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अखंड भारत : भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के एकीकरण के विचार में कितना दम है?

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आजादी के बाद से ही ऐसी आवाजें उठती रहीं कि भारत और पाकिस्तान का बंटवारा सही नहीं था और दोनों देशों का एकीकरण होना चाहिए. भारत-पाकिस्तान का एकीकरण तो नहीं हुआ, पाकिस्तान का विभाजन जरूर हो गया, जिसके बाद बांग्लादेश बना. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरफ से समय-समय पर इन तीनों देशों का एकीकरण करके अखंड भारत अथवा बृहत्तर भारत बनाने की बात उठाई जाती रही है. संघ प्रमुख मोहन भागवत ने 2010 में एक इंटरव्यू में कहा, ‘हमने अखंड भारत का सपना छोड़ा नहीं है. वृहद भारत दोबारा बनेगा, दूसरा इलाज नहीं है. यह काम सरकार नहीं कर सकती. इसके लिए समाज का निर्माण करना पड़ता है और यह हम कर रहे हैं.’ बीते दिसंबर में भाजपा महासचिव राम माधव ने अल-जजीरा चैनल को दिए एक इंटरव्यू में कहा, ‘आने वाले समय में भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश फिर से एक होकर अखंड भारत का निर्माण करने वाले हैं.’ इस बयान की आलोचना शुरू हुई तो भाजपा ने इससे पल्ला झाड़ लिया तो राम माधव ने भी खेद जताते हुए कहा कि उनका बयान दक्षिण एशिया की सांस्कृतिक एकता पर आधारित था. सवाल उठता है कि जिन देशों के राजनयिक संबंध भी बेहद तनावपूर्ण हालत में हैं, उनके एकीकरण के विचार में कितना दम है?

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27 साल का वनवास, दिल्ली की शीला से आस

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पिछले महीने की 17 जुलाई को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में हल्की बौछार पड़ रही थी. कांग्रेस पार्टी ने इस दिन राजधानी में एक रोड शो का आयोजन किया था. अगले विधानसभा चुनावों में शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनाने के बाद एक तरह से यह पार्टी का शक्ति प्रदर्शन था. उत्तर प्रदेश कांग्रेस के नवनिर्वाचित अध्यक्ष बने राज बब्बर भी इसमें शामिल होने वाले थे. इस दौरान अमौसी हवाई अड्डे के बाहर जहां एक ओर चुटकी लेने वाले कह रहे थे कि प्रकृति भी नहीं चाहती कि प्रदेश में कांग्रेसी आएं तो वहीं दूसरी ओर कार्यकर्ताओं का जोश देखने लायक था. उनका कहना था कि 27 साल के वनवास के खत्म होने की खुशी में बारिश तो बनती है.

राज बब्बर और शीला दीक्षित जब अमौसी हवाई अड्डे से बाहर निकले तो कार्यकर्ताओं का हुजूम उनके स्वागत के लिए उमड़ पड़ा. अभी तक दिल्ली में सुनाई पड़ने वाला नारा ‘अबकी बार शीला सरकार’ वहां गूंज रहा था. हवाई अड्डे से लेकर मॉल एवेन्यू स्थित प्रदेश कांग्रेस कार्यालय तक पार्टी कार्यकर्ताओं की भीड़ नजर आई.

जानकार बता रहे थे कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में हाशिये पर जा चुकी कांग्रेस में कई दशक बाद गांधी परिवार के इतर इतना जोश-खरोश नजर आया है. कांग्रेसी सिर्फ जिंदाबाद-जिदांबाद के नारे लगा रहे हैं. हालांकि कार्यक्रम के लिए बना हुआ मंच अधिक भीड़ जुटने की वजह से गिर गया और शीला दीक्षित को आंशिक चोट भी आई, लेकिन रोड शो जारी रहा.

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव अभियान की शुरुआत वाराणसी से करके कांग्रेस ब्राह्मण-मुसलमान गठजोड़ को अपनी ओर खींचना चाह रही है

इसके बाद इसी महीने की तीन तारीख को कांग्रेस ने 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के मद्देनजर मोदी के गढ़ वाराणसी से पार्टी के चुनाव प्रचार की शुरुआत की. इस दौरान कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का काफिला जब एयरपोर्ट से शहर के लिए निकला तो इकट्ठी हुई भीड़ देखने लायक थी. इस दौरान सैकड़ों कार्यकर्ताओं के हाथों में ‘27 साल, यूपी बेहाल’ नारा लिखी हुई तख्तियां थीं. कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए सोनिया गांधी ने प्रदेश की सपा सरकार और केंद्र की मोदी सरकार पर जमकर निशाना साधा. रोड शो के दौरान पार्टी की मुख्यमंत्री पद की दावेदार शीला दीक्षित, कांग्रेस महासचिव गुलाम नबी आजाद, प्रदेश प्रमुख राज बब्बर, वरिष्ठ कांग्रेस नेता प्रमोद तिवारी और संजय सिंह भी सोनिया गांधी के साथ थे.

जानकारों का कहना था कि सावन के महीने में बाबा विश्वनाथ की नगरी से उत्तर प्रदेश चुनाव का श्रीगणेश करके कांग्रेस ने एक तीर से कई निशाने साधे हैं. जहां एक ओर सोनिया गांधी प्रधानमंत्री मोदी को उनके ही लोकसभा क्षेत्र में घेरने में सफल रहीं तो वहीं बनारस से कांग्रेस के उसी पुराने वोट बैंक की तलाश भी शुरू कर दी है जिसके बूते कांग्रेस 27 साल पहले तक राज करती रही थी.

वाराणसी में लगभग 15 लाख मतदाता हैं. इसमें से सबसे ज्यादा तीन लाख के करीब मुस्लिम मतदाता और ढाई लाख के करीब ब्राह्मण मतदाता हैं. उत्तर प्रदेश चुनाव की शुरुआत वाराणसी से करके कांग्रेस इसी ब्राह्मण-मुसलमान गठजोड़ को अपनी ओर खींचना चाह रही है. 

विश्लेषक आंकड़ों को साधने की कोशिश को उत्तर प्रदेश कांग्रेस के प्रबंधक नियुक्त किए गए प्रशांत किशोर (पीके) की स्क्रिप्ट का हिस्सा बताते हैं. वे कहते हैं कि पहले कांग्रेस की दिल्ली से कानपुर की बस यात्रा, फिर लखनऊ में राहुल का कार्यकर्ताओं के साथ रैंप संवाद और सोनिया गांधी का बनारस में रोड शो, ये सब पीके की रणनीति के तहत किया जा रहा है जिसमें एक साथ पूरे उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की मौजूदगी का एहसास कराने की योजना है.

इसके अलावा कांग्रेस लंबे समय से मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के नाम की घोषणा करने के खिलाफ रही है. कांग्रेस कहती रही है कि भारत एक संसदीय लोकतंत्र है और जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि ही मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के नाम का फैसला करते हैं. ऐसे मेें मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में शीला दीक्षित के नाम की घोषणा करना ही सिर्फ एक अचंभे वाली बात नहीं है बल्कि चुनाव से छह महीने पहले यह करना और भी अंचभित करने वाली बात है. विश्लेषक इसे भी प्रशांत किशोर की रणनीति बता रहे हैं.

कांग्रेस का सबसे बेहतर प्रदर्शन 1989 में रहा है जब वह 94 सीटें जीतने में सफल रही थी. इसके बाद से इसकी सीटों में निरंतर गिरावट आती गई

 वरिष्ठ पत्रकार शरत प्रधान कहते हैं, ‘पीके की रणनीति बहुत कारगर है. उसने राहुल गांधी से जो ड्रामा करवाया वह बहुत कारगर रहा है. राजनीति में अगर ड्रामा कारगर रहे तो वह बहुत फर्क डालता है. राहुल गांधी लोगों से संवाद कर रहे हैं. इसका प्रभाव पड़ेगा. हालांकि यह ड्रामा लगातार होते रहना चाहिए. कांग्रेस को हमेशा चर्चा में बने रहना होगा तभी वह एक विकल्प के रूप में उभर पाएगी. शीला को लाने का फैसला भी अभी सही है.’

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इसके अलावा उत्तर प्रदेश में जो भी नए नामों की घोषणा हुई हैं वे उत्तर प्रदेश में किसी भी धड़े से जुड़े नहीं हैं. प्रशांत किशोर ने गुटबाजी को पार्टी की सबसे बड़ी समस्या के रूप में पहचानने के बाद इसके समाधान के तौर पर नेताओं को जिम्मेदारियां दी हैं. जो लोग टिकट और नेतृत्वकारी भूमिका पाना चाहते थे, उन्हें खास तौर पर कुछ-न-कुछ जिम्मेदारियां दी गई हैं और प्रशांत किशोर की टीम उनके काम पर नजर रखे हुए है.

राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘चुनावों के लिए एक प्रबंधक की जरूरत होती है. भाजपा में अमित शाह एक चुनाव प्रबंधक की भूमिका ही निभाते हैं. किसी जमाने में पार्टियां अपने ही अंदर से चुनाव प्रबंधक तलाशती थीं. लेकिन अब इसके लिए बाहर की एजेंसियों को लाने का चलन शुरू हो गया है. प्रशांत किशोर इसी तरह का कामकाज करेंगे. चुनाव प्रबंधक की भूमिका के तौर पर वह सही नारे देने, सही से प्रचार करने, सही रणनीति बनाने का काम करेंगे.’

प्रशांत किशोर को कांग्रेस को अच्छा करते हुए दिखाना है ताकि गांधी ब्रांड एक बार फिर से अपने रंग में आ सकें. उत्तर प्रदेश के गांवों में अक्सर कांग्रेस के लिए कार्यकर्ता ढूंढ़ना मुश्किल होता है. इससे बचने के लिए किशोर ने टिकट की चाहत रखने वालों से बूथ स्तर पर उनकी ताकत और उनके समर्थकों की तादाद के बारे में पूछना शुरू किया है. वे हर प्रत्याशी से हर बूथ पर पांच समर्थकों की लिस्ट मांग रहे हैं.

तीन बार मुख्यमंत्री रह चुकीं 78 वर्षीय शीला दीक्षित के लिए उत्तर प्रदेश में धुआंधार चुनाव प्रचार कर पाना शारीरिक रूप से भी आसान नहीं होगा

कांग्रेस उपाध्यक्ष राजेश मिश्रा कहते हैं, ‘किशोर एक कुशल चुनाव प्रबंधक है. वह चुनाव के लिए प्रोफेशनल तरीके से पार्टी की ब्राडिंग करेंगे. अब चुनाव में इसकी बहुत जरूरत होती है. उनकी भूमिका पार्टी के लिए बहुत सकारात्मक है.’

पिछले 27 सालों में कांग्रेस का सबसे बेहतर प्रदर्शन 1989 में रहा है जब वह 94 सीटें जीतने में सफल रही थी. इसके बाद से इसकी सीटों में निरंतर गिरावट आती गई. पिछले छह विधानसभा चुनावों से पार्टी 50 का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाई है. विश्लेषक कहते हैं कि अगर हम राजनीति पर नजर डालें तो साठ के दशक से ही पिछड़े लोगों का कांग्रेस से मोहभंग होने लगा था. कुछ जातियां लोहिया के साथ चली जाने लगीं और कुछ दीन दयाल उपाध्याय के साथ चली गईं. इसके बावजूद कांग्रेस के पास दलित, ब्राह्मण और मुस्लिम के रूप में बड़ा वोट बैंक था. लेकिन धीरे-धीरे पूरे देश में जातियों को लगने लगा कि उन्हें सीधी सत्ता चाहिए. इसलिए तमाम जातियों ने अपनी पार्टियां बनानी शुरू कर दी है. जिन्होंने पार्टी नहीं बनाई उन्होंने दावेदारी शुरू कर दी. इस तरह से यादवों, लोधियों, राजभरों और दलितों की बहुत सारी पार्टियां बनीं. इसका प्रभाव यह हुआ कि कांग्रेस की इंद्रधनुषी पार्टी की छवि टूट गई. इससे पूरे देश की राजनीति में परिवर्तन हुआ. कांग्रेस का क्षय इसी वजह से हुआ. कांग्रेस सिर्फ चुनाव की गलतियों से सत्ता से बाहर नहीं हुई है.

वरिष्ठ पत्रकार राशिद किदवई कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के लगातार कमजोर होने का सबसे बड़ा कारण गैर-भाजपाई दलों से गठबंधन करना रहा है. प्रदेश में कांग्रेस ने सबसे पहले समाजवादी पार्टी को समर्थन दिया और बाद में वह बसपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ी. यह गठबंधन भी बहुत लंबे समय तक नहीं चल पाया. इससे पार्टी कार्यकर्ताओं पर बुरा असर पड़ा. अब जिन सीटों पर पार्टी ने गठजोड़ कर लिया वहां के कार्यकर्ता तो बेकार हो गए. ये कार्यकर्ता दूसरी पार्टियों में चले गए. इसके अलावा कांग्रेस में जो भी बड़े नेता रहे उन्होंने दिल्ली की राह पकड़ ली. इससे पार्टी को बहुत नुकसान हुआ. अब जो सड़क पर उतरकर प्रदर्शन करने वाली फौज थी वह धीरे-धीरे खत्म होती गई. इसके बाद प्रदेश स्तर में पार्टी के पास ऐसा कोई नेता नहीं बचा जो कांग्रेस की पहचान को जिंदा रख सके.’

वहीं राम बहादुर राय के अनुसार, ‘कांग्रेस एक जमाने में सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों का प्रतिनिधित्व करती थी. सबसे पहले इस तरह के आंदोलनों से दूरी ने उसे खत्म करने का काम किया. इससे हटकर वह सिर्फ चुनाव जीतने और सरकार बनाने तक सीमित हो गई. इसके बाद जब मंडल आंदोलन चला और अयोध्या में विवादित ढांचा गिराया गया तो राजनीति में बड़ा बदलाव आया लेकिन कांग्रेस इस दौर में कोई ठिकाना नहीं ढूंढ़ पाई. और अभी इसमें कोई परिवर्तन नहीं आया है. सबसे बड़ी बात यह है कि कांग्रेस में इस बारे में कोई सोचने वाला भी नहीं है. वह बस जब चुनाव आता है तो जोर-आजमाइश करने में लग जाती है.’

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हालांकि हार की इस कड़वी सच्चाई को पार्टी के नेता भी स्वीकार करते हैं. कांग्रेस उपाध्यक्ष राजेश मिश्रा कहते हैं, ‘किसी पार्टी के चुनाव जीतने और हारने के बहुत सारे कारण होते हैं. कांग्रेस देश की सबसे पुरानी पार्टी है. उसने देश में सबसे ज्यादा समय तक शासन भी किया है. इस दौरान बहुत काम भी हुआ है, इस पर भी कोई बहस नहीं है. आज उत्तर प्रदेश में जो भी विकास दिखाई दे रहा है यह कांग्रेस की देन है. लेकिन लगातार सत्ता में रहने के चलते कांग्रेस के नेताओं की जनता से दूरी बढ़ गई. राजनीति में एक दौर यह भी आता है कि आप कितना भी काम कर लें लेकिन लोगों को यह जरूर लगना चाहिए कि आप उनके बीच में हैं. आप सुपरमैन नहीं हैं और आप उनके बीच हैं. मुझे लगता है कांग्रेस के लोगों से ये गलतियां हुईं. लोगों ने गांवों में जाना छोड़ दिया. लोगों से मिलना छोड़ दिया. जनता के सुख-दुख में वे उनके साथ नहीं रहे. इस वजह से ये सारे चीजें हुईं. इसके बाद सपा और बसपा का दौर आया जब जमकर जाति की राजनीति हुई फिर भाजपा ने सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया. कांग्रेस इससे दूर तो रही लेकिन इसे रोकने में पूरी तरह से नाकाम रही. यही हमारे हार का कारण रहा.’

राज बब्बर जब अपनी प्रसिद्धि के चरम पर थे तो मुलायम सिंह यादव ने उनकी भीड़-बटोरू छवि का बखूबी इस्तेमाल किया था

फिलहाल उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को उबारने के लिए सबसे पहले राहुल गांधी ने जिम्मेदारी संभाली थी. पिछले विधानसभा चुनाव में खूब सभाएं करने और गुस्सा दिखाने का उनका अभिनय भी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का उद्धार नहीं कर पाया था. चुनाव में हार के बाद उन्होंने इसकी जिम्मेदारी भी ली और कहा कांग्रेस को मजबूत करने के लिए उसे थोड़ा समय देंगे. लेकिन वैसा कुछ हुआ नहीं. लोकसभा चुनावों में सिर्फ मां-बेटों के अलावा सभी प्रत्याशियों को मुंह की खानी पड़ी.

राहुल से नाउम्मीद उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी जब प्रियंका के नाम की गुहार लगा रहे थे तब उन्हें राहुल से इस बात की भी शिकायत थी कि उन्होंने विधानसभा चुनावों के बाद उत्तर प्रदेश को उतने दिन भी नहीं दिए जितने अपनी विदेश यात्राओं और छुट्टियों को दिए थे. ऐसे में जब कांग्रेस नेतृत्व ने प्रशांत किशोर को उत्तर प्रदेश में जीत दिलाने का ठेका दिया तो कार्यकर्ताओं में फिर थोड़ी उम्मीद जगी थी कि अब जरूर चमत्कार होगा.

ऐसे में पहले कांग्रेस के उत्तर प्रदेश प्रभारी को बदला गया और प्रथम परिवार के चहेते गुलाम नबी आजाद को उत्तर प्रदेश प्रभार दे दिया गया. इसके बाद लंबे चिंतन-मंथन का दौर चला और प्रदेश अध्यक्ष निर्मल खत्री की छुट्टी कर दी गई. कई दिनों के इंतजार के बाद पार्टी ने राज बब्बर के रूप में प्रदेश कांग्रेस को उसका नया अध्यक्ष दिया और अब शीला दीक्षित के रूप में प्रदेश कांग्रेस को एक मुख्यमंत्री का चेहरा भी दे दिया गया है.

इतना ही नहीं, उत्तर प्रदेश में जितने भी कांग्रेसी नेता बचे हैं सभी को कुछ न कुछ जिम्मेदारी देकर खुश करने की कोशिश की जा रही है. डॉ. संजय सिंह को प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाया गया है तो प्रमोद तिवारी चुनाव संयोजन समिति के अध्यक्ष बने हैं. इस समिति में मोहसिना किदवई से लेकर प्रदीप माथुर तक कई बड़े नाम शामिल हैं.

अब हम इन नामों की चर्चा कर लेते हैं. सबसे पहले शीला दीक्षित. पंजाब के कपूरथला में जन्मीं और दिल्ली के जीसस एेंड मैरी स्कूल से शुरुआती व मिरांडा हाउस से विश्वविद्यालयी शिक्षा हासिल करने वाली शीला कपूर दीक्षित को कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया है. 1984 में वे कन्नौज से सांसद बनी थीं. वे उन्नाव के कांग्रेसी नेता उमाशंकर दीक्षित की बहू भी हैं लेकिन इतने पुराने इतिहास की बात से उनके राजनीतिक प्रभामंडल में ऐसा कुछ नहीं जुड़ता कि उन्हें उत्तर प्रदेश के भावी मुख्यमंत्री के रूप में जनता हाथों हाथ लेने लगे.

