‘अगर दिल्ली में यमुना को खत्म कर देंगे तो इस शहर को नौवीं बार बसाना पड़ेगा’

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Photo : PIB

पर्यावरणविद नदी के क्षेत्र में कोई भी निर्माण कार्य नहीं करने की बात करते हैं. इसके दो-तीन कारण हैं. नदी का क्षेत्र, जिसे खादर (फ्लड लेन) कहते हैं, नदी का एक अभिन्न हिस्सा होता है. दरअसल, नदी अपने आप में एक तंत्र है. नदी सिर्फ बहता पानी नहीं है. अगर नदी सिर्फ बहता पानी ही होती तो फिर नहर और नदी में क्या अंतर रह जाता? नदी की अपनी बायो-डायवर्सिटी होती है, नदी का अपना एक क्षेत्र होता है.

होता क्या है कि हिंदुस्तान में जो नदियां हैं, मानसून के समय में उनका स्वरूप कुछ और होता है, मानसून के अलावा दूसरे समय में उनका स्वरूप कुछ और होता है. मानसून के समय में नदियां फैलती हैं, अपनी जगह घेरती हैं और उस जगह का जो प्राकृतिक तंत्र है उसको जल प्रदान करती हैं और भूजल बनाती हैं. जितने चोए होते हैं, उनको पानी पिलाती हैं. आपके जितने भी कुएं हैं, बावड़ियां हैं पुरानी, सब के सब उससे रिचार्ज होते हैं. पर अगर आप नदी के क्षेत्र में अतिक्रमण कर लेंगे, उसके क्षेत्र का जो अपना नैसर्गिक स्वरूप है उसको खत्म करके कुछ और कर देंगे तो नदी का तंत्र खराब हो जाएगा. तब न वह ग्राउंड वाटर ढंग से रिचार्ज कर सकती है, न ही वह नदी के खादर में जो जीव-जंतु हैं, उनका सही तरीके से पालन-पोषण कर सकती है. ये जीव-जंतु नदी को स्वच्छ रखने में बहुत बड़ी भूमिका निभाते हैं. आर्ट ऑफ लिविंग जैसा कोई भी कार्यक्रम किसी भी नदी तट पर होने से उसका तंत्र गड़बड़ा जाता है.

देखिए अभी क्या हुआ है? इन्होंने पूरा का पूरा इलाका समतल कर दिया. वहां जो भी वनस्पतियां थीं उनको हटा दिया. ऊबड़-खाबड़ इलाकों के ऊपर डंपिंग कर दी गई. ऐसा करके नदी का अपना स्वाभाविक नैसर्गिक स्वरूप बिगाड़ दिया गया. इसके बाद नदी को अपने प्राकृतिक रूप में आने में बहुत समय लगता है. अब आपने अगर वहां कोई स्थायी निर्माण कर दिया, जैसे- वहां अक्षरधाम मंदिर बना दिया या खेल गांव तैयार कर दिया, तो ऐसा करके आपने नदी के बाढ़ क्षेत्र को कम करके उसे अवरुद्ध कर दिया. इससे सबसे बड़ा नुकसान यह होता है कि जो पानी उस क्षेत्र में फैलकर ग्राउंड वाटर बनता वह अब नहीं फैल पाएगा. अब पानी सिर्फ दो जगह जा सकता है. या तो आपके-मेरे घर में घुसेगा, या फिर नदी की धारा में बह जाएगा. तो जो पानी आपके चोए को मिलता, जो जमीन में जाकर भूजल बनता, अब आपके पास नहीं रहेगा. वह कहीं और चला जाएगा. अगर कभी बाढ़ आएगी तो पानी सीधे हमारे-आपके घर में घुसेगा. जिस प्रकार से चेन्नई में हुआ, जिस प्रकार से मुंबई में हुआ, जिस प्रकार से केदारनाथ में हुआ, जिस प्रकार से श्रीनगर में हुआ, पूर्वोत्तर में हुआ, हर साल कुछ न कुछ हो रहा है. इसलिए नदी के साथ छेड़छाड़ करना अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मारना है.

हम पिछले 20 साल से यमुना और 30 साल से गंगा को साफ करने में लगे हैं और हुआ कुछ नहीं क्योंकि नदियों को लेकर हमारी समझ ही गलत है

दिल्ली में यमुना नदी का पानी नहीं है. यमुना नदी तो दिल्ली से 200 किलोमीटर पहले ही मर जाती है. यह जो पानी दिल्ली में आप देख रहे हो, यह तो पूरा का पूरा मल-मूत्र है. यह पूरा औद्योगिक अपशिष्ट है. पानी तो है ही नहीं. यहां यह नदी मर चुकी है और अब उसको आप मृत घोषित कर दो. इसके खादर पर भी अतिक्रमण कर दो. अगर यमुना के पुनर्स्थापन की, रेस्टोरेशन की कोई संभावना बनती भी है, तो आप इस तरह के कार्यक्रम करके उसको और खराब कर दो.

जब यमुना की हालत खराब होनी शुरू हुई उससे काफी समय पहले से ही बार-बार चेतावनी दी गई. इसलिए तो यमुना एक्शन प्लान, यमुना एक्शन प्लान-2, यमुना एक्शन प्लान-3… क्या-क्या नहीं हुआ. लेकिन कभी कोई प्रभावशाली कदम नहीं उठाया जा सका क्योंकि हमारी समझ ही नदियों के प्रति कमजोर है. हमने नदी को बहता पानी के अलावा कुछ नहीं माना. हमने हमेशा नदी को साफ करने को देखा. अरे भाई! नदी को साफ नहीं करना है, नदी को पुनर्जीवित करना है. अगर नदी को आपने पुनर्जीवित कर दिया तो साफ तो वह अपने आप हो जाएगी. इसे साफ करने के लिए आपको एक पैसा खर्च करने की जरूरत नहीं है. पर हम यहां पिछले 20 साल से यमुना और 30 साल से गंगा को साफ करने में लगे हैं और हुआ कुछ नहीं, क्योंकि नदियों को लेकर हमारी समझ ही गलत है.

यमुना पर इतने खतरे के बावजूद इस तरह के कार्यक्रम की अनुमति दी गई तो इसमें पूरी गलती डीडीए की है. गलती डीडीए और साथ-साथ ‘आर्ट आॅफ लिविंग’ की भी है. डीडीए ने दो बार इनको मना किया कि हम अनुमति नहीं दे सकते, क्योंकि एक्टिव फ्लड एरिया में किसी भी प्रकार के कार्यक्रम के लिए राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) ने मना किया हुआ है, लेकिन फिर तो आप जानते हो कहां से दबाव डाला जाता है. बड़े-बड़े लोग हैं, जो दबाव डाल सकते हैं. उन्होंने दबाव डाला और डीडीए ने अनुमति दे दी.

हम इतने लंबे समय से ‘यमुना जिए अभियान’ चला रहे हैं. हमारे अभियान का सबसे बड़ा प्रतिफल यह मिला है कि अब लोग हमारे साथ आ रहे हैं. पूरा शहर इस मुद्दे पर साथ खड़ा हो रहा है, इस बारे में बात कर रहा है. वह इसलिए कि पिछले दस सालों से मेहनत हो रही है. कॉमनवेल्थ गेम के समय जब हम बस डिपो और मेट्रो के डिपो के निर्माण रोकने के लिए लगे थे तब हमारे साथ 10-15 से ज्यादा लोग नहीं थे. हम लोगों को समझाते हुए हार गए.

पर्यावरण जैसी चीज पर जब तक लोगों को यह नहीं लगता कि हम पर या हमारे जीवन पर कोई खतरा है तब तक कोई ध्यान नहीं देता. अगर दिल्ली में यमुना को खत्म कर देंगे तो 9वीं बार दिल्ली बसानी पड़ेगी. दिल्ली खत्म हो-होकर आठ बार बसाई गई है न, एक दिन यह शहर ही खत्म हो जाएगा. अगर यमुना वापस नहीं आई तो यह शहर खत्म हो जाएगा.

कोई भी मानवीय बसाहट बिना जलीय सुरक्षा के पनप नहीं सकती. पुराने जमाने में जितनी सभ्यताएं खत्म हुई हैं, वे तब खत्म हुई हैं, जब उनके पानी के साथ छेड़छाड़ हुई, खिलवाड़ किया गया. पानी ने दो काम किए- या तो आपको सूखा कर दिया या इतना भयानक जलजला आया कि सब नष्ट हो गया. दिल्ली में दोनों स्थितियां आने की संभावना है. या तो आप पानी के लिए तरस जाएंगे, एक-दूसरे को मार-मारकर खा जाएंगे, भगा देंगे, या इस शहर को छोड़कर चले जाएंगे, या फिर ऐसा जलजला आएगा कि आप उस पर विश्वास नहीं कर पाएंगे. पानी जीवन भी है और पानी से ही प्रलय भी आती है. इसे नहीं भूलना चाहिए.

