विधानसभा चुनाव: कसौटी पर लोकप्रियता

हिमाचल और गुजरात में भाजपा, कांग्रेस और आप में टक्कर

अलग-अलग राजनीतिक मिज़ाज वाले गुजरात और हिमाचल में विधानसभा के चुनाव देश भर में चर्चा का केंद्र बन गये हैं। कारण है- इन राज्यों से प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा का जुड़े होना। राजनीतिक रूप से इन राज्यों के नतीजे तीन प्रमुख दलों भाजपा, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) की भविष्य की राजनीति के लिए काफ़ी अहम रहेंगे। बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :-

देश के दो राज्यों के विधानसभा चुनाव अचानक बहुत महत्त्वपूर्ण हो गये हैं। कारण यह है कि इन चुनावों के सम्भावित नतीजों को लेकर भाजपा में चिन्ता पसरी है। हिमाचल प्रदेश, जहाँ 12 नवंबर को वोट पड़ गये; का चुनाव उसे बहुत चुनौतीपूर्ण लग रहा है। जबकि गुजरात में उसने पूरी ताक़त झोंक दी है, ताकि वहाँ जीत का परचम लहराया जा सके। वहाँ कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ज़मीन पर उसे टक्कर देते दिख रहे हैं। इस तरह हाल के चुनावों में मिली जीत के बावजूद भाजपा के लिए यह चुनाव जीतना बहुत ज़रूरी हो गया है।

इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि गुजरात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह का गृह राज्य होने के कारण पार्टी की नाक का सवाल बन गया है, तो हिमाचल प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष जे.पी. नड्डा का गृह राज्य होने के कारण। दोनों राज्यों में भले भाजपा विकास के लाख ढिंढोरे पीटे, मतों (वोटों) के लिए उसकी उम्मीद आज भी प्रधानमंत्री मोदी का करिश्मा ही है। मोदी ने दोनों राज्यों में प्रचार के लिए प्रधानमंत्री होने की व्यस्तताओं के बावजूद काफ़ी समय दिया है। लिहाज़ा हार-जीत के लिए उनकी लोकप्रियता भी कसौटी पर रहेगी।

गुजरात में भाजपा ने विशेष रणनीति बुनी है। उसने वहाँ जीत के लिए सब कुछ झोंक दिया है। अमित शाह लगातार चुनाव पर नज़र रखे हुए हैं, जबकि पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा हिमाचल में डटे हुए हैं। दोनों राज्य कितने महत्त्वपूर्ण बन गये हैं, यह इस बात से साबित हो जाता है कि भाजपा के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश में छ: (हरेक में दो से तीन जनसभाएँ) चुनाव दौरे किये, जबकि गुजरात तो वह पिछले तीन महीने से बार-बार गये हैं।

हिमाचल में कांग्रेस के लिए प्रियंका गाँधी लगातार डटी रहीं, जबकि अशोक गहलोत जैसे दूसरे बड़े नेता भी आये। प्रियंका गाँधी का चूँकि हिमाचल के शिमला ज़िले में घर में भी है; इसलिए भी लोगों में उनके प्रति आकर्षण है। जबकि प्रधानमंत्री मोदी भी 24 साल पहले हिमाचल में भाजपा के प्रभारी रहे हैं। आम आदमी पार्टी के लिए दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल भी हिमाचल में चुनाव प्रचार के लिए आये। हालाँकि बाद में पार्टी ने अपना पूरा ध्यान गुजरात पर लगा दिया।

हार-जीत के मायने

यह दोनों विधानसभा चुनाव राष्ट्रीय स्तर पर भी महत्त्वपूर्ण हैं। सिर्फ़ इसलिए नहीं कि यह भाजपा के तीन बड़े नेताओं के गृह राज्य में हो रहे हैं। बल्कि इसलिए भी कि तीन बड़े दलों भाजपा, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के लिए यह अलग-अलग तरीक़े से अहम हैं। पहले बात भाजपा की जो लगातार चुनावों में जीत का स्वाद चखती आ रही है। अब यदि उसे एक राज्य में भी हार का सामना करना पड़ता है, तो उसकी लय टूट सकती है। भाजपा आलाकमान किसी भी सूरत में हार नहीं देखना चाहते। लगातार जीत हासिल कर भाजपा ने कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों पर जो मनोवैज्ञानिक बढ़त हासिल की है, उसका क्रम टूट जाएगा।

