‘मेेरी कहानियां भारत-पाक के बीच की नफरत को चुनौती देती हैं’

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ओरल हिस्ट्री प्रोजेक्ट के तहत आपकी किताब  ‘द फुटप्रिंट्स ऑफ पार्टीशन’  आई है. इस प्रोजेक्ट के तहत आपने 600 लोगों के साक्षात्कार लिए. इतने सारे लोगों से मिलकर बातचीत करने का अनुभव कैसा रहा?

अद्भुत! जिस किसी से भी मैंने बात की, उस ही के पास बहुत सशक्त कहानियां थीं. कई बार मुझे खुद को यकीन दिलाना पड़ता था कि ये कहानियां सच्ची हैं क्योंकि वे काफी अवास्तविक लगती थीं. मुझे ये यकीन करना मुश्किल लगता था कि सचमुच वैसी परिस्थितियों से कोई गुजरा होगा. निश्चय ही हिंसा भरी कहानियों को सुनना काफी मुश्किल था. अतीत की यादों में ऐसी ही कहानियां भरी पड़ी थीं, जो दिल दहलाने वाली भी थीं. बातचीत के कई दिनों बाद तक भी मैं उन लोगों की बातों को भूल नहीं पाती थी. उनकी आवाजें मेरे कानों में गूंजती रहती थीं. जिन लोगों से बातचीत हुई वे काफी दिलचस्प थे. कई बार उनकी बातें मेरे अपने देश के अतीत के बारे में मेरी समझ को चुनौती देती थीं. वे मेरे सामने एकदम दूसरी तरह की कहानियां पेश कर रहे थे जिसकी वजह से मैं जो जानती थी मुझे उसे भुलाना पड़ा और नई बातें जानने के लिए एक नई प्रक्रिया शुरू करनी पड़ी.

क्या इन साक्षात्कारों में वर्तमान समय की छाप महसूस की? या फिर उन्होंने कुछ अलग तरह की कहानियां बताईं, जिन्हें आप मेटा-नेरेटिव (विभिन्न ऐतिहासिक, सामाजिक-सांस्कृतिक घटनाओं और अनुभवों को व्यापकता के साथ बताना) कहती हैं और जिनसे अतीत के पुनर्लेखन में मदद मिली?

मुझे लगता है समय के साथ अतीत से जुड़ी यादों में एक बदलाव आ जाता है और वे वर्तमान में प्रचलित हिंसा और दुश्मनी की कहानियों से प्रभावित हो जाती हैं. जिनसे मैंने बात की उनमें से बहुत से लोग ऐसे थे जिन्होंने हिंसा और सदमों की सामान्य कहानियों का एक प्रकार से व्यक्तिगत बना लिया था. इस तरह कुछ हद तक मैं कह सकती हूं कि इन साक्षात्कारों पर हमारे वर्तमान समय की छाप है. बहरहाल, जब आप बातचीत में कुछ और गहरे उतरते हैं तो पाते हैं कि कहानियों और अनुभवों की बहुत सी परतें उनके अंदर हैं, जिन्हें उन्होंने वर्षों से अपने भीतर दबाकर रखा है.

कई वर्षों तक मेरी नानी लाहौर के शरणार्थी कैंप में देखे गए खून-खराबे के अनुभव सुनाती थीं. जब मैंने यह किताब लिखनी शुरू की तब मैं फिर से उनके पास गई और उनसे अलग-अलग तरह के सवाल किए. हमारी बातचीत के दौरान अचानक ही उनकी सहेली उमा और राजेश्वरी की कहानियां निकलकर आईं. इसी बातचीत के दौरान पहली बार पता चला कि विभाजन के समय हुए दंगों के दौरान उनकी बहन को एक सिख परिवार ने बचाया था. अन्य लोगों ने भी इसी तरह की कहानियां सुनाईं, जो मुख्यधारा में होने वाली एकपक्षीय चर्चा (भारत और पाकिस्तान के बीच नफरत से जुड़ी बहस) को कड़ी चुनौती देती हैं.

Book Review-1लेकिन आपने इसके लिए केवल पाकिस्तान के लोगों के साक्षात्कार लिए हैं. दो अलग राजनीतिक और वैचारिक धुरियों वाले देशों में और भी अलग तरह की कहानियां हैं या नहीं, ये देखने के लिए भारत की यात्रा क्यों नहीं की?

