भारत की मुस्लिम बेटियां समाज का सबसे अशिक्षित वर्ग हैं, सम्मानित रोजगार में उनकी तादाद सबसे कम है, अपने ही समाज में दहेज के कारण ठुकराई जा रही हैं, गरीबी-बेरोजगारी और असंगठित क्षेत्र की शोषणकारी व्यवस्था की मजदूरी में पिस रही हैं. मुजफ्फरनगर, अहमदाबाद और सूरत दंगों में सामूहिक बलात्कार की शिकार महिलाएं सामाजिक पुनर्वास की बाट जोह रही हैं. तीन तलाक की तलवार उनकी गर्दन पर लटकती रहती है, कश्मीर की एक लाख से ज्यादा बेटियां ‘हाफ-विडो’ यानी अर्द्ध-विधवा होकर जिंदा लाश बना दी गई हैं. जब पड़ोस में तालिबान अपनी नाफरमान बेटी-बीवी को बीच चौराहे गोली से उड़ा रहा हो, जब आईएसआईएस यौन-गुलामी की पुनर्स्थापना इस्लाम के नाम पर कर रहा हो- ऐसे में वे कौन लोग हैं जो मुस्लिम महिलाओं को पंडावादी लूट, अराजकता, गंदगी और अंधविश्वास के केंद्र- मजार और दरगाह के ‘गर्भ-गृह’ में प्रवेश की लड़ाई को सशक्तिकरण और नारीवाद का नाम देकर असली लड़ाइयों से ध्यान हटा रहे हैं?
भारतीय मुस्लिम समाज में अकीदे यानी आस्था के नाम पर चल रहे गोरखधंधे का सबसे विद्रुप, शोषणकारी रूप हैं दरगाहें, जहां परेशानहाल, गरीब, बीमार, कर्ज में दबे हुए, डरे हुए लाचार मन्नत मांगने आते हैं और अपना पेट काटकर धन चढ़ाते हैं ताकि उनकी मुराद पूरी हो सके. तीसरी दुनिया के देशों में जहां भ्रष्ट सरकारें स्वास्थ्य, शिक्षा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, सामाजिक सुरक्षा जैसे अपने बुनियादी फर्ज पूरा करने में आपराधिक तौर पर नाकाम रही हैं वहीं परेशान हाल अवाम भाग्यवादी, अंधविश्वासी होकर जादू-टोना-झाड़-फूंक, मन्नतवादी होकर पंडों, ओझा, जादूगर, बाबा-स्वामी, और मजारों के सज्जादानशीं-गद्दीनशीं-खादिम के चक्करों में पड़कर शोषण का शिकार होती है. ऐसे में मनौती का केंद्र ये मजारें और दरगाह के खादिम और सज्जादानशीं मुंहमांगी रकम ऐंठते हैं. अगर कोई श्रद्धालु प्रतिवाद करे तो घेरकर दबाव बनाते हैं, जबरदस्ती करते हैं, वरना बेइज्जत करके चढ़ावा वापस कर देते हैं. जियारत कराने, चादर चढ़ाने और तबर्रुख (प्रसाद) दिलाने की व्यवस्था करवाने वाले को खादिम कहते हैं, जिसका एक रेट या मानदेय होता है. अजमेर जैसी नामी-गिरामी दरगाह में खादिमों के अलग-अलग दर्जे भी हैं, यानी अगर आप उस खादिम की सेवा लेते हैं जो कैटरीना कैफ, सलमान खान जैसे ग्लैमरस सितारों की जियारत करवाते हैं तो आपको मोटी रकम देनी होगी.
अजमेर दरगाह के आंगन में दर्जनों गद्दीनशीं अपना-अपना ‘तकिया’ सजाए बैठे हैं जिन पर नाम और पीर के सिलसिले की छोटी-छोटी तख्ती भी लगी हैं. यहां पीर लोग अपने मुरीद बनाते हैं. पीरी-मुरीदी यूं तो गुरु द्वारा सूफीवाद में दीक्षित करना होता है लेकिन असल में ये एक तरह की अंधभक्ति है जिसमे पीर अपने मुरीद का किसी भी तरह का दोहन-शोषण करता है. मुरीद जिस भी शहर या गांव का है वो वहां अपने प्रभाव-क्षेत्र में अपने पीर को स्थापित करने में लग जाता है. उनके लिए चंदा जमा करता है, उनके पधारने पर आलिशान दावतें करता है, तोहफे देता है, खर्च उठाता है.
