Home Blog Page 1288

अफीम की घुट्टी है राष्ट्रवाद

UP Dalit by Shailendra Pandey P (39) web

भाजपा सरकार एक तरफ आंबेडकर को अपना नायक बताने की कोशिश करती है और दूसरी तरफ दलित बुद्धिजीवियों समेत दलित समुदाय पर हमले भी कर रही है. बात एकदम साफ है. आंबेडकर का एक तरह से एप्रोप्रिएशन यानी अपनाने की प्रक्रिया तो बहुत पुरानी स्थिति है. यह एक ऐतिहासिक तथ्य है. पहले भी यह कहा जाता था कि ये तो प्रात: स्मरणीय हैं. इनकी फोटो लगानी चाहिए, लेकिन आप देखेंगे कि वह सब 92 के बाद शुरू होता है. जब यह देखने में आया कि बहुजन समाज पार्टी अब उठान पर है, दलित समाज में आत्मनिर्भर राजनीति की तरफ रुझान है तो यह हुआ कि अब किसी तरह से इस समुदाय को रोका जाए. उसको रोकने के लिए इन्होंने, जो गैर-जाटव था, गैर-चमार था, उसे रोकने का प्रयास किया. जो छोटी-छोटी जातियां थीं, जैसे धोबी था, वाल्मीकि है, पासी है, कोरी है, उन सबको कोआॅप्ट करना शुरू किया. लेकिन वास्तविकता तो यही है कि उनके नायक बाबा साहब आंबेडकर की फोटो को अंगीकार कर सकते हैं, लेकिन उनकी विचारधारा को अंगीकार नहीं कर सकते. क्योंकि उनकी विचारधारा हिंदू सामाजिक व्यवस्था पर बहुत बड़ा प्रहार करती है और इसकी जो श्रेणीबद्ध और असमानता वाली संरचनाएं हैं, उनका रहस्योद्घाटन करती हैं, उनका पर्दाफाश करती हैं कि दलितों की आज जो स्थिति है वह दरअसल धर्मग्रंथों और ब्राह्मणवाद के कारण है. क्या यह भाजपा या आरएसएस को स्वीकार्य होगा? हमें नहीं लगता कि स्वीकार्य होगा. अगर स्वीकार्य नहीं है तो सिर्फ अंगीकरण तो हो ही नहीं सकता. मुझे लगता है कि जो छद्मवाद था कि केवल और केवल फोटो लगाकर उन्हें कोआॅप्ट किया जाए, उनका स्मारक बना दिया जाए, उन पर अंक निकाला जाए, उनका बंगला खरीद लिया जाए, लंदन में उनकी मूर्ति लगा दी जाए, हिंदू मिल की जमीन उनको दे दी जाए, तो ये जो भौतिक प्रतीक के रूप में उनको अंगीकार करना है. वास्तविकता में इससे बाबा साहब अांबेडकर की फोटो का जो अंगीकार है उसका अर्थ दलित जनों को अंगीकार करना नहीं है. यह भी देखा जा सकता है कि बाबा साहब अांबेडकर की फोटो का तो आपने कोआॅप्शन किया ही किया बाद में कुछ दलित लीडरों को भी अपने साथ कर लिया. रामदास अठावले, रामविलास पासवान, उदित राज उर्फ रामराज… तो ये लोग ऐसे लीडर हैं जिनके पास कोई जनाधार अब नहीं बचा था. इसे बिहार चुनाव में देखा जा सकता है, जहां रामविलास पासवान कितनी बुरी तरह परास्त होते हैं. मांझी को कोआॅप्ट कर लेते हैं आप, लेकिन मांझी भी शिथिल हो जाते हैं. तो ये सब यह बताता है कि बाबा साहब की फोटो और दलित नेताओं को अंगीकार करने से यह जरूरी नहीं है कि दलितों का भी अंगीकार हो सके. ये अलग-अलग बातें हैं.

पिछली कांग्रेस की सरकार में छह ऐसे दलित थे, जो राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता के सीधे भागीदार थे. स्पीकर थीं मैडम मीरा कुमार, वे दलित थीं. गृहमंत्री जो थे, वे दलित थे, पहली सांस्कृतिक मंत्री जो थीं, वे भी दलित थीं और सशक्तीकरण एवं न्याय मंत्री तो दलित होता ही होता है. खड़गे रेलवे मंत्री थे. इसके साथ ही पीएल पुनिया को भी मंत्री बनाया गया था. तो छह-सात लोग दलित वर्ग से दिखाई पड़ते थे. आज अगर भारतीय जनता पार्टी की सरकार में देखें तो 10 मंत्री ब्राह्मण हैं. एक मंत्री है जो दलित है.. मैं कैबिनेट मंत्री की बात कर रहा हूं. पार्लियामेंट्री बोर्ड में 12 सदस्य हैं जिनमें से 7 ब्राह्मण हैं और बाकी एक सदस्य ही दलित है. लेकिन न उसमें आदिवासी है, न ही महिला है. तो इस तरह यह साफ दिखाई दे रहा है कि बाबा साहब की फोटो और दलित नेताओं के कोआॅप्शन का यह मतलब नहीं है कि दलितों को प्रतिनिधित्व भी मिलेगा. अगर प्रतिनिधित्व नहीं मिलेगा तो सत्ता में भागीदारी कैसे करेंगे?

जब आप राष्ट्रवाद पर बहस करेंगे तो जनसामान्य के मुद्दे गौण हो जाएंगे. भूख, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, किसानों की आत्महत्या, दलितों का शोषण, जातीय शोषण, धार्मिक शोषण, ये सब का सब गौण हो जाएगा. तो जब इनके मुद्दे पर कोई बात नहीं करेगा तो कीमत तो यही लोग चुकाएंगे. राष्ट्रवाद की बनावट में यह है, कि वह शोषण और शोषित, दोनों को नहीं देखती. यह अफीम की घुट्टी होती है.

वे किसी तरह की डिबेट नहीं चाहते. ग्वालियर में ‘बाबा साहब के सपनों का भारत’ विषय पर बहस थी, जिस कार्यक्रम में मैं भी था. आंबेडकर विचार मंच ने कार्यक्रम रखा था. दलित श्रोता थे, दलित वक्ता और दलित मंच. अब इसके विरोध में आप हिंसात्मक प्रदर्शन करें, तो यह तो कोई बात नहीं हुई. अंदर घुसने से मना करने पर उन्होंने गोली चलाई

जिन प्रोफेसरों पर हमला हुआ, वे सब चर्चा करते हैं और तथ्यात्मक चर्चा करते हैं. लेकिन आपके राष्ट्रवाद में जो छद्म है, उसमें झंडा, जमीन और जवान, ये तो दिखाई पड़ रहा है, लेकिन आप लोगों की बात नहीं कर रहे हो. लोगों की बात जब आप नहीं करते तो आप बड़ी सतही जमीन पर टिके हैं, इसलिए ये लोग वाद-विवाद या चर्चा नहीं चाहते, ये सीधे मारकर हटा देना चाहते हैं. यह इनका तरीका है कि जब हिंसक होकर आप आएंगे तो फिर कौन डिबेट करेगा आपसे. वे डिबेट नहीं चाहते. ग्वालियर में ‘बाबा साहब के सपनों का भारत’ विषय पर बहस थी, जिस कार्यक्रम में मैं भी था. आंबेडकर विचार मंच ने कार्यक्रम रखा था. दलित श्रोता थे, दलित वक्ता और दलित मंच. अब इसके विरोध में आप हिंसात्मक प्रदर्शन करें, तो यह तो कोई बात नहीं हुई. वे हिंसात्मक होकर सीधे अंदर चले आए थे और उन्होंने हिंसा की. अंदर घुसने से मना करने पर उन्होंने गोली चलाई.

राष्ट्र और राष्ट्रवाद दो अलग चीजें हैं और राष्ट्र-राज्य तीसरी चीज है. राष्ट्र एक सामाजिक अवधारणा है जिसके भीतर ‘हम’ की भावना होती है और सांस्कृतिक पूंजी, सांस्कृतिक धरोहर होती है जो ऐतिहासिक काल से लगातार चली आ रही है. उसके साझा मूल्य से राष्ट्र बनता है. ये धर्म, भाषा और प्रांत इन सबका कोई मतलब नहीं है राष्ट्रवाद से. लेकिन राष्ट्रवाद वैचारिक अवधारणा है. इसे कई आधारों पर सृजित किया जा सकता है. इसमें सबसे बड़ी बात दूसरेपन की भावना. यानी कि ये दूसरे लोग हैं, बाहर के लोग हैं. इसमें इनसाइडर और आउटसाइडर की डिबेट होती है.

0.68885900_1umbai-4

भारतवर्ष में दो धर्म हैं, विशेष रूप से. एक है ईसाई और दूसरा है इस्लाम. इनको आक्रांताओं वाला धर्म कहा जाता है, बाहर से आए हुए. अब इस आधार पर इन्हें मिलाया कैसे जाए. तो इसके आधार पर इनके खिलाफ लड़ाई लड़ी जा सकती है और दूसरों को लामबंद किया जा सकता है. यह कहा जाता है कि इन लोगों की पुण्यभूमि तो बाहर है, ये इस राष्ट्र के कैसे हो सकते हैं और अगर इनको होना है तो फिर इनको बदलना पड़ेगा. गुरु गोलवलकर की जो ‘बंच आॅफ थॉट्स’ है उसमें वे क्या कहते हैं? वे कहते हैं कि हम इन पर कैसे भरोसा करें? बाहर के हैं ये. इनको अपना सब कुछ बदलना पड़ेगा, अपना इतिहास भूलना पड़ेगा, इन्हें यहीं का होकर रहना पड़ेगा. तो यह जो अवधारणा है, यह तो राजनीतिक अवधारणा है. इसके भीतर सामाजिकता, ‘हम’ की भावना, शेयर्डनेस, खुशी में खुशी और दुख में दुखी, इस प्रकार की धरोहर को संजोकर चलने की प्रक्रिया कहां है, बताइए. इसमें कहां दिखाई पड़ रही है? इसमें तो ये कह रहे हैं कि ‘भई माइट इज राइट’, मैं जो कह रहा हूं, वही सही है.

देशप्रेम क्या है? देश क्या है, यह नहीं समझ में आ रहा. आप कह रहे हैं, झंडा और टेरेटरी देश है. लेकिन लोग कहां गए उसमें? भारत के टुकड़े-टुकड़े करने का मतलब हुआ कि यहां के लोगों को खंड-खंड करना. राष्ट्र की जो अवधारणा है, वह है अधिकार के साथ व्यक्तियों का स्वप्रतिनिधित्व. जब अधिकार होंगे तो ही आप गवर्न कर पाएंगे न? बिना अधिकारों के कोई राष्ट्र सृजित नहीं होता, यह बाबा साहब भी मानते थे. अगर भाषा के आधार पर राष्ट्र सृजित होता तो अमेरिका और इंग्लैंड एक होने चाहिए थे, वे एक ही होते. क्योंकि वे दोनों ही अंग्रेजी बोलते हैं, साउथ अफ्रीका भी अंग्रेजी बोलता है. तो भाषा अगर आधार है, तो दो राष्ट्र, तीन राष्ट्र, पांच राष्ट्र कैसे हो गए? और भारतवर्ष में भी कुछ-कुछ अंग्रेजी बोली जाती है. कुछ पर्सेंट तो बोलते ही बोलते हैं. धर्म के आधार पर भी राष्ट्र सृजित नहीं होता. अगर ऐसा होता तो हिंदुस्तान और नेपाल दो राष्ट्र नहीं होते. तो इसलिए बाबा साहब का मानना था कि राष्ट्र की अवधारणा दर्शन के तौर पर तो एक विचार है लेकिन वास्तविकता में यह कई समूहों का जमावड़ा है. अगर राष्ट्र का सृजन होना है तो सभी समूहों के अनुपातिक अधिकारों को स्वतः प्रतिनिधित्व के लिए दिया जाना चाहिए, तब राष्ट्र बनेगा. अर्नेस्ट रेनन, कैलनर या मार्शल मोजेज, ये सब यही बता रहे हैं. लेकिन आप यह देखिए कि हम कर क्या रहे हैं. हम रिड्यूस कर रहे हैं, प्रतीकों के माध्यम से, व्यक्तियों को छोड़ रहे हैं, समूहों को छोड़ रहे हैं. समूहों के अधिकारों की तिलाजंलि देकर हम केवल प्रतीकों के माध्यम से राष्ट्र निर्माण और राष्ट्र की बात कर रहे हैं. बड़े ही सेलेक्टिव ढंग से हम प्रतीक चुनते हैं. कभी गाय में राष्ट्रवाद ढूंढ़ने लगते हैं, कभी झंडे में ढूंढ़ने लगते हैं, कभी हम जमीन में ढूंढ़ने लगते हैं और कभी जेएनयू में ढूंढ़ने लगते हैं. और हमारा राष्ट्रवाद क्या इतना क्षीण है कि चार लड़कों के नारों से यह टूट जाएगा? तो कहीं न कहीं गहरी राजनीतिक साजिश दिखाई पड़ती है. आप कह सकते हैं कि व्यक्ति को छोड़कर, व्यक्ति के अधिकारों को छोड़कर, उनकी पीड़ा, उनका शोषण, उनकी उलाहना छोड़कर आप केवल और केवल ध्वज की बात कर रहे हैं, टेरिटरी की बात कर रहे हैं.

धर्म के आधार पर भी राष्ट्र सृजित नहीं होता. अगर ऐसा होता तो हिंदुस्तान और नेपाल दो राष्ट्र नहीं होते. बाबा साहब का मानना था कि राष्ट्र की अवधारणा एक विचार है लेकिन वास्तविकता में यह कई समूहों का जमावड़ा है. अगर राष्ट्र का सृजन होना है तो सभी समूहों के अनुपातिक अधिकारों को स्वतः  प्रतिनिधित्व के लिए दिया जाना चाहिए, तब राष्ट्र बनेगा

मेरा यह मानना है कि बाबरी मस्जिद की घटना हुई, क्या बाबरी मस्जिद घटना राष्ट्रवाद की निशानी है? 2002 में जो गुजरात में हुआ, क्या वह राष्ट्रवाद की घटना थी? आजकल गोडसे की सराहना की जा रही है, क्या वह राष्ट्रवाद की घटना है? तो राष्ट्रवाद में यदि आप समायोजित सांस्कृतिक समरसता की बात कर रहे हैं तो व्यक्तियों के प्रतिनिधित्व के अधिकार की भी तो बात करेंगे आप! उस पर बहस क्यों नहीं चलाई जा रही है? आप सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की जो बात कर रहे हैं, मुझे नहीं लगता है कि उस परिभाषा के अंदर भारतीय समाज संगठित या एकत्रित रह सकता है, क्योंकि आप किसी भी राष्ट्र पर एकात्म तरीके से एकाधिकारवादी प्रवृत्ति के तहत केवल एक विचारधारा को नहीं थोप सकते. यहां विभिन्न विचारधाराएं पनपती हैं और विभिन्नता में एकता हम लोग पढ़ते-पढ़ते बुढ़ा गए हैं.

अब शिवाजी जयंती पर महाराष्ट्र में क्या हुआ? एक मुस्लिम पुलिसवाले को जबरदस्ती क्या-क्या कहना पड़ा. तो यह तो पराकाष्ठा हो गई न. उसके बाद आप वेमुला का केस देखिए. अब उसमें आप ये तक कहने लगे कि वह दलित नहीं है. उसकी मौत पर भी जाति अस्मिता का संज्ञान लेने की आवश्यकता पड़ती है. और भड़ाना में क्या हुआ, पानीपत में क्या हुआ? उधर लव जिहाद भी चला, घर वापसी भी चली और अभी कोसी परिक्रमा दोबारा शुरू होने वाली है. मेरा यह मानना है कि जो घटनाएं हैं वे स्वतः प्रमाणित करती हैं कि असहिष्णुता कहीं न कहीं बढ़ रही है. संस्कृतिकर्मियों ने अपना मैडल वापस कर दिया, मैं उनकी बात नहीं कर रहा क्योंकि भारत की संस्कृति केवल और केवल उनके माध्यम से नहीं है. इस संस्कृति का एक बृहत आयाम है, जिसके भीतर हजारों-लाखों गांवों के रहने वाले लोग, आदिवासी लोग हैं. वे संस्कृति को चला रहे हैं और जिसका आप नाम भी नहीं लेते हैं, जिनके ऊपर हमारी भारतीय संस्कृति टिकी हुई है.

(लेखक  जेएनयू में प्रोफेसर हैं)

(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)

अपना-अपना राष्ट्रवाद

HindiCover28Feb2016WEB

जिस समय भारतीय संसद में राष्ट्रवाद पर बहस हो रही थी, उसी समय देश के कई हिस्सों में कथित राष्ट्रवादी समूहों की उच्छृंखल कार्रवाइयां भी जारी थीं. कई जगहों पर हिंदूवादी संगठन बुद्धिजीवियों के साथ मारपीट करने और सेमिनार आदि में व्यवधान डालने जैसे कारनामे कर रहे थे. करीब एक दर्जन विश्वविद्यालयों में आरएसएस की छात्र इकाई अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) छात्रों से या शिक्षकों से भिड़ी हुई है. एबीवीपी का कहना है कि वे लोग ‘देशद्रोही’ हैं और ‘देशद्रोही गतिविधियों’ में लिप्त हैं.

23 फरवरी को डीयू के प्रोफेसर अपूर्वानंद ने इंडियन एक्सप्रेस अखबार में एक लेख लिखा, जिसे लखनऊ के समाजशास्त्र के प्रोफेसर राजेश मिश्रा ने फेसबुक पर शेयर किया. उन्होंने पोस्ट पर लिखा, ‘यह राजनीतिक विचारधारा में अंतर के बावजूद अभिव्यक्ति के लोकतांत्रिक अधिकारों का समर्थन करने के लिए है.’ उनकी इस पोस्ट पर एबीवीपी ने उनका पुतला फूंका. कक्षाएं नहीं चलने दीं. एबीवीपी के एक सदस्य अनुराग तिवारी ने बयान दिया कि ‘वे देशद्रोही हैं. जब वे यूनिवर्सिटी परिसर में आएंगे, तो मैं जूतों का हार पहनाकर उनका स्वागत करूंगा.’ विश्वविद्यालय ने प्रोफेसर को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया. हालांकि, उस लेख के लेखक अपूर्वानंद और अखबार पर कोई सवाल नहीं है. एबीवीपी को आपत्ति इसलिए है कि वह लेख जेएनयू विवाद के बाद चर्चा में आए उमर खालिद के समर्थन में था.

‘राष्ट्रवाद का यह जो छद्म है, यह फासीवाद की ओर ले जाता है. फासीवाद इसी पर टिका होता है. यह हिस्ट्री रिपीट्स इटसेल्फ वाला मामला है. बुद्धिजीवियों पर हमला उसी प्रयोग की पहली कड़ी है’

अपूर्वानंद कहते हैं, ‘अब देखिए कि मूर्खता किस हद तक जा रही है कि वह लेख राजेश मिश्रा ने लिखा नहीं है, सिर्फ शेयर किया है. उस लेख में कोई हिंसा का आह्वान नहीं है. लेकिन उनके खिलाफ हिंसा होती है और उन्हीं को कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया जाता है. हम लोग धीरे-धीरे कहां जा रहे हैं?’

