Home Blog Page 1289

‘भारत को भारत रहने दीजिए, यह आर्यावर्त नहीं होने वाला’

Mahishasur-DayWEB

कुछ लोग यह सवाल उठा रहे हैं कि महिषासुर के प्रतीक को खड़ा करके हम मिथकीय नायकत्व की परंपरा को खत्म करने के बजाय मिथकीय परंपरा को ही आगे बढ़ाने का काम कर रहे हैं. ब्राह्मणवादी मॉडल खारिज करने के बजाय अपने तरीके का नया ब्राह्मणवादी मॉडल खड़ा कर रहे हैं. ये तो अजीब सवाल उठाए जा रहे हैं, अजीब बात की जा रही है. अगर कोई साहित्य के जरिए वर्चस्ववादी रास्ता अपनाएगा तो उसका मुकाबला वैकल्पिक साहित्य को खड़ा करके ही दिया जा सकता है. अगर कोई आर्थिक आधार पर वर्चस्ववादी परंपरा को बढ़ाएगा तो फिर उसकी काट वैकल्पिक आर्थिक मॉडल में ही होगी. उसी तरह पौराणिकता के आधार पर कोई वर्चस्ववादी रवैया दिखाएगा, उस परंपरा को बढ़ाना चाहेगा तो फिर उसके लिए पुराणों के पन्नों से ही वैकल्पिक नायकों की तलाश करके उनके नायकत्व को उभारना होगा. आज शोर है कि महिषासुर के नायकत्व को उभारकर राष्ट्रद्रोही काम हो रहा है. दुर्गा की बात करेंगे, काली की बात करेंगे तो महिषासुर की बात होगी ही.

महिषासुर की बात करना अजीब लग रहा है, राष्ट्रद्रोही कृत्य लग रहा है लेकिन कोई पूछे कि भारत माता की जय कौन लोग बोलते हैं. भारत माता कैसे हो गई? भारत का नाम तो शकुंतला और दुष्यंत के पुत्र भरत के नाम पर पड़ा था. एक राजकुमार के नाम पर जिस देश का नाम भारत पड़ा, वह भारत माता कब और कैसे बन गया? और भारत माता की तस्वीर तो देखिए. बाघ पर सवार या बाघ के छाले के साथ. इसमें ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं. जो अय्याशी के साथ शिकार करते थे, घरों में छाले लगाते थे, उन्हीं के खुराफाती मगज की उपज रही होगी भारत माता. अब बताइए कि भारत माता जैसा मिथ गढ़कर कौन उसे आगे बढ़ा रहा है. एक समाज नए मिथ गढ़े, पुराने मिथों को पीढ़ी दर पीढ़ी स्थापित करे तो ठीक, लेकिन दूसरा वंचित समुदाय अगर उसके प्रतिकार में वैकल्पिक तौर पर उसी फ्रंट पर जाकर मिथ से ही अपने नायक को निकाल ले, उसके नायकत्व का उभार करे तो बुरा, राष्ट्रद्रोही! यह कैसी बात है?

आज महिषासुर पर जो लोग शोर मचा रहे हैं उन्हें थोड़ी जानकारी इतिहास की भी होनी चाहिए. यह पहली बार नहीं हो रहा. इसमें कोई नयापन नहीं है. महिषासुर के नायकत्व को मानें तो फिर भी महोबा जैसी जगह पर मंदिर है, जिसका संरक्षण भारत सरकार ही वर्षों से कर रही है. महिषासुर प्रसंग को छोडि़ए, इतिहास के पन्ने को जरा पलटकर देखिए, चीजें साफ होंगी, नजरिया बदलेगा.

वाल्मीकि रामायण में एक प्रसंग है. राम कहते हैं कि तुम्हें स्त्रीत्व की परीक्षा देनी होगी. सीता कहती हैं कि स्त्रीत्व तो विवाह के समय ही लड़की पति को सौंप देती है. अब तुम उस स्त्रीत्व या पत्नीत्व की रक्षा नहीं कर पाए तो इसमें मेरा क्या दोष? अब जैसे-जैसे महिलाओं में जागरूकता आएगी इस वाल्मीकि रामायण का संपूर्ण पाठ होगा, इस बिंदु पर भी बात होगी.

1890 के करीब की बात होगी. राष्ट्रीय आंदोलन का दौर था. सभी लोग अपने तरीके से राष्ट्रीय आंदोलन को आगे बढ़ाने की कोशिश में लगे हुए थे. उसी समय  बाल गंगाधर तिलक ने महाराष्ट्र में गणेश महोत्सव की परंपरा की शुरुआत की. फुले उस समय थे. फुले ने तुरंत कहा कि गणेश महोत्सव शुरू हुआ है तो बली राजा महोत्सव भी शुरू किया जाए. ऐसा हमेशा होता रहा है. जैसे-जैसे वंचित तबकों में, दलितों में, महिलाओं में चेतना आएगी, वे अपने हिसाब से प्रतिकार करेंगे या वैकल्पिक तरीके से अपनी परंपरा की शुरुआत करेंगे. राम की बात होगी तो दलितों में चेतना आने पर वे शंबूक को भी जानेंगे ही, शंबुक के व्यक्तित्व पर बात होगी ही. स्त्रियों में चेतना आने पर सीता पर बात होगी ही और फिर यह भी बात होगी कि आखिर क्या कसूर था शंबूक का कि उसके कान में सीसा डाल दिया गया था या कि क्या गलती की थी सीता की, जिसे त्याग दिया गया था. एकतरफा पाठ तो होगा नहीं. अर्जुन की बात करेंगे, अर्जुन को महिमामंडित करेंगे तो एक वर्ग एकलव्य को अपने तरीके से स्थापित करेगा ही. इसलिए यह आरोप न लगाएं कि कोई नई जमात अपने तरीके से चीजों को तोड़-मरोड़कर मिथ की दुनिया को बढ़ा रही है. मिथ को आधार बनाकर वर्षों, पीढि़यों से बात करने वाले दूसरे लोग रहे हैं जो आज भी मिथ के जरिए ही सब कुछ चलाना चाहते हैं लेकिन इसमें भी उनकी शर्त यह है मिथ भी उनका हो, उनके अनुसार हो.

किसी बात की एकांगी व्याख्या क्यों नहीं हो सकती, इसके लिए एक उदाहरण देता हूं. वाल्मीकि रामायण में एक प्रसंग है. राम कहते हैं कि तुम्हें स्त्रीत्व की परीक्षा देनी होगी. सीता कहती हैं कि स्त्रीत्व तो विवाह के समय ही लड़की पति को सौंप देती है. अब तुम उस स्त्रीत्व या पत्नीत्व की रक्षा नहीं कर पाए तो इसमें मेरा क्या दोष? अब जैसे-जैसे महिलाओं में जागरूकता आएगी इस वाल्मीकि रामायण का संपूर्ण पाठ होगा, इस बिंदु पर भी बात होगी. आप छोडि़ए पुराणों की बात. धूमिल जैसे कालजयी कवि को तो जानते ही होंगे. उन्होंने कविता लिखी थी, जिसमें एक पंक्ति थी- ‘जिसकी उठाई पूंछ, वही मादा निकला.’ धूमिल क्रांतिकारी कवि माने जाते थे, प्रगतिशील भी. बहुत दिनों तक इस पंक्ति का इस्तेमाल होता रहा लेकिन जैसे ही स्त्री चेतना का विकास हुआ, स्त्रियों ने सवाल उठाए कि क्या मादा होना गुनाह है. इस पंक्ति का इस्तेमाल बंद हो गया. यह हर कालखंड में होता रहा है. जो चीजें छूट जाती हैं या जिन पर ध्यान नहीं दिया जाता है, उस पर नए सिरे से बात होती ही है. मैथिलीशरण गुप्त ने उर्मिला और यशोधरा पर लिखा क्योंकि इन दो विरली नायिकाओं पर बात ही नहीं हुई थी. रामधारी सिंह दिनकर ने कर्ण पर लिखा.

मैं व्यक्तिगत तौर पर मानता हूं कि महिषासुर महोत्सव या महिषासुर के उभार को स्मृति ईरानी के नजरिये से समझने की जरूरत नहीं. स्मृति ने संसद में जिस तरह से गैर-संसदीय भाषा का इस्तेमाल किया या फिर उन्होंने जो व्यवहार किया, इसे उनके लोगों को ही देखने-समझने की जरूरत है. जो लोग स्मृति के भाषण और व्यवहार पर इतरा रहे हैं, उन्हें यह समझने की जरूरत है कि यह जो भारत है उसे अब आर्यावर्त नहीं बनाया जा सकता. सिर्फ आर्यों का भारत नहीं बनाया जा सकता. यह भारत एक दिन में नहीं बना. यह कई परंपराओं, कई रिवाजों, कई किस्म के नायकों से बना है. रवींद्रनाथ टैगोर जो कहते थे न कि भारत में शक, हूण, आर्य, अनार्य सब एक देह में मिल गए हैं, उस नजरिये से भारत को देखना होगा. महिषासुर पर बात पर बवाल खड़ा करने से नहीं होगा. जो लोग दुर्गा या काली को नायिका मान रहे हैं और महिषासुर को खलनायक, उन्हें यह जानना चाहिए दुर्गा-काली और महिषासुर एक ही समूह के थे. एक ही विरादरी के. काली की जो मशहूर तस्वीर है, जिसमें वे मुंडों की माला पहने हुई हैं और शंकर की देह पर पैर रखकर सवार हैं, जीभ निकाली हुई हैं, वह तस्वीर क्या है? जब काली लगातार असुरों-दैत्यों को मारने लगीं तो शंकर परेशान हो गए, क्योंकि शंकर असुरों-दैत्यों के आराध्य थे. काली के भी आराध्य. इसलिए वे रास्ते में लेट गए. काली उन पर चढ़ गई तो शर्म से, आश्चर्य से उन्होंने जीभ निकाल लिया. दुर्गा-काली के मिथ की पड़ताल करें महिषासुर का विरोध करने वाले, खलनायक बताने वाले मिथकों के आधार पर दुर्गा-काली भी उसी समूह की निकलेंगी.

भारत को इन विवादों से निकलकर आगे की चुनौतियों की ओर ध्यान देना चाहिए. यह नॉलेज सेंट्रिक एरा है, मतलब ज्ञान आधारित युग. जिसके पास ज्ञान होगा, वही आगे बढ़ेगा. भारत को ज्ञान की दुनिया में कदमताल करना चाहिए. भारत अब तक औद्योगिक क्रांति का हिस्सा नहीं बन सका, अपने देश में नहीं करवा सका. उससे चूक गया तो कम से कम इस ज्ञानक्रांति के दौर में नहीं चूके. इसके लिए जरूरी होगा कि जड़ता से निकले. इसे भाजपा और आरएसएस के लोगों को समझना होगा. नित नए मिथ को उभारने, उछालने से काम नहीं होगा. सिर्फ भाजपा-आरएसएस को नहीं, कांग्रेस जिसने सबसे लंबे समय तक देश पर राज किया है, जो आज भी अखिल भारतीय पार्टी है, उसे भी समझना होगा. कांग्रेस आज वैचारिक रूप से दरिद्र हो चुकी पार्टी है. उसे वैचारिकता के धरातल पर आना होगा. और जो सामाजिक न्याय की पार्टियां हैं, उन्हें भी देश के बारे में सोचना होगा. सिर्फ जाति के खोल में सामाजिक न्याय का जो सपना दिखा रही हैं सामाजिक न्याय की पार्टियां, उससे निकलना होगा. सामाजिक न्याय की पार्टियों को भी अपनी भाषा बदलनी होगी. अपने संकीर्ण दायरे से निकल देश को बनाने के बारे में सोचना होगा.    

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

(निराला से बातचीत पर आधारित)

आरक्षण की आग

IMG_0047WEB
सभी फोटो- व‌िजय पांडेय

18 फरवरी, 2016; तूफान से पहले की शांति थी उस दिन हरियाणा में. तूफान, जो पूरे राज्य को अपनी चपेट में लेने वाला था. जिसका केंद्र रोहतक था. यातायात पूरी तरह ठप था, शहर के अंदर-बाहर कुछ-कुछ दूरी पर रास्ते बंद थे. लंबे-लंबे जाम लगे हुए थे. बाजार तो खुले थे पर ग्राहक नहीं थे, सड़कें सूनी थीं. स्कूल-कॉलेजों और कार्यालयों में ताले जड़े थे. परीक्षाएं स्थगित कर दी गई थीं. जाट प्रदर्शनकारी सड़कों और रेलवे लाइनों पर तंबू गाड़े और हाथों में हथियार लिए बैठे हुए थे तो दूसरी तरफ चौक-चौराहों पर पुलिस और अर्धसैनिक बलों के भी हथियारबंद जवान तैनात थे. धारा 144 लगी थी. इस सबने एक दहशत भरी खामोशी को जन्म दे दिया था. मानो सुई के भी फर्श पर गिरने पर उसकी आवाज चंडीगढ़ में बैठे हुक्मरानों की गद्दी हिला सकती थी. लेकिन किसी भी तूफान के आने से पहले उसके अनुकूल परिस्थितियां भी बनती हैं. हरियाणा और उसके वासियों की याद में हमेशा के लिए एक काला अध्याय बनकर बस जाने को तैयार वह तूफान भी कोई अचानक नहीं उठने वाला था. उसकी नींव भी लगभग हफ्ता भर पहले रखी जा चुकी थी.

12 फरवरी की वह सुबह कहने को तो किसी आम सुबह की ही तरह थी लेकिन अपने साथ वह हरियाणा की बर्बादी का पैगाम भी लाई थी. जिस जाट आरक्षण की आग में हरियाणा जल उठा, उसका बीज इसी दिन हिसार में बोया गया था. अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति के बैनर तले हवा सिंह सांगवान ने अपने समर्थकों के साथ हिसार के मय्यड़ गांव में रेलवे ट्रैक बंद कर दिया. सरकार ने बातचीत के प्रयास तेज किए. बातचीत सफल हुई और 14 तारीख को बंद खुल भी गया. लेकिन उसी दिन रोहतक के सांपला में रोहतक, झज्जर और सोनीपत के खाप चौधरियों ने ‘जाट स्वाभिमान’ रैली निकाली जिसमें तय हुआ कि सरकारी आश्वासन के मुताबिक 31 मार्च तक इंतजार करेंगे. लेकिन मंच की तस्वीर तब बदल गई जब वहां मौजूद युवा जाट नेताओं ने खाप मुखिया और दूसरे प्रमुखों के फैसले के खिलाफ बगावत करके मंच पर कब्जा जमा लिया. उनके आह्वान पर रोहतक को दिल्ली से जोड़ने वाले नेशनल हाइवे 10 को जाटों ने बंद कर दिया. दूसरे दिन रोहतक को दिल्ली, झज्जर, सोनीपत और पानीपत से जोड़ने वाली सड़कों और रोहतक-दिल्ली रेलवे ट्रैक को भी बंद कर दिया. 78 ट्रेनें प्रभावित हुईं, 600 ट्रक जाम में फंस गए. स्कूल-कॉलेजों की बसें फंस गईं, बच्चे रोते-बिलखते रहे, एंबुलेंस में मरीज तड़पते रहे, मिन्नतें करते रहे पर बीच रास्ते तंबू गाड़कर बैठे जाट प्रदर्शनकारी बेपरवाह हुक्का पीते रहे. किसी की परीक्षा छूटी तो किसी के घर बारात न पहुंच सकी. किसी का माल ट्रकों में फंसा रह गया तो किसी की फ्लाइट छूट गई. अगले दिन तक रोहतक राज्य से पूरी तरह कट गया. जींद, भिवानी, हिसार सहित मुख्य व वैकल्पिक सभी मार्ग बंद थे. पचास से ज्यादा जगह जाम थे. चार रेलवे ट्रैक ठप थे. पेट्रोल पंप सूख चुके थे. जिस एनएच 10 से रोजाना 20-30 हजार ट्रक गुजरते थे, वहां खड़े ट्रकों में फल, सब्जी, दूध सड़ रहे थे और शहर में खाने-पीने के सामानों के दाम आसमान छू रहे थे. अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति के अलग-अलग गुटों ने भी इस नेतृत्वविहीन आंदोलन को अपना समर्थन दे दिया. मय्यड़ में रेल ट्रैक बंद कर दिया गया. सतगामा खाप ने दिल्ली-दादरी मार्ग बंद करके चेतावनी दी कि अगर राज्य सरकार हमारी मांगों पर गंभीरता नहीं दिखाती तो हम जबरदस्ती मांगें मनवाएंगे.

