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बस्तर में दोधारी तलवार पर चलते हैं पत्रकार

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सोमारू नाग और संतोष यादव की गिरफ्तारी का विरोध करते हुए पत्रकार सुरक्षा कानून लागू करने की मांग करते हुए पत्रकार आंदोलन कर रहे हैं. इसके जरिये राज्यभर के पत्रकारों को कथित पुलिसिया अत्याचार के खिलाफ एकजुट होने की अपील की जा रही है.

पिछले दिनों राजस्थान पत्रिका समूह के दरभा प्रतिनिधि संतोष यादव को माओवादियों के साथ कथित संपर्क के आरोप में गिरफ्तार किया गया है. उनकी गिरफ्तारी टाडा और पोटा से भी खतरनाक माने जाने वाले ‘छत्तीसगढ़ जनसुरक्षा कानून’ के तहत गिरफ्तार किया है. हालांकि संतोष के परिजन, पत्रकार और मानवाधिकार संगठन इसे गलत बता रहे हैं. इसी तरह दो महीने पहले पुलिस ने सोमारू नाग को माओवादियों के साथ संबंध होने के आरोप में गिरफ्तार किया था. वे तब से जेल में हैं और अब संतोष यादव की गिरफ्तारी के चलते पत्रकारों का गुस्सा भड़क उठा है.

Priyanka Kaushalweb

55 वर्षीय सुधीर जैन पिछले 35 सालों से बस्तर में ही रहकर पत्रकारिता कर रहे हैं. जगदलपुर में रहने वाले सुधीर दैनिक भास्कर, नवभारत जैसे हिंदी दैनिकों में अपनी सेवाएं दे चुके हैं. फिलहाल वे तीन समाचार एजेंसियों के लिए काम कर रहे हैं. सुधीर बताते हैं, ‘बस्तर में रिपोर्टिंग करते वक्त कोई भी दिन आपकी जिंदगी का आखिरी दिन साबित हो सकता है. आप इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि यह दोधारी तलवार पर चलने जैसा है, एक तरफ नक्सलियों का खतरा रहता है तो दूसरी तरफ पुलिस का. खबर कवर करने से लेकर लिखने तक की प्रक्रिया इतनी चुनौतीपूर्ण होती है कि एक आम पत्रकार से हमारा तनाव सौ गुना ज्यादा बढ़ा हुआ होता है. कई बार ऐसा भी हुआ है कि कोई खबर निर्भीक होकर नहीं लिख पाया हूं.’

‘बस्तर जैसे इलाकों में जहां नक्सलवाद अपने चरम पर है, रिपोर्टिंग करना बेहद मुश्किल भरा और खतरनाक होता है. नक्सलियों और पुलिस दोनों तरफ से अपने-अपने किस्म के दबाव होते हैं. अगर आपको दोरनापाल से जगरगुंडा तक जाना हो तो हर चेकपोस्ट पर हाजिरी देनी होती है, बार-बार लिखवाना होता है कि आगे जाने का आपका मकसद क्या है. मुझे तो अपनी खबर रोकने के लिए कई बार पुलिस के आला अफसरों की तरफ से धमकियां भी मिली हैं. जहां तक बात नक्सलियों की है तो वे भी हमारा काम प्रभावित करने की कोशिश तो करते ही हैं. जिस इलाके में नक्सली नहीं चाहते कि पत्रकार आएं, वहां आप घुस भी नहीं सकते. सीधी-सी बात है कि इतना सारा जोखिम होते हुए भी अगर सावधानियों पर ध्यान देने लगे तो बस्तर में रिपोर्टिंग कभी संभव ही नहीं हो पाएगी. यहां तो जान हथेली पर रखकर चलना ही पड़ता है.’

हाल ये है कि छत्तीसगढ़ के पत्रकार नक्सल प्रभावित इलाकों से न सिर्फ समाचार भेजता है बल्कि कई बार तो उन्हें जवानों के क्षत-विक्षत शवों को भी गंतव्य तक पहुंचाना पड़ता है. 17 अप्रैल 2015 की एक घटना है. दक्षिण बस्तर के पामेड़ पुलिस थाने के तहत आने वाले नक्सल क्षेत्र कंवरगट्टा में पुलिस और नक्सलियों की मुठभेड़ हुई थी. इसमें आंध्र प्रदेश के ग्रे हाउंड्स फोर्स (नक्सल ऑपरेशन के लिए आंध्र प्रदेश में खासतौर पर तैयार फोर्स) के सर्किल इंस्पेक्टर शिवप्रसाद बाबू शहीद हो गए थे. लेकिन आंध्र प्रदेश व छत्तीसगढ़ पुलिस चार दिन तक शहीद अधिकारी के शव को बाहर नहीं निकाल सकी. फिर नवभारत अखबार के बीजापुर संवाददाता गणेश मिश्रा को पुलिस टीम के साथ भेजा गया. उन्होंने मध्यस्तता कर ग्रामीणों से शव सौंपने का अनुरोध किया. तब कहीं जाकर पुलिस अधिकारी का शव पामेड़ लाया गया. उस समय बस्तर आईजी हिमांशु गुप्ता ने पत्रकार का आभार माना था. इस पूरे मामले में गणेश मिश्रा ही वह पहले पत्रकार थे, जो घटनास्थल पर पहुंचे थे. उन्होंने ही वहां से लौटकर इस बात की तस्दीक की थी कि शिवप्रसाद बाबू नक्सलियों की गोलियों का शिकार हो गए हैं. इसके पहले तक तो पुलिस अपने अधिकारी को लापता ही मान रही थी. जवान का शव आंध्र प्रदेश व छत्तीसगढ़ की सीमा से लगभग 20 किलोमीटर दूर कंवरगट्टा गांव में तालाब की मेड़ पर लावारिस हालत में पड़ा हुआ था. जिला मुख्यालय बीजापुर से घटनास्थल की दूरी 85 किलोमीटर थी. घटना के बाद पुलिस तीन दिनों तक कंवरगट्टा नहीं पहुंच पाई थी. तब गणेश मिश्रा ही ऊबड़-खाबड़ रास्तों से होते हुए, अपनी जान की परवाह न करते हुए उस इलाके में पहुंचे, जहां नक्सलियों ने पुलिस को पीछे खदेड़ दिया था और एंबुश के डर से पुलिस दोबारा उस इलाके में नहीं घुस पा रही थी.

यह तो एक छोटा-सा उदाहरण है, जब बस्तर के किसी पत्रकार ने अपनी जान जोखिम में डालकर पुलिस अधिकारी का शव लाने में मदद की है. छत्तीसगढ़ में ऐसे असंख्य मामले हैं, जिनमें पत्रकारों ने कभी स्वेच्छा से तो कभी पुलिस के अनुरोध पर न केवल मृतकों की संख्या की तस्दीक की, बल्कि उनके शवों को सुरक्षित बाहर निकालने का काम भी किया. छत्तीसगढ़ में अब यह भ्रांति भी टूटने लगी है कि नक्सली पत्रकारों पर हमला नहीं करते. 2013 में बस्तर के एक पत्रकार नेमीचंद जैन को पहले पुलिस ने माओवादी होने के आरोप में गिरफ्तार कर जेल में डाला और बाद में माओवादियों ने 2013 में पुलिस का मुखबिर बता कर उनकी हत्या कर दी. इसी तरह माओवादियों ने पत्रकार साईं रेड्डी की भी हत्या कर दी थी.

हालांकि दोनों की हत्या करने के बाद नक्सलियों की दंडकारण्य जोनल कमेटी के प्रवक्ता गुडसा उसेंडी ने बयान जारीकर माफी मांगी और भविष्य में ऐसा न करने की बात भी कही. लेकिन पत्रकारों पर मंडराता खतरा यहीं खत्म नहीं हो जाता. उन्हें लगातार प्रेशर बम, लैंड माइन बिछे हुए इलाकों में काम करना होता है. कई बार वे पुलिस व नक्सली मुठभेड़ की क्रॉस फायरिंग में भी फंस जाते हैं. पत्रकारों पर पुलिस की तरफ से पड़ने वाले दबाव भी हैं. बस्तर के अंदरूनी इलाकों में घुसने के लिए रास्तेभर पड़ने वाले पुलिस चेक पोस्ट पर रुककर आगे जाने की अनुमति लेना. कई बार पुलिस द्वारा पत्रकारों को वापस कर दिया जाना और फिर नए व खतरनाक रास्तों से पुलिस को बगैर बताए उन इलाकों में पहुंचकर सच्चाई की पड़ताल करना बस्तर के पत्रकारों के काम का हिस्सा है. हालांकि इतने खतरों के बावजूद एक अनुमान के मुताबिक बस्तर में करीब 270 पत्रकार काम कर रहे हैं. राजधानी रायपुर से नियमित बस्तर जाकर रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों की संख्या अलग है.

Naxal Maoist by Shailendra (1)web

27 वर्षीय पवन दहट बताते हैं, ‘बस्तर में काम करते वक्त कई बार ऐसी परिस्थिति आई है कि हमने कई टुकड़ों में बंटी हुई लाश को समेटने का काम भी किया है. ऐसा किसी दबाव में नहीं, बल्कि मानवता के नाते किया है. यह भी हमारी नौकरी का एक अघोषित हिस्सा हो गया है. 2014 में लोकसभा चुनाव के दौरान 10 अप्रैल को बस्तर में मतदान था. मैं वहां रिपोर्टिंग के लिए पहुंचा था. कनकापाल नाम के एक धुर नक्सल प्रभावित इलाके में रिपोर्टिंग करते वक्त मेरा पैर एक प्रेशर बम पर पड़ गया. गनीमत तो यह थी कि वह प्रेशर बम फटा नहीं, नहीं तो मैं आज आपसे बात नहीं कर रहा होता.’ पवन पिछले तीन सालों से छत्तीसगढ़ में ‘द हिंदू’ के राज्य संवाददाता हैं. पवन बस्तर में अपनी धुआंधार रिपोर्टिंग के लिए जाने जाते हैं. पिछले तीन सालों में उन्होंने बस्तर के अनगिनत दौरे किए हैं और कई मामलों को राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाया है. वह कहते हैं, ‘मुझे अच्छी तरह से याद है कि कनकापाल को उस दिन एक तरफ से नक्सलियों ने तो दूसरी तरफ से पुलिस ने घेर रखा था. बस्तर जैसे इलाकों में जहां नक्सलवाद अपने चरम पर है, रिपोर्टिंग करना बेहद मुश्किल भरा और खतरनाक होता है. नक्सलियों और पुलिस दोनों तरफ से अपने-अपने किस्म के दबाव होते हैं.’ पवन के अनुसार, ‘अगर आपको दोरनापाल से जगरगुंडा तक जाना हो तो हर चेकपोस्ट पर हाजिरी देनी होती है, बार-बार लिखवाना होता है कि आगे जाने का आपका मकसद क्या है. मुझे तो अपनी खबर रोकने के लिए कई बार पुलिस के आला अफसरों की तरफ से धमकियां भी मिली हैं, कई तरह के प्रलोभन भी दिए गए हैं. सरकेगुड़ा जैसी जगहों पर पुलिस ने हम पत्रकारों को जाने से रोका हैं, जहां ग्रामीणों के घर जला दिए गए थे. जहां तक बात नक्सलियों की है तो वे भी हमारा काम प्रभावित करने की कोशिश तो करते ही हैं. जिस इलाके में नक्सली नहीं चाहते कि पत्रकार आएं, वहां आप घुस भी नहीं सकते. अगर किसी गांव में उन्होंने लोगों को प्रेस से बात करने की मनाही कर दी है, तो आप लाख कोशिश कर लो, गांववाले सहयोग ही नहीं करते, बात ही नहीं करते. कई बार हमें सलाह दी जाती है कि हम बुलेटप्रूफ जैकेट पहनकर एंटी लैंड माइन व्हीकल में ही रिपोर्टिंग करने पहुंचे लेकिन यह संभव ही नहीं है. सीधी-सी बात है कि इतना सारा जोखिम होते हुए भी अगर सावधानियों पर ध्यान देने लगे तो बस्तर में रिपोर्टिंग कभी संभव ही नहीं हो पाएगी. यहां तो जान हथेली पर रखकर चलना ही पड़ता है.’

‘बस्तर में रिपोर्टिंग करते वक्त कोई भी दिन आपकी जिंदगी का आखिरी दिन साबित हो सकता है. आप इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि यह दोधारी तलवार पर चलने जैसा है, एक तरफ नक्सलियों का खतरा रहता है तो दूसरी तरफ पुलिस का. खबर कवर करने से लेकर लिखने तक की प्रक्रिया इतनी चुनौतीपूर्ण होती है कि एक आम पत्रकार से हमारा तनाव सौ गुना ज्यादा बढ़ा हुआ होता है. कई बार ऐसा भी हुआ है कि कोई खबर निर्भीक होकर नहीं लिख पाया हूं.’

पत्रकार तामेश्वर सिन्हा कहते हैं, ‘अंतागढ़ से कोयलीबेड़ा जाते वक्त अर्धसैनिक बलों के चार कैंप पड़ते हैं. हर कैंप में हाजिरी लगानी पड़ती है. कई बार घंटों बैठा दिया जाता है. पत्रकार हूं, यह बोलना ही मूर्खतापूर्ण लगने लगता है. कौन हो, क्या हो, क्यों जा रहे हो, कई तरह के सवाल किए जाते हैं, हमें शंका की नजर से देखा जाता है. पुलिसवाले वापस जाने की नसीहत तक दे डालते हैं. ऐसे ही एक बार पुलिस के सवालों से जूझते हुए किसी घटना स्थल पर मैं पहुंचा और वहां नक्सलियों ने पुलिस का मुखबिर समझकर पकड़ लिया. बड़ी मुश्किल से उन्हें समझा पाया और जान छूटी.’

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अबूझमाड़ में लंबे समय से काम कर रहे तामेश्वर नक्सल मामलों में दिलचस्पी रखते हैं. इन दिनों वह भूमकाल समाचार नाम के अखबार में अपनी सेवाएं दे रहे हैं. तामेश्वर बताते हैं, ‘बस्तर में तथ्यपूर्ण खबर लिखना पुलिस या नक्सलियों के निशाने पर आने जैसा है. यहां पत्रकारिता करना जोखिम का काम है. पुलिस पत्रकारों पर नक्सलियों के सहयोगी होने का आरोप लगा देती है, वहीं नक्सली पत्रकारों पर पुलिस के मुखबिर होने का आरोप लगाते हैं. हमें तो दोनों तरफ से शिकार होना पड़ता हैहमारे कई वरिष्ठ साथी पत्रकारों को पुलिस ने नक्सलियों के सहयोगी होने के आरोप में जेल में ठूंस दिया है. जब नक्सली किसी पुलिस वाले का अपहरण करके ले जाते हैं तो उस समय पुलिस को पत्रकारों की याद आती है, बाकी समय हमें संदेह की नजरों से देखा जाता है. ठीक ऐसे ही जब नक्सलियों को अपनी बात रखनी होती है तो वे पत्रकारों को याद करते हैं, बाकी वक्त उन पर पुलिस के लिए मुखबिरी का आरोप लगाते रहते हैं.’ वह बताते हैं, ‘वैसे भी हम अंदरूनी इलाकों में काम कर रहे लोगों को प्रशासन पुलिस पत्रकार ही नहीं मानती है. सबसे दुखद पहलू यह भी है कि हम जिस संस्थान के लिए काम कर रहे होते हैं, वह भी हमारी सुरक्षा की कोई जबावदेही नहीं लेता है.’

ऐसे ही चाहे पंखाजूर के 34 वर्षीय पत्रकार शंकर हों या 16 सालों से बस्तर में पत्रकारिता कर रहे 33 वर्षीय रजत बाजपेयी, प्रभात सिंह या बप्पी राय. सभी ने कभी न कभी किसी अपहृत पुलिसकर्मी की कुशलता का समाचार लाने के लिए अपनी जान जोखिम में डाली है. 25 मई 2013 को हुए झीरम घाटी नक्सल हमले में पत्रकार नरेश मिश्र ने ही सबसे पहले पहुंचकर दिंवगत कांग्रेस नेता विद्याचरण शुक्ल को अस्पताल पहुंचाने में मदद की थी. नरेश की ही मोटरसाइकिल से भागकर कांग्रेस विधायक कवासी लखमा ने अपनी जान बचाई थी. छत्तीसगढ़ के विभिन्न इलाकों में काम कर रहे इन पत्रकारों की जान की सुरक्षा का जोखिम उनका खुद का है. न तो सरकार और न ही उनका अपना संस्थान उनके प्रति किसी भी तरह की जबावदेही लेने को तैयार है. वर्षों से इन्हीं परिस्थितियों में काम कर रहे पत्रकार शायद अब मौत की इस मांद में काम करने के आदी हो गए हैं. हों भी क्यों न, पत्रकार लोकतंत्र का वह हिस्सा है, जिसने अपना काम निडरता, सहजता और जुनून की हद तक करने की कसम जो खाई है.

