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‘संत की समाधि’ : आस्था या अंधविश्वास

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‘केवल महाराज जी (आशुतोष महाराज) ही सच्चे गुरु हैं जो ‘ब्रह्मज्ञान’ दे सकते हैं. मीडिया वालों ने उनके बारे में काफी उल्टी-सीधी बातें फैला दी हैं. मीडिया वाले समाधि का अर्थ नहीं समझते. हम बार-बार कह रहे हैं कि महाराज जी समाधि में हैं और वे वापस आएंगे.’

ये बयान आशुतोष महाराज की अनुयायी 38 वर्षीय सोनिया का है. सोनिया पिछले 7-8 साल से आशुतोष महाराज के दिव्य ज्योति जागृति संस्थान से जुड़ी हैं. दिल्ली के कड़कड़डूमा स्थित केंद्र में होने वाले साप्ताहिक सत्संग में वे अक्सर अपनी 11 और 13 साल की दो बेटियों के साथ जाती हैं.

पिछले दो साल से आशुतोष महाराज को लेकर विवाद गहराते चले जा रहे हैं. पंजाब के नूरमहल में दिव्य ज्योति जागृति संस्थान के संस्थापक आशुतोष महाराज को 2014 में डॉक्टरों ने चिकित्सकीय रूप से मृत घोषित कर दिया लेकिन उनके शिष्यों का कहना है कि वे लंबी समाधि में हैं और एक दिन वापस लौट आएंगे. संस्थान की वेबसाइट पर भी साफ-साफ लिखा गया है, ‘श्री आशुतोष महाराज जी 29 जनवरी 2014 से समाधि की अवस्था में हैं.’  ‘तहलका’ के साथ बातचीत में संस्थान के मीडिया प्रवक्ता विशालानंद ने बताया,‘समाधि लेने से कुछ दिन पहले महाराज जी खुद के लोप हो जाने की बात अपने प्रवचनों में कहते रहे हैं. बाद में हमें समझ आया कि वे दरअसल समाधि में जाने की बात कर रहे थे. महाराज जी के शरीर को संरक्षित करने के लिए विशेष प्रकार के फ्रीजर में रखा गया है.’

‘आशुतोष महाराज के सत्संग में साक्षात ईश्वर के दर्शन कराए जाते हैं. मैं पहले काफी तर्क करती थी, अब मैंने संस्थान के लिए जीवन समर्पित कर दिया है’

कड़कड़डूमा स्थित केंद्र आने वाले अनुयायियों के साथ ही केंद्र की संचालिका ‘मोनिका दीदी’ को पक्का यकीन है कि आशुतोष महाराज समाधि में हैं और एक दिन वापस जरूर आएंगे. समाधि के बारे में जानकारी किसने दी, के सवाल पर मोनिका ने बताया कि ‘ध्यान’ में बैठने पर महाराज जी ने उन्हें दर्शन देकर ऐसा कहा. उस वक्त लगभग 20-22 की संख्या में मौजूद अनुयायी ‘जय महाराज जी’ कहकर एक दूसरे का अभिवादन कर रहे थे. संध्या के समय दीप-धूप से आरती करते और सजे हुए सिंहासन पर आशुतोष महाराज की तस्वीर के सामने श्रद्धापूर्वक झुककर जैसे उनकी मौजूदगी को अनुयायी जीवंत करने पर आमादा नजर आ रहे थे. ‘मोनिका दीदी’ ने बताया, ‘बाकी जगहों पर केवल झूठी बातें की जाती हैं लेकिन आशुतोष महाराज के सत्संग में साक्षात ईश्वर के दर्शन कराए जाते हैं. मैं खुद भी पहले काफी तर्क करती थी और सवाल उठाती थी लेकिन यहां पर सचमुच ईश्वर के दर्शन करने के बाद मेरी श्रद्धा पूर्ण रूप से आशुतोष महाराज में हो चुकी है और मैंने संस्थान के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया है.’ उन्होंने आशुतोष महाराज के जीवन पर लिखीगई इसी साल प्रकाशित एक किताब ‘आशुतोष महाराज: महायोगी का महारहस्य’ भी उपलब्ध कराई जो किसी अनुयायी द्वारा नहीं बल्कि स्वतंत्र पत्रकार संदीप देव द्वारा लिखी गई है.

किताब में संदीप देव ने समाधि को अंधविश्वास कहकर प्रचारित करने वाले मीडिया के पक्षपातपूर्ण रवैये की आलोचना की है और गोवा में हर दस साल पर सेंट फ्रांसिस जेवियर के शव के सार्वजनिक प्रदर्शन का हवाला दिया है. सेंट फ्रांसिस जेवियर की मृत्यु वर्ष 1552 में हुई थी लेकिन वेटिकन चर्च का मानना है कि उनका शरीर आज भी खराब नहीं हुआ है. संदीप कहते हैं, ‘दिसंबर 2014 में भी ऐसी ही प्रदर्शनी लगाई गई लेकिन देश या विदेश की मीडिया ने कभी इसे अंधविश्वास के रूप में प्रचारित नहीं किया.’ बेशक संदीप के इस तर्क में कुछ दम हो सकता है लेकिन आशुतोष महाराज की कथित समाधि के बारे में जिस तरह के तथ्य सामने आते हैं वे कई सवाल उठाते हैं.

29 जनवरी की रात को सांस लेने में तकलीफ होने के बाद अपोलो अस्पताल के डॉक्टरों की एक टीम ने जांच के बाद उन्हें मृत घोषित कर दिया था. तब मीडिया को एक वरिष्ठ कार्यकर्ता ने बताया था कि 60 घंटे के इंतजार के बाद एक फरवरी को आशुतोष महाराज का अंतिम संस्कार करने की योजना है. हालांकि ऐसा कुछ नहीं हो सका.  एक फरवरी को संस्थान की ओर से एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह कहा गया कि आशुतोष महाराज की मौत की खबर एक ‘अफवाह’ है. उनकी मृत्यु नहीं हुई बल्कि वे लंबे वक्त के लिए समाधि में चले गए हैं. उस समय तक पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और केंद्रीय मंत्री मनीष तिवारी सहित पंजाब के कई बड़े राजनीतिज्ञों ने मेल के जरिए सभी प्रमुख मुख्य मीडिया संस्थानों को आशुतोष महाराज की मृत्यु पर शोक संदेश भेज दिया था. संस्थान द्वारा समाधि की घोषणा के बाद उन्होंने वे शोक संदेश वापस ले लिए गए.

उस समय इस खबर की रिपोर्ट करने वाले एनडीटीवी के पत्रकार अश्विनी मल्होत्रा बताते हैं, ‘संस्थान के तत्कालीन प्रवक्ता अमर श्रीवास्तव ने आशुतोष महाराज के निधन की खबर हमें दी थी, बाद में उन्हें प्रवक्ता पद से ही हटा दिया गया.’  इतना ही नहीं खबर सुनते ही नूरमहल में उमड़ने वाले अनुयायियों को आशुतोष महाराज के दर्शन नहीं करने दिए गए और न ही स्थानीय पुलिस ही जांच के लिए भीतर जा सकी.

3 फरवरी, 2014 को मामले में नया मोड़ तब आया जब 1988-1992 में आशुतोष महाराज का ड्राइवर होने का दावा करने वाले पूरण सिंह ने उनकी हत्या का शक जताते हुए ‘हैबियस कॉरपस’ यानी 24 घंटे के भीतर आशुतोष महाराज उर्फ महेश झा के शरीर को कोर्ट के समक्ष पेश करने तथा उनके पोस्टमॉर्टम के लिए याचिका दायर की. आशुतोष महाराज का रहस्य तब और गहरा गया जब 7 फरवरी को दिलीप झा नाम के व्यक्ति ने कोर्ट में यह दावा पेश किया कि आशुतोष महाराज दरअसल उनके पिता हैं, उनका असल नाम महेश झा है जो बिहार के मधुबनी जिले के लखनौर गांव के रहने वाले हैं. 1970 में जब दिलीप झा एक महीने के थे तो महेश झा उर्फ आशुतोष महाराज गांव छोड़कर दिल्ली आ गए थे. दिलीप ने याचिका में अपने पिता का अंतिम संस्कार करने की अनुमति भी मांगी.

इसके लगभग दस महीने बाद एक दिसंबर, 2014 को हरियाणा और पंजाब हाईकोर्ट के जज एमएमएस बेदी ने दिलीप झा की याचिका को  यह कहते हुए खारिज कर दिया कि वे ऐसा कोई भी साक्ष्य अदालत में पेश नहीं कर पाए जिससे यह साबित हो सके कि आशुतोष महाराज उनके पिता हैं. इसी सुनवाई में पूरण सिंह की याचिका को भी कोर्ट ने खारिज कर दिया जिसमें उन्होंने आशुतोष महाराज की हत्या की आशंका जताते हुए पोस्टमॉर्टम की मांग की थी. हालांकि इसके साथ ही अदालत ने पंजाब सरकार को 15 दिन के भीतर आशुतोष महाराज का अंतिम संस्कार करने का निर्देश दिया. अदालत ने दिव्य ज्योति जागृति संस्थान द्वारा ‘समाधि’ बताकर आशुतोष महाराज के शरीर को अनिश्चितकाल के लिए संरक्षित किए जाने के अधिकार को खारिज कर दिया. अदालत ने स्पष्ट किया कि संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के तहत संरक्षित अधिकारों के तहत ऐसी कोई प्रथा उस धर्म विशेष का अनिवार्य भाग नहीं है जिसे आशुतोष महाराज के अनुयायी मानते हैं. साथ ही संविधान के अनुच्छेद 51 ए के तहत यह हर नागरिक का कर्तव्य है कि व​ह वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवता, सवाल करने और सुधार करने की प्रवृत्ति को बढ़ाए. लेकिन पंजाब सरकार ने कोर्ट में यह हलफनामा दिया कि आशुतोष महाराज का अंतिम संस्कार सरकार के लिए संभव नहीं है क्योंकि यह आशुतोष महाराज के श्रद्धालुओं की आस्था का मामला है. ऐसे में जबरन अंतिम संस्कार किए जाने से कानून एवं व्यवस्था की समस्या खड़ी हो सकती है. इसके बाद 15 दिसंबर को हुई सुनवाई में चीफ जस्टिस शियावक्स जल वजीफदार और जस्टिस आॅगस्टीन जॉर्ज मसीह की डिवीजन बेंच ने सिंगल बेंच द्वारा अंतिम संस्कार किए जाने संबंधी फैसले पर अस्थायी रूप से रोक लगा दी.

Dilip Jha
दिलीप झा

‘मेरे पिता आशुतोष महाराज इस बात को सबके सामने जाहिर नहीं करना चाहते थे कि मैं उनका बेटा हूं या वह विवाहित भी हैं. उनकी असली पहचान गोपनीय रहे, इसलिए उन्होंने मुझे ‘हरिदत्त’ नाम से फोन करने की हिदायत दी थी. वे खर्च के लिए मुझे पैसे भी भिजवाते रहे हैं’: दिलीप झा

दूसरी ओर दिलीप झा ने आशुतोष महाराज के पुत्र होने का अपना दावा छोड़ा नहीं है. उन्होंने आशुतोष महाराज की डीएनए जांच के लिए याचिका दायर की है. कोर्ट में इसी 24 फरवरी को इसकी सुनवाई होगी. दिलीप झा ने बताया कि उनके पास 1999 में पिता का पत्र आया जिसमें उन्होंने अपने परिवार से मिलने की इच्छा जताई. इसके बाद वे दिल्ली में अपने पिता आशुतोष महाराज से मिले. 2002, 2006 और 2009 में भी वे अपने पिता से मिले हैं. दिलीप के अनुसार, ‘मेरे पिता आशुतोष महाराज इस बात को सबके सामने जाहिर नहीं करना चाहते थे कि मैं उनका बेटा हूं या वह विवाहित भी हैं. उनकी असली पहचान गोपनीय रहे, इसलिए उन्होंने मुझे ‘हरिदत्त’ नाम से फोन करने की हिदायत दी थी. 1999 के बाद से मेरा उनसे लगातार संपर्क रहा और वे खर्च के लिए मुझे पैसे भिजवाते रहे हैं.’

आशुतोष महाराज का ड्राइवर होने का दावा करने वाले पूरण सिंह बताते हैं, ‘मैं महाराज के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर 1988 में उनका अनुयायी और ड्राइवर बना लेकिन 1992 आते-आते मुझे ऐसी काफी सारी बातें पता चलीं जिसके कारण मेरा उनसे मोहभंग हो गया और मैंने संस्थान छोड़ दिया. सबसे पहले मैं तब चौंका जब आशुतोष महाराज ने बिहार में अपनी पत्नी और बेटे के बारे में मुझे बताया.’ पूरण सिंह का यह भी दावा है कि आशुतोष महाराज संन्यासी नहीं थे बल्कि उनके महिलाओं से संबंध थे. वह कहते हैं, ‘जिस तरह आशुतोष महाराज का दर्शन किसी को नहीं करने दिया गया, वह शक पैदा करता है. इसीलिए मैंने अदालत में पोस्टमॉर्टम के लिए याचिका भी डाली थी. वह याचिका खारिज हो गई लेकिन व्यक्तिगत रूप से मैं दिलीप झा के संपर्क में हूं और उनका पूरा समर्थन करता हूं, क्योंकि मैं सच को किसी भी तरह सामने लाना चाहता हूं. इसके लिए मैं मरने से भी नहीं डरता.’ गौरतलब है कि पंजाब सरकार की ओर से पूरण सिंह को सुरक्षा मुहैया कराई गई है. दो सुरक्षा गार्ड हमेशा उनकी सुरक्षा के लिए तैनात रहते हैं.

पंजाब सरकार की ओर से दिव्य ज्योति जागृति संस्थान के नाम पर एक गांव बसाया गया जिसका नाम ‘दिव्य ग्राम’ है. इस गांव की जनसंख्या 525 है

संदीप देव ने अपनी किताब में आशुतोष महाराज के मूल स्थान को विवादास्पद बताया है. वह कहते हैं, ‘मैं लखनौर गांव गया था लेकिन दिलीप झा के अलावा वहां कोई भी ऐसा नहीं मिला जो आशुतोष महाराज  के उस गांव का होने का दावा करता. वहां दिलीप से जब मैंने पिता की कोई पुरानी तस्वीर दिखाने के लिए कहा तो वे नहीं दिखा पाए. दिलीप की मां जिनके बारे में आशुतोष महाराज की पत्नी होने का दावा किया गया, वह एक शब्द भी नहीं बोलीं बस चुपचाप खड़ी रहीं.’

इसके उलट ‘तहलका’ ने लखनौर गांव के थानेदार शिवकुमार, पूर्व बीडीओ रवीश किशोर, वर्तमान मुखिया पवन ठाकुर जैसे कुछ पदाधिकारियों सहित गांव के पूर्व मुखिया एवं स्वतंत्रता सेनानी के बेटे सुनोज से संपर्क साधा और दिलीप झा के दावे की पड़ताल करने की कोशिश की. इन सभी ने न केवल दिलीप झा के दावे की पुष्टि की बल्कि थानेदार शिवकुमार ने महेश झा उर्फ आशुतोष महाराज के परिवार के सदस्यों और रिश्तेदारों से संपर्क साधने में भी मदद की. गांव के लोगों ने बताया कि 1970 के आसपास छोटे बच्चे को छोड़कर जाने के बाद महेश झा (आशुतोष महाराज) की पत्नी ने धीरे-धीरे अपना मानसिक संतुलन खो दिया और अब वे चुपचाप ही रहती हैं. आशुतोष महाराज के भांजे प्रमोद झा ने बातचीत में पूरे परिवार का ब्योरा दिया. उन्होंने बताया, ‘महेश झा (आशुतोष महाराज) के पिता स्व. देवानंद झा की दो शादियां हुई थीं. दूसरी शादी से महेश झा (आशुतोष महाराज) सहित चार लड़के और दो लड़कियां पैदा हुई. उनके पिता और चाचा संस्कृत के विद्वान रहे जिन्हें राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद की ओर से पुरस्कार भी दिया गया. महेश झा ने अपनी बड़ी बहन अन्नपूर्णा (प्रमोद की मां) के पास रहकर एमएलएस कॉलेज सरसोंपाही से अंग्रेजी से स्नातक किया है.’ परिवार के किसी सदस्य के साथ आशुतोष महाराज की फोटो के बारे में पूछने पर प्रमोद का कहना था कि ‘पुराने समय में लोग कहां फोटो लेते थे और कहां उन्हें संभालकर रखते थे’.

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राजनीतिक रसूख पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह अक्सर आशुतोष महाराज के शिविर में नजर आते थे

इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, आशुतोष महाराज ने 1983 में दिव्य ज्योति जागृति संस्थान नाम के पंथ की स्थापना की थी. अकेले पंजाब में इस पंथ के 36 केंद्र हैं. इसके अलावा 109 केंद्र और हैं, जिनमें से कुछ विदेश में भी हैं. 2014 में पंजाब सरकार की ओर से इस पंथ के नाम पर एक गांव बसाया गया जिसका नाम ‘दिव्य ग्राम’ है. गांव की जनसंख्या 525 है. इनमें से 264 मतदाता हैं, जिसमें से अधिकांश पंथ के साधु, साध्वी और सेवादार हैं. संस्थान की संपत्ति लगभग 1500 करोड़ रुपये की बताई जाती है.

कुछ मीडिया रिपोर्ट्स पर गौर करें तो पता चलता है कि ‘समाधि’ की इस पूरी कहानी के पीछे संस्थान की संपत्ति के उत्तराधिकार को लेकर संस्थान में कई गुटों में विवाद है. स्थानीय अनुयायियों का गुट आशुतोष महाराज के एक पुराने शिष्य अमरजीत सिंह को संस्थान का प्रमुख बनाना चाहता है जो अरविंदानंद के नाम से जाने जाते हैं जबकि आदित्यानंद की अध्यक्षता में संचालित संस्थान की गवर्निंग बॉडी नरेंद्रानंद नाम के शिष्य के समर्थन में है. जोर आजमाइश की इस कवायद में सुविधानंद नाम के एक और शिष्य का गुट भी शामिल है.

हालांकि संस्थान के प्रवक्ता विशालानंद इस बात को सिरे से खारिज करते हुए कहते हैं, ‘मीडिया के कयास के मुताबिक अगर वाकई संस्थान में संपत्ति के उत्तराधिकार को लेकर कोई विवाद होता तो अब तक संस्था टूट गई होती, कई गुटों में बंट गई होती. संस्थान को पूरा अधिकार है कि वह आशुतोष महाराज के निर्देशानुसार उनकी समाधि की तब तक रक्षा करे जब तक कि वे अपने शरीर में लौट नहीं आते. इस क्रम में संस्थान कानून व्यवस्था या लोगों के स्वास्थ्य के लिए कोई समस्या पैदा नहीं कर रहा. ऐसे में किसी को भी हमारे अधिकार के पालन से कोई दिक्कत क्यों होनी चाहिए?’ इस मसले पर पंजाब सरकार की वकील रीता कोहली कहती हैं, ‘एक दिसंबर, 2014 को अंतिम संस्कार के लिए कोर्ट ने जो निर्देश दिया था, वह अपने आप में बिल्कुल भी व्यवहारिक नहीं था. कोर्ट ने एक समिति बनाई थी और किस प्रकार संस्कार किया जाए यह समिति को ही तय करना था. इसके अलावा जहां लाखों श्रद्धालु आशुतोष महाराज पर अपना अधिकार जता रहे हों वहां सरकार के लिए उनकी अनदेखी करना संभव नहीं था. संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के अनुसार अगर किसी समूह की धार्मिक गतिविधि से कानून व्यवस्था को खतरा हो तभी सरकार हस्तक्षेप करती है और यहां धार्मिक गतिविधि में सरकारी हस्तक्षेप से श्रद्धालुओं द्वारा कानून व्यवस्था भंग कर दिए जाने का डर है. अब तो कोर्ट को भी यह लगने लगा है कि आस्था के मामले उसे तय नहीं करने चाहिए. जहां तक वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा देने की बात है तो इस आधार पर तो देश में कोई मंदिर भी नहीं बनाया जाना चाहिए क्योंकि पत्थरों को पूजे जाने में कौन सा वैज्ञानिक दृष्टिकोण है?’

‘यह आस्था नहीं अंधविश्वास है. दो साल तक कोई समाधि नहीं हो सकती. आशुतोष महाराज का निधन हो चुका है. उनका अंतिम संस्कार किया जाना चाहिए’

वहीं शिरोमणि अकाली दल की ओर से नूरमहल के विधायक गुरप्रताप वडाला कहते हैं ‘बेशक यह आशुतोष महाराज के शिष्यों की आस्था का मामला है लेकिन हम देखते आए हैं कि सभी पीर, महात्मा और संतों ने भी एक दिन शरीर छोड़ा है. इसके अलावा लेनिन और माओ जैसे कुछ गिने-चुने उदाहरण हमारे सामने हैं जिनमें मृत शरीर को संरक्षित करके रखा गया है लेकिन वे किसी धार्मिक कर्मकांड का सहारा नहीं लेते. धार्मिक विश्वास और व्यक्तिगत अधिकार के बीच में टकराव न होकर आपसी बातचीत से कोई रास्ता निकाला जाना चाहिए. अगर आशुतोष महाराज का परिवार है, बच्चे हैं तो उनका अधिकार बनता है.’