‘रोहतक हमेशा सौहार्दपूर्ण रहा है. जातीय मतभेद यहां कभी ऐसे नहीं रहे. राजनीतिक स्वार्थवश समाज को तोड़ने के लिए यह बोया गया बीज था’

अगले दिन आंदोलन और ज्यादा व्यापक हो गया. हिसार-चंडीगढ़ का रास्ता भी बंद हो गया. कई दूसरे क्षेत्रों में प्रदर्शन होने लगे. शहर के अंदर भी आंदोलन ने प्रवेश कर लिया. जाट छात्र महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय (एमडीयू) और जाट कॉलेज पर ताला जड़ सामने ही धरने पर बैठ गए. जाट अब तक निहत्थे थे पर अब उनके हाथों में लाठी-डंडे, कुल्हाड़ी जैसे हथियार चमक रहे थे. दहशत ने पैर पसारे तो ऑफिस भी बंद हो गए. जनजीवन तो पहले से ही अस्त-व्यस्त था, लोगों को खाने तक के लाले पड़ रहे थे. सरकार ने खाप प्रतिनिधियों की मीटिंग बुलाई. ईबीसी कोटा बढ़ाने पर सहमति बनी. पर अब तक स्थिति खाप मुखियाओं के हाथों से निकल चुकी थी. आंदोलनकारी युवा जाट बस ओबीसी के तहत आरक्षण की मांग पर अड़े थे. जाट आरक्षण के विरोध में ओबीसी जातियां भी सड़कों पर उतर आईं. स्थिति बिगड़ती देख बीएसएफ, पुलिस के दंगा निरोधक दस्ते और पैरामिलिट्री फोर्स ने मोर्चा संभाला. गनीमत यह थी कि अब तक हिंसा की एक भी घटना सामने नहीं आई थी. जो चल रहा था शांतिपूर्वक चल रहा था. लेकिन 18 तारीख को शांति तब भंग हुई जब जाट और गैर-जाट आमने-सामने आ गए. दोनों के बीच हिंसक झड़प हुई.  तूफान उठ चुका था. बस उसका फैलना बाकी था. कई गाड़ियां फूंक दी गईं. दुकानों में तोड़-फोड़ और लूटपाट की गई.

IMG_9889WEB

जाट आरक्षण की आग पहले ही रोहतक से होकर सोनीपत, पानीपत, हिसार, जींद, भिवानी, रेवाड़ी, झज्जर, फरीदाबाद, करनाल, गुड़गांव, फतेहाबाद, सिरसा सहित प्रदेश के 16 जिलों में फैल गई थी. हर जगह रेलवे ट्रैक, हाइवे और सड़कें जाम कर दी गईं. जाम खुलवाने गए सुरक्षा बलों पर पथराव होने लगा. नतीजतन टकराव के हालात बने. सुरक्षा बलों ने भी बल प्रयोग किया. प्रदर्शनकारियों ने निजी व सरकारी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाना चालू कर दिया. दुकान, घर, अस्पताल, मॉल, स्कूल, कॉलेज, शोरूम, हर जगह तोड़-फोड़ करने के बाद लूटपाट करके उन्हें आग के हवाले कर दिया गया. वाहनों को आग लगा दी गई, पटरियां उखाड़ दी गईं, रेलवे स्टेशन जला दिए गए. एक वाहन शोरूम के मालिक देवराज गोयल बताते हैं, ‘मेरे ही सामने मेरे शोरूम में तोड़-फोड़ की गई. मैं बाहर खड़ा बस देखता रह गया. मदद को फोन लगाया पर कोई मदद नहीं आई. उन्होंने पहले शोरूम तोड़ा, फिर उनमें से कुछ बाइक लूटकर भाग गए. बाद में शोरूम में आग लगा दी.’ 

हिंसा के दौरान चुन-चुनकर गैर-जाटों को निशाना बनाया गया था. दूसरी ओर गैर-जाट भी जाटों के खिलाफ मोर्चा खोले हुए थे. आरक्षण की मांग जातीय हिंसा में बदल गई थी जिसमें आम आदमी भी पिसा. राहगीरों को रोक-रोककर मारपीट और लूटपाट की गई. बाइक सवारों पर ईंट-पत्थरों से हमला किया गया. रोहतक, झज्जर, भिवानी, हिसार सहित कई जिलों में कर्फ्यू लगाना पड़ा. यह अगले सात दिन तक चला. ‘हरित प्रदेश’, ‘लाल प्रदेश’ में तब बदल गया जब प्रदर्शनकारियों द्वारा सुरक्षाबलों पर फायरिंग की गई और जवाबी कार्रवाई में प्रदर्शनकारियों को अपनी जान गंवानी पड़ी. हिंसा के दौरान 30 लोगों की जान गई. 13 झज्जर, आठ सोनीपत, पांच रोहतक, दो जींद, एक-एक कैथल व हिसार में मारे गए. इस दौरान पर्यावरण को भी खूब नुकसान पहुंचाया गया. रास्ते जाम करने के लिए हजारों की संख्या में पेड़ काट दिए गए. नहरों को क्षतिग्रस्त किया गया. जिससे दिल्ली को पानी की सप्लाई बंद हो गई.

‘राजनीति को धर्म नहीं मिला लड़ाने को तो उसने जातीय हिंसा की राह पकड़ ली. यह परंपरा हरियाणा को आगे भी जातीय हिंसा की आग में जलाएगी’

जाट आरक्षण की लड़ाई के हिंसात्मक होने पर सर्वखाप पंचायत मुखिया टेकराम कंडेला कहते हैं, ‘हिंसा फैलाने वाले जाट नहीं थे. सांसद राजकुमार सैनी ने दूसरी जाति वालों को भड़काकर ऐसा करवाया था. हम सालों से आरक्षण की मांग के लिए धरना दे रहे हैं. पर कभी हिंसा का सहारा नहीं लिया. हमें बदनाम किया जा रहा है. मामले की जांच हो और गुनाहगारों की पहचान की जाए.’ रोहतक के एमडीयू में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर रणवीर गुलिया कहते हैं, ‘रोहतक हमेशा सौहार्दपूर्ण रहा है. जातीय मतभेद यहां कभी ऐसे नहीं रहे कि हिंसा में बदल जाएं. राजनीतिक स्वार्थवश समाज को तोड़ने के लिए यह बीज बोया गया था. कभी भी हरियाणा में सैनी-जाट के बीच मतभेद नहीं दिखे. ये सांसद राजकुमार सैनी ने पैदा किए. ‘35 बिरादरी समिति’ की परिकल्पना रचकर एक जाति बनाम 35 जाति का माहौल उन्होंने ही बनाया. यही समिति जातीय हिंसा के केंद्र में रही.’ आम आदमी पार्टी के नेता नवीन जयहिंद का कहना है, ‘अकेले जाटों को दोष नहीं दिया जा सकता, गैर-जाट भी हिंसा में बराबर से शामिल थे और जहां तक लूटपाट की बात है तो जब भी कोई दंगा भड़कता है तो असामाजिक तत्व तो अपने आप ही सक्रिय हो जाते हैं. उन्हें लूटपाट करने के लिए खुला मैदान मिल जाता है. तो अकेले जाटों को दोषी ठहराना भी ठीक नहीं.’

वैसे आंदोलन के हिंसक होने के पीछे इसका नेतृत्वविहीन होना भी एक कारण रहा. जाट संघर्ष समिति और खापों ने आरक्षण का बीज तो जाट युवाओं के मन में बो दिया पर वे जाट युवाओं को संभाल नहीं सके. जाट युवा किसी की बात सुनने को तैयार नहीं थे. आंदोलन में शामिल जाटों के एक दल से बात हुई. उनका कहना था, ‘हम स्वयं आठ-दस गांवों के लोगों ने आकर जाम लगाया है, हमारा खाप या किसी से कुछ लेना-देना नहीं. हर बार खाप नेता अपना उल्लू सीधा कर आंदोलन वापस ले लेते हैं पर इस बार आर-पार की लड़ाई होगी.’ वहीं हिंसा भड़काने में नेता और अधिकारी भी पीछे नहीं रहे. एक एसडीएम का वीडियो सामने आया जहां वे भीड़ को संबोधित कर रही हैं और उसे आंदोलन जारी रखने के लिए भड़का रही हैं. वहीं राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा के पूर्व सलाहकार वीरेंदर सिंह की एक ऑडियो क्लिप सामने आई जिसमें वे एक खाप नेता को हिंसा बढ़ाने की बात कह रहे हैं. वीरेंदर सिंह पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज हो गया है. हालात बद से बदतर हो जाने में पुलिस की भूमिका भी कम नहीं रही. नवीन जयहिंद आंखों देखा हाल बताते हैं, ‘पुलिस और प्रशासन पूरी तरह से नाकाम रहा. रोहतक को खुला छोड़ा था मरने-मारने के लिए. लोग अपनी सुरक्षा खुद कर रहे थे. हाथों में हथियार लिए बैठे थे. कोई उन पर वार करता तो वो पलटकर वार करते. इस दौरान पुलिस कहीं नहीं थी. कई जगह तो पुलिस के सामने ही हिंसा होती रही और वह मूकदर्शक बनी रही. जिस दिन हिंसा की शुरुआत हुई, उसी दिन पुलिस की कार्रवाई सवालों के घेरे में रही. पहले तो दोनों विरोधी गुटों को बार-बार आमने-सामने आने दिया गया. उसके बाद नेकीराम कॉलेज के हॉस्टल में घुसकर छात्रों को पीटा, यहीं से परिस्थितियां बदली थीं.’ पुलिस भी जातीय तौर पर विभाजित हो गई थी, ऐसे भी आरोप पुलिस पर लगे. वहीं एक ऐसा भी वीडियो सामने आया जहां पुलिस का जवान ही लूटपाट करने वाले की पीठ थपथपा रहा है.

‘मेरे ही सामने मेरे शोरूम में तोड़-फोड़ की गई. मैं बाहर खड़ा बस देखता रह गया. मदद को फोन लगाया पर कोई मदद नहीं आई’

चुन-चुनकर निशाना बनाया गया

हिंसा के दौरान चुन-चुनकर एक विशेष जाति को निशाना बनाया गया. झज्जर में बस स्टैंड के पास सैनी समुदाय की पांच दुकानें जलाई गईं. लेकिन बगल की एक दुकान छोड़ दी गई क्योंकि वह जाट की थी. इसी तरह कैथल में भी सैनियों की दुकानों और शोरूमों को निशाना बनाया गया. सैनियों के साथ पंजाबियों को भी निशाना बनाया गया. दूसरी ओर गैर-जाटों ने भी जाटों के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था. भिवानी स्थित बालाजी कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग के मालिक अतुल ने मीडिया को बताया, ‘मैं घर पर था, चौकीदार का फोन आया कि 50-60 लोग कॉलेज के अंदर घुसकर तोड़-फोड़ कर रहे हैं. वो कह रहे हैं कि यह कॉलेज जाट का है, बर्बाद कर दो. वो कॉलेज की बस और शीशे तोड़कर लगभग 25 लाख का नुकसान कर गए.’ यही बात हरियाणा ऑटोमोबाइल एसोसिएशन के अध्यक्ष जगमोहन मित्तल बताते हैं, ‘दंगों के दौरान रोहतक के ऑटोमोबाइल डीलरों को 100 करोड़ रुपये का नुकसान उठाना पड़ा. ज्यादातर एक-दो विशेष जाति वालों के शोरूम निशाने पर रहे.’  जाटों के खिलाफ राजकुमार सैनी की लगातार बयानबाजी के चलते सैनी निशाना बने पर पंजाबी क्यों निशाना बने? नवीन जयहिंद बताते हैं, ‘वकील न्यायालय परिसर में धरने पर बैठे हुए थे. 35 बिरादरी वालों ने उनकी पिटाई कर दी. इससे ये अफवाह फैल गई कि पंजाबियों को जाटों ने मारा. इसके बाद एक और अफवाह फैली कि पंजाबियों ने छोटू राम की प्रतिमा तोड़ दी, बस इन अफवाहों के चलते पंजाबियों से जाटों की ठन गई.

IMG_9960WEB

अमानवीयता की सारी हदें पार

मिंटू नाम के एक शख्स का शव धनीपाल गांव के खेतों में मिला. उसे दो गोलियां लगी थीं. वह गांव अपने रिश्तेदारों से मिलने गया था. गांव में जाटों ने हमला बोल दिया. गोलीबारी की और घर जलाए. झज्जर में जाट प्रदर्शनकारियों ने एक कॉलोनी पर हमला बोल दिया, जिसमें दो लोगों की मौत हो गई और 22 लोग घायल हो गए. वहीं एनएच-1 हाइवे पर प्रदर्शनकारी तबाही के दूत बनकर निकले. जो रास्ते में मिला, उसे जला डाला. होटल, ढाबा, कॉलेज, मालगाड़ी, पुलिस पोस्ट.

एक प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं, ‘दिल्ली-चंडीगढ़ हाइवे पर लगभग 500 गाड़ियां फंसी हुई थीं. पानीपत के पास दो गुरुद्वारों में हमने शरण ले रखी थी. देर रात वहां पुलिस ने आकर बोला कि अब हालात नियंत्रण में हैं, आप जा सकते हैं. जैसे ही यह खबर मिली सब एक साथ अपनी-अपनी गाड़ियां लेकर निकले. सबको जल्दी थी क्योंकि उनमें से अधिकांश को फ्लाइट पकड़नी थी. कई एनआरआई भी थे. हम मुरथल के निकट ही पहुंचे थे कि हमारी गाड़ियों पर पथराव शुरू हो गया. हथियारों से लैस भीड़ सड़क के दोनों ओर से निकलकर बाहर आ गई. लोगों में भगदड़ मच गई. लोग गाड़ियां छोड़कर यहां-वहां भागने लगे. वो लोग भी हमारे पीछे भाग-भागकर हम पर हमला कर रहे थे. उनमें से कई नशे में थे. जो लोग गाड़ियों से बाहर नहीं निकले, उन्हें जबरन बाहर निकालकर पीटा गया.’ मुरथल में ही इंसानियत को शर्मसार करने वाली कई घटनाएं सामने आईं. लोगों का दावा है कि प्रदर्शनकारी वहां महिलाओं को गाड़ियों में से खींच-खींचकर खेतों में ले गए और उनके साथ बलात्कार किया.

मंत्री-सांसदों को भी नहीं छोड़ा

हिंसा की चपेट में आने से पुलिस भी खुद को नहीं रोक सकी. लगभग डेढ़ दर्जन पुलिस चौकियां इस दौरान निशाना बनाई गईं. पुलिस के आला अधिकारियों के घर व ऑफिसों पर भी हमला किया गया. रोहतक में डीएसपी को बंधक बना लिया गया, जिसके बाद पुलिस फायरिंग में एक व्यक्ति की मौत भी हुई. वहीं नेताओं पर भी अनियंत्रित भीड़ का गुस्सा फूटा. राज्य के वित्त मंत्री कैप्टन अभिमन्यु सिंह का घर और अखबार का दफ्तर जला दिया. कांग्रेसी नेता सुभाष बत्रा के दामाद के घर पर भी हमला हुआ. चौटाला परिवार का पेट्रोल पंप भी आग के हवाले कर दिया. कृषि मंत्री ओमप्रकाश धनकड़ का भी घर इस हिंसा की भेंट चढ़ गया. सांसद राजकुमार सैनी के घर भी पथराव और तोड़-फोड़ हुई. वहीं हिसार में पूर्व मंत्री अत्तर सिंह सैनी के भाई को गोली मार दी गई. नवीन जिंदल के कॉलेज को भी नुकसान पहुंचाने की कोशिश प्रदर्शनकारियों ने की. भिवानी-महेंद्रगढ़ सांसद धर्मवीर सिंह का घर भी पूरी तरह जला डाला.

बहरहाल, एसोचेम के अनुसार आंदोलन के पहले सात दिन में ही सरकारी व निजी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाने और ट्रांसपोर्ट व व्यापार के ठप होने से 20 हजार करोड़ रुपये का नुकसान अर्थव्यवस्था को हो चुका था. वहीं रेलवे को भी 300 करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान उठाना पड़ा. 1400 ट्रेनें प्रभावित हुईं और 16 रेलवे स्टेशन जलाए गए. लेकिन नुकसान की स्थिति अब तक साफ नहीं हो सकी है. इसके आकलन के लिए समितियों का गठन किया जा चुका है. लेकिन जिन लोग के घर व दुकानें इस मानव निर्मित आपदा की भेंट चढ़ गए वे मुआवजा पाने के लिए सरकार के खिलाफ सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं.

दूसरी ओर राजनीतिक स्तर पर देखा जाए तो आरोप-प्रत्यारोपों का दौर शुरू हो चुका है. सत्तापक्ष विपक्ष को हिंसा का साजिशकर्ता ठहरा रहा है तो विपक्षी दल इसे सरकार की नाकामी मान रहे हैं. इस सबके बीच हरियाणा सरकार को जो आर्थिक क्षति उठानी पड़ी है उसकी भरपाई करना भी उसके लिए आसान नहीं होगा. आंदोलन और हिंसा के बीच हरियाणा के भविष्य का भी सवाल है कि आगे ये जातीय मतभेद कौन-सी करवट बदलेगा. नवीन जयहिंद कहते हैं, ‘हरियाणा में राजनीति को कोई धर्म नहीं मिला लड़ाने को तो उसने जातीय हिंसा की राह पकड़ ली. यह तो अभी शुरुआत है. ये जो 35 बिरादरी की परंपरा रखी गई है, वो हरियाणा को आगे भी जातीय हिंसा की आग में जलाएगी.’

वाहियात चीजों से अच्छा है, कुछ ऐसा करूं जो एक कलाकार के तौर पर मुझे खुशी दे: मानव कौल

Kaul4WEB
आप जैसे अभिनेता को हम फिल्मों में काफी समय के बाद देखते हैं. क्या आपकी प्राथमिकता थियेटर ही है?
थियेटर तो मेरी जिंदगी का अहम पहलू है ही लेकिन मुझे अच्छा लगता है कि मैं नई तरह की अभिव्यक्तियों से भी खुद को गुजारूं. जहां तक फिल्मों में अंतराल की बात है तो मैं भूमिकाओं को लेकर काफी सोचता-समझता हूं और चूजी हूं. वाहियात चीजों के साथ ज्यादा फिल्में करूं, इससे अच्छा है कि कम फिल्में करूं और ऐसी चीजें करूं जो मुझे कलाकार के तौर पर खुशी दें. इसके अलावा मैं बहुत-सी चीजें एक साथ करता रहता हूं जिसमें से लिखना मेरे लिए काफी अहम है और यह काफी समय और ऊर्जा की मांग करता है.
थियेटर में आपकी दिलचस्पी कैसे जगी?
कॉलेज के दिनों में मैंने ‘मातादीन चांद पे’ नाम का एक नुक्कड़ नाटक देखा. इससे पहले कहानियां पढ़ने में मेरी काफी दिलचस्पी थी ही, जब मैंने यह नाटक देखा तो मुझे लगा कि बस मैं यही करना चाहता हूं. उसके बाद मैं मुंबई आ गया और रंगकर्मी और फिल्मकार सत्यदेव दुबे के साथ मैंने काफी काम किया. थियेटर की बेहतरीन चीजें मैंने उन्हीं से सीखीं.
 
