जय हो और कजरारे

कहा जा रहा है कि जय हो गीत को आज पूरी दुनिया गुनगुना रही है. इसे विश्व के सबसे प्रतिष्ठित अमेरिकी फिल्म पुरस्कार – ऑस्कर या अकादमी पुरस्कार – से नवाजा जा चुका है, वो भी एक नहीं बल्कि दो-दो श्रेणियों में – एक सर्वश्रेष्ठ संगीत के लिए और दूसरा सर्वश्रेष्ठ बोलों के लिए. और इसे एक बेहद मशहूर अमेरिकी पॉप संगीत समूह द्वारा अपने ही तरीके से गाने की तैयारियां भी चल रही हैं.

बकौल कांग्रेस प्रवक्ता वीरप्पा मोइली आशा का संचार करने वाला ‘जय हो’ अब केवल कांग्रेस की सभाओं में आने वाले उसके संभावित मतदाताओं में ही आशा का संचार कर सकता है

 जय हो को लिखने वाले संपूरण सिंह कालरा उर्फ गुलजार की पैदाइश आज के पाकिस्तान की है मगर उन्होंने भारत में आकर दुनिया भर में मशहूरी पाई. दूसरी ओर इसके संगीतकार ए आर रहमान पहले दिलीप कुमार हुआ करते थे और उन्होंने न केवल दक्षिण और उत्तर भारतीय संगीत के बीच के अंतर को पाटा है बल्कि व्यावसायिक संगीत के क्षेत्र में देश और दुनिया के बीच भी एक पुल बनाया है.

जिस फिल्म स्लमडॉग मिलियनेयर का ये गाना है वो एक अमेरिकी निर्माता और ब्रितानी निर्देशक द्वारा भारतीय कलाकारों को लेकर भारत के ही एक शहर पर बनाई फिल्म है जिसे कोई भी वजह हो पर पूरी दुनिया में सराहना और प्रतिष्ठा मिल चुकी है. मेरे एक मित्र मजाक में कह रहे थे कि ये गाना तो यार अंतर्राष्ट्रीय एकता का प्रतीक जैसा बन चुका है.

परंतु अब इस गाने पर हाथ के पंजे की छाप लग चुकी है. इसके अधिकार हमारे देश की सबसे बड़ी और पुरानी कांग्रेस पार्टी खरीद लिए हैं. काहे भई? क्योंकि, पार्टी के मुताबिक, ये गाना लोगों में आशा का संचार करता है. पार्टी ने दूसरे दलों को गाना इस्तेमाल करने पर नोटिस भी भेज रखे हैं.

अजीब बात है कि बकौल मेरे मित्र अंतर्राष्ट्रीय एकता का प्रतीक ‘जय हो’ अब केवल कांग्रेस के वोटरों में एकता स्थापित कर सकता है और बकौल कांग्रेस प्रवक्ता वीरप्पा मोइली आशा का संचार करने वाला ‘जय हो’ अब केवल कांग्रेस की सभाओं में आने वाले उसके संभावित मतदाताओं में ही आशा का संचार कर सकता है. मतलब शिक्षा, संगीत, कला आदि को सभी तरह के राजनीतिक, सांप्रदायिक, जातीय और अन्य दुराग्रहों से दूर रखने की वकालत करती आई देश की सबसे बड़ी धर्मनिरपेक्ष पार्टी ने एक गाने को कुछ लोगों के लिए अछूत बनाने का काम कर डाला है.

2004 में मेरे एक मित्र, जो आईटी उद्योग में बढ़िया जॉब करते थे, इंडिया शाइनिंग की वेब साइट और विज्ञापन देख कर हमारी तरक्की पर जबर्दस्त गर्व महसूस किया करते थे. पर उनके जैसे कुछ करोड़ लोगों के अलावा ज्यादातर लोगों का भारत उतना क्या कहीं से भी चमकीला नहीं था. भारत में स्लमडॉग.. ने एक औसत दर्जे की हिंदी फिल्म से भी काफी कम व्यापार किया है. जाहिर है जब फिल्म भारत में देखी ही नहीं गई तो इसके किसी गाने का मूल्य यहां के ज्यादातर लोगों की निगाह में किसी कजरारे-कजरारे जैसे धूम-धमाके वाले गाने से अलग क्या हो सकता है.

कहीं इंडिया शाइनिंग था तो कहीं जय हो है. कहीं संप्रदायवादी राजनीति है तो कोई जातिवादी, भाई-भतीजावादी राजनीति का पोषक है. अब जिम्मेदारी हमारी है कि हम बिना किसी बहकावे में आए, अपने नीर-क्षीर विवेक का, कैसे देश और अपनी किस्मत बनाने के लिए इस्तेमाल करते हैं? 

संजय दुबे