का बंटवारा किया था, वे दोनों भी एक होकर मुसलमान वोट बैंक जैसे हो गए हैं.’ सवाल यह उठता है कि अगर किसी राजनीतिक कारण से लालू और नीतीश का अलगाव होता है तो क्या अपने बने बनाए सारे वोट बैंक को खत्म कर नीतीश, लालू का मुकाबला कर पाएंगे?

प्रो. आर्य कहते हैं, ‘नीतीश कुमार ने पंचायत चुनाव में दलितों को आरक्षण दिया, उसका असर रहा है और रहेगा. यह सही है लेकिन उसका विस्तारित सवाल यह है कि जब 16 प्रतिशत दलित आज पंचायती व्यवस्था में प्रधान सरपंच, पार्षद आदि बनकर सक्रिय राजनीति में दखल दे चुके हैं तो फिर आने वाले दिनों में वे अपने लिए भी रास्ता तलाशेंगे और वह रास्ता उस ओर जाएगा, जिधर दलित राजनीति की गुंजाइश होगी.’ ये बात भी सही लगती है कि नीतीश कुमार ने दलितों को पंचायत में आरक्षण देकर एक बड़ा काम किया है, जिसका असर रहेगा लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद और इस बार के विधानसभा चुनाव के पहले बिहार में विधान परिषद चुनाव भी हुआ था. उसमें वोट डालने वाले निर्वाचित निकाय प्रतिनिधि ही थे. अधिकांश दलित और अतिपिछड़े प्रतिनिधियों ने इसमें भी भाजपा का साथ ज्यादा दे दिया था. यानी कुल मिलाकर संकेत यह मिल रहे हैं कि दलित और अतिपिछड़े, जो बिहार की राजनीति में एक समूह की तरह बनाए गए थे, अब भी हिचकोले खा रहे हैं और एक ठोस नेतृत्व की तलाश में कभी भाजपा की ओर तो कभी लालू-नीतीश की ओर तो कभी रामविलास पासवान-जीतन राम मांझी की ओर आ-जा रहे हैं.

‘इस बार के बिहार के चुनाव परिणाम ने साफ कर दिया कि जो भी एक ठोस एजेंडे के साथ दलितों को साधकर काम करेगा, वह भविष्य में चैंपियन होगा’

[box]

‘दलित नेता ही दलितों का आत्मबल मारते हैं,

इसलिए कोई विश्वसनीय दलित नेतृत्व उभर नहीं पाया’

इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव में तीन अशोक की खूब चर्चा हुई. एक चक्रवर्ती सम्राट अशोक, जिनकी जाति का निर्धारण चुनाव के पहले जोर-शोर से हुआ और भाजपा ने उनका स्वरूप बदला. दूसरे कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अशोक कुमार चौधरी थे. कांग्रेस की जीत चाहे जिन वजहों से हुई, जैसे हुई हो लेकिन अशोक कुमार चौधरी का नाम चमका, अब वे राज्य के शिक्षा मंत्री हैं. तीसरे अशोक का नाम भी अशोक कुमार चौधरी है. इन्होंने नया इतिहास रचा. अशोक ने मुजफ्फरपुर जिले के कांटी विधानसभा क्षेत्र से जीत हासिल की है. कांटी बिहार में थर्मल पावर प्लांट के लिए ख्यात है. यह विधानसभा क्षेत्र सामान्य श्रेणी का है. अशोक चौधरी, जो दलित जाति से आते हैं, उन्होंने इस सीट से निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर अपना नामांकन किया और अजीत कुमार जैसे पुराने नेता को परास्त किया. यहां राजद तीसरे नंबर पर चली गई. अजीत कुमार, जीतन राम मांझी की पार्टी ‘हम’ से उम्मीदवार थे. वे पहले नीतीश कुमार के साथ थे. बाद में मांझी के साथ हो गए थे. कांटी में सामान्य सीट पर एक दलित का जीतना बिहार में यूं ही बड़ी परिघटना के तौर पर माना जा सकता था और उसमें भी निर्दलीय का जीत जाना ऐतिहासिक है. इसके पहले बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री रामसुंदर दास सामान्य सीट से जीतते रहे थे लेकिन अशोक चौधरी का निर्दलीय जीतना एक बड़ी राजनीतिक संभावना की ओर भी संकेत है. कांटी से जीत हासिल करने वाले अशोक चौधरी ने दलित राजनीति पर निराला से बातचीत की

ashok kati vidhayakggggआपने तो इस लहर में मिथक ही बदल दिया. दलित जाति से होकर सामान्य सीट से लड़ने का साहस जुटाया और निर्दलीय जीत भी गए. ये सब कैसे हुआ?

