नया निजाम, नई चुनौतियां

आमतौर पर शांत रहने वाले ढाका के धानमंडी इलाके में जब 25 फरवरी की सुबह गोलियों की गूंज सुनाई दी तो शायद ही किसी ने सोचा हो कि बांग्लादेश राइफल्स के मुख्यालय में कुछ ऐसा घट रहा है जो देश का इतिहास बदलने की क्षमता रखता है. अगले दो दिन तक इस अर्धसैनिक बल के करीब 3000 जवान अपने वरिष्ठ अधिकारियों पर बंदूकें ताने रहे. बगावत खत्म होने तक बीडीआर महानिदेशक जनरल शकील अहमद सहित 77 अधिकारी, आठ बीडीआर जवान और पांच आम लोग अपनी जान गंवा चुके थे. दुस्साहसी बागियों ने कई अधिकारियों के शवों को तो सामूहिक रूप से बीडीआर कंपाउंड के मैदान में दफना दिया गया था.

पाकिस्तान में कहा जा रहा है कि ये बगावत भारत की खुफिया एजेंसी रॉ ने करवाई है

25 और 26 फरवरी की घटनाएं कुछ बड़ी आशंकाओं की तरफ संकेत कर रही हैं. इतनी बड़ी संख्या में अधिकारियों की हत्या कर उन्हें सामूहिक रूप से दफनाया जाना और बगावत की सुनियोजित साजिश साफ इशारा करती है कि ये हमला तनख्वाह के मुद्दे पर नाराज कुछ नौजवान सिपाहियों का आक्रोश भर नहीं था बल्कि इसके पीछे किसी बड़ी ताकत का हाथ था. इस बीच संकट को हल करने के तरीके को लेकर नाराज सशस्त्र बलों को सरकार मनाने की कोशिश कर रही है.  नाराजगी की मुख्य वजह ये है कि सरकार ने फौरन सेना बुलाने की इजाजत नहीं दी. दावा किया जा रहा है कि इस देरी से मौतों की संख्या बढ़ गई. अब दुनिया इस बात का इंतजार कर रही है कि दोषियों को सजा देने के अपने वादे को पूरा करने में प्रधानमंत्री शेख हसीना कितना वक्त लगाती हैं.

भारतीय मीडिया में कहा जा रहा है कि इस बगावत में वहां के एक बड़े व्यवसायी सलाउद्दीन कादिर चौधरी का हाथ है जो बेगम खालिदा जिया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई का करीबी है. इसके उलट पाकिस्तान में कहा जा रहा है कि ये बगावत भारत की खुफिया एजेंसी रॉ ने करवाई है. जानकार मानते हैं कि एकदम से किसी पर इल्जाम लगा देना जल्दबाजी होगी पर इतना तय है कि इस बगावत के पीछे सिर्फ बीडीआर नहीं है.

बांग्लादेश इंस्टीट्यूट ऑफ पीस एंड सिक्योरिटी के मुखिया मेजर मुनीरुजमान कहते हैं, ‘जो भी हुआ वह किसी ऐसी ताकत के हित में हुआ जो बांग्लादेश को इस हद तक कमजोर करना चाहती है कि वह नाकाम देश हो जाए. मगर इस घटना से संबंधित पुख्ता सूचनाएं ज्यादा नहीं मिल रहीं और बगैर जांच हम किसी पक्के निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकते.’

एक और सुरक्षा विशेषज्ञ इस हमले के पीछे आतंकी संगठनों का हाथ होने की आशंका जताते हैं. नाम न बताने की शर्त पर वे कहते हैं, ‘बीडीआर स्नाइपर्स द्वारा पहने गए लाल हेडस्कार्फ, उनके खंजर, गर्दन पर तीन गोलियां मारना और आंखें निकाल लेना सिर्फ संयोग नहीं है. ये ऐसे प्रतीक हैं जिनका इस्तेमाल आतंकी संगठन करते हैं.’ बागियों के साथ बातचीत में मुख्य भूमिका निभाने वाले सहकारिता मंत्री जहांगीर कबीर नानक के मुताबिक ये बगावत एक साजिश थी और अधिकारियों की हत्या को सुनियोजित तरीके से अंजाम दिया गया. उनका कहना था कि अधिकारियों की हत्या के लिए बीडीआर के जवानों में लाखों रुपए बांटे गए.

