हरियाणा सिविल जज परीक्षा

उच्च न्यायालय और सरकार आमने-सामने

हरियाणा में 241 सिविल जज (जूनियर डिवीजन) की भर्ती परीक्षा आयोजन का मामला अब सर्वोच्च न्यायालय में पहुँच गया है। इसी वजह से अभी तक इन पदों की अधिसूचना जारी नहीं हो सकी है। क़ानूनी प्रक्रिया की वजह से अभी इसमें और भी समय लग सकता है। देरी की वजह से अभ्यर्थियों की चिन्ता बढ़ रही है। चयन प्रक्रिया काफ़ी लम्बी होती है। परीक्षा से चयन सूची जारी होने में एक वर्ष तक लग जाता है। कभी-कभार इससे भी ज़्यादा। वह भी तब, जब उसे न्यायालय में कोई चुनौती न दे।

न्यायिक परीक्षा कौन कराये? इसे लेकर अब अपरोक्ष तौर पर पंजाब हरियाणा उच्च न्यायालय और हरियाणा सरकार आमने-सामने है। हरियाणा सरकार हरियाणा लोक सेवा के माध्यम से चयन प्रक्रिया को पूरा करने की इच्छुक है; वहीं पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय पूरी चयन प्रक्रिया को कराना चाहता है। अब सर्वोच्च न्यायालय को चयन प्रक्रिया का दायत्वि किसे सौंपना है? यह फ़ैसला करना है। हरियाणा सरकार इस बात पर राज़ी है कि सिविल जज (जूनियर) की प्रारम्भिक और मुख्य परीक्षा हरियाणा लोक सेवा आयोग कराये। इसके बाद साक्षात्कार की प्रक्रिया का दायत्वि उच्च न्यायालय का हो।

सर्वोच्च न्यायालय में राज्य सरकार पंजाब सिविल सर्विस ( न्यायिक शाखा) रुल्स-1951 पार्ट-सी के तहत गयी है। ये रुल्स हरियाणा में भी लागू होते हैं। राज्य सरकार के सर्वोच्च न्यायालय में न जाने से सरकार और हरियाणा लोक सेवा आयोग की प्रतिष्ठा को धक्का लगता। इसे बहाल रखने के लिए सरकार को यह क़दम उठाना ही था। हरियाणा में कर्मचारी चयन आयोग और लोक सेवा आयोग की प्रतिष्ठा कितनी है, यह किसी से छिपा नहीं है। बावजूद इसके अगर सरकार ऐसा चाहती है, तो कोई क़ानूनी अड़चन तो नहीं है।

हरियाणा लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा जैसी अहम परीक्षा में व्यापक स्तर पर धाँधली का पर्दाफ़ाश हुआ है। भाई भतीजावाद से लेकर पैसों के लेन-देन ने पूरी प्रक्रिया पर ही सवाल खड़ा कर दिया। परीक्षा के बाद उत्तर पुस्तिकाओं में सही जवाब लिखने, नंबर बढ़ाने और सूची में शामिल अभ्यथियों को किसी तरह साक्षात्कार तक पहुँचाने जैसे काले कारनामे हुए हैं। साक्षात्कार के नंबर लिखित परीक्षा में ज़्यादा अंक लाने वालों से ज़्यादा मिलना और अन्तिम रूप से चयन सूची में आने जैसे खेल यहाँ होते रहे हैं।

चयन प्रक्रिया पूरी तरह से पारदर्शी और योग्य अभ्यर्थी के चुने जाने की होनी चाहिए। लेकिन विडंबना यह कि यह केवल इसी राज्य में नहीं, बल्कि और राज्यों में भी होती है। पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय भी शायद इन्हीं बातों को ध्यान में रखकर पूरा दायत्वि निभाना चाहता है। वैसे न्यायालयों में चयन प्रक्रिया पूरी तरह से इनके ही हाथ में होती है।