शिक्षा सुधार पर तकरार

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दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) के अरविंद केजरीवाल ने जब दोबारा सरकार बनाई तो उनके सामने प्रदेश के सरकारी स्कूलों में शिक्षा के स्तर को सुधारने के साथ-साथ यहां के प्राइवेट स्कूलों की मनमानियों पर नकेल कसना भी एक चुनौती थी. इन्हीं चुनौतियों से पार पाने के प्रयास में दिल्ली विधानसभा के शीतकालीन सत्र के दूसरे दिन उपमुख्यमंत्री और शिक्षामंत्री मनीष सिसोदिया ने शिक्षा सुधार से संबंधित तीन विधेयक सदन में पेश किए, दिल्ली विद्यालय (लेखों की जांच और अधिक फीस की वापसी) विधेयक, 2015, दिल्ली विद्यालय शिक्षा (संशोधन) विधेयक, 2015 व नि:शुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार (दिल्ली संशोधन) विधेयक, 2015. लेकिन इन तीनों ही विधेयकों पर बवाल खड़ा हो गया है.

शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने वाले कार्यकर्ता व गैर सरकारी संगठन इन विधेयकों में किए गए प्रावधानों को शिक्षा विरोधी और प्राइवेट स्कूलों की मनमानियों को बढ़ावा देने वाला करार दे रहे हैं. उनका मानना है कि राज्य सरकार ‘दिल्ली विद्यालय विधेयक’ और ‘दिल्ली विद्यालय शिक्षा (संशोधन) विधेयक’ की आड़ में दिल्लीवासियों के साथ साजिश कर रही है. आम जनता को प्राइवेट स्कूलों पर लगाम कसने का सब्जबाग दिखा कर वह इन दोनों विधेयकों के माध्यम से प्राइवेट स्कूलों को यह कानूनी अधिकार देने जा रही है कि वह शिक्षा को व्यवसाय बनाकर जो अब तक करते आए थे, उसे जारी रख सकते हैं. साथ ही 2009 में पारित शिक्षा के अधिकार कानून में अनावश्यक हस्तक्षेप कर उसमें से धारा 8 व 16 को संशोधित कर आठवीं कक्षा तक बच्चों को फेल न करने वाली नो डिटेंशन पाॅलिसी को हटाए जाने को भी शिक्षा विरोधी करार दिया जा रहा है.

अखिल भारतीय अभिभावक संघ (एआईपीए) के राष्ट्रीय अध्यक्ष एडवोकेट अशोक अग्रवाल कहते हैं, ‘सरकार का उद्देश्य केवल प्राइवेट स्कूलों को खुली छूट देना है. दिल्ली विद्यालय विधेयक के प्रभाव में आने के बाद सभी प्राइवेट स्कूलों को यह अधिकार मिल जाएगा कि वह जब चाहंे, जितनी चाहें फीस बढ़ा सकते हैं. वहीं दिल्ली विद्यालय शिक्षा विधेयक, 1973 में संशोधन कर धारा 10(1) को हटाया जा रहा है जिसे 42 साल पहले काफी संघर्ष के बाद इस कानून में जोड़ा गया था. इस धारा में प्रावधान था कि प्राइवेट स्कूल के कर्मचारियों को सरकारी स्कूल के कर्मचारियों के समान ही वेतनमान दिया जाएगा और सभी वेतन आयोग इन पर भी लागू होंगे. लेकिन अब इन्हें घरेलू नौकर बनाने की तैयारी है, जिन पर कोई कानून लागू नहीं होता. अब प्राइवेट स्कूल चाहें तो इन्हें कितना भी वेतन दें. दो से तीन हजार रुपये प्रतिमाह भी.’

‘आठवीं तक फेल न करने की नीति ‘एजुकेशन फॉर ऑल’ के तहत लाई गई थी, ताकि गरीबों के बच्चे भी हर परिस्थिति में शिक्षा से जुड़े रहें’

प्राइवेट स्कूलों द्वारा बढ़ाई जाने वाली मनमानी फीस पर लगाम कसने के उद्देश्य से राज्य सरकार द्वारा लाए गए दिल्ली विद्यालय विधेयक, 2015 में प्रावधान है कि कोई भी प्राइवेट स्कूल अभिभावकों से जितनी चाहे उतनी फीस वसूल सकता है बशर्ते वह इस फीस का उपयोग उसी विद्यालय के अंदर विद्यालयीन जरूरतों की पूर्ति और सुविधाओं पर ही करे, विद्यालय के बाहर किसी और मद में नहीं. इसकी जांच के लिए सरकार एक समिति का गठन करेगी. हर स्कूल सरकार को अपने सालभर के लेखापरीक्षित खाते (ऑडिटेड अकाउंट) सौंपेगा और यह समिति उन खातों की जांच समिति में ही शामिल लेखा परीक्षक (चार्टर्ड अकाउंटेंट) की सहायता से करेगी. अगर यह समिति पाती है कि स्कूल के द्वारा वसूली गई फीस स्कूल के अलावा कहीं और खर्च की गई है तो उसे अतिरिक्त फीस लेना करार दिया जाएगा और ऐसी फीस को समिति या तो अभिभावकों को वापस करने का आदेश दे सकती है अथवा उसे निर्धारित मदों में उपयोग किए जाने का हुक्म सुना सकती है. इसके अतिरिक्त समिति को विद्यालय प्रबंधन को दंडित करने का भी अधिकार होगा. दंडस्वरूप वह पचास हजार से अधिकतम पांच लाख रुपये तक का अर्थदंड या तीन साल के कारावास की सजा अथवा दोनों ही सुना सकती है.

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लेकिन इस विधेयक में सरकार ने कई ऐसे पेंच फंसा दिए हैं जो प्राइवेट स्कूलों के पक्ष में जाते हैं. जिनके बारे में चर्चा करते हुए अशोक अग्रवाल कहते हैं, ‘नए विधेयक में अभिभावकों से फीस वृद्धि के खिलाफ न्यायालय में जाने का अधिकार छीना गया है. सारे अधिकार समिति को दे दिए गए हैं. अब अगर फीस वृद्धि के खिलाफ कोई न्यायालय जाना भी चाहे तो नहीं जा सकता, उसे इसी समिति के समक्ष अपनी शिकायत दर्ज करानी होगी. लेकिन सरकार ने इसमें भी एक पेंच फंसा दिया है. शिकायत दर्ज कराने के लिए कम से कम बीस या संबंधित विद्यालय के कुल पांच फीसदी छात्रों के अभिभावकों की जरूरत होगी. वहीं शिकायत दर्ज कराने के लिए अभिभावकों को सत्र शुरू होने के बाद कम से कम 18 महीनों तक इंतजार करना होगा. क्योंकि बिल में ऐसा ही प्रावधान है कि एक स्कूल अभिभावकों से मनचाही फीस ले सकता है और सालभर उस फीस का उपयोग कर सकता है. सालभर बाद उसे इस फीस से संबंधित सभी खाते सरकार को सौंपने होंगे और सरकार उन खातों की जांच गठित समिति से कराएगी. जांच में तकरीबन छह माह का समय लगेगा. इस प्रकार देखा जाए तो उस स्कूल द्वारा बढ़ाई गई फीस के खिलाफ इस अवधि में कानूनन रूप से कोई भी शिकायत वैध नहीं होगी.’

‘शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार नहीं आया तो सरकार धारा 17 के तहत बच्चों को काॅरपोरल पनिशमेंट (शारीरिक दंड) देने की भी वकालत करने लगेगी’

इसके अतिरिक्त विवाद इस समिति के अध्यक्ष को लेकर भी है. सरकारी विधेयक के अनुसार इस समिति का अध्यक्ष उच्च न्यायालय अथवा जिला न्यायालय का कोई सेवानिवृत्त न्यायाधीश या फिर प्रमुख सचिव स्तर का कोई सेवानिवृत्त नौकरशाह हो सकता है. इसके विरोध में तर्क यह है कि जब किसी नौकरशाह को अध्यक्ष बनाने का विकल्प मौजूद है ही तो फिर क्यों किसी न्यायाधीश को इस समिति की बागडौर सौंपी जाएगी? एआईपीए का कहना है, ‘केजरीवाल जो अपने उदय से ही नौकरशाही पर बेईमान होने का आरोप लगाते आए, आज वो उसी बेईमान नौकरशाही पर इतना भरोसा जता रहे हैं. यहां उनकी कथनी और करनी में ही अंतर नहीं बल्कि उनकी नीयत में भी खोट नजर आता है.’ अशोक अग्रवाल बताते हैं, ‘समिति चार्टर्ड अकाउंटेंट द्वारा जिस भी स्कूल के खातों की जांच कराएगी, चार्टर्ड अकाउंटेंट की फीस भी वही स्कूल देगा. इससे केजरीवाल सरकार ने स्कूलों को फीस बढ़ाने का एक नया कारण और उपलब्ध करा दिया है.’

प्राइवेट स्कूलों द्वारा वसूली जाने वाली मनमानी फीस के संबंध में अगर तमिलनाडु, महाराष्ट्र और राजस्थान सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों पर नजर दौड़ाई जाए तो वहां सरकार अपने अधीन एक समिति का गठन करती है  और समिति इन स्कूलों की फीस तय करती है कि हमारे राज्य में कौन सा स्कूल कितनी फीस लेगा. अगर कोई  स्कूल अपनी फीस बढ़ाना चाहता है तो वो इस समिति को प्रस्ताव देता है और वो समिति तय करती है कि फीस वृद्धि आर्थिक लाभ के उद्देश्य से तो नहीं की गई. इस कानून के पक्ष में सभी की सहमति है. लेकिन मनीष सिसोदिया कहते हैं, ‘अगर सरकार प्राइवेट स्कूलों की फीस तय करने की जिम्मेदारी ले लेगी तो ये तानाशाही होगी. इससे प्राइवेट स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित होगी और सुविधाओं पर भी नकारात्मक असर पड़ेगा. कैसे हम सबको एक लाठी से हांक सकते हैं?’

वहीं दिल्ली विद्यालय शिक्षा विधेयक, 1973 की धारा 10(1) के संशोधन पर मचे बवाल के बीच अपने बचाव में सरकार का कहना है कि यह प्रावधान प्राइवेट स्कूलों के लिए यह अनिवार्य करता है कि वह अपने कर्मचारियों को सरकारी स्कूल कर्मियों के समान वेतन दें लेकिन यह गैर व्यवहारिक है. दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कहते हैं, ‘एक सरकारी स्कूल में शिक्षक की तनख्वाह औसतन चालीस हजार होती है. अगर बात करें प्राइवेट स्कूल की तो दिल्ली के 1800 प्राइवेट स्कूलों में से लगभग एक हजार स्कूल ऐसे हैं जिनकी फीस हजार रुपये प्रतिमाह से अधिक नहीं है. कई स्कूल तो ऐसे हैं जो दो सौ रुपये की मामूली मासिक फीस पर भी बच्चों को पढ़ा रहे हैं. किसी स्कूल में तीन सौ तो किसी में चार सौ बच्चे हैं . इस लिहाज से देखें तो बीस छात्रों की एक कक्षा में एक शिक्षक के अनुपात से प्रबंधन को स्कूल में 15-20 शिक्षकों की जरूरत होती है. अब अगर इन शिक्षकों को सरकारी स्कूलों के शिक्षकों के समान वेतन दिया जाए तो छह लाख से आठ लाख रुपये का खर्चा आएगा लेकिन इतना तो इनके पास फीस कलेक्शन भी नहीं होता. इसका नतीजा ये होता है कि ये स्कूल फर्जी खातों का सहारा लेते हैं या फिर शिक्षक को सरकारी स्कूल के समान वेतन का चेक थमाते समय उससे  एक ब्लैंक चेक पर हस्ताक्षर करा लेते हैं और बाद में इस चेक के माध्यम से उस शिक्षक के खाते से दी हुई फीस को वापस अपने खाते में ट्रांसफर कर लेते हैं. इस प्रकार एक शिक्षक को न्यूनतम वेतन से भी कम में अपना गुजारा करना होता है. हमारा प्रयास है कि इस फर्जीवाड़े को रोका जाए. इसलिए हम दिल्ली विद्यालय शिक्षा कानून (डीएसई एक्ट),1973 में शामिल गैर व्यवहारिक धारा 10 (1) को हटाने के लिए यह संशोधन विधेयक लाए हैं.’ लेकिन जब कानून में समान वेतन के सिद्धांत वाली यह धारा नहीं रहेगी तो फिर वेतन निर्धारित करने के क्या मापदंड होंगे? यह अभी निर्धारित नहीं हुआ है. इसके लिए सरकार एक समिति के गठन पर विचार कर रही है जो दिल्लीवासियों के बीच जाकर उनसे रायशुमारी कर कोई ऐसा तरीका ईजाद करेगी जो प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षकों के साथ वेतन के मामले में हो रहे शोषण पर लगाम लगा सके और उन्हें एक सम्मानजनक वेतन दिला सके.

अशोक अग्रवाल कहते हैं, ‘सरकार केवल और केवल अंधेरे में रखने का काम कर रही है. सच तो यह है कि यह धारा प्राइवेट स्कूलों के गले की हड्डी बनी हुई थी और वो किसी भी तरह से इसे हटाना चाहते थे. बेरोजगारी के इस दौर में आज आसानी से दो-दो हजार रुपये में पढ़ाने वाले शिक्षक उपलब्ध हो सकते हैं पर इस धारा के कारण स्कूल विवश थे कि वह अपने कर्मचारियों को सरकारी स्कूल के समान वेतन दें. उनकी समस्या का समाधान सरकार ने कर दिया.’ पर केजरीवाल आश्वासन देते हैं कि जितना वेतन वर्तमान में एक शिक्षक को मिल रहा है, नए कानून के बाद उससे कम नहीं मिलेगा. शिक्षा के अधिकार की लंबे समय से लड़ाई लड़ते आ रहे सूर्यकांत कुलकर्णी कहते हैं, ‘अभी सरकार ने घोषित किया है कि इसके लिए ब्लॉक, जिला, ग्रामीण स्तर पर रायशुमारी करेंगे लेकिन इसके बाद जो लाखों सुझाव आएंगे, उन्हें कौन देखेगा? कौन पढ़ेगा? ये कमेटी तो पांच-दस सदस्यों तक सीमित होगी. यह सब महज खानापूर्ति है. सरकार का एजेंडा पहले से ही साफ है और वह वही करने वाली है.’ अगर इसे सही मानकर चलें तो सरकार शिक्षकों की फीस निर्धारित करने के लिए जिस फार्मूले का प्रयोग करने जा रही है उसके तहत वह स्कूल को मिलने वाली कुल फीस का एक निश्चित प्रतिशत कर्मचारियों के वेतन के रूप में बांटे जाने के प्रावधान पर काम कर रही है. या फिर अलग-अलग किस्म के स्लैब भी बनाए जा सकते हैं कि इस किस्म के स्कूल कम से कम इतनी तनख्वाह देंगे.

अशोक अग्रवाल कहते हैं, ‘मान लीजिए अगर वह कुल फीस का चालीस फीसदी वेतन के रूप में दिया जाना निर्धारित करते हैं. अब सवाल ये उठता है कि स्कूलों के पास फीस पाने के तो बहुत स्रोत होते हैं. जैसे ट्यूशन फीस, वार्षिक फीस आदि. तो कौन सी फीस का चालीस प्रतिशत? इस पर कहेंगे कि ट्यूशन फीस का चालीस प्रतिशत तो स्कूल ट्यूशन फीस नहीं बढ़ाएगा और वार्षिक फीस दोगुनी कर देगा और कहेगा कि ट्यूशन फीस तो मैंने बढ़ाई ही नहीं. इसलिए मैं वेतन क्यों बढ़ाऊं? कुल मिलाकर देखा जाए तो सरकार निजीकरण को बढ़ावा देने पर तुली है. एक बैठक के दौरान केजरीवाल ने मुझसे कहा भी था कि प्राइवेट स्कूलों पर हाथ डालने का अधिकार हमें नहीं है.’  वहीं स्लैब बनाए जाने का फैसला तो और अधिक विवादित जान पड़ता है. केजरीवाल की ही भाषा में कोई स्कूल 200 रुपये फीस लेता है तो कोई 300 रुपये, कोई 500 रुपये तो कोई 1000, 5000, 7000 या 10000 रुपये प्रतिमाह. मतलब हर स्कूल का अपना एक अलग फीस स्ट्रक्चर है तो क्या सरकार हर स्कूल के लिए एक अलग स्लैब निर्धारित करेगी? और यदि वह स्लैब इस आधार पर बनाती है कि एक हजार प्रतिमाह तक फीस वसूलने वाले अपने शिक्षकों को इतना निर्धारित वेतन देंगे या 1000 से 5000 प्रतिमाह तक फीस वसूलने वाले इतना, तो सरकार के लिए यह अपने ही उस कथन से मुकरना होगा जहां वह कहते हैं, ‘सरकार अगर प्राइवेट स्कूलों की फीस तय करने की जिम्मेदारी ले लेगी तो ये तानाशाही होगी. इससे प्राइवेट स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित होगी’. तो सवाल उठता है, क्या शिक्षकों की फीस तय करने का अधिकार तानाशाही नहीं होगा? जहां एक हजार से लेकर पांच हजार फीस तक वसूलने वाले स्कूल के शिक्षकों को समान वेतन मिलेगा. इससे भी तो शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित होने का डर है.

