ताकि सांप भी छिपा रहे, लाठी भी बची रहे

क्या 2जी स्पेक्ट्रम के घपले और नोएडा एक्सटेंशन के जमीन विवाद में कोई समानता है?  फिलहाल दोनों अखबारों की सुर्खियों में हैं.  यह न्यूनतम समानता भी कल को किसी दूसरी तथाकथित बड़ी और सनसनीखेज खबर द्वारा विस्थापित कर दी जाएगी. लेकिन 24 घंटे खबरें बनाने वाली और हर समय कुछ नया खोजने की कोशिश में पुराने को भूल जाने वाली इस नयी पत्रकारिता के दौर में लगातार बढ़ रहे सामूहिक स्मृतिलोप के बीच भी यह भूलना मुश्किल है कि दूरसंचार क्रांति और अबाध शहरीकरण मौजूदा अर्थव्यवस्था के वे दो पहिये हैं जिन पर उदारीकरण के बाद का हिंदुस्तान जैसे सरपट दौड़ रहा है. 2जी स्पेक्ट्रम इस दूरसंचार क्रांति की संतान है तो नोएडा एक्सटेंशन शहरीकरण का किलकारी मारता शिशु, जिसके भविष्य के साथ बहुत सारे लोगों ने अपना भविष्य जोड़ रखा है.

यह लाठी को बचाए रखने की कोशिश है और सांप को वह मोहलत और रास्ता देने की, जिसमें वह कुछ दिन के लिए अदृश्य या ओझल हो जाएदरअसल जिस दौर में नयी अर्थव्यवस्था के उच्चभ्रू कामगारों, जो खुद को एग्जिक्यूटिव कहलाना पसंद करते हैं, और किसानों के बीच सबसे ज्यादा दूरी है, उस दौर में इन दोनों को जोड़ने वाली ये दो क्रांतियां कई तरह के विद्रूप रच रही हैं. मोबाइल बेचने वाले अब जमीन और मकान खरीद रहे हैं और जमीन के सहारे गुजारा करने वाले मुआवजे के गुलाबी रैपर में लिपटे अपने कुछ कम तकलीफदेह विस्थापन के साथ तरह-तरह के मोबाइल खरीदने में जुटे हैं.

लेकिन स्पेक्ट्रम और एक्सटेंशन के मौजूदा दोनों विवादों ने इस रफ्तार पर एक लगाम लगा दी है और तरक्की व खुशहाली के तथाकथित सरकारी एजेंडे के सामने एक बड़ा सवाल पैदा कर दिया है. 2जी स्पेक्ट्रम का पूरा मामला बताता है कि किस तरह इस देश के कानूनों का इस्तेमाल एक छोटे से तबके को अकूत लाभ पहुंचाने के लिए किया जा रहा है और सरकार के माथे पर बल भी नहीं पड़ रहे. 2जी स्पेक्ट्रम की बिक्री पर आई सीएजी की रिपोर्ट के मुताबिक दूरसंचार मंत्रालय के फैसलों की वजह से सरकारी खजाने को एक लाख 76 हजार करोड़ का चूना लगा और इस देश के सबसे ताकतवर मंत्रियों में से एक कपिल सिब्बल बताते हैं कि कोई घपला या घाटा हुआ ही नहीं. दूसरे ताकतवर मंत्री पी चिदंबरम बताते हैं कि जिन कंपनियों को लाइसेंस बेचे गए उन्होंने अपनी हिस्सेदारी विदेशी कंपनियों को बेचकर किसी कानून का उल्लंघन नहीं किया. प्रधानमंत्री सफाई देते हैं कि उन्होंने 2जी स्पेक्ट्रम के लाइसेंस बांटे जाने के समय मिल रही शिकायतों पर दूरसंचार मंत्रालय को चिट्ठी लिखी थी और अपने मंत्री की सफाई से संतुष्ट हो गए थे.

मगर सवाल 2जी स्पेक्ट्रम के घपले या घोटाले का नहीं है, इससे जुड़े न्याय का है. यह न्याय सिर्फ इस बात से हासिल नहीं होगा कि कुछ मंत्री या सांसद या अफसर कुछ दिन की जेल काट आएं. इससे न्याय का भ्रम तो पैदा होता है, यह असली सवाल पीछे छूट जाता है कि इन जिम्मेदार लोगों ने जो गलतियां कीं उन्हें कैसे दुरुस्त किया जाए.