‘उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि अभी प्रदेश में उसे पूछने वाला कोई नहीं है. उसे जमीनी स्तर से काम करना है’

दिल्ली की मुख्यमंत्री के तौर पर लगे भ्रष्टाचार के दागों से भी वे पूरी तरह मुक्त नहीं हो सकी हैं. दिल्ली में तीन बार मुख्यमंत्री बनने के बाद हालात यह पैदा हुए हैं कि आज विधानसभा में कांग्रेस का नाम लेने वाला कोई नहीं बचा है. शीला दीक्षित खुद बुरी तरह से विधानसभा चुनाव हार गई थीं. ऐसे में कई लोगों को तो यह भी शक है कि अगर वे कहीं से चुनाव लड़ीं तो खुद भी जीत पाएंगी या नहीं. इसके अलावा कुछ लोग उनके बाहरी होने का भी आरोप लगा रहे हैं. जानकार कहते हैं कि कुछ समय पहले तक वे खुद इस जिम्मेदारी के लिए तैयार नहीं थीं. फिर 78 वर्षीय शीला दीक्षित के लिए उत्तर प्रदेश में धुआंधार प्रचार कर पाना शारीरिक रूप से भी आसान नहीं होगा.

शरत प्रधान कहते हैं, ‘शीला दीक्षित को लाना कांग्रेस के लिए इसलिए जरूरी था कि पार्टी में बड़ी संख्या में ऐसे नेता हैं जो अपने विधानसभा क्षेत्र में तो खूब रसूख वाले हैं लेकिन उससे बाहर उनकी कोई खास पहचान नहीं है. इसके चलते पार्टी में गुटबाजी खूब थी. अब शीला की वरिष्ठता के चलते उनके बीच का आपसी विवाद दूर हो सकता है. जहां तक दिल्ली में उनके प्रदर्शन का सवाल है तो राजनीति में हार-जीत चलती रहती है. उत्तर प्रदेश में पार्टी के पास कोई भी नेता ऐसा नहीं था जिससे सारे लोग सहमत होते. इसलिए शीला को लाना एक बेहतर फैसला रहा.’

वहीं अभय कुमार दुबे कहते हैं, ‘शीला दीक्षित का दिल्ली में क्या प्रदर्शन रहा है इससे उत्तर प्रदेश की जनता को कोई फर्क नहीं पड़ता है. फर्क इस बात से पड़ता है कि पार्टी शीला दीक्षित को चुनाव मैदान में उतारकर क्या संदेश देना चाहती है. वह इससे दो संदेश देना चाहती है. पहला संदेश ब्राह्मण समाज के लिए है. वह यह कि यदि हम चुनाव जीते तो ब्राह्मण मुख्यमंत्री बनेगा. आजकल ब्राह्मणों को भारतीय राजनीति में मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने का चलन खत्म हो चला है. यह संदेश बहुत दूरगामी होगा. दूसरा संदेश, शीला दीक्षित एक खास तरह के विकास के एजेंडे की भी नुमाइंदगी करती हैं. शीला दीक्षित ने दिल्ली में 15 साल सरकार चलाई है. इस दौरान उनके मॉडल की प्रशंसा खूब की गई. भले ही वे चुनाव हार गईं. कांग्रेस इसी मॉडल को उत्तर प्रदेश में पेश करना चाह रही है. अभी उत्तर प्रदेश की जनता ने पिछले 15 साल में या तो सपा का मॉडल देखा है या फिर बसपा का. यह एक तीसरा मॉडल जनता के सामने आया है.’

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हालांकि राम बहादुर राय इससे इतर राय रखते हैं. वे कहते हैं, ‘शीला दीक्षित के नाम का सीधा मतलब सिर्फ इतना है कि आपके पास कोई ऐसा नाम नहीं है जिसे चलाकर आप वोट हासिल कर सकें. प्रशांत किशोर की सलाह पर ऐसा किया गया है. अब प्रशांत किशोर शीला के अलावा किसी और को ढूंढ़ नहीं पाए. मेरा यह कहना नहीं है कि 2014 में शीला दीक्षित ने खराब प्रदर्शन किया तो उन्हें आगे मौका नहीं मिलना चाहिए लेकिन शीला दीक्षित का उत्तर प्रदेश की राजनीति से नाता कई दशक पहले खत्म हो चुका है. वह चुनाव सिर्फ इसलिए जीतने में सफल रहीं कि वे उत्तर प्रदेश की बहू रही हैं. अब ऐसे में प्रदेश से उनका नाता सिर्फ एक दो जिलों में ही रह गया है. इसके अलावा जब चुनाव प्रचार के दौरान कड़े परिश्रम की जरूरत होगी तो वे अपने स्वास्थ्य को कितना बेहतर बनाए रख पाएंगी. उनका चुनाव करके कांग्रेस ने जड़ों को मजबूत करने के बजाय कांग्रेस को बर्बाद करने की दिशा में काम करने की शुरुआत की है.’

इसके बाद बात आती है राज बब्बर की. राज बब्बर जब अपनी प्रसिद्धि के चरम पर थे तो मुलायम सिंह यादव ने उनकी भीड़-बटोरू छवि का बखूबी इस्तेमाल किया था. लेकिन कुछ जानकारों का मानना है कि गाजियाबाद में हार के बाद राज बब्बर का जादू अब उतर चुका है. समाजवादी पार्टी के नेता शिवपाल सिंह यादव ने शायद इसीलिए उन्हें दगा हुआ कारतूस कहा है.

‘आपने बनारस को देखा है तो वहां की सड़कों पर सोनिया या राहुल नहीं आम आदमी भी अगर जुलूस लेकर निकल जाए तो भारी भीड़ जमा हो जाती है’

राम बहादुर राय कहते हैं, ‘कांग्रेस के पास उत्तर प्रदेश के सपनों को हवा देने वाला कोई नेता अभी नहीं है. उनके पास नेतृत्व का इस कदर टोटा है कि वे राज बब्बर को ले आए हैं. राज बब्बर सिर्फ कुछ पंजाबी वोट बैंक को अपनी तरफ खींच पाएंगे. अब जब बड़ा आधार वोट आपसे खिसक रहा हो तो सिर्फ पंजाबी वोट बैंक को खींचकर आप क्या कर पाएंगे. दूसरी बात, राज बब्बर पुराने कांग्रेसी नहीं हैं, वे समाजवादी पार्टी से नाराज होकर कांग्रेस में आए थे. उनके जन्म स्थान आगरा में ही जाकर आप किसी से पूछें तो कोई उन्हें कांग्रेसी नहीं बताएगा वह उन्हें समाजवादी बता देगा. इनका चुनाव बताता है कि कांग्रेस को गैर-कांग्रेसियों के जरिए पुनर्जीवन देने की तैयारी की जा रही है.’

सोनिया गांधी ने राज बब्बर को जीत का जो मंत्र दिया है वह है, ‘टीम बनाओ, जीत दिलाओ.’ यह मंत्र सुनने में तो अच्छा ही लगता है लेकिन राज बब्बर के लिए सबसे बड़ी समस्या ही ‘टीम’ बनाने की है. उत्तर प्रदेश कांग्रेस में अब जितने भी लोग हैं उनकी स्वाभाविक इच्छा रहती है कि टीम चाहे जिसकी भी बने, उन्हें इसका हिस्सा रहना ही चाहिए. राज बब्बर की दूसरी बड़ी समस्या जमीनी स्तर के अनुभव की कमी की है. प्रदेश अध्यक्ष के रूप में चुनाव के लिए पार्टी को तैयार करना उनके लिए आसान नहीं होगा. सबका साथ लेना आसान नहीं होगा क्योंकि कांग्रेस के भीतर से ही उन पर बाहरी होने का लेबल लगाने की कोशिश शुरू हो गई है.

हालांकि शरत प्रधान इस फैसले को सही ठहराते हैं. वे कहते हैं, ‘राज बब्बर के रूप में कांग्रेस के पास ऐसा चेहरा है जिसकी पूरी उत्तर प्रदेश में पहचान है. कांग्रेस को जनता के बीच में जाकर उनकी पहचान बताने की जरूरत नहीं है. वे ड्रामा भी क्रिएट कर सकते हैं, अच्छा भाषण भी दे सकते हैं. यह कांग्रेस के लिए बहुत फायदेमंद रहेगा.’

अब बात प्रियंका गांधी की भूमिका की, जो एक प्रचारक के रूप में अब तक अमेठी-रायबरेली से बाहर नहीं निकली हैं. दूसरे, विधानसभा चुनावों में उनकी सभाओं में भीड़ जुटाना कांग्रेस के लिए इसलिए आसान नहीं होगा क्योंकि उसका निचले स्तर का सांगठनिक ढांचा बुरी तरह से चरमराया हुआ है. जानकारों का कहना है कि प्रियंका को लाने में कांग्रेस ने दस साल की देरी कर दी है. अब उनसे चमत्कार करने की उम्मीद बेमानी है.

शरत प्रधान कहते हैं, ‘प्रियंका गांधी इस चुनाव में सक्रिय भूमिका निभाएंगी. उनके नाम को सार्वजनिक न किए जाने का फायदा यह है कि अगर कांग्रेस अच्छा प्रदर्शन करती है तो उसका श्रेय उनके पास आएगा और अगर पार्टी बुरा प्रदर्शन करती है तो शीला दीक्षित जिम्मेदारी ले लेंगी.’

अगर हम कांग्रेस के चुनावी प्रदर्शन की बात करें तो इसमें केवल सुधार ही हो सकता है. जानकार कहते हैं कि उन्होंने इस बार जो रणनीति बनाई है उससे हमें देखना है कि कितना सुधार होगा. कांग्रेस अभी सरकार बनाने के लिए चुनाव नहीं लड़ रही है. अभी उसकी रणनीति सिर्फ अपनी 28 सीटों को 50 या 100 करने की है. वह मत विभाजन करने की कोशिश कर रही है. शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाकर यही करना चाह रही है. अब ब्राह्मण समाज इससे कितना प्रभावित होता है यह देखने वाली बात होगी. इसके अलावा इस रणनीति के हिसाब से उसे टिकटों का बंटवारा भी करना होगा. तभी आपका संदेश उस जनता के पास पहुंच पाएगा जिसे आपने टारगेट किया है. अभी तक उन्होंने जो भी किया है वह अच्छा किया है.

शरत प्रधान कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि अभी प्रदेश में उसे पूछने वाला कोई नहीं है. उसे जमीनी स्तर से काम करना है, लेकिन उसके सामने संभावनाएं अपार हैं. प्रदेश में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो सपा, बसपा और भाजपा के शासनकाल से ऊब चुके हैं. ऐसे लोग एक नए विकल्प की तलाश कर रहे हैं. वे चाहते हैं कि कांग्रेस इस स्थिति में आए कि वे उसे वोट दे सकें. खासकर मुस्लिम समुदाय मुलायम सिंह यादव से अब दूर जाना चाह रहा है. वह चाहता है कि कांग्रेस एक मजबूत विकल्प के रूप में सामने आए. अभी शीला दीक्षित और राज बब्बर के आने के बाद कांग्रेस एक विकल्प बन रही है. लेकिन उसे बहुत मेहनत करनी पड़ेगी.’

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हालांकि राम बहादुर राय कहते हैं, ‘कांग्रेस के सामने 2006 में जो चुनौती थी वही 2016 में भी है. 2006 में राहुल गांधी पहली बार उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रचार में उतरे थे. उस दौरान चुनाव से करीब एक साल पहले उन्होंने गाजियाबाद से रोड शो की शुरुआत की थी. अब दस साल बाद फिर कांग्रेस बनारस से रोड शो की शुरुआत करके चुनाव प्रचार शुरू कर रही है. इस दौरान भीड़ की चर्चा हो रही है. लेकिन अगर आपने बनारस को देखा है तो वहां की सड़कों पर सोनिया या राहुल नहीं आम आदमी भी अगर जुलूस लेकर निकल जाए तो भारी भीड़ जमा हो जाती है. इस भीड़ को देखकर यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है कि वह कांग्रेस के लिए आतुर है. उत्तर प्रदेश की जनता ने कांग्रेस को 1989 में ही नकार दिया है. अभी कोई ऐसा लक्षण नहीं दिख रहा है जिससे लगे कि उत्तर प्रदेश कांग्रेस के लिए बांहें फैलाए खड़ा है. अभी जो चुनाव हो रहे हैं उसमें सामाजिक समीकरण बहुत मायने रख रहा है. उत्तर प्रदेश में कांग्रेस किसी भी सामाजिक समीकरण में फिट नहीं बैठ रही है. अभी का हाल तो इतना बुरा है कि उसके बचे-खुचे विधायक भी पार्टी छोड़कर भाग रहे हैं. मुझे लगता है कि कांग्रेस की सीटों की संख्या 2012 के मुकाबले घट ही जाएगी.’

वहीं कांग्रेस के नेता अपनी चुनौतियों को दूसरी तरह से गिनाते हैं. राजेश मिश्रा कहते हैं, ‘उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के सामने एक तरफ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को रोकने तो दूसरी तरफ जातिवादी ताकतों को खत्म करने की चुनौती है. पिछले 27 सालों में उत्तर प्रदेश जातीय राजनीति की प्रयोगशाला बन चुका है. इस दौरान प्रदेश की जनता सरकारों से बहुत नाराज हुई है. सपा, बसपा और भाजपा के शासनकाल में प्रदेश का विकास रुक गया है. कांग्रेस के सामने चुनौती विकास के मामले में राज्य के पुराने गौरव को वापस दिलाने की है. इस बार जिस मजबूती के साथ नई टीम का गठन हुआ है और जिस मजबूती से पार्टी आगे बढ़ रही है, वह एक बेहतर विकल्प बनकर जनता के सामने आएगी. लोग कांग्रेस को एक उम्मीद के रूप में देख रहे हैं.’

उत्तर प्रदेश कांग्रेस के प्रवक्ता किशोर वार्ष्णेय का कहना है, ‘उत्तर प्रदेश में हमारा मुख्य लक्ष्य हिंदू और मुसलमान के नाम पर लोगों को बांटने वाली भाजपा को सत्ता में आने से रोकना है. इसके लिए हमारी पार्टी पूरा प्रयास कर रही है. हम इस बार तीन अंकों में पहुंच जाएंगे. इस बार हमारा पूरा प्रयास यह है कि हम किंग मेकर की भूमिका में रहें. कांग्रेसी जिला स्तर पर रैलियां करेंगे. रोड शो होगा और हमारे कार्यकर्ता प्रदेश की जनता से संवाद कायम करेंगे. हमें सत्ता में वापस आना है और इसके लिए हमने तैयारी शुरू कर दी है. अभी लखनऊ और बनारस के कार्यक्रमों में बड़ी संख्या में लोग जुटे जो अच्छा संकेत है.’

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‘जाति और धर्म के नाम पर बरगलाई गई जनता के सामने हमने शीला मॉडल पेश किया है’

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पूर्व केंद्रीय मंत्री प्रदीप जैन आदित्य की गिनती कांग्रेस के उन नेताओं में होती है जिन्हें केंद्र और प्रदेश दोनों जगहों पर राजनीति करने का अनुभव है. प्रदेश के अपेक्षाकृत पिछड़े इलाके बुंदेलखंड से आने वाले प्रदीप पिछली मनमोहन सरकार में ग्रामीण विकास राज्य मंत्री के रूप में काम कर चुके हैं. अभी उन्हें आगामी विधानसभा चुनाव के लिए बनी कांग्रेस की समन्वय समिति का सदस्य बनाया गया है. 2017 में होने वाले विधानसभा चुनावों को लेकर उनसे बातचीत.

 

आगामी विधानसभा चुनावों को लेकर कांग्रेस के सामने क्या चुनौतियां हैं?

कांग्रेस की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि प्रदेश को विकास की मुख्यधारा में लाने के लिए जातिवादी ताकतों को परास्त कैसे किया जाए. हम समझते हैं कि आज की जो स्थिति है इसमें चुनौतियां दूसरे दलों के सामने ज्यादा हो गई हैं. हमने तो शीला दीक्षित को लाकर विकास का एक मॉडल जाति और धर्म के नाम पर बरगलाई गई जनता के सामने पेश कर दिया है. हमारे सामने एक स्पष्ट चेहरा है. अब उसके सामने कोई चेहरा प्रदेश में दिखाई नहीं देता है. भाजपा अभी असमंजस में है. बसपा की मायावती का जो चेहरा है उस पर कितने धब्बे हैं यह लोगों को पता है और सपा के अखिलेश यादव तो पूरी तरह से फेल हो गए हैं. प्रदेश में कानून व्यवस्था नहीं है.

प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने की कितनी संभावना है?

कांग्रेस उत्तर प्रदेश में सरकार बनाएगी. अभी हमारा लखनऊ में रोड शो हुआ था. उसमें लाखों लोग बरसते पानी में इकट्ठा हुए. बनारस के कार्यक्रम में लाखों लोग उमड़े. सबसे बड़ी बात यह रही कि लोग अपना पैसा खर्च करके आए. यह एक संदेश है. जहां सपा पूरी सत्ता का प्रयोग करके लोगों को बुलाती है, बसपा लोगों को इकट्ठा करती है वहां कांग्रेस के समर्थन में जनता स्वत: स्फूर्त पहुंची.

विधानसभा चुनावों को लेकर कांग्रेस की रणनीति क्या है? इसमें प्रशांत किशोर की क्या भूमिका है?

प्रशांत किशोर कांग्रेस का सहयोग कर रहे हैं. उनकी जो रणनीति है वह यही है कि विकास के सहारे चुनाव लड़ा जाए, क्योंकि जनता विकास तलाश रही है. कांग्रेस इस बार पूरी तरह से उठकर खड़ी हो गई है.

प्रदेश में कांग्रेस 27 साल से सत्ता से बाहर है. इसका क्या कारण रहा?

सबसे बड़ी बात यह रही है कि बीते दिनों में लोगों ने जाति के नाम पर जनता को छला और विकास को नजरअंदाज किया गया. सपा, बसपा और भाजपा ने प्रदेश में विकास की एक ईंट नहीं लगाई. इस दौरान सिर्फ प्रदेश को बर्बाद करने का काम किया गया. यह सिर्फ एक शासन में नहीं हुआ. तीनों पार्टियों ने मिलकर प्रदेश को लूटा है. इस दौरान कोई भी औद्योगिक नीति नहीं बनी. अब लोगों को इसका एहसास हुआ है, लोग उमड़कर कांग्रेस के पास आ रहे हैं. अब जो लोग कांग्रेस से टिकट मांग रहे हैं वे हर बूथ पर पांच लोगों का नाम दे रहे हैं.

हाल में कुछ विधायकों ने पार्टी का दामन छोड़कर विरोधी दलों की शरण ली है?

विधायकों ने पार्टी नहीं छोड़ा है. उन्हें अनुशासन के चलते पार्टी से निकाला गया है. इन विधायकों ने पार्टी की ह्विप के खिलाफ वोट किया था. अब राहुल के नेतृत्व में पार्टी ने कड़ा निर्णय लेते हुए इन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया. अनुशासन सबसे पहले है. कोई भी पार्टी के साथ गद्दारी करेगा तो उसे बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा. अब जिन दलों ने उन्हें शरण दिया है उनके लिए बस इतना कहना है कि हमने जिन्हें रिजेक्ट किया वह उन्हें इस्तेमाल करने जा रहे हैं.

कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश की राजनीति से लंबे समय से दूर रही शीला दीक्षित पर दांव लगाया है. यह कितना सही फैसला है?

उत्तर प्रदेश के जितने नेता थे उन्होंने मिलकर हाईकमान से कहा कि शीला दीक्षित को प्रदेश में भेजा जाए. वे उत्तर प्रदेश की ही रहने वाली हैं और उनके अंदर एक अच्छी प्रशासनिक क्षमता है. उन्होंने दिल्ली को बेहतर स्थिति में पहुंचा दिया है. उन्हें उत्तर प्रदेश के नेताओं के अनुरोध और आग्रह पर भेजा गया है. उन्हें ऊपर से थोपा नहीं गया है.[/symple_box]

भारत-पाक शांति वार्ता का विरोध करने वाले दोनों ही तरफ बहुत-से लोग हैं : रज़ा रूमी

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आपकी पहली किताब भारत की राजधानी पर थी. अब ये किताब पाकिस्तान पर है. क्या ये किताबें एक-दूसरे से संबंधित हैं?

नहीं, डेल्ही माय हार्ट एक पर्यटक की दृष्टि से लिखा गया यात्रा संस्मरण था, जिसमें उस शहर के सदियों के इतिहास को तलाशा गया था. वहीं द फ्रैक्शस पाथ पाकिस्तान में जनरल मुशर्रफ के शासन के बाद कैसे डेमोक्रेसी आई, विकसित हुई उस पर केंद्रित है. आसिफ अली जरदारी के शासन के पांच साल (2008-2013) काफी महत्वपूर्ण थे क्योंकि पाकिस्तान में पहली बार यह किसी नागरिक सरकार का शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण था. पाकिस्तान के हालिया इतिहास के इसी बदलाव पर यह किताब बात करती है.

यह किताब पाकिस्तान के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य से कैसे जुड़ती है?

यह किताब पाकिस्तान की सरकार और विदेश नीति से जुड़े हुए कुछ जरूरी मुद्दों पर की गई राजनीतिक टिप्पणियों और लेखों का संकलन है. इसमें पाकिस्तान ने 2008 से 2013 तक राजनीति, सुरक्षा, अर्थव्यवस्था और संविधान से जुड़ी जिन समस्याओं का सामना किया उन्हें भी दर्ज किया गया है. मैं नहीं जानता कि यह वर्तमान में हो रही बहस से जुड़ता है कि नहीं पर मैं यह तो निश्चित तौर पर कह सकता हूं कि पाकिस्तान केवल काला या सफेद नहीं है, यानी सिर्फ अच्छा या बुरा नहीं है. यह एक जटिल देश है जो धीरे-धीरे बदलाव की ओर बढ़ रहा है और मेरा विश्लेषण इसी बात पर रोशनी डालता है. यह विश्लेषण तब शुरू हुआ जब मैं मेनस्ट्रीम मीडिया से जुड़ा और मुझे विभिन्न मुद्दों पर विभिन्न नजरियों को जानने का मौका मिला. मैं यही कहना चाहूंगा कि भले ही आप मेरे लिखे हुए से असहमत हों पर मेरे लेख आपको पाकिस्तान को देखने का एक ‘देसी’ नजरिया देंगे जो उन लेखों से बिल्कुल अलग है जिन्हें कई बाहरी लेखकों द्वारा, खासकर आतंक के खिलाफ छिड़ी लड़ाई के बाद लिखा गया.

जनरल मुशर्रफ के बाद पाकिस्तान की डेमोक्रेसी के इन आठ सालों को कैसे देखते हैं?

यह धीरे-धीरे मजबूत हो रही है. बीते आठ सालों में हमने एक नागरिक सरकार से दूसरी नागरिक सरकार को सत्ता का हस्तांतरण पहली बार 2013 के आम चुनावों के बाद देखा. 2013 से राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस और मिलिट्री चीफ चारों लोकतांत्रिक तरीके से काम कर रहे हैं. ये दिखाता है कि व्यवस्थाओं में बदलाव आ रहा है और संवैधानिक प्रक्रियाअों से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता. जनरल मुशर्रफ के बंद पड़े केस की सुनवाई शुरू होना इसका एक उदाहरण है. राष्ट्रीय सुरक्षा व्यवस्थाओं पर अभी लोकतांत्रिक नियंत्रण आना बाकी है. 2014 के बाद से सेना ने देश के राष्ट्रीय मुद्दों पर नाटकीय रूप से अपना रुख बदला है. सेना अब पहले की तरह न आसानी से तख्तापलट कर सकती है और न ही वो यह सोचती है कि सत्ता में सीधे हस्तक्षेप करना उसके हित में है. और वैसे भी लोकतंत्र एक लंबी प्रक्रिया है और अगर जैसे चल रहा है वो चलता रहा तो आगे भी डेमोक्रेसी बनी रहेगी.

पर भारत में आम धारणा यही है कि पाकिस्तान में सत्ता सेना और नागरिक सरकार के बीच बंटी हुई है.

इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि पाकिस्तान में मिलिट्री जनरलों ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से शासन किया है. आम चुनावों और लोकतांत्रिक सरकार बनने से भी सेना और सरकार के बीच सत्ता के संतुलन में बदलाव नहीं आया है. सेना को नियंत्रण में लाने के लिए अभी कई आम चुनाव लगेंगे. इस वक्त पाकिस्तान कई तरह की बगावतों और नागरिक संघर्षों से जूझ रहा है जिससे सेना को घरेलू मसलों और राष्ट्रीय नीतियों को प्रभावित करने का मौका मिल रहा है. वैसे पाकिस्तानी नेताओं को अभी तक संसद पर पूरा विश्वास नहीं है इसलिए वे पिछले दरवाजे से सेना के साथ किसी भी सौदे के लिए तैयार रहते हैं.

नए सेना प्रमुख राहील शरीफ को उत्तर-पश्चिम पाकिस्तान और कराची में आतंकवादियों के खिलाफ सफलता मिली है. ऐसा माना जा रहा है कि इसने उनके प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ से रिश्ते को मजबूत किया है.

वैसे यह तो है कि जनरल राहील शरीफ प्रधानमंत्री शरीफ से ज्यादा प्रभावी लगते हैं और शायद मशहूर भी. और ऐसा शायद इसलिए है कि उनका पाकिस्तानी तालिबान पर रुख साफ है, वे उसी हिसाब से काम करते हैं इसलिए समाज के बड़े तबके की सराहना भी उन्हें मिली है. वहीं नवाज़ शरीफ तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान से बातचीत को तरजीह देते हैं. दूसरे, 2014 में देश के अंदर ही शुरू हुए राजनीतिक संकट ने भी प्रधानमंत्री शरीफ को कमजोर किया है. हालिया महीनों में नवाज़ शरीफ ने अपनी राजनीतिक साख फिर पानी शुरू की थी, बड़े शहरों में स्थानीय चुनावों में भी उनकी पार्टी को ही ज्यादा सीटें मिली थीं पर ‘पनामा पेपर्स’ में नाम आने के बाद नवाज़ कमजोर पड़ गए और सेना का पलड़ा फिर भारी हो गया.

अगर भारत के साथ द्विपक्षीय वार्ता की बात करें तो उधमपुर हमले के बाद इस प्रक्रिया में एक कभी न खत्म होने वाली पेचीदगी आ गई है. भारत में तो यही सोच है कि अगर पाकिस्तानी सुरक्षा एजेंसियों द्वारा इसे खराब करने की कोशिश ही की जानी है तो ऐसी वार्ता का क्या फायदा.

भारत-पाक शांति वार्ता हमेशा से ही जटिल रही है. दोनों ही तरफ इसका विरोध करने वाले बहुत-से लोग हैं. पाकिस्तानी सुरक्षा एजेंसियां यहां के व्यावसायिक हितों की रक्षा करना चाहती हैं. इसके अलावा, पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, जो सेना में कमांडर भी रहे हैं, भारतीय राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार से बातचीत में लगे हैं. इसी बातचीत के चलते ही पाकिस्तानी खुफिया टीम ने पिछले दिनों भारत का दौरा किया था. तो इस तरह यह कह सकते हैं कि ये द्विपक्षीय वार्ता प्रक्रिया अभी पूरी तरह से खत्म तो नहीं हुई है भले ही यह कछुए की चाल में आगे बढ़ रही है.

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पाकिस्तान में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान को लेकर एक दुविधा है. प्रशासन इसे एक आतंकी समूह मानता है और यह बात भी प्रचलित है कि इसे भारत द्वारा मदद दी जाती है. जो बात यहां अस्पष्ट है वो ये है कि इसका अफगान तालिबान से क्या संबंध है.

तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान ने पूरे पाकिस्तान के सरकारी संस्थानों, सैन्य संस्थानों और निजी जगहों पर प्रत्यक्ष रूप से हमले किए हैं. (कराची के नौसेना बेस पर पीसी-3 ओरियन एयरक्राफ्ट को नष्ट कर दिया गया) पाकिस्तान की इंटेलीजेंस को पूरा यकीन है कि इसे भारत द्वारा पाकिस्तान में अस्थिरता लाने के लिए मदद दी जा रही है. इसलिए तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान राष्ट्र का दुश्मन है और इसे किसी भी कीमत पर खत्म किया जाना ही चाहिए. एक बात और कि तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान कहीं बाहर से नहीं आया है, इसमें कई ऐसे आतंकवादी हैं जिनकी पाकिस्तान की सरकार ने पहले मदद की थी पर कई वजहों से ये आतंकी उनके खिलाफ हो गए. मेरे अनुसार मुख्य वजह चरमपंथियों का पाकिस्तानी सेना को पश्चिमी देशों खासकर अमेरिका के हाथ की कठपुतली मानना है.
हां, अफगान और पाकिस्तान तालिबान में संबंध तो है पर फिलहाल उनके उद्देश्य अलग-अलग हैं. अफगान तालिबान पाकिस्तान के अंदर हमले नहीं करता क्योंकि उसे पाकिस्तानी सरकार की मदद चाहिए. वहीं तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान देश को नुकसान पहुंचाना चाहता है, इसलिए वह सेना को तो नुकसान पहुंचाता ही है साथ ही आम जनता को भी डराता है.

यहां गौर करने वाली बात यह भी है कि पाकिस्तानी सेना के अनुसार अफगान तालिबान अफगानिस्तान की एक कानूनी राष्ट्रीय और राजनीतिक इकाई है. इसलिए सरकारी नीति के अनुसार अफगानिस्तान में नियंत्रण और प्रभाव कायम करने के लिए पाकिस्तान को अफगान तालिबान से किसी स्तर पर बातचीत का माहौल रखना ही होगा. और ये तो जाहिर बात है कि पाकिस्तान की अफगानिस्तान से जुड़ी नीतियां भारत की घेराबंदी के डर से बनती हैं. वहीं भारत को अफगानिस्तान के आतंकियों के हाथ में वापस जाने पर आतंकवाद के बढ़ने का डर है. यही कारण है कि भारत-पाकिस्तान को आपस में अपने उद्देश्यों के बारे में स्पष्ट तौर पर बात करने की जरूरत है वरना इन क्षेत्रों में स्थिरता कभी नहीं आ पाएगी.

पहले वीजा देना शुरू करें, एकीकरण बाद की बात है

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भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश के एकीकरण से पहले हमें आज के हालात को देखना होगा. हमने दक्षिण एशियाई देशों का एक संगठन दक्षेस बनाया है. पहले हमें उसे ठीक ढंग से काम करने देना होगा. आज की तारीख में तो यही संगठन ठीक ढंग से काम नहीं कर पा रहा है. हम इस तरह की बात शुरू करने के लिए अक्सर यूरोपीय संघ का उदाहरण देते हैं, लेकिन अगर हम यूरोपीय संघ के गठन की प्रक्रिया को देखंे तो इस संगठन में शामिल देशों ने पहले आर्थिक सहयोग शुरू किया. फिर अपने दूसरे मसलों को हल किया. यह प्रक्रिया सतत रूप से चलती रही फिर एक ऐसा संघ बनकर तैयार हुआ.

अब यूरोपीय संघ जैसा कोई यूनियन बनाने के लिए हमें पहले हमारे यहां के हालात देखने होगे. हम दोनों-तीनों देश एक दूसरे के निवासियों को वीजा नहीं देते हैं. एक-दूसरे के साथ ठीक तरीके से व्यापार नहीं करते हैं. अब लोग एक-दूसरे देश के लोगों को जानेंगे-समझेंगे नहीं तो मुझे नहीं लगता है कि आगे की बात करने का कोई फायदा है. हमें तो सबसे पहले यही करना होगा कि लड़ना-झगड़ना बंद करके जितने भी दक्षेस के देश हैं उनके साथ व्यापार शुरू करें. एक-दूसरे देश में आवाजाही को सुगम बनाएं. दक्षेस का जो डेवलपमेंट फंड है उसे बढ़ाएं और सही तरीके से खर्च करें. एक दक्षेस विश्वविद्यालय बनाया गया है. वहां इन देशों के छात्रों की गतिविधियों में सक्रियता लाएं.

अब एकीकरण की पैरवी भारत का दक्षिणपंथी धड़ा करता है लेकिन उसकी विश्वसनीयता बात करने लायक भी नहीं है. यही वह धड़ा है जो भारत-पाकिस्तान की दोस्ती की मुखालफत करता रहता है. वह हमेशा ऐसी बात करता है जिससे दोनों देशों के मध्य कटुता बढ़े. जब से यह नई सरकार आई है तब से पाकिस्तान के लोगों को वीजा नहीं मिलने समेत तमाम दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है. अब अगर यह धड़ा एकीकरण जैसी बात कर रहा है तो यह कैसे संभव होगा और किस आधार पर होगा यह मेरी समझ से परे है. आखिर ये लोग हमारे संवाद के जो माध्यम हैं या जो व्यवस्था पहले से चली आ रही है उसे नहीं चलने दे रहे हैं तो एकीकरण की बात क्या करेंगे.

एकीकरण की बात करने के बजाय हमें पहले यूरोपीय संघ की तरह का संघ बनाना होगा. दक्षेस के रूप में हमारे पास एक ऐसा मजबूत संगठन भी है. यह संगठन पूरे दक्षिण एशिया को एक ताकत के रूप में स्थापित करेगा

ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान में इस तरह की चर्चाएं नहीं चलती हैं. पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी के एक होने के बाद ऐसी चर्चाएं हर जगह होती हैं. पर मेरा और पाकिस्तान के एक बड़े तबके का मानना है कि दक्षेस जैसे संघ के ठीक से काम न करने के लिए भी भारत और पाकिस्तान दोनों मुल्क जिम्मेदार हैं. क्योंकि यही लोग अपने आपसी झगड़ों का निपटारा नहीं कर पाते हैं जिसकी छाप अक्सर दक्षेस संघ पर पड़ती है. इस संघ में यही दो बड़ी शक्तियां हैं. बाकी देश छोटे-छोटे हैं. वे इन दोनों देशों को देखते रह जाते हैं. मेरा मानना है कि जब तक ये दोनों देश अपने झगड़े नहीं सुलझाएंगे, दोनों देशों के लोग एक-दूसरे के यहां आएंगे-जाएंगे नहीं तब तक इस मसले का हल निकल पाना मुश्किल है. हमारे साथ दिक्कत यह है कि हम संबंधों को सुधारने की दिशा में दो कदम आगे बढ़ते हैं तो चार कदम पीछे आ जाते हैं. अब 2012 में हमने तय किया था कि 65 साल से अधिक उम्र के लोगों को हम ऑन अराइवल वीजा की सुविधा देंगे, लेकिन चार साल बीत जाने के बावजूद हम इस तरह की सुविधा नहीं शुरू कर पा रहे हैं. ऐसा वीजा देने से भारत ने ही इनकार कर दिया. यह तो सिर्फ एक बात है. ऐसी तमाम और चीजें हैं. हमने तमाम व्यापारिक समझौते किए थे लेकिन इसके बाद हमारे बीच कितना व्यापार बढ़ा? ऐसा भी नहीं हो पा रहा है कि दोनों देशों के मध्य लोगों के आवागमन में बढ़ोतरी हो गई है.

एकीकरण की बात करने के बजाय हमें पहले यूरोपीय संघ की तरह का संघ बनाना होगा. दक्षेस के रूप में हमारे पास एक ऐसा मजबूत संगठन भी है. यह संगठन पूरे दक्षिण एशिया को एक ताकत के रूप में स्थापित करेगा. पूरे दक्षिण एशिया में तमाम परिवार बिछड़े पड़े हैं. भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका में एक-दूसरे के रिश्तेदार रहते हैं. अब अगर सब साथ में आएंगे तो इसमें सबका भला होगा. हमें इस दिशा में गंभीरता से सोचने की जरूरत भी है.

(लेखक पाकिस्तान इंडिया पीपुल्स फोरम फॉर पीस ऐंड डेमोक्रेेसी के संस्थापक सदस्य हैं)

(अमित सिंह से बातचीत पर आधारित)

अखंड भारत के लिए आवश्यक है अखंड उदारता

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अच्छे सपने देखना अच्छी बात है. मानव समाज सपनों से खाली नहीं हो सकता. सपने हमें जीने का हौसला देते हैं. लेकिन रात और दिन में देखे गए सपनों में बड़ा अंतर होता है. रात के सपने सिर्फ कल्पनालोक को आलोकित करते रहते हैं जबकि दिन में देखे गए सपने साकार किए जा सकते हैं. भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश को एक महादेश बनाने का सपना दिन में देखा गया सपना है. इस महादेश में यदि तीन बड़े देश आएंगे तो नेपाल, श्रीलंका और भूटान अपने को अलग नहीं रख पाएंगे.

टूटे हुए दिलों और देशों को जोड़ने के लिए सबसे पहले यह समझने की जरूरत पड़ती है कि वे टूटे क्यों थे. जब तक टूटने के कारणों का पता नहीं, तब तक जोड़ने की प्रक्रिया को शुरू नहीं किया जा सकता. भारत विभाजन का वैचारिक आधार ‘द्वि-राष्ट्र’ सिद्धांत था, जिसके अंतर्गत यह माना गया था कि हिंदू और मुसलमान दो-दो राष्ट्रीयताएं हैं और दोनों को अलग हो जाने की आवश्यकता है. यह समझ केवल मुस्लिम लीग की नहीं थी. इसके प्रमाण मिलते हैं कि कट्टरवादी हिंदू विचारक भी इस पर विश्वास करते थे. केवल कांग्रेस इस सिद्धांत से असहमत थी. उसका मानना था कि राष्ट्रीयता का आधार धर्म नहीं है. हिंदू-मुस्लिम अलगाव के बीज 19वीं शताब्दी में पड़ने शुरू हो गए थे. अंग्रेजी, साम्राज्यवाद, पश्चिमी शिक्षा और राष्ट्रीय आंदोलन ने कुछ नई अवधारणाओं को जन्म दिया था. इसमें सबसे बड़ी अवधारणा ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति पाकर देश को लोकतांत्रिक स्वरूप देने की थी. लोकतंत्र में चूंकि बहुमत द्वारा ही सत्ता स्थापित होती है इसलिए यह माना जा रहा था कि हिंदुस्तान में हिंदू सत्ता स्थापित होगी. सर सैयद के आजादी और लोकतंत्र विरोध का यही कारण था. पश्चिम से अत्यंत प्रभावित होने के बाद भी सर सैयद ने लोकतंत्र के केवल बाह्य रूप को ही पहचाना था. उन्हें इसकी जानकारी कम थी कि लोकतंत्र में योग्यता और दक्षता का भी बड़ा महत्व होता है जो किसी भी मायने में संख्या से कम नहीं होता.