पूरे मसले पर पंजाब विश्वविद्यालय के प्रो. आशुतोष कुमार सरकार को कटघरे में खड़ा करते हुए कहते हैं ‘पंजाब के सभी डेरे अच्छा खासा राजनीतिक प्रभाव रखते हैं और इस मामले पर वोट गंवाने के डर से सरकार कोई फैसला नहीं ले पा रही.’ ‘यथावत’ पत्रिका के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय ने समाधि के दावे पर सवालिया निशान लगाया है. उनका कहना है, ‘यह आशुतोष महाराज के शिष्यों की आस्था का मामला है. उनकी आस्था है कि वे वापस आएंगे लेकिन अगर ऐसा हुआ तो यह निसर्ग (प्रकृति) का एक नया नियम होगा. जहां तक समाधि का सवाल है तो समाधि में गए व्यक्ति के शरीर को कृत्रिम वातावरण में रखने की जरूरत नहीं पड़ती. विज्ञान के अनुसार परमहंस योगानंद के शरीर के मृत होने के बावजूद उस पर 20 दिन तक कोई प्रभाव नहीं पड़ा. इसी तरह श्री अरबिंदो घोष के मृत होने के बाद उनका शरीर 8 दिन बाद तक भी ठीक हालत में था. आशुतोष महाराज के बारे में तो मैं समझता हूं कि उनका देहांत हुआ है और मुझे नहीं लगता कि वे लौट कर आएंगे.’

वहीं अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति के माधव बाजवा का कहना है, ‘यह आस्था नहीं बल्कि अंधविश्वास है. दो साल तक कोई समाधि नहीं हो सकती. निश्चित रूप से आशुतोष महाराज का निधन हो चुका है और उनका अंतिम संस्कार किया जाना चाहिए. जब तक अंतिम संस्कार नहीं होता तब तक अनुयायियों में अंधश्रद्धा फैलती रहेगी. यह किसी भी तरह सही नहीं है.’ इसी समिति के साथ काम करने वाले मनोवैज्ञानिक डाॅ. हामिद दाभोलकर कहते हैं, ‘ऐसा देखने में आया है कि किसी की मौत के बाद उनसे गहरा भावात्मक लगाव रखने वाले उनकी मौत को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं होते. लेकिन चिकित्सकीय रूप से मृत का मतलब ही है हृदय और मस्तिष्क सहित सभी अंगों की कोशिकाओं में खून का प्रवाह रुक गया है और वे मृत हो गई हैं जिनके फिर से जीवित होने की कोई संभावना नहीं है. महाराष्ट्र में अंधश्रद्धा उन्मूलन विधेयक है जिसके आधार पर हम इस तरह के अंधश्रद्धा के मामलों का विरोध करते हैं. ऐसा कानून सारे देश में होना चाहिए ताकि आशुतोष महाराज जैसे मामले लोगों को गुमराह न कर सकें.’

जोशी मठ और द्वारकाधीश मठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के शिष्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती ने आशुतोष महाराज की समाधि के दावे को सिरे से नकार दिया है. उनका कहना है ‘यह सब सनातन धर्म और संन्यास की परंपरा के नाम पर लोगों को अंधविश्वास की ओर धकेलने की कोशिश है. वृहदारण्यक उपनिषद में ‘प्राण’ और ‘शरीर’ के संबंध की चर्चा है. समाधि में पंचभूत शरीर का क्षय जरूर होता है लेकिन ‘प्राण’ का संचार रहता है जिसके कारण पंचभूत शरीर सड़ता नहीं है. ऐसी अवस्था में शरीर कमजोर हो सकता है लेकिन सड़न नहीं होती. न ही सड़न से बचाने के लिए किसी कृत्रिम वातावरण की जरूरत होती.’

बहरहाल दिलीप झा ने आशुतोष महाराज के डीएनए टेस्ट के लिए जो याचिका दायर की है उस पर 24 फरवरी को सुनवाई होनी है. मौत के बाद सम्मानजनक अंतिम संस्कार हर व्यक्ति का अधिकार है. इस सबके बीच बड़ा सवाल यही है कि आस्था और धर्म की आड़ लेकर इस व्यक्तिगत अधिकार की अनदेखी कब तक होती रहेगी.

देशद्रोही जेएनयू बनाम राष्ट्रवादी सरकार

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जेएनयू में देशविरोधी नारा लगाने का मसला उसी तरह गड्ड-मड्ड हो गया है जैसे आजकल की देशभक्ति. एक टीवी चैनल और फिर सोशल मीडिया पर वायरल एक वीडियो में दिखाया गया था कि नौ फरवरी को जेएनयू में देशविरोधी नारे लगाए जा रहे हैं. उसी आधार पर कुछ छात्रों को पुलिस ने उठा लिया और जांच शुरू हो गई. केंद्र सरकार ने इसका कड़ाई से संज्ञान लिया और इसमें हाफिज सईद और लश्कर-ए-तैयबा की संलिप्तता बता दी. जब तक हम यह सोचते कि हाफिज सईद और लश्कर का पाकिस्तान से जेएनयू पहुंचना इतना आसान कैसे हो गया, हमारी सुरक्षा एजेंसियां क्या कर रही थीं, तब तक दूसरा वीडियो सामने आ गया जिसमें नारा लगा रहे छात्रों की पहचान एबीवीपी कार्यकर्ताओं के रूप में कर ली गई.

अब आरोप है कि पहले वीडियो में जो छात्र नारा लगा रहे हैं, वही छात्र एबीवीपी के कार्यक्रम में भी देखे गए हैं. यह दोनों वीडियो अभी प्रामाणिक नहीं हैं, लेकिन एक के आधार पर धरपकड़ हो गई है, दूसरे पर सिर्फ सोशल मीडिया की जनता बहस कर रही है. इस बीच एक तीसरा वीडियो भी सोशल मीडिया पर नुमाया हो गया, जो देश विरोधी नारों से गुंजायमान था.

[ilink url=”https://tehelkahindi.com/speech-of-jnu-student-union-president-kanhaiya-kumar/” style=”tick”]पढ़ें कन्हैया कुमार का भाषण[/ilink]

यह पूरा मसला समझ पाना अब उतना आसान नहीं है. जब देश के गृहमंत्री ने देश को आगाह किया कि आप सब लश्कर-ए-तैयबा की संलिप्तता को समझें, तभी बीएचयू में दलित चिंतक प्रो. बद्रीनारायण और कई लेखकों-कवियों की देशभक्ति का परीक्षण हो रहा था. बद्रीनारायण वहां पर ‘हाशिये पर समाज और आधुनिकता’ विषय पर व्याख्यान देने गए थे. इसके बाद कविता पाठ होना था. माथे पर भगवा पट्टी बांधे 100 के करीब एबीवीपी के कार्यकर्ता अचानक कार्यक्रम में घुसकर ‘देश के गद्दारों को गोली मारने के’ नारे लगाने लगे. हालांकि, उस अराजक भीड़ की फंडिंग किस आतंकी संगठन ने की है, इस पर न तो गृहमंत्री जी ने अब तक कुछ कहा है, न ही उस पर बहस शुरू हुई है. इस बीच पहला वीडियो जारी होने के बाद पुलिस रिमांड पर लिए गए जेएनयू छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार की रिमांड अदालत दोबारा बढ़ा देती है तो बीएस बस्सी ने गृहमंत्री राजनाथ सिंह के उस बयान को खारिज कर दिया कि जेएनयू के छात्रों का लश्कर-ए-तैयबा से कनेक्शन है. जेएनयू के छात्रों के समर्थन में हाफिज सईद के ट्वीट को भी फर्जी बताया जा चुका है. अब यह आपकी धार्मिक या राजनीतिक या जातीय आस्था पर निर्भर है कि आप किसकी बात को सच मानेंगे!

राजधानी दिल्ली के किसी संस्थान में भारत विरोधी नारे लगाना एक गंभीर घटना है. ऐसे किसी नारे का बचाव करना कानून की नजर में भी अपराध हो सकता है. कानून में ऐसा करने वाले को दंडित करने का प्रावधान है. लेकिन देशविरोधी नारे लगे थे या नहीं, लगे तो किसने लगाए, यह कैसे तय हो? बिना जांच के, बिना सबूत के अगर एक छात्र को गिरफ्तार करके रिमांड पर जेल भेज दिया गया, तब यह उम्मीद बेमानी है कि असल मामला क्या है. क्या यह समझने का कोई अवसर हमारे सामने पेश होगा? एक वीडियो गंभीर था तो दूसरा अगंभीर कैसे हो गया, जबकि दोनों की प्रामाणिकता संदिग्ध ही है!

किसी संस्थान में भारत विरोधी नारे लगाना एक गंभीर घटना है. ऐसे किसी नारे का बचाव करना अपराध हो सकता है. लेकिन देशविरोधी नारे लगे थे या नहीं, लगे तो किसने लगाए, यह कैसे तय हो?

जेएनयू में अफजल गुरु की फांसी की बरसी पर आयोजित हुए कार्यक्रम ने देशभक्ति और देशविरोध के बहाने भारतीय राजनीति को अखाड़ा मुहैया करा दिया. जेएनयू के इस अखाड़े में सीताराम येचुरी, राहुल गांधी से लेकर साध्वी प्राची तक कूद गईं. मामला अब सुलझने की जगह तूल पकड़ता जा रहा है. सरकार, पुलिस और विपक्षी दलों के बीच बयानबाजी का दौर जारी है. दोनों पक्षों से मामले के इतने पहलू सामने रख दिए गए हैं कि आम आदमी के लिए सही और गलत का फैसला कर पाना मुश्किल है. नौ फरवरी को आयोजित हुए इस कार्यक्रम को लेकर जो बातें सामने आ रही हैं, वे हैदराबाद, दादरी आदि घटनाओं की तरह गंभीर सवाल खड़े करती हैं कि क्या हमारे देश की प्रशासनिक व्यवस्था पूरी तरह अराजक भीड़ के हवाले कर दी गई है?

देशद्रोह और देशभक्ति ने ऐसा ताना-बाना बुन दिया है कि संविधान और कानून पनाह मांग रहे हैं. देशहित की सुरक्षा नेताओं के बयानों की तरह उत्श्रृंखल हो गई है. विश्व हिंदू परिषद की नेता साध्वी प्राची ने फरमाया, ‘जेएनयू को हाफिद सईद ने फंडिंग की है और उसी के सहयोग से यूनिवर्सिटी में सम्मेलन हुआ है. राहुल गांधी राष्ट्रवाद की परिभाषा बताएं, देश उनसे जानना चाहता है. डी. राजा आतंकी गतिविधियों में शामिल है, उसे भी गिरफ्तार किया जाना चाहिए.’ अपनी असंसदीय बयानबाजी के लिए कुख्यात सांसद साक्षी महाराज का फैसला आया, ‘राष्ट्र का अपमान बर्दाश्त नहीं किया जा सकता और जेएनयू के ‘देशद्रोह’ के आरोपियों के खिलाफ आजीवन कारवास की जगह फांसी मिलनी चाहिए या गोली मार देनी चाहिए.’ मध्य प्रदेश सरकार के मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने सवाल किया, ‘क्या पाकिस्तान जिंदाबाद करने वाले देशद्रोहियों की जबान नहीं काट देनी चाहिए?’ देशभक्ति साबित करने की रेस में आगे निकलते हुए हरियाणा हाउसिंग बोर्ड के अध्यक्ष और मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के पूर्व ओएसडी जवाहर यादव को जेएनयू में राष्ट्रविरोधी नारे लगा रहीं युवतियों से वेश्याएं बेहतर लगीं. आॅनर किलिंग के चलते युवक-युवतियों की कब्रगाह बने हरियाणा पर उनके विचार जान पाने से यह देश अब तक महरूम है.

[ilink url=”https://tehelkahindi.com/aawara-bheed-ke-khatare-by-harishankar-parsai/” style=”tick”]पढ़ें “आवारा भीड़ के खतरे”[/ilink]

इस बीच दिल्ली में अलग-अलग जगहों पर जेएनयू के समर्थन में या विरोध में प्रदर्शन हो रहे हैं. 15 फरवरी को कन्हैया की पटियाला हाउस कोर्ट में पेशी के वक्त परिसर के बाहर भाजपा विधायक ओपी शर्मा ने अपने समर्थकों के साथ सीपीआई नेता अमीक को पीटते हुए कैमरे में कैद हुए. इस दौरान कोर्ट के अंदर और बाहर वकीलों ने जमकर हंगामा किया. जेएनयू के छात्रों, कई पत्रकारों, जिसमें महिला पत्रकार भी शामिल हैं, को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया. एक पत्रकार ने बताया, ‘हंगामा कर रहे वकील लोगों से पूछते कि क्या आप जेएनयू से हैं? अगर कोई ‘हां’ कह देता तो उसकी पिटाई कर देते.’ वकीलों ने कोर्ट का घेराव करके कोर्ट को बंद कर दिया और कन्हैया की पेशी नहीं हो सकी. 16 फरवरी को पत्रकारों ने दिल्ली में विरोध मार्च निकाला और इस हमले के विरोध में सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दायर की. कन्हैया की गिरफ्तारी का मामला भी फिलहाल सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है.

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इस मसले के सामने आने के बाद निशाने पर आए जेएनयू के दर्जनों छात्रों और शिक्षकों से हमने बात की. कोई भी व्यक्ति देशविरोधी नारे का समर्थन करता नहीं दिखा. हर व्यक्ति इस बात का हामी है कि अगर कोई ‘भारत की बर्बादी तक जंग’ जारी रखने का नारा लगाता है तो उसके खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए. लेकिन जिस तरह पुलिस और सरकार मामले में कार्रवाई कर रही है, उस पर भी गंभीर सवाल उठ रहे हैं.

नौ फरवरी को जेएनयू के कुछ छात्रों ने ‘अ कंट्री विदआउट पोस्ट आॅफिस’ नाम से अफजल गुरु की फांसी की बरसी पर एक कार्यक्रम आयोजित किया था. ये छात्र डीएसयू नामक संगठन से कुछ समय पहले अलग हो गए थे. चार दिन पहले इस कार्यक्रम को लेकर प्रशासन ने अनुमति दे दी थी. छात्रों के मुताबिक, इस कार्यक्रम में भारत की उस न्याय व्यवस्था पर चर्चा करना था जो ‘देश की सामूहिक चेतना’ के आधार पर किसी को फांसी दे सकती है या फांसी पाने वाले व्यक्ति के परिजनों को ‘चार दिन बाद’ सूचना देती है.

जेएनयू वह जगह है जहां पर देश-दुनिया के विभिन्न मसलों पर हमेशा कार्यक्रम आयोजित होते हैं और विश्वविद्यालय प्रशासन हमेशा ही सहमति या असहमति के बावजूद हर कार्यक्रम आयोजित होने देता है. इस कार्यक्रम के आयोजन में कोई छात्र संगठन शामिल नहीं था. लेकिन आयोजन के वक्त अन्य संगठनों के तमाम छात्र मौजूद थे, क्योंकि साबरमती ढाबे के पास शाम को बहुत से छात्र एकत्र होते हैं. कार्यक्रम के वक्त वहां पर मौजूद जेएनयू के छात्र संतोष वर्मा ने बताया, ‘ढाबे पर हमेशा की तरह काफी छात्र जमा थे. इस जगह पर आम तौर पर भीड़ रहने के कारण यहां पर कोई न कोई कार्यक्रम होता रहता है. इस कार्यक्रम के लिए चार दिन पहले पोस्टर लगाए गए थे. एबीवीपी की शिकायत पर प्रशासन ने 15-20 मिनट पहले कार्यक्रम की अनुमति रद्द कर दी. पर छात्र जमा हो गए तो उनका कहना था कि अब तो कार्यक्रम होगा. ये सब यहां आम बात है. एबीवीपी वहां विरोध करने पहुंचा था. टकराव की संभावना देखते हुए वहां पर वाम संगठनों के लोग भी आ गए. हालांकि, वे प्रोग्राम में शामिल नहीं थे. एबीवीपी ने नारेबाजी शुरू कर दी. उसके जवाब में इन लोगों ने नारेबाजी शुरू की.’

नौ फरवरी को जेएनयू के कुछ छात्रों ने ‘अ कंट्री विदआउट पोस्ट आॅफिस’ नाम से अफजल गुरु की फांसी की बरसी पर एक कार्यक्रम आयोजित किया था. यह किसी छात्र संगठन का कार्यक्रम नहीं था

मीडिया की भूमिका पर सवाल उठाते हुए संतोष कहते हैं, ‘मीडिया में जो नारे दिखाए जा रहे हैं, वे उस प्रोग्राम में लगे ही नहीं. निर्भया कांड के समय एक नारा चला था ‘महिलाएं मांगे आजादी, कश्मीर से लेकर केरल तक’. इस नारे का पिछला हिस्सा दिखाकर कहा गया कि कश्मीर और केरल की आजादी की बात कही जा रही है. जबकि यह नारा इस कैंपस में हमेशा लगता है. हां, ‘हर घर से अफजल निकलेगा’ ये नारा लगा था और यह गलत है. लेकिन यह नारा किसने लगाया? वे कौन लोग थे? जी-न्यूज अचानक वहां पर कहां से पहुंच गया, जबकि यहां मीडिया शायद ही आता है?’

कार्यक्रम में मौजूद रहीं छात्रा अमृता पाठक ने बताया, ‘उस वक्त मैं वहीं पर थी. एक छात्र ने आकर मुझसे पूछा, काॅमरेड कन्हैया कहां हैं. मैंने कहा, आप फोन कर लीजिए. उस छात्र ने कन्हैया को फोन करके कहा कि आप यहां आ जाइए. यहां पर कुछ बवाल हो सकता है. इसके बाद कन्हैया कार्यक्रम में पहुंचे. लेकिन वे न कार्यक्रम में शामिल थे, न ही नारा लगाने में.’

अमृता सवाल उठाती हैं, ‘मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि एबीवीपी को पहले से ये कैसे पता चल गया कि यहां पर कुछ गड़बड़ होगी? उसने कार्यक्रम की अनुमति रद्द करने का दबाव क्यों बनाया? बिना कोई उपद्रव हुए भी वहां पुलिस कैसे पहुंची, जबकि पुलिस बिना कुलपति की अनुमति के अंदर नहीं आ सकती? वहां पर जी-न्यूज का कैमरा और रिपोर्टर कैसे पहुंचे, जबकि जेएनयू में तमाम कार्यक्रम होते रहते हैं और चैनलों के रिपोर्टर कभी नहीं आते? अगर कुछ गड़बड़ है तो जांच कराइए और सजा दीजिए लेकिन बिना सबूत के गिरफ्तारी कैसे हो गई? जो लोग मुंह पर कपड़ा बांध कर नारे लगा रहे थे, वे कौन थे? नारा लगाने वालों की पहचान क्यों नहीं की गई? यह घटनाक्रम बताता है कि सारा मामला पहले से फिक्स था.’

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एबीवीपी और भाजपा समर्थकों ने भी जेएनयू के खिलाफ कई जगह प्रदर्शन किए

शोध छात्र ताराशंकर ने बताया, ‘उस कार्यक्रम के लिए चार दिन पहले से अनुमति ली गई थी. सांस्कृतिक परिचर्चा के नाम पर कार्यक्रम आयोजित किया गया था. प्रशासन ने पहले से मना नहीं किया. ठीक 15 मिनट पहले कार्यक्रम को रद्द किया. पर छात्रों ने कार्यक्रम शुरू कर दिया. बहुत बार बिना अनुमति के भी कार्यक्रम हो जाते हैं. एबीवीपी वालों ने जी-न्यूज चैनल वालों को पहले ही बुला लिया था. कुछ कश्मीर के छात्रों ने वह नारा लगाया. बीच में एबीवीपी वालों ने गाली गलौज शुरू की. इससे कई छात्र भड़क गए. और आरएसएस के खिलाफ नारे लगाए. इसी क्रम में भारत विरोधी नारे भी लगे. यह सब जोश-जोश में हुआ, एबीवीपी के हमले की प्रतिक्रया में. किसी लेफ्ट वाले ने सपोर्ट नहीं किया. कार्यक्रम के बाद मार्च निकला. गंगा ढाबा के पास एबीवीपी ने खुद नारा लगाया.’

वे कहते हैं, ‘नारा लगाया था हिंदुस्तान की कोर्ट जिंदाबाद, वीडियो में वह सुनाई दे रहा है पाकिस्तान जिंदाबाद! पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा वहां लगा ही नहीं. ‘कितने अफजल मारोगे, हर घर से अफजल निकलेगा’ और ‘भारत की बर्बादी तक जंग रहेगी’ जैसे नारे जरूर लगे. लेकिन छात्रों ने ही तुरंत उन लोगों को रोका भी था. दूसरे, जिनके खिलाफ सबूत नहीं हैं, उसे गिरफ्तार किया गया. यह सब फिक्स मैच जैसा लग रहा है. यह वास्तव में रोहित वेमुला का मुद्दा दबाने के लिए किया गया. चार लोगों के नारे पर पूरे जेएनयू को नहीं लपेटा जा सकता.’

जेएनयू के ही शोधछात्र अक्षत सेठ ने बताया, ‘प्रथमदृष्टया वे नारे गलत हैं. वहां जिस तरह के नारे लगे वे आपत्तिजनक हैं, सांप्रदायिक हैं और वहाबी प्रतिक्रियावादियों की उपज हैं. जो नारे लगा रहे हैं, वे जेएनयू के नहीं लग रहे. वैसे भी, भारत की बर्बादी या टुकड़े होने वाले नारे को मैं सिरे से नकारता हूं. लेकिन कार्रवाई किस आधार पर हो रही है? पुलिस-प्रशासन इस वीडियो में नारे लगा रहे लोगों को पहचाने. इतना तय है कि इसमें कोई भी वामपंथी एक्टिविस्ट शामिल नहीं है. ऐसे नारे लगाने के जुर्म में तुरंत कार्रवाई होनी चाहिए. उन पर भी कार्रवाई होनी चाहिए जिन्होंने आनंद शर्मा पर कैंपस में हमला किया. उन पर कार्रवाई हो जो लोग एडमिन ब्लॉक के सामने खुली धमकी दे रहे थे कि पुलिस है तब तक तुम सब बचे हो और कन्हैया को किस आधार पर गिरफ्तार किया गया है, इसका जवाब दें.’