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इस विधेयक में सरकार ने प्रवेश के समय स्कूलों द्वारा वसूली जाने वाली कैपिटेशन फीस के संबंध में भी सजा के नए प्रावधान किए हैं. अब तक जहां इस एक्ट में कैपिटेशन फीस वसूलने वाले स्कूलों की मान्यता रद्द करने या उनके प्रबंधन को सरकारी नियंत्रण में लेने का प्रावधान था. अब इसमें ढील देकर इसे केवल अर्थदंड में बदल दिया गया है. इसके पीछे जो तर्क है वह यह कि मान्यता रद्द करने का नकारात्मक प्रभाव शिक्षकों के रोजगार व छात्रों की आगे की पढ़ाई पर पड़ता है. लेकिन प्रवेश के समय बच्चों की छंटाई प्रक्रिया (स्क्रीनिंग) को लेकर सरकार ने अपनी स्थिति स्पष्ट नहीं की है जो विवाद को जन्म दे रहा है. सरकार ने विधयेक में इस संबंध में स्कूलों पर अर्थदंड लगाने का तो प्रावधान किया है लेकिन जो हालिया सर्कुलर जारी हुआ है उसमें नर्सरी में दाखिला अंक पद्धति के आधार पर बच्चे का आकलन करने के बाद होना बताया गया है. लेकिन ये अंक पद्धति क्या होगी? अभी यह स्पष्ट नहीं है. अशोक अग्रवाल कहते हैं, ‘स्क्रीनिंग पर लगाम लगाने का झांसा देकर सरकार की जबरदस्त स्क्रीनिंग को बढ़ावा देने की तैयारी है. अंक पद्धति हो या बच्चे का इंटरव्यू, स्क्रीनिंग तो हुई ही न. बस अब इसे सरकारी अमलीजामा पहनाया जा रहा है.’

‘सरकार निजीकरण को बढ़ावा देने पर तुली है. एक बैठक में केजरीवाल ने मुझसे कहा था कि प्राइवेट स्कूलों पर हाथ डालने का अधिकार हमें नहीं है’

दिल्ली विद्यालय विधेयक और दिल्ली विद्यालय शिक्षा (संशोधन) विधेयक के इतर जो नि:शुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार (दिल्ली संशोधन) विधेयक दिल्ली सरकार लेकर आई है उस पर भी वह घिरती नजर आ रही है. इस बदलाव के पीछे सरकार का तर्क है कि बच्चे को आठवीं तक फेल न करने की नीति ने शिक्षा की गुणवत्ता को प्रभावित किया है. इससे छात्रों और शिक्षकों की क्षमताओं का सही से मूल्यांकन नहीं हो पा रहा है. जब फेल होना ही नहीं है तो छात्र, शिक्षक और अभिभावक भी लापरवाह हो गए हैं. इसलिए इस नीति को बदलने की जरूरत है. लेकिन सरकार के इस तर्क का व्यापक विरोध भी हो रहा है. सूर्यकांत कुलकर्णी कहते हैं, ‘यह नीति हवा में नहीं लाई गई थी. इसके पीछे सोच थी. दस साल इस पर व्यापक चर्चा हुई थी. इसका मकसद था बच्चों को विकास की प्रक्रिया से जोड़ने के लिए शिक्षित करना. उनको स्कूलों में रोकना. बस्ते का बोझ कम करना. फेल-पास के तंत्र से बाहर निकालकर उन्हें तनावमुक्त करना. अफसर या उच्च वर्ग के बच्चे तो कैसे भी पढ़ ही लेते हैं. लेकिन यह नीति ‘एजुकेशन फॉर ऑल’ के तहत लाई गई थी, ताकि गरीबों के बच्चे भी हर परिस्थिति में शिक्षा से जुड़े रहें. उदाहरण के तौर पर इस नीति के आने से पहले महाराष्ट्र में एसएससी लेवल के चालीस प्रतिशत बच्चे फेल हो जाते थे. उन चालीस प्रतिशत को आगे बढ़ने से रोक दिया जाता था इसका नतीजा यह होता था कि बच्चों का बीच में शिक्षा छोड़ने का प्रतिशत काफी बढ़ गया था. इस तरह आप उन्हें विकास की प्रक्रिया से अलग कर रहे थे. बच्चा नहीं पढ़ रहा तो क्या उसे विकास की प्रक्रिया से हटा देंगे? उन्हें प्रोत्साहन की जरूरत होती है और यह पॉलिसी उन्हें वही देती है. लेकिन दुर्भाग्य से कई राज्यों ने इसे ढंग से लागू ही नहीं किया. संकल्पना थी कि जो बच्चे ढंग से नहीं पढ़ सकते उन्हें प्रोत्साहन मिले. इसे नजरअंदाज किया गया. हमें करना ये था कि बच्चों की कमजोरी का पता लगाकर उसे दूर करने के प्रयास करते. यहां सरकारें असफल हुईं लेकिन सजा बच्चों को दी जा रही है.’ अशोक अग्रवाल कहते हैं, ‘फेल बच्चा नहीं होता, फेल शिक्षक होता है. व्यवस्था होती है. और यह नीति प्राइवेट स्कूलों के लिए नहीं थी, सरकारी स्कूलों के लिए थी. उन स्कूलों के लिए जहां पढ़ाने के लिए शिक्षक नहीं हैं, बैठने के लिए जगह नहीं है. कहीं डेढ़ सौ बच्चों की क्लास एक शिक्षक के भरोसे है तो कहीं एक शिक्षक पहली से आठवीं तक के सैकड़ों बच्चों की संयुक्त क्लास ले रहा है. और उस शिक्षक की शैक्षणिक योग्यता क्या है, वह इसी से समझा जा सकता है कि उसे देश के प्रधानमंत्री का नाम तक नहीं पता होता. अब इन हालातों में बच्चों को फेल-पास की कसौटी पर तौला जाना कहां तक जायज है?’ सरकारी स्कूलों की बदहाल स्थिति को मनीष सिसोदिया भी स्वीकारते हैं लेकिन साथ ही अपने बचाव में एक हास्यापद तर्क भी देते हैं. वह कहते हैं, ‘नो डिटेंशन पॉलिसी एक अच्छा कदम साबित हो सकती थी लेकिन इसे लाने में जल्दबाजी की गई. इसे लाने से पहले सभी सरकारों को सरकारी स्कूलों की बदहाली को दूर करना चाहिए था. शिक्षकों को आधुनिक शिक्षा के हिसाब से ट्रेनिंग दी जानी चाहिए थी और शिक्षक-छात्र अनुपात कम करने जैसे आवश्यक कदम उठाकर यह स्थिति उत्पन्न करनी चाहिए थी कि हर छात्र गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पा सके. हम ऐसा ही करेंगे.’ लेकिन प्रश्न ये उठता है कि जब हर छात्र गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पाकर पास होने की स्थिति में आ जाएगा तब इस नीति को लागू करने की जरूरत ही क्यों होगी? लेकिन अगर यह नीति खत्म की जाती है तो यह उन सभी बच्चों के साथ अन्याय होगा जो सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे हैं. वे डेढ़ सौ बच्चों की क्लास में कुछ सीख सकेंगे नहीं और उन्हें फेल करके ऐसी परिस्थितियां उनके सामने खड़ी कर दी जाएंगी कि हताशा में या तो वे खुद स्कूल से मुंह मोड़ लें या मां-बाप के दबाव में पढ़ना छोड़ दें. इसका जवाब सरकार के सिपहसालारों के पास नहीं है. वहीं एक ओर सरकार यह भी मान रही है कि शिक्षक का महत्व बहुत अधिक है और वर्तमान शिक्षक शिक्षा प्रदान करने की योग्यता पर खरे नहीं उतरते. जिससे यह स्वत: ही तय हो जाता है कि वर्तमान शिक्षक बच्चों को वो शिक्षा ही नहीं दे पाएगा जिसकी उन्हें जरूरत है. यहां फेल शिक्षक और शिक्षा व्यवस्था को होना चाहिए लेकिन छात्र फेल होगा. अशोक अग्रवाल कहते हैं, ‘इसके बाद भी अगर शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार नहीं आया तो सरकार धारा 17 के तहत बच्चों को कॉरपोरल पनिशमेंट (शारीरिक दंड) देने की भी वकालत करने लगेगी.’

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फीस वापसी सिर्फ एक झांसा ?

फीस वापसी की बात करें तो छठे वेतन आयोग के बहाने प्राइवेट स्कूलों द्वारा बढ़ाई गई फीस की जांच के लिए दिल्ली हाइकोर्ट ने जस्टिस अनिल देव समिति का गठन किया था और निर्देश दिए थे कि अगर स्कूलों द्वारा फीस वृद्धि किन्हीं गैरवाजिब कारणों से की गई है तो अतिरिक्त फीस 9 प्रतिशत की ब्याज दर के साथ अभिभावकों को लौटाई जाएगी. लेकिन एआईपीए का दावा है कि यह समिति अब तक 450 से अधिक स्कूलों को गैरवाजिब कारणों से फीस में बढ़ोतरी करने का दोषी पा चुकी है. जिनसे कि लगभग 250 करोड़ रुपये की राशि वसूली जानी बाकी है. लेकिन अब तक किसी भी स्कूल ने अभिभावकों को बढ़ाई गई फीस वापस नहीं की है. इसलिए दिल्ली सरकार के दिल्ली विद्यालय (लेखों की जांच और अधिक फीस की वापसी) विधेयक, 2015 पर सवाल उठना लाजमी है. लेकिन कई विशेषज्ञों का मानना है कि फीस वापसी की नौबत ही नहीं आएगी. मान लीजिए अगर कोई स्कूल फीस बढ़ाकर भी लेता है तो वह दोषी तब माना जाएगा जब वह उस अतिरिक्त फीस का उपयोग स्कूल के अलावा कहीं और करे. लेकिन यदि वह उस फीस को अपने खाते में सुरक्षित जमा दिखाकर यह कहता है कि इसका उपयोग वह स्कूल में ही करेगा तो उस पर कोई आरोप ही नहीं बनता और विधेयक में यह प्रावधान भी है कि समिति ऐसी फीस को स्कूल प्रबंधन को निर्धारित मदों में खर्च करने का आदेश दे सकती है. [/box]

अपने खिलाफ बन रहे माहौल पर काबू पाने के लिए केजरीवाल अब जहां एक ओर अभिभावकों के बीच यह संदेश प्रसारित करवा रहे हैं कि वेतन आयोग के आने पर प्राइवेट स्कूलों को शिक्षकों का वेतन बढ़ाना पड़ता था और वो इसकी वसूली आपकी जेब से करते थे. अब हमने वो कानून ही खत्म कर दिया. इसलिए फीस बढ़ेगी ही नहीं. वहीं दूसरी ओर उन्होंने शिक्षकों को यह सब्जबाग दिखाकर विरोधी रुख अपनाने से रोका हुआ है कि नए प्रावधान के अनुसार आपको वेतन तो मिलेगा ही, साथ ही फीस की जांच के बाद जितनी भी राशि विद्यालयों द्वारा अभिभावकों से अतिरिक्त वसूली गई होगी, उसे भी वेतन के रूप में आपमें बांट दिया जाएगा.

आत्महत्या का अनुबंध

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फोटोः विजय पांडेय

‘नरेंद्र मोदी दुर्योधन की तरह व्यवहार क्यों कर रहे हैं?’  इस साल  मार्च में उत्तर प्रदेश के मथुरा के नजदीक स्थित एक गांव के दौरे पर गए सामाजिक कार्यकर्ताओं से वहां के किसानों ने यह प्रतिक्रिया जाहिर की. मार्च में असमय हुई बारिश की वजह से गांव के किसानों की फसल खराब हो गई थी. इलाके के किसानों ने ‘अच्छे दिन’ की उम्मीद में मोदी को बढ़-चढ़कर वोट दिया था लेकिन उनके द्वारा यूपीए सरकार के भूमि अधिग्रहण विधेयक में संशोधन करने पर इनमें रोष व्याप्त हो गया. किसानों को इस डर ने घेर लिया कि नए विधेयक में किसानों की अनुमति को अप्रासंगिक बना देने से बड़ी कंपनियां आसानी से उनकी जमीन पर कब्जा जमा लेंगी. ‘भूमि अधिग्रहण न्यायपरक क्षतिपूर्ति रकम व पारदर्शिता, पुनर्वास और पुनर्स्थापन अधिकार अधिनियम’ में भूमि अधिग्रहण के लिए किसानों के ‘न’ कहने का अधिकार महत्वपूर्ण था. अधिनियम के इस स्वरूप को किसानों और आदिवासियों ने लंबी लड़ाई के बाद पाया था.

धलगढ़ी नाम के इस गांव में किसान और मजदूर आंदोलनों से जुड़े संगठन ‘भूमि अधिकार आंदोलन’ के कार्यकर्ता मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण बिल का पुरजोर विरोध करते रहे हैं. उनका कहना है कि प्रधानमंत्री मोदी किसानों की नहीं सुन रहे हैं, ऐसे में अपनी जमीन बचाने के लिए किसानों को आज के युग के महाभारत के लिए तैयार हो जाना चाहिए.

पौराणिक महाभारत तब शुरू हुई थी, जब कौरवों ने पांडवों को सुई की नोंक के बराबर जमीन देने से भी इंकार कर दिया था. दुर्योधन का अहंकार उस समय इतना था कि उस समय वह पांडवों की मामूली मांग को मानने के लिए भी तैयार नहीं था. पांडव राज्य पर बराबर की हिस्सेदारी को त्यागने के एवज में केवल पांच गांव चाहते थे. संघर्ष कर रहे कार्यकर्ताओं का कहना है कि महाभारत से मिलता जुलता विवाद 21वीं सदी में दोहराया जा रहा है. जमीन से बेदखली के डर ने देशभर के किसानों को मोदी सरकार के भूमि अधिग्रहण विधेयक के विरूद्ध एक कर दिया था. जिसके बाद सरकार को अपना विधेयक रोकना पड़ा. फिर पूर्व की संप्रग सरकार के विधेयक में कुछ संशोधन करके उसे ही पारित किया गया.

भारत में इस वर्ष रबड़ उत्पादन करने वाले राज्यों में किसानों ने सबसे अधिक आत्महत्या की है. ऐसा तब है जब भारत की सबसे बड़ी टायर कंपनी एमआरएफ ने इस वर्ष अप्रैल-जून की तिमाही में अपने कुल मुनाफे में 94 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की है

बहरहाल जीत की यह खुशी बहुत देर तक नहीं बनी रह सकी. जमीन से बेदखली की आशंका ने फिर से सिर उठा लिया है. अब यह खबर सामने आई है कि खेती, पौधरोपण और पशुपालन उन 15 सेक्टरों में शामिल हैं, जिनमें 100 प्रतिशत विदेशी निवेश (एफडीआई) की अनुमति दी गई है. बिहार चुनाव हारने के तुरंत बाद सरकार ने यह घोषणा की. ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम सुशासन’ की अपनी प्रतिबद्धता को रेखांकित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने ट्वीट किया, ‘एफडीआई संबंधी सुधारों के लिए हमारी सरकार की प्रतिबद्धता स्पष्ट और अटल है.’

सभी इलाकों के सभी तरह के विचारधारात्मक झुकावों वाले विभिन्न किसान संगठन इस बारे में चौकन्ने हो गए हैं. संघर्षरत कार्यकर्ताओं ने इसे ‘लाभ के लिए बहुराष्ट्रीय पूंजी का संस्थागत प्रवेश’ कहा है जो मुनाफे के लिए लालायित है. आरएसएस से जुड़े भारतीय किसान संघ के महासचिव प्रभाकर केलकर का कहना है, ‘अगर कृषि में प्रत्यक्ष एफडीआई को किसानों की जमीन छीनने के लिए शॉर्टकट के तौर पर इस्तेमाल किया गया तो हम इसके खिलाफ लड़ाई में एड़ी-चोटी का जोर लगा देंगे.’

लेकिन भूमि अधिग्रहण के लिए हिंसात्मक रास्ता अपनाया जाएगा, इसकी संभावना कम ही है, क्योंकि अतीत में सत्ताधारी दलों को इसकी बड़ी राजनीतिक कीमत चुकानी पड़ी है. ऐसे में सरकार को कुछ ऐसे रास्ते ढूंढने होंगे जो प्रत्यक्ष तौर पर उतने दमनकारी न दिखाई दें. अखिल भारतीय किसान सभा के पी. कृष्णप्रसाद का कहना है, ‘कृषि में प्रत्यक्ष एफडीआई असल जमीन पर कैसे काम करेगा अभी तक इस बारे में बहुत कम ब्यौरा दिया है. लेकिन इस सरकार का पिछला ट्रैक रिकाॅर्ड तथा तीसरी दुनिया के देशों के इस क्षेत्र के अनुभवों को अगर देखा जाए तो हम पाते हैं कि कृषि में एफडीआई ने बड़े व्यवसायियों को फायदा पहुंचाया है तथा छोटे और मझोले किसानों की जीविका को नुकसान पहुंचाया है.’