आप डंड़ेरा जानते हैं. खेत में बांधा जाता है. आरी जैसा. उसका काम होता है कि वह पानी की धार को रोके रहे. पानी इधर से उधर न जाए. मैंने बस एक ही फॉर्मूला रखा था. वह यह कि हमारी जाति या समूह के लोग अगर आजादी के बाद से दूसरों को विजयी बनाते रहे हैं तो हमें क्यों नहीं बनाएंगे. इसी आधार पर मिथक बदल गया.

जब आप इतने संभावनाशील नेता थे तो आपको टिकट देने के लिए किसी पार्टी ने आपसे या आपने किसी पार्टी से संपर्क क्यों नहीं किया?

कौन देता टिकट और क्यों देता. चुनाव के किसी समीकरण में मैं फिट नहीं बैठ रहा था. आजादी के बाद से इस सीट पर एक जाति समूह का वर्चस्व था. लालू प्रसाद यादव ने इस पर अल्पसंख्यक उम्मीदवार को खड़ा कर उस वर्चस्व को तोड़ा लेकिन यहां दलितों को लेकर कभी किसी ने संभावना की तलाश ही नहीं की. फिर भला हमें क्यों कोई दल टिकट देता. तब मैंने तय किया कि निर्दलीय चुनाव लड़ूंगा और अपने लोगों के साथ ही दूसरे समूह के लोगों से अपने पक्ष में अपील करूंगा. इसका असर भी हुआ. इस फॉर्मूले ने डंड़ेरा की तरह काम किया. दलित एकतरफ एकजुट हो गए और आप यकीन कीजिए कि यह समूह जहां, जिसके पक्ष में हो जाए, वहां किसी लहर और प्रचार का असर नहीं होना है. आजादी के बाद से पहली बार इस सीट को आजादी मिली और समीकरण बदल गया.

रामविलास पासवान और जीतन राम मांझी जैसे दो दलित नेता भी तो थे भाजपा के साथ. बिहार में दोनों अपने लोगों को क्यों नहीं बांध पाए, जबकि वे तो सामर्थ्यवान नेता भी रहे हैं?

मैं एक बात बताऊं. पूरे बिहार का नहीं जानता लेकिन जितना जानता हूं उसके आधार पर कह सकता हूं कि दलितों या वंचितों के समूह में साहस या प्रतिभा की कोई कमी नहीं है लेकिन जो लोग उनकी रहनुमाई करते हैं वे उनके नाम पर तो सामने आते हैं लेकिन बाद में अपने परिवार और परिजनों के अलावा ज्यादा कुछ सोच नहीं पाते, इसलिए बड़े से बड़े नाम के नाम पर भी दलित समूह एकजुट नहीं रह पाता, बिखर जाता है.

दलितों की आबादी इतनी बड़ी है, फिर भी एक मुकम्मल दलित नेतृत्व न उभर पाने की राह में आप किस तरह की बाधा देखते हैं? बिहार में दलित राजनीति के सामने चुनौती क्या है?

दलित नेता ही यहां के दलितों का आत्मबल मार देते हैं. और जो बड़े क्षेत्रीय या राष्ट्रीय दल हैं, वे बस किसी एक नेता को आगे बढ़ाकर अपने को दलित हितैषी बताने लगते हैं. ऐसे में दलितों में से एक नेता का उभार हो जाता है और बाकी 99 फीसदी दलित परिवार किस हाल में रह रहे हैं, उसकी खबर नहीं ली जाती. और जो एक नेता बनाया जाता है, वह भी 99 फीसदी की रोजी-रोटी की चिंता की बजाय अपने कुनबे के विस्तार में लग जाता है. यही बिहार में होता रहा है और उसका असर यह रहा है कि बिहार में दलित वोट बैंक या तो किसी दल के राजनीतिक हित साधने का औजार है या फिर किसी नेता के कुनबे के विस्तार का माध्यम. और दलित नेता इस्तेमाल होते रहे हैं.