19वीं शताब्दी में 1857 के बाद पूरे देश में स्थापित ब्रिटिश साम्राज्य के पास कुछ ऐसे सामाजिक मूल्य थे जो यूरोप में अर्जित किए गए थे जिन पर अंग्रेजों का पूरा विश्वास था. वे भारतीय उपनिवेश को उनके आधार पर चलाना चाहते थे. इन मूल्यों में मनुष्य और मनुष्य को बराबर मानने और समझने पर विशेष जोर था. यह अवधारणा हिंदुस्तान के लिए बिल्कुल नई थी. इस अवधारणा के अंतर्गत धर्म, जाति और पारिवारिक श्रेष्ठता का कोई महत्व न था, जबकि तत्कालीन सामंती भारतीय समाज में इनका बहुत महत्व था. ब्रिटिश साम्राज्य ने अपने विचारों और सिद्धातों के अनुसार हिंदू-मुसलमानों और सभी धर्मों को मानने वालों को बराबर समझकर ऐसे-ऐसे कानून बनाए थे जिसने सामंती मुस्लिम समाज को विचलित कर दिया था और उन्हें अपनी श्रेष्ठता खतरे में लगने लगी थी.

‘20वीं शताब्दी में बहुत-से छोटे-छोटे देश बनते देखे गए. पर किसी देश के दो टुकड़ों को साथ मिलते कम ही देखा गया. एकीकरण का सबसे बड़ा उदाहरण जर्मनी है. पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी मिलकर एक देश बन गए थे’

इसी शताब्दी में मुसलमान अपने पारंपरिक अंग्रेज विरोध के कारण शिक्षा और नौकरी के क्षेत्रों में हिंदुओं से पीछे हो गए थे. सर सैयद के आंदोलन ने एक नया मुस्लिम मध्यम वर्ग जरूर पैदा किया था पर उसकी संख्या और प्रभाव कम था. पढ़ा-लिखा मुस्लिम मध्यम वर्ग खुद को हर नए क्षेत्र में हिंदुओं से पीछे ही पाता था. इसलिए उसने पाकिस्तान के रूप में एक ‘सुरक्षित स्वर्ग’ की कल्पना की थी जो जल्द ही ‘असुरक्षित नरक’ मे बदल गया था. पाकिस्तान बनने के पीछे और चाहे जितने कारण रहे हों पर मुख्य कारण मुस्लिम मध्यम वर्ग की महत्वाकांक्षा थी. पाकिस्तान के निर्माण को भारतीय मुसलमानों की एक भयंकर भूल माना जाएगा जिसके कारण न केवल वे स्वयं बर्बाद हुए बल्कि लाखों बेघर हुए और हजारों की हत्याएं हुईं. पाकिस्तान बन जाने के परिणामस्वरूप भारत में हिंदू सांप्रदायिक ताकतों को एक बड़ा आधार मिला जो लगातार बड़ा होता चला गया और आज देश में उनका शासन है. पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी सांप्रदायिक शक्तियां बहुत शक्तिशाली हैं. इन परिस्थितियों में आरएसएस और भाजपा द्वारा अखंड भारत की बात करना कुछ विचित्र-सा लगता है. इससे पहले ‘अखंड भारत’ की चर्चा दो प्रकार से होती रही है. हिंदू सांप्रदायिक शक्तियां कांग्रेस को ‘टारगेट’ बनाने के लिए यह मुद्दा उठाती रही हैं. दूसरी तरफ हिंदू-मुस्लिम सद्भावना और भारत-पाक मैत्री वाले समूह इसे दोस्ती और मित्रता के संदर्भ में उठाते रहे हैं. लेकिन इन दोनों समूहों को यह पता था कि इस कल्पना के वास्तविक उद्देश्य कुछ और हैं. भारत को आजाद हुए आधी शताब्दी से अधिक समय बीत चुका है. उपमहाद्वीप की जनसंख्या में बहुत तीव्र गति से वृद्धि हुई है. आज भारत में तकरीबन 20 करोड़ मुसलमान हैं. पाकिस्तान में तकरीबन 18 करोड़ हैं. बांग्लादेश में तकरीबन 15 करोड़ हैं. इस तरह उपमहाद्वीप में मुसलमानों की जनसंख्या तकरीबन 50 करोड़ है. अखंड भारत का अर्थ यह होगा कि उसमें 50 करोड़ मुसलमान होंगे और 82 करोड़ के करीब हिंदू होंगे. क्या आरएसएस को ऐसा अखंड भारत स्वीकार होगा जिसमें 50 करोड़ मुसलमान हों? भारत में अब तक हिंदू मतों के ध्रुवीकरण में असफल रही भाजपा क्या 50 करोड़ मुसलमान मतदाताओं को स्वीकार करेगी?

ऊपर दिए गए तथ्यों के बाद भी राम माधव ने यदि अखंड भारत की बात की है तो उनका आशय निश्चित रूप से कुछ और ही होगा. महत्वपूर्ण यह है कि वे ‘अखंड भारत’ के निर्माण के लिए तीनों देशों की सहमति और रजामंदी को पहली शर्त मानते हैं. मतलब अखंड भारत तीनों देशों की मर्जी से बनेगा. यह अवधारणा सराहनीय है.

20वीं शताब्दी में बहुत-से बड़े देशों से छोटे-छोटे देश तो बहुत बनते देखे गए. पर किसी देश के दो टुकड़ों को साथ मिलते कम ही देखा गया. एकीकरण का सबसे बड़ा उदाहरण जर्मनी है. पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी मिलकर एक देश बन गए थे.

यह एक बहुत महत्वपूर्ण तथ्य है कि पूर्वी जर्मनी की संसद में जब पश्चिमी जर्मनी के साथ विलय के प्रस्ताव पर मतदान हुआ तो प्रस्ताव के विरोध में एक मत भी नहीं था. पूर्वी जर्मनी की संसद सौ प्रतिशत विलय के पक्ष में थी क्योंकि उस समय पूर्वी जर्मनी की तुलना में पश्चिमी जर्मनी अधिक संपन्न लोकतंत्र था. पूर्वी जर्मनी आर्थिक संकट से गुजर रहा था. सोवियत यूनियन के पतन के बाद उसकी स्थिति बहुत चिंताजनक हो गई थी.

यह एक सीधी-साधी और साधारण बात है कि कठिनाई के दिनों में लोग संपन्न रिश्तेदारों के घर ही जाते हैं. संपन्न रिश्तेदार यदि उदार भी है तो क्या कहना. विभाजित देशों के विलय के लिए भी यह सिद्धांत लागू होता है. बड़े देश यदि संपन्न और उदार हैं तो वे अपने से अलग हुए छोटे देशों को आकर्षित कर सकते हैं. इस संदर्भ में उपमहाद्वीप को देखने की आवश्यकता है.

‘भारत ने यह स्थापित किया है कि वह एक बड़ा लोकतंत्र है. भारत के प्रति पाकिस्तान में सम्मान का भाव है. आम पाकिस्तानी मानता है कि उनका देश उन्हें जो नहीं दे पाया है वह भारत ने अपने नागरिकों को दिया है’

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इसमें संदेह नहीं कि भारत ने यह स्थापित कर दिया है कि वह एक बड़ा लोकतंत्र है. भारत के लोकतंत्र के प्रति पाकिस्तान में सम्मान और प्रशंसा का भाव है. आम पाकिस्तानी मानता है कि उनका देश उन्हें जो नहीं दे पाया है वह भारत ने अपने नागरिकों को दिया है. यही नहीं, वे मानते हैं कि भारत के लोकतंत्र का प्रभाव पाकिस्तानी राजनीति पर भी पड़ता है. ऐसी स्थिति में भारत के प्रति पाकिस्तान की साधारण जनता का आकर्षण समझ में आता है.

भारत निश्चित रूप से उपमहाद्वीप का एक ‘धनवान रिश्तेदार’ है. भारत की अर्थव्यवस्था बहुत मजबूत है, जबकि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था अमेरिका की बंधुआ मजदूर बन गई है. भारत की प्रगति और विकास से भी पाकिस्तानी अभिभूत हैं. आज भारत का एक रुपया पाकिस्तान के दो रुपये के बराबर है. आज से 30-35 साल पहले पाकिस्तानी मिलते थे तो यह सामान्य बातचीत का विषय बनता था कि भारत ज्यादा ‘अच्छा’ है या पाकिस्तान. लेकिन आज कोई पाकिस्तानी इस विषय पर बात नहीं करना चाहता क्योंकि यह स्थापित हो गया है कि भारत ज्यादा ‘अच्छा’ है. भारत की प्रगति देखकर पाकिस्तानी भौंचक्के रह जाते हैं. प्रत्येक क्षेत्र में भारत पाकिस्तान से आगे है. छोटी और कमजोर अर्थव्यवस्था होने के कारण पाकिस्तान का मीडिया बहुत ‘छोटा’ और ‘कमजोर’ है. पाकिस्तान के कलाकार भारत आकर काम करने के लिए व्याकुल रहते हैं क्योंकि कलाकारों को यहां जो पैसा मिलता है उसकी कल्पना भी पाकिस्तान में नहीं की जा सकती.

लोकतंत्र और अच्छी अर्थव्यवस्था वे दो बड़े कारण हैं जो भारतीय मूल के लोगों को भारत की ओर आकर्षित करते हैं. लेकिन महत्वपूर्ण उन बिंदुओं पर विचार करना है जो भारतीय मूल के लोगों को भारत से विमुख करते हैं. कराची निवासी भारतीय मूल की उर्दू कवयित्री फहमीदा रियाज़ ने भारत में पहली बार भाजपा की सरकार बनने पर एक कविता लिखी थी जिसका शीर्षक है- ‘तुम भी हम जैसे निकले’. कविता का मूल भाव यह है कि पाकिस्तान में तो उसके निर्माणकाल के समय से ही एक धर्मिक कट्टरता, अंधविश्वास, अनुदारता, जड़ता और हिंसा थी, वह आधी शताब्दी के बाद भारत में भी खुलकर सामने आ गई है. कविता में प्रतिगामी शक्तियों से पूछा जाता है- ‘अब तक कहां छिपे थे भाई’. फहमीदा की इस कविता का भारत के एक बड़े वर्ग ने बड़ा विरोध किया था. लेकिन कविता की सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता.

‘अखंड भारत’ में शामिल होने से पहले पाकिस्तान और बांग्लादेश इस मुद्दे पर विचार जरूर करेंगे कि भारत से जुड़कर क्या उन्हें आंतरिक सुरक्षा मिलेगी. दुख की बात है कि भारत के शासक गुटों ने, जिसमें मुख्य रूप से कांग्रेस शामिल है, सांप्रदायिकता की समस्या को गंभीरता से नहीं लिया है बल्कि उससे लाभ उठाने के लिए उसे हवा-पानी दिया है. कांग्रेस के अनाड़ी नेतृत्व विशेष रूप से राजीव गांधी को यह पता न था कि जिस सांप्रदायिकता से वे लाभ उठाने की कोशिश कर रहे हैं वही सांप्रदायिकता एक दिन उनके विनाश का कारण बन जाएगी.

सांप्रदायिकता के प्रति भारतीय गणतंत्र की ‘समझ’ का एक प्रमाण यह भी दिया जाता है कि देश ने आतंकवाद से निपटने के लिए नए कानून तो बना दिए हैं लेकिन सांप्रदायिकता और सांप्रदायिक दंगों में लोगों को न्याय या सजा देने के लिए नए कानून नहीं बनाए गए हैं. नतीजा यह निकलता है कि सांप्रदायिक दंगों में हत्या या जनसंहार करने वाले साफ बच जाते हैं. यह बताने की जरूरत नहीं है कि इसका अल्पसंख्यकों पर क्या प्रभाव पड़ता होगा. ‘अखंड भारत’ में शामिल होने वाले पाकिस्तान या बांग्लादेश के मुसलमान क्या इस मुद्दे पर विचार नहीं करेंगे?

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अखंड भारत या भारतीय महासंघ के लिए एक और महत्वपूर्ण विचारणीय मुद्दा है, क्या भारतीय राजसत्ता ने अपने प्रदेशों- विशेष रूप से कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों के साथ सम्मानजनक बराबरी का व्यवहार किया है? मेरे विचार से ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति पाने के बाद भी भारतीय शासकवर्ग की ‘सोच’ साम्राज्यवादी बनी रही और संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र को साम्राज्य की तरह चलाने की इच्छा हमारे नेताओं पर छाई रही. इंदिरा गांधी ने अपने राज्यकाल में साम्राज्यवादी नीतियों को चरम पर पहुंचा दिया था जिसके बड़े भयानक परिणाम निकले थे. यदि कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्यों के संबंध में विचार किया जाए तो कटु तथ्य सामने आते हैं. पूर्वोत्तर राज्यों में जनभावनाओं को समझने और उनसे संवाद स्थापित करके समाधान खोजने के बजाय सेना के माध्यम से उसे कुचला गया. अपने ही देश के एक हिस्से पर हवाई हमला किया गया. उत्तर भारत तथा शासन वर्ग के बारे मे पूर्वोत्तर राज्यों में अब तक कटुता बनी हुई है. इसी तरह का काम पाकिस्तान बलूचिस्तान में कर रहा है. अब सवाल पैदा होता है कि कौन-सा देश किसी ऐसे ‘लोकतंत्र’ के साथ मिलने का प्रयास करेगा जो अपने ही देश के एक भाग पर बम वर्षा कर चुका हो. जहां तक कश्मीर का सवाल है तो वह भी भारत या कहना चाहिए कांग्रेस के नेताओं मुख्य रूप से इंदिरा गांधी की साम्राज्यवादी समझ से उत्पन्न एक गंभीर समस्या है. साम्राज्यवाद पूरे साम्राज्य को अपने अधीन मानता है. कश्मीर को भारत का एक प्रदेश बना देने की इच्छा संविधान के खिलाफ है. यह भी सामने आता है कि देश अपने संविधान तक का सम्मान नहीं करता है. ऐसी साम्राज्यवादी सोच तो देश की एकता और अखंडता के लिए ही हानिकारक है. दूसरे देश इससे कैसे आकर्षित हो सकते हैं?

भाजपा या आरएसएस स्वेच्छा से अखंड भारत की जो बात करते हैं, वह एक महासंघ के रूप में ही संभव है पर महासंघ के लिए परस्पर विश्वास का रिश्ता बनना भी जरूरी है. उपमहाद्वीप में स्थिति यह है कि भारत और पाकिस्तान के कुछ शक्तिशाली समूह दोनों देशों को एक-दूसरे का पक्का शत्रु बनाने का लगातार प्रयास करते रहते हैं. इन समूहों में पाकिस्तान की सेना प्रमुख है क्योंकि भारत की शत्रुता के कारण ही उसका महत्व है. भारत से पाकिस्तान की दोस्ती पाकिस्तान की सेना को ‘शून्य’ कर देगी. निकट भविष्य में यह नजर नहीं आता कि पाकिस्तान सेना की गिरफ्त से बाहर निकल पाएगा. इंदिरा गांधी  ने बांग्लादेश युद्ध के बाद पाकिस्तान को यह अवसर दिया था. वहां के राजनेता इसमें सफल नहीं हो सके.

‘भारतीय महासंघ का सपना तो देखा ही जा सकता है. पर यह ध्यान रहना चाहिए कि यह केवल भावनात्मक मुद्दा नहीं है. जिस पीढ़ी ने ‘अखंड भारत’ देखा था या उसमें रही थी, वह करीब-करीब समाप्त हो चुकी है’

आतंकवाद भी एक बड़ा मसला है जो उपमहाद्वीप के देशों के निकट आने में एक बड़ी बाधा है. पाकिस्तान के पास आतंकवाद से लड़ने या उसे रोक पाने की शक्ति और इच्छा नहीं है, जबकि पाकिस्तान स्वयं भी उससे आहत है. भारत की ही यह जिम्मेदारी बनती है कि वह अपने साधनों और प्रयासों से भारत में आतंकी घुसपैठ को रोके और भारत के अंदर पनपने वाले आतंकवाद के लिए सही नीतियां बनाए. आतंकवाद केवल कानून व्यवस्था की समस्या तक सीमित नहीं होता. उसके राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक कारण भी होते हैं. उपमहाद्वीप के संघ बनने और एक अर्थ में अखंड भारत बनने का लाभ सभी देशों को होगा. यूरोपियन यूनियन जैसा गठबंधन बनाया जा सकता है. यह स्थिति फिलहाल तो दिखाई नहीं पड़ती लेकिन भारत के पास यह क्षमता है कि वह एक सशक्त लोकतंत्र बनने के बाद इस दिशा में पहल कर सकता है. लेकिन प्रश्न तो यही है कि भारत को अच्छा लोकतंत्र बनाने वाली शक्तियां अभी नजर नहीं आ रही हैं. भारतीय राजनीति पूरी तरह सत्तोन्मुखी हो गई है. प्राय: सभी दल किसी न किसी तरह सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं. पर ‘अखंड भारत’ अर्थात भारतीय महासंघ या ‘इंडियन यूनियन’ का सपना तो देखा ही जा सकता है. पर यह ध्यान रहना चाहिए कि यह केवल भावनात्मक मुद्दा नहीं है. जिस पीढ़ी ने ‘अखंड भारत’ देखा था या उसमें रही थी, वह करीब-करीब समाप्त हो चुकी है. उस पीढ़ी के लिए यह अवश्य ही बड़ा भावनात्मक मुद्दा था. विभाजन पर लिखा गया साहित्य भी भावना के स्तर पर ही उसे संबोधित करता था. पर आज यह स्थिति नहीं है. पाकिस्तान और भारत की युवा पीढ़ी की भावना इस मुद्दे से नहीं जुड़ी है. भाजपा और आरएसएस यदि इसे केवल भावनात्मक मुद्दा बनाएंगे तो यह शायद साकार नहीं हो सकता. आज यह बहुत व्यावहारिक मुद्दा है. नई पीढ़ी की रुचि इस मुद्दे में इसी प्रकार से हो सकती है.

पाकिस्तान भारत के लिए एक बहुत बड़ा बाजार है. दोनों देशों के बीच आज जो व्यापार होता है वह सौ गुना बढ़ सकता है जिसका लाभ दोनों देशों को होगा. दोनों देश लंबी-चौड़ी सीमा की देख-रेख पर जो करोड़ों रुपये खर्च करते हैं वह कम हो सकता है. यह प्रस्तावित संघ चीन जैसा शक्तिशाली हो सकता है. इस कारण इसकी सुरक्षा की गारंटी हो सकती है. पूंजीवाद देश जिस प्रकार इन देशों पर अपनी ‘इच्छा’ थोपते और लाभ उठाते हैं, उस पर भी लगाम लग सकती है. यह संघ अपनी शर्तों पर विश्व के बड़े देशों के साथ संबंध बना सकता है. अखंड भारत या भारतीय महासंघ एक बड़ी चुनौती है जिस पर भावनात्मक नहीं, व्यावहारिक ढंग से बात करने की आवश्यकता है.