आपके द्वारा निर्देशित पहली फिल्म  ‘हंसा’  में पहाड़ी गांव का बचपन दिखाया गया है. क्या ऐसा बचपन आपके अनुभवों का हिस्सा रहा है या यह सिर्फ अवलोकन पर आधारित था?
उत्तराखंड के गांव में मैंने कुछ वक्त बिताया है. उस समय वहां के निवासियों और बच्चों के जीवन को बहुत पास से देखा और महसूस किया है. तो आप कह सकते हैं कि यह अनुभव का हिस्सा भी है और अवलोकन भी है.
 
आपके नाटक  ‘इलहाम’  के मुख्य पात्र का एक पागल भिखारी से गहरा लगाव हो जाता है, जिसके बाद उसका परिवार और दूसरे लोग उसे पागल समझने लगते हैं. क्या ऐसे विषय पर नाटक लिखते समय आशंका नहीं हुई कि लोग इसे समझ नहीं सकेंगे?
देखिए ‘इलहाम’ के बारे में मुझे लगा तो था कि शायद इसे उतना अच्छा रिस्पॉन्स नहीं मिले, लेकिन मेरे भीतर से नाटक उपजा था. मुझे इसे लिखना ही था, मैंने लिखा. जब कोई चीज इस तरह निकलती है तो मैं लोगों की बहुत परवाह नहीं करता. वे मेरी चीज पसंद करें या नहीं, जो मुझे करना है मैं वो करता हूं. नाटक यह सोचकर खेलना शुरू किया कि 4-5 शो के बाद बंद कर देंगे. लेकिन आज कई भाषाओं में इसके अनुवाद हो चुके हैं और मैं हैरान भी होता हूं कि इसे भी लोग उतना ही पसंद करते हैं जितना कि मेरे दूसरे नाटकों को सराहा जाता है.
 
इस विषय पर नाटक लिखने का ख्याल कहां से आया?
कॉलेज के दिनों में ही मन में काफी सवाल उपजने लगे थे, जिनका कोई माकूल जवाब कहीं मिल नहीं रहा था. फिर मैंने काफी वक्त मैकलॉडगंज में बिताया और वहां नीत्शे, सार्त्र, महर्षि रमण, जे. कृष्णमूर्ति जैसे लोगों को पढ़ा. कह सकते हैं कि इन्हें पढ़कर जो कुछ भी जेहन में उपजा उसी से ‘इलहाम’  निकला.
 
2003 में आपने अपना पहला नाटक  ‘शक्कर के पांच दाने’  लिखा. आपके द्वारा लिखे नाटकों में आपका पसंदीदा कौन-सा है?
सच बताऊं तो जब मैं अपने नाटक देखता हूं तो मुझे यकीन भी नहीं होता कि ये मैंने लिखे हैं. मैं इनमें से किसी भी एक नाटक को पसंदीदा नहीं कह सकता. मुझे सभी से प्यार है.
Kaul3WEB आपका पहला कहानी संग्रह  ‘ठीक तुम्हारे पीछे’  आने वाला है. बतौर लेखक आपको किन लेखकों ने प्रेरित किया?
जब मैं कॉलेज में था तो मेरी पढ़ने में ज्यादा रुचि नहीं थी लेकिन फिर मेरे हाथ देवकी नंदन खत्री का ‘चंद्रकांता’ उपन्यास लगा और उसके बाद पढ़ने में मेरी जो रुचि जगी तो फिर मैक्सिम गोर्की, दोस्तोवयस्की, मायाकोवस्की जैसे लेखकों के हिंदी अनुवादों से दोस्ती हुई. विनोद कुमार शुक्ल, अल्बैर कामू और निर्मल वर्मा को भी मैंने काफी पढ़ा है.
[ilink url=”https://tehelkahindi.com/i-am-not-what-i-seem-to-be-i-am-what-i-write-is-how-multi-faceted-artist-manav-kaul-describes-himself/” style=”tick”]मैं वो नहीं जो दिखता हूं, मैं वो हूं जो लिखता हूं : मानव कौल[/ilink]
 
कहानी संग्रह में किस तरह के विषयों पर कहानियां हैं?
बहुत अलग-अलग तरह के विषय हैं. नाटकों की तरह कहानियों में भी मैंने नए तरह के प्रयोग किए हैं. कहीं-कहीं कहानियां आपको बहुत अजीब लग सकती हैं. लेकिन अजीब होना भी जीवन का रंग है और उसे मैंने शब्द दिए हैं. प्रेम भी है और बहुत सारा प्रेम है. ये कहानियां दरअसल नाटक लिखने के पहले की हैं. मैंने ‘मुमताज भाई पतंग वाला’ नाम की पहली कहानी लिखी थी. बाद में इसे नाटक का रूप दिया. इस कहानी को भी संग्रह में रखा गया है. मैं काफी उत्साहित हूं, पहली बार मेरा लिखा कुछ प्रकाशित हो रहा है. मैं टिपिकल लेखक जैसा धीर-गंभीर तो नहीं दिखता लेकिन इसके बाद मैं स्थापित लेखक हो जाऊंगा (हंसते हुए).
 
पटकथा लेखक, अभिनेता, निर्देशक और लेखक, इन सबमें कौन-सी भूमिका आपके लिए सबसे अहम है?
मैं काफी समय तक एक ही चीज नहीं करता रह सकता. मुझे अच्छा लगता है अलग-अलग चीजें करूं, अलग-अलग भूमिकाएं निभाऊं. यहां तक कि मैं जीवन में अलग-अलग पात्रों की जिंदगी को जीना चाहता हूं, चायवाले और रिक्शेवाले की जिंदगी को भी. लेखन और अभिनय इसका मौका देते हैं कि आप अलग-अलग तरह की जिंदगी जी सकें. ये सभी पहलू मेरे जीवन का हिस्सा हैं और मैं इन सभी में काम करता रहूंगा.
 
जय गंगाजल में अपनी भूमिका के बारे में कुछ बताएं.
फिल्म में मैं बबलू पांडे नाम के विधायक की भूमिका मैं निभा रहा हूं, जो अपने मूल में ग्रे शेड का व्यक्तित्व है. वह नकारात्मकता लिए है लेकिन यह काफी भावुक किरदार है. अब तक निभाए मेरे किरदारों में सबसे ज्यादा भावुक. काफी चुनौतीपूर्ण काम होता है ऐसे पात्र को निभाना. उम्मीद है लोगों को मेरा काम पसंद आएगा.

‘मैं वो नहीं जो दिखता हूं, मैं वो हूं जो लिखता हूं’

Kaul5WEB
कश्मीर के बारामुला में एक मध्यमवर्गीय परिवार में जन्मे मानव कौल का बचपन मध्य प्रदेश के होशंगाबाद शहर में बीता. 90 के दशक में घाटी में तेजी से पांव पसारते आतंकवाद की वजह से उनके परिवार को पलायन करके होशंगाबाद आना पड़ा. उनके पिता कश्मीर में इंजीनियर थे, जिन्हें समय से पहले रिटायरमेंट लेना पड़ा. हताशा के उन दिनों को याद करते हुए कौल स्वीकारते भी हैं कि मध्य प्रदेश आने के बाद एक समय उनके परिवारवाले उनसे यह भी अपेक्षा करने लगे थे कि वे चाय या पान की दुकान खोल लें, हालांकि उनका सपना कुछ और ही था.
मानव के जेहन में आज भी बचपन के दिन ताजा हैं. उन दिनों नर्मदा में तैराकी करना उनका शौक हुआ करता था. दसवीं की पढ़ाई करते हुए उन्हें महसूस हुआ कि उन्हें अब गांव से निकलना चाहिए. तैैैराकी के उनके शौक ने गांव से बाहर निकलने की राह बनाई. दो सालों तक उन्होंने अपनी तैराकी को और कुशल बनाया और राष्ट्रीय स्तर पर तैराकी के 100 मीटर बटरफ्लाई रेस में तीसरे स्थान पर आए. इसी दौरान थियेटर से उनका पहली बार वास्ता भोपाल के सांस्कृतिक केंद्र भारत भवन में पड़ा. उसके बाद से तैराकी का उनका शौक कहीं पीछे छूट गया. थियेटर से उनका जुड़ाव पहले शौक और फिर जुनून में तब्दील होता चला गया.
भोपाल में रंगमंच और अभिनय का गुर सीखने के बाद उनकी चाहत दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) में एडमिशन लेने की थी, लेकिन परिस्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि उन्होंने मायानगरी मुंबई का रुख किया. सपनों की इस नगरी में खुद की पहचान बनाना इतना आसान नहीं था, लेकिन अपनी मेहनत और वर्षों के अथक संघर्ष के दम पर आज वे न सिर्फ रंगमंच की दुनिया के जाने-पहचाने नाम हैं, बल्कि बॉलीवुड में भी अपने अलहदा अभिनय की छाप छोड़ने में कामयाब हुए हैं. वे बताते हैं, ‘मैं जेब में महज 2500 रुपये लेकर मुंबई आया था, लेकिन पैसे की समस्या कभी भी मेरे जुनून पर भारी नहीं पड़ी और न ही पैसा मेरे लिए कभी महत्वपूर्ण रहा.’
62  manav Kaul
इन्हीं दिनों उन्होंने ‘पृथ्वी थियेटर’ भी आना-जाना शुरू कर दिया था. यहां उन्होंने प्रसिद्ध रंगकर्मी और फिल्मकार सत्यदेव दुबे की कार्यशालाओं में भाग लेना शुरू कर दिया. इस बीच दुबे ने उन्हें अपने एक नाटक में अभिनय करने के लिए चुन लिया. उनके बाद मानव उनके छह से सात नाटकों में लगातार नजर आए.  कौल खुद को थियेटर तक पहुंचाने का पूरा श्रेय सत्यदेव दुबे को ही देते हैं. 2004 में उन्होंने कुमुद मिश्रा और तुषार राव के साथ मिलकर अपने थियेटर ग्रुप ‘अरण्य’ की शुरुआत की. इस तरह से एक नाटककार और निर्देशक के रूप में उनकी नई पारी की शुरुआत हुई. वे निर्मल वर्मा और विनोद शुक्ल से प्रभावित हैं. अपने थियेटर ग्रुप का नाम भी उन्होंने ‘अरण्य’ इसलिए रखा कि उन दिनों वे निर्मल वर्मा का उपन्यास ‘अंतिम अरण्य’ पढ़ रहे थे. इस तरह से अभिनय को कुछ समय के लिए विराम देकर वे नाटक लेखन की ओर मुड़े. इस क्रम में उनका पहला नाटक ‘शक्कर के पांच दाने’ आया. इस नाटक में पांच किरदारों को उन्होंने बड़े ही दिलचस्प और काव्यात्मक अंदाज में मंच पर जीवंत किया है. इसकी पहली प्रस्तुति मुंबई के पृथ्वी थियेटर में हुई. लेखन का यह सिलसिला अब भी जारी है. इसके बाद ‘पीले स्कूटर वाला आदमी’ लिखा. यह एक उपन्यासकार की कहानी है, जो अपने अतीत से जूझते हुए उपन्यास लिखता है. 2006 में इस नाटक ने श्रेष्ठतम मौलिक स्क्रिप्ट का पुरस्कार जीता. इसके बाद उन्होंने ‘बलि और शंभू’ लिखा. उनके अन्य प्रयोगधर्मी नाटकों में ‘मुमताज भाई पतंगवाले’, ‘इलहाम’, ‘लाल पेंसिल’, ‘पाक’, ‘ऐसा कहते हैं’, ‘रेड स्पैरो’, ‘हाथ का आया… शून्य’ और ‘कलरब्लाइंड’ शुमार हैं. ‘कलरब्लाइंड’ रबींद्रनाथ टैगोर की जिंदगी का नाट्य रूपांतरण है, जिसमें अभिनेत्री कल्कि कोचलिन ना अभिनय किया है. आठ साल में मानव ने 11 नाटक लिखे और 16 नाटकों को निर्देशित किया.
इन सबके बीच उन्होंने छोटे पर्दे पर भी हाथ आजमाया. वे धारावाहिक ‘बनेगी अपनी बात’ में नजर आ चुके हैं, लेकिन धारावाहिकों में काम करना उन्हें ज्यादा समय तक आकर्षित नहीं कर सका. इसके अलावा साल 2003 में फिल्म ‘जजंतरम-ममंतरम’ से उन्होंने बॉलीवुड में कदम रखा. 2007 में फिल्म ‘1971’ में नजर आए. इस बीच उन्होंने कई छोटी-छोटी फिल्में कीं लेकिन बॉलीवुड में उनके अभिनय को पहचान तकरीबन दस साल बाद तब मिली जब 2013 में फिल्म ‘काई पो चे’ रिलीज हुई. चेतन भगत के नाटक ‘थ्री मिस्टेक्स ऑफ माय लाइफ’ पर आधारित इस फिल्म में ‘बिट्टू अंकल’ के कुटिल हिंदूवादी नेता के किरदार को जिस तरीके से उन्होंने पर्दे पर जीवंत किया उसे आलोचकों के साथ दर्शकों ने भी खूब सराहा.
[ilink url=”https://tehelkahindi.com/face-to-face-with-theatre-artist-actor-writer-manav-kaul/” style=”tick”]’वाहियात चीजों से अच्छा है, कुछ ऐसा करूं जो एक कलाकार के तौर पर मुझे खुशी दे'[/ilink]
इससे पहले साल 2012 में मानव ने छोटे बजट की एक फिल्म बनाई जिसका नाम है ‘हंसा’. इस फिल्म को आलोचकों ने खूब सराहा है. फिल्म के बारे में भी वे बताते हैं, ‘हंसा बनाने का जब ख्याल आया तो अकाउंट में सिर्फ 12 हजार रुपये थे. तब कुछ साथियों की मदद से पांच लाख रुपये के बजट से एक महीने के भीतर यह फिल्म बनाई. इस फिल्म ने ओशियन सिनेफैन फेस्टिवल में दो श्रेणियों- बेस्ट क्रिटिक अवॉर्ड और बेस्ट ऑडियंस चॉइस में अवॉर्ड जीते.
2014 में हंसल मेहता की फिल्म ‘सिटी लाइट्स’ में विष्णु के जटिल किरदार को उन्होंने बखूबी निभाया. यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कुछ खास कमाल नहीं दिखा पाई लेकिन फिल्म के मुख्य कलाकार राजकुमार राव के मजबूत अभिनय के सामने मानव कौल कहीं से भी कमजोर नहीं पड़ते. पिछले दिनों फिल्म ‘वजीर’ में कौल खलनायक की भूमिका में नजर आए. मार्च में वे प्रकाश झा की फिल्म में प्रियंका चोपड़ा के साथ नजर आएंगे. इसमें उन्होंने नकारात्मक छवि वाले विधायक की भूमिका निभाई है. फिल्मों में निभाए गए कौल के अधिकांश चरित्र नकारात्मक छवि वाले हैं, जिन्हें दर्शकों ने काफी पसंद किया है.
रंगमंच, अभिनय और नाट्य लेखन के इतर मानव सोशल मीडिया पर भी काफी सक्रिय रहते हैं. ब्लॉग लेखन के अलावा वे फेसबुक पर भी लिखते रहते हैं. खुद को अभिव्यक्त करने के लिए उनके पसंदीदा माध्यमों में से लेखन एक है. फेसबुक पर वे लिखते भी हैं, ‘मैं वो नहीं, जो दिखता हूं. मैं वो हूं जो लिखता हूं.’ ये लाइनें व्यापक तौर पर मानव कौल को परिभाषित करती हैं.
इंस्टाग्राम पर बातें तमाम
मानव कौल की तस्वीरों में भी खास दिलचस्पी है. फोटो और वीडियो शेयरिंग साइट इंस्टाग्राम पर भी वे खूब सक्रिय रहते हैं (देखें फोटो फ्रेम). इंस्टाग्राम पर मानव खुद के द्वारा खींची तस्वीरों में अपनी यात्रा, जिंदगी और बचपन के अनुभवों को छोटी कहानियाें के रूप में साझा करते हैं.
Kaul2WEB
अपनी एक इंस्टाग्राम पोस्ट में वे कंचे में पूरा ब्रह्मांड देखते हैं. लिखते हैं, ‘मैं अभी भी विश्वास करता हूं कि अगर सूरज की रोशनी में कंचे को ध्यान से देखो तो उसके अंदर एक पूरा ब्रह्मांड है और दूसरी तरफ मुझे लगता है कि जुगनू की कहानी उसके चमकने में नहीं है. उसकी कहानी उस अंधेरे में है जिसे वह दो बार चमकने के बीच में जीता है. जब कभी दिन भारी लगने लगता है. हल्की घबराहट और टीस का पसीना रीढ़ की हड्डी में महसूस होता है. तब उस तेज धूप में कंचे और जुगनू से बादल सरककर सूरज को हल्का ढांक लेते है. बचकानी कल्पनाएं और विश्वास बड़े विचित्र तरीके से काम आते हैं.’ बहरहाल उनके इंस्टाग्राम अकाउंट से पता चलता है कि वे इन दिनों ‘जय गंगाजल’ के प्रमोशन के लिए अलग-अलग शहरों की यात्रा पर हैं. इसके अलावा यह भी नजर आता है कि वे अपने पहले कहानी संग्रह ‘ठीक तुम्हारे पीछे’ को लेकर भी काफी उत्साहित हैं. ‘ठीक तुम्हारे पीछे’ 14 छोटी कहानियों का संग्रह है. मानव कौल को उम्मीद है कि उनके पहले कहानी संग्रह को उसी तरह का प्यार मिलेगा जैसा उनके नाटकों और अभिनय को मिला है.

संघ और भाजपा का राष्ट्रवादी पाखंड

A
फोटो- अमरजीत ‌स‌िंह

अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकताओं ने हैदराबाद और जेएनयू में ‘मुखबिर’ की तरह सक्रियता दिखाई. देश जानना चाहता है कि हरियाणा में 9 दिनों के उपद्रव के दौरान वे कहां थे? वे वहां जातीय झगड़े की आग को बुझाते हुए नहीं दिखे. क्या वे वहां भीड़ का हिस्सा थे? 

संघ-भाजपा की ‘राष्ट्रवादी’ सरकार सभी ‘राष्ट्रविरोधियों’ को प्रताड़ित कर रही है लेकिन इन ‘राष्ट्रवादी’ भारतीयों को लेकर कुछ तथ्यों पर गौर करना चाहिए. देश के पहले गृहमंत्री सरदार पटेल के मुताबिक, यह आरएसएस और हिंदू महासभा जैसे हिंदुत्ववादी संगठन थे जो गांधी की हत्या के जिम्मेदार थे. यह कुनबा आज भी उनकी हत्या को वध कहकर महिमामंडित करता है. 14 अगस्त 1947 को आरएसएस के मुखपत्र ‘आर्गेनाइजर’ ने लिखा था, ‘बदकिस्मती से जो लोग सत्ता में आए हैं, वे हमारे हाथों में तिरंगा पकड़ा देंगे लेकिन हिंदू इसे कभी स्वीकृति व सम्मान नहीं देंगे. तीन अपने आप में अशुभ है और तिरंगे में तीन रंग हैं जो निश्चित तौर पर बुरा मनोवैज्ञानिक असर छोड़ेंगे. यह देश के लिए हानिकारक होगा.’ जिन्होंने गांधीजी को मारा, जिन्होंने आजादी के बाद तिरंगे की तौहीन की, वे ‘राष्ट्रवादी’ हैं और जो युवा भारतीय चाहते हैं कि भारतीय राष्ट्र-राज्य सबके लिए मूलभूत अधिकारों और नीति निदेशक तत्वों पर अमल करे, उनकी अदालत के फैसले से पहले ही ‘आतंकवादी’ के रूप में ब्रांडिंग की जा रही है.

संघ भाजपा के जो कार्यकर्ता वंदेमातरम गा रहे हैं, उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ इसे कभी नहीं गाया. उन्होंने 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सरकारें बनाई थीं जबकि कांग्रेस पर प्रतिबंध लगा था. जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस सेना बनाकर भारत को आजाद कराने का प्रयास कर रहे थे तब हिंदुत्ववादी संगठनों ने मिलकर अंग्रेजी सेना के लिए ‘भर्ती कैंप’ लगाए थे. अब ये ‘राष्ट्रवादी’ लोग लोकतंत्र को नष्ट करने के लिए वंदेमातरम का इस्तेमाल कर रहे हैं. 

बंटवारा करना संघ-भाजपा नेताओं और उनकी हिंदूवादी राजनीति के जीन में है. अपनी क्रूर राष्ट्रविरोधी विचारधारा के साथ वे न सिर्फ मुस्लिमों, ईसाइयों और दलितों के खिलाफ हैं बल्कि वे बहुसंख्यक समुदाय की भी एकजुटता के लिए खतरा हैं. हरियाणा के इतिहास में यह पहली बार है जब हम देख रहे हैं कि जाट और पंजाबी के बीच गहरे तक ध्रुवीकरण हुआ है. डॉ. आंबेडकर ने बहुत पहले कहा था कि ‘हिंदुत्व की राजनीति सिर्फ लोगों को बांटती है, इस तरह वह भारत का विनाश कर रही है.’ 

संघ-भाजपा के शासकों को यह महसूस हो रहा है कि वे जनता के बड़े हिस्से का समर्थन खो चुके हैं. वे अपने विरोधियों का ध्यान दूसरी तरफ केंद्रित करना चाहते हैं. यह भी एक तरह का राष्ट्रविरोधी कार्य है. वे अपना पुराना हिंदुत्ववादी एजेंडा पुनर्जीवित कर रहे हैं

कोई नहीं जानता कि हरियाणा और भारत हिंदुत्व की राजनीति के साथ कैसे रहेंगे. उन्होंने जेएनयू को राष्ट्रद्रोहियों का अड्डा घोषित कर दिया, लेकिन हरियाणा के बारे में क्या कहेंगे जहां पर बड़े पैमाने पर लोगों की जानें गईं और संपत्तियों को तहस-नहस किया गया. जेएनयू के राष्ट्रविरोधी हरियाणा में नहीं हैं और यह सब संघ-भाजपा के शासन में हो रहा है. इतिहास हरियाणा के हिंदूवादी शासकों को कभी माफ नहीं करेगा जिन्होंने हरियाणवी लोगों को जाट, पंजाबी और सैनी आदि में बांट दिया. हमारी सेना, जो हमारे देश का गौरव है, जिसका काम सीमा की सुरक्षा करना है, वह अपने ही लोगों पर गोलियां चला रही है. 

अफजल गुरु जेएनयू में आतंकवादी है, लेकिन भाजपा पीडीपी के साथ सरकार भी बना सकती है जो अफजल गुरु को ‘शहीद’ कहकर महिमामंडित करती है. संघ-भाजपा को यह पता है कि वे पूरी तरह फेल हैं और उनके लिए एकमात्र आशा उनके वे तूफानी घुड़सवार हैं जो किसी को विरोध नहीं करने दे सकते. देश को उनका डरावना चेहरा नहीं दिखे इसलिए वे मीडियाकर्मियों पर हमले करते हैं. उन्होंने बाबरी मस्जिद ध्वंस के समय भी ऐसा ही किया था. वे भाड़े के गुंडे जो मीडिया, छात्रों और अध्यापकों पर हमले करते हैं, ‘राष्ट्रवादी’ भावना की बातें करते हैं. 

जिन हिंदुत्ववादी अपराधियों ने गांधी जी को मारा, जिन्होंने मुस्लिम लीग के साथ 1942 में तब सरकार चलाई जब ब्रिट्रिश शासन ने कांग्रेस को प्रतिबंधित कर दिया था, नेताजी जब सेना गठित कर भारत को आजाद कराने की कोशिश कर रहे थे तब अंग्रेजी सेना के लिए भर्ती कैंप चलाए, भारतीय जेल से इस्लामिक आतंकी अजहर मसूद को कंधार छोड़ने गए, नरेंद्र दाभोलकर, गोविंद पानसरे और एमएम कलबुर्गी की हत्या की, शहीदे आजम के नाम पर बन रहे एयरपोर्ट का नाम बदलकर एक आरएसएस के बिचौलिये के नाम पर रख दिया और अफजल गुरु को शहीद घोषित करने वाली पीडीपी के साथ जम्मू और कश्मीर में सरकार चला रहे हैं, वे ‘राष्ट्रवादी’ हैं. यदि ये अपराधी ‘राष्ट्रवादी’ हैं तो एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक भारत के राजनीतिक भाग्य का अंत हो चुका है. 

संघ-भाजपा के शासकों को यह महसूस हो रहा है कि वे जनता के बड़े हिस्से का समर्थन खो चुके हैं. वे अपने विरोधियों का ध्यान दूसरी तरफ केंद्रित करना चाहते हैं. यह भी एक तरह का राष्ट्रविरोधी कार्य है. वे अपना पुराना हिंदुत्ववादी एजेंडा पुनर्जीवित कर रहे हैं. उनके गुरु गोलवलकर ने अपनी किताब ‘बंच ऑफ थॉट्स’ में लिखा था कि मुस्लिम, ईसाई और वामपंथी इस देश के एक, दो और तीन नंबर के दुश्मन हैं. 

गोलवलकर की किताब ‘वी आर आवर नेशनहुड डिफाइंड’ के मुताबिक, राष्ट्र पांच निर्विवादित तत्वों- देश, जाति, धर्म, संस्कृति और भाषा से बनता है. हालांकि, सावरकर की तरह उन्होंने भी संस्कृति को धर्म के साथ जोड़ा और इसे हिंदुत्व कहा. उनके अनुसार हिंदू एक महान तथा विशिष्ट राष्ट्र थे क्योंकि हिंदुओं की धरती हिंदुस्तान में रहने वाले केवल हिंदू यानी कि आर्य नस्ल के लोग थे. दूसरे, हिंदू एक ऐसी नस्ल से थे जिसके पास एक ऐसे समाज की विरासत थी जिसमें एक साझा रीति-रिवाज, साझा भाषा, गौरव और विनाश की साझा स्मृतियां थीं. संक्षेप में यह एक समान उद्भव स्रोत वाली ऐसी आबादी थी जिसकी एक साझा संस्कृति है. इस प्रकार की जाति राष्ट्र के लिए एक महत्वपूर्ण अवयव है. यहां तक कि अगर वे विदेशी मूल के भी थे तो भी वे निश्चित रूप से मातृ नस्ल में घुलमिल गए थे. उन्हें मूल राष्ट्रीय नस्ल के साथ न केवल इसके आर्थिक-सामाजिक जीवन से अपितु इसके धर्म, संस्कृति तथा भाषा के साथ एकरूप हो जाना चाहिए, नहीं तो ऐसी विदेशी नस्लें कुछ निश्चित परिस्थितियों के तहत एक राजनैतिक उद्देश्य से एक साझा राज्य की सदस्य ही मानी जा सकती हैं; लेकिन वे कभी भी राष्ट्र का अभिन्न हिस्सा नहीं बन सकतीं. यदि मातृ नस्ल अपने सदस्यों के विनाश या अपने अस्तित्व के सिद्धांतों को खो देने के कारण नष्ट हो जाती है तो स्वयं राष्ट्र भी नष्ट हो जाता है. नस्ल राष्ट्र का शरीर है और इसके पतन के साथ ही राष्ट्र का अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है. इस प्रकार सावरकर और उन्हीं की तर्ज पर गोलवलकर नस्ली शुद्धता को हिंदू राष्ट्र निर्माण का आवश्यक साधन मानते थे. उनके राष्ट्रवाद में नस्लों के मिलन या अंतर्संबंधों के लिए कोई जगह नहीं थी. 

गोलवलकर के अनुसार, ‘हम वह हैं जो हमें हमारे महान धर्म ने बनाया है. हमारी नस्ली भावना हमारे धर्म की उपज है और हमारे लिए संस्कृति और कुछ नहीं बल्कि हमारे सर्वव्यापी धर्म का उत्पाद है, इसके शरीर का अंग जिसे इससे अलग नहीं किया जा सकता. एक राष्ट्र एक राष्ट्रीय धर्म और एक संस्कृति को धारण करता है तथा उसे कायम रखता है क्योंकि ये राष्ट्रीय विचार को संपूर्ण बनाने के लिए आवश्यक हैं.’  

गोलवलकर की हिंदू राष्ट्रीयता का सबसे महत्वपूर्ण अवयव नस्ल या नस्ली भावना थी, जिसे उन्होंने ‘हमारे धर्म की संतान’ के रूप में परिभाषित किया. उनके अनुसार, ‘हिंदुस्तान में एक प्राचीन हिंदू राष्ट्र है और इसे निश्चित तौर पर होना ही चाहिए और कुछ और नहीं- केवल एक हिंदू राष्ट्र. वे सभी लोग जो राष्ट्रीय यानी कि हिंदू नस्ल, धर्म, संस्कृति और भाषा को मानने वाले नहीं होते वे स्वाभाविक रूप से वास्तविक ‘राष्ट्रीय’ जीवन के खांचे से बाहर छूट जाते हैं… केवल वही राष्ट्रीय देशभक्त हैं जो अपने हृदय में हिंदू नस्ल और राष्ट्र के गौरवान्वीकरण की प्रेरणा के साथ कार्य को उद्धृत होते हैं और उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करते हैं. बाकी सभी या तो गद्दार हैं और राष्ट्रीय हित के शत्रु हैं या अगर दयापूर्ण दृष्टि अपनाएं तो बौड़म हैं.’ 

‘वे सभी लोग जो राष्ट्रीय यानी कि हिंदू नस्ल, धर्म, संस्कृति और भाषा को मानने वाले नहीं होते वे स्वाभाविक रूप से वास्तविक ‘राष्ट्रीय’ जीवन के खांचे से बाहर छूट जाते हैं… केवल वही राष्ट्रीय देशभक्त हैं जो अपने हृदय में हिंदू नस्ल और राष्ट्र के गौरवान्वीकरण की प्रेरणा के साथ कार्य को उद्धृत होते हैं और उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए संघर्ष करते हैं. बाकी सभी या तो गद्दार हैं और राष्ट्रीय हित के शत्रु हैं या अगर दयापूर्ण दृष्टि अपनाएं तो बौड़म हैं’

बेशक गोलवलकर की यह परिभाषा पूरी तरह से हिंदू राष्ट्र के सावरकर माडल पर आधारित है और मुस्लिमों, ईसाइयों, या अन्य गैर हिंदू अल्पसंख्यकों के हिंदू राष्ट्र का हिस्सा होने के दावे को पूरी तरह खारिज करती है. गोलवलकर के अनुसार, ‘वे सभी जो इस विचार की परिधि से बाहर हैं राष्ट्रीय जीवन में कोई स्थान नहीं रख सकते. वे राष्ट्र का अंग केवल तभी बन सकते हैं जब अपने विभेदों को पूरी तरह समाप्त कर दें, राष्ट्र का धर्म, इसकी भाषा व संस्कृति अपना लें और खुद को पूरी तरह राष्ट्रीय नस्ल में समाहित कर दें. जब तक वे अपने नस्ली, धार्मिक तथा सांस्कृतिक अंतर को बनाए रखते हैं वे केवल विदेशी हो सकते हैं, जो राष्ट्र के प्रति या तो मित्रवत हो सकता है या शत्रुवत. 

पूरी तरह से उनका हिंदूकरण या फिर नस्ली सफाया, भारत में अल्पसंख्यकों की समस्या से निपटने के लिए गोलवलकर ने यही मंत्र सुझाया था. 1925 में अपने निर्माण के बाद से ही आरएसएस ने कभी इसे अनदेखा नहीं किया. उनके अनुसार, मुस्लिमों और ईसाइयों को, जो कि बाहरी हैं, निश्चित तौर आबादी के प्रमुख जन, राष्ट्रीय नस्ल के साथ खुद को पूरी तरह समाहित कर देना चाहिए. उन्हें निश्चित तौर पर राष्ट्रीय नस्ल की संस्कृति और भाषा को अपना लेना चाहिए और अपने विदेशी मूल को भुलाकर अपने अलग अस्तित्व की संपूर्ण चेतना को त्याग देना चाहिए. अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो उन्हें राष्ट्र के रहमो-करम पर राष्ट्र की सभी संहिताओं और परंपराओं से बंधकर केवल एक बाहरी की तरह रहना होगा, जिनको किसी अधिकार या सुविधा की तो छोड़िए, किसी विशेष संरक्षण का भी हक नहीं होगा. विदेशी तत्वों के लिये बस दो ही रास्ते हैं, या तो वे राष्ट्रीय नस्ल में पूरी तरह समाहित हो जाएं और यहां की संस्कृति को पूरी तरह अपना लें या फिर जब तक राष्ट्रीय नस्ल अनुमति दे वे यहां उसकी दया पर रहें और राष्ट्रीय नस्ल की इच्छा पर यह देश छोड़कर चले जाएं. 

इन ‘राष्ट्रवादियों’ ने आजादी आंदोलन में अंग्रेजों का साथ दिया और भारत को हिंदू पाकिस्तान बनाने के लिए प्रतिबद्ध रहे. आज वे जेएनयू के छात्रसंघ अध्यक्ष और अन्य छात्रों के लिए सख्त सजा की बात करते हैं, लेकिन यही ‘राष्ट्रवादी’ उस समय कुंभकरण मोड में चले जाते हैं, जब देश के दूसरे हिस्से में हिंदुत्ववादी कैडर 30 जनवरी को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के ‘वध’ का उत्सव मनाता है. बेशक, संघ और भाजपा के पाखंड को कोई भी मात नहीं दे सकता.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर हैं)

इस दाल में कुछ काला है

देश से पोलियो की बीमारी तो जड़ से खत्म हो गई है लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार एक ऐसा फैसला करने जा रही है जिससे कोई भी स्वस्थ व्यक्ति लकवे का शिकार हो सकता है. 55 साल पहले 1961 में एक दाल पर प्रतिबंध लगाया गया था जिसका नाम था खेसारी. दिखने में यह अरहर दाल के समान ही होती है. तब कई चिकित्सा विशेषज्ञों और वैज्ञानिकों ने दावा किया था कि इंसान और जानवर दोनों के लिए यह समान रूप से खतरनाक है. इसके सेवन से शरीर के निचले भाग में लकवा मार सकता है. अब यह दाल फिर से सुर्खियों में है क्योंकि भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) ने इसके उत्पादन पर लगा प्रतिबंध हटा दिया है. अरहर दाल की आसमान छूती कीमतों पर लगाम लगाने के लिए सरकार ने शायद इस दिशा में कदम बढ़ाया है, लेकिन आईसीएमआर के इस कदम की कई कृषि और चिकित्सा विशेषज्ञों ने आलोचना की है. इनका कहना है कि सरकार अगर प्रतिबंध हटाती है तो इसके सेवन से लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों को कैसे रोका जाएगा?

