गुलाल : ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!

गुलाल क्रोध, दुख और सच का सिनेमा है। अनुराग कश्यप शेक्सपियराना हो गए हैं इसलिए आख़िरी आधे घंटे में मक़बूल और ओमकारा भी याद आती हैं। गुलाल वहीं ख़त्म होती है जहाँ आधी सदी पहले प्यासा ख़त्म हुई थी। अनुराग की ख़ासियत है कि वे आपको जीवन में पूरी तरह डुबाकर उसकी निस्सारता की बात करते हैं। हमारे हाथों में जो अच्छी किताबें और रंगीन गुब्बारे चाचा नेहरु दे गए थे, गुलाल बदतमीज़ी से उन्हें फाड़ और फोड़ देती है। जिसे
‘दिल्ली 6’ का फ़कीर लिए फिरता था, यह वही बेशर्म आईना है, जिसके सामने बाल सँवारते सँवारते हम अपने चेहरे भूल गए हैं। हमें केवल अपने सिर याद हैं, जो भीड़ बनकर लोकतंत्र की खुराक बन गए हैं। 

महान फ़िल्में कभी आपको चकित या सम्मोहित नहीं करती। वे आपको शादियों और उत्सवों की चकाचौंध से उठाकर सीलन भरी अँधेरी गलियों में ले जाकर छोड़ देती हैं। यह बुद्धिजीवियों के समकालीन महानगरीय सिनेमा के साथ खड़ा ठेठ  रेगिस्तानी सिनेमा है जिसके करघे पर कई कहानियाँ इतनी कुशलता से एक साथ  बुनी गई हैं कि यह समय और स्थान की सीमाएँ लाँघकर व्यापक हो जाता है।  मसलन एक छोटी सी यूनिवर्सिटी के जनरल सेक्रेटरी के चुनाव और उसके पीछे  परत दर परत छिपी राजनीति पूरे देश की राजनीति की नंगी झलक दिखला जाती है  और अपनी जाति के हित और गौरव के लिए युद्ध पर उतारू राजपूत राजस्थान को  राजपूताना बनाना चाहते हैं तो वह महाराष्ट्र या तेलंगाना भी हो सकता है।

 यह ख़ून के भ्रम में गुलाल पोतकर लाल किए गए चेहरों की थोथी क्रांति है,  जिसकी मध्यकालीन महत्वाकांक्षाएँ तालिबानी हैं। साहिर और दिनकर की ऊँचाई  को छू जाने वाले पीयूष मिश्रा के गीत अफ़गानिस्तान और ईराक में जमकर बैठे  अंकल सैम को भी नहीं बख़्शते। देव डी की तरह यहाँ भी गीत फ़िल्म की नींव में हैं। फ़िल्म के कई महत्वपूर्ण सीक्वेंस को बीच में रोकने का ख़तरा  उठाकर अनुराग पीयूष से कुछ ज़्यादा ज़रूरी बातें कहलवाते हैं, जो पागलपन के  आवरण में लिपटी हैं, लेकिन वही तीखी बातें हैं जिनके लिए फ़िल्म बनाई गई है।

बीच बीच में अनुराग के स्टाइल की तेज लाइटें, कमरे की दीवारों पर बने  चित्र और उनके रंग तथा सड़क के साइनबोर्ड फ़िल्म के मूड को सम्पूर्णता देते  हैं,  इस दौरान तेजी से इधर उधर भागता बेचैन कैमरा हो या लम्बा क्लोज़ अप, राजीव रवि के छायांकन में उतनी ही वास्तविकता दिखती है। वाशबेसिन में पानी के  साथ बहते बालों में छिपा अवसाद दिखाने के लिए कैमरे को आँखों के साथ साथ  मन की भी ज़रूरत पड़ी होगी। हाँ, अनुराग और राजीव के भटकाव को आरती बजाज की  सतर्क एडिटिंग कई ज़गह थाम लेती है। वे अनुराग को अपने आप में खोने नहीं देती। बाकी काम के लिए उनके पास के के, राजा चौधरी, अभिमन्यु सिंह, आयशा  मोहन और दीपक डोबरियाल जैसे अच्छे अभिनेताओं की पूरी फ़ौज है ही।  यह खिलौनों से खेलते रहे उस मासूम बच्चे की कहानी है जिसके लिए दुनिया अमर चित्रकथाओं की तरह सरल और पवित्र है। गुलाल उस बच्चे के साथ साथ हम  सबके हाथों में खंजर थमाकर सडाँध भरे गहरे कुएँ में कूदने को मज़बूर करती  है जिसमें काले रिश्ते हैं, छलती हुई और छली जाती स्त्रियाँ हैं, अबोला, बड़बोला और झूठा प्रेम है और सबके पीछे सहमकर बैठा आज़ाद भारत का घायल स्वप्न है। गुलाल एक लम्बा दुख है, जिसे पर्दे पर अनुभव करना सौभाग्य है।  

गौरव सोलंकी