क्या ये तथ्य मोदी के इस दावे के उलट नहीं हैं कि एफडीआई दुनिया भर में रोजगार और आमदनी बढ़ाने में सहायक रहा है. न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय से पंजाब की कॉरपोरेट खेती पर शोध कर रहीं रितिका श्रीमाली का कहना है, ‘एफडीआई भारतीय कृषि के कॉरपोरेटीकरण को बहुत तेजी से बढ़ा देगा. अनुबंध आधारित खेती को तेजी से संस्थागत रूप मिलेगा. अनुबंध आधारित खेती किसानों और कॉरपोरेट कंपनियों के बीच अनुबंध से कहीं बढ़कर है. ऐसी खेती करने वाली कंपनियां ही बीज, उर्वरक और कीटनाशक जैसे खेती में काम आने वाले उत्पाद भी बेचती हैं. इसी तरह वे किसानों से अपने उत्पाद खरीदते समय भी मुनाफा कमाती हैं. प्रत्यक्ष रूप से खेती में शामिल हुए बिना उत्पादों को खरीदने और बेचने की कीमतें कंपनियां ही तय करती हैं. इस तरह बिना कोई जोखिम उठाए ये कंपनियां नियमित रूप से अपना मुनाफा कमाती हैं.’

श्रीमाली इस ओर भी ध्यान दिलाती हैं कि गरीब किसानों के लिए तय ऋण के एक बड़े हिस्से पर कॉरपोरेट खेती करने वाली कंपनियां कब्जा जमा लेती हैं. साथ ही कॉरपोरेट खेती के नाम पर बड़े पैमाने पर खेती करने के कारण उनके लिए ऋण लेने की राह आसान होती है. यही तथ्य मुंबई में रहने वाले अर्थशास्त्री आर. रामकुमार के हाल ही में किए गए एक अध्ययन में भी सामने आए, जिसमें उन्होंने वर्ष 2000 से बैंकों द्वारा खेती के लिए दिए ऋणों का अध्ययन किया था.

कॉरपोरेट खेती में अग्रणी आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और गुजरात जैसे राज्यों में खेती में उत्पन्न होती अस्थिरता और संकट की स्थिति साफ तौर पर इस ओर संकेत करती है कि कृषि में एफडीआई के क्या प्रभाव हो सकते हैं.  हैदराबाद स्थित सुंदरय्या विज्ञान केंद्र (एसवीके) द्वारा आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के 88 गांवों में क्षेत्रवार सर्वेक्षण किया जा रहा है. सर्वेक्षण के संयोजक के. वीरैया का कहना है कि सर्वेक्षण में ऐसे तथ्य सामने आ रहे हैं, जो दिखाते हैं कि अनियंत्रित विदेशी पूंजी किस तरह का संकट पैदा कर सकती है. वीरैया कहते हैं, ‘कॉरपोरेट खेती किसानों के शोषण को तेज करने के अलावा खेती की शैली को भी प्रभावित करती है जिससे खाद्य सुरक्षा भी प्रभावित होती है.’

एसवीके ने अपने अध्ययन में तेलंगाना के वारंगल जिले में तेजी से बढ़ती किसान आत्महत्याओं को कॉरपोरेट खेती से जोड़ा है. इस नए गठित राज्य में जून 2014 से अब तक 1,750 किसान आत्महत्या कर चुके हैं. वारंगल के इन किसानों में से एक चौथाई एक बड़ी बहुराष्ट्रीय कॉरपोरेट खेती कंपनी की भारतीय शाखा द्वारा की गई ठगी का शिकार हुए थे. इस कंपनी ने अपने स्थानीय नेटवर्क के माध्यम से किसानों को काफी ऊंची कीमत पर बीटी कॉटन के बीज बेचे थे. बीज अच्छी किस्म के नहीं थे. इस कारण फसल भी उम्मीद के मुताबिक अच्छी नहीं हुई. कंपनी ने खराब किस्म के कपास को खरीदने से मना कर दिया और इस तरह एक बड़े घाटे के शिकार हुए किसानों में आत्महत्या का सिलसिला शुरू हो गया. आंध्र प्रदेश में भी कॉरपोरेट खेती का अनुभव बहुत अच्छा नहीं रहा. पश्चिम गोदावरी जिले के बी.वी. गुडेम गांव में गोदरेज ग्रुप की कंपनी ने ताड़ के तेल और कोका जैसी नकदी फसलों की कॉरपोरेट खेती शुरू की. इस खेती ने एक ऐसे बड़े भूभाग को घेर लिया जो इससे पहले धान की समृद्ध खेती के लिए जाना जाता था. एसवीके के अध्ययन के अनुसार इन नकदी फसलों ने लगभग 3000 एकड़ की धान की खेती की जगह ले ली है.

एक प्रचलित धारणा यह है कि कॉरपोरेटीकरण जाति प्रथा की जकड़नों को तोड़ देता है. लेकिन एसवीके का अध्ययन यह दर्शाता है कि गोदरेज ग्रुप ने प्रचलित जाति आधारित भेदभाव और प्रथाओं को मजबूत किया है जिसमें बंधुआ मजदूरी से मिलती-जुलती एक प्रथा भी शामिल है. गुंटूर जिले के कट्टावारिपलम गांव में भी गन्ने और कपास की खेती में अनुबंध आधारित खेती को अपनाया गया है. इससे पहले खेत मजदूरों को एक किलो कपास को तोड़ने के लिए 7 रुपये और एक किलो मिर्च तोड़ने के लिए 12 रुपये दिए जाते थे. लेकिन अनुबंध आधारित खेती के चलते दूसरे जिलों और राज्यों से खेती के लिए मजदूरों के आने के बाद मजदूरी क्रमश: 2.5 रुपये और 7 रुपये पर आ गई है. इस कारण स्थानीय मजदूर निराश होकर यहां से पलायन कर रहे हैं. आंध्र प्रदेश में भी कमोबेश यही हाल है. गुजरात जहां मोदी ने कॉरपोरेट और अनुबंध आधारित खेती को संस्थागत रूप दिया है, वहां भी कठिन श्रम और मजदूरी कम होने का यही कारण सामने आया है.

इस ओर भी ध्यान देने की जरूरत है कि ऐसे हालात में कॉरपोरेटीकरण के क्या प्रभाव होंगे जहां आरंभिक उत्पादक यानी किसान अपने उत्पादों से तैयार होने वाले प्रसंस्कृत उत्पादों की कुल कीमत का 10 प्रतिशत से भी कम प्राप्त कर पाते हैं. इसका यह भी अर्थ है कि कॉरपोरेट कंपनियां खेतों से कच्चा माल बहुत कम कीमत पर और अपने नियम एवं शर्तों पर उठाती हैं.

उदाहरण के लिए भारत में इस वर्ष रबड़ उत्पादन करने वाले राज्यों में किसानों ने सबसे अधिक आत्महत्या की है. ऐसा तब है जब भारत की सबसे बड़ी टायर कंपनी एमआरएफ ने इस वर्ष अप्रैल-जून की तिमाही में अपने कुल मुनाफे में 94 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की है. फूड एंड एग्रीकल्चरल आॅर्गनाइजेशन की रिपोर्ट ‘द स्टेट आॅफ फूड इनसिक्योरिटी इन द वर्ल्ड, 2015’ में भारत भुखमरी के शिकार देशों में पहले स्थान पर है. इसके बावजूद ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम सुशासन’ के नाम पर सरकार एक ओर लगातार सामाजिक कल्याणकारी योजनाओं को कम कर रही है और दूसरी ओर 2014-15 के वित्तीय वर्ष में हीरे और सोना उद्योगों को 75,592 करोड़ की भारी भरकम सब्सिडी देने में भी उसे कोई गुरेज नहीं.

जब नई दिल्ली में मोदी सत्ता में आए तब मुंबई की दलाल स्ट्रीट के ब्रोकर इस बात पर चर्चा कर रहे थे कि क्या वे वैसे कदम उठा सकते हैं जैसे 1980 में  इंग्लैंड में मारग्रेट थैचर ने उठाए थे. उस समय थैचर ने सभी मजदूर यूनियनों को कुचल कर मुक्त बाजार को जोर-शोर से बढ़ावा दिया था. परिणामस्वरूप बड़े व्यवसायियों को फायदा हुआ. क्या एफडीआई के रास्ते कॉरपोरेटीकरण के माध्यम से खेती के संकट को बढ़ाकर मोदी ‘थैचर चमत्कार’ के भारतीय संस्करण का सपना देख रहे हैं?

पंचायत पर पांचवीं पास का पेंच

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सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा में पंचायत चुनाव के उम्मीदवारों के लिए शैक्षणिक योग्यता तय किए जाने को सही ठहराते हुए कहा कि शिक्षा ही वह जरिया है जो मनुष्य को सही-गलत और अच्छे-बुरे का फर्क समझने की ताकत प्रदान करता है. शीर्ष अदालत के इस फैसले से अब हरियाणा में पढ़े-लिखे लोग ही चुनाव लड़ पाएंगे.

न्यायमूर्ति जे. चेलमेश्वर व न्यायमूर्ति अभय मनोहर सप्रे की खंडपीठ ने हरियाणा पंचायती राज (संशोधन) अधिनियम, 2015 को सही ठहराया और इसे चुनौती देनी वाली राजबाला, कमलेश व प्रीत सिंह की याचिका को खारिज कर दिया. गौरतलब है कि हरियाणा पंचायती राज (संशोधन) अधिनियम, 2015 के तहत चुनाव लड़ने के लिए सामान्य वर्ग के उम्मीदवारों का 10वीं, महिलाओं व दलित पुरुषों का आठवीं पास होना अनिवार्य है. वहीं दलित महिलाओं के लिए पांचवीं पास होना जरूरी है. इसके अलावा बिजली बिल का बकाया होने, बैंक का लोन न चुकाने और गंभीर अपराधों में चार्जशीट होने वाले लोग भी पंचायत चुनाव नहीं लड़ पाएंगे. साथ ही प्रत्याशी के घर में शौचालय भी होना चाहिए.

70 पेज के अपने फैसले में खंडपीठ ने कहा कि अदालत द्वारा किसी भी कानून को इस आधार पर असंवैधानिक नहीं करार दिया जा सकता है कि वह मनमाने तरीके से बनाया गया है. हरियाणा पंचायती राज कानून संशोधन से संविधान का उल्लंघन नहीं हुआ है. यह बहुत जरूरी है कि चुने हुए प्रतिनिधि शिक्षित हों, जिससे वे अपने कर्तव्यों का सही तरीके से निर्वाह कर सकें. शीर्ष अदालत ने उस प्रावधान को भी सही बताया जिसमें उन लोगों के चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगाई गई है जिनके ऊपर सहकारी बैंकों का ऋण या बिजली का बिल बकाया है. खंडपीठ ने इस पर कहा कि हम सब जानते हैं कि इन दिनों चुनाव लड़ना कितना खर्चीला है. ऐसी स्थिति में कर्जदार व्यक्ति का चुनाव लड़ना उसकी आर्थिक क्षमता से बाहर है. शीर्ष अदालत ने शौचालय की अनिवार्यता पर कहा कि शौचालय बनाने के लिए राज्य सरकार सहायता देती है, ऐसे में इसकी अनिवार्यता का फैसला सही है. खुले में शौच करने की कुप्रथा के खिलाफ महात्मा गांधी भी थे.

शिक्षा का मतलब क्या?

मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने हरियाणा सरकार से पूछा था कि नए नियमों के मुताबिक कितने लोग चुनाव नहीं लड़ पाएंगे. इस पर राज्य सरकार की तरफ से अदालत में पेश अटार्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने बताया कि 43 फीसदी लोग चुनाव नहीं लड़ पाएंगे. उन्होंने अदालत को बताया कि राज्य में 84 फीसदी घरों में शौचालय हैं, जबकि 20 हजार स्कूल हैं. हालांकि याचिकाकर्ताओं ने सरकार के आंकड़े को गलत बताया और कहा कि सही में यह संख्या 43 नहीं 64 फीसदी है. यदि हम बात दलित महिलाओं की करेंगे तो यह संख्या 83 फीसदी तक पहुंच जाती है. इसी तरह राज्य सरकार ने 20 हजार स्कूलों में प्राइवेट स्कूलों को भी गिना है, जबकि हकीकत यह है कि राज्य में दसवीं के लिए सिर्फ 3, 200 स्कूल हैं. हालांकि कौन से आंकड़े सही हैं, कौन से गलत यह अलग बात है. अहम सवाल यह है कि क्या सिर्फ किताबी शिक्षा हासिल न कर पाने वाले लोगों को उनके चुनाव लड़ने के अधिकार से वंचित कर देना जायज है? जब भारत में संविधान का निर्माण हो रहा था उस दौरान जनप्रतिनिधियों के लिए शिक्षा को अनिवार्य किए जाने को लेकर संविधान सभा में जमकर बहस हुई थी. इस दौरान भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद जनप्रतिनिधियों के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता निर्धारित किए जाने के पक्ष में थे, लेकिन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इसका विरोध करते हुए इसे अलोकतांत्रिक बताया था. उस दौरान संविधान सभा ने यह तय किया कि इस देश में हर व्यक्ति को चुनाव लड़ने की छूट मिलनी चाहिए और इसी आधार पर कानून बने. लेकिन अब इस फैसले के चलते लोकतांत्रिक व्यवस्था की पहली ही कड़ी में बहुत सारे लोग चुनाव लड़ने से वंचित रह जाएंगे.

हमारे ही देश में ऐसे हजारों उदाहरण मिल जाएंगे जहां अशिक्षित लोगों ने मील के पत्थर स्थापित किए हैं. देश के कई बड़े दिग्गज नेताओं, स्वतंत्रता सेनानियों और सफल उद्योगपतियों के पास डिग्रियां नहीं रही हैं. यहां तक कि मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी की शैक्षणिक योग्यता पर भी सवाल उठते रहे हैं. पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश अपने एक लेख में तमिलनाडु के नेता के. कामराज का उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘के. कामराज ने अपनी स्कूली शिक्षा भी नहीं पूरी की थी, लेकिन इस बात ने उनके राजनीतिक करिअर को प्रभावित नहीं किया. उन्होंने तमिलनाडु के प्रशासन को बहुत ही अच्छी तरह से संभाला और नई ऊंचाईयों पर पहुंचाया. लेकिन अगर वह आज होते तो हरियाणा में पंचायत चुनाव नहीं लड़ पाते.’ उन्होंने हरियाणा सरकार के इस फैसले को महिला, अन्य पिछड़ा वर्ग और दलित विरोधी करार दिया. उन्होंने कहा, ‘यह कितना अजीब है कि पंचायत चुनाव लड़ने के लिए आपकी शैक्षणिक योग्यता देखी जा रही है, जबकि हरियाणा का मुख्यमंत्री बनने के लिए आपको इस तरह की किसी भी बाधा को नहीं पार करना है. संविधान में अन्य पिछड़ा वर्ग की व्याख्या ऐसे समुदाय के रूप में की गई है जो सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा है. इसका मतलब साफ है कि देश में अभी एक बड़ा वर्ग ऐसा है जिसे शिक्षित किए जाने की जरूरत है. क्या ऐसे में उनके साथ भेदभाव नहीं किया जा रहा है? क्या यह बात दलित और आदिवासियों के लिए और भी सटीक नहीं बैठती है? हां, यह सही है कि उनकी शिक्षा के लिए बहुत सारे कदम उठाए गए हैं, लेकिन यह भी वास्तविकता है कि सिविल सेवा समेत अन्य जगहों यहां तक कि संसद में भी सर्वणों का ही वर्चस्व दिखाई पड़ता है.’

गलती आपकी और सजा हमको

हमें आजाद हुए करीब सात दशक होने वाले हैं, लेकिन इतने समय बाद भी हमारी आबादी का एक बड़ा हिस्सा साक्षर नहीं हो पाया है. ऐसे में यह सरकारों की नाकामयाबी रही कि वह अपने देश के लोगों को साक्षर नहीं बना पाईं. पर इस नाकामयाबी की सजा आम जनता को दी जा रही है. देश में पढ़ाई-लिखाई को लेकर माहौल यह है कि हर व्यक्ति अपने बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल भेजना चाहता है, पर इसके लिए स्कूल समेत अन्य सुविधाएं मुहैया करा पाने में सरकारें नाकाम रही हैं. अब ऐसी ही एक सरकार चुनाव लड़ने के लिए शैक्षणिक बाध्यता लगाकर अशिक्षित लोगों को इस बात से भी वंचित कर देना चाहती है कि वह एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया का पालन करके चुनाव जीतें और अपने समुदाय समेत गांव का विकास कर सकें. पूर्व न्यायाधीश राजेंद्र सच्चर ने अपने एक लेख में कहा, ‘उन लोगों को जिन्हें औपचारिक शिक्षा का मौका नहीं मिला है, वो पहले से ही राज्य की नाकामी से पीड़ित हैं. ऐसे में उन्हें लोकतांत्रिक संस्था से बाहर नहीं किया जाना चाहिए.’