भाजपा अपनी जीतों को जनता के बीच लगातार न सिर्फ़ अपने पक्ष में भुनाती रही है, बल्कि इसे कांग्रेस (या विपक्ष) के उसके मुक़ाबले बहुत कमज़ोर होने का सन्देश देने के लिए भी इस्तेमाल करती रही है। उसे पता है कि चुनाव में जीत ही राजनीति में मज़बूत बने रहने की सबसे बड़ी गारंटी है। लोग चुनावी हार-जीत से प्रभावित होते हैं। हाल के वर्षों में भाजपा की जनता में मज़बूत पार्टी होने की छवि में इन जीतों का बहुत बड़ी भूमिका रही है। इसके विपरीत कांग्रेस को इसका बहुत ज़्यादा मनोवैज्ञानिक नुक़सान झेलना पड़ा है।

कांग्रेस की बात करें, तो मल्लिकार्जुन खडग़े पार्टी के नये-नये अध्यक्ष बने हैं। हार से शुरुआत उनकी छवि को नुक़सान पहुँचाएगी। बेशक उन्हें अध्यक्ष बनने के बाद संगठन और चुनाव फ्रंट पर कोई ज़्यादा काम करने का समय अभी नहीं मिला है, एक भी जीत उन्हें ताक़त देगी। यहाँ यह भी क़ाबिल-ए-ग़ौर है कि हिमाचल प्रदेश और गुजरात में चुनाव प्रचार में वह अभी तक नहीं गये हैं। हो सकता है गुजरात जाएँ, क्योंकि वहाँ मतदान अगले महीने के शुरू में है। लेकिन इसके बावजूद खडग़े दिल्ली में रहकर लगातार चुनाव रणनीति पर नज़र रखे हैं।

गुजरात में अनुभवी नेता राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पार्टी के विशेष चुनाव प्रभारी हैं और वह लगातार खडग़े को फीडबैक देते हैं। कांग्रेस हाल के चुनावों में लगातार हारी है। पंजाब में भले वह दूसरे स्थान पर रही; लेकिन उसने सरकार गँवायी। उपचुनावों में उसे कुछ सीटों पर जीत हासिल हुई है; लेकिन एक पूरे राज्य में जीत उसके मनोबल को बढ़ा सकती है। कांग्रेस को पता है कि ज़मीन पर उसकी उपस्थिति अभी भी है। लेकिन चुनाव जीते बिना उसकी साख नहीं लौटेगी। राहुल गाँधी ने इन चुनावों से दूरी बना राखी है। हालाँकि प्रियंका गाँधी लगातार प्रचार में दिख रही हैं।

आम आदमी पार्टी (आप) के लिए यह चुनाव कुछ अलग तरह से महत्त्वपूर्ण हैं। उसकी लड़ाई साख की नहीं है। आप की नज़र कांग्रेस का स्थान लेने पर है। आम आदमी पार्टी नेतृत्व का साफ़ लक्ष्य है- कांग्रेस की जगह भाजपा का मुख्य प्रतिद्वंद्वी बनना। दो राज्यों में उसकी सरकार है और यदि वह एक और राज्य जीतती है, तो उसकी सरकारें कांग्रेस के दो राज्यों के मुक़ाबले तीन राज्यों में हो जाएँगी। ऐसा होने की स्थिति में आम आदमी पार्टी कांग्रेस पर हावी होने की कोशिश करेगी, भले उसका कांग्रेस जैसा देशव्यापी जनाधार अभी न हो।