दुरुस्त करने का एक ही तरीका है कि तब लिए गए फैसले पलटे जाएं. यानी कम से कम ए राजा के समय जो 122 लाइसेंस बांटे गए थे उन्हें रद्द कर दिया जाए. लेकिन क्या यह संभव है? अगर रातोंरात ये लाइसेंस रद्द कर दिए जाएं तो उस सूचना क्रांति का क्या होगा जिसके कंधों पर बैठकर आज का भारत सिर्फ बातें और बातें कर रहा है, संदेश भेज रहा है, चैटिंग में लगा है और अपने मोबाइल के सहारे दुनिया को मुट्ठी में करने का सपना देख रहा है? महज पिछले दस साल में इस सूचना क्रांति ने भारत में मोबाइल की जो नयी और अबूझ अपरिहार्यता पैदा कर दी है, क्या उसे वापस लौटाना मुमकिन है? जाहिर है, किसी भी न्यायालय को, किसी भी सरकार को ऐसा बड़ा और साहसिक फैसला करने के पहले बहुत ताकत जुटानी होगी या फिर कोई ऐसा रास्ता खोजना होगा जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे.

2जी स्पेक्ट्रम और जमीन अधिग्रहण मामले में एक समानता यह भी है कि अपरिहार्यता के तर्क से इंसाफ को रोकने की कोशिश हो रही है

लेकिन क्या ऐसा कोई रास्ता संभव है? और क्या वाकई हमारी व्यवस्था सांप को मारना चाहती है या उसकी दिलचस्पी सिर्फ अपनी लाठी को बचाने में है? दरअसल अभी जो कुछ हो रहा है वह लाठी को ही बचाए रखने की कोशिश है और सांप को वह मोहलत और रास्ता देने की, जिसमें वह कुछ दिन के लिए अदृश्य या ओझल हो जाए.

लेकिन विकास की इस सांप-सीढ़ी में सांप एक नहीं, कई हैं. ये मोबाइल क्रांति की आस्तीन में ही नहीं, उन खेतों में भी छिपे बैठे हैं जिन्हें गैरकानूनी ढंग से हथियाकर बिल्डरों के हवाले करते हुए शहरीकरण की नयी परियोजनाओं को आकार देने की कोशिश चल रही है. इस शहरीकरण के नक्शे में ऊंची-ऊंची इमारतें हैं, चमचमाते मॉल हैं और ऐसे एक्सप्रेसवे हैं जिन पर दिल्ली और आगरा के बीच की दूरी दो घंटे में तय की जा सके. किसी को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि यह सांस रोक देने वाला, तेज रफ्तार और चुंधिया देने वाला विकास कानून को रौंदकर, खेतों को पाटकर हासिल किया जा रहा है और पीढ़ियों से खेती कर रहे किसानों को दिहाड़ी के मजदूर में बदला जा रहा है. शहरीकरण की ऐसी ढेर सारी परियोजनाएं पूरे हिंदुस्तान में चल रही हैं और हर जगह कमोबेश इसी प्रक्रिया से- सरकारी धोखाधड़ी से, छल-कपट से और जोर-जबरदस्ती से चल रही हैं.

यह सिर्फ इत्तेफाक नहीं है कि दूरसंचार क्षेत्र में 2जी लाइसेंस लेने में कामयाब कई कंपनियां वही हैं जो रीयल एस्टेट, यानी जमीन के कारोबार में भी लगी हुई हैं. डीबी रियल्टी या यूनीटेक या ऐसी कई दूसरी कंपनियां हैं जिन्हें मालूम है कि इस व्यवस्था को कहां-कहां से दुहा जा सकता है और कौन-कौन इसमें साझेदार या मददगार हो सकते हैं. यानी एक लिहाज से यह चंद ताकतवर लोगों जिसमें औद्योगिक घराने, ठेकेदार, बिल्डर, माफिया और नेता सब शामिल हैं- का ऐसा कार्टेल है जो हर जगह गरीब को लूट रहा है, बेदखल कर रहा है.

शुक्र है कि भारतीय लोकतंत्र की जो बहुपरतीयता है उसमें ऐसे कार्टेल का प्रतिकार करने की थोड़ी-बहुत क्षमता अभी बाकी है. 2जी स्पेक्ट्रम और नोएडा एक्सटेंशन दोनों जगहों पर सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप ने विकास के नाम पर की जा रही इस अंधाधुंध लूटखसोट के सामने एक स्पीड ब्रेकर लगाया है. 2जी स्पेक्ट्रम में मामला अभी लाइसेंस के रद्द होने तक नहीं पहुंचा है, इसलिए बदहवासी का आलम नहीं है, लेकिन नोएडा एक्सटेंशन की जमीन किसानों को वापस करने का फैसला सबके हाथ-पांव फुला रहा है. इसकी वजह यह है कि इस प्रक्रिया में करोड़ों नहीं, अरबों की रकम दांव पर लगी है और अगर इस फैसले पर पूरी तरह अमल हुआ तो कई कंपनियों को अच्छा-खासा घाटा उठाना होगा. अब यह डर दिखाया जा रहा है कि यह फैसला बिल्डिंग उद्योग को जो नुकसान पहुंचाएगा वह विकास की पूरी प्रक्रिया के लिए घातक होगा.

