विश्वनाथ प्रताप सिंह किसी भी पद पर टिक कर या उसके होकर नहीं रह सके. उन्होंने सभी से इस्तीफा दिया और किसी का भी कार्यकाल पूरा नहीं किया.
उनके बड़े बेटे अजेय सिंह ने ठीक फैसला किया कि पिता विश्वनाथ प्रताप सिंह का अंतिम संस्कार प्रयाग में संगम पर किया जाए. लगता है खुद वीपी सिंह ने भी अपने परिवार से ऐसा ही करने को कहा होगा. वे खूब जानते थे कि मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार का उनकी अंत्येष्टि पर क्या रवैया होगा.
प्रधानमंत्री तो प्रोटोकोल के तहत उनके घर शव पर फूल माला चढ़ाने आए लेकिन सोनिया गांधी नहीं आईं. फिर भी वसीम अहमद ने मनमोहन सिंह से पूछ ही लिया कि दूसरे भूतपूर्व प्रधानमंत्रियों की तरह इनका भी अंतिम संस्कार दिल्ली में क्यों नहीं. इनके लिए भी कोई स्थान निर्धारित क्यों नहीं? वसीम ने बताया कि प्रधानमंत्री ने कहा कि कैबिनेट में आम सहमति बनानी होगी. कल दोपहर से आज सवेरे तक काफी समय था कि मंत्रिमंडल की बैठक कर के सारे फैसले किए जाते. लेकिन ये कुछ करना ही नहीं चाहते.
जेपी भी राजनीति छोड़ कर जीवनदान करते हुए विनोबा के आंदोलन में आए थे. लेकिन जेपी राज परिवार और जमीन-जायदाद से नहीं समाजवादी पार्टी से निकल कर आए थे. वीपी सिंह ने तो विनोबा को देखने और मिलने से पहले ही अपनी दो सौ बीघा जमीन भूदान में दे दी थी.
फिर भी एक महिला तीन मूर्ति के आंगन में बार-बार मुङो कहती रही कि मैं सोनिया गांधी से कहूं. मैं उन्हें नहीं जानता इसलिए उनके आग्रह का कोई जवाब भी मैंने नहीं दिया. लेकिन वे मुङो आश्वस्त करती रहीं कि मैं कहूंगा तो सोनिया गांधी ना नहीं कर सकेंगी. मेरी इच्छा हुई कि उन्हें कहूं कि जरा वसीम अहमद से बात कर लीजिए. लेकिन चुप रहा और उनके आग्रह की अनदेखी करता रहा. वे अकेली नहीं थीं. जिन झुग्गी-झोंपड़ियों वालों के अधिकारों के लिए वीपी सिंह लड़ते रहे उनकी भी बहुत इच्छा थी कि अंतिम संस्कार दिल्ली में हो.लेकिन यह ठीक ही किया गया कि विश्वनाथ प्रताप सिंह जहां से आए थे वहीं उन्हें ले जाया गया. वे वहीं के आदमी थे और उस इलाहाबाद में ही उनकी मिट्टी जानी चाहिए थी. दिल्ली के सत्ता प्रतिष्ठान को मानने और उसके होकर रहने वाले आदमी वे नहीं थे. सच पूछिए तो वे किसी भी प्रतिष्ठान के आदमी हो नहीं सकते थे. इसे विडंबना ही कहा जाना चाहिए कि वे मांडा के राज परिवार में गोद गए. यह भी कोई कम बड़ी विडंबना नहीं है कि वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हुए और भारत के प्रधानमंत्री भी. और भी कुछ पद हैं जिन पर बैठना उनने पता नहीं क्यों मंजूर किया. लेकिन अंतिम सच्चाई यही है कि किसी भी पद पर वे टिक कर या उसके होकर नहीं रह सके. सभी से इस्तीफा दिया और किसी का भी कार्यकाल ‘सफलतापूर्वक’ पूरा नहीं किया. इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में भी दो बार रहे और निकले. राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में तो उनका वित्त मंत्री और फिर रक्षा मंत्री होना खुद प्रधानमंत्री के लिए ही इतना भारी पड़ गया.
सत्ता से विश्वनाथ प्रताप सिंह का रिश्ता हमेशा ही छत्तीस का रहा. विनोबा के भूदान में वे तभी चले गए थे जब तीस के भी नहीं हुए थे. एक राज परिवार से निकल कर विनोबा जैसे निस्संग संत के भूदान जसे बैरागिया आंदोलन में पड़ना उनके स्वभाव और चरित्र की बनावट का अच्छा उदाहरण ही कहा जाएगा. जेपी भी राजनीति छोड़ कर जीवनदान करते हुए विनोबा के आंदोलन में आए थे. लेकिन जेपी राज परिवार और जमीन-जायदाद से नहीं समाजवादी पार्टी से निकल कर आए थे. वीपी सिंह ने तो विनोबा को देखने और मिलने से पहले ही अपनी दो सौ बीघा जमीन भूदान में दे दी थी.