मुरीदों की संख्या ही पीर की शान और रुतबा तय करती है. पीर पर मुरीदों द्वारा धन-दौलत लुटाने की तमाम कहानियां किवदंती बन चुकी हैं. जिस पीर के जितने धनी मुरीद उसकी साख और लाइफस्टाइल उतनी ही शानदार. दिल्ली की निजामुद्दीन दरगाह के सज्जादानशीं ख़्वाजा हसन सानी निजामी (उनसे पारिवारिक संबंध रहे हैं) ने यूं ही फरमाया था, ‘अगर मैं बता दूं कि मेरे मुरीद कितना रुपया भेजते हैं तो आंखें चुधिया जाएंगी.’ मुरीद हाथ का बोसा लेते हैं और हर बोसे पर हथेली में नोटों की तह दबा देते हैं. कहते हैं की ख्वाजा हसन सानी निजामी के पिता अपने शुरुआती दिनों में दरगाह के बाहर सड़क पर कपड़ा बिछाकर मामूली किताबें बेचा करते थे. फिर उन्हें दरगाह के अंदर की व्यवस्था में दाखिला मिल गया, और वो सज्जादानशीं बन गए, कहा जाता है कि जब वे मरे तो 30 से ज्यादा जायदादों की रजिस्ट्री छोड़ गए और निजामुद्दीन औलिया के साथ-साथ उनके भी सालाना दो-दो उर्स होने लगे, जिनमें उनके मुरीद चढ़ावा चढ़ाते हैं. ये सिर्फ एक सज्जादानशीन की मिसाल है. हर दरगाह में दर्जनों सज्जादानशीन होते हैं. आपस में चढ़ावा बांटने के लिए उनके दिन तय होते हैं. ये ‘कमाई’ सीधे उनकी जेब में जाती है. ये इतना लाभकारी धंधा है कि इसके लिए कत्ल भी हो जाते हैं.
21वीं सदी की दूसरी दहाई में जब मर्दों को भी दरगाहों से बचाना था, ताकि वो भी इस अंधविश्वास, शोषण और अराजकता से बच सकें, तब महिलाओं को शोषण में लपेटने का एजेंडा नारीवाद कैसे हुआ? मर्दों से बराबरी के नाम पर समाज में गैरवैज्ञानिकता, अंधविश्वास और शोषण को विस्तार देना नारी-सशक्तिकरण कैसे हुआ?
मुंबई की हाजी अली दरगाह एक फिल्मी दरगाह है जिसकी ख्याति अमिताभ बच्चन की फिल्म कुली से और भी बढ़ गई थी, यहां फिल्मों की शूटिंग आम बात है. पिछले कुछ सालों से वहां के मुतवल्ली (कर्ता-धर्ता) और सज्जादनशीनों ने महिलाओं को कब्र वाले हुजरे में न आने देने का फैसला किया है. उनका तर्क है, ‘कब्र में दफ्न बुजुर्ग को मजार पर आने वाली महिलाएं निर्वस्त्र नजर आती हैं, लिहाजा महिलाएं कब्र की जगह तक नहीं जाएंगी, कमरे के बाहर से ही जाली पर मन्नत का धागा बांध सकती हैं.’ जबकि भारत के शहरों में कब्रिस्तान बस्तियों के बीच ही हैं और वहां महिलाओं की आवाजाही आम बात है. अकबर, हुमायूं, जहांगीर, सफदरजंग, लोधी, चिश्ती, और गालिब तक की मजारों/मकबरों में महिलाएं बेरोक-टोक जाती हैं. दिल्ली की निजामुद्दीन औलिया की मजार पर भी जाती हैं और उत्तर भारत में स्थित सैकड़ों दरगाहों पर भी जाती हैं. सिर्फ हाजी अली दरगाह पर इस हालिया पाबंदी को वहां के कर्ता-धर्ता अब व्यवस्था बनाए रखने का मामला भी बता रहे हैं. कुल मिलाकर एक भी ढंग का तर्क सामने नहीं आया है.