तारशंकर ने बताया, ‘चूंकि वहां पर मामला पहले से फिक्स लग रहा है. चार छात्रों की गलती के लिए पूरे कैंपस को गुनाहगार नहीं बनाया जा सकता. इस मसले पर सभी छात्र और शिक्षक एकसाथ हैं. शनिवार और रविवार को काफी संख्या में शिक्षक और छात्र प्रदर्शन के लिए उतरे. न हम गलत के समर्थन में हैं, न अन्याय बर्दाश्त करेंगे.’

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पटियाला हाउस कोर्ट के बाहरपिटाई के बाद गुस्साए पत्रकारों ने 16 फरवरी को वकीलों के खिलाफ मार्च निकाला और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को ज्ञापन सौंपा

हालांकि, जेएनयू के अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संयुक्त सचिव सौरभ शर्मा ने बताया, ‘शाम को चार-पांच बजे के आसपास मैं वाइस चांसलर से मिलने गया. क्योंकि ये कहीं न कहीं ये भड़काने की बात है. किसी विश्वविद्यालय में ऐसी बात करना समाज को तोड़ना है. उस पम्फलेट में बाकायदा ‘ज्यूडीशियल किलिंग’ लिखा गया था. लेकिन वाइस चांसलर नए हैं तो उन्होंने कहा, मैं बात करता हूं. मैंने रजिस्ट्रार और डीएसडब्ल्यू को भी लेटर लिखा. जब मैंने देखा कि इनका कुछ खास इरादा नहीं है तो मैंने सारे मीडिया को मैसेज किया और हम लोग विरोध करने के लिए गए.’

कोई घटना अगर आपत्तिजनक भी हो, तो भी एबीवीपी को खुद जाकर हस्तक्षेप करने की जरूरत क्यों है? क्या इसके लिए प्रशासन की मदद नहीं ली जा सकती? एबीवीपी को खुद ही प्रशासन और अदालत क्यों बनना चाहिए? इसके जवाब में सौरभ कहते हैं, ‘हर बार ऐसा कुछ होता है तो कमेटी बनती है और रिपोर्ट आ जाती है. होता कुछ नहीं है.’ बीएचयू, इलाहाबाद, हैदराबाद या हर कैंपस में एबीवीपी ऐसी अराजकता क्यों फैलाती है, वह खुद ही मारपीट पर क्यों उतारू हो जाती है, इसके जवाब में सौरभ कहते हैं, ‘यह बिल्कुल गलत है. ऐसा बिल्कुल नहीं करना चाहिए. अब कोई किसी को पीट दे, कोई किसी की हत्या कर दे तो एबीवीपी जिम्मेदार नहीं है.’

13 फरवरी को जेएनयू कैंपस में छात्र और शिक्षकों ने करीब दो किलोमीटर लंबी ह्यूमन चेन बनाकर प्रदर्शन किया. उस दिन से जेएनयू में हड़ताल चल रही है. शिक्षकों और छात्रों की ओर से कहा गया है कि जब तक कन्हैया को पुलिस नहीं छोड़ेगी, हड़ताल और प्रदर्शन जारी रहेगा. छात्रों और शिक्षकों का कहना है कि अगर कोई घटना घटी थी तो पहले विवि प्रशासन को अपने स्तर पर जांच करके छात्रों को दंडित करना था. विश्वविद्यालय के नियमों को दरकिनार करके कैंपस के भीतर पुलिस कैसे आई? विरोध कर रहे छात्र और शिक्षक हालिया नियुक्त उप कुलपति जगदीश कुमार की भूमिका पर सवाल उठा रहे हैं. हालांकि, जगदीश कुमार ने 15 फरवरी को बयान जारी किया, ‘जेएनयू प्रशासन छात्रों, शिक्षकों और उनकी अभिव्यक्ति की आजादी के साथ खड़ा है.’ हालांकि, रजिस्ट्रार के दस्तखत वाला एक नोट भी सामने आया कि कैंपस में पुलिस  प्रशासन की अनुमति से आई थी.

पटियाला हाउस कोर्ट के बाहर जिन लोगों के साथ मारपीट की गई, उनमें एआईएसएफ के विश्वजीत भी शामिल थे. विश्वजीत बताते हैं, ‘मुझे देखते ही उन लोगों ने कहा देखो ये भी जेएनयू वाला है और मारपीट शुरू कर दी. यह सब देखते हुए अब हमारी समझ यह बन रही है कि नौ तारीख की नारेबाजी की घटना प्रायोजित थी. जानबूझ कर जेएनयू के पूरे लोकतांत्रिक स्पेस को खत्म करने की साजिश है. जेएनयू हमेशा लोकतंत्र के मूल्यों, वंचित तबकों, गरीब, दलित, पिछड़े, आदिवासी सबके लिए खड़ा रहा है. सिर्फ कैंपस में ही नहीं, पूरी दुनिया में जहां भी अन्याय होता है, जेएनयू उसके खिलाफ खड़ा होने वाला कैंपस है. उसे तोड़ने की पुरानी साजिश है जिसे अमल में लाया जा रहा है. सुब्रमण्यम स्वामी और संघ के मुखपत्र ये अभियान काफी पहले ही शुरू कर चुके थे. यह जेएनयू का लोकतांत्रिक स्पेस और प्रतिरोध की संस्कृति को मिटाने का प्रयास है. यूजीसी और रोहित वेमुला मसले पर रक्षात्मक मुद्रा में रही सरकार यह सब प्रायोजित कर रही है.’

विश्वजीत कहते हैं, ‘हर मसले पर लड़ने वाले जेएनयू के कुछ छात्रों ने ही सरकार को यह बहाना दे दिया कि वे हमले करें. हमारे पास लड़ने के लिए बहुत बड़े मसले हैं. हमारे पास लड़ने के लिए करोड़ों की जनता के मुद्दे हैं. जेएनयू में जो नारेबाजी है वह एआईएसएफ का मुद्दा न है, न हो सकता है. वह अतिवाद है.’

जेएनयू की प्रोफेसर वी. सुजाता के मुताबिक, ‘एक वीडियो, जिसकी कोई प्रामाणिकता नहीं है, के आधार पर छात्रों पर देशद्रोह की कार्रवाई की जा रही है. आपत्तिजनक कार्यक्रम में जो लोग शामिल थे, उनकी पहचान भी नहीं की जा सकी है. बिना प्रक्रिया पूरी किए छात्रों को जेल में डालने की इतनी जल्दी क्यों है? जबकि यही सरकार गांधी के हत्यारे की बरसी मनाने को लेकर बेहद सहिष्णु है. यह सब चिंतित करने वाला है.’

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इस पूरी कार्रवाई में हैदराबाद में रोहित वेमुला प्रकरण में काफी समानता है. इस मामले के सामने आते ही पूर्वी दिल्ली से भाजपा सांसद महेश गिरी ने एफआईआर दर्ज कराई और अपनी लिखित शिकायत में इन छात्रों को संविधान विरोधी और देशद्रोही कहा है. उन्होंने गृह मंत्री राजनाथ सिंह और मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी को भी खत लिखकर कड़ी कार्रवाई करने की अपील की. राजनाथ ने भी अपूर्व तेजी दिखाते हुए ‘देशद्रोहियों’ को कड़ी सजा दिलाने का ऐलान कर दिया. स्मृति ईरानी ने भी ‘भारत माता का अपमान बर्दाश्त नहीं करने का ऐलान कर दिया.’

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उधर, दिल्ली पुलिस किसी को भी देशद्रोही साबित करने पर आमादा है. 13 फरवरी को ‘जश्न-ए-रेख्ता’ प्रोग्राम से संगवारी नामक सांस्कृतिक संगठन के तीन छात्रों को दिल्ली पुलिस ने उठा लिया. इनमें से एक देवव्रत ने बताया, ‘रेख्ता में हम लोग गुलजार को सुनने के लिए गए थे. उनका प्रोग्राम खत्म हुआ तो करीब 11.30 बजे हम बाहर चाय पीने के लिए निकले. फिर जब हम वापस हुए तो मुझे पकड़ लिया गया. सबसे पहले पुलिस ने हमारा मोबाइल छीन लिया ताकि हम किसी को बता न पाएं. हमें बिना कुछ बताए अपने साथ ले गए. ले जाने के बाद हमसे बस यही पूछा कि आप लोग जेएनयू से हैं? हमने बताया नहीं. तो पुलिस वाले ने कहा, तुम लोग दिखते हो जेएनयू वालों जैसे और तुम्हारे पास ढपली भी है. अब बैठो, पहले तुम्हारे बारे में तहकीकात करेंगे. करीब चार घंटे बाद एसएचओ जब आया उसके बाद जाने दिया.’ यह रहस्य भी बड़ा दिलचस्प है कि जिसने दाढ़ी रखी है या कुर्ता पहना है तो वह अनिवार्यतः जेएनयू से होगा और देशद्रोही गतिविधि में संलिप्त होगा.

हालांकि, कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी के एक दिन बाद शनिवार को जेएनयू में बड़ा विरोध प्रदर्शन आयोजित हुआ था. इसमें विपक्षी दल कांग्रेस से राहुल गांधी, आनंद शर्मा, अजय माकन, सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी और सीपीआई सचिव डी. राजा भी शामिल हुए थे. कार्यक्रम से लौटते समय आनंद शर्मा पर ब्लेड से हमला हुआ था, जिसके विरुद्ध उन्होंने एफआईआर दर्ज कराई है. दूसरी तरफ वामपंथी पार्टियों की ओर से डी. राजा, सीताराम येचुरी और जदयू के केसी त्यागी ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से मुलाकात कर कन्हैया कुमार के खिलाफ पेश किए गए सबूत की ‘प्रामाणिकता’ की जांच कराने की मांग की. इस मामले में केजरीवाल ने जांच के आदेश दे दिए हैं. सीताराम येचुरी ने कन्हैया की गिरफ्तारी को गलत बताते हुए सबूतों की जांच की मांग की है. दूसरी ओर, कन्हैया की गिरफ्तारी के मुद्दे पर हैदराबाद की उस्मानिया यूनिवर्सिटी और एफटीआईआई में भी विरोध प्रदर्शन हुए.

जेएनयू में राष्ट्रविरोधी नारे लगे हों या नहीं, यह तो जांच का विषय हो सकता है, लेकिन यह विश्वविद्यालय लंबे समय से निशाने पर था. कुछ महीने पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र ‘पाञ्चजन्य’ ने ‘दरार का गढ़’ शीर्षक से कवर स्टोरी की थी और जेएनयू को देशद्रोहियों का अड्डा बताया था. तब देशविरोधी नारेबाजी जैसी कोई घटना नहीं हुई थी, तब हमला जेएनयू के ‘सेक्युलर’ और ‘प्रगतिशील’ चरित्र को लेकर था. अब ‘पाञ्चजन्य’ की जगह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक शाखा भाजपा की सरकार जेएनयू को ‘देशद्रोहियों का गढ़’ बता रही है और इस बार कथित तौर पर देशविरोधी नारे का एक बहाना भी है.

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‘असली निशाना तो जेएनयू की संस्कृति और लोकतांत्रिकता है’

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देखिए, पहली बात कि मैं यह कन्फर्म नहीं कर सकता कि नौ फरवरी को वह घटना घटी या नहीं, क्योंकि मैं डीयू में एक सेमिनार में था. इसलिए उस घटना के बारे में कोई राय नहीं दे सकता. लेकिन इतना जरूर कह सकता हूं कि मान लिया ऐसी कोई घटना घटी तो क्या हुआ, उसमें कौन लोग शामिल हैं, इसकी तहकीकात होनी चाहिए. अगर ये कैंपस की घटना है तो कैंपस के अंदर पहले से एक इंस्टीट्यूशनल मैकेनिज्म है. मैं 40 साल से कैंपस में हूं. कोई भी ऐसी घटना घटी है तो उसका हमने निदान निकाला है. हमारा अपना आंतरिक तंत्र है जिसके जरिये हम बिना भेदभाव के जांच करते हैं, जो गलत है उसे गलत करार देते हैं और जरूरी कार्रवाई करते हैं.

हमारा विरोध ये नहीं है कि ये घटना घटी, हम इसका बचाव नहीं कर रहे हैं. हमारा विरोध ये है कि इसकी जांच हमारे इंस्टीट्यूशन मैकेनिज्म के तहत होनी चाहिए थी जो कि नहीं हुई. जब भी कोई घटना हो, महिलाओं के खिलाफ कोई घटना हो, हम आंतरिक जांच करते हैं. सुप्रीम कोर्ट भी पहले कह चुका है कि ऐसे मसलों को कोर्ट आॅफ लॉ में लाने के पहले आप आंतरिक जांच करो. जेएनयू पहला संस्थान है जिसने जीएस कैश स्थापित किया. और सिर्फ एक नहीं, हमने कई सारे लोकतांत्रिक मैकेनिज्म तैयार किए हैं. इसको बनाने में, इसकी उत्पत्ति और विकास में, इसे बनाने में लगातार सोच और संघर्ष की प्रक्रिया होती है. किसी सोच या समझ को बदलना इतना आसान नहीं होता. इसमें लंबी प्रक्रिया चलती है. जब इस प्रक्रिया को आप नजरअंदाज करते हैं तो आप स्टेट और उसके दमनचक्र का हिस्सा बन जाते हैं. विश्वविद्यालय इसी दमनचक्र की मुखालफत करता है.

जब घटना घटी तब हमने प्रशासन से पूछा कि आपके पास पूरी रिपोर्ट थी? क्या आपने जांच की? हमारे यहां प्राॅक्टोरियल इन्क्वायरी सिस्टम है जो कि एक्ट आॅफ पार्लियामेंट के तहत है. उसे आपने महत्व नहीं दिया. पुलिस के एक खत पर आपने मान लिया कि देशद्रोह का मामला है और आप कैंपस में आ जाइए और किसी के कमरे में चले जाइए. आप यह भी तय मत कीजिए कि आपके पास कोई सर्च वारंट है या नहीं.

पुलिस के पास कोई सबूत नहीं था. उस दिन से लगातार पुलिस कैंपस में है. कितने आतंकवादी यहां मिल गए? अब यह और बात है कि आप मुझे उठा ले जाएं और आतंकवादी करार दे दें. पुलिस आपकी है, प्रशासन आपके पास है. हमारे पास ऐसा साहित्य भी मिल जाएगा, क्योंकि मैं समाजशास्त्र का विद्यार्थी हूं, समाजशास्त्र पर व्याख्यान देता हूं, नेशन और स्टेट पर आलोचनात्मक लेख लिखता हूं तो आपको कुछ न कुछ तो मिल ही जाएगा, होगा ही. जिसको चाहे आप उठाकर देशद्रोही कह दें.

जब हम किसी चीज की लोकतांत्रिक आलोचना करते हैं तो उसके जरिये हम उसकी कमजोरियों को ठीक करने की कोशिश करते हैं. क्योंकि कहीं-कहीं संरचना में कमी है. हां, देश अगर किसी के निशाने पर है तो उसके लिए सबसे पहले खड़े होंगे. यह देश चंद लोगों का बनाया हुआ नहीं है. इसे मेहनतकश लोगों ने अपने मेहनत और बलिदान से हासिल किया है. जिन्होंने देश के लिए कोई बलिदान नहीं दिया, वे देश के अग्रणी बने हुए हैं. उनको ये सवाल अपने आप से पूछना चाहिए. आप कहते हैं कि हम आलोचना और अध्ययन के जरिये समाज तोड़ रहे हैं. तो ये समाज ऐसे ही टूटेगा न! अगर समाज में सामंती और तालिबानी प्रवृत्तियां हैं कि कोई मांस खाएगा तो वह देशद्रोही है तो इसे टूटना ही चाहिए. आपने मनुष्य विरोधी समाज बनाया है तो हम तोड़ रहे हैं. यह देश, समाज तो हमारा ही है.

जेएनयू पहले से निशाने पर था. इस बेवकूफी ने उसे बहाना दे दिया. यह जिसने भी किया, योजना के तहत किया या अचानक हुआ यह और मसला है. यहां पर वह घटना नहीं, असली निशाना जेएनयू की संस्कृति और यहां की लोकतांत्रिकता है, जिससे उनको बहुत तकलीफ है. बाकी शिक्षक संघ का पहला बयान ही यह था कि हम किसी भी असंवैधानिक चीज के खिलाफ हैं. हम इसकी निंदा करते हैं. लेकिन हम साथ-साथ यह भी कह रहे हैं कि भेदभावपूर्ण ‘विच हंटिंग’ मत कीजिए. इसीलिए हम शिक्षक एक साथ खड़े हुए हैं. यहां के सभी छात्र पूरे हिंदुस्तान से आते हैं, अपने घर से दूर रहते हैं. यहां पर हम ही उनके माई-बाप और अभिभावक हैं. उनके हित की रक्षा और भटकाव की जिम्मेदारी हमारी है. हम उनसे बात करेंगे, संभालेंगे. लेकिन आप उन्हें देशद्रोह का आरोप लगाकर जेल में डाल दें, यह बिल्कुल ठीक नहीं है.

आप कहते हैं कि हम आलोचना और अध्ययन के जरिये समाज तोड़ रहे हैं. तो ये समाज ऐसे ही टूटेगा न! अगर समाज में तालिबानी प्रवृत्तियां हैं कि कोई मांस खाएगा तो वह देशद्रोही है तो इसे टूटना ही चाहिए

जेएनयू के कुछ छात्रों ने गलती की, लेकिन निशाने पर पूरा जेएनयू है. पूरा जेएनयू गड़बड़ नहीं हो गया. यह जेएनयू ही है जिसने तमाम लड़ाइयां लड़ी हैं. निर्भया कांड हुआ तो दिल्ली सोई हुई थी. यहां के छात्रों ने उसकी लड़ाई लड़ी. बंधुआ मजदूरों, दलितों पर अन्याय होता है तो यहीं के छात्र जाते हैं. वे क्यों जाते हैं? उन्हें खाना मिलता है, रहने को मिलता है. अपनी पढ़ाई करें और अफसर बनकर निकल जाएं. लेकिन वे दबे-कुचले लोगों की जबान बनते हैं. ये उनकी संवेदनशीलता है, जो सामाजिक न्याय के फ्रेमवर्क से आती है जो हमारे संविधान में निहित है. अब इस बात को समझना चाहिए कि हम संविधान के पक्ष में हैं या उसके खिलाफ हैं? उन्हें इन सारी चीजों से परेशानी है. वे ऐसे हर संस्थान को बंद करना चाहते हैं. यह सिर्फ एक पार्टी की बात नहीं है. वह एक रूलिंग क्लास है. वह किसी पार्टी से जुड़ा नहीं है. उस वर्ग की अपनी एक विचारधारा है, जो मिलजुल कर हमारा विरोध करते हैं.

इसके पहले जब कभी इस तरह के सवाल आए हैं तो जेएनयू खुद उस मामले को संभालता था. एक बार गिलानी कैंपस में आए थे. यूपीए की सरकार थी. दिल्ली पुलिस कह रही थी कि उन पर देशद्रोह का आरोप है, आप उन्हें कैंपस में बोलने नहीं दे सकते. हम अंदर आएंगे. एबीवीपी और कुछ और लोगों ने भी विरोध किया था. उस समय भी जेएनयू प्रशासन ने मामले को खुद संभाला और सुनिश्चित किया कि लोकतांत्रिक ढंग से अपनी बात कहना चाहें तो कहें, नहीं कहना चाहते तो बाहर जाएं. रामदेव के आने का विरोध हुआ तो भी हमने आलोचना की कि अभिव्यक्ति की आजादी हर किसी को मिलनी चाहिए, वह किसी भी विचारधारा या समुदाय का हो.

इमरजेंसी के समय हमने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का विरोध किया, क्योंकि इमरजेंसी और वैसी दूसरी चीजों के लिए उनका विरोध था. लेकिन बाद में जब वे डिस्कोर्स के लिए आईं तो हमने स्वागत किया और बहस की. ये चर्चा, बातचीत और अभिव्यक्ति का परिसर है.

इस बार यह चूक प्रशासन से हुई. वाइस चांसलर नए हैं, उन्हें कम अनुभव है. शिक्षक संघ ने प्रस्ताव दिया था कि आप अपनी स्वायत्तता में हस्तक्षेप मत करने दीजिए. उन्होंने हमारी बात सुनी और स्वीकृति भी दी कि आपकी बात समझता हूं, लेकिन यह देशद्रोह का आरोप है. हमने कहा कोई भी चार्ज है, पर आपसे इजाजत मांगी गई है तो प्रशासन इसे समझता है. आप इसे न कह सकते हैं और आंतरिक मैकेनिज्म से संभाल सकते हैं.

जेएनयू एक शैक्षणिक संस्था का प्रांगण है, कोई कारागार नहीं. यहां के छात्र इसी देश के भविष्य की बात करते हैं, इसी की मिट्टी से जुड़े हुए हैं. वे उन लोगों से नहीं जुड़े हुए हैं जिनका आधा धन विदेशों से आता है या विदेशों में जाता है. अगर वे लोग हमको देशभक्ति का सबक सिखाएंगे तो ये सबक हम उनसे तो नहीं सीखने वाले, क्योंकि यह देश हमारा भी है.

(लेखक जेएनयू शिक्षक संघ के पूर्व अध्यक्ष हैं )
(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)

अगर तुम्हारी भारतमाता में मेरी मां शामिल नहीं तो भारतमाता का ये कॉन्सेप्ट मुझे मंजूर नहीं

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वो तिरंगा झंडा जलाने वाले लोग हैं, वो सावरकर के चेले हैं जिन्होंने अंग्रेजों से माफी मांगी थी. ये वो लोग हैं. हरियाणा के अंदर जो अभी खट्टर सरकार है, इस सरकार ने शहीद भगत सिंह के नाम पर जो एक एयरपोर्ट का नाम रखा गया था, उसको एक संघी के नाम पर रख दिया. कहने का मतलब यह है कि हमको देशभक्ति का सर्टिफिकेट आरएसएस से नहीं चाहिए. हमको नेशनलिस्ट होने का सर्टिफिकेट आरएसएस से नहीं चाहिए. हम हैं इस देश के और इस मिट्टी से प्यार करते हैं. इस देश के अंदर जो 80 फीसदी गरीब अवाम है, हम उसके लिए लड़ते हैं. हमारे लिए यही देशभक्ति है. हमें पूरा भरोसा है बाबा साहेब (आंबेडकर) के ऊपर. हमें पूरा भरोसा है अपने देश के संविधान के ऊपर. और हम इस बात को पूरी मजबूती के साथ कहना चाहते हैं कि इस देश के संविधान पर अगर कोई उंगली उठाएगा.. चाहे वो उंगली संघियों का हो, चाहे वो उंगली किसी का भी हो, उस उंगली को हम बर्दाश्त नहीं करेंगे.

