छत्तीसगढ़ के सर्वाधिक नक्सल प्रभावित जिले दंतेवाड़ा के जिला पुलिस अधीक्षक नरेंद्र खरे ने पिछले दिनों एक बयान दिया कि अब माओवादियों से गोली से नहीं बल्कि बोली से बात होगी. जब भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी बस्तर में राजनीतिक सभा करने आए तो उन्होंने भी खरे की बात को अपने शब्दों में आगे बढ़ाया कि मरना-मारना अब बहुत हो गया, अब नक्सली बंदूक छोड़ हल थाम लें. राज्य के मुख्य सचिव विवेक ढांड भी धुर नक्सल प्रभावित इलाकों में जाकर बैठक ले रहे हैं. ये कुछ ऐसे संकेत हैं जिनसे छत्तीसगढ़ सरकार की नक्सलवाद विरोधी नीति में एक व्यापक बदलाव के संकेत मिल रहे हैं.
अप्रैल, 2010 में ताड़मेटला में तब तक के सबसे बड़े नक्सल हमले में 76 जवानों की मौत के बाद दंतेवाड़ा ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा था. केंद्र सरकार को भी दंतेवाड़ा में हुए इस हत्याकांड के बाद मानना पड़ा था कि नक्सलवाद केवल राज्यों की नहीं बल्कि राष्ट्र की समस्या है. तब नक्सलवाद से अपने दम पर जूझ रहे राज्यों के लिए केंद्र स्तर पर एकीकृत योजना बनाने की कसरत शुरू हुई थी. इसी कड़ी में तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदंबरम ने दो बार छत्तीसगढ़ आकर नक्सल रणनीति की दिशा तय करने के लिए बैठकें भी ली थीं. अब एक बार फिर बस्तर से ही माओवाद के खात्मे के लिए दिशा और दशा तय की जा रही है. यह दशा और दिशा क्या होगी यह जानने के पहले दंतेवाड़ा एसपी नरेंद्र खरे के पूरे बयान पर गौर फरमाना जरूरी है. खरे का कहना है कि पुलिस का पूरा जोर अब नक्सलियों की आत्मसमर्पण की नीति को बेहतर बनाने पर होगा और वर्ष 2014 में पुलिस माओवादियों को आत्मसमर्पण के लिए प्रेरित करेगी. खरे यह भी कहते हैं कि छत्तीसगढ़ सरकार आंध्र प्रदेश की तर्ज पर आत्मसमर्पण नीति को और बेहतर बनाने पर विचार कर रही है.
इसी कड़ी में जब भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी बस्तर आए तो उन्होंने सबसे पहले माओवादियों से बंदूक छोड़ने की अपील की. उन्होंने बस्तर से लेकर झारखंड़ के लोहरदगा तक हर सभा में यही कहा कि मरने-मारने का समय चला गया है. अब नक्सलियों के हाथों में बंदूक नहीं हल होना चाहिए. मोदी ने इस बात पर जोर दिया कि नक्सल प्रभावित इलाकों का विकास उनकी प्राथमिकता में शामिल है. मोदी ने जगदलपुर में माओवादियों से अपील करते हुए नारा दिया, ‘सबके साथ सबका विकास.’
नक्सलियों पर मोदी का बयान आया और उसके बाद से ही छत्तीसगढ़ की नक्सल नीति में तेजी से परिवर्तन के संकेत मिलना भी शुरू हो गए हैं. शुरुआत हुई प्रदेश के नए नवेले मुख्य सचिव विवेक ढांड की धुर नक्सल प्रभावित जिलों दंतेवाड़ा और सुकमा में बैठकों से. इनमें राज्य के वरिष्ठ आईएएस अफसर भी उनके साथ थे. ढांड ने स्थानीय अफसरों से मिलकर वहां की कठिनाइयों को भी जाना. यहां यह भी ध्यान देने लायक बात है कि तीन साल पहले राज्य सरकार ने सभी विभागों के सचिवों से बस्तर में महीने में एक रात बिताने को कहा था मगर यह नियम जमीनी हकीकत नहीं बन पाया. बस्तर को सिर्फ पुलिस के भरोसे छोड़ दिया गया था. लेकिन अब मुख्य सचिव की कोशिशों के बाद हालात बदलने की दिशा में गंभीर कोशिश दिख रही है.
वहीं पुलिस मुख्यालय (पीएचक्यू) ने भी छत्तीसगढ़ में नक्सलियों को आत्म-समर्पण के लिए प्रोत्साहित करने के लिए नई तैयारी शुरू कर दी है. उच्च पदस्थ पुलिस सूत्रों की मानें तो पीएचक्यू नक्सलियों की आत्मसमर्पण नीति में बड़ा बदलाव करने जा रहा है. बदलाव के पहले चरण में पति-पत्नी नक्सलियों के एक साथ समर्पण करने पर उनको ढाई लाख रुपये तत्काल देने की तैयारी की जा रही है. यह धनराशि नक्सली दंपति को अपना नया जीवन शुरू करने के लिए दी जाएगी. एडीजी नक्सल ऑपरेशन आरके विज का कहना है, ‘ आत्मसमर्पण करने के बाद नक्सलियों के सामने सबसे बड़ी समस्या नया जीवन शुरू करने की होती है. इस समय सबसे ज्यादा आर्थिक संकट सामने आता है जिससे कई बार नक्सली दोबारा जंगल की राह पकड़ लेते हैं. इसलिए इस बार हमारा फोकस उनकी आर्थिक स्थिति पर है ताकि वे दोबारा हिंसा का रास्ता न अपनाएं.’
दरअसल बीते सालों में छत्तीसगढ़ में बंदूक छोड़कर मुख्य धारा में शामिल होने वाले माओवादियों की संख्या काफी निराशाजनक रही है. वहीं दूसरी ओर आंध्र प्रदेश में आत्मसमर्पण करने वाले माओवादियों की संख्या छत्तीसगढ़ की तुलना में काफी ज्यादा है. वहां नक्सलियों को आत्मसमर्पण करने पर काफी बेहतर मुआवजा और नौकरी दी जाती है. जबकि छत्तीसगढ़ में आकर्षक व प्रभावी नीति न होने से पिछले दस साल में एक भी बड़े नक्सली ने आत्मसमर्पण नहीं किया है. सूबे में हथियारों के हिसाब से समर्पण की कीमत तय की जाती है. इसमें एलएमजी के साथ समर्पण करने वाले नक्सली को 4.50 लाख रुपए दिए जाते हैं. वहीं एके 47 के साथ 3 लाख रुपये, एसलआर के साथ 1.50 लाख, थ्री नॉट थ्री के साथ 75 हजार, 12 बोर की बंदूक के साथ 30 हजार दिए जाते हैं. यह राशि भी लंबी प्रक्रिया के बाद मिल पाती है. जबकि ओडिशा और आंध्र प्रदेश में समर्पण के साथ ही मुआवजे की राशि प्रदान की जाती है. पुनर्वास नीति के तहत उन्हें तत्काल मकान दिया जाता है या नौकरी दी जाती है. इन राज्यों में गिरफ्तारी या एनकांउटर का खतरा नहीं रहता.
फिलहाल राज्य सरकार ने आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों के लिए अलग-अलग पदों के हिसाब से अलग-अलग इनाम घोषित कर रखा है. यदि सेंट्रल कमेटी का सचिव आत्मसमर्पण करता है तो इनाम की राशि 12 लाख रुपये होती है. वहीं सेंट्रल मिलेट्री कमीशन प्रमुख के लिए 10 लाख, पोलित ब्यूरो सदस्य के लिए सात लाख, स्टेट कमेटी सदस्य के लिए तीन लाख, पब्लिकेशन कमेटी के सदस्य के लिए दो लाख, एरिया कमेटी सचिव के लिए 1.5 लाख, अन्य एरिया कमेटी सचिव के लिए 1 लाख, एलओसी कमांडर को समर्पण पर 50 हजार रुपये की राशि दी जाती है. छत्तीसगढ़ में वर्ष 2004 के बाद मुआवजा राशि नहीं बढ़ाई गई है. इस बारे में प्रदेश के गृहमंत्री रामसेवक पैकरा कहते हैं, ‘नक्सलवाद राष्ट्रीय मुद्दा है. इस पर व्यापकता से विचार किए जाने की जरूरत है. दूसरी महत्वपूर्ण बात है कि माओवादी हिंसा की काट विकास है. ऐसे में नक्सल प्रभावित सभी राज्यों को मिल बैठकर इस समस्या पर समग्र नीति बनाने की जरुरत है. जिसकी दिशा में काम शुरू हो चुका है. अलग-अलग राज्यों में माओवादियों को लेकर अलग-अलग नीति का होना भी परेशानी को बढ़ाने का ही काम कर रहा है. इसलिए केंद्र में अपनी सरकार आने पर हमारी कोशिश होगी कि नक्सलवाद को लेकर देश में एकीकृत नीति बनाने की दिशा में पहल हो.’