अरविन्द केजरीवाल इन दोनों राज्यों, ख़ासकर गुजरात में चतुराई से चुनाव अभियान चला रहे हैं। उन्होंने कांग्रेस के विपरीत हिन्दुत्व कार्ड खेलने से भी परहेज़ नहीं किया है और भाजपा को सीधी चुनौती देने की कोशिश की है। इसका फ़ायदा भी हो सकता है और नुक़सान भी। लेकिन तमाम आरोपों, कि आप और केजरीवाल भाजपा की ‘बी टीम’ हैं; केजरीवाल इससे बेपरवाह अपनी बनाये रास्ते पर चल रहे हैं। उन्होंने पंजाब की तरह गुजरात और हिमाचल में भी खुलकर लोकलुभावन घोषणाएँ की हैं। देखना दिलचस्प होगा कि इसका लाभ उन्हें मिलता है या नहीं।

हिमाचल प्रदेश में 12 नवंबर को वोट पडऩे के बाद अब सारा फोकस गुजरात पर चला गया है। वहाँ दो चरणों में 01 और 05 दिसंबर को मतदान होना है। ज़ाहिर है तमाम बड़े नेता अब गुजरात में ही दिखेंगे। कांग्रेस की तरफ़ से राहुल गाँधी का गुजरात जाना अभी तय नहीं हुआ है, जिन्होंने पिछले विधानसभा चुनाव में वहाँ जमकर प्रचार किया था। प्रियंका गाँधी जाएँगी, जबकि पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े भी। पार्टी के दो मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और भूपेश बघेल भी प्रचार में हैं। भाजपा के लिए मोदी और अमित शाह पहले से डटे हैं। उसके मुख्यमंत्री भी वहाँ जा रहे हैं। आम आदमी पार्टी के सारे प्रचार का जिम्मा पार्टी संयोजक अरविन्द केजरीवाल पर है, जो पूरी ताक़त वहाँ झोंक रहे हैं। दिल्ली के उप मुख्यमंत्री सिसोदिया, पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान के अलावा कोई और नामी चेहरा आम आदमी पार्टी के पास नहीं है।

गुजरात में तिकोना मुक़ाबला

यह तीन महीने पहले की बात है। कुछ चुनाव सर्वे में तीसरे स्थान पर दिखायी जा रही कांग्रेस ने गुजरात के सभी विधानसभा हलक़ों में मतदाता तक एक चिट्ठी भेजने का काम शुरू कर दिया, जिसमें भाजपा सरकार की नाकामियों का ज़िक्र था। देखने में यह आम बात लगती थी; लेकिन चुनावी रणनीति के लिहाज़ से यह वास्तव में यह बड़ी बात थी। इतनी बड़ी कि ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पार्टी कर्ताओं को सम्बोधित करते हुए उन्हें कांग्रेस के इस अंडर ग्राउंड मिशन से सावधान रहने को कहना पड़ा। कांग्रेस ने अभी तक ज़मीनी प्रचार (डोर-टू-डोर अभियान) की रणनीति अपनायी है, और 17 नबंबर के बाद उसके बड़े नेता भी मैदान में उतरेंगे।

चुनाव सर्वे गुजरात में आम आदमी पार्टी की बढ़ती ताक़त का लगातार ज़िक्र कर रहे हैं। उसकी लोकलुभावन घोषणाओं ने भाजपा को भी मजबूर किया है कि तत्काल चुनावी लाभ दे सकने वाली घोषणाएँ की जाएँ।

बेशक प्रधानमंत्री मोदी ने अपने एक भाषण में इस तरह की रेबडिय़ों बाँटने पर सवाल उठाये थे। लेकिन ख़ुद उनकी पार्टी इस तरह की लोकलुभावन घोषणाएँ करने को मजबूर हुई है। केजरीवाल को गुजरात से बहुत उम्मीद है। हालाँकि वह भी यह जानते हैं कि बिना ज़मीनी संगठन के आम आदमी पार्टी को आसानी से सत्ता नहीं मिलेगी। भाजपा चाहती है कि चुनाव तक आम आदमी पार्टी को मुक़ाबले में रखने का प्रचार जारी रहे, ताकि विपक्ष का वोट बँटे और कांग्रेस को इसका लाभ न हो। जितना ज़्यादा वोट आम आदमी पार्टी लेगी, भाजपा को लाभ और कांग्रेस को नुक़सान होगा; क्योंकि यह एंटी-इंकम्बेंसी का वोट होगा।