हम संविधान में भरोसा करते हैं. लेकिन जो संविधान झंडेवालान और नागपुर में पढ़ाया जाता है, उस संविधान पर हमको कोई भरोसा नहीं. हमको मनुस्मृति पे कोई भरोसा नहीं है. हमको इस देश के अंदर जो जातिवाद है उसके ऊपर कोई भरोसा नहीं है. और वही संविधान, वही बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर, संविधान में संवैधानिक उपचार की बात करते हैं. वही बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर कैपिटल पनिशमेंट को एबोलिश करने की बात करते हैं. वही बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन की बात करते हैं. और हम कांस्टिट्यूशन को अपहोल्ड करते हुए, जो हमारा बुनियादी अधिकार है, जो हमारा कांस्टिट्यूशनल राइट है, हम उसको अपहोल्ड करता चाहते हैं. लेकिन ये बड़े शर्म की बात है, ये बड़े दुख की बात है कि आज एबीवीपी अपने मीडिया सहयोगियों से पूरे मामले को आॅर्केस्ट्रेटेड (प्रायोजित) कर रहा है, मामले को डायल्यूट कर रहा है.

कल एबीवीपी के जॉइंट सेक्रेटरी ने कहा कि हम फेलोशिप के लिए लड़ते हैं. कितना रिडिकुलस (हास्यास्पद) लगता है ये सुन करके. इनकी सरकार मैडम ‘मनु’स्मृति ईरानी फेलोशिप को खत्म करती हैं और कहते हैं कि हम फेलोशिप के लिए लड़ते हैं. इनकी सरकार हायर एजुकेशन के अंदर 17 प्रतिशत बजट को कट किया है. उससे हमारा हॉस्टल पिछले चार सालों में नहीं बना. उससे हमको वाई-फाई आज तक नहीं मिला. और एक बस दिया भेल ने तो उसमें तेल डालने के लिए प्रशासन के पास पैसा नहीं है.

एबीवीपी के लोग रोलर के सामने जाकर देवानंद की तरह तस्वीर खिंचवा कर कहते हैं कि हम हॉस्टल बनवा रहे हैं. हम वाई-फाई करवा रहे हैं. हम फेलोशिप बढ़वा रहे हैं. इनकी पोलपट्टी खुल जाएगी साथियों, अगर इस देश में बुनियादी सवाल पर चर्चा होगा. और मुझे गर्व है जेएनयूआइट होने पे क्योंकि हम बुनियादी सवाल पर चर्चा करते हैं. हम बुनियादी सवाल उठाते हैं.

इनका एक स्वामी है, स्वामी कहता है कि जेएनयू में जेहादी रहते हैं. जो ये कहता है कि जेएनयू के लोग हिंसा फैलाते हैं. कौन है? मैं जेएनयू से चुनौती देता हूं आरएसएस के विचारकों को. उसे बुलाओ और करो हमारे साथ डिबेट. हम करना चाहते हैं हिंसा के कॉन्सेप्ट पर डिबेट. हम सवाल खड़ा करना चाहते हैं एबीवीपी के उस दावे पर, एबीवीपी के उस स्लोगन पर, जिसमें वो कहता है बेशरम कि खून से तिलक करेंगे, गोलियों से आरती. किसका खून बहाना चाहते हो इस मुल्क में तुम? क्या चाहते हो इस मुल्क में तुम? तुमने गोलियां चलाई हैं. अंग्रेजों के साथ मिलकर इस देश की आजादी के लिए लड़ने वाले लोगों पर गोलियां चलाई हैं.

इस देश के संविधान पर अगर कोई उंगली उठाएगा… चाहे वो उंगली संघियों का हो, चाहे वो उंगली किसी का भी हो, उस उंगली को हम बर्दाश्त नहीं करेंगे. हम संविधान में भरोसा करते हैं. लेकिन जो संविधान झंडेवालान और नागपुर में पढ़ाया जाता है, उस संविधान पर हमको कोई भरोसा नहीं. हमको मनुस्मृति पे कोई भरोसा नहीं है. हमको इस देश के अंदर जो जातिवाद है उसके ऊपर कोई भरोसा नहीं है

इस मुल्क के अंदर गरीब जब अपनी रोटी की बात करता है, जब भुखमरी से मर रहे लोग अपने हक की बात करते हैं तो तुम उन पर गोली चलाते हो. तुमने गोली चलाई है इस मुल्क में मुसलमानों के ऊपर. तुमने गोली चलाई है इस मुल्क में जब महिलाएं अपने अधिकार की बात करती हैं तो तुम कहते हो पांचों उंगली बराबर नहीं हो सकता. महिलाओं को सीता की तरह रहना चाहिए और सीता की तरह अग्निपरीक्षा देना चाहिए.

इस देश में लोकतंत्र है और यह लोकतंत्र सबको बराबरी का हक देता है, चाहे वो विद्यार्थी हो, चाहे वो कर्मचारी हो, चाहे वो गरीब हो, मजदूर हो, किसान हो या अंबानी या अडानी हो, सबके हक की बराबरी की बात करता है. उसमें जब हम महिलाओं के हक की बात करते हैं तो ये कहते है कि आप भारतीय संस्कृति को बरबाद करना चाहते हो. हम बरबाद करना चाहते हैं शोषण की संस्कृति को, जातिवाद की संस्कृति को, मनुवाद और ब्राह्मणवाद की संस्कृति को. आपकी संस्कृति की परिभाषा से हमारी संस्कृति की परिभाषा तय नहीं होगी. इनको दिक्कत कहां आता है, इनको दिक्कत होता है जब इस मुल्क के लोग लोकतंत्र की बात करते हैं, जब लोग लाल सलाम के साथ नीला सलाम लगाते हैं. जब मार्क्स के साथ बाबा साहब भीमराव आंबेडकर का नाम लेते हैं. जब अशफाक उल्ला का नाम लिया जाता है, तब इनको पेट में दर्द होता है, और इनकी साजिश है, ये अंग्रेजों के चमचे हैं, लगाओं मेरे ऊपर डिफेमेशन का केस, मैं कहता हूं आरएसएस का इतिहास अंग्रेजों के साथ खड़ा होने का इतिहास है. आज ये देश के गद्दार आज देशभक्ति का सर्टिफिकेट बांट रहे हैं.

मेरा मोबाइल चेक करो साथियों, मेरी मां और बहन को भद्दी-भद्दी गालियां दी जा रही हैं. कौन सी भारत माता की बात करते हो? अगर तुम्हारी भारतमाता में मेरी मां शामिल नहीं है तो मुझे मंजूर नहीं है ये भारत माता का कॉन्सेप्ट. इस देश की महिलाएं जो गरीब हैं, मजदूर हैं, मेरी मां आंगनबाड़ी सेविका है, 3000 से हमारा घर चलता है. और ये उसके खिलाफ गालियां दे रहा है. मुझे शर्म है इस देश पर. इस देश के अंदर जो गरीब, मजदूर, दलित किसान हैं उनकी माताएं भारत माताएं नहीं हैं. मैं कहूंगा जय, भारत की माताओं की जय, पिताओं की जय, माताओं, बहनों की जय, किसानों, मजदूरों, दलितों आदिवासियों की जय. मैं कहूंगा, तुम में हिम्मत है तो बोलो इंकलाब जिंदाबाद, बोला भगत सिंह जिंदाबाद, बोलो सुखदेव जिंदाबाद, बोलो अशफाक उल्ला खां जिंदाबाद, बोलो बाबा साहेब जिंदाबाद, तब हम मानेंगे तुम इस देश पे भरोसा करते हो. और तुम बाबा साहेब का 125वीं जयंती मनाने का नाटक कर रहे हो, है तुम में हिम्मत तो सवाल उठाओ जो बाबा भीमराव साहेब ने उठाया कि इस देश के अंदर जातिवाद सबसे बड़ी समस्या है. बोलो जातिवाद के ऊपर, लाओ रिजर्वेशन, प्राइवेट सेक्टर में रिजर्वेशन लाओ, तमाम जगह रिजर्वेशन को लागू करो, तब हम मानेंगे कि तुमको इस देश पर भरोसा है. ये देश तुम्हारा कभी नहीं था और कभी नहीं हो सकता. कोई देश अगर बनता है तो वहां के लोगों से बनता है. अगर देश की अवधारणा में भूखे लोगों के लिए जगह नहीं है, गरीब मजदूरों के लिए जगह नहीं है तो वह देश नहीं है. कल मैं टीवी डिबेट में यह बात बोल रहा था दीपक चौरसिया जी को कि चौरसिया जी, ये गंभीर समय है इस बात को याद रखिएगा. अगर मुल्क में फासीवाद जिस तरीके से आ रहा है, मीडिया भी सुरक्षित नहीं रहने वाला है. उसके भी स्क्रिप्ट लिखकर आएंगे संघ के ऑफिस से और उसके भी स्क्रिप्ट लिख कर आते थे कभी इंदिरा गांधी के समय में कांग्रेस के ऑफिस से, इस बात को याद रखिएगा. और अगर आप सच में इस देश में देशभक्ति दिखाना चाहते हैं, कुछ मीडिया के साथी कह रहे थे कि हमारे टैक्स के पैसे से, सब्सिडी के पैसे से जेएनयू चलता है, हां सच है, सच है कि टैक्स के पैसे से चलता है, सच है कि सब्सिडी के पैसे से चलता है, लेकिन ये सवाल खडा करना चाहते हैं कि यूनिवर्सिटी होता किसलिए है?

यूनिवर्सिटी होता है समाज के अंदर जो कॉमन कन्साइंस है, कोट एंड कोट उसका क्रिटिकल एनालिसिस किया जाए. अगर यूनिवर्सिटी इस काम में फेल है तो कोई देश नहीं बनेगा, इस देश में कोई लोग शामिल नहीं होंगे, देश होगा तो सिर्फ और सिर्फ पूंजीपतियों के लिए चारागाह होगा, सिर्फ और सिर्फ लूट और शोषण का चारागाह बन करके रह जाएगा. अगर देश के अंदर लोगों की जो संस्कृति है, लोगों की जो मान्यताएं हैं, लोगों का जो अधिकार है हम उसे शामिल नहीं करेंगे तो देश नहीं बनेगा. हम देश के साथ पूरी तरीके से खडे़ हैं और उस सपने के साथ खडे़ हैं जिसको भगत सिंह और बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने देखा. हम उस सपने के साथ खडे़ हैं जिसमें सबको बराबरी का हक दिया जाए, हम उस सपने के साथ खडे़ हैं सबको जीने का हक हो, सबको खाने पीने रहने का हक हो, हम उस सपने के साथ खडे़ हैं. और उस सपने के साथ खड़ा होने के लिए रोहित ने अपना जान गंवाया है. लेकिन मैं कहना चाहता हूं इन संघियों को कि लानत है तुम्हारी सरकार पर, चुनौती है मुझे केंद्र सरकार को कि आपने रोहित (वेमुला) के मामले में जो किया है, वो जेएनयू में हम नहीं होने देंगे. कोई रोहित अपनी जान नहीं गंवाएगा. रोहित ने जो अपनी कुर्बानी दी है, उस कुर्बानी को हम याद रखेंगे. हम फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन के पक्ष में खड़े होंगे. और छोड़ दो पाकिस्तान की बात और बांग्लादेश की बात. हम कहते हैं दुनिया के गरीबों एक हो. दुनिया के मजदूरों एक हो. दुनिया की मानवता जिंदाबाद. भारत की मानवता जिंदाबाद. जो इस मानवता के खिलाफ खड़ा है, हम उसको आज आइडेंटिफाई कर चुके हैं.

आज यही हमारे सामने सबसे गंभीर सवाल है कि उस आइडेंटिफिकेशन को हमको बनाकर रखना है. वो जो चेहरा है जातिवाद का, वो जो चेहरा है मनुवाद का, वो जो चेहरा है ब्राह्मणवाद का और पूंजीवाद के गठजोड़ का, उस चेहरे को हमको एक्सपोज करना है और सचमुच का लोकतंत्र, सचमुच की आजादी, सबकी आजादी इस देश में हमको स्थापित करनी है. और वो आजादी आएगी और संविधान से आएगी, पार्लियामेंट से आएगी, लोकतंत्र से आएगी और संसद से आएगी, यह हम कहना चाहते हैं. और इसलिए मैं आप सब तमाम साथियों से अपील है, कि तमाम तरह का डिफरेंसेज रखते हुए जो हमारा फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन है, जो हमारा कांस्टिट्यूशन है, जो हमारा मुल्क है उसकी एकता के लिए हम लोग एकजुट रहेंगे. एकमुश्त रहेंगे और ये जो देश तोड़ने वाली ताकतें हैं, आतंकियों को पनाह देने वाले लोग हैं.

वो जो चेहरा है जातिवाद का, वो जो चेहरा है मनुवाद का, वो जो चेहरा है ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद के गठजोड़ का, उस चेहरे को हमको एक्सपोज करना है और सचमुच का लोकतंत्र, सचमुच की आजादी, सबकी आजादी इस देश में हमको स्थापित करनी है. और वो आजादी आएगी और संविधान से आएगी, पार्लियामेंट से आएगी, लोकतंत्र से आएगी और संसद से आएगी. जो हमारा मुल्क है उसकी एकता के लिए हम लोग एकजुट रहेंगे

एक सवाल अंतिम सवाल पूछकर मैं अपनी बात को खत्म करूंगा. कौन है कसाब, कौन है अफजल गुरु, कौन हैं ये लोग जो आज इस स्थिति में हैं कि अपने शरीर में बम बांधकर हत्या करने को तैयार हैं. अगर ये सवाल यूनिवर्सिटी में नहीं उठेगा तो फिर मुझे नहीं लगता कि यूनिवर्सिटी होने का कोई मतलब है. अगर हम जस्टिस को डिफाइन नहीं करेंगे, अगर हम वॉयलेंस को डिफाइन नहीं करेंगे, कैसे हम वॉयलेंस को देखते हैं? वॉयलेंस सिर्फ ये नहीं होता है कि हम सिर्फ बंदूक लेकर किसी को मार दें, वॉयलेंस यह भी होता है कि संविधान में जो दलितों को अधिकार दिया गया है वो अधिकार जेएनयू प्रशासन देने से मना करता है. ये इंस्टिट्यूशनल वॉयलेंस है, इसके ऊपर कौन बात करेगा. जस्टिस की बात करते हैं, कौन तय करेगा कि जस्टिस क्या है? जब ब्राह्मणवादी व्यवस्था थी तो दलितों को मंदिर में नहीं घुसने दिया जाता था, यही जस्टिस है. जब अंग्रेज थे तो कुत्तों को और भारतीयों को रेस्टोरेंट में नहीं जाने दिया जाता था, यही जस्टिस था. इस जस्टिस को हमने चैलेंज किया और हम आज भी एबीवीपी और आरएसएस के जस्टिस को चैलेंज करते हैं कि तुम्हारा जस्टिस हमारे जस्टिस को एकोमोडेट नहीं कर करता है. अगर तुम्हारा जस्टिस हमारे जस्टिस को एकोमोडेट नहीं कर करता है तो हम नहीं मानेंगे तुम्हारे जस्टिस को और नहीं मानेंगे तुम्हारी आजादी को. हम मानेंगे उस दिन आजादी को जब दिन हर इंसान को उसका कांस्टिट्यूशनल राइट मिलेगा. जिस दिन हर इंसान को उसका संवैधानिक अधिकार देते हुए इस मुल्क के अंदर बराबरी का दर्जा दिया जाएगा. उस दिन हम जस्टिस को मानेंगे. दोस्तों, बहुत गंभीर परिस्थिति है. किसी भी तौर पर जेएनयूएसयू किसी भी हिंसा का, किसी भी आतंकवादी का, किसी भी आतंवादी घटना का, किसी भी देशविरोधी एक्टिविटी का समर्थन नहीं करता. कड़े शब्दों में एकबार फिर से. जो कुछ लोग, अनआइडेंटिफाई लोग जो पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाए हैं, जेएनयूएसयू उसकी कड़े शब्दों में भर्त्सना करता है. साथ ही साथ एक सवाल जो है उसको आप सब लोगों को शेयर करते हुए. ये सवाल है जेएनयू एडमिनिस्ट्रेशन और एबीवीपी के लिए, इस कैंपस में हजार तरह की चीजें होती हैं. अभी आप ध्यान से एबीवीपी का स्लोगन सुनिए ये कहते हैं कम्यूनिस्ट कुत्तेे… कहते हैं अफजल गुरु के पिल्ले… ये कहते हैं जिहादियों के बच्चे… आपको नहीं लगता कि अगर इस संविधान ने हमको नागरिक होने का अधिकार दिया है तो मेरे बाप को कुत्ता कहना ये मेरे संविधानिक अधिकारों का हनन है कि नहीं? ये सवाल मैं एबीवीपी से पूछना चाहता हूं. ये सवाल पूछना चाहते हैं जेएनयू एडमिनिस्ट्रेशन से कि आप किसके लिए काम करते हैं? किसके साथ काम करते हैं और किसके आधार पर काम करते हैं? ये बात आज बिल्कुल स्पष्ट हो चुकी है कि जेएनयू प्रशासन पहले परमिशन देता है, फिर नागपुर से फोन आने के बाद परमिशन लेता है.

ये जो परमिशन लेने देने की प्रक्रिया है, ये उसी तरह से तेज हो गई है इस मुल्क में, जैसे फेलोशिप को लेने और देने की प्रक्रिया है. पहले आपको फेलोशिप बढ़ाने के घोषणा होगी फिर कहा जाएगा कि फेलोशिप बंद हो गई है.ये संघी पैटर्न है, ये आरएसएस और एबीवीपी का पैटर्न है. जिस पैटर्न से वो मुल्क को चलाना चाहते हैं. और इसी पैटर्न से वो जेएनयू एडमिनिस्ट्रेशन को चलाना चाहते हैं.

हमारा सवाल है जेएनयू के वाइस चांसलर से कि पोस्टर लगा था जेएनयू में बाकायदा. पर्चे आए थे मेस में. अगर दिक्कत था तो जेएनयू एडमिनिस्ट्रेशन पहले परमिशन नहीं देता. अगर परमिशन दिया तो किसके कहने से परमिशन कैंसिल किया? ये बात जेएनयू एडमिनिस्ट्रेशन क्लियर करे. ये सवाल आज हम इनसे पूछना चाहते हैं. साथ ही साथ. ये जो लोग हैं, इनकी सच्चाई जान लीजिए. इनसे नफरत मत कीजिएगा क्योंकि हम लोग नफरत कर नहीं सकते. इनसे मुझे बड़ी ही दया भाव है इनके प्रति. ये इतने उछल रहे हैं, क्यों? इनको लगता है जैसे गजेंद्र चौहान को बिठाया है, वैसे हर जगह चौहान, दीवान, फरमान ये जारी कर देंगे. चौहान, दीवान और फरमान की बदौलत ये हर जगह नौकरी पाते रहेंगे.

इसीलिए ये जब जोर से ‘भारत माता की जय’ चिल्लाएं तो समझ लीजिए परसों इनका इंटरव्यू डीयू में होने वाला है. नौकरी लगेगी, देशभक्ति पीछे छूट जाएगी. नौकरी लगेगी, फिर भारत माता का कोई ख्याल नहीं. नौकरी लगेगी, तिरंगा को तो इन्होंने कभी माना ही नहीं, भगवा झंडा भी नहीं फहराएंगे. मैं सवाल करना चाहता हूं कि कैसी देशभक्ति है? अगर एक मालिक अपने नौकर से सही बर्ताव नहीं करता, अगर किसान अपने मजदूर से सही बर्ताव नहीं करता, अगर पूंजीपति अपने एम्लाई से सही बर्ताव नहीं करता. और ये जो अलग अलग चैनल के लोग हैं जो पत्रकार काम करते हैं 15-15 हजार रुपये में. इनके जो सीईओ हैं, वो इनसे ठीक से बर्ताव नहीं करते हैं. कैसी देशभक्ति है?

वो सारी देशभक्ति भारत-पाकिस्तान के मैच पर खत्म कर देते हैं. इसीलिए जब रोड पर निकलते हैं तो केले वाले के साथ बदतमीजी से बात करते हैं. केला वाला कहता है- साहब, 40 रुपये दर्जन. कहते हैं- भाग. तुम लोग लूट रहे हो. 30 का दे दो. केला वाला जिस दिन पलट कर बोला देगा कि तुम सबसे बड़े लुटेरे हो, करोड़ों लूट रहे हो तो कह देंगे कि ये देशद्रोही है. इनकी परिभाषा अमीरी और सुविधा से शुरू होती है और अमीरी और सुविधा पर खत्म हो जाती है. मैं बहुत सारे एबीवीपी के दोस्तों को जानता हूं, मैं उनसे पूछता हूं कि क्या सच में तुम्हारे अंदर देशभक्ति की भावना पनपती है? तो कहता है भइया क्या करें, पांच साल की सरकार है, दो साल खत्म हो गया है, तीन साल का टॉकटाइम बचा है, जो करना है इसी में कर डालना है. तो हम बोले ठीक है जो करना है कर लो, पर ये बताओ जेएनयू के बारे में झूठ बोलोगो तो कल को तुम्हारा कॉलर भी कोई पकड़ लेगा और तुम्हारा ही साथी पकड़ लेगा जो आजकल ट्रेन में बीफ चेक करता है, पकड़ कर तुमको लिंचिंग करेगा और कहेगा तुम देशभक्त नहीं हो क्योंकि तुम जेएनयूआइट हो. इसका खतरा समझते हो, इसका तो समझते हैं भइया इसलिए तो हम जेएनयू शटडाउन का जो हैशटैग है, उसका विरोध कर रहे है. हमने कहा बहुत बढि़या है भाई साहब, पहले जेएनयू हैशटैग के लिए माहौल बनाओ फिर उसका विरोध करो, क्योंकि रहना तो जेएनयू में ही है ना.

