ये कहानी पहले भी लिखी जा चुकी है और कोई संदेह नहीं कि आगे भी लिखी जाती रहेगी. विशेषज्ञ अपनी टिप्पणियां दे रहे हैं, देते रहेंगे. समाचार चैनल तरह-तरह की चीज़ें सामने लाते रहेंगे. पिछले साल नवंबर में भी ऐसा ही हुआ था जब फैजाबाद, वाराणसी और लखनऊ में बम धमाके हुए थे. इस साल मई में जयपुर में सिलसिलेवार धमाके हुए और 80 बेगुनाहों की जान चली गई. और अब बैंगलोर और फिर अगले दिन अहमदाबाद में बम धमाके होने के बाद एक बार फिर जैसे सब सोते से जागे और आतंकवाद फिर से सुर्खियों के केंद्र में आ गया है.
वही सवाल फिर से पूछे जा रहे हैं. ये किसने किया? कौन जिम्मेदार है? क्या इंडियन मुजाहिदीन एक आड़ है? क्या इस हमले के पीछे आईएसआई है या फिर देश का ही कोई संगठन? क्या ये हूजी है या लश्करे तैय्यबा या फिर जैशे मुहम्मद? क्या पोटा, फिर से लगाया जाना चाहिए? क्या एक फेडरल जांच एजेंसी ही ऐसे हमलों का जवाब है जो पिछले चार सालों से कुछ महीनों के अंतराल पर लगातार हो रहे हैं?
मगर इन सवालों के जवाब से पहले कुछ दूसरे सवालों का जवाब मिलना ज़रूरी है. जैसे कि पिछले साल नवंबर में उत्तर प्रदेश और इस साल मई में हुए जयपुर बम धमाकों के बीच की अवधि में एक और आतंकी हमला न होने देने के लिए क्या किया गया? राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के साथ गरमागरम बहस के अलावा गृहमंत्री शिवराज पाटिल और उनकी टीम ने और क्या किया? राजे के ही शब्दों में कहें तो क्या खुफिया एजेंसियों की अति गोपनीय जानकारियां मौसम विभाग की जानकारियों से किसी मायने में बेहतर हैं? क्या इंटेलीजेंस ब्यूरो (आईबी) और रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) की खुफिया क्षमताएं पर्याप्त हैं या फिर उनमें और पुलिस के तौर तरीकों में सुधार की जरूरत है?
पश्चिमी देशों में एक लाख की जनसंख्या पर 250 से 500 पुलिसकर्मी होते हैं. भारत में ये आंकड़ा 126 है जिसे बहुत खराब कहा जाएगा.
नई दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट फॉर कनफ्लिक्ट मैनेजमेंट के एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर अजय साहनी कहते हैं, “बैठकों में रेड अलर्ट, समन्वय समितियों और सुरक्षा कड़ी करने के उपायों पर तो चर्चा होती है मगर इन सवालों को कोई नहीं उठाता. ऐसा इसलिए क्योंकि जवाब शर्मिंदा करने वाला बल्कि कहा जाए तो अपमानजनक होगा.”
भारत में हुए हालिया आतंकी हमले बता रहे हैं कि अपने इरादों को अंजाम देने के लिए आतंकवादियों को किसी विशेषज्ञता की जरूरत नहीं बल्कि वे तो बड़ी आसानी से ये काम कर रहे हैं. इन सभी हमलों में प्रेशर कुकर या टिफिन में रखे बम इस्तेमाल किए गए हैं. इन्हें बनाने के लिए अमोनियम नाइट्रेट जैसे दहनशील पदार्थों का इस्तेमाल किया गया जिन्हें स्थानीय बाजारों से ही खरीदा गया था. 1993 में मुंबई में हुए धमाकों के उलट, जिसमें अंडरवर्ल्ड डॉन दाऊद इब्राहिम द्वारा आरडीएक्स बाहर से भेजा गया था, हाल में हुए सभी धमाकों को स्थानीय आतंकियों ने अंजाम दिया है. रॉ के पूर्व निदेशक विक्रम सूद कहते हैं,“केंद्र को बड़ी तस्वीर ध्यान में रखनी चाहिए. सुरक्षा तंत्र को चौकस करना चाहिए और उसके बाद इसकी राजनीतिक वजहों पर नजर डालनी चाहिए. आंकड़े दिखाने और बढ़ाने के लिए संदिग्धों को पकड़ने का असर वैसा ही होगा जैसा अमेरिका द्वारा हवाई बमबारी करके स्थानीय अफगानियों को मारने का हो रहा है.”