इसी तरह जम्मू विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्र विभाग में 18 फरवरी को ‘कश्मीर में बहुलतावाद’ पर सेमिनार हुआ, जिसमें कई विद्वान और पत्रकार शामिल हुए. हिंदूवादी संगठनों ने इसे ‘देशविरोधी’ और ‘पाकिस्तान समर्थक’ गतिविधि बताया, आपत्ति जताई और कुलपति ने विभाग को नोटिस जारी कर दिया.

जनवरी की शुरुआत में ही सामाजिक कार्यकर्ता व मैग्सेसे पुरस्कार विजेता डॉ. संदीप पांडेय को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी से बर्खास्त कर दिया गया. वे वहां गेस्ट फैकल्टी थे. उन पर धरना-प्रदर्शन जैसी ‘नक्सली और देशद्रोही’ गतिविधियों को बढ़ावा देने का आरोप लगाया गया. संदीप पांडेय पर भी यह आरोप एबीवीपी का था, जिसकी शिकायत पर यूनिवर्सिटी प्रशासन ने कार्रवाई की. संदीप पांडेय का कहना है, ‘मैं आपसे पूछता हूं कि अगर मैं नक्सली या देशविरोधी हूं, तो केस दर्ज कर मुझे जेल में डालना चाहिए या फिर मेरा निष्कासन होना चाहिए? दरअसल, यह एक वैचारिक लड़ाई है. हम संघ की विचारधारा के विरुद्ध हैं, इसीलिए ये लोग हमसे परेशान हैं.’ संदीप पांडेय ने अपनी बर्खास्तगी को हाई कोर्ट में चुनौती दी है.

महाराष्ट्र में लातूर जिले के पानगांव में 19 फरवरी को शिवाजी की जयंती मनाने के लिए जमा हुए कुछ लोग भगवा झंडा फहरा रहे थे. यह इलाका सांप्रदायिक तौर पर संवेदनशील है. पानगांव पुलिस चौकी पर तैनात असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर एएसआई यूनुस शेख ने उन्हें भगवा फहराने से रोक दिया. अगले दिन भीड़ ने पुलिस चौकी पर हमला किया और एएसआई यूनुस शेख को पकड़कर उनकी बुरी तरह पिटाई की और उनके हाथ में भगवा झंडा पकड़ाकर पूरे गांव में परेड कराई. भीड़ ने यूनुस से ‘जय भवानी, जय शिवाजी’ के नारे भी लगवाए.

इन सभी घटनाओं के मद्देनजर ही भारतीय संसद में राष्ट्रवाद पर बहस हुई. बहस में राष्ट्रवाद की तमाम परिभाषाएं तो दी गईं लेकिन यह सवाल अनुत्तरित रह गया कि इस तरह की घटनाएं रोकी जाएंगी या नहीं. यह बहस भी इसलिए हुई क्योंकि जेएनयू में कथित देशविरोधी नारे लगने की घटना के बाद वहां के छात्रों पर कार्रवाई को लेकर बहस और आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हुआ. राष्ट्रवाद की इस बहस के बीच हैदराबाद, जेएनयू, इलाहाबाद, बनारस, लखनऊ, ग्वालियर और जम्मू विश्वविद्यालय में अकादमिक जगत पर हुए हमलों ने गंभीर सवाल खड़े किए हैं.

21 फरवरी को ग्वालियर में आंबेडकर विचार मंच की ओर से ‘बाबा साहब आंबेडकर के सपनों का भारत’ विषय पर एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था. कार्यक्रम में जेएनयू के प्रोफेसर विवेक कुमार भी शिरकत करने पहुंचे थे. आरोप है कि उनके व्याख्यान के दौरान भारतीय जनता युवा मोर्चा और एबीवीपी के कार्यकर्ताओं ने वहां पहुंचकर उपद्रव शुरू कर दिया. इन कार्यकर्ताओं ने वहां तोड़फोड़ की और हवाई फायर भी किए गए.

प्रो. विवेक कुमार के मुताबिक, ‘वह कोई राजनीतिक कार्यक्रम नहीं था. आंबेडकर पर केंद्रित अकादमिक कार्यक्रम में व्यवधान डालने का सीधा मतलब है कि वे कार्यक्रम नहीं होने देना चाहते. हिंदूवादी आंबेडकर का नारा तो लगाते हैं, लेकिन यह उनकी मजबूरी है. वे दलितों के विचार-विमर्श को भी रोकना चाहते हैं. कार्यक्रम अांबेडकर विचार मंच ने रखा था. दलित श्रोता थे, दलित वक्ता और दलित मंच. अब इसके विरोध में आप हिंसात्मक प्रदर्शन करें, तो ये कोई बात नहीं हुई. वे एकदम से हिंसात्मक मुद्रा में सीधे अंदर चले आए थे. अंदर घुसने से रोकने पर उन्होंने गोली चलाई.’

‘बुद्घिजीवियों पर हमले इसलिए हो रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ये सब हिंदुत्ववाद या किसी एक तरह की विचारधारा के खिलाफ हैं. देश का नारा है अनेकता में एकता, लेकिन ये लोग एकता में एकता चाहते हैं’

25 फरवरी को इलाहाबाद में वकीलों ने प्रदर्शन कर रहे लोगों पर हमला किया और उनके साथ जमकर मारपीट की. प्रदर्शन करने वाले लोग वामपंथी संगठनों व सिविल सोसायटी के लोग थे. वे रोहित वेमुला और जेएनयू प्रकरण के विरोध में इलाहाबाद कचहरी में धरना-प्रर्दशन कर रहे थे. हमलावर लोगों ने प्रदर्शन कर रहे लोगों को ‘देशद्रोही’ और ‘पाकिस्तान समर्थक’ कहा और उन्हें दौड़ाकर पीटा. हमले में ट्रेड यूनियन के एक कार्यकर्ता अविनाश मिश्रा का सिर फट गया. प्रदर्शन में शामिल महिलाओं को भी पीटा गया. अविनाश का आरोप है, ‘हमला करने वाले वकीलों की ड्रेस में थे, लेकिन वे सभी वकील नहीं थे. यह भाजपा के गुंडों का काम है.’ कथाकार दूधनाथ सिंह ने बताया, ‘हम लोग धरने पर थे. वकील लोग आए. पहले भागने को कहा, मना करने पर मारपीट शुरू कर दी. वहां पर लगे पोस्टर-बैनर सब फाड़ दिए.’

काशी हिंदू विश्वविद्यालय में 15 फरवरी को एक कार्यक्रम आयोजित था, ‘हाशिये का समाज और आधुनिकता’. जेएनयू के प्रो. बद्रीनारायण इसके मुख्य वक्ता थे. उनके अलावा व्योमेश शुक्ला, चंद्रकला त्रिपाठी, बलिराज पांडे, राजेंद्र शर्मा, नीरज खरे अादि कवियों का काव्य पाठ भी था. ऐसा आरोप है कि इस कार्यक्रम में भी एबीवीपी के करीब सौ लड़कों ने पहुंचकर उपद्रव किया. कार्यक्रम के बीच पहुंचकर उन्होंने ‘बाहर निकालो गद्दारों को, जूता मारो सालों को’ जैसे नारे लगाते हुए माथे पर भगवा पट्टी बांधी और तिरंगा लिए छात्र व्याख्यान कक्ष में घुस गए और कार्यक्रम रुकवा दिया. बद्रीनारायण ने बताया, ‘कार्यक्रम चल रहा था, उसी समय एबीवीपी के कार्यकर्ता आ गए. काफी हंगामा और तोड़फोड़ की. राष्ट्रवाद का यह जो छद्म है, यह फासीवाद की ओर ले जाता है. फासीवाद इसी पर टिका होता है. यह हिस्ट्री रिपीट्स इटसेल्फ वाला मामला है. बुद्धिजीवियों पर हमला उसी प्रयोग की पहली कड़ी है.’

राष्ट्रवाद का चरम दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट में दिखा जब हाथ में तिरंगा लेकर कुछ लोग जेएनयू के छात्रों को पीट रहे थे और महिलाओं को, वकीलों को गाली दे रहे थे. मोटी लाठी में बंधा लहराता तिरंगा, भारत माता की जय का नारा और साथ में मां-बहन की गालियों के अनूठे संगम से राष्ट्रवाद का जो चेहरा दिखता है वह बेहद भयानह है.

दूधनाथ सिंह कहते हैं, ‘बौद्धिक जगत का जनता पर बहुत अधिक असर होता है. उनकी संख्या बढ़ ही रही है. अब मसला यह है कि भाजपा और संघ के लोग एक खास तरह का विचार सारी जनता पर लादना चाहते हैं. देश को एकरूपता देना चाहते हैं. देश में जहां इतनी विविधता है, उस पर एक विचार थोपना चाहेंगे तो यह तो संभव नहीं है. इलाहाबाद में हम लोगों पर हमला दिल्ली की घटना का दोहराव था. बौद्धिक जगत पर हमले इसलिए हो रहे हैं कि उन्हें लगता है कि ये सारे प्रोफेसर हिंदुत्ववाद के, किसी एक तरह की विचारधारा या एकरूपता के खिलाफ हैं. जो देश का पुराना नारा है अनेकता में एकता, वह नारा ये लोग नहीं चाहते. ये लोग एकता में एकता चाहते हैं. अब उसमें ये सफल नहीं हो पा रहे हैं तो मारपीट और हिंसा पर उतरते हैं.’

वकीलों के पार्टी या सरकार के पक्ष में हमलावर होने पर चिंता जताते हुए दूधनाथ सिंह कहते हैं, ‘यह वकीलों का मामला बेहद आश्चर्यजनक है. वकील जो न्याय प्रक्रिया से संबंधित है, उसका दिमाग इस तरह से बंद क्यों है? हो सकता है कि दिल्ली की कोर्ट में जो हुआ, उससे इलाहाबाद के वकीलों ने प्रेरणा ली. उस सामान्य धरने से वकीलों को, सरकार को या संघ को क्या परेशानी हो सकती थी?’

जेएनयू के प्रोफेसर सच्चिदानंद सिन्हा कहते हैं, ‘लखनऊ के अध्यापक ने अपूर्वानंद का लेख सिर्फ शेयर किया था, लेकिन उन्हें उसके लिए कारण बताओ नोटिस दे दिया गया. फिर तो अपूर्वानंद को जेल में होना चाहिए था. जबकि वह लेख एक बहुत प्रभावशाली वक्तव्य है. इससे जाहिर है कि वह तबका जिसके पास कोई तर्क नहीं है, वह घबराया हुआ है. क्योंकि जनमानस को यह बात जिस दिन समझ में आती है, वह अपनी पोजिशन लेने को तैयार हो जाता है. जब आम आदमी के बीच बरगलाने वाली बातों को खुलासा होता है, और जनता जागरूक होती है तो ऐसे तबके को सबसे ज्यादा खतरा नजर आता है जिसके पास कोई तर्क नहीं हैं. डंडे के जोर से अपनी बात मनवाना चाहते हैं.  राजनीति में धर्म और लोगों की भावनाओं का इस्तेमाल हो रहा है. इसका नतीजा यह होने वाला है कि लोगों के बीच बिखराव होगा. जितना ही यह बढ़ेगा, आपको अपना हित साधने का और ज्यादा मौका मिलेगा. यह एक नए तरीके का अछूतवाद या अस्पृश्यतावाद है. पहले जाति के नाम पर था, अब यह धर्म और सोच-विचार के नाम पर किया जा रहा है. मसलन आप लेफ्ट हो, आप जेएनयू वाले हो, आप मुसलमान हो वगैरह. अखबारों या चैनलों को यह भी नहीं मालूम था कि उमर खालिद कश्मीरी नहीं है, लेकिन कोई उसे कश्मीर भेज रहा था, कोई उसे पाकिस्तान भेज रहा था.’

‘जो राष्ट्रवाद पहले से स्वीकृत है, वह बेहद समावेशी है. वह तरह-तरह के विचारों, जीवनशैलियाें व संस्कृतियों को जगह देता है. संघ का राष्ट्रवाद एक ही तरह के राष्ट्र और विचार को स्थापित करना चाह रहा है’

इन घटनाओं पर प्रतिक्रिया देते हुए संघ विचारक राकेश सिन्हा ने कहा, ‘विवेक कुमार की सभा में एबीवीपी का कोई हाथ नहीं था. एबीवीपी के कोई लोग नहीं थे और यह जांच का विषय है कि कभी-कभार किसी संस्था को बदनाम करने के लिए ऐसी हरकतें की जाती हैं. जैसे जो भगवा ध्वज काॅन्स्टेबल को दिया उसकी जिम्मेदारी लेने को कोई तैयार नहीं है. सभी लोगों ने उसकी आलोचना की. लेकिन अगर कोई ताकत इसी तरह का काम करना चाहेगी तो वह इसकी जिम्मेदारी लेगी. कभी-कभी किसी विचारधारा को बदनाम करने के लिए ऐसे हथकंडे अपनाए जाते हैं.’

दूधनाथ सिंह कहते हैं, ‘देशप्रेम ही तो राष्ट्रवाद है कि हम एक देश में रहते हैं, जिसकी एक व्यवस्था है. इससे अलग राष्ट्रवाद क्या चीज है? अब इनका एजेंडा हिंदू राष्ट्रवाद है. गुरु गोलवलकर की किताब ‘इंडिया डिवाइडेड’ संघ की विचारधारा का आधार है. यह हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद का नारा है. लेकिन आप यह बताइए कि इस देश में केवल हिंदू तो नहीं रहते हैं! अब अगर आप हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद के मुताबिक चलेंगे तो देश के और टुकड़े होंगे क्योंकि हर आदमी आपका राष्ट्रवाद नहीं मानेगा. यह हर कहीं आरएसएस का एजेंडा लागू करने की कोशिश है. हमारी जनता की चेतना शायद इस स्तर तक नहीं पहुंची है कि वह चीजों की भीतरी तहों को समझ सके. भाजपा इसी का फायदा उठा रही है.’

बद्रीनारायण कहते हैं, ‘यह जो मुहिम चलाई जा रही है कि हमसे जो असहमत हैं वे राष्ट्रविरोधी हैं, यह बहुत गलत है. जो हमसे सहमत हैं, वे राष्ट्रवादी हैं, जो विरोधी हैं वे राष्ट्रविरोधी हैं, यानी हमारे राष्ट्रवादी स्वरूप का जो समर्थन करता हो, वही राष्ट्रवादी है. किसी दूसरे स्वरूप का समर्थन करने वाला राष्ट्रवादी नहीं है. राष्ट्रवाद का विकास राष्ट्र को आलोचनात्मक ढंग से देखने पर होगा. वही राष्ट्र परिपक्व माना जाता है, जो अपनी आलोचना भी सहता है. जो राष्ट्रवाद अपने यहां पहले से स्वीकृत है, वह बेहद समावेशी है. तरह-तरह के विचारों, तरह-तरह की जीवनशैलियाें, तरह तरह की संस्कृतियों को जगह देता है. ये राष्ट्रवाद जो बार-बार टकराव की स्थिति उत्पन्न कर रहा है, यह एक ही तरह के राष्ट्र और विचार को स्थापित करना चाह रहा है.’

भाजपा के दोहरे मापदंड को रेखांकित करते हुए बद्रीनारायण कहते हैं, ‘भाजपा आंबेडकर को अपना नायक बता रही है, लेकिन उनके लोग हर जगह दलितों पर ही हमला कर रहे हैं. दलितों और दलित राजनीति से भाजपा का संबंध बेहद जटिल रहा है. यह उनके लिए वैसा ही है कि न निगलते बने न उगलते बने. भाजपा दलित समूहों से मेल-मिलाप की कोशिश तो कर रही है, लेकिन वह जानती है कि उनका जो कोर समर्थक है, वह इसे स्वीकार नहीं करेगा. भाजपा का राष्ट्रवाद दरअसल एक छद्म है. लेकिन छद्म को अगर सौ बार बोलो तो वह सच लगने लगता है. वह भावनाओं का दोहन करता है. वह राष्ट्रवादी डिस्कोर्स के साथ भावनाओं का इस्तेमाल करता है. वह राष्ट्र से प्रेम की जो भावनाएं जुड़ी होती हैं, उनका दोहन करता है.’

इन घटनाओें पर प्रतिक्रिया देते हुए इतिहासकार इरफान हबीब कहते हैं, ‘इस पूरी बहस के सहारे कोशिश की जा रही है कि भाजपा और आरएसएस के खिलाफ जो भी लोग हैं उन्हें राष्ट्रविरोधी घोषित किया जाए. यह मुहिम जनता में बंटवारे की कोशिश है. राष्ट्र काफी पुराना शब्द है, उसका मतलब एक देश से होता है. एक ऐसा मुल्क जिसके लोग चेतना संपन्न हों, उन्हें यह एहसास हो कि हम इस मुल्क के हैं और हमारी हुकूमत होनी चाहिए. वह राष्ट्र बनता है. 1947 से पहले तो वही लोग देशभक्त कहे जा सकते थे जो अंग्रेजों के विरोधी हों. उसमें तो आरएसएस और हिंदू महासभा ने कोई खास काम नहीं किया. आरएसएस ने तो बिल्कुल नहीं. 1947 तक इन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ कोई मुहिम नहीं चलाई. मुसलमानों और कांग्रेस का विरोध करते रहे. यह समझ में नहीं आता कि ये कैसी देशभक्ति है! जब देश को देशभक्ति की जरूरत थी तब तो आप मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए. अब बुद्धिजीवियों पर हमले करके यह कोशिश की जा रही है कि वे और लोगों की आवाज बंद कर दें. सरकार जो कर रही है, वह सब राष्ट्रवाद के लिए तो बिल्कुल नहीं है. क्योंकि इससे राष्ट्र को फायदा हो रहा है या वह और बदनाम हो रहा है? ​इससे हमें क्या फायदा होगा? जितना नुकसान वे कर सकते थे, वह कर चुके हैं. राष्ट्रवाद का अर्थ गुंडागर्दी तो बिल्कुल नहीं होता है.’

hhh

erhyerthyer

राष्ट्रवाद की बहस पुनर्जीवित हुई है

RSS Camps. Photo by Prakash Hatvalne/Tehelka

राष्ट्रवाद की परिभाषा और राष्ट्रवाद का वर्तमान संदर्भ दोनों को समझना पडे़गा. वर्तमान संदर्भ फिर से उस बहस को पुनर्जीवित कर रहा है जिस बहस को 1920 में रोक दिया गया था. मैं 1920 इसलिए कह रहा हूं कि बाल गंगाधर तिलक का निधन 1920 में हुआ था. औपनिवेशिक काल में एक ऐसा युग आया जब महर्षि अरविंद, बिपिन चंद्र पाल, बाल गंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय, राजनारायण बसु ऐसे तमाम लोग जो अलग-अलग भाषा और प्रांतों के लोग थे, उन्होंने राष्ट्रवाद की बहस को भारतीय संदर्भ में शुरू करने की कोशिश की. इस बहस ने भारत के राष्ट्रवाद को एक मजबूत धरातल पर प्रस्तुत किया था. राष्ट्रवाद में जो एक नकारात्मकता थी, उसमें एक सकारात्मकता जोड़ने की कोशिश की थी. उनके पूरे मूल्यांकन में, उनकी बहस में प्रगतिशील भारतीय संस्कृति के तत्व थे. उन्होंने कभी रूढ़िवादी तत्वों को इसमें नहीं रखा, प्रगतिशील तत्वों को रखा ताकि राष्ट्रवाद को ताकत मिले. लेकिन हुआ यह कि इन लोगों के बाद राष्ट्रवाद की पूरी बहस यूरोप द्वारा स्थापित मापदंडों के आधार पर शुरू हो गई. यूरोप ने जो राष्ट्रवाद की परिभाषा, जो मापदंड दिया उसके आधार पर शुरू हो गई. वही बहस आज तक चलती रही है. इस बहस में जिन लोगों ने भी हस्तक्षेप करने का काम किया, या तो उनमें मौलिकता नहीं थी या मौलिकता थी तो वह बहुत विवेचनापूर्ण नहीं थी. जिससे तथ्यात्मक बहस पुनर्जीवित नहीं हो पाई. आज जेएनयू की घटना इस बहस को पुनर्जीवित करने का एक निमित्त बन गई. मैं एक संदर्भ तो यह मानता हूं.