इसलिए मैं आप तमाम जेएनयू के लोगों से कहना चाहता हूं कि अभी चुनाव होगा मार्च में और एबीवीपी के लोग ओम का झंडा लगाकर आपके पास आएंगे. उनसे पूछिएगा कि हम देशद्रोही हैं. हम जेहादी आतंकवादी हैं. हमारा वोट लेकर तुम भी देशद्रोही हो जाओगे. ये उनसे जरूर पूछिएगा. तब ये कहेंगे- नहीं, नहीं आप लोग नहीं हैं. वो कुछ लोग थे. तब हम कहेंगे कि वो कुछ लोग थे, ये बात तो तुमने मीडिया में नहीं कही. तुम्हारा वाइस चांसलर नहीं बोला और तुम्हारा रजिस्ट्रार भी नहीं बोल रहा है. और वो कुछ लोग भी तो कह रहे हैं कि हमने पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा नहीं लगाया. वो कुछ लोग भी तो कह रहे हैं कि हम आतंकवाद के पक्ष में नहीं हैं. वो कुछ लोग भी तो कह रहे हैं कि हमें परमिशन देकर हमारा परमिशन कैंसिल कर दिया. ये हमारे डेमोक्रेटिक राइट के ऊपर अटैक है. वो कुछ लोग हैं जो ये कह रहे हैं कि अगर इस देश के अंदर कहीं लड़ाई लड़ी जा रही है तो उसके समर्थन में हम खड़ा होंगे. इतनी बात इनके पल्ले पड़ने वाली नहीं है. लेकिन मुझे पूरा भरोसा है कि यहां जो इतने लोग इतने शॉर्ट नोटिस पर आए हैं, उनके उनके पल्ले पड़ रहा है. और वो लोग इस कैंपस में एक-एक छात्र के पास जाएंगे और बताएंगे कि एबीवीपी ना सिर्फ इस देश को तोड़ रहा है, बल्कि जेएनयू को तोड़ रहा है. हम जेएनयू को टूटने नहीं देंगे. जेएनयू  जिंदाबाद था. जेएनयू जिंदाबाद रहेगा. इस देश के अंदर जितने भी संघर्ष हो रहे हैं, उन संघर्षों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेगा और इस देश के अंदर लोकतंत्र की आवाज को मजबूत करते हुए, आजादी की आवाज को मजबूत करते हुए फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन की आवाज को मजबूत करते हुए इस संघर्ष को आगे बढ़ाएगा, संघर्ष करेंगे, जीतेंगे और देश के गद्दारों को परास्त करेंगे, इन्हीं शब्दों के साथ आप तमाम लोगों से एकता की अपील करते हुए अपनी बात को खत्म करूंगा. शुक्रिया. इंकलाब जिंदाबाद. जय भीम, लाल सलाम.

नहीं रहे हनुमनथप्पा

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तीन फरवरी को सियाचिन में आए हिमस्‍खलन की चपेट में आकर एक जेसीओ समेत 10 जवान लापता हो गए थे. इसके अगले दिन सेना ने सभी जवानों की मौत होने की पुष्‍टि की थी. ये सभी जवान 19, मद्रास रेजिमेंट के थे. हालांकि आठ फरवरी को बर्फ में फंसे हनुमनथप्पा को बचाया गया. माइनस 45 डिग्री तापमान में एक एयर पैकेट की मदद से वह खुद को बचाने में सफल हुए थे. प्रधानमंत्री ने उनके निधन पर शोक जताया है. कर्नाटक के 33 वर्षीय हनुमनथप्पा 2002 में मद्रास रेजिमेंट में शामिल हुए थे. अपने 13 साल के करिअर में उन्होंने जम्मू-कश्मीर के अलावा पूर्वोत्तर में अपनी सेवाएं दीं. इस बीच वह एनडीएफबी और उल्फा के खिलाफ लड़े और आतंकवाद विरोधी अभियानों में भी शा‌मिल हुए. पिछले साल अगस्त में उनकी तैनाती सियाचिन में हुई थी. दिसंबर में उन्हें उत्तरी ग्लेशियर सेक्टर में 19,600 फुट पर स्थित एक सैन्य चौकी पर तैनात किया था. कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार दुनिया के इस सबसे दुर्गम स्‍थल में 1984 से अब तक 879 जवान शहीद हो चुके हैं. इनमें से अधिकांश जवानों की मौत युद्ध में नहीं बल्‍कि हिमस्खलन, बर्फीले तूफान और ऑक्सीजन की कमी से हुई है. कश्मीर में सियाचिन ग्लेशियर को लेकर भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद है. विवाद भारतीय सेना की ओर 1984 में चलाए गए ‘ऑपरेशन मेघदूत’ के बाद शुरू हुआ, जिसमें भारतीय सेना का सियाचिन ग्लेशियर पर कब्जा हो गया था. तब से दोनों देशों की सेना य‌हां तैनात हैं. 2003 से यहां युद्ध विराम है.

मोदी की शह पर फिर भाजपा के शाह

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सोमवार, 25 जनवरी को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह पश्चिम बंगाल में एक रैली को संबोधित कर रहे थे. इस दौरान आत्मविश्वास से लबरेज शाह ने ममता सरकार की जमकर बखिया उधेड़ी. उन्होंने कहा कि ममता ने परिवर्तन नहीं सिर्फ पतन किया है. रैली की खासियत यह थी कि शाह दोबारा या कहें कि पूरे तीन साल के लिए पार्टी अध्यक्ष चुने जाने के बाद पहली बार सार्वजनिक रैली को संबोधित कर रहे थे. मजेदार बात यह है कि पार्टी अध्यक्ष चुने जाने को लेकर शाह इतने आश्वस्त थे कि उन्होंने बाकायदा अध्यक्ष के चुनाव वाले दिन अपनी रैली तय कर रखी थी. दरअसल 20 जनवरी को दिल्ली स्थित भाजपा मुख्यालय 11, अशोक रोड पर यह सूचना चस्पा कर दी जाती है कि 24 जनवरी को सुबह 10 से दोपहर एक बजे तक अध्यक्ष पद के लिए नामांकन होगा. एक से डेढ़ बजे तक नाम वापस लेने और जांच करने का काम होगा. और जरूरी हुआ तो 25 जनवरी को चुनाव होगा. लेकिन इसी के साथ अगर अमित शाह के कैलेंडर की जांच करें तो पहले से ही यह तय था कि वह 25 जनवरी को पश्चिम बंगाल के हावड़ा में रैली करेंगे. यानी कि अध्यक्ष का चुनाव सिर्फ औपचारिकता था. सारी बातें पहले से ही तय थीं.

हालांकि बिहार विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की करारी हार के बाद जिस तरह से पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की अगुवाई में मुरली मनोहर जोशी, शांता कुमार और यशवंत सिन्हा का साझा बयान आया था, उससे यह लगता था कि अमित शाह की वापसी में दिक्कतें आएंगी. इसके अलावा बीच-बीच में दूसरे नेताओं व संघ परिवार की नाराजगी की भी खबरें आती रहीं. इस दौरान अमित शाह के नेतृत्व पर भी सवाल उठाए जाते रहे. लेकिन अमित शाह को एक बार फिर से तीन साल के लिए निर्विरोध भाजपा अध्यक्ष के तौर पर चुन लिया गया. वैसे भी भाजपा में निर्विरोध अध्यक्ष चुनने की परंपरा रही है. वह इस बार भी कायम रही.

­­­­­भाजपा मुख्यालय पर उनकी ताजपोशी के वक्त राजनाथ सिंह, वेंकैया नायडू समेत कई केंद्रीय मंत्री मौजूद रहे. इसके अलावा नामांकन और अध्यक्ष के निर्वाचन की घोषणा के वक्त भाजपा शासित लगभग सभी राज्यों के मुख्यमंत्री मौजूद रहे. वहीं इस कार्यक्रम के लिए देश भर से 1500 से ज्यादा प्रदेश व जिला स्तर के नेताओं को दिल्ली बुलाया गया था. हालांकि इस पूरे कार्यक्रम से भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी और लाल कृष्ण आडवाणी नदारद रहे. इसे लेकर भी सवाल उठते रहे. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि यदि अमित शाह को दोबारा भाजपा अध्यक्ष बनाया गया तो इसका कारण उनकी कार्यकुशलता से ज्यादा प्रधानमंत्री मोदी से निकटता, उनकी कार्यशैली को समझने का हुनर और संघ परिवार के पास बेहतर विकल्प का न होना था.

‘संगठन में सबको साथ लेकर चलने की चुनौती अमित शाह के सामने है. भाजपा अध्यक्ष के रूप में उन पर यह आरोप लगता रहा है कि अभी तक वह सबको साथ लेकर चलने में असफल रहे हैं, जो कि पार्टी और सरकार दोनों के लिए खतरनाक है’

अब जब वह अध्यक्ष बन गए हैं तो उनके सामने बहुत सारी चुनौतियां हैं. अमित शाह को इनसे पार पाना होगा. अगले दो साल में 10 राज्यों में चुनाव होने हैं. पश्चिम बंगाल, असम, केरल, पुडुचेरी, तमिलनाडु में 2016 में चुनाव होंगे. उत्तर प्रदेश, पंजाब, गोवा, मणिपुर, उत्तराखंड में 2017 में चुनाव होंगे.

राजनीतिक विश्लेषक अभय दुबे कहते हैं, ‘2016 में अमित शाह को पांच चुनावों का सामना करना पड़ेगा और इन पांचों जगहों पर भाजपा के जीतने की कोई उम्मीद नहीं हैं. केवल असम में भाजपा के लिए कुछ उम्मीदें है. अब अमित शाह के सामने चुनौती यह है कि इन जगहों पर जहां भाजपा की हार तय है, वह अपने वोट बैंक में बढ़ोतरी करें. अगर वोट बैंक नहीं बढ़ा तो अमित शाह के नेतृत्व पर सवाल खड़ा हो जाएगा. इसके अलावा अमित शाह को भाजपा के अंदर क्षेत्रीय नेतृत्व पैदा करना है. हालिया बिहार और दिल्ली चुनाव में हार का यह प्रमुख कारण रहा है. उत्तर प्रदेश में भी अभी उनके पास मुख्यमंत्री पद का योग्य दावेदार नहीं है. केवल कुछ राज्य जैसे राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ ही ऐसे हैं, जहां पर क्षेत्रीय नेतृत्व सही तरीके से विकसित हुआ है. अमित शाह अगर भाजपा को दूरगामी लाभ पहुंचाना चाहते हैं तो उन्हें क्षेत्रीय नेतृत्व विकसित करना होगा. इसके अलावा  शाह के सामने भाजपा के वरिष्ठ नेतृत्व को साथ में लेकर चलने की भी चुनौती है. उनके अध्यक्ष चुने जाने के कार्यक्रम से मार्गदर्शक मंडल गायब रहा. अगर ऐसा करने में नाकामयाब रहे तो जैसे ही वह पहली गलती करेंगे, मार्गदर्शक मंडल का पत्र आ जाएगा, जिससे नेताओं और कार्यकर्ताओं में गलत संदेश जाएगा.’

इसके अलावा अमित शाह के सामने उत्तर प्रदेश सबसे कड़ी चुनौती है. यहां पर उनके ऊपर अध्यक्ष के साथ-साथ मुख्यमंत्री पद के दावेदार को चुनने की चुनौती है. इसी तरह पश्चिम बंगाल में नेता का चुनाव शाह को करना है. वहीं पंजाब और असम जैसे राज्यों में भी पार्टी को मजबूत करना है. विश्लेषकों का कहना है कि अमित शाह के सामने 2016 में होने वाले राज्य विधानसभा चुनावों में बेहतरीन प्रदर्शन करने का दबाव है. अगर वह इसमें असफल रहते हैं तो इसका सीधा परिणाम 2017 में होने वाले विधानसभा चुनावों पर पड़ेगा. जिसे उनके लिए आगामी लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा है. इस बार भी केंद्र की सत्ता पर वह खासकर उत्तर प्रदेश के जरिये ही कब्जा जमाने में सफल रहे हैं.

वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘अगर शाह के नेतृत्व में इस साल भाजपा का प्रदर्शन बेहतर नहीं होता है, तो इसका सीधा असर अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश चुनाव पर पड़ेगा. भाजपा के लिए ये पांच राज्य अब से पहले इतने महत्वपूर्ण कभी नहीं रहे. अगर वह यहां कुछ भी बेहतर करते हैं तो इससे कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ेगा. इसके अलावा संगठन में सबको साथ लेकर चलने की चुनौती अमित शाह के सामने है. भाजपा अध्यक्ष के रूप में उन पर यह आरोप लगता रहा है कि अभी तक वह सबको साथ लेकर चलने में असफल रहे हैं, जो कि पार्टी और सरकार दोनों के लिए खतरनाक है. सीधी बात यह है कि उन्हें बाहरी चुनौतियों से पहले भीतरी चुनौतियों से निपटना है, क्योंकि इसके बगैर बड़ी जीत संभव नहीं है.’

‘अमित शाह का अभी का कार्यकाल बहुत अच्छा नहीं रहा है. उन्होंने केंद्रीकरण को बढ़ावा दिया है. वह भाजपा के दफ्तर में नौकरशाह की तरह बैठे रहते हैं. किसी भी नेता यहां तक कि मंत्रियों और सांसदों को उनसे मिलने में दिक्कतें होती हैं’

कुछ ऐसी ही राय वरिष्ठ पत्रकार और लेखक अजय बोस की भी है. वे कहते हैं, ‘भाजपा में आंतरिक लोकतंत्र रहा है. लेकिन शाह के आने के बाद इसमें कमी आई है. कई वरिष्ठ नेताओं ने इस पर सवाल भी उठाया है. इसे दूर करने की चुनौती अमित शाह के सामने है. इसके अलावा 2016 में पश्चिम बंगाल,  असम, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी में होने वाले विधानसभा चुनाव में जीतने की संभावना तो कम ही है, लेकिन उनकी पार्टी को इन राज्यों में बेहतर प्रदर्शन करना होगा. बंगाल में अगर यह दूसरे नंबर पर आ जाए तो अमित शाह के लिए बड़ी कामयाबी होगी. केरल, तमिलनाडु में कुछ सीटें लाने की चुनौती उनके सामने है. अमित शाह का सबसे बड़ा इम्तिहान असम में होने वाला है. वहां लोग कांग्रेस शासन से ऊबे हुए हैं. ऐसे में भाजपा एक विकल्प हो सकती है. अगर वह इस साल किसी भी एक राज्य में बेहतर प्रदर्शन करेंगे तो इसका फायदा उन्हें 2017 में होने वाले उत्तर प्रदेश  विधानसभा चुनाव में मिलेगा, जो भाजपा अध्यक्ष के रूप में उनकी सबसे बड़ी चुनौती है.’

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वैसे भी सत्तारूढ़ पार्टी का अध्यक्ष होने के नाते अमित शाह को संगठन की मजबूती के साथ सरकार की छवि को भी सुधारना होगा. इसके लिए शाह को मंत्रियों के साथ सांसदों-विधायकों को इस बात के लिए तैयार करना होगा कि वह सरकारी योजनाओं को जनता के बीच ले जाएं. उन्हें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि उनकी पार्टी के सांसद और विधायक बेहतर तरीके से काम करें और जनता से निरंतर संवाद करें. इसके साथ ही उन्हें सरकार को बेहतर और जनोपयोगी काम के लिए प्रेरित करना होगा. उनके भावी कार्यकाल की सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वह एक तरफ सरकार की छवि को बेहतर तरीके से सांसदों, विधायकों और कार्यकर्ताओं के जरिये जनता के बीच ले जाएं. दूसरी तरफ संगठन में सुयोग्य लोगों को लाकर उसे मजबूत करें. जातीय समीकरण के साथ योग्यता का भी ध्यान रखें. उन्हें युवा व साफ छवि वाले  चेहरों को आगे बढ़ाना है.

नीरजा चौधरी कहती हैं, ‘अभी भाजपा के सांसद, विधायक सरकार द्वारा चलाई जा रही योजनाओं में रुचि नहीं ले रहे हैं. वह सक्रिय तरीके से इन योजनाओं के बारे में जनता को नहीं बता रहे हैं. अमित शाह को पार्टी सांसदों और संगठन के वरिष्ठ लोगों को इसके लिए प्रेरित करना होगा. पिछली संप्रग सरकार के दौरान भी ऐसा हुआ था. कांग्रेस सांसदों और बड़े पदाधिकारियों ने सरकार की योजनाओं में रुचि लेना बंद कर दिया था. इसका क्या परिणाम आया, यह हम सबको पता है.’

राजनीति के जानकारों का कहना है कि अमित शाह के पिछले कार्यकाल की सफलता में मूलतः मोदी का हाथ रहा है. चार राज्यों में मिली सफलता में मोदी का बड़ा हाथ रहा है. इस दौरान अमित शाह ने मोदी का जमकर इस्तेमाल भी किया. अब से पहले राज्य विधानसभा चुनावों में किसी भी प्रधानमंत्री ने इतनी रैलियां नहीं कीं. लेकिन आने वाला समय भाजपा और सरकार दोनों के लिए मुश्किल भरा है. इसका असर शाह की दूसरी पारी पर भी दिखेगा. अभी की हालत यह है कि विकास के बजाय देश में बढ़ती असहिष्णुता, अभिव्यक्ति पर खतरा और बहुलतावादी परंपरा नष्ट करने की कोशिश के आरोपों से मोदी सरकार की प्रतिष्ठा और भाजपा की स्वीकार्यता पर चोट लगी है.

वरिष्ठ पत्रकार और लेखक राशिद किदवई कहते हैं, ‘भाजपा अभी मोदी के दमखम पर चुनाव लड़ रही है. इसके चलते अमित शाह का भी ग्राफ ऊपर चल रहा है. दिल्ली और बिहार में पार्टी को मिली हार के बावजूद वोट बैंक सुरक्षित रहा है. लेकिन अब शाह के ऊपर पार्टी का दायरा बढ़ाने की जिम्मेदारी है. अभी पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, पुडुचेरी और असम में चुनाव होने हैं. यहां उन्हें अपना राजनीतिक कौशल दिखाना होगा, क्योंकि इन जगहों पर पार्टी के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है. लेकिन अगर पार्टी का प्रदर्शन बेहतर नहीं होगा, तो शाह के नेतृत्व पर सवाल उठना शुरू हो जाएगा.’

गौरतलब है कि लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के प्रभारी रहे अमित शाह को 80 में से 73 सीटें जिताने के लिए बड़ा इनाम दिया गया था. राजनाथ सिंह ने मोदी सरकार में शामिल होने के बाद अध्यक्ष पद छोड़ दिया था. तब 9 जुलाई, 2014 को पहली बार शाह ने भाजपा अध्यक्ष की जिम्मेदारी संभाली थी. इसके बाद से भाजपा ने छह राज्यों में चुनाव लड़े. चार में उसकी सरकार बनी. दो में वह चुनाव हार गई.

उनके पहले कार्यकाल के बारे में वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय कहते हैं, ‘अमित शाह का जो पहला कार्यकाल है वह बड़ी उम्मीदों का रहा है. उम्मीद मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि भाजपा की केंद्र में सरकार बन गई थी. एक सत्तारूढ़ पार्टी के वे अध्यक्ष बने. 11, अशोक रोड पर सरकार बनने के बाद बहुत भीड़ होती थी. एक व्यवस्था अमित शाह ने ये बनाई थी कि मंत्री पार्टी मुख्यालय में बैठें और कार्यकर्ताओं की परेशानी को सुनें. शुरू-शुरू में मंत्री आकर सुनते भी थे. आज भी आते हैं, लेकिन लोगों का काम नहीं हुआ. इसलिए अमित शाह के बारे में लोगों में शिकायत फैलने लगी. पहली कि अमित शाह लोगों और कार्यकताओं से मिलते नहीं हैं. दूसरी शिकायत मंत्री पार्टी मुख्यालय में बैठते तो हैं, लेकिन काम नहीं होता है. तो एक तरह से निराशा धीरे-धीरे फैली और बिहार व दिल्ली विधानसभा चुनाव में जो परिणाम आया उसका कारण यह भी रहा. हर पार्टी के कार्यकताओं को यह उम्मीद होती है कि जब उनकी सरकार आए तो उनका जायज काम आसानी से हो जाए. जब यह नहीं होता है तो इसका दोष अध्यक्ष पर जाता है और इसके जरिये सरकार पर जाता है.’

भाजपा अध्यक्ष के रूप में अमित शाह के कामकाज पर सवाल दूसरे विश्लेषक भी उठाते हैं. अभय दुबे कहते हैं, ‘अमित शाह के कार्यकाल के दौरान जिन राज्यों में भाजपा अपनी सरकार बना पाई है, इन राज्यों में हरियाणा को छोड़कर वोट बैंक में लोकसभा चुनाव के मुकाबले गिरावट आई है. इसके अलावा वहां पर भाजपा को विपक्ष के बिखराव का फायदा मिला. झारखंड, महाराष्ट्र और जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस के गठबंधन टूटने से भाजपा जीतने में सफल हुई है. इसके अलावा दिल्ली और बिहार ने अमित शाह के साथ-साथ मोदी की साख को भी बहुत नुकसान पहुंचाया है. कुल मिलाकर कहा जाए तो अमित शाह का अभी का कार्यकाल बहुत अच्छा नहीं रहा है. उन्होंने केंद्रीकरण को बढ़ावा दिया है. उनसे मिलने में लोगों को दिक्कतें होती हैं. वह भाजपा के दफ्तर में नौकरशाह की तरह बैठे रहते हैं. किसी भी नेता यहां तक कि मंत्रियों और सांसदों को उनसे मिलने में दिक्कतें होती हैं. वह सांगठनिक सत्ता के बड़े केंद्र हैं, लेकिन अगर ऐसा नेता लोगों को साथ लेकर नहीं चलता तो असंतोष फैल जाता है.’  हालांकि ऐसा सभी का कहना नहीं है. पार्टी कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों की सोच इससे भिन्न है.’