सर्वोदय आंदोलन में रह जाते तो यह स्वभाव और वृत्ति के अनुकूल ही होता. लेकिन विकास के काम करवाने के लिए राजनीति में आए और विधायक बन के लखनऊ भी पहुंच गए. शायद वहीं देखा-समझा कि राजनीति में कोई समाज सेवा के काम करवाने नहीं आता है. राजनीति सत्ता का खेल है. वीपी को सर्वोदय आंदोलन में लौट जाना चाहिए था. लेकिन नहीं वे राजनीति में ही रह गए. दो साल विधायक रहे. फिर अपने चालीसवें साल में सांसद हो कर दिल्ली आ गए. क्या समाजसेवी भूदानी को सत्ता का चस्का लग गया था? शायद हां. इंदिरा गांधी ने पहले वाणिज्य उपमंत्री और फिर वाणिज्य राज्य मंत्री बना लिया. ये वही वर्ष थे जब जेपी भ्रष्टाचार के विरुद्ध आंदोलन कर रहे थे और इंदिरा गांधी को उनने भ्रष्टाचार की गंगोत्री कहा था. पूरा संवेदनशील देश इंदिरा गांधी, उनके भ्रष्टाचार और तानाशाही रवये के खिलाफ आंदोलन कर रहा था. लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह उनके वफादार सिपाही बने उनकी सरकार में बाकायदा मंत्री बने हुए थे.
जनता राज में लड़-भिड़कर इंदिरा गांधी सन् अस्सी में फिर सत्ता में आईं तो वफादार विश्वनाथ प्रताप सिंह फिर उनके साथ थे. ऐसे कि संजय गांधी ने मां से कह कर उन्हें उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनवा दिया. ऐसे कम ही राजनेता थे जिन्हें इंदिरा और संजय दोनों का विश्वास प्राप्त था. यह विश्वास उन्हें सत्ता में और आगे ले जाकर और अधिक मजबूत कर सकता था. लेकिन वीपी सिंह दो साल भी मुख्यमंत्री नहीं रहे. उनने इसलिए इस्तीफा नहीं दिया कि इंदिराजी या संजय गांधी चाहते थे. इसलिए दिया कि राज करने का उनका तरीका अलग था. राज्य सभा में आए और फिर मंत्री हो गए. इंदिरा गांधी की हत्या होने तक रहे. फिर राजीव गांधी प्रधानमंत्री हुए तो उनके मंत्रिमंडल में भी वित्त मंत्री हुए. अर्थव्यवस्था को खोलने और उसे उदार बनाने की प्रक्रिया राजीव गांधी-विश्नवाथ प्रताप सिंह के इसी जमाने में चली जिसे नरसिंह राव-मनमोहन सिंह ने बाद में पूरा किया. और विश्वनाथ प्रताप सिंह उसी के आलोचक हो गए और मृत्युपर्यंत रहे.
विश्वनाथ प्रताप सिंह राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री थे और प्रधानमंत्री के बड़े विश्वस्त साथी माने जाते थे. सत्ता के जिन दलालों से राजीव गांधी कांग्रेस और अपनी सरकार को मुक्त करना चाहते थे उनके खास दुश्मन वीपी सिंह ही थे. मगर देश के धनपति उद्योगपतियों ने राजीव गांधी को यह मानने पर मजबूर कर लिया कि उनकी सत्ता और छवि को अगर खतरा है तो विश्वनाथ प्रताप सिंह है. दुष्ट दलन में ऐसे लगे हैं कि राजीव गांधी का आधार ही ध्वस्त कर देंगे. फिर अंडमान के एक द्वीप में छुट्टी मनाते राजीव गांधी से मिलने अमिताभ बच्चन आए और विश्वनाथ प्रताप सिंह की वित्त मंत्रालय से छुट्टी हो गई. रक्षा मंत्री बना दिए गए. तब रक्षा मंत्रालय से बोफोर्स और एचडीडब्लू पनडुब्बियों के कंकाल निकल कर आए जिनने राजीव गांधी का प्रधानमंत्री बने रहना मुहाल कर दिया. विश्वनाथ प्रताप सिंह नहीं रहे और फिर कांग्रेस से भी निकाल बाहर किए गए.