मैंने यूरोप की बात इसलिए की, क्योंकि यूरोप और भारत की राष्ट्रवाद की परिभाषा में एक बुनियादी अंतर है. ऐसा नहीं है जो मैं कह रहा हूं यूरोप में सब लोग वही मानते हैं पर मोटे तौर पर, यूरोप के राष्ट्रवाद को पढ़ने से समझ में आता है कि राष्ट्रवाद ने राष्ट्र पैदा किया. साधारणतया देखें तो वहां राष्ट्रवाद पर विमर्श तब शुरू हुआ जब प्रथम विश्वयुद्ध और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद राष्ट्रों का टूटना और जुड़ना शुरू हुआ. भाषा के आधार पर राष्ट्र बनते गए, जातीयता के आधार पर राष्ट्र बनते गए. इसके कारण प्रथम विश्वयुद्ध के बाद, खासकर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वहां राष्ट्रवाद पर विमर्श बहुत तेज हो गया. राष्ट्रवाद पर बहुत-सी किताबें लिखी गईं.

भारतीय राष्ट्रवाद की प्रकृति अलग है. भारत में हमारा मानना है कि राष्ट्र ने राष्ट्रवाद को पैदा किया. वे मानते हैं कि राष्ट्रवाद आधुनिकता का प्रतीक है, आधुनिकता का उत्पाद है और हम मानते हैं कि राष्ट्रवाद एक सनातन सत्य है. इसका आधुनिकता से और पुरातनता से कोई लेना-देना नहीं. इसका मैं एक प्रमाण देता हूं. राधा कुमुद मुखर्जी ने आजादी के बाद जब इस बहस को पुनर्जीवित करने की कोशिश भारतीय विद्या भवन में शुरू की थी तो उन्होंने एक पुस्तिका लिखी और उस पुस्तिका में वेदों में 68 श्लोकों का एक संग्रह प्रस्तुत किया जिसमें राष्ट्र और राष्ट्रवाद यानी मातृभूमि का विशेष उल्लेख है. इस तरह भारत की कल्पना यूरोप की कल्पना से भिन्न है.

कभी-कभी किसी विचारधारा को बदनाम करने के लिए तमाम  हथकंडे अपनाए जाते हैं. मैं यह मानता हूं कि जो लोग आरएसएस के खिलाफ जहर उगलते हैं, अनर्गल बातें करते रहते हैं, क्या वह अभिव्यक्ति पर हमला नहीं है?

दूसरी बात, महर्षि वाल्मिकी ने जो लिखा ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’, इससे एक सकारात्मक राष्ट्रवाद का संकेत  मिलता है कि हम अपनी जन्मभूमि को स्वर्ग से भी ज्यादा बहुमूल्य और महत्वपूर्ण मानते हैं. तो अब मैं कहता हूं कि भारतीय परिवेश में राष्ट्रवाद का तात्पर्य होता है कि राष्ट्र के प्रति सरोकार रखना. राष्ट्र के प्रति सरोकार रखने में सिर्फ भूमि के लिए सरोकार नहीं है बल्कि भूमि, भूमिपुत्र यानी यहां के लोग, यहां की विरासत, यहां का इतिहास, हमारी संस्कृति इन सबके प्रति जब आप सरोकार रखते हैं तो वह राष्ट्रवाद कहलाता है. उस सरोकार का तात्पर्य यह नहीं है कि आप क्रिटिकल नहीं हैं, आप यहां की भूमि, यहां के भूमिपुत्र, यहां की संस्कृति या सरोकार के प्रति क्रिटिकल हों. हमारे पूरे विमर्श में आलोचनात्मकता को बहुत महत्व दिया गया है. लेकिन राष्ट्रवाद में जो विमर्श हो, उसमें सृजनशीलता हो. उसका मैं एक उदाहरण देता हूं. राष्ट्रवाद के महत्व में सबसे महत्वपूर्ण हस्तक्षेप रवींद्रनाथ टैगोर ने किया था. बाकी लोगों ने भी राष्ट्रवाद पर बातें कहीं पर रवींद्रनाथ टैगोर जी का हस्तक्षेप सैद्धांतिक हस्तक्षेप है. यूरोपियन राष्ट्रवाद के समांतर उन्होंने उस विवेचन को देखने की कोशिश की.

उस वक्त राष्ट्रवाद शब्द इसलिए नकारात्मक बन गया था क्योंकि यूरोप ने राष्ट्रवाद का ही इस्तेमाल करके द्वितीय विश्वयुद्ध में मानवता को धकेल दिया था. राष्ट्रवाद का जो यूरोपीय दृष्टिकोण है उसने ही फासीवाद को पैदा किया, नाजीवाद को पैदा किया, जापानी सैन्यवाद को पैदा किया. इस कारण राष्ट्रवाद के प्रति एक भ्रांति बनी.

टैगोर ने उस संदर्भ में राष्ट्रवाद की आलोचना करते हुए एक वैकल्पिक स्वरूप दिया. उन्होंने राष्ट्रवाद का तात्पर्य बताया और उन्होंने उस शब्द को छोड़कर एक नई शब्दावली देने की कोशिश की. उन्होंने राष्ट्रवाद के मूल तत्व जो भारत का मूल तत्व है, जो तिलक में दिखाई दिया, जो विपिन चंद्र पाल में दिखाई पड़ा, बंकिमचंद्र में दिखाई पड़ा, उन तत्वों को ही उभारने की कोशिश की इसलिए मैं उनकी आलोचनाओं को उस पृष्ठभूमि में जो यूरोपीय राष्ट्रवाद की विसंगतियां थीं, उसकी आलोचना मानता हूं. उसे भारतीय राष्ट्रवाद की आलोचना नहीं मानता. शब्द भले ही दोनों जगह एकसमान थे पर उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद की आलोचना नहीं की. भारत में राष्ट्र की जो एक सांस्कृतिक विरासत है, यह सांस्कृतिक विरासत और आध्यात्मिक बहुलतावाद विश्व में कहीं और नहीं मिलता है. आध्यात्मिक लोकतंत्र जो भारत के समाज में मौजूद है वह राष्ट्रवाद को वैश्विक परिवेश में ले जाता है. इसी कारण से हिंदू राजा चिरामन ने केरल में मंदिर को मस्जिद में बदल दिया ताकि अरब से आने वाले व्यापारियों को पूजा का स्थान मिल सके और यह दुनिया की दूसरी सबसे पुरानी मस्जिद है. जिसकी चर्चा भारत की टेक्स्टबुक में नहीं होती है. जैसे दारा शिकोह की बहुत चर्चा नहीं होती है, जो तत्व भारत में धर्मों के बीच संवाद, धर्मों के बीच सत्संग की बात करते हैं उन तत्वों को मार्क्सवादी इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों ने बाहर रखा है. इसके दो उदाहरण हैं, चिरामन और दाराशिकोह.

जहां तक भारत में फासीवाद की आहट का सवाल है तो फासीवाद कोई अनऑर्गेनाइज्ड विचार नहीं है. फासीवाद का मतलब होता है कि राज्य के प्रश्रय में राज्य की सहमति से संगठित पार्टी द्वारा किसी अभिव्यक्ति के विचार पर हमला करना और उसे हिंसा से शांत करना. जो आपने एक काॅन्स्टेबल के साथ घटी घटना का जिक्र किया उसकी निंदा पूरे भारतीय समाज ने की है. उससे पहले भी वकीलों ने पत्रकारों पर हमला किया और पूरे भारतीय समाज ने उसकी आलोचना की. ऐसी घटनाएं यदा-कदा इस देश में घटित होती हैं. ग्वालियर में विवेक कुमार की सभा में हमले को लेकर एबीवीपी पर आरोप लगे. उसमें एबीवीपी का हाथ नहीं था. एबीवीपी के कोई लोग नहीं थे और यह जांच का विषय है कि कभी-कभी किसी संस्था को बदनाम करने के लिए ऐसी हरकतें की जाती हैं. जैसे जो भगवा ध्वज कांस्टेबल को दिया उसकी जिम्मेदारी लेने को कोई तैयार नहीं है. सभी लोगों ने उसकी आलोचना की. लेकिन अगर कोई ताकत इसी तरह का काम करना चाहेगी तो वह इसकी जिम्मेदारी लेगी. कभी-कभी किसी विचारधारा को बदनाम करने के लिए ऐसे हथकंडे अपनाए जाते हैं. मैं यह मानता हूं कि जो लोग आरएसएस के खिलाफ जहर उगलते हैं, अनर्गल बातें करते हैं, क्या वह अभिव्यक्ति पर हमला नहीं है?

अाडवानी ने जो रथ यात्रा निकाली उसके बाद भारत की धर्मनिरपेक्षता पर एक नई और खुली बहस शुरू हुई. उसी तरह राष्ट्रवाद पर बहस कई दशकों से रुकी थी. मुझे लगता है कि जेएनयू के बहाने अब यह बहस लंबे समय तक चलेगी

मैं एक सवाल आपसे पूछना चाहता हूं कि क्या आप मान रहे हैं कि आरएसएस एक समृद्ध संगठित ताकत है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती? यह भारतीय राजनीति और सामाजिक जीवन का यथार्थ है यह भी आप मानेंगे. अब बताइए जब भारत के न्यायालय ने अपने निर्णय में आरएसएस को गांधी की हत्या से कहीं जोड़कर नहीं देखा. उसके बाद 1960 के दशक में कपूर कमीशन बना. खोसला कमीशन और कपूर कमीशन, दोनों की रिपोर्ट सबके सामने हैं. खोसला न्यायाधीश थे और कपूर कमीशन बाद में बना. कपूर कमीशन ने फिर से जांच-पड़ताल शुरू की क्योंकि संसद में हंगामा हुआ था कि अप्रत्यक्ष रूप से आरएसएस के लोग शामिल थे. कपूर कमीशन ने कहीं पर भी आरएसएस के प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष हाथ का जिक्र नहीं किया. जबकि कपूर कमीशन की नियुक्ति भारत सरकार द्वारा की गई थी. तब बार-बार ऐसे बुद्धिजीवियों का यह कहना कि आरएसएस के लोग गांधी के हत्यारे हैं. अब आप यह बताइए कि सांस्कृतिक विचारधारा को लेकर चलने वाला संगठन जिसके साथ सबसे बड़ा मजदूर संगठन हो, जिसके साथ सबसे बड़ा विद्यार्थी संगठन हो, जिससे जुड़ी हुई पार्टी देश की सत्ता में हो, उसको एक बुद्धिजीवियों का वर्ग लगातार खुलेआम गांधी का हत्यारा कह रहा हो. यदि राजनीतिक लोग कह रहे हों तो मैं उन्हें माफ कर सकता हूं. लेकिन जो बुद्धिजीवी अखबारों के संपादक रह चुके हों, जो अंतरराष्ट्रीय मंच पर जाते हैं, वे आरएसएस को फासीवादी कहते हैं. ये जो घटना घटी, इसके बाद उन्होंने फासीवादी कहा? मैं मान लूं कि चार घटनाएं घटीं, क्या इन चार घटनाओं से पहले कभी आरएसएस को फासीवादी नहीं कहा गया? अगर घटना घटने के बाद कोई कहता तो इसे बौद्धिकता मान सकता हूं. जिस संगठन को बिना घटना घटे सांप्रदायिक, बिना घटना घटे फासीवादी कहते हैं, मैं समझता हूं यह अभिव्यक्ति एक बौद्धिक फासीवाद है. बौद्धिक फासीवाद में आरएसएस का जो हस्तक्षेप था उसे अवैधानिक घोषित करने की पूरी कोशिश की गई. उसकी प्रतिक्रिया में कुछ बुद्धिजीवियों की सभाओं में कुछ लोग विरोध करने आते हैं और इस विरोध की उत्तेजना पैदा करने वाले ये ही बुद्धिजीवी होते हैं जो अनर्गल बातें लगातार कहते रहते हैं. अगर किसी स्थानीय स्तर पर विरोध होता है तो मैं उसे भी गलत मानता हूं. ऐसा विरोध नहीं होना चाहिए. अगर आपकी कोई अनर्गल आलोचना कर रहा है तो उसे करने दीजिए.

महाराष्ट्र में काॅन्स्टेबल पर हमला हुआ. मैं संघ से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ा हुआ हूं इसलिए जिस दिन हमला हुआ उस दिन मुझे पता चला. जिस दिन घटना घटी उसकी अगली सुबह पहला ट्वीट मैंने उस घटना की निंदा करते हुए किया. सिर्फ यह नहीं कहा कि ऐसी घटना नहीं होनी चाहिए बल्कि इसे भारतीय परंपरा और कानून का उल्लंघन भी बताया. यह गलत है, आप किसी को बाध्य नहीं कर सकते झंडा पकड़ने के लिए या पूजा करने के लिए. इसलिए यह कहना गलत है कि अगर किसी के हाथ में भगवा दिया जाए तो इसके लिए संघ ही जिम्मेदार है. मैं किसी को तिरंगा या भगवा पकड़ा दूं तो इसके लिए मार्क्सवाद कम्युनिस्ट जिम्मेदार नहीं है.

जेएनयू में या देश के अन्य हिस्से में, टेलीविजन पर या अखबारों में प्रतिदिन सरकार की आलोचना हो रही है. आलोचनाओं की मात्रा और गुणात्मकता दोनों बढ़ गई है, क्या उन अखबारों के दफ्तरों पर हमले हुए हैं? राजीव गांधी के कार्यकाल में इंडियन एक्सप्रेस को बंद कराने की कोशिश की गई थी. आज असहमति पर हमले की बात कहने वाले लोग क्या उसे फासीवाद कहेंगे? जब इंडियन एक्सप्रेस अखबार को बंद कराने की कोशिश की गई थी, स्टेट्समैन अखबार के ईरानी संपादक उनको परेशान किया गया, कोलकाता में टेलीग्राफ को परेशान किया गया. मोदी सरकार बनने के बाद क्या कोई भी अखबार यह कह सकता है कि मोदी की आलोचना करने के कारण उस अखबार को परेशान किया गया? क्या कोई टेलीविजन चैनल यह कह सकता है?

भारत के न्यायालय ने अपने निर्णय में आरएसएस को गांधी की हत्या से कहीं जोड़कर नहीं देखा. लेकिन बुद्धिजीवी बार-बार कहते हैं कि आरएसएस के लोग गांधी के हत्यारे हैं. वे फासीवादी कहते हैं, मैं समझता हूं यह अभिव्यक्ति बौद्धिक फासीवाद है

यदि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अफजल गुरु की फांसी की सजा पर उसे ज्यूडिशियल किलिंग कहते हुए सिर्फ बहस होती तो किसी का ध्यान नहीं जाता. कोई विरोध करना भी चाहता तो विरोध नहीं कर पाता. यदि वहां पर ‘हम लड़कर लेंगे कश्मीर, छीनकर लेंगे कश्मीर’ के नारे लगाए जाते हैं तो यह कौन छीनने वाले लोग हैं, कौन लड़ने वाले लोग हैं? कश्मीर तो हमारे पास है, यदि वहां पीओके को लेकर नारा लगता कि हम लड़कर लेंगे पीओके, छीनकर लेंगे पीओके तो समझ आता कि किस से लड़ने की बात हो रही है. वहां पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगे वह राष्ट्रद्रोह वास्तव में है कि नहीं यह तो न्यायालय ही बताएगा. लेकिन वे नारे एक शब्द में कहें तो एंटीनेशनल हैं. किसी भी संप्रभु राष्ट्र में यदि संसद के सामने कोई कहता है कि पाकिस्तान जिंदाबाद तो यह नैतिक अधिकार है कि उसकी जांच हो. यह सब जेएनयू में खुल्लमखुल्ला हो रहा है, यह तो अभिव्यक्ति की आजादी को राष्ट्रवाद की बहस में ले जा रहे हैं. अब यह मामला न्यायालय में है और न्यायालय ही इसे दूध का दूध और पानी का पानी करेगा. अब अगर इसमें सरकार की गलती होगी तो हम सरकार की आलोचना करेंगे, अगर गलती नहीं होगी तो सराहना करेंगे. कोई भी बुद्धिजीवी सरकार का बंधुआ मजदूर नहीं होता और न होना चाहिए. पर सरकार पर बुद्धिजीवियों का निर्णय दे देना कहां तक सही है? जेएनयू के प्रोफेसर यह बताएं कि दस दिनों तक ये नारे लगाने वाले छात्र गायब थे, अचानक विश्वविद्यालय में आ गए और उनकी सभा में जेएनयू के शिक्षक सम्मिलित थे. कल तक मैं मानता था कि कन्हैया के लिए वे बोलते थे. अब उमर खालिद और उनके साथियों के साथ वे खड़े हो गए और पुलिस और राज्य को चुनौती देते रहे कि पुलिस को यहां भेजकर गिरफ्तार करो. जेएनयू क्या एक अलग टापू है क्या? क्या राष्ट्र के भीतर एक राष्ट्र है क्या?

दूसरी बात मैं और कहना चाहता हूं, गलतफहमी थोड़ी दूर करनी चाहिए. मैं आधिकारिक रूप से कहना चाहता हूं कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, उस्मानिया विश्वविद्यालय का भी शिक्षा के क्षेत्र में तनिक भी कम योगदान नहीं है. जितनी सुविधाएं जेएनयू को दी जा रही हैं यदि उनकी सुविधाएं इनको भी दी जाएं तो संभवत इनका योगदान और भी अधिक हो सकता है. छात्रों को जो सब्सिडी जेएनयू में मिल रही है वह बीएचयू में, अलीगढ़ में, जामिया में, उस्मानिया में नहीं मिल पा रही है. यह दावा करके दूसरे विश्वविद्यालयों को नीचा दिखाने का काम नहीं करना चाहिए. जेएनयू हमारे लिए गर्व का कारण है. लेकिन वह लालगढ़ के रूप में है. वाम मार्ग की प्रयोगशाला है. मैं कहता हूं माओवाद पर बहस हो लेकिन एक चीज बता दीजिए जब 76 सीआरपीएफ के जवान मारे जाते हैं, उसे सेलिब्रेट करना कम से कम मानवीय दृष्टि से तो अनुचित है. जेएनयू ने जिन विकृतियों को जन्म दिया है, उन विकृतियों से लड़ने, उनसे असहमति जताने को वे अभिव्यक्ति के साथ जोड़ देते हैं, यह नाइंसाफी है.