हालाँकि एक मत यह भी है कि जिस तरह केजरीवाल हिन्दुत्व का कार्ड भी खेल रहे हैं। भाजपा को भी इसका नुक़सान हो सकता है। साथ ही आप की लोकलुभावन घोषणाएँ भाजपा का वोट छीनकर आम आदमी पार्टी की झोली में डाल सकती हैं। एक बात साफ़ है कि इस चुनाव में तिकोना मुक़ाबला है और यदि सबके वोट बँटे, तो नतीजा किसी के भी पक्ष में जा सकता है और यदि आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के वोट काटे, तो भाजपा की जीत तय हो जाएगी।

गुजरात के मुद्दे

देखा जाए, तो चुनाव से पहले ही दो बड़े मुद्दे गुजरात में उभरे। इनमें एक था- बिलकिस बानो से दुष्कर्म के आरोपियों को गुजरात सरकार की तरफ़ रिहा कर देना। इसके बाद मोरबी में पुल टूटने 136 लोगों की मौत का मामला भी काफ़ी चर्चा में रहा। कई चीज़ों से साबित हुआ कि जिस कम्पनी को इसकी मरम्मत का काम दिया गया था, उसमें नियमों को ताक पर रखा गया। गुजरात देश का ऐसा राज्य है, जहाँ बिजली की दरें देश में सर्वाधिक दरों में एक हैं।

इसके अलावा कुछ ऐसे भी मुद्दे सामने आये हैं, जिन्हें जनता से जुड़े हुए मुद्दे नहीं कहा सकता; लेकिन जिन पर चर्चा हो रही है। इनमें से एक है दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का दावा कि उन्हें गुजरात चुनाव न लडऩे के बदले उनकी पार्टी के लोगों के ख़िलाफ़ केस दर्ज न करने का ऑफर दिया गया था। केजरीवाल दिल्ली मॉडल की बात गुजरात में कर रहे हैं।

उधर प्रधानमंत्री मोदी बाहर वालों से जनता को सावधान कर रहे हैं और कह रहे हैं कि उन्होंने (मोदी) गुजरात बनाया है। गुजरात उन विभाजनकारी ताक़तों का सफ़ाया कर देगा, जिन्होंने अपने पिछले 20 साल राज्य को बदनाम करने में लगाये हैं। ज़ाहिर है मोदी कांग्रेस और आप दोनों पर आरोप लगाया है। मोदी यह भी कह रहे हैं कि अब गुजरात के युवा कमान सँभाल चुके हैं। गुजरात में नफ़रत फैलाने वालों को कभी नहीं चुना गया है।

हाल के वर्षों में कांग्रेस में एक अलग ही तरह का संकट देखा गया है। उसके बड़े नेता चुनाव के समय पार्टी छोड़कर भाजपा में चले जाते हैं या भाजपा माहौल बनाने के लिए उन्हें अपने पास खींच लेती है। इन नेताओं में हार्दिक पटेल, अल्पेश ठाकोर से लेकर 11 बार के छोटा उदयपुर के विधायक मोहन सिंह राठवा शामिल हैं। लेकिन इसके बावजूद कांग्रेस, जिसका ग्रामीण गुजरात में ख़ासा जनाधार है; को कम करके नहीं आँका जा सकता। वैसे आम आदमी पार्टी के जनाधार वाले नेता इंद्रनील ज़रूर कांग्रेस में शामिल हुए हैं।

कांग्रेस ने पिछले तीन महीने में ज़मीन पर अपनी पकड़ मज़बूत की है। पार्टी के इस ख़ामोश प्रचार का हवाला प्रधानमंत्री मोदी के बयान से लगता है; जिसमें उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं से कहा था कि आम आदमी पार्टी चुनाव में यह मानकर नहीं बैठ सकते कि कांग्रेस चुप है और कुछ नहीं कर रही। वह प्रेस कॉन्फ्रेंस या बड़े दावों वाले बयान नहीं दे रहे हैं; लेकिन मुझे पता चला है कि वह क्या कर रहे हैं। हमें सतर्क रहना होगा। कांग्रेस बहुत शान्त है; लेकिन यह मत सोचो कि यह ख़त्म हो गयी है। वे (कांग्रेसी) चुपचाप गाँवों में जा रहे हैं और अपना आधार मज़बूत कर रहे हैं। इस भ्रम में न रहें कि वे (चुनाव के लिए) कुछ नहीं कर रहे हैं।