वैसे भी हरियाणा की कुल एक करोड़ 60 लाख की ग्रामीण आबादी में महज 12.70 फीसद ही दसवीं पास हैं. राज्य की ग्रामीण आबादी का 34 फीसद निरक्षर हैं. ग्रामीण आबादी का महज 4.4 प्रतिशत ही ग्रेजुएट हैं. अब इसके लिए सिर्फ लोगों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है. सरकारों को अपनी जिम्मेदारी भी तय करनी होगी. मजेदार बात यह है कि देश में शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने में आजादी के बाद पचास साल लग गए और इसके लागू होने के एक दशक के भीतर ही हम पंचायत चुनाव में शैक्षणिक योग्यता निर्धारित किए जाने संबंधी कानून भी लाने लगे. आखिर हम यह कैसे मान लें कि इतने समय में देश का हर नागरिक कम से कम पांचवीं और आठवीं की पढ़ाई पूरी कर लेगा. सबसे अहम सवाल यह है कि क्या हरियाणा सरकार ने इस बात की रिपोर्ट मांगी कि 2015 में कितने प्रतिशत बच्चे स्कूली शिक्षा व्यवस्था से बाहर हो गए हैं. अगर मांगी तो कितने प्रतिशत बच्चे स्कूल नहीं पहुंच पा रहे हैं और उन्हें स्कूल पहुंचाने के लिए राज्य सरकार ने क्या कदम उठाए?

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क्या है पूरा मामला ?

हरियाणा में सरपंचों का कार्यकाल 25 जुलाई 2015 को खत्म हो गया, जिसके बाद 11 अगस्त 2015 को राज्य सरकार ने पंचायती राज कानून में संशोधन कर दिया. सरकार ने 7 सितंबर को पंचायती राज (संशोधन) विधेयक, 2015 को विधानसभा से पारित करा लिया. इसी दिन इसे राज्यपाल ने मंजूरी भी प्रदान कर दी. इसके अगले ही दिन राज्य चुनाव आयोग ने नए नियमों के आधार पर प्रदेश में पंचायत चुनावों की घोषणा कर दी. 17 सितंबर को संशोधन के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने पंचायती राज संशोधन अधिनियम पर रोक लगा दी. बाद में राज्य चुनाव आयोग ने पंचायत चुनावों को रद्द कर दिया. सुप्रीम कोर्ट में मामले को लेकर सुनवाई होती रही. 10 दिसंबर को शीर्ष अदालत ने हरियाणा सरकार के पक्ष में फैसला सुना दिया.

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वैसे भी यह सिर्फ हरियाणा की बात नहीं है. इससे पहले राजस्थान की सरकार ने पंचायत चुनाव के लिए शैक्षणिक योग्यता और शौचालय की अनिवार्यता लागू करने की पहल की. तब पूर्व चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह और एसवाई कुरैशी समेत बहुत सारे सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसका विरोध किया. उन्होंने तर्क दिया था कि ऐसे प्रावधानों से बड़ी ग्रामीण आबादी चुनाव लड़ने से वंचित हो सकती है. यही नहीं राजस्थान में तो एक नए तरह की मुश्किल भी सामने आई है. राज्य में निर्वाचित हुए दो सौ से अधिक पंचायत प्रतिनिधियों के निर्वाचन को शैक्षणिक योग्यता के फर्जी प्रमाणपत्र जमा करने की वजह से अदालत में चुनौती दी गई है.

एक वर्ग ऐसा भी है जो इस फैसले का स्वागत करता है. इनका मानना है कि यदि पढ़े-लिखे और जिम्मेदार लोग प्रतिनिधि के रूप में चुने जाएंगे, तो इससे लोकतंत्र को ही मजबूती मिलेगी. शीर्ष अदालत के इस फैसले से विधायक और सांसद के चुनाव में शैक्षणिक योग्यता निर्धारित करने की मांग करने वालों को बल मिलेगा. संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सही ठहराते हैं. ‘तहलका’ से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट ऐसे मामलों में अच्छा-बुरा नहीं देखता है. वह इस आधार पर निर्णय देता है कि विधानसभा ने अपने तय संवैधानिक अधिकारों का पालन करते हुए संशोधन किए हैं या नहीं और विधानसभा के पास यह अधिकार है कि वह कानून में संशोधन कर सके. वैसे भी यह मामला राजनीतिक व्यवस्था के लिए शर्मिंदगी वाला है कि आजादी के इतने दशकों बाद भी देश में लोग निरक्षर हैं.’ कुछ ऐसा ही मानना चुनाव आयोग के पूर्व सलाहकार केजे राव का है. वह कहते हैं, ‘सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक नजीर है. जनप्रतिनिधियों के लिए न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता का निर्धारण होना चाहिए. यह विधायकों और सांसदों के लिए भी होना चाहिए. ये लोग हमारे देश का कानून बनाते हैं. उन्हें पढ़ा-लिखा होना चाहिए.’

खत्म नहीं हुई है उम्मीद

हरियाणा सरकार के पंचायत चुनाव संशोधन को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने वाली राजबाला और कौशल्या समेत प्रीत सिंह ने अभी हार नहीं मानी है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने उसकी याचिका खारिज कर दी है, पर ये सारे लोग अब सुप्रीम कोर्ट में ही पुनर्विचार याचिका दायर करने की तैयारी में है. फतेहाबाद की राजबाला कहती हैं, ‘जब सांसद और विधायक अनपढ़ होकर चुनाव लड़ सकते हैं तो फिर पंच-सरपंच क्यों नहीं.’ उन्होंने कहा कि वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान करने के साथ ही अपने मौलिक अधिकारों की लड़ाई जारी रखेंगी. रोहतक के प्रीत सिंह ने कहा कि लोकतंत्र में चुनाव लड़ने से रोकना दुर्भाग्यपूर्ण है. वहीं हिसार की कौशल्या उर्फ कमलेश का कहना है कि पढ़े-लिखे से ज्यादा अनपढ़ लोग बेहतरीन काम कर सकते हैं. बस उन्हें जागरूक किए जाने की जरूरत है. वह अपने परिवार की खराब माली हालत के चलते स्कूल नहीं जा पाईं.            

‘देश के सम्मान के लिए आमिर ऑटोरिक्शा वालों को अच्छा व्यवहार करने की सीख देते हैं, उन्हें वैसी ही सीख पत्नी को भी देनी चाहिए’

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Photo- Vijay Pandey

भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व पर बिहार चुनाव नतीजों का क्या असर पड़ा? क्या किसी बदलाव के बारे में सोचा जा रहा है?

बिहार चुनाव विधानसभा का चुनाव था. भाजपा में एक पूरी प्रक्रिया है जिसके तहत राज्यों से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक हम चुनाव कार्य संपन्न कराते हैं. वह प्रक्रिया चल रही है, जब यह पूरी हो जाएगी तो परिणाम सबके सामने आ जाएगा.  

क्या लगता है, बिहार चुनाव के नतीजे अमित शाह के दूसरी बार अध्यक्ष चुने जाने को प्रभावित करेंगे?

इन दोनों चीजों में आपस में कोई संबंध नहीं है. पार्टी संगठन के भीतर के चुनावों और विधानसभा चुनावों के बीच कोई संबंध नहीं है.

आप कह चुके हैं कि किसी भी एक व्यक्ति को जिम्मेदार ठहराने की जगह पार्टी को बिहार में हार के कारणों पर आत्मचिंतन करना चाहिए. आपके अनुसार बिहार में इस हार के क्या कारण हैं?

बिहार में खराब प्रदर्शन के कारणों पर हमने विभिन्न स्तरों पर विचार विमर्श किया है. जो चुनाव परिणाम हमें वहां मिले, उनके कारणों के बारे में काफी स्पष्टता आई है. हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि यह चुनाव परिणाम दो हिस्सों में है. सीटों के मामले में हमने मुंह की खाई है. हम बहुत कम संख्या में सीटें जीत पाए, लेकिन वोट की संख्या के मामले में हमारा प्रदर्शन काफी अच्छा रहा. हमने बड़ी संख्या में वोट प्राप्त किए हैं. कुल मिलाकर इस तरह का परिणाम आने के बहुत से मिले जुले कारण रहे हैं, जिसकी वजह से इस तरह का जनमत मिला है. हमने काफी विश्लेषण किया है और इससे हमने जरूरी सबक भी सीखा है. पार्टी इन सब पर मीडिया से चर्चा नहीं करेगी.

भाजपा ने बिहार में मोदी को आगे रख चुनाव क्यों लड़ा? क्या इससे पार्टी के प्रदर्शन पर प्रतिकूल असर पड़ा है?

बिहार में केवल मोदी जी ने ही चुनाव प्रचार नहीं किया. पार्टी के बहुत से लोगों ने प्रचार किया. हमारे राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने भी जोर-शोर से चुनाव प्रचार किया था. बिहार चुनाव हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण था. सिर्फ बिहार ही नहीं बल्कि हर राज्य का चुनाव हमारे लिए महत्वपूर्ण है. चुनाव में हम हमेशा अपने सबसे बेहतर नेताओं को आगे रखते हैं और बिहार में भी हमने यही किया. हमारे राज्य या राष्ट्रीय स्तर के जो भी नेता वहां प्रचार के लिए गए, उन सभी ने बिहार के विकास और बेहतर भविष्य की बात की. हमने चुनाव को गंभीरता से लिया और हम गंभीरता से लड़े भी. चुनाव किसी एक व्यक्ति पर आधारित नहीं था न ही किसी एक व्यक्ति को आगे किया गया. हर किसी ने चुनाव प्रचार में योगदान दिया. हमने अपने सबसे बेहतर नेताओं को आगे रखा और दूसरे लोगों ने भी ऐसा ही किया. जहां तक उल्टा असर पड़ने की बात है तो इसका जवाब ‘नहीं’ है. जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि चुनाव किसी एक मुद्दे या किसी एक चेहरे को आगे करके नहीं लड़ा गया. अगर कोई हारता है तो ऐसा किसी एक कारण से नहीं हो सकता. इसके लिए कई कारण जिम्मेदार होते हैं. मेरा आपसे यह सवाल है कि बिहार में हम 25 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 55 सीटें कैसे जीते? बिहार में हमें सबसे ज्यादा वोट मिले हैं. इसके लिए भी अनेक कारण जिम्मेदार हैं, जिसमें प्रधानमंत्री की लोकप्रियता भी शामिल है जो आज की तारीख में भी ज्यों की त्यों बनी हुई है. मैं फिर कहूंगा कि बिहार चुनाव में हमारी हार के लिए बहुत से कारण जिम्मेदार हैं, केवल कोई एक कारण या चेहरा जिम्मेदार नहीं है.

लालकृष्ण आडवाणी, यशवंत सिन्हा, मुरली मनोहर जोशी और शांता कुमार जैसे वरिष्ठ सदस्यों द्वारा बिहार चुनाव में पार्टी के प्रदर्शन की आलोचना के बारे में क्या कहना है?  

ये सब बीते समय की बातें हो गई हैं. खुद आडवाणी जी ने यह कहा है कि ‘अब पार्टी में नई ऊर्जा है’ जीत और हार दोनों ही मौकों पर लोग अपने दिल की बात को विभिन्न तरह से व्यक्त करते हैं. हम भाजपा में हैं और यह एक लोकतांत्रिक पार्टी है. हमने सभी तरह के विचारों और आलोचनाओं पर गौर किया है और पार्टी की कार्यप्रणाली की समीक्षा और विश्लेषण में इनसे मदद ली है.

क्या बिहार चुनाव परिणाम का असर असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और केरल में होने वाले विधानसभा चुनावों पर भी पड़ेगा?

हर चुनाव अलग तरह का होता है. असम चुनाव अलग तरह का होगा क्योंकि वह अलग तरह का राज्य है. हम पूरी कोशिश कर रहे हैं. बिहार से हमें जो भी सीखना था, हम सीख चुके. असम अलग तरह का राज्य है और वहां हमें अलग तरह से पेश आना होगा. हम यह सुनिश्चित करेंगे कि बिहार चुनाव परिणामों का असर असम विधानसभा चुनाव पर न पड़े और असम चुनाव अच्छे परिणाम लेकर आए. पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी के विधानसभा चुनावों में भी पार्टी अपना बेहतरीन प्रदर्शन करने की कोशिश करेगी.

क्या इन राज्यों में होने वाले चुनाव में पार्टी किसी नई रणनीति के साथ लड़ेगी?

रणनीति पर कभी मीडिया से चर्चा नहीं की जाती, लेकिन मैं आपसे इतना कह सकता हूं कि असम के लिए हम अलग रणनीति तैयार कर चुके हैं. बीते तीन महीनों से हम असम के लिए तैयार की गई रणनीति के तहत काम भी कर रहे हैं. असम में हमें सकारात्मक परिणाम मिलेंगे और हम जरूर जीतेंगे क्योंकि हमें असमिया समाज के सभी वर्गों का समर्थन मिल रहा है. असम का समाज बहुलवादी है जहां विभिन्न वर्गों के लोग रहते हैं और हमें इन सभी वर्गों का समर्थन मिल रहा है. 

क्या पार्टी इस बार चुनाव से पहले मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की घोषणा करेगी?

सही वक्त आने पर हम फैसला लेंगे. दिल्ली में हमने मुख्यमंत्री उम्मीदवार की घोषणा की थी, लेकिन हम हार गए. बिहार में हमने मुख्यमंत्री उम्मीदवार की घोषणा नहीं की फिर भी हम हार गए. हर राज्य अलग है. असम के बारे में हम मीडिया को बहुत जल्द सूचित करेंगे. वक्त आने पर हम अपनी योजना का खुलासा करेंगे.

‘अगर केवल पीआर के बल पर कोई चुनाव जीतना संभव हो पाता तो कांग्रेस चुनाव कभी नहीं हारती. पीआर के अलावा अन्य कारक भी महत्वपूर्ण होते हैं’

पार्टी के खिलाफ सांसद शत्रुघ्न सिन्हा के बयानों पर क्या कहना है?

हमें अपने नेताओं की मीडिया द्वारा बनाई गई छवि पर कुछ नहीं कहना. कुछ मसले ऐसे हैं जिन्हें हमारा शीर्ष नेतृत्व बेहतर तरीके से संभालता है.

क्या आपको लगता है कि प्रशांत किशोर ने महागठबंधन की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई? चुनाव परिणाम प्रभावित करने में पीआर की कितनी भूमिका है?

अगर केवल पीआर के बल पर कोई चुनाव जीतना संभव हो पाता तो कांग्रेस कभी चुनाव नहीं हारती. पीआर के अलावा अन्य कारक भी महत्वपूर्ण होते हैं. कई बार पीआर हार का कारण भी बन सकता है.

क्या आपको लगता है कि टिकट बंटवारा भी बिहार चुनाव में एक मसला था?

नहीं. बड़े स्तर पर देखने पर टिकट बंटवारे का कोई मामला नहीं था.

आमिर खान के असहिष्णुता संबंधी बयान के बारे में क्या कहना है?

देखिए, आदर्श स्थिति तो यह होगी कि मैं कुछ भी न कहूं. हर किसी को अपने तरीके से सोचने की स्वतंत्रता है. लेकिन दो चीजें हैं- पहला, उन्हें इस मसले पर अपनी पत्नी किरन को बीच में नहीं घसीटना चाहिए था. दूसरा, जो कुछ उन्होंने कहा अगर वह सच भी है, तो जैसे आमिर आॅटोरिक्शा वालों को देश के सम्मान के लिए अच्छा व्यवहार करने की सीख देते हैं, उन्हें अपनी पत्नी को भी वैसी ही सीख देनी चाहिए थी.

मरते तालाब, मुश्किल में जीवन

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सभी फोटो : अमरजीत सिंह

विकासशील देशों की कतार से निकलकर विकसित देशों में शामिल होने की बेताबी के बीच तालाब, नदी और पहाड़ जैसे प्राकृतिक संसाधनों के लापरवाह दोहन की दुहाई देने के कोई मायने नहीं रह गए हैं. ऐसा कहने की वजह ये है कि भारत सहित दुनियाभर में एक के बाद एक आने वाली आपदाओं ने प्रकृति के साथ हमारी लापरवाही और उसके घातक परिणामों को लगातार रेखांकित किया है. पर्यावरणविद और ‘आज भी खरे हैं तालाब’ के लेखक अनुपम मिश्र कहते हैं, ‘चेन्नई जैसी प्राकृतिक आपदा कहीं भी आ सकती है. इस शहर में सैकड़ों की तादाद में मौजूद तालाबों को बहुत पहले ही खत्म कर दिया गया. नदी के बहने के रास्ते पर भी कब्जा कर लिया गया है. अब इंद्र महाराज को नहीं पता कि आपने धरती के साथ कैसा सुलूक किया है, वे तो अपने नियमों के हिसाब से बरसते हैं. बीते जमाने के लोग इन नियमों को समझते थे. इसलिए उस दौर में बारिश के पानी को जमा करने के लिए बड़ी संख्या में तालाब बनाए गए. कोई दुख आन पड़ा तो तालाब बनवाए, कोई खुशी हुई तो तालाब खुदवाए गए. लेकिन पिछले 200 सालों में नई तरह की पढ़ाई पढ़ने वाले लोगों ने इन चीजों को गया बीता माना और पानी की समस्या को नए तरीके से सुलझाने का वादा भी किया, लेकिन इसका कोई बेहतर नतीजा सामने निकलकर नहीं आया. कितने ही शहरों के नलों में पानी न आना इस दावे और वादे पर सबसे मुखर टिप्पणी है.’ अनुपम मिश्र ध्यान दिलाते हैं कि 2013 के मानसून में दिल्ली के इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट के टर्मिनल 3 पर घुटनों तक पानी भर गया था. असल में इस एयरपोर्ट को तालाबों की जमीन पर बनाया गया है. अब जब तालाब पर ही एयरपोर्ट तान दिया जाएगा तो वहां पानी भरना स्वाभाविक है.