अगर वे अगले कुछ हफ्तों में सेना की नाराजगी दूर नहीं कर पाईं तो सेना में असंतोष भड़कने और नतीजतन तख्तापलट का खतरा हो सकता है

हालांकि जहां तक शेख हसीना का सवाल है तो वह अभी तक इस घटना में विदेशी हाथ होने की संभावना वाली बहस में नहीं पड़ी हैं. गृह मंत्री सहारा खातून की अध्यक्षता में इस मामले की जांच के लिए एक छह सदस्यीय टीम गठित तो कर दी गई है मगर आलोचकों की मानें तो इससे ज्यादा उम्मीदें लगाना बेकार है. इसकी वजहें भी हैं. अहम फॉरेंसिक सबूत नष्ट कर दिए गए हैं. मसलन बीडीआर परिसर में स्थित दरबार हाल, जहां ये हत्याकांड कथित तौर पर शुरू हुआ, में 27 फरवरी को ही खून के धब्बे साफ कर दिए गए और सब कुछ व्यवस्थित कर दिया गया.

बीडीआर मुख्यालय में असल में क्या हुआ और किसने किया,  इस बारे में कई तरह के विरोधाभासी विवरण सामने आ रहे हैं. जांच समिति के सामने ये एक बड़ी चुनौती है. इस घटना में जीवित बचे सभी लोग इस पर एकराय हैं कि बगावत सुबह साढ़े नौ बजे के करीब तब शुरू हुई जब दरबार हॉल में मेजर जनरल अहमद बीडीआर के करीब 3000 जवानों को संबोधित कर रहे थे. मगर इसके बाद क्या हुआ इस बारे में कई तरह की जानकारियां सामने आ रही हैं. सेना के करीबी एक सूत्र दावा करता है कि भाषण के दौरान अचानक एक जवान अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ और मेजर जनरल से पूछने लगा कि क्या उन्होंने एक दिन पहले प्रधानमंत्री से हुई मुलाकात के दौरान बीडीआर के जवानों की शिकायतों से उन्हें अवगत कराया. अहमद से बैठने के लिए कहा गया और जब उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया तो उन्हें गोली मार दी गई. जीवित बचे एक गवाह कर्नल शम्स कहते हैं कि जवान भागा और उसने मेजर जनरल अहमद के सिर पर बंदूक तानने की कोशिश की. कुछ दूसरे प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक हंगामे के दौरान मुख्य मंच के पीछे खड़े कुछ बंदूकधारी जवानों ने बीडीआर महानिदेशक पर घात लगाकर हमला कर दिया. विवरणों में अंतर इन मुश्किल हालात में और भी जटिलता घोल रहा है.

हसीना के सामने कई चुनौतियां हैं. ऐसे कई दरकिनार सैन्य और खुफिया अधिकारी हैं जिनके कट्टर इस्लामी संगठनों से संबंध हैं. ये संगठन खालिदा जिया के कार्यकाल में मजबूत हुए हैं जिन्होंने 2001 में जमाते इस्लामी के समर्थन से सरकार बनाई थी. बांग्लादेश में कई इससे सहमत हैं कि ये बगावत लोकतंत्रविरोधी ताकतों की कारगुजारी है जिनमें कई इस्लामी संगठन, मुख्यधारा के राजनेता और कट्टरपंथ का समर्थन करने वाले ऐसे सैन्य अधिकारी शामिल हैं.

