काठ के घोड़े हो गए छात्रसंघ

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छात्रसंघों की भूमिका 1942 के बाद से ही सत्ताविरोधी रही है. 1942 और उसके आसपास के वर्षों में युवाओं का मकसद अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंकना था. आजादी के बाद कांग्रेस आई, 67 तक राज्यों में और 77 तक केंद्र में. विपक्ष में जो संगठन थे वे उसी भूमिका में चल रहे थे. 1942 से जो संगठन चले आ रहे थे, वे या तो सोशलिस्ट थे या कम्युनिस्ट. कम्युनिस्ट छात्र संगठनों ने रूस का मॉडल अपनाया था. 1949 में विद्यार्थी परिषद बनी. हालांकि, कैंपस में उसकी गतिविधियां और उसकी पहचान बनी 65 के बाद. खासकर उत्तर प्रदेश में. इसकी भी खास वजह थी. 65 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के नाम से हिंदू शब्द हटाने के लिए विधेयक पेश हुआ, जिसके विरोध में बनारस में आंदोलन उठ खड़ा हुआ. प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री बनारस से ही थे. उन्हें समझ में आ गया कि लेने के देने पड़ सकते हैं और उन्होंने इसे वापस ले लिया. उस आंदोलन ने एबीवीपी को नई जिंदगी दे दी.

उस दौरान तक समाजवादी पार्टी टूटती-बिखरती रहती थी. लोहिया ने अपनी पार्टी बना ली थी. वे खुद विश्वविद्यालय परिसरों में जाते रहते थे. बनारस आंदोलन के बाद वहां से यूथ कांग्रेस गायब हो गई. छात्र समाजवादी, सीपीआई और एबीवीपी की तरफ मुड़ गए. उस दौरान मेरठ से बनारस तक छात्र राजनीति में वर्चस्व एबीवीपी की पहली प्राथमिकता थी. मोटे तौर पर इनका चरित्र सत्ताविरोधी था. इन संगठनों में एक बात कूट-कूट कर भरी थी कि जिन पार्टियों से हम जुड़े हैं, वे सत्ता में आ गईं तो सब कुछ ठीक हो जाएगा. छात्रों को वैसे भी सत्ता का विरोध ज्यादा रास आता है. सत्ता का विरोध इन संगठनों के मूल में था.

उत्तर प्रदेश ने ही सारे उत्तर भारत या कहें कि सारे भारत की राजनीति को विरोध की राजनीति में परिवर्तित किया. लेकिन जैसे ही कांग्रेस-विरोध की राजनीति के तहत जनता पार्टी सरकार बनी, उस राजनीतिक धारणा को धक्का लगा. छात्रों को मोहभंग हुआ. करीब पांच साल तक सत्ताविरोधी राजनीति में एक खालीपन आ गया.

छात्र राजनीति के लिए यह जरूरी है कि छात्रसंघों के चुनाव हों और छात्र चुनकर आएं. छठवें सातवें दशक में नारा सामने आया कि हम कल के नहीं आज के नागरिक हैं, विश्वविद्यालय प्रशासन में हमारा रोल होना चाहिए. इस तरह भागीदारी का नारा सामने आया था. 1972-73 आते-आते गुजरात और बिहार आंदोलन से छात्रसंघ प्रमुखता से आगे आ गए. जेपी यह मानने लगे थे कि मार्क्सवादी क्रांति की जो अवधारणा है कि मजदूर क्रांति करेगा, वह अपने पेशे में परमानेंट होकर मिडिल क्लास में ही तब्दील हो जाता है. फ्रांस और दूसरे देशों में जो छात्र आंदोलन हुए, उनसे यह साबित हुआ कि मार्क्सवाद व्यर्थ हो गया है. अब छात्र राजनीति से ही बदलाव हो सकता है. इस तरह परिवर्तनकारी ताकत के रूप में छात्र आगे आए और विश्वविद्यालयों के छात्रों की निर्णायक भूमिका बनी.