पर्यावरण पर काम करने वाले एनजीओ ‘नेचुरल हैरिटेज फर्स्ट’ के संयोजक दीवान सिंह यह बात बिल्कुल सहज ढंग से बताते हैं कि व्यस्ततम बाजारों, सड़कों, अपार्टमेंट और अपनी चमक से मुग्ध कर देने वाले मॉल्स की दिल्ली में 90 के दशक तक तकरीबन 1,000 तालाब थे. यह बात शायद आपको चौंका सकती है, लेकिन इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि दिल्ली सरकार की आधिकारिक सूची में वर्ष 2000 तक केवल 177 तालाब (जिनमें गांवों के जोहड़, दलदल और बावड़ियां भी शामिल हैं) दर्ज थे. दिल्ली के पर्यावरण और स्वच्छ जल से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता विनोद कुमार जैन की ओर से दिल्ली हाई कोर्ट में दाखिल की गईं कई जनहित याचिकाओं के बाद मई 2001 में संयुक्त सर्वेक्षण समिति का गठन किया गया ताकि दिल्ली में तालाबों की वास्तविक संख्या की जानकारी मिल सके.

दिल्ली सरकार की ‘पार्क एंड गार्डन सोसाइटी’ के अनुसार, वर्तमान में दिल्ली में 629 तालाब हैं, लेकिन असल में इनमें से अधिकांश खराब हाल में हैं. ये सूखे हैं और इन पर अवैध कब्जे किए जा चुके हैं. खुद दिल्ली सरकार के आंकड़ों के अनुसार 180 तालाबों पर अतिक्रमण किया जा चुका है. जिनमें से 70 तालाबों पर आंशिक रूप से तो 110 तालाबों पर पूरी तरह अवैध कब्जा हो चुका है. इन आंकड़ों के अलावा कितनी ही जगहों पर सीवेज और कूड़े के निपटान की सही व्यवस्था न होने का खामियाजा भी ये तालाब ही भुगत रहे हैं.

गैर सरकारी संस्था ‘फोरम फॉर ऑर्गनाइज्ड रिसोर्स कंजर्वेशन एंड एनहांसमेंट’ (फोर्स) के एक अध्ययन के अनुसार, दिल्ली की अधिकांश पुनर्वास कॉलोनियां तालाबों पर या उनके आसपास बनाई गई हैं. जो कॉलोनियां तालाबों के आसपास बनाई गई हैं वहां के रहवासियों ने धीरे-धीरे तालाबों पर भी कब्जा कर लिया क्योंकि महानगरीय जीवन शैली में उन्हें तालाबों की जरूरत महसूस नहीं हुई और वे उनके पर्यावरणीय महत्व से अनजान थे. दूसरी ओर द्वारका के पास स्थित अमराही गांव के निवासी महावीर बताते हैं, ‘विकास के लिए सरकार द्वारा गांवों की जमीन अधिग्रहित कर लिए जाने के कारण दिल्ली के गांवों से खेती-किसानी लगभग खत्म हो गई है. इस वजह से सिंचाई और पशुओं को पीने का पानी मुहैया कराने की जरूरत भी खत्म हो गई. ऐसे में तालाब जैसे पारंपरिक जलस्रोत की प्रासंगिकता भी गांववालों के जीवन में नहीं रही इसलिए गांवों में भी तालाबों पर अवैध कब्जे के उदाहरणों की कमी नहीं.’ अमराही में ही 11 बीघे का तालाब अब 4 से 5 बीघे में सिमट कर रह गया है. इस तालाब के अधिकांश हिस्सों पर गांववालों का कब्जा है और तालाब अब पूरी तरह से सूख गया है. आम जनता तालाबों के दूरगामी महत्व को नहीं समझ सकी, यह बात समझ में आती है लेकिन स्थिति तब और भी दुर्भाग्यपूर्ण हो गई जब नीति नियंताओं और प्रशासनिक एजेंसियों ने भी तालाबों की जमीन को पाटकर उस पर निर्माण कार्य जारी रखा. कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, दक्षिणी दिल्ली के शेख सराय डीडीए अपार्टमेंट तालाब की जमीन पर ही बना है. इसके अलावा फोर्स संस्था के अनुसार, दक्षिण पश्चिम दिल्ली के वसंत कुंज का सी-6 पाॅकेट भी तालाब की जमीन पर बसा है. कड़कड़डूमा झील को पार्क में तब्दील कर दिया गया है. इसी प्रकार 86 तालाबों पर पार्क बना दिया गया है.

वर्ष 2000 के बाद से लगभग हर साल हाई कोर्ट के निर्देश के बावजूद प्रशासन ने तालाबों की देखरेख और सूख गए तालाबों के पुनरुत्थान के प्रति जरूरी सजगता नहीं दिखाई. 2004 में दिल्ली हाई कोर्ट ने तीन सदस्यीय निगरानी समिति का गठन किया ताकि तालाबों के पुनरुत्थान संबंधी गतिविधियों पर नजर रखी जा सके. निगरानी समिति के सदस्य अधिवक्ता अरविंद शाह का कहना है, ‘प्रशासनिक एजेंसियां खुद ही सूखे तालाबों पर निर्माण कार्यों के लिए लगातार मंजूरी दे रही हैं. उदाहरण के लिए यमुना किनारे के चिल्ला सरोदा तालाब की जमीन पर डीडीए ने ‘बापू नेचर केयर हॉस्पिटल एंड गांधी स्मारक निधि योग आश्रम’ के निर्माण को मंजूरी दे दी है. दरअसल तालाब प्रशासनिक एजेंसियों की प्राथमिकता में ही नहीं हैं.’ पार्क एंड गार्डन सोसाइटी की ओर से जारी आंकड़ों पर नजर डालें तो पाते हैं कि 86 सूख चुके तालाबों के पुनरुत्थान की जगह उन पर पार्क बनवा दिए गए हैं. दीवान सिंह कहते हैं, ‘पार्कों का निर्माण और देखभाल काफी महंगा है, फिर भी इसका निर्माण कराया गया. दूसरी ओर तालाबों की भूमिका को पार्कों से किसी भी तरह प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता. तालाब भू-जलस्तर को कायम रखते हैं, तापमान को नियंत्रित रखते हैं और जैव विविधता को बनाए रखकर शहर को पर्यावरण के लिहाज से जीवंत बनाते हैं. यह सही है कि आज जीवनशैली बदल जाने के कारण रोजमर्रा के जीवन में तालाबों की भूमिका पहले जैसी नहीं है, लेकिन जल संग्रहण से पर्यावरणीय संतुलन के लिए तालाबों की प्रासंगिकता पहले से कहीं ज्यादा अब बढ़ चुकी है’

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बावड़ियों का मिटता नामोनिशान

दिल्ली में 13वीं से 18वीं शताब्दी के बीच विभिन्न शासकों द्वारा बनवाई गईं बावड़ियां उस समय के महत्वपूर्ण जलस्रोत होने के साथ-साथ वास्तुकला के बेहतरीन उदाहरण भी हैं. आदित्य अवस्थी की किताब ‘नीली दिल्ली प्यासी दिल्ली’ में लगभग दो दर्जन बावड़ियों के बारे में बताया गया है. हजार वर्ष से भी पुराने इतिहास वाले दिल्ली शहर में हो सकता है बावड़ियों की संख्या इससे कहीं ज्यादा रही हो. पुरानी दिल्ली में खारी बावड़ी नामक थोक बाजार का नाम बावड़ी के नाम पर ही है लेकिन आज इस बावड़ी का कोई निशान हमें नहीं मिलता.

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हिंदी फिल्मों में शूटिंग स्पॉट के तौर पर कनॉट प्लेस के हेली रोड स्थित अग्रसेन की बावड़ी काफी लोकप्रिय हो गई है लेकिन चारों और ऊंची इमारतों की गहरी नींव ने इस बावड़ी के आंतरिक चैनलों को बंद कर दिया है. वर्तमान में ज्यादातर बावड़ियों का पानी सूख चुका है क्योंकि बावड़ियों को भरने वाले पानी के आतंरिक चैनल शहरीकरण की भेंट चढ़ चुके हैं. मेहरौली स्थित गंधक की बावड़ी दिल्ली की सबसे पुरानी बावड़ी है. लालकिला, पुराना किला, फिरोजशाह कोटला, तुगलकाबाद जैसे सभी प्रमुख किलों में बावड़ियां हैं. महरौली सहित दक्षिणी दिल्ली में दर्जनभर बावड़ियां स्थित हैं. लेखक, फिल्मकार और सफदर हाशमी मेमोरियल ट्रस्ट के संस्थापक सदस्यों में से एक सोहेल हाशमी बताते हैं, ‘दिल्ली की कुछ बावड़ियां यमुना नदी के पानी पर निर्भर थीं लेकिन अधिकांश बावड़ियां प्राकृतिक झीलों, तालाबों और पोखरों पर निर्भर थीं.’ अनुपम मिश्र का कहना है कि दिल्ली के तालाबों को जीवित करने से ही उन बावड़ियों के जीवित होने की भी संभावना है जिनके आंतरिक चैनल अभी सीमेंटीकरण से बचे हुए हैं.  

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सरकारी एजेंसियां तालाबों को संरक्षित करने के लिए आमतौर पर तालाब के किनारों को सीमेंटीकृत कर रही हैं. पर्यावरणविद इस तरीके पर भी सवाल उठा रहे हैं. दरअसल तालाब के जीवित रहने की जरूरी शर्त उसके आसपास कैचमेंट एरिया का होना है. कैचमेंट एरिया तालाब के पास 40-50 मीटर तक का खाली स्थान होता है जहां से बहकर पानी तालाब तक पहुंचता है. विनोद जैन कहते हैं, ‘डीडीए जैसी संस्थाएं तालाबों को बचाने के लिए जिस नीति पर काम कर रही हैं वह खतरनाक है. तालाबों और झीलों के किनारे पार्क बनाने से वे सूख रहे हैं. वसंत कुंज के पास मसूदपुर गांव का तालाब इसका उदाहरण है जिसके किनारे पार्क बनाने के बाद वह सूख गया. तालाब के किनारे पर पक्का निर्माण करने से भी तालाब सूख रहे हैं.’

एक बड़ी समस्या यह है कि दिल्ली के इन तालाबों का भूस्वामित्व डीडीए, एमसीडी और राजस्व विभाग जैसी विभिन्न प्रशासनिक एजेंसियों के अधीन है. इसलिए इन पर निगरानी का काम कठिन होता है. 2011 में दिल्ली सरकार द्वारा बंगलुरु वाटर बॉडी अथॉरिटी की तर्ज पर दिल्ली वाटर बॉडी अथॉरिटी के गठन का फैसला लिया गया था. हालांकि चार साल बीतने के बावजूद इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाया गया है. जहां सरकारी एजेंसियां अपनी नाकामी का ठीकरा स्थानीय लोगों की उदासीनता पर भी फोड़ती रही हैं, वहीं द्वारका इलाके के नागरिकों की सक्रियता का उदाहरण दूसरी ही तस्वीर पेश करता है. 2012 में द्वारका सेक्टर 23 के नजदीक स्थित गांव पोचनपुर के कुछ जागरूक नागरिकों ने पहल करके डीडीए के स्वामित्व वाले 200 साल पुराने तालाब के पुनरुत्थान के लिए प्रयास किया. इसमें डीडीए ने भी सहयोग किया, लेकिन अगले वर्ष डीडीए के एक दूसरे अधिकारी की नियुक्ति के साथ ही तालाब की इस जमीन को पाटने का काम शुरू हो गया. अपनी मेहनत पर यूं मिट्टी पड़ती देख स्थानीय नागरिकों ने तत्कालीन उपराज्यपाल से शिकायत की. 2013 में उपराज्यपाल ने स्थानीय नागरिकों के नेतृत्व में तालाब समिति का गठन किया. समिति की सक्रियता के फलस्वरूप इलाके के दो गांवों पोचनपुर और अमराही के कुल तीन तालाबों को पुनर्जीवित किया गया. दिल्ली विश्वविद्यालय के जंतु विज्ञान विभाग के डॉ. शशांक शेखर के नेतृत्व में किए गए अध्ययन में इस इलाके में भू-जलस्तर में पहले की अपेक्षा उल्लेखनीय सुधार आया है.

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दक्षिण पश्चिमी दिल्ली के गांव अमराही में कैचमेंट एरिया पर अवैध कब्जे के चलते सूख चुका तालाब

दीवान सिंह का कहना है कि द्वारका इलाके के कुल 30 तालाबों को पुनर्जीवित करने का काम महीने भर में हो सकता है. तालाबों की देखभाल, खुदाई और उनमें से गाद निकालने का काम हर साल नियमित मानसून से पहले किए जाने की जरूरत होती है, लेकिन स्थानीय निवासियों के पास तालाबों का स्वामित्व नहीं है, न ही किसी प्रकार के अधिकार. इतना ही नहीं अपनी सक्रियता के कारण उन्हें सरकारी एजेंसियों की बदसलूकी का शिकार भी होना पड़ता है. दीवान सिंह बताते हैं, ‘जब शिकायती आवेदनों से बात नहीं बनी तो तालाब पर काम करने की अनुमति के लिए वे तत्कालीन डीडीए इंजीनियर अभय कुमार के दफ्तर गए जहां से उन्हें धक्के देकर निकलवा दिया गया.’ यह उदाहरण तालाबों को लेकर स्थानीय निवासियों की उदासीनता नहीं बल्कि सरकारी एजेंसियों की समझ और मंशा पर गंभीर सवाल खड़े करता है, लेकिन सरकारी मशीनरी जवाबदेही के लिए तैयार नहीं. ‘तहलका’ ने हाईकोर्ट द्वारा गठित निगरानी समिति के प्रमुख दिल्ली के मुख्य सचिव से लगातार संपर्क साधने की कोशिश की लेकिन उनसे बात नहीं हो सकी.

हाल ही में हाईकोर्ट ने दिल्ली की आबोहवा पर चिंता जाहिर करते हुए शहर को ‘गैस चेंबर’ कहा है. दिल्ली की यूं ही गैस चेंबर बन जाना अचानक नहीं हुआ. प्राकृतिक संसाधनों की अनदेखी करते हुए विकास के सीमेंटीकृत और मोटरीकृत मॉडल को आंख मूंदकर अपनाने के नतीजे महानगरों में घातक रूप से सामने आ रहे हैं. इस सबके बावजूद नागरिक और सरकारी अमले सामूहिक रूप से नहीं चेते तो निश्चित ही हम किसी बड़ी आपदा का इंतजार कर रहे हैं. अनुपम मिश्र के शब्दों में कहा जाए तो ‘हमें प्रकृति की चिंता करने की जरूरत नहीं, वह अपनी चिंता आप कर लेगी. आप प्रकृति का कुछ नहीं बिगाड़ सकते लेकिन आप खुद की चिंता कीजिए, आप खुद को बिगड़ने से बचाइए.’

कोका कोला की प्यास से बंजर होता बनारस

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राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का सपना था कि गांव का शासन गांव से चले. गांव के लोग खुद ही यह तय करें कि उनका विकास किस तरह से किया जाए. इसी राह पर चलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी की 18 ग्राम पंचायतों ने इलाके में स्थित विश्व की दिग्गज पेय पदार्थ निर्माता कंपनी कोका कोला के मेहदीगंज प्लांट को बंद करने की मांग की है. इन पंचायतों के प्रमुखों का कहना है कि कोका कोला संयंत्र द्वारा पानी की अत्यधिक खपत के चलते इलाके में पानी का स्तर काफी नीचे चला गया है और स्थानीय लोगों को पानी की किल्लत का सामना करना पड़ रहा है. ये सारी 18 ग्राम पंचायतें कोका कोला प्लांट के पांच किमी. के दायरे में आती हैं.