राम जन्मभूमि के समय में लालकृष्ण अाडवानी ने जो रथ यात्रा निकाली उसके प्रति सहमति-असहमति पर अलग-अलग लोग अलग-अलग धारणाएं रखते हैं, अलग-अलग व्याख्याएं होती हैं. एक बात से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि 1989 से भारत की धर्मनिरपेक्षता पर एक नई और खुली बहस शुरू हुई. उसी तरह राष्ट्रवाद पर बहस कई दशकों से रुकी थी, राष्ट्रवाद पर जो बहस होती थी वो लगता था जैसे यूरोप की पाइपलाइन से हम बहस करते थे, उनके द्वारा प्रमाणित मापदंड के आधार पर कर रहे थे. मुझे लगता है राष्ट्रवाद पर बहस में कई विकृतियां थीं, जब बहस होती है तो विकृतियों के साथ होती है. कोई भी चीज जब नई शुरू होती है तो उसमें विकृतियां आती हैं, लेकिन यह बहस अब लंबे समय तक चलेगी. राष्ट्रवाद की जो हमारी अपनी धारणा है, भारतीय परिवेश में राष्ट्रवाद की क्या भूमिका है, यह बहस जेएनयू के बहाने शुरू हुई है. इस बहस को मैं तिलक और बिपिनचंद्र पाल के काल से जोड़ता हूं.

संघ के प्रति मुस्लिम विरोधी होने की एक धारणा बना दी गई है. यह धारणा 1925 से 1945 तक नहीं थी. इसका कारण मैं बताता हूं कि जब पहली बार मध्य प्रांत की लेजिस्लेटिव  कांउसिल में 7-8 मार्च, 1934 को दो दिनों तक संघ पर बहस हुई है. भारत के इतिहास में पहली बार हुआ कि संघ पर दो दिनों तक लेजिस्लेटिव काउंसिल में बहस हुई. उस बहस में एक एमएस रहमान जो मध्यप्रांत के सबसे लोकप्रिय नेता थे, उन्होंने संघ का समर्थन किया और सरकार से पूछा कि क्या संघ के खिलाफ एक भी शिकायत आई है? तो सरकार ने कहा नहीं. 6 मई, 1945 को पहली बार ‘डान’ जो मुस्लिम लीग का अखबार है, उसने संघ पर संपादकीय लिखा और मांग की कि संघ पर प्रतिबंध लगाया जाए. लेकिन वह यह भी जिक्र नहीं कर पाया कि संघ के संस्थापक कौन हैं? यह मांग करते हुए उसने गांधी, नेहरू से अपील की कि वे सहयोग दें. 13 मई, 1945 को उसने दूसरा संपादकीय लिखकर गांधी-नेहरू की आलोचना की कि वे उसकी मांग का समर्थन नहीं कर रहे. 1945 के बाद दूषित प्रचार कर संघ की छवि मुसलमान विरोधी बना दी गई, लेकिन आप हाल के वर्षों में देखेंगे कि सभी पैमाने पर तो नहीं कहूंगा लेकिन मुसलमानों का एक वर्ग संघ के साथ संवाद कर रहा है और संघ भी संवाद कर रहा है. जो परंपरागत मुस्लिम नेतृत्व है वह असहज महसूस नहीं कर रहा है. जहां तक दलितों का सवाल है, दलितों का वह वर्ग जो ईसाई मिशनरियों के प्रभाव में है, जो लिबरेशन थ्योरी के प्रभाव में है, उनके एनजीओ में है, वह संघ का घोर विरोधी है लेकिन दलित बुद्धिजीवी वह चाहे जेएनयू में हो या इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हो, वह संघ को क्रिटिकली देखते हैं, वे संघ की धारणा के विरोध में नहीं हैं. आखिर में इसका मैं एक और प्रमाण दे दूं कि गांधी जी ने संघ के बारे में जो भी चाहे अच्छा या बुरा बोला, जिस राष्ट्रीय आंदोलन में लगभग वर्ष 1925 से 1930 के बाद जितने नेता थे सबने संघ पर टिप्पणी की. अपने पूरे जीवन काल में बाबा साहेब आंबेडकर ने उस संगठन के बारे में, जो महाराष्ट्र में ही सबसे ज्यादा प्रबल था और जिसके बारे में बार-बार यह आरोप लगता था कि ब्राह्मणों का वर्चस्व है, उस संघटन के बारे में एक भी टीका-टिप्पणी नहीं की. एक भी शब्द संघ के खिलाफ उन्होंने नहीं कहा. संघ लगातार उनसे संवाद करता रहा, वे संघ के स्वयंसेवक तो नहीं बने. संघ के प्रति उनकी असहमति तो थी, पर संघ की नीयत पर उन्हें कभी शक नहीं था कि दलितों के प्रति संघ की नीयत साफ है. और आज बड़े पैमाने पर संघ जमीनी स्तर पर दलितों के बीच काम कर रहा है. इसी का परिणाम है कि भारतीय जनता पार्टी में दलित सांसदों की संख्या, ट्राइबल सांसदों की संख्या सबसे अधिक है.

(लेखक संघ के विचारक हैं)

(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)

हममें से देशद्रोही कौन नहीं है?

P

राष्ट्रवाद या यूं कहें कि ऑफिशियल राष्ट्रवाद इन दिनों सुर्खियों में है. एक तरफ ‘भारत माता की जय’ का नारा लगाते हुए और दूसरे ही सुर में मां-बहनों के नाम अपशब्दों की बौछार करते हुए लंपटों के गिरोह हर स्वतंत्रमना व्यक्ति को लातों-मुक्कों से, या जैसा कि बीते दिनों इलाहाबाद की कचहरी में देखने को मिला, लोग लाठियों की मार से राष्ट्रवाद का असली मतलब समझा रहे हैं. शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर टूट पड़ते दिख रहे इन निक्करधारी गिरोहों के साथ जगह-जगह खाकी वर्दीधारियों की भी मौन सहमति नजर आ रही है. और दिख रहा है कि आप अगर किसी को मार भी डालें और सफाई में यह कह दें कि वह पाकिस्तान जिंदाबाद कह रहा था तो उसे माफ कर दिया जाएगा.

विडंबना ही है कि इन दिनों देश की किस्मत के आका कहे जाने वाले लोग नकली ट्वीट की बैसाखी के सहारे ऐसे तमाम उत्पातों, उपद्रवों और उद्दंडता को वैधता का जामा पहनाते नजर आ रहे हैं. आए दिन हो रही संविधान की इस खुल्लमखुल्ला अनदेखी को लेकर संविधान को सबसे पवित्र किताब का दर्जा देने वाले वजीर-ए-आजम मोदी भी अपना मौन बनाए हुए हैं. अंधराष्ट्रवाद की आंधी चलाने की तेज होती कोशिशों को देखते हुए बरबस राजेश जोशी की बहुचर्चित कविता की पंक्तियां साकार होती दिख रही हैं कि ‘जो इस कोलाहल में शामिल नहीं होंगे मारे जाएंगे.’

ध्यान रहे कि अब तक ऐसे स्वयंभू राष्ट्रभक्तों की नजर में ‘समुदाय विशेष’ के लोग ही राष्ट्र के पंचम स्तंभ अर्थात भेदिये थे- मिसाल के तौर पर, संघ के सुप्रीमो गोलवलकर ने अपनी किताब ‘बंच ऑफ थॉट्स’ अर्थात ‘विचार सुमन’ में बाकायदा कुछ समुदायों को चिह्नित किया है जिसमें वे लिखते हैं, ‘बाहरी आक्रमणकारियों की तुलना में देश के अंदर मौजूद दुश्मन तत्व ही राष्ट्र की सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा हैं.’ किताब के आंतरिक खतरे नामक अध्याय में वे मुसलमानों, ईसाइयों और कम्युनिस्टों को इस श्रेणी में रखते हैं और उसके बाद एक लंबे आलेख में इन समूहों की देशभक्ति को संदेह के दायरे में रखते हैं (देखें- रामचंद्र गुहा, ‘द हिंदू,’ 28 नवंबर, 2006). मगर मामला अब काफी आगे बढ़ गया है. अब हर वह शख्स उनकी निगाह में राष्ट्रद्रोही है जो उनकी हां में हां नहीं मिलाता है, उनके साथ कदमताल करने को तैयार नहीं है और सबसे बढ़कर असहमति की आवाजों का होना जनतंत्र का प्रमुख गुण समझता है.

फिर कोई रोहित वेमुला जैसा प्रचंड प्रतिभाशाली दलित युवक और डॉ. आंबेडकर के विचारों को साकार करने में मुब्तिला उसका संगठन ‘आंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन’ एंटीनेशनल अर्थात राष्ट्रद्रोही की कतार में आ सकता है, तो उधर, सोनी सोरी जैसी छत्तीसगढ़ की आदिवासी स्त्री- जिसके यौनांगों में पत्थर भरकर उसे किसी रणबांकुरे पुलिस अफसर ने राष्ट्र के असली मायने समझाने की कोशिश की थी- और जो आज भी कॉरपोरेट लूट के खिलाफ अलख जगा रही है, उस पर भी दोबारा एसिड से हमला करके उसे उन्हीं ‘राष्ट्रद्रोहियों’ की कतार में खड़ा किया जा सकता है या तमिल लोकगायक कोवन सरकार की शराब नीतियों का अपने गीतों में विरोध करने के लिए देशद्रोह के आरोपों के तहत जेल में ठूंसा जा सकता है या कोई प्रिया पिल्लई जो पर्यावरण को लेकर कॉरपोरेट साजिशों का खुलासा करने का जोखिम उठा सकती है, वह भी एंटीनेशनल करार दी जा सकती है.

यह अकारण नहीं कि जी. संपथ ‘द हिंदू’ के अपने आलेख में लिखते हैं, ‘संघ परिवार की इस राष्ट्रवादी नामकरण शैली में अब मध्य भारत के आदिवासी, दलित छात्र, वामपंथी बुद्धिजीवी, मानवाधिकार कार्यकर्ता, एक खास धार्मिक अल्पसंख्यक, नाभिकीय ऊर्जा विरोधी कार्यकर्ता, बीफ खाने वाले, पाकिस्तान से नफरत न करने वाले, अंतरधर्मीय जोड़े, समलैंगिक, मजदूरों के संगठनकर्ता सभी राष्ट्रद्रोही हैं.’ (देखें- द हिंदू, 17 फरवरी, 2016)

वैसे इन दिनों इन स्वयंभू राष्ट्रवादियों ने देश के अग्रणी विश्वविद्यालयों में से एक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को ही राष्ट्रद्रोहियों का अड्डा साबित करने की मुहिम छेड़ी है और जिसके लिए 9 फरवरी की रात में वहां आयोजित एक कार्यक्रम को बहाना बनाया गया है. निश्चित ही हुक्मरानों को लगता है कि देशद्रोह के इर्द-गिर्द हौवा खड़ा करके वह अपनी तमाम नाकामियों, अपनी आर्थिक असफलताओं, अपनी अमीरपरस्त नीतियों पर परदा डाले रख सकते हैं और सबसे बढ़कर इस देश के पूंजीपतियों को कई लाख करोड़ रुपये के कर्जे से एक ही रात में मुक्ति दिलाने के उनके कदम के प्रति उठ रहे विरोध के स्वर को दबा सकते हैं. लेकिन उन्हें अंदाजा नहीं है कि इस बहस को खड़ा करके उन्होंने अपने विवादास्पद इतिहास के प्रति भी लोगों में रुचि नए सिरे से जगा दी है. आजादी का आंदोलन ऐसा दौर रहा है जब इन स्वयंभू राष्ट्रवादियों के पुरखों की तमाम ‘बहादुरी’ सामने आई थी. मगर इसके पहले कि हम उसकी बात करें चंद लफ्ज ‘देशद्रोह’ की इस बहस को लेकर.

वैसे देशद्रोह को लेकर जो इतना हंगामा खड़ा किया जा रहा है, उसके कानूनी पक्ष बिल्कुल स्पष्ट हैं. जाने-माने कानूनविद और संविधान विशेषज्ञ फली एस. नरीमन इंडियन एक्सप्रेस में 17 फरवरी, 2016 को प्रकाशित अपने एक आलेख में लिखते हैं, ‘भारत में देशद्रोह असंवैधानिक नहीं है, वह अपराध तभी होता है जब उच्चारे गए शब्द, भले वह लिखे या बोले गए हों, उनके साथ हिंसा और अव्यवस्था जुड़ जाती है या वह हिंसा या अव्यवस्था को बढ़ावा देते हों. महज हुल्लड़बाजी, अव्यवस्था, अन्य किस्म की हिंसा- जो भले ही दंड संहिता के अन्य प्रावधानों के तहत सजा देने लायक हो, मगर वह दंड विधान की धारा 124 ए के तहत सजा लायक नहीं होती. इसी तरह, अपनी सरकार के प्रति नफरत यहां तक कि उसके प्रति जबरदस्त घृणा भी देशद्रोह नहीं समझी जाती. जब किसी व्यक्ति को ‘भारतविरोधी’ कहा जाता है तो वह भारत के नागरिकत्व के प्रति असम्मान है, मगर ‘भारतविरोधी’ होना आपराधिक कार्रवाई नहीं है और निश्चित ही वह ‘देशद्रोह’ नहीं है.’

यह बात महत्वपूर्ण है कि मौजूदा हुकूमत का वरदहस्त पाए गिने-चुने पत्रकारों और अन्य ‘चीअरलीडर्स’ को छोड़ दें तो देशद्रोह कानून के बढ़ते इस्तेमाल को प्रश्नांकित करते हुए वाम से लेकर उदारपंथियों तक ही नहीं, बल्कि आर्थिक मामलों में नवउदारवाद के समर्थक कहे जा सकने वाले बुद्धिजीवियों/पत्रकारों की ओर से भी प्रश्न उठ रहे हैं.

‘देशद्रोह कानून के अधिनायकवादी इस्तेमाल की भाजपा सरकार की कोशिशों’ को प्रश्नांकित करते हुए स्वामीनाथन एस. अंकलेसरिया अय्यर (देखें- इकोनॉमिक टाइम्स, 17 फरवरी 2016) वर्ष 1933 में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के अनुभव का हवाला देते हैं. उनके मुताबिक, ऑक्सफोर्ड यूनियन ने एक विवादास्पद प्रस्ताव पर बहस रखी थी जिसका फोकस था ‘यह सदन किसी भी सूरत में राजा और मुल्क के लिए संघर्ष नहीं करेगा.’ छात्र यूनियन द्वारा अपने इस मोशन पर मतदान भी कराया गया जिसमें 275 लोगों ने प्रस्ताव के पक्ष में और 153 लोगों ने विपक्ष में मत दिया. इस ‘ऑक्सफोर्ड प्रतिज्ञा’ को बाद में ग्लासगो और मैनचेस्टर के विद्यार्थियों ने भी अपनाया जिससे समूचे ब्रिटेन में हंगामे की स्थिति बनी. जनाब अय्यर के मुताबिक इन छात्रों को डरपोक, राष्ट्रद्रोही और कम्युनिस्ट हमदर्द कहा गया मगर किसी ने यह नहीं सोचा कि उन पर मुकदमा चलाया जाए.

स्वतंत्रता आंदोलन के समूचे दौर से हर हिंदुस्तानी वाकिफ रहा है. 20वीं सदी के पूर्वार्ध में नए परवान चढ़े इस दौर में एक तरफ मजूदर-किसानों के बीच एक नई जागृति सामने आ रही थी, मध्यम वर्ग के लोग आंदोलित थे, जाति व्यवस्था की सदियों पुरानी संस्था के खिलाफ और ब्राह्मणवादी मूल्यों की जकड़न के विरोध में दलितों-पिछड़ों में एक नई अंगड़ाई उठती दिख रही थी लेकिन हलचलों, आंदोलनों और उभार के इस चुनौती भरे कालखंड में संघ व उसके कार्यकर्ता दूर खड़े थे. गौरतलब है कि संघ ने अपनी तरफ से स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने का एक भी कार्यक्रम कभी हाथ में नहीं लिया था. संघ के साहित्य में उसके संस्थापक डाॅ. हेडगेवार को स्वतंत्रता आंदोलन के एक अग्रणी नेता के रूप में पेश किया जाता है गोया उन्होंने उस समय के विभिन्न आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया हो. लेकिन इसमें जानने योग्य है कि उन्होंने इस हलचल भरे कालखंड में कांग्रेस के नेतृत्व में चले आंदोलन में कार्यकर्ता के तौर पर हिस्सा लिया था और जेल गए थे. और वह भी इस मकसद से कि इसके जरिये लोगों को अपनी राजनीति की ओर आकर्षित किया जा सके.

ध्यान रहे कि जिन विनायक दामोदर सावरकर की विरासत आगे बढ़ाने का हिंदुत्ववादी दावा करते हैं- वाजपेयी की अगुआई वाली सरकार के दिनों में उनकी तस्वीर संसद भवन में अकारण नहीं लगाई गई थी- उन ‘स्वातंत्र्यवीर’ सावरकर के बारे में यह बात भी विदित है कि अंडमान की अपनी जेल यात्रा के दौरान अंग्रेजों के सामने माफीनामा लिख कर देने में (देखें, आरसी मजूमदार द्वारा लिखित किताब ‘पीनल सेटलमेंट्स इन अंडमान्स’ गैजेट्स यूनिट, डिपार्टमेंट ऑफ कल्चर, मिनिस्ट्री ऑफ एजुकेशन एंड सोशल वेलफेयर, गवर्नमेंट ऑफ इंडिया, 1975, पेज 221) और उनके निर्देशानुसार बाद में अपनी गतिविधियां चलाते रहने में कोई गुरेज नहीं किया.

1942 में जबकि समूचे हिंदुस्तान की जनता बर्तानवी हुक्मरानों के खिलाफ खड़ी थी, उन दिनों ब्रिटिश फौज में हिंदुओं की भर्ती की मुहिम सावरकर चलाते रहे. बहुत कम लोगों को यह बात मालूम है कि जिस मुस्लिम लीग के खिलाफ रात-दिन सावरकर जहर उगलते रहे, उसी के साथ 40 के दशक की शुरुआत में बंगाल में ‘हिंदू महासभा’ की साझा सरकार चलाने में भी उन्हें किसी तरह के द्वंद्व से गुजरना नहीं पड़ा, जब ऐतिहासिक भारत छोड़ो आंदोलन के तहत लाखों लोग जेलों में डाले गए थे.

दरअसल सावरकर की ‘वीरता’ का महिमामंडन करने में जुटे मिथक निर्माता इस बात को बताना नहीं चाहते कि भारत में मजहब के आधार पर दो राष्ट्रों की मौजूदगी की बात जिन्ना के पहले सावरकर ने पेश की थी. अगर कथित तौर पर बंटवारे की वैचारिकी पेश करने के लिए साधारण जनमानस में जिन्ना को ‘खलनायक’ का दर्जा हासिल है तो फिर क्या वही पैमाना सावरकर पर लागू नहीं होना चाहिए कि उन्होंने भी जिन्ना के काफी पहले यही बात कही थी. अहमदाबाद में आयोजित हिंदू महासभा के 19वें सालाना अधिवेशन (1937) में अध्यक्षीय भाषण देते हुए उन्होंने न केवल हिंदुत्व की अपनी समझदारी स्पष्ट की थी बल्कि इस बात का भी ऐलान किया था कि भारत में दो राष्ट्र बसते हैं.