लोकसभा चुनाव के दौरान शाह के साथ काम कर चुके और अभी उत्तर प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष लक्ष्मीकांत वाजपेयी कहते हैं, ‘अमित शाह के साथ मेरा काम करने का अनुभव अविस्मरणीय रहा है. लोकसभा चुनाव में वे उत्तर प्रदेश के प्रभारी थे. तत्काल निर्णय लेना और उसे तुरंत पूरा करना उनकी सबसे बड़ी खूबी है. इसी का असर रहा कि पार्टी ने महाराष्ट्र, झारखंड, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में बेहतर प्रदर्शन किया. आगामी उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव हम अमित शाह के नेतृत्व में मजबूती से लड़ेंगे. जिस प्रकार की आवश्यकता उस प्रकार का व्यवहार उनकी सबसे बड़ी खासियत है. यदि हम अनुशासन की दृष्टि से बात करें तो सख्त व्यवहार और अगर साथ में बैठकर खाना खा रहे हैं तो यह पता ही नहीं चलेगा कि इस व्यक्ति ने हमें अभी इतनी बुरी तरह से डांटा था.’

भाजपा कार्यकर्ता अरुण कुमार कहते हैं, ‘अमित शाह कम बोलते हैं इसलिए लोगों को गलतफहमी हो जाती है. वैसे भी जब भी हिंदी बेल्ट के बाहर से पार्टी का अध्यक्ष चुना जाता है, तो लोगों को संवाद बनाने में थोड़ी परेशानी होती है. लेकिन वह भी समय के साथ दूर होती है. नितिन गडकरी के साथ भी शुरुआत में ऐसा हुआ था, लेकिन बाद में सब ठीक हो गया. अमित शाह की सबसे बड़ी खूबी है कि वह पार्टी की हर छोटी-बड़ी गतिविधि व कार्यक्रम पर पैनी नजर रखते हैं और कार्यकर्ताओं को खूब छूट देते हैं. हमेशा मनोबल बढ़ाते रहते हैं.’ कुछ ऐसा ही मानना उत्तर प्रदेश भाजपा के मीडिया प्रभारी मनीष शुक्ला का है. वे कहते हैं, ‘अमित शाह चुनावी राजनीति के माहिर आदमी हैं. जहां वह अनुशासन में कड़े हैं, वहीं कार्यकर्ताओं के प्रति बहुत विनम्र हैं. उनके नेतृत्व में भाजपा कार्यकर्ताओं के लिहाज से दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बनी है. कार्यकर्ताओं के लिए उनसे मिलना बहुत आसान है.’ बहरहाल अमित शाह की टीम पर हमेशा सवाल खड़े होते हैं.

जानकारों का कहना है कि अमित शाह का संगठन अब तक का सबसे कमजोर संगठन रहा है. एक ऐसे समय में जब पार्टी सत्ता में है तो संगठन को मजबूत किया जाना चाहिए था, लेकिन शाह इसमें नाकाम रहे. अभी उनके पदाधिकारी सरकार के कार्यक्रमों को जनता के बीच ले जाने में पूरी तरह से असफल रहे हैं. राम बहादुर राय कहते हैं, ‘जब वे अध्यक्ष बने तो उन्होंने ऐसी टीम बनाई जिसका कोई चेहरा ही नहीं है और कहना होगा कि वह ऐसे लोगों की टीम थी, जो दरअसल गणेश परिक्रमा के लिए जाने जाते हैं. मतलब कि वह जनता के बीच में नहीं सत्ता के इर्द-गिर्द परिक्रमा करने वाले हैं. इससे भी भाजपा के कार्यकर्ता को निराशा हुई. अगर आप राजनाथ की टीम और गडकरी की टीम को देखें तो ऐसा बिल्कुल नहीं था. नितिन गडकरी में एक दृष्टि थी. उनका मानना था कि जब वे अध्यक्ष पद से हटें तो ऐसे नए लोग तैयार रहें जो यह जिम्मेदारी उठा सकें. उन्होंने धर्मेंद्र प्रधान, भूपेंद्र यादव, जेपी नड्डा जैसे नेताओं को आगे बढ़ाया. उस दृष्टि से देखें तो अमित शाह की टीम बहुत कमजोर रही.’

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अमित शाह की टीम में जातीय समीकरण भी ठीक नहीं रहा है. राजनीतिक विश्लेषक चंद्रभान प्रसाद कहते हैं, ‘यदि हम पिछड़े और दलित लोगों के संदर्भ में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के कार्यकाल का आकलन करें तो कुछ बहुत बेहतर नहीं रहा है. कोई भी बड़ा दलित नेता अभी अमित शाह की टीम में नहीं है. वैसे भी दलित भाजपा का कभी कोर वोट बैंक नहीं रहा है. लेकिन राष्ट्रीय पार्टी के नाते भाजपा को दलित नेतृत्व को आगे बढ़ाना चाहिए. अब उन्हें नया कार्यकाल मिला है तो हम उम्मीद करते हैं कि वह नए कार्यकाल में दलित नेतृत्व का ख्याल रखेंगे. एक नया दलित नेतृत्व भाजपा में उभरकर सामने आएगा.’ इस बात से इत्तेफाक अजय बोस भी रखते हैं. वे कहते हैं, ‘दलित प्रतिनिधित्व का मामला भाजपा में हमेशा कमजोर रहा है. अमित शाह इसमें बदलाव नहीं ला पाए हैं. इस दौरान दलितों और पिछड़ों की बात तो बहुत हुई, लेकिन न तो कोई नया दलित नेतृत्व सामने आया और न ही जमीनी स्तर पर दलितों को जोड़ने में पार्टी सफल रही है.’

अगर हम अमित शाह के अध्यक्षीय कार्यकाल में किए गए कामों के बारे में देखें तो उनकी वेबसाइट पर कहा गया है कि उन्होंने अपने 18 महीने के कार्यकाल में पार्टी के विभिन्न कार्यक्रमों के अंतर्गत प्रतिदिन 495 किमी के औसत से कुल 2,65,600 किमी की यात्रा की. चुनाव के अतिरिक्त किसी और प्रयोजन के लिए पार्टी के पदाधिकारियों द्वारा निजी विमान के उपयोग पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध लगा दिया. इसके अलावा सामान्य परिस्थितियों में प्रवास के दौरान महंगे होटलों में ठहरने पर रोक लगाकर सरकारी गेस्ट हाउस में रुकने के लिए पार्टी के पदाधिकारियों को प्रोत्साहित किया. वह स्वयं भी इस नियम का पालन करते हैं. उनके नेतृत्व में पार्टी ने सदस्यता के पूर्व के सारे कीर्तिमानों को तोड़ते हुए सदस्यों की संख्या 2,47,32,439 से पांच गुना बढ़ाकर 11,08,88,547 तक पहुंचा दी. हालांकि सदस्य संख्या बढ़ाने के तरीके पर सवाल भी उठते रहे हैं. पार्टी ने मिस कॉल और एसएमएस के जरिये भी सदस्यता अभियान चलाया है, जिससे बड़ी संख्या में फर्जी सदस्यता की खबरें आईं.

‘अमित शाह कम बोलते हैं इसलिए लोगों को गलतफहमी हो जाती है. वैसे भी जब भी हिंदी बेल्ट के बाहर से पार्टी का अध्यक्ष चुना जाता है, तो लोगों को संवाद बनाने में थोड़ी परेशानी होती है. लेकिन वह भी समय के साथ दूर हो जाती है’

राम बहादुर राय कहते हैं, ‘हम भाजपा द्वारा बताई जा रही सदस्य संख्या पर भरोसा तो नहीं कर सकते हैं, लेकिन इतना जरूर है कि शाह ने इस दिशा में बहुत मेहनत की है. अमित शाह की एक ताकत है. संगठन का उनको अनुभव है. उनका स्वभाव भी परिश्रमी है. अब बिहार चुनाव का ही उदाहरण लीजिए. दूसरे नेता जो हेलीकाॅप्टर से घूमते थे. बड़े होटलों में रुकते थे. चुनाव प्रचार कर वापस फिर वहीं आ जाते थे. उससे भिन्न अमित शाह जहां जाते थे, वहीं कार्यकर्ताओं के घर या साधारण गेस्ट हाउस में रुकते थे. उन्होंने भाजपा की पुरानी परंपरा को जिंदा रखा.’

वहीं राजनीतिक विश्लेषक आर राजगोपालन कहते हैं, ‘अमित शाह ने भाजपा अध्यक्ष के रूप में बहुत ही बेहतरीन काम किया है. केवल बिहार में ही उन्हें असफलता हाथ लगी. लेकिन उनका नया कार्यकाल उम्मीदों भरा है. असम, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश उनके सामने चुनौती हैं लेकिन अमित शाह इससे बढ़िया तरीके से निपटने में सक्षम हैं. सबसे बड़ी बात कि संघ का समर्थन उनके पास है. इसके अलावा मार्गदर्शक मंडल भी अब उनके पक्ष में है. आडवाणी का हालिया बयान इसकी पुष्टि करता है. वैसे भी अमित शाह एक कुशल राजनीतिज्ञ हैं. इस कार्यकाल में वह उन सारी कमियों को दूर करेंगे, जिसका आरोप उनके ऊपर लगता रहा है.’

भाजपा अध्यक्ष के रूप में अमित शाह की तुलना हमेशा उनके पूर्ववर्ती लोगों से की जाती है. लंबे समय से भाजपा से जुड़े अरुण कुमार पिछले दो अध्यक्षों से तुलना करते हुए कहते हैं, ‘एक कार्यकर्ता के रूप में यदि मैं कहूं तो पूर्व भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी का जनसंवाद बहुत बेहतर रहा है. यह बात नितिन गडकरी की किताब के विमोचन के दौरान अमित शाह ने स्वीकार भी की है. नितिन जी के कार्यकाल में पार्टी कार्यालय में काम करने वाले कार्यकर्ताओं की तनख्वाह बढ़ाई गई. भाजपा के कार्यालयों को बेहतर बनाया गया. वह पार्टी कार्यकर्ताओं का बहुत ख्याल रखते थे. वहीं राजनाथ जी की अधिकतम सक्रियता गरीबों और किसानों के बीच रही. वह जातिगत भावना से ऊपर उठकर काम करते थे. वो जहां जाते थे वहां ग्रामीण लोगों की भीड़ लग जाती थी. लोग आसानी से उनके साथ मिल जाते थे. जब से अमित शाह का नेतृत्व भाजपा में आया है, तब से पार्टी की कार्यप्रणाली में बहुत बदलाव आया है. उन्होंने बड़े पैमाने पर मतदाताओं और कार्यकर्ताओं का डाटाबेस तैयार कराया है. करीब दस करोड़ लोगों का डाटा तैयार किया गया है. महासम्पर्क अभियान के जरिये वह जमीनी स्तर पर लोगों को जोड़ने में कामयाब रहे. इसका फायदा हमें आगामी चुनावों में मिलेगा’

जानकार कहते हैं कि अमित शाह को दोबारा भाजपा अध्यक्ष बनाए जाने के फैसले पर इसके पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने मुहर लगाई. भाजपा का अध्यक्ष अमित शाह को दोबारा बनाना चाहिए या नहीं इस पर जलगांव में 6 से 8 जनवरी तक संघ परिवार के प्रमुख स्वयंसेवक ही चिंतन करते हैं. चिंतन के बाद 17 जनवरी को सह सरकार्यवाह कृष्ण गोपाल प्रधानमंत्री मोदी को जानकारी देते हैं. उनकी राय लेते हैं और प्रधानमंत्री की पूर्ण सहमति या इच्छा मानकर 18 जनवरी को कृष्ण गोपाल भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से मिलते हैं, उन्हें खुशखबरी देते हैं.

अब संघ के सामने अमित शाह से बेहतर कोई विकल्प क्यों नहीं था इस सवाल पर राम बहादुर राय कहते हैं, ‘अमित शाह की सबसे बड़ी ताकत यह है कि उनके अलावा कोई और नरेंद्र मोदी सरकार के साथ तालमेल बिठाकर चलने में सक्षम नहीं होगा. इसी वजह से उन्हें नया कार्यकाल मिला है. संघ ने तय कर लिया है कि नरेंद्र मोदी सरकार से उसको किसी तरह की शिकायत नहीं है. ऐसी परिस्थिति में भाजपा का अध्यक्ष कोई ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो संघ, पार्टी और प्रधानमंत्री के बीच किसी तरह का भ्रम पैदा करने का अवसर न दे. इस पैमाने के प्रति अमित शाह पर संघ का विश्वास है. दो-तीन महीने पहले से यह बात चल रही थी कि अमित शाह को हटाया जाएगा और दूसरा कोई अध्यक्ष बनेगा. लेकिन संघ ने यह पाया कि अमित शाह सबसे बेहतर हैं. वह ठीक समन्वय के माध्यम हो सकते हैं. हमारे यहां यह सवाल हमेशा से सत्तारूढ़ पार्टी के साथ बना रहा है कि अध्यक्ष कौन हो. इसका सबसे अच्छा विकल्प यह है कि कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसे प्रधानमंत्री के साथ-साथ पार्टी का भी विश्वास हासिल हो. आप देखेंगे कि कांग्रेस में आजादी के साथ ही यह समस्या आ गई. कृपलानी उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष थे. नेहरू तब कृपलानी से बिना पूछे काम किया करते थे. कृपलानी ने इसे मुद्दा बनाकर इस्तीफा दे दिया. इसके बाद पी. सीतारमैया अध्यक्ष बने जो नेहरू के विश्वासपात्र थे. इसी तरह वाजपेयी जब प्रधानमंत्री बने तो कुशाभाऊ ठाकरे अध्यक्ष बने, लेकिन वह कुछ ऐसे सवाल उठाते रहे जो सरकार के लिए परेशानी का कारण बनते थे. अंततः कुशाभाऊ ठाकरे को इस्तीफा देना पड़ा. फिर जे. कृष्णामूर्ति अध्यक्ष बने. यह पहले से ही चलता रहा है. इस समय अमित शाह दोनों के विश्वासपात्र हैं. यही इनकी सबसे बड़ी ताकत है.’

‘मोदी के प्रति आलोचना का भाव रखते हुए भी संघ नुकसान नहीं पहुंचाना चाहता है. कहा जाए तो जैसे गलत शादी हो जाती है तो पूरा परिवार मिलकर उसे ढोता है. वही हालत भाजपा, संघ, मोदी और शाह की है. सारे लोग एक गलत शादी को सही करने में लगे हैं’

हालांकि अभय दुबे इससे इत्तेफाक नहीं रखते. वह कहते हैं, ‘संघ मोदी के प्रति आलोचना का भाव रखते हुए भी उन्हें नुकसान नहीं पहुंचाना चाहता है. मोदी की छवि गिरने का मतलब पूरी सरकार की छवि खराब होगी. कुल मिलाकर कहा जाए तो जैसे गलत शादी हो जाती है तो पूरा परिवार मिलकर उसे ढोता है, वही हालत भाजपा, संघ, मोदी और शाह की है. सारे लोग एक गलत शादी को सही करने में लगे हैं.’

वैसे अमित शाह के फिर से भाजपा अध्यक्ष बनने से साफ हो गया है कि नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी ही पार्टी को 2019 लोकसभा में नेतृत्व देगी. संघ का समर्थन हासिल करने में उनके व्यक्तित्व ने एक बड़ी भूमिका अदा की है. वे बहुत कम बोलते हैं, पार्टी की विचारधारा के प्रति समर्पित हैं, पार्टी-सरकार के बीच सही संतुलन रखते हैं. शाह को संघ के बड़े नेताओं का पूरा समर्थन हासिल है. साल 2014 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद कई विधानसभा चुनावों में शाह ने संघ कार्यकर्ताओं का बढ़िया इस्तेमाल किया. पार्टी और संघ के जमीनी कार्यकर्ताओं से उनका सीधा संपर्क है. अभी अमित शाह के नेतृत्व के चलते मोदी के पास अपनी सरकार का एजेंडा लागू करने के लिए पूरी आजादी होती है. अब यह आगे भी रहेगी. वैसे भी देखा जाए तो पार्टी और सरकार के बीच वर्तमान में तनाव पूरी तरह से गायब है.

राम बहादुर राय कहते हैं, ‘भाजपा आडवाणी के अध्यक्ष पद से हटने के बाद से ही संक्रमण के दौर से गुजर रही है. वह संक्रमण अमित शाह के अध्यक्षीय कार्यकाल में खत्म हो जाएगा. यानी एक ऐसा अध्यक्ष भाजपा को मिल रहा है जो अपने ढंग से पार्टी को पुनर्गठित करेगा. जैसा कि आडवाणी ने लंबे समय तक किया था. अमित शाह की समझ और निष्ठा में किसी को संदेह नहीं है. उन्हें असफलता तभी हाथ लग सकती है अगर वह नई पीढ़ी की आकांक्षाओं को पूरा करने में असफल रहते हैं. ऐसे में पार्टी अपना जनाधार खो देगी.’

‘गंगा को लेकर रोमांटिक नजरिया छोड़ना होगा, अगर उसे बुखार है तो ब्यूटी पार्लर ले जाने की जरूरत नहीं’

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गंगा को लेकर हर कुछ दिन पर कोई न कोई बात होती रहती है. कुछ दिनों पहले केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने गंगा में जल परिवहन को फिर से शुरू करने के लिए योजनाओं का एक खाका पेश करते हुए संसद में बताया था कि उन्होंने पूरी तैयारी कर ली है, देखिएगा गंगा में कैसे सरपट जहाज दौड़ाएंगे. उसके कुछ दिनों पहले केंद्रीय मंत्री उमा भारती ने कहा था कि वे संकल्प ले चुकी हैं कि गंगा को साफ करके ही रहेंगी और नदियों को जोड़कर भी दिखाएंगी. इन दोनों केंद्रीय मंत्रियों के बीच में गंगा का एक बड़ा सवाल उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से भी टकराया, जब वे कानपुर गए तो किसी ने गंगा में बढ़ते प्रदूषण का सवाल उठा दिया. अखिलेश यादव गंगा के पचड़े में नहीं पड़े, सवाल को मुस्कुराकर टाल गए. अखिलेश यादव तो गंगा प्रदूषण के सवाल को हंसकर टाल गए, लेकिन बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पिछले दिनों नदियों पर एक अहम घोषणा की. उन्होंने तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद ऐलान किया है कि वे बिहार में रिवर स्टडी एंड रिसर्च सेंटर की शुरुआत करेंगे.

आजादी के बाद से ही गंगा पर ऐसी ही बातें होती रही हैं. 1985 से, जब देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने गंगा एक्शन प्लान जैसी महत्वाकांक्षी योजना की शुरुआत की, तब से तो खैर गंगा प्रयोगशाला ही बन गई. तमाम तरह के प्रयोग करने की प्रयोगशाला, तमाम तरह की खयाली योजनाएं बनाने की प्रयोगशाला और गंगा के बहाने अपनी-अपनी गंगा बहाने के लिए तमाम योजनाओं की घोषणा करने-करवाने की प्रयोगशाला. लेकिन गंगा दिन पर दिन बद से बदतर होती जा रही है. अब गंगा पर एक बार फिर चर्चाएं गरम हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी महत्वाकांक्षी योजना ‘नमामि गंगे’ को मूर्त रूप देने की शुरुआत की है. प्रधानमंत्री ने कई विभागों को गंगा के साथ जोड़ने की पहल की है. मानव संसाधन, जहाजरानी, पर्यटन, जलसंसाधन और भी कई मंत्रालयों को इस आशय का आदेश मिला है. मानव संसाधन मंत्रालय को आदेश मिला है कि वह नदियों को विशेषकर गंगा को ध्यान में रखकर किसी बेहतर संस्थान की शुरुआत करे, जहां नदियों का अध्ययन-अध्यापन हो सके. स्कूलों और कॉलेजों में नदियों के बारे में पढ़ाई भी हो.
संभव है, यह सब होगा, क्योंकि सीधे पीएम का आदेश है, लेकिन सवाल यह है कि इसका नतीजा क्या निकलेगा? क्योंकि इतनी ही सरगर्मी राजीव गांधी ने भी अपने जमाने में दिखाई थी. वे 1984 में प्रधानमंत्री बने थे और उनकी भी सबसे महत्वाकांक्षी योजना गंगा को बचाने की थी. उस योजना के शुरू होकर खत्म हुए 30 साल से अधिक हो गए लेकिन गंगा साफ नहीं हो सकी. सीवर ट्रीटमेंट प्लांट ने बनारस के दीनापुर गांव जैसे कई गांवों को जन्म जरूर दिया, जहां कई किस्म की बीमारियों वाले लोग निवास करते हैं. कानपुर जैसे शहर के आसपास मानक से डेढ़ हजार गुणा क्लोरोफॉर्म की मात्रा गंगाजल में जरूर बढ़ी. गाजीपुर से लेकर बक्सर तक आर्सेनिक पट्टी का निर्माण जरूर हुआ. पटना में, गंगा कई किलोमीटर दूर जरूर चली गई और झारखंड के राजमहल से लेकर फरक्का तक कई गांव साल-दर-साल गंगा में विलीन होते गए. इस बीच पूर्व की मनमोहन सिंह की सरकार को लगा कि वे बीच में गंगा पर कुछ भी नया करने से चूक रहे हैं तो उन्होंने 2008 में गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा देकर खुद के कार्यकाल को भी गंगासेवी कार्यकाल के रूप में चर्चा दिला दी.
एक बार फिर ‘नमामि गंगे’ पर जोर-शोर से होती चर्चा को केंद्र में रखकर और गंगा के मौजूदा हालात पर हमने यूके चौधरी से एक लंबी बात की. प्रो. चौधरी आईआईटी मुंबई से रिवर इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद करीब तीन दशक से अधिक समय तक आईआईटी बीएचयू में रिवर इंजीनियरिंग के प्रोफेसर और सिविल इंजीनियरिंग विभाग के अध्यक्ष रहे हैं. उन्होंने बीएचयू में गंगा रिसर्च सेंटर की स्थापना भी की थी. तीन दशक पहले ‘गंगा’ नाम से पत्रिका निकालकर लोगों को गंगा के हालात भी बताते रहे हैं. ‘गंगा और मानव शरीर’ नाम से उनकी चर्चित पुस्तक है, जिसमें गंगा के मार्फोलॉजिकल और एनोटॉमिकल पक्ष को उन्होंने सहज भाषा में विस्तार से समझाया है. इनके द्वारा प्रतिपादित ‘फाइव थ्योरी ऑफ रिवर’ दुनिया भर में चर्चित रही है. फिलहाल वे बनारस में रहते हैं और महामना इंस्टीट्यूट ऑफ रिवर टेक्नोलाॅजी एंड मैनेजमेंट नामक संस्थान की स्थापना कर गंगा के अध्ययन में लगे हैं. प्रसिद्ध नदीविज्ञानी प्रो. यूके चौधरी से निराला की बातचीत

‘नमामि गंगे’ का क्या हाल है? इस अभियान को शुरू हुए एक साल से ज्यादा हो गया, क्या असर दिख रहा है?
अभी तक ग्राउंड पर तो कुछ भी नहीं दिख रहा. जैसे सभी जगह शोर है, वैसे ही बनारस में भी शोर है. जैसे आप सुन रहे हैं, सभी सुन रहे हैं, वैसे मैं भी सुन रहा हूं लेकिन उम्मीद है कि मोदी जी कुछ करेंगे. वे महाशक्तिशाली और संकल्प वाले व्यक्ति हैं. वे बार-बार कहते भी रहे हैं कि वे खुद नहीं आए बनारस, मां गंगे ने उन्हें बुलाया था तो वे आए हैं.