इस विषय में उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (यूपीपीसीबी) को पत्र लिखकर कोका कोला संयंत्र के भूजल दोहन पर रोक लगाने की मांग करने वालों में स्थानीय विधायक महेंद्र सिंह पटेल भी शामिल हैं. इस पत्र में कहा गया है कि जब मेहदीगंज कोका कोला संयंत्र की स्थापना 1999 में हुई थी, उस समय इलाके का भूजल स्तर सुरक्षित था. स्थापना के बाद से कोका कोला प्रतिवर्ष 50 हजार घन मीटर भूजल का दोहन कर रही है. 2009 में केंद्रीय भूजल प्राधिकरण ने पानी की भीषण किल्लत को देखते हुए वाराणसी के आराजी लाइन ब्लॉक को अधिक दोहित (ओवर एक्सप्लाॅयटेड) घोषित कर दिया है. मेहदीगंज इसी ब्लॉक के अंतर्गत आता है. ग्राम प्रतिनिधियों को कोका कोला द्वारा इतनी मात्रा में भूजल का दोहन करना स्वीकार्य नहीं है.

प्यासे लोग – बर्बाद खेती

विकास की राह किस तरह कभी-कभी बर्बादी की ओर ले जाती है इसका नजारा आप वाराणसी जंक्शन से करीब 25 किमी. दूर मेहदीगंज इलाके में देख सकते हैं. इसकी शुरुआत 90 के दशक में हुई जब इलाके के किसानों और ग्राम पंचायतों ने खुशी-खुशी अपनी जमीनें पारले एग्रो समूह को प्लांट लगाने के लिए दी थीं, जिसे बाद में कोका कोला ने खरीद लिया और मेहदीगंज में 1999-2000 के आसपास बॉटलिंग प्लांट लगाया. प्लांट लगाते समय कंपनी के अधिकारियों ने आश्वासन दिया कि कोला कोला बहुराष्ट्रीय कंपनी है और वह इलाके की तस्वीर बदल देगी. लोगों को रोजगार मिलेगा और बड़ी संख्या में लोग लाभान्वित होंगे. हालांकि ऐसा नहीं हुआ. प्लांट लगने के साथ गांववालों का कंपनी से विवादों का सिलसिला शुरू हो गया था. शुरुआत जमीन विवाद से हुई. कंपनी के ऊपर आरोप लगा कि उसने ग्राम सभा की जमीन हथिया ली. मामला अदालत में पहुंचा और इस पर कंपनी को हाईकोर्ट से स्टे आॅर्डर मिला हुआ है. कंपनी का काम शुरू हुआ. कोल्ड ड्रिंक बनने के दौरान भारी मात्रा में प्रदूषित पानी भी निकलता है. कंपनी ने प्रदूषित पानी को गांव वालों के खेतों में डालना शुरू कर दिया.

‘इलाके का हाल बहुत बुरा है. यहां आपको पीने के पानी के लिए हैंडपंप लगाने पर पाबंदी है. खेती के लिए ट्यूबवेल लगाने के लिए भी आपको प्रशासन से अनुमति लेनी होगी’

गांव के किसानों को लगा कि यह पानी उनके खेतों के लिए फायदेमंद है तो उन्होंने कोई आपत्ति नहीं जताई लेकिन जल्द ही उनका ये भ्रम दूर हो गया. इस पानी के चलते पैदावार पर बुरा असर पड़ा. वहीं गांव के तालाबों और बावड़ियों का पानी भी प्रदूषित हो गया. 2003 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने मेहदीगंज प्लांट से निकलने वाले पानी की जांच में पाया कि उसमें सीसा, कैडमियम और क्रोमियम की मात्रा निर्धारित मानकों से कहीं अधिक है. उस समय कृषि वैज्ञानिकों ने भी बताया कि पानी में कैडमियम की ज्यादा मात्रा होने से फसलें खराब हुईं और उत्पादन प्रभावित हुआ. जब यह बात गांववालों की समझ में आई तो उन्होंने इसका विरोध किया. विरोध बढ़ता देख कंपनी ने किसानों के खेतों में पानी डालना छोड़ दिया. इसी तरह प्लांट से निकलने वाले कचरे को भी कंपनी किसानों को उनकी फसलों के लिए उपयोगी बताकर खेतों में निरंतर डालती रही. पर इसने भी किसानों की फसलों को बर्बाद किया. कंपनी द्वारा कचरे का सही तरीके से निस्तारण करने को लेकर भी किसानों को आंदोलन करना पड़ा. एक बार तो इस कचरे को ट्रैक्टर पर लादकर किसान वाराणसी स्थित स्थानीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आफिस भी पहुंच गए.

पानी पर खींचातानी

2009 में केंद्रीय भूजल बोर्ड (सीजीसीबी) ने अपनी रिपोर्ट में बताया कि वाराणसी के आराजी लाइन ब्लॉक का भूजल स्तर बहुत ही नीचे पहुंच गया है इसलिए भूजल का दोहन तत्काल बंद कर देना चाहिए. इसके तुरंत बाद प्रशासन ने वहां स्थानीय लोगों व किसानों के भूजल दोहन पर पाबंदी लगा दी. अब आलम यह है कि नए हैंडपंप लगाने, कुआं खोदने और ट्यूबवेल लगाने से पहले प्रशासन की अनुमति लेनी पड़ती है. पर ये नियम-कानून किसानों और आमजन के लिए है, कोका कोला को इससे फर्क नहीं पड़ता. कोका कोला ने वर्ष 2012-13 में अपनी दोहन क्षमता का विस्तार करने की अर्जी दी. कंपनी को प्रतिवर्ष 50,000 घन मीटर पानी हर साल निकालने की अनुमति तो मिली ही थी, जिसे वह चार गुना बढ़ाकर 2,00,000 घन मीटर पानी प्रतिवर्ष करना चाहती थी. इस मांग का पंचायतों और स्थानीय लोगों ने कड़ा विरोध किया. एक बड़ा आंदोलन चला, जिसके चलते कोका कोला को यह अनुमति नहीं मिली.

जब पानी के संकट का मामला लगातार उठाया जाने लगा तो कंपनी ने ‘रेन वाटर हारवेस्टिंग’ की बात कही और उसने कहा कि वह जल संरक्षण करके प्लांट को वाटर पॉजिटिव बनाएगी यानी जितने पानी का दोहन करेगी उतने का संरक्षण भी करेगी. बाद में उसने प्लांट को वाटर पॉजिटिव भी घोषित कर दिया. हालांकि लगातार विरोध जारी रहने के बाद 6 जून 2014 को यूपीपीसीबी ने इस संयंत्र को बंद करने का आदेश दे दिया. यूपीपीसीबी ने कहा था कि कोका कोला ने कम पानी वाले क्षेत्रों में भूमिगत जल की निगरानी व नियमन करने वाली सरकारी एजेंसी केंद्रीय भूजल प्राधिकरण (सीजीडब्लूए) से जरूरी मंजूरी नहीं ली थी. कोका कोला ने इसके खिलाफ नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) में अपील की, जहां से कंपनी को संयंत्र का परिचालन फिर से शुरू करने की अनुमति मिल गई.

लोक समिति संस्था से जुड़े और कोका कोला प्लांट के खिलाफ आंदोलन करने वाले नंदलाल मास्टर कहते हैं, ‘इलाके का हाल बहुत बुरा है. यहां आपको पीने के पानी के लिए हैंडपंप लगाने पर पाबंदी है. जीने के लिए आपको अन्न उपजाना होगा, लेकिन खेती के लिए ट्यूबवेल लगाने के लिए आपको प्रशासन से अनुमति लेनी होगी. अब किसान को अनुमति की जरूरत है पर कोका कोला को पानी निकालने की छूट मिल जाती है.’

 बंजर जमीन पर भारी बाजार

यूपीपीसीबी को भेजे गए पत्र में जन प्रतिनिधियों का कहना है कि भूजल संकट का सभी पर असर पड़ रहा है. नंदलाल मास्टर भी कहते हैं, ‘गांव के लोग पीने के लिए साफ पानी की मांग को लेकर जन प्रतिनिधियों के पास जाते हैं, लेकिन नए हैंडपंप लगाने या कुएं की खुदाई पर रोक लगी होने के कारण जनप्रतिनिधि भी लाचार हैं. ऐसे में उनके सामने भूजल संकट के लिए जिम्मेदार कोका कोला प्लांट को वापस भेजने का ही विकल्प बचता है’.

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ग्राम पंचायतों का समर्थन कर रहे कैलिफोर्निया स्थित इंडियन रिसोर्स सेंटर के अमित श्रीवास्तव ने कहा, ‘ग्राम प्रधानों की शिकायत से साफ है कि कोका कोला कंपनी मेहदीगंज के लिए समस्याएं पैदा कर रही है. कोका कोला को अब यहां से लौट जाना चाहिए. मेहदीगंज खेती योग्य इलाका है और यहां लोग अपनी जरूरतों के लिए भूमिगत जल पर ही निर्भर हैं. सिंचाई, मवेशियों के लिए, पीने और बाकी कामों के लिए भूमिगत जल ही उनका सहारा है. जबकि कोका कोला इसी पानी का उपयोग अपने उत्पाद यानी मुनाफा कमाने के लिए करती है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोका कोला कंपनी पानी का प्रयोग जिम्मेदारी से करने का दावा करती है लेकिन भारत में उसकी असलियत कुछ और ही है. यहां कंपनी अनुचित रूप से भूजल का दोहन कर रही है. जिसके चलते स्थानीय लोगों को पानी की कमी झेलनी पड़ रही है. साथ ही वे प्रदूषित पानी के साथ जिंदगी बसर करने को मजबूर हैं. इस इलाके की खेती पूरी तरह से बर्बाद हो रही है. जलस्तर नीचे जाने से किसानों के ट्यूबवेल से पर्याप्त पानी नहीं आता है. हर किसान के पास इतना पैसा नहीं है कि वह अपनी पानी की बोरिंग को नीचे तक ले जा पाए. इसलिए फसलें सूख जा रही हैं.’

हालांकि अमित श्रीवास्तव सीजीडब्लूए द्वारा भूजल इस्तेमाल को लेकर 16 नवंबर 2015 को लाई गई गाइडलाइन से खासे उत्साहित हैं. इसके तहत अधिक दोहित इलाके में भूमिगत जल का इस्तेमाल कर रहे संयंत्रों को अब सीजीडब्लूए की मंजूरी लेनी होगी. पहले सिर्फ उन्हें क्षमता विस्तार करने के लिए मंजूरी की जरूरत पड़ती थी. उनका कहना है कि इस गाइडलाइन से उनके आंदोलन को मदद मिलेगी.

 परेशानी का सबब बना प्लांट

स्थानीय निवासी दीपक चौबे का कहना है, ‘जब से कोका कोला कंपनी आई है तब से जलस्तर बहुत नीचे चला गया है. जो पानी पीने के लिए मिलता है वह भी बहुत गंदा है.’ ऐसा ही मानना ग्रामसभा देउरा के प्रधान राजेश वर्मा का है. वह कहते हैं, ‘कोका कोला प्लांट ने इतना पानी निकाल लिया है कि जलस्तर काफी नीचे चला गया है. गांव के लोग पानी की समस्या को लेकर हमारे पास आते हैं, तो हमारे सामने भी कोई विकल्प नहीं होता है. नए हैंडपंप और ट्यूबवेल के लिए आपको अनुमति लेनी पड़ती है, पुरानों से पानी नहीं आ रहा है. कुल मिलाकर हालात बद से बदतर हैं.’

कोका कोला एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहती है कि भले ही इन गांवों के तालाब, कुएं और हैंडपंप सूख चुके हैं लेकिन इस बात के सबूत नहीं मिले हैं कि इसके लिए उनका संयंत्र जिम्मेदार है

इसी तरह नागेपुर के प्रधान मुकेश कुमार ने बताया, ‘इलाके के ज्यादातर गांवों में पानी की व्यवस्था का बुरा हाल है. 2005 के करीब जब मैं पहली बार प्रधान बना तो हाल खराब होना शुरू हो गया था. शुरुआत में हमारी समझ में नहीं आया, लेकिन धीरे-धीरे पता चला कि इसके पीछे कोका कोला प्लांट है. स्थिति ज्यादा खराब तब हो गई जब 2009 में हमारे इलाके को ओवर एक्सप्लाॅयटेड घोषित कर दिया गया. इसके बाद सारे ग्राम पंचायतों के प्रमुखों ने मिलकर इसका विरोध करना शुरू किया. कंपनी ने जब अपने संयंत्र का विस्तार करने के लिए आवेदन किया तो हम सारे प्रधानों ने भी सभी विभागों को पत्र लिखा, जिसके बाद संयंत्र तो बंद नहीं हुआ, लेकिन विस्तार रुक गया. यह हमारी बड़ी जीत थी. अब हमने फिर से पत्र लिखकर इस प्लांट को बंद करवाने की मांग की है.’

 प्रशासन को परवाह नहीं

ग्राम प्रधानों ने मामले को लेकर उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, जल संसाधन मंत्रालय, केंद्रीय भूजल प्राधिकरण, केंद्रीय भूजल बोर्ड, पर्यावरण एवं वन मंत्रालय, ग्राम विकास मंत्रालय, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, वाराणसी के सांसद नरेंद्र मोदी और वाराणसी के जिलाधिकारी को पत्र लिखे हैं. 15 नवंबर को लिखे इस पत्र का महीने भर बाद भी कहीं से जवाब नहीं आया है और न ही किसी तरह की कार्रवाई की बात मीडिया के जरिये सामने आई है. जब इस मामले पर वाराणसी के जिलाधिकारी राजमणि यादव से बात की गई तो उन्होंने बताया, ‘पर्यावरण और भूगर्भ जल संरक्षण विभाग से इस मामले पर रिपोर्ट मांगी गई है. उनका जवाब आने के बाद नियमानुसार कदम उठाए जाएंगे.’ उन्होंने कहा, ‘ग्राम प्रधानों की शिकायत हमें डाक के जरिये मिली थी, इसलिए मामले को लेकर उठाए गए कदमों से प्रधानों को अवगत नहीं कराया गया है.’

वहीं नंदलाल मास्टर कहते हैं, ‘यह आंदोलन काफी लंबे समय से चल रहा है. जब भी किसी राजनीतिक पार्टी के नेता विपक्ष में होते हैं, तब वे हमारे समर्थन में होते हैं, हमारे साथ प्रदर्शन करते हैं, लेकिन जैसे ही उनकी सरकार आती है, उन्हें हमारी परेशानी दिखनी बंद हो जाती है. बॉटलिंग प्लांट को लेकर साल 2004 से 2009 तक लगातार आंदोलन भी होते रहे. इसमें मैग्सेसे पुरस्कार विजेता संदीप पांडेय और समाज सेवी मेधा पाटकर जैसे लोगों ने भी भाग लिया था. कई विधायकों ने हमारे साथ प्रदर्शन किया है, लेकिन यह प्लांट आज भी चल रहा है.’

 कंपनी का आरोपों से इंकार

ग्राम प्रधानों द्वारा जलस्तर नीचे जाने को लेकर कोका कोला संयंत्र को जिम्मेदार ठहराए जाने से कंपनी साफ इंकार करती है. कंपनी केंद्रीय भूजल बोर्ड द्वारा वर्ष 2012 में हुए एक अध्ययन का हवाला देते हुए कहती है कि भले ही इन गांवों के तालाब, कुएं और हैंडपंप सूख चुके हैं, लेकिन इस बात के सबूत कहीं नहीं मिले हैं कि इसके लिए मेहदीगंज स्थित संयंत्र जिम्मेदार है. रिपोर्ट के हवाले से कोका कोला कंपनी कहती है कि संयंत्र आराजी लाइन ब्लॉक के भूमिगत जल का सिर्फ 0.06 प्रतिशत ही इस्तेमाल करता है, जबकि खेती के लिए 85.5 प्रतिशत जल का इस्तेमाल होता है. कंपनी का कहना है कि वह भूमिगत जल की कमी से खुद भी चिंतित है और जलस्तर ऊपर उठाने के लिए कई गैर सरकारी संगठनों के साथ काम भी कर रही है. भूमिगत जलस्तर घटने के चलते ही कंपनी ने अपने विस्तार की योजना को भी रद्द कर दिया है.

एएसआई इसका स्मारक भूल गया

लाल पानी पर लगाम

Photo by - Sonu Kishan.
फोटोः सोनू किशन

करीब दो साल पहले की बात है. लालू प्रसाद यादव ‘तहलका’ से बातचीत कर रहे थे. इस दौरान शराब पर बात होने लगती है. लालू कहते हैं, ‘देखिए नीतीश को, उसका लोग शराबबंदी की बात को हवा में उड़ाता है. गरीबों का ‘लाल पानी’ बंद करवा देगा. बताइए गरीबों का लाल पानी बंद होगा तो उसका असर पड़ेगा न ! गरीबों को लाल पानी जरूर चाहिए. शराब की चेकिंग हो, उस पर नियंत्रण हो लेकिन उसकी बंदी तो कभी नहीं होने देंगे. बंद ही करना हो तो अमीरों का लाल पानी बंद होना चाहिए या उनके लिए शराब महंगी हो जानी चाहिए.’