‘भारत में दो राष्ट्र बसते हैं, कई बचकाने राजनेता यह भयानक गलती कर बैठते हैं कि भारत आज ही एक सदभावपूर्ण राष्ट्र बन चुका है या इस तरह ढाला जा सकता है बशर्ते ऐसी इच्छा हो. सदइच्छा रखने वाले मगर अविचारी महानुभाव अपने सपनों को ही हकीकत मान लेते हैं. इसी वजह से वह सांप्रदायिक विवादों को लेकर अधीर हो जाते हैं और उनके लिए सांप्रदायिक संगठनों को जिम्मेदार ठहराते हैं. मगर ठोस हकीकत यही है कि यह कथित सांप्रदायिक प्रश्न हिंदू और मुसलमानों के बीच सदियों से चले आ रहे सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय अंतर्विरोधों की ही परिणति है. भारत को एक एकीकृत एवं समरूप देश नहीं माना जा सकता बल्कि इसके विपरीत उसमें दो राष्ट्र मौजूद हैं: हिंदू और मुस्लिम राष्ट्र.’ (देखें- विनायक दामोदर सावरकर, समग्र सावरकर वांगमय हिंदू राष्ट्र दर्शन, सावरकर की संकलित रचनाएं, खंड-6, महाराष्ट्र प्रांतिक हिंदूसभा, पूना, 1963, पेज 296)

गौरतलब है कि एक तरफ सुभाषचंद्र बोस जैसे लोग थे, जो ब्रिटिश सेनाओं को परास्त करने के लिए आजाद हिंद फौज का गठन कर रहे थे और दूसरी तरफ यह ‘वीर’ जनांदोलन की उमड़ती बयार के दमन को मुमकिन बनाने के लिए ब्रिटिश सरकार की कोशिशों को मजबूती दिलाने के लिए हिंदुओं का आह्वान कर रहा था कि वे इस फौज में शामिल हों. जानने योग्य है कि हिंदू राष्ट्र के हिमायती इस गल्प को परोसते नहीं थकते कि जर्मनी रवाना होने के पहले सुभाषचंद्र बोस ने कथित तौर पर सावरकर से मुलाकात की थी. कहने का तात्पर्य यही होता है कि बोस ने जो किया उसे सावरकर का आशीर्वाद था. लेकिन वे कभी इस अंतर्विरोध से बाहर निकलने की भी कोशिश नहीं करते कि सावरकर ने कथित तौर पर बोस को शुभकामनाएं दी थीं और दूसरी तरफ सावरकर खुद उसी बर्तानवी फौज को मजबूती दिलाने के लिए उनके सेना भर्ती अभियान के सदस्य बने थे.

मकसद यही था कि अधिक से अधिक हिंदुओं को बर्तानवी सेना में भर्ती किया जाए ताकि हिंदुओं के ‘स्त्रीकरण’ को उलटाया जा सके, जो सावरकर के मुताबिक, बर्तानवी शासन के दिनों से चल रहा था क्योंकि मार्शल कौमों को सेना में भर्ती करने को लेकर ब्रिटिश नीति चल रही थी. हिंदुओं की ब्रिटिश सेना में भर्ती उसमें हिंदू-मुस्लिम अनुपात को हिंदुओं के पक्ष में कर देगी और ऐसा अनुपात सावरकर के हिसाब से नई राष्ट्रीय सेना को ढालने में या उसकी वफादारी को सुनिश्चित करने के लिए निर्णायक होगा. (देखें- द सैफ्रन वेव, पेज 249, थॉमस हानसेन, ऑक्सफोर्ड, 2001)

लोग लाठियों की मार से राष्ट्रवाद का असली मतलब समझा रहे हैं. शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर टूट पड़ते दिख रहे इन निक्करधारी गिरोहों के साथ जगह-जगह खाकी वर्दीधारियों की भी मौन सहमति नजर आ रही है. और दिख रहा है कि आप अगर किसी को मार भी डालें और सफाई में यह कह दें कि वह पाकिस्तान जिंदाबाद कह रहा था तो उसे माफ कर दिया जाएगा

यही वह कालखंड है जब कांग्रेस तथा समाज के अन्य रेडिकल तत्व बर्तानवी हुक्मरानों के खिलाफ ‘करो या मरो’ का नारा बुलंद किए हुए थे, वहीं सावरकर की अगुआई वाली हिंदू महासभा सिंध और बंगाल में मुस्लिम लीग के साथ साझा सरकारें चला रही थीं. साफ है कि सावरकर ने यहां के साझे और सर्वसमावेशी राष्ट्रवाद पर हमला बोला था; दूसरी तरफ, उन्हें इस बात पर भी कोई मलाल नहीं था कि वे कांग्रेस तथा अन्य पार्टियों पर ‘मुसलमानों के तुष्टीकरण’ का आरोप मढ़ रहे थे.

‘व्यावहारिक राजनीति में भी महासभा जानती है कि हमें यथार्थवादी समझौतों के साथ आगे बढ़ना चाहिए. आप देखें कि किस तरह सिंध हिंदू सभा ने लीग के साथ गठबंधन सरकार चलाने की जिम्मेदारी ली है. बंगाल के मामले को आप जानते ही हैं. लीग के लोग जिन्हें कांग्रेस भी मना नहीं पाई वह जब हिंदू महासभा के संपर्क में आए तब समझौते के लिए तैयार हो गए और जनाब फजलुल हक की अगुआई में और हमारे सक्षम नेता श्यामाप्रसाद मुखर्जी के साथ मिलकर गठबंधन सरकार सफलतापूर्वक एक साल से अधिक समय तक चलती रही जिसका दोनों समुदायों को फायदा हुआ.’ (देखें- विनायक दामोदर सावरकर, समग्र सावरकर वांगमय हिंदू राष्ट्र दर्शन, सावरकर की संकलित रचनाएं, खंड-6, महाराष्ट्र प्रांतिक हिंदूसभा, पूना, 1963, पेज 479-80)

क्या यह आश्चर्यजनक नहीं कि ऐसे तमाम कामों के बावजूद जिन्हें स्वतंत्रता आंदोलन से शुद्ध द्रोह कहा जा सकता है, विनायक दामोदर सावरकर को हिंदुत्व ब्रिगेड के मुरीद महान ‘देशभक्त’ बनाने की कोशिश में आज भी जुटे हैं. यहां तक कि अब जबकि भाजपा को पूर्ण बहुमत मिला है तो सावरकर को ‘भारत रत्न’ की पदवी से नवाजने की चर्चाएं जोरों से चल रही हैं.

अगर हम संघ की ओर लौटें तो देख सकते हैं कि बर्तानवी साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के प्रति संघ की उदासीनता/तटस्थता की चरमसीमा 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के समय खुलकर सामने आई थी जिन दिनों गोलवलकर सरसंघचालक पद पर विराजमान थे. तब संघ इस उग्र जन आंदोलन से सिर्फ दूर ही नहीं रहा, बल्कि उसने इस आंदोलन को ही निरर्थक बताया. इस आंदोलन की शुरुआत के कुछ समय पहले गोलवलकर गुरुजी के विचारों की झलक 8 जून, 1942 को उनके दिए भाषण में देखी जा सकती है जिनमें उन्होंने अंग्रेज शासकों को निरपराध घोषित किया था.

‘समाज की पतित अवस्था के लिए संघ दूसरों को दोष नहीं देना चाहता. जब लोग दूसरों के सिर पर दोष मढ़ने लगते हैं तब उसके मूल में उनकी दुर्बलता रहती है. दुर्बलों पर होने वाले अन्याय का दोष बलवानों के माथे मढ़ना व्यर्थ है. दूसरों को गाली प्रदान करना या उनकी आलोचना करने में अपना अमूल्य समय नष्ट करने की संघ की इच्छा नहीं है. यदि हम यह जानते हैं कि बड़ी मछली छोटी मछली निगलती है, तो उस बड़ी मछली को दोष देना सरासर पागलपन है. निसर्ग नियम भला हो, बुरा हो, वह सब समय सत्य ही है. वह नियम यह कहने से कि वह अन्यायपूर्ण है, बदलता नहीं.’ (देखें- श्री गुरुजी समग्र दर्शन, खंड 1, पृष्ठ 11-12)

1942 में जब हिंदुस्तान की अवाम बर्तानवी हुक्मरानों के खिलाफ खड़ी थी, उन दिनों ब्रिटिश फौज में हिंदुओं की भर्ती की मुहिम सावरकर चलाते रहे. जिस मुस्लिम लीग के खिलाफ रात दिन सावरकर जहर उगलते रहे, उसी के साथ 40 के दशक की शुरुआत में बंगाल में ‘हिंदू महासभा’ की साझा सरकार चलाने में भी उन्हें किसी तरह के द्वंद्व से गुजरना नहीं पड़ा

अंग्रेज सरकार के आदेश पर संघ ने पहले से चले आ रहे सैनिक विभाग भी बंद किए थे लेकिन इसके पीछे का तर्क तत्कालीन सरसंघचालक गोलवलकर गुरुजी द्वारा संघ के वरिष्ठ संगठनकर्ताओं को 29 अप्रैल, 1943 को भेजे परिपत्र (सर्कुलर) में मिलता हैः

modiWEB2

‘हमने सैनिक कवायद तथा यूनिफॉर्म के बारे में सरकार के आदेश का पालन करते हुए यह फैसला लिया है. ताकि कानून का पालन करने वाली हर संस्था की तरह हम भी अपने काम को कानून के दायरे में जारी रख सकें. यह उम्मीद करते हुए कि परिस्थितियां जल्दी बदल जाएंगी हमने प्रशिक्षण का एक हिस्सा ही रोक दिया था लेकिन अब हम परिस्थिति में तब्दीली का इंतजार किए बगैर इस काम को बिल्कुल समाप्त कर रहे हैं.’ (The Brotherhood in Saffron: The RSS and Hindu Revivalism- Walter K. Andersen and Shridhar K Damle- Vistaar Publications, New Delhi, 1987) 

यह अकारण ही नहीं था कि संघ की गतिविधि पर 1943 में तैयार की गई आधिकारिक रपट में गृहमंत्री ने निष्कर्ष निकाला कि यह कहना संभव नहीं है कि कानून और व्यवस्था के लिए संघ से कोई फौरी खतरा है. 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान हुई हिंसा के संदर्भ में बंबई के गृहविभाग की टिप्पणी थी, ‘संघ ने खुद को कानून के दायरे में रखा है और अगस्त 1942 में चले उत्पातों में शामिल होने से उसने खुद को बचाया है.’(संदर्भः वही)

स्वतंत्रता आंदोलन को लेकर संघ के गोलवलकर द्वारा ‘विचार नवनीत’ में प्रस्तुत विचार गौर करने लायक हैं. इसमें वे संघ की कार्यशैली में अंतर्निहित नित्यकर्म की चर्चा करते लिखते हैं, ‘नित्यकर्म में सदैव संलग्न रहने के विचार की आवश्यकता का और भी एक कारण है. समय-समय पर देश में उत्पन्न परिस्थिति के कारण मन में बहुत उथल-पुथल होती रहती है. 1942 में ऐसी उथल-पुथल हुई थी. उसके पहले 1930-31 में भी आंदोलन हुआ था. उस समय कई लोग डॉक्टरजी के पास गए थे. इस ‘शिष्टमंडल’ ने डॉक्टरजी से अनुरोध किया था कि इस आंदोलन से स्वातंत्र्य मिल जाएगा और संघ को पीछे नहीं रहना चाहिए. उस समय एक सज्जन ने जब डॉक्टरजी से कहा कि वे जेल जाने के लिए तैयार हैं, तो डॉक्टरजी ने कहा, ‘जरूर जाओ. लेकिन पीछे आपके परिवार को कौन चलाएगा?’ उस सज्जन ने बताया, ‘दो साल तक केवल परिवार चलाने के लिए ही नहीं तो आवश्यकता अनुसार जुर्माना भरने की भी पर्याप्त व्यवस्था उन्होंने कर रखी है.’ तो डॉक्टरजी ने कहा, ‘आपने पूरी व्यवस्था कर रखी है तो अब दो साल के लिए संघ का ही कार्य करने के लिए निकलो. घर जाने के बाद वह सज्जन न जेल गए न संघ का कार्य करने के लिए बाहर निकले.’ (देखें- श्री गुरुजी समग्र दर्शन खंड 4, नागपुर, प्रकाशन तिथि नहीं, पृष्ठ 39-40)

‘समाज की पतित अवस्था के लिए संघ दूसरों को दोष नहीं देना चाहता. जब लोग दूसरों के सिर पर दोष मढ़ने लगते हैं तब उसके मूल में उनकी दुर्बलता रहती है. दुर्बलों पर होने वाले अन्याय का दोष बलवानों के माथे मढ़ना व्यर्थ है. दूसरों को गाली प्रदान करना या उनकी आलोचना करने में अपना अमूल्य समय नष्ट करने की संघ की इच्छा नहीं है. बड़ी मछली छोटी मछली निगलती है, तो उस बड़ी मछली को दोष देना सरासर पागलपन है’

ब्रिटिश सरकार से प्रत्यक्ष टकराव टालने की यही वह नीति थी तथा अपने आप को ‘सांस्कृतिक’ कामों तक सीमित रखने का यही वह सिलसिला था कि संघ परिवार की निगाह में भी श्रद्धेय कहे जाने वाले सावरकर ने, जिनका अपना व्यक्तित्व भी बेहद समझौतापरस्त था, गोलवलकर की अगुआई में निर्मित हो रही स्वयंसेवकों की पीढ़ी को लताड़ते हुए लिखा था, ‘संघ के स्वयंसेवक का यही मृत्युलेख लिखा जाएगा, वह जन्मा, शाखा में गया और मृत्युलोक को प्राप्त हो गया.’ (देखें- ब्रदरहुड इन सैफ्रन- एंडरसन एंड दामले)

याद रहे कि उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष से संघ परिवार का आधिकारिक तौर पर दूर रहना एक ऐसी स्थापित चीज है कि उसके लिए विशेष प्रमाणों की जरूरत भी नहीं है. और यह अकारण नहीं था कि दिल्ली की गद्दी पर वाजपेयी की अगुआई में अपने प्रथम कार्यकाल (1998-2004) के दौरान भाजपा सरकार ने इतिहास के पुनर्लेखन की जो कोशिश की उसका अहम पहलू स्वतंत्रता आंदोलन से उसकी इस दूरी पर किसी न किसी तरह परदा डाले रखना था. वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल की शुरुआत में ही चर्चित इतिहासकार सुमित सरकार और केएन पणिक्कर द्वारा संपादित किताब ‘टूवार्ड्स फ्रीडम’ के प्रकाशन पर पाबंदी लगा दी गई थी. दरअसल इंडियन काउंसिल आॅफ हिस्टॉरिकल रिसर्च की ओर से प्रकाशित किए जा रहे प्रस्तुत शोधग्रंथ में तमाम ऐसे प्रमाण मौजूद थे जो बताते थे कि किस तरह 1930-40 के दिनों में संघ परिवार के लोगों ने बर्तानवी आकाओं के प्रति समझौतापरस्ती का परिचय दिया था.

(लेखक सामाजिक कार्यकर्त्ता और चिंतक हैं)

‘दुनिया में कौन सा देश है जो अभिव्यक्ति के नाम पर अपने खिलाफ कोई बात बर्दाश्त करेगा ?’

Nageshweb

देश भर के कई विश्वविद्यालयों में जो टकराव चल रहे हैं, उसमें एबीवीपी एक पक्ष के तौर पर उभरी है. हैदराबाद, जेएनयू, बीएचयू, लखनऊ, इलाहाबाद सब जगह एबीवीपी की शिकायत पर कार्रवाई की गई. सेमिनार और व्याख्यान बाधित करने और प्रोफेसराें-छात्रों पर हमले करने में भी एबीवीपी का नाम आया. एबीवीपी ऐसा क्यों कर रही है?

देखिए, आप मुझे जो घटनाएं बता रहे हैं, खासकर जेएनयू, तो दुनिया का कोई भी देश ले लीजिए, उसमें इतने पढ़े-लिखे लोग देश के खिलाफ बात करेंगे तो देश के नागरिक क्या करेंगे? वे कोई निर्दोष बच्चे नहीं हैं कि वे समझ नहीं सकते. उन्हें गंभीरता से डिजाइन किया गया है. देशविरोधी गतिविधि एक तो अनजाने में हो जाती है, लेकिन इन मामलों में हर आदमी समझ रहा है कि यह एक गंभीर संरचनात्मक मामला है. विश्वविद्यालयों में वैचारिक विमर्श हों यह अच्छी बात है, लेकिन अगर देश के खिलाफ कोई सीरियस डिजाइन है तो इसे सबको समझना पड़ेगा. देश ही नहीं रहेगा ​तो हम कहां ​डिस्कशन करेंगे?

जेएनयू का मुद्दा अलग है. अगर नारे लगे तो वह गंभीर घटना है. शुरू में हर कोई उसके विरोध में था कि देशविरोधी बातें करना अच्छा नहीं है. हमारा सवाल है कि आप कोई बात कह रहे हैं, उससे घोर असहमति के बावजूद क्या मैं आप पर शारीरिक तौर पर हमला कर सकता हूं? अब प्रो. विवेक कुमार, बद्रीनारायण या सिद्धार्थ वरदराजन वगैरह ने तो कोई ऐसी हरकत नहीं की थी कि उन पर हमले किए जाएं? 

कहां की घटना बता रहे हैं आप?

इलाहाबाद वि​श्वविद्यालय में छात्रसंघ अध्यक्ष ऋचा ​सिंह ने अभिव्यक्ति की आजादी पर एक परिचर्चा रखी थी जिसमें वरदराजन को बुलाया था. वे वरिष्ठ पत्रकार हैं. एबीवीपी ने उनको परिसर में घुसने नहीं दिया और कहा कि वे नक्सली और देशद्रोही हैं. ऐसा उन्होंने क्या किया है?

मुझे इसकी जानकारी नहीं है.

अभी लखनऊ में यही हुआ. प्रोफेसर ने अपूर्वानंद का एक लेख शेयर कर दिया तो एबीवीपी ने ​उनके खिलाफ प्रदर्शन किया, ​क्लास नहीं चलने दी. वीसी की ओर से उन्हें नोटिस भी दिया गया.

आप अलग-अलग घटनाओं का जिक्र कर रहे हैं. इसे ऐसे समझिए कि एबीवीपी लोकतंत्र में विश्वास करती है. लोकतांत्रिक विरोध करना सही है लेकिन कोई भी नागरिक हो, कोई भी व्यक्ति अगर देश के खिलाफ कोई बात करेगा, उसके लिए आप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कहेंगे कि उसे यह अधिकार है. दुनिया में कौन-सा देश है जहां का समाज ऐसा बर्दाश्त करता है? मुझे ऐसा लग रहा है कि अभिव्यक्ति के नाम पर क्या हो रहा है देश में, कहीं अपनी सुरक्षा न खतरे में आए? यह एक सीरियस डिजाइन है. जेएनयू यूनिवर्सिटी कोई ऐसी-वैसी नहीं है, वह बहुत प्रतिष्ठित है. आप इसको हल्के में मत लीजिए.

नहीं, नहीं, मैं यह कह रहा हूं कि राष्ट्र सबसे पहले है और उसके हितों से कोई समझौता नहीं किया जा सकता. लेकिन मैं कोई देशविरोधी गतिविधि को अंजाम दूं और हम बैठकर बात करें, इन दोनों बातों में अंतर है. विचार-विमर्श पर हिंसात्मक हमले तो निहायत अलोकतांत्रिक है. मारपीट से तो दहशत फैलती है!