आईसीएमआर ने खेसारी दाल की जिन तीन किस्मों को मंजूरी दी है उनको कानपुर स्थित भारतीय दाल अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों ने विकसित किया है. ये तीन किस्में हैं- ‘महातेवड़ा’, ‘रत्तन’ और ‘प्रतीक’. इन वैज्ञानिकों का दावा है कि इन किस्मों में खेसारी दाल में पाया जाने वाला नॉन प्रोटीन अमीनो एसिड ‘ओडीएपी’ नामक खतरनाक केमिकल मौजूद नहीं होता. लेकिन विशेषज्ञ इस बात पर चिंता जता रहे हैं कि इस बात को कैसे सुनिश्चित किया जाएगा कि किसानों तक सिर्फ यही तीन किस्में पहुंचेंगी और वे इन्हीं बीजों से खेसारी दाल का उत्पादन करेंगे. इस पर निगरानी रखना बहुत कठिन काम है. प्रतिबंध हटने के बाद विषैले ओडीएपी युक्त खेसारी दाल का भी उत्पादन किसान करेंगे और इतने बड़े पैमाने पर उन पर निगरानी रखना संभव नहीं हो सकेगा.

1961 से ही प्रतिबंधित होने के बावजूद भारत के कई राज्यों में खेसारी दाल का उत्पादन हो रहा है. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा, पश्चिम बंगाल और पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में इसका उत्पादन धड़ल्ले से जारी है. बांग्लादेश में भी इस दाल का उत्पादन होता है. इसी के चलते कई बार खबरें आती हैं कि व्यापारी इस दाल की तस्करी कर रहे हैं. स्थानीय व्यापारी ज्यादा मुनाफा कमाने के लिए अरहर की दाल में इसकी मिलावट करते हैं क्योंकि यह दाल दिखने में अरहर दाल के समान ही होती है.

केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह इस बात को स्वीकार करते हैं. बकौल  सिंह, ‘खेसारी दाल का 4 से 5 लाख हेक्टेयर में उत्पादन हो रहा है.’ कृषि मंत्रालय के पास इसके उत्पादन से संबंधित आंकड़े भी मौजूद हैं. लेकिन यहां सवाल उठता है कि अगर कृषि मंत्रालय को इस प्रतिबंधित दाल के उत्पादन की जानकारी है तो इसका उत्पादन रोकने के लिए कदम क्यों नहीं उठाए गए? खेसारी दाल की कई खासियतें भी हैं जैसे- इसकी फसल में कम पानी का इस्तेमाल होता है और यह फसल तैयार होने में भी दूसरी दालों के मुकाबले कम समय लेती है.

खेसारी दाल गरीबों की दाल कही जाती है क्योंकि इसकी कीमत भी अन्य दालों के मुकाबले कम होती है. इस दाल पर 1907 से लेकर अब तक कई बार प्रतिबंध लगाया जा चुका है. चिकित्सा अनुसंधान में भी यह बात सामने आ चुकी है कि इसको खाने से जानवरों को भी नुकसान पहुंचता है. खेसारी दाल से प्रतिबंध हटाने को लेकर अब तर्क दिया जा रहा है कि इससे महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्या को रोका जा सकता है.

प्रतिबंध हटाने की चर्चा के बीच इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने भी सवाल उठाए हैं. मेडिकल एसोसिएशन के सेक्रेटरी जनरल केके अग्रवाल ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा, ‘यह मामला लोगों के स्वास्थ्य से जुड़ा हुआ है और इस मामले पर आगे बढ़ने से पहले सरकार को एसोसिएशन के प्रतिनिधियों से चर्चा करनी चाहिए. तीनों किस्मों पर जो परीक्षण किए गए हैं उस पर जल्द से जल्द एक श्वेत पत्र लाना चाहिए और लोगों से सलाह मशविरा करना चाहिए.’ केके अग्रवाल ने आगे कहा, ‘बिना डॉक्टरों की सलाह लिए इस प्रतिबंध को हटाना उचित नहीं होगा. ऐसे फैसलों में विशेषज्ञों की राय बेहद जरूरी होती है. सरकार यह बताए कि इसमें खतरा शून्य है या कम है. अगर मरीज हमारे पास आएंगे तब हम उन्हें इस दाल के सेवन से मना करेंगे. इस मामले में आईएमए भी एक पक्ष है जिसके साथ सरकार को चर्चा करनी चाहिए. हम आईसीएमआर और स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा को पत्र लिखेंगे और जल्द से जल्द इस पूरे मामले पर श्वेत पत्र की मांग करेंगे.’

ये कैसे सुनिश्चित होगा कि किसान सिर्फ इन्हीं तीन किस्मों का उत्पादन करें, इस पर केके अग्रवाल ने कहा, ‘सबसे बड़ी चिंता इसी बात की है कि आप ये कैसे सुनिश्चित करेंगे कि कम विषैली खेसारी दाल का ही उत्पादन हो? क्या ये खुले बाजार में सरकारी दुकानों पर भी बिक्री के लिए उपलब्ध होगी? महाराष्ट्र में मैंने ऐसे कई मामले देखे हैं जहां इस दाल के सेवन से लाइलाज बीमारी हुई है. ऐसी स्थिति में हमने उनको इस दाल का सेवन करने से मना किया है.’

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की राय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह के दावे के बिल्कुल उलट है जिसमें कहा गया था कि खेसारी दाल की नई किस्मों में ओडीएपी नामक खतरनाक केमिकल न के बराबर पाया गया. कृषि मंत्रालय ने बयान जारी किया, जिसमें कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह के हवाले से कहा गया, ‘भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने कम ओडीएपी युक्त खेसारी दाल की तीन उन्नत किस्में विकसित की हैं. इन किस्मों में ओडीएपी की मात्रा 0.07 से 0.1 प्रतिशत के बीच है जो कि मानवीय उपभोग के लिए सुरक्षित है.’

देश के जाने-माने कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा आईसीएमआर के फैसले को पूरी तरह गलत मानते हैं. ‘तहलका’ से बातचीत में उन्होंने कहा, ‘दालों की कीमत नियंत्रित न कर पाने की सरकार की छटपटाहट बिल्कुल स्पष्ट है. इसीलिए विषैली खेसारी दाल पर से प्रतिबंध हटाने की योजना बनाई जा रही है. ‘न्यू साइंटिस्ट’ पत्रिका (23 अगस्त, 1984) की रिपोर्ट के मुताबिक इस दाल के सेवन से होने वाली बीमारी के दो रूप हैं- अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष. अप्रत्यक्ष रूप में इस बीमारी के होने पर हल्का पीठ दर्द और चाल में बदलाव आता है, जिससे चलने-दौड़ने में परेशानी होती है. आधे से ज्यादा मामलों में यह बीमारी इससे ज्यादा गंभीर नहीं हुई. लेकिन प्रत्यक्ष रूप में इस बीमारी के सामने आने पर व्यक्ति के अंग काम करना बंद कर देते हैं और वह  लकवे का शिकार हो जाता है.’

सरकार को इस मामले पर आगे बढ़ने से पहले आगाह करते हुए जेडीयू के महासचिव केसी त्यागी ने स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा को पत्र लिखा है. उनका मानना है कि इससे समाज में दालों के उपभोग को लेकर गरीब और अमीर के बीच की खाई बढ़ेगी जिसका नतीजा वर्ग विभेद के रूप में सामने आएगा. केसी त्यागी ने अपने पत्र में लिखा है, ‘खेसारी दाल से प्रतिबंध हटाने के निर्णय पर पुनर्विचार जरूरी है. मुझे आशंका है कि इस दाल के सेवन से लोगों के स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर पड़ सकता है, जिसका परिणाम लकवे के रूप में भी सामने आ सकता है. इससे समाज में दालों के उपभोग को लेकर वर्ग विभेद भी तेज हो जाएगा. अमीर लोग तो खेसारी की दाल की बजाय अरहर या तुअर दाल का सेवन करेंगे, वहीं गरीबों की थाली में विषैली खेसारी दाल ही परोसी जाएगी. पहले से बीमार और कुपोषित भारत जैसे देश के लिए खेसारी दाल से प्रतिबंध हटाना बिल्कुल सही नहीं है.’

केसी त्यागी ने आरोप लगाया, ‘खेसारी दाल को मंजूरी देने के लिए जो तर्क सरकार पेश कर रही है वे सही नहीं हैं. शोध संस्थान खेसारी से प्रतिबंध हटाने के पीछे गरीबों को प्रोटीन मुहैया कराने का तर्क दे रहे हैं. इस तरह की सिफारिश के पीछे उपभोक्ता मंत्रालय और शोध संस्थानों के निहित स्वार्थ काम कर रहे हैं.’ प्रतिबंध हटाने की मंजूरी का मामला अब स्वास्थ्य मंत्रालय के पास है इसीलिए केसी त्यागी और बाकी लोग इस फैसले को रोकने के लिए स्वास्थ्य मंत्री से मांग कर रहे हैं.

‘तहलका’ से बातचीत में केसी त्यागी ने कहा, ‘सरकार को देश में मौजूद विभिन्न एजेंसियों से इन नई किस्मों की जांच करानी चाहिए. सरकार सिर्फ गरीबों की जान से खिलवाड़ कर रही है. ये सरकार अमीरों के हितों को ध्यान में रखकर ही अपनी योजनाएं बनाने में व्यस्त है. इस मामले को आने वाले बजट सत्र में उठाएंगे. लेकिन अगर फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एफएसएसएआई) नई किस्मों को मंजूरी देता है तो हमें कोई समस्या नहीं है लेकिन इनका कड़ाई से परीक्षण किए जाने की जरूरत है.’ केसी त्यागी ने इस मामले में उपभोक्ता मामलों के मंत्री रामविलास पासवान पर भी मिलीभगत का आरोप लगाया है.

खेसारी दाल में खतरनाक केमिकल मौजूद होने की पुष्टि करते हुए कृषि विशेषज्ञ देवेंद्र शर्मा कहते हैं, ‘कुछ अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि खाने का तेल खेसारी दाल में मौजूद खतरनाक केमिकल ओडीएपी को 72 से 100 प्रतिशत तक खत्म कर देता है. इससे स्पष्ट है कि दाल में वह केमिकल मौजूद है. इसीलिए इसे खत्म करने की जरूरत पड़ती है. ऐसे में इस बात को कैसे सुनिश्चित किया जाएगा कि आम आदमी इन उपायों को अपनाकर इस दाल को सुरक्षित बनाए. आईसीएमआर ने किस आधार पर प्रतिबंध हटाने का फैसला लिया है यह जानना बेहद जरूरी है क्योंकि लोग पूरी तरह संतुष्ट होने के लिए विस्तृत जानकारी चाहेंगे ही. इसी तरह एफएसएसएआई को भी इस दाल की नई किस्मों को सार्वजनिक तौर पर कड़े परीक्षण से गुजारना चाहिए ताकि किसी निश्चित परिणाम तक पहुंचा जा सके.’

पिछले साल देश में अरहर की दाल लोगों की थाली से गायब हो गई थी. दालों की बढ़ती कीमतों ने भाजपा सरकार के सामने मुश्किल चुनौती पेश की थी. सरकार पर आरोप लगा था कि मोदी सरकार दालों की बढ़ती कीमतों को नियंत्रित करने में असफल रही है. इसी बीच अब खेसारी दाल को मंजूरी देने की बात चल पड़ी है. देवेंद्र शर्मा कहते हैं, ‘देश में दालों का उत्पादन बढ़ाने के लिए विषैली खेसारी दाल के उत्पादन को मंजूरी देने को न्यायोचित नहीं ठहाराया जा सकता. अगर इसके उत्पादन को मंजूरी मिल भी जाती है तब भी इससे दालों के भंडारण पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा. इसीलिए इस तरह का खतरनाक फैसला नहीं करना चाहिए. इसके विपरीत भारत सरकार को चाहिए कि देश में ही दालों के घरेलू उत्पादन में बढ़ोत्तरी की दिशा में कदम बढ़ाया जाए. सरकार सिर्फ देश की भोली-भाली जनता को उल्लू बनाने का काम कर रही है. आम आदमी को इसके दुष्परिणामों के बारे में कोई जानकारी नहीं है इसीलिए वह कभी सवाल नहीं उठाता.’

नागपुर में रहने वाले माइक्रोबायोलॉजिस्ट और पोषण विशेषज्ञ शांतिलाल कोठारी खेसारी दाल पर लगे प्रतिबंध हटाने के लिए संघर्षरत हैं. पिछले 30 साल से कोठारी इस प्रतिबंध के खिलाफ आवाज बुलंद किए हुए हैं. कोठारी का कहना है, ‘अगर किसानों को खेसारी दाल का उत्पादन करने दिया जाए तो बहुत हद तक हमारे देश में किसानों को आत्महत्या करने से रोका जा सकता है.’

प्रतिबंध को हटाने की मांग को लेकर कोठारी 2008 में भूख हड़ताल पर बैठ गए थे जिसके बाद महाराष्ट्र सरकार ने इसके उत्पादन, उपभोग और बिक्री से प्रतिबंध हटा लिया था. लेकिन कोठारी यहीं नहीं रुके. उन्होंने पूरे देश से यह प्रतिबंध हटाने के लिए अभियान चलाया. पिछले साल दिसंबर में सरकार ने कोठारी को प्रतिबंध हटाने के बारे में सूचना दी. यह सूचना प्राप्त होने के बाद कोठारी ने नागपुर के कुही क्षेत्र में 15 जनवरी को किसानों की एक बैठक बुलाई. इस बैठक में करीब 15 हजार किसानों ने हिस्सा लिया था.

देवेंद्र शर्मा आगे कहते हैं, ‘ये दावा किया जा रहा है कि इससे महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्या में कमी आई है. यह बिल्कुल झूठ है. राज्य में आज भी किसान आत्महत्या कर रहे हैं. इस दाल को सरकार क्यों बाजार में लाना चाहती है, समझ से परे है. इसके बजाय सरकार को चाहिए कि कनाडा में पशुओं के चारे में इस्तेमाल होने वाली पीली मटर का आयात कर अरहर के विकल्प के रूप में बाजार में उतारे.’

खेसारी दाल का मामला फिलहाल एफएसएसएआई के पास पहुंच गया है. वहां के वैज्ञानिक अब इन तीन नई किस्मों का कड़ाई से परीक्षण करेंगे जिसके बाद इस प्रतिबंध को हटाने पर फैसला लिया जाएगा. अगर यह प्रतिबंध हटा भी लिया जाए तब भी यह कितना कारगर होगा इस पर कुछ नहीं कहा जा सकता.

आवारा भीड़ के खतरे : हरिशंकर परसाई

Parsai.jpg webएक अंतरंग गोष्ठी सी हो रही थी युवा असंतोष पर. इलाहाबाद के लक्ष्मीकांत वर्मा ने बताया- पिछली दीपावली पर एक साड़ी की दुकान पर कांच के केस में सुंदर माॅडल खड़ी थी. एक युवक ने एकाएक पत्थर उठाकर उस पर दे मारा. कांच टूट गया. आसपास के लोगों ने पूछा कि उसने ऐसा क्यों किया? उसने तमतमाए चेहरे से जवाब दिया-हरामजादी बहुत खूबसूरत है.

हम 4-5 लेखक चर्चा करते रहे कि लड़के के इस कृत्य का क्या कारण है? क्या अर्थ है? यह कैसी मानसिकता है? यह मानसिकता क्यों बनी? बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में ये सवाल दुनिया भर में युवाओं के बारे में उठ रहे हैं-पश्चिम के सम्पन्न देशों में भी और तीसरी दुनिया के गरीब देशों में भी. अमेरिका से आवारा हिप्पी और ‘हरे राम हरे कृष्ण’ गाते अपनी व्यवस्था से असंतुष्ट युवा भारत आते हैं और भारत का युवा लालायित रहता है कि चाहे चपरासी का काम मिले, अमेरिका में रहूं. ‘स्टेटस’ जाना है यानी चौबीस घंटे गंगा नहाना है. ये अपवाद है. भीड़-की-भीड़ उन युवकों की है, जो हताश, बेकार और क्रुद्ध हैं. संपन्न पश्चिम के युवकों के व्यवहार और भारत के युवकों के व्यवहार में अंतर है.

सवाल है उस युवक ने सुंदर माॅडल के चेहरे पर पत्थर क्यों फेंका? हरामजादी बहुत खूबसूरत है- यह उस गुस्से का कारण क्यों है? वाह, कितनी सुंदर है- ऐसा इस तरह के युवक क्यों नहीं कहते?