बांग्लादेशी खुफिया विभाग पर भी कई गंभीर सवाल खड़े किए जा रहे हैं जो इस बगावत की कोई चेतावनी नहीं दे पाया. यहां तक कि सेना की अपनी खुफिया इकाई भी इसे समय रहते नहीं भांप सकी. ले. कर्नल कमरुजमान जैसे कुछ लोगों का मानना है कि इसके पीछे पक्के तौर पर यही बात हो सकती है कि इस बगावत में खुफिया विभाग की भी मिलीभगत रही हो. शेख हसीना भी कह चुकी हैं कि खुफिया एजेंसियों के फील्ड एजेंट्स इसमें शामिल थे और उन्हें सब कुछ पता था. अब उन पर इसके लिए दबाव बढ़ता जा रहा है कि वे खुफिया एजेंसियों के दोषी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई करें. भले ही इसकी मिलीभगत की आशंका आखिर में सच न निकले पर ये बात तो है ही कि ये इस बगावत की पूर्व चेतावनी देने में नाकाम रही.

उधर सेना के लिहाज से देखा जाए तो इस बगावत ने उसके लिए कई चीजें बदल दी हैं. जानकार कह रहे हैं कि इस हत्याकांड ने सेना को अपनी छवि सुधारने का मौका दे दिया है. गौरतलब है कि शेख हसीना के सत्ता में आने से पहले दो साल तक देश में सेना द्वारा समर्थित कार्यवाहक सरकार का शासन था जिसके दौरान सेना की छवि आम जनता के बीच बहुत खराब हो गई थी. इस घटना से लोगों की सहानुभूति उसके साथ हो गई है. हालांकि अब इसके सामने एक अनिश्चित भविष्य खड़ा है. सरकार के साथ इसका संबंध अभी भी उतना सहज नहीं है और दूसरी ओर इसके अधिकारियों का एक बड़ा हिस्सा इस बगावत की भेंट चढ़ चुका है. कुछ का दावा है कि अधिकारियों के लिहाज से सेना को हुआ नुकसान अगर ज्यादा नहीं तो कम से कम उतना ही बड़ा है जितना 1971 में मुक्तिसंग्राम के दौरान हुआ था. इतनी बड़ी चोट के बाद अब सेना में सामान्य हालात की बहाली और उसे पहले से भी बेहतर बनाने की कोशिशें शुरू हो गई हैं. शेख हसीना ने सुरक्षा बलों में बड़े पैमाने पर बदलाव का संकेत दिया है जिसके तहत अर्धसैनिक बलों की कार्यप्रणाली को भी फिर से व्यवस्थित किया जाएगा.

इसके बावजूद सेना में एक वर्ग अब भी इस बात पर खफा है कि बगावत को कुचलने में देर की गई. 25 फरवरी को ही सुबह 11:30 बजे तक सेना ने बीडीआर मुख्यालय के बाहर अपनी पोजीशन ले ली थी मगर उसे भीतर घुसने की इजाजत नहीं दी गई.

इसके बजाय शेख हसीना ने फैसला किया कि बागियों के साथ बात कर उन्हें मनाने की कोशिश की जाए जबकि इस दौरान भीतर हत्याएं जारी रहीं. अब बंद दरवाजों के पीछे हो रहे विचार-विमर्श के दौरान सेना के अधिकारी इस रणनीति पर सवाल उठा रहे हैं. अफवाह उड़ रही है कि सेना इन हत्याओं का बदला लेने की फिराक में है. सेना के करीबी एक सूत्र का कहना है, ‘ये सच है कि अगर वे (सैनिक) टैंकों के साथ भीतर घुस जाते तो मौतों की संख्या ज्यादा होती. मगर ये मौतें बीडीआर वालों की होतीं. सेना का मानना है कि अधिकारियों की हत्या की कोई जरूरत ही नहीं थी और वह इसके बदले में कुछ न कुछ चाहेगी.’ जाहिर है इससे शेख हसीना पर दबाव बन गया है क्योंकि सेना का भरोसा बहाल करना न सिर्फ देश की सुरक्षा बल्कि उनकी सरकार की स्थिरता के लिहाज से भी अहम है.