राज्यों में न्यायिक अधिकारियों की चयन प्रक्रिया में सम्बन्धित लोक सेवा आयोग की भूमिका ज़रूर रहती है; लेकिन यह सब उच्च न्यायालय की निगरानी में ही होता है। बाक़ायदा स्पेशल रिक्रूटमेंट कमेटी गठित की जाती है, जिसमें जजों के अलावा राज्य की भी भागीदारी रहती है। साक्षात्कार की पूरी प्रक्रिया उच्च न्यायालय ही करता है। इसमें अन्य किसी का कोई दख़ल नहीं होता।

देश के अन्य राज्यों की तरह हरियाणा के न्यायालयों में भी स्वीकृत पदों के मुक़ाबले काफ़ी पद ख़ाली है। इनके ख़ाली रहने से न्याय प्रक्रिया में और भी देरी है। फिर तारीख़ पर तारीख़ का सिलसिला शुरू होता है और लम्बे समय तक चलता है। न्याय में देरी की एक बड़ी वजह न्यायालयों में ख़ाली पड़े पद हैं, जो विभिन्न कारणों की वजह से भरे नहीं जा पा रहे हैं। देश के न्यायालयों में इस समय साढ़े पाँच हजार से ज़्यादा पद ख़ाली हैं। नतीजतन लंबित मामलों की संख्या पाँच करोड़ तक पहुँच गयी है। लाखों मामले एक दशक से ज़्यादा समय से लंबित चल रहे हैं।

सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने पद सँभालने के बाद लंबित मामलों के निपटारे को प्राथमिकता से पूरा करने की बात कही थी। आँकड़ों की मानें, तो बैक लॉग में आंशिक कमी आयी है; लेकिन लक्ष्य के क़रीब तक पहुँचना इतना आसान नहीं है। न्यायालयों में ख़ाली पदों के रहने से लंबित मामले बढ़ते हैं; लेकिन इसके अलावा भी ऐसे बहुत-से कारक हैं। उदाहरण के तौर पर चंडीगढ़, हरियाणा और पंजाब में जनप्रतिनिधियों से जुड़े मामलों की जाँच ही पुलिस पूरी नहीं कर पा रही है। बिना पूरी जाँच के चालान पेश होने में देरी और फिर ऐेसे मामलों में सवाल किये जाते हैं और जवाब माँगा जाता है। नोटिस जारी करने और जवाब माँगने का अंतहीन सिलसिला चलता रहता है।

हरियाणा में 14,58,000 मामले लंबित पड़े हैं। यहाँ के विभिन्न न्यायालयों में 308 पद ख़ाली हैं। यह कुल 778 स्वीकृत पदों का क़रीब 40 प्रतिशत होता है। जिस अनुपात में मामलों की संख्या बढ़ती जा रही है, उस अनुपात में पद भरे नहीं जा पा रहे हैं। पड़ोसी राज्य पंजाब की स्थिति कुछ बेहतर नज़र आती है। यहाँ कुल स्वीकृत पद 797 हैं। राज्य में 208 पद अभी भरे जाने हैं। यह भी स्वीकृत पदों का 26 प्रतिशत है। यहाँ लंबित मामलों की संख्या साढ़े नौ लाख के क़रीब है।

हिमाचल में साढ़े चार लाख से ज़्यादा मामले लंबित है और 16 पद रिक्त पड़े हैं। केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ में कोई पद ख़ाली नहीं है। बढ़ते मामलों की वजह से यहाँ 80,000 से ज़्यादा लंबित चल रहे हैं। लंबित मामलों का बैक लॉग कम करने के लिए पहले भी इसे प्राथमिकता दी जाती रही है। इसके लिए गम्भीर प्रयास भी होते रहे हैं। लोक अदालत प्रणाली इसी प्रयास की एक कड़ी है, जिसमें बिना ज़्यादा ख़र्च के आपसी सहमति से मामले निपटाये जाते हैं। जितनी संख्या में इन अदालतों में मामलों का निपटारा होता है और नये मामले जुड़ते जाते हैं।