युवक साधारण कुर्ता पाजामा पहने था. चेहरा बुझा था जिसकी राख में चिंगारी निकली थी पत्थर फेंकते वक्त. शिक्षित था. बेकार था. नौकरी के लिए भटकता रहा था. धंधा कोई नहीं. घर की हालत खराब. घर में अपमान बाहर अवहेलना. वह आत्मग्लानि से क्षुब्ध. घुटन और गुस्सा. एक नकारात्मक भावना. सबसे शिकायत. ऐसी मानसिकता में सुंदरता देखकर चिढ़ होती है. खिले हुए फूल बुरे लगते हैं. किसी के अच्छे घर से घृणा होती है. सुंदर कार पर थूकने का मन होता है. मीठा गाना सुनकर तकलीफ होती है. अच्छे कपड़े पहिने खुशहाल साथियों से विरक्ति होती है. जिस चीज से खुशी, सुंदरता, संपन्नता, सफलता, प्रतिष्ठा का बोध होता है, उस पर गुस्सा आता है.

[ilink url=”https://tehelkahindi.com/main-target-is-jnu-culture-and-democratisation-say-prof-sachchidanand/” style=”tick”]‘असली निशाना तो जेएनयू की संस्कृति और लोकतांत्रिकता है’[/ilink]

बूढ़े-सयाने लोगों का लड़का जब मिडिल स्कूल में होता है, तभी से शिकायतें होने लगती हैं. वे कहते हैं ये लड़के कैसे हो गए? हमारे जमाने में ऐसा नहीं था. हम पिता, गुरु, समाज के आदरणीयों की बात सिर झुका के मानते थे. अब ये लड़के बहस करते हैं. किसी की नहीं मानते. मैं याद करता हूं कि जब मैं छात्र था, तब मुझे पिता की बात गलत तो लगती थी, पर मैं प्रतिवाद नहीं करता था. गुरु का भी प्रतिवाद नहीं करता. समाज के नेताओं का भी नहीं. मगर तब हम किशोरावस्था में थे, जानकारी ही क्या थी? हमारे कस्बे में दस-बारह अखबार आते थे. रेडियो नहीं. स्वतंत्रता संग्राम का जमाना था. सब नेता हमारे हीरो थे- स्थानीय भी और जवाहरलाल नेहरू भी. हम पिता, गुरु, समाज के नेता आदि की कमजोरियां नहीं जानते थे. मुझे बाद में समझ में आया कि मेरे पिता कोयले के भट्टों पर काम करने वाले गोंडों का शोषण करते थे.

पर अब मेरा ग्यारह साल का नाती पांचवीं कक्षा का छात्र है. वह सबेरे अखबार पढ़ता है, टेलीविजन देखता है, रेडियो सुनता है. वह तमाम नेताओं की पोलें जानता है. देवीलाल और ओमप्रकाश चौटाला की आलोचना करता है. घर में कुछ ऐसा करने को कहो तो प्रतिरोध करता है- मेरी बात भी तो सुनो. दिन भर पढ़कर आया हूं. अब फिर कहते हो कि पढ़ने बैठ जाऊं. थोड़ी देर नहीं खेलूंगा नहीं तो पढ़ाई भी नहीं होगी. हमारी पुस्तक में लिखा है. वह जानता है कि घर में बड़े कब-कब झूठ बोलते हैं.

ऊंची पढ़ाई वाले विश्वविद्यालय के छात्र सबेरे अखबार पढ़ते हैं तो तमाम राजनीति और समाज के नेताओं के भ्रष्टाचार, पतनशीलता के किस्से पढ़ते हैं. अखबार देश को चलाने वालों और समाज के नियामकों के छल, कपट, प्रपंच, दुराचार की खबरों से भरे रहते हैं. धर्माचार्यों की चरित्रहीनता उजागर होती है. यही नेता अपने हर भाषण हर उपदेश में छात्रों से कहते हैं- युवकों, तुम्हें देश का निर्माण करना है (क्योंकि हमने नाश कर दिया) तुम्हें चरित्रवान बनना है (क्योंकि हम तो चरित्रहीन हैं) शिक्षा का उद्देश्य पैसा कमाना नहीं है, नैतिक चरित्र का ग्रहण करना है- (हमने शिक्षा और अशिक्षा से पैसा कमाना और अनैतिक होना सीखा) इन नेताओं पर छात्रों-युवकों की आस्था कैसे जमे? छात्र अपने प्रोफेसरों के बारे में सब जानते हैं. उनका ऊंचा वेतन लेना और पढ़ाना नहीं. उनकी गुटबंदी, एक-दूसरे की टांग खींचना, नीच कृत्य, द्वेषवश छात्रों को फेल करना, पक्षपात, छात्रों का गुटबंदी में उपयोग. छात्रों से कुछ भी नहीं छिपा रहता अब. वे घरेलू मामले भी जानते हैं. ऐसे गुरुओं पर छात्र कैसे आस्था जमाएं. ये गुरु कहते हैं- छात्रों को क्रांति करना है. वे क्रांति करने लगे तो सबसे पहले अपने गुरुओं को साफ करेंगे. अधिकतर छात्र अपने गुरुओं से नफरत करते हैं.

बड़े लड़के अपने पिता को भी जानते हैं. वे देखते हैं कि पिता का वेतन तो तीन हजार है, पर घर का ठाठ-बाट आठ हजार रुपयों का है. मेरा बाप घूस खाता है. मुझे ईमानदारी के उपदेश देता है. हमारे समय के लड़के-लड़कियों के लिए सूचना और जानकारी के इतने माध्यम खुले हैं कि वे सब क्षेत्रों में अपने बड़ों के बारे में सबकुछ जानते हैं. इसलिए युवाओं से ही नहीं बच्चों से भी अंधआज्ञाकारिता की आशा नहीं की जा सकती. हमारे यहां ज्ञानी ने बहुत पहले कहा था- ‘प्राप्तेषु षोडसे वर्षे पुत्र मित्र समाचरेत.’

उनसे बात की जा सकती है, उन्हें समझाया जा सकता है. कल परसों मेरा बारह साल का नाती बाहर खेल रहा था. उसकी परीक्षा हो चुकी है और लंबी छुट्टी है. उससे घर आने के लिए उसके चाचा ने दो तीन बार कहा. डांटा. वह आ गया और रोते हुए चिल्लाया, हम क्या करें? ऐसी-तैसी सरकार की जिसने छुट्टी कर दी. छुट्टी काटना उसकी समस्या है. वह कुछ तो करेगा ही. दबाओगे तो विद्रोह कर देगा. जब बच्चे का यह हाल है तो तरुणों की प्रतिक्रियाएं क्या होंगी.

[ilink url=”https://tehelkahindi.com/speech-of-jnu-student-union-president-kanhaiya-kumar/” style=”tick”]अगर तुम्हारी भारतमाता में मेरी मां शामिल नहीं तो भारतमाता का ये कॉन्सेप्ट मुझे मंजूर नहीं[/ilink]

युवक-युवतियों के सामने आस्था का संकट है. सब बड़े उसके सामने नंगे हैं. आदर्शों, सिद्धातों, नैतिकताओं की धज्जियां उड़ते वे देखते हैं. वे धूर्तता, अनैतिकता, बेईमानी, नीचता को अपने सामने सफल और सार्थक होते देखते हैं. मूल्यों का संकट भी उनके सामने है. सब तरफ मूल्यहीनता उन्हें दिखती है. बाजार से लेकर धर्मस्थल तक. वे किस पर आस्था जमाएं और किसके पदचिन्हों पर चलें? किन मूल्यों को मानें?

यूरोप में दूसरे महायुद्ध के दौरान जो पीढ़ी पैदा हुई उसे लॉस्ट जनरेशन’(खोई हुई पीढ़ी) का कहा जाता है. युद्ध के दौरान अभाव, भुखमरी, शिक्षा, चिकित्सा की ठीक व्यवस्था नहीं. युद्ध में सब बड़े लगे हैं तो बच्चों की परवाह करने वाले नहीं. बच्चों के बाप और बड़े भाई युद्ध में मारे गए. घर का, संपत्ति का, रोजगार का नाश हुआ. जीवन मूल्यों का नाश हुआ. ऐसे में बिना उचित शिक्षा, संस्कार, भोजन, कपड़े के विनाश और मूल्यहीनता के बीच जो पीढ़ी बढ़कर जवान हुई तो खोई हुई पीढ़ी. इसके पास निराशा, अंधकार, असुरक्षा, अभाव, मूल्यहीनता के सिवा कुछ नहीं था. विश्वास टूट गए थे. यह पीढ़ी निराश, विध्वंसवादी, अराजक, उपद्रवी, नकारवादी हुई. अंग्रेज लेखक जार्ज ओसबर्न ने इस क्रुद्ध पीढ़ी पर नाटक लिखा था तो बहुत पढ़ा गया और उस पर फिल्म भी बनी. नाटक का नाम है- ‘लुक बैक इन एंगर’. मगर यह सिलसिला यूरोप के फिर से व्यवस्थित और सम्पन्न हो जाने पर भी चलता रहा. कुछ युवक समाज के ‘ड्राप आउट’ हुए. ‘बीट जनरेशन’ पैदा हुई. औद्योगीकरण के बाद यूरोप में काफी प्रतिशत बेकारी है. ब्रिटेन में अठारह प्रतिशत बेकारी है. अमेरिका ने युद्ध नहीं भोगा. मगर व्यवस्था से असंतोष वहां भी पैदा हुआ. अमेरिका में भी लगभग बीस प्रतिशत बेकारी है. वहां एक ओर बेकारी से पीड़ित युवक हैं तो दूसरी ओर अतिशय सम्पन्नता से पीड़ित युवक भी. जैसे यूरोप में वैसे ही अमेरिकी युवकों, युवतियों का असंतोष, विद्रोह, नशेबाजी, यौन स्वछंदता और विध्वंसवादिता में प्रकट हुआ. जहां तक नशीली वस्तुओं के सेवन का सवाल है, यह पश्चिम में तो है ही, भारत में भी खूब है. दिल्ली विश्वविद्यालय के पर्यवेक्षण के अनुसार दो साल पहले (1989 में) सत्तावन फीसदी छात्र और पैंतीस फीसदी छात्राएं नशे के आदी पाए गए. दिल्ली तो महानगर है. छोटे शहरों में, कस्बों में नशे आ गए हैं. किसी-किसी पान की दुकान में नशा हर कहीं मिल जाता है. ‘स्मैक’ और ‘पाट’ टाफी की तरह उपलब्ध हैं.

छात्रों-युवकों को क्रांति की, सामाजिक परिवर्तन की शक्ति मानते हैं. सही मानते हैं. अगर छात्रों-युवकों में विचार हो, दिशा हो, संगठन हो और सकारात्मक उत्साह हो, वे अपने से ऊपर की पीढ़ी की बुराइयों को समझें तो उन्हीं बुराइयों के उत्तराधिकारी न बनें, उनमें अपनी ओर से दूसरी बुराइयां मिलाकर पतन की परंपरा को आगे नहीं बढ़ाएं. सिर्फ आक्रोश तो आत्मक्षय करता है.

एक हर्बर्ट मार्क्यूस चिंतक हो गए हैं, जो सदी के छठे दशक में बहुत लोकप्रिय हो गए थे. वे ‘स्टूडेंट पावर’ में बहुत विश्वास करते थे. मानते थे कि छात्र क्रांति कर सकते हैं. वैसे सही बात यह है कि अकेले छात्र क्रांति नहीं कर सकते. उन्हें समाज के दूसरे वर्गों को शिक्षित करके चेतनाशील बनाकर संघर्ष में साथ लेना होगा. लक्ष्य निर्धारित करना होगा. आखिर क्या बदलना है यह तो तय हो. अमेरिका में हर्बर्ट मार्क्यूस से प्रेरणा पाकर छात्रों ने नाटक ही किए. हो ची मिन्ह और चे गुवेरा के बड़े-बड़े चित्र लेकर जुलूस निकालना और भद्दी, भौंड़ी, अश्लील हरकतें करना. अमेरिकी विश्वविद्यालयों की पत्रिकाओं में बेहद फूहड़ अश्लील चित्र और लेख कहानी. फ्रांस के छात्र अधिक गंभीर शिक्षित थे. राष्ट्रपति द गाल के समय छात्रों ने सोरोबोन विश्वविद्यालय में आंदोलन किया. लेखक ज्यां पाल सात्र ने उनका समर्थन किया. उनका नेता कोहने बेंडी प्रबुद्ध और गंभीर युवक था. उनके लिए राजनीतिक क्रांति करना तो संभव नहीं था. फ्रांस के श्रमिक संगठनों ने उनका साथ नहीं दिया. पर उनकी मांगें ठोस थीं जैसे शिक्षा पद्धति में आमूल परिवर्तन. अपने यहां जैसी नकल करने की छूट की क्रांतिकारी मांग उनकी नहीं थी. पाकिस्तान में भी एक छात्र नेता तारिक अली ने क्रांति की धूम मचाई. फिर वह लंदन चला गया.

युवकों का यह तर्क सही नहीं है कि जब सब पतित हैं तो हम क्यों नहीं हों. सब दलदल में फंसे हैं तो जो लोग नए हैं, उन्हें उन लोगों को वहां से निकालना चाहिए. यह नहीं कि वे भी उसी दलदल में फंस जाएं. दुनिया में जो क्रांतियां हुई हैं, सामाजिक परिवर्तन हुए हैं, उनमें युवकों की बड़ी भूमिका रही है. मगर जो पीढ़ी ऊपर की पीढ़ी की पतनशीलता अपना ले, क्योंकि वह सुविधा की है और उसमें सुख है, वह पीढ़ी कोई परिवर्तन नहीं कर सकती. ऐसे युवक हैं, जो क्रांतिकारिता का नाटक बहुत करते हैं, पर दहेज भरपूर लेते हैं. कारण बताते हैं- मैं तो दहेज को ठोकर मारता हूं, पर पिताजी के सामने झुकना पड़ा. यदि युवकों के पास दिशा हो, विचारधारा हो, संकल्पशीलता हो, संगठित संघर्ष हो तो वे परिवर्तन ला सकते हैं.

पर मैं देख रहा हूं एक नई पीढ़ी अपने से ऊपर की पीढ़ी से अधिक जड़ और दकियानूस हो गई है. यह शायद हताशा से उत्पन्न भाग्यवाद के कारण हुआ है. अपने पिता से अधिक तत्ववादी, बुनियादपरस्त (फंडामेंटलिस्ट) लड़का है.

दिशाहीन, बेकार, हताश, नकारवादी, विध्वंसवादी बेकार युवकों की यह भीड़ खतरनाक होती है. इसका उपयोग खतरनाक विचारधारा वाले व्यक्ति और समूह कर सकते हैं. इस भीड़ का उपयोग नेपोलियन, हिटलर और मुसोलिनी ने किया. यह भीड़ धार्मिक उन्मादियों के पीछे चलने लगती है. यह भीड़ किसी भी ऐसे संगठन के साथ हो सकती है जो उन्माद और तनाव पैदा कर दे. फिर इस भीड़ से विध्वंसक काम कराए जा सकते हैं. यह भीड़ फासिस्टों का हथियार बन सकती है. हमारे देश में यह भीड़ बढ़ रही है. इसका उपयोग भी हो रहा है. आगे इस भीड़ का उपयोग सारे राष्ट्रीय और मानव मूल्यों के विनाश के लिए, लोकतंत्र के नाश के लिए करवाया जा सकता है.

पटियाला हाउस कोर्ट के बाद इलाहाबाद कचहरी में प्रदर्शनकारियों पर वकीलों का हमला

IMG-20160225-WA0009
रोहित वेमुला और जेएनयू प्रकरण को लेकर इलाहाबाद कचहरी में धरना दे रहे छात्रों और कार्यकर्ताओं पर गुरुवार को वकीलों ने हमला कर दिया. धरना दे रहे लोगों को ‘देशद्रोही’ और ‘पाकिस्तान समर्थक’ कहकर उन पर हमला किया गया. इस हमले में कुछ छात्रों को गंभीर चोटें आई हैं. हमलावरों ने ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता अविनाश मिश्रा का िसर फोड़ दिया.
 
इलाहाबाद से मिली जानकारी के अनुसार, रोहित वेमुला और जेएनयू मुद्दे की निष्पक्ष जांच, कन्हैया कुमार सहित अन्य छात्र नेताओं की रिहाई और अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर कुछ वामपंथी संगठनों ने धरना प्रदर्शन आयोजित किया था. इस धरने में छह वामपंथी दल- भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (लेनिनवादी), सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर आॅफ इंडिया (कम्युनिस्ट), रिवोलूशनरी सोशलिस्ट पार्टी आफ इंडिया शामिल थे. इसके अलावा आॅल इंडिया फारवर्ड ब्लाॅक-एसएफआई, आईसा, एआडीएसओ सहित इलाहाबाद के छात्रों, ट्रेड यूनियन नेताओं, महिला अधिकार कार्यकर्ताओं, सिविल सोसाइटी और साहित्य जगत के कुछ लोग शामिल थे. 
 