संयुक्त सरकारों और जनता शासन के आने के बाद इस पर पुनर्विचार की जरूरत पड़ी कि अब करें क्या? छात्रसंघ या तो सरकार पर अंकुश लगाने की भूमिका अदा करें या सत्ता को उखाड़ फेंकें. यह दोनों नहीं हुआ. तो युवा वर्ग सोचने लगा कि अब किया क्या जाए? इंदिरा की सत्ता में वापसी के बाद शिक्षा और अर्थव्यवस्था में जो बदलाव हुआ और अभी तक जारी है, इसके कारण विश्वविद्यालय कैंपस अब वह नहीं रह गए जो वह हुआ करते थे. अब कुछ विश्वविद्यालय ही ऐसे बचे हैं जहां पर छात्रसंघ है.

अब समस्या यह है कि छात्रसंघों में एकरूपता नहीं है. एक छात्रसंघ का दूसरे छात्रसंघ से संपर्क नहीं है. आपस में समन्वय न होने के कारण वे प्रभावशाली भूमिका में नहीं हैं. एक परिसर वैसे ही कुछ नहीं कर सकता, जैसे एक चना अकेला भाड़ नहीं फोड़ सकता. छात्र संगठनों की भूमिका भी बदल गई है. अब छात्रसंघ काठ के घोड़े हो गए हैं. जो अरबी घोड़े थे, जिनकी चाल सौ-दो सौ किलोमीटर हुआ करती थी, जो सत्ता को ध्वस्त कर देने का जज्बा रखते थे, अब वे नहीं रह गए. अब छात्रसंघ दिखाऊ हो गए हैं. वे तमाम उन बुराइयों से ग्रस्त हैं जो मुख्यधारा के राजनीतिक दलों में हैं. राजनीतिक दलों से जुड़े छात्र संगठन उन दलों पर ही आश्रित हैं, उन्हीं के निर्देश पर चलते हैं, इसलिए उनकी बुराइयों से ही ग्रस्त हैं. छात्रसंघों में पार्टियों के जैसा ही तिकड़म, पैसा आदि इस्तेमाल होने लगा है.

इन बुराइयों का कारण है छात्र आंदोलनों का न होना और दिशाहीनता. मैं निजी अनुभव से कह सकता हूं कि छात्र आंदोलन का स्वरूप बहती नदी जैसा होता है. नदी अपना रास्ता खुद बना लेती है और उसकी निर्मलता भी बनी रहती है. उसे आप पोखर बना देंगे तो पानी सड़ने लगता है. आंदोलनों के नहीं होने से छात्रसंघ सड़ गए हैं. चूंकि इनकी कोई भूमिका ही नहीं बची तो ये अप्रासंगिक हो गए. एक ताकत के रूप में जो इनकी पहचान थी वह नष्ट हो गई. इनके नष्ट होने का दुष्परिणाम यह हुआ कि जो सुधार हो सकते थे, वे नहीं हुए. जैसे शिक्षा, रोजगार और सामाजिक स्तर पर सुधार में छात्र आंदोलन की अहम भूमिका हो सकती है, लेकिन अब वे उस योग्य नहीं रह गए हैं. सुधारों के लिए जो दबाव समूह चाहिए होता है, वह युवा पीढ़ी पैदा कर सकती है, लेकिन 1975 के बाद वैसे दबाव समूह का कोई उदाहरण नहीं है. हाल में जो दबाव समूह सामने आए वे एनजीओ से निकले या किसी अन्ना या केजरीवाल की ओर से. यहां छात्र नेतृत्वकारी भूमिका में नहीं रहे, वे पिछलग्गू बनकर रह गए. वे नेतृत्वकारी भूमिका में होते तो नया नेतृत्व उभरता. तब केजरीवाल नहीं होते. केजरीवाल एनजीओ से निकले और आंदोलन करके सरकार बना ली. उन्होंने छात्रसंघ भी बना लिया, लेकिन वे उसी काजल की कोठरी में प्रवेश कर गए, जहां बाकी दल पहले से थे. उनका संगठन उस हद तक जा रहा है, जहां पर भाजपा कांग्रेस के संगठन नहीं जा सकते थे.

इसलिए मैं कहता हूं कि छात्रसंघ अब प्रासंगिकता खो चुके हैं. कुछ कारण उनके खुद के पैदा किए हुए हैं, कुछ परिस्थिति के कारण ऐसा हुआ और कुछ वैश्विक प्रभाव में बदले हालात के कारण. जिन मुद्दों पर छात्रसंघ की सक्रियता जरूरी थी, वह अब बची ही नहीं. इसीलिए अब ऐसा कहीं नहीं है कि सुदामा और कृष्ण एकसाथ पढ़ेंगे.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)