ऐसे में सवाल पैदा होता है कि असल समस्याओं से जूझती मुस्लिम महिलाओं को इस नकली समस्या में क्यों घसीटा जा रहा है? वो कौन लोग हैं जिन्हें शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, तीन-तलाक, भगोड़े पति, पति की दूसरी शादी से उत्पन्न अभाव, परिवार नियोजन का अभाव, जात-पात, दहेज, दंगों में सामूहिक बलात्कार जैसी भयानक समस्याओं के निराकरण के बजाए हाजी अली दरगाह के गर्भ-गृह में दाखिले को मुस्लिम महिलाओं का राष्ट्रीय मुद्दा बनाने की सूझी है? इस मुहिम के कानूनी खर्च जो महिला एनजीओ उठा रहे हैं उनकी फंडिंग कहां से होती है? तीसरी दुनिया के देशों में जमीन से जुड़े जन आंदोलनों को एनजीओ द्वारा आर्थिक लाभ देकर भ्रष्ट करने के कई मामले जगजाहिर हैं. क्या अब भारतीय मुसलमान भी इनकी निगाहों में चढ़ चुका है?
कुछ मंदिरों में स्त्री-प्रवेश का संघर्ष हिंदू-महिलाएं कर रही हैं इसलिए नकल करना जरूरी हो गया चाहें ये कितना भी आत्मघाती, पोंगापंथी और वाहियात क्यों न हो? क्या मुस्लिम महिलाएं समाज में मौजूद ऐसी बुराइयों को खत्म करने की लड़ाई लड़ने के बजाय उन्हें बढ़ावा देंगी? बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के जिस संविधान से मुस्लिम महिलाएं बराबरी के हक के नाम पर ये पोंगापंथ को अपनाने का आग्रह कर रही हैं, उन्हीं आंबेडकर ने मंदिर प्रवेश के संघर्ष को बेकार बताते हुए मंदिर-पुजारी व्यवस्था से किनारा करने की बात कही थी और बेहतर शिक्षा और आर्थिक खुशहाली पर बल दिया था
21वीं सदी की दूसरी दहाई में जब मर्दों को भी दरगाहों से बचाना था, ताकि वो भी इस अंधविश्वास, शोषण और अराजकता से बच सकें, तब महिलाओं को शोषण में लपेटने का एजेंडा नारीवाद कैसे हुआ? मर्दों से बराबरी के नाम पर समाज में गैरवैज्ञानिकता, अंधविश्वास और शोषण को विस्तार देना नारी-सशक्तिकरण कैसे हुआ? दरगाहों पर श्रद्धालु बनकर खुद का शोषण करवाने की होड़ बताती है कि एनजीओ सेक्टर में सक्रिय ये मुस्लिम महिलाएं असली और छद्म मुद्दों में फर्क भी नहीं जानती हैं? क्योंकि कुछ मंदिरों में स्त्री-प्रवेश का संघर्ष हिंदू-महिलाएं कर रही हैं इसलिए नकल करना जरूरी हो गया चाहें ये कितना भी आत्मघाती, पोंगापंथी और वाहियात क्यों न हो? क्या मुस्लिम महिलाएं समाज में मौजूद ऐसी बुराइयों को खत्म करने की लड़ाई लड़ने के बजाय उन्हें बढ़ावा देंगी? बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के जिस संविधान से मुस्लिम महिलाएं बराबरी के हक के नाम पर ये पोंगापंथ को अपनाने का आग्रह कर रही हैं, उन्हीं आंबेडकर ने मंदिर प्रवेश के संघर्ष को बेकार बताते हुए मंदिर-पुजारी व्यवस्था से किनारा करने की बात कही थी और बेहतर शिक्षा और आर्थिक खुशहाली पर बल दिया था जिससे व्यक्ति समाज में सम्मानीय स्थान पाता है.