राजनीति में नया क्या करेगा स्वराज अभियान?

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आम आदमी पार्टी से हटाए जाने के बाद योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण और प्रो. आनंद कुमार समेत अन्य लोगों ने पिछले साल 14 अप्रैल, 2015 को स्वराज अभियान नाम का संगठन बनाया था. हाल ही में संगठन के पहले राष्ट्रीय अधिवेशन में राजनीतिक दल बनाए जाने की घोषण की गई. प्रो. आनंद कुमार स्वराज अभियान के नवनिर्वाचित राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए गए हैं. संगठन ने दो अक्टूबर तक राजनीतिक दल बनाने की प्रक्रिया पूरी करने के लिए अजीत झा की अगुआई में एक छह सदस्यीय समिति भी बनाई है. पार्टी के नाम की घोषणा गांधी जयंती के मौके पर की जाएगी.

स्वराज अभियान के गठन के समय तीन मुख्य मापदंड तय किए गए थे. पहला- लोकतांत्रिक ढंग से संगठन का निर्माण. दूसरा- देश के गंभीर मुद्दों पर जन आंदोलन चलाना और तीसरा- पारदर्शिता व जवाबदेही को सुनिश्चित करना. इस मौके पर प्रो. कुमार ने कहा, ‘स्वराज अभियान शुरू से आंतरिक लोकतंत्र, पारदर्शिता और जवाबदेही को लेकर प्रतिबद्ध रहा है. आंतरिक लोकतंत्र सुनिश्चित करने के लिए 100 से ज्यादा जिलों व कम से कम छह राज्यों में संगठनात्मक चुनाव की प्रक्रिया पूरी करनी थी. अब तक 114 जिलों व सात राज्यों में आंतरिक चुनाव के जरिए संगठन निर्माण की प्रक्रिया पूरी कर ली गई है.’

दिल्ली में हुए राष्ट्रीय प्रतिनिधियों के सम्मेलन में ‘राजनीतिक दल निर्माण के प्रस्ताव’ पर गहन विचार-विमर्श हुआ. प्रतिनिधियों के बीच सामूहिक चर्चा हुई, जिसके बाद प्रस्ताव पर सदस्यों की ओर से विधिवत वोटिंग भी हुई. प्रतिनिधि सम्मेलन में मीडिया की मौजूदगी में नतीजों की घोषणा हुई, जिसमें 92.5 फीसद के बहुमत ने राजनीतिक दल के प्रस्ताव पर मुहर लगाई. राष्ट्रीय प्रतिनिधियों की ओर से कुल 433 वोट पड़े, जिसमें 405 लोग प्रस्ताव से सहमत, 26 असहमत और दो वोट अमान्य पाए गए. राष्ट्रीय प्रतिनिधियों की सहमति के बाद स्वराज अभियान ने राजनीति की राह पर आगे बढ़ने का फैसला किया. इस अधिवेशन में राजनीतिक दल निर्माण की घोषणा के साथ देश में वैकल्पिक राजनीति की स्थापना के लिए आवाज बुलंद की गई. कहा गया कि पार्टी बनने के बाद भी स्वराज अभियान कायम रहेगा और इसके बैनर तले जन आंदोलन चलते रहेंगे. संगठन ने दावा किया कि पार्टी में लोकतंत्र, पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित की जाएगी.

स्वराज अभियान नाम से आंदोलन चला रहे इन नेताओं का पार्टी बनाकर चुनाव में उतरना आम आदमी पार्टी के लिए बड़ा झटका है

पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए स्वराज अभियान ने स्वेच्छा से खुद को सूचना के अधिकार के तहत रखा है और जन सूचना अधिकारी भी नियुक्त किया है. संगठन में जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए तीन सदस्यीय लोकपाल नियुक्त किया गया है. प्रतिनिधि सम्मेलन में प्रशांत भूषण ने स्वराज अभियान के लोकपाल के तौर पर कामिनी जायसवाल, सुमित चक्रवर्ती और नूर मोहम्मद का परिचय कराया. संगठन में शिकायत निवारण समितियां भी बनाई गई हैं. अधिवेशन को संबोधित करते हुए योगेंद्र यादव ने कहा, ‘हमारे लिए पार्टी बनाने का मतलब है कि देश में सच्चाई और ईमानदारी की ऊर्जा जहां कहीं भी है, उसे जोड़ना. हम सच्चाई और ईमानदारी की ऊर्जा को संगठित करके वैकल्पिक राजनीति की एक मिसाल पेश करेंगे. स्वराज अभियान ने देश का पहला ऐसा राजनीतिक-सामाजिक संगठन होने का दावा किया है जिसने इतने बड़े पैमाने पर आतंरिक संगठनात्मक चुनाव संपन्न कराए हैं.’

ये दावे स्वराज अभियान की तरफ से किए जा रहे हैं, लेकिन हम आपको 2016 से कुछ साल पीछे ले जा रहे हैं जब अन्ना हजारे के नेतृत्व में लोकपाल आंदोलन के माध्यम से पूरे देश में एक बड़ी क्रांति आई. उसके दो परिणाम हुए. पहला- केंद्र में शासन करने वाली भारत की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस रसातल में जा पहुंची. दूसरा- सामाजिक कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल और अन्ना हजारे के लोकपाल आंदोलन से जुड़े बहुत-से सहयोगियों ने आम आदमी पार्टी नाम से एक नए राजनीतिक दल का गठन किया. इस पार्टी ने अब दिल्ली में सरकार बनाई है. हालांकि अन्ना भ्रष्टाचार विरोधी जनलोकपाल आंदोलन को राजनीति से अलग रखना चाहते थे, जबकि अरविंद केजरीवाल, योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण समेत उनके दूसरे सहयोगियों की यह राय थी कि पार्टी बनाकर चुनाव लड़ा जाए. इसके गठन की आधिकारिक घोषणा 26 नवंबर, 2012 को भारतीय संविधान अधिनियम की 63वीं वर्षगांठ के अवसर पर दिल्ली के जंतर मंतर पर की गई थी. उस दौरान भी आज के स्वराज अभियान से जुड़े नेताओं ने आम आदमी पार्टी को सबसे अलग बताया था. हालांकि पार्टी के गठन के तीन साल के भीतर ही इन तमाम नेताओं का आम आदमी पार्टी से मोहभंग हो गया. इस दौरान एक बात गौर करने वाली है कि योगेंद्र यादव को आम आदमी पार्टी का ‘चाणक्य’ माना गया था.

इसके बाद केजरीवाल से नाराज योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण और अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं ने मिलकर 14 अप्रैल, 2015 को स्वराज अभियान नामक संगठन बनाया और धीरे-धीरे उसे देश के सैकड़ों जिलों तक फैलाया. आम आदमी पार्टी से निकाले जाने के बाद ‘स्वराज अभियान संगठन’ के लिए इन नेताओं ने जमीनी स्तर पर काम किया. हालांकि इन नेताओं की व्यक्तिगत काबिलियत अपनी जगह है, लेकिन राजनीति के जानकार कुछ सवाल उठाते हैं. स्वराज अभियान राजनीति में आखिर ‘नया’ क्या करेगा? अभी जो धरातल पर काम करने की बात हो रही है उसकी चर्चा राजनीति के रंग में रंगने के बाद कौन करेगा? क्या दो अक्टूबर को गठित होने वाली नई पार्टी में प्रशांत भूषण या योगेंद्र यादव तानाशाही की स्थिति में नहीं होंगे? फिलहाल जो शुरुआती बातें सामने आई हैं, उसके अनुसार इस पार्टी का उद्देश्य भी आम आदमी पार्टी की तरह सच्चाई और ईमानदारी के साथ ‘आम आदमी’ की सेवा करना और किसान-मजदूर का हितों का ख्याल रखना है.

अभी स्वराज अभियान से जुड़े नेताओं का कहना है कि राजनीतिक पार्टी बनने के बाद वे बड़बोलापन नहीं करेंगे और झूठ व नौटंकी से दूर रहेंगे. उनका इशारा शायद दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की चल रही ‘नौटंकी’ ओर रहा होगा. हालांकि अरविंद की नौटंकी में भला उनका हिस्सा क्यों न माना जाए? जब अरविंद आंदोलन के दौर से ही अन्ना हजारे, किरण बेदी समेत दूसरी हस्तियों को अपनी महत्वाकांक्षा के लिए किनारे लगा रहे थे तब इन नेताओं ने विरोध क्यों नहीं किया?

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इसके साथ ही एक सवाल पार्टी के चेहरे को भी लेकर है. इस पार्टी में योगेंद्र यादव एक लोकप्रिय व्यक्ति जरूर हैं, मगर उनकी पहचान भी सीमित प्रभाव वाली ही है. आम आदमी पार्टी के प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़कर वे हार का भी सामना कर चुके हैं. इसके अलावा ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने राजनीतिक पार्टी बनाने में थोड़ी जल्दबाजी कर दी है. अभी तक स्वराज अभियान संगठन की वेबसाइट ठीक ढंग से काम नहीं कर रही है. इस संगठन के फेसबुक पेज पर 24 हजार से भी कम लाइक हैं और ट्विटर पर मात्र 13 हजार फाॅलोवर हैं. ऐसा नहीं है कि वेबसाइट, फेसबुक या ट्विटर से ही राजनीति होती है लेकिन इससे इनकार भी नहीं किया जा सकता है कि ये इसमें अहम भूमिका निभाते हैं.

हालांकि विश्लेषकों का मानना है कि आम आदमी पार्टी से अलग होकर स्वराज अभियान नाम से आंदोलन चला रहे इन नेताओं का पार्टी बनाकर चुनाव में उतरना आप के लिए बड़ा झटका है. आप नेता अगले साल होने वाले पंजाब चुनाव की तैयारी में जुटे हैं. इस नई पार्टी की भी पंजाब में चुनाव लड़ने की पूरी संभावना है. प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव दोनों पंजाब में खूब मेहनत कर रहे हैं. इसके अलावा आप से निकाले गए दोनों सांसद स्वराज अभियान के संपर्क में हैं. जिस कार्यक्रम में नई पार्टी बनाने का एेलान किया गया, उसमें भी आप से निकाले गए सांसद धर्मवीर गांधी मौजूद थे. बताया जा रहा है कि दूसरे सांसद हरिंदर खालसा भी योगेंद्र और प्रशांत भूषण के संपर्क में हैं. सूत्रों का कहना है पार्टी इन दोनों का चेहरा आगे कर सकती है.

हालांकि वोट के लिहाज से पार्टी की क्या स्थिति रहेगी, इस बारे में स्वराज अभियान के नेता कुछ नहीं कह रहे हैं. लेकिन उनका कहना है कि अवधारणा के स्तर पर वे आप को बहुत नुकसान पहुंचाएंगे. आप के बारे में ईमानदार होने की जो धारणा बनी है, उसे खत्म करने का अभियान चलेगा. वहीं जानकारों का कहना है कि स्वराज पार्टी का गठन शिरोमणि अकाली दल और बीजेपी गठबंधन के लिए अच्छी खबर है. पार्टी के गठन के बाद सत्ता विरोधी मतों में विभाजन होगा. हालांकि स्वराज पार्टी के गठन से जमीन पर किसी बड़े बदलाव की उम्मीद नहीं जताई जा रही है.

फिलहाल स्वराज अभियान के बारे में उसकी वेबसाइट पर कहा गया है, ‘स्वराज अभियान शुभ को सच में बदलने की एक साझी कोशिश है. यह एक सुंदर देश और दुनिया के सपने को हमारी और आने वाली पीढ़ियों के लिए साकार करने का आंदोलन है. यह एक सिलसिला है जो बाहर की दुनिया को बदलने के साथ-साथ खुद अपने भीतर बदलाव के लिए भी तैयार है. यह राजनीति को युगधर्म मानकर स्वराज की ओर चला एक काफिला है.’ उम्मीद है कि नए राजनीतिक दल के गठन के बाद भी स्वराज अभियान से जुड़े नेता इन बातों को याद रखेंगे.

जनहित की राजनीति के लिए एक नए दल की जरूरत है : प्रो. आनंद कुमार

Photo : Tehelka Archive
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फोटो: तहलका आर्काइव

वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में स्वयं को कहां फिट पाते हैं और अपनी जगह कहां बनाना चाहते हैं?

आज की राजनीतिक परिस्थितियों में किसी भी देशभक्त नागरिक के लिए लोकतांत्रिक राष्ट्र निर्माण के अधूरेपन को दूर करना सबसे बड़ा प्रश्न है. बिना जनतांत्रिक सुधारों के हमारी आजादी काले धन की गिरफ्त में फंसती चली जाएगी क्योंकि हमारी चुनाव प्रणाली के बढ़ते खर्च और दलों की घटती जनतांत्रिक व्यवस्था का दोहरा बोझ अब जनतंत्र के विस्तार को रोक चुका है. इसीलिए चुनाववाद या संसदवाद के खतरों को देश को बताना और सहभागी लोकतंत्र के लिए बेहतर चुनाव व्यवस्था और दल व्यवस्था के लिए काम करना हमारे जैसे लोगों की प्राथमिकता हो गई है.

आपको नई राजनीतिक पार्टी बनाने की जरूरत क्यों पड़ी?

हमें इस तथ्य को याद रखना चाहिए कि वोट देने का अधिकार, दल बनाने का अधिकार और चुनाव में हिस्सेदारी का मौका भारत के जनसाधारण के लिए स्वतंत्रता आंदोलन का एक बड़ा उपहार है लेकिन आज दल व्यवस्था जनसाधारण के लिए एक अबूझ पहेली बन गई है जिसमें व्यक्तिवाद और पैसावाद ही मूल तत्व हो गया है. जबकि दलों को प्रथम कर्तव्य हमारी जनता के बीच नागरिकता निर्माण, नेतृत्व निर्माण और राष्ट्र निर्माण के लिए क्षमता पैदा करना होना चाहिए था. आज ज्यादातर दल येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने की बीमारी से पीड़ित हैं. पैसे से सत्ता और सत्ता से पैसा की भूलभुलैया में फंस गए हैं. इसलिए जनहित के सवालों पर जनहित की पहल पर जनहित की राजनीति के लिए एक नए दल की जरूरत है जो स्वराज की पूर्णता के लिए सहभागी लोकतंत्र के जरिए मुट्ठी भर नेता नहीं बल्कि लाखों सरोकारी जन पैदा कर सके.

यह पार्टी अरविंद केजरीवाल की पार्टी से कितनी अलग होगी और इसके एजेंडा क्या होगा?

अगर अरविंद केजरीवाल की पार्टी से आपका आशय आम आदमी पार्टी से है तो उसे कई लाख लोगों की शुभकामना और कई हजार वालंटियरों के निस्वार्थ समर्पण से बनाए गए एक संगठन के रूप में पहचानना चाहिए. इस संगठन में बेशुमार अच्छे लोगों के जुड़ने की संभावना भी थी लेकिन चुनावी विजय-पराजय को अत्यधिक महत्व देने की नासमझी ने इसे एक व्यक्ति मात्र की खूबी और खराबियों में समेट दिया है. आज आम आदमी पार्टी का पूरा ध्यान दिल्ली की सरकार के जरिए छवि बनाना और एक गिरोह को पूरी पार्टी का स्वामी बनाना हो गया है.

स्वराज अभियान भारतीय समाज में राजनीतिक, अार्थिक और व्यक्तिगत स्वराज को बढ़ाने के लिए समर्पित आदर्शवादी देशभक्तों का मंच है. इसने पिछले पंद्रह महीने में 26 स्वराज संवादों के जरिए 25 हजार लोगों की सदस्यता के आधार पर 18 प्रदेशों तक अपना दायरा बना लिया है. इसमें जय किसान आंदोलन, एंटी करप्शन टीम, शिक्षा स्वराज आंदोलन और अमन कमेटी का बड़ा योगदान रहा है. इस वैकल्पिक राजनीति के आधार पर हमने दो अक्टूबर तक अन्य आदर्शवादी और सक्रिय नागरिकों और संगठनों काे एकजुट करके एक चुनावी हस्तक्षेप के लिए सक्षम संगठन बनाने का निर्णय लिया है. हम चुनाव के महत्व को न तो बढ़ाकर और न ही घटाकर देखते हैं लेकिन चुनावों में हमारी हिस्सेदारी सहभागी लोकतंत्र की दिशा में परिवर्तन के लिए जरूरी जनमत निर्माण के लक्ष्य से होगी. अन्यथा येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने की राजनीति के लिए एक और दल बनाना गैर-जरूरी है.

राष्ट्रवाद के बजाय देशप्रेम हमारा मार्गदर्शक होगा. हम भारत की सांस्कृतिक विशिष्टता व विरासत के प्रति गर्व का भाव महसूस करते हैं क्योंकि यह वसुधैव कुटुंबकम की आधारशिला पर कई हजार सालों से प्रवाहमान है

उत्तर प्रदेश, पंजाब, गुजरात, गोवा समेत कुछ राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं. क्या आपकी पार्टी इन राज्यों में चुनाव लड़ेगी?

स्वराज अभियान के काम करने के तरीके में विकेंद्रीकरण और सदस्यों की राय का बुनियादी महत्व है. नए दल में भी आतंरिक लोकतंत्र, जवाबदेही और पारदर्शिता की बुनियादी भूमिका रहेगी. इसलिए चुनावों में हिस्सा लेना या न लेना मूलत: जिला और राज्य की समितियों के निर्णय और राष्ट्रीय संगठन के मूल्यांकन के आधार पर होगा. हम हर एक चुनाव को लोकशक्ति का उत्सव मानते हैं, लेकिन बिना जनशक्ति और जनसंगठन के चुनाव लड़ना जाति, संप्रदाय, मीडिया और पैसे का खेल बन जाता है. यह हमें पता है.

स्वराज अभियान से आप क्या नहीं पूरा कर पा रहे थे जिसके लिए आपको राजनीतिक दल बनाने की जरूरत पड़ी?

स्वराज अभियान मूलत: वैकल्पिक राजनीति के प्रति समर्पित पार्टियों का मंच है. इसमें राजनीतिक पार्टी बनाने के लिए हमारे स्थापना सम्मेलन में ही कम से कम एक चौथाई सदस्यों ने खुला आग्रह किया था लेकिन हम वैकल्पिक राजनीति के मुद्दों को देश में प्रस्तुत किए बिना और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से जुड़ी जनशक्ति से स्थानीय और प्रादेशिक स्तर पर संवाद किए बिना इन दिशा में कोई फैसला नहीं करना चाहते थे. पंद्रह महीने की सक्रियता और संवाद के बाद यह एक उचित कदम बन चुका है. आज भी साधारण नागरिकों के बीच राजनीति का अर्थ दलों से रिश्ता और चुनाव में सक्रियता है. यह हमारे जनतांत्रीकरण की मौजूदा दशा का प्रतिबिंब है. इसकी हम अनदेखी करके राजनीतिक सुधार के जरिए राष्ट्र निर्माण के अपने सपने को कैसे पूरा कर सकते हैं?