कांग्रेस सरकारी परियोजनाओं में किसानों और भू-स्वामियों की ज़मीन के अधिग्रहण का मुद्दा उठा रही है। पार्टी के मुताबिक, इसमें उनमें असन्तोष है। याद रहे किसान अहमदाबाद-मुम्बई के बीच तीव्रगामी बुलेट ट्रेन परियोजना के भूमि अधिग्रहण का विरोध करते रहे हैं। ऐसा ही विरोध वडोदरा-मुम्बई एक्सप्रेस-वे परियोजना के भूमि अधिग्रहण पर भी दिखा था। आम आदमी पार्टी ने भी यह मुद्दे उठाये हैं। भाजपा इसके जवाब में कह रही है कि यह तो विकास है, यह कांग्रेस को पच नहीं रहा। पार्टी को भरोसा है कि कांग्रेस के इस विरोध का उसे लाभ मिलेगा।

इस चुनाव में गुजरात के चर्चित पुलिस अधिकारी डीजी बंजारा भी मैदान में ताल ठोंक रहे हैं। बंजारा सोहराबुद्दीन फ़र्ज़ी मुठभेड़ मामले में चर्चा में रहे थे। उन्होंने अपनी पार्टी का नाम प्रजा विजया पक्ष रखा है। उनके आने से बहुत फ़र्क़ शायद ही पड़े। इसके अलावा जद(यू) और छोटू भाई वसावा की भारतीय ट्राइबल पार्टी भी हैं, जिन्हें कांग्रेस के साथ माना जा रहा है।

कांग्रेस तामझाम वाले प्रचार और रैलियों में फ़िलहाल भाजपा और आम आदमी पार्टी के पीछे है। बड़े नेता मैदान में नहीं उतरे हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में इतना बेहतर प्रदर्शन करने के बावजूद कांग्रेस के इस सुस्त प्रचार पर राजनीति के जानकारों को हैरानी है। वह यह तो कह रहे हैं कि कांग्रेस ज़मीनी स्तर पर काम कर रही है। लेकिन उनका यह भी कहना है कि इससे मीडिया में उसकी उपस्थिति नहीं दिख रही। कांग्रेस के एक नेता का कहना था कि वोट गुजरात की जनता ने देना है और हम उसके पास पहुँचे हुए हैं। कुल मिलाकर गुजरात में 15 के बाद प्रचार ज़ोर पकड़ेगा और उसके बाद ही तस्वीर साफ़ होगी। अभी तक यह लगता है कि राज्य में तीनों मुख्य दल एक-दूसरे को पीछे छोडऩे की कोशिश में हैं।

पहाड़ में पड़े वोट

हिमाचल में एक महीने से भी ज़्यादा समय तक चला तेज़ तर्रार चुनाव अभियान 12 तारीख़ को वोट पडऩे के साथ ही थम गया। वहाँ रिकॉर्ड 75.6 फ़ीसदी वोट पड़े हैं। राज्य का रिकॉर्ड है कि वहाँ हर बार सत्ता बदल जाती है। इसकी काट के लिए भाजपा ने इस बार रिवाज़ बदलो का नारा दिया था। लेकिन लगता नहीं कि वह ज़्यादा चल पाया है। वहाँ मुख्यमंत्री जयराम के नेतृत्व में पार्टी मैदान में लगातार दूसरी जीत हासिल करने के इरादे से उतरी है। हालाँकि चुनाव में पार्टी ने दिग्गज नेता और दो बार के मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल को टिकट नहीं दिया। काफ़ी लोग मानते हैं कि भाजपा को इसका नुक़सान होगा। हालाँकि धूमल के बेटे और प्रभावशाली केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने जनता को समझाया है कि धूमल हमेशा आपके और पार्टी के साथ खड़े हैं।

चुनाव में पुरानी पेंशन (ओपीएस) का मुद्दा बहुत ज़ोर से चला है, जिसे कांग्रेस ने अपने चुनाव अभियान के मुख्य वादे के रूप में रखा है। चूँकि हिमाचल में सरकारी सेक्टर में ही नौकरियाँ रही हैं और निजी क्षेत्र काफ़ी छोटा है, पुरानी पेंशन का उसका वादा चला होगा, तो वह सत्ता के क़रीब पहुँच सकती है। हिमाचल में हरेक परिवार में कोई-न-कोई सदस्य सरकारी नौकरी में मिलता है। लिहाज़ा वहाँ कर्मचारियों से जुड़े मुद्दे बहुत अहमियत रखते हैं।

आम आदमी पार्टी शुरू में हिमाचल में बहुत सक्रिय थी; लेकिन यह महसूस करते हुए कि शायद उसके लिए ज़्यादा गुंजाइश नहीं है, उसने गुजरात पर पूरी ताक़त झोंक दी। वैसे यह आप ही थी, जिसने हिमाचल में सबसे पहले सक्रियता दिखायी थी। अरविन्द केजरीवाल से लेकर पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान लगातार हिमाचल के दौरों पर आये। लेकिन चुनाव की घोषणा होते-होते माहौल बनता न देखकर उसने रणनीति बदलकर ख़ुद का पूरा फोकस गुजरात पर कर दिया। इसके बावजूद आम आदमी पार्टी सभी सीटों पर चुनाव लड़ रही है और वोट भी हासिल करेगी। लेकिन ज़मीनी स्थिति से लगता है कि वहाँ वह गुजरात जैसा नुक़सान कांग्रेस को नहीं पहुँचा पाएगी।

हिमाचल भाजपा के वरिष्ठ नेता गणेश दत्त ने ‘तहलक़ा’ से बातचीत में कहा कि प्रधानमंत्री मोदी की प्रदेश की जनसभाओं में उमड़ी भीड़ से साफ़ है कि उनका जादू भाजपा को एक बार फिर सत्ता में ला रहा है। उन्होंने दावा किया कि भाजपा को पूर्ण बहुमत मिलेगा, क्योंकि सरकार का काम काफ़ी अच्छा रहा है। हिमाचल में चुनाव के बीच एक वीडियो काफ़ी वायरल हुआ, जिसमें भाजपा के वरिष्ठ नेता (अब बा$गी के रूप में चुनाव लड़ रहे) पूर्व सांसद कृपाल परमार की प्रधानमंत्री मोदी से बातचीत है। इसमें मोदी परमार से चुनाव में न उतरने को कह रहे हैं। हालाँकि परमार भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा पर उन्हें 15 साल तक उपेक्षित करने का आरोप लगते हुए मैदान से नहीं हटने की बात कर रहे हैं। वैसे इस चुनाव में भाजपा को अपने ही बाग़ियों से बड़ी चुनौती मिली है।

चुनाव जीतने की स्थिति में कौन मुख्यमंत्री बनेगा? भाजपा ने इसकी घोषणा नहीं की है। केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने कहा था कि चुनाव के बाद पार्टी नेतृत्व और विधायक मिलकर मुख्यमंत्री पद का $फैसला करेंगे। वैसे ख़ुद अनुराग ठाकुर का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए सामने आता रहा है। चुनाव के आख़िर में तो जे.पी. नड्डा का नाम भी मुख्यमंत्री पद के लिए कुछ हलक़ों में चर्चा में रहा। प्रदेश में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के लिए यह चुनाव बड़ी चुनौती हैं। उन्हें सबसे बड़ी चुनौती अपने ज़िले मंडी में ही मिल रही है, जहाँ पार्टी पिछले चुनाव में आठ में छ: सीटें जीत गयी थी।

उधर प्रदेश में विपक्ष और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मुकेश अग्निहोत्री ने ‘तहलका’ से कहा कि भाजपा सरकार के ख़िलाफ़ जबरदस्त माहौल है। लोग इसके जाने का इंतज़ार कर रहे हैं। अग्निहोत्री ने कहा कि कांग्रेस जनता के सहयोग से जबरदस्त बहुमत से सत्ता में आ रही है। निश्चित ही अगली सरकार कांग्रेस की होगी।

प्रदेश में कांग्रेस ने भी मुख्यमंत्री पद का चेहरा सामने नहीं किया। इस पद के लिए वहाँ काफ़ी जंग है। वहाँ आशा कुमारी, मुकेश अग्निहोत्री, सुखविंदर सुक्खू, कर्नल धनीराम शांडिल, कुलदीप राठौर जैसे नेता मुख्यमंत्री पद की दौड़ में शामिल हैं।

आम आदमी पार्टी के नेता और पूर्व मंत्री राजन सुशांत को किसी समय तेज़ तर्रार नेता माना जाता है। वह भाजपा से सांसद भी रहे हैं। हालाँकि ख़ुद चुनाव में उतरे सुशांत पार्टी की नैया पार लगा पाएँगे या नहीं, यही बड़ा सवाल है। उन्होंने ‘तहलका’ से कहा कि भाजपा और कांग्रेस को जनता आजमा चुकी है और उसे अब हमसे बहुत उम्मीद है। हम जिन मुद्दों के साथ जनता के बीच गये, वही जनता के असली मुद्दे हैं। हमारा मुक़ाबला भाजपा से था और हम जीत दर्ज करेंगे।

देश के पहले मतदाता का निधन

मास्टर श्याम सरन नेगी को देश के ज़्यादातर लोग नहीं जानते होंगे। लेकिन इसके बावजूद उनका नाम देश के इतिहास में हमेशा दर्ज रहेगा, क्योंकि भारत की आज़ादी के बाद देश के लिए हुए पहले चुनाव में वोट डालने वाले वे प्रथम नागरिक थे। हाल में हिमाचल के जनजातीय किनौर ज़िले के रहने वाले नेगी का 106 साल की उम्र में निधन हो गया। नेगी ने अपने पूरे जीवन में 34 बार मतदान किया, जो एक रिकॉर्ड है। वैसे देश के पहले मतदाता के रूप में उनका नाम रिकॉड्र्स में पहले से दर्ज है। स्कूल टीचर रहे नेगी का लोकतंत्र के लिए जज़्बा लाजवाब था।

हिमाचल प्रदेश में किन्नौर ज़िले के कल्पा के रहने वाले नेगी ने 33 साल की उम्र में पहली बार 1951-52 के लोकसभा चुनाव में हिस्सा लिया था, जो देश का पहला चुनाव था। दरअसल भारत का पहला चुनाव फरवरी, 1952 में हुआ; लेकिन हिमाचल में सुदूर, आदिवासी इलाकों में ख़राब मौसम के कारण सर्दियों के दौरान मतदान कराना असम्भव था। इसे देखते हुए वहाँ मतदान 23 अक्टूबर, 1951 को (पाँच महीने पहले) ही करवा लिया गया। तब श्याम शरण नेगी स्कूल अध्यापक थे और चुनाव ड्यूटी पर थे। इसके कारण वह अपना वोट डालने सुबह 7:00 बजे ही किन्नौर ज़िले के कल्पा प्राथमिक स्कूल में अपने मतदान केंद्र पर पहुँच गये।

नेगी वहाँ पहुँचकर मतदान करने वाले पहले व्यक्ति थे। इसके बाद उन्हें बताया गया कि इलाक़े में कहीं भी सबसे पहले वोट डालने वाले वह ही हैं। इस तरह एक अनोखा रिकॉर्ड उनके नाम हमेशा के लिए दर्ज हो गया। संयोग देखिए, ख़राब स्वास्थ्य के कारण उन्होंने जीवन का आख़िरी वोट भी चुनाव (12 नवंबर) से नौ दिन पहले ही पोस्टल बैलेट से डाल दिया था। वोट डालने के दो दिन बाद ही उनका निधन हो गया।

कांग्रेस में लौटेंगे आज़ाद?

ग़ुलाम नबी आज़ाद तीन महीने पहले जोश-जोश में जब कांग्रेस से बाहर गये थे, तो उन्हें अनुमान भी नहीं था कि वह जल्दी ही ख़ुद को अकेला महसूस करने लगेंगे। जम्मू-कश्मीर में उन्होंने अपनी अलग पार्टी बना ली। उसका झण्डा भी जारी कर दिया और कार्यकर्ता भी उनके साथ जुटे। लेकिन कांग्रेस में जो महत्त्व वे महसूस करते थे, वैसा अब नहीं कर रहे। उन्हें यह भी पक्का भरोसा नहीं है कि उनकी नयी-नवेली डेमोक्रेटिक आज़ाद पार्टी राज्य के भविष्य के विधानसभा चुनाव में कुछ ख़ास कर पाएगी।

आज़ाद दुविधा में हैं और इसका कारण यह है कि वह बहुत ज़्यादा धर्म-निरपेक्ष नेता हैं। उनके भाजपा के साथ जाने की बातें भले मीडिया में आती रहें; आज़ाद दिल से कांग्रेसी ही हैं। भाजपा में उन जैसे नेता को चलना लगभग असम्भव है। आज़ाद का कांग्रेस का प्रेम हाल में तब उमड़ता दिखा, जब उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा कि वह दिल से चाहते हैं कि हिमाचल प्रदेश और गुजरात के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस जबरदस्त प्रदर्शन करे और उसकी जीत हो।

वह यह कहना नहीं भूले कि ‘मैं भले ही कांग्रेस से अलग हूँ; लेकिन उसके धर्मनिरपेक्षता की नीति के ख़िलाफ़ नहीं था। इसका कारण केवल पार्टी का सिस्टम कमज़ोर होना था। अब जबकि कांग्रेस में ग़ैर-गाँधी के रूप में मल्लिकार्जुन खडग़े कांग्रेस के अध्यक्ष बन गये हैं, और पार्टी की राहुल गाँधी के नेतृत्व में भारत जोड़ो यात्रा को दक्षिण में अच्छा-ख़ासा समर्थन मिलता दिखा है। आज़ाद निश्चित ही दुविधा में हैं और हो सकता है कि अपनी नयी नवेली पार्टी का कांग्रेस में विलय करके वह फिर घर वापसी कर लें। कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर में उनके कुछ समर्थकों ने उन्हें इस तरह की सलाह भी दी है। आज़ाद का यह बयान भी ग़ौर करने लायक है कि आम आदमी पार्टी और केजरीवाल केवल दिल्ली तक सीमित हैं। पंजाब को भी वह कुशलता से नहीं चला पा रहे हैं। सिर्फ़ कांग्रेस ही है, जो भाजपा को गुजरात और हिमाचल प्रदेश चुनाव में कड़ी टक्कर दे सकती है; क्योंकि उसकी एक समावेशी नीति है।

 

निश्चित ही लगता है कि 73 साल के आज़ाद तीन महीने में ही कांग्रेस से बाहर जाकर उदास हो गये हैं और उनका कांग्रेस प्रेम फिर हिलोरे लेने लगा है। कांग्रेस में रहते हुए आज़ाद की राष्ट्रीय मीडिया में हर रोज़ चर्चा होती थी, जबकि पिछले तीन महीने में इक्का-दुक्का ही उनका नाम टीवी चैनल्स या अख़बारों में दिखा या सुना गया है। यह कहा जाता है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता फ़ारूक़ अब्दुल्ला चाहते थे आज़ाद उनके साथ जुड़ जाएँ। लेकिन आज़ाद ने इससे मना कर दिया। हालाँकि यह भी सच है कि आज़ाद कई दशक से फ़ारूक़ के नज़दीक माने जाते रहे हैं; जबकि पीडीपी नेतृत्व से आज़ाद दूर रहे हैं। जब सन् 2005 में उनकी पीडीपी के गठबंधन में सरकार बनी थी, तब भी आज़ाद मन से पीडीपी की साथ नहीं दिखते थे। आज़ाद ने जम्मू-कश्मीर में अपनी पार्टी बनाकर जिस स्तर के समर्थन की उम्मीद की थी, वह उन्हें मिलता नहीं दिखा है; भले राज्य में उन्हें एक बड़ा नेता माना जाता है। कांग्रेस से भी बहुत कम लोग उनके साथ गये। ऐसे में आज़ाद अब कांग्रेस में लौटने की सोचें, तो हैरानी की बात नहीं होनी चाहिए।