सुरक्षा तंत्र पर एक नजर डालते हैं. साहनी बताते हैं कि 2007 में जाकर गृहमंत्रालय को ख्याल आया कि उसे संसद के सामने रखी जाने वाली अपनी रिपोर्ट में पुलिस और जनसंख्या के अनुपात के आंकड़े भी शामिल करने चाहिए. वे कहते हैं, “दो दशक तक आतंकवाद का सामना करने के बाद जाकर किसी गृहमंत्री ने पहली बार इस तथ्य को लेकर जागरूकता दिखाई कि इस समस्या से निपटने के लिए देश में पुलिस और खुफिया विभाग के पास संसाधनों की भारी कमी है. हकीकत ये है कि थाने से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक भारत की समूची न्याय व्यवस्था पूरी तरह से बीमारू हो चुकी है. ताजा आतंकी हमले की बारीकियों से भी नाजुक मसला असल में ये है”
सवाल उठता है कि अपने देश में पुलिस-जनसंख्या का अनुपात क्या है? पश्चिमी देशों में एक लाख की जनसंख्या पर 250 से 500 पुलिसकर्मी होते हैं. भारत में ये आंकड़ा 126 है जिसे बहुत खराब कहा जाएगा. अंतराष्ट्रीय स्तर पर शांतिकाल में इस अनुपात को 10000:222 रखने का सुझाव दिया जाता है. इससे भी अहम तथ्य ये है कि भारत का ये अनुपात भी कुल स्वीकृत पदों पर आधारित है जिसमें से कई मामलों में ये स्वीकृति 1980 में दी गई थी. इसमें 20 फीसदी रिक्तियों को जोड़ कर जनसंख्या वृद्धि को भी शामिल कर दें तो स्थिति विकट हो जाती है. मगर बात केवल पुलिसकर्मियों की ही नहीं है, इंटेलीजेंस ब्यूरो जैसे विभाग के पास भी स्टाफ की कमी है. निश्चित रूप से एक डरावनी तस्वीर उभरती है. सूत्र बताते हैं कि एक अरब से ज्यादा की जनसंख्या वाले इस देश में आईबी के मात्र 3500 लोग खुफिया सूचनाएं जुटाने का काम कर रहे हैं. साहनी कहते हैं, “इनका भी बस एक छोटा सा हिस्सा ही आतंकवाद के मोर्चे पर कार्यरत है.”
“आईबी को 50,000 अतिरिक्त आदमी चाहिए. आज हर कोई फेडरल जांच एजेंसी की मांग कर रहा है मगर पहले जो एजेंसियां हैं उनकी हालत तो सुधारिये.”
इस समस्या के बारे में सब जानते हैं मगर एक के बाद एक आने वाली सरकारें बस फाइलें इधर-उधर खिसकाती रही हैं. गृह मंत्रालय के एक अधिकारी कहते हैं, “कई सिफारिशें मेज पर पड़ी हैं मगर नेता ध्यान ही नहीं देते. उनकी आदत ही हो गई है कि कुछ देर तक आग बुझाओ और फिर अगला हमला होने तक सो जाओ.”
समझा जा सकता है कि कोई फर्क क्यों नहीं पड़ता. शायद इसी घातक प्रवृत्ति के चलते 1999 में करगिल युद्ध के बाद सुरक्षा और इंटेलीजेंस की व्यापक समीक्षा रिपोर्ट को कभी भी लागू नहीं किया गया.?