क्या समाजसेवी अन्ना हजारे भी इस नई राजनीतिक पार्टी को समर्थन दे रहे हैं?

अन्ना हजारे देश की लोकशक्ति के प्रबल प्रेरणास्रोत हैं. उन्होंने महर्षि दधीिच की तरह अपनी देह देश के लिए गला दी है. जनलोकपाल बिल से जुड़े आंदोलन का अपनी पूरी क्षमता से नेतृत्व करने के बाद अब उनका शरीर किसी नए राष्ट्रव्यापी अभियान के लिए असमर्थ है. उनका आशीर्वाद पर्याप्त मानना चाहिए. इससे ज्यादा उनको सक्रिय बनाना उनकी आयु और शरीर को देखते हुए ज्यादती ही होगी लेकिन हमारी एंटी-करप्शन टीम को अन्ना आंदोलन से जुड़े अनेक राष्ट्र नायकों का मार्गदर्शन प्राप्त है. इसी तरह से जय किसान आंदोलन, स्वराज शिक्षा अभियान और अमन कमेटी के अनेक नायकों और वालंटियरों का भरपूर सहयोग मिला है.

क्या गैर-राजनीतिक या गैर-चुनावी संगठनों का दौर खत्म हो गया है?

नहीं, भारतीय राजनीति में अभी जनतंत्रीकरण आधा-अधूरा है. राजनीति की व्यापक परिभाषा में चुनाव से जुड़े दलों की भूमिका सीमित होती है. राजनीति को अगर हम युगधर्म मानें या नागरिक धर्म मानें तो वह चुनावों और दलों के दायरे के बाहर सक्रिय नागरिकता के लिए अनेक भूमिकाओं का लगातार निर्माण करता रहता है. भारत में भी जल, जंगल, जमीन, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार से लेकर संस्कृति और सभ्यता के सैकड़ों मोर्चों पर हजारों हस्तक्षेपों के लिए लाखों संगठनों की जरूरत है. फिर भी चुनाव और दलों की एक अरसे तक अनिवार्यता और केंद्रीयता का सच भी है. हमें याद रखना चाहिए कि गांधी और जेपी ने अपने सार्वजनिक जीवन का बड़ा हिस्सा दलों के दायरे से ऊपर लगाया. चुनाव तो कभी लड़े ही नहीं. फिर भी बदलती परिस्थितियों के संदर्भ में दलों और चुनावों का सदुपयोग करने से नहीं चूके. यही रास्ता अरविंद, टैगोर, नायकर, आंबेडकर, एमएन रॉय से लेकर राम मनोहर लोहिया तक ने भी अपनाया. अभी हाल ही में विश्व में सबसे लंबा अनशन करने वाली सत्याग्रही इरोम शर्मिला ने भी अपने लक्ष्यों को पूरा करने के लिए, सेना और पुलिस को नागरिकों के प्रति जवाबदेह बनाने वाले कानूनी बदलाव के लिए चुनाव में हिस्सा लेने और बहुमत के आधार पर मणिपुर का मुख्यमंत्री बनने में दिलचस्पी दिखाई है. 

उग्र राष्ट्रवाद, कश्मीर, नक्सल, दलित जैसे मसलों पर पार्टी का स्टैंड क्या होगा?

स्वराज अभियान की तरफ से बनने वाली राजनीतिक पार्टी से यह आशा करना अस्वाभाविक नहीं होगा कि वह अन्य सहयोगियों के विचारों और सुझावों का स्वागत करने के साथ ही भारतीय संविधान के आधार दर्शन के प्रति पूर्ण निष्ठा रखने वालों का दल होगा. हमारे संविधान में राष्ट्रीय एकता और प्रत्येक नागरिक के अधिकारों की रक्षा का दोहरा संकल्प है. हम इसी संकल्प के आधार पर विभिन्न कारणों से देश के अलग-अलग हिस्सों में राजसत्ता से टकरा रही राजनीतिक जमातों को और उसके सवालों को संबोधित करना चाहेंगे. राष्ट्रवाद के बजाय देशप्रेम हमारा मार्गदर्शक होगा. हम भारत की सांस्कृतिक विशिष्टता और विरासत के प्रति गर्व का भाव महसूस करते हैं क्योंकि यह वसुधैव कुटुंबकम् की आधारशिला पर पिछले कई हजार सालों से प्रवाहमान है और स्वतंत्रता आंदोलन की सफलता के बाद हमारे ऊपर पूर्ण स्वराज के प्रकाश को हर घर तक पहुंचाने की जिम्मेदारी है. इसमें विराट वंचित भारत की अनदेखी करना और उनके प्रश्नों का पुलिस और फौज के बल पर मुट्ठी भर लंगोटिया पूंजीपतियों की रक्षा के लिए दमन करना राष्ट्र के विघटन का आत्मघाती रास्ता है.

अधिकांश दलों ने परिवारवाद और पैसावाद की ताकतों के आगे घुटने टेक दिए हैं. बड़े सपनों को तिलांजलि दे दी गई है. इसके सामानांतर नई पीढ़ी के भारतीयों में समाज के प्रति सरोकार बढ़ा है

क्या आपको लगता है कि देश की जनता एक नए राजनीतिक दल के लिए तैयार है?

असल में दल निर्माण दोहरी जरूरतों के प्रत्युत्तर में होता है. दल निर्माण और दल विघटन लोकतंत्र व समाज के बदलते रुझानों से तय होता है. इधर पिछले दो दशकों में स्थापित दलों और नागरिकों के बीच की परस्पर दूरी बढ़ी है. अधिकांश दलों ने परिवारवाद और पैसावाद की ताकतों के आगे घुटने टेक दिए हैं. बड़े सपनों को तिलांजलि दे दी गई है. इसके समानांतर नागरिकों में विशेष तौर पर नई पीढ़ी के भारतीयों में समाज के प्रति सरोकार बढ़ा है. स्थानीय आंदोलनों से लेकर आरटीआई और सोशल मीडिया ने चारों तरफ छोटे-छोटे प्रकाश केंद्र बनाए हैं लेकिन व्यक्ति, जाति और संप्रदाय की राजनीति से बने वोट बैंक के भरोसे गठबंधन की राजनीति में विषयों का चुनाव जारी है. फिर वैकल्पिक राजनीति के लिए खुद को सुधारने की क्या जरूरत है. इस हठधर्मिता का जनांदोलनों के बढ़ते दायरों से समाधान करने की कोशिश हो रही है. इस प्रक्रिया में चुनाव के मोर्चे को खाली नहीं छोड़ा जा सकता. इसलिए चुनाव की भूमिका को स्वीकारते हुए, नागरिकों की सतत सक्रियता को प्राथमिकता देने वाला दल इस दौर की जरूरत है. अब इसके आगे बढ़ने और प्रभावशाली बनने में चार तत्वों का उचित मात्रा में संयोग बड़ी शर्त है. कार्यक्रम, कार्यकर्ता, कोष और कार्यालय. स्वराज अभियान अभी नई पहल में इसके बारे में पूरी तरह से सचेत है.

दिल्ली में राज्य और केंद्र में दो पार्टियों की सरकार है. इन दोनों पार्टियों को बड़ा जनसमर्थन मिला है. इनके कामकाज को आप किस तरह से देखते हैं?

दिल्ली की जनता ने लोकसभा और विधानसभा दोनों में दो अलग-अलग दलों के पक्ष में एकतरफा निर्णय दिया था. क्योंकि देश में डाॅ. मनमोहन सिंह व सोनिया गांधी की दस साल की सरकार और राज्य में शीला दीक्षित की सरकार ने व्यापक मोहभंग पैदा किया था. लेकिन यह ताज्जुब की बात है कि उसी मतदाता ने दिल्ली प्रदेश की समस्याओं के समाधान के लिए नरेंद्र मोदी के अथक प्रयासों के बावजूद साल भर के भीतर ही भाजपा को अपनी आशाओं का केंद्र बनाने से इनकार किया क्योंकि स्थानीय प्रशासन में महापालिकाओं के जरिए और प्रदेश के विकास में उपराज्यपाल के जरिए भाजपा की तरफ से कोई आकर्षक पहल नहीं थी. अब दोनों ही सरकारें कसौटी पर हैं. यह अफसोस की बात है कि सहयोगी संघवाद की दुहाई देने के बावजूद नरेंद्र मोदी की सरकार दिल्ली की प्रादेशिक सरकार के साथ समन्वय और संवाद में असफल रही है.

दूसरी तरफ, दिल्ली की प्रादेशिक सरकार के चाल-चलन में आशा से ज्यादा निराशा दिखाई पड़ती है. एक तिहाई मंत्रियों और एक चौथाई विधायकों पर गैर-जिम्मेदाराना हरकतों के आरोप लग चुके हैं. शिक्षालय के बजाय मदिरालय की प्राथमिकता जगजाहिर हो चुकी है. पानी और बिजली के घोटालों के आरोपों के बारे में दोषियों की सजा के लिए दिल्ली इंतजार कर रही है. इसी बीच सत्ता की वासना का आवेग इतना बढ़ गया है कि बगैर दिल्ली में स्वराज का वादा पूरा किए पंजाब से लेकर गुजरात और गोवा तक चुनावों में कूद गए हैं. इससे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री दोनों के ही प्रति जनसाधारण में अविश्वास बढ़ रहा है. साख का संकट आ गया है. इसलिए धीरज घट रहा है. दोनों ही सरकारों को लोगों के बिगड़ते मूड को सम्मान देते हुए अपने वादों को पूरा करने की तरफ लौटना चाहिए.

मुअनजोदड़ो की जगह अगर मोहेंजो दारो हो गया तो भाई किसके घाव दुख गए : नरेंद्र झा

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आप छोटे परदे पर लंबे समय तक काम करने के बाद फिल्मों में आए. दोनों माध्यमों में क्या अंतर पाते हैं?

टेलीविजन के लिए काम करते हुए आपको सोचने का मौका नहीं मिलता है. फिल्मों में आपको इसका मौका मिलता है. टेलीविजन का अपना एक गणित होता है जिसके तहत एक दिन के लिए आपका तय काम निर्धारित होता है जो आपको करना ही पड़ता है. फिल्म की बात दूसरी होती है. ये आर्काइवल मटेरियल होती हैं. यहां पर सोचने का वक्त भरपूर होता है. बाकी जब एक्टिंग कर रहे होते हो तो भले ही सोचने का कम वक्त मिला हो लेकिन ऐसा नहीं है कि फिल्मों के लिए 100 फीसदी देते हो और टीवी के लिए 75 फीसदी. दोनों ही माध्यमों में आपको अपना 100 फीसदी देना पड़ता है.

क्या शुरू से तय था कि अभिनय की दुनिया में जाना है?

नहीं, शुरू से ये तय नहीं था कि अभिनय के क्षेत्र में जाना है. बचपन में जरूर मैं नाटकों में भाग लिया करता था. यह मेरे गांव कोइलख की देन थी. कोइलख मधुबनी क्षेत्र का बहुत ही प्रसिद्ध इलाका है. यहां 1922-23 में नाट्य परिषद की नींव पड़ गई थी. इसके तहत गांव में काफी सारे सांस्कृतिक आयोजन हुआ करते थे. संगीत में मेरी रुचि रही है, लेकिन अभिनय के लिए ऐसा कुछ नहीं था. हालांकि नाटक वगैरह किया करता था. गांव में झांसी की रानी पर आधारित एक नाटक में मैं अंग्रेज अधिकारी का किरदार निभाया करता था. इसके बाद पोस्ट ग्रैजुएशन के लिए जब जेएनयू आया तो लगा कि अब अभिनय मुझे पुकार रहा है. आज जब मैं पीछे मुड़कर देखता हूं तो लगता है कि जो हुआ अच्छे के लिए हुआ.

गांव की बात आई है तो अपने गांव से मुंबई तक के सफर के बारे में बताइए. ये सफर कैसा और कितना संघर्षों भरा रहा?

मैं बिहार के मधुबनी जिले का रहने वाला हूं. पढ़ाई-लिखाई बिहार और दिल्ली में हुई है. पोस्ट ग्रैजुएशन जेएनयू से किया. फिर तकरीबन साल भर तक सिविल सेवा की तैयारी की. उसके बाद दिल्ली में ही अभिनय में डिप्लोमा किया. इसके बाद निकल पड़ा मुंबई के लिए. ये 1993-94 की बात है. यहां आने के बाद मुझे मॉडलिंग असाइनमेंट्स और ऐड फिल्में मिलने लगीं. लंबा-चौड़ा था और दिखने में भी ठीक-ठाक था इसलिए संघर्ष के नाम पर मुझे ऐसा कुछ करना नहीं पड़ा. इस मामले में मैं भाग्यशाली रहा. उसी दौरान मुझे ‘शांति’ सीरियल में काम करने का मौका मिल गया. वहां से टेलीविजन सीरियलों में काम करने का सिलसिला चला तो वो सफर रुका ही नहीं. 2002-03 में जब आम्रपाली सीरियल कर रहा था तो फिल्म ‘फंटूश’ का ऑफर मिल गया. इसके बाद श्याम बेनेगल की फिल्म ‘नेताजी सुभाष चंद्र बोस : द फॉरगटन हीरो’ मिल गई. इस फिल्म में मैंने हबीब-उर-रहमान का किरदार निभाया था. 2005 में ‘बाहुबली’ फेम निर्देशक एसएस राजमौली की फिल्म ‘छत्रपति’ की, जिसमें मैंने विलेन का किरदार निभाया था. इसके बाद दक्षिण की कई सारी फिल्में कीं. इस बीच टेलीविजन पर अभिनय का सिलसिला भी जारी रहा. टेलीविजन से फिल्म और फिल्म से टेलीविजन चल रहा था. फिर ‘हैदर’ के लिए विशाल भारद्वाज जी का कॉल आया कि आप बहुत अच्छी एक्टिंग करते हैं आपको मुख्यधारा के सिनेमा में आना चाहिए. तब मैंने कहा कि अब निश्चित रूप से आ जाऊंगा. ‘हैदर’ में मैंने शाहिद के पिता का किरदार निभाया, जिसकी काफी तारीफ हुई. फिर सनी देओल की ‘घायल वंस अगेन’ में मुख्य विलेन का किरदार निभाया.

मैं पूरी तरह से अनसेंसरशिप के पक्ष में नहीं हूं. बहुत सारी ऐसी फिल्में हैं जिनमें दिखाए गए कुछ पक्षों और मुद्दों को वैसे ही छोड़ दिया जाए तो हो सकता है देश में अराजकता या दंगे फैल जाएं

जब अभिनय के क्षेत्र से जुड़ने की बात घरवालों को बताई तो उनकी क्या प्रतिक्रिया थी? क्या वे इस बात के लिए तैयार थे?

इस मामले में मेरा अनुभव अच्छा रहा. मेरे पिता हायर सेकंडरी स्कूल के हेडमास्टर हुआ करते थे. उनको जब मैंने अभिनय करने की बात बताई तो उन्होंने कहा कि बड़ी ही अच्छी बात है. आपको अगर लग रहा है तो आप अभिनेता बनिए. लेकिन उसके लिए कोई कोर्स कर लें ताकि जब मुंबई जाएं तो बता सकें कि आप प्रशिक्षित कलाकार हैं क्योंकि किसी भी विधा में प्रशिक्षित लोगों को ज्यादा तवज्जो मिलती है.

दक्षिण की तमाम फिल्में करने के बाद अब आप बॉलीवुड में सक्रिय हैं. बॉलीवुड और टॉलीवुड में क्या अंतर पाते हैं?

मैंने देखा है टॉलीवुड में शेड्यूल का बहुत ख्याल रखा जाता है. सुबह सात बजे का समय रखा गया है तो ठीक समय पर काम शुरू हो जाता है. बॉलीवुड में थोड़ी-सी छूट ले ली जाती है. बाकी दोनों जगहों पर प्रोफेशनलिज्म है. दोनों जगहों के कलाकार बहुत मेहनती और प्रबुद्ध लोग हैं. तकनीक के लिहाज से भी देखा जाए तो मैं नहीं मानता कि बॉलीवुड पीछे है. हमारे यहां भी एक से बढ़कर एक फिल्में बन रही हैं.

आपकी फिल्म ‘मोहेंजो दारो’ रिलीज हो चुकी है. दर्शकों की प्रतिक्रिया भी ठीक है, हालांकि सोशल मीडिया पर फिल्म के कॉस्टयूम, नाम और कालखंड को लेकर कुछ लोग इसकी आलोचना कर रहे हैं.

आशुतोष गोवारिकर बहुत ही कमाल के निर्देशक हैं. आप ये देखिए कि इस तरह के प्रोजेक्ट को कितने लोग शुरू कर पाते हैं. मैं जेएनयू से प्राचीन भारतीय इतिहास में पोस्ट ग्रैजुएट हूं. मैं आपको क्या बताऊं जब मैं पहली बार सेट पर पहुंचा तो मुझे वाकई में लगा कि मैं मोहेंजो दारो में खड़ा हूं. सेट इतना सटीक बनाया गया था. इसके बावजूद ये सब (सिनेमा) है तो मनोरंजन ही. अगर थोड़ी-सी छूट लेकर ऐसी फिल्म बनाई गई है तो मुझे लगता है कि लोगों को उसे देखना चाहिए. ये कोई ऐतिहासिक डॉक्यूमेंट्री फिल्म नहीं है. इसे ऐसे नहीं देखा जाना चाहिए कि जी, यहां पर वो चीज रख दी और उसे हटा दिया. ये गलत है. ऐसा करने वाले वे लोग होते हैं जिनका काम ही होता है विवाद पैदा करना. कुछ आलोचना करने वाले होते हैं तो कुछ तारीफ करने वाले. ये सब तो चलता रहता है. ऐसी चीजें एक तरह से फिल्म की मदद ही करती हैं.

जहां तक नाम की बात है तो ‘मोहेंजो दारो’ और ‘मुअनजोदड़ो’ दोनों सही हैं. उदाहरण के तौर पर देखें तो मेरे गांव का नाम है कोइलख. इसका नाम कोकिलाक्षी देवी के नाम पर किसी जमाने में कोकिलाक्षी था, जो बाद में होते-होते कोइलख हो गया. जिन्होंने मुअनजोदड़ो कहा है, उन्होंने बिल्कुल सही कहा है. लेकिन ‘मुअनजोदड़ो’ की जगह अगर ‘मोहेंजो दारो’ हो गया तो भाई किसके घाव दुख गए? क्या हो गया? अगर बॉम्बे से मुंबई हो गया तो ऐसा थोड़े न हुआ कि बांद्रा कांदिवली में चला गया और कांदिवली बांद्रा हो गया.