तो क्या आपसे उम्मीद की जाए कि आप जब इस लहर में एक अलग पहचान के साथ उभरे हैं तो आप पूरे बिहार में अलग किस्म की दलित राजनीति के एजेंडे को आगे बढ़ाएंगे?

अभी पूरे बिहार का क्या कहूं. मैं तो कांटी से जीता हूं. कांटी की ही जनता ने इतना भरोसा कर आजादी के बाद से नया इतिहास रचा है. पुराने मिथक को तोड़ा है तो मेरी पूरी कोशिश होगी कि कांटी को ही अपना पूरा समय दूं. कांटी में बदलाव की बुनियाद रखू. अभी तो इतना ही सोचता हूं.

[/box]
बिहार के समाजवादी नेता धनिकलाल मंडल के बेटे भरत मंडल कहते हैं, ‘इस बार के चुनाव परिणाम ने साफ कर दिया कि जो भी एक ठोस एजेंडे के साथ दलितों को साधकर काम करेगा, वह भविष्य में चैंपियन होगा. दलित वोट बैंक छटपटाहट में है, बिखराव की स्थिति में है, उसे सहेजने वाला एक नेता चाहिए.’ लेकिन क्या वाकई बिहार की राजनीति में कोई ऐसा दलित नेता गोलबंदी करने की स्थिति में आता हुआ दिखता है. अब तक का इतिहास बताता है कि बिहार में जो भी दलित नेता रहे हैं, चाहे वे जगजीवन राम, भोला पासवान शास्त्री, रमई राम, रामसुंदर दास, रामविलास पासवान या जीतन राम मांझी रहे हों, सब एक बड़े नेता के तौर पर तो दिखे लेकिन कोई भी अपने ही समुदाय को एक समूह की तरह विकसित नहीं कर सका. तब सवाल यह उठता है कि बिहार में दलित राजनीति अब क्या करवट लेगी? और दूसरा सवाल उठता है कि आखिर क्यों बिहार में दलित राजनीति अब भी उत्तर प्रदेश की तर्ज पर पिछड़ी राजनीति से अलग पहचान बनाने की स्थिति में नहीं आ सकी, अपना एक मजबूत नेता नहीं बना सकी, एक मजबूत नेतृत्व को जन्म नहीं दे सकी, जबकि उनकी आबादी भी कम नहीं है.

बाधाएं और संभावनाएं

आखिर क्यों बिहार की दलित राजनीति में तनी छटपटाहट दिखने के बावजूद उत्तर प्रदेश की तरह दलित अपना मजबूत नेतृत्व नहीं बना पा रहे हैं? राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘किसी भी समूह से सत्ता में स्वतंत्र व मजबूत नेतृत्व के उभार के लिए आबादी में बड़े स्तर पर मध्यवर्ग का होना जरूरी होता है. बिहार में दलितों की आबादी तो बड़ी है लेकिन इसमें मध्यवर्ग की कमी है, इसलिए अभी यह संभव नहीं दिखता.’ प्रो. आर्य इस बारे में कहते हैं, ‘1998 में दलित हिस्ट्री कांग्रेस हुआ था. उसमें कांशीराम शामिल हुए थे. मैं भी गया था. कांशीराम जी ने तब कहा था, अभी से ही लगना होगा. कम से कम 40-50 अपने लोग संसद में होने चाहिए. तब बाबा साहब की जयंती मनाने का मतलब होगा. उसके बाद वे इस काम में लग गए थे.’ प्रो. आर्य कहते हैं, ‘इतनी बड़ी योजना और फिर धैर्यपूर्वक उस योजना पर काम करने वाला बिहार में कोई दिखता ही नहीं, तो यह संभव होगा, ऐसा नहीं लगता.’