किसी भी मामले की पुलिस जाँच और अदालत में आरोप-पत्र दायर की समय अवधि होती है। विशेष मामलों में इसके लिए अतिरिक्त समय का प्रावधान भी होता है। जब मामला न्यायालय में चल जाता है, तो उसके बाद उसके निपटारे की समय अवधि तय नहीं होती है। कम-से-कम और ज़्यादा-से-ज़्यादा समय की अवधि तय हो सकती है। फास्ट ट्रैक अदालतों में ऐसा होता है और यही वजह है कि वहाँ लंबित मामलों की संख्या अन्य अदालतों के मुक़ाबले नगण्य होती है। विशेष मामलों को ही फास्ट ट्रैक अदालतों में चलाने की अनुमति मिलती है।

न्याय के लिए बरसों इंतज़ार न करना पड़े, इसके लिए गम्भीर विमर्श और ठोस व्यवस्था बनाने की ज़रूरत है। देश की आबादी के हिसाब से मामलों की संख्या तो निश्चित रूप से बढ़ेगी ही। जाँच एजेंसियों और पुलिस का काम भी पहले के मुक़ाबले ज़्यादा हो गया है। ऐसे में सारा बोझ न्यायालयों पर ही तो आएगा। उच्च न्यायालय बढ़ते लंबित मामलों के निपटारे के लिए स्वीकृत पदों को भरने के लिए राज्य सरकार से माँग कर सकता है। उसके बाद राज्य सरकार उसे बजट के हिसाब से मंज़ूर कर आगामी प्रक्रिया पूरी करती है।

अगर न्यायालयों में स्वीकृत पद रिक्त पड़े हैं, तो ज़िम्मेदार सरकार ही है। लेकिन सरकारों के भी अपने-अपने तर्क होते हैं। इसमें प्रमुख तौर पर कारण बजट ही होता है। न केवल न्यायिक अधिकारी, बल्कि सहायक स्टाफ की भी कमी रहती है। इनकी कमी से भी कामकाज प्रभावित होता ही है। यही वजह है कि तारीख़ पर तारीख़ का क्रम बना रहता है। समय पर न्याय बहुत बड़ी बात होती है; लेकिन इसके लिए सरकारों को बजट में पहले से ज़्यादा वृद्धि करनी होगी, वरना लंबित मामलों की संख्या इसी तरह से बढ़ती रहेगी।

लंबित मामलों के आँकड़े

नेशनल ज्यूडिशियल डाटा ग्रिड के आँकड़ों के मुताबिक, न्यायालयों में एक साल से लेकर 30 साल तक के मामलों पर नज़र डालें, तो सुखद यह कि शून्य से एक (0-1) साल के लंबित मामलों की संख्या सबसे ज़्यादा 36 प्रतिशत है। यानी एक-तिहाई लंबित मामले छोटी अवधि के ही हैं। इसके अलावा एक से तीन (1-3) साल तक के 21 प्रतिशत मामले, तीन से पाँच (3-5) साल के 16 प्रतिशत मामले, पाँच से 10 (5-10) साल के 16 प्रतिशत मामले, 10 से 20 साल के 8 प्रतिशत मामले, 20 से 30 साल के 1.15 प्रतिशत मामले और 30 साल से अधिक अवधि के 0.02 प्रतिशत मामले लंबित हैं।

सिविल और आपराधिक मामलों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। साइबर ठगी के मामले भी एक दशक के दौरान काफ़ी बढ़े हैं। देश में सैकड़ों करोड़ों की साइबर ठगी के मामले हो रहे हैं। इनमें से काफ़ी संख्या में लोग ठगी का शिकार होने के बाद भी पुलिस के पास नहीं जाते। उन्हें लगता है कि ठगों को पकडऩा ही मुश्किल है। अगर सफलता मिल भी गयी, तो रक़म के लिए उन्हें अदालतों के चक्कर लगाने पड़ेंगे।