वर्ष 2014 इतिहास के बर्बर कोने में अपना स्थान सुरक्षित कर चुका है. जब यह अंक आपके हाथों में होगा, तब लोगों की स्मृतियों पर पाकिस्तान के पेशावर शहर में मानवता को तार-तार करने वाली आतंकी वारदात का कब्जा होगा. बीतते-बीतते यह साल निरीह बच्चों के साथ आधुनिक काल की मध्ययुगीन निर्ममता का गवाह बना. इस नैराश्य के वातावरण में भी तहलका हमेशा की भांति नए वर्ष का पहला अंक एक विशेषांक के तौर पर अपने पाठकों के सामने ला रहा है. प्रचलित मान्यता तो यही कहती है कि इतनी बड़ी दुर्घटना के बाद यह समाचार ही सर्वाधिक प्रमुखता से पत्रिका में प्रकाशित होना चाहिए था. ऐसा न होना किसी को भी अटपटा लग सकता है. लेकिन अपने थोड़े से जीवनकाल में तहलका ने इस तरह के पारंपरिक सांचों को तोड़ने से कभी भी परहेज नहीं किया है. इसका मकसद घटना की गंभीरता को कम करना या नजरअंदाज करना नहीं है. इसके पीछे मौजूदा समय की नकारात्मकता और अंधियारे का सामना जीवन और उल्लास से करने की सोच-भर है. अंतत: यही वह नुस्खा है जो चौतरफा फैलते जा रहे आतंकवाद के खतरे से निपटने का रास्ता दिखा सकता है.
जब यह साल अपनी सबसे बर्बर घटना के लिए इतिहास में जगह मुकर्रर करने की कोशिश कर रहा था, तब तहलका ने इस साल से जुड़े कुछ उजास के कोने अपने पाठकों के सामने रखने की कोशिश की है. यह वर्ष भारत और दुनिया के इतिहास के कुछ दुर्लभ व्यक्तित्वों, परिवर्तनकारी घटनाओं और संस्थाओं का महत्वपूर्ण पड़ाव रहा है. इस लिहाज से यह अंक अपनी परंपरा, इतिहास और जड़ों से जुड़ने का जरिया भी है.
2013 में तहलका हिंदी पत्रिका ने अपनी स्थापना के पांच वर्ष पूरे किए थे. इस अवसर पर प्रकाशित पांच वर्ष की प्रतिनिधि कथाएं नामक अंक पाठकों के बीच बेहद लोकप्रिय रहा था. यह अंक पांच वर्ष की यात्रा में तहलका द्वारा अर्जित उपलब्धियों से रूबरू होने का जरिया भी बना. विशेषकर तब जब बीता कुछ समय उठापटक से भरा रहा था. यह अफवाहें बार-बार सुनने को मिलीं कि तहलका बंद हो चुका है. लेकिन इन अफवाहों ने छोटी-सी टीम के हौसले को तोड़ने की बजाय उसे एक बार फिर से खुद को साबित करने के लिए प्रेरित किया- उन्हीं जमीनी रिपोर्टों, धारदार लेखों, बारीक विश्लेषणों के जरिए जो अतीत में तहलका की पहचान रही हैं. यह वह समय था जब वापसी करने की आसान राह के तौर पर सेक्स सर्वे से लेकर शानदार रेस्त्रां और अभिजात्य खानपान की तरफ रुख किया जा सकता था, लेकिन तहलका ने फिर से कठिन राह चुनी. इसका सबूत पिछले कुछ समय में आई वे रपटें और कहानियां हैं जिनके आधार पर आप तहलका का आकलन कर सकते हैं. असम राइफल्स में व्याप्त भ्रष्टाचार की कहानी हो, जेट एयरवेज द्वारा रसूखदार लोगों को पहुंचाई जा रही वीआईपी सुविधाओं का खुलासा हो, महिलाओं के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करते आइवीएफ कारोबार का कच्चा चिट्ठा हो या बिहार में हाल के दिनों में दलितों के साथ अनपेक्षित रूप से बढ़ी जातिगत हिंसा. इस दौरान राजनीति, फिल्म, कला और संस्कृति जगत की तमाम हस्तियों ने भी अपनी बात तहलका के माध्यम से रखी है.
इस अंक का विचारसूत्र यह है कि वर्ष 2014 का देश और दुनिया के इतिहास से अनूठा संबंध है. इसी साल आधुनिक भारत के रचयिता पंडित जवाहरलाल नेहरू की 125वीं जयंती पूरे देश ने मनाई, यह सुर साम्राज्ञी बेगम अख्तर की जन्मशती का वर्ष भी है, हिंदी साहित्य में प्रगतिशीलता के प्रखर स्तंभ गजानन माधव मुक्तिबोध के निधन की यह 50वीं बरसी है. देश में मार्क्सवादी मार्का राजनीति भी इसी साल 50वें वर्ष में प्रवेश कर गई है. देश के अवचेतन पर गहरी छाप छोड़ने वाली भोपाल गैस त्रासदी और भागलपुर के दंगे भी किसी न किसी रूप में इस साल अहम रहे हैं. यह साल अंतरराष्ट्रीय घटनाओं के लिहाज से भी महत्वपूर्ण रहा. बर्लिन की दीवार गिरने का ऐतिहासिक अवसर भी इस साल अपने 25 वर्ष पूरे कर चुका है.
यह अंक उन सारी ऐतिहासिक घटनाओं, इतिहास के पड़ावों और उसे नई दिशा देने वाली विभूतियों के छुए-अनछुए पहलुओं से साक्षात्कार का प्रयास है, और अंत में इसकी सफलता-असफलता का निर्णय आप लोगों के ऊपर है जो पत्रिका के इस पड़ाव तक पहुंचने के साक्षी रहे हैं.