यमुना को पुनर्जीवित करने के जितने प्रयास हुए, जितनी योजनाएं लाई गईं, उनका कोई असर नहीं पड़ा. सबसे बड़ा दुख तो यही है. 2015 में एनजीटी का फैसला आया, जिसका आर्ट आॅफ लिविंग के इस कार्यक्रम से उल्लंघन हुआ है. पहली बार ऐसा फैसला आया था जिसने सही रूप में सब कुछ सबके सामने रख दिया. लेकिन किसी ने उसको समझा ही नहीं. अब सब कह रहे हैं कि भाई जजमेंट की कॉपी भेज दो. अरे भई, जब जजमेंट आया था, तभी पढ़ लेते तो यह स्थिति ही न बनती. चलिए यह स्थिति बनी तो लोगों को एक सीख तो मिली. पूरा शहर पहली बार ऐसे कार्यक्रम के खिलाफ खड़ा हुआ है जिससे उसे कोई सीधा फर्क नहीं पड़ रहा है. पर फिर भी लोग इसके खिलाफ है क्योंकि उन्हें लग रहा है कि यह जो कुछ भी हो रहा है वह पर्यावरण के लिए ठीक नहीं है. फिर पूरे मीडिया का रवैया भी बदल गया क्योंकि मीडिया ने भी देखा कि यह गलत हो रहा है.

अब तक यमुना को बचाने या पुनर्जीवित करने पर तमाम पैसा खर्च हो चुका है. कोई कहता है कि 4,000 करोड़, कोई कहता है 1,500 करोड़ रुपये, कोई फिक्सड राशि कभी मिलती नहीं. लास्ट एस्टीमेट है 4,000 करोड़ रुपये. अब दिक्कत यह है कि इस तरह के कार्यों में अकेले कोई एनजीओ, दो एनजीओ, दस, पचास या हजार आदमी कुछ नहीं कर सकते. हम-आप अपना समय निकालकर थोड़ी देर के लिए नदी संवारने में कुछ योगदान कर देंगे. लेकिन ठोस तरीके से सिर्फ सरकारें ही कर सकती हैं. यह सरकारों का काम है, उनका धर्म है. इस तरह के काम के लिए प्रशासनिक अधिकारियों को तनख्वाह मिलती है. आखिर किसलिए उनको तनख्वाह मिलती है, इसलिए कि एनजीओ आकर काम करें? और अगर एनजीओ को ही करना है तो सरकार है क्यों? आप और हम दबाव डाल सकते हैं, समझा सकते हैं, आप और याचिका दे सकते हैं, लेकिन स्थायी तरीके से सरकार के अलावा कोई प्रभावी तरीके से कुछ नहीं कर सकता. जाहिर है कि सरकारों का रवैया बहुत लापरवाही भरा है. यह बात एनजीटी ने ही बोल दी है. हमको-आपको क्या बोलना है!

इन कारणों से आने वाली तबाही ऐसी चीज है जिसकी कोई भविष्यवाणी नहीं कर सकता. चेन्नई, मुंबई या केदारनाथ में जो हुआ, कोई भविष्यवाणी कर सकता था क्या? सिर्फ एक बार 24 घंटे बढ़िया बारिश होने दीजिए फिर देखिए क्या होता है. हम तबाही को आमंत्रण जरूर दे रहे हैं, लेकिन तबाही कब आएगी, यह काेई नहीं जानता.

इस समस्या के हल के लिए साधारण-सा सुझाव है कि कृपया 13 जनवरी, 2015 का एनजीटी का फैसला पढ़ लें और अपना भरसक प्रयास करें कि उस फैसले को जितनी जल्दी हो सके, लागू कर दें. उससे अच्छा रोडमैप इस नदी को दोबारा नहीं मिलेगा.

(लेखक ‘यमुना जिए अभियान’ के संयोजक हैं)
(कृष्णकांत से बातचीत पर आधारित)