IMG-20160225-WA0024
प्रदर्शनकारी धरना-प्रदर्शन करके भारत के राष्ट्रपति के नाम का ज्ञापन इलाहाबाद के जिलाधिकारी को देना चाहते थे. इसके लिए उन्होंने बाकायदा प्रशासन से अनुमति ली थी. गुरुवार को दिन में 12 बजे के आसपास जैसे ही सभा शुरू हुई, कुछ वकीलों का एक समूह आया और प्रदर्शनकारियों से कहा, ‘तुम सब पाकिस्तान समर्थक और देशद्रोही हो.’ वकीलाें ने प्रदर्शनकारियों से जाने को कहा, जिससे उन्होंने इनकार कर दिया. इसके 10 मिनट के बाद 15-20 वकील आए और प्रदर्शन कर रहे लोगों को लाठी-डंडे और पत्थरों से मारने लगे. मारपीट में ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता अविनाश मिश्रा का सिर फूट गया.
वहां पर मौजूद एक छात्र के अनुसार, वकीलों ने महिलाओं को भी नहीं बख्शा. उन पर जातिवादी और अभद्र टिप्पणियां की गईं. प्रदर्शन में मौजूद पीयूसीएल और शहरी गरीब मोर्चा की उत्पला और प्रभा को चोटें आई हैं.  
अविनाश ने आरोप लगाया, ‘हमला करने वाले वकीलों की ड्रेस में थे, लेकिन वे सभी वकील नहीं थे. यह भाजपा के गुंडों का काम है. प्रदर्शनस्थल पर मारपीट होने से कुछ देर पहले तक मौजूद साहित्यकार दूधनाथ सिंह ने ​बताया, ‘यह हिंदूवादी संगठनों और उनके लोगों का काम है. उन्होंने शांतिपूर्ण धरने पर हमला किया. वकीलों का इसमें शामिल होना गंभीर स्थिति है. शांतिपूर्ण धरने पर वकीलों का हमला दिल्ली कोर्ट में हुए तमाशे का विस्तार है.’ प्रदर्शनकारियों ने कर्नलगंज थाने आकर हमलावरों के खिलाफ एफआईआर लिखाई है.

मैं प्रो. सिरास से तो नहीं मिला, लेकिन मनोज बाजपेयी ने जिस तरह का रोल किया है उसे देख लगता है कि वे वैसे ही रहे होंगे : दीपू

Deepu-4WEB

प्रो. सिरास की जिंदगी पर आधारित फिल्म ‘अलीगढ़’ रिलीज होने वाली है. क्या फिल्म बनाने का विचार आपका था?

प्रो. सिरास पर फिल्म बनाने का विचार मेरा नहीं था. हम पत्रकार लोग तो ये सब देखते रहते हैं. हम लोग सिर्फ स्टोरी लिखते हैं और भूल जाते हैं. 2013-14 में ईशानी बनर्जी दिल्ली में काम कर रही थीं तब उन्हें प्रो. सिरास के बारे में पता चला तो वो अलीगढ़ गईं और उनके बारे में पता किया. वहां किसी के पास पूरी कहानी नहीं थी, वहां उन्हें मेरे बारे में पता चला तो उन्होंने मुझे कॉल किया. प्रो. सिरास अकेले रहते थे और एकाकी व्यक्ति थे इसलिए किसी के पास उनकी पूरी कहानी नहीं है. मुझसे मिलने के बाद उन्हें लगा कि मैं भी उनकी कहानी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हूं. अपूर्व एम. असरानी और ईशानी ने मिलकर फिल्म की कहानी को लिखा है. इस तरह से फिल्म आगे बढ़ी.

प्रो. सिरास का मामला बहुत ही संवेदनशील था. ऐसे मामलों के बारे में लिखना आसान नहीं होता? इसकी रिपोर्टिंग कैसे की?

उस समय मैं दिल्ली में जूनियर रिपोर्टर था, मुझे नहीं पता था कि अलीगढ़ जाना है और कैसे इस मामले की रिपोर्टिंग करनी है. जब उन्हें विश्वविद्यालय से निलंबित किया गया उस वक्त मैं अलीगढ़ पर एक फीचर स्टोरी कर रहा था. निलंबन की खबर हमारे यहां नहीं प्रकाशित हो पाई थी और मुझे इस मामले पर रिपोर्ट करने के लिए कहा गया. शुरू-शुरू में मैं इस मामले से एक पत्रकार के तौर पर जुड़ा, लेकिन जिस तरह की रिपोर्टिंग हो रही थी, वह मुझे ठीक नहीं लगी. दूसरे तमाम लोगों ने उस वक्त उस एमएमएस के बारे विस्तार से लिखा. मैंने कभी उस एमएमएस क्लिप के बारे में विस्तार से नहीं लिखा. मैंने अपनी रिपोर्ट में सिर्फ ये लिखा कि इस घटना के बाद समाज के लोग कैसा व्यवहार कर रहे हैं. एक एमएमएस बनाकर उनकी निजता का उल्लंघन किया गया था और लोग उन्हीं को भला-बुरा कहने में मशगूल थे.

[ilink url=”https://tehelkahindi.com/a-professor-of-aligarh-shrinivas-ramchandra-siras/” style=”tick”]जानिए अलीगढ़ के समलैंगिक प्रोफेसर की कहानी[/ilink]

आप उन लोगों में से हैं, जिनसे वे आखिरी समय में संपर्क में थे. आप उनसे मिलने वाले थे, क्या हुआ था?

मैं प्रो. सिरास से कभी नहीं मिल पाया. इलाहाबाद हाईकोर्ट की ओर से जब उनके पक्ष में फैसला आया. उस वक्त ये खबर मुझसे छूट गई थी, क्योंकि इसे तो इलाहाबाद से रिपोर्ट करना था. तब मुझे फॉलोअप करना पड़ा. तब मैंने प्रोफेसर को फोन कर ये बताया कि सर आपने कुछ बताया नहीं. तब मैंने उन्हें बताया कि मैं उन पर एक बड़ी स्टोरी करूंगा. तब उन्होंने मुझसे एक-दो दिन में आकर मिलने के लिए कहा था. जब प्रोफेसर से बात हुई तब उन्होंने कहा था कि तुम्हारी वजह से मुझे सोने में लेट हो गया. मैंने ये बात अपने संपादक को बताई तो उन्होंने कहा कि अभी चले जाओ. उस वक्त रात हो चुकी थी इसलिए मैंने उन्हें फोन लगाना ठीक नहीं समझा. अगले दिन मैं 11 बजे के बाद अलीगढ़ पहुंचा तो उन्हें कॉल किया तो उनका फोन ‘स्विच ऑफ’ या ‘नॉट रिचेबल’ आ रहा था. उस दिन बार-बार मैंने कॉल किया तो फोन ‘स्विच ऑफ’ आ रहा था तो मुझे थोड़ी हैरानी हुई थी.

आपकी प्रो. सिरास से कई बार बात हुई. बातचीत के आधार पर आपको वे किस तरह के इंसान लगे?

जितनी मेरी उनसे बात हुई उसके आधार पर ये पता चला कि वह साधारण और बेहद निजी व्यक्ति थे. अलीगढ़ में अकेले रहा करते थे. उनके ज्यादा दोस्त नहीं थे. वह सहनशील और मजबूत इरादों वाले व्यक्ति थे, क्योंकि जिस तरह का विवाद उनके साथ हुआ था. कोई और होता तो फोन ‘स्विच आॅफ’ कर लेता या फिर किसी से बात नहीं करता, लेकिन खराब परिस्थितियां होने के बावजूद उन्होंने अपना फोन कभी बंद नहीं रखा और जब आप कॉल करो तो वे बड़ी आसानी और सहजता से बात भी करते थे. उन्होंने कभी किसी से कुछ नहीं कहा. उन्हें लगता था कि समस्याएं उनकी अपनी हैं और वे ही इनका समाधान करेंगे. उन्हें बस यही लगता था कि जो कुछ भी हुआ उससे उनकी निजता के अधिकार उल्लंघन किया गया, ये तब किया गया था जब दिल्ली हाईकोर्ट ने सहमति से समलैंगिक संबंध बनाने को अपराध नहीं माना था. शुरू में उनकी लड़ाई अपना निलंबन रद्द कराने को लेकर थी, लेकिन बाद की उनकी लड़ाई खुद के हक को लेकर शुरू हुई.

आप उनका इंटरव्यू करने के लिए अलीगढ़ जाने वाले थे. अलीगढ़ में क्या हुआ था?

अलीगढ़ पहुंचने के बाद मैं सीधा कैंपस गया लेकिन वे वहां नहीं थे. उनके डिपार्टमेंट में मलयालम पढ़ाने वाले एक प्रोफेसर हैं सतीशन, जिनका फिल्म में भी छोटा सा रोल है. विश्वविद्यालय में सतीशन मेरे पुराने सूत्र थे. उस डिपार्टमेंट में प्रो. सिरास के अलावा सतीशन ही थे. सतीशन भी उस दिन डिपार्टमेंट में नहीं थे, उन्हें भी उनके बारे में पता नहीं था. उनके बारे में किसी को कुछ पता नहीं था. तब किसी ने बताया कि वह दुर्गाबाड़ी मोहल्ले में रह रहे हैं. वहां विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर रहते थे. उन्हें भी पता नहीं था, लेकिन उन्होंने एक मराठी व्यक्ति के बारे में बताया जिसने उन्हें नया कमरा दिलवाया था. मैं उनके पास गया तो उन्होंने बताया कि वे यहां नहीं रहते अब. फिर कुछ दूसरे इलाकों में ढूंढा, लेकिन उनका कुछ पता नहीं चला. फिर वापस दुर्गाबाड़ी आ गया. शाम को एक लड़के ने उनके बारे में बताया. हम वहां गए तो पता चला कि जिस मराठीभाषी व्यक्ति ने प्रोफेसर को कमरा दिलाया, उसके मकान के बिल्कुल पीछे ही था प्रोफेसर का घर. उन्होंने हमसे झूठ बोला था. जब हम पहुंचे तो प्रो. सिरास का कमरा बाहर से लॉक था. हम आधा घंटा थे वहां, लेकिन उनकी कोई जानकारी नहीं मिली. दूसरे दिन भी उनका घर बंद था. मैंने अपने एडिटर से बात की तो उन्होंने अलीगढ़ में ही एक दूसरी रिपोर्ट पर लगा दिया. ये रिपोर्ट करते हुए मुझे एक दूसरे रिपोर्टर से पता चला कि उस कमरे में उनकी लाश मिली.

उनकी मौत किन वजहों से हुई इस पर अब भी रहस्य बरकरार है. आपको क्या लगता है?

बहुत सारे लोग कहते हैं कि उनकी हत्या हुई है, लेकिन उनके आत्महत्या करने से भी इंकार नहीं किया जा सकता. मेरे हिसाब से ये एक आत्महत्या थी, हत्या की संभावना बहुत ही कम है. वह बहुत निजी व्यक्ति थे. किसी को भी नहीं पता था कि उनके मन में उस वक्त क्या चल रहा था. ऐसे में ये नहीं कहा जा सकता कि हाईकोर्ट की ओर से पक्ष में फैसला आ जाने के बाद वो खुश ही थे.

आपके लिए फिल्म ‘अलीगढ़’ की खास स्क्रीनिंग कराई गई थी? आपको ये फिल्म कैसी लगी?

फिल्म की कहानी बहुत ही अच्छी तरह से लिखी गई है और फिल्म भी बहुत अच्छी बनी है. इसे थोड़ा सा नाटकीय बनाया गया है, जैसे मैं प्रोफेसर से कभी नहीं मिला, लेकिन फिल्म में मिलते हुए दिखाया गया है. हालांकि ये कहानी ऐसी है कि आप इसमें बहुत सारा ड्रामा नहीं जोड़ सकते. प्रोफेसर के बहाने फिल्म एलजीबीटी समुदाय के अधिकारों के बारे में बात करती है. एक बात मैं जरूर कहूंगा कि मैं प्रो. सिरास से नहीं मिला, लेकिन मनोज बाजपेयी ने जिस प्रभावशाली तरीके से प्रोफेसर का किरदार निभाया है, वह एकदम वैसा ही है जैसा मैंने प्रोफेसर के बारे में कल्पना की थी. लगता है कि प्रोफेसर ऐसे ही रहे होंगे.

अलीगढ़ का वो प्रोफेसर

Siras
प्रो. श्रीनिवास रामचंद्र सिरास

09 फरवरी 2010, के दिन अलीगढ़ की सुबह हर दिन की तरह सामान्य नहीं थी. ठंड के मौसम में माहौल में अजीब सी कड़वाहट घुली हुई थी. इसकी वजह विभिन्न अखबारों में प्रकाशित एक खबर थी, जो लोगों के बीच चर्चा का विषय बनी हुई थी. ये चर्चा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) के एक प्रोफेसर से जुड़ी हुई थी, जिससे जुड़े एक स्टिंग ऑपरेशन की खबर अखबारों में प्रकाशित होने के साथ ही लोकल और राष्ट्रीय चैनलों पर जोर-शोर से चलाई जा रही थी. स्टिंग ऑपरेशन में उस प्रोफेसर द्वारा एक रिक्शा चालक से समलैंगिक संबंध बनाने का दावा किया गया था. इस ऑपरेशन को एक दिन पहले ही स्थानीय टीवी चैनल के दो पत्रकारों ने देर रात जबरदस्ती उनके किराये के घर में घुसकर अंजाम दिया था.

ये कहानी अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के प्रो. श्रीनिवास रामचंद्र सिरास की है, जिन्होंने अपने नागपुर स्थित घर से सैकड़ों किलोमीटर दूर अलीगढ़ शहर को आजीविका के लिए अपना बनाया था. हालांकि इस शहर में दो दशक गुजार देने के बाद साल 2010 के फरवरी माह के बाद से अचानक ये शहर उनके लिए अजनबी हो जाता है. एक रिक्शा चालक से समलैंगिक संबंध होने की खबर फैलते ही विश्वविद्यालय प्रबंधन ने अपनी छवि खराब होने का हवाला देते हुए उन्हें निलंबित कर दिया. उस समय विश्वविद्यालय परिसर के साथ ही शहर के लोगों में सामाजिक ताने-बाने को नुकसान के साथ संस्कृति को ठेस पहुंचाने के लिए प्रो. सिरास को जिम्मेदार ठहराने की बहस छिड़ गई और यह बात कहीं पीछे छूट गई कि उस स्टिंग ऑपरेशन की वजह से किसी की निजता के अधिकार को बेरहमी से कुचल दिया गया था.

[symple_box color=”yellow” text_align=”left” width=”100%” float=”none”]

धारा 377 बनाम समलैंगिकता

इसी महीने की दो तारीख को सुप्रीम कोर्ट समलैंगिक रिश्तों को अपराध बताने वाली आईपीसी की धारा 377 के खिलाफ दायर सभी आठ सुधारात्मक याचिकाओं पर सुनवाई करने को राजी हो गया है. कोर्ट ने इस मामले को पांच सदस्यीय संविधान पीठ को सौंप दिया है. शीर्ष अदालत के 11 दिसंबर, 2013 के फैसले और पुनर्विचार याचिका पर फिर से गौर करने के लिए ये याचिकाएं दायर की गई हैं. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड सहिता की धारा 377 के तहत समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर करने संबंधी दिल्ली हाईकोर्ट का निर्णय निरस्त कर दिया था. 2009 में दिल्ली हाईकोर्ट ने आईपीसी की धारा 377 के तहत समलैंगिकता को अपराधमुक्त कर दिया था, लेकिन शीर्ष अदालत ने फैसला पलटते हुए धारा 377 बरकरार रखा था. आईपीसी की धारा 377 के अनुसार अगर कोई व्यस्क स्वेच्छा से किसी पुरुष, महिला या पशु के साथ अप्राकृतिक यौन संबंध स्थापित करता है तो वह आजीवन कारावास या 10 वर्ष और जुर्माने से भी दंडित हो सकता है. औपनिवेशिक काल के दौरान 1860 में इस धारा को अंग्रेजों द्वारा भारतीय दंड संहिता में शामिल किया गया था. उस वक्त इसे ईसाई धर्म में भी अनैतिक माना जाता था. 1967 में ब्रिटेन ने भी समलैंगिक संबंधों को कानूनी मान्यता दे दी है और भारत में अब भी ये कानून बरकरार है.

[/symple_box]

प्रो. सिरास की कहानी का अंत उनकी मौत से होता है, जिस पर आज भी रहस्य का पर्दा पड़ा हुआ. संदिग्ध परिस्थितियों में उनकी लाश उनके किराये के कमरे में मिलती है. उनकी मौत किन वजहों से हुई ये सवाल आज भी उसी तरह बरकरार है. उस वक्त वह 64 साल के थे और अगले छह महीनों में रिटायर होने वाले थे. तमाम लोग जहां इसे आत्महत्या मानते हैं वहीं दबी जुबान कुछ लोग इसे हत्या भी मानते हैं. अब इस घटना के छह साल बाद एक फिल्म रिलीज को तैयार है, जिसे बॉलीवुड को ‘शाहिद’ और ‘सिटीलाइट्स’ जैसी फिल्म देने वाले हंसल मेहता ने बनाई है. ‘अलीगढ़’ नाम की इस फिल्म ने प्रो. सिरास को एक बार फिर से जीवंत कर दिया है. फिल्म ने एक बार फिर समलैंगिक संबंधों और एलजीबीटी समुदाय के अधिकारों पर देश में बहस छेड़ दी. ये उस शख्स की कहानी है जो अलीगढ़ शहर की लाखों की भीड़ में तन्हा था. एकाकीपन जिनका स्वभाव था और यौन इच्छा ऐसी थी जो आज भी भारतीय समाज में सामान्य नहीं मानी जाती है.