लालू प्रसाद से हुई इस बातचीत से दो बातें साफ होती हैं. एक यह कि लालू प्रसाद यादव पूर्णतः शराबबंदी और उसमें भी देसी शराब की बंदी के पक्ष में कभी नहीं रहे. दूसरी बात यह कि नीतीश कुमार की यह बेचैनी बहुत दिनों से थी कि वे शराबबंदी कर दें. सत्ता संभालने के ठीक छठे दिन 26 नवंबर को मद्य निषेध दिवस पर आयोजित कार्यक्रम में नीतीश कुमार ने यह घोषणा भी कर दी.

नीतीश कुमार के दस वर्षों के कार्यकाल में हर गांव में या पंचायत स्तर पर शराब की दुकान खुलवाने वाला काम ही ऐसा रहा, जिससे न सिर्फ उनकी बदनामी होती रही बल्कि उसका नुकसान राज्य को भी उठाना पड़ा. घरेलू कलह से लेकर सामाजिक तनाव तक बढ़ा. इसका नुकसान सबसे ज्यादा उन महिलाओं को ही उठाना पड़ा, जो नीतीश की वोट बैंक मानी जाती रही हैं. स्थिति यह हुई कि नीतीश कुमार ने लड़कियों को साइकिल देकर और पंचायत चुनाव में आरक्षण देकर महिलाओं के बीच जो पैठ बनाई थी, वह भी दांव पर लगती गई. कई इलाकों में प्रायोजित तौर पर ही सही, ऐसी रैलियां भी निकलने लगी थीं, जिसमें लड़कियां हाथों में तख्तियां लेकर यह कहतीं कि ‘नीतीश अंकल आप अपनी साइकिल वापस ले लीजिए लेकिन शराब की दुकान बंद करवा दीजिए.’ बच्चियों के इस अभियान को तो फिर भी राजनीतिक तौर पर प्रायोजित अभियान माना गया लेकिन पिछले एक साल में राज्य में जिस तरह से अलग-अलग हिस्सों में महिलाओं ने शराब के खिलाफ छोटे-छोटे समूहों में मोर्चा संभाला था और शराबबंदी की कोशिश में लगी हुई थीं, उसके बाद नीतीश कुमार या किसी की भी सरकार आने पर कोई रास्ता नहीं बचता था. ऐसे में शराबबंदी की घोषणा करना ही एकमात्र विकल्प बच गया था.

महिलाओं ने राज्य में शराबबंदी के खिलाफ किस तरह से कमान संभाली, उसकी बानगी बिहार चुनाव के दौरान भी देखने को मिली थी. रोहतास जिले में महिलाओं ने शराबबंदी के लिए नोटा का प्रचार शुरू कर दिया था. पांच सितंबर को एक बड़ी खबर छपरा के शोभेपुर गांव से आई कि वहां शराबबंदी के लिए समूह में पहुंचीं महिलाओं ने शराब के अड्डों पर धावा बोला, अड्डे को ध्वस्त किया और कारोबारी देखते ही रह गए. ऐसी ही खबरें पटना से सटे मनेर हल्दी, छपरा, सादिकपुर, शेरपुर, छितनावां जैसे गांवों से आई थीं कि वहां महिलाओं ने शराब के अड्डों को ध्वस्त करना शुरू कर दिया है. बरबीघा जैसे इलाके से तो यहां तक खबर आई कि महिलाओं ने समूह बनाकर पीनेवाले और पिलानेवाले, दोनों पर भारी जुर्माना और सार्वजनिक तौर पर डंडे से पिटाई जैसे दंड की व्यवस्था की न सिर्फ घोषणा की थी बल्कि उस पर अमल भी किया.

बिहार में पहली बार पूर्ण शराबबंदी की घोषणा 1977-78 में हुई थी लेकिन यह कारगर नहीं हो सकी थी. कुछ लोगों का मानना है कि इस बार भी यही होगा

शराबबंदी के इन तमाम अभियानों में एक बात समान रही कि ये बिना किसी राजनीतिक दल के सहयोग के महिलाओं ने खुद ही चलाए. नीतीश कुमार यह बात बहुत पहले से जान गए थे कि अगर  शराबबंदी नहीं की गई तो उन्हें राजनीतिक तौर पर इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी. इसलिए नीतीश ने चुनाव से पहले जुलाई में ही महिलाओं के एक कार्यक्रम में कह दिया था कि अगर उनकी सरकार आई तो वे शराबबंदी करेंगे. जानकार मानते हैं कि नीतीश के उसी आश्वासन का असर था कि महिलाओं ने फिर से उनके पक्ष में वोट किया. सरकार बनते ही शराबबंदी के फैसले का एेलान करने के पीछे भी कारण यह बताया जा रहा है कि नीतीश किसी भी कीमत पर महिला वोट बैंक को कहीं और नहीं जाने देना चाहते.

हालांकि इस ऐलान के बाद से ही कई सवाल खड़े हो गए हैं. पहला सवाल तो यही उठाया जा रहा है कि खुद नीतीश कुमार के ही कार्यकाल में शराब गांव-गांव तक व्यवस्थित रूप में पहुंची है तो क्या शराबबंदी कर देने से वर्षों की लगी हुई लत अचानक खत्म हो जाएगी या फिर शराबखोरी दूसरे रूप में देखने को मिलेगी.

अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की रामपरी देवी कहती हैं, ‘सिर्फ सरकारी स्तर पर शराबबंदी का मामला नहीं है. हमारा आंदोलन तब तक जारी रहेगा, जब तक गांव-गांव में अवैध शराब की बिक्री बंद नहीं हो जाती है.’ रामपरी जैसी महिलाएं जानती हैं कि शराबबंदी के महज ऐलान कर देने से कुछ नहीं होने वाला उसका स्वरूप बदलेगा और उसका प्रकोप भी, क्योंकि चुलाई वाली शराब (महुवे से बनने वाली खतरनाक देसी शराब) से स्थितियां और बदतर होगी. लोजपा नेता व सांसद चिराग पासवान भी इसी बात को दोहराते हैं. चिराग कहते हैं, ‘नीतीश कुमार की इस घोषणा का स्वागत है लेकिन उनके ही राजकाज में शराब गांव-गांव तक पहुंची है. ऐसे में वे अपने इस फैसले को लागू कैसे करवाएंगे, यह देखना होगा.’ हालांकि भाजपा नेता गिरिराज सिंह जैसे लोग इस फैसले के बारे में दूसरे किस्म की बात करते हैं. गिरिराज कहते हैं, ‘नीतीश कुमार के इस फैसले का लागू होना इस बात पर निर्भर करेगा कि इसमें लालू प्रसाद यादव की कितनी सहमति है. अगर लालू की सहमति है तो बेहतर होता कि यह ऐलान नीतीश कुमार उनसे ही करवाते.’

गिरिराज जैसे नेता जानते हैं कि लालू यादव इतनी आसानी से सरेआम शराबबंदी का ऐलान नहीं करने वाले हैं. बिहार में शराब का सीधा रिश्ता वोट से है. चुनाव के वक्त शराब बांटे जाने के मामले तो होते ही हैं. देसी शराब की बंदी से एक बड़ा समूह है जो बिदक सकता है. जबकि दूसरी ओर नीतीश जानते हैं कि शराबबंदी के ऐलान से उन्हें देर-सबेर राजनीतिक तौर पर भी फायदा होगा. महिलाओं को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने जितने काम किए हैं और जिस वजह से महिलाएं राजनीतिक तौर पर उनकी मुरीद हुई हैं, उसमें बस शराब ही एक ऐसा पेंच रहा है, जिसके कारण वे नीतीश से अलग हो सकती थीं.

खैर यह तो राजनीतिक दांव-पेंच है. दूसरा सवाल राजस्व का खड़ा हुआ है. बिहार एक ऐसा राज्य है, जहां राजस्व का दूसरा सबसे बड़ा स्रोत शराब ही रहा है. 2012 से अब तक देखें तो हर साल शराब से राजस्व में लगातार बढ़ोतरी होती रही है. वित्तीय वर्ष 2012-13 में जहां शराब से 2,600 करोड़  रुपये राजस्व प्राप्ति हुई थी, वह 2013-14 में बढ़कर 3,100 करोड़ रुपये हुई, उसके अगले साल 3,250 करोड़ और फिर 2015-16 में अब तक बढ़कर 4,000 करोड़ रुपये तक पहुंच चुकी है. शराब से बिहार में प्राप्त होने वाले राजस्व का एक गणित यह भी है कि इससे उत्पाद विभाग के अलावा वाणिज्य कर विभाग भी राजस्व वसूलता है.

इस आधार पर देखें तो चालू वित्तीय वर्ष में यह 5,300 करोड़ रुपये तक पहुंच जाने का अनुमान है. इससे अधिक राजस्व बिहार को सिर्फ वाणिज्य कर से मिल रहा है, जिससे वित्त वर्ष 2014-15 में 21,375 करोड़ रुपये की प्राप्ति हुई.

अगर बिहार जैसे राज्य के आर्थिक हित को ध्यान में रखकर देखें तो यह एक बड़े नुकसान की ओर संकेत देता है लेकिन इसको भी झेलने को तैयार होकर शराबबंदी की घोषणा करना नीतीश कुमार के राजनीतिक व्यक्तित्व को और बड़े रूप में स्थापित करने वाला फैसला साबित होगा, इसकी उम्मीद की जा रही है. नीतीश कुमार खुद कहते हैं, ‘उन्हें मालूम है कि शराब से करोड़ों के राजस्व की प्राप्ति होती है. यह राजस्व इसलिए भी बढ़ा है क्योंकि हमने उत्पाद एवं मद्य निषेध विभाग में राजस्व की चोरी रोकने का उपाय किया. इसी वजह से यह पांच सालों में एक हजार करोड़ से बढ़कर चार हजार करोड़ रुपये तक पहुंचा.’ नीतीश कुमार के मुताबिक राजस्व की इस क्षति को वह दूसरे तरीके से प्राप्त करने की कोशिश करेंगे लेकिन महिलाओं के हित को ध्यान में रखकर इस फैसले को जरूर लागू करेंगे. नीतीश कुमार जितने दृढ़ संकल्प के साथ इस बात को दोहरा रहे हैं, उससे यह भरोसा मिलता है कि बिहार में अप्रैल से शराबबंदी लागू होगी. हालांकि कुछ लोगों को आशंका है कि इसका भी 1977-78 वाला ही हाल होगा. बिहार में पहली बार पूर्णतः शराबबंदी की घोषणा 1977-78 में हुई थी लेकिन वह कारगर साबित नहीं हो सकी थी. फिलहाल शराबबंदी की घोषणा के बाद बिहार में 4,939 शराब दुकानों की ओर रोज देखा जा रहा है और उन्हें कहा जा रहा है कि आपके दिन जाने वाले हैं. दूसरी ओर कई जगह से यह सूचनाएं भी मिल रही हैं कि शराबबंदी की घोषणा के बाद शराब के कारोबारी तेजी से शिक्षा के धंधे में आने की तैयारी में हैं. वे स्कूल और कॉलेज आदि खोलने में लग गए हैं.

मंच पर लंपट

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इन दिनों देश और धर्म के लिए मुचैटा लेने वालों की भरमार हो गई है. यह वैसा बोलना नहीं है जैसा किसी लोकतांत्रिक समाज में होता है. यह गालियों और धमकियों से लदी भाषा है जो अपने से इतर नजरिया रखने वाले को थप्पड़ मारने के लिए मचल रही है. असहिष्णुता (जो एक नाकाफी शब्द है) के प्रश्न पर सबसे संयमित प्रतिक्रियाएं सोशल मीडिया पर देखने में आ रही हैं क्योंकि वहां सब कुछ ‘ऑन रिकॉर्ड’ है जिसके कारण कार्रवाई का वास्तविकता को छूता काल्पनिक खटका लगा रहता है. सड़कों और गलियों में परिदृश्य खौफनाक है क्योंकि वहां सब कुछ एक नितांत भिन्न शक्ति संतुलन से संचालित होता है जो कानून की पकड़ में नहीं आ पाता. अगर आ भी जाए तो कोई फर्क नहीं पड़ने वाला क्योंकि भारी भरकम मानक शब्दों के पीछे छिपे कानून बनाने और लागू करने वाले वही सड़क वाला ही खेल खेलने लगते हैं. इसे इस कदर साधा जा चुका है कि कानून भीतर से ताकतवरों के पक्ष में बदल चुका है जबकि बाहर से कमजोरों को न्याय का न्योता देता हुआ आकर्षक बना हुआ है.

उदाहरण के लिए मोहल्ले की पान की दुकान पर कोई देश के बनैले होते माहौल पर चिंता जताता है या गाय से पहले अपनी मां का ख्याल रखने पर जोर देता है तो जवाब में उसे हाथ-पैर तोड़ने की धमकी दी जाती है या पाकिस्तान चले जाने को कहा जाता है. वह अपमानित आदमी थाने जाकर एफआईआर दर्ज कराना चाहता है तभी धमकाने वाला गिरोह ठहाकों के बीच कहता है… आप भी हंसी मजाक की बात में थाना-पुलिस ले आए, क्या पुलिस हिंदू नहीं है और न भी हो तो क्या उखाड़ लेगी. क्या यह काफी सहिष्णुता नहीं है कि अब भी आपका मुंह पान खाने लायक बचा हुआ है?

इस लचीलेपन के साथ गालियों और धमकियों का घेरा हर दिन उस आदमी के गिर्द और कसता जाता है. यह लचीलापन लंपटता की खास पहचान है जो इन दिनों देशभक्ति के बहाने कोई पुराना हिसाब बराबर कर लेना चाहती है. धार्मिक और जातीय घृणा को पोसने वाला कोई भाजपाई मंत्री या सांसद जब किसी कानूनी फंसान वाले अपने बयान को मीडिया द्वारा तोड़-मरोड़ कर पेश किया जाना बताता है तब भी इस लचक को उसकी आंखों में कंपकंपाता देखा जा सकता है. हाल के दिनों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा पांचजन्य को अपना मुखपत्र मानने से इंकार लंपटता का एक यादगार नमूना है.

लंपटता कांग्रेस के राज में भी भरपूर थी जिसके सर्वोच्च प्रतीक संजय गांधी बन कर उभरे. प्रधानमंत्री के बेटे के पास देश के विकास के लिए बीस सूत्री कार्यक्रम था और विरोधियों को ठिकाने लगाने के लिए लंपटों की फौज, जो उसके खानदान की बिरूदावली गाकर सत्ता से शक्ति और कानून से संरक्षण पाती थी. तब से इस मिलिशिया का निरंतर नवीनीकरण और विस्तार होता गया जिसका इस्तेमाल हर किस्म के दंगे प्रायोजित करने के लिए किया जाता रहा है. अब सत्ता की पार्टी भाजपा एक आदमी का चारणगान करते हुए पूछ रही है चौरासी में सिखों के संहार के वक्त सहिष्णुता कहां थी. खुद को न्यायसंगत ठहराने के लिए यही उसका सबसे ढीठ तर्क है जैसे कि मतदाताओं ने 2014 में मोदी को जनादेश उससे बड़े नरसंहार प्रायोजित करने और अपने से भिन्न विचार रखने वालों को ठिकाने लगाने के लिए ही दिया था.

कांग्रेस ने लंपटों को बढ़ावा अपने सामंती तासीर वाले राजनीतिक वर्चस्व और भ्रष्टाचार को अबाध जारी रखने के लिए दिया था लेकिन भाजपा ने कहीं अधिक खतरनाक खेल शुरू कर दिया है. अब निम्न मध्यवर्ग और दरिद्र तबके के युवाओं का अपराधीकरण देश और हिंदू धर्म की रक्षा के नाम पर किया जा रहा है जिसके लिए कच्चा माल उनके दिमागों में पहले से गश्त करते धार्मिक अंधविश्वासों, रूढ़ियों, कुरीतियों और मनगढ़ंत कहानियों के रूप में विपुल मात्रा में मौजूद है. बेरोजगारी की हताशा और हर तरह की संकीर्णता (खासतौर से विपरीत सेक्स से दूरी) के कारण पैदा हुई कुंठाओं के कारण वे हिंसा के जरिए खुद को साबित करने का मौका खोजते ही रहते हैं और अपराध की ओर मुड़ना उनके लिए सबसे सहज है. सत्ता से संरक्षण पाए भाजपा के सहयोगी तमाम तथाकथित हिंदू नामधारी संगठनों ने हीनता और कुंठा को अपने राजनीतिक स्वार्थ से जोड़ दिया है जिसका नतीजा ‘विधर्मियों’ को सबक सिखाने और विरोधियों पर हिंदू आतंक कायम करने के रूप में सामने आ रहा है.

लंपटों को पालने का एक और फायदा भी है जिसके कारण वे सभी प्रमुख राजनीतिक पार्टियों को भाने लगे हैं. पहले विचारधारा में थोड़ा बहुत प्रशिक्षित कार्यकर्ता हुआ करते थे जो नेतृत्व की गलतियों पर टोकते थे, विरोध करने की हद तक जा सकते थे लेकिन लंपटों की एकमात्र विचारधारा अवसरवाद होती है. वे सवाल नहीं उठाते सिर्फ हुक्म की तामील करते हैं.