राजनीतिक विश्लेषक प्रेम कुमार मणि कहते हैं, ‘इसके पीछे कई कारण हैं कि बिहार की दलित राजनीति उत्तर प्रदेश की तरह अभी आगे नहीं बढ़ सकी है. इसके लिए आपको अभी का समय नहीं देखना होगा. पिछड़ों की गोलबंदी 30 के दशक में त्रिवेणी संघ के जरिए ही शुरू हो गई थी. आजादी के बाद कांग्रेस का राज आया. दलित कांग्रेस के साथ चले गए. बीच में लोहिया ने ‘पिछड़ा पावे सौ में साठ’ का नारा चलाया. पिछड़े लोहिया के इस नारे के साथ हो गए, दलित समाजवादी आंदोलन से नहीं जुड़े. वे कांग्रेस के साथ ही रह गए. लालू का उभार हुआ तब दलितों ने कांग्रेस का साथ छोड़ा. इसलिए दलितों में बेचैनी और अपना एक अलग ठांव तलाशने के बावजूद वह नेतृत्व नहीं मिल पा रहा, जिस तरह से पिछड़ों को बिहार में मिल रहा है. लेकिन इस बार के चुनाव ने ये संकेत दिए हैं कि तमाम लहर वगैरह के बावजूद दलितों ने भाजपा का साथ दिया. यह एक किस्म की बेचैनी ही है कि इतने आंधी-तूफान के बावजूद दलित वोट इधर-उधर हुआ. पासवान-मांझी को मिलाकर तकरीबन 7.5 प्रतिशत वोट मिले हैं. ये कम नहीं है. बस, देखना यह होगा कि मांझी कहीं फिर से लालू-नीतीश के साथ न चले जाएं. अगर ऐसा नहीं होता है और मांझी कोई दीर्घकालिक राजनीति का रास्ता अपनाते हैं तो बिहार की राजनीति में बहुत कुछ बदलेगा.’

ये बात सही भी लगती है. ऐसे कई कारण रहे हैं, जिसकी वजह से बिहार में दलित राजनीति स्वतंत्र रूप से परवान नहीं चढ़ सकी. उत्तर प्रदेश में इसकी बढ़त का एक दूसरा कारण यह भी रहा कि वहां वाम दलों का कभी प्रभाव नहीं रहा जबकि बिहार में वाम दल शुरू से ही सक्रिय रहे और दलितों के बीच उनकी पकड़ भी रही. यह भी सही है कि लालू पहले भी चाहते थे, अब भी चाहेंगे कि मांझी उनके खेमे में आएं. लालू को भी पता है कि इस बार के चुनाव में दलितों ने या अतिपिछड़ों ने गोलबंदी कर एक तरीके से उस पुराने ऋण को भी चुकाया है, जो लालू का एक तरीके से बकाया-सा भी था. लेकिन दलितों या अतिपिछड़ों ने तब यह ऋण चुकाया है, जब लालू प्रसाद सबसे मुश्किल दिनों में राजनीतिक लड़ाई लड़ रहे थे. बिहार की राजनीति अनिश्चित है. ऐसे में यहां की दलित राजनीति किसी करवट बैठेगी और क्या इस समुदाय से कोई बड़ा नेता उभरेगा? इसके जवाब में अब भी कुछ निश्चित तौर पर नहीं कहा जा सकता है.

‘मेेरी कहानियां भारत-पाक के बीच की नफरत को चुनौती देती हैं’

Anam 3 web

ओरल हिस्ट्री प्रोजेक्ट के तहत आपकी किताब  ‘द फुटप्रिंट्स ऑफ पार्टीशन’  आई है. इस प्रोजेक्ट के तहत आपने 600 लोगों के साक्षात्कार लिए. इतने सारे लोगों से मिलकर बातचीत करने का अनुभव कैसा रहा?