आप इसे ऐसे समझिए कि एबीवीपी लोकतांत्रिक मूल्यों में विश्वास करती है और लोकतांत्रिक तरीके से विरोध करती है. सभी लोकतांत्रिक तरीकों से हमारी सहमति है. लेकिन व्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कोई एक देश बताइए कि जहां कोई नागरिक राष्ट्र के खिलाफ बात कर सकता हो? वैचारिक विमर्श अलग बात है. किसी को कोई भी विचारधारा पसंद आ सकती है. लेकिन ठीक है. सबके अलग-अलग रास्ते हैं. लेकिन कुल मिलाकर समाज और राष्ट्र के बारे में जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करते हैं, वहां पर हम एक जिम्मेदार नागरिक भी हैं. हमारी जिम्मेदारियां भी हैं. मेरा मानना है कि मेरी व्यक्तिगत स्वतंत्रता वहां खत्म हो जाती है जहां मैं दूसरे के अधिकारों का हनन करता हूं. मेरा मत है नेशन फर्स्ट…

आपकी इन बातों से मैं सहमत हूं कि आजादी की सीमा है, जवाबदेही भी होती है, लेकिन मुख्य सवाल हमलों का है. जैसे जम्मू विश्वविद्यालय में  ‘कश्मीर में बहुलतावाद’  पर सेमिनार हुआ, एबीवीपी ने उसका भी विरोध किया और वीसी ने विभाग को नोटिस जारी कर दिया.

देखिए आप जितने उदाहरण दे रहे हैं, मेरी आपसे विनती है कि वहां पता करें. वह कंटेंट क्या था? मुझे आइडिया नहीं है. मैं ऐसे कोई टिप्पणी करूं तो यह नैतिक रूप से गलत होगा.

मैं यह सोचता हूं कि आप अध्यक्ष हैं तो व्यापक दृष्टि से आप अपना या अपने संगठन का स्टैंड तो बता ही सकते हैं?

मैंने पहले ही कहा कि हम डेमो​क्रेटिक वैल्यू में बहुत विश्वास रखते हैं. और मान लिया कि कहीं देश के खिलाफ बात हो रही है तो हम लोकतांत्रिक तरीके से उसका विरोध करते हैं. युवाओं को जागरूक करते हैं. देश भर में जो देशविरोधी गतिविधि चल रही है, उसके खिलाफ जनसमर्थन खड़ा करते हुए समाज को आगाह करते हैं. आप जानते हैं कि देश ने विभाजन भी झेला है. हम विश्वविद्यालय या शैक्षणिक केंद्रों में लोकतांत्रिक तरीके से ऐसी गतिविधियों के खिलाफ जागरूकता फैलाते हैं ताकि ऐसा न हो. बाकी जिसकी जो विचारधारा है वो उसके आधार पर काम करे.

संदीप पांडेय का बीएचयू से निष्कासन ये कहते हुए कर दिया गया कि वे देशविरोधी और नक्सली गतिविधियों में लिप्त हैं, क्योंकि धरना-प्रदर्शन करते हैं.

नक्सल एक्टिविटीज को आप क्या मानते हैं?

अगर मैं विश्वविद्यालय में प्रदर्शन करूं, या परिचर्चा कराऊं तो यह नक्सल गतिविधि कैसे हो गई?

आप ध्यान से मेरी बात सुनिए. जो यूथ​ नक्सल एक्टिविटीज में भाग लेते हैं, उनको किसने ट्रैप किया, उनको किसने मेंटर किया, उनमें ऐसे विचार कैसे डाल दिए गए कि वे बंदूक उठाने को तैयार हो गए, वो कौन लोग हैं थोड़ा सोचिए. जिन्होंने बंदूक उठाई है वही दोषी हैं या उनके मेंटर दोषी हैं? उनको एजुकेट करने वाले दोषी हैं? जो लोग नक्सल एक्टिविटीज को सपोर्ट करते हैं, उनका विरोध करना मुझे लगता है कि लोकतांत्रिक अधिकार है.

लेकिन जो लोग गांधीवादी या समाजवादी हैं उनको नक्सली कहना कहां तक उचित है?

नहीं नहीं, गांधीवादी बिल्कुल नहीं, गांधीवादी तो देशभक्त होते हैं. मेरा कुल मिलाकर ये मत है कि जो अंडरग्राउंड एक्टिविस्ट हैं, जो एंटीनेशनल एक्टिविटीज में लिप्त हैं, उनको एजुकेट करने का कोई काम कर रहे हैं, उनको प्रोत्साहित करने का जो काम कर रहे हैं, उनका तो हर नागरिक को विरोध करना चाहिए. 16-18 साल के बच्चे को कहां से ये सब थ्योरीज मालूम हो गईं, कहां से उन्होंने बंदूक उठा ली, आदिवासियों के खिलाफ, सरकार के ​खिलाफ बंदूक उठा ली, ये सब कहां से सीखकर आए? ये एक सीरियस डिजाइन है, इसे हम सबको समझना पड़ेगा. बाकी अपनी-अपनी बात रखना अच्छा है. लेकिन जो देश तोड़ने और समाज में भेदभाव पैदा करने का काम करते हैं, उसे ठीक से समझते हुए हमें आगे बढ़ना चाहिए.

बहुत नाजुक है ये राष्ट्रवाद

For Nivedita MenonWEB

राष्ट्रवाद पर मेरे जो विचार हैं, उस बारे में सबसे पहले हम भाषा से बात शुरू करते हैं. कुछ दिन पहले एक कार्यक्रम में सवाल किया गया था कि क्या एक राष्ट्र बनने के लिए एक भाषा की जरूरत नहीं है. उस सवाल का जवाब आयशा क‌िदवई ने उस वक्त दिया था. लेकिन मैं भी दूंगी. जवाब ये है कि एक राष्ट्र को एकजुट करने के लिए अगर एक भाषा होनी चाहिए तो वो भाषा कौन-सी होगी? कौन-सी जुबान होगी? और कौन तय करेगा कि कौन सी जुबान उस देश की जुबान होगी.

होता क्या है कि जब कोई भी निर्णय लिया जाता है कि एक देश के लिए किसी एक चीज की जरूरत है, चाहे वो भाषा हो, कॉमन सिविल कोड हो या कोई दूसरी चीज, तब वो चीज ताकतवर तबकों की संस्कृति से उठाई जाती है. हम ये देखते हैं कि हमारे देश में जब किसी एक चीज की मांग की जाती है कि ये हमारे राष्ट्र की है तो वो ज्यादातर सवर्ण तबकों का, जो कि हिंदी भाषी क्षेत्र में हैं, वहां की संस्कृति, वहां के जो मूल्य हैं, उनको भारतीय माना जाता है.

अगर आप कभी भी संसदीय बहस को देखेंगे कि हिंदू कोड बिल आदि के दौरान सांसद जो दक्षिण भारत से हैं, जिनके नाम श्रीनिवासन हैं, घोष, सुब्रमण्यम हैं, जो वहां के सवर्ण हैं, उदाहरण के लिए- कहते हैं कि हमारे यहां लड़कियों के घर पर जाना वर्जित नहीं है. तब कोई श्रीवास्तव, कोई अग्रवाल उठकर खड़ा हो जाता है और कहता है कि ये भारतीय नहीं है. आपके बंगाल में होता होगा, आपके केरल में होता होगा, तमिलनाडु में होता होगा, लेकिन ये भारतीय नहीं है क्योंकि हमारे यहां किसी ब्याही हुई लड़की के यहां हम पानी तक नहीं पीते. इस तरह हिंदी को भी हमारी भाषा कहलाने के लिए जनगणना के साथ काफी खेल करना पड़ा है. कल आयशा क‌िदवई ने बताया था. मैंने उनसे पूछा, कितने प्रतिशत लोग जनगणना में बताते हैं कि हिंदी हमारी मातृभाषा है. बस 20 प्रतिशत लोग. इस 20 प्रतिशत को 50 प्रतिशत बनाया जाता है करीब-करीब 50 और भाषाओं को हिंदी मानकर. तो ये हम समझते हैं ‘जेएनयू जैसा लगना’. ये एक राजनीतिक खेल है किसी को किसी और की तरह लगाना.

भोजपुरी, मैथिली, ब्रज, बुंदेली जैसी और भाषाएं हैं, अपनी संस्कृति है, अपना साहित्य है, इनको हिंदी के अंतर्गत लाया गया है, ये दर्शाने के लिए कि ये स्वायत्त भाषाएं नहीं हैं और हिंदी पचास प्रतिशत लोग भारत में बोलते हैं.

नेशन की परिभाषा में ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल करना चाहिए. 11 मर्दों की टीम क्रिकेट मैच जीत जाती है तो हम कहते हैं कि हम जीत गए. कहते हैं कि हमारे पास परमाणु बम है, लेकिन जब नर्मदा बांध में 39 हजार लोग बेघर हो जाते हैं तब नहीं कहते कि हम डूब रहे हैं, तब हम नहीं कहते कि हम यानी हिंदुस्तान डूब रहा है

हम ये भी जानते हैं कि आधिकारिक हिंदी का गठन राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान इन्हीं तबकों ने किया था. उसमें से उर्दू-फारसी को निकाल कर बोलचाल की हिंदुस्तानी को साफ-सुथरा किया गया और एक बहुत ही अजीब-सी, अटपटी-सी भाषा बनाई गई. आप देख रहे हैं कि हमारी बातचीत में जेंडर (लिंग) की गड़बड़ियां हो रही हैं. लेकिन अचानक मुझे याद आता है कि भाषा स्त्रीलिंग है. मलयालम में उस तरह का जेंडर नहीं है, न ही अंग्रेजी में. सरहद के उस पार पाकिस्तान में यह हुआ कि उर्दू को साफ किया गया. इस तरह हम देखते हैं कि जो राष्ट्र है वो शुद्धता मांगता है और शुद्धता के मापदंड बिल्कुल ताकतवर तबके तय करते हैं. इन तबकों से तय किया जाता है कि शुद्धता किस तरह परखी जाएगी और जाहिर है हम सब बिल्कुल अशुद्ध निकलेंगे, नापाक निकलेंगे.

जब मैं हिंदी सीखती थी, हम घर में हिंदी नहीं बोलते थे. मैं फिल्मों से हिंदी सीखती थी. जब मैंने ‘मोहब्बत’ कहा तो उसको काटकर ‘प्रेम’ लिखा जाता था. ‘कलाम’ कहा तो उसको ‘लेखन’ या कुछ कहा जाता था. ये जो निर्मम संस्कृतीकरण किया गया है, उसकी भी एक वजह है कि हम जैसे लोग जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं है, हम उस तरह से ठीक और शुद्ध हिंदी नहीं बोल सकते.

हिंदी सीखने का मेरा हौसला तब बढ़ा जब मैं पॉलिटिकल एक्टिविज्म में उतरी और देखा कि बिहार या राजस्थान से जो कॉमरेड आते हैं, उनको कोई झिझक नहीं है, जेंडर के बारे में वे सोचते ही नहीं हैं, उनकी मातृभाषा है वो हिंदी जैसी की तैसी बोलती है. उससे मैंने भी साहस लिया.

जब हम कहते हैं कि राष्ट्र एक रोजाना रायशुमारी है, हमारा मतलब है कि राष्ट्र कोई प्राकृतिक चीज नहीं है. जेएनयू में बार-बार जो लेक्चर हुआ, आपने बार-बार सुना होगा और आप जानते भी हैं क्योंकि आप यहां के छात्र हैं. राष्ट्र का एक इतिहास होता है, तरह-तरह के समुदायों में लोग साथ रहते हैं और राष्ट्र एक खास ऐतिहासिक वक्त पर उभरता है. यूरोप में 18वीं और भारत में करीब 19वीं शताब्दी में जो राष्ट्रीय आंदोलन लड़ा गया उस दौरान एक राष्ट्र का गठन किया गया. चाहे वो सेक्युलर नेहरूवादी किस्म का राष्ट्र हो या हिंदुत्ववादी हो, जो भी हो, 19वीं सदी में ये राष्ट्र उभर कर आता है.

होता क्या है कि एक बार जब साम्राज्यवाद को हटाकर स्वराज मिल जाता है तो माना जाता है कि अब कोई सवाल उठाना बिल्कुल नाजायज है. अब तक हम उठाते रहे, लेकिन एक बार 15 अगस्त, 1947 की तारीख आ गई उसके बाद न्याय के बारे में सवाल उठाना, हमारे संसाधनों के बारे में सवाल उठाना कि संसाधनों पर किसका हक है, कोई भी सवाल उठाना अब अचानक राष्ट्रविरोधी बन जाता है. यह राष्ट्र-राज्य का एक बहुत ही महत्वपूर्ण खेल है कि इसके बाद आप सवाल नहीं उठाएंगे. इसके बाद आप सवाल उठाएंगे तो आप एंटीनेशनल हैं. इसीलिए सेक्शन 124 ए के तहत हमारे साथियों को एंटीनेशनल कहा जा रहा है और यह पहली बार नहीं है. देशद्रोह का आरोप कइयों पर लगा है, कई पत्रकारों पर लगा है. ये जो कानून है उसको बिल्कुल भी बदलना नहीं पड़ा, हमारे स्वतंत्र भारतीय राज्य को. आजादी के बाद कुछ बहुत ही अजीब से शब्द निकालने पड़े जैसे कि- ‘हर मैजेस्टी’ निकाला गया, ‘क्राउन रिप्रेजेंटेटिव’ निकाला गया, ‘ब्रिटिश इंडिया’, ‘ब्रिटिश-बर्मा’ निकाला गया. 150 साल पुराना कानून है यह और वही कानून है जिसे एक साम्राज्यवादी सरकार ने इसे हमारे देश में चलाया था, अब वही एक तथाकथित स्वायत्त स्वतंत्र राष्ट्र की ओर से चलाया जा रहा है.

जब हम कहते हैं कि यह एक रोजाना रायशुमारी है तब हम क्या कह रहे हैं? हम जनतंत्र को ज्यादा प्राथमिकता दे रहे हैं. हम कह रहे हैं कि सबसे बड़ा मूल्य है जनतंत्र. हम कह रहे हैं क्योंकि जनतंत्र एक प्रक्रिया है, जो जारी है, जो चलती रहती है, जो कभी खत्म नहीं होती, क्योंकि जब आप समझते हैं कि अब सारे तबके इसमें आ गए, तब कोई नई पहचान खड़ी हो जाएगी कि हमारे बारे में नहीं सोचा. इसलिए लोकतंत्र एक सतत प्रक्रिया है. जबकि राष्ट्र-राज्य को माना जाता है कि उसकी प्रक्रिया खत्म है, वो जम गया है कि ये है इंडिया. अब इसमें कोई परिवर्तन नहीं होगा. इसीलिए हमारे कई जाने-माने राष्ट्रवादी टैगोर से लेकर गांधी, आंबेडकर, पेरियार आदि सबने राष्ट्रवाद और राष्ट्र-राज्य को शक की नजर से देखा. टैगोर ने इस पर सवाल उठाया. आंबेडकर साइमन कमीशन से मिलकर आए जबकि बाकी सारे राष्ट्रवादी साइमन कमीशन का बायकॉट कर रहे थे, क्योंकि उनको पता था कि इस राष्ट्र राज्य में जो प्रभावी तबके हैं, ब्राह्मणवादी तत्व हैं वही राष्ट्र को अपने हित में कराएंगे. आंबेडकर समझते थे कि अगर साइमन कमीशन से दलितों को कुछ सहारा मिले तो वे साइमन कमीशन से मिलने को तैयार थे. इसी को लेकर अरुण शौरी ने उनको एंटीनेशनल कहा. पेरियार भी राष्ट्रवाद को बहुत ही शक की नजर से देखते थे क्योंकि वो भी यही समझते थे कि ये एक प्रक्रिया कभी खत्म नहीं होनी चाहिए कि सवाल उठेंगे और ट्रांसफॉरमेशन चलता रहेगा. दलितों के लिए ब्रिटिश रूल राहत की बात थी, लेकिन इससे ब्राह्मणवाद को बहुत बड़ी चोट पहुंची और उनको कोई हिचकिचाहट नहीं है यह कहने में कि अब ब्राह्मणवाद पर वार हुआ है.

हमारा कहना है कि एंटीनेशनल किसे कहते हैं? हमारी एक बहुत गौरवपूर्ण परंपरा है. राष्ट्रवादी इसीलिए इतना सशंकित रहते हैं क्योंकि उनके राष्ट्र-राज्य और जनतंत्र में एक अंतर्विरोध है और बार-बार वह अंतर्विरोध और गहरा होता जा रहा है. जैसे-जैसे जनवादी आवाजें उठती हैं, राष्ट्रवाद उनको कुचलने की कोशिश करता है, राष्ट्रहित के नाम पर. राष्ट्रहित सिर्फ एलीट तबके के लिए है और एलीट तबके के हित को राष्ट्रहित कहा जाता है तो जाहिर है कि इसके खिलाफ कोई भी सवाल उठाएगा तो उस पर एंटीनेशनल का लेबल लग जाएगा.

हमें लगता है कि राष्ट्रवाद बहुत मजबूत चीज है, लेकिन अगर ये इतना ही मजबूत होता है कि दो या पांच लोगों में से कोई नारा लगाया तो वह खतरे में पड़ गया तो सोचिए फिर यह कितना नाजुक है. 26 जनवरी को राजपथ पर जो हम देखते हैं, वह है राष्ट्र-राज्य. और इतना डर कि चार लड़कों से हिल जाता है. वह उतना मजबूत नहीं है जितना हम समझते हैं. उस मजबूती को बनाए रखने के लिए बंदूक और टैंक की जरूरत पड़ती है.

सादिया नाम की लड़की पाकिस्तान से इंडिया आकर ओडिशी सीखती थी. उसके घर में जो औरत काम करती थी उसे कभी समझ में नहीं आता कि सादिया है कहां से. वह कभी-कभी पूछती दीदी आप हैं कहां से, सादिया कहती कि पाकिस्तान से. तब वह कहती मतलब बाहर से? सादिया उसे समझाती थी कि भारत की तरह ही एक और देश है, मैं वहां से हूं. लेकिन उसे कभी समझ में नहीं आया कि ये पाकिस्तान है क्या चीज. ये राष्ट्र जैसी चीज कोई प्राकृतिक ज्ञान नहीं है जो कि बच्चा पैदा होते ही समझ जाता है, जैसे वो अपनी मां को पहचानता है वैसे ही राष्ट्र को फौरन पहचान लेता है. सीखना पड़ता है, हर चीज. जब औरत और मर्द बनना हमें हर रोज सीखना पड़ता है. ये जेंडर भी एक तरह की रायशुमारी है. जब इतनी प्राकृतिक चीज हमें सीखनी पड़ती है तो जाहिर है कि राष्ट्रवाद भी सीखना पड़ता है. इसीलिए बेनेडिक्ट एंडरसन ने इसको ‘काल्पनिक कम्युनिटी’ कहा. उनका मतलब ये नहीं था कि ये महज काल्पनिक है. उनका मतलब ये था कि इसका गठन करना पड़ता है. इस गठन में तरह-तरह की आशाएं, उम्मीदें और मांगें होंगी. और अगर हम इन सब चीजों को साथ लेकर नहीं चलते तो वो राष्ट्र का गठन नहीं होता.