‘निर्मल गंगा’, ‘अविरल गंगा’ के बाद नमामि गंगे प्रोजेक्ट शुरू हुआ. इसका कॉन्सेप्ट तो ठीक है न?
अभी क्या कहा जाए. गंगा पर कई प्रोजेक्ट देखे जा चुके हैं. अब इसका क्या होता है, यह अभी कहना ठीक नहीं. गंगा की मौलिकता ही उसकी विशिष्टता है, उसकी ताकत है. उसके एनाटमी-मार्फोलॉजी को समझना होगा. गंगा की मूल समस्याओं या चुनौतियों को समझने की कोशिश इसमें भी नहीं की जा रही. नमामि गंगे नाम हो या कुछ और, असल बात है कि हमें गंगा पर अतीत में किए गए तमाम प्रयोगों से सबक लेना होगा. भीमगौड़ा-नरौड़ा आदि बनाकर देख चुके हैं. हमने गंगा के उद्गम से 44 किलोमीटर दूरी पर टिहरी बनाया था. उसके लिए रिजर्वायर 44 किलोमीटर रखा. आज कितनी बिजली ले रहे हैं उससे? मात्र 750 मेगावाॅट. चीन ने भी उसी समय टीजीसी बनाया था. 660 किलोमीटर का रिजर्वायर रखा. वह 18 हजार मेगावाॅट बिजली का उत्पादन कर रहा है. नया कुछ करने के पहले हम गंगा पर अतीत में किए गए काम की समीक्षा कर भविष्य की योजना बनाएं तो गंगा का भला होगा, वरना नाम बदलने को और दाम वसूलने को तो जो भी आता है, तरह-तरह का प्रयोग करता ही रहता है.

‘बनारस में पंचगंगा, दशाश्वमेध, हरिश्चंद्र घाट आदि पर अंदर ही अंदर तेजी से कटाव हो रहा है. घाट के नीचे खोखलापन बढ़ रहा है. आप नोट कर लीजिए, आने वाले दिनों में कभी भी ये घाट गंगा में समा जाएंगे’

गंगा को लेकर तमाम नई योजनाओं की शुरुआत में दो ही केंद्र होते हैं, या तो उत्तराखंड का हिमालयी इलाका या बनारस. राजीव गांधी ने भी बनारस से ही गंगा एक्शन प्लान का शंखनाद किया था, मोदी ने भी नमामि गंगे की शुरुआत यहीं से की. सुना है कि बनारस में घाट वगैरह साफ रखे जा रहे हैं.
अजीब बात करते हैं. गंगा की समस्या घाटों की गंदगी है क्या? बनारस की बात कर रहे हैं, यहां तो अभी भी 17-18 नाले गंगा में सीधे गिर रहे हैं. घाटों की सफाई से क्या होगा? उसका एक महत्व हो सकता है लेकिन यह समस्या का समाधान नहीं. बनारस में अगर कोई गंगा की बात करता है तो उसे थोड़ा सचेत हो जाना होगा, क्योंकि जिन घाटों को चकाचक किया जा रहा है, वही खतरनाक मुहाने पर पहुंच चुके हैं. अंदर ही अंदर खंडहर हो चुके हैं और किसी भी दिन ध्वस्त हो जाएंगे. तब घाटों की सफाई का क्या होगा. बनारस में गंगा की पहचान घाट ही हैं और घाट किसी दिन ध्वस्त हो जाएंगे, बनारस की पहचान गंगा में विलीन हो जाएगी.

यह कैसे? वजह क्या होगी?
यह कछुओं के नाम पर हुए खेल की वजह से होगा. बनारस में डेढ़ दो दशक पहले कछुआ सेंचुरी बनाया गया. अब ऐसी बेवकूफी कि बनारस शहर के सामने कछुआ सेंचुरी बना लिया गया. ऐसा होता है क्या? कछुआ सेंचुरी कहीं वीराने में बनाना था. सेंचुरी बनाया गया था तो 3000 कछुए छोड़े गए थे. अब तक तो 25-30 हजार कछुए हो गए होते! कहीं किसी को कछुए दिखते हैं क्या? मुझे तो कोई नहीं मिला जो बताए कि उसने कछुए का झुंड देखा कभी. कछुए वहां इंतजार नहीं कर रहे और कछुआ सेंचुरी वाले भी सूचना मांगने पर यह बताने की स्थिति में नहीं हैं कि सेंचुरी ने कितने कछुओं का संरक्षण या संवर्द्धन किया? कछुओं का तो नहीं पता लेकिन उसके नाम पर पिछले डेढ़-दो दशक से बनारस शहर के ठीक दूसरी ओर बालू का ढेर लगता जा रहा है. मालवीय पुल के पास तक बालू का ढेर बढ़ गया है. इसमें किसी वैज्ञानिक समझ की जरूरत नहीं. सामान्य आदमी भी जानता है कि एक ओर अगर बालू का अनवरत जमाव होगा तो दूसरी ओर पानी की गति तेज होगी, वह कटाव करेगा, क्योंकि दूसरी ओर धार को बढ़ने का मौका नहीं मिल रहा. उसका असर बनारस पर तेजी से पड़ रहा है. बनारस में पंचगंगा घाट, दशाश्वमेध घाट, हरिश्चंद्र घाट आदि के क्षेत्र में अंदर ही अंदर तेजी से कटाव हो रहा है. अंदर ही अंदर ग्राउंड वाटर का मिलान गंगा में होने लगा है. हम लोगों ने इन घाटों का अध्ययन किया है. वैज्ञानिक तरीके से देखा-समझा है. अभी इन घाटों पर कटाव के कारण दरारें दिख रही हैं लेकिन ये दरारें ऊपर से दिखने वाली हैं. अंदर ही अंदर घाट के नीचे खोखलापन बढ़ रहा है. गंगा का वेग बनारस शहर की ओर बढ़ता रहेगा और फिर आप नोट कर लीजिए, आने वाले दिनों में कब ये घाट गंगा में समा जाएंगे, कह नहीं सकते. रिवर इंजीनियर होने और इस क्षेत्र में चार दशक तक अध्ययन-अध्यापन के आधार पर मैं कह रहा हूं और इसके समर्थन में तथ्य भी बता रहे हैं कि 2025 तक या उससे पहले कभी भी बनारस में एक बड़ा हादसा होने वाला है.

आपने इस बाबत सरकार को आगाह किया है?
कितना आगाह किया जाए! कितना अनुरोध किया जाए. पत्र पर पत्र लिखे जा चुके हैं. पिछले डेढ़ साल में ही दस से अधिक पत्र लिख चुका हूं कि गंगा पर कोई योजना बनाने से पहले इन बिंदुओं पर गौर करें. आप पूछ रहे हैं कि बनारस के ध्वस्त होने को लेकर आगाह किया या नहीं. यह आगाह करने वाली बात है कि जाकर देख लेने वाली बात है? बंगाल में फरक्का के पास बालू के जमाव से क्या हुआ है, क्या हो रहा है, इसे बताने के लिए न तो विशेषज्ञ की जरूरत है, न रिसर्च टीम की. गांव के गांव गंगा में समा चुके हैं या समा रहे हैं. कटाव जारी है. बनारस में भी वही होगा.

UK-Chaudhry

मोदी से क्या अपेक्षा करते हैं? किस तरह से नमामि गंगे की योजना चलाई जाए?
मेरी कोई अपेक्षा नहीं. आप पूछ रहे हैं तो सिर्फ बता रहा हूं, वह भी अपने इतने वर्षों के अनुभव के आधार पर. बस इतना ही कह रहा हूं कि गंगा को लेकर रोमांटिक नजरिये का त्याग करना होगा. गंगा को अगर बुखार की दवाई चाहिए तो उसे ब्यूटी पार्लर ले जाकर सजाने-संवारने की जरूरत नहीं. प्रधानमंत्री जी से यही कहूंगा कि उनमें इच्छाशक्ति है, वे संकल्प वाले व्यक्ति हैं, उन्हें गंगा को लेकर काम करना है तो सबसे पहले देश भर से हर क्षेत्र के विशेषज्ञों को बुलाना चाहिए. जो इंजीनियर हैं, समाजविज्ञानी हैं, अर्थशास्त्री हैं, गंगा सेवी हैं, संत-महात्मा हैं, जीवविज्ञानी हैं… कहने का मतलब हर क्षेत्र से देश के कोने-कोने से लोगों को बुलाइए. सबकी राय लीजिए. गंगा को रोमांटिक नजरिये से ट्रीट मत कीजिए. बुखार की दवाई की जरूरत है तो ब्यूटी पार्लर ले जाकर सजाने-संवारने वाली जो प्रक्रिया है, उसे बंद कीजिए लेकिन दुर्भाग्य है कि गंगा को सिर्फ एक नदी और पानी की बहती हुई धार मानकर इसे उसी तरह से देखने की कोशिश की जाती है. गंगा सिर्फ पानी की बहती हुई धार नहीं है. यह दुनिया की सबसे खास और विशिष्ट नदी है, नदी घाटी है. गंगा का दायरा सिर्फ वही नहीं है, जहां से और जिन इलाकों से यह गुजरती है. यह देश की धमनी है. गंगा गुजरती तो सिर्फ पांच राज्यों से है लेकिन एक दर्जन से अधिक राज्यों के भूजल से लेकर पेयजल तक का गणित गंगा पर निर्भर करता है. भारत की एक तिहाई आबादी सीधे तौर पर गंगा से प्रभावित होती है और गंगा भी एक तिहाई इलाके की गतिविधियों से प्रभावित होती है लेकिन हो कुछ और रहा है. अब आईआईटी वालों को जिम्मा दे दिया गया है कि आप ही बता दो कि गंगा का क्या करना है. आईआईटी वालों को फीस मिली होगी, उन्होंने क्षेत्र का गहराई से अध्ययन किए बिना, गंगा के एनाटमी-मार्फोलॉजी का अध्ययन किए बिना बता दिया कि यह ऐसा होना चाहिए.

‘नदियों को जोड़ना इतना आसान नहीं. रूस में ऐसा किया गया था, बर्बादी की कहानी वहां लिखी गई और दुनिया ने इस योजना से ही तौबा कर ली’

नदी जोड़ो योजना को भी तेजी से आगे बढ़ाने की बात चल रही है और गंगा में तो जल परिवहन के बारे में भी ढेरों बातें हुई हैं कि अब जल मार्ग से सफर आसान होगा.
नदी जोड़ो योजना पर मैं पहले से दृढ़ संकल्प वाला रहा हूं, अभी भी कह रहा हूं कि नदियों को जोड़ना इतना आसान होता तो दुनिया के दूसरे देशों में ज्ञान-विज्ञान कोई कम नहीं है. एक जगह रूस में जोड़ा गया था, नतीजा देखा लोगों ने, बर्बादी की कहानी वहां लिखी गई. दुनिया ने इस योजना से तौबा कर ली. पिछले दिनों उमा भारती मिली थीं तो मैंने फिर दोहराया कि नदियों को जोड़ने का मतलब सिर्फ उनके पानी का मिलान नहीं होता. पहले ग्राउंड वाटर से ग्राउंड वाटर का मिलान होता है, फिर बेसिन से बेसिन का, भूमि से भूमि का. तब जाकर नदी लंबी परिधि लेते हुए एक दूसरे से मिलती है. रही बात गंगा में जल परिवहन की तो यह फालतू की बात है. गंगा में पानी है कहां, जो आप उसमें परिवहन करवाएंगे. कहां से करवाएंगे यह तो बताएं. पानी की धार कहां से लाएंगे. सभी जगह टीले बनते जा रहे हैं और सारा पानी उधर ही निकाल ले रहे हैं. बहा रहे हैं नाला और चलाएंगे जहाज. फालतू बात है. बस गंगा पर बात करनी है तो बातें कर दी जा रही हैं. पैसे बहाना है तो उसका बहाना चाहिए.

INDIA-ENVIRONMENT-POLLUTION-GANGES

आपसे पूछा जाए तो आप क्या कहना चाहेंगे? गंगा पर किस तरह से काम होना चाहिए?
मैं कोई अपनी ओर से, अपने मन से बात नहीं कहूंगा. 1974 में मैंने आईआईटी मुंबई से रिवर इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और उसके बाद करीब 35 साल तक आईटी बीएचयू में नदी के बारे में ही पढ़ाता रहा, नदी को ही जीने और जानने की कोशिश की. 1985 में बीएचयू में गंगा रिसर्च सेंटर की स्थापना की, उससे कई रिसर्च पेपर निकाले गए. कई शोध हुए. अब वह गंगा रिसर्च सेंटर बंद है. इन सभी अनुभवों के आधार पर कुछ कहूंगा. 2001 में मुझसे सलाह मांगी गई थी. मैंने तब भी वही ‘फाइव थ्योरी ऑफ रिवर’ मैनेजमेंट को सौंपा था, आज भी वही कह रहा हूं. उस थ्योरी को दुनिया के कई देशों में अपनाया जा रहा है. साधारण-सी बात है. सबसे पहले गंगा को एक मुकम्मल शरीर की तरह देखिए. उसके अलग-अलग अंग हैं. किस-किस अंग में बीमारी है, उसे ठीक करने की कोशिश कीजिए. स‌िरदर्द है तो पैर का इलाज करने की जरूरत नहीं. दूसरी बात है कि वर्षों से गंगा पर उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश ने जो एकाधिकार जमा रखा है, वह टूटना चाहिए. देखिए तमाशा कि किसी आदमी के शरीर में छह लीटर खून हो और आप पांच लीटर निकालकर कहें कि वह जिंदा रहे तो क्या संभव है कि वह ठीक से चल फिर सकेगा? गंगा के साथ वाटर मैनेजमेंट को ठीक करना होगा. गंगा के हिमालय से उतरते ही हरिद्वार के पास भीमगौड़ा में 10,600 क्यूबिक फीट पानी प्रति सेकेंड निकाला जाता रहा है और उसके बाद नरौरा में पूरा का पूरा पानी. गंगा का पूरा पानी ही उधर निकालकर फिर कहा जाता है कि गंगा में अब यह ठीक करना है, वह ठीक करना है. अरे भाई गंगा में जल जब प्रवाह से आएगा तभी उसमें डीओबी भार कम होगा. तभी उसमें ऑक्सीजन की मात्रा ठीक रहेगी. गंगा में वेग रहेगा तभी वह जीवंत बनी रहेगी. लेकिन हद है कि उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश में गंगा को वर्षों से ऐसे दुहा जाता है, जैसे वह इन्हीं दो प्रदेशों के लिए निकलती हो. बिहार, झारखंड, बंगाल से गंगा गुजरती है तो क्या उनका अधिकार नहीं है गंगा पर? इसे ठीक करना होगा. तीसरा यह है कि गंगा के समाजशास्त्र को समझना होगा. गंगा सिर्फ बिजली पैदा करने के लिए नहीं है. उस पर 47 करोड़ आबादी निर्भर है. पूरे विश्व में ऐसी नदी नहीं है, न इतनी बड़ी घाटी. आपको गंगा से पैसा ही चाहिए तो गंगोत्री के पास के जल का वैज्ञानिक अध्ययन करवा लीजिए. वह कैसा मिनरल वाटर है, देख लीजिए. बेचिए उसे पूरी दुनिया में. अरबों-खरबों आएगा लेकिन गंगा को बहने तो दीजिए. चौथी महत्वपूर्ण बात है इसके पॉल्यूशन मैनेजमेंट की. इसके सैंड बेड को समझना होगा. जो रेत है गंगा का, वह ऐसे ही नहीं है. गंगा का अगर एक एकड़ में प्राकृतिक सैंड बेड है तो वह उतने प्रदूषण को मैनेज और कंट्रोल करता है, जितना करने के लिए 2200 एकड़ भूतल जमीन चाहिए. आप खुद सोचिए कि कुंभ में इलाहाबाद में कितने लोग आते होंगे. करोड़ों लोग आते हैं. उनके शौच-पेशाब आदि को उसी बालू से मैनेज करती रही है गंगा. गंगा के पास लिमिटेड प्रदूषण को मैनेज करने की शक्ति खुद है. वह बालू से पॉल्यूशन मैनेज कर लेती है. और आखिरी है बेसिन मैनेजमेंट. खेत का पानी खेत में रहे, रुके, इस पर काम होना चाहिए. गंगा बेसिन में ग्राउंड वाटर बैलेंस रहेगा, तभी गंगा अपने स्वाभाविक रूप में अपनी गति को बरकरार रख पाएगी. ये सब बहुत साधारण बिंदु हैं. इन पर काम होना चाहिए. इसके लिए गंगा को सजाने-संवारने से काम नहीं चलेगा. नदी को लेकर बेहतर संस्थान खोलने चाहिए. नदियों का अध्ययन होना चाहिए. चीन जैसे देश में अंतर्राष्ट्रीय स्तर के तीन-तीन रिवर सेंटर हैं. उस पर काम होता है. उसके अनुसार योजनाएं बनती हैं. अपने देश में तो मैं खुद 35 साल तक रिवर इंजीनियरिंग पढ़ाता रहा, कई पीएचडी करवाई, बाद में उसका राष्ट्रहित, गंगाहित में कोई सार्थक उपयोग हुआ हो, मुझे नहीं लगता. इसलिए कह रहा हूं कि मोदी जी अगर चाहते हैं तो गंगा पर गंभीरता से काम करें. गंगा का अध्ययन करवाएं. फिर उसका समुचित उपचार करें. सजाने-संवारने की जरूरत नहीं, सिर्फ अपने स्वाभाविक रूप में रहे तो गंगा ऐसे ही बहुत खूबसूरत है.

‘गंगा में जल परिवहन की बात फालतू है. बहा रहे हैं नाला और चलाएंगे जहाज. बस गंगा पर बात करनी है तो बातें की जा रही हैं. पैसे बहाना है तो बहाना चाहिए’

आपने बीच में गंगा रिसर्च सेंटर की बात कही. वह क्यों बंद हो गया? अभी तो गंगा पर शोर का समय है, फिर इतना पुराना संस्थान बंद क्यों हो गया?
बीएचयू में दो-तीन वजहों से गंगा रिसर्च सेंटर की स्थापना 1985 में हुई थी. एक, बनारस गंगा का प्रमुख केंद्र है. दूसरा यह कि मालवीय जी खुद गंगा में गहरी रुचि रखते थे. यही सोच कर उसकी स्थापना हुई थी कि बीएचयू जैसा प्रसिद्ध संस्थान बनारस में होने के कारण गंगा पर महत्वपूर्ण काम करेगा. वहां से अब तक 55 एमटेक थीसिस लिखी गईं. तीन महत्वपूर्ण पीएचडी हुईं. सैकड़ों रिसर्च पेपर दिए गए. सारा काम होता रहा लेकिन बीएचयू ने उसे फंड ही नहीं दिया. 2011 तक मैं बीएचयू में था तो वहां जाता था. साफ-सफाई वगैरह करता था लेकिन अब तो वह भी बंद हो गया. एक बार वहां पांच करोड़ का फंड स्वीकृत हुआ कि इसका पुनरुद्धार होगा लेकिन बाद में कहा गया कि पांच लाख से यहां सब काम करवा लीजिए. मैंने कहा कि पांच लाख रखिए, मैं सत्याग्रह करूंगा. बीएचयू के वीसी ने कहा कि सत्याग्रह मत कीजिए, पूरे पैसे का उपयोग होगा. लेकिन बाद में वह मामला खत्म कर दिया गया. इसलिए तो मैं कह रहा हूं कि गंगा पर बातें करने वाले ढेरों हैं, गंगा पर लंबी सोच रखकर, ठोस पहल करने वाले लोग नहीं हैं. गंगा पर पॉपुलर तरीके से बात हो, पॉपुलर काम हो, सब इसी में उलझे हुए हैं. अब बीएचयू का वह गंगा रिसर्च सेंटर भी बंद हो गया तो समझिए कि गंगा का कोई संधान केंद्र देश में नहीं बचा है. कैसी विडंबना है, इसी से समझिए. देश की राष्ट्रीय नदी, 47 करोड़ आबादी पालने वाली नदी, दर्जन भर राज्यों से जिसका वास्ता है, जिस नदी को लेकर रोज लच्छेदार भाषण होते हैं, उसका एक वैज्ञानिक संधान-अनुसंधान केंद्र तक नहीं.

