राजनीतिक दलों में दलितों के लिए प्रतिबद्धता की कमी

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दलितों पर लगातार हमलों के कारण सामाजिक संरचना में ही मौजूद हैं. निचली जातियां जैसे-जैसे बेहतर स्थिति में पहुंचती हैं, जैसे-जैसे उनका सामाजिक-राजनीतिक उभार होता है तो दबंग जातियां सोचती हैं कि निचली जातियां सिर उठा रही हैं इसलिए वे हिंसक प्रतिक्रियाएं देती हैं. ऐसी घटनाओं में राजनीतिक हस्तक्षेप न के बराबर है. दलित जब भी अपने अधिकार को मनवाने का साहस करता है, उस पर हमला होता है. हालांकि, यूपी में यह कम हुआ है. जहां पर राजनीतिक सशक्तिकरण कम है, वहां पर हमले ज्यादा देखने में आते हैं. हरियाणा से दलितों पर हमले की ज्यादा घटनाएं रिपोर्ट होती हैं क्योंकि हरियाणा में गैरबराबरी ज्यादा है. बराबरी के प्रयासों से सवर्ण जातियों को असुविधा होती है, इसलिए वहां ऐसा ज्यादा होता है.

दलितों के विरुद्ध हिंसा की घटनाएं राष्ट्रीय स्तर पर तो बढ़ रही हैं और बढ़ती जाएंगी, लेकिन स्थानीय स्तर पर इसमें कमी देखी जा रही है. जैसे उत्तर प्रदेश में ऐसी घटनाओं में कमी आई है. दलितों पर हमले की प्रवृत्ति बढ़ेगी या घटेगी, यह राजनीतिक प्रतिबद्धता से तय होता है. इस दिशा में राजनीतिक इरादे बहुत अहम हैं, जो कि फिलहाल कमजोर दिख रहे हैं. कोई भी पार्टी दलितों की स्थिति को लेकर प्रतिबद्ध नहीं हैं. दलितों पर कहीं भी हमला होता है तो राजनीतिक पार्टियां लगभग न के बराबर प्रतिक्रिया देती हैं. कई बार तो राजनीतिक दल ऐसे हमलों को प्रोत्साहित करके और बढ़ाने की कोशिश करते हैं. जातिवाद को राजनीतिक दल वोट बैंक के चक्कर में और मजबूती देने की कोशिश करते हैं, जो जगह-जगह दलितों पर हमले और उनके खिलाफ संगठित हिंसा के रूप में दिखता है.

हाल के वर्षों में जनतंत्र ने सत्ता एवं सामाजिक संरचना के पिरामिड में उथल-पुथल मचाई है. जो सामाजिक समूह नीचे रहे हैं, वे ऊपर आए और जो ऊपर रहे हैं वे नीचे गए. हालांकि, ‘भारतीय जनतंत्र’ से ऊंच और नीच को समाप्त कर समानता लाने की अपेक्षा अब भी दूर की कौड़ी ही है. भारतीय समाज एवं राजसत्ता के शीर्ष पर ब्राह्मण और ठाकुर जैसी जातियां लंबे समय से रही हैं. शिक्षा, विकास एवं नेतृत्व से उसका एक तबका आजादी के पहले से ही जुड़ा रहा है. राममनोहर लोहिया की समाजवादी राजनीति के उभार के बाद यादव और कुर्मी जैसी मध्य जातियां एवं उत्तर प्रदेश में कांशीराम की बहुजन राजनीति के उभार के बाद दलित जातियां उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में सत्ता के शीर्ष तक पहुंची हैं.

अस्सी के दशक में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद उभरी राजनीति से आया सामाजिक जलजला समाज के पारंपरिक ढांचे में गुणात्मक परिवर्तन ला चुका है. दलित जातियों का उभार होने की वजह से ऊंची जातियां उनके प्रति आक्रामक होती हैं. ये हमले उसी आक्रामकता का परिणाम हैं. हालांकि, निचली जातियां जहां मजबूत हुई हैं, वहां यह प्रवृत्ति कम हुई है. उत्तर प्रदेश में अब पहले जैसे हालात नहीं हैं. अब वहां अगर दलितों पर हमले होते हैं तो निचली जातियां भी एक हद तक प्रतिक्रिया देती हैं. राजनीतिक और सामाजिक मजबूती ही दलितों के विरूद्ध हिंसा पर अंकुश लगाएगी.

(मेकिंग ऑफ दलित रिपब्लिक के लेखक )