इंदिरा के बाद राजीव गांधी से भी उनकी खूब पटी थी. लेकिन अब कांग्रेस की राय में वे ऐसे विभीषण हो गए थे जो राजीव जैसे राम को रावण बना रहे थे.
इसके बाद वीपी, जेपी हो गए. यानी उनने सार्वजनिक पदों पर भ्रष्टाचार के विरुद्ध जो आंदोलन शुरू किया उसने देश को इंदिरा गांधी के विरुद्ध जेपी आंदोलन की याद करवा दी. राजनीति में पहली बार विश्वनाथ प्रताप सिंह कांग्रेस के विरोध में खड़े हुए. वे कोई तीस साल से नेहरू-गांधी परिवार के वफादार सिपाही माने जा रहे थे. इंदिरा के बाद राजीव गांधी से भी उनकी खूब पटी थी. लेकिन अब कांग्रेस की राय में वे ऐसे विभीषण हो गए थे जो राजीव जैसे राम को रावण बना रहे थे. चार साल पहले राजीव गांधी भारतीय राजनीति के मिस्टर क्लीन थे. अब मिस्टर क्लीन विश्वनाथ प्रताप सिंह थे और राजीव गांधी बोफोर्स के दलदल में धंस गए थे.
भ्रष्टाचार के विरुद्ध विश्वनाथ प्रताप सिंह की ऐसी जबर्दस्त छवि थी कि एक तरफ से मार्क्र्सवादी कम्युनिस्ट और दूसरी तरफ से भारतीय जनता पार्टी उनकी मदद करने को मजबूर थी. बीस साल पहले जब गैर-कांग्रेसवाद की लहर चली थी तब भी सारे कम्युनिस्ट बायीं तरफ से और जनसंघ दायीं तरफ से पूरी तरह किसी के साथ नहीं हुआ था. अब ’89 में ये दोनों राजीव गांधी के खिलाफ विश्वनाथ प्रताप सिंह की पूरी मदद करने में लगे थे. इमरजंसी के बाद सन् ’77 में हुए चुनाव में भी विपक्ष की ऐसी एकता नहीं थी क्योंकि वामपंथियों ने जनता ताकतों का साथ देने से इनकार कर दिया था. लेकिन बारह साल बाद वे भी विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ थे. विश्वनाथ देश के सबसे बड़े नेता हो गए थे और आम लोग नारा लगाने लगे थे – राजा नहीं फ़कीर है देश की तकदीर है. चुनाव में राजीव गांधी हार गए और दिल्ली में पहली गठबंधन सरकार बनी जिसको बायीं ओर से वामपंथी और दायीं ओर से भारतीय जनता पार्टी समर्थन दिए हुए थी.
लेकिन जिस सरकार के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह हों वह पांच साल तो चल नहीं सकती थी. मंडल आयोग की रपट सभी पार्टियों को स्वीकार थी हालांकि कोई भी उसे लागू करने की पहल नहीं करता था. विश्वनाथ प्रताप सिंह इस सच्चाई को इंदिरा गांधी के जमाने से जानते थे. वे यह भी जानते थे कि भाजपा उन्हें दो साल से ज्यादा समर्थन देकर राज में नहीं रखेगी क्योंकि उसे खुद सत्ता हासिल करनी है. वामपंथी भी लगातार उनकी जनता दल सरकार को बनाए नहीं रख सकते थे क्योंकि उन्हें भी भाजपा के विरुद्ध सत्ता के लिए दांव लगाना जरूरी था. तब प्रधानमंत्री रहने के आठवें महीने में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की रपट लागू करने की घोषणा की. यह अणु विस्फोट से भी ज्यादा विस्फोटक घोषणा थी क्योंकि इसने भारतीय राजनीति की यथास्थिति को हमेशा के लिए नष्ट कर दिया. पिछड़ी जातियां पहली बार सत्ता के खेल में स्वायत्त शक्ति बन गईं और दलित अपनी वाली पर आ गए. इससे कांग्रेस का आधार ही ध्वस्त नहीं हुआ भाजपा को भी अपनी वणिक वृत्ति से बाहर आने पर मजबूर होना पड़ा. उसने राम का नाम लिया और कमंडल थाम लिया. क्षत्रिय विश्वनाथ प्रताप सिंह ने सवर्ण जातियों के सत्ता के एकाधिकार को हमेशा के लिए तोड़ दिया.
बीसवीं सदी में राजनीति को ऐसे निर्णायक मोड़ पहले दो ही नेताओं ने दिए थे – मोहनदास करमचंद गांधी और इंदिरा गांधी ने. इतिहास अब तीसरे विश्वनाथ प्रताप सिंह को स्थान देगा. सत्ता का समीकरण बदलने वाला सत्ता में टिका नहीं रहता. ’