उधर, बीडीआर के सामने भी एक नया भविष्य है. ब्रिगेडियर जनरल एम डी मैनुल इस्लाम को इसका नया महानिदेशक बनाया गया है. बगावत के बाद कई तरफ से मांग उठ रही थी कि इसे खत्म कर दिया जाए. ऐसे में लग रहा है कि पहले के मुकाबले अब बीडीआर का स्वरूप काफी बदल जाएगा.

जहां तक शेख हसीना का सवाल है तो इस घटना के संदर्भ में उन्हें किस तरह देखा जाएगा इसका फैसला अभी होना है. अभी तक तो इस संकट को जिस तरह से उन्होंने संभाला, वह भी सरकार बनने के कुछ ही हफ्ते बाद, उसकी कई लोग तारीफ कर रहे हैं. इस संकट सेना की बजाय सरकार द्वारा संभाला जाना ही अपने आप में ये संकेत माना जा रहा है कि अब प्रशासन को वास्तव में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार चला रही है. सेना के एक वर्ग में भले ही नाराजगी हो मगर इससे बाहर संदेश ये गया है कि देश में अब एक स्थिर और लोकतांत्रिक सरकार है जो सेना की कठपुतली नहीं है. शेख हसीना ने इस संकट से निपटने में जिस तरह की सख्ती का परिचय दिया उससे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनकी साख बढ़ी है.

मगर असल इम्तहान अभी बाकी है जिसका फैसला इस बात पर निर्भर करेगा कि इस बगावत की जांच कितने पारदर्शी और विश्वसनीय तरीके से हो पाती है. बीडीआर के नए स्वरूप पर भी सबकी निगाहें रहेंगी और सक्षम और प्रशिक्षित सैनिकों का एक नया भंडार भी जल्द बनाए जाने की जरूरत होगी. इस प्रक्रिया में सरकार और सेना से ये अपेक्षा की जाएगी कि वे निष्पक्ष रहेंगे और सुरक्षा बलों की शिकायतों पर ध्यान देंगे.

इस पर भी सबकी निगाह है कि सेना की तरफ से घटते समर्थन से शेख हसीना किस तरह निपटती हैं. ये एक ऐसी चीज है जिसकी उनकी सरकार की स्थिरता में अहम भूमिका होगी. इस संकट से निपटने में उन्हें बहुत संतुलन साधकर चलना होगा. अगर वे सेना के ज्यादा नजदीक गईं तो इससे उस जनता के बीच उनकी छवि खराब हो सकती है जिसने हाल ही में हुए चुनाव में उन्हें भारी बहुमत से जिताया है. और अगर वे अगले कुछ हफ्तों में सेना की नाराजगी दूर नहीं कर पाईं तो सेना में असंतोष भड़कने और नतीजतन तख्तापलट का खतरा हो सकता है. सवाल ये भी है कि अगर बगावत की जांच पूरी होने पर इसमें ऐसे लोगों की मिलीभगत सामने आती है जो वर्तमान में सत्ता और जिम्मेदारी के बड़े पदों पर बैठे हों तो क्या होगा? शेख हसीना के सामने उन्हें हटाने का कड़ा इम्तहान होगा. फिर भले ही वे पहले उनके मददगार रह चुके हों.

इस तरह से देखा जाए तो इन हालात में शेख हसीना के लिए संतुलन बनाकर चलना सबसे बड़ी चुनौती होगी. शायद उन्होंने सोचा नहीं होगा कि सरकार बनने के बाद इतनी जल्दी उन्हें ऐसे हालात का सामना करना पड़ेगा. मगर उनके पास इन सभी मुद्दों को सुलझने के अलावा और कोई चारा नहीं है.

(करीम बांग्लादेश और ब्रिटेन स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं)