शिवेन्द्र राणा
किसी भी राष्ट्र के जीवन में कठिन दौर तब आता है, जब उसकी राजनीति दिशाहीन होकर राष्ट्रीय हितों के ऊपर सत्ता स्वार्थ को तरजीह देने लगे। भारत में जातिगत जनगणना ने राजनीति की इसी कुत्सित अवस्था का नग्न यथार्थ प्रदर्शित किया। बिहार में हुई जातिगत जनगणना ने विकृतियों के एक ऐसे पिटारे को खोल दिया है, जिसमें एक राष्ट्र के रूप में भारत के लिए समस्या का अंबार है या यूँ कहें कि इसने राष्ट्रीय एकता को एक अनजाने और डरावने भविष्य की ओर धकेल दिया है। इसकी बानगी तब दिखी, जब एक तरफ़ राष्ट्रीय स्तर का विमर्श जाति आधारित जनगणना के परिणाम एवं प्रभाव की विवेचना में व्यस्त था और इस जातिवाद के परोक्ष प्रभाव के रूप उत्तर प्रदेश को विभाजित करने की माँग उठने लगी। विदित हो केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश और एनडीए गठबंधन के सहयोगी सुभासपा प्रमुख ने पूर्वांचल के रूप में पृथक राज्यों की माँग की है।
प्रतीत होता है कि स्वयं को विकास का सशक्त अग्रदूत मानने वाली सत्ताधारी एनडीए गठबंधन वाली सरकार के पास या तो जिताऊ मुद्दों की कमी है या फिर उसकी सुविचारित रणनीति का परिणाम। इन माँगों में सत्ता या सरकार की स्वीकृति कितनी है? यह अलग बहस का विषय है; परन्तु राजनीति की यह दिशा नकारात्मकता की प्रसारक है। पहले से ही विघटनवादी शक्तियों के उपद्रव से जूझ रहे राष्ट्र में जातीय संकीर्णता को बढ़ावा देने का प्रयास समझ से परे है।
वैसे ये छोटे राज्यों की माँग अनायास नहीं है। यह उस सुविचारित लोकतंत्र विरोधी षड्यंत्र का हिस्सा है, जहाँ जातियों की गोलबंदी से सत्ता का साम्राज्य खड़ा करने का स्वप्न देखा जा रहा है। कैसे? समझिए- पश्चिमी उत्तर प्रदेश हो या पूर्वांचल, यहाँ कुछ जाति विशेष की सघनता है, तो कुछ जातियों का प्रभाव इन माँगों का केंद्र बिन्दु है। बात सुभासपा प्रमुख ओमप्रकाश राजभर की ही कर लेते हैं, जो स्वयं को राजभर जाति का एकमात्र स्वयंभू नेता मानते हैं। पूर्वांचल में राजभर जाति की आबादी लगभग 12 से 22 प्रतिशत होने का अनुमान है। आकलन बताते हैं कि पूर्वांचल की घोसी, बलिया, चंदौली, ग़ाज़ीपुर, मिर्ज़ापुर, वाराणसी जैसी दो दर्ज़न लोकसभा सीटों पर राजभर वोट क़रीब 2.5 लाख तक हैं, जो चुनावी हार-जीत के निर्णय के लिए अत्यावश्यक हैं। इस संख्या बल की अगुवाई करने के मुग़ालते के कारण ही दो दशकों से भी अधिक समय से जातिवाद में सने ओमप्रकाश राजभर पूर्वांचल की राजनीति में अपनी प्रासंगिकता बनाये हुए हैं।
कुछ ऐसा ही मामला पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अलग राज्य की माँग के उद्घोषक संजीव बालियान का भी है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट आबादी क़रीब 17 प्रतिशत है। बालियान जैसे नेता जानते हैं कि इस जातीय आबादी के सहारे अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं को तुष्ट किया जा सकता है। ऐसी ही महत्त्वाकांक्षाएँ साधने के लिए उन्होंने चौधरी चरण सिंह और सर छोटूराम के लिए भारत रत्न की माँग नहीं की थी। ये सारी बयानबाज़ी जातिगत गोलबंदी और साथ ही अपना अस्तित्व बनाये रखने का प्रयास ही थी। असल में सन् 2019 के आम चुनाव में न्यूनतम मतों के अंतर से सीट बचाने में सफल हुए बालियान अपने जातिगत आधार जाट समाज में अपने प्रभाव के विस्तार में लगे हैं, ताकि कुर्सी बची रहे। कुछ ऐसी ही स्थिति ओमप्रकाश राजभर की भी है। घोसी उपचुनाव में भाजपा के दूत बनकर उसका क़िला बचाने गये राजभर अपमानजनक चुनावी पराजय को पचाने की जुगत में हैं। अपने बिदकते जातिगत आधार को जोड़े रखने के लिए वह निरंतर जुगत में लगे हैं। अत: इन नेताओं के अलग राज्यों की माँग को इसी राजनीतिक प्रक्रिया के हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए।