अद्भुत! जिस किसी से भी मैंने बात की, उस ही के पास बहुत सशक्त कहानियां थीं. कई बार मुझे खुद को यकीन दिलाना पड़ता था कि ये कहानियां सच्ची हैं क्योंकि वे काफी अवास्तविक लगती थीं. मुझे ये यकीन करना मुश्किल लगता था कि सचमुच वैसी परिस्थितियों से कोई गुजरा होगा. निश्चय ही हिंसा भरी कहानियों को सुनना काफी मुश्किल था. अतीत की यादों में ऐसी ही कहानियां भरी पड़ी थीं, जो दिल दहलाने वाली भी थीं. बातचीत के कई दिनों बाद तक भी मैं उन लोगों की बातों को भूल नहीं पाती थी. उनकी आवाजें मेरे कानों में गूंजती रहती थीं. जिन लोगों से बातचीत हुई वे काफी दिलचस्प थे. कई बार उनकी बातें मेरे अपने देश के अतीत के बारे में मेरी समझ को चुनौती देती थीं. वे मेरे सामने एकदम दूसरी तरह की कहानियां पेश कर रहे थे जिसकी वजह से मैं जो जानती थी मुझे उसे भुलाना पड़ा और नई बातें जानने के लिए एक नई प्रक्रिया शुरू करनी पड़ी.

क्या इन साक्षात्कारों में वर्तमान समय की छाप महसूस की? या फिर उन्होंने कुछ अलग तरह की कहानियां बताईं, जिन्हें आप मेटा-नेरेटिव (विभिन्न ऐतिहासिक, सामाजिक-सांस्कृतिक घटनाओं और अनुभवों को व्यापकता के साथ बताना) कहती हैं और जिनसे अतीत के पुनर्लेखन में मदद मिली?

मुझे लगता है समय के साथ अतीत से जुड़ी यादों में एक बदलाव आ जाता है और वे वर्तमान में प्रचलित हिंसा और दुश्मनी की कहानियों से प्रभावित हो जाती हैं. जिनसे मैंने बात की उनमें से बहुत से लोग ऐसे थे जिन्होंने हिंसा और सदमों की सामान्य कहानियों का एक प्रकार से व्यक्तिगत बना लिया था. इस तरह कुछ हद तक मैं कह सकती हूं कि इन साक्षात्कारों पर हमारे वर्तमान समय की छाप है. बहरहाल, जब आप बातचीत में कुछ और गहरे उतरते हैं तो पाते हैं कि कहानियों और अनुभवों की बहुत सी परतें उनके अंदर हैं, जिन्हें उन्होंने वर्षों से अपने भीतर दबाकर रखा है.

कई वर्षों तक मेरी नानी लाहौर के शरणार्थी कैंप में देखे गए खून-खराबे के अनुभव सुनाती थीं. जब मैंने यह किताब लिखनी शुरू की तब मैं फिर से उनके पास गई और उनसे अलग-अलग तरह के सवाल किए. हमारी बातचीत के दौरान अचानक ही उनकी सहेली उमा और राजेश्वरी की कहानियां निकलकर आईं. इसी बातचीत के दौरान पहली बार पता चला कि विभाजन के समय हुए दंगों के दौरान उनकी बहन को एक सिख परिवार ने बचाया था. अन्य लोगों ने भी इसी तरह की कहानियां सुनाईं, जो मुख्यधारा में होने वाली एकपक्षीय चर्चा (भारत और पाकिस्तान के बीच नफरत से जुड़ी बहस) को कड़ी चुनौती देती हैं.

Book Review-1लेकिन आपने इसके लिए केवल पाकिस्तान के लोगों के साक्षात्कार लिए हैं. दो अलग राजनीतिक और वैचारिक धुरियों वाले देशों में और भी अलग तरह की कहानियां हैं या नहीं, ये देखने के लिए भारत की यात्रा क्यों नहीं की?