‘मोहेंजो दारो’ में नरेंद्र ने जखीरो का किरदार निभाया है, जिसके बाप-दादा ने मोहेंजो दारो की नींव रखी हुई है. जखीरो का दिमागी संतुलन ठीक नहीं होता है. वे इस फिल्म के अलावा शाहरुख खान के साथ ‘रईस’, हृतिक रोशन के साथ ‘काबिल’ और ‘माई फादर इकबाल’ नाम की फिल्मों में नजर आएंगे
‘मोहेंजो दारो’ में नरेंद्र ने जखीरो का किरदार निभाया है, जिसके बाप-दादा ने मोहेंजो दारो की नींव रखी हुई है. जखीरो का दिमागी संतुलन ठीक नहीं होता है. वे इस फिल्म के अलावा शाहरुख खान के साथ ‘रईस’, हृतिक रोशन के साथ ‘काबिल’ और ‘माई फादर इकबाल’ नाम की फिल्मों में नजर आएंगे

आप सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (सेंसर बोर्ड) की पूर्व सीईओ पंकजा ठाकुर के पति हैं. क्या कभी ऐसा हुआ कि आपकी कोई फिल्म फंस गई हो? पिछले कुछ समय से सेंसर बोर्ड काफी विवादों में रहा है, इसे किस नजर से देखते हैं?

नहीं-नहीं, ऐसा कभी नहीं हुआ कि मेरी कोई फिल्म सेंसर बोर्ड की वजह से फंसी हो. दूसरी बात मैं पूरी तरह से अनसेंसरशिप के पक्ष में भी नहीं हूं. क्या है कि बहुत सारी ऐसी फिल्में हैं जिनमें दिखाए गए कुछ पक्षों और मुद्दों को वैसे ही छोड़ दिया जाए तो हो सकता है देश में अराजकता फैल जाए, दंगे भड़क जाएं. अगर एक संस्था इन सब चीजों को देख रही है तो उसे देखने दीजिए न.

कोई भी कैंपस हो- जेएनयू, डीयू या कोई और, अगर भारत के खिलाफ कहीं पर नारा लगता है तो वो सख्त कार्रवाई के लायक है. वहां वही कार्रवाई होनी चाहिए जो सीमा पर दुश्मनों के साथ की जाती है

आपका निकनेम ‘कन्हैया’ है और आपने जेएनयू से पढ़ाई भी की है. जेएनयू के छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार से जुड़े विवाद और सरकार के रुख पर क्या सोचते हैं?

ये मसला अभी जांच के दायरे में है और इसकी अभी जांच हो रही तो मुझे लगता है कि मुझे कुछ बोलना नहीं चाहिए. वैसे एक बात आप जान लीजिए कोई भी कैंपस हो- जेएनयू, डीयू या कोई और, अगर भारत के खिलाफ कहीं पर नारा लगता है तो वो सख्त कार्रवाई के लायक है. वहां वही कार्रवाई होनी चाहिए जो सीमा पर दुश्मनों के साथ की जाती है. बाकी का जो मसला है उसे किस तरह से हैंडल किया गया है ये अभी जांच के दायरे में है इसलिए मैं इस पर कुछ नहीं बोलना चाहूंगा. बाकी देशद्रोह का जो मामला है उसे कहीं से भी बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए.

सनी देओल की फिल्म ‘घायल वंस अगेन’ में आपने मुख्य खलनायक का किरदार निभाया है. इससे पहले फिल्म ‘घायल’ में ये किरदार अमरीश पुरी ने निभाया था. अमरीश पुरी की तुलना में इस फिल्म में अपनी भूमिका के साथ कितना न्याय कर पाए हैं?

सच पूछिए तो दोनों भूमिकाओं की कोई तुलना नहीं थी, वो समय दूसरा था. वो 1990 की बात थी ये 2016 की बात है. समय, मुद्दा और बहुत सारी बातें अब बिल्कुल अलग-अलग हो चुकी हैं. जहां तक रोल के निर्वाह की बात है तो मेरे दिमाग में तुलना नाम की कोई चीज ही नहीं थी.

फिल्म में जो रोल मुझे दिया गया उसका निर्वाह मैंने उसी तरह से किया जैसा निर्देशक सनी देओल ने मुझसे उम्मीद की थी और मुझे इस बात की खुशी है कि उस रोल को सराहा गया. जब फिल्म का सीक्वल बनता है तो जाहिर-सी बात है कि कहीं न कहीं एक जिम्मेदारी तो रहती ही है, एक नैतिक दबाव बना रहता है कि उस रोल को फलाने ने किया था और अब वो रोल तुम कर रहे हो. समय और मुद्दे बदल गए हैं लेकिन अपेक्षाएं तो जुड़ी ही रहती हैं. मुझे लगता है कि इन सब चीजों से प्रभावित हुए बिना आपको जो काम दिया गया है उसका निर्वहन करें यकीनन आपको सफलता मिलेगी.

गाद, गंगा और फरक्का बांध

All Photos : Tehelka Archives
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नदी के बीच टापू विशेषज्ञों का मानना है कि फरक्का बांध की वजह से गंगा के प्रवाह में बाधा आ रही है और इसमें जमा गाद से टापुओं का निर्माण हो रहा है
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बीते 16 जुलाई की बात है. नई दिल्ली में अंतरराज्यीय परिषद की बैठक थी. सभी राज्यों के मुख्यमंत्री इसमें शामिल हुए थे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई इस बैठक में तमाम मुद्दों को उठाते हुए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने फरक्का बैराज परियोजना पर भी सवाल उठा दिया. उन्होंने कहा, ‘अब गंगा नदी पर बने फरक्का बैराज को हटा देना चाहिए. इससे राज्य को कई तरह का नुकसान हो रहा है. इस बांध के बनने की सजा हम भुगत रहे हैं. यह बांध बिहार के लिए हितकर साबित नहीं हुआ. इसे तोड़ देना चाहिए. इसके अलावा केंद्र सरकार नदियों से गाद निकालने के लिए कोई नई नीति बनाए. इसके बिना काम चलने वाला नहीं है.’

 नीतीश ने कहा, ‘गंगा जितने बड़े इलाके में बहती है, उसके कैचमेंट एरिया का 16 प्रतिशत हिस्सा ही बिहार में है, लेकिन सूखे के दिनों में भी गंगा में जो तीन चौथाई जल होता है, वह बिहार की नदियों से ही मिलता है. गंगा जहां से बिहार में प्रवेश करती है, वहां 400 क्यूसेक पानी मिलता है लेकिन फरक्का बैराज पर पानी की जो जरूरत है, वह 1500 क्यूसेक है. जाहिर-सी बात है कि बिहार की नदियों से ही इसकी पूर्ति होती है.’ केंद्र सरकार से अपील करते हुए नीतीश ने कहा, ‘अब हस्तक्षेप कीजिए, क्योंकि उत्तर प्रदेश की ओर से गंगा के सीमावर्ती इलाके में, जहां से गंगा बिहार में प्रवेश करती है, वहां 400 क्यूसेक पानी भी नहीं मिलता.’

नीतीश कुमार ने बिहार में बहने वाली गंगा के बहाने बात की शुरुआत की और गंगा के नाम पर होने वाले पूरे खेल को ही परत-दर-परत खोलना शुरू कर दिया. और आखिर में प्रधानमंत्री से कहा, ‘गंगा के पानी पर सबसे ज्यादा हक बिहार का बनता है लेकिन बिहार उदार मन से गंगा को बचाने-बढ़ाने में अपनी भूमिका निभा रहा है. दूसरे जो खेल कर रहे हैं, उनको देखिए, नियंत्रित कीजिए.’ उस दिन नीतीश ने और भी ढेरों बातें कहीं. नीतीश इसके पहले भी गंगा पर बोलते रहे हैं और फरक्का को लेकर चिंता जताते रहे हैं लेकिन इस बार उन्होंने अंतरराज्यीय परिषद में पूरी तैयारी से गंगा के बहाने फरक्का को केंद्रीय विषय बनाते हुए बोला, तर्क आैैर तथ्य सामने रखे.  हालांकि नीतीश जिस फरक्का बैराज को खत्म करने की बात कर रहे हैं, उसे अचानक और एकबारगी से खत्म करना तो संभव नहीं लेकिन यह सच है कि आने वाले दिनों में फरक्का गंगा के लिए और गंगा के जरिए देश के दूसरे हिस्से के लिए परेशानियों का पहाड़ खड़ा करने वाला है.

परेशानियों के इन पहाड़ों के नमूने अभी से ही दिखने लगे हैं. नदी विशेषज्ञ दिनेश कुमार मिश्र कहते हैं, ‘पटना से मोकामा तक फरक्का इफेक्ट साफ दिखने लगा है.’ नदी विज्ञानी और आईटी बीएचयू के सिविल इंजीनियरिंग विभाग के पूर्व अध्यक्ष डाॅ. यूके चौधरी कहते हैं, ‘मोकामा तक ही नहीं, उत्तर प्रदेश में बनारस से आगे इलाहाबाद तक फरक्का फैक्टर असर दिखाने लगा है और वह दिन दूर नहीं जब गंगा रेत और मिट्टी का पहाड़ बनाने वाली नदी हो जाएगी.’

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…तो कब का फरक्का को हटा दिया गया होता

अव्वल तो यह बात कि फरक्का का निर्माण ही क्यों हुआ था, यह तब भी वैज्ञानिकों को समझ नहीं आया था. यह तो सामान्य समझ की बात है कि गंगा एक ऐसी नदी है जिसमें दर्जनों बड़ी नदियां मिलती हैं. सभी नदियां अपने साथ मिट्टी और गाद वगैरह लेकर आती हैं. वह मिट्टी-गाद फरक्का जाते-जाते रुक जाता है, क्योंकि नदी का स्वाभाविक प्रवाह वहां रुक जाता है. गाद और मिट्टी कचरा फरक्का में रुकता है. फिर वह बैराज के पास जमा होता है. नदी पानी पीछे की ओर धकेलती है. गाद जहां का तहां जमा होता है. इसके बाद नदी किनारे के इलाकों का तेजी से कटाव होता है. इसका असर गंगा में मिलने वाली नदियाें पर भी पड़ता है, क्योंकि गंगा नीचे होकर बहती है और उसमें मिलने वाली नदियां थोड़ा ऊपर से आती हैं. जब गंगा फरक्का के पास से पानी पीछे की ओर ठेलती है तो दूसरी नदियों में भी रिवर्स डायरेक्शन होता है. भीमगोड़ा और नरोरा बैराज में जब गंगा के प्रवाह को रोका जाता है तो वह भी गंगा के लिए खतरनाक है. दिक्कत यह है कि हमारे देश में रिवर इंजीनियरिंग का अलग से कोई ठोस रूप विकसित नहीं हो सका है. जो नदियां हैं और उन पर जो निर्माण हैं, उनका असेसमेंट होता नहीं. अगर फरक्का बैैराज का असेसमेंट हुआ होता तो कब का इसे हटा दिए जाने की अनुशंसा की गई होती.

यूके चौधरी, नदी विज्ञानी[/symple_box]

‘फरक्का फैक्टर’ या ‘इफेक्ट’ क्या है, उसकी जमीनी हकीकत को आसानी से देखा और समझा जा सकता है. दरअसल गंगा में गाद की समस्या दिन-ब-दिन गंभीर होती जा रही है. बिहार के जिन इलाकों से होकर गंगा गुजरती है उनमें गाद की वजह से जगह-जगह टीले या टापू बन गए हैं. इसकी वजह से गंगा की धारा में रुकावट पैदा होने के साथ ही उसका स्वाभाविक बहाव प्रभावित होने लगा है. इसकी वजह से नदी का जल दोनों किनारों पर कटाव पैदा करने लगता है और नदी के किनारों पर बसे गांव खतरे में आ जाते हैं.

गाद और कटाव की समस्या हर नदी के साथ होती है, लेकिन जब यह मामला गंगा के साथ जुड़ता है तो समस्या भयावह हो जाती है. भारत की सबसे महत्वपूर्ण नदी होने की वजह से इसके तट पर एक बड़ी आबादी निवास करती है. पिछले दिनों जल संसाधन, नदी विकास और गंगा पुनर्जीवीकरण मंत्रालय की ओर से विभिन्न नदियों में गाद और कटाव की समस्या के अध्ययन के लिए विशेषज्ञों की एक समिति बनाई गई. यह समिति गाद जमा होने और कटाव के कारणों का अध्ययन करने के साथ ही इनसे जुड़ी समस्याओं के निदान के सुझाव देगी. समिति गंगा और ब्रह्मपुत्र नदी का विशेष रूप से अध्ययन करेगी. 

‘नदी का जीवन उसका प्रवाह ही होता है. अगर इसका प्रवाह रुक गया तो वह नदी मृतप्राय हो जाती है. गाद जमा होने के कारण इसकी आशंका हमेशा प्रबल बनी रहती है. गंगा को देखा जाए तो चौसा, पटना या फरक्का या कहीं भी इसे जहां सबसे गहरी होना चाहिए, वहीं यह उथली हो चुकी है’

गंगा की पूरी राजनीति की कहानी गंगोत्री से ही शुरू हो जाती है. हरिद्वार में भीमगोड़ा बैराज, बुलंदशहर के पास बने नरोरा बैराज, कानपुर के चमड़ा उद्योग, इलाहाबाद के कुंभ से होते हुए बनारस में आकर गंगा रुक-सी जाती है. उसके बाद गंगा बहती भी है और बहती है तो क्यों बहती है, किस हाल में बहती है, इस पर राष्ट्रीय स्तर पर बहस नहीं होती. गंगा महासभा के प्रमुख स्वामी जितेंद्रानंद सरस्वती कहते हैं, ‘गंगा के नाम पर खेल करने वालों के लिए फरक्का का मामला हमेशा आखिरी छोर का मामला रहा है लेकिन अब फरक्का का मामला आखिरी छोर का नहीं रह गया. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने फरक्का पर मजबूती से बात उठाकर इसे केंद्रीय विषय बना दिया है जो बहुत पहले से होना चाहिए था.’

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एक प्रमुख दैनिक समाचार पत्र में हाल में लिखे अपने लेख में बिहार विधानसभा के अध्यक्ष विजय कुमार चौधरी कहते हैं, ‘गाद की समस्या लगातार गंभीर होती जा रही है. वैसे तो यह समस्या पूरे विश्व की है, पर भारत में और विशेषकर बिहार में यह समस्या अब सुरसा रूप लेती जा रही है. बिहार का लगभग 73 प्रतिशत भूभाग बाढ़ के खतरे वाला इलाका है. पूरे उत्तर बिहार में हर साल बाढ़ के प्रकोप की आशंका बनी रहती है. उत्तर बिहार में बहने वाली लगभग सभी नदियां, जैसे- घाघरा, गंडक, बागमती, कमला, कोसी, महानंदा आदि नेपाल के विभिन्न भागों से आती हैं और खड़ी ढाल होने के कारण अपने बहाव के साथ वे अत्यधिक मात्रा में गाद लाती हैं. बहाव की गति में परिवर्तन के कारण विभिन्न स्थानों पर गाद जमा होती जा रही है. कभी-कभी अत्यधिक गाद के एक स्थान पर जमा होने पर वहां गाद का टीला बन जाता है. नदी के बहाव के बीच में टीले बन जाने से उसकी धारा विचलित होती है, जो तिरछे रूप में अधिक वेग से पहुंचने के कारण बांध और किनारों पर कटाव का दबाव बनाती है. अगर गाद प्रबंधन की व्यवस्था सही हो जाए, तो यह नहीं होगा.’ लेख में गंगा में गाद की समस्या की बात करते हुए विजय कुमार चौधरी कहते हैं, ‘नदी का जीवन उसका प्रवाह ही होता है और अगर इसका प्रवाह रुक गया या टूट गया, तो वह नदी मृतप्राय हो जाती है. नदी तल में अनियंत्रित गाद जमा होने के कारण इस स्थिति की आशंका हमेशा प्रबल बनी रहती है. अगर गंगा को देखा जाए तो चौसा, पटना या फरक्का या कहीं भी इसे जहां सबसे गहरी होना चाहिए, वहीं यह उथली हो चुकी है. धीरे-धीरे अगर उस उथलेपन का विस्तार नदी की चौड़ाई में फैलता है, तो नदी का स्वाभाविक प्रवाह ही अवरुद्ध हो जाता है. तब नदी टुकड़े-टुकड़े में पोखर या तालाब जैसी दिखने लगती है. गंगा नदी के मामले में तो स्वाभाविक गाद जमा होने की क्रिया पुराने समय से चल ही रही थी. फरक्का बैराज के निर्माण के बाद से इसमें गाद जमा होने की दर कई गुना बढ़ गई. धीरे-धीरे नदी का पाट समतल दिखने लगा है, इससे नदी में जल भंडारण की क्षमता का ह्रास होता है और यह प्रक्रिया निरंतर जारी रही, तो नदी का रूप सपाट हो जाएगा और इसका अस्तित्व समाप्त हो जाएगा.’

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इलाके के मछुआरों पर भी संकट बढ़ा

गंगा नदी में गाद से टीले बनने के साथ-साथ फरक्का बैराज के कारण मछुआरों के सामने संकट बढ़ता जा रहा है. मछुआरा समुदाय से ताल्लुक रखने वाले फुच्चीलाल सहनी कहते हैं, ‘मछुआरों के सपने में भी अब हिलसा-झींगा जैसी मछलियां नहीं आतीं. टीलों का निर्माण होने से नदी में अब उतनी मछलियां नहीं रह गई है जितनी पहले होती थीं.’ गंगा मुक्ति आंदोलन से जुड़े रहे अनिल प्रकाश के अनुसार, ‘बिहार के मछुआरे 47 किस्म की मछलियां गंगा से पकड़कर पूरे देश में कारोबार करते थे, लेकिन अब लगभग 75 प्रतिशत मछलियां खत्म हो चुकी हैं.’ मछलियों की इस समस्या के पीछे प्रदूषण तो वजह है ही लेकिन फरक्का बैराज ने इस पर आखिरी कील ठोक दी है. फरक्का ने हिलसा और झींगा जैसी मछलियों की संभावना को तेजी से खत्म किया है. झींगा मीठे पानी में रहती है और ब्रीडिंग के लिए खारे पानी में जाती हैं. हिलसा खारे में रहती है लेकिन ब्रीडिंग के लिए मीठे पानी की ओर आती है. फरक्का मीठे और खारे पानी के बीच खड़ा है. मछलियों की आवाजाही के लिए रास्ते छोड़े गए थे लेकिन वे सब अब बेकार पड़ गए. स्वामी जितेंद्रानंद सरस्वती कहते हैं, ‘गंगा पर पहले चार लाख मछुआरे निर्भर रहते थे. उनका पूरा परिवार इसी पर चलता था, लेकिन अब इन परिवारों की संख्या घटकर 40 हजार तक सिमट गई है.’[/symple_box]

हैैरानी की बात यह है कि आज तक अपने देश में गाद प्रबंधन की कोई स्पष्ट नीति नहीं बन सकी है, जबकि कई देशों में गाद प्रबंधन, नदी प्रबंधन का हिस्सा होता है. वर्ष 2011-12 से ही बिहार सरकार लगातार इस मुद्दे को केंद्र सरकार के सामने उठाती रही है कि अगर गाद प्रबंधन की कोई राष्ट्रीय नीति नहीं बनाई गई तो स्थिति अत्यंत भयंकर हो सकती है, लेकिन इस दिशा में अभी तक कोई महत्वपूर्ण कदम नहीं उठाया गया है.