चिरनिद्रा में लीन निदा

Nida Web

मशहूर शायर और बॉलीवुड को बेहतरीन नगमों से नवाजने वाले गीतकार निदा फाज़ली चिरनिद्रा में लीन हो गए. सोमवार को ‌मुंबई में दिल का दौरा पड़ने की वजह से उनका निधन हो गया. उनके निधन पर कई जानी-मानी हस्तियों ने शोक व्यक्त किया है.

निदा का जन्म 12 अक्टूबर 1938 को दिल्ली के एक कश्मीरी परिवार में हुआ था. उनकी पढ़ाई-लिखाई ग्वालियर में हुई. 1958 में उन्होंने ग्वालियर कॉलेज से स्नातकोत्तर की पढ़ाई पूरी की. विभाजन के वक्त उनके माता-पिता पाकिस्तान चले गए, लेकिन उन्होंने भारत में ही रहने का फैसला किया था. उर्दू शायरी उन्हें ‌विरासत में मिली थी क्योंकि उनके पिता भी एक शायर थे. निदा गालिब और मीर की रचनाओं से खासे प्रभावित थे. उनकी सरल और प्रभावकारी लेखन शैली ने उन्हें सम्मान और लोकप्रियता दिलाई. उर्दू कविता का उनका पहला संग्रह 1969 में प्रकाशित हुआ. वर्ष 1964 में नौकरी की तलाश उन्हें मुंबई ले आई. अपने करिअर के शुरुआती दिनों में उन्होंने ‘धर्मयुग’ और ‘ब्लि‍ट्ज’ जैसी पत्रिकाओं में लिखा.

उन्होंने फिल्मों के लिए भी गीत लिखने शुरू किए लेकिन उन्हें सफलता 1980 में आई फिल्म ‘आप तो ऐसे न थे’ से मिली. फिल्म का गीत तू इस तरह से मेरी जिंदगी में शामिल है उस दौर में काफी लोकप्रिय हुआ और आज भी एक सदाबहार नगमा है. इसके बाद उन्होंने फिल्म ‘रजिया सुल्तान’ में तेरा हिज्र मेरा नसीब है, तेरा गम मेरी हयात है…, ‘आहिस्ता-आहिस्ता’ में कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता…, ‘इस रात की सुबह नहीं’ में चुप तुम रहो, चुप हम रहें, ‘सुर’ में आ भी जा-आ भी जा और ‘सरफरोश’ में होशवालों को खबर क्याजैसे गजल और गीत ‌दिए. इसके अलावा टीवी पर धारावाहिक ‘नीम का पेड़’, ‘सैलाब’, ‘जाने क्या बात हुई’ और ‘ज्योति’ के लिए टाइटल गीत लिखे.

निदा फाज़ली को साल 2013 में ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया जा चुका है. 1998 में सांप्रदायिक सौहार्द्र पर आधारित उनके काव्य संग्रह ‘खोया हुआ सा कुछ’ (1996) के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया. 2003 में उन्हें फिल्म ‘सुर’ के गीत आ भी जा-आ भी जा के लिए स्टार स्क्रीन पुरस्कार का श्रेष्ठतम गीतकार का सम्मान मिला. इसके अलावा ‘दीवारों के बीच’ उपन्यास के लिए मध्य प्रदेश सरकार का ‘मीर तकी मीर पुरस्कार’, उर्दू और हिंदी साहित्य के लिए मध्य प्रदेश सरकार का ही ‘खुसरो पुरस्कार’ और महाराष्ट्र उर्दू अकादमी की ओर से उर्दू साहित्य के लिए श्रेष्ठतम कविता पुरस्कार से नवाजा गया. उन्हें बिहार उर्दू अकादमी पुरस्कार, उत्तर प्रदेश उर्दू अकादमी का पुरस्कार आदि से भी नवाजा जा चुका है.

‘अच्छी नींद के लिए अमीर शराब पीते हैं, इसलिए बिहार में अंग्रेजी शराब पर प्रतिबंध लगाना मुश्किल होगा’

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कुमारी मंजू वर्मा, समाज कल्याण मंत्री, बिहार

शराब पर प्रतिबंध लगाने की ओर बढ़ ‌रहे बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की एक मंत्री का बयान आया है, जिनके अनुसार राज्य में अंग्रेजी शराब पर प्रतिबंध लगाना सरकार के लिए इसलिए मुश्किल है क्योंकि अमीर अच्छी नींद लेने के लिए इसे पीते हैं. ये अजीबोगरीब बयान समाज कल्याण मंत्री कुमारी मंजू वर्मा का है. बिहार में इस साल एक अप्रैल से देसी शराब पर पूर्ण प्रतिबंध लगने वाला है, वहीं एक सितंबर से अंग्रेजी शराब को भी प्रतिबंधित कर दिया जाएगा.

तीन फरवरी को एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा, ‘अमीर लोग जैसे डॉक्टर, इंजीनियर और वकील थकान मिटाने के लिए शराब पीते हैं. वे ऐसा अच्छी नींद लेने के लिए करते हैं. इसे शराब पीने की आदत नहीं कहा जा सकता. इन्हीं परिस्थितियों के चलते राज्य में अंग्रेजी शराब पर प्रतिबंध लगाने में दिक्कतें आएंगी.’ उन्होंने आगे कहा, ‘राज्य में अमीर लोगों की कई श्रेणियां हैं, जो थकान मिटाने के लिए महंगी शराब पीते हैं.’ इस बयान से बवाल मचने पर मंत्री ने सफाई देते हुए कहा, ‘मैं सामान्य रूप में यह बात कह रही थी. मैंने कुछ भी गलत नहीं कहा, ये बातें पहले भी कही जा चुकी हैं.’ उधर, भाजपा ने इसे लेकर नीतीश सरकार को घेर लिया है. भाजपा का कहना है कि सरकार की कथनी और करनी में फर्क साफ दिखाई दे रहा है. एक तरफ सरकार शराबबंदी की बात कर रही है और दूसरी तरफ सरकार के मंत्री ऐसे गैर-जरूरी बयान दे रहे हैं.

‘पर्यावरणविद यह कहते हैं कि ये न करो, वो न करो, लेकिन यह भी तो बताओ कि हम करें क्या’

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फोटोः अमरजीत सिंह

उत्तराखंड में आई आपदा के दो साल बाद भी सरकार के ऊपर सही तरीके से काम न करने के आरोप लगते रहे हैं. अभी आरटीआई के जरिये खुलासा हुआ है कि केंद्र द्वारा भेजे गए 1,509 करोड़ रुपये का हिसाब-किताब नहीं मिल रहा है. क्या कहना है आपका?

पिछले साल के आखिर में इससे बड़ा कोई मजाक नहीं हो सकता है. बजट एस्टीमेट और रिवाइज्ड एस्टीमेट में फर्क होता है. उत्तराखंड में आपदा राहत के लिए केंद्रीय कैबिनेट ने 7980.13 करोड़ मंजूर किए थे. यह राशि तीन चरणों में मिलनी है. इस मद में अब तक 2367.74 करोड़ ही मिले हैं. शेष राशि के लिए हम केंद्र से अनुरोध कर रहे हैं. यह राशि मंत्रालयों के जरिये हमारे पास आई है. किसी ट्रक या ट्रेन की बोगी में भरकर नहीं आई है. मजेदार बात यह है कि न तो हमसे यह पूछा गया कि हमें कितनी राशि मिली और न ही संबंधित मंत्रालय से पूछा गया कि उन्होंने कितनी राशि राज्य सरकार को जारी की. सिर्फ 154 करोड़ रुपये की राशि हमें प्रधानमंत्री राहत कोष के जरिये सीधे मिली है. बाकी सारा पैसा मंत्रालयों के जरिये आया है. अब भाजपा वालों का सिद्धांत है कि झूठ बोलो, सब मिलकर बोलो, बार-बार बोलो और खूब जोर से बोलो. जब तक हम समझते हैं कि मामला क्या है, तब तक वो इतना चिल्ला चुके होते हैं कि लूट हो गई है, सीबीआई जांच कराओ. अब केंद्र में उनकी सरकार है. पैसा केंद्र ने जारी किया है तो वित्त मंत्री अरुण जेटली उत्तराखंड सरकार पर मुकदमा दायर करें कि हमने केंद्र के 1,509 करोड़ रुपये खा लिए. और बात अगर केदारनाथ की करें तो हमने बहुत ही बढ़िया काम किया है. हमने वहां हेलीपैड विकसित कर दिया है. अब वहां एमआई-26 हेलीकॉप्टर लैंड कर रहा है. हमने जेसीबी से लेकर सारे बड़े यंत्र पहुंचा दिए हैं. अब वहीं टाइल्स से लेकर ईंटें बन रही हैं. पुनर्निर्माण के दौरान हम यह ख्याल रख रहे हैं कि अगर उसी तीव्रता या उससे ज्यादा तीव्रता की आपदा आए तो हमारा निर्माण बचा रहे.

प्रधानमंत्री कहते हैं कि वह राज्यों के साथ बेहतर संबंध बनाकर चलेंगे. हालांकि कुछ कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भेदभाव का आरोप लगाया है. आपका अनुभव कैसा रहा है?

प्रधानमंत्री जी का सहयोग संघवाद वैसा ही है, जैसा कि वकील जज के यहां कहे कि मैं कभी गलत तर्क दूंगा ही नहीं. असल में यह सिर्फ एक स्लोगन है. इसका उदाहरण आप अरुणाचल प्रदेश में देख सकते हैं. अब प्रधानमंत्री जी कहते हैं कि वह हर राज्य को विकास का सहयोगी मानते हैं, लेकिन आप अपने हर सहयोगी को अस्थिर भी करना चाहते हैं. आपने केंद्र-राज्य संबंधों का जो तंत्र था, उसे खत्म कर दिया. योजना आयोग और राष्ट्रीय विकास परिषद की कोई चर्चा ही नहीं है. नीति आयोग है तो वहां केवल एक ही नीति है, जिसे ‘मोदी नीति’ कह सकते हैं.

अर्द्धकुंभ को भी लेकर केंद्र से सहयोग न मिलने का आरोप राज्य सरकार ने लगाया था. कितनी राशि केंद्र द्वारा इस आयोजन के लिए दी गई है?

हमने पहले केंद्र सरकार से पांच सौ करोड़ रुपये की मांग की, लेकिन नीति आयोग ने 168 करोड़ रुपये देने का सुझाव दिया और कहा कि ये अर्द्धकुंभ है. बाकी जगहों पर आप कहते हैं कि कितने लोग आएंगे, उस आधार पर पैसा दिया जाएगा. अब अर्द्धकुंभ में आठ करोड़ लोगों के आने की उम्मीद है. इस हिसाब से हमें पैसा मिलना चाहिए. लेकिन केंद्र सरकार तैयार नहीं हुई. हम फिर भी तैयार हो गए कि चलो जितना भी पैसा देना हो, दीजिए. अब ये राशि नीति आयोग से प्रधानमंत्री के दफ्तर तक पहुंची है या नहीं, मुझे नहीं पता है.

अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने पर आपका क्या कहना है?

अरुणाचल प्रदेश में जो हुआ है, वह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है. सबसे बड़ी बात यह कि शुरुआत से ही राज्यपाल की जो नीयत रही है वह संविधान की भावनाओं के अनुरूप नहीं है. विधानसभा का एजेंडा राज्यपाल कैसे तय कर सकता है कि स्पीकर को हटाने पर चर्चा होगी. चलो ठीक है कि स्पीकर को विधानसभा सत्र में नहीं आने दिया गया तो आपको उसका रास्ता निकालना चाहिए था. न कि पांच सितारा होटल में बैठकर उसे विधानसभा का दर्जा दे दिया जाए. अगर वहां पर कुछ चीजें असंवैधानिक थीं, तो उसका संवैधानिक हल खोजा जाना चाहिए था.

‘आप कह रहे हैं कि हरिद्वार, ऋषिकेश में पानी की बोतल लेकर नहीं जाओगे, लेकिन दिल्ली में इस पर प्रतिबंध क्यों नहीं है? सारी जिम्मेदारी हमारे ऊपर ही है’

स्मार्ट सिटी की पहली सूची में देहरादून को शामिल नहीं किया. इसके अलावा चाय बागान को भी लेकर विवाद हो गया है.

देखिए, केंद्र सरकार ने पहली सूची में ग्रीन फील्ड वाली किसी भी परियोजना को शामिल नहीं किया है. इसमें मुझे कोई दुर्भावना नहीं नजर आ रही है. दरअसल स्मार्ट शहर के विकास के लिए केंद्र ने तीन विकल्प दिए थे. राज्य चाहते तो रेट्रोफिटिंग (वर्तमान शहर में ही उपलब्ध संरचनाओं का विकास कर स्मार्ट शहर बनाना), रीडेवलपमेंट (वर्तमान शहर को स्मार्ट बनाना) करते या फिर ग्रीन फील्ड (खाली क्षेत्र में स्मार्ट शहर बसाना) का विकल्प चुनते. हमने तीसरे विकल्प को चुना. क्योंकि पहले दो विकल्प हमारे लिए ज्यादा कठिन थे. उससे शहर की पहचान खो जाती और हमें ज्यादा फायदा नहीं होता. इसके चलते हमने देहरादून से सटी चाय बागान की भूमि को इसके लिए चुना. यह हमारे लिए अंतिम विकल्प था. इसमें हमने 350 एकड़ जमीन ली है. इसमें सवा सौ एकड़ एफआरआई (फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट) को हरित क्षेत्र के लिए दिया है. हमने इसमें दोनों बातों-पर्यावरण और स्मार्ट सिटी का ध्यान रखा है. अब अगर मोदी सरकार को चाय बागान से ज्यादा प्यार है तो वह मना कर दें. अभी गेंद उनके पाले में है.

गैरसैंण को राजधानी बनाए जाने को लेकर लगातार बयानबाजी होती रही है. क्या सरकार इस दिशा में विचार कर रही है?

जब मैंने मुख्यमंत्री का पदभार संभाला तो विधानसभा और सचिवालय का शिलान्यास किया जा चुका था. मुझे जो भी सौंपा गया है, उसे लेकर मैं आगे बढ़ रहा हूं. आज मुझसे कोई कहे कि गैरसैंण में एक हजार लोगों के रहने की व्यवस्था करनी है, तो मैं नहीं कर सकता. इसलिए मैं वहां पर इंफ्रास्ट्रक्चर का विकास कर रहा हूं. इसके लिए गैरसैंण विकास प्राधिकरण बना दिया गया है. वहां पानी की समस्या थी, उसे दूर करने की कोशिश सरकार द्वारा की जा रही है. अब जो लोग पक्ष में हैं, वे जल्दी में हैं. जो विपक्ष में हैं वो कह रहे हैं, इसकी जरूरत नहीं है. मैं वहां पर सिर्फ विकास कर रहा हूं. जब लोगों को लगेगा कि नहीं अब यह पूरा हो गया है, तो वही तय करेंगे कि राजधानी कहां होगी. वैसे भी यह इतनी बड़ी चुनौती है कि उत्तराखंड जैसे राज्य के लिए अपने दम पर इसे जल्दी पूरा करना कठिन है. इसके लिए हमने केंद्र से सहयोग मांगा है कि अगर वह अमरावती को राजधानी बनाने के लिए पैसा दे सकते हैं, तो हमें भी कुछ राशि मुहैया कराई जाए.

भांग की खेती को अनुमति देने को लेकर राज्य सरकार पर सवाल उठ रहे हैं. इसके अलावा ग्रामीण विकास और रोजगार के लिए सरकार क्या कर रही है?

हमारी खेती को दो हिस्सों में बांट सकते हैं. उधमसिंह नगर, हरिद्वार आदि जगहों पर खेती अच्छी है, लेकिन पिछले बीस-पच्चीस सालों से ध्यान न दिए जाने के चलते पहाड़ पर खेती पूरी तरह से बर्बाद हो गई थी. वहां पर कई तरह की समस्याएं थीं. हमें सबसे पहले खेती को पुनर्जीवित करने की जरूरत थी. उसके लिए हमने 200 से ज्यादा प्रस्ताव रखे हैं. इसी में से एक भांग की खेती को लेकर हो रहा बवाल है. लेकिन अगर आप उत्तरी चीन को देखें तो भांग की खेती के जरिये उन्होंने खुद को पूरी तरह से बदल दिया है. अब हमारे उत्तराखंड में इस खेती के लिए सबसे बढ़िया संभावना है, तो हमने वही पहल की. एक हमारे यहां नैटल कंडारी घास होती है, जिससे बने कपड़े बहुत गरम होते हैं. इसके अलावा भीमल, रामबास जैसी खेती को बढ़ावा दिया. इसके लिए सरकार द्वारा बोनस दिया जा रहा है. साथ ही पर्यटन को सरकार बढ़ावा दे रही है. पहले सिर्फ कुछ बड़े शहरों में लोग जाते थे पर अब दूरदराज के इलाकों में भी लोग पहुंच रहे हैं. हमने शीतकालीन चार धाम यात्रा शुरू की है. हर जगह हेलीपैड बनाया गया है. हम तीन एयरफील्ड भी विकसित कर रहे हैं. हमारा लक्ष्य पर्वतीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देकर 2019 तक राज्य से पलायन पर रोक लगाना है.

उत्तराखंड में पावर प्रोजेक्ट को लेकर लगातार बवाल होता रहता है. इस पर सरकार किस तरह आगे बढ़ रही है?

पावर प्रोजेक्ट पर जो रुख उत्तराखंड सरकार का है, कमोबेश वही केंद्र सरकार ने भी अपना रखा है. हमारा मानना है कि पावर प्रोजेक्ट पर रोक गलत है और इसके चलते कोई आपदा नहीं आई है. यही बात अभी वाडिया इंस्टीट्यूट ने भी अपनी रिपोर्ट में कही है. हमारा सुप्रीम कोर्ट, एनजीटी, भारत सरकार के विशषेज्ञों और पर्यावरणविदों से सीधा कहना है कि आप हमें यह तो कहते हो कि ये न करो, वो न करो, लेकिन आप हमें यह भी तो बताओ कि हम करें क्या. अब पर्यावरण और विकास के बीच बैलेंस बनाए रखने की जिम्मेदारी आप उस राज्य को सौंप रहे हैं, जिसने आज भी अपने भौगोलिक क्षेत्रफल का 70 प्रतिशत जंगल क्षेत्र बचाकर रखा है. पिछले सालों के अंदर हमारा छह प्रतिशत जंगल क्षेत्र बढ़ गया है. अब हमने ग्रीन बोनस की मांग की है. जिससे हम अपने लिए पर्यावरण के अनुकूल रास्ते निकालें. अब हम पर्यटन को बढ़ावा दे रहे हैं तो आप कह रहे हैं कि हरिद्वार, ऋषिकेश में पानी की बोतल लेकर नहीं जाओगे, लेकिन दिल्ली में इस पर प्रतिबंध क्यों नहीं है? सारी जिम्मेदारी हमारे ऊपर ही है. अब यहां दिल्ली में बैठे लोग यह नहीं समझ पा रहे हैं कि जंगलों की रक्षा वे नहीं कर सकते हैं. जंगलों की रक्षा स्थानीय लोग ही कर सकते हैं.

जानकारों का कहना है कि अगले विधानसभा चुनाव में आपको भाजपा के साथ पार्टी के भीतर के लोगों से भी पार पाना होगा. इसके अलावा एंटी इनकम्बेंसी फैक्टर भी रहेगा?

मैं अपने लोगों को बहुत धन्यवाद देना चाहूंगा कि अभी एंटी इनकम्बेंसी जैसा सवाल राज्य के भीतर नहीं है. भाजपा इसी से बौखलाई है. पार्टी के भीतर किसी भी तरह का असंतोष नहीं है. मैं पार्टी के लोगों का बहुत शुक्रगुजार हूं कि मुझे मुख्यमंत्री रहते हुए किसी भी तरह की समस्या नहीं आई है. बाकी परिवार के भीतर थोड़ा-बहुत चलता रहता है.

अल्मोड़ा के नैनीसार में जीएस जिंदल समूह की हिमांशु एजुकेशनल सोसायटी इंटरनेशनल स्कूल बना रही है. गांव के लोग इसे गैरसंवैधानिक बताकर इसका विरोध कर रहे हैं. उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के नेता इसी के चलते जेल में हैं. आपने उस स्कूल का शुभारंभ भी किया था. क्या सरकार पर लग रहे आरोप सही हैं? 

जब मैं पहली बार 1980 में सांसद था तब भी उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी के नेता जो अभी जेल में हैं, वह ऐसी लड़ाई लड़ते रहते थे. उनकी इस आदत का मैं अभ्यस्त भी हूं और सम्मान भी करता हूं. यह हमने एक नीति के तहत किया है. दरअसल हमारे पहाड़ों में निवेश नहीं आता है और शिक्षा की बड़ी समस्या है. पलायन का यह एक बहुत बड़ा कारण है. शिक्षा संस्थान और अस्पताल अगर आएंगे तो इससे हमारा भला होगा. अब इसमें तीस प्रतिशत सीटें राज्य के लोगों के लिए होंगी. इससे स्थानीय लोगों और पहाड़ों में काम करने वाले अधिकारियों के बच्चों की पढ़ाई हो सकेगी. इसके निकट के गांवों के चार प्रधानों की इसमें सहमति है. ये विरोधी पार्टी के कार्यकर्ता हैं जो प्रदर्शन करने में लगे हुए हैं.