बातचीत के दौरान वर पक्ष को जब ये पता चला कि हमारा कोई बेटा नहीं तो उन्होंने फोन उठाना ही बंद कर दिया…

aapbitiIllustrationweb एक साथ दो तरह की दुनिया में जीने के लिए मैं अभिशप्त हूं. एक विवाह से पहले की दुनिया, जहां मेरा जन्म हुआ, पढ़ाई-लिखाई के साथ मेरा बचपन बीता और दूसरी यानी विवाह के बाद की दुनिया. मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के बरेली जिले के एक छोटे-से कस्बे बहेड़ी में एक सुखी-संपन्न और समृद्ध व्यापारी परिवार में हुआ था, जहां मुझे हर सुख-सुविधा मिली हुई थी. मैं पढ़-लिख रही थी लेकिन पढ़ाई-लिखाई को लेकर परिवार का दृष्टिकोण बहुत पुरातन और संकीर्ण था. लड़काें को ज्यादा क्या पढ़ाना-लिखाना क्योंकि उन्हें तो विरासत में मिले व्यवसाय को संभालना है और लड़कियों को बस इतना पढ़ाना चाहिए कि किसी अच्छे घर में उनकी शादी हो जाए. यानी दोनों के लिए मैट्रिक या ग्रैजुएशन की शिक्षा के आगे कोई गुंजाइश नहीं थी. तब के समाज में पारिवारिक मर्यादा का उल्लंघन करना कम से कम किसी लड़की के लिए भारी पड़ सकता था. मैं पढ़ने-लिखने में न सिर्फ बहुत अच्छी थी बल्कि बहुत महत्वाकांक्षी भी थी. पढ़ाई ही मेरा सपना था. पारिवारिक विरोध के बावजूद मैंने एमए की पढ़ाई प्रथम श्रेणी में पूरी की. एमए की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास होने के बाद परिवार के वे लोग जिन्होंने मेेरी उच्च शिक्षा का विरोध किया था वही गर्व के साथ पूरे कस्बे के लोगों को यह बात बता रहे थे. मैं थोड़ी जिद्दी भी थी और अपनी महत्वाकांक्षा को परवान चढ़ाने के लिए मैं यूपीएससी की परीक्षा में बैठ गई वह भी बिना किसी तैयारी के. परिवार के लोगों ने मेरा मजाक बनाते कहा- अब यह कलेक्टर-कमिश्नर बनकर रहेगी. होना-जाना कुछ नहीं था क्योंकि मेरी तो कोई तैयारी ही नहीं थी.

समाज के एक वर्ग की सोच मध्यकाल की है. ऐसी स्थिति में अगर कोई लड़की कुंवारी ही रहना पसंद करे तो हैरानी नहीं होगी

खैर, इसके बाद मेरी शादी करवाने को लेकर परिवार में बहस शुरू होने लगी. उच्च शिक्षा के लिए बेशक मैंने अपने परिवार से विद्रोह किया लेकिन शादी के लिए नहीं क्योंकि तब के परिवार और समाज में कुछ पारंपरिक मर्यादा के मूल्य बचे हुए थे. माता-पिता ही अपने बच्चों की शादी का निर्णय लिया करते थे, उनके भविष्य को ध्यान में रखते हुए मैंने शादी के लिए ‘हां’ कर दी. फिर अल्मोड़ा में मेरी शादी तय हुई और पहली दुनिया की मान-मर्यादा, गरिमा और सामाजिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए मैं शादी के बाद मैदान से एक पहाड़ी इलाके में पहुंच गई. सुखी-संपन्न घर-परिवार और अच्छा पति मिला. ससुराल में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई. इसके बाद अपनी दोनों बेटियाें- मानसी और सांची को हमने खूब पढ़ाया-लिखाया ही नहीं बल्कि उन्हें इस काबिल भी बनाया कि हमें उन पर गर्व है. बड़ी बेटी मानसी दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हाउस से बीएससी आॅनर्स और सेंट स्टीफेंस से एमएससी करने के बाद आईआईटी दिल्ली से भौतिक विज्ञान में पीएचडी कर रही है तो छोटी बेटी सांची अभी बीए एलएलबी आॅनर्स. अब मेरे सामने दूसरी दुनिया का भयावह चेहरा सामने आने वाला था, जिसे देखने के बाद मैं हैरान रह गई थी. पिछले कुछ दिनों से मैं मानसी की शादी के लिए कोशिश कर रही हूं. मेट्रिमोनियल कॉलम के अलावा कड़ी मशक्कत के बाद कई जगह बात हुई. पिछले दिनों एक वर पक्ष के माता-पिता ने जब मुझसे पूछा- ‘क्या आपका कोई बेटा नहीं है?’ मेरे ‘न’ कहने पर उन्होंने फिर बातचीत ही नहीं की. यही नहीं, उन लोगों ने अपना फोन तक बंद कर दिया. मुझे तब और हैरानी हुई जब एक प्रतिष्ठित अखबार के वैवाहिक कॉलम में देखा कि एक वर पक्ष ने यह शर्त रखी है कि लड़की का भाई होना जरूरी है.’ यह सीधे-सीधे हमारे संविधान पर हमला था. यह सोचकर मैं परेशान हूं कि अब जो दुनिया मेरे सामने है उसकी मानसिकता तेजी से किस तरह बदल गई है. यह दूसरी दुनिया का एक डरावना सच है, जिससे मेरा सामना हुआ. क्या केवल बेटियों की मां होना गुनाह है? इस पर तो किसी का वश नहीं, यह तो प्रकृति का नियम है. यह स्थिति चिंताजनक है. सिर्फ मेरे लिए ही नहीं बल्कि पूरे समाज के लिए क्योंकि इसमें वर्ग या वर्ण के भीतर भी एक संकीर्ण और कुंठित ऐसा समाज है जिसकी मानसिकता में महिलाओं के लिए कोई सम्मान नहीं है. वे उसे परिवार में लड़का होने के वजन पर तौलते हैं. क्या यह बताने की जरूरत है कि 21वीं सदी के एक वर्ग की मानसिकता मध्यकाल की है? मुझे हैरानी नहीं होगी अगर कोई लड़की ऐसी स्थिति में आजीवन कुंवारी ही रहना पसंद करे. 

(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय के कमला नेहरू कॉलेज में प्रोफेसर हैं)