देखते हैं कौन-कौन एंटीनेशनल है. पूर्वोत्तर पूरा है ही एंटीनेशनल. कश्मीर है और मुसलमान तो सारे हैं ही. अभी ईसाई बन रहे हैं एंटीनेशनल. तमिलनाडु तो है ही क्योंकि वो हिंदी नहीं बोलेंगे. भूमि अधिग्रहण के खिलाफ जो किसान बोलते हैं, वो हैं एंटीनेशनल. औरतें जो जींस पहनती हैं, शराब पीती हैं, वो एंटीनेशनल हैं, जो समलैंगिक प्यार करते हैं वो एंटीनेशनल हैं

होता क्या है कि जितने लोगों को इसमें शामिल करने की कोशिश होती है उतने ही लोगों को बाहर करने की कोशिश होती है. क्योंकि कोई भी राष्ट्र-राज्य ये नहीं कहता कि सारी दुनिया इस राष्ट्र की नागरिक है. इसीलिए टैगोर को राष्ट्र से इतनी आपत्ति थी. जब आप किसी को हाशिये पर रखते हैं और वे आपको प्यार नहीं करते, तब आप उन्हें एंटीनेशनल कहते हैं. पहले उनको बाहर करते हैं, जब वे आपसे प्यार से पेश नहीं आते तो गलती उनकी है.

एक बार डीयू में मैंने कुछ छात्रों को बात करते सुना कि ये नगालैंड वाले इतने अजीब होते हैं कि जब दिल्ली आते हैं तो कहते हैं कि हम इंडिया जा रहे हैं. मतलब वे इंडिया को अपना नहीं मानते. वह बच्चों की निजी बातचीत थी. मैं उसमें शामिल नहीं हुई. लेकिन इसका पॉइंट क्या है? हम मानते हैं कि नगालैंड भारत का भाग है लेकिन वे हमें अपना नहीं मानते. नगालैंड को अपना भू-भाग मानते हैं, लेकिन जो नगा छात्र कह रहे हैं वह हम सुनने को तैयार नहीं हैं. जब वो कहते हैं कि हम इंडिया जा रहे हैं तब आप सुनिए कि वो ऐसा क्यों कह रहे हैं. नगालैंड के इतिहास को समझिए. नगालैंड हमारा है, कश्मीर हमारा है, वह पहले से हमारे देश का हिस्सा है, लेकिन उनको उस नियम से रहना होगा, जो हम कहते हैं. इसका मतलब यह है कि राष्ट्र को लोगों के पहले माना जा रहा है. राष्ट्र लोगों के पहले है. उनके दिमाग में कोई अंडा, मुर्गी वाला सवाल है ही नहीं. वो एकदम स्पष्ट हैं कि इंडिया जो है, वो है. जैसे वह किसी ईश्वर ने दिया या जैसे बारिश आती है, वैसे ही आ गया.

लेह के बच्चे वर्षों से एनसीईआरटी की किताब पढ़ते हैं. उस किताब में उनका स्थानीय कुछ नहीं है. वे पढ़ते हैं कि हिमालय हमारे उत्तर में है. सोचिए कितना कन्फ्यूजन हुआ होगा. जाहिर है कि राष्ट्र समावेशी नहीं है. राष्ट्र ज्यादातर लोगों को शामिल करने की कोशिश भी नहीं करता. क्योंकि ज्यादातर लोगों को उन जैसा बनना है जो मुट्ठी भर सवर्ण मर्द हैं, उन जैसा बनो तो यहां रह सकते हो, वरना धरती हमारी, तुम लोग पाकिस्तान जाओ. हमें ज्यादा समावेशी राष्ट्रवाद की बात करना चाहिए. नेशन की परिभाषा में ज्यादा से ज्यादा लोगों को शामिल करना चाहिए. 11 मर्दों की टीम क्रिकेट मैच जीत जाती है तो हम कहते हैं कि हम जीत गए. कहते हैं कि हमारे पास परमाणु बम है, लेकिन जब नर्मदा बांध में 39 हजार लोग बेघर हो जाते हैं तब नहीं कहते कि हम डूब रहे हैं, तब हम नहीं कहते कि हम यानी हिंदुस्तान डूब रहा है.

एंटीनेशनल किसे माना जाता है? एक वो हैं जो काउंटर नेशनलिज्म प्रकट करते हैं, दूसरे वो जो विकास के खिलाफ लड़ते हैं. क्योंकि जाहिर है कि विकास है बड़े बांध, फ्लाईओवर, मॉल्स ये सब विकास है और जो जिंदगियां लोग रोजमर्रा की जीते हैं वह विकास नहीं है. नर्मदा बचाओ आंदोलन (एनबीए) को भी एंटीनेशनल ठहराया गया है, छत्तीसगढ़ के आदिवासियों को भी एंटीनेशनल ठहराया जाता है. हम लिस्ट बनाते हैं तो एंटीनेशनल की लिस्ट बढ़ती जाती है.

देखते हैं कौन-कौन एंटीनेशनल है. पूर्वोत्तर पूरा है ही एंटीनेशनल. कश्मीर है और मुसलमान तो सारे हैं ही. अभी ईसाई बन रहे हैं एंटीनेशनल. आंबेडरवादी भी हैं, कबीर कला मंच के लोग जेल में हैं, क्योंकि वे जातिवाद के खिलाफ गाना गाते हैं. तमिलनाडु तो है ही क्योंकि वो हिंदी नहीं बोलेंगे. तमिलनाडु बहुत दिनों से एंटीनेशनल है. भूमि अधिग्रहण के खिलाफ जो किसान बोलते हैं, वो हैं एंटीनेशनल. औरतें जो जींस पहनती हैं, शराब पीती हैं, वो एंटीनेशनल हैं. जो पितृसत्ता को नहीं मानते वो एंटीनेशनल हैं. जो समलैंगिक प्यार करते हैं वो एंटीनेशनल हैं. अब इन सारे लोगों की गिनती की जाए तो हमें लगा 25 लोग हैं जो राष्ट्रवादी रह गए हैं. वे हैं 56 इंच वाले मोदी जी, अमित शाह, ‘मनु’स्मृति ईरानी और वे 22 वकील जिन्होंने कोर्ट में हम पर हमला किया. अब अगर ये 25 लोग रह गए राष्ट्रवादी तो हमें राष्ट्रवाद की बहुत चिंता करनी चाहिए.

(लेखिका जेएनयू में प्रोफेसर  हैं. जेएनयू में कथित तौर पर देशद्रोही नारे लगने से हुए विवाद के बाद वहां के शिक्षकों ने राष्ट्रवाद पर एक हफ्ते तक ओपन क्लास ली.

यह लेख प्रो. निवेदिता मेनन के व्याख्यान का संपादित अंश है)

‘मुझे बस यही समझ में आया कि मेरे जैसों की मुक्ति किताबों के माध्यम से ही संभव है’

AAp BEEti-1WEB

बोकारो में पापा की पोस्ट ऑफिस में नौकरी से घर का गुजारा किसी तरह चल जाता था. उन दिनों काॅलेज की पढ़ाई के लिए दिल्ली जाने का जिक्र करने पर माली हालत की वजह से पापा ने साफ मना कर दिया था. मैंने सुना था कि दिल्ली में लोग ट्यूशन पढ़ाते हुए अपनी पढ़ाई करते हैं. तब यही रास्ता सुझाकर मैंने दिल्ली में पढ़ाई करने के लिए पापा को मनाया था. हमारे समुदाय (दलित) के लिए नौकरियों में आरक्षण होता है, इस बारे में पता था लेकिन कॉलेज में भी ऐसा कोई नियम लागू है, न तो इस बारे में पता था और न ही कोई बताने वाला था.

बहरहाल, दो दोस्तों के साथ दिल्ली आ गया. उनके साथ एक ही दिन हुआ था कि उनका व्यवहार इस कदर बदला कि मैंने अगली रात रेलवे स्टेशन पर बिताने का फैसला किया. इसके लिए दिल्ली में ही रहने वाले एक और दोस्त को फोन किया और मदद मांगी. उसने बेझिझक मुझे अपने यहां आ जाने के लिए कहा जो खुद भी तीन दोस्तों के साथ रहता था. इसके बाद मैं एडमिशन की तैयारियों में लग गया. एक कॉलेज में फॉर्म भरते वक्त एक सज्जन ने जानकारी दी कि एससी/एसटी के लिए अलग फॉर्म होता है और अंक प्रतिशत में छूट भी मिलती है. फॉर्म भरते वक्त कुछ चीजें समझ में नहीं आ रही थीं तो कमरे पर आकर दोस्तों से मदद मांगी, लेकिन उस दिन उनका भी व्यवहार अजीब तरीके का था. फॉर्म न भर पाने के लिए उन्होंने काफी मजाक उड़ाया, जलील किया और अंत में कह ही दिया, ‘साला! तुम्हें एडमिशन फॉर्म भरना नहीं आता और चले हो कॉलेज पढ़ने! अब यही चूड़े-चमार ही तो रह गए हैं पढ़ने लिखने के लिए और अफसर बनने के लिए!’

एडमिशन के बाद भी मेरी पहचान की वजह से मेरा संघर्ष जारी रहा और दोस्तों द्वारा मुझ पर जाति आधारित टिप्पणियां जारी रहीं

उस वक्त लगा जैसे किसी ने उबलता हुआ पानी ऊपर डाल दिया है. आंसू रोकने की कोशिश में आंखें लाल हो गई थीं. अप्रत्यक्ष रूप से भेदभाव का व्यवहार पहले भी झेला था लेकिन इस तरह पहली बार हुआ था. लेकिन मैं क्या कर सकता था. सिर्फ उस वक्त वहां से खुद को हटा लिया और समझा लिया कि मुझे इस सबका सामना करते हुए ही अपनी पढ़ाई पूरी करनी है. मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय का रामजस कॉलेज अलॉट किया गया. अलॉटमेंट स्लिप लेकर कॉलेज पहुंचा लेकिन मुझसे कहा गया कि इस स्लिप पर एचओडी के हस्ताक्षर जरूरी हैं, लेकिन सारा कॉलेज छान मारने पर भी वे नहीं मिले. अगले कई रोज मैं कॉलेज आता और सारे दिन एचओडी को ढूंढता रहता. रात रेलवे स्टेशन पर गुजारता. जब एडमिशन के लिए मात्र एक दिन बचा था तो एचओडी के घर का पता निकालकर उनके घर पहुंच गया. वहां भी दिक्कतों से मेरा पीछा नहीं छूटा. उन्होंने मुझे घर तक चले आने के लिए काफी डांटा और अगले रोज कॉलेज में ही मिलने के लिए कहा. वे अगले रोज कॉलेज में मिले तो जरूर लेकिन सीट खत्म होने की बात कही. कई दिन तक धक्के खाने के बाद एचओडी का दो टूक जवाब सुनकर मेरे तो सारे सपने टूट गए पर मैंने हार नहीं मानी. घूम-घूम कर सबको  अपनी समस्या बताता रहा, तब मुझे किसी ने रजिस्ट्रार के पास भेज दिया. रजिस्ट्रार के हस्तक्षेप से आखिरकार रामजस काॅलेज में मुझे एडमिशन मिल गया.

एडमिशन के बाद भी मेरी पहचान की वजह से मेरा संघर्ष जारी रहा. कुछ दोस्तों के साथ रहना शुरू किया, लेकिन दोस्तों की ओर से कभी प्रत्यक्ष तो कभी अप्रत्यक्ष रूप से जाति आधारित टिप्पणियां जारी रहीं. आखिरकार फिर से उनका साथ छोड़ना पड़ा. सौभाग्य से मुझे ट्यूशन मिलनी शुरू हो गई और खर्चे की चिंता कम हो गई. हर कदम पर अपनी जातीय पहचान को लेकर कड़वे अनुभवों के चलते मैं काफी अंतर्मुखी हो गया था. क्लास के दूसरे साथियों की तरह मौज मस्ती करना अफोर्ड नहीं कर सकता था, इसलिए अपनी पढ़ाई पर ध्यान देने का फैसला लिया. मुझे यह शिद्दत से महसूस होने लगा था कि मेरी और मेरे जैसों की मुक्ति किताबों के माध्यम से ही संभव है, लेकिन समाज से मेरा सवाल है कि जातीय पहचान को लेकर मानवीय गरिमा को कब तक रौंदा जाता रहेगा?

(लेखक दिल्ली में रहते हैं और वकालत करते हैं)

आईआरसीटीसी में शोषण का सिलसिला

IRCTC-ProtestWEB

कौन

आईआरसीटीसी के कर्मचारी

कब

01 फरवरी, 2016

कहां

आईआरसीटीसी कार्यालय, नई दिल्ली

सावधान… 10 से 12 बजे के बीच शौच जाना मना है. अगर आप ऐसा करते पाई गईं तो नौकरी से हाथ भी धोना पड़ सकता है

आपने शायद ही कभी ऐसा अजीबोगरीब नियम देखा या सुना होगा. चलिए हम आपको इसके बारे में बताते हैं. बेहतर यात्री सेवाओं का दंभ भरने वाले रेल महकमे की एक शाखा के कर्मचारियों पर यह तुगलकी नियम लागू है. ये वे कर्मचारी हैं जिनके काम की बदौलत रेलवे बेहतर यात्री सुविधाओं का दावा करता है. यह फरमान इंडियन रेलवे कैटरिंग ऐंड टूरिज्म कॉरपोरेशन लिमिटेड (आईआरसीटीसी) की महिला कर्मचारियों पर लागू होता है, जिसके चलते पिछले दिनों तकरीबन सौ ठेका कर्मचारियों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ा है. आईआरसीटीसी के नई दिल्ली स्थित आईटी सेंटर की ई-टिकटिंग यूनिट में कस्टमर केयर सेंटर स्थापित है. यहां सुबह सात बजे से दोपहर तीन बजे तक की शिफ्ट महिला कर्मचारियों की है. इसी शिफ्ट में 10 से 12 बजे के बीच काम का सबसे अधिक दबाव रहता है क्योंकि यह तत्काल टिकट बुकिंग का समय होता है. इसी के चलते आईआरसीटीसी प्रबंधन ने एक नियम बना दिया कि इन दो घंटों के दौरान कॉलिंग पर तैनात कोई भी महिला कर्मचारी शौचालय नहीं जाएगी.

इस फरमान के चलते अपनी नौकरी गंवा चुकी अंजू साहनी बताती हैं, ‘पहले तो हम खुद ही इन स्थितियों से बचने की कोशिश करते थे, लेकिन धीरे-धीरे इसके प्रति प्रबंधन कड़ा होता गया. इमरजेंसी होने पर भी शौच नहीं जाने दिया जाता था, जिसके चलते कई लोगों को पेट से संबंधित बीमारियां भी हो गईं. इसकी शिकायत प्रबंधन से भी की गई पर कोई फायदा नहीं हुआ.’ प्रबंधन से अपनी समस्या का कोई समाधान न मिलते देख इन महिलाकर्मियों ने पिछले वर्ष सितंबर में दिल्ली महिला आयोग में शिकायत की. आयोग ने दिसंबर में प्रबंधन को नोटिस जारी किया. नोटिस में प्रबंधन से इस मामले में कार्रवाई करके रिपोर्ट आयोग को सौंपने का आदेश दिया गया. सीटू से संबद्ध दिल्ली ऑफिसेज एंड इस्टैब्लिशमेंट एम्प्लॉइज यूनियन के महासचिव व आईआरसीटीसी के इसी विभाग के पूर्व कर्मचारी सुरजीत श्यामल बताते हैं, ‘नोटिस से प्रबंधन तिलमिला उठा था. उसने शिकायत करने वाली व शिकायत को समर्थन देने वाले 92 कर्मचारियों को सेवामुक्त करने का फरमान सुना दिया.’

आईआरसीटीसी के आगे रोज धरना-प्रदर्शन करने वाले इन कर्मचारियों को 1 फरवरी से कार्यालय न आने की सूचना दी गई थी लेकिन वे प्रबंधन के इस आदेश को अनुचित मानते हुए रोज कार्यालय जाते हैं. उन्हें कार्यालय में प्रवेश नहीं करने दिया जाता. इसलिए वे सारा दिन कार्यालय के बाहर ही धरना देते हैं. एक कागज पर अपनी उपस्थिति लिखकर प्रबंधकों को भेज देते हैं. निष्कासितों में से एक प्रकाश जायसवाल बताते हैं, ‘अब तक हमें टर्मिनेशन लेटर नहीं मिला है. फिर हम कैसे मान लें कि हमारी नौकरी गई? इसलिए हम ऑफिस जाते हैं पर हमें अंदर प्रवेश करने नहीं दिया जाता. इसी कारण सभी एक कागज पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर प्रबंधन को भेज देते हैं.’ हालांकि प्रबंधन इन आरोपों से इनकार करता है. आईआरसीटीसी के जनसंपर्क अधिकारी संदीप दत्ता कहते हैं, ‘ये आरोप बेबुनियाद हैं. महिला कर्मचारियों के शौच जाने पर किसी भी प्रकार का कोई प्रतिबंध नहीं है. यह बात सही है कि तत्काल बुकिंग के दौरान काम का दबाव अधिक होता है पर ऐसा कोई नियम हमने नहीं बनाया है. पहले भी ऐसी बातें उठती रही थीं इसलिए हमने ऑफिस में यह नोटिस चस्पा किया था कि कोई भी शौच न जाने के लिए बाध्य नहीं है.’

वहीं, नौकरी से निकाली गई महिलाकर्मियों का कहना है, ‘जब प्रबंधन के पास शिकायतें गईं तो उसने एक नया नियम बनाया. शौच जाने के लिए पुरुष सुपरवाइजर से इजाजत लेना अनिवार्य कर दिया. हमें उसे मिनटों में बताना होता था कि कितने मिनट के लिए हम शौचालय का उपयोग करेंगे. यह बहुत ही शर्मिंदगी भरा था कि हम एक पुरुष को बताएं कि क्या इमरजेंसी है जिसके चलते हम शौचालय जाना चाहते हैं और कितने मिनट के लिए जाना चाहते हैं.’  अंजू बताती हैं, ‘नोटिस चस्पा किया गया था पर वो सिर्फ खानापूरी के लिए था. जब भी हम शौचालय जाने की अनुमति मांगते तो कहा जाता कि एक समय में एक ही व्यक्ति शौच जा सकता है. अभी कोई और गया है, जब वो आ जाएगा तब आपको अनुमति मिलेगी.’

IRCTC Protest Swati Maliwal copyआईआरसीटीसी से संबंधित तीन शिकायतें हमारे पास आई थीं. इन तीनों मामलों में से पहले दो मामले मानसिक प्रताड़ना और यौन शोषण से संबंधित थे. इन दोनों पर ही हमें जितना अधिकार था वो हरसंभव कार्रवाई हमने की. आईआरसीटीसी में एक शिकायत समिति का गठन कराया. इसके बाद भी अगर उन्हें कोई समस्या थी तो उन्हें वापस हमारे पास आना चाहिए था

स्वाति मालीवाल, अध्यक्ष, दिल्ली महिला आयोग

अनामिका रंजन को जुलाई 2015 में अपनी नौकरी गंवानी पड़ी. हालांकि उन्हें निकालने के पीछे का कारण कुछ और रहा लेकिन उनके साथ पांच और कर्मचारी निकाले गए थे, जिनमें से एक सोनिका सिंह भी थीं. अनामिका बताती हैं, ‘सोनिका हमारी टीम लीडर थीं. महिलाओं के लिए कभी-कभी शौचालय जाना कितना जरूरी होता है, वे यह समझती थीं. इसलिए कभी किसी को नहीं रोका करती थीं. इसकी भनक प्रबंधन को लग गई. एक दिन ग्रुप जनरल मैनेजर (जीजीएम) सुनील कुमार ने उन्हें बुलाकर खूब फटकार लगाई. उन्हें डिमोट करके इसकी सजा भी दी गई. कुछ दिन बाद उन्हें नौकरी से बाहर कर दिया गया.’ अंजू बताती हैं, ‘हेड सुपरवाइजर ममता शर्मा थीं. एक बार मैंने उनसे कहा कि यह नियम गलत है. आपके पास काम ज्यादा है तो आप स्टाफ क्यों नहीं बढ़ाते तो उन्होंने कहा कि दो घंटे कोई भी रोक सकता है. मर तो नहीं जाओगी. जाना है तो दस बजे से पहले जाओ या फिर बारह बजे के बाद.’ एक महिला होकर भी ममता शर्मा ने जो जवाब दिया वह अंजू के लिए चौंकाने वाला था.