जातिगत राजनीति करने वालों का भारतीय राजनीति में आधार ही उनका स्वजाति के संख्या बल के आधार पर स्थापित दबाव है। देश के विभिन्न राज्यों में प्रभावी क्षेत्रीय दलों का तो आधार ही जातिवाद है। इस आधार पर भाजपा या कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों का समर्थन तलाशना भी कोई ढका-छुपा मामला नहीं है। लेकिन समस्या यह है कि जातीय एवं धार्मिक गोलबंदी के सहारे सत्ता की राजनीति अब दिनोंदिन विध्वंसक रूप लेती जा रही है। कुमार विश्वास ने कुछ समय पूर्व अरविन्द केजरीवाल पर खालिस्तानियों के समर्थन एवं पंजाब के विघटन के पश्चात् एक अलग देश के प्रधानमंत्री बनने के ख्वाब देखने का आरोप लगाया था। अब इसमें कितनी सत्यता थी, यह या तो कुमार विश्वास या केजरीवाल ही जानें; किन्तु इस तरह की राजनीतिक दुरभि संधियों के कई वास्तविक विकृत उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं, जहाँ ऐसे समझौतों ने देश को तोड़ा है।
दूसरी ओर आंतरिक भेदभाव फैलाकर देश को तोड़ने वालों की कमी नहीं है। जाति और धर्म इस बँटवारे के सबसे मर्ज़बूत हथियार हैं। वैसे भी आजकल देश में लोगों की जातिगत भावनाएँ इतनी विध्वंसक हो चुकी हैं कि राष्ट्रीय नायकों तक की जाति तलाश की जा रही है। उदाहरणस्वरूप अब यह पता करने की कोशिश चल रही है कि महाराज सुहेलदेव राजभर जाति के थे, या खटीक या पासी? ऐसे में भावनात्मक मुद्दों के आधार पर जातिगत गोलबंदी कोई कठिन कार्य नहीं है। लेकिन जनता को समझना होगा कि राजनीति में घुसे सत्ता के ये पिस्सू छोटे राज्यों की माँग इसलिए नहीं कर रहे हैं कि इन्हें समान विकास और सहभागी लोकतंत्र की चिन्ता है, बल्कि इनकी माँग का आधार सत्ता सुख की चाह है। भले की इसके लिए संकीर्ण मुद्दों के सहारे समाज को भड़काकर सब कुछ जलाना पड़े। यह इतिहास का यथार्थ है कि आर्ज़ादी के शैशवकाल में जब भारत $खुद को जोड़ने में लगा था, तब भाषाई आधार पर प्रांतीय विभाजन की माँग ने विद्रूप विघटनकारी हालात पैदा कर दिये थे। तब इस समस्या के निराकरण हेतु गठित जेवीपी समिति का तर्क था कि भाषा महर्ज़ जोड़ने वाली ही नहीं, बल्कि एक-दूसरे से अलग करने वाली ताक़त भी है। यह भविष्य के लिए एक संदेश था। अत: जब राष्ट्रीय स्तर का विमर्श भाषा को अलग राज्य के गठन का आधार मानने को स्वीकृत नहीं कर रहा था, तो फिर आज जाति जैसी संकीर्ण संस्था को कैसे स्वीकार किया जा सकता है? ऐसा नहीं है कि लोकतंत्र में संकीर्ण माँगों की स्वीकृति के पश्चात् उस पर आधारिक इच्छाओं का शमन हो जाता है, बल्कि यह एक नकारात्मक भावनाओं पर आधारित शृंखला का रूप धारण करती है, जो अगली हर बार अधिक विकृत रूप में उपस्थित होता है। जैसा कि हीगल का द्वंद्ववाद, वाद-प्रतिवाद और संवाद एक ऐसी ही निरंतर गतिशील प्रक्रिया की व्याख्या करता है। हालाँकि भारत में इसकी एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि है। राष्ट्र के रूप में भारत एक ठोस ऐतिहासिक प्रक्रिया की उपज है और यही वजह है कि यह अब भी एक रचना प्रक्रिया से गुर्ज़र रहा है, जिसमें भारतीय होने की भावना एवं प्रबल आधार है। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था- ‘भारत की एकता भावनाओं की एकता है। किन्तु इस भावना के नीचे एक आतंरिक संघर्ष सदैव चलता रहा है। ऐसा नहीं है कि आर्थिक संसाधनों में अधिक संख्याबल की हिस्सेदारी, शिक्षा व रोर्ज़गार के अवसर, धर्मवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद एवं जातिवाद जैसे मुद्दे राष्ट्रीय-सामाजिक जीवन में संघर्षों का आधार ही नहीं बनते हैं; लेकिन कुछ लोग उन्हें भड़काते भी हैं। यह एक सामान्य-सा विमर्श है और भारत के पिछले एक सदी के इतिहास के सत्तावलोकन से इस तर्क की सहज पुष्टि हो सकती है।
अभी प्राथमिक ध्यान देश की सुरक्षा, एकता और आर्थिक विकास पर होना चाहिए। इसलिए सभी अलगाववादी और विघटनकारी प्रवृत्तियों को मर्ज़बूती से हतोत्साहित किया जाना चाहिए। स्वतंत्र भारत में विविधता वाले इन सभी मसलों पर आधारित भिन्नता के बीच भेदभाव के निराकरण का जिस तरह प्रयास होना चाहिए था, वैसा हुआ नहीं। या यूँ कहें कि कुछ वर्गों का विकासात्मक विस्तार उस गति से नहीं हुआ और जो हुआ, उसकी सर्वसुलभता लोकतांत्रिक उम्मीदों के अनुकूल नहीं रही। इसकी सबसे बड़ी वजह राजनीतिक काहिलियत और ठोस निर्णय लेने की क्षमता का अभाव है। इसके परिणामस्वरूप भाषा, क्षेत्र और जाति जैसे कारणों के आधार पर समुदायों के अंदर यह भावना प्रस्फुटित होती रही कि उनके साथ भेदभाव हो रहा है और उनके मन में क्रोध पलता रहा। इसकी परिणति उग्र झगड़े के रूप में ही नहीं, बल्कि कई दफ़ा विध्वंसक रूप में भी सामने आयी है। इसमें भी जाति, जो सबसे कठोर है और अपने में विकट संकीर्णता समेटे हुए है; के आधार पर भेदभाव झेलने वालों ने ब्राह्मणवाद को अपना सबसे प्रमुख सैद्धांतिक शत्रु मान लिया और यही उनके विरोध का केंद्र बन गया। इसके परिणामस्वरूप तथाकथित सवर्ण जातियों के प्रति तथाकथित पिछड़ी और दलित जातियों में कटुता स्थायी रूप लेती गयी, जिसमें तर्कहीनता घटती रही और अंधविरोध बढ़ता रहा। यही कटुता आज देश को एक ख़तरनाक मोड़ तक घसीट लायी है, जहाँ वह राष्ट्रीय जीवन के ध्वंस पर आमादा है।
असल में ब्राह्मणवाद-मनुवाद के विरोध के नाम पर जातिवाद के जिस जिन्न को बोतल से निकाला गया है, उसकी अभिशप्त छाया लोकतंत्र को ग्रसने लगी है। अगर सब इसी तरह चलता रहा, तो इसके व्यापक दुष्परिणामों के लिए भारत को तैयार रहना चाहिए। लेकिन उससे अधिक आवश्यक है- जातिवाद के सहारे सामाजिक विघटन को उद्यत इन अवसरवादियों के घातक मनोभावों को समझना। इन्हें अपनी जाति या अपनी समर्थक जातियों के विकास से कोई सरोकार नहीं है, बल्कि इनका ध्येय सत्ता सुख-भोग है। इसके लिए चाहे इन्हें सामाजिक एकता या राष्ट्रीय हितों को भी दाँव पर लगाना पड़े। जैसा कि प्रसिद्ध अमेरिकी सामाजिक आलोचक, अभिनेता और लेखक जॉर्ज कार्लिन कहते हैं- ‘एक बात हमेशा याद रखें, मक्खन लगाने वाले के हाथ में हमेशा चाकू होता है।
इसलिए जनता ऐसे तथाकथित नेताओं एवं तथाकथित समाजसेवियों को समझे, परखे और इनके कारनामों को देखे, ताकि इनके स्वार्थ के प्रतिकार के साथ ही राष्ट्रीय भविष्य को विध्वंस की राह पर जाने से रोक सके।
(लेखक पत्रकार हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)