एक और उदाहरण पर नजर डालें. 2001 में गिरीश सक्सेना समिति ने देश के सुरक्षा तंत्र पर अपनी रिपोर्ट सौंपी थी. इसमें खुफिया एजेंसियों के हर विभाग में व्यापक सुधारों की सिफारिश की गई थी. ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स ने इन सिफारिशों पर मंजूरी की मुहर भी लगा दी थी. मगर सात साल गुजर गए और बात जहां की तहां है. कुछ प्रतीकात्मक बदलावों को छोड़कर इस रिपोर्ट को अब तक लागू नहीं किया गया. रिपोर्ट के सुझावों में एक ये भी था कि आईबी में 3000 अतिरिक्त लोगों की नियुक्ति की जाए. मगर 2008 तक केवल 1400 अतिरिक्त पदों की स्वीकृति दी गई है. साहनी बताते हैं, “आईबी को 50,000 अतिरिक्त आदमी चाहिए. आज हर कोई फेडरल जांच एजेंसी की मांग कर रहा है मगर पहले जो एजेंसियां हैं उनकी हालत तो सुधारिये.”
गौरतलब है कि इस पहलू पर सक्सेना समिति ने पर्याप्त ध्यान दिया था. समिति का सुझाव था कि आईबी के तहत एक मल्टी एजेंसी सेंटर (मैक) और ज्वाइंट टास्क फोर्स (जेटीएफआई) की स्थापना की जाए. मैक को जहां आतंकवाद से संबंधित सूचनाओं को इकट्ठा करना था वहीं जेटीएफआई को उस सूचना को राज्य सरकारों के साथ बांटना था. ये दोनों विभाग काम तो कर रहे हैं मगर संसाधनों की कमी से जूझते हुए.
यही वो कमियां है जिनका आतंकी संगठन फायदा उठा रहे हैं. ये संगठन इतने दुस्साहसी हैं कि धमाके से पहले पुलिस और मीडिया को ईमेल भेज रहे हैं. वे न्याय व्यवस्था के प्रति भारतीय मुसलमानों के शिकवे को भी भुना रहे हैं जिससे उन्हें अपनी जंग के लिए नए सिपाही भर्ती करने में मदद मिलती है. इंडियन मुजाहिदीन द्वारा भेजी गई मेल के बारे में रॉ के पूर्व अतिरिक्त सचिव बी रमन कहते हैं, “ये संदेश सिर्फ उनकी कार्रवाई की चेतावनी ही नहीं है बल्कि उन कारणों को भी दर्शाता है जिनकी वजह से भारतीय मुसलमान इस कृत्य में शामिल होने का फैसला कर रहे हैं. इसका मुख्य बिंदु ये था कि आपराधिक न्याय व्यवस्था में मुसलमानों के साथ काफी कड़ाई बरती जाती है जबकि हिंदुओं के साथ नरम व्यवहार होता है. इसमें इस्तेमाल भाषा, संदर्भ और मुद्दे खालिस हिंदुस्तानी थे और ये वही थे जिनके बारे में मुस्लिम समुदाय के एक हिस्से में काफी नाराजगी है मसलन बाबरी मस्जिद का ढहाया जाना, श्रीकृष्ण आयोग द्वारा दोषी पाए गए मुंबई के पुलिस अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई का न होना, 1993 के मुस्लिम आरोपियों को कड़ी सजा और गुजरात दंगे.”
ये सारी बातें सिर्फ एक तरफ इशारा करती हैं—उस तरफ जहां से हमने शुरुआत की थी, कि ये कहानी आगे भी तब तक लिखी जाती रहेगी जब तक सरकार की नींद नहीं खुलती और वो दो कड़वी सच्चाइयों की तरफ ध्यान नहीं देती—पहली आंतरिक सुरक्षा तंत्र को किस तरह दुरुस्त किया जाए और दूसरी, न्याय व्यवस्था के प्रति एक तबके के शिकवों को किस तरह दूर किया जाए.