नीतीश कुमार ने फरक्का के बहाने क्यों एक ऐसे विषय को उठाया है जिसे राष्ट्रीय विषय होना चाहिए या जो गंगा से जुड़ा हुआ एक अहम सवाल है और कैसे फरक्का के कारण ऊपरी हिस्से में गंगा के इलाके में कहानी बदलने वाली है, उसे बिहार के बाद फरक्का तक की गंगा यात्रा करके समझा और जाना जा सकता है. झारखंड के राजमहल, साहेबगंज से लेकर बिहार के और भी कई हिस्सों में, जहां गंगा की वजह से दूसरी नदियों में गाद के ढेर की वजह से टापुओं का निर्माण शुरू हो चुका है. इसे देखा जाए तो सब साफ-साफ समझ में आ जाएगा. जलजमाव के इलाके बढ़ रहे हैं. फरक्का बैराज जहां है वहां गंगा अबूझ पहेली जैसी बनती है. कई धाराओं में बंटी हुई नजर आती है. गंगा के कई धाराओं में बंटने के पहले वहां बड़े-बड़े टापू दिखते हैं, जो पिछले कुछ वर्षों में बने हैं. इन टापुओं की वजह से गंगा बाढ़ के दिनों में आसपास के इलाके का कटाव करती है और गांव के गांव साफ हो जाते हैं.

मालदा का पंचाननपुर जैसा विशाल गांव तो इसका एक उदाहरण रहा है, जिसका अस्तित्व ही खत्म हो गया. फरक्का बैराज से लगभग छह किलोमीटर दूरी पर बसा गांव सिमलतल्ला भी गंगा में समा गया. कभी यह हजार घरों वाला आबाद गांव हुआ करता था. बांग्लादेश सीमा के नजदीक पश्चिम बंगाल में 1975 में जब फरक्का बैराज बना था तो मार्च के महीने में भी वहां 72 फुट तक पानी रहता था. अब बालू-मिट्टी से नदी के भरते जाने की वजह से नदी की गहराई 12-13 फुट तक रह गई है. बैराज के कारण पांच लाख से अधिक लोग अब तक अपनी जमीन से उखड़ चुके हैं और बंगाल के मालदा और मुर्शिदाबाद जिलों की 600 वर्ग किलोमीटर से अधिक उपजाऊ जमीन गंगा में विलीन हो चुकी है. फरक्का के पास गंगा 27 किलोमीटर तक रेतीले मैदान बना चुकी है. फरक्का बैराज की वजह से बालू और मिट्टी रुक जाते हैं. गंगा में टीले बनने का सिलसिला झारखंड के राजमहल तक पहुंच चुका है. गांव के गांव, शहर के शहर खत्म होने की ओर बढ़ रहे हैं लेकिन टिहरी, नरोरा, भीमगोड़ा बांध और कुंभ जैसे आयोजनों के बीच गंगा के आखिरी छोर पर बसे लोगों की पीड़ा अनसुनी रह जाती है. मछुआरे मछली बिना मर रहे हैं और नदी में आ रहे कचरे से आखिरी छोर पर रहने वाले  लोग बीमारियों की चपेट में आ रहे है. उम्मीद है कि अब गंगा पर नीचे से भी बात होगी, फरक्का के इलाके से भी. 

मोदी जी के पीएम बनने के बाद संघ के लोगों को चर्बी चढ़ गई है : जिग्नेश मेवाणी

ColdBlood-JigneshWEB

हमारे समाज में गाय को आधार बनाकर छुआछूत की परंपरा पुरानी है. पर अब इसके बहाने दलितों को पीटा जा रहा है.

देखिए, और कोई पशु माता नहीं है तो गाय ही माता क्यों है? यह सबसे अहम सवाल है. गाय को पवित्र बनाकर लंबे अरसे से एक राजनीति चल रही है जिसको संघ परिवार कई दशकों से भुनाता आ रहा है. अब उसी का परिणाम गुजरात में देखा जा रहा है. दलितों का उत्पीड़न कांग्रेस के समय भी होता रहा है, लेकिन मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के बाद संघ परिवार के लोगों को इस तरह चर्बी चढ़ी है कि वे बेखौफ महसूस कर रहे हैं. इन लोगों को दिनदहाड़े अपराध करते हुए कोई डर नहीं है, बल्कि वे खुद वीडियो बनाकर प्रसारित करते हैं क्योंकि इसकी गारंटी है कि पुलिस और प्रशासन उनको बचा लेगा. वे जानते हैं कि वे जो कर रहे हैं उसको प्रश्रय देने वाली राजनीति मौजूद है.

हमें ये मंजूर नहीं है. हम पदयात्रा लेकर निकले और 15 अगस्त को ऊना में सभा की. हमने नारा दिया है कि गाय की दुम आप रखो, हमें हमारी जमीन दो. आप मरी गाय की चमड़ी उतारने पर हमारी चमड़ी उतार लेंगे? तो आप अपनी गाय से खेलते रहो. हमें न जिंदा गाय से मतलब है, न ही मरी गाय से. हमें जमीनों का आवंटन करो. हम रोजगार की ओर जाएंगे. जिस पेशे के लिए हमें अछूत घोषित किया गया, अब उसी के लिए हमारी चमड़ी उधेड़ रहे हो, यह कैसे चलेगा? जब तक हमारी सारी मांगें मानी नहीं जातीं, हम यह आंदोलन बंद नहीं करेंगे. हमें भारत के अन्य राज्यों और विदेशों से भी समर्थन मिल रहा है.

गोरक्षकों को लेकर प्रधानमंत्री ने बयान दिया, इसके बावजूद घटनाएं रुक नहीं रही हैं. आंध्र की घटना बयान के बाद की है.

ये जो गुंडे लोग हैं, गोरक्षा के नाम पर संगठन चलाते हैं, इन सबको बैन करना चाहिए. लेकिन इससे भी ज्यादा गाय के नाम पर राजनीति खत्म करने का मसला है.  वरना ये सब होता रहेगा. मोदी साहेब का जो बयान आया है उस पर मैं कहूंगा कि भाजपा और संघ परिवार के लोग बहुत गाय माता की दुम हिला रहे थे. अब जिस तरह हजारों की संख्या में दलित शक्ति सड़कों पर उतर आई, जिस तरह से यह आंदोलन फैल रहा है, कहीं न कहीं मोदी साहेब और भाजपा को लग रहा है कि गाय की दुम अब उनके गले का फंदा न बन जाए, तब उन्होंने मुंह खोला है.

क्या मांगें हैं आपकी?

हमारी मांग है कि जिस तरह से कुछ लोगों ने दलित समाज को आतंकित किया है, जब भी उनको बेल मिले तो उन्हें तड़ीपार किया जाए. वीडियो में जो लोग पहचाने गए हैं, उन्हें गिरफ्तार किया जाए. जो पुलिसकर्मी दोषी हैं उनके खिलाफ कार्रवाई हो.  सुरेंद्र नगर में सितंबर 2012 में दो बेगुनाह दलित लड़कों को एके-47 से भूनकर मारा गया था. उसमें तीन एफआईआर हुईं. दो मामलों में चार साल बाद भी चार्जशीट दाखिल नहीं हुई. आरोपी कांस्टेबल गिरफ्तार नहीं हुआ. उस मामले में कार्रवाई हो. गुजरात के सारे जिलों में कानूनी प्रावधान के मुताबिक स्पेशल कोर्ट गठित की जाएं. जो दलित मरे जानवरों का काम नहीं करना चाहते वे और जो भी भूमिहीन दलित हैं, उनको पांच-पांच एकड़ जमीन का आवंटन हो. पहले जो जमीनें बांटी गईं उन पर अभी तक दलितों को कब्जा नहीं मिला है. वह सुनिश्चित किया जाए. गुजरात में रिजर्वेशन एक्ट ही नहीं है. रिजर्वेशन पॉलिसी बने और लागू की जाए. शेड्यूल कास्ट और शेड्यूल ट्राइब्स सबप्लान है, उसके पैसे जनरल कामों में खर्च होते हैं. सरकार एंबुलेंस खरीदती है और कहती है कि एंबुलेंस से तो सब जाएंगे चाहे सवर्ण हों या पिछड़े-दलित हों. हमारी मांग है कि ऐसा कानून बनाया जाए कि उनके लिए आवंटित पैसा उन्हीं पर खर्च हो. इसके अलावा फॉरेस्ट ऐक्ट के तहत आदिवासी समुदाय की जो एक लाख 20 हजार एप्लीकेशन पेंडिंग हैं, उन सभी को क्लियर करें. 

15 अगस्त की रैली से लौट रहे दलितों पर हमले की खबर सही है?

बिल्कुल सही है. 13 घंटे तक लगातार हमले हुए हैं. दिन के 12 बजे से लेकर रात 1 बजे तक फायरिंग होती रही. यह सोची-समझी साजिश के तहत हुआ. गोरक्षक गुंडे झाड़ियों में छिपकर हमले कर रहे थे. पहले जो लोग रैली में शामिल होने आ रहे थे, उनकी गाड़ियों के कांच तोड़े गए, मारा-पीटा गया, मोबाइल छीने गए. फिर जब लोग वापस जा रहे थे तब हर नाके पर लोगों को पीटा गया. गुंडों ने बस में घुसने की कोशिश की. कई अस्पतालों में लोग भर्ती हैं. हम पुलिस को लगातार सूचना दे रहे थे, पेट्रोलिंग करवाने की कह रहे थे. बार-बार कहा गया कि सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम किए जाएं. पुलिस को एहतियातन यह सब पहले ही करना था, लेकिन पुलिस ने हमले होने के बाद भी कुछ नहीं किया. एक तरफ मोदी जी कहते हैं कि गोरक्षा के नाम पर फर्जी लोग दुकान खोलकर बैठे हैं. दूसरी तरफ गोरक्षकों को पुलिस ने खुली छूट दे रखी है. कि वे जब चाहें तब दलितों को मारें.

क्या रैली के पहले से अंदाजा था कि दलितों पर हमले हो सकते हैं?

हां बिल्कुल, रैली से पहले भी हमले हुए. रैली में न आने के लिए लोगों को धमकाया गया. रास्ते में लोगों की गाड़ियों पर हमले हुए, मारपीट की गई. इस बारे में हमने पुलिस के सभी बड़े अधिकारियों को बताया, लेकिन पुलिस ने कोई एक्शन नहीं लिया. उसके एक दिन पहले छोटी-सी बाइक रैली निकली थी. वहां भी गोरक्षक गुंडों ने हमला किया. दलित युवकों की पिटाई करने वाले 20 आरोपी एक ही गांव के हैं. वे भी हमले में शामिल रहे. इस पर भी एक्शन नहीं लिया गया. जिन युवकों को मरी गाय उठाने के लिए पीटा गया था, उनके परिजनों पर भी हमला होते-होते बचा. उन्हें करीब 7 घंटे थाने में बैठाए रखा गया. हमने पुलिस से पीड़ित परिवारों को सुरक्षा दिए जाने मांग की थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. यह सब हमारी रैली और आंदोलन को कमजोर करने के लिए किया जा रहा है.

क्या इसे वैसी स्थिति माना जाए जैसी 2002 में थी ?

बिल्कुल, बिल्कुल. एकदम यही हो रहा है,  उससे भी ज्यादा. एक गांव है सामखेड़, वहां के लोगों ने दलितों को 13 तारीख को पीटा, 14 को पीटा, 15 को भी हमला किया. आज 16 तारीख है, वे लोग हमले कर रहे हैं, लेकिन गांव से एक भी गोरक्षक को पकड़ा नहीं गया है. हम असहाय महसूस कर रहे हैं.

आपने जो मसले उठाए थे, वे दलित समाज के बड़े मसले हैं जिन पर अभी तो कोई बातचीत शुरू ही नहीं हुई. उस पर ये हमले भी हो रहे हैं. जाहिर है कि चुनौती और बढ़ रही है. मुश्किलों को देखते हुए आगे की क्या रणनीति होगी?

हमने कॉल दी है कि हमारी जो दससूत्रीय मांगें हैं, उनमें से एक है जमीन का आवंटन. उस पर विचार करके जमीन आवंटन की प्रक्रिया शुरू करो. यदि नहीं करोगे तो हम 15 सितंबर को रेल रोको आंदोलन करेंगे. इसकी घोषणा हम एक तारीख को करेंगे.

 Duniya-KeDAlitWEB

आपके आंदोलन की लीडरशिप पर सवाल उठ रहे हैं कि इसका कोई संगठित नेतृत्व नहीं है. पार्टियों ने ये आंदोलन हाईजैक कर लिया है. लीडरशिप को लेकर कशमकश की बात कही जा रही है.

ऐसा हुआ कि हम लोगों की मर्जी के खिलाफ कुछ पॉलिटिकल एलिमेंट स्टेज पर गए. हमने उन्हें बार-बार कहा भी कि हमारी आयोजन टीम है तय करेगी कि स्टेज पर कौन बैठेगा. लेकिन इसके बावजूद जब वे लोग नहीं माने तो हमने अपना कार्यक्रम कर लिया. रोहित वेमुला की मां और कन्हैया ने अपना भाषण दिया. आनंद पटवर्धन ने उन गुजराती साहित्यकारों को 25 हजार का चेक दिया, जिन्होंने गुजरात सरकार का 25 हजार का अवॉर्ड वापस किया था. इसके बाद हम लोगों ने स्टेज छोड़ दिया कि जिसे जो करना है, करे. जहां तक लीडरशिप की बात है तो कोई भी आंदोलन खड़ा होता है तो दो-चार लोग तो ऐसे रहेंगे जो विरोध करेंगे. जिनको नहीं पसंद आएगा, वे विरोध में खड़े हो जाएंगे. पर हजारों की तादाद में लोग हमारे साथ हैं.

कन्हैया कुमार आपकी मर्जी से आए थे या वे भी जबरन पहुंचे?

यह ओपन कार्यक्रम था. कन्हैया कुमार भी आए. बाकी लोग भी आए. कन्हैया तो हमारे संघर्ष का साथी है, इसलिए हमने उसको बुलाया था और हमें उसके आने की खुशी भी है.

25 गांवों के दलितों के बहिष्कार की खबरें आ रही हैं. क्या ये सही हैं?

बिल्कुल हो सकता है. अभी मुझे पक्की सूचना नहीं है. खबरें मिली हैं. मैं इसे अभी कंफर्म कर रहा हूं. अगर ये हो रहा है तो ये बहुत आश्चर्यजनक है. मुझे याद आता है कि बिल्कुल इसी तरह की घटना महाड़ सत्याग्रह के वक्त हुई थी. जब बाबा साहब दलितों के साथ निकले थे, तब उन पर सवर्णों ने हमला किया था. हम पर भी हमला किया गया. वह भी एक ऐतिहासिक घटना थी, यह भी एक ऐतिहासिक घटना है कि दलितों ने शपथ ली कि हम मरे हुए जानवर नहीं उठाएंगे. उस समय भी दलितों का बहिष्कार हुआ था, यहां भी वही हो रहा है.

आपका आंदोलन काफी बड़ा हो गया है. कहीं ये हाईजैक न हो जाए, सरकार या किसी पार्टी के लोग इसे दबा न दें, इसके लिए आपने क्या रणनीति बनाई है?

आने वाले दिनों में हम रेल रोको कॉल दे रहे हैं. इसमें देश भर से लोग आएंगे. अब गुजरात सरकार एक्सपोज होने वाली है. अगर वह दलितों को जमीन का आवंटन नहीं करती तो उसका असली चेहरा सामने आ जाएगा कि वे चाहते हैं कि हम मैला उठाएं या मरे हुए पशु उठाते रहें. आगे की रणनीति वही है, जो हमने कल मंच से कहा था कि आदिवासी समुदाय की जंगल समस्याओं से जुड़ी एक लाख 20 हजार एप्लीकेशन पेंडिंग हैं. गुजरात सरकार उसका भी निदान करे. हम आदिवासी समुदाय को अपने साथ जोड़ेंगे. हमने कहा था ‘गुजरात मॉडल मुर्दाबाद, दलित-मुस्लिम एकता जिंदाबाद’ तो मुस्लिम समुदाय के संगठन भी हमारे साथ आए हैं. हम अपने संघर्ष में किसानों और मजदूरों को जोड़ेंगे. जितने पीड़ित समुदाय हैं, हम सबको साथ लेंगे और जमकर मुकाबला होगा. जब तक मैं लीडरशिप में हूं, यह आंदोलन सिर्फ दलितों का नहीं रहेगा, बल्कि सभी वंचित समुदायों का होगा, दलित जिसका नेतृत्व करेंगे.

गुजरात में अलग-अलग पार्टियों में जो दलित नेता हैं उनका क्या स्टैंड है? क्या वे आपके समर्थन में आए हैं?

नहीं, वे चुपचाप बैठे हुए हैं. जैसे प्राइमरी के बच्चे होते हैं, टीचर उंगली उठाकर इशारा कर दे तो चुपचाप शांत हो जाते हैं, उनकी वही हालत है.

यह स्पष्ट कीजिए कि यह राजनीतिक आंदोलन है या सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलन?

एक सौ प्रतिशत यह राजनीतिक होगा. हमारी जो मांग है वह राजनीतिक है. मैं यह पूछता हूं कि ग्लोबलाइजेशन की पॉलिटिकल इकोनॉमी में लोगों के पास रोटी क्यों नहीं है? यह राजनीति है. आजादी के इतने दशकों के बाद दलितों के पास जमीन का टुकड़ा क्यों नहीं है? ये राजनीति है. ये लोकसंघर्ष और आंदोलन की राजनीति है. वो राजनीति हम करेंगे. पार्टी पॉलिटिक्स हम नहीं करेंगे. हमारी समिति अराजनीतिक संघर्ष समिति है, ये बनी रहेगी.

दिल्ली में भी भ्रष्टाचार के खिलाफ एक आंदोलन हुआ था. बाद में यह कहकर उन्होंने पार्टी बनाई कि अब इसके बगैर काम नहीं चल सकता. क्या आप भी इस आंदोलन के जरिए कोई पार्टी बनाएंगे?

ऐसी कोई संभावना नहीं है. हम इसे सामाजिक आंदोलन की तरह चलाएंगे. हजारों की तादाद में दलित उठ खड़े हुए हैं कि हम मरे हुए जानवर नहीं उठाएंगे. हमने बहुत बड़े परिवर्तन की नींव रखी है. डॉ. आंबेडकर के बाद इस तरह मृत पशु उठाने से इनकार करने की कोशिश नहीं हुई. हम इसे पूरे देश में ले जाएंगे.  हमने नारा दिया है कि ‘गाय की दुम आप रखो, हमें हमारी जमीन दो’.

क्या इस आंदोलन के पहले भी आपकी सामाजिक या राजनीतिक सक्रियता रही है?

इसके पहले मैंने डॉ. मुकुल सिन्हा के जनसंघर्ष मंच के साथ स्वयंसेवक के रूप में आठ साल तक काम किया है. वहां मैंने ट्रेड यूनियन के लिए भी काम किया. उसमें सफाई कर्मियों के सवाल उठाए. मजदूर अधिकार संगठनों के साथ जुड़ा रहा. कंस्ट्रक्शन वर्कर्स और ईंट भट्ठे के मजदूरों के साथ काम किया. निजी तौर पर मैंने दलितों की जमीनों के मुद्दे पर छह-सात साल काम किया है. जमीन सुधार मेरा प्रमुख एजेंडा है. चार साल तक पत्रकारिता भी की है. इसके अलावा मैं गुजरात में आम आदमी पार्टी का सदस्य भी हूं.