मैंने भारत से भी कुछ कहानियां इकट्ठी की हैं. मैं मानती हूं कि सीमा पार भी कुछ व्यापक शोध किया जा सकता था, लेकिन वीजा की समस्या, फंड की कमी और किताब लिखते और शोध करते समय नौकरी करने के कारण यह संभव नहीं हो पाया. फिर भी, अपनी छोटी-सी भारत यात्रा में मैंने जिससे भी बात की, मैंने पाया कि इतने सारे मतभेदों के बावजूद उनकी भावनाएं पाकिस्तान के लोगों जैसी ही थीं. पुरानी यादों के प्रति लगाव, अपने पुराने घरों को देखने और पड़ोसियों से मिलने और उनके साथ इतने समय में क्या हुआ, ये जानने की चाहत भारत और पाकिस्तान के बहुत से लोगों में आज भी बरकरार है.

किताब में कहा गया है कि विभाजन के समय  धार्मिक और सांस्कृतिक पहचानों को लेकर पनपी कट्टरता समय के साथ कम हो गई है. यह निष्कर्ष कैसे निकाला?

साक्षात्कारों से! मैं मुख्यधारा में प्रचलित ऐसे विमर्श के साथ बड़ी हुई हूं, जहां कहीं भी यह जिक्र नहीं मिलता कि हिंदू, मुस्लिम और सिख एक साथ इबादत कर सकते हैं और एक-दूसरे के त्योहारों में शामिल हो सकते हैं या फिर शांति से एक साथ रह सकते हैं. जब मैंने ये कहानियां सुनीं तो पाया कि एक ओर अलगाव की कहानियां तो हैं लेकिन ईद, लोहड़ी, दिवाली और दशहरा एक साथ मिलकर मनाए जाने की कहानियां भी हैं. शोध के दौरान मैंने यह भी पाया कि पाकिस्तान में (विभाजित होने वाली सीमा के आसपास भी) आज की तारीख में भी ऐसा माहौल है, लेकिन एक आम पाकिस्तानी के लिए ये कल्पना से  परे की बात है.

मैंने जिन लोगों से बात की, उनमें ऐसे बहुत से लोग हैं जो आज, बंटवारे के 68 साल बीत जाने के बावजूद तथाकथित ‘गैरोंं’ से अपने सदियों से चले आ रहे संबंध खत्म नहीं करना चाहते. एक का जिक्र मैंने अपनी किताब में भी किया है कि विभाजन से पहले किस तरह एक सिख परिवार ने पिता के रूप में एक मुस्लिम को अपनाया. उनके लिए यह कोई अजीब बात नहीं थी लेकिन हम जैसे लोग, जो 1980 के दशक के आखिरी सालों में जन्मे हों, (जब दोनों मुल्कों के बीच तनाव चरम पर था) के लिए यह हैरानी की बात है .

Anam 2web
भारतीय इतिहासकार उर्वशी बुटालिया के साथ लाहौर के ‘द लास्ट वर्ड’ बुकस्टोर में अनम

किताब को पाकिस्तान में कैसी प्रतिक्रिया मिली? अतीत को अलग तरह से देखने की जो कोशिश आपने इस किताब में की है, क्या आज के दौर में संभव है? क्या इससे दोनों मुल्कों के रिश्ते में कोई सुधार आएगा?

अब तक तो किताब को बहुत अच्छी प्रतिक्रिया मिल रही है. इससे मैं काफी खुश हूं क्योंकि इसका मतलब है अतीत को अलग तरह से देखे जाने का माहौल बाकी बचा है, जिसे  मैं सामने लाने की कोशिश कर रही हूं. दोनों  मुल्कों के बीच वर्तमान माहौल सचमुच काफी तनाव भरा है. यह देखना काफी दुखद है कि किस तरह उच्च स्तरीय नीतियां जमीनी स्तर पर लोगों के संबंधों को प्रभावित करती हैं. मुझे नहीं पता कि मेरी किताब इन नीतियों पर कितना प्रभाव डाल पाएगी लेकिन मुझे यह उम्मीद है कि यह किताब इस बात को जरूर सामने रखेगी कि सीमा के दोनों ओर राजनीतिक मुद्दों के अलावा भी बहुत कुछ है. सरकारी नीतियां अक्सर आम जनता की राय को प्रभावित करती हैं, मुझे उम्मीद है कि मैंने जिन कहानियों को सामने रखा है, वे कोई पारंपरिक राय बनाने के संदर्भ में एक नम्र चुनौती का काम करेंगी.