एक स्तर पर यह अंदेशा सच है. इमारत उद्योग एक दोधारी तलवार है. जब वह फूलता-फलता है तो उसके साथ कई उद्योग फूलते-फलते हैं. इस्पात, सीमेंट, लोहे, शीशे सबका कारोबार बढ़ता है और छोटे-बड़े और नये रोजगार की ढेर सारी गुंजाइश पैदा होती है. लेकिन जब वह बैठ जाता है तो जैसे पूरी अर्थव्यवस्था अपाहिज हो जाती है. नोएडा एक्सटेंशन का फैसला इस पूरे इमारत उद्योग को संदिग्ध बना सकता है और अर्थव्यवस्था को एक नए मंदी की तरफ धकेल सकता है.

लेकिन क्या सिर्फ इसीलिए हमें 2जी स्पेक्ट्रम या नोएडा एक्सटेंशन की बेईमानियों को भुला कर सुलह-सफाई का रास्ता खोजना चाहिए? क्या हमें सांप को इसीलिए छोड़ देना चाहिए कि हम अपनी खोखली लाठी बचाए रख सकें? लेकिन ऐसी लाठी बचाकर क्या होगा जिससे सांप मारा भी न जा सके? इन फैसलों को पलटने के खतरे हैं, लेकिन इन्हें बनाए रखना कहीं ज्यादा खतरनाक है क्योंकि इससे खुशहाली का एक मिथ बनता है जो इस असलियत पर हावी हो जाता है कि यह खुशहाली बस चंद लोगों और घरानों की तिजोरियों में सिमट कर रह जा रही है और कहीं ज़्यादा बड़ा संकट- विस्थापन का, बेरोजगारी का, भूख का और अपराध का- समय के गर्भ में छिपा रह जा रहा है. नोएडा एक्सटेंशन में कुछ बढ़ा हुआ मुआवजा देकर किसानों को खुश कर देने की नीति अंततः उनके लिए घातक साबित हो रही है, यह अनुभव बता रहा है. वे कई नये सामाजिक-आर्थिक दबावों के शिकार हैं और उनकी युवा पीढ़ियां अपनी निठल्ली ऐयाशी में कई तरह की कुंठाओं का बोझ लेकर अपराध की गलियों में उतरती दिखाई पड़ती हैं.

दरअसल इंसाफ चाहे जितना भी तकलीफदेह हो, उस तक पहुंचने की कोशिश करनी चाहिए. 2जी स्पेक्ट्रम और जमीन अधिग्रहण मामले में एक समानता यह भी है कि अपरिहार्यता के तर्क से इंसाफ को रोकने की कोशिश हो रही है. 2जी के लाइसेंस रद्द करने से एक बड़ा संकट पैदा होगा या नोएडा एक्सटेंशन के जमीन अधिग्रहण का फैसला पलटने से एक भयानक अराजकता पैदा होगी, यह डर वे लोग दिखा रहे हैं जो इन संकटों के लिए जिम्मेदार हैं. दरअसल यह अपनी खाल बचाने की कोशिश है. हालांकि जो लोग यह कोशिश कर रहे हैं वे सिर्फ दलीलों से नहीं, अपनी बाकी ताकत का इस्तेमाल करके भी यह काम कर रहे हैं. उनके पास पैसा है, पुलिस है, सरकार है- यानी व्यवस्था की पूरी ताकत है. हालांकि उनके विरुद्ध जो लोग खड़े हैं वे भी कोई क्रांतिकारी नहीं हैं- उन्हें भी अपने छोटे-छोटे फायदों की तलाश है. हो सकता है, इनमें से कई समूह कल समझौतों के लिए तैयार और तत्पर दिखें.

लेकिन इससे मूल सवाल खत्म नहीं हो जाता- वह सवाल जिसका वास्ता विकास के असली और ज्यादा मानवीय चेहरे से है, इंसाफ की कहीं ज्यादा जायज और तीखी लड़ाई से है और इस समझ से है कि हमारी मौजूदा व्यवस्था में कुछ है जो सड़ांध का शिकार है जिसे बदले जाने की जरूरत है.  क्या बदलाव की कोई असली लड़ाई ऐसी समझ से पैदा नहीं होती?