मैंने भारत से भी कुछ कहानियां इकट्ठी की हैं. मैं मानती हूं कि सीमा पार भी कुछ व्यापक शोध किया जा सकता था, लेकिन वीजा की समस्या, फंड की कमी और किताब लिखते और शोध करते समय नौकरी करने के कारण यह संभव नहीं हो पाया. फिर भी, अपनी छोटी-सी भारत यात्रा में मैंने जिससे भी बात की, मैंने पाया कि इतने सारे मतभेदों के बावजूद उनकी भावनाएं पाकिस्तान के लोगों जैसी ही थीं. पुरानी यादों के प्रति लगाव, अपने पुराने घरों को देखने और पड़ोसियों से मिलने और उनके साथ इतने समय में क्या हुआ, ये जानने की चाहत भारत और पाकिस्तान के बहुत से लोगों में आज भी बरकरार है.

किताब में कहा गया है कि विभाजन के समय  धार्मिक और सांस्कृतिक पहचानों को लेकर पनपी कट्टरता समय के साथ कम हो गई है. यह निष्कर्ष कैसे निकाला?

साक्षात्कारों से! मैं मुख्यधारा में प्रचलित ऐसे विमर्श के साथ बड़ी हुई हूं, जहां कहीं भी यह जिक्र नहीं मिलता कि हिंदू, मुस्लिम और सिख एक साथ इबादत कर सकते हैं और एक-दूसरे के त्योहारों में शामिल हो सकते हैं या फिर शांति से एक साथ रह सकते हैं. जब मैंने ये कहानियां सुनीं तो पाया कि एक ओर अलगाव की कहानियां तो हैं लेकिन ईद, लोहड़ी, दिवाली और दशहरा एक साथ मिलकर मनाए जाने की कहानियां भी हैं. शोध के दौरान मैंने यह भी पाया कि पाकिस्तान में (विभाजित होने वाली सीमा के आसपास भी) आज की तारीख में भी ऐसा माहौल है, लेकिन एक आम पाकिस्तानी के लिए ये कल्पना से  परे की बात है.

मैंने जिन लोगों से बात की, उनमें ऐसे बहुत से लोग हैं जो आज, बंटवारे के 68 साल बीत जाने के बावजूद तथाकथित ‘गैरोंं’ से अपने सदियों से चले आ रहे संबंध खत्म नहीं करना चाहते. एक का जिक्र मैंने अपनी किताब में भी किया है कि विभाजन से पहले किस तरह एक सिख परिवार ने पिता के रूप में एक मुस्लिम को अपनाया. उनके लिए यह कोई अजीब बात नहीं थी लेकिन हम जैसे लोग, जो 1980 के दशक के आखिरी सालों में जन्मे हों, (जब दोनों मुल्कों के बीच तनाव चरम पर था) के लिए यह हैरानी की बात है .

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भारतीय इतिहासकार उर्वशी बुटालिया के साथ लाहौर के ‘द लास्ट वर्ड’ बुकस्टोर में अनम

किताब को पाकिस्तान में कैसी प्रतिक्रिया मिली? अतीत को अलग तरह से देखने की जो कोशिश आपने इस किताब में की है, क्या आज के दौर में संभव है? क्या इससे दोनों मुल्कों के रिश्ते में कोई सुधार आएगा?

अब तक तो किताब को बहुत अच्छी प्रतिक्रिया मिल रही है. इससे मैं काफी खुश हूं क्योंकि इसका मतलब है अतीत को अलग तरह से देखे जाने का माहौल बाकी बचा है, जिसे  मैं सामने लाने की कोशिश कर रही हूं. दोनों  मुल्कों के बीच वर्तमान माहौल सचमुच काफी तनाव भरा है. यह देखना काफी दुखद है कि किस तरह उच्च स्तरीय नीतियां जमीनी स्तर पर लोगों के संबंधों को प्रभावित करती हैं. मुझे नहीं पता कि मेरी किताब इन नीतियों पर कितना प्रभाव डाल पाएगी लेकिन मुझे यह उम्मीद है कि यह किताब इस बात को जरूर सामने रखेगी कि सीमा के दोनों ओर राजनीतिक मुद्दों के अलावा भी बहुत कुछ है. सरकारी नीतियां अक्सर आम जनता की राय को प्रभावित करती हैं, मुझे उम्मीद है कि मैंने जिन कहानियों को सामने रखा है, वे कोई पारंपरिक राय बनाने के संदर्भ में एक नम्र चुनौती का काम करेंगी.