[ilink url=”https://tehelkahindi.com/i-never-met-prof-siras-but-the-way-manoj-bajpai-acted-i-think-siras-was-like-that-says-deepu-whose-role-is-playing-by-actor-rajkumar-rao-in-aligarh-movie/” style=”tick”]वह पत्रकार, जिनकी भूमिका फिल्म अलीगढ़ में राजकुमार राव निभा रहे हैं[/ilink]

प्रो. सिरास एक भाषाविद और कवि थे जो नागपुर के एक संपन्न परिवार से ताल्लुक रखते थे. नागपुर विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान और भाषाशास्त्र की पढ़ाई की थी. उन्होंने मनोविज्ञान विषय से परास्नातक किया और मराठी भाषा में डॉक्टरेट की उपाधि ली. 1998 में वह अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में भाषाशास्त्र के प्रोफेसर चुन लिए गए. ज्यादातर उर्दू लहजे में बात करने वाले इस शहर में वह मराठी पढ़ाते थे. उन्हें अलीगढ़ से लगाव भी था. अपने साथ हुई घटना के बाद एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, ‘मैं बहुत सौभाग्यशाली हूं कि मैं अलीगढ़ आया. यहां मुझे आदर और सम्मान मिला. अगर मैं महाराष्ट्र में होता तो मैं मराठी का एक साधारण शिक्षक होता, जबकि विश्वविद्यालय में

मैं मराठी का एकमात्र शिक्षक हूं.’ विश्वविद्यालय में वह डिपार्टमेंट ऑफ मॉडर्न इंडियन लैंग्वेजेज के अध्यक्ष थे. इसके अलावा वह मराठी भाषा के एक ख्यात साहित्यकार भी थे. साल 2002 में अपने काव्य संग्रह ‘पाया खालची हिरावल’ (मेरे पैरों तले की घास) के लिए उन्हें महाराष्ट्र साहित्य परिषद सम्मान दिया गया था. प्रो. सिरास समलैंगिक थे, लेकिन इसे किसी पर जाहिर नहीं होने देते थे. हालांकि उनके साथ जो कुछ भी हुआ उससे इस बात का अंदाजा आसानी से लगाया सकता है कि जिस बात को वे जाहिर नहीं करना चाहते थे उसके बारे में कुछ लोगों को भनक लग चुकी थी.

नागपुर में ही उनकी शादी तलाक पर आकर खत्म हो गई थी. उन्हें जानने वाले बताते हैं कि वह नितांत निजी व्यक्ति थे. ज्यादातर अकेले नजर आते थे. उनका कोई दोस्त भी नहीं था. एनडीटीवी को दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, ‘मैं इस शहर में अकेला रहता हूं, जो कुछ भी हुआ उसके बाद से मैं बहुत ही शर्मिंदा महसूस कर रहा हूं, क्योंकि इससे पहले तक कोई भी मुझे नहीं जानता था. ये मेरा निजी जीवन था, जिसे उन लोगों ने सार्वजनिक कर दिया. मेरी निजता में अतिक्रमण किया गया है और मेरे मानवाधिकार का उल्लंघन किया गया है. इस घटना से मैं नाराज नहीं हुआ. इसे मैंने इस तरह से देखा कि किसी ने मेरे खिलाफ साजिश की है और यह राजनीति से प्रेरित है.’ स्टिंग ऑपरेशन के बाद उन्हें विश्वविद्यालय के अंदर मिला फ्लैट छोड़ना पड़ा था. दूसरे फ्लैट के लिए उन्हें दर दर भटकना पड़ा. उस वक्त बहुत कम लोग थे जो उनके साथ खड़े हुए थे. इन्हीं लोगों के सहारे उन्होंने विश्वविद्यालय प्रबंधन के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया था.

Aligarh
प्रो. सिरास की भूमिका में मनोज वाजपेयी

‘मैंने फैसला कर लिया है, मैं समलैंगिक समुदाय के लिए काम करना चाहता हूं. मैं अमेरिका जाना चाहता हूं. सिर्फ अमेरिका ही ऐसी जगह है, जहां मैं समलैंगिक होने के लिए पूरी तरह से आजाद होऊंगा.’ ये बात प्रो. सिरास ने एक पत्रकार दीपू सेबेस्टियन एडमंड से कही थी, जो उस वक्त ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ अखबार में काम करते थे. एक अप्रैल 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एएमयू से उनके निलंबन को रद्द कर उनकी बहाली का आदेश दिया था, जिसके बाद पांच अप्रैल को दीपू ने उनका टेलीफोनिक इंटरव्यू किया था. फिल्म ‘अलीगढ़’ में एडमंड का किरदार राजकुमार राव निभा रहे हैं.

एक अप्रैल 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद विश्वविद्यालय में वापस बहाल होने पर वह काफी खुश भी थे, लेकिन लोगों के व्यवहार से वह परेशान भी नजर आ रहे थे. मीडिया से बातचीत में उन्होंने कहा था, ‘मैंने यहां दो दशक गुजार दिए. मैं अपने विश्वविद्यालय से प्यार करता हूं. मैंने हमेशा इससे प्यार किया है और आगे भी ऐसा ही करूंगा, लेकिन मैं हैरान हूं कि लोग

मुझसे नफरत करने लगे हैं, क्योंकि मैं समलैंगिक हूं.’ एक न्यूज चैनल से बातचीत में उन्होंने कहा था, ‘उस घटना के बाद लोग मुझे अजीब तरह से देखते हैं. मेरे पड़ोस मे रहने वाली एक डॉक्टर बीमार होने पर मुझे अक्सर दवाइयां आदि दिया करती थीं, लेकिन घटना के बाद से जब मैं अपना बीपी चेक कराने के लिए उनके पास गया तो उन्होंने बताया कि बीपी चेक करने वाली मशीन टूट गई है.’

कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, पक्ष में फैसला आने के बाद वह पांच अप्रैल 2010 को कैंपस गए भी थे, लेकिन उनकी बहाली के लिए जारी हुआ आधिकारिक पत्र उन्हें नहीं मिला था. इसके बाद सात अप्रैल को उनका शव उनके किराये के कमरे में पाया जाता है. यह पत्र उनके दफ्तर में उनकी मौत के बाद पहुंचता है. पुलिस ने पहले इसे आत्महत्या का केस माना था. पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट में उनके शरीर में जहर के अंश मिले थे. मामले में केस दर्ज करने के बाद पुलिस ने छह से सात संदिग्धों को गिरफ्तार किया था. 19 अप्रैल को तत्कालीन एसपी ने बताया था कि मामले में तीन पत्रकारों और एएमयू के चार आधिकारियों के नाम आए हैं. बाद में इस मामले को बंद करना पड़ा, क्योंकि पुलिस के हाथ पर्याप्त सबूत नहीं लग सके.

कुछ मीडिया रिपोर्ट्स कहती हैं कि उनकी मौत पर रहस्य अब भी बरकरार है. रहस्य इस बात का कि उनका मोबाइल कमरे से गायब था. मौत से समय के असपास ही किसी ने उनके एटीएम कार्ड का इस्तेमाल किया था. मोबाइल कौन ले गया? एटीएम कार्ड का इस्तेमाल किसने किया? ऐसे तमाम सवालों के जवाब अब तक नहीं मिल सके हैं. इतना ही नहीं जिस कमरे में उनकी लाश मिली उसमें दरवाजा अंदर से बंद था. वहीं मुख्य दरवाजा बाहर से बंद था. उन्हें विश्वविद्यालय में बहाल कर दिया गया था और समलैंगिक लोगों के अधिकारों की लड़ाई लड़ने वाले संगठनों का उन्हें साथ भी मिल रहा था, ऐसे में खुद को खत्म करने जैसा कदम उठाना संहेद पैदा करता है. क्या उनके खिलाफ ये स्टिंग आॅपरेशन किसी साजिश के तहत किया गया था? 14 अप्रैल 2010 को यूट्यूब पर हेडलाइंस टुडे (इंडिया टुडे टीवी चैनल) की ओर से अपलोड एक रिपोर्ट में एमएमयू के एक्जिक्यूटिव कमेटी के पूर्व सदस्य आरोप लगाते हैं कि प्रो. सिरास के खिलाफ किए गए स्टिंग ऑपरेशन में तत्कालीन कुलपति का हाथ था. हालांकि इसी रिपोर्ट में कुलपति इस बात का खंडन करते हैं. बहरहाल फिल्म ‘अलीगढ़’ ने प्रो. सिरास और समलैंगिक व्यक्तियों के अधिकारों की बहस को वापस चर्चा में ला दिया है. उधर, सुप्रीम कोर्ट समलैंगिक रिश्तों को अपराध बताने वाली आईपीसी की धारा 377 के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुनवाई करने को राजी हो गया है. इससे एलजीबीटी समुदाय काफी आशांवित नजर आ रहा है और इस बात की उम्मीद बढ़ी है कि इस समुदाय से जुड़े किसी भी व्यक्ति को डॉ. सिरास द्वारा झेली गई प्रताड़ना का सामना नहीं करना पड़ेगा.

[symple_box color=”yellow” text_align=”left” width=”100%” float=”none”]

मेरी समझ में नहीं आता कि सिरास खुदकुशी क्यों करेंगे: प्रो. तारिक इस्लाम

IMG-20160216-WA0003
प्रो. तारिक इस्लाम

सिरास मेरे दोस्त नहीं थे. मैं उन्हें एक परिचित कहूंगा. जितना मैं उन्हें जानता हूं, उनका कोई दोस्त नहीं था. वे तन्हा रहने वाले इंसान थे. बहुत ज्यादा घुलते-मिलते भी नहीं थे, इसका ये मतलब नहीं कि मिलनसार नहीं थे. उनकी जिंदगी बेहद निजी थी.

वे मराठी के प्रोफेसर थे, मराठी भाषा के मशहूर और मराठी साहित्य के अच्छे जानकार. ज्यादातर समय पढ़ने-लिखने में गुजरते थे. मध्य नागपुर में उनके पुरखों का बड़ा घर है हालांकि अब वहां शॉपिंग मॉल बन गए हैं. उनके तीन भाई हैं. मैं उन्हें उनके डिपार्टमेंट में मलयालम भाषा के एक प्रोफेसर प्रो. सतीशन की वजह से जानता हूं. 1998 में संपत्ति को लेकर उनका एक भाई से विवाद हो गया था. उनके भाई ने अपनी पहुंच का इस्तेमाल कर यहां वाइस चांसलर से इन्हें निलंबित करा दिया था. इसके बाद सतीशन उन्हें मेरे पास लेकर आए थे. तब मैं सिरास का डिफेंस असिस्टेंट बना था. इसके बाद कभी मुलाकात होती तो हमारे बीच बातचीत हो जाया करती थी.

जिस दिन दो रिपोर्टर उनके घर में घुस गए थे उस रात सतीशन ने ही मुझे फोन कर घटना की जानकारी दी थी. मैंने फिर सिरास को फोन कर कहा था कि  हम सब आपके साथ हैं और परेशान होने की जरूरत नहीं. उस घटना के बाद मुझसे जो कुछ भी हो सकता था, मैंने किया. जैसे- एलजीबीटी संगठनों से संपर्क करना, अखबारों के लिए रिपोर्ट तैयार करवाना, सिरास को इस बात के लिए सिरास को तैयार करना कि वे अपने अधिकारों के लिए हाईकोर्ट में अपील करें. इससे पहले मुझे तो ये भी नहीं पता था कि वे समलैंगिक हैं, हालांकि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता. मेरे ख्याल से एएमयू में इस बात का अंदाजा किसी को नहीं था.

बहरहाल उस घटना के अगले दिन मैंने लोगों से मालूमात की थी. पता चला कि कुछ दिनों से इनके खिलाफ शिकायतें मिल रही थीं. एएमयू प्रबंधन का कहना था कि विश्वविद्यालय की मेडिकल कॉलोनी में, जहां सिरास रहते थे वहां के लोगों ने शिकायत की थी कि एक रिक्शेवाला काफी देेर तक उनके यहां रुका रहता था. 1981 में एएमयू ने अपनी एलआईयू (लोकल इंटेलीजेंस यूनिट) बनाई थी. मुझे नहीं मालूम कि ऐसी कोई व्यवस्था देश के दूसरे विश्वविद्यालयों में है.  मैं एक आरटीआई एक्टिविस्ट भी हूं तो एक जमाने में मैंने इसका काफी विरोध भी किया था. किसी भी कैंपस के लिए यह ठीक नहीं है.

बहरहाल, मुझे जो जानकारी मिली वो ये थी कि जब सिरास के बारे में शिकायत मिली तो उन पर नजर रखने के लिए एलआईयू के लोग उनके घर के पास तैनात किए गए थे. मुझ पर भी एलआईयू की नजर थी. सिरास को लेकर मेरे घर में दो बार मीटिंग हुई तो इस बात की रिपोर्ट एएमयू प्रबंधन तक पहुंच गई थी. अब सवाल ये है कि जब दो रिपोर्टर सिरास के घर में घुसकर जबरदस्ती ‘शूट’ करने लगे तो एलआईयू ने उन्हें रोका क्यों नहीं? घटना के बाद एलआईयू ने तुरंत प्रॉक्टर को फोन किया और संयोग से प्रॉक्टर और पीआर ऑफिसर सिरास के घर के पास ही एक गेस्ट हाउस में खाना खा रहे थे. ये भी असामान्य बात है, क्योंकि दोनों के घर नजदीक थे तो वे गेस्ट हाउस में खाना क्यों खा रहे थे. तब दोनों ने बताया था कि उनका कोई मेहमान आया था कि इसलिए वहां पर थे. लेकिन जहां तक मुझे मालूम है प्राॅक्टर और पीआर ऑफिसर के काम अलग-अलग होते हैं. उनका एक साथ होना, थोड़ा अजीब लगता है. खैर, इन दोनों के सिरास के घर पहुंचने के बाद दो या तीन फैकल्टी मेंबर और पहुंच गए. जिसमें से एक का घर दूर था और दूसरे का कैंपस में ही था. उनका भी तुरंत पहुंचना अजीब था. अगर एलआईयू को सिरास के इस गतिविधि की जानकारी थी तो उसने प्रबंधन को क्यों नहीं बताया? दोनों रिपोर्टर को ये जानकारी कहां से मिली?

सिरास ने मुझको एक बात बताई थी कि शुरू में जब वे उस घर आए थे तो उनका दरवाजा अक्सर खुला रहता था. क्योंकि उनका परिवार नहीं था और घर में किताबों के अलावा कुछ नहीं था. मैंने उन्हें सलाह दी थी कि आप बंद रखा कीजिए उसके बाद से वो अपना घर बंद ही रखते थे. फिर उस रोज दरवाजा कैसे खुला रह गया? इसके अलावा दरवाजे का ‘फिश आई लेंस’ आसानी से निकला जा सकता था. वहां से सीधा उनका बरामदा दिखता था. बेडरूम में सीधा नहीं देखा जा सकता था. एक बात और सिरास और रिक्शेवाले ने मुझे बताया था कि कोई सेक्सुअल एक्टिविटी नहीं हो रही थी. सिरास ने बताया था कि रिपोर्टर ने पैसे भी मांगे थे, यानी ब्लैकमेल करने की कोशिश की गई थी तो सिरास ने पैसे देने से मना कर दिया था. उन दोनों में से एक एएमयू में ही पढ़ा था.

जितना मैं उन्हें जानता हूं सिरास बहुत ही अच्छे इंसान थे. वो अपनी जिंदगी से खुश थे. जिस दिन उनके पक्ष में फैसला आया वह नागपुर में थे. अगले दिन वह अलीगढ़ पहुंचे. मुझसे मिले और कहा था कि वो बहुत ही खुश हैं. उस दिन वो तकरीबन आधे घंटे तक मेरे साथ थे. फिर उनसे शाम को घर पर मिलने की बात हुई थी. शाम को वे घर भी आए थे और उसी रोज रात के 10 बजे के करीब उनकी मौत की घटना हो जाती है. मेरी ताे आज भी समझ में नहीं आता कि वह खुदकुशी क्यों करेंगे. हालांकि ये व्यक्तित्व का भी मामला है. कोई भी ये सोच सकता है कि अब उसने सब कुछ पा लिया, वह खुश है अब जिंदगी पूरी हुई. ऐसी कई घटनाएं भी हुई हैं इसलिए खुदकुशी की संभावना को मैं दरकिनार नहीं कर सकता.

हालांकि विसरा रिपोर्ट में जहर की पुष्टि हाेती है. जहर या तो खुद खाया जाता है या कोई खिला देता है. नागपुर से जिस दिन वे लौटे थे उसी रात को दीपू से उनकी बात हो रही थी, उस वक्त वह टीवी देख रहे थे. सिरास ने तकरीबन दस मिनट दीपू से बात की होगी और फिर कहा था कि कल बात करूंगा, मुझे नींद आ रही है. मेरे ख्याल से जहर खाना बहुत ही दर्दनाक होता है. कोई जानकार इसको और बेहतर तरीके से बता पाएगा. लेकिन नींद आने का मतलब ये होता है कि जहर काफी सोफिस्टिकेटेड (परिष्कृत) था. सिरास एक दिन पहले ही नागपुर से चले और अगले दिन अलीगढ़ पहुंचे. इस बीच ऐसा जहर मिलना, थोड़ा सा अजीब लगता है. उनकी नागपुर की जो प्रॉपर्टी थी वह बहुत ही प्राइम लोकेशन पर थी. उनके एक भाई ने अपनी संपत्ति बेच दी थी और वहां शॉपिंग कॉम्प्लेक्स बनाना चाहते थे. उसमें सिरास रुकावट बन रहे थे. तो एक एंगल नागपुर का भी है. अब हत्या हुई थी या उन्होंने आत्महत्या की थी, ये बताना मुश्किल है. मेरे ख्याल से इसकी न्यायिक जांच होनी चाहिए. सिरास के साथ जो कुछ भी हुआ हो, लेकिन ये बात है कि हमारे समाज में जो पूर्वाग्रह हैं उनकी वजह से उनकी जान चली गई.

(लेखक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में फिलॉसफी के प्रोफेसर हैं. लेख प्रशांत वर्मा से बातचीत पर आधारित है)
[/symple_box]