स्वामी अग्निवेश की राय इस बारे में अलहदा है. वे मानते हैं, ‘ यदि संविधान में उल्लेखित अधिकारों को सही तरीके से आदिवासियों तक पहुंचा दिया जाए तो इस समस्या का हल बगैर किसी कसरत के निकल आएगा. यदि नक्सल प्रभावित इलाकों में शांति चाहिए तो सबसे पहले जेलों में बंद निरपराध आदिवासियों को छोड़ना होगा. दूसरा यह कि पांचवी और छटी अनुसूची को लेकर जल्द निर्णय लेना होगा. ग्राम सभाओं को अधिकार देने होंगे. लेकिन दुर्भाग्य से छत्तीसगढ़ सरकार ने ऐसे कई मौके गवाएं हैं. जब वह आगे बढ़कर इस समस्या का जड़ से समाधान कर सकती थी. फिलहाल भी भाजपा की ऐसी कोई इच्छाशक्ति नहीं दिखती.’
इस वक्त छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद के आरोप में बंद कुछ लोगों की रिहाई की दिशा में भी तेजी दिखाई देने लगी है. नक्सलियों की रिहाई के लिए बनाई गई उच्च स्तरीय समिति की अध्यक्ष निर्मला बुच बताती हैं, ‘ हमने करीब 150 सिफारिशें की हैं. इनमें जमानत के वक्त राज्य सरकार किसी प्रकार की आपत्ति नहीं करेगी. हमारी समिति की सिफारिश के कारण कई नक्सलियों को जमानत भी मिली है. हमने नक्सलियों के सभी मामलों की समीक्षा की है. हम लगातार बैठक कर रहे हैं. चुनाव शुरु होने के पहले भी हमने बैठक ली थी. चुनाव खत्म होते ही हमारी एक बैठक होनी है.’ निर्मला बुच मध्य प्रदेश की मुख्य सचिव भी रह चुकी हैं. वर्ष 2012 में नक्सलियों ने तत्कालीन सुकमा कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन को अगवा कर लिया था. उन्हें छोड़ने के बदले नक्सलियों ने जेलों में बंद अपने साथियों की रिहाई की शर्त रखी थी. इसी के जवाब में बुच की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति बनाई गई थी. इसमें राज्य के मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव गृह और डीजीपी को सदस्य बनाया गया था. निर्मला बुच सरकार की तरफ से नक्सलियों के मध्यस्थों से बात भी कर रही थीं.
इस समय राज्य की जेलों में (जिनमें पांच केंद्रीय कारागार भी शामिल हैं) तकरीबन 1400 ऐसे आरोपित या सजायाफ्ता बंदी हैं, जिनपर नक्सली होने या नक्सली समर्थक होने का आरोप है. जेल सूत्रों की मानें तो इनमें कट्टर नक्सली कम, जन मिलिशिया और संघम सदस्य ज्यादा हैं. आंकड़ों पर नजर डालें तो जगदलपुर जेल में नक्सली मामलों के 332 विचाराधीन कैदी बंद हैं. साथ ही यहां 25 सजायाफ्ता कैदी भी रखे गए हैं. दंतेवाड़ा जेल में नक्सली मामलों के करीब 350 विचाराधीन कैदी बंद हैं. कांकेर जेल में नक्सली मामलों के करीब 250 और दुर्ग जेल में तकरीबन 100 विचाराधीन कैदी बंद हैं. अंबिकापुर जेल में लगभग 100 और रायपुर में 150 कैदी हैं, जो नक्सली होने के आरोप में बंद हैं.
बहरहाल एनडीए की सरकार केंद्र में बने या न बने छत्तीसगढ़ में इस बहाने शुरू हुई कवायदों से यह जरूर स्पष्ट हो रहा है कि नक्सलवाद पर बनी सरकारी नीति आनेवाले समय में बड़े बदलाव से गुजरने वाली है.