महिलाएं भद्दी टिप्पणियां सुनने को मजबूर

कृष्णा दास 2008 से यहां काम कर रही थीं. इस बीच उनकी शादी हुई. वे बताती हैं, ‘यह भारत सरकार का मिनी रत्न उपक्रम है. पर यहां न तो कर्मचारियों के लिए मेडिकल की सुविधा है. न महिलाओं के लिए कोई विश्राम गृह है. आप अगर गर्भवती हो तो आप थोड़ा आराम भी नहीं कर सकतीं. महिलाओं के साथ वरिष्ठ पुरुष कर्मचारी आए दिन दुर्व्यवहार करते हैं, उन्हें अपशब्द कहे जाते हैं. कोई आंतरिक महिला शिकायत निवारण समिति नहीं है, जहां इसकी शिकायत कर सकें. मजबूरन हमें जानबूझकर सब अनदेखा करना पड़ता है.’ वे आगे कहती हैं, ‘मेरा ऑफिस मेट्रो स्टेशन से लगभग आधे घंटे की दूरी पर है. जब मैं मां बनने वाली थी तो कभी-कभी ऑफिस पहुंचने में देर हो जाया करती थी. तब वे लोग मेरी समस्या सुनने के बजाय मुझे बुरा-भला कहकर घर वापस भेज देते थे और मुझे अनुपस्थित कर देते थे.’  अनामिका को भी अपनी नौकरी गंवाने से पहले यहां यौन प्रताड़ता का शिकार होना पड़ा था. इसकी शिकायत उन्होंने प्रबंधन से भी की थी. जब बात नहीं बनी तो उन्होंने दिल्ली महिला आयोग में शिकायत कर दी. वे बताती हैं, ‘समान काम, समान वेतन’ की मांग के चलते मेरे पति को नौकरी गंवानी पड़ी. वे प्रबंधन के इस फैसले के खिलाफ अदालत में गए. प्रबंधन को यह रास नहीं आया. वे मुकदमा वापस ले लें इसलिए उन पर दबाव बनाने के लिए मुझे निशाना बनाया जाने लगा. दूसरे कर्मचारियों का बचा हुआ काम भी मुझसे कराया जाता था. पुरुष सहकर्मियों से मुझे अपशब्द कहलवाए जाते थे. इसकी शिकायत की तो जीजीएम सुनील कुमार ने मुझे बुलाकर धमकाया कि मैं अपने पति पर दबाव डालूं कि वे केस वापस लें, वरना यह सब होता रहेगा. इसके बावजूद मैं वहां काम करती रही तो सिर्फ अपनी चार साल की बेटी के लिए. क्योंकि पति की नौकरी पहले ही छूट गई थी. अपनी बेटी का भविष्य बनाना अब मेरे ही हाथ था.’ आगे वे बताती हैं, ‘सात महीने तक मैंने यह प्रताड़ना सही. मुझे अपशब्द कहने वाले दो पुरुष कर्मचारी कहा करते थे कि हमारे ऊपर प्रबंधन का हाथ है. जब तक प्रबंधन साथ है, तू हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती.’ अनामिका के अनुसार उनकी यह बात सही साबित भी हुई. वे कहती हैं, ‘जब इतनी प्रताड़ना के बाद भी मैंने नौकरी नहीं छोड़ी तो उन्होंने मुझे निकाल बाहर किया. पर वे दोनों पुरुषकर्मी वहीं जमे रहे. वहां महिलाओं के लिए कोई अलग से शिकायत करने की समिति नहीं है इसलिए मैंने अपनी पीड़ा दिल्ली महिला आयोग को बताई.’

 समस्याएं और भी हैं

आईआरसीटीसी के पिटारे में और भी कई विवाद बंद हैं. विवाद ठेका कर्मचारियों के स्थायीकरण को लेकर भी है. जिस विभाग की हम बात कर रहे हैं, वर्तमान में उसमें 322 कर्मचारी कार्यरत हैं जिनमें से 265 ठेका कर्मचारी हैं. इनकी मांग है कि इन्हें स्थायी किया जाए और ‘समान काम, समान वेतन’ की तर्ज पर स्थायी कर्मचारियों के जितना वेतन दिया जाए. लेकिन प्रबंधन इसके लिए राजी नहीं है. आईआरसीटीसी के जनसंपर्क अधिकारी संदीप दत्ता कहते हैं, ‘वे हमारे कर्मचारी हैं ही नहीं. वे आउटसोर्स किए गए हैं. हम तो उन्हें ठेकेदारों के मार्फत रखते हैं. जब भी हमें मानव संसाधन की जरूरत होती है, हम अपने ठेकेदारों को बताते हैं. हमारी जरूरत के अनुसार वे हमें योग्य कर्मचारी उपलब्ध करा देते हैं. जब हमारा काम हो जाता है तो हम उन्हें रिलीव कर देते हैं. वे ठेकेदार के लिए काम करते हैं न कि हमारे लिए. तो फिर उन्हें हम कैसे स्थायी कर सकते हैं?’

इसके उलट, गिरीश कुमार निराला, जो 2005 से आईआरसीटीसी से जुड़े रहे, बताते हैं, ‘हम कोई ठेका कर्मचारी नहीं हैं. हम किसी ठेकेदार के मार्फत नहीं आए थे. हम सभी को आईआरसीटीसी प्रबंधन ने नियुक्त किया था. बाकायदा प्रबंधन के अधिकारियों द्वारा हमारा साक्षात्कार लिया गया था. साक्षात्कार से लेकर भर्ती तक व आगे की सभी संस्थागत औपचारिकताएं आईआरसीटीसी प्रबंधन ही पूरी करता है. मैं दस साल से ज्यादा समय से काम कर रहा हूं और किसी ठेकेदार के जरिए नहीं आया था, हम सब सीधे प्रबंधन द्वारा नियुक्त किए गए थे. हमें तो बाद में पता चला कि आईआरसीटीसी ने हमें किसी ठेकेदार के हवाले कर दिया है.’ सुरजीत श्यामल बताते हैं, ‘वेतन कम देने के लिए ठेकेदार को केवल कागज पर दिखाया जाता है. ठेका कर्मचारियों के बिना जानकारी के ठेकेदार साल दो साल में बदल जाते हैं पर ठेका कर्मचारी वही रहते हैं. जो भी नया ठेकेदार आता है, वह ठेका कर्मचारियों का पंजीकरण नए सिरे से कराता है जिससे वे नए कर्मचारी बन जाते हैं. ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि दस-दस सालों से अधिक समय से कंपनी से जुड़े कर्मचारियों को ग्रेच्युटी से वंचित रखा जा सके. आईआरसीटीसी की यह नीति ठेका मजदूर कानून 1970 का खुला उल्लंघन है.’

इन कर्मचारियों का यह भी दावा है कि 2014 तक आईआरसीटीसी ठेका मजदूर कानून 1970 के तहत पंजीकृत ही नहीं था और न ही इसके किसी ठेकेदार के पास लाइसेंस था. इस तरह तो उसके अपने बचाव में किए जा रहे सारे दावे गलत हैं. प्रबंधन को समस्या कर्मचारियों के यूनियन बनाने को लेकर भी है. अगर यहां के कर्मी यूनियन का गठन कर लें या उनकी सदस्यता ले लें तो उन्हें प्रताड़ित करने में प्रबंधन कोई कसर नहीं छोड़ता. सुरजीत श्यामल ने जब एक ऐसा ही प्रयास किया और समान काम, समान वेतन की मांग उठाई तो उन्हें अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ गया था. सुरजीत बताते हैं, ‘हम सभी ने यूनियन का गठन किया था और अपनी मांगें प्रबंधन के सामने रखीं. प्रबंधन को यह रास नहीं आया. यूनियन को तोड़ने के लिए मुझे नौकरी से निकाल दिया गया. जो कारण दिया गया, वह स्वीकार करने योग्य नहीं था. उन्होंने कहा कि वे मेरे काम से संतुष्ट नहीं थे. जबकि मुझे खुद प्रबंध निदेशक ने मेरे अच्छे काम के लिए ‘मेरिट अवॉर्ड’ से सम्मानित किया था. मैं उनके इस फैसले के खिलाफ दिल्ली हाई कोर्ट गया तो मेरी पत्नी को प्रताड़ित किया जाने लगा, जो मेरे साथ ही वहां काम करती थी.’

अपने खिलाफ उठती आवाज को प्रबंधन किस तरह दबाता है, इसकी एक और बानगी हरीश जोशी हैं. वे 2006 से आईआरसीटीसी से जुड़े हैं. वे कहते हैं, ‘जब से हमने प्रबंधन से स्थायीकरण और समान काम, समान वेतन की मांग की, तब से हमारी वेतन वृद्धि भी रोक दी गई. सुरजीत को पहले ही नौकरी से निकाल दिया गया था, हमारे खिलाफ भी ऐसी कोई कार्रवाई न की जाए यह सोचकर हमने फिर ज्यादा विरोध नहीं किया.’ सुरजीत कहते हैं, ‘एमसीए, बीसीए पास लोग दस-दस सालों से यहां काम कर रहे हैं, तब भी उन्हें न्यूनतम वेतन दिया जा रहा है. जहां एक आठवीं पास सरकारी चपरासी बीस-बाईस हजार रुपये वेतन पाता है, वहीं हमें कई डिग्री और डिप्लोमा होने के बावजूद दस-बारह हजार रुपये में संतोष करना पड़ता है. मेरी मांग इस असमानता के खिलाफ थी.’

आईआरसीटीसी में ठेका कर्मचारियों के शोषण की दास्तान यहीं खत्म नहीं होती. इन कर्मचारियों का कहना है कि कर्मचारी भविष्य निधि में नियोक्ता का जो अंशदान होता है, वह भी उनके वेतन में से काट दिया जाता था. सुरजीत कहते हैं, ‘जब इसके खिलाफ कर्मचारी लामबंद हुए तब प्रबंधन जागा. लेकिन कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ईएसआईसी) में जो नियोक्ता का अंशदान होता है वो अब भी कर्मचारियों के वेतन में से ही काटा जाता है. ऐसा इसलिए है कि प्रबंधन ने जिन ठेकेदारों के हवाले कर्मचारियों को कर दिया है उनके पास भविष्य निधि खाता तक नहीं है.’ वहीं कहने को तो आईआरसीटीसी ‘रेल नीर’ का पानी सबको पिलाता है लेकिन अपने ही कर्मचारियों को पिलाने के लिए उसके पास साफ पानी नहीं है. लगभग सभी कर्मचारी अपने घर से ही पीने के पानी का इंतजाम करके चलते हैं. वे बताते हैं, ‘दफ्तर के पीने के पानी में कॉकरोच पड़े होते हैं. अगर घर से पानी का इंतजाम करके ले जाना भूल जाएं तो सारा दिन प्यासा ही रहना पड़ता है.’

[box]

दिल्ली महिला आयोग से नहीं मिली राहत

आईआरसीटीसी में महिलाओं के साथ हो रहे अमानवीय बर्ताव पर दिल्ली महिला आयोग (डीसीडब्ल्यू) ने उदासीन रवैया अपना रखा है. सुरजीत ऐसा मानते हैं. उनका कहना है, ‘शौचालय की समस्या को लेकर हमने डीसीडब्ल्यू का भी दरवाजा खटखटाया था. पहले सोनिका ने शिकायत की थी. उसके बाद सितंबर में यहां की 19 महिला कर्मचारियों ने आयोग को एक पत्र लिखकर अपनी पीड़ा बताई थी. लेकिन आयोग द्वारा कार्रवाई के लिए तय समयसीमा में समस्या का कोई भी निराकरण नहीं किया गया. 18 दिसंबर को हमने अपनी शिकायत की स्थिति जानने के लिए आरटीआई लगाई. इसका जवाब हमें 1 जनवरी को मिला जिसमें आयोग ने कहा कि उसे इस संबंध में कोई शिकायत नहीं मिली है. लेकिन 22 दिसंबर को ही आयोग आईआरसीटीसी को उसी शिकायत पर कार्रवाई करने के लिए नोटिस भेज चुका था. अगर शिकायत मिली ही नहीं थी तो नोटिस किस बात का भेजा?’

जिस नोटिस का जिक्र सुरजीत कर रहे हैं उसी के बाद 92 कर्मचारियों पर गाज गिरी थी. सुरजीत बताते हैं, ‘बीते 29 जनवरी को हमने फिर से महिला आयोग के संज्ञान में ये बात लाई कि शिकायत करने वाले कर्मचारियों सहित समर्थन में बोलने वाले कर्मचारियों को भी नौकरी से निकाल दिया गया है. तब से ही हम डीसीडब्ल्यू की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल से मिलने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन हमें फोन करके ऑफिस बुलवा लिया जाता है और घंटों इंतजार के बाद भी उनसे मुलाकात नहीं हो पाती.’

हालांकि स्वाति मालीवाल इस सबसे इनकार करती हैं, वे कहती हैं, ‘काफी दिनों से इनका विवाद सुनने में आ रहा था. मैंने खुद ही इस मामले का संज्ञान लिया. आईआरसीटीसी से संबंधित तीन शिकायतें हमारे पास आई थीं. दो व्यक्तिगत मामले थे और एक हालिया मामला था जिसमें उनकी शिकायत है कि हमें नौकरी से निकाल दिया गया. इन तीनों मामलों में से पहले दो मामले मानसिक प्रताड़ना और यौन शोषण से संबंधित थे. इन दोनों पर ही हमें जितना अधिकार था वो हरसंभव कार्रवाई हमने की. आईआरसीटीसी में एक शिकायत समिति का गठन कराया. इसके बाद भी अगर उन्हें कोई समस्या थी तो उन्हें वापस हमारे पास आना चाहिए था. तीसरा मामला लेबर से संबंधित था. उनका कहना है कि हमें निकाल दिया गया. यह तो एडमिनिस्ट्रेटिव मसला है. इसके लिए उन्हें लेबर कोर्ट में जाना चाहिए. इसमें दिल्ली महिला आयोग क्या कर सकता है? हमने उन्हें यही बोला कि आप लेबर कोर्ट जाइए, वहीं इस पर आपको न्याय मिल सकेगा. दिल्ली महिला आयोग तो उनसे बार-बार कह रहा है कि अगर आपकी कोई समस्या है तो हमें बताएं.’ लेकिन सुरजीत के अनुसार, 25 फरवरी को भी वे और चार अन्य महिलाकर्मी आयोग के बुलावे पर वहां पहुंचे लेकिन घंटों तक इंतजार करने के बाद भी जब मुलाकात नहीं हुई तो उन्हें जबरन ऑफिस में दाखिल होना पड़ा. वे बताते हैं, ‘इस पर मालीवाल भड़क गईं और कहा कि वे जब चाहें जिससे चाहें मिलें और बिना किसी सुनवाई के वहां से हमें जबरन भगा दिया गया.’

अनामिका के मामले में तो और भी ज्यादा संवेदनहीनता का परिचय आयोग ने दिया. अनामिका और आईआरसीटीसी प्रबंधन को आमने-सामने बैठाकर की गई सुनवाई में आयोग की सदस्य फरहीन मलिक मौजूद थीं. अनामिका का आरोप है कि फरहीन मलिक ने न सिर्फ प्रबंधन का पक्ष लिया बल्कि उन्हें सबके सामने बेइज्जत भी किया गया. वे बताती हैं, ‘जब खुद प्रबंधन ही मेरे पति को जान से मारने और मेरी बेटी को अगवा करने की धमकी दे रहा था तो मैं किससे शिकायत करती? लेकिन फरहीन मुझसे कहती हैं कि आपको आयोग में आने से पहले प्रबंधन स्तर पर ही मामला निपटाना था. मैंने उन्हें अपनी समस्या बताई तो उन्होंने कहा कि आप जिस प्रबंधन से टकरा रही हैं, वो आप जैसों को यूं ही खरीद लेता है.’

[/box]

संदीप दत्ता इन सभी आरोपों को झुठलाते हुए कहते हैं, ‘हम कस्टमर केयर विभाग को आउटसोर्स कर रहे हैं. इसका पूरा काम एक बड़ी कंपनी के हवाले करने जा रहे हैं. वही इसका संचालन करेगी. इसी कारण हमने 1 फरवरी से 92 कर्मचारियों को सेवामुक्त कर दिया, जिसके चलते वे कर्मचारी हम पर झूठे आरोप लगा रहे हैं ताकि प्रबंधन दबाव में आकर अपना फैसला बदल ले.’ पर जब उनसे समस्यावार स्पष्टीकरण मांगा गया तो वे कई सवालों के जवाब यह कहते हुए टाल गए कि उन्हें उस बारे में जानकारी नहीं है. जब हमने उन सवालों के जवाब जीजीएम सुनील कुमार और सुपरवाइजर ममता शर्मा से जानना चाहा तो उन्होंने बात करने से इनकार कर दिया.

संदीप दत्ता के स्पष्टीकरण पर सुरजीत कहते हैं, ‘अब खुद को सही दिखाने के लिए उन्हें कोई तो बहाना चाहिए. इसलिए कस्टमर केयर विभाग को आउटसोर्स करने की बात कह रहे हैं. आईआरसीटीसी के गठन के बाद से पहली बार उसके कर्मचारी अपने वाजिब हक की मांगों के लिए एकजुट हुए हैं. वह उन्हें रास नहीं आ रहा. इसलिए वे कर्मचारियों की इस यूनियन को तोड़ना चाहते हैं. जो भी कर्मचारी उनके खिलाफ सिर उठाता है, उसे निकाल बाहर करते हैं. विभाग को आउटसोर्स करने के बहाने पहले भी ऐसा प्रयास किया गया था लेकिन उनकी चाल भांपकर हमने अदालत का रुख कर लिया था.’ अनामिका कहती हैं, ‘यहां का यही नियम है कि अगर एक कर्मचारी के समर्थन में दूसरा खड़ा हुआ तो दोनों को निकाल बाहर करो ताकि आगे वह किसी तीसरे को न प्रभावित कर सके.’

बहरहाल पीड़ित कर्मचारी मामले को श्रम अदालत में ले गए हैं. साथ ही केंद्रीय श्रम मंत्री और रेल मंत्री से भी निरंतर संपर्क साधने की कोशिश कर रहे हैं. आईआरसीटीसी के आगे भी उनका प्रदर्शन जारी है. इस बीच सुनने में यह भी आ रहा है कि आईआरसीटीसी में जो गार्ड और सफाईकर्मी तैनात हैं पहले उन्हें न्यूनतम वेतन से भी 2000 रुपये कम दिए जाते थे लेकिन जब मामले ने तूल पकड़ा तो उन्हें न्यूनतम वेतन दिया जाने लगा पर अधिकारियों ने साफ कह दिया कि हर गार्ड और सफाईकर्मी को अपने बढ़े वेतन में से 500 रुपये उन्हें देने होंगे, अन्यथा उन